उत्तराखण्ड Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/उत्तराखण्ड/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Fri, 16 Aug 2024 03:05:19 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 कुमाऊँ के मनमोहक पक्षी – उत्तराखंड में प्रकृति का आनंद https://inditales.com/hindi/kumaon-ke-manmohak-pakshi/ https://inditales.com/hindi/kumaon-ke-manmohak-pakshi/#respond Wed, 12 Feb 2025 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3766

भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड को प्रकृति ने अनेक अद्भुत उपहारों से अलंकृत किया है। उनमें से एक है, इस प्रदेश के मनमोहक पक्षी। भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले पक्षियों की विविध प्रजातियों में से लगभग ७०० प्रजातियाँ उत्तराखंड में भी देखी गयी हैं। अब तक मैंने देवभूमि उत्तराखंड में जितने भी भ्रमण किये […]

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भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड को प्रकृति ने अनेक अद्भुत उपहारों से अलंकृत किया है। उनमें से एक है, इस प्रदेश के मनमोहक पक्षी। भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले पक्षियों की विविध प्रजातियों में से लगभग ७०० प्रजातियाँ उत्तराखंड में भी देखी गयी हैं।

चील
चील

अब तक मैंने देवभूमि उत्तराखंड में जितने भी भ्रमण किये हैं, मेरी भ्रमण सूची हिमालय, सूर्योदय के दृश्यों, वहाँ के परिदृश्यों आदि के चारों ओर ही केन्द्रित रही है। यद्यपि उत्तराखंड में पाए जाने वाले भिन्न भिन्न मनभावन पक्षियों के दर्शन करने की मेरी अभिलाषा सदा से थी, तथापि मैं वहाँ के पक्षियों के दर्शन के उद्देश्य से एक विशेष यात्रा का नियोजन अब तक नहीं कर पायी हूँ।

पूर्णरूपेण ना सही, कुमाऊँ के पक्षियों पर सरसरी दृष्टि डालने का अवसर मुझे अवश्य प्राप्त हुआ। कुमाऊँ के इन मनमोहक पक्षियों ने मुझे इस प्रकार मंत्रमुग्ध किया कि मैंने पक्षी दर्शन के उद्देश्य से भविष्य में एक पूर्वनियोजित भ्रमण करने का निश्चय अवश्य कर लिया है।

कुमाऊँ में विविध पक्षियों के दर्शन

जब तक कुमाऊँ में पक्षी दर्शन हेतु विशेष भ्रमण की मेरी योजना यथार्थ में परिवर्तित नहीं हो जाती, आईये मैं कुमाऊँ क्षेत्र के कुछ ऐसे पक्षियों से आपका परिचय कराती हूँ जिन्होंने मेरे पूर्व भ्रमण में मुझे अपने दर्शन देकर अनुग्रहीत किया था।

काठगोदाम

कुमाऊँ में हमारे सड़क भ्रमण का प्रथम पड़ाव था, काठगोदाम। हल्दवानी पार कर हम काठगोदाम पहुँचे। यहीं से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र आरम्भ होते हैं। दिल्ली से लम्बी यात्रा कर जब हम यहाँ पहुँचे, हमारी क्षुधा अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। दोपहर के भोजन के लिए हम नदी के तट पर स्थित एक जलपानगृह पर रुके। अकस्मात् ही सुग्गों की किलबिलाट ने हमारा ध्यान आकर्षित किया। नदी के दूसरे तट पर दर्रे के भीतर बैठे दर्जन भर लाल सर वाले टुइयाँ सुग्गे अथवा टुइयाँ तोते (Plum-Headed Parakeet) चहचहा रहे थे। कुछ क्षणों पश्चात हमने एक ओकाब (Steppe Eagle) को नदी के ऊपर उड़ते हुए देखा। वह हमारे जलपानगृह के छज्जे के अत्यंत निकट उड़ रहा था। इस प्रकार अनायास ही हमारा पक्षी दर्शन आरम्भ हो गया था।

भीमताल

काठगोदाम से कुछ दूरी पार कर हम भीमताल पहुँचे। कुमाऊँ मंडल विकास निगम के विश्राम गृह में ठहरने की सर्व औपचारिकताएं पूर्ण करने के पश्चात हम नौकुचिया सरोवर पहुँचे। वहाँ रामचिरैया (Kingfisher) से लेकर काले बगुलों (Heron) की विविध प्रजातियों तक अनेक पक्षी थे। जल क्रीड़ाओं एवं हंसों के एक विशाल समूह ने हमें मंत्रमुग्ध कर रखा था। कुछ नन्हे बालक-बालिकाएं सरोवर के जल में बिस्कुट के टुकड़े डाल रहे थे जिनसे आकर्षित होकर अनेक हंस वहाँ एकत्रित हो गए थे। टुकड़े समाप्त होने पर वे कलरव करते हुए उनसे अधिक भोजन की मांग कर रहे थे। उनका पीछा करते हुए वे सरोवर के सोपानों तक पहुँच गए थे।

अगले दिवस प्रातः काल हम अपने विश्राम गृह के उद्यान में बैठकर अपनी प्रातःकालीन चाय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि अकस्मात् ही हमें पक्षियों की किलबिलाट सुनाई पड़ी। वहाँ हमने अनेक पक्षियों को देखा। उनमें से कुछ ऐसे पक्षी थे जिन्हें हम सर्वप्रथम प्रत्यक्ष देख रहे थे। इससे पूर्व हमें उन पक्षियों को देखने एवं उनके चित्र लेने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। वहाँ लाल चोंचधारी नीली मैगपाई (Red- Billed Blue Magpie), हिमालयी बुलबुल, पहाड़ी बुललचष्म (Scarlet Minivet) तथा जंगली मैना जैसे अनेक पक्षी दृष्टिगोचर हुए।

भीमताल के निकट पदभ्रमण करने के पश्चात हम सातताल पहुँचे। यहाँ हमने कुछ जलक्रीड़ाओं का आनंद उठाया। सरोवर के सानिध्य में पदभ्रमण किया। वहाँ हमें कौए के समान श्याम वर्ण पक्षी अनवरत दिखाई पड़ रहे थे। किन्तु उनका आचरण कौओं के समान प्रतीत नहीं हो रहा था। साधारणतः कौए भोजन की अपेक्षा में मानवों के समीप मंडराते रहते हैं। किन्तु ये पक्षी हमसे लुका-छिपी खेल रहे थे। उनके चित्र लेने के हमारे सर्व प्रयास निष्फल हो रहे थे। अंततः उनके कुछ चित्र लेने में हम सफल हुए। उन चित्रों को देख विशषज्ञों ने हमें जानकारी दी कि वह पक्षी सीटी बजाने वाला नीलवर्ण कस्तुरा (blue-Whistling Thrush) था। मुक्तेश्वर

हमारा अगला पड़ाव था, मुक्तेश्वर। प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही हम विश्राम गृह से चल पड़े थे। हिमालय के पर्वत शिखरों के मध्य से उगते सूर्य को देखने की अभिलाषा थी। अप्रतिम सूर्योदय के दर्शन तो हुए ही, साथ ही भिन्न भिन्न पक्षियों को देख रोम रोम आनंदित हो गया। हमें वहाँ अनेक श्याम शीर्षा वनकाग (Black-Headed Jay), धूसर पिद्दा (Grey Bush Chat), बबूना (Oriental White-Eye), हिमालयी बुलबुल, मस्जिद अबाबील (Striated Swallow), गौरैया (Russet-Sparrow) आदि के दर्शन हुए। अप्रतिम सूर्योदय के दर्शन के पश्चात पदभ्रमण करते हुए हमें कठफोड़वा (Rufous-Bellied Woodpecker) के दर्शन का आनंद प्राप्त हुआ।

बिनसर

हिमालय पर्वत श्रंखलाओं का निकट से दर्शन करने के लिए हमने बिनसर में पड़ाव डाला। वहाँ अनेक अचम्भे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने वहाँ काला तीतर (Black Francolin) देखा जो हमें देखते ही तुरंत कहीं जाकर छुप गया। वहाँ अनेक कछुआ कबूतर (Oriental Turtle Dove) थे जो बिनसर में आये पर्यटकों का आनंदपूर्वक अभिनन्दन कर रहे थे।

कुमाऊँ में पक्षी दर्शन के लिए कुछ आवश्यक सूचनाएं

इस संस्करण में अब तक जो मैंने प्रस्तुत किया है, वह हिमशैल का केवल शीर्ष है। देवालय शिखर का कलश मात्र है। उत्तराखंड में अनेक असाधारण हिमालयी पक्षियों का वास है जो केवल इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं।

  • उत्तराखंड एक पर्वतीय क्षेत्र है जहाँ मार्ग अत्यंत जोखिम भरे तथा संकरे होते हैं। पक्षियों के अवलोकन तथा चित्रांकन हेतु अपने वाहनों को इन संकरे मार्गों पर जहाँ चाहें वहाँ खड़ा ना करें।
  • पक्षी दर्शन का सर्वोत्तम साधन है, पदभ्रमण। प्रातः, अरुणोदय काल में, अर्थात सूर्योदय से कुछ पूर्व ही नगरी वातावरण से दूर जाकर प्राकृतिक परिवेश में पदभ्रमण प्रारंभ करें। आप विविध पक्षियों के दर्शन उनके प्राकृतिक परिवेश में कर सकते हैं।
  • पक्षी दर्शन एक गहन उपक्रम है जिसके लिए धैर्य, सूक्ष्म दृष्टि एवं विविध पक्षियों के कलरव को ध्यान पूर्वक सुनने की आवश्यकता होती है।

हमने अपने उत्तराखंड भ्रमण में अनेक पक्षियों के दर्शन किये। किन्तु हमारी यह यात्रा पक्षी दर्शन विशेष नहीं थी। इन पक्षियों के अवलोकन के पश्चात हमारे भीतर यह तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो गयी है कि भारत के इस पर्वतीय राज्य में हम पुनः शीघ्र आयें तथा उत्तराखंड के वैशिष्ट्य पूर्ण पक्षियों के अवलोकन का आनंद उठायें। मेरे पंख-युक्त प्रिय सखाओं, मैं आपसे भेंट करने पुनः शीघ्र आऊंगी! इस संस्करण में पक्षियों के चित्रों की संख्या को सीमित करने के लिए मैंने उनके समुच्चित चित्र प्रकाशित किये हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुमाऊँ उत्तराखंड के लोकप्रिय स्वादिष्ट व्यंजन https://inditales.com/hindi/kumaoon-uttarakhand-ke-lokpriya-vyanjan/ https://inditales.com/hindi/kumaoon-uttarakhand-ke-lokpriya-vyanjan/#respond Wed, 20 Nov 2024 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3719

उत्तराखंड राज्य अनेक प्रसिद्ध देवालयों से विभूषित होने के कारण गर्व से देवभूमि भी कहलाता है। उत्तराखंड की भूमि एवं उसके मंदिरों का समृद्ध इतिहास है। साथ ही मनोरम चित्ताकर्षक प्रकृति के कारण यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड के दो प्रमुख विभाग हैं, कुमाऊँ तथा गढ़वाल। राज्य के पूर्व में पसरे भूभाग […]

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उत्तराखंड राज्य अनेक प्रसिद्ध देवालयों से विभूषित होने के कारण गर्व से देवभूमि भी कहलाता है। उत्तराखंड की भूमि एवं उसके मंदिरों का समृद्ध इतिहास है। साथ ही मनोरम चित्ताकर्षक प्रकृति के कारण यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड के दो प्रमुख विभाग हैं, कुमाऊँ तथा गढ़वाल। राज्य के पूर्व में पसरे भूभाग को कुमाऊँ कहा जाता है जिसके अंतर्गत अनेक नयनाभिराम क्षेत्र हैं। उनमें कुछ लोकप्रिय क्षेत्र हैं, नैनीताल, रानीखेत, अल्मोढ़ा, पिथोरागढ़, जागेश्वर, मुक्तेश्वर, मुन्सियारी आदि। वहीं उत्तराखंड के पश्चिमी क्षेत्र को गढ़वाल कहते हैं। इसके अंतर्गत देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, चार धाम, चमोली जैसे लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण क्षेत्र आते हैं।

उत्तराखंड के दोनों भागों में अनेक आयामों में भिन्नता है। उनके इतिहास, परिदृश्य, परम्पराएं, संस्कृति, सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियाँ आदि भिन्न हैं। उत्तराखंड के दोनों

दोनों विभागों में अनेक प्रकार के घरेलु स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं जिनमें प्रमुखता से स्थानीय खाद्य-वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। ऐसे भी अनेक व्यंजन हैं जो मूलतः केवल कुमाऊँ अथवा केवल गढ़वाल से सम्बंधित हैं।

इंडीटेल के इस संस्करण में हम आपको कुमाऊँ के एक अत्यंत स्वादिष्ट आयाम से अवगत करायेंगे। जी हाँ, कुमाऊँ के स्थानीय स्वादिष्ट व्यंजन!

कुमाऊँ के स्वादिष्ट खाद्य

कुमाऊँ के व्यंजन बनाने में आसान हैं। ये खाद्य पदार्थ अनेक पोषक तत्वों के साथ साथ भरपूर उर्जा से परिपूर्ण होते हैं जो पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते एवं जलवायु की कठोर परिस्थितियों का सामना करते कुमाऊँनी जनमानस के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस संस्करण का ध्येय है, आप को वहां के व्यंजनों से अवगत करना ताकि आप जब भी वहां जाएँ, उनका आस्वाद अवश्य लें। यह संस्करण उनके लिए भी है जिन्हें नित-नवीन व्यंजन बनाना प्रिय है। वे इन व्यंजनों को अपने घर पर ही बनाकर उनका आनंद ले सकते हैं। निम्न दर्शित खाद्यों में अनेक ऐसे व्यंजन हैं जिन्हें उत्तराखंड के दोनों भागों में बनाया जाता है। अपने उत्तराखंड पर्यटन में इन व्यंजनों का आस्वाद लेना ना भूलें।

आलू के गुटके

आप जब भी गुजरात के दशहरे का स्मरण करें, आपके समक्ष अवश्य जलेबी व फाफडा का दृश्य उभर कर आ जाता होगा। महाराष्ट्र की होली की स्मृतियाँ आपकी जिव्हा पर पूरण-पोली का स्वाद ले आती होंगी। उसी प्रकार उत्तराखंड में हम जब भी आलू के गुटके खाएं अथवा केवल स्मरण करें, हमारे नैनों के समक्ष होली का दृश्य उभर कर आ जाता है। जी नहीं! इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप यह स्वादिष्ट व्यंजन वर्ष में केवल एक ही दिवस खा सकते हैं। आप इसे किसी भी ऋतु में तथा किसी भी समय खा सकते हैं।

कुमाऊँ का भोजन - आलू के गुटके
कुमाऊँ का भोजन – आलू के गुटके

होली के उत्सव काल में इसका स्वाद विशेष होता है। यहाँ के पहाड़ी स्थानिक इसे अत्यंत ही स्वादिष्ट, खट्टी व विभिन्न मसालों से परिपूर्ण भांग की चटनी के साथ खाते हैं। भांग की चटनी भी कुमाऊँ का एक प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ है। विभिन्न रंगों एवं स्वाद से परिपूर्ण कुमाऊँ के सुप्रसिद्ध आलू के गुटके बनाने के लिए उबले आलू के टुकड़ों को विभिन्न मसालों के साथ भूना जाता है। हिमालयीन क्षेत्रों में उपलब्ध आलुओं को ‘पहाड़ी आलू’ कहा जाता है जो आकार में बड़े होते हैं तथा मैदानी क्षेत्रों में उपलब्ध आलुओं की तुलना में अधिक स्वादिष्ट होते हैं।

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भट्ट की चुड़कानी

जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट होता है, यह भट्ट अर्थात् एक प्रकार के  काले राजमा के दानों से बनता है। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस की उत्तम उपज होती है। यह कुमाऊँ की एक महत्वपूर्ण फसल है। काले राजमा के दानों से बनी भट्ट की चुड़कानी पोषण तत्वों की धनी होते हुए भी बनाने में अत्यंत आसान है।

भट्ट के दानों को जीरे व हींग का तड़का लगाकर दाने फटने तक भूना जाता है। तत्पश्चात गेहूं या चावल का आटा, पिसा अदरक-लहसुन एवं नमक, हल्दी व लाल मिर्च जैसे अन्य मसाले डालकर भूना जाता है। इसके पश्चात पानी डालकर पकाया जाता है। धनिया की पत्ती से सजाकर चावल के साथ परोसा जाता है। यह एक आसान कृति है। आप इसे अवश्य बनाकर देखिये। यह स्वादिष्ट होने के साथ साथ पौष्टिक भी होता है। कुमाऊँवासियों को भट्ट से विशेष प्रेम है। वे इससे अनेक व्यंजन बनाते हैं।

चैंसू – उत्तराखंड का एक स्वादिष्ट व्यंजन

यह कुमाऊँ के सर्वोत्तम व्यंजनों में से एक है। इसे बनाने के लिए मूल सामग्री उड़द की डाल है। सर्वप्रथम उड़द डाल को सूखी कढ़ाई में सुगंध आने तक भूनते हैं। ठंडा होने पर दाल को दरदरा पीस लेते हैं। घी गर्म कर अदरक-लहसुन के टुकड़े, जीरा, कढ़ी पत्ते, प्याज, टमाटर एवं अन्य सूखे मसालों से छोंक लगाकर उसमें पीसी डाल डालकर भूनते हैं। पानी डालकर पकाते हैं। हरी धनिया से सजाकर गर्म चावल के साथ खाते हैं।

यह मूलतः एक गढ़वाली व्यंजन है किन्तु इसे कुमाऊँ में भी चाव से बनाया व खाया जाता है। इसमें प्रोटीन की भरपूर मात्रा होती है। इस दाल को बनाने के लिए सर्वोत्तम पात्र लोहे का होता है। इससे चैंसू अधिक स्वादिष्ट व पौष्टिक हो जाता है। यद्यपि यह शीत ऋतु में खाया जाने वाला व्यंजन है, तथापि पर्वतीय क्षेत्रों के सर्वसामान्य शीतल वातावरण के कारण वहां इसे खाने के लिए मौसम का बंधन नहीं होता है। आप जब भी उत्तराखंड जाएँ, इसका आस्वाद अवश्य लें।

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सना हुआ नींबू मूली/ नींबू सान

शीत ऋतु में प्रत्येक पर्वतीय निवासी की यह हृदयपूर्वक अभिलाषा रहती है कि वह कड़ाके की ठण्ड में बाहर बैठकर धूप सेंके तथा यह सना हुआ नींबू खाए। शीत ऋतु में खाने योग्य यह एक ऐसा नाश्ता है जिसका स्मरण मात्र भी मुंह में पानी ले आता है। इसे बनाने के लिए बड़े आकार के नींबू का प्रयोग किया जाता है जो उत्तराखंड में ही उगाया जाता है। इसमें मूली, दही, भांग का चूर्ण एवं नमक मिलाया जाता है। खट्टे व नमकीन स्वाद से युक्त यह व्यंजन सभी उत्तराखंडियों को अत्यंत प्रिय है। पोषक तत्वों से भरपूर इस व्यंजन का आस्वाद आप शीत ऋतु में अवश्य लें।

भटिया/भट्ट का जौला

आप मुझसे पूर्णतः सहमत होंगे कि कोई भी भारतीय नमकीन व्यंजन मसालों के बिना अधूरा होता है। किन्तु आज में आपको एक ऐसे व्यंजन के विषय में बताने जा रही हूँ जिसे मसालों के बिना बनाया जाता है। जी हाँ, भटिया।

इसे बनाने के लिए केवल दो वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, भट्ट अथवा काला राजमा तथा चावल। जौला में नमक व मसाले नहीं डाले जाते हैं। इसे अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए इसे कढ़ी, जीरा-नमक अथवा ‘हरा धनिया नमक’ के साथ परोसा जाता है। यह मेरा सर्वप्रिय व्यंजन है। इसे मैं कभी भी व कहीं भी खा सकती हूँ।

