असम Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/असम/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 25 Dec 2024 05:57:28 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 नामेरी राष्ट्रीय उद्यान और बाघ अभयारण्य, असम – भारत के राष्ट्रीय उद्यान https://inditales.com/hindi/nameri-rashtriya-udyan-assam/ https://inditales.com/hindi/nameri-rashtriya-udyan-assam/#respond Wed, 25 Dec 2024 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=650

अरुणाचल प्रदेश जाते समय हमने नामेरी राष्ट्रीय उद्यान की पहली झलक देखी थी, लेकिन उस समय हम उसके दर्शन नहीं कर पाए थे। बाद में अरुणाचल से वापस आते समय जब हम रास्ते में स्थित पर्यावरण शिविर में रुके थे, तब कई बार हमे इस उद्यान की अनेक झलकियाँ देखने को मिली। नामेरी राष्ट्रीय उद्यान   […]

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अरुणाचल प्रदेश जाते समय हमने नामेरी राष्ट्रीय उद्यान की पहली झलक देखी थी, लेकिन उस समय हम उसके दर्शन नहीं कर पाए थे। बाद में अरुणाचल से वापस आते समय जब हम रास्ते में स्थित पर्यावरण शिविर में रुके थे, तब कई बार हमे इस उद्यान की अनेक झलकियाँ देखने को मिली।

नामेरी राष्ट्रीय उद्यान  

अरुणाचल जाते वक्त हमे रास्ते में एक खोदे हुए मार्ग से गुजरना पड़ा था, जिस पर से जाते समय मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे हम किसी रोलर कोस्टर की सवारी पर बैठे हो। अरुणाचल से जुड़ा यह मेरा पहला यादगार पल था। इसी बीच अचानक से एक हाथी ने आकर हमारा रास्ता रोक दिया और अपनी सूंढ से गाड़ी-चालक की खिड़की खटखटाने लगा। मैं उत्सुकतापूर्वक यह सब देखती रही।

नामेरी राष्ट्रीय उद्यान में जिया भोरोली नदी
नामेरी राष्ट्रीय उद्यान में जिया भोरोली नदी

हमारे चालक ने अपनी खिड़की का काँच नीचे किया और उस हाथी को 10 रूपय का नोट दे दिया और पैसे लेकर वह हाथी दूसरी गाड़ी की ओर बढ़ गया। उसके जाने के बाद हमारे चालक ने हमे बताया कि जब तक आप इन हाथियों को पैसे नहीं देते तब तक वे आपको आगे बढ़ने नहीं देते। वैसे कहा जाए तो यह एक प्रकार का हाथी कर ही है। जाहीर है कि उनके मालिकों ने उन्हें इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया होगा।

जो भी यहाँ पर पहली बार आता है, उसके लिए यह सबकुछ बहुत ही मनोरंजक होता है। क्योंकि अचानक से किसी हाथी का इस प्रकार से गाड़ी के पास आकर शहरों की सड़कों पर मिलनेवाले भिखारियों की तरह या फिर शायद पुलिस वालों की तरह व्यवहार करना कुछ अजीब सा है।

नामेरी पर्यावरण शिविर   

वापस आते समय जब तक हम भालुकपोंग पार कर चुके थे हम सब एक लंबी यात्रा के कारण काफी थक चुके थे और रात भी अपनी काली चादर ओढ़ते हुए दस्तक देने लगी थी। ऐसे में यहाँ की सुनसान सड़कों पर सफर करना थोड़ा खतरनाक हो सकता था। थोड़ा आगे जाने के बाद हमे रास्ते में नामेरी पर्यावरण शिविर का एक तख़्ता दिखा और हमने वहाँ पर जाने का निश्चय कर लिया। शुक्र है कि यह पर्यटन का मौसम नहीं था, जिसकी वजह से हमे यहाँ पर रहने की जगह मिल गयी और हम सब रात को यहीं पर रुक गए।

पर्यावरण शिविर एक ऐसी जगह है जहां पर कोई भी निसर्ग प्रेमी जरूर रहना पसंद करेगा। लेकिन एक बात है कि यहाँ पर भिनभिनानेवाले मच्छरों से आपको अपनी रक्षा स्वयं ही करनी पड़ती है। यहाँ पर बहुत ही सुंदर झोपड़ियाँ और तम्बू हैं और उन्हीं से जुड़कर उनके स्नानकक्ष बनवाए गए हैं। इनके पास ही एक खुला मैदान है जहाँ पर लकड़ी के लट्ठों से बनी बैठकें और रंगबिरंगी झूले हैं। यहाँ पर एक भोजनालय भी है जहाँ पर साधारण लेकिन पौष्टिक भोजन परोसा जाता है। इस भोजनालय में यहाँ-वहाँ उद्यान से जुड़ी जानकारी प्रदर्शित की गयी है। यह संपत्ति किसी पुरानी मछली पकड़ने वाली समिति की है जो आज भी यहाँ से संचालित होती है।

जंगलों की सैर

दूसरे दिन सुबह-सुबह हम सब चलते हुए जिया–भोरोली नदी (और उसकी उप-नदियां यानी डीजी, दिनाई, डोईगुरुंग, नामेरी, डिकोराइ, खारी आदि) के किनारे चले गए जो नामेरी राष्ट्रीय उद्यान से आड़े-तिरछे तरीके से होते हुए गुजरती है। यहाँ पर एक कीचड़वाला मार्ग है, जिसमें बने हुए पैरों के निशान ये साफ बता रहे थे कि अभी कुछ घंटों पहले ही यहाँ से एक हाथी गुजरा था।

हमे इसी मार्ग के आधार पर आगे बढ़ने के लिए कहा गया था और जंगल में जाने से मना किया गया था। हमने हमारे गाइड की इस सलाह का पूरी तरह से पालन किया। इतनी सुबह-सुबह नदी का यह पूरा नज़ारा सचमुच बहुत ही सुखदायक था। कलकल बहता हुआ नदी का साफ नीला पानी, किनारे पर पड़े हुए पत्थर, नदी पार करती हुई एक नाव और वहाँ पर मौजूद कुछ लोग। यह सबकुछ जैसे किसी खूबसूरत सपने की भांति लग रहा था।

ऐसे वातावरण में नदी के किनारे किसी बड़े से पत्थर पर बैठकर पानी में पाँव डुबोना और बालों के साथ खेलती ठंडी हवा का आनंद लेना, ये सारे पल जैसे इस पूरी यात्रा को और भी खूबसूरत बना रहे थे। यहाँ पर आकर आप जैसे अपनी सारी मुश्किलें भूल जाते हैं और सिर्फ इस मंत्रमुग्ध कर देनेवाले वातावरण में खो जाना चाहते हैं और इस पल को पूरी तरह से जीना चाहते हैं। अगर आपकी किस्मत अच्छी हुई तो आपको नदी के उस पार कुछ जंगली जानवर भी दिखाई दे सकते हैं। इस वक्त मुझे अपनी दूरबीन की बहुत ज्यादा याद आ रही थी। ये पल मेरी पूरी उत्तर पूर्वीय भारत की यात्रा के सबसे शांतिपूर्ण और यादगार पल थे।

उद्यान और आस-पास के जगहों की सैर   

आपको इस उद्यान के आस-पास की जगहें जरूर देखनी चाहिए। वहाँ पर एक छोटा सा मंदिर है जो एक सुंदर से पेड़ की छाया में खड़ा है। उज्वलित लाल रंग का यह पेड़ यहाँ के पूरे हरे-भरे परिदृश्य को और भी आकर्षक बनाता है। यहाँ पर एक मत्स्य पालन केंद्र भी है जहाँ पर मछलियों की नयी-नयी जातियों को लाकर उनका पोषण किया जाता है। इसी के साथ उन मछलियों पर संशोधन भी किया जाता है और फिर उसका दस्तावेजीकरण किया जाता है। बाद में संशोधन पूर्ण होने के पश्चात इन मछलियों को नदी में छोड़ दिया जाता है।

यहाँ पर रंगबिरंगी तितलियाँ और पक्षी भी हैं जो आपको उन्हें अपने कैमरे में कैद करने के लिए लुभाते हैं, लेकिन वे इतनी आसानी से आपकी पकड़ में नहीं आते। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक आवासशाला भी है जो 12-15 लोगों एक साथ अपनी छत्रछाया में ले सकता है, ताकि लोगों को कोई असुविधा ना हो। पर्यटन के मौसम में आप चाहे तो यहाँ पर रिवर राफ्टिंग के लिए जा सकते हैं, मछली भी पकड़ सकते हैं और वहाँ के जंगली प्राणियों को देखने के लिए आरक्षित क्षेत्रों में भी जा सकते हैं।

मुझे तो लगता है कि वन्यजीवन के सरगर्मों को एक बार तो नामेरी राष्ट्रीय उद्यान जरूर जाना चाहिए।

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पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य: अनछुए रहस्यों से भरे असम के घास के मैदान https://inditales.com/hindi/pobitra-vanya-prani-abhyaranya-assam/ https://inditales.com/hindi/pobitra-vanya-prani-abhyaranya-assam/#comments Wed, 04 Sep 2024 02:30:38 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3676

जब चंचल वर्षा विनाश करने पर उद्धत हो जाती है, जिसके कारण जब असम जलमग्न हो जाता है, मैं असहाय सी, यहाँ के स्थानिकों की स्थिति पर विचार करने पर विवश हो जाती हूँ। वहीं शीत ऋतु का वातावरण अत्यंत अनुकूल रहता है। शीत ऋतु में यहाँ साधारणतः किसी भी प्रकार के प्राकृतिक विपदा की […]

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जब चंचल वर्षा विनाश करने पर उद्धत हो जाती है, जिसके कारण जब असम जलमग्न हो जाता है, मैं असहाय सी, यहाँ के स्थानिकों की स्थिति पर विचार करने पर विवश हो जाती हूँ। वहीं शीत ऋतु का वातावरण अत्यंत अनुकूल रहता है। शीत ऋतु में यहाँ साधारणतः किसी भी प्रकार के प्राकृतिक विपदा की आशंका लगभग नगण्य रहती है। इस लेख की रचना करते समय मेरी स्मृतियाँ मुझे मेरे भूतकाल की ओर ले जा रही हैं जब मुझे असम के इस मनोरम पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य में विचरण करने का अवसर प्राप्त हुआ था, जो मध्य से बहती तेजस्वी ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा पोषित होती है।

पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य – भारतीय गेंडों का प्राकृतिक आवास

गुवाहाटी विमानतल पर उतरने के पश्चात पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य पहुँचने के लिए हमने एक वाहन का प्रबंध किया। वहाँ पहुँचने के लिए हमें लगभग तीन घंटों का समय लगा। असम के मोरीगांव जिले में स्थित यह अभयारण्य ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है। यद्यपि सम्पूर्ण असम को भारतीय गेंडों का प्राकृतिक आवास माना जाता है, तथापि पोबितोरा उन कुछ क्षेत्रों में से एक है जहाँ गेंडों की संख्या सर्वाधिक है।

पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य – भारतीय गेंडों का आवास
पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य – भारतीय गेंडों का आवास

पोबितोरा पहुँचकर हमने गाँव में स्थित एक सर्वानुकूल विश्रामगृह में अपना पड़ाव डाला जो अभयारण्य के प्रवेशद्वार के निकट स्थित था। साधारणतः पर्यटक पोबितोरा अभयारण्य का त्वरित अवलोकन कर उसी दिवस काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की ओर कूच कर जाते हैं। किन्तु हम इस अभयारण्य का पूर्ण आनंद उठाते हुए मंद गति से विस्तृत अवलोकन करना चाहते थे। केवल अभयारण्य ही नहीं, अपितु देहाती परिवेश में निसंकोच रहते हुए विशाल वृक्षों एवं सरसों के खेतों से घिरे इस ग्रामीण रिसोर्ट का भी भरपूर्ण आनंद उठाना चाहते थे। इसी कारण हमने यहाँ कुछ दिवस व्यतीत करने का निश्चय किया।

अवश्य पढ़ें: एक सींग वाले भारतीय गैंडे का घर – काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, असम

असम के पोबितोरा राष्ट्रीय उद्यान का अवलोकन

यदि आप किसी अन्य राज्य से असम यात्रा पर आ रहे हैं तो मेरा सुझाव है कि आप पोबितारा वन्यप्राणी अभयारण्य का अवलोकन सप्ताहांत में ना करें, अपितु मध्य सप्ताह के दिवसों में ही करें। सप्ताहांत में यह अभयारण्य बहुधा स्थानीय दर्शनार्थियों से भरा रहता है।

जब तक हम अपने रिसोर्ट पहुँचे, मध्यान्ह हो चुका था। हमने असम के भिन्न भिन्न व्यंजनों से भरी थाली का भरपूर्ण आस्वाद लिया तथा छज्जे पर दो कुर्सियाँ डालकर बैठ गए। वहाँ से समक्ष स्थित अप्रतिम उद्यान के उत्तम परिदृश्यों का आनंद उठाने लगे।

देखते देखते सूर्यास्त का समय आ गया था। कच्चे पथ पर धूल उड़ाती कुछ गौमाताएं एवं बकरियां अपने अपने आवासों की ओर प्रस्थान कर रही थीं। अन्धकार छाते ही चारों ओर का परिदृश्य पूर्णतः परिवर्तित हो गया था। प्रकृति का एक अनोखा रूप समक्ष उभर रहा था। सूर्य के तेजस्वी प्रकाश का स्थान अब दूर टिमटिमाते प्रकाश ने ले लिया था। चारों ओर से उठती अपरिष्कृत ध्वनी कानों में गुंजायमान हो रही थी। चारों ओर झींगुरों का कोलाहल था। एक ओर कहीं दूर किसी एकांत खलिहान में बैठा उल्लू चीख चीख कर अपनी उपस्थिति दर्शा रहा था। मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ऐसे वातावरण का आनंद उठा रही थी जो नगरी परिवेश में दुर्लभ होता है।

हमारे विश्राम गृह के बाहर संकरी गली के अंत में एक दुकान थी। हमने निश्चय किया कि उस दुकान में कुछ क्षण व्यतीत किया जाए। लेकिन जैसे ही हम वहाँ जाने के लिए विश्राम गृह से बाहर निकले, विश्राम गृह का एक कर्मचारी पूर्ण आवेग से हमारी ओर दौड़ा। वह आवेशपूर्ण कुछ संकेत भी कर रहा था। हमारे निकट पहुँचते ही उसने हमें विश्राम गृह से बाहर जाने से रोका तथा अन्धकार में बाहर विचरण करने पर उत्पन्न संकटों के विषय में आगाह किया। उन्होंने हमें बताया कि रात्रि में जंगली भैंसें तथा गेंडे विचरण करते हुए वन के बाहर तक आ जाते हैं। ताजी हरी दूब को ढूँढते हुए वे मानवी आवासों तक पहुँच जाते हैं। गेंडे यदि आक्रामक हो जाएँ तो हमारे लिए संकट उत्पन्न कर सकते हैं। जंगली भैसों ने तो अब तक अनेक गाँववासियों पर आक्रमण कर उनके प्राण ले लिए हैं। इसलिए वह हमें अरक्षित रूप से बाहर जाने नहीं देना चाहता था। वह लालटेन के प्रकाश में हमें दुकान तक ले गया तथा हमारे लिए दुकान भी खोल दी।

अवश्य पढ़ें: असम का नामेरी राष्ट्रीय उद्यान एवं बाघ संरक्षण अभयारण्य

गाँव में पदभ्रमण

दूसरे दिवस हम प्रातः शीघ्र उठ गए थे। आसपास के परिदृश्यों का अनुभव जो लेना था। हमारा प्रयास सफल भी हुआ। चित्ताकर्षक परिदृश्यों का अनुभव हमें भावविभोर कर रहा था। निर्मल वायु, प्रातःकालीन सूर्य, सरसों के विस्तृत खेत आदि सब ग्रामीण परिवेश में हमारे पदभ्रमण को अद्वितीय बना रहे थे।

घुमक्कड़ी करते करते हम दूर तक आ गए थे। थकान एवं भूख अपने रंग दिखा रहे थे। अंततः हम अपने विश्राम गृह की ओर वापिस मुड़े। पहुँच कर जलपान किया। कुछ घंटे विश्राम कर, दोपहर के पश्चात सफारी के लिए प्रस्थान किया। सप्ताहांत नहीं होने के कारण पर्यटकों की संख्या सीमित थी।

