ओडिशा Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/ओडिशा/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 22 May 2024 07:07:17 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 बोईता बंदना – ओडिशा का कार्तिक पूर्णिमा उत्सव https://inditales.com/hindi/boita-bandana-kartik-purnima-odisha/ https://inditales.com/hindi/boita-bandana-kartik-purnima-odisha/#respond Wed, 11 Sep 2024 02:30:11 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3680

कार्तिक मास हिन्दू पंचांग का एक विशेष मास होता है जो सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए पवित्र भावनाओं एवं शुभ क्रियाकलापों का संदेश लेकर आता है। ओडिशा राज्य के लिए भी कार्तिक मास का विशेष महत्व है। इस मास में ओडिशा में भी विविध धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। उनमें से एक है, बोईता बन्दना। यह […]

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कार्तिक मास हिन्दू पंचांग का एक विशेष मास होता है जो सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए पवित्र भावनाओं एवं शुभ क्रियाकलापों का संदेश लेकर आता है। ओडिशा राज्य के लिए भी कार्तिक मास का विशेष महत्व है। इस मास में ओडिशा में भी विविध धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। उनमें से एक है, बोईता बन्दना। यह ओडिशा का एक प्रसिद्ध उत्सव है जो कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि पर आयोजित किया जाता है। यह उत्सव अंग्रेजी दिनसारिणी के अनुसार लगभग अक्तूबर-नवंबर मास में पड़ता है।

यद्यपि सम्पूर्ण कार्तिक मास को धार्मिक दृष्टि से एक पावन मास माना जाता है, तथापि कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि सर्वाधिक शुभ मानी जाती है। इस तिथि में सम्पूर्ण भारत में विविध अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं। उनमें कुछ समान तो कुछ क्षेत्र विशेष आयोजन होते हैं। वाराणसी में इसे देव दीपावली के रूप में मनाया जाता है तो गोवा में त्रिपुरारी पूर्णिमा तथा तमिल नाडु में इसे कार्तिगई दीपम के नाम से मनाया जाता है।

कार्तिक पूर्णिमा के दिवस भारत के विभिन्न क्षेत्रों की सर्वसामान्य प्रथा है, दीप प्रज्ज्वलित करना तथा भगवान की भक्ति में लीन हो जाना।

ओडिशा का बोईता बंदना

भारत के तटीय राज्य ओडिशा में कार्तिक पूर्णिमा का उत्सव विशेष रीति से संपन्न किया जाता है। पूर्णिमा के दिन, सूर्योदय से पूर्व, भोर फूटते ही ओडिशा वासी ओडिशा के विविध जल स्त्रोतों के तट पर बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं। सम्पूर्ण दृश्य अप्रतिम हो जाता है। जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है, रंगों से ओतप्रोत व जीवंत दृश्य हमारे नयनों में समाने लगते हैं। विविध जलस्त्रोतों के जल पर रंग-बिरंगी छोटी छोटी नौकाएं तैराई जाती हैं। इन तैरती नौकाओं में दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। साथ ही चढ़ावे की विविध वस्तुएं रखी जाती हैं।

बोइता बन्दना

सम्पूर्ण वातावरण दीपों के प्रकाश एवं धूप की सुगंध से भक्तिमय हो जाता है। चारों ओर से जप के स्वर सुनाई पड़ते हैं। स्त्रियाँ अपने मुँह से उल्हास के पारंपरिक स्वर व्यक्त करती हैं जिसे उलूलु, हुलहुली अथवा हुला हुली कहते हैं।

बोईता बंदना के वैकल्पिक नाम  

बोईता बंदना तैरती नौकाओं का एक उत्सव है जिसे डांगा भासा भी कहते हैं। डांगा का अर्थ है नौका तथा भासा का अर्थ है तैरना, अर्थात नौकाओं का तैरना। यह एक शुभ पूजा अनुष्ठान है जिसे नौका यात्रा आरंभ करने से पूर्व किया जाता है। इस अनुष्ठान को बाली जात्रा भी कहते हैं जिसका अर्थ है, इंडोनेशिया के बाली द्वीप की यात्रा।

बाली जात्रा
बाली जात्रा

यह उत्सव ओडिशा में तो मनाया ही जाता है। साथ ही विश्व के भिन्न भिन्न भागों में निवास करते प्रवासी उड़िया मूल के नागरिक भी, अपने प्रतिष्ठित पूर्वजों की स्मृति में, उनके द्वारा प्रदत्त विरासत का इस उत्सव के द्वारा सम्मान करते हैं।

बोईता बंदना उत्सव का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, छोटी छोटी हस्त निर्मित नौकाओं को जल पर तैराना। ये नौकाएं सामान्यतः केले के तनों अथवा अन्य समरूप प्राकृतिक तथा पारंपरिक वस्तुओं द्वारा निर्मित होती हैं। इन नौकाओं में चढ़ावे की विविध सामग्रियाँ भरी जाती हैं, जैसे पुष्प, सिक्के, कौड़ियाँ, पान के पत्ते, सुपारी आदि। साथ ही इन में प्रज्ज्वलित दीप रखे जाते हैं। तदनंतर इन्हे जल में प्रवाहित किया जाता है। इसके साथ प्रार्थना के विशेष शब्द उद्घोषित किये जाते हैं, जैसे “आ का मा बाई पान गुआ थोई”।

साधबा की स्मृति का पर्व

बोईता बंदना उत्सव भूतकाल की सामूहिक चेतना एवं स्मृतियों को गुंजायमान करता है। इस पर्व द्वारा कलिंग साधबा की विरासत का स्मरण किया जाता है। प्राचीन काल में उड़िया नाविक व्यापारियों को साधबा कहा जाता था। सैकड़ों वर्षों तक इन साधबाओं के हिन्द महासागर में स्थित भिन्न भिन्न द्वीप समूहों एवं राज्यों से व्यापारिक संबंध थे।