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पालक का कापा

पालक का कापा अथवा कापा एक अत्यंत पौष्टिक पालक की तरी अथवा रस्सा है जिसे बनाना भी आसान है। सामान्यतः जब हम हरी सब्जियां पकाते हैं, उसकी पौष्टिकता एवं रंग कुछ मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। किन्तु कापा में पालक को अधिक नहीं पकाया जाता है। अतः उसमें पोषकता नष्ट नहीं होती है। साथ ही उसका हरा रंग भी बना रहता है जो परोसते समय अत्यंत लुभावना प्रतीत होता है। इसे बनाने के लिए तेल गर्म कर जीरा, अदरक, हरी मिर्च व अन्य मसाले का बघार लगा कर उसमें चावल का आटा भूनते हैं। बारीक कटी पालक व पानी डालकर रस्से को पकाते हैं। इसे भी गर्म चावल के साथ खाया जाता है। पालक का कापा सामान्यतः शीत ऋतु में बनाया जाता है क्योंकि पहाड़ी पालक उन्ही दिवसों में उगता है। किन्तु आपको जब भी पालक उपलब्ध हो, आप इसे पकाकर खा सकते हैं। इसी प्रकार का एक अन्य पदार्थ है, कौफुली।

बाल मिठाई तथा सिंगोड़ी – कुमाऊँ के लोकप्रिय व्यंजन

आप सोच रहे होंगे कि मैं अनवरत आपसे कुमाऊँ के मसाले युक्त नमकीन व्यंजनों के विषय में ही चर्चा कर रही हूँ। क्या कुमाऊँ में मिष्ठान्न नहीं बनते? अवश्य बनते हैं। किसी भी स्थान के विशेष व्यंजनों की सूची तब तक सम्पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक उसमें वहां की मिठाई तथा अन्य मीठे व्यंजनों का समावेश ना हो। उसी सूची में मैं बाल मिठाई एवं सिंगोड़ी के नाम सम्मिलित करना चाहती हूँ जो पहाड़ी मिष्टान्न हैं। आप इन्हें विशेष अवसरों पर अवश्य बनाएं, खाएं एवं खिलाएं।

बाल मिठाई
बाल मिठाई

सिंगोड़ी को खोया, शक्कर एवं कसे हुए नारियल से बनाया जाता है। तीनों सामग्रियों को पकाकर एवं इलायची से सुगन्धित कर इस मिठाई को बनाया जता है। मालू के पत्ते को तिकोन आकार में मोड़कर उसमें यह मिठाई भरी जाती है। इससे पत्तों की सुगंध मिठाई में समा जाती है।

बाल मिठाई भीतर से भूरे चोकलेट जैसी दिखाई देती है जिस पर शक्कर के गोल दाने लपेटे जाते हैं। खोये को चीनी के साथ तब तक पकाया जाता है जब तक वह भुनकर भूरे रंग का ना हो जाए। तत्पश्चात चौकोर टुकड़ों में काटकर उस पर शक्कर के छोटे गोलाकार दानों को लपेटते हैं।

उत्तराखंड के इन दोनों मिष्टान्नों का आस्वाद लेना चाहें तो अल्मोड़ा सर्वोत्तम स्थान है जो कुमाऊँ क्षेत्र के अंतर्गत एक जिला है। बच्चे एवं बड़े, दोनों इन्हें चाव से खाते हैं। यदि आप घर पर बैठे बैठे ही उत्तराखंड का आनंद लेना चाहते हैं तो इन्हें घर पर ही बनाएं। इन्हें बनाने की विधियां आसान हैं।

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डुबुक/ डुबके

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की गोद से उभरा यह व्यंजन डुबुक प्रमाणिक रूप से एक पारंपरिक व्यंजन है जिसे डुबके भी कहा जाता है। यह एक पतली दाल होती है जिसे गहत/कुल्थी की दाल अथवा भट्ट से बनाया जाता है। इसे अन्य दालों से भी बना सकते हैं, जैसे अरहर, चना, मूंग आदि। इनके अतिरिक्त इसमें जीरा, मेथी के दाने, हिंग, प्याज, लहसुन तथा नमक, हल्दी व लाल मिर्च जैसे अन्य मसाले डाले जाते हैं। यह पर्वतों के तराई क्षेत्र के लोगों द्वारा शीत ऋतु में खाया जाने वाला व्यंजन है जिसे वे गर्म चपाती अथवा गर्म चावल के साथ खाते हैं।

डुबुक पकाने के लिए डुबुक की दाल को रात्र भर पानी में भिगोकर प्रातः उसे मोटा मोटा पीसते हैं। तेल गर्म कर प्याज व अन्य मसालों का छोंक लगाकर दाल को लोहे के पात्र में पकाते हैं। आवश्यकतानुसार पतला रखते हुए हरी धनिया से सजाकर परोसते हैं। देखने में यह एक साधारण दाल प्रतीत होती है। किन्तु इसका स्वाद चखते ही आपकी धारणा परिवर्तित हो जायेगी, यह मेरा विश्वास है।

भांग की चटनी

आप सब ने भांग के विषय में यह सुना ही होगा तथा चित्रपटों में देखा होगा कि कुछ लोग इसे ठंडाई में डालते हैं। आपने यह नहीं सुना होगा कि भांग की चटनी भी बनती है। भांग की चटनी उत्तराखंड में लोकप्रिय है। इसे भांग के गुणकारी बीजों द्वारा बनाया जाता है। इसे बनाने की विधि आसान है। भांग के बीजों को सूखी कढ़ाई में भूना जाता है। तत्पश्चात उन्हें हरी मिर्च, नींबू का रस, पुदीने की पत्तियाँ, हरी धनिया, साबुत लाल मिर्च एवं जीरे के साथ पीसा जाता है। नमक मिलाकर चाट-पकोड़ी के साथ परोसा जाता है।

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मडुआ की रोटी

मडुआ की रोटी उत्तराखंड में खाई जाने वाली एक पौष्टिक व स्वादिष्ट रोटी है। इसका नाम जितना क्लिष्ट है, इसे बनाना उतना ही आसान है। उत्तराखंड के कुमाऊँ में रागी को मडुआ कहा जाता है। विभिन्न पोषक तत्वों से परिपूर्ण रागी की प्रकृति उष्ण होती है। इसीलिए इसे शीत ऋतु में खाया जाता है। मडुआ की रोटी को बाजरे की रोटी के समान बनाया जाता है। इसमें गाजर, हरी मिर्च, हरे प्याज, दही, नमक आदि डालकर भी रोटी बनाई जाती है। मडुआ की रोटी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होती है।

रास/थटवानी अथवा ठठ्वानी

रास-भात अनेक प्रकार की खड़ी दालों से बनाया जाता है, जैसे चना, भट्ट, राजमा, लोबिया तथा गहत। नाम से ही आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह एक गाढ़ा तरल व्यंजन है। इसे बनाने के लिए इन दालों को रात्र भर पानी में भिगोकर रखते हैं जिससे ये भीगकर फूल जाती हैं तथा शीघ्र पकती हैं। अब इन्हें खड़े मसाले डालकर उबालते हैं। ठंडा होने पर छानकर पानी एवं दानों को पृथक किया जाता है। लोहे की कढ़ाई में तेल गर्म कर जीरा, खड़े मसाले, प्याज, किसा अदरक, किसा लहसुन, नमक, हल्दी आदि का बघार लगाकर दालों का पानी डाला जाता है तथा एक उबाल आने तक पकाया जाता है। चावल के आटे का घोल डालकर इसे किंचित गाढा किया जाता है। ऊपर से घी एवं हरी धनिया डालकर भात के साथ परोसा जाता है।

पृथक किये गए दालों के दानों को भी जीरा, प्याज व मसालों का छोंक लगाकर रास-भात के साथ परोसा जाता है। इसमें नींबू, चाट मसाला आदि डालकर चाट के समान भी खा सकते हैं। रास थटवानी भी शीत ऋतु में खाया जाने वाला पदार्थ है। आप जब कुमाऊँ जाएँ तो इसका स्वाद अवश्य चखें। चाहें तो इसे घर पर भी बनाकर इसका आनंद उठायें।

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थेचौनी/थेचवानी

इसके नाम से ही अपने अनुमान लगा लिया होगा कि इसे ठेच कर अथवा पीसकर बनाया जाता है। थेच अर्थात् पीसना तथा वानी का अर्थ है रस्सा। इसमें मूली एवं आलुओं को सिलबट्टे अथवा खलबत्ते में कूटकर छोटे छोटे टुकड़ों में कचूमर कर लेते हैं। अदरक, लहसुन व हरी मिर्च का भी कचूमर कर लेते हैं। तेल गर्म कर उसमें पहाड़ी राई अथवा जखिया, जीरा, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन व हरी मिर्च का कचूमर व अन्य सूखे मसालों का छोंक लगाते हैं। आलू-मूली डालकर भूनते हैं। तत्पश्चात इसमें आवश्यकतानुसार पानी डालकर पकाया जाता है। बेसन अथवा चावल के आटे से गाढ़ा किया जाता है। हरी धनिया से सजाकर चपाती अथवा गर्म भात के साथ खाया जाता है।

ये हैं उत्तराखंड, विशेषतः कुमाऊँ में प्रचलित कुछ पारंपरिक व्यंजन जो पहाड़ी शीतल वातावरण में शरीर को उर्जा प्रदान करते हैं तथा आवश्यक पोषक तत्व भी देते हैं। आप जब भी कुमाऊँ जाएँ, इन व्यंजनों का स्वाद अवश्य चखें। यदि आप पहाड़ों पर नहीं रहते हैं तब भी आप स्वयं इन्हें पकाकर इनका आस्वाद ले सकते हैं।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह संस्करण निकिता चंदोला द्वारा लिखा तथा इंडीटेल द्वारा प्रकाशित किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गढ़वाल हिमालय का कानाताल, टिहरी सरोवर एवं बाँध https://inditales.com/hindi/kanatal-garhwal-ke-darshaniya-sthal/ https://inditales.com/hindi/kanatal-garhwal-ke-darshaniya-sthal/#respond Wed, 02 Oct 2024 02:30:38 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3692

कानाताल उत्तराखंड में है जो भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय राज्यों में से एक है। अप्रतिम मनोरम परिदृश्यों से ओतप्रोत यह राज्य दिव्य पर्वतराज हिमालय से रक्षित, भारतवर्ष की अनेक पावन नदियों से सिंचित, विभिन्न वन्यजीवों तथा विविध वनस्पतियो से विभूषित विश्व प्रसिद्ध धरा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन्ही कारणों से यह […]

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कानाताल उत्तराखंड में है जो भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय राज्यों में से एक है। अप्रतिम मनोरम परिदृश्यों से ओतप्रोत यह राज्य दिव्य पर्वतराज हिमालय से रक्षित, भारतवर्ष की अनेक पावन नदियों से सिंचित, विभिन्न वन्यजीवों तथा विविध वनस्पतियो से विभूषित विश्व प्रसिद्ध धरा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन्ही कारणों से यह भूमि  आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के लिए अत्यंत अनुकूल है। वनों की हरियाली, सरोवरों, पर्वतों, नदियों आदि की सुन्दरता, साथ ही उनके साथ जुड़ी विभिन्न देवी-देवताओं की कथाएं व किवदंतियां ही वे कारण हैं जिनसे इस राज्य का नाम देवभूमि पड़ा।

कानातल
कानातल

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में कानाताल एक गाँवखेड़ा है। पर्यटकों का ऐसा मानना है कि सम्पूर्ण उत्तराखंड की सुन्दरता का आनंद व अनुभव प्राप्त करने का सर्वोत्तम अवसर है, इस गाँव की एक यात्रा। यह एक शांत एवं विलक्षण गाँव है जो आपको सभी जनोपयोगी सेवाओं से दूर रहते हुए प्रकृति की समीपता का आनंद उठाने का शुद्ध अवसर प्रदान करती है।

कानाताल

लोकप्रिय पर्वतीय पर्यटन स्थल मसूरी के समीप स्थित कानाताल एक छोटा सा क्षेत्र है। कानाताल शब्द दो शब्दों के मेल से बना है, काना अर्थात् सूखा तथा ताल अर्थात् सरोवर। स्थानिकों का ऐसा मानना है कि अनेक वर्षो पूर्व इस क्षेत्र में एक सरोवर था जो सूर्य की तपती किरणों के कारण शनैः-शनैः सूख गया है। उसी सरोवर की स्मृति में स्थानिकों ने इस क्षेत्र को कानाताल का नाम दिया। कानाताल अर्थात् सूखा सरोवर।

कानातल की बन्दरपूँछ हिमालय श्रृंखला
कानातल की बन्दरपूँछ हिमालय श्रृंखला

कानाताल गढ़वाल हिमालय के बन्दरपूँछ पर्वत श्रंखला के अप्रतिम परिदृश्यों के लिए जाना जाता है। यहाँ की विशेषतायें हैं, यहाँ के अनेक वनीय साहसिक भ्रमण पथ, सेबों के उद्यान तथा प्रसिद्ध शक्तिपीठ सुरकंडा देवी। कानाताल में आप गढ़वाल क्षेत्र के स्थानिकों के ग्रामीण जनजीवन को समीप से अनुभव कर सकते हैं।

यहाँ से बन्दरपूँछ पर्वत श्रंखला समेत हिमालय के अनेक शिखर दृष्टिगोचर होते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, लंका दहन के पश्चात अपनी पूँछ की अग्नि का शमन करने के लिए हनुमानजी यहीं आये थे। इसी कारण इस स्थान को बन्दरपूँछ कहा जाता है।

कानाताल की अवस्थिति एवं यहाँ पहुँचने के साधन

कानाताल उत्तराखंड राज्य के टिहरी गढ़वाल जिले में समुद्र सतह से लगभग २५९० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह मसूरी से लगभग ४० किलोमीटर, देहरादून से ८० किलोमीटर तथा दिल्ली से लगभग ३२० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दिल्ली से यहाँ तक पहुँचने के लिए दो प्रमुख मार्ग हैं। प्रथम है, दिल्ली मेरठ द्रुतमार्ग द्वारा मेरठ की ओर आना, मेरठ उपमार्ग द्वारा राष्ट्रीय महामार्ग ३४४ लेते हुए हरिद्वार व ऋषिकेश की ओर जाना, ऋषिकेश से राष्ट्रीय महामार्ग ७ द्वारा चंबा पहुंचना, तत्पश्चात चंबा से चंबा-मसूरी मार्ग पर लगभग १० किलोमीटर वाहन चलाते हुए कानाताल पहुंचना।

कानाताल पहुँचने के लिए दूसरा मार्ग है, राष्ट्रीय महामार्ग ३४४ तक पूर्व रूप से पहुंचना, इस महामार्ग द्वारा मुजफ्फरनगर पहुँचने पर राष्ट्रीय महामार्ग ३०७ की ओर मुड़ जाना, इस नवीन महामार्ग से रुड़की होते हुए देहरादून पहुँचना, देहरादून से मसूरी जाकर मसूरी-चंबा मार्ग पर पहुंचना। इस मार्ग से लण्ढोर एवं धनौल्टी होते हुए, लगभग ३० किलोमीटर पश्चात कानाताल पहुँचते हैं।

आप अपने निजी वाहन द्वारा इन दोनों में से किसी भी एक मार्ग द्वारा आसानी ने कानाताल पहुँच सकते हैं। सडकों की स्थिति उत्तम है। केवल मसूरी-चंबा मार्ग कुछ स्थानों पर संकरा हो जाता है। यद्यपि आप सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं द्वारा भी यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं तथापि कानाताल के लिए सीधी बस सुविधा उपलब्ध नहीं है। देहरादून, मसूरी, हरिद्वार अथवा ऋषिकेश से कानाताल तक उत्तराखंड सड़क परिवहन की सुगम सुविधाएं उपलब्ध हैं।

हरिद्वार एवं देहरादून निकटतम रेल स्थानक हैं जो देश के सभी प्रमुख नगरों से रेल मार्ग द्वारा जुड़े हुए हैं। देहरादून का जॉली ग्रांट विमानतल इस क्षेत्र का इकलौता विमानतल है। यहाँ से दिल्ली एवं मुंबई जैसे प्रमुख नगरों तक विमान सेवायें उपलब्ध हैं। रेल स्थानक एवं विमानतल से टैक्सी द्वारा कानाताल पहुंचा जा सकता है। टैक्सी चालक टैक्सीयों के भाड़े मौसम की स्थिति के अनुसार निर्धारित करते हैं।

कानाताल भ्रमण का सर्वोत्तम समय

कानाताल एवं आसपास के क्षेत्रों के भ्रमण का सर्वोत्तम समय है, ग्रीष्म ऋतू में अप्रैल से जुलाई मास तक। मैदानी क्षेत्रों के तपते वातावरण से बचने के लिए यह एक उत्तम पर्यटन स्थल है। सितम्बर व अक्टूबर मास में भी यहाँ का वातावरण अत्यंत सुहावना होता है। यदि आप शीत ऋतु एवं हिमपात का आनंद उठाना चाहते हैं तो दिसंबर एवं जनवरी सर्वोत्तम मास हैं।

एक आवश्यक सूचना यह है कि वर्षा ऋतु में कानाताल भ्रमण को टालना बुद्धिमानी होगी। उत्तराखंड पर्यावरण की दृष्टि से अतिसंवेदनशील क्षेत्र है। वर्षा ऋतु में, विशेषतः अतिवृष्टि की स्थिति में, भूस्खलन का संकट सदा बना रहता है। ऐसी स्थिति में कानाताल तक पहुंचना भी दूभर हो सकता है। वर्षा ऋतु में भूस्खलन एवं कीचड़ प्रवाह सामान्य है।

कानाताल के दर्शनीय स्थल

सुरकंडा देवी मंदिर

सुरकंडा देवी मंदिर भारत में स्थित शक्तिपीठों में से एक है। इस स्थान पर देवी सती के पार्थिव शरीर का शीष गिरा था। शीष को सर भी कहा जाता है। इसी कारण इस स्थान का नाम सुरकंडा पड़ा। यह मंदिर कानाताल पर्वतमाला की सर्वोच्च चोटी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए १.६ किलोमीटर की ढलान चढ़नी पड़ती है। यद्यपि दूरी अधिक नहीं है, तथापि ढलान किंचित तीव्र है। ऊपर तक पहुँचने में एक घंटे से अधिक समय लग जाता है। उत्तराखंड सरकार अब नीचे से सीधे ऊपर मंदिर तक पहुँचने के लिए रस्सा मार्ग बनवा रही है। इस संस्करण के प्रकाशित होने तक उसका निर्माण कार्य कदाचित पूर्ण हो चुका होगा। इस रस्सा मार्ग द्वारा मंदिर तक पहुंचना आसान हो जाएगा, तथापि ढलुआ मार्ग द्वारा ऊपर चढ़ने का आनंद तथा संतुष्टि अतुलनीय है। मंदिर की वास्तुकला अनूठी है तथा जापानी कुटियों का स्मरण कराती है।

सुरकंडा देवी मंदिर
सुरकंडा देवी मंदिर

मंदिर परिसर से गढ़वाल हिमालय एवं बन्दरपूँछ पर्वतश्रंखला का चौतरफा दृश्य दिखाई देता है। इस मंदिर के दर्शन का सर्वोत्तम समय प्रातःकाल लगभग सूर्योदय के समय तथा संध्या सूर्यास्त का समय है। इस क्षेत्र की सर्वोच्च चोटी होने के कारण यहाँ से सूर्योदय एवं सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं।

इस मंदिर से किंचित दूर एक अन्य शक्तिपीठ है जिसका नाम कुंजापुरी मंदिर है। यह भी एक पर्वत शिखर पर स्थित है। मंदिर तक पहुँचने के लिए शिखर तक चढ़ना पड़ता है किन्तु इसकी चढ़ाई अपेक्षाकृत आसान है।

कौड़िया वन

कानाताल तीन ओर से घने कौड़िया वन से घिरा हुआ है। यह वन साहसिक चढ़ाई एवं सफारी के लिए लोकप्रिय है। यहाँ से हिमालय एवं घाटियों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। यदा-कदा वनीय पशु-पक्षी भी दृष्टिगोचर हो जाते हैं। इस वन में हिरणों की अनेक प्रजातियाँ, बन्दर, हिमालयी भालू, तेंदुए आदि विचरण करते हैं।

कौड़िया वन
कौड़िया वन

सफारी प्रातः शीघ्र आरम्भ होकर संध्या तक उपलब्ध है। वहीं साहसिक पद यात्रा अथवा चढ़ाई प्रातः ५:३० बजे से संध्या ५:३० बजे तक की जा सकती है। सफारी एवं चढ़ाई के लिए भिन्न भिन्न प्रवेश द्वार हैं। १२ किलोमीटर की सफारी आपको यहाँ की प्रकृति एवं वातावरण का अनुभव प्राप्त करने का उत्तम अवसर प्रदान करती है।