हमारा सौभाग्य था कि हमारा जीप चालक ना केवल एक प्रशिक्षित वाहन चालक था, अपितु उसे अभयारण्य एवं वन्यप्राणियों के विषय में गहन ज्ञान भी था। अवसर पाते ही मैंने उससे पर्याप्त जानकारी एकत्र की। यह अभयारण्य ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है। इस अभयारण्य की पारिस्थितिकी मूलतः घास के मैदानों, आर्द्रभूमि के क्षेत्रों तथा भिन्न भिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों द्वारा निर्मित है।

भारतीय गेंडे

यह अभयारण्य पर्यटकों के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है। प्रवेश के लिए टिकट वहाँ पहुँचकर लिया जा सकता है। इन्टरनेट द्वारा पूर्व आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। किन्तु उच्च पर्यटन काल में समय से पूर्व टिकट क्रय कर अपना स्थान आरक्षित करना उचित होगा।

गेंडों को निकट से देखने का अनुभव प्राप्त करना हो तो आप हाथी पर बैठकर सफारी कर सकते हैं। एक ओर जहाँ सफारी की जीपें सड़क पर ही रहती हैं, हाथी सड़क से नीचे उतरकर ऊँचे ऊँचे घास को रोंदते हुए वन के भीतरी क्षेत्रों तक पहुँच जाते हैं। इससे पर्यटकों को भीतरी क्षेत्रों में विचरण करते गेंडों को समीप से निहारने का अवसर प्राप्त हो जाता है।

हमने जीप द्वारा सफारी करने का निश्चय किया। असम के अन्य राष्ट्रीय उद्यानों के विपरीत यहाँ हमें सशस्त्र परिदर्शक प्रदान नहीं किया गया था। इसलिए हमें किंचित भय प्रतीत हो रहा था क्योंकि गेंडों द्वारा सफारी जीपों पर आक्रमण की अनेक घटनाएँ यहाँ भी देखी गयी हैं। ऐसी परिस्थिति में सफारी परिदर्शक अपनी बन्दूक से आकाश में गोली दागते हैं जिससे वन्यप्राणी भयभीत होकर दूर भाग जाते हैं।

इन सभी विचारों को मस्तिष्क से दूर करते हुए हमने सफारी पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उबड़-खाबड़, कच्चे व संकरे मार्गों पर वाहन चलाते हुए हमारा वाहन चालक हमें वन के भीतरी क्षेत्र में ले गया।

जीप सफारी

इससे पूर्व हम भारत के अनेक राष्ट्रीय उद्यानों में विस्तृत रूप से भ्रमण कर चुके थे। इसलिए हमें वन के भीतर पाले जाने वाले सभी नियमों की पूर्ण जानकारी थी। उन सभी नियमों का पालन करते हुए हमने केवल अपने नेत्र एवं कान सक्रिय रखे तथा वन में वन्य प्राणियों को ढूँढने लगे।

एक वृक्ष के शीर्ष पर एक कलगीदार परभक्षी चील(Crested Serpant Eagle) बैठी हुई थी। वह सक्रिय मुद्रा में बैठी अपनी भेदक दृष्टि किसी शिकार पर गड़ाये हुए थी। कदाचित आक्रमण की योजना बना रही थी। अतिदक्षता का पालन करते हुए मैंने चुपके से अपना कैमरा उठाया। किन्तु उसे मेरी चाल का पूर्वाभास हो गया तथा त्वरित गति से मेरे नेत्रों से ओझल हो गयी।

कुछ क्षणों पश्चात हमारी जीप सुन्दर घास के मैदान के मध्य से जाने लगी। आगे जाकर यह मैदानी क्षेत्र संकुचित होते हुए संकरे मार्ग में परिवर्तित हो गया। इस मार्ग द्वारा हमने सघन वन के भीतर प्रवेश किया। मार्ग में हमने अनेक हिरणों को यहाँ-वहाँ कुलाँचे मारते देखा।

इस अभयारण्य के भीतर अनेक जल-स्त्रोत हैं जहाँ पशु-पक्षी अपनी तृष्णा शांत करने के लिए आते हैं। कुछ सरोवरों पर जंगली भैंसों ने अपना पूर्ण अधिपत्य स्थापित कर रखा था। उनके आक्रामक रौद्र रूप से भयभीत होकर वन के अन्य प्राणी उनसे दूरी बनाए रखते हैं।

हम अभयारण्य की सुन्दरता एवं वन्य प्राणियों को ढूँढने में मग्न हो गए थे। अकस्मात् ही हमारे वाहन चालक ने वाहन को रोका। समीप ही कोई वन्य प्राणी उपस्थित था। हमने अपनी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई। हमारे समक्ष विशालकाय शक्तिशाली एकल श्रृंगी गेंडा आकर खड़ा हो गया।

वन्यप्राणी

पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य में गेंडों के अतिरिक्त जंगली सूअर, जंगली भैंसे, कांकड़(Barking Deer), भारतीय तेंदुए, सुनहरा गीदड़ जैसे अनेक वन्य प्राणी भी निवास करते हैं। भोजन एवं प्राकृतिक आवास द्वारा घास के ये विस्तृत मैदानी क्षेत्र उनका पोषण करते हैं। हमें जानकारी दी गयी कि पोबितोरा राष्ट्रीय उद्यान में गेंडों की संख्या अत्यधिक हो जाने के कारण कुछ गेंडों को असम के ही मानस राष्ट्रीय उद्यान में स्थानांतरित किया गया है।

विस्तृत घास के मैदानों, असंख्य जलस्त्रोतों तथा ऊँचे ऊँचे वृक्षों से अलंकृत पोबितोरा राष्ट्रीय उद्यान हमारे नेत्रों एवं हृदय को सुख प्रदान कर रहा था। किंचित दूर से ही सही, गेंडों के दर्शन करने के पश्चात हमारी अतृप्ति बढ़ने लगी थी। पोबितोरा राष्ट्रीय उद्यान में साम्राज्य तो गेंडों का ही है। अतः इन्हें निकट से देखने की अभिलाषा बलवत्तर होती जा रही थी।

अकस्मात् ही हमारे समक्ष एक विशालकाय गेंडा प्रकट हो गया। वह नम भूमि को सींग से खोदते हुए कुछ ढूंढ रहा था। हमारी जीप उसके निकट जाने लगी। चूँकि वह अपने क्रियाकलाप में व्यस्त था, कदाचित उसे हमारी उपस्थिति का भान नहीं था। हमने उसके अनेक चित्र लिये। हमारा वाहन चालाक सावधान था। उसने वाहन को गेंडे से किंचित दूर ही रोका हुआ था। उसे पूर्ण बोध था कि किसी भी समय वह हम पर आक्रमण कर सकता था।

पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य में पक्षी दर्शन

पोबितोरा वन्यप्राणी अभयारण्य इस तथ्य पर गौरवान्वित होता है कि उसमें सर्वाधिक संख्या में गेंडे निर्बाध विचरण करते हैं। इस अभयारण्य में पक्षियों की भी अनेक प्रजातियाँ पायी जाती हैं। हम भी भिन्न भिन्न प्रकार के पक्षियों का दर्शन कर आत्मविभोर हो रहे थे। भूरी सिल्ही (Whisteling Duck) से लेकर जलकाक (Cormorant), हरियल(Green Pigeon), ढेलहरा तोता(Parakeet) आदि तक हमने अनेक पक्षियों के दर्शन किये। आप नाम लीजिये, वह पक्षी वहाँ दृष्टिगोचर हो रहा था। वह भी बड़ी संख्या में!

संध्या होते ही हम अपने विश्राम गृह पहुंचे तथा विश्राम करने लगे। हमारे विश्राम गृह में एक पक्षी वेधशाला भी थी जहाँ हमने भरपूर समय व्यतीत किया। भिन्न भिन्न पक्षियों के चित्र लिए। उन्हें आकर्षित करने के लिए वृक्षों की शाखाओं पर फल एवं अन्य खाद्य वस्तुएँ राखी हुई थीं। पके केले पर चोंच मारते तीन आकर्षक धनेश(Hornbill) देखे।

आज पोबितोरा में हमारी अंतिम रात्रि थी। रात्रि अत्यंत शीतल थी। हमने अपना अपना सामान बंधा तथा शीघ्र ही निद्रा की गोद में समा गए। जैसे ही मध्य रात्रि हुई, विश्राम गृह के पृष्ठभाग से एक उग्र तथा विचित्र स्वर सुनाई पड़ा। मैं हड़बड़ाकर कर उठी। उस उग्र स्वर से मेरा रोम रोम काँप उठा था। अंततः यह स्वर किसका थी, हम निश्चित नहीं कर पा रहे थे। खिड़की के बाहर झाँककर देखा तो बाहर घुप्प अन्धकार था। केवल एक व्यक्ति ऊँचे स्वर में चिल्ला रहा था। कुछ क्षणों पश्चात यह आभास हुआ कि वह कोलाहल करते हुए किसी प्राणी को परिसर से दूर भगाने का प्रयत्न कर रहा था जो अन्धकार में परिसर के निकट आ गया था। वह व्यक्ति उस प्राणी पर कंदील का प्रकाश डालते हुए उसे डराने का भी प्रयत्न कर रहा था।

गेंडे का रात्रि भ्रमण

दूसरे दिवस प्रातः हमारी भेंट विश्राम गृह के स्वामी से हुई। हमारे भय पर स्मित हास्य करते हुए उसने हमें जानकारी दी कि गत रात्रि एक गेंडा विश्राम गृह के निकट आ गया था। कदाचित उसे यहाँ के स्वादिष्ट घास ने आकर्षित किया था। उन्होंने हमें बताया कि वे उनके नियमित भेंटकर्ता हैं। इसलिए रिसोर्ट के कर्मचारी सदा सावधान रहते हैं, विशेषतः रात्रि के समय। विश्राम गृह परिसर में दो श्वान भी हैं जो अनवरत रखवाली करते रहते हैं। वन्य प्राणियों के परिसर के निकट आते ही वे कर्मचारियों को आगाह कर देते हैं।

साधारणतः जंगली भैसे कोलाहल एवं कंदील का प्रकाश डालने पर भयभीत होकर भाग जाते हैं। किन्तु गेंडों पर इन उपायों का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है। वह तृप्ति होने तक घास चरते रहता है तथा स्वेच्छा से ही वापिस जाता है। किसी भी प्रकार का शोर अथवा प्रकाश उसे भयभीत नहीं करता है।

इस रोचक घटना के पश्चात हमने विश्राम गृह के कर्मचारियों को उनकी सेवा के लिए धन्यवाद दिया तथा उनसे विदा ली। इसके पश्चात पुनः एक नवीन अभियान के लिए काजीरंगा की ओर कूच कर गए।

यह कोयल बर्मन द्वारा रचिर एक अतिथि संस्करण है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गुवाहाटी का कामाख्या मंदिर – एक अनोखा शक्तिपीठ https://inditales.com/hindi/kamakhya-mandir-shaktipeeth-guwahati/ https://inditales.com/hindi/kamakhya-mandir-shaktipeeth-guwahati/#respond Wed, 11 Oct 2023 02:30:51 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3275

हिमालय पर्वत एवं तीन महासागरों के मध्य बसे, सांस्कृतिक एवं धार्मिक धरोहरों से संपन्न भारत देश की पावन भूमि में देवी के अनेक शक्तिपीठ हैं। वस्तुतः, ये शक्तिपीठ सम्पूर्ण भारतीय महाद्वीप में फैले हुए हैं। उनमें से एक है, कामाख्या मंदिर। असम राज्य से बहती ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर स्थित नीलांचल पर्वत के शिखर […]

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हिमालय पर्वत एवं तीन महासागरों के मध्य बसे, सांस्कृतिक एवं धार्मिक धरोहरों से संपन्न भारत देश की पावन भूमि में देवी के अनेक शक्तिपीठ हैं। वस्तुतः, ये शक्तिपीठ सम्पूर्ण भारतीय महाद्वीप में फैले हुए हैं। उनमें से एक है, कामाख्या मंदिर। असम राज्य से बहती ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर स्थित नीलांचल पर्वत के शिखर पर स्थापित यह कामाख्या मंदिर उन सभी शक्तिपीठों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ है।

कामाख्या शक्तिपीठ – पौराणिक कथा

शक्तिपीठ का संबंध देवी सती से है जो दक्ष प्रजापति की पुत्री एवं भगवान शिव की पत्नी है। दक्ष प्रजापति द्वारा कनखल में आयोजित एक यज्ञ में भगवान शिव का अपमान किया गया जिससे दुखी होकर सती ने यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। पत्नी के आत्मदाह से आहत तथा क्रोधित होकर भगवान शिव देवी सती के पार्थिव शरीर को उठाकर तांडव करने लगे जिससे सम्पूर्ण सृष्टि डगमगाने लगी।

कामख्या मंदिर शक्तिपीठ
कामख्या मंदिर

सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए तथा भगवान शिव को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र द्वारा सती की देह का विच्छेद कर दिया। सती की देह के ५२ भाग हो गए तथा पृथ्वी पर भिन्न भिन्न स्थानों पर गिरे। उन सभी स्थानों पर देवी के मंदिरों की स्थापना हुई तथा वे शक्तिपीठ कहलाये। इन सभी शक्तिपीठों में देवी की शक्ति समाहित है।

भिन्न भिन्न ग्रंथों के अनुसार शक्तिपीठों की संख्या एवं सूची भिन्न है। कुछ के अनुसार वे ४ हैं तो कुछ में उनकी संख्या १०८ बताई गयी है। आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित एक स्तोत्र के अनुसार उनकी संख्या १८ है। आप कोई भी सूची देख लें, कामाख्या मंदिर का नाम उन सभी में उपस्थित है।

कामाख्या मंदिर में देवी सति की योनि गिरी थी। यह एक स्त्री का जननांग होता है जिसमें एक नवीन जीव को जन्म देने का सामर्थ्य होता है। यह मंदिर उसी रचनात्मक शक्ति का द्योतक है। अतः यह मंदिर सभी शक्तिपीठों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं परम पूजनीय स्थल है। इसीलिए प्रजनन शक्ति से इसका प्रगाढ़ संबंध तो है ही, कदाचित तांत्रिक क्रियाओं से इसका संबंध भी इसी कारण ही है।

कामाख्या मंदिर से संबंधित अन्य दंतकथाएं

एक प्राचीन मंदिर होने के कारण कामाख्या मंदिर से संबंधिक अनेक कथाएं प्रचलित हैं।

कामख्या मंदिर की रूपरेखा
कामख्या मंदिर की रूपरेखा

प्राचीनकाल में असम को कामरूप नाम से जाना जाता था। यह असम क्षेत्र का प्रथम ऐतहासिक राज्य था जो काराटोआ से लेकर दिक्करभाषिणी तक फैला हुआ था। कालांतर में इसके अनेक राजनैतिक भाग किये गए। कामरूप आज असम का एक जिला मात्र रह गया है।

कामरूप प्रांत चार क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। उनमें से एक है, कामपीठ जो स्वर्णकोष एवं रुपिका नदियों के मध्य स्थित है। कामाख्या इसी क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी है।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस क्षेत्र का एक प्राचीन नाम प्राग्ज्योतिषपुर भी है।

कामाख्या (कामाक्षी) शब्द का शाब्दिक अर्थ है, काम की देवी अथवा कामनाओं की देवी। ऐसी मान्यता है कि आरंभ में इस मंदिर का निर्माण कामदेव ने किया था। तारकासुर को वरदान प्राप्त था कि उसका वध शिव-पार्वती का पुत्र ही कर पायेगा। तारकासुर के अत्याचार से त्रसित देवों ने कामदेव से आग्रह किया कि वो भगवान शिव की तपस्या भंग करे ताकि वे पार्वती से विवाह कर सकें तथा उनका पुत्र तारकासुर का वध कर सके। तपस्या भंग होने पर क्रोधित शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। कामदेव ने इसी क्षेत्र में घोर तपस्या कर अपना पूर्व रूप पुनः प्राप्त किया तथा विश्वकर्मा के सहयोग से यहाँ कामाख्या देवी के मंदिर का निर्माण किया।