भारत के प्राचीन कालीन समुद्र व्यापार की धरोहर पर आधारित यह उत्सव एक प्रकार से उड़िया लोगों द्वारा व्यक्त, कलिंग साधबा व्यापारियों के विलक्षण एवं अदम्य साहस का सम्मान है तथा उन्हे अर्पित श्रद्धांजलि है। हमारे इन्ही उड़िया पूर्वजों ने हिन्द महासागर में स्थित दूर-सुदूर क्षेत्रों पर कलिंग का वर्चस्व स्थापित किया था, यह इतिहास सर्व विदित है।

कार्तिक पूर्णिमा हमारे उन्ही पूर्वज, कलिंग साधबा व्यापारियों की धरोहर से संबंधित एक विशेष पर्व है। कार्तिक पूर्णिमा के दिवस साधबा व्यापारी दूर-सुदूर द्वीपों व महाद्वीपों से व्यापार करने के लिए जल मार्ग द्वारा यात्रा आरंभ करते थे। इस काल में उन्हे अपनी पाल नौकाओं को खेने के लिए बंगाल की खाड़ी एवं हिन्द महासागर के ऊपर से बहते मानसून पवन की दिशा का लाभ प्राप्त होता था। इस काल के मानसून पवन की दिशा नौकाओं को श्री लंका, इंडोनेशिया के द्वीपों तथा दक्षिण-पूर्वी एशियाई मुख्य भूमि में स्थित विभिन्न क्षेत्रों की ओर जाने में सहायक होती थीं।

कलिंग साधबा

दूर-सुदूर द्वीपों व महाद्वीपों से व्यापार करने के लिए जल मार्ग द्वारा यात्रा आरंभ करने से पूर्व विविध धार्मिक अनुष्ठान किये जाते थे। अथाह समुद्र के माध्यम से नौकाओं द्वारा यात्रा करते हुए वे सुरक्षित रहें, ऐसी कामनाओं के साथ उन्हे विदा किया जाता था।

नौका के कर्मी अपनी अपनी नौकाओं को भिन्न भिन्न उत्पादों से भरते थे। कपास, वस्त्र, हीरे, जवाहरात, मणि, विविध रत्न, मोती, लोबान, मोम, नीलकंठ के पंख, हस्तिदंत, हाथी, घोड़े आदि का व्यापार किया जाता था। वे अपनी नौकाओं को दीर्घ काल की जलयात्रा के लिए सज्ज करते थे।

साधबा व्यापारियों के परिवार की स्त्रियाँ अपने प्रियजनों की सुरक्षित यात्रा की कामना करते हुए विविध अनुष्ठान करती थीं। कलिंग क्षेत्र के जलमार्गों के तट एवं बंदरगाह इन सभी गतिविधियों से जीवंत हो उठते थे।

कलिंग क्षेत्र की समृद्धि, नाम एवं प्रसिद्धि इन उद्यमी व कर्मठ साधबा व्यापारियों के व्यापार कौशल व साहस के कारण ही संभव हो सका था। उन्होंने विस्तृत हिन्द महासागर के पार, भिन्न भिन्न मानव समुदायों के संग सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किया तथा उनके संग व्यापारिक सहयोग को पोषित किया।

साधबा व्यापारियों द्वारा समुद्र पार के क्षेत्रों के संग किये गये व्यापार से प्राप्त धन ने कलिंग को दीर्घ काल तक समृद्ध किया था। कलिंग समुद्र तट पर बसे बंदरगाहों एवं नगरों ने इन व्यापारिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया था।

कलिंग जलपोत

साधबा यात्रा विवरणों में विशाल बहुतलीय जलपोतों का उल्लेख किया गया है। ये उस काल में विकसित एवं फलीभूत हुए व्यापार एवं जल परिवहन की ओर संकेत करते हैं।

साधबाओं के बोईताओं अथवा नौकाओं में कार्यरत कर्मियों में नौनिर्देशक, नाविक कर्मी, जल पर्यवेक्षक, रखरखाव दल, फुटकर कर्मी आदि सम्मिलित होते थे जिनके नेतृत्व का दायित्व उनके मुखिया या कप्तान पर होता था। इनके अतिरिक्त विविध प्रकार के अन्य यात्री भी सम्मिलित होते थे जिनमें कलाकार, शिल्पकार, चित्रकार, विविध विषयों के विद्वान, विविध क्षेत्रों के कुशल श्रमिक आदि होते थे। मानवी जीवन एवं मालमत्ते की सुरक्षा के लिए पर्याप्त संख्या में सुरक्षा कर्मी अथवा योद्धा भी जलपोतों पर सवार होते थे।

आकाश दीप

इस कार्तिक पूर्णिमा डांगा भासा धरोहर उत्सव के अतिरिक्त एक अन्य बहुप्रचलित प्राचीन उत्सव था, आकाश दीप।

मिट्टी के मटके में ऊपर की ओर छोटे छोटे छिद्र किये जाते थे। उसके भीतर रेती भरकर उसके ऊपर प्रज्ज्वलित दीप रखा जाता था। तत्पश्चात इस घट को बाँस की ऊंची डंडी पर बांधा जाता था। यह दीप रात्रि में प्रज्ज्वलित किया जाता था जो सम्पूर्ण रात्रि टिमटिमाता रहता था।

कलिंग क्षेत्र के समुद्र तटीय क्षेत्रों, नदी के तटीय क्षेत्रों तथा खाड़ी के तटीय क्षेत्रों पर स