टिहरी बाँध एवं टिहरी जलक्रीड़ा पर्यटन संकुल

टिहरी बाँध भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा विवादास्पद बहुउद्देशीय बांध प्रकल्पों में से एक है। पावन भागीरथी नदी पर बना यह देश का सर्वोच्च बांध है। भौगोलिक रूप से भारत के सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक पर निर्मित यह बाँध आधुनिक अभियांत्रिकी का अनूठा उदहारण है। इस बांध के निर्माण के कारण पुरातन टिहरी नगरी जलमग्न हो गयी है। पुरातन टिहरी के निवासियों को एक नवनिर्मित नगरी की रचना कर वहां स्थानांतरित किया गया जिसे अब ‘नवीन टिहरी’ कहा जाता है। टिहरी बाँध का जलाशय ७० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस जलाशय को अब टिहरी झील कहा जाता है। यह एशिया के विशालतम मानवनिर्मित जलाशयों में से एक है।

टिहरी झील

टिहरी बाँध एवं टिहरी जलक्रीड़ा पर्यटन संकुल कानाताल से लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। कानाताल भ्रमण के लिए आये पर्यटकों के लिए ये कदाचित सर्वोत्तम आकर्षण के केंद्र हैं। चारों ओर पर्वतमाला के शिखर, मध्य में भागीरथी नदी का शांत नीला जल, कुल मिलाकर एक विशुद्ध निर्मल परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं।

टिहरी सरोवर
टिहरी सरोवर

यहाँ स्थित जलक्रीड़ा पर्यटन संकुल टिहरी झील के जल में जलक्रीड़ा का उत्तम अवसर प्रदान करते हैं। द्रुतगति नौकाएं एवं जेट स्की सर्वाधिक लोकप्रिय रोमांचक क्रियाकलाप हैं। नदी की द्रुत गति के कारण नौकायन अत्यंत रोमांचक हो जाता है। इस सरोवर में एक लघु द्वीप भी है। जल के ऊपर दो तटों को जोड़ता डोबरा-चांठी सेतु अत्यंत दर्शनीय है। यह भारत का सर्वाधिक लम्बा लटकता सेतु है।

डोबरा-चांठी लटकता सेतु

टिहरी सरोवर में जून मास में, जब जल का तापमान अधिल शीतल नहीं होता है, पर्यटकों के लिए गोताखोरी का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन जल के भीतर स्थित पुरातन टिहरी गाँव को देखने का उत्तम अवसर होता है। बांध के निर्माण से समय जलमग्न हुए घर, वृक्ष इत्यादि देख सकते हैं।

झूलता पुल
झूलता पुल

तैरते घर

सरोवर के मध्य पर्यटकों के लिए तैरते घर बनाए गए हैं जहां पर्यटक ठहर सकते हैं। इन घरों का पूर्व आरक्षण आप ऑनलाइन कर सकते हैं।

टिहरी के तैरते घर
टिहरी के तैरते घर

कानाताल के आसपास अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं, धनौल्टी, मसूरी, आध्यात्मिक राजधानी ऋषिकेश एवं हरिद्वार।

कानाताल में ठहरने योग्य सुविधाएँ

कानाताल में आपकी आवश्यकता, रूचि एवं व्ययसीमा के अनुसार अनेक प्रकार के विश्राम गृह अथवा होटल हैं। अनेक प्रकार के प्रकृति शिविर तथा साहसिक रोमांचक शिविर उपलब्ध है जो आपको प्रकृति के सानिध्य में रोमांचक गतिविधियाँ प्रदान करते हुए सुखदायक विश्राम का सुअवसर देते हैं। अनेक होमस्टे अर्थात् घर जैसी व्यवस्थाएं हैं जहां आपको स्थानीय गढ़वाली व्यंजन का आस्वाद लेने का सुअवसर प्राप्त होगा। अनेक लक्ज़री रिसॉर्ट्स हैं जिनमें कुछ लोकप्रिय तारांकित टाइमशैयर रिसोर्ट भी सम्मिलित हैं।

आप गढ़वाल मंडल विकास निगम के होटल में भी ठहर सकते हैं। इसके लिए उनके वेबस्थल से संपर्क करें।

यात्रा सुझाव

  • यदि आप सुरकंडा देवी के दर्शन के लिए जाना चाहते हैं तो तीव्र ढलान चढ़ने की तैयारी आवश्यक है। पैरों में सुविधाजनक जूते-चप्पल तथा शरीर में उर्जा आवश्यक है।
  • यहाँ उपलब्ध भोजन सादा एवं सात्विक होता है। स्थानीय गढ़वाली व्यंजनों के लिए पूर्वसूचना देना आवश्यक है। यहाँ के कुछ लोकप्रिय स्थानीय व्यंजन हैं, दाल गटवानी, पिंडालू के गुटके, कौफ्ली की सब्जी, आलू जखिया, झंगूरे की खीर तथा मंडूरे की रोटी।
  • कानाताल भ्रमण करते समय आँखों पर धूप के चश्मे एवं सर पर टोपी अवश्य धारण करिए। पहाड़ी क्षेत्रों में धूप अत्यंत कष्टकारी होती है।
  • दोपहर के समय आप वनों में पक्षी दर्शन के लिए जा सकते हैं।
  • ध्यान रखें कि सूर्योदय से पूर्व तथा सूर्यास्त के पश्चात वनों के भीतर अथवा आसपास ना जायें। अन्धकार होते ही वनीय पशुओं की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता है। तेंदुओं तथा हिमालयी भालुओं द्वारा मवेशियों इत्यादि तथा मानवों पर आक्रमण की घटनाएँ पूर्व में हो चुकी हैं।

यह संस्करण IndiTales Internship Program के अंतर्गत श्री तेजस कपूर द्वारा लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लंढौर – मसूरी के स्वर्ग में विचरण कराती यात्रा https://inditales.com/hindi/landour-mussourie-ke-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/landour-mussourie-ke-paryatak-sthal/#respond Wed, 08 May 2024 02:30:06 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3600

भारत के उत्तराखंड राज्य के देहरादून जिले में स्थित लंढौर पदभ्रमण के लिए एक उत्तम नगर है। मसूरी के निकट स्थित इस मनमोहक पर्वतीय नगर में एक छोटी छावनी, कुछ निवासस्थान, कुछ गिरिजाघर, एक मंदिर तथा कुछ दुकानें हैं। कुल मिलकर यही लंढौर है। मसूरी के कुछ ऊपर स्थित लंढौर एक प्रकार से मसूरी के […]

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भारत के उत्तराखंड राज्य के देहरादून जिले में स्थित लंढौर पदभ्रमण के लिए एक उत्तम नगर है। मसूरी के निकट स्थित इस मनमोहक पर्वतीय नगर में एक छोटी छावनी, कुछ निवासस्थान, कुछ गिरिजाघर, एक मंदिर तथा कुछ दुकानें हैं। कुल मिलकर यही लंढौर है। मसूरी के कुछ ऊपर स्थित लंढौर एक प्रकार से मसूरी के शीष पर स्थित है।

मसूरी एक लोकप्रिय व परिचित पर्वतीय स्थल होने के कारण सदा पर्यटकों से खचाखच भरा रहता है। किन्तु पर्यटकों की इस भीड़ से दूर लंढौर एक शांत पर्वतीय स्थल है। यह इतना छोटा है कि पदभ्रमण करते हुए सम्पूर्ण लंढौर का अवलोकन किया जा सकता है। वास्तव में पदभ्रमण द्वारा ही इस चित्ताकर्षक पर्वतीय नगर का सर्वोत्तम आनंद उठाया जा सकता है।

बादलों से घिरे वृक्ष
बादलों से घिरे वृक्ष

लंढौर के सभी मार्ग पक्के हैं जिन पर आसानी से पदभ्रमण किया जा सकता है भले ही वर्षा हो रही हो, यद्यपि उत्तराखंड के इस भाग में अधिक वर्षा नहीं होती है। ऊँचे ऊँचे देवदार के वृक्ष आपको इस प्रकार घेर लेते हैं कि आप बाह्य जीवन से पूर्णतः शून्यचित्त हो जाते हैं। वहाँ केवल हम एवं हमारा अंतर्मन शेष रह जाता है।

भारत के अधिकाँश नगरों की तुलना में लंढौर एक अत्यंत ही स्वच्छ नगर है। लंढौर की यह विशेषता भी आपको पद भ्रमण करने के लिए प्रेरित करती है। लंढौर में मैंने अनेक मार्गों पर पदभ्रमण किया है। आईये मैं आपको उन्ही में से कुछ पदभ्रमण पर पुनः ले चलती हूँ।

गोल चक्कर पदभ्रमण – लंढौर लूप

यह लंढौर का सर्वप्रचलित गोल चक्कर पदभ्रमण है। इस पथ पर कहीं से भी आरम्भ कर हम अंततः लाल टिब्बा की ओर ही जाते हैं।

लंढौर के पहाड़ी रास्ते
लंढौर के पहाड़ी रास्ते

यदि आप दक्षिणावर्त जाएँ तो सर्वप्रथम आप सेंट पॉल गिरिजाघर पर पहुंचेंगे। यह एक प्राचीन गिरिजाघर है। कुछ काल पूर्व ही शैल तोरणों द्वारा इसका नवीनीकरण भी किया गया है।

चार दुकान

एक काल में लंढौर के इस स्थल पर केवल चार ही दुकानें होती थीं। इसीलिए इसका नाम चार दुकान पड़ा। अब यहाँ चार से कुछ अधिक दुकानें हो गयी हैं। इनमें से अधिकाँश दुकानों में स्थानीय व्यंजन उपलब्ध हैं, जैसे पैनकेक्स। अपने पदभ्रमण के समय आप यहाँ कुछ क्षण विश्राम करते हुए पैनकेक्स एवं कॉफी का आनंद अवश्य उठायें। उस दिन प्रातः कालीन भ्रमण के समय यहाँ मेरी भेंट कुछ दुपहिया सायकल प्रेमियों से हुई थी जो लंढौर के मार्गों पर सायकल चलाकर थक गए थे तथा अपनी थकान व क्षुधा शांत करने के लिए यहाँ रुके थे। मैंने यहाँ सम्पूर्ण दिवस पर्यटकों को रूककर यहाँ के व्यंजनों का आनंद लेते देखा है।

लंढौर की जानी मानी चार दुकान
लंढौर की जानी मानी चार दुकान

मुझे ज्ञात हुआ कि जिस संरचना के भीतर ये चार दुकानें स्थित हैं, वह पूर्व में सेना का डिपो हुआ करता था। यहाँ के एक प्रवेश द्वार पर डेपो क्रमांक ३१ अब भी देखा जा सकता है।

एक लघु सेतु को पार कर हम एक ऐसे मार्ग पर पहुँचते हैं जो स्वर्ग सा प्रतीत होता है। मैं जिस दिन यहाँ भ्रमण कर रही थी, मेरे चारों ओर मेघ छाये हुए थे जो सम्पूर्ण वातावरण को अधिक रोमांचक व गूढ़ बना रहे थे। मेघों के मध्य से यदा-कदा कुछ घर दृष्टिगोचर हो रहे थे जो अन्यथा देवदार के वृक्षों में लगभग लुप्त हो जाते थे। इन में से एक घर भी ऐसा नहीं था जो मार्ग के समतल था। वे मार्ग के दोनों ओर या तो ऊपरी ढलान पर स्थित थे अथवा निचली ढलान पर। मानो प्रकृति ने हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम का प्रबंध कर दिया हो।

लाल टिब्बा

लाल टिब्बा इस पदभ्रमण का सर्वप्रसिद्ध भाग है। यदि आप प्रातः शीघ्र ही अपना पदभ्रमण आरम्भ करते हैं तो आपको केवल दो दृश्य दृष्टिगोचर होंगे, अपने घोड़ों को स्नान करवाते लोग एवं लाल रंग का एक बंद भवन। अन्यथा आकाश निर्मल व स्वच्छ हो तथा धुंध ना हो तो यह स्थान विभिन्न क्रियाकलापों से व्यस्त रहता है क्योंकि उस समय यहाँ से हिमालय पर्वत श्रंखला स्पष्ट दिखाई देती है। विभिन्न स्थानों पर दूरबीन उपलब्ध हैं जिनके द्वारा आप इन शिखरों को समीप से देख सकते हैं। लाल टिब्बा एक प्रकार से पहाड़ी का अंतिम छोर है जहाँ से आप नीचे घाटी देख सकते हैं तथा समक्ष पर्वत श्रंखला!

लंढौर के मनमोहक घर
लंढौर के मनमोहक घर

पहाड़ की ऊपरी ढलान पर एक सुरचित व उत्तम रखरखाव युक्त भवन है जहाँ पहुँचने के लिए सुन्दर सोपान निर्मित हैं। यह भवन स्वर्ग से अवतरित प्रतीत होता है। कितना सौभाग्यशाली है वह परिवार जो अप्रतिम प्रकृति के सानिध्य में यहाँ निवास करता है!

मार्ग में शिलाओं द्वारा निर्मित भित्ति दिखाई दी जिसके प्रवेश द्वार की चौखट भी शिलाओं द्वारा निर्मित थी। ऐसे प्रवेशद्वार सदा जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। मैंने भी इसके भीतर झाँककर देखने का प्रयास किया। भीतर झाँकते ही मैं स्तब्ध रह गयी। वह ईसाईयों का समाधिक्षेत्र था। वहाँ अनेक उत्कीर्णित समाधियाँ थीं जिन पर पुष्प अर्पित थे। सभी समाधियाँ लगभग मार्ग से सटी हुई थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे राहगीरों को सावधान कर रही हों कि किसी काल में वे भी इसी मार्ग पर चलते थे तथा आज वे उन समाधियों के नीचे हैं।

इसके पश्चात आप केलोग गिरिजाघर एवं भाषा शिक्षण संस्थान पहुँचते हैं जो इस पदभ्रमण का अंतिम चरण है।

भाषा शिक्षण संस्थान

भाषा शिक्षा संस्थान एवं कल्लोग गिरिजाघर
भाषा शिक्षा संस्थान एवं कल्लोग गिरिजाघर

मैं इस भाषा शिक्षण संस्थान के भीतर गयी तथा प्राचार्य श्री चितरंजन दास जी से भेंट भी की। मेरा उनसे एक रोचक व ज्ञानवर्धक वार्तालाप भी हुआ। उन्होंने मुझे इस शिक्षण संस्थान के इतिहास की जानकारी दी। उन्होंने मुझे बताया कि किस प्रकार इस संस्थान ने ब्रिटिश अधिकारियों को स्थानीय भाषा सीखने में सहायता की थी तथा कैसे यहाँ अनेक भारतीय भाषाओं के शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम सामग्री विकसित की गयी थी। यह गौरव का विषय है कि यह संस्थान अब भी विश्व भर के अनेक जिज्ञासु विद्यार्थियों को हिन्दी तथा अन्य स्थानीय भाषा सिखाने के पावन कार्य को अखंड रूप से कर रहा है।

सिस्टर्स बाजार पदभ्रमण

गोल चक्कर पदभ्रमण के समय यदि आप केलोग गिरिजाघर से विमार्ग लें तो आप सिस्टर्स बाजार की ओर जायेंगे। किसी काल में यहाँ स्थानीय सैन्य अस्पताल में कार्यरत परिचारिकाओं के लिए एक छोटा सा बाजार हुआ करता था। वर्तमान में यह स्थान पीनट बटर के लिए प्रसिद्ध है।

काष्ठ एवं पाषण से बने स्थानीय घर
काष्ठ एवं पाषण से बने स्थानीय घर

पदभ्रमण का यह मार्ग भी ऊँचा-नीचा किन्तु पक्का मार्ग है जहाँ से घाटियों के परिदृश्य अनवरत दृष्टिगोचर होते रहते हैं। यदि धुंध रहित वातावरण हो तो यहाँ से वुडस्टॉक पाठशाला का परिसर एवं उसके सुन्दर छात्रावास दिखाई पड़ते हैं। सम्पूर्ण पदभ्रमण में अप्रतिम परिदृश्यों के मध्य सुन्दर पुरातन भवन दृष्टिगोचर हो जाते हैं। अनेक स्थानों पर वर्षा आश्रय बने हुए हैं। इनके निर्माण में स्थानीय पत्थरों का प्रयोग किया गया है जिसके फलस्वरूप ये आसपास के परिदृश्यों में आसानी से समाहित हो जाते हैं। ये वर्षा आश्रय अत्यंत आकर्षक व आधुनिक हैं तथा पुरातन कालीन प्रतीत नहीं होते।

सिस्टर्स बाजार में बेक हाउस में अवश्य जाएँ जहाँ कुछ स्वादिष्ट बेकरी उत्पाद उपलब्ध रहते हैं। आप यहाँ से स्थानीय लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकें भी क्रय कर सकते हैं। आप जानते ही हैं कि लंढौर में रस्किन बांड, बिल ऐटकिन तथा स्टीफन आल्टर जैसे अनेक दिग्गज लेखकों का निवास है। संयोग से इन सभी लेखकों ने इस स्थान के विषय में भी लिखा है। अतः यह आपकी रूचि अनुसार पुस्तक क्रय करने के लिए उत्तम स्थान है।

पीनट बटर

लंढौर की स्मृति में यहाँ से क्या क्रय करें? यह प्रश्न उठे तो उत्तर है, पीनट बटर। पीनट बटर लंढौर का सर्वाधिक लोकप्रिय स्मृति चिन्ह है जिसे आप प्रकाश किराना दुकान से ले सकते हैं। यद्यपि यह एक सामान्य किराना दुकान है, तथापि इस दुकान में एक सम्पूर्ण ताक पीनट बटर एवं जैम के लिए आरक्षित है। मुझे यह एक पारिवारिक उद्यम प्रतीत हुआ।

प्रकाश पीनट बटर
प्रकाश पीनट बटर

मुझे इस दुकान के मालिक श्री इन्दर प्रकाश से चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने ही लंढौर में पीनट बटर के उद्योग का शुभारम्भ किया था। उन्होंने बड़े उत्साह से इस उद्योग के विषय में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि सन् १९४७ से पूर्व तक अमेरिका से पीनट बटर का आयात किया जाता था। स्वतंत्रता के पश्चात कुछ स्थानीय उद्यमियों ने यहीं पीनट बटर का उत्पादन आरम्भ किया। प्रकाश जी ने भी अपने निवासस्थान पर ही पीनट बटर का उत्पादन आरम्भ किया तथा निवासस्थान के पार्श्वभाग में स्थित अपनी दुकान से इसकी विक्री आरम्भ की।

श्री प्रकाश स्वयं को भारत का प्रथम ऐसा उद्यमी मानते हैं जिसने भैंस के दूध से चेडर चीस का उत्पादन किया। उन्होंने हमें ब्लैकबेरी अथवा जामुन के जैम के विषय में भी बताया जिसे वे अपने उद्यान से प्राप्त जामुनों से बनाते हैं। जब मैंने उन से उनके लोकप्रिय व स्वादिष्ट पीनट बटर की गोपनीय सामग्री एवं विधि के विषय में पूछा तो उसका उत्तर उन्होंने केवल स्मित हास्य से दिया। उन्होंने कहा कि इसका गूढ़ दानों को सही तापमान एवं सही समय तक भूनने में सन्निहित है। अन्यथा इसकी सामग्री एवं विधि सामान्य है।

इस पदभ्रमण के समय आप पीनट बटर अवश्य क्रय करें।

जबरखेत नेचर रिजर्व में पदभ्रमण

लंढौर के समीप जबरखेत वन है जो एक प्राकृतिक आरक्षित भूमि है। यह पहाड़ी क्षेत्र के वन में पदभ्रमण करने के लिए सर्वोत्तम है। यह एक व्यक्तिगत संपत्ति है जहाँ प्रवेश करने के लिए अनुमति एवं प्रवेश शुल्क आवश्यक है। इसलिए आपको यहाँ अधिक पर्यटक नहीं दिखेंगे। वनीय क्षेत्रों में रूचि रखने वाले पर्यटकों के लिए यह अत्यंत अनुकूल परिस्थिति होती है। मैंने इसके विषय में सर्वप्रथम स्टीफन आल्टर द्वारा लिखित पुस्तक, The Secret Sanctuary में पढ़ा था। पुस्तक समाप्त होते होते मेरे भीतर इस वन में भ्रमण करने की अभिलाषा तीव्र से तीव्रतम हो गयी थी। कहते हैं कि हृदय से किसी अवसर की अभिलाषा व्यक्त करो तो वह अवसर स्वयं आपके समक्ष उपस्थित हो जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