एक कथा के अनुसार नरकासुर यहाँ का एक अत्याचारी असुर राजा था जिसने १६००० स्त्रियों को बंधक बनाया था। श्री कृष्ण ने उसका वध कर उन स्त्रियों को मुक्ति दिलाई थी। ऐसा कहा जाता है कि एक समय नरकासुर माँ भगवती कामाख्या को पत्नी रूप में प्राप्त करने का दुराग्रह कर बैठा। कामाख्या ने नरकासुर की मृत्यु को निकट जानकर उसका ध्यान भंग करने की दृष्टि से उससे कहा कि यदि वह एक रात्रि में नीलांचल पर्वत के चारों ओर से शिखर तक पत्थरों के चार सोपान पथ का निर्माण करे तथा कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम गृह का भी निर्माण करे तो वह स्वेच्छा से उसकी पत्नी बन जायेगी। अन्यथा उसकी मृत्यु निश्चित है।

गर्व से चूर नरकासुर ने प्रातः होने से पूर्व चार पाषाणी सीढ़ियों का निर्माण कर भी दिया था तथा वह विश्राम गृह का निर्माण कर रहा था तब देवी के एक मायावी कुक्कुट ने भोर होने की सूचना देते हुए बांग दे दी। इससे उसका निर्माण कार्य भंग हो गया। पर्वत के चार प्रवेशद्वारों के नाम हैं, वानर द्वार, बाघ द्वार, दिव्य द्वार एवं सिंह द्वार। ये चारों नरकासुर की देन हैं। ऐसी मान्यता है कि इन सोपानों द्वारा पर्वत पर चढ़ने से धन-संपत्ति, यश, मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है।

अन्य किवदंतियां

एक अन्य किवदंती के अनुसार आरंभ में यह मंदिर खासी जनजाति का था जो देवी का-मे-खा की आराधना करते थे। कालांतर में यह नाम कामाख्या में परिवर्तित हो गया। कालिका पुराण एवं योगिनी तंत्र जैसे कुछ ग्रंथों में किरात नामक पहाड़ी जनजाति द्वारा देवी की आराधना की ओर संकेत किया गया है।

कामाख्या देवी तंत्र विद्या के उपासकों की भी देवी हैं। इसके अनुयायी सनातन धर्म में भी पाए जाते हैं तथा  बौद्ध धर्म में भी तांत्रिक वज्रयान अनुयायी कामाख्या देवी की उपासना करते हैं।

कामाख्या मंदिर का इतिहास

मूलतः यह एक प्राचीन मंदिर है जिसमें कालांतर में नवीन संरचनाएं जोड़ी गयी हैं। मंदिर का प्राचीनतम भाग ८-९वीं सदी में निर्मित है। वर्तमान मंदिर के अधिकाँश भागों का निर्माण १६वीं सदी में कोच राजवंश के राजाओं, विशेषतः नरनारायण द्वारा किया गया था जो उस कालखंड में इस क्षेत्र के शासक थे। दुर्भाग्यवश कूच बिहार के राजपरिवार को श्राप है कि उनके वंशजों के लिए इस मंदिर में प्रवेश निषिद्ध है। यहाँ तक कि इस मंदिर पर दृष्टि डालने मात्र से भी यह श्राप फलित होता है।

कामख्या मंदिर के पाषण शिल्प
कामख्या मंदिर के पाषण शिल्प

मंदिर के भीतर एवं चारों ओर बने शिल्प ८वीं से १६वीं सदी के मध्य विभिन्न कालखंडों में गड़े गए हैं। वास्तव में देखा जाए तो इस मंदिर का निर्माण प्राचीन शिलाखंडों एवं प्राचीन शैल प्रतिमाओं से संरचित है।

कालांतर में यह क्षेत्र सिबसागर के अहोम राजवंश के राजाओं के अधिपत्य में आ गया जिन्होंने इस मंदिर की देखरेख का कार्यभार अखंडित रखा। इसका अभिप्राय यह है कि विभिन्न राजाओं एवं भक्तों द्वारा इस मंदिर की देखरेख एवं पुनुरुद्धार का कार्य अनवरत चलता रहा है।

ऐसा माना जाता है कि इससे पूर्व के मंदिर को काला पहाड़ अथवा ऐसे ही किसी आक्रमणकारी ने नष्ट कर दिया था।

सेवायत अथवा मंदिर के पुरोहित

मंदिर के पारंपरिक पुरोहितों को बरदूरी कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं, बूरा बरदूरी एवं देखा बरदूरी। मंदिर में दैनिक पूजा-अर्चना का उत्तरदायित्व इन दोनों बरदूरियों पर होता है। मंदिर में होम एवं यज्ञ करने का उत्तरदायित्व जिन पर है, उन्हें होता कहते हैं। वहीं मंदिर के सम्पूर्ण अनुष्ठानिक क्रियाकलापों की निगरानी बिधिपाठक करते हैं।

इनके अतिरिक्त मंदिर में चंडीपाठक होते हैं जो चंडी पाठ अथवा दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। सुपाकार भी ब्राह्मण होते हैं जिनका कार्य है, मंदिर में चढ़ाए जाने वाले भोग को बनाना।

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इनके अतिरिक्त भी मंदिर में अनेक कार्य होते हैं, जैसे भंडारगृह की निगरानी, बहीखाता, बलि आदि। इन सब कार्यों के लिए भी व्यक्ति निहित होते हैं।

कामाख्या मंदिर की स्थापत्य शैली

इस मंदिर का शिखर किंचित बेलनाकार है जिस पर गोलाई में खाँचें बने हुए हैं। ऐसी संरचना कदाचित तांत्रिक क्रियाओं का भाग हो सकती है। सम्पूर्ण मंदिर परिसर की स्थापत्य शैली मिश्रित प्रतीत होती है। कहीं किंचित बेलनाकार शिखर है तो कहीं अर्धगोलाकार शिखर है तथा कहीं कहीं वक्रीय छतें हैं। यह मिश्रित स्थापत्य शैली नीलांचल पर्वत शिखरों से प्रेरित हैं।

कामख्या शक्तिपीठ का शिखर
कामख्या शक्तिपीठ का शिखर

यह पंचरथ शैली का मंदिर है। इस मंदिर में एक गर्भगृह तथा तीन मंडप हैं। गर्भगृह की भूमि शैलखंडों द्वारा निर्मित है जिस पर गणेश, श्री राम, देवी एवं ऋषियों के विग्रह स्थापित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आरंभ में यह नागर शैली का मंदिर रहा होगा। इसका शिखर ईंटों द्वारा निर्मित है। उसके ऊपर आड़े खांचे बने हुए हैं। इसके चारों ओर चल-शैली में निर्मित अनेक लघु मंदिर हैं जिन्हें अंगशिखर कहते हैं।

कामख्या मंदिर के शिखर
कामख्या मंदिर के शिखर

गर्भगृह की ओर जाता एक कालंता मंडप है जिसमें देवी-देवताओं की उत्सव मूर्तियाँ रखी हुई हैं। अन्य दो मंडप हैं, पंचरत्न तथा नाट्यमंडप जो अनुमानतः १८वीं सदी में निर्मित हैं।

गर्भगृह के भीतर एक भूतल नीचे योनी पीठ स्थापित है। यह वास्तव में योनी के रूप में एक शिलाखंड है जिसकी पूजा-अर्चना की जाती है। एक भूमिगत जल के स्त्रोत द्वारा इसमें जल भरा रहता है। यहाँ कोई मूर्ति नहीं है।

बलि

मैं अनेक कारणों से कामाख्या मंदिर में आना चाहती थी। एक तो यह एक देवी मंदिर है। मैं स्वयं को देवी से जुड़ा हुआ अनुभव करती हूँ तथा उनकी उपासना करती हूँ। दूसरा, यह एक शक्ति पीठ भी है। साथ ही इसकी अनूठी विशेषताओं ने मुझे आकर्षित किया हुआ था। वहीं, कुछ कारणों से मैं यहाँ नहीं आना चाहती थी। मैंने यहाँ की बलि प्रथा के विषय में सुना था। यहाँ लगभग प्रत्येक दिवस देवी को पशु की बलि चढ़ाई जाती है। मुझे विश्वास नहीं था कि मैं वह सब देख पाऊँगी।

बंगाल की चला शैली का मंदिर
बंगाल की चला शैली का मंदिर

अंततः देवी के दर्शन की अभिलाषा ने सभी आशंकाओं पर विजय प्राप्त की तथा मैं देवी माँ के दर्शन के लिए यहाँ आ गयी। प्राचीन काल में भक्तगण पैदल ही नीलांचल पहाड़ पर चढ़कर मंदिर पहुँचते थे किन्तु अब शिखर तक पक्की सड़क बन गयी है।

यहाँ आने से पूर्व मुझे बताया गया था कि बलि स्थान मुख्य मंदिर से दूर है तथा वहाँ देखने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु मुझे तिलक लगे अनेक पशु यत्र-तत्र दृष्टिगोचर हो रहे थे तथा मुझे यह आभास था कि कुछ ही क्षणों में उनकी बलि चढ़ने वाली है।

इस मंदिर में वामाचार एवं दक्षिणपथ दोनों अनुष्ठानिक क्रियाओं का पालन किया जाता है। बलि चढ़ना वामाचार का भाग है तथा दक्षिणपथ में पुष्पों द्वारा देवी का अभिषेक किया जाता है।

नीलांचल पर्वत का कामाख्या मंदिर

कामाख्या मंदिर नीलांचल नामक पर्वत के शिखर पर स्थित है।

मंदिर के भीतर हर-गौरी की अष्टधातु में निर्मित भोग मूर्ति स्थापित है। उन्हें कामेश्वर-कामेश्वरी भी कहते हैं। यहाँ से लगभग दस सीढ़ियाँ उतर कर हम गर्भगृह पहुँचते हैं। यहाँ योनी पीठ के दर्शन होते हैं।

लज्जा गौरी
लज्जा गौरी

मंदिर के भीतर भित्तियों पर आप अनेक शिल्प देख सकते हैं। मुझे लज्जा-गौरी की प्रतिमा अत्यंत भा गयी। मेरी कल्पना के अनुसार वह मूर्ति इस मंदिर का सार है, उर्वरता की देवी। भित्तियों को ध्यान से देखें तो आपको शिशु सहित माता की भिन्न भिन्न प्रतिमाएं अनेक स्थानों पर दृष्टिगोचर होंगी।

गणेश, श्री राम, ऋषि गण एवं देवी
गणेश, श्री राम, ऋषि गण एवं देवी

अन्य शिल्पों में मंगलचंडी, कल्कि अवतार, श्री राम, बटुक भैरव, अन्नपूर्णा, नर-नारायण तथा कूच बिहार के कुछ राजाओं की प्रतिमाएं सम्मिलित हैं।

दश महाविद्या मंदिर

नीलांचल पर्वत पर दस महाविद्याओं के मंदिर भी हैं। तांत्रिक क्रियाओं में देवी माँ के इन दस रूपों की आराधना की जाती है। उन में से त्रिपुरसुंदरी, मातंगी एवं कमला, ये तीन महाविद्याओं के मंदिर मुख्य मंदिर के भाग हैं।  अन्य सात महाविद्यायें काली, तारा, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, बगलामुखी तथा धूमावती, इनके स्वयं के पृथक पृथक मंदिर हैं।

सौभाग्य कुण्ड
सौभाग्य कुण्ड

पांच शिव मंदिर भी हैं जो शिव के पांच मुखों के द्योतक हैं। बनवासिनी, जय दुर्गा एवं ललिता कांता की शैल प्रतिमाएं भी हैं।

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नीलांचल पर्वत पर एक छोटा जलकुंड है जिसका नाम सौभाग्य कुंड है। मान्यताओं के अनुसार इंद्र देव ने देवी के लिए इस जलकुंड का निर्माण किया था। तर्पण एवं श्राद्ध जैसे धार्मिक अनुष्ठान यहीं किये जाते हैं। इस जलकुंड की परिक्रमा को धरती की परिक्रमा के समतुल्य माना जाता है।

संग्रहालय

यहाँ स्थित संग्रहालय में देवी की पूजा-अर्चना एवं विभिन्न अनुष्ठानों में प्रयोग में लाई गयी वस्तुएं हैं, जैसे भिन्न भिन्न पात्र तथा संगीत वाद्य यंत्र। यहाँ मंदिर के पुरातन प्रवेशद्वारों का भी संग्रह हैं जो ना केवल दर्शनीय हैं अपितु द्वारों में समय के साथ आये परिवर्तन को भी दर्शाते हैं। भक्तगणों द्वारा भेंट में चढ़ाई गयी उपहार की वस्तुएं भी यहाँ रखी हैं।

कामख्या मंदिर के प्राचीन द्वार एवं घंटियाँ
कामख्या मंदिर के प्राचीन द्वार एवं घंटियाँ

संग्रहालय के चारों ओर बगीचा है जिसमें अनेक शैल शिल्प रखे हुए हैं। मेरे अनुमान से ये सभी शैल शिल्प किसी काल में मंदिर एवं उसके परिसर का भाग रहे होंगे। यह संग्रहालय एवं इसका संकलन अभी निर्माणाधीन है। संग्रहालय पूर्ण होते ही यह हमारे समक्ष मंदिर की विभिन्न अनुष्ठानिक क्रियाओं की अब तक की यात्रा का अनूठा संकलन प्रस्तुत करेगा।

संग्रहालय के अभीक्षक से मेरी विस्तार में चर्चा हुई थी। उनका मानना है कि संसार में जो भी होता है, देवी माँ के आशीष से होता है। वे यह भी कहते हैं कि देवी वैसी ही हैं जैसी हम कल्पना करते हैं।

कामाख्या मंदिर के उत्सव

अंबुबाची मेला

यह माँ कामाख्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वार्षिक उत्सव है। इसे अमेटी अथवा अमोटी भी कहते हैं। जून-जुलाई में आते आषाढ़ मास की सप्तमी से यह उत्सव आरम्भ होता है। खगोल शास्त्र के अनुसार इस समय सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में मिथुन राशी में प्रवेश करता है।

उत्सवों पर सुसज्जित कामख्या मंदिर
उत्सवों पर सुसज्जित कामख्या मंदिर

इस समय ब्रह्मपुत्र नदी जल से लबालब भरी रहती है। इस समय इस क्षेत्र में वर्षा ऋतु का समय रहता है जो धरती की उर्वरता का द्योतक है। देवी को धरती माँ के रूप में पूजा जाता है।

ऐसी मान्यता है कि इस समय देवी कामाख्या रजस्वला रहती है। यह देवी का वार्षिक रजस्वला काल होता है जो तीन दिनों का होता है। ये तीन दिन मंदिर के पट बंद रहते हैं तथा देवी विश्राम करती हैं। चौथे दिवस देवी के स्नान अनुष्ठान के पश्चात् मंदिर के कपाट खोले जाते हैं।

चौथे दिवस देवी के स्नान में जिस जल का प्रयोग किया जाता है, उसे अन्गोदक कहा जाता है अर्थात देवी के अंग का जल। यह जल भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है। रजस्वला काल में देवी जो वस्त्र धारण करती हैं, उसे अंगवस्त्र कहते हैं। देवी के अंगवस्त्र भी प्रसाद के रूप में भक्तों को दिया जाता है।

अम्बुबाची के इस विशाल मेले में भाग लेने के लिए गृहस्थों से लेकर सन्यासियों तक, हिमालय के साधुओं से लेकर विदेशी जिज्ञासुओं तक, दूर-सुदूर से करोड़ों भक्तगण आते हैं।

देवधनी अथवा देवध्वनी मेला

देव्धानी नृत्य
देव्धानी नृत्य

श्रावण अथवा कर्क संक्रांति के दिवस जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है, इस तीन दिवसीय नृत्य उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस उत्सव में देओधा, घोरा एवं जोकि जनजाति के लोग नट मंडप में अनुष्ठानिक नृत्य प्रस्तुत करते हैं। इसी समय मंदिर में मनसा पूजन का आयोजन किया जाता है।

दुर्गा पूजा

एक शक्तिपीठ होने के कारण कामाख्या देवी मंदिर में दुर्गा पूजा का उत्सव अत्यंत भव्यता से मनाया जाता है। नवरात्रि का उत्सव एक सम्पूर्ण पक्ष अर्थात् १५ दिवसों तक मनाया जाता है। यह उत्सव कृष्ण नवमी दिवस में आरंभ होकर शुक्ल नवमी दिवस में समाप्त होता है। इस समय देवी का महास्नान होता है। देवी को भिन्न भिन्न प्रकार के चढ़ावे चढ़ाए जाते हैं जिनमें बलि भी सम्मिलित है।

इस उत्सव में कुमारी पूजन का आयोजन किया जाता है जिसमें कुमारी कन्याओं को देवी के रूप में पूजा जाता है।

शक्ति के उपासकों के लिए यह समयावधि देवी आराधना के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। इसके विषय में अधिक जानकारी के लिए Navaratri – When Devi Comes Home, यह पुस्तक पढ़ें।

डोल जत्रा – यह देवी का वसंतोत्सव है जो होली उत्सव के समकालीन आयोजित किया जाता है।

इनके अतिरिक्त इस मंदिर में अन्य सभी हिन्दू उत्सव मनाये जाते हैं।

कामाख्या क्षेत्र के अन्य पावन स्थल

उर्वशी कुण्ड – ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य स्थित एक पहाड़ी पर यह कुण्ड है। भक्तगण इस कुण्ड में स्नान करते हैं तथा पांडू शिला का स्पर्श करते हैं।

अश्वक्रान्ता मंदिर – ब्रह्मपुत्र के उस पार स्थित अश्वक्रान्ता मंदिर भगवान विष्णु का मंदिर है जिसमें विष्णु के कूर्म अवतार एवं शेषशायी विष्णु की आराधना की जाती है। इस मंदिर से नदी की ओर जाते मार्ग पर भगवान विष्णु के पदचिन्हों की छाप है।

उमानंद मंदिर
उमानंद मंदिर

उमानंदा द्वीप – यह ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित एक लघु द्वीप है। इस पर भगवान शिव का मंदिर है जिसमें उनकी उमानंद रूप में आराधना की जाती है। भगवान शिव ने देवी उमा के साथ आनंदमयी समय व्यतीत करने के लिए इस द्वीप को उत्पन्न किया था। यह वही स्थान है जहाँ भगवान शिव के ध्यान में विघ्न उत्पन्न करने के लिए भगवान ने कामदेव को भस्म कर दिया था। इसलिए इसे भस्माचल भी कहते हैं।

मणि कर्णेश्वर मंदिर – ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर स्थित यह एक शिव मंदिर है।

महर्षी वसिष्ठ आश्रम – गुवाहाटी के दक्षिण में असम-मेघालय सीमा पर स्थित एक पहाड़ी पर महर्षी वसिष्ठ का भव्य आश्रम एवं एक मंदिर है। यहाँ स्थित एक शिलाखंड को अरुंधती कहा जाता है जो गुरु वसिष्ठ की पत्नी थी। सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के दिवसों में यहाँ बड़ी संख्या में भक्तगण आते हैं।

कामख्या देवी के भक्त
कामख्या देवी के भक्त

नवग्रह मंदिर – चित्रांचल अथवा चित्रशिला पहाड़ी पर स्थित यह नवग्रह मंदिर किसी काल में खगोलीय अध्ययन का पीठ माना जाता था। यहाँ किये गए उत्खनन में १२ शिव मंदिर प्राप्त हुए हैं।

कामाख्या क्षेत्र में स्थित कुछ अन्य मंदिर हैं, उग्रतारा मंदिर, चक्रेश्वर मंदिर, शुक्रेश्वर मंदिर, जनार्दन मंदिर, बाणेश्वर मंदिर, पांडूनाथ मंदिर तथा हयग्रीव माधव। आप गुवाहाटी से इनके दर्शन के लिए आ सकते हैं।

यात्रा सुझाव :

  • कामाख्या मंदिर गुवाहाटी के निकट स्थित है। आप गुवाहाटी से बस अथवा टैक्सी द्वारा लगभग ३० मिनटों में मंदिर तक पहुँच सकते हैं।
  • गुवाहाटी नगर देश के अन्य भागों से वायु मार्ग, रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुविधाजनक रूप से जुड़ा हुआ है। मंदिर से निकटतम रेल स्थानक कामाख्या है।
  • अंबुबाची मेले के लिए मंदिर के पट बंद रहते हैं। उनकी तिथियों की पूर्व जानकारी अवश्य प्राप्त कर लें।
  • उत्सवों के दिवसों में इस मंदिर में बड़ी संख्या में भक्तगण आते हैं। अतः कामाख्या मंदिर में देवी दर्शन के लिए यात्रा नियोजन करते समय इस तथ्य का अवश्य ध्यान रखें।

कामाख्या मंदिर के विषय में अधिक जानकारी के लिए मंदिर के अधिकारिक वेबस्थल पर देखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गुवाहाटी, असम – उत्तर पूर्वीय भारत का प्रवेश द्वार https://inditales.com/hindi/guwahati-assam-kamakhya-temple/ https://inditales.com/hindi/guwahati-assam-kamakhya-temple/#respond Wed, 07 Dec 2022 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=633

गुवाहाटी या गोहाटी वैसे तो कोई खास पर्यटक स्थल नहीं है। मुझे नहीं लगता कि ज्यादातर लोग यहां पर घूमने आते होंगे, सिवाय उन तीर्थयात्रियों के जो कामाख्या मंदिर के दर्शन करने आते हैं। गुवाहाटी वास्तव में उत्तर पूर्वीय भारत के पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार है। गुवाहाटी इस क्षेत्र का व्यापार केंद्र है, जिसके […]

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गुवाहाटी - ब्रम्हपुत्र नदी पर सूर्यास्त
गुवाहाटी – ब्रम्हपुत्र नदी पर सूर्यास्त

गुवाहाटी या गोहाटी वैसे तो कोई खास पर्यटक स्थल नहीं है। मुझे नहीं लगता कि ज्यादातर लोग यहां पर घूमने आते होंगे, सिवाय उन तीर्थयात्रियों के जो कामाख्या मंदिर के दर्शन करने आते हैं। गुवाहाटी वास्तव में उत्तर पूर्वीय भारत के पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार है। गुवाहाटी इस क्षेत्र का व्यापार केंद्र है, जिसके चलते लोग जानबूझकर या फिर अनजाने में यहां पर पहुँच ही जाते हैं।

गुवाहाटी में घूमने की जगहें               

ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर बसा हुआ शहर  

महानदी ब्रह्मपुत्र के किनारे पर बसा हुआ गुवाहाटी भारत का एकमात्र ऐसा बड़ा शहर है जिससे होकर एक ओजस्वी और शक्तिपूर्ण नदी गुजरती है। मेरा मानना है कि यह नदी ही यहां पर आनेवाले पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण है। आप या तो इस नदी के साथ साथ चलती सड़क पर टहलते हुए या फिर किनारे पर आराम से बैठकर वहां के जीवन का अवलोकन कर सकते हैं। वहां का पूरा माहौल हर समय सक्रिय होता है।

ब्रह्मपुत्र पर स्वर्णिम सूर्यास्त
ब्रह्मपुत्र पर स्वर्णिम सूर्यास्त

लोग अस्थायी फिल्टरों से नदी का पानी इकट्ठा करते हुए नज़र आते हैं। नदी के बीचोबीच मछुआरों की नावें तैरती हुई दिखाई देती हैं। यहां पर अनेक मंदिर हैं जिनमें भक्तों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा यहां पर जल पर्यटन की नावें भी हैं जो हर शाम आपको एक उमंग भरी सैर पर ले जाती हैं। यहां से कुछ दूर नदी पर एक पुल बंधा हुआ है जो आपको नदी में स्थित एक छोटे से द्वीप पर ले जाता है, जहां पर एक सुंदर सा मंदिर है। इसके अलावा जब नदी का star कम होता है तो यहां-वहां आपको रेत के छोटे-छोटे द्वीप जैसे दिखाई देते हैं। इस सब के अलावा आप चाहें तो किनारे पर बैठकर बस नदी के शांत प्रवाह को महसूस कर सकते हैं।

एक ऐसे व्यक्ति के लिए, जो कभी भी नदी किनारे न रहा हो, नदी के किनारे पर बैठकर उसकी शांतता को सुनना बहुत ही सुखदायक लगता है। भले ही यह नदी ऊपर से शांत नज़र आती हो, लेकिन स्थानीय लोगों के अनुसार उसकी गहराई में बहुत उथल-पुथल होती रहती है। क्या यह आपको किसी ऐसे व्यक्ति के समान नहीं लगता जो बाहर से तो बहुत शांत सा लगता है लेकिन जिसके भीतर भीषण तूफान चल रहा होता है।

कामाख्या मंदिर, गुवाहाटी  
कामाख्या मंदिर से जुड़े उपाख्यान  

कामाख्या मंदिर गुवाहाटी का सबसे प्रसिद्ध अध्याम्तिक स्थल है, जो हर किसी को अवश्य देखना चाहिए। यह मंदिर ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह भारत में स्थित 52 शक्तिपीठों में से एक है। जब भगवान शिव देवी सती के पार्थिव शरीर को लेकर जा रहे तब उनके क्रोध को शांत करने हेतु भगवान विष्णु ने अपने चक्र से देवी सती के शरीर के टुकड़े कर दिए थे उस समय देवी सती की योनि इसी स्थान पर गिरि थी।

कामख्या देवी मंदिर - कामरूप
कामख्या देवी मंदिर – कामरूप

इसी कारण यह जगह प्रजनन पंथ और तांत्रिकों द्वारा सबसे पवित्र मानी जाती है। कामाख्या का शाब्दिक अर्थ है काम की देवी। यह जगह कामरूप की भूमि के रूप में भी प्रचलित है, जिनके नाम से यह जिला आज भी जाना जाता है। माना जाता है कि यह मंदिर मूलतः ख़ासी जनजाति से संबंधित हुआ करता था, जो कामेखा नामक देवी को पूजते थे। यही नाम समय के साथ कामाख्या में परिवर्तित हुआ।

कामाख्या मंदिर के दर्शन  

कामाख्या मंदिर के दर्शन करने के पीछे मेरे बहुत से कारण थे, लेकिन फिर भी मैं वहां जाने के लिए उद्यत नहीं थी। वहां पर होनेवाली भीषण पशु हत्या का सामना करने के लिए मैं बिलकुल भी तैयार नहीं थी। इन पशुओं को बलि के रूप में देवी को चढ़ाया जाता है और यह कार्यक्रम लगभग हर रोज होता है। यह एकमात्र ऐसी जगह है जहां पर जाने का निर्णय लेने से पहले मैंने बहुत सोचा होगा।

शायद देवी माँ की अद्भुत शक्ति ही थी जो मुझे उनकी ओर खींच रही थी, जो उस अमानवीय बलि प्रथा के विकर्षण से भी अधिक प्रभावशाली थी। मुझे बताया गया था कि बलिदान की जगह मुख्य मंदिर से थोड़ी दूर है और इस प्रकार जब मैं मंदिर जाऊँगी तो मुझे उस ओर देखने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। लेकिन जो बात मुझे नहीं बताई गयी थी वो यह थी कि बलि चढ़ाने के लिए लाये गए सभी पशु मंदिर के परिसर में घूमते हुए अपनी बारी का इंतजार करते हुए नज़र आएंगे।

कहा जाता है कि जब यह मंदिर बनवाया गया था, तब देवी के चरणों में बहुत सारे मनुष्यों की बलि चढ़ाई गयी थी। वहां पर एक खास समुदाय ही था जो इस बलि प्रथा के लिए ही बना था। इन मनुष्यों की बलि चढ़ाने ने पहले उन्हें अच्छी तरह से खिलाया-पिलाया जाता था और जो भी उन्हें चाहिए होता था वह सबकुछ उन्हें दिया जाता था।

कामाख्या मंदिर – नीलाचल पहाड़ी, असम   
लज्जा गौरी - कामख्या देवी मंदिर - गुवाहाटी के निकट
लज्जा गौरी – कामख्या देवी मंदिर – गुवाहाटी के निकट

नीलाचल पहाड़ी पर स्थित यह नया मंदिर 16वी शताब्दी में कोच राजाओं द्वारा बनवाया गया था जो उस समय इस क्षेत्र पर शासन कर रहे थे। कामाख्या देवी का पुराना मंदिर यानी उनका मूल मंदिर काला पहाड़ द्वारा नष्ट किया गया था और उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती। इस पहाड़ी पर और भी कई मंदिर हैं जो सभी दस महाविद्याओं अर्थात तांत्रिक परंपरा में पूजे जाने वाले देवी माँ के दस रूपों को समर्पित किए गए हैं।

इस मंदिर की शिखर अपने आप में अद्वितीय है जिसका आकार थोड़ा गोलाकार है, जिसमें खांचे बने हुए हैं जो शायद तांत्रिक परंपरा का ही एक भाग है। इस मंदिर की दीवारों पर विविध हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ हैं जो शिलाओं पर उत्कीर्णित हैं। जो शायद 16वी शताब्दी में किए गए मंदिर के नवीनीकरण से भी पहले की हैं।

इन सभी प्रतिमाओं में से मुझे लज्जा गौरी, जिन्हें प्रजनन की देवी माना जाता है, की प्रतिमा विशेष रूप से पसंद आयी जो कि मेरे लिए इस स्थान की प्रतिनिधि मूर्ति थी। अगर आप थोड़ा ध्यान से देखे तो आपको इस मंदिर की दीवारों पर माँ-शिशु के अनेक उत्कीर्णित चित्र दिखाई देंगे। इस पहाड़ी पर एक छोटा सा सुंदर तालाब है, जिसे सौभाग्य कुंड के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि यह तालाब इन्द्र देव ने कामाख्या देवी के लिए बनवाया था।

कामाख्या मंदिर का संग्रहालय  

कामाख्या मंदिर के पीछे ही एक संग्रहालय बनवाया जा रहा है, जहां पर सभी पुरानी वस्तुओं को रखा जाएगा जो देवी की पूजा के लिए इस्तेमाल की जाती थीं। यहां पर मंदिर के कुछ पुराने दरवाजे रखे गए हैं जो काफी प्रदर्शनीय है। एक प्रकार से ये प्रदर्शित दरवाजे आपको दरवाजों की उत्क्रांति से भी परिचित करवाते हैं।

यहां पर कुछ और भी वस्तुएं हैं, जैसे कि बर्तन और संगीत वाद्य जो विविध समारोहों में इस्तेमाल की जाती हैं। इसके अलावा यहां पर कुछ भेट वस्तुएं भी हैं जो भक्तों द्वारा दी गयी थीं। इस संग्रहालय के चारों ओर एक छोटा सा बगीचा है जिसमें बहुत सारी पत्थर की मूर्तियाँ हैं, जो मुझे लगता है कि कभी इस मंदिर का या फिर उसके परिसर का भाग रही होंगी। एक बार इस संग्रहालय का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर वह मंदिर के पूजा-पाठ की पद्धतियों को पर्दर्शित करने का बहुत ही अच्छा माध्यम सिद्ध हो सकता है।

इस संग्रहालय के अभीक्षक के साथ मेरी बातचीत बहुत अच्छी रही। शुरू-शुरू में उनका कहना था कि सब कुछ देवी माँ के आशीर्वाद से ही होता है लेकिन बातचीत के दौरान उनके विचार कुछ अलग ही बताने लगे। वे कहने लगे कि देवी तो वैसी ही होती है जैसा हम उन्हें मानते हैं। अगर हम देवी माँ की इतनी अच्छी सेवा न करते तो क्या इतने सारे लोग उनकी पूजा करते? वह देवी इसलिए बनी है क्योंकि हम उस सम्मान और भक्ति भाव के साथ उनकी आराधना करते हैं। मेरे खयाल से यह एक चिरकालिक प्रश्न है कि, भगवान और भक्त के बीच किसने किसका निर्माण किया, जिसका उत्तर हमेशा एक दुविधा स्वरूप ही रहेगा।