जबरखेत प्राकृतिक केंद्र
जबरखेत प्राकृतिक केंद्र

मुझे जबरखेत प्राकृतिक आरक्षित वन में भ्रमण करने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। इस वन में अनेक पदभ्रमण पगडंडियाँ हैं जिन पर आप चल सकते हैं। मुझे उन पगडंडियों के नाम भी अत्यंत भाये, जैसे तेंदुआ पगडंडी (Leopard trail), कुकुरमुत्ता पगडंडी (Mushroom trail) आदि। इन पगडंडियों पर पदभ्रमण करते हुए वनीय परिवेश से एकाकार हो जाने का अनुभव प्राप्त होता है।

मैं यहाँ जून मास में आई थी। उस समय यहाँ अनेक प्रकार के कुकुरमुत्ते उगे हुए थे। मुझे पक्षियों की चहचहाहट सुनाई पड़ रही थी किन्तु वन इतना सघन है कि उनके चित्र लेना तो दूर, उन्हें ढूंढ पाना भी कठिन हो रहा था। तितलियों को देखने के लिए भी हमें प्रयास करना पड़ रहा था। इसके पश्चात भी हमने कई तितलियाँ देखी। उनके रंगबिरंगे पंख हमारे नेत्रों को सुख पहुंचा रहे थे। उड़ती तितलियाँ दृष्टि से ओझल ना हों, इस प्रयास में हमारे नेत्र थक गए किन्तु तितलियाँ नहीं थकीं।

एक ओर बलूत (Oak) के वृक्ष थे जिनके तनों पर उगे शैवाल भुतहा परिवेश उत्पन्न कर रहे थे। एक स्थान पर कुछ शिलाखंडों को सजाकर बैठक बनाया था। उसे देख मुझे एक चित्रपट का स्मरण हो आया जहाँ कुछ मित्र रात्रि में आग सेंक रहे थे कि अकस्मात् उनके समक्ष भूत उपस्थित हो गए।

यहाँ एक छोटा सा व्याख्या केंद्र है जो इस वन के पशु-पक्षी एवं वनस्पतियों से पर्यटकों का परिचय कराता है। मुझे बताया गया कि जबरखेत में वनीय पुष्पों का आनंद लेने के लिए मार्च एवं अप्रैल मास में यात्रा उत्तम हैं। जून मास में पक्षियों को ढूंढ पाना कठिन होता है। साथ ही पुष्पों का पल्लवन भी समाप्त हो जाता है।

लंढौर के प्राचीन शिव मंदिर तक पदभ्रमण

मेरे लिए यह लंढौर का सर्वाधिक छोटा किन्तु सर्वाधिक कठिन पदभ्रमण था। एक सूचना पटल पर अंकित था, ‘२०० मीटर पर प्राचीन शिव मंदिर’। आप कल्पना कीजिये कि २०० मीटर पदभ्रमण अधिक से अधिक कितना कठिन हो सकता है! क्या सूचना पटल पर लिखी दूरी सही है? मैंने चलना आरम्भ किया। अथवा यह कहिये कि चढ़ना आरम्भ किया। शनैः शनैः ढलान की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। मेरे लिए यह रोहण कष्टकर होता जा रहा था। विश्राम की आवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी।

लंढौर का प्राचीन शिव मंदिर
लंढौर का प्राचीन शिव मंदिर

सौभाग्य से आसपास के परिदृश्य इतने सुरम्य थे कि विश्राम अत्यंत सुखकर सिद्ध हो रहे थे। लगभग १५-२० मिनटों तक रोहण करने के पश्चात हमारे समक्ष एक मंदिर अवतरित हुआ। यह एक शिव मंदिर है। इसके प्राचीन होने के कोई चिन्ह मुझे दिखाई नहीं दिए। यह एक सुन्दर मंदिर है। मुझे यह मंदिर अत्यंत स्वच्छ व सुडौल प्रतीत हुआ जिसने मुझे आनंदित कर दिया था।

मेरा यह पदभ्रमण अथवा रोहण एक धरोहर भ्रमण है। अतः यह एक स्वतन्त्र संस्करण के योग्य है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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पाताल भुवनेश्वर : कुमाओं की भूमिगत गुहानगरी https://inditales.com/hindi/pataal-bhuvaneshwar-guha-uttarakhand/ https://inditales.com/hindi/pataal-bhuvaneshwar-guha-uttarakhand/#comments Wed, 28 Feb 2024 02:30:57 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3397

भूमिगत गुहानगरी पाताल भुवनेश्वर! हिमालय की गोद में विराजमान है एक ऐसी भूमिगत नगरी जिसे देख आप अचंभित हो जाएंगे। वह नगरी है, पाताल भुवनेश्वर जिसका प्रवेश द्वार देवभूमि उत्तराखंड राज्य के कुमाओं क्षेत्र में स्थित है। लोगों का मानना है कि यह एक व्यापक भूमिगत नगरी है जिसके आंतरिक पथ कैलाश मानसरोवर, चार धाम, […]

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भूमिगत गुहानगरी पाताल भुवनेश्वर! हिमालय की गोद में विराजमान है एक ऐसी भूमिगत नगरी जिसे देख आप अचंभित हो जाएंगे। वह नगरी है, पाताल भुवनेश्वर जिसका प्रवेश द्वार देवभूमि उत्तराखंड राज्य के कुमाओं क्षेत्र में स्थित है। लोगों का मानना है कि यह एक व्यापक भूमिगत नगरी है जिसके आंतरिक पथ कैलाश मानसरोवर, चार धाम, काशी, यहाँ तक कि रामेश्वरम तक जाते हैं।

भूमि से लगभग ९० फुट नीचे, लगभग १६० वर्ग मीटर विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ इस नगरी का प्रवेश स्थल आपको आमंत्रित कर रहा है।

पाताल भुवनेश्वर का इतिहास

इस गुहा की खोज राजा ऋतुपर्ण ने की थी जो सूर्यवंश के राजा थे तथा त्रेता युग में अयोध्या पर शासन करते थे।

पाताल भुवनेश्वर गुफा का प्रवेश द्वार
पाताल भुवनेश्वर गुफा का प्रवेश द्वार

राजा ऋतुपर्ण ने इस गुहा का भ्रमण किया था। ऐसी मान्यता है कि स्वयं शेषनाग ने उन्हे इस गुहा का भ्रमण कराया था। द्वापर युग में पांडवों ने इसकी पुनः खोज की थी जब वे द्रौपदी के साथ हिमालय भ्रमण के अंतिम चरण पर थे।

बारहवी सदी के अंत में, सन् ११९१ में आदि शंकराचार्य ने भी इस गुहा में ध्यान साधन की थी। भण्डारी परिवार के पुरोहित इस गुहा मंदिर में धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा-अर्चना करते हैं। हमें बताया गया कि आदि शंकराचार्य के काल से उन्ही के परिवार के पुरोहित इस मंदिर में सभी अनुष्ठान करते आ रहे हैं तथा इस गुहा मंदिर की देखरेख का दायित्व निभा रहे हैं। उनके परिवार के सदस्य यहाँ गाइड का भी कार्य करते हैं। इस गुहा मंदिर का उल्लेख स्कन्द पुराण के मानसखंड में भी प्राप्त होता है।

पाताल भुवनेश्वर गुहा

चौकोड़ी में रात्री विश्राम करने के पश्चात हम प्रातः शीघ्र ही पाताल भुवनेश्वर के लिए निकल गये। जहाँ दर्शनार्थियों के वाहन रखने की व्यवस्था है, वहाँ से मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए लगभग ८०० मीटर तक पदयात्रा करती पड़ती है। मार्ग में स्थित सुरक्षा बाड़ की छड़ें भक्तगणों द्वारा बांधी घंटियों एवं मस्तक फीतों से भरे हुए हैं मानो इस पावन स्थल पर दर्शनार्थियों का स्वागत कर रहे हों।

सूचना पटल
सूचना पटल

मंदिर के प्रवेशद्वार पर पहुंचकर टिकट क्रय करना पड़ता है। अपने सभी व्यक्तिगत वस्तुओं को सुरक्षित भंडार कक्ष में जमा कराना पड़ता है। गुहा मंदिर के भीतर कैमरा, मोबाईल फोन आदि ले जाने की अनुमति नहीं है। यदि आप छायाचित्रीकरण करना चाहते हैं तो आपको पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से छायाचित्रीकरण एवं चलचित्रीकरण आदि की पूर्व अनुमति प्राप्त करनी होगी। मंदिर परिसर में स्मारिका विक्रय केंद्र हैं जहाँ से आप भीतर के चित्र क्रय कर सकते हैं।

चप्पल-जूते उतारने के पश्चात लगभग २० दर्शनार्थियों का समूह बनाया जाता है। भण्डारी पुरोहित के सहायक उन्हे गुहा के सँकरे प्रवेश के भीतर ले जाते हैं।

लोहे की श्रंखला को पकड़े हुए, मंद ज्योति के प्रकाश में रेंगते हुए हम भीतर प्रवेश करते हैं। प्रवेश स्थल से ७५ अंश की तीव्र ढलान उतरते हुए, लगभग अंधकार में हम गुहा में प्रवेश करते हैं। सँकरी  गुहा के भीतर फिसलन भरी चिकनी पगडंडियों पर लगभग अंधेरे में रेंगते हुए एक सुरंग से दूसरे सुरंग में प्रवेश करना उसी के लिए संभव है जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से सुदृढ़ हो।

प्राणवायु ऑक्सीजन का स्तर

गुहा के भीतर प्राणवायु ऑक्सीजन का स्तर अत्यंत निम्न रहता है। छोटा मुख होने के कारण ऑक्सीजन भरपाई की दर भी कम रहती है। इसीलिए दर्शनार्थियों को छोटे छोटे समूह में भीतर ले जाया जाता है। यदि आपको किसी भी प्रकार की असुविधा प्रतीत हो तो तुरंत पण्डितजी को इसकी सूचना दें। वे गुहा के भीतर ऑक्सीजन के कुछ सिलिन्डर रखते हैं ताकि भक्तों को गुहा के वातावरण में अविलंब सहज होने में सहायता हो सके।

नीचे उतरते हुए जैसे ही हम गुहा के तल पर पहुँचे, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि चारों ओर यह गुहा अनंत है। भूमि अत्यंत शीतल थी। हमारे चरण आर्द्र मिट्टी में सन चुके थे। अब यहाँ से हमारा गुहा भ्रमण आरंभ होने वाला था।

शेषनाग

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शेषनाग एक विशालकाय दैवी सर्प है जो धरती माता को अपने फन के ऊपर धारण करता है। इस गुहा के विषय में यह कहा जाता है कि शेषनाग के मुख से ही पाताल लोक आरंभ होता है।

शेषनाग
शेषनाग

गुहा के तल पर पहुँचते ही भक्तों का अभिनंदन करती शेषनाग की एक आकृति दृष्टिगोचर होती है। गुहा के भीतर टपकते चुना मिश्रित जल के अवक्षेपण से निर्मित यह आकृति शेषनाग के अनुरूप प्रतीत होती है। गुहा के पार्श्व भाग में शेषनाग के लंबे नुकीले दांत देखे जा सकते हैं, वहीं हमारे चरणों के समीप की आकृति उसकी लंबी देह प्रतीत होती है।

वासुकि एवं यज्ञ कुंड

गुहा की सतह पर एक अन्य लंबे सँकरे सर्प की आकृति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वह वासुकि की आकृति है। यह सर्प भगवान शिव के काँधे पर विराजमान है। इसके ठीक नीचे एक यज्ञ कुंड है। पण्डितजी ने हमें बताया कि राजा जनमेजय ने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए इस यज्ञ कुंड में एक सर्प यज्ञ का अनुष्ठान किया था तथा यज्ञ की अग्नि में पृथ्वी लोक एवं पाताल लोक के सभी सर्पों की आहुति दी थी।

आदि गणेश -गणेश का मूल रूप

गुहा के भीतर आगे बढ़ते हुए आप एक ऐसे स्थान पर पहुँचते हैं जहाँ चूने द्वारा रचित आदि गणेश की रचना है। वह संरचना शीष रहित शिशु के देह की प्रतीत होती है। उसकी सतह पर तीन छिद्र हैं जो मेरुदंड, श्वास एवं भोजन के लिए हैं। इसके ठीक ऊपर एक बड़े ब्रह्मकमल की शैल रचना है जिससे अनवरत रिसता जल नीचे स्थित संरचना को पोषित करता है।

आदि गणेश एवं पारिजात वृक्ष
आदि गणेश एवं पारिजात वृक्ष

ऐसी मान्यता है कि यह भगवान गणेश का मूल रूप है जब उनके शीष का उनकी देह से विच्छेद किया गया था। ब्रह्मकमल से रिसते जल ने उनकी देह को तब तक जीवित रखा था जब तक उनकी देह पर एक गज का शीष ना लगाया गया था।

चारधाम एवं अमरनाथ

अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ
अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ

कुछ आगे जाते ही भित्तियों पर लघु गुहा सदृश संरचनाएं हैं। उसके समक्ष प्राकृतिक रूप से रचित शिव लिंग हैं। तीनों गुहायें भिन्न भिन्न ऊंचाइयों पर स्थित हैं। ये केदारनाथ, बद्रीनाथ, अमरनाथ एवं अमरनाथ गुहा की लघु प्रतिकृतियाँ हैं।

ऋषि मार्कन्डेय की गुहा

आप देखेंगे कि आपके एक ओर अनेक गुहायें हैं जो एक के पश्चात एक स्थित हैं। एक गुहा के भीतर आपको पद्मासन में आसनस्थ एक ऋषि के प्रतिबिंब का आभास होगा। पंडितजी के बताया कि ऋषि मार्कन्डेय ने इस गुहा के भीतर ध्यान किया था। उन्होंने अपने सूक्ष्म शरीर का दृश्य प्रतिबिंब यहाँ स्थापित किया है।

पाताल भुवनेश्वर के द्वार

एक चौमार्ग पर आप अपने समक्ष केवल एक प्रवेश द्वार देखेंगे जो खुला है। अन्य द्वार प्राकृतिक रूप से बंद हैं।

उनमें से पाप द्वार त्रेता युग में केवल एक अवसर पर खुला था। रावण के विनाश के पश्चात यह द्वार बंद कर दिया गया। द्वापर युग में कुरुक्षेत्र के महान युद्ध के पश्चात रण द्वार भी बंद कर दिया गया। कलियुग के कगार पर सतयुग के मोक्ष द्वार को पुनः खोला गया था।

धर्म द्वार के मुख से मोक्ष द्वार में प्रवेश किया जाता है तथा वहाँ से पाताल भुवनेश्वर की की यात्रा आगे बढ़ती है।

शिव जटा

पाताल भुवनेश्वर के गहनतम भागों की ओर बढ़ते हुए हम शिव जटा पहुँचते हैं। यह एक बर्फीली शीतल संरचना है जिसे शिव की जटा कहते हैं। यहाँ की भूमि चिकनी एवं अत्यंत शीतल है। इस संरचना का आधा भाग चूने का तथा आधा भाग जमे हुए हिम का है।

शिव जटा
शिव जटा

इस जटा के नीचे प्राकृतिक रूप से निर्मित एक शिवलिंग एवं ३३ कोटि (प्रकार के) हिन्दू देव हैं। एक लघु जलकुंड भी है। ऐसा कहा जाता है कि दैवी स्थापत्य शास्त्री विश्वकर्मा ने स्वयं इस कुंड की रचना की है। जलकुंड के निकट उनके हाथ जैसी एक शैल संरचना भी है।

शिव शक्ति लिंग

विश्वकर्मा कुंड जहाँ ३३ कोटि देवताओं का निवास है
विश्वकर्मा कुंड जहाँ ३३ कोटि देवताओं का निवास है

पाताल भुवनेश्वर के गहनतम भाग में शिव शक्ति लिंग है। स्फटिक मणि में निर्मित यह लिंग ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश त्रिदेवों का द्योतक है।

ऐरावत एवं पारिजात वृक्ष

ऐरावत हाथी के पैर
ऐरावत हाथी के पैर

गुहा की छत पर दैवी गज ऐरावत के पदचिन्ह हैं। आश्चर्यजनक रूप से गुहा के भीतर पारिजात का एक जीवित वृक्ष भी है। ऐसी मान्यता है कि भगवान कृष्ण एवं इन्द्र के मध्य युद्ध के समय यह वृक्ष धरती एवं पाताल लोक के मध्य फंस गया था। इस वृक्ष पर पत्ते नहीं थे लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उस पर फल लगे हुए थे।

वृद्ध भुवनेश्वर मंदिर

पाताल भुवनेश्वर के दर्शन के पश्चात भक्तों को वृद्ध भुवनेश्वर मंदिर जाने के लिए कहा जाता है जो पहाड़ी के दूसरी ओर स्थित है। मंदिर के पार्श्व भाग में एक शिल्प संग्रहालय है जिसमें पाताल भुवनेश्वर के भीतर एवं उसके आसपास के भागों से उत्खनित शिल्पों का संग्रह प्रदर्शित किया गया है।

वृद्ध भुवनेश्वर
वृद्ध भुवनेश्वर

इनके पश्चात आप निकट स्थित अन्य तीर्थ स्थानों के दर्शन कर सकते हैं जैसे बेरीनाग एवं गंगोलीहाट। २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेरीनाग में नाग देवता का प्राचीन मंदिर है। आसपास चाय के सुंदर उद्यान हैं। पाताल भुवनेश्वर से लगभग १३ किलोमीटर की दूरी पर गंगोलीहाट में हाट कालिका मंदिर है। यह एक शक्तिपीठ है जिसकी स्थापना सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व आदि शंकराचार्य जी ने की थी।

पाताल भुवनेश्वर गुहा के दर्शन-अवलोकन के लिए एक घंटे का समय लगता है लेकिन इसके लिए उच्चतम स्तर का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य आवश्यक है। मेरे लिए यह एक अद्वितीय, अद्भुत व अवास्तविक अनुभव था। जो भी शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ है तथा जिसे कम ऑक्सीजन स्तर में गुहा के भीतर अस्वाभाविक अनुभव नहीं होता, उसने यह दैवी अनुभव अवश्य प्राप्त करना चाहिए।

यदि आप देवभूमि उत्तराखंड की यात्रा कर रहे हैं तो इस अनोखे प्राचीन शैल संरचना का अवलोकन अवश्य करें।

यात्रा सुझाव

आवासीय सुविधाएं – पाताल भुवनेश्वर परिसर में कुछ धर्मशालाएं एवं विश्राम गृहों की सुविधाएं उपलब्ध हैं। उच्च स्तर के विश्रामगृह एवं होटल-रिज़ॉर्ट ३७ किलोमीटर दूर स्थित चौकोड़ी में उपलब्ध हैं अथवा २५ किलोमीटर बेरीनाग में भी उपलब्ध हैं।

सर्वोत्तम यात्रा काल – मानसून अथवा वर्ष ऋतु में पाताल भुवनेश्वर की यात्रा कठिन होती है क्योंकि इस काल में ऑक्सीजन स्तर में अत्यधिक कमी आ जाती है। यात्रा का सर्वोत्तम काल फरवरी से जून मास है।

परिवहन सुविधाएं – पाताल भुवनेश्वर पहुँचने के लिए निकटतम रेल स्थानक १५४ किलोमीटर दूर स्थित टनकपुर है। निकटतम विमानतल पंतनगर है जो यहाँ से २४४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इन दोनों स्थानों से नियमित टैक्सी एवं बस सुविधाएं उपलब्ध हैं जो आपको पाताल भुवनेश्वर तक पहुँचाएंगी।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह यात्रा संस्करण अक्षया विजय ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान भारत का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान https://inditales.com/hindi/jim-corbett-rashtriya-udyaan-uttarakhand/ https://inditales.com/hindi/jim-corbett-rashtriya-udyaan-uttarakhand/#respond Wed, 17 May 2023 02:30:20 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3060

जंगल का राजा रॉयल बंगाल टाइगर या बंगाल बाघों के लिए विश्व प्रसिद्ध, हिमालय की तलहटी पर स्थित जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान को भारत का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान होने का गौरव प्राप्त है। सन् १९३६ में स्थापित यह उद्यान पूर्व में हेली नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता था। जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान – […]

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जंगल का राजा रॉयल बंगाल टाइगर या बंगाल बाघों के लिए विश्व प्रसिद्ध, हिमालय की तलहटी पर स्थित जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान को भारत का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान होने का गौरव प्राप्त है। सन् १९३६ में स्थापित यह उद्यान पूर्व में हेली नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता था।

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान – भारत का प्राचीनतम राष्ट्रीय उद्यान

५२० वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्रफल में फैले इस राष्ट्रीय उद्यान में विभिन्न प्रकार के भूभाग हैं, जैसे पहाड़ियाँ, दलदली भूमि, घास के मैदानी क्षेत्र, जल के विभिन्न स्त्रोत आदि। एक अत्यंत विस्तृत उद्यान होने के पश्चात भी इसका मुख्यालय रामनगर उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित है।

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान का इतिहास

इस क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान घोषित करने से पूर्व यह वन टेहरी गढ़वाल रियासत की एक निजी संपत्ति थी। टेहरी के राजा ने इस क्षेत्र के एक भाग को इस करार के अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दी थी कि गोरखाओं के विरुद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी राजा की सहायता करेगी। इसके पश्चात अंग्रेजों ने सन् १८६० में इस क्षेत्र में बसे एवं खेती कर जीवन निर्वाह कर रहे तराई क्षेत्र के बुक्सा जनजाति के लोगों को यहाँ से खदेड़ दिया। वन संरक्षण का कार्य सन् १८६८ में आरम्भ हो गया।

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में हाथी
जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में हाथी

इस भूभाग की संरचना एवं यहाँ के वन्य प्राणी इतने उत्कृष्ट थे कि सन् १९०७ में इस क्षेत्र को वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र में परिवर्तित करने का प्रारूप बनाया गया। किन्तु वह प्रारूप सन् १९३० में ही सजीव रूप ले पाया जब जिम कॉर्बेट के मार्गदर्शन में इस उद्यान की सीमांकन प्रक्रिया पूर्ण की गयी। तब सन् १९३६ में हेली नेशनल पार्क के नाम से एक संरक्षित वनक्षेत्र की रचना हुई जिसका कुल क्षेत्रफल ३२३.७५ वर्ग किलोमीटर था। उस समय सर विलियम मैल्कम हेली संयुक्त प्रांत के गवर्नर थे।

स्वतंत्रता के पश्चात, सन् १९५४-५५ में इस संरक्षित क्षेत्र का नाम रामनगर राष्ट्रीय उद्यान रखा गया। जिम कॉर्बेट की मृत्यु के पश्चात, उनकी स्मृतियों को व उनके अथक संवर्धन कार्य को जीवित रखने के उद्देश्य से सन् १९५५-५६ में इस उद्यान का  नाम पुनः परिवर्तित कर जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान रखा गया।

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में बाघ
Bengal Tiger Crossing a river in Corbett National Park

समय के साथ इस उद्यान के क्षेत्रफल में वृद्धि होती गयी। सन् १९९१ तक इसका क्षेत्रफल बफर झोन अथवा मध्यवर्ती क्षेत्र के साथ ७९७.७२ वर्ग किलोमीटर हो गया। इसके साथ ही भारत के विशालतम वन्यजीव अभ्यारण्यों में इसकी गिनती होनी लगी। सन् १९७४ में वन्यजीव संरक्षण प्रकल्प के अंतर्गत स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा प्रोजेक्ट टाइगर का शुभारम्भ किया गया।

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जिम कॉर्बेट

एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट या जिम कॉर्बेट का जन्म सन् १८५७ में उत्तराखंड के नैनीताल में हुआ था। वे ब्रिटिश मूल के निवासी थे तथा सोलह सदस्यों के विशाल परिवार में आठवें क्रमांक के सदस्य थे। यद्यपि वे उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे किन्तु अपने परिवार के भरण-पोषण में सहायता करने के लिए उन्होंने रेलवे सेवा में इंधन निरीक्षक का पदभार ग्रहण कर लिया।

जिम कॉर्बेट का पुतला
जिम कॉर्बेट का पुतला

जिम कॉर्बेट ने अपने जीवन काल में अनेक नरभक्षी तेंदुओं एवं बाघों को खोज निकाला एवं उन्हें समाप्त किया। सर्वप्रथम नरभक्षी एक बंगाल बाघिन थी जो ‘द चंपावत टाईग्रेस’ के नाम से कुख्यात हो गयी थी। उसने लगभग ४३६ मनुष्यों के प्राण लिए हैं जिसके कारण उसका नाम गिनीस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में अंकित है। जिम कॉर्बेट एक निष्णात आखेटक के अलावा वन्य जीव प्रेमी व अत्यंत प्रभावी कथाकार व लेखक भी थे। जिम कॉर्बेट ने अपने जीवन काल में जितने भी बाघों एवं तेंदुओं को समाप्त किया था, उनके विषय में उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं, जैसे Man-Eaters of Kumaon, The Man-Eating Leopard of Rudraprayag तथा The Temple Tiger, जो अब तक भी लोकप्रिय हैं.

उद्यान की भौगोलिक अवस्थिति

उत्तर में हिमाचल पर्वतमाला जिसे लघु हिमालय अथवा मध्य हिमालय भी कहा जाता है, एवं दक्षिण में शिवालिक पर्वतमाला के मध्य स्थित जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में अनेक दर्रे, पहाड़ी टीले, जलधाराएं एवं छोटे पठार हैं। उद्यान से होते हुए रामगंगा नदी बहती है।

जिम कॉर्बेट का गाँव
जिम कॉर्बेट का गाँव

इस सम्पूर्ण उद्यान का केवल २० प्रतिशत भाग ही पर्यटकों के लिए खुला रहता है। शेष भाग केवल वन्यप्राणियों के संवर्धन के लिए संरक्षित रखा गया है। इस उद्यान में वृक्षों की लगभग ११० प्रजातियाँ, स्तनपायी जीवों की लगभग ५० प्रजातियाँ, पक्षियों की लगभग ५८० प्रजातियाँ तथा सरीसृपों की लगभग २५ प्रजातियाँ हैं।

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जंगल सफारी एवं अन्य गतिविधियाँ

अन्य वन्यप्राणी उद्यानों के समान जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में भी प्रमुख गतिविधि जंगल सफारी ही है। इस उद्यान में अनेक प्रकार के सफारी आयोजित किये जाते हैं। जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान का भ्रमण नियोजित करते समय अपने नियत दिनांक से एक मास पूर्व Uttarakhand Government website, इस वेबस्थल से अपने टिकट सुनिश्चित कर लें। अधिकारिक वन्य क्षेत्रों में जंगल सफारी के लिए तात्कालिक टिकट बुकिंग संभव नहीं है। यदि आप इस टिकट को सुनिश्चित करने में चूक जाएँ तो आप सीताबनी सफारी की टिकट ले सकते हैं जो बफर झोन अथवा मध्यवर्ती क्षेत्र में की जाती है।

प्रातः सफारी का परिदृश्य
प्रातः सफारी का परिदृश्य

प्रत्येक सफारी २ से ३ घंटों की होती है। ग्रीष्मकालीन समयावधि एवं शीतकालीन समयावधि में अंतर होता है। उद्यान आने से पूर्व सफारी के टिकट एवं सरकार द्वारा जारी अधिकारिक परिचय पत्र अवश्य साथ रखें।

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जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान के ५ विभिन्न क्षेत्र

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान को पाँच भागों में बाँटा गया है जिन्हें झोन कहा जाता है। प्रत्येक क्षेत्र अथवा झोन की भूभागीय संरचना भिन्न है। ये पाँच भागों का नाम इस प्रकार हैं-

ढिकाला

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान का ढिकाला भाग पर्यटकों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। पर्यटकों में इसका एक विशेष स्थान है। यह जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान के पाँचों क्षेत्रों में सर्वाधिक विशाल है। इसमें प्राणियों एवं वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ हैं। यह क्षेत्र एक-दिवसीय यात्रियों के लिए उपलब्ध नहीं है। इस सफारी का आनंद उठाने के लिए आपको वन विभाग के रेस्ट हाउस में अपने ठहरने की सुविधा पूर्व-नियोजित करनी होगी। इस क्षेत्र में बाघों के दर्शन की संभावना सर्वाधिक रहती है।

जिम कॉर्बेट उद्यान के विभिन्न द्वार
जिम कॉर्बेट उद्यान के विभिन्न द्वार

सन् २०१९ में प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी एवं Bear Grylls पर दूरदर्शन मालिका Man vs Wild का एक विशेष संस्करण इसी राष्ट्रीय उद्यान के इसी भाग में चित्रित किया गया था। यह उद्यान १५ नवम्बर से १५ जून तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है।

बिजरानी

बाघों के दर्शन के लिए ढिकाला के पश्चात बिजरानी भाग पर्यटकों में लोकप्रिय है। इस सफारी के लिए रात्रि में वहाँ ठहरने की अनिवार्यता नहीं है। इस कारण इसके टिकटों की विक्री शीघ्र समाप्त हो जाती है। इस क्षेत्र की भूभागीय संरचना में घास के विस्तृत मैदान, साल वृक्ष के घने वन एवं नदियाँ सम्मिलित हैं। पर्यटकों के लिए यह भाग १५ अक्टूबर से ३० जून तक खुला रहता है।

झिरना

हाथी, हिरण और आरण्य पथ
हाथी, हिरण और आरण्य पथ

झिरना भाग कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान की दक्षिणी सीमा पर स्थित है। यह झोन पर्यटकों के लिए वर्षभर खुला रहता है। इसी कारण इस क्षेत्र में पर्यटकों की संख्या सर्वाधिक रहती है। इन भाग के मुख्य आकर्षण हैं, रूपवान बाघों के दर्शन के साथ साथ काले रीछ के दर्शन।

ढेला

दिसंबर २०१४ में घोषित ढेला भाग इस राष्ट्रीय उद्यान के विभिन्न पर्यटन क्षेत्रों में नवीनतम झोन है। उद्यान का यह क्षेत्र भी पर्यटकों के लिए वर्ष भर उपलब्ध रहता है। किन्तु सफारी का आयोजन वातावरण की स्थिति पर निर्भर करता है। वन्यजीवों के दर्शन के साथ साथ यह क्षेत्र पक्षी दर्शन के लिए भी अत्यंत लोकप्रिय है।

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दुर्गा देवी

यह भाग कॉर्बेट वन-उद्यान के उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित है। यह क्षेत्र वनस्पतियों एवं वन्य प्राणियों के अनेक प्रजातियों से संपन्न है। रामगंगा नदी एवं मंडल नदी इस क्षेत्र के सभी जल स्त्रोतों को पोषित करती हैं तथा इस वन की सुन्दरता को चार गुना करती हैं। यह भाग पर्यटकों के लिए १५ नवम्बर से १५ जून तक खुला रहता है।

सीताबनी

घने जंगले
घने जंगले

जिम कॉर्बेट वन उद्यान का सीताबनी भाग एक संरक्षित वन क्षेत्र है जो कॉर्बेट बाघ संरक्षित क्षेत्र के बाहर स्थित है। इस भाग को बाघ अभयारण्य का बफर भाग अथवा मध्यवर्ती क्षेत्र माना जाता है। यह क्षेत्र सभी पर्यटकों के लिए खुला रहता है। यहाँ पक्षियों की लगभग ६०० प्रजातियाँ देखी जा सकती हैं जिनमें अधिकाँश प्रजातियाँ प्रवासी पक्षियों की हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ अनेक शाकाहारी प्राणी भी दिखाई देते हैं जैसे, हाथी, हिरण, सांभर, नीलगाय आदि।

सफारी के अतिरिक्त इस राष्ट्रीय उद्यान के अन्य आकर्षण हैं, ढिकाला का संग्रहालय एवं कालाढूंगी में स्थित जिम कॉर्बेट का पैतृक निवास।

ढिकाला का संग्रहालय अत्यंत विशाल है जहाँ वन्यप्राणियों के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। वन उद्यान में विचरण करते स्तनपायी जीवों के विभिन्न प्रकार से लेकर भिन्न भिन्न पक्षियों के विविध कलरव के स्वरों तक सभी जानकारी यहाँ प्रदान की गयी है। ३डी एवं प्रकाश प्रदर्शन द्वारा इस वन के रात्रि काल के परिदृश्यों को भी परदे पर सजीव किया जाता है।

गिरिजा देवी मंदिर
गिरिजा देवी मंदिर

कोसी नदी के तट पर, एक पहाड़ी के टीले पर गर्जिया माता मंदिर है जिसे गिरिजा देवी मंदिर भी कहा जाता है। पार्वती माता के स्वरूप गर्जिया देवी को समर्पित यह मंदिर लगभग १५० वर्ष प्राचीन है। प्रतिदिन सहस्त्रों की संख्या में भक्तगण माता के दर्शन के लिए यहाँ आते हैं। इस स्थान पर पक्षियों की कुछ दुर्लभ प्रजातियाँ भी दिख जाती हैं, विशेषतः हिमालय नीलकंठ(Himalayan Kingfisher)।

यदि रोमांचक क्रीड़ाओं में आपकी रूचि हो तो यहाँ कुछ टूर ऑपरेटर हैं जो वन में पदभ्रमण, उफनती नदी पर नौका चलाना(river rafting), पर्वतों पर सायकल चलाना(mountain biking) जैसी अनेक गतिविधियाँ आयोजित करते हैं।

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जिम कॉर्बेट प्राणी उद्यान कैसे पहुंचें?

यहाँ पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल पंतनगर में है जो यहाँ से ८३ किलोमीटर दूर है। रेलगाड़ी द्वारा आना चाहें तो निकटतम रेल स्थानक रामनगर में है जो दिल्ली से रेल मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। दिल्ली से सड़क मार्ग द्वारा ५ घंटे की यात्रा कर पहुंचा जा सकता है।

जिम कॉर्बेट प्राणी उद्यान में ठहरने की व्यवस्था

संग्रहालय एवं उद्यान का मानचित्र
संग्रहालय एवं उद्यान का मानचित्र

जिम कॉर्बेट प्राणी उद्यान देश-विदेश में प्रसिद्ध होने के कारण एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन गंतव्य है। यहाँ अनेक प्रकार के रिसॉर्ट्स, होटल व होमस्टे हैं तथा नदीतट पर तम्बुओं की भी व्यवस्था है। किन्तु सरकारी विश्रामगृहों के अतिरिक्त इनमें से कोई भी व्यावसायिक संस्थान वनीय प्रदेश के भीतर नहीं हैं। ये सभी या तो महामार्ग के किनारे स्थित हैं अथवा बफर भाग  के भीतर स्थित हैं।

यहाँ इस वनीय प्रदेश के अनछुए प्राकृतिक सौंदर्य का दर्शन अद्भुत प्रतीत होता है। एक ओर जहाँ यह वन तथा इसका पारिस्थितिक तंत्र है तो दूसरी ओर, अर्थात् रिसोर्ट एवं होटलों की ओर त्वरित गति से बहती कोसी नदी की सौम्यता यहाँ की सुन्दरता को एक पृथक आयाम प्रदान करती है।

यदि आपको रोमांच भाता है तथा आप अभयारण्य के भीतर ठहरना चाहते हैं तो उत्तराखंड के अधिकृत वेबस्थल पर जाकर अपने ठहरने की व्यवस्था यहाँ आने से पूर्व ही सुनिश्चित कर लें। जिम कॉर्बेट प्राणी उद्यान के प्रत्येक झोन में विश्राम गृह हैं जिन्हें फारेस्ट लॉज कहा जाता है। केवल ढिकाला झोन में ही अभयारण्य के भीतर ठहरने की अनिवार्यता है। अन्य सभी क्षेत्रों में उद्यान के भीतर ठहरने की अनिवार्यता नहीं है। फारेस्ट लॉज के भीतर वहाँ के परिचारक आपके भोजन एवं अन्य आवश्यक सामग्रियों की व्यवस्था करते हैं। अभयारण्य के भीतर मदिरापान एवं सामिष भोजन पर कड़ा प्रतिबन्ध है।

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जिम कॉर्बेट प्राणी उद्यान के दर्शन का सर्वोत्तम समय

दिसंबर से मार्च मास की समयावधि कॉर्बेट प्राणी उद्यान के दर्शन के लिए सर्वोत्तम समय है। १२००० फीट की ऊँचाई पर स्थित इस उद्यान एवं इसके आसपास के क्षेत्र का तापमान शीत ऋतु में लगभग ५ डिग्री सेल्सियस तक रहता है। शीत ऋतु में यहाँ का वातावरण शीतल रहता है तथा अभयारण्य में विचरण करना भी सुखमय होता है। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व बाघों को देख पाने की संभावना अधिक रहती है।

कॉर्बेट में ग्रीष्मकालीन वातावरण किंचित कष्टकारक होता है। मई एवं जून मास में तापमान ४० डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है। मैं जून मास में कॉर्बेट उद्यान के दर्शन के लिए आयी थी। उस समय यहाँ के तापमान एवं आर्द्रता के कारण वातावरण अत्यंत असहनीय था।

जून से अक्टूबर मास के मध्य मानसून अवधि में अधिकांश प्राणी उद्यान पर्यटकों के लिए बंद हो जाते हैं। सभी जल स्त्रोत एवं नदियाँ जल से भर जाती हैं तथा सफारी गाड़ियों का चलाना दूभर हो जाता है। मानसून में आये पौधे पदमार्गों को अवरुद्ध कर देते हैं तथा वन के भीतर पैदल चलना भी लगभग असंभव हो जाता है।

यह संस्करण Inditales Internship Program के अंतर्गत अक्षया विजय द्वारा लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नंदा देवी की राजजात यात्रा १२ वर्षों में एक बार हिमालय की और https://inditales.com/hindi/nanda-devi-ki-rajjat-yatra-uttarakhand/ https://inditales.com/hindi/nanda-devi-ki-rajjat-yatra-uttarakhand/#respond Wed, 13 Oct 2021 02:30:15 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2538

ॐ हिमाद्रिका हिमांगिनी नगाधिराज वासिनी बिन्ध्य  नाम नंदजा नंदा कोट वासिनीम्। संस्कृतियों और परम्पराओं से सम्पन्न देवभूमि  उत्तराखंड की विरासत इतनी विशाल है कि उसे किसी भी लेखनी में समाहित नही किया जा सकता है। यहां पंच केदार , पंच प्रयाग और पंच बदरी अपने नैसर्गिक स्वरूप में विद्यमान हैं। साल भर अनेकों मेले और […]

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ॐ हिमाद्रिका हिमांगिनी नगाधिराज वासिनी
बिन्ध्य  नाम नंदजा नंदा कोट वासिनीम्।
नन्दा देवी की डोली राजजात यात्रा पर
नंदा देवी राजजात यात्रा डोली. चित्र – Shutterstock.

संस्कृतियों और परम्पराओं से सम्पन्न देवभूमि  उत्तराखंड की विरासत इतनी विशाल है कि उसे किसी भी लेखनी में समाहित नही किया जा सकता है। यहां पंच केदार , पंच प्रयाग और पंच बदरी अपने नैसर्गिक स्वरूप में विद्यमान हैं। साल भर अनेकों मेले और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन होता है इसी में सम्मिलित है माँ नंदा देवी की राजजात यात्रा।

नंदा देवी

लोक इतिहास के अनुसार नन्दा देवी गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। इष्टदेवी होने के कारण नन्दा देवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है।
नंदा देवी डोली
नंदा देवी डोली – चमोली, चित्र – Shutterstock.