उमानंदा मंदिर, ब्रह्मपुत्र नदी द्वीप     

उमानंदा मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीचोबीच स्थित विश्व के सबसे छोटे नदी द्वीप पर बसा हुआ एक सुंदर मंदिर है। इस द्वीप को पीकॉक आइलेंड यानी मयूर द्वीप भी कहा जाता है और यह नाम इस द्वीप को अंग्रेजों द्वारा दिया गया था। यद्यपि इस द्वीप का प्राचीन नाम भस्माचल था जो कि मिथकीय उपाख्यानों से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि यहीं वह स्थान है जहां पर भगवान शिव ने कामरूप को भस्म किया था।

नदी के बीचोबीच बसे इस द्वीप टापू पर इस मंदिर के अलावा और कुछ नहीं है। उमानंदा का मूल मंदिर अहोम राजाओं द्वारा बनवाया गया था, जो यहां पर आए हुए भूकंप के समय धरती में विलीन हो गया था। बाद में एक स्थानीय महाजन ने इस नए मंदिर का निर्माण किया था। यहां तक पहुँचने के लिए आपको मुख्य शहर में स्थित उमानंदा घाट से एक फेरी लेनी पड़ती है, जो लगभग 5 मिनटों में आपको इस द्वीप पर पहुँचा देती है। इस द्वीप पर जाने का यह एक मात्र रास्ता है। यहां पर आपको सिर्फ द्वीप पर जाने का शुल्क देना पड़ता है। लौटते समय आप बिना कोई शुल्क दिए किसी भी नाव से वापस आ सकते हैं, क्योंकि, जो भी व्यक्ति उस द्वीप पर जाता है उसे वापस लाना ही पड़ता है।

यहां का मुख्य मंदिर साधारण सा है, जिसके चारों ओर कामाख्या शैली के छोटे-छोटे मंदिर खड़े हैं। इस द्वीप पर एक पगडंडी बनी हुई है जो आपको पूरे द्वीप की सैर कराती है जिससे कि आप हर तरफ से इस द्वीप की सुंदरता का आनंद उठा सके। इस मंदिर के परिसर में सिर्फ दो ही दुकानें हैं, एक दुकान पर चाय, ठंड पेय और कुछ खाने की वस्तुएं बेची जाती हैं, तो दूसरी दुकान पर प्रसाद बेचा जाता है। अगर आप सुबह की पहली फेरी से, जो लगभग 10 बजे उमानंदा घाट से निकलती है, इस द्वीप पर जाए तो वहां पर मिलने वाली अधिकतर वस्तुएं आपके साथ इसी फेरी से द्वीप पर जाती हुई दिखेंगी।

यह बहुत ही सुंदर द्वीप है जिसके चारों ओर ब्रह्मपुत्र नदी बहती है और यह द्वीप टापू शांति से उसके बीच खड़ा है। यहां पर आपको हर प्रकार की नावें पानी में तैरती हुई नज़र आएँगी। वहां पर हमे पानी में तैरता हुआ एक नावघर दिखा जो अत्यंत रोचक था। वह बांस का बना एक छोटा सा मचान था जिसके ऊपर एक छोटी सी झोपड़ी खड़ी थी। यह नावघर का सबसे मूल स्वरूप हुआ करता था। यह नाव मछुआरों द्वारा मछली पकड़े के लिए इस्तेमाल की जाती थी।

गुवाहाटी के संग्रहालय  

हमने गुवाहाटी में दो मुख्य संग्रहालय देखे, जिन में से एक पारंपरिक राज्य संग्रहालय है, जहां पर प्रदर्शनीय वस्तुओं का प्रचुर संग्रहण देखने को मिलता है। तो दूसरा संग्रहालय इस शहर का नया संग्रहालय है, जहां पर लोगों द्वारा अपने दैनिक जीवन में तथा उत्सवों के दौरान प्रयुक्त विभिन्न कलाकृतियों के माध्यम से भारत के उत्तरपूर्वीय राज्यों की संस्कृति को दर्शाया गया है।

राज्य संग्रहालय, गुवाहाटी   
एक उत्कृष्ट शिल्प - गुवाहाटी संग्रहालय से
एक उत्कृष्ट शिल्प – गुवाहाटी संग्रहालय से

गुवाहाटी के राज्य संग्रहालय में असम के ग्रामीण जीवन पर आधारित एक सुंदर प्रदर्शन कक्ष है। इस कक्ष में प्रदर्शित वस्तुओं का अवलोकन करते हुए ऐसा प्रतीत होता है जैसे आप वास्तव में किसी गाँव में घूम रहे हो। इस संग्रहालय में उत्कीर्णित लेखों से संबंधित एक खास प्रदर्शन कक्ष है, जो यहां का सबसे उल्लेखनीय कक्ष है। इस कक्ष में उत्कीर्णित शिला स्तंभ, जमीन से जुड़े अभिलेखों से युक्त ताम्र पत्र और सामान्य पांडुलिपियाँ रखी गयी हैं। यहां के मुद्रा संबंधी प्रदर्शन कक्ष में छोटे-छोटे बाण रूपी सिक्के रखे गए हैं जो नाग पंथियों द्वारा मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे। यहां पर प्रदर्शित धातु और पक्की मिट्टी से बनी वस्तुओं का संग्रहण काफी अच्छा और आकर्षक है।

श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र
शंकरदेव कला क्षेत्र में शिल्पकला का उदहारण - गुवाहाटी
शंकरदेव कला क्षेत्र में शिल्पकला का उदहारण – गुवाहाटी

गुवाहाटी का नया संग्रहालय यानी शंकरदेव कालक्षेत्र यहां के सम्मेलन केंद्र में स्थित है। इस बड़ी सी जगह के बगीचे में अनेक प्रदर्शनीय वस्तुएं रखी गयी हैं। तथा यहां का प्रवेश द्वार शिवसागर में स्थित रंग घर की प्रतिकृति है। इसके अलावा यहां पर एक बहु-मंज़िला संग्रहालय है जिसके प्रदर्शन कक्षों में बड़ी-बड़ी प्रदर्शनीय वस्तुएँ सुशोभित हैं। इस क्षेत्र और उसकी संस्कृति को समझने के लिए यह सबसे उचित जगह है। इसके अतिरिक्त गुवाहाटी के आस-पास और भी सांस्कृतिक केंद्र हैं, जैसे कि हाजो और सौलकुची जो मैं नहीं देख पायी।

ब्रह्मपुत्र नदी में समुद्री पर्यटन का आनंद     

गुवाहाटी की धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा के बाद अगर आपने ब्रह्मपुत्र नदी पर आयोजित समुद्री पर्यटन का आनंद नहीं लिया तो आपकी यह यात्रा अधूरी ही रहेगी। यहां पर खुले डेक वाली बड़ी-बड़ी नावें हैं, जिस में एक नृत्य मंच और डी.जे. भी होता है, जैसा की गोवा में पाया जाता है। यह नाव आपको ब्रह्मपुत्र नदी में घंटे भर की लंबी सैर के लिए ले जाती है। इस सैर के दौरान आप दूर नज़र आनेवाली गुवाहाटी की क्षितिज रेखा देख सकते हैं और अगर बादलों की अनुमति हो तो सूर्यास्त का खूबसूरत नज़ारा भी देख सकते हैं। इस पुरातन शहर में आराम करने का यह सबसे उत्तम तरीका है और आराम करते हुए आप अपने दिन भर के कार्यक्रमों का पुनर्विचार भी कर सकते हैं।

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माजुली, असम – ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप https://inditales.com/hindi/majuli-island-brahmaputra-assam/ https://inditales.com/hindi/majuli-island-brahmaputra-assam/#comments Wed, 04 Jul 2018 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=612

माजुली विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है, जो चारों तरफ से महानदी ब्रह्मपुत्र से घिरा हुआ है। नदी के मध्य में बसा हुआ यह द्वीप बहुत ही रोचक है। लेकिन चिंता की बात यह है कि, माजुली का यह नदी द्वीप बड़ी ही तेज़ गति से सिकुड़ता जा रहा है और हो सकता है […]

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माजुली विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है, जो चारों तरफ से महानदी ब्रह्मपुत्र से घिरा हुआ है। नदी के मध्य में बसा हुआ यह द्वीप बहुत ही रोचक है। लेकिन चिंता की बात यह है कि, माजुली का यह नदी द्वीप बड़ी ही तेज़ गति से सिकुड़ता जा रहा है और हो सकता है कि गुजरते समय के साथ वह पूरी तरह से लुप्त हो जाए।

माजुली – ब्रह्मपुत्र में स्थित विश्व का विशालतम नदी द्वीप 

ब्रह्मपुत्र नदी पे एक पारंपरिक नाव - माजुली
ब्रह्मपुत्र नदी पे एक पारंपरिक नाव – माजुली

यहां तक कि इस द्वीप पर किए गए कुछ सर्वेक्षणों द्वारा यह अनुमानित किया गया है कि, यह द्वीप कम से कम 15-20 सालों तक ही विद्यमान है। 150 साल पहले इस द्वीप का क्षेत्रफल 1250 वर्ग कि.मी. हुआ करता परंतु अब इसका क्षेत्रफल केवल 450 वर्ग कि.मी. ही रह गया है। लगातार होते भूकटाव और हर साल वर्षा ऋतु के दौरान बाढ़ में जलमग्न होने के कारण यह द्वीप निरंतर रूप से अपना आकार बदलता रहता है। इन प्रकृतिक बदलावों के अनुसार अपने आप को ढालने के लिए इस द्वीप के वासियों को अपने दैनिक जीवन में अनेक परिवर्तन लाने पड़ते हैं। जैसा कि हमे किसी ने बताया, आप कभी भी माजुली का पक्का नक्शा नहीं बना सकते, क्योंकि, जब तक वह तैयार होकर छपेगा तब तक यह द्वीप अपना आकार बदल चुका होगा।

माजुली तक जाने का एक मात्र रास्ता – फेरी

मोटर बोट या फेरी - माजुली जाने का एकमात्र साधन
मोटर बोट या फेरी – माजुली जाने का एकमात्र साधन

माजुली केवल पानी से घिरे होने के कारण एक द्वीप नहीं कहलता, बल्कि ऐसी बहुत सी बातें हैं जो वास्तव में उसे एक द्वीप बनाती हैं और इन्हीं में से एक है यातायात के साधन। माजुली तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता है फेरी, जो पीढ़ियों से इस द्वीप को बाहरी दुनिया से जोड़े हुए है। लोगों का भी यही कहना है कि जहां तक उन्हें याद है वे इस फेरी के अलावा अन्य किसी भी मार्ग के बारे में नहीं जानते।

यहां पर जोरहाट, जो यहां का नजदीकी शहर है, के निमाती घाट से दिन में 5 बार एक फेरी आती है। यह फेरी मौसम के अनुसार 60-90 मिनट के बीच लोगों को माजुली ले जाती है और फिर उतनी ही बार वापस आती है। लेकिन लौटते समय नदी की धारा के विरुद्ध चलने के कारण उसे दुगना समय लगता है। नदी में पानी के उतार-चढ़ाव और उसके प्रवाह के अनुसार दोनों तरफ के फेरी सथानक अपने स्थान बदलते रहते हैं। आम तौर पर इन फेरी स्टेशनों का स्थान साल में 6-7 बार तो बदलता ही है। इस द्वीप पर सबकुछ इसी फेरी के माध्यम से आता है, चाहे वह वाहन का ईंधन हो या खान-पान की वस्तुएं।

ये फेरी लोगों के साथ-साथ वाहनों को भी एक ओर से दूसरी ओर ले जाती है, जिनमें से अधिकतर मोटरसाइकिले होती हैं, लेकिन इसके अलावा कभी-कभी कुछ गाडियाँ भी होती हैं जो यहां पर आनेवाले पर्यटक अपने साथ लाते हैं। इस द्वीप पर आवश्यक चिकित्सक सुविधाओं की अनुपलब्धि का प्रमुख कारण भी सीमित यातायात के साधन ही हैं। जिसके चलते लोगों को बहुत सी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो मरीजों को जोरहाट पहुँचने के लिए, जो माजुली से लगभग 3 घंटे की दूरी पर बसा हुआ है, अगली फेरी के आने तक का इंतजार करना पड़ता है। कई बार तो ये मरीज इतने लंबे इंतजार की परिस्थिति में भी नहीं होते।

मालूम होता है कि असम की सरकार इस द्वीप को मुख्य भूभाग से जोड़ने हेतु यहां पर एक पुल का निर्माण करना चाहते हैं, लेकिन द्विपवासी शायद इस प्रस्ताव से ज्यादा खुश नहीं हैं। एक पर्यटक की हैसियत से मुझे तो लगता है कि, सड़क के निर्माण से शायद इस द्वीप की शांतता भंग होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।

द्वीप का जीवन – बारिश और नदी    

मछली पकड़ने के जाल - माजुली
मछली पकड़ने के जाल – माजुली

इस द्वीप पर बसनेवाले लोगों का जीवन पूर्ण रूप से बारिश और चारों तरफ से बहनेवाली नदी के प्रवाह पर निर्भर है। हमे बताया गया कि बारिश के दौरान यह पूरा द्वीप बाढ़ से जलमग्न हो जाता है और यहां-वहां ऊंचाई पर स्थित कुछ ही क्षेत्र नज़र आते हैं।

इस द्वीप पर रहनेवाले प्रत्येक परिवार के पास एक या दो नावें हैं, जो बाढ़ के समय द्वीप पर यहां-वहां जाने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। ये नावें द्वीप पर हर जगह रखी हुई नज़र आती हैं। यहां पर हर व्यक्ति को तैरना आता है, क्योंकि यहां पर जीवित रहने के लिए यह कौशल बहुत ही आवश्यक है। यहां के अधिकतर लोग अपनी खुद की खेती करते हैं, जिनमें चावल और अन्य कोई भी सब्जियाँ उगाई जाती हैं, लेकिन इसके लिए भी लोगों को बारिश और नदी की अवस्था पर निर्भर रहना पड़ता है।

माजुली की मिसिंग जनजाति    
माजुली द्वीप की मिसिंग जनजाति
माजुली द्वीप की मिसिंग जनजाति

माजुली में अनेक जनजातियाँ रहती हैं, जिन में से एक है यहां का मिसिंग समुदाय। इस जाति के लोग मूलतः अरुणाचल प्रदेश के निवासी थे, जो सदियों पहले यहां पर आकर बस गए थे। इस जाति के लोगों से बातचीत करने के बाद हमे पता चला कि सालों पहले ये लोग यहां पर खेती का व्यवसाय किया करते थे, लेकिन बाढ़ के कारण अब उनके खेत नष्ट हो गए हैं। ऐसी स्थिति में अब उन्होंने हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग अपना लिए हैं।

इस जाति की महिलाएं मेखला की चादरें और गमछे बुनने में बहुत कुशल हैं। ये लोग बांस की अस्थायी झोपड़ियों में रहते हैं, जो बारिश के समय आसानी से विघटित किए जा सकते हैं और किसी अन्य स्थान पर पुनःनिर्मित किए जा सकते हैं। पर्यटक उनके पास खास तौर से उनकी बनाई गयी चावल की घरेलू शराब के लिए आते हैं।

माजुली के सत्र  

माजुली के वैष्णव सत्र
माजुली के वैष्णव सत्र

माजुली द्वीप की सबसे प्रसिद्ध जगहें हैं, यहां के सत्र, जिन्हें भारत के अन्य भागों में आश्रमों या मठों के रूप में जाना जाता है। ये सत्र 15वी शताब्दी के संत गुरु शंकरदेव द्वारा स्थापित किए गए थे। यद्यपि इनके द्वरा स्थापित मूल सत्र आज नदी में विलीन हो गए हैं, लेकिन आज भी यहां पर बहुत से ऐसे सत्र हैं, जो अब तक सक्रिय हैं और जिनका निर्माण संत गुरु शंकरदेव के कई अनुयायियों द्वारा किया गया था। वैसे तो इस प्रकार के सत्र पूरे असम में फैले हुए हैं, लेकिन फिर भी आपको माजुली द्वीप पर बसे हुए सत्रों के बारे में ही ज्यादा सुनने को मिलता है। ये सत्र प्रमुख रूप से वैष्णव ब्रह्मचारियों के निवास स्थान हैं, जिन्होंने अपने आपको पूर्ण रूप से इस भक्तिधारा को समर्पित कर दिया है।

ये ब्रह्मचारी इन सत्रों के शयनगृहों में रहते हैं। वे हस्तशिल्प बनाना, बुनाई करना या फिर नाट्य प्रदर्शन जैसे विविध कार्यों में भाग लेते हैं और इन में से कुछ ब्रह्मचारी नौकरी भी करते हैं। इन सत्रों की बड़ी-बड़ी ज़मीनें हैं, जिनसे प्राप्त होनेवाली आय इन्हीं सत्रों को जाती है। तथा स्थानीय लोग अपनी फसल का जो कुछ हिस्सा इन सत्रों को दान के रूप में देते हैं, वह भी उनके लिए बहुत ही सहायक होता है।

कृष्ण भगवान – माजुली के सत्रों के प्रमुख देवता 
माजुली सत्र में कार्यरत वैष्णव जन
माजुली सत्र में कार्यरत वैष्णव जन

माजुली में स्थापित सत्रों के प्रमुख देवता श्री कृष्ण भगवान है। उपाख्यानों के अनुसार कृष्ण भगवान माजुली में अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ आए थे। सत्यभामा को लगा कि शायद कृष्ण उन्हें द्वारका ले आए हैं, और उन्होंने कृष्ण से पूछा कि, “क्या यह आपकी द्वारका है?” तो इस कृष्ण ने हँसकर उत्तर दिया कि, “नहीं, लेकिन एक दिन यह नगरी भी द्वारका हो जाएगी”। और आज अगर आप यहां पर स्थित कृष्ण मंदिरों की संख्या देखे तो आप जरूर कहेंगे कि, कृष्ण का कथन सच हो गया है।

करीबन 600 वर्षों तक शिवसागर से असम पर शासन करनेवाले अनेक अहोम राजाओं द्वारा यहां पर विविध सत्र बनवाए गए थे। इन में से कुछ आज भी माजुली में मौजूद हैं, जो लगभग 400 साल पुराने हैं।

इन प्रत्येक सत्रों के एक मुख्य गुरु और कुछ उप-गुरु होते हैं, जो आगे जाकर मुख्य गुरु के उत्तराधिकारी बनते हैं। इन उप-गुरुओं का चुनाव इन्हीं सत्रों के वैष्णवों द्वारा किया जाता है।

इन वैष्णवों की दिनचर्या कुछ इस प्रकार की होती है, वे प्रातःकाल उठकर स्नान करके अपने कक्ष में सुबह की पुजा करते हैं और उसके बाद सत्र के मुख्य मंदिर में जाकर सब के साथ मिलकर भगवान का नाम कीर्तन और आरती करते हैं। आरती समाप्त होने के बाद सभी अपने-अपने काम पर लग जाते हैं। तथा शाम के समय फिर से एकत्रित होकर वे संध्या की आरती करते हैं। इस द्वीप पर बसे 22 सत्रों में से सिर्फ 5 सत्रों में ही ब्रह्मचारी निवास करते हैं और बाकी के सत्रों में वैष्णव लोग अपने परिवारों के साथ रहते हैं।

आउनीआटी सत्र, माजुली  

कच्चे लकड़ी के पुल - सत्र जाने का रास्ता - माजुली
कच्चे लकड़ी के पुल – सत्र जाने का रास्ता – माजुली

आउनीआटी सत्र माजुली का सबसे बड़ा सत्र है। यहां का सभागृह, मंदिर और निवास स्थान सब कुछ साधारण सा है और यहां की जमीन मिट्टी की है। इस सत्र में चप्पल पहनकर भीतर जाना मना है, जो कि अपेक्षित है, जिसके कारण आपको अपने चप्पल बाहर ही निकालने पड़ते हैं। इसके अलावा सत्र के भीतर छाता खोलने की मनाई है, क्योंकि, ऐसा करना सत्र का अपमान करने जैसा है। आउनीआटी सत्र में एक संग्रहालय और एक पुस्तकालय भी है। इस छोटे से संग्रहालय में बहुत ही सुंदर कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है। ये वस्तुएं सालों पहले इस सत्र को यहां के और आस-पास की जगहों के विविध राजाओं, ब्रिटिश आगंतुकों और लोगों द्वारा भेट के रूप में मिली थीं।

आउनीआटी सत्र का संग्रहालय 

इस संग्रह की सबसे उल्लेखनीय वस्तु है, बुनी हुई आइवरी की चटाई जो लगभग 6×3 फीट की है। यहां पर पीतल और चाँदी के बड़े-बड़े बर्तन हैं, जो इस सत्र के विविध गुरुओं द्वारा इस्तेमाल किए जाते थे। इस संग्रहालय में लकड़ी के बने बड़े से चप्पलों की एक जोड़ी है। हमे बताया गया कि ये चप्पल इस सत्र के एक गुरु के हैं जो बहुत विशाल थे। इसके अलावा यहां हाथी दांत के बने कुछ और जूते भी हैं। इन दौलतमंद वस्तुओं को देखकर आप इन्हीं विचारों में खो जाते हैं कि, जब इन आश्रमों के गुरुओं के पास इतनी मूल्यवान वस्तुएं थीं, तो ना जाने उस समय यह जगह कितनी धनवान रही होगी।

आउनीआटी सत्र का पुस्तकालय   

आउनीआटी सत्र में एक पुस्तकालय भी है, जहां पर पीतल के बड़े-बड़े कटोरे हैं, जो उत्सवों के समय प्रसाद बांटने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। यहां पर रखी गयी किताबें मुख्य रूप से आसामी भाषा में हैं। इस पुस्तकालय में कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ भी हैं। इनमें एक पांडुलिपि ऐसी है, जिस में सभी प्रकार के हथियों का गहराई से वर्णन किया गया है। हमे तो इन पांडुलिपियों को देखने की अनुमति नहीं मिली, पर मैं आशा करती हूँ कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन द्वारा इन पांडुलिपियों का अंकीकरण किया गया होगा और उन्हें सामान्य जनता के लिए उपलब्ध कराया गया होगा।

सत्रों में रास लीला का उत्सव  
माजुली में बने लकड़ी के मुखौटे
माजुली में बने लकड़ी के मुखौटे

दिवाली के बाद आनेवाले पूर्ण चंद्रमा के दिन, जिसे कार्तिक पुर्णिमा कहते हैं, इन सत्रों में रास लीला का आयोजन किया जाता है जो 3 दिनों तक चलता है। माजुली में जाने का यह सबसे उत्तम समय है। इसके अलावा पूरे साल के दौरान यहां पर और भी कई छोटे-छोटे उत्सव होते रहते हैं। इन उत्सवों के दौरान यहां पर आयोजित नृत्य प्रदर्शनों और नाटकों में सारे वैष्णव बड़ी उत्सुकता के साथ भाग लेते हैं। कुछ संगीत बजाते हैं, तो कुछ मुखौटे पहनकर विविध भूमिकाएँ करते हैं और बाकी सहायक कार्यों में जुट जाते हैं।

इन नाटकों में सभी भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते हैं, यद्यपि कभी-कभी महिलाएं भी इन नाटकों में भाग लेती हैं। विविध मिथकीय चरित्रों का प्रतिनिधित्व करनेवाले ये मुखौटे इन नृत्य नाटकों का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। हम वहां के एक मुखौटे बनाने वाले केंद्र में गए, जहां पर एक युवा कलाकार तरह-तरह के मुखौटे पहनकर,  उनके अनुसार अलग-अलग प्रकार के अभिनय भी कर रहा था। और सच में वह बहुत ही प्रतिभाशाली कलाकार था। प्रत्येक मुखौटे के साथ उसके हाव-भाव भी पूर्ण रूप से बदलते थे, जैसे भयंकर से प्रलोभी का रूपांतरण।

आगंतुकों के लिए माजुली के आकर्षण तत्व  

माजुली में वैसे तो देखने योग्य ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन यहां की कुछ बातें ऐसी हैं जो आपको इस द्वीप पर कुछ समय बिताने के लिए मजबूर करती हैं। चारों तरफ नदी से घिरे होने के कारण यह दुनिया की अनेक प्रदूषण मुक्त जगहों में से एक है। इस द्वीप पर किसी भी प्रकार के प्रदूषण कारक तत्व नहीं हैं और इसी वजह से यह द्वीप अनेक जाति के पक्षियों का बसेरा है। अगर आप किसी सड़क के किनारे बैठे हो तो आपको अपने इर्द-गिर्द विविध प्रकार के पक्षी और तितलियाँ यहां के पर्यावरण का मजा लेती हुई नजर आती हैं।

माजुली के पक्षी
माजुली के पक्षी

इसके अतिरिक्त अगर आप सुबह-सुबह इस द्वीप पर यहां-वहां छितरे जलस्रोतों के दर्शन करने जाए, तो आपको वहां पर कुछ परिचित तो कुछ अपरिचित से बहुत सारे पक्षी और तितलियाँ देखने को मिलती हैं। पक्षियों और तितलियों का यह नज़ारा किसी मेले से कम नहीं है। और अगर आप सर्दियों के मौसम में इस द्वीप पर जाए तो आपको वहां पर बहुत सारे घुमंतू पक्षी भी देखन को मिलते हैं।

हमारे पूर्वजों की जीवन शैली  

भारतवासियों के लिए माजुली जाना यानी 100 साल पहले के भारत में कदम रखने जैसा है, जहां आधुनिक काल के कुछ ही यंत्र अपना पदार्पण कर पाए हैं, जैसे मोबाइल फोन और टीवी। हो सकता है कि इस प्रकार की जीवन शैली के बारे में आपने अपने दादा-दादी या नाना-नानी से ही सुना होगा।

विदेशी पर्यटकों के लिए तो यहां पर देखने योग्य बहुत सी अनोखी बातें हैं। जैसे, यहां के सत्र जो इन विदेशियों के लिए बहुत ही असामान्य हैं। फिर यहां के आदिवासी गाँव जिनमें बांस के घर बने हुए हैं तथा बुनाई का काम और बहुत सारे पक्षी। यहां की भीड़ रहित कच्ची सड़कों पर शांति से साइकल चलाने में एक अलग ही मजा है। और इससे अधिक पूरी दुनिया से दूर बसे इस द्वीप पर शांतिपूर्ण जीवन बिताना बहुत ही सुखदायक है। वास्तव में बहुत से विदेशी पर्यटक खास तौर से माजुली घूमने के लिए ही भारत आते हैं।

अगर आप कभी माजुली जाए तो एक पर्यटक की तरह मत जाइए क्योंकि, शायद आपके लिए वहां पर कुछ भी रमणीय न हो। पर अगर आप वहां पर एक यात्री के रूप में जाए और अगर आप पूर्ण रूप से अपने आपको इस जगह में डूबने दे तो आपको यहां पर बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें दिखेंगी, जो सच में प्रशंसा के योग्य हैं।

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एक सींग वाले भारतीय गैंडे का घर – काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, असम https://inditales.com/hindi/kaziranga-national-park-single-horned-rhino/ https://inditales.com/hindi/kaziranga-national-park-single-horned-rhino/#comments Wed, 14 Mar 2018 05:30:53 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=647

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान भारत के विश्व धरोहर के स्थलों में से एक है। यह उद्यान एक सींग वाले गैंडों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इसका क्षेत्रफल 400 वर्ग कि.मी. से भी अधिक व्यापक है। माजुली द्वीप की तरह इस उद्यान का भी बहुत सारा भूभाग ब्रह्मपुत्र नदी के कारण हो रहे भूकटाव के चलते नष्ट […]

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काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान - एक सींघ वाला गैंडा
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान – एक सींघ वाला गैंडा

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान भारत के विश्व धरोहर के स्थलों में से एक है। यह उद्यान एक सींग वाले गैंडों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इसका क्षेत्रफल 400 वर्ग कि.मी. से भी अधिक व्यापक है। माजुली द्वीप की तरह इस उद्यान का भी बहुत सारा भूभाग ब्रह्मपुत्र नदी के कारण हो रहे भूकटाव के चलते नष्ट होता जा रहा है। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान गुवाहाटी और जोरहाट इन दो प्रमुख शहरों को जोड़नेवाले मुख्य मार्ग पर बसा हुआ है और वहाँ तक पहुँचने के लिए आप या तो गुवाहाटी से जा सकते हैं, या फिर जोरहाट से। यह मार्ग इस उद्यान से होकर ही गुजरता है। यहाँ पर रास्ते में आपको कई ऐसे स्थान मिलेंगे जहाँ पर थोड़ी देर रुककर आप जंगल में टहल रहे जानवरों को देख सकते हैं, खास कर हिरण और जंगली भैंस।

यहाँ पर सड़क के किनारे कुछ धान के खेत हैं जो हमे बताया गया था कि कुछ समय पूर्व इसी उद्यान का भाग हुआ करते थे, लेकिन अब धीरे-धीरे यह सबकुछ इस जंगल में बढ़ते लोगों के अनधिकारिक प्रवेश का शिकार होता जा रहा है। इस जंगल के दूसरी तरफ ब्रह्मपुत्र नदी बहती है और वर्षा ऋतु के दौरान इस तरफ की अधिकतर घासभूमि बाढ़ में जलमग्न हो जाती है। इस दौरान इस भाग के सभी जानवर जंगल के आंतरिक क्षेत्रों में प्रवेश करने लगते हैं। और तो और इस मौसम में यहाँ के सड़कों की हालत भी बहुत ही बुरी हो जाती है, जिसके कारण गाडियाँ भी जंगल के भीतर नहीं जा सकती।

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का मानचित्र
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का मानचित्र

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान अक्टूबर/नवम्बर से लेकर मार्च तक आगंतुकों के लिए खुला होता है। इसे खोलने की ठीक-ठीक तारीख उद्यान की भीतरी परिस्थितियों के आधार पर निश्चित की जाती है। वैसे तो यहाँ पर जाने का सबसे अच्छा समय है मध्य नवम्बर से लेकर फ़रवरी के अंत तक।

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान – जैव विविधता का प्रसिद्ध स्थल   

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में हिरण
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में हिरण

लॉर्ड कर्ज़न की पत्नी श्रीमति कर्ज़न पहली ऐसी व्यक्ति थी जिन्होंने इस क्षेत्र के जंगली जानवरों की सुरक्षा की माँग की थी। उन्हीं के निवेदन से इस वन क्षेत्र को आरक्षित वन में परिवर्तित किया गया था। इसके बाद 1974 में इसे राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया और फिर 1985 में इसे जैव विविधता का प्रसिद्ध स्थल होने के नाते यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की उपाधि भी प्राप्त हुई। आज इस राष्ट्रीय उद्यान को 3 प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है। इनमें से पश्चिमी भाग को बागोरी, मध्य भाग को कोहोरा और पूर्वी भाग को बोकाखाट के नाम से जाना जाता है। हमने यहाँ के बागोरी क्षेत्र के दर्शन किए और इस दौरान हमारा निवास स्थान कोहोरा क्षेत्र था।

एक सींग वाला गैंडा या भारतीय गैंडा   

इस उद्यान में आप एक सींग वाले भारतीय गैंडे के अलावा जंगली हाथी, जंगली भैंस और हिरण भी देख सकते हैं और अगर आप भाग्यवान हैं तो आपको यहाँ पर बाघ भी दिखाई दे सकता है। इस उद्यान के भीतर लंबी-ऊंची जंगली घास है जिसे हाथी घास कहा जाता है। यहाँ के जानवर अक्सर इस घास के पीछे छिपकर बैठे हुए होते हैं। इन घने और दलदली घास के मैदानों में ये जानवर पल में आपके सामने आकर, पल में गायब भी हो सकते हैं। इस वजह से इस जंगल में अकेले घूमना थोड़ा खतरनाक हो सकता है, क्योंकि आप नहीं बता सकते कि कब और कहाँ से ये जानवर आप के सामने आकर खड़े हो जाए।

लगता है जैसे ये जानवर गले में कैमरा लटकाए हुए मनुष्यों को लेकर उद्यान में घूमनेवाली इन जैतुनी रंग की जीपों के आदी हो गए हैं। लेकिन अगर आपको कहीं पर गैंडा या हाथी जैसे क्रूर और भयानक जानवर दिखे तो अच्छा होगा कि आप अपने स्थान पर ही रहें और उन्हें अपना समय लेते हुए अपने रास्ते जाने दे।