मान्यता है कि एक बार नंदा अपने मायके आई थीं। लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 वर्ष तक ससुराल नहीं जा सकीं। बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया। मां नंदा को उनकी ससुराल भेजने की यात्रा ही है राजजात यात्रा। मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है और कैलाश (हिमालय) भगवान शिव का निवास।

इस यात्रा में चमोली जिले में पट्टी चांदपुर और श्रीगुरु क्षेत्र को मां नंदा का मायका और बधाण क्षेत्र (नंदाक क्षेत्र) को उनकी ससुराल माना जाता है। माँ नन्दा भगवान शिव भोलेनाथ की अर्धांगिनी और उत्तराखंड हिमालय की पुत्री हैं, वह इस यात्रा के माध्यम से अपने ससुराल यानी कैलाश पर्वत जाती हैं। हर साल भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन यह यात्रा आरंभ होती है।

यात्रा पथ

हिमालयी महाकुंभ के नाम से विख्यात व विश्व की सबसे लम्बी व पैदल धार्मिक यात्रा का गौरव प्राप्त नंदा देवी राजजात यात्रा 12 वर्ष में बड़ी जात कहा जाता है जो बहुत वृहद रुप में मनाई जाती है जिसमें कि सारे देश विदेश के श्रद्धालु शामिल होते हैं और हर वर्ष इसे छोटी जात में रूप में मनाया जाता है। यह यात्रा अपने आप में दिव्य, अद्‌भुत व रोमांचकारी यात्रा है। इस ऐतिहासिक यात्रा को गढ़वाल-कुमाऊं के सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक भी माना जाता है। जैसा की सब जानते हैं कुमाऊँ और गढ़वाल उत्तराखंड के दो भाग हैं। अगली बड़ी जात यात्रा २०२५ में होगी।
नंदा देवी यात्रा पथ
नंदा देवी यात्रा पथ, चित्र – लेखिका

नंदादेवी की यह ऐतिहासिक यात्रा श्री बदरीनाथ चमोली जनपद नन्दा नगर घाट कुरुड़ गांव के दिव्य प्राचीन मंन्दिर से नन्दा देवी की डोली के साथ यात्रा का शुभारंभ होता है। कुरूड़ के मन्दिर से दशोली और बधॉण की डोलियाँ जात का शुभारम्भ करती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, कुरुड़ से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।

नंदा देवी भगौती
नंदा देवी भगौती – चित्र – आलोक भट्ट

इसका पहला पड़ाव 10 किलोमीटर पर ईड़ा बधाणी है। उसके बाद दो पड़ाव नौटी में होते हैं। नौटी के बाद सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़ियूं, नन्दकेशरी, फल्दिया गांव, मुन्दोली, वाण, गैरोलीपातल, पातरनचौणियां होते हुये यात्रा शिलासमुद्र होते हुये अपने गन्तव्य होमकुण्ड पहुंचती है। इस यात्रा के दौरान लोहाजंग ऐसा पड़ाव है जहां आज भी बड़े पत्थरों और पेड़ों पर लोहे के तीर चुभे हुये हैं। कुछ तीर संग्रहालयों के लिये निकाल लिये गये हैं। इस स्थान पर कभी भयंकर युद्ध होने का अनुमान लगाया जाता है।

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रूपकुंड

रूपकुंड की और जाती हुई यात्रा
रूपकुंड की और जाती हुई यात्रा, चित्र – आलोक भट्ट

राजजात के मार्ग में हिमाच्छादित शिखरों से घिरी रूपकुण्ड झील है जिसके रहस्यों को सुलझाने के लिये भारत ही नहीें बल्कि दुनियां के कई देशों के वैज्ञानिक दशकों से अध्ययन कर रहे हैं। कोई रोक टोक न होने के कारण समुद्रतल से 16200 फुट की उंचाई पर स्थित रूपकुण्ड झील से देश विदेश के वैज्ञानिक बोरों में भर कर अतीत के रहस्यों का खजाना समेटे हुये ये नर कंकाल और अन्य अवशेष उठा कर ले गये हैं। फिर भी मानव बस्तियों से बहुत ऊपर इस झील के किनारे अब भी कई कंकाल पड़े हैं। कुछ कंकालों पर मांस तक पाया गया है। कंकालों के साथ ही आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी, के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूड़ियां आदि सामग्री बिखरी पड़ी है। इन सेकड़ों कंकालों का पता सबसे पहले 1942 में एक वन रेंजर ने लगाया था।

खाडू भेड़
खाडू भेड़, चित्र – Shutterstock.

इसके साथ ही इस ऐतिहासिक यात्रा का नेतृत्व करने के लिए चौसिंग्या(चार सिंग ) खाडू भेड की तलाश भी शुरू हो जाता है। यात्रा से पहले इस तरह का विचित्र भेढ चांदपुर और दशोली पट्टियों के गावों में से कहीं भी जन्म लेता रहा है। इस यात्रा में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) का विशेष महत्व है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है। उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे हिमालय की पर्वत सृंखलाओं में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।

नंदा देवी की प्रतीक्षा में
नंदा देवी की प्रतीक्षा में, चित्र – आलोक भट्ट

विशेष कारीगरी से बनीं रिंगाल की छंतोलियों, डोलियों और निशानों के साथ लगभग 200 स्थानीय देवी देवता इस महायात्रा में शामिल होते हैं। समुद्रतल से 13200 फुट की उंचाई पर स्थित इस यात्रा के गन्तव्य पैदल रहस्यमयी रूपकुंड होकर हेमकुंड तक जाती है।

होमकुण्ड के बाद रंग बिरंगे वस्त्रों से लिपटे इस भेढ को अकेले ही कैलाश  हिमनदों (ग्लेशियर)की ओर विदा कर दिया जाता है।  समुद्रतल से 3200 फुट से लेकर 17500 फुट की ऊंचाई क पहुंचने वाली यह 280 किमी लम्बी पदयात्रा 19 पड़ावों से गुजरती है। सम्पूर्ण यात्रा 19 दिनों तक चलती है और अंतिम पड़ाव होमकुण्ड पहुंचती है। इस कुण्ड में पिण्डदान और पूजा अर्चना के बाद चौसिंग्या खाडू को हिमालय की चोटियों की ओर विदा करने के बाद यात्रा नीचे उतरने लगती है। उसके बाद यात्रा सुतोल, घाट और नौटी लौट आती है।

इस लेख की लेखिका रेखा देवशाली उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद से है। गांव के सरकारी स्कूल से और एक समाज सेविका तक का सफर संघर्षों से भरा हुआ रहा, एक माँ, बेटी, और पत्नी के कर्तव्यों के साथ समाज सेवा और  लेखन कार्य भी करती हैं।


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हरिद्वार के दर्शनीय देवी मंदिर – शक्तिपीठ एवं सिद्धपीठ https://inditales.com/hindi/haridwar-ke-devi-mandir-shaktipeeth-siddhapeeth/ https://inditales.com/hindi/haridwar-ke-devi-mandir-shaktipeeth-siddhapeeth/#comments Wed, 14 Oct 2020 02:30:57 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2042

हरिद्वार का नाम लेते ही आँखों के समक्ष हर की पौड़ी का दृश्य उभर कर आ जाता है। संध्या की आरती की जगमगाहट आँखों को चुँधियाने लगती है। गंगा के तट पर खचाखच भरे भक्तों एवं पर्यटकों के मध्य, पंडितों के मुख से उमड़ते स्त्रोतों के स्वर कानों को गुंजायमान करने लगते हैं। जैसा कि […]

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हरिद्वार का नाम लेते ही आँखों के समक्ष हर की पौड़ी का दृश्य उभर कर आ जाता है। संध्या की आरती की जगमगाहट आँखों को चुँधियाने लगती है। गंगा के तट पर खचाखच भरे भक्तों एवं पर्यटकों के मध्य, पंडितों के मुख से उमड़ते स्त्रोतों के स्वर कानों को गुंजायमान करने लगते हैं। जैसा कि आप जानते हैं, गंगा यहाँ की सर्वाधिक पूजनीय देवी है। हिमालय ने नीचे उतरती हुई गंगा जब मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तब अपनी महिमा से वे यहाँ के निवासियों का पालन-पोषण करती है। हम सब जानते हैं, जहां गंगा है, भगवान शिव भी वहाँ से अधिक दूर नहीं हो सकते। जी हाँ, आप भी जानते हैं कि हरिद्वार नगरी अनेक शिव मंदिरों से भरी हुई है। किन्तु आप में से कई इस तथ्य से अनभिज्ञ होंगे कि हरिद्वार में कई शक्ति मंदिर भी हैं जो प्राचीनतम एवं सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति मंदिरों में से हैं।

हरिद्वार के देवी मंदिरों के दर्शन

आईए मेरे साथ, हम हरिद्वार के शक्ति अर्थात देवी मंदिरों की खोज पर चलते हैं।

कनखल का सती मंदिर

दक्षेश्वर महादेव मंदिर - कनखल हरिद्वार
दक्षेश्वर महादेव मंदिर – कनखल हरिद्वार

आप सब ने पढ़ा अथवा सुना होगा, भगवान शिव की पहली पत्नी सती अपने पिता दक्ष के निवास स्थान पर आयोजित यज्ञ के समय अपने पति का अपमान सहन नहीं कर पायी थी तथा उन्होंने स्वयं को अग्निकुंड में समर्पित कर दिया था। सती के पिता दक्ष का निवास स्थान यहीं कनखल में था जो हरिद्वार के प्राचीनतम निवासित स्थलों में से एक है। दक्षेश्वर महादेव मंदिर में सती की यह कथा अब भी जीवित है। इस मंदिर के पृष्ठभाग पर एक छोटा सा मंदिर है जिसे सती का जन्मस्थल माना जाता है। गंगा के तट पर स्थित यह एक छोटा एवं साधारण सा मंदिर है। आपको शिव एवं सती की यह कथा स्मरण होगी, वह सम्पूर्ण घटना यहीं घटी थी। शिव द्वारा सती की देह को हाथों में उठाकर तांडव किये जाने की घटना के पश्चात भारतीय उपमहाद्वीप में ५२ शक्तिपीठों की रचना हुई थी।

यहाँ आप वह अग्नि कुंड भी देख सकते हैं जिसे भीतर कूदकर देवी सती ने स्वयं को अग्नि को समर्पित किया था। यह मंदिर अधिक पुराना नहीं है। वैसे भी श्रद्धा के समक्ष संरचना के क्या मायने।

शीतला माता मंदिर

कनखल शीतला माता मंदिर
कनखल शीतला माता मंदिर

दक्षेश्वर महादेव मंदिर के पृष्ठभाग में शीतला माता को समर्पित एक छोटा मंदिर है। इस मंदिर की महत्ता यह है कि यह हरिद्वार में स्थित तीन शक्ति अर्थात देवी मंदिरों में से एक है जो आपस में एक त्रिकोण बनाते हैं। अन्य दो शक्ति मंदिर हैं, मानसा देवी मंदिर तथा चंडी मंदिर।

दश महाविद्या मंदिर

दश महाविद्या मंदिर - कनखल हरिद्वार
दश महाविद्या मंदिर – कनखल हरिद्वार

दक्षेश्वर महादेव मंदिर के समीप दश महाविद्या को समर्पित एक मनोरम मंदिर है। दश महाविद्या अर्थात देवी के १० स्वरूप हैं, काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी तथा कमला। दश महाविद्या को समर्पित ऐसे किसी मंदिर के दर्शन करने का यह मेरा प्रथम अवसर था। इससे पूर्व इनके विषय में मैंने केवल पढ़ा था। जैन मंदिरों के समान कांच के टुकड़ों से जड़ा यह मंदिर छोटा होते हुए भी अत्यंत आकर्षक है।

इस मंदिर में देवी के १० स्वरूप उनके संबंधित मंत्रों के साथ विराजमान हैं। भित्ति पर एक विशाल श्री यंत्र है।

श्री यंत्र मंदिर – हरिद्वार में देवी का सर्वाधिक नवोदय मंदिर

श्री यन्त्र संरचना का मंदिर
श्री यन्त्र संरचना का मंदिर

यह अपेक्षाकृत एक नवीन मंदिर है। मुझे कहीं इनका नाम दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अतः मैं इसे श्री यंत्र मंदिर से संबोधित कर रही हूँ। मुझे इस मंदिर की जिस विशेषता ने अत्यंत आकर्षित किया, वह है इसकी संरचना जो श्री यंत्र के आकार में की गई है। श्री यंत्र ब्रह्मांड का ज्यामितीय निरूपण है जिसके शीर्ष पर देवी विराजमान है। मंदिर के भीतर देवी की ललिता त्रिपुरसुंदरी रूप की प्रतिमा है। साथ ही एक विशाल व सुंदर श्री यंत्र एक अन्य छोटे श्री यंत्र के संग विराजमान है।

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मैं जब यहाँ आई थी तब मंदिर परिसर में अनेक प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे थे। कई स्थानों पर यज्ञ किये जा रहे थे। एक अन्य कक्ष में किसी विषय पर व्याख्यान दिया जा रहा था। मेरे लिए यह मंदिर इस पावन नगरी में देवी के प्रति अनवरत श्रद्धा का प्रतीक है। यह एक ऐसा मंदिर है जहां सौंदर्य शास्त्र मंदिर की रूपरेखा एवं संरचना का ही भाग हो। इसकी अनोखी संरचना के दर्शन के लिए आप यहाँ अवश्य आईये।

चंडी देवी मंदिर

नील पर्वत पर स्थित चंडी मंदिर
नील पर्वत पर स्थित चंडी मंदिर

गंगा के पूर्वी तट पर स्थित नील पर्वत के ऊपर चंडी मंदिर स्थित है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए आप पैदल मार्ग से ४ की.मी. की चढ़ाई चढ़ सकते हैं अथवा रज्जु मार्ग अर्थात रोपवे द्वारा भी पहुँच सकते हैं। मैंने रोपवे द्वारा यहाँ तक पहुँचने का निर्णय लिया। मंदिर के आधार तक पहुँचने में हमें १० मिनटों का समय लगा। यहाँ से भी मुख्य मंदिर तक पहुँचने के लिए हमें कुछ और सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं।

ऐसा कहा जाता है कि शुंभ एवं निशुंभ असुरों का वध करने के पश्चात देवी ने नील पर्वत पर विश्राम किया था। नील पर्वत की दोनों चोटियों को इन दो असुरों के नाम से जाना जाता है।

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हनुमान की माता देवी अंजनी को समर्पित एक मंदिर समीप ही है। यहाँ सभी मंदिर छोटे हैं तथा उनकी संरचना नवीन है। किन्तु भीतर स्थापित प्रतिमाएं एवं स्थल प्राचीन हैं। यदि आप इनके प्रति संवेदनशील हैं तो आप इनसे आती तरंगे अनुभव कर सकते हैं।

गंगा के उस पार, इस मंदिर के ठीक समक्ष स्थित बिल्व पर्वत के ऊपर मानसा देवी मंदिर है। ऐसा प्रतीत होता है मानो दोनों देवियाँ एक दूसरे को निहार रही हैं। साथ ही हरिद्वार नगरी का संरक्षण कर रही हैं।

ऐसा माना जाता है कि चंडी देवी की मुख्य प्रतिमा की स्थापना स्वयं आदि शंकराचार्य ने की थी।

मानसा देवी मंदिर

बिल्व पर्वत पर स्थित मनसा देवी मंदिर
बिल्व पर्वत पर स्थित मनसा देवी मंदिर

हरिद्वार के पश्चिमी ओर स्थित बिल्व पर्वत पर यह मानसा देवी मंदिर स्थित है। यह हरिद्वार नगरी के चहल-पहल भरे केंद्र के समीप ही है। आप यहाँ पर भी पैदल मार्ग से ३ की. मी. चढ़ते हुए पहुँच सकते हैं अथवा रोपवे की सुविधा ले सकते हैं। मैं यहाँ प्रातः ८ बजे के आसपास पहुंची थी। यहाँ भक्तों की इतनी भीड़ थी, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मेरा दम घुट जाएगा। अतः आप यहाँ आने का समय सोच समझ कर तय करें। प्रातः शीघ्र यहाँ आना उत्तम होगा।

मानसा देवी सौम्य देवी हैं जो भक्तों की इच्छा पूर्ण करती हैं। ऐसी मान्यता है कि उनका जन्म भगवान शिव के मस्तक से हुआ था। इसीलिए उन्हे भगवान शिव की मानस पुत्री भी कहा जाता है।

माया देवी मंदिर – हरिद्वार में अधिष्ठात्री देवी का मंदिर

हरिद्वार की अधिष्ठात्री माया देवी
हरिद्वार की अधिष्ठात्री माया देवी

माया देवी हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी हैं। हरिद्वार का एक अन्य नाम, मायापुरी भी माया देवी से ही व्युत्पन्न है। वे इस पावन नगरी के हृदयस्थली वास करती हैं। मायादेवी मंदिर एक शक्ति पीठ है। देवी सती के पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में हुए दुर्भाग्यपूर्ण घटना के समय क्रुद्ध भगवान शिव ने जब सती की मृत देह उठाए तांडव किया तब देवी की नाभि एवं हृदय यहीं गिरे थे।

यह मंदिर उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब तक अखंडित हैं। अन्य प्राचीन मंदिरों के समान यह भी एक छोटा सा मंदिर है। गर्भगृह के भीतर माया देवी की प्रतिमा है जो बाईं ओर माँ काली तथा दाहिनी ओर माँ कामाख्या की छवियों से घिरी हुई है। गर्भगृह के बाहर प्रदक्षिणा पथ है जहां दश महाविद्या के दस स्वरूपों के चित्र हैं। प्रत्येक छवि के नीचे देवी के उस स्वरूप का नाम तथा उससे संबंधित बीज मंत्र लिखे हुए हैं।

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जैसा कि मैंने बताया था, तीन सिद्धपीठ मंदिर एक त्रिकोण बनाते हैं जिसके उत्तरी कोने पर मनसा देवी मंदिर, दक्षिणी कोने पर शीतला देवी मंदिर तथा पूर्वी कोने पर चंडी देवी मंदिर हैं। इस त्रिकोण के मध्य, उत्तरी दिशा की ओर माया देवी मंदिर है तथा दक्षिणी भाग में दक्षेश्वर महादेव मंदिर है।

अधिष्ठात्री देवी होने के कारण देवी का यह मंदिर हरिद्वार नगरी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर है।

सुरेश्वरी देवी मंदिर

देवी सुरेश्वरी मंदिर
देवी सुरेश्वरी मंदिर

यह एक प्राचीन मंदिर है जो देवी के सुरेश्वरी स्वरूप को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि सुरेश्वरी देवी लोगों को संतान सुख का वरदान देती हैं तथा उनके संचारी रोगों का निवारण करती हैं। किवदंतियों के अनुसार जब इन्द्र को उनके ही राज्य से निष्कासित किया गया था तब देवी को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने इसी स्थान पर तपस्या की थी। यहीं देवी ने इन्द्र को दर्शन दिए थे। आज उसी स्थान पर यह देवी सुरेश्वरी का मंदिर स्थित है।

देवी सुरेश्वरी मंदिर के समीप ही एक काली मंदिर है।

राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के भीतर सूरकूट पर्वत के ऊपर यह मंदिर स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए आपको वन विभाग द्वारा मान्य गाड़ियों की सेवा लेनी पड़ेगी। राष्ट्रीय उद्यान होने के कारण यहाँ आप केवल दिन के समय ही आ सकते हैं।

गंगामंदिर – हरिद्वार का सर्वाधिक लोकप्रिय देवी मंदिर

यह हरिद्वार नगरी का सर्वाधिक लोकप्रिय देवी मंदिर है। गंगा नदी जब मैदानी क्षेत्रों में आती है तब यहाँ स्थित देवभूमि के द्वारा मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है। इसी कारण इसे गंगाद्वार भी कहा जाता है। ब्रह्मकुंड के समीप, गंगा के किनारे को लगभग छूता हुआ यह एक अत्यंत छोटा मंदिर है जिसके भीतर गणेशजी की प्रतिमा है। शास्त्रों में गंगा को देवी का द्रव्य अवतार माना गया है। गंगा यहाँ की प्रमुख देवी हैं जिनके दर्शन प्राप्त करने के लिए ही भक्तगण यहाँ आते हैं।

गंगा तट पर गंगा देवी मंदिर
गंगा तट पर गंगा देवी मंदिर

एक हिन्दू तीर्थयात्री के लिए गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगाकर स्नान करने से अधिक पुण्य कार्य कोई नहीं। यदि यह स्नान हरिद्वार की गंगा अथवा काशी की गंगा में हो तो सोने पर सुहागा।

सत्य कहूँ तो हरिद्वार के अधिकतर मंदिरों में गंगा की एक प्रतिमा कहीं ना कहीं अवश्य होती है। नदी से घिरी इस पावन नगरी में वे सर्वत्र उपस्थित हैं।

बिल्वकेश्वर महादेव मंदिर

बिल्केश्वर महादेव मंदिर के निकट गौरी कुंड
बिल्केश्वर महादेव मंदिर के निकट गौरी कुंड