हाथी और गैंडे अपने बच्चों के साथ  
हाथी - काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान
हाथी – काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान

हाथी आम तौर पर समूह में घूमते हुए नज़र आते हैं और अक्सर जल स्रोतों के आस-पास ही पाये जाते हैं। तो दूसरी तरफ गैंडे अकले ही घूमना पसंद करते हैं और कभी-कभी आप उन्हें उनके बच्चों के साथ भी देख सकते हैं।

हमारी सफारी के दौरान हमे यहाँ पर गैंडे का एक बच्चा दिखा जो हमारी जीप के ठीक सामने था। उसे देखते ही हमारे गाइड ने तुरंत जीप रोक दी और कहा कि अगर गैंडे का बच्चा यहाँ पर है तो उसकी माँ भी कहीं आस-पास ही होगी। इतना कहते ही हमारी नज़र माँ गैंडे पर पड़ी जो अपने बच्चे का पीछा करते हुए आ रही थी। गैंडे का बच्चा खुशी-खुशी वहाँ खेल रहा था और उसकी माँ आस-पास रहकर उसपर कड़ी नज़र रखे हुई थी। एक बार तो उसने पलटकर हमारी ओर देखा, लेकिन शायद हमारी तरफ से उसे किसी प्रकार की शंका का कारण नहीं लगा और वह अपनी गतिविधियों में मग्न हो गयी। कुछ देर बाद गैंडे का बच्चा उस लंबी सी घास में कहीं गायब हो गया और उसकी माँ भी उसके पीछे चली गयी। कुछ ही पलों में वहाँ पर उनकी कोई हलचल नहीं थी।

जंगली भैंसा - काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान
जंगली भैंसा – काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान

आगे जाकर हमे एक और गैंडा दिखा जो सो रहा था। उसके थोड़ा नजदीक पहुँचकर हमारे गाइड ने हल्की सी आवाज से उसे जगा दिया। वह गैंडा आलस भरते हुए जाग गया और अपने आस-पास देखकर वापस सो गया। इन गैंडों की खाल देखकर मुझे लगा जैसे उन्होंने कोई कसा हुआ चमड़े का जैकेट पहन रखा हो। उनके संधि स्थलों पर नज़र आनेवाली सिलवटों भरी खाल के कारण ही देखनेवाले को ऐसा प्रतीत होता है।

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में शायद उस दिन माँ और बच्चों का दिन था। माँ गैंडा और उसके बच्चे के बाद हमारी मुलाक़ात सिर्फ 28 दिनों के हाथी के बच्चे से हुई जो अपनी माँ के साथ खेल रहा था।

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पहरे की मीनारें     

इस उद्यान में जल स्रोतों के आस-पास कुछ पहरे की मीनारें बनवाई गयी हैं, जहाँ से आप आस-पास के सुंदर नज़रों का आनंद उठा सकते है। इसी के साथ इस ऊंचाई से आप यहाँ की हाथी घास में छिपे बैठे जानवरों को भी देख सकते हैं, तथा उनकी अन्य गतिविधियों का भी अवलोकन कर सकते हैं। जैसे कि, आप उन्हें तालाब के उस पार स्नान करते हुए, यहाँ-वहाँ टहलते हुए, अपने साथियों के साथ खेलते हुए, या फिर ऐसे ही बेफिक्र घूमते हुए देख सकते हैं।

जिस मीनार पर हम खड़े थे उसके नीचे स्थित तालाब में हमने बड़ी-बड़ी मछलियाँ देखी, जो पल में ऊपर आकर फिर से पानी में लुप्त हो जाती थीं। उनकी इस चंचल गति के कारण हम ठीक से उनकी तस्वीरें भी नहीं ले पाये। इसके अतिरिक्त हमने वहाँ पर बहुत सारे रंगबिरंगी और सुंदर पक्षी देखे जो हमारे चारों ओर उड़ रहे थे। यहाँ पर बिताए हुए इन पलों ने जैसे हमारी इस उद्यान सफारी के अनुभव को पूर्ण कर दिया था।

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की पशुसंख्या   
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की पशु संख्या
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान की पशु संख्या

इस उद्यान में वन विभाग द्वारा एक सूचना फ़लक लगवाया गया है, जिस पर यहाँ की पशुसंख्या संबंधी जानकारी दी गयी है। इस फ़लक पर साफ-साफ लिखा गया था कि इस उद्यान में एक सींग वाले गैंडों और अन्य जानवरों की आबादी काफी वृद्धि कर रही है। यद्यपि बाघों की संख्या के बारे में उनके आंकड़े कुछ अस्पष्ट से थे। हमारे गाइड ने हमे बताया कि, संचार माध्यमों में जैसे कि बाघों की संख्या 1411 बतायी जाती है, असल में वह उससे कई ज्यादा है।

अवैध शिकार आज भी यहाँ के वन विभाग का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। हमे बताया गया था कि हर समय इस उद्यान में कोई ना कोई, कहीं ना कहीं छिपा हुआ मिल ही जाता है, जो गैंडों के शिकार के इंतजार में होते हैं। असल में ये लोग इन गैंडों को उनके सींग के लिए मारना चाहते हैं। इन सींगों की सीमित उपलब्धि के कारण उन्हें बहुत ही विशेष माना जाता है और ऐसे किसी के पास यह विशेष वस्तु होना अपने-आप में बहुत बड़ी बात है। शायद यह सींग किसी प्रकार की तांत्रिक विद्या में भी इस्तेमाल किया जाता है। ये विशेषताएँ इस सींग को इतना कीमती बनाती हैं कि उसके लिए शिकारी अपनी जान पर भी खेलने के लिए तैयार होते हैं। इसी प्रकार हाथी के दांतों की भी यही कहानी है।

इत्तेफाक से हमे वहाँ पर दंतोंवाला एक भी हाथी नहीं दिखा। क्या हो सकता है कि इन सभी हाथियों के दांत काट दिये गए हों?

संजातीय गाँव   
लोहे सीमेंट से बना संजातीय गाँव
लोहे सीमेंट से बना संजातीय गाँव

काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के कोहोरा क्षेत्र में एक कृत्रिम संजातीय गाँव का निर्माण किया गया है, जहाँ पर पर्यटन विभाग द्वारा उत्तर पूर्वीय भारत की विविध जनजातियों के घरों के प्रतिरूप बनवाने की कोशिश की गयी है। दुर्भाग्यवश, स्थानीय लोगों ने जहाँ अपने घर बांस जैसे प्रकृतिक वस्तुओं से बनवाए हैं, वहीं यहाँ पर सबकुछ सीमेंट का बनवाया गया है। यहाँ तक कि बांस की प्रतिकृतियाँ भी सीमेंट की बनवाई गयी हैं। इसके अतिरिक्त, वहाँ पर आदिवासी जनजातियों के दैनिक जीवन को दर्शानेवाले बड़े-बड़े चित्र भी बनवाए गए हैं। इस प्रकार ग्रामीण जीवन को कृत्रिम रूप में प्रदर्शित करना आज एक प्रवृत्ति सी बन गयी है, जो देश में हर जगह देखा जा सकता है। प्रत्यक्ष गांवों को छोड़कर कृत्रिम गांवों का यह निर्माण मुझे कुछ खास पसंद नहीं हैं।

आदिवासी गाँव - असम
आदिवासी गाँव – असम

पता नहीं इसकी प्रभावशीलता पर कोई ध्यान देता भी हैं या ये सारे लोग बस इस तेजी से फैलती मानसिकता का भाग बनते जा रहे हैं। इस कृत्रिम गाँव में हमे कोई भी नहीं दिखा, हम बस ऐसे ही चीजों को देखते हुए वहाँ पर घूमते रहे और फिर वापस अपने होटल लौट गए। यहाँ पर घूमते हुए आप आस-पास बहुत सारे चाय बागान देख सकते हैं, जो आपके लिए सुंदर दृश्य प्रदान करते हैं।

जीप सफारी  

अगर आप कभी इस उद्यान के दर्शन करने गए तो वहाँ के जंगलों में घूमने के लिए जीप सफारी का चुनाव ही सबसे बढ़िया रहेगा। इस प्रकार आप वहाँ के जानवरों को नजदीक से देख सकते हैं। आप चाहे तो यहाँ पर हाथी की सवारी भी कर सकते हैं। इस राष्ट्रीय उद्यान के आस-पास फैले गार्हस्थ्य प्रबंध, जो सड़क के उस पार बसा हुआ है, को आप चाहने पर ही अनदेखा नहीं कर सकते। वहाँ पर बड़े-बड़े और महंगे आश्रय घर और बैकपैकर के मांद हैं।

इस उद्यान में उपलब्ध जीप सेवा सिर्फ पर्यटन के मौसम में ही कार्यरत होती हैं, जो पर्यटकों को इस उद्यान की पूरी सैर करवाते हैं। इसके अलावा यहाँ पर स्मारिका दुकानें भी हैं जो बांस की बनी विविध प्रकार की स्थानीय वस्तुएं बेचते हैं। यद्यपि एन मौके पर आयोजित यात्राओं की बढ़ती प्रवृत्ति ने अभी तक यहाँ दस्तक नहीं दी है, लेकिन यहाँ पर कुछ गाइड ऐसे हैं जिन्हें इस जंगल के रास्तों और वहाँ के जानवरों की थोड़ी बहुत जानकारी है जो आनेवाले आगंतुकों का भली-भांति मार्गदर्शन कर सकते हैं। और देखा जाए तो यहाँ का वन विभाग भी अपनी सेवाएँ प्रदान करने में काफी तत्पर है।

इस उद्यान की सैर करते हुए तथा वहाँ के जानवरों को देखते हुए आपको बहुत गर्व सा महसूस होता है कि ये जानवर इस उद्यान के आस-पास रहने वाले बहुत से लोगों की रोजी-रोटी का स्रोत हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान एक बहुत ही खूबसूरत और शांत सी जगह है। जब मैं यह ब्लॉग लिख रही थी तो मेरे मन में बार-बार वहाँ की लंबी-लंबी हाथी घास के चित्र घूम रहे थे।

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असम चाय के बागान – असम में घूमने की जगहें https://inditales.com/hindi/assam-tea-gardens/ https://inditales.com/hindi/assam-tea-gardens/#comments Wed, 31 Jan 2018 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=620

असम चाय के बागानों को लेकर मेरे मन में एक बहुत ही औपनिवेशिक छवि बसी हुई है। अंग्रेजों द्वारा संचालित चाय के उद्यान जिनमें बड़े-बड़े बंगलों में वे रहा करते थे। तथा वहीं पर स्थित चाय के उत्पादन और संकुलन के केंद्र और अपनी पीठ पर बांस की टोकरियाँ लादे इन बागानों से चाय की […]

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असम चाय की ताज़ा पत्तियां
असम चाय की ताज़ा पत्तियां

असम चाय के बागानों को लेकर मेरे मन में एक बहुत ही औपनिवेशिक छवि बसी हुई है। अंग्रेजों द्वारा संचालित चाय के उद्यान जिनमें बड़े-बड़े बंगलों में वे रहा करते थे। तथा वहीं पर स्थित चाय के उत्पादन और संकुलन के केंद्र और अपनी पीठ पर बांस की टोकरियाँ लादे इन बागानों से चाय की पत्तियाँ बीनते हुए श्रमिकों के समूह।

लोग हमेशा से चाय के उद्यान का स्वामी होने के आकांक्षी रहे हैं। मेरे अनुमान से यह आज भी चलता आ रहा है, यद्यपि अब अधिकतर उद्यान व्यक्तिगत स्वामित्व के बजाय निगमों द्वारा संचालित किए जा रहे हैं। भारत के उत्तर पूर्वीय भागों में, विशेष कर पूर्वीय असम और दार्जिलिंग के आस-पास के इलाके में विश्व की 20% से भी अधिक चाय पत्ती का उत्पादन होता है। ऐसे में इन इलाकों को विश्व के टिस्पून्स या विश्व का चाय का चम्मच कहना गलत नहीं होगा।

मैंने इससे पहले भी अपनी केरल और श्रीलंका की यात्राओं के दौरान चाय के बागान देखे हैं, लेकिन असम के चाय बागानों के प्रति मेरा आकर्षण बचपन से रहा है। जब से मैंने पाठशाला में उनके बारे में पढ़ा था, तब से मेरे मन में यह बात बैठ गयी थी कि उनके बारे में और जानने के लिए मुझे वहां जाना ही है। एक ओर जहां ये चाय बागान विश्व को स्वाद भरी चाय प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर ये अनेक लोगों के रोजगार और रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया भी है।

असम चाय पत्तियों की बिनाई    
असम चाय की पत्तोयों की बिनाई
असम चाय की पत्तोयों की बिनाई

प्रत्येक चाय के बागान में तरो-ताज़ा अंकुरित चाय की पत्तियों की लगातार बिनाई की जाती है। निश्चित रूप से कहे तो, उत्तम चाय पत्ती के लिए प्रत्येक कटाई के दौरान दो पत्ते और एक अंकुर एक साथ तोड़े जाते हैं। एक सामान्य मजदूर प्रति दिन लगभग 60-80 किलो तक चाय पत्तियों की बिनाई कर सकता है और हर एक किलो के पीछे उसे लगभग 2-3 रूपये दिए जाते हैं। एक बांस की टोकरी लगभग 5 किलो तक चाय पत्तियाँ ढो सकती है और ये पत्तियाँ दिन में अनेक बार तौली जाती हैं।

आम तौर पर ये मजदूर अपना काम प्रातःकाल सूर्योदय के साथ ही आरंभ करते हैं और सूर्यास्त तक काम करते रहते हैं। इसके दौरान उन्हें दोपहर के खाने की एक छुट्टी और दो वक्त की चाय की छुट्टी दी जाती है। पत्तों के अंकुरण के आधार पर हर सुबह इन मजदूरों को उनके पर्यवेक्षक द्वारा एक क्षेत्र सौंपा जाता है और ये मजदूर कार्यरत न होने के बावजूद भी बड़े ही संगठित रूप से अपना काम करते रहते हैं। उसके बाद पूरे दिन के काम के अनुसार उन्हें मजदूरी दी जाती है।

असम चाय बागानों में श्रमिक
असम चाय बागानों में श्रमिक

यहां के अधिकतर मजदूर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से हैं, जिन्होंने धीरे-धीरे करके इन चाय उद्यानों के इर्द-गिर्द अपने घर बसा लिए हैं। एक शाम जब हम वहां पर थे, उस समय इन थके-हारे मजदूरों को आशा भरे भाव से अपने साथियों के साथ घर जाते देख मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।

असम चाय के बागान या एक हरा कालीन

मुझे इन हरे-भरे चाय के बागानों की सैर करना बहुत पसंद है। यद्यपि उनके आस-पास का वातावरण हमेशा उष्ण और नम रहता है, जिसके कारण लंबे समय तक वहां पर रहना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इन बागानों में खड़े होकर अगर आप अपने चोरों ओर देखे तो दूर-दूर तक आपको सिर्फ चाय के हरे-भरे पौधे ही नज़र आते हैं, जैसे कि इस धरती पर घना हारा कालीन बिछाया गया हो।

हरा कालीन से दीखते असम चाय बगान
हरा कालीन से दीखते असम चाय बगान

असम चाय बागानों में, इन पौधों के बीच खड़े ऊंचे-ऊंचे पेड़ उनके साथ-साथ वहां पर काम कर रहे मजदूरों को भी अपनी छाया प्रदान करते हैं। कभी-कभी इन पेड़ों को मसालों के पौधों की लताओं से लपेटा जाता है, जो आपको एक ही बार में हरे रंगे के अनेक प्रकारों से रूबरू कराती हैं। यहां पर चाय पत्ती एकत्रित करनेवाले मजदूरों को आने-जाने के लिए बनवाई गयी संकरी गालियां किसी निराकार रूपरेखा के समान लगती हैं। जब ये बागान किसी ढलान पर स्थित होते हैं, तो वह पूरी पहाड़ी ही, भारी-भरकम हरी कढ़ाई के कपड़े पहने हुए किसी स्त्री की तरह लगती है।

असम चाय बागान    

हमने इस यात्रा के दौरान तेज़पुर, काजीरंगा और जोरहाट के चाय बागान देखे। वैसे तो तेज़पुर हमारे यात्रा कार्यक्रम में नहीं था, लेकिन अरुणाचल प्रदेश तक जानेवाला मार्ग बंद होने के कारण हमने वहां पर जाना ही ठीक समजा। क्योंकि, अगले दिन तक मार्ग खुलने के कोई भी आसार नज़र नहीं आ रहे थे। तेज़पुर में चाय के उद्यान के बीचोबीच बसी यह धरोहर की संपत्ति बहुत ही आकर्षक है। यहां पर बड़े-बड़े बंगले हैं, जो 100 सालों से ज्यादा पुराने हैं, लेकिन उनके रखरखाव को देखकर लगता है जैसे उनमें हमेशा से कोई रहता आया हो।

चाय अनुसंधान केंद्र, टोकलाई, जोरहाट    

चाय बागानों की हमारी यह यात्रा जोरहाट में स्थित टोकलाई के दर्शन किए बिना शायद अधूरी ही रह जाती। टोकलाई विश्व का विशालतम चाय अनुसंधान केंद्र है। यहाँ पर चाय के पौधे किस मिट्टी में उगाये जाते हैं से लेकर चाय पत्ती के संकुलन और बिक्री की प्रक्रिया तक, सभी पहलुओं पर विशेष संशोधन किया जाता है।

चाय अनुसन्धान केंद्र में कमल के फूल
चाय अनुसन्धान केंद्र में कमल के फूल

इसके अलावा यहां पर चाय के नए-नए प्रकार भी बनाए जाते है, तथा चाय पत्ती बनाने की नवीन प्रणालियों, पद्धतियों और प्रक्रियाओं पर भी ध्यान दिया जाता है। टोकलाई का परिसर बहुत ही सुंदर है, जहां पर कमल और कुमुद के फूलों से भरे कुछ तालाब हैं और विविध प्रकार के छोटे-बड़े पेड़ हैं जिन पर मौसमी पुष्प खिले हुए थे। छुट्टी का दिन होने के कारण हम वहां पर स्थित चाय का संग्रहालय तो नहीं देख पाये, लेकिन वहां का परिसर भी अपने आप में बहुत ही मनभावन था।

जोरहाट से गुवाहाटी जाते समय हमने ट्रेन की खिड़कियों से चाय के बागानों के आखरी दर्शन किए। मुझे लगता है कि इन सुंदर चाय बागानों की यात्रा के बाद तथा हम तक यह चाय पहुंचाने के पीछे छिपी कड़ी मेहनत देखने के बाद, अब से मैं अपने चाय के प्याले की और भी ज्यादा कद्र करूंगी।

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शिवसागर या सिबसागर – असम में मंदिरों की नगरी https://inditales.com/hindi/temple-town-shivsagar-assam/ https://inditales.com/hindi/temple-town-shivsagar-assam/#comments Wed, 25 Jan 2017 10:16:51 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=124

दिखो नदी के किनारे पर, लगभग 380 कि.मी. गुवाहाटी के पूर्व में और जोरहाट के 60 कि.मी. पूर्व में एक छोटा पर अनोखा नगर, शिवसागर बसा हुआ है। इसे सिबसागर के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन अब इसका नाम बदलकर शिवसागर रखा गया है। एक समय पर सिबसागर वह क्षेत्र हुआ करता था […]

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दिखो नदी के किनारे पर, लगभग 380 कि.मी. गुवाहाटी के पूर्व में और जोरहाट के 60 कि.मी. पूर्व में एक छोटा पर अनोखा नगर, शिवसागर बसा हुआ है। इसे सिबसागर के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन अब इसका नाम बदलकर शिवसागर रखा गया है। एक समय पर सिबसागर वह क्षेत्र हुआ करता था जहां से अहोम के महान राजाओं ने छः शताब्दियों से भी अधिक शासन किया।

शिवसागर – असम के पर्यटक स्थल

शिव दोल - शिवसागर, असम
शिव दोल

उन्होंने 19वी सदी के प्रारंभिक दौर तक राज्य किया, जिसके बाद वे बर्मियों के हाथों पराजित हुए। और अंत में इस क्षेत्र पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया। उस समय इस क्षेत्र को रंगपुर के नाम से जाना जाता था। अब यह एक छोटा सा नगर बन गया है, जो अपने महान अतीत के अवशेषों का संरक्षण करता हुआ अपने आगंतुकों का स्वागत करता है। इस पूरे शहर में यहां-वहां स्मारकों के समूह बिखरे हुए हैं। इसका कारण यह है कि, एक के बाद एक राजाओं ने अपने अनुसार राज्य को विभिन्न स्थानों पर स्थानांतरित किया था। लेकिन आज उनमें से अधिकतर स्मारक सिबसागर का भाग बन चुके हैं। यह देखकर मुझे दिल्ली की याद आई, जहां पर ऐसे ही बहुत प्राचीन शहर हैं जो दिल्ली की वर्तमान सीमाओं में समा गए हैं।

नामदांग स्टोन ब्रिज

नाम्दांग पत्थर का पुल - असम
नाम्दांग पत्थर का पुल – असम

जोरहाट से शिवसागर की ओर जाते समय आपको रास्ते में एक 300 साल से भी अधिक पुराना एक छोटा सा पुल मिलता है, जिसे नामदांग स्टोन ब्रिज नाम से जाना जाता है। इस पूरे पुल को एक ही पत्थर से बनाया गया है। नामदांग नदी पर बना हुआ यह पुल अब राष्ट्रीय महामार्ग 37 का भाग है।

शिवसागर सरोवर

शिवसागर पहुँचते ही सबसे पहले आपको एक विशाल सरोवर दिखेगा जो शिवसागर सरोवर कहलाता है। इस पूरे सरोवर में कुमुद और कमल के फूल छितराये हुए नज़र आते हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में शानदार लाल मंदिरों का दृश्य दिखाई देता है। इसी सरोवर के नाम के आधार पर इस नगर को शिवसागर नाम दिया गया है। इस सरोवर के पास ही 3 मंदिर हैं जिन्हें शिवडोल, विष्णुडोल और देवीडोल के नाम से जाना जाता है। रानी अंबिका ने ये मंदिर 18वी सदी के प्रारंभिक काल के दौरान बनवाए थे, जिसके अनुसार ये मंदिर लगभग 300 साल पुराने हैं।

शिवडोल, विष्णुडोल और देवीडोल मंदिर

विष्णु दोल - शिवसागर, असम
विष्णु दोल

ये तीनों मंदिर लाल रंग के हैं और प्रत्येक मंदिर की शिखर भिन्न और प्रभावशाली है। यह मान लेना शायद तर्कसंगत होगा कि तीनों मंदिरों में शिवडोल मंदिर सबसे महत्वपूर्ण है। वह बाकी दोनों मंदिरों के बीच में स्थित है और उन दोनों की तुलना में थोड़ा ऊंचा भी है। शिवडोल और देवीडोल मंदिर के शिखर नगर की विशिष्ट शैली में बनायी गए हैं और उनके मंडप बंगाल की छला शैली में बनाये गए हैं। विष्णुडोल और जॉयडोल की शिखर थोड़ी भिन्न है जो औंधे वक्रीय शंकु के आकार की है और इस पर चौकौर विचित्र खांचे बने है, जिसपर पुष्पों की खुदाई की गयी है. शिखर के शीर्ष पर ३-४ अमलका है। इन सारे मंदिरों के सामने एक और खुला मंडप बनवाया गया है, जिसकी छत त्रिकोणीय कलई की बनी हुई है।

ये तीनों ढांचे ,यानि शिखर, मंडप और बाहरी छत इन मंदिरों को सम्मिश्रित वास्तुकला का उत्तम उदाहरण बनाते हैं। इन मंदिरों की भूरे पत्थरों से बनी बाहरी दीवारों पर खुदाई की गयी है। भीतर से इन तराशे हुए पत्थरों को दीवारों से जोड़ा गया है। यद्यपि यह देश का सबसे अच्छा या देखने योग्य नक्काशी काम नहीं है, लेकिन पत्थर की खुदाई का काम यहां के सभी हिन्दू देवताओं के मंदिरों में पाया जाता है। भूरे और लाल रंग का यह परस्पर मेल बहुत ही अनोखा और दिलचस्प है, जो नीरसता को भंग करता हुआ रंगीन तो लगता है पर भड़कीला नहीं दिखता। इन मंदिरों का गर्भगृह आम तौर पर जमीनी स्तर से थोड़ा नीचे होता है। यहां का वातावरण इतना उष्ण और नम होता है कि कुछ मिनटों में ही वहां पर खड़ा होना बहुत मुश्किल हो जाता है।

जॉयडोल मंदिर और जॉयसागर सरोवर

जॉय सागर - शिवसागर - असम
जॉय सागर

जॉयडोल मंदिर एक और बड़े से सरोवर, जॉयसागर के पास ही स्थित है। इसे राजा रुद्र सिंह ने अपनी माता जॉयमोती के सम्मान में बनवाया था। यह सरोवर बहुत ही सुंदर है और फूलों और पक्षियों से भरा रहता है। जब हम वहां पहुंचे तब यह मंदिर एकदम खाली था। जिसके कारण यह जगह बहुत ही शांत लग रही थी, जहां पर बैठकर आप चिंतन-मनन कर सकते हैं। यहां का मौसम बहुत ही सुहाना है।

शिवसागर में अहोम का साम्राज्य

जॉय डोल - शिवसागर, असम
जॉय डोल

अहोम चीनी वंशज थे जो कुछ काल के उपरांत हिन्दू धर्म में परिवर्तित हुए थे। उन्होंने हिन्दू राजाओं के रूप में लंबे समय के लिए राज्य किया। अनुसंधान के मामले में यह बहुत ही दिलचस्प विषय बन सकता है, जहां पर शासक ही शासन करने के लिए शासितों का धर्म अपनाते हैं। शिवसागर सरोवर के पास ही स्थित संग्रहालय में अहोम के राजाओं द्वारा प्रयुक्त चीजों का संग्रह है। यहां पर अहोम वंश के प्रमुख शासक राजा रुद्र सिंह, जिन्होंने 18वी सदी के दौरान शासन किया था, की बड़ी सी मूर्ति रखी गयी है। जाहिरा तौर पर अहोम के राजाओं को दफनाया गया था और उनके शव पर मिट्टी डालकर उस जगह को टीले का रूप दिया गया था। ये टीले बाद में मैदानों के रूप में प्रसिद्ध हुए। इस क्षेत्र में आपको ऐसे कई मैदान मिलेंगे। जैसे कि जोरहाट का मैदान, यद्यपि वहां देखने लायक कुछ भी नहीं है।

रंग घर, शिवसागर

सुंदर रंग घर
सुंदर रंग घर

रंग घर एक अकेला खड़ा स्मारक है, जो शिवसागर से ज्यादा दूर नहीं है। यह दो मंज़िला ढांचा मुगलों की बरादरी के जैसा दिखता है। कहा जाता है कि इस जगह से राजा, भैंसों की लड़ाई जैसे खेल और बीहू जैसे उत्सव देखा करते थे, जो घर के आस-पास आयोजित किए जाते थे। एक प्रकार से यह उनका मनोरंजन का मंडप था। 18वी सदी का यह सुंदर ढांचा फीके से गुलाबी रंग का है, जिसकी दीवारें अनेकों रूपांकनों से सुसज्जित हैं। इनमें से अधिकतर फूल पट्टी की बनावट है, जो मुगल के रूपांकनों से प्ररित है। ऊपरी मंज़िल के वृत्त खंड इस भवन को बरादरी रूप देते हैं, लेकिन उसकी छत उसे एक भिन्न पहचान प्रदान करती है। वह उलटी नाव जैसी है, जिसके दोनों सिरों पर मगरमच्छ की खुदाई की गयी है जो उसे चीनी स्वरूप देता है।

यह भवन छोटे-छोटे ईंटों से बनाया गया है जो उस युग की अधिकतर इमारतों में पाये जाते हैं। इस भवन को चूने से लीपा गया है। मुझे लगता है कि, यहाँ की उष्णता से भवन को ठंडा रखने के लिए उसपर चूना लगाया गया है।

तलातल घर

तलातल महल - शिवसागर - असम
तलातल महल

रंग घर से थोड़ी दूर अहोम राजाओं का पुराने जमाने का सात मंज़िला महल है जिसे तलातल कहा जाता है। इस महल की विशिष्ट बात यह है कि, उसकी सात में से तीन मंज़िलें भूमिगत हैं। यहां पर गुप्त सुरंग भी है, जो महल से बाहर जाती है। लेकिन मेरे खयाल से यह ज़्यादातर राजसी आवासों का अभिन्न अंग है। लेकिन अब यहां पर कुछ ही मंज़िले बाकी हैं, जहां कक्ष, गलियारे और दीवारों कि खुदाई के कुछ अवशेष बचे हैं। जैसे-जैसे आप इस खंडहर से गुजरते हैं, नक्काशीयों के कुछ हिस्से यहां-वहां झलकते हैं। अनेक प्रवेश द्वारों के पास अलंकृत खंबों के अवशेष दिखाई पड़ते हैं। एक शिव मंदिर जो आज भी सक्रिय है, एक छोटे से जल स्त्रोत के पास अपना स्थान ग्रहण किए हुए है। इस महल से थोड़ा दूर गोला घर है जहां पर गोलाबारूद रखा जाता था।

उत्तरन संग्रहालय

उत्तरं संग्रहालय
उत्तरं संग्रहालय

शिवसागर में सबसे अचरज की बात जो हमें मिली वो थी व्यक्तिगत संग्रहालय जो उत्तरन के नाम से जाना जाता है। यह एक व्यक्ति द्वारा इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को एकत्रित कर उसे प्रदर्शित करने का प्रयास है। यह संग्रह बहुत ही प्रभावशाली और उस व्यक्ति का प्रयास प्रशंसनीय है। यह दो मंज़िला भवन कलाकृतियों से भरा हुआ है। इसका और एक हिस्सा स्वयं वहां के अध्यक्ष या मालिक द्वारा व्यक्तिगत रूप से बनाया जा रहा है। हमने उनसे बात भी की। उनका सपना है कि वे अपने खुद के पैसों से एक विशाल संग्रहालय बनाए, जिसे सुनकर हमे बहुत खुशी हुई।

मैं दिल से ऐसे व्यक्तियों कि प्रशंसा करती हूँ, जो खुद के दम पर अपने सपने पूरे करना चाहते हैं। बजाय उन व्यक्तियों के जो सोचते हैं कि सपने पूरे करने का एक ही तरीका है, दूसरों की सहायता लेना। हमने यह संग्रहालय इत्तिफ़ाक से देखा, जब हम वहां से गुजर रहे थे। अन्यथा, कहीं पर भी किसी यात्रा गाइड या इन्टरनेट पर इस संग्रहालय का उल्लेख नहीं है।

शिवसागर की खोज

तलातल महल का हिस्सा
तलातल महल का हिस्सा

जिस समय मैं इस यात्रा के बारे में जानकारी हासिल कर रही थी, तब किसी ने भी मुझे सिबसागर या शिवसागर के बारे में नहीं बताया। जब मैंने उत्तर-पूर्व की यात्राएं आयोजित करने वाले कई यात्रा प्रबंधकों से पूछा तो वे असम की इस जगह से बिलकुल अनभिज्ञ थे। शिवसागर पहुँचने से पहले रास्ते पर मिलने वाले लोगों ने भी हमे बताया कि वहां पर देखने लायक ज्यादा कुछ नहीं है, आप निराश होंगे। लेकिन वहां पर एक पूरा दिन बिताने के बाद मैं सोच में पड़ गयी कि क्यों लोगों को इस जगह के बारे में ज्यादा पता नहीं है और क्यों उन्हें लगता है कि वह देश के बाकी ऐतिहासिक स्थानों जितना महत्वपूर्ण नहीं है। हमे यह जगह बहुत पसंद आयी और हमने इस जगह का बहुत आनंद लिया।

मेरी यह इच्छा है और मैं आशा करती हूँ कि लोग जाकर इस जगह को जरूर देखेंगे, जहां से देश में दीर्घ काल तक शासन करने वाले शासक वंशजों ने अपना शासन चलाया।

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