हरिद्वार नगरी के समीप ही बिल्वकेश्वर महादेव का एक छोटा मंदिर है। यह एक शिव मंदिर है जो किसी समय बिल्व वृक्ष के नीचे था। आज उस बिल्व वृक्ष के स्थान पर नीम का वृक्ष है। यही वह स्थान है जहां शिव को पति रूप में पाने के लिए पार्वतीजी ने कठिन तपस्या की थी। कदाचित इसी स्थान पर वे दोनों की सर्वप्रथम भेंट हुई थी। इसकी स्मृति में अब यहाँ केवल एक कुंड है। इसे गौरी कुंड कहते हैं। यहाँ गौरी अर्थात पर्वतीजी स्नान करती थीं। यह कुंड एक छोटी सी जलधारा के उस पार है जहां तक आपको एक छोटा पुल पहुंचाएगा।

देखा जाए तो इस मंदिर में दर्शनीय कुछ विशेष नहीं है। किन्तु यदि आप शिव एवं शक्ति में श्रद्धा व भक्ति रखते हैं तो यह एक तीर्थस्थल है। यह ऐसा देवी मंदिर है जिसके दर्शन करना मैं भूल से भी नहीं भूलूँगी।

श्री दक्षिण काली मंदिर

श्री दक्षिण काली सिद्धपीठ - नीलधारा
श्री दक्षिण काली सिद्धपीठ – नीलधारा

यह काली मंदिर गंगा के किनारे स्थित है जहां गंगा को नीलधारा कहते हैं। चंडी मंदिर के समीप स्थित यह मंदिर लगभग वनीय क्षेत्र में है। गंगा की शांत एवं निर्मल धारा यहाँ दक्षिण की ओर बहती है। इसी कारण इस मंदिर को दक्षिण काली कहा जाता है। यह भी एक छोटा सा मंदिर है जिसका प्रांगण मंदिर से कुछ बड़ा है। संगमरमर में निर्मित एक सिंह कदाचित कालांतर में जोड़ा गया है। श्याम रंग की प्रतिमा प्राचीन प्रतीत होती है किन्तु कितनी प्राचीन, इसका अनुमान लगाना कठिन है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ मध्यरात्रि पूजा अर्चना की जाती है तथा देवी को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है।

और पढ़ें: कोलकाता के काली मंदिर

एक विस्तृत सूचना पटल के अनुसार यह वही स्थान है जहां भगवान शिव ने समुद्र मंथन के समय निकले विष का पान किया था। उन्होंने विषपान करने के पश्चात उस विष को अपने कंठ में ही थाम लिया था। विषपान के पश्चात उनकी देह इतनी ऊष्ण हो गई थी कि उन्होंने यहाँ गंगा के शीतल जल में स्नान किया था। इसी कारण गंगा को यहाँ नीलधारा कहा जाता है। हम जानते ही हैं कि कंठ में विष को संचित रखने के कारण भगवान शिव नीलकंठ भी कहलाते हैं। इस सूचना पटल में हिन्दू पंचांग के अनुसार इस मंदिर में आयोजित सभी अनुष्ठानों एवं उनसे संबंधित तिथियों की जानकारी भी दी गई है।

देवी के भक्तों को जानकारी देना चाहती हूँ कि यह मंदिर दश महाविद्या के दस पीठों में से प्रथम सिद्धिपीठ है।

शक्ति मंदिर के दर्शन

इन शक्ति मंदिरों की एक विशेषता यह है कि अधिकतर मंदिरों से संबंधित दंत कथाएं मंदिर के सूचना पटल में विस्तृत रूप से अंकित हैं। ये पटल ना केवल आपको इनकी कथाओं से अवगत कराते हैं अपितु किन शास्त्रों में इनका उल्लेख किया गया है, उसकी भी जानकारी देते हैं। साथ ही यह भी जानकारी देते हैं कि किस वंश के संतों ने इनकी देखरेख की थी। सभी पटल हिन्दी भाषा में हैं।

हरिद्वार के देवी मंदिर
हरिद्वार के देवी मंदिर

मैं नहीं जानती थी कि हरिद्वार में इतने देवी मंदिर हैं। इसने विषय में मैंने अघोरी नामक पुस्तक में पढ़ा अवश्य था। इसके लिए मैं इस पुस्तक के लेखक को धन्यवाद देना चाहती हूँ।

मेरे लिए हरिद्वार के देवी मंदिर किसी खोज से कम नहीं थे। क्या आप इन सभी मंदिरों के विषय में जानते थे या आप भी मेरे साथ इन्हे खोजने का प्रयत्न कर रहे हैं?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कनखल हरिद्वार की प्राचीन धरोहर – एक अप्रतिम अनुभव https://inditales.com/hindi/prachin-kankhal-haridwar-ki-sair/ https://inditales.com/hindi/prachin-kankhal-haridwar-ki-sair/#comments Wed, 05 Feb 2020 02:30:32 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1552

कनखल कदाचित हरिद्वार का प्राचीनतम निवासित क्षेत्र है। यहाँ के मंदिरों एवं गंगा के घाटों पर अब भी शिव एवं सती की गाथाएँ जीवित हैं। मेरी हरिद्वार यात्रा के समय, हरिद्वार की इस प्राचीन नगरी के कण कण को जानने का मुझे स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। इस यात्रा में मैंने कनखल के अनेक आयामों को […]

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कनखल कदाचित हरिद्वार का प्राचीनतम निवासित क्षेत्र है। यहाँ के मंदिरों एवं गंगा के घाटों पर अब भी शिव एवं सती की गाथाएँ जीवित हैं। मेरी हरिद्वार यात्रा के समय, हरिद्वार की इस प्राचीन नगरी के कण कण को जानने का मुझे स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। इस यात्रा में मैंने कनखल के अनेक आयामों को जानने का प्रयत्न किया। मुझे विश्वास है कि जब मैं इन आयामों का उल्लेख करूंगी, तब आप अपनी आगामी हरिद्वार यात्रा के समय उन सब का अनुभव लेने का निश्चय अवश्य कर लेंगे।

कनखल हरिद्वार एक समय था जब हरिद्वार इस कनखल के भीतर एवं उसके आसपास बसा हुआ था। समय के साथ हरिद्वार की वृद्धि होने लगी। वर्तमान में हरिद्वार प्रमुख नगर बन गया है तथा कनखल इसकी परछाई में कहीं लुप्त होने लगा है।

हरिद्वार को पंचपुरी भी कहा जाता है। पंचपुरी में मायादेवी मंदिर के आसपास के ५ छोटे नगर सम्मिलित हैं। कनखल उनमें से ही एक है।

चलिए मेरे साथ कनखल की एक अनोखी यात्रा पर:

कनखल की धर्मशाला

कनखल की रूइया धर्मशाला
कनखल की रूइया धर्मशाला

धर्मशालायें वर्तमान के आधुनिक होटल एवं रेसॉर्ट के पूर्वज हैं। धर्मशालायें, हरिद्वार जैसे तीर्थस्थलों में, तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। इन धर्मशालाओं में यात्री परिवारों को नाममात्र शुल्क पर कई दिनों तक रहने की सुविधा प्राप्त होती है। यात्री परिवार इन कक्षों में रहते हुए, अपना भोजन स्वयं पकाते हुए लगभग किसी स्थानीय निवासी के समान यहाँ रह सकते हैं। इससे तीर्थयात्रियों को अत्यधिक सुविधा हो जाती है।

धनवान व्यापारी व उद्योगपति बहुधा पुण्य अर्जित करने के उद्येश्य से ऐसी धर्मशालाओं का निर्माण करवाते हैं। यह अर्थव्यवस्था का एक अद्भुत चक्र ही है जिसमें सम्पन्न वर्ग जनसामान्य के लाभ के लिए संसाधन उपलब्ध करवाते हैं।

रुइया धर्मशाला

कनखल स्थित रुइया धर्मशाला १०० वर्षों से भी अधिक समय पूर्व, सन् १९१७ में निर्मित की गयी थी। शर्माजी इस धर्मशाला के अभीक्षक हैं तथा इसकी देखरेख करते हैं। मेरे आग्रह पर उन्होंने मुझे सम्पूर्ण धर्मशाला दिखाई। रंग रोगन लगे द्वार के ऊपर लगे वृत्तखंड के नीचे एक साधारण पट्टिका लटक रही थी जिस पर धर्मशाला लिखा हुआ था। इसकी वास्तुकला ठेठ भारतीय हवेली एवं औपनिवेशिक वास्तुकला का विलक्षण सम्मिश्रण था। इसके मुख्य द्वार के बाहर एक चबूतरा था। मुख्य द्वार के भीतर एक विशाल प्रांगण था जिसके चारों ओर कई निवास कक्ष थे।

धर्मशाला में अपना खाना पकाते तीर्थ यात्री
धर्मशाला में अपना खाना पकाते तीर्थ यात्री

स्त्रियाँ गलियारों में बैठकर दिन के व्यंजन बना रही थीं। स्नानघर एवं शौचालय यहाँ से दूर, मुख्य भवन के पृष्ठभाग पर स्वतन्त्र संरचना के रूप में निर्मित थे। समीप ही एक विशाल खेत था जिस पर एक मंदिर भी निर्मित था। वहां मैंने मई मास की तपतपाती धूप में भी कई पंछी उड़ते देखे। धर्मशाला में एक पुस्तकालय भी था जिसमें कई नवीन व प्राचीन पुस्तकें उपलब्ध थीं।

इतने लोग यहाँ रह रहे थे, अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे, फिर भी चारों ओर एक अद्भुत शांतता थी। सबके मुखमंडल पर प्रसन्नता एवं अधरों पर मंदहास था। शुद्ध आनंद से वे हमारा स्वागत कर रहे थे।

रुइया धर्मशाला में मैं तत्वमय भारतीय तीर्थयात्रियों से मिली। उनमें ना अन्य पर्यटकों की देखादेखी चित्र लेने की आतुरता थी, ना ही किसी भी प्रकार का उतावलापन था। उनके पास सबके लिए भरपूर समय था। वे यहाँ गंगा मैया के संग समय बिताने, उसके पवित्र जल में स्नान करने, कुछ शास्त्रों के अध्ययन करने एवं गुरुओं की ज्ञान भरी वाणी का श्रवण करने आये हुए थे।

यहाँ की पावन एवं शांतता से परिपूर्ण वातावरण देख मैं भावविभोर हो गयी थी। मैं आपको भी यह सुझाव देना चाहती हूँ कि आप जब भी कनखल, हरिद्वार अथवा किसी अन्य तीर्थस्थल में जाएँ, वहां की धर्मशाला अवश्य देखें।

सती कुण्ड

सती कुंड - कनखल हरिद्वार
सती कुंड – कनखल हरिद्वार

वर्तमान में सती कुण्ड केवल एक क्षेत्र बन कर रह गया है। दक्ष मंदिर परिसर जाते समय मार्ग में मुझे अनायास ही यह सती कुण्ड दिख गया। मुझे यह एक अपेक्षाकृत विशाल, सूखी हुई बावडी प्रतीत हुई। संकुल में प्रवेश करते ही मुझे कई छोटे छोटे यज्ञ कुण्ड तथा एक लघु मंच दिखे जो दर्शा रहे थे कि यहाँ अग्नि प्रज्ज्वलित कर हवन आदि का नियमित आयोजन किया जाता है।

मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा को शांत करे, ऐसे किसी व्यक्ति की मैं खोज करने लगी। यद्यपि प्रातः काल होने के कारण वहां स्थित एक छोटा सा शिव मंदिर भक्तों से भरा हुआ था। वे वहां शिवलिंग पर दूध अर्पित करने पहुंचे हुए थे। तथापि उनमें से कोई भी मुझे जानकारी मुहैया करने में असमर्थ था।

सती कुंद के इर्द गिर्द यज्ञ कुंड
सती कुंद के इर्द गिर्द यज्ञ कुंड

सती कुण्ड के समक्ष एक सूचना पट्टिका पर ‘प्राचीन सती मंदिर’ लिखा था। किन्तु पूर्णतः उपेक्षित प्रतीत होती इस संरचना के समीप पहुँचने का कोई मार्ग नहीं था।

आशा है कि इतिहासकार एवं शोधकर्ता इस स्थान पर आवश्यक शोध कार्य करें तथा हमें इन संरचनाओं के विषय में अवगत करायें। साथ ही यह बताये कि कौन कौन से अनुष्ठान अब भी यहाँ आयोजित किये जाते हैं।

कनखल के दर्शनीय मंदिर एवं आश्रम

हरिहर आश्रम

हरिहर आश्रम का रुद्राक्ष वृक्ष
हरिहर आश्रम का रुद्राक्ष वृक्ष

यह स्वामी अवधेशानंद गिरी जी का आश्रम है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ का शिवलिंग पारे का बना हुआ है। मैं शिवलिंग को देख नहीं पायी क्योंकि वह पुष्पादि से ढका हुआ था।

रुद्राक्ष के दाने
रुद्राक्ष के दाने

परिसर में एक बड़ा रुद्राक्ष वृक्ष भी है। आप यहाँ रुद्राक्ष फल को विभिन्न चरणों में, कटोरियों में प्रदर्शित देख सकेंगे ।

श्री यन्त्र मंदिर

श्री यन्त्र मंदिर
श्री यन्त्र मंदिर – कनखल हरिद्वार

श्री यन्त्र के आकार का यह अपेक्षाकृत नवीन तथा अत्यंत मनमोहक मंदिर है। केवल मंदिर ही श्री यन्त्र के आकार का नहीं है, इसके भीतर भी आप कई सुन्दर श्री यंत्र देखेंगे जिनकी निरंतर पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित एक बड़े कक्ष में कोई कथा बांची जा रही थी। खुले प्रांगण के एक ओर यज्ञ किये जा रहे थे।

दक्ष महादेव मंदिर संकुल

दक्ष महादेव मंदिर संकुल इस कनखल धरोहर क्षेत्र का हृदयस्थल है। यह हिन्दु शास्त्र के प्राचीनतम ज्ञात कथा का घटनास्थल है। जी हाँ, दक्ष एवं सती की कथा! हिन्दू शास्त्रों एवं साहित्यों की अनेक कथाएं अंततः सती की कथा पर ही पहुँचती हैं।

दक्ष महादेव मंदिर - कनखल हरिद्वार
दक्ष महादेव मंदिर – कनखल हरिद्वार

सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध शिव से विवाह किया था। इससे क्षुब्ध होकर सती के पिता, दक्ष ने अपने यज्ञ समारोह में शिव एवं सती के सिवाय अन्य सभी को आमंत्रण दिया। तथापि सती अपने पिता के यज्ञ समारोह में भाग लेने के लिए पिता के भवन में पहुँच गयी किन्तु वहां दक्ष ने उसका एवं परोक्ष में शिव का अत्यंत अपमान किया। इससे संतप्त सती ने यज्ञ कुण्ड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। इससे क्रुद्ध शिव ने वीरभद्र को दक्ष का वध करने तथा यज्ञ का विनाश करने दक्ष के भवन में भेजा।

क्रोधित शिव सती की मृतदेह उठाकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर तांडव नृत्य करने लगे जिससे सब ओर हाहाकार मच गया। अंततः शिव के क्रोध को शांत करने के लिए विष्णु ने चक्र द्वारा सती की देह को कई भागों में भंग कर दिया। सती की देह के विभिन्न अंग जिन स्थलों पर गिरे, उन सर्व स्थलों पर शक्ती पीठ की स्थापना की गयी। कालान्तर में सती ने हिमावन की पुत्री, पार्वती के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त किया। शिव को पुनः प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कनखल के समीप ही कठोर तपस्या की थी। पार्वती की यह कथा किसी अन्य दिवस बाचेंगे!

एक लघु द्वार के मध्य से आप दक्ष महादेव मंदिर संकुल के भीतर प्रवेश करेंगे। इस द्वार के दोनों ओर सिंह बने हुए हैं। हमारे देखे हुए प्राचीन पाषाणी मंदिरों का यह एक साधारण प्रतिरूप है।

दक्षेश्वर महादेव मंदिर

यह इस संकुल का अपेक्षाकृत बड़ा मंदिर है। शिखर के विभिन्न तोरणों एवं परतों की रंगबिरंगी किनारियाँ श्वेत पृष्ठपट पर अद्भुत छटा बिखेरती हैं। सादी उदासीन पृष्ठभूमि को ये रंग चटकीला एवं आकर्षक बनाते हैं।

दक्ष महादेव मंदिर का प्राचीन वट वृक्ष
दक्ष महादेव मंदिर का प्राचीन वट वृक्ष

मंदिर के समीप एक विशाल बड़ का वृक्ष है। इस वृक्ष के तने पर बंधे मौली के लाल-पीले घागों की परतें यह दर्शाती हैं कि यह एक पवित्र एवं पूजनीय वृक्ष है तथा यहाँ आते भक्तगण इसकी पूजा-अर्चना करते हैं।

जब हम दर्शनार्थ यहाँ पहुंचे, मंदिर में प्रवेश करने के लिए भक्तगणों की लम्बी पंक्ती थी। हम भी इस पंक्ति में सम्मिलित हो गए। हम एक यज्ञ कुण्ड पर पहुंचे जिसे सर्व भक्तगण झुककर प्रणाम कर रहे थे। कुछ भक्तों ने इस कुण्ड में कुछ सिक्के भी डाले। ऐसा माना जाता है कि इसी कुण्ड की अग्नि में कूदकर सती ने अपने प्राण अर्पण किये थे। कालान्तर में हृदय परिवर्तन के पश्चात उनके पिता दक्ष ने शिव के सम्मान में यहाँ मंदिर का निर्माण कराया था। उन्ही के नाम पर इस मंदिर को दक्षेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है।

मुझे मंदिर सादा होते हुए भी अत्यंत आकर्षक प्रतीत हो रहा था। किन्तु मंदिर के भीतर तथा बाहर भक्तों की भीड़ थी जिसके कारण मैं इसकी वास्तुकला समझ नहीं पा रही थी। वहां शान्ति से खड़े होकर उसकी सुन्दरता भी निहार नहीं पा रही थी।

गंगा का घाट एवं उनका मंदिर

गंगा मंदिर
गंगा मंदिर

कनखल हरिद्वार में आप दोनों ओर बहती गंगा के सदैव समीप होते हैं। दक्ष महादेव मंदिर पर, गंगा किनारे, एक बड़ा घाट निर्मित किया गया है। यहाँ आनेवाले लगभग सभी भक्तगण गंगा में डुबकी अवश्य लगाते हैं। ऐसे भक्त जिन्हें तैरना नहीं आता है अथवा जिन्हें जल की गहराई से भय लगता है, उनके लिए भी डुबकी लगाने हेतु आवश्यक व्यवस्था की गयी है। जब मैंने कनखल की यात्रा की थी, मई का मास था। कई युवा भक्त गंगा के शीतल जल में अठखेलियाँ कर रहे थे तथा तैरने का आनंद उठा रहे थे।

घाट के समीप गंगा माता को समर्पित एक मंदिर है। यहाँ गंगा को उनके मानवीय रूप में पूजा जाता है। मंदिर की भित्तियों पर सेरामिक टाइल लगी हुई थीं जो मंदिर की पवित्रता एवं उर्जा का हनन करती प्रतीत हो रही थी। मेरी आँखों में ये टाइलें खटक रही थीं।

शीतला माता मंदिर

शीतला माता मंदिर की प्राचीन देवी मूर्ति
शीतला माता मंदिर की प्राचीन देवी मूर्ति

दक्षेश्वर मंदिर के पृष्ठभाग में शीतला माता का मंदिर है। शीतला माता को अधिकतर चेचक, छोटी माता अथवा शीतला जैसे संचारी रोगों की देवी माना जाता है।

इस स्थान को देवी सती का जन्मस्थान भी माना जाता है। मुझे मुख्य प्रतिमा अपेक्षाकृत नवीन प्रतीत हुई। गर्भगृह के पृष्ठभाग में मुझे एक प्राचीन पाषाणी प्रतिमा या विग्रह दिखाई दिया। इस प्रतिमा की अष्टभुजाएं तथा भेदतीं दृष्टी थीं।

दश महाविद्या मंदिर

दश महाविद्या मंदिर - हरिद्वार
दश महाविद्या मंदिर – हरिद्वार

दक्षेश्वर महादेव मंदिर से लगा हुआ यह एक अतिशय मनमोहक मंदिर है जो देवी के १० महाविद्या रूपों को समर्पित है।
इस मंदिर के हृदयस्थली, एक भित्ति पर तांबे का एक विशाल श्रीयंत्र है। इसकी परिधि पर देवी के महाविद्या रूपों की १० छवियाँ हैं। ये इस प्रकार हैं:
१. काली
२. तारा
३. त्रिपुरा सुन्दरी
४. भुवनेश्वरी
५. भैरवी
६. छिन्नमस्तिके
७. धूमावती
८. बगलामुखी
९. मातंगी
१०. कमला

देवी के शक्ति रूप को पूजने वाले भक्तों के लिए यह एक महत्वपूर्ण भक्तिस्थल है।

और जानें: हरिद्वार के देवी मंदिर

ब्रम्हेश्वर महादेव मंदिर

दश महाविद्या मंदिर से लगा हुआ एक छोटा ब्रम्हेश्वर महादेव मंदिर है। जैसा कि नाम से विदित है, यह अवश्य वह मंदिर है जहां ब्रम्हा ने शिव की आराधना की थी।

कनखल हरिद्वार की गलियों का भ्रमण

यह उत्तर भारत का एक ठेठ नगर है। जब आप इसकी गलियों में भ्रमण करेंगे, आपके समक्ष अपने बीते दिनों की कुछ स्मृतियाँ अवश्य प्रकट होंगीं। यह आपके मुखमंडल पर स्मित हास्य अवश्य लायेंगीं।

हरिद्वार एक देवनगरी है। आप जहां भी अपनी दृष्टी केन्द्रित करें, आपके समक्ष एक नवीन अथवा प्राचीन मंदिर अवश्य होगा। किस मंदिर के दर्शन करें तथा किस मंदिर से आगे बढ़ जाएँ, यह आपका निर्णय होगा जो आप उस समय भी ले सकते हैं। धैर्य रखें, प्रत्येक मंदिर अद्भुत कथाओं से परिपूर्ण मनमोहक मंदिर होगा।

दरजी(सौचिक)

वृद्ध दर्जी अथवा सौचिक
वृद्ध दर्जी अथवा सौचिक

भ्रमण करते हुए मैं एक सौचिक अर्थात् दरजी की दुकान के समीप रुकी। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण आयु इसी दुकान में बिता दी। ७० वर्ष की आयु में भी उन्होंने सिलाई का कार्य चालू रखा है। उन्हें गर्व है कि इस परिपक्व आयु में भी वह कई कमीजें प्रति दिन सिल लेते हैं।

वैद्य

ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक पौधा हमारी देह के लिए पोषक है। देव भूमि उत्तराखंड के विषय में तो ऐसा माना जाता है कि यहाँ का प्रत्येक पौधा एक औषधि है। उत्तराखंड की पहाड़ियों के वनीय क्षेत्र जड़ी-बूटियों के लिए प्रसिद्ध हैं।

हरिद्वार की पारंपरिक वैद्यशाला
हरिद्वार की पारंपरिक वैद्यशाला

इस विरासती नगरी की गलियों मैंने कई वैद्याशालायें देखीं। मैंने कुछ वैद्यशालाओं के भीतर जाकर वैद्यों से भेंट भी की। बीमारों की लम्बी पंक्ती होने के बाद भी उन्होंने मुझे पर्याप्त समय दिया तथा अपनी कार्य के विषय में जानकारी दी। देशभर से उपचार कराने हरिद्वार आये बीमारों की बीमारियों के विषय में भी चर्चा की।

मैंने उनके वैद्यशाला में जाकर औषधियों की निर्मिती प्रक्रिया देखी। औषधी निर्मिती न्यूनतम मशीनीकरण द्वारा की जा रही थी। वहां कारीगर अब भी मूसल एवं खरल का प्रयोग कर जड़ी-बूटियाँ कूटते दिखे। कई स्त्रियाँ हाथों द्वारा औषधियों को उनके पात्रों में भर रही थीं।

आयुर्वेद कदाचित उत्तराखंड की ऐसी लघु-उद्योग इकाई है जिसके विषय में अधिक लोग नहीं जानते। मैं भी उनमें सम्मिलित थी। उत्कृष्ट धरोहर से परिपूर्ण इस नगरी के भ्रमण के समय ही मुझे इसके विषय में जानकारी प्राप्त हुई।

हवेली सदृश अखाड़े

गलियों में भ्रमण करते समय मैंने कुछ आकर्षक अलंकृत द्वार एवं प्रवेशद्वार देखे। उन्हें देखते ही मुझे वे किसी संपन्न परिवार की हवेली के द्वार प्रतीत हुए। समीप से निरक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि उनमें से अधिकतर द्वार विभिन्न अखाड़ों अथवा धार्मिक संगठनों के हैं जहां साधू-संत निवास करते हैं।

कनखल  के हवेलीनुमा अखाड़े
कनखल के हवेलीनुमा अखाड़े

एक ओर के अखाड़े, दूसरी ओर गंगा नदी तक ले जाते हैं। अपने भवन के समीप, पहाड़ों से कलकल कर उतरती पवित्र गंगा बहती हो ऐसा अनुपम निवासस्थान अन्य कहीं हो सकता है?

कनखल की संस्कृत पाठशालाएं

कनखल स्थित संस्कृत पाठशाला
कनखल स्थित संस्कृत पाठशाला

भवनों एवं अखाड़ों के मध्य मुझे एक संस्कृत पाठशाला दिखाई दी। उसने मुझे स्मरण कराया कि इस स्थान पर तो कई संस्कृत एवं वैदिक पाठशालाएं होने चाहिए। स्थानीय निवासियों ने जानकारी दी कि यहाँ ऐसे कई विद्यालय है, किन्तु उनमें से कई विद्यालयों की स्थिति चिंताजनक है।

गंगा के किनारे निर्मित इन विद्यालयों के सुन्दर परिदृश्यों ने मुझे भावविभोर कर दिया। इनकी स्मृति मेरे मनमष्तिष्क में कई दिनों तक रहेगी।

यहाँ के अन्य प्रसिद्ध स्थलों में माँ आनंदमयी आश्रम तथा रामकृष्ण मिशन भी हैं।

कनखल के लिए यात्रा सुझाव

गंगा घाट
गंगा घाट
  • हरिद्वार की प्रसिद्ध हर की पौड़ी से ३ की.मी. दक्षिण में कनखल स्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए आप परिवहन के किसी भी साधन का प्रयोग कर सकते हैं।
  • वातावरण अनुकूल हो तो आप कनखल का सम्पूर्ण दर्शन पैदल पदयात्रा द्वारा कर सकते हैं। अन्यथा, दर्शनीय स्थलों के अवलोकन के लिए ई-रिक्शा उत्तम साधन है। यहाँ की कुछ सड़कें अत्यंत संकरी हैं।
  • अखाड़ा अथवा विद्यालय जैसे निजी स्थलों में प्रवेश से पूर्व उनकी अनुमति अवश्य ले लें।
  • कनखल के मुख्य दर्शनीय स्थलों के दर्शन हेतु २ घंटों से भी कम समय लगता है। चूंकि मैं यहाँ के प्रत्येक छोटे-बड़े स्थलों को सूक्ष्मता से निहारना चाहती थी, मैंने यहाँ लगभग एक सम्पूर्ण दिवस व्यतीत किया।
  • प्राचीन आभा लिए इस सर्वोत्कृष्ट तीर्थस्थल का आनंदपूर्वक अनुभव आपको भी प्राप्त हो, ऐसी शुभकामनाएं व्यक्त करती हूँ।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चितई गोलू देवता कुमाऊँ अल्मोड़ा के न्याय देवता https://inditales.com/hindi/golu-devta-mandir-chittai-almora/ https://inditales.com/hindi/golu-devta-mandir-chittai-almora/#comments Wed, 18 Dec 2019 02:30:23 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1615

गोलू देवता को उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ अर्थात् कूर्मांचल क्षेत्र में न्याय का देवता माना जाता है। भारत में यह प्रथा है कि यहाँ के लोग प्रत्येक वस्तु तथा वस्तुस्थिति में देव का अस्तित्व मानते हैं। उनके प्रत्येक मान्यता में देव विराजमान हैं, उसी प्रकार उनके प्रत्येक अनुरोध में देव बसते हैं। एक ओर हैदराबाद […]

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गोलू देवता को उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ अर्थात् कूर्मांचल क्षेत्र में न्याय का देवता माना जाता है।

गोलू देवता मंदिर अल्मोड़ा
गोलू देवता मंदिर अल्मोड़ा

भारत में यह प्रथा है कि यहाँ के लोग प्रत्येक वस्तु तथा वस्तुस्थिति में देव का अस्तित्व मानते हैं। उनके प्रत्येक मान्यता में देव विराजमान हैं, उसी प्रकार उनके प्रत्येक अनुरोध में देव बसते हैं। एक ओर हैदराबाद के वीसा देव हैं जो इच्छित देश में जाने के लिए वीसा मिलने की कामना पूर्ण करते हैं तो दूसरी ओर राजस्थान के खाटू श्याम जो पराजितों के देव हैं। बीकानेर के समीप करणी माता मंदिर हैं जहां मूषकों का राज है क्योंकि उन्हें माता के पुत्र माना जाता है।

इसी श्रंखला में एक मंदिर है, उत्तराखंड में कुमाऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा में। अल्मोड़ा से पिथौरागड़ की ओर जाते हुए, कुछ किलोमीटर पश्चात, एक छोटा किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है। यह है गोलू देवता का मंदिर। हमने इसके दर्शन जागेश्वर धाम जाते समय किये थे। अल्मोड़ा के लगभग सभी लोगों ने हमसे इस मंदिर के दर्शन करने का सुझाव दिया था। उनके आग्रह को देख मैंने अनुमान लगाया कि गोलू देवता इस क्षेत्र के कितने महत्वपूर्ण देव हैं।

गोलू देवता कौन हैं?

गोलू देवता मंदिर के गलियारे
गोलू देवता मंदिर के गलियारे

गोलू देवता को भगवान् शिव का अवतार, गौर भैरव माना जाता है। गौर भैरव श्वेत अश्व की सवारी करते हैं तथा सदैव न्याय करते हैं। कहा जाता है कि यदि आप विवेक, बुद्धि तथा निर्मल हृदय से उनसे कुछ मांगे तो वे आपकी सर्व इच्छा पूर्ण करते हैं। वे इस भाग के इष्ट देवता हैं। यहाँ के कई लोग उन्हें अपना कुल देवता भी मानते हैं। उन्हें कुमाऊँ पहाड़ों के अधिष्ठात्र देव भी माना जाता है।

न्याय के देवता के सम्बन्ध में कई किवदंतियां प्रसिद्ध हैं।

न्याय के देवता की कथाएं

एक दंतकथा के अनुसार न्याय के देवता का सम्बन्ध कत्युरी सम्राटों से है जिन्होंने कुमाऊँ पर ७वीं.- १२वीं. सदी तक राज किया था। गोलू महाराज किसी एक कत्युरी राजा के पुत्र अथवा सेनानायक अथवा दोनों थे।

एक अन्य कथा उनका सम्बन्ध चाँद वंश से जोड़ती है जिन्होंने कत्युरी वंश के पश्चात, १२वीं. शताब्दी में यहाँ राज किया था। इस कथा के अनुसार गोलू महाराज एक साहसी योद्धा थे जो युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।

न्याय देवता के उद्भव के सम्बन्ध में सर्वाधिक लोकप्रिय कथाओं के अनुसार उनकी माता कलिका, राजा झाल राय की रानी थी। जब गोलू महाराज का जन्म हुआ था तब राजा की अन्य रानियों ने ईर्ष्यावश उन्हें नदी के किनारे ले जाकर छोड़ दिया तथा उनके स्थान पर कलिंका के समीप एक पत्थर रख दिया था। एक मछुआरे ने गोलू महाराज के प्राणों की रक्षा की। ८ वर्ष की आयु के पश्चात एक दिवस वे एक लकड़ी के अश्व पर सवार होकर वापिस लौटे।

वे अपने अश्व को उस तालाब के समीप ले गए जहां राजा की ७ रानियाँ स्नान कर रही थीं। उन्होंने अश्व को जल पिलाया। रानियाँ उस पर हंसने लगीं। तब गोलू महाराज ने कहा कि यदि एक स्त्री पत्थर को जन्म दे सकती है तो वो एक लकड़ी के घोड़े की सवारी क्यों नहीं कर सकता? राजा को अपनी रानियों के कुकर्मों का आभास हो गया तथा उसने उन्हें कड़ा दंड दिया। तत्पश्चात राजा ने गोलू महाराज को राजा बना दिया। समय के साथ गोलू महाराज अपने न्यायप्रिय आचरण के लिए लोकप्रिय होने लगे तथा गोलू देवता के रूप में सदा के लिए अमर हो गए।

चितई का गोलू देवता मंदिर

गोलू देवता के मंदिर में बंधी घंटियाँ
गोलू देवता के मंदिर में बंधी घंटियाँ

अल्मोड़ा के समीप चितई मंदिर एक छोटा फिर भी अत्यंत मान्यता प्राप्त मंदिर है। चीड़ के वृक्षों से घिरे मंदिर की ओर जब मैं बढ़ी, मुझे लोगों ने वहां उपस्थित वानरों से सावधान रहने को कहा। मुझे आभास हो गया कि यह एक जागृत एवं विशेष मंदिर है। मैंने अब तक जितने भी प्रसिद्ध मंदिरों के दर्शन किये थे, जिनमें अयोध्या का राम जन्मभूमि मंदिर भी सम्मिलित है, वहां वानरों का तांता लगा रहता है।

मंदिर की ओर जाते चौड़े गलियारे के दोनों ओर विभिन्न आकारों के असंख्य पीतल की घंटियाँ लटकी हुई थीं। सुनहरी किनार की लाल चुनरी द्वारा ये घंटियाँ लटकाई हुई थीं। साथ ही हाथ से लिखी असंख्य चिट्ठियाँ भी लटकी हुई थीं। सूक्ष्म घंटियों से लेकर अतिविशाल घंटी तक, चारों ओर घंटियाँ ही घंटियाँ दृष्टिगोचर हो रही थीं। एक अतिविशाल घंटा जिस तोरण से लटका हुआ था, वह तोरण भी घंटियों से भरा हुआ था।

मंदिर में भक्तों के प्रार्थना पत्र
मंदिर में भक्तों के प्रार्थना पत्र

मंदिर के समीप पहुँचने पर मुझे और भी बहुत सी घंटियाँ दिखाई दीं। हस्त लिखित चिट्ठियों की संख्या भी बढ़ने लगी थीं। मंदिर की छत के नीचे अनगिनत चिट्ठियाँ थीं। मंदिर की भित्तियों पर एवं उनके चारों ओर कई स्टाम्प पेपर भी लटकाए हुए थे। भगवान् के दर्शन कर जब मैं गर्भगृह से बाहर आयी, स्वयं को कुछ चिट्ठियों को पढ़ने से रोक नहीं पायी। उन चिट्ठियों में घर-गृहस्ती, रोजगार, स्वास्थ्य, संपत्ति इत्यादि से सम्बंधित समस्याओं के विषय में याचिकाएं थीं। वे सब गोलू देवता से सहायता की याचना कर रहे थे।

गर्भगृह

छोटा से गर्भगृह को चटक उजले पीले एवं नारंगी रंग से रंगा हुआ था। हाथों में अर्पण हेतु चढ़ावे लिए भक्तगण पंक्ति में खड़े थे जो अत्यंत धीमी गति से आगे बढ़ रही थी।

श्वेत अश्व पे सवार गोलू देवता
श्वेत अश्व पे सवार गोलू देवता

गर्भगृह के भीतर, गोलू देव एक श्वेत अश्व पर सवार हैं तथा हाथों में धनुष बाण धारण किये हुए हैं। यह गोलू देव की शत प्रतिशत छवि हैं किन्तु आकार में किंचित छोटी है। भक्तगण उनके समक्ष नतमस्तक हो रहे थे, उनसे अपनी दुविधा कह रहे थे, उनसे अपनी इच्छा पूर्ति की मांग कर थे तथा पूर्ण हुई इच्छा के लिए उनसे कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे।

मंदिर के गर्भगृह में आकर मुझे ज्ञात हुआ कि बाहर लटकी घंटियाँ वास्तव में इच्छापूर्ति के पश्चात धन्यवाद देने के लिए लटकाई गयी हैं। प्रत्येक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात भक्तगण यहाँ आकर गोलू देवता के लिए एक नवीन घंटी बांधते हैं।

गोलू देवता के मंदिर में प्रार्थना पत्र

गोलू देवता को लिखे प्रार्थना पत्र
गोलू देवता को लिखे प्रार्थना पत्र

गर्भगृह से बाहर आकर मेरी दृष्टी एक बार फिर उन असंख्य पत्रों पर पडी जिन्हें भक्तगणों ने यहाँ बाँधा है। मैंने उनमें से कुछ पत्रों को पढ़ने की चेष्टा की। कुछ पत्र पढ़ने के पश्चात मेरी आँखे अश्रुओं से भर गयीं। साधारण मानव ने साधारण शब्दों में अपनी दुविधाएं तथा कष्ट इस प्रकार लिखे थे मानों अपना हृदय उड़ेल दिया हो। उनके शब्दों में यह स्पष्ट झलक रहा था कि गोलू देवता उनकी सर्व दुविधाओं एवं कष्टों का समूल निवारण कर देंगे, इसका उन्हें पूर्ण विश्वास है।

भक्तगण गोलू देवता से क्या माँगते हैं?

घंटियों और चिट्ठियों से भरा चित्तई का मंदिर
घंटियों और चिट्ठियों से भरा चित्तई का मंदिर

अधिकतर पत्र यूँ लिखे हुए थे मानो भक्तगण अपने परम-मित्र को पत्र लिख रहे हों। उनके जीवन में क्या घट रहा है तथा क्या नहीं घट रहा, उन सबकी सम्पूर्ण जानकारी उन पत्रों में थी। यदि कुछ मनचाहा नहीं घट रहा तो उसके लिए आशीर्वाद की मांग भी की गयी थी। जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा में भरती होने के इच्छुक एक भक्त ने सर्वप्रथम उन्हें अपनी सर्व तैयारी के विषय में जानकारी दी। तत्पश्चात, उनसे भरती परीक्षा में उत्तीर्ण करवाने की मांग ना करते हुए उसने उनसे इतनी शक्ति की मांग की कि कोई अवांछित आकर्षण उसे अपने पथ से ना भटका सके।

एक अन्य पत्र में याचक अपने परिवारजनों के स्वास्थ्य एवं आनंद की कामना कर रहा था।

एक स्त्री ने अपने पति की बीमारी के विषय में लिखा था। उसने लिखा कि डॉक्टर उसकी बीमारी को अत्यंत भयावह तथा असाध्य बता रहे हैं। आगे यह भी लिखा कि डॉक्टर भी उसके ही समान साधारण मानव है। गोलू देवता को संबोधित करते हुए लिखा कि आपसे बढ़कर इस धरती पर कोई उत्तम वैद्य नहीं है, कृपा कर मेरे पति को इस रोग से मुक्ति दिलाएं। अपने संतानों के विषय में लिखते हुए कहा कि उन्हें भी अपने पिता के प्रेम व लाड़-दुलार की अत्यंत आवश्यकता है। वह एक अत्यंत हृदय विदारक पत्र था।

मंदिर में कई स्टाम्प पेपर अर्थात् मुद्रांक कागज़ भी थे जिसमें न्याय के देवता, गोलू देवता से न्याय की गुहार की गयी थी। लोगों का विश्वास है कि यदि वे अपने विवाद एवं मतभेद से सम्बंधित स्टाम्प पेपर यहाँ लगायेंगे तो उन्हें न्याय प्राप्त होगा।

कुमाऊँ में गोलू देवता के कई मंदिर हैं, किन्तु यह मंदिर उनमें अत्यंत विशेष है।

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चितई का मंदिर

पंक्तिबद्ध खड़े भक्तगण
पंक्तिबद्ध खड़े भक्तगण

चितई के गोलू देवता मंदिर के दर्शन पहाड़ों के विश्वास एवं भक्ति से मेरा प्रथम साक्षात्कार था। भक्तगण अपने छोटे-बड़े सभी कष्टों के निवारण एवं न्याय पाने हेतु आते हैं। समस्या के निवारण तथा अपनी इच्छित मांग पूर्ण होने का पश्चात वे यहाँ वापिस आकर इन्हें धन्यवाद देते हैं। कई भक्तगण यहाँ गोलू देवता से केवल आशीर्वाद पाने आते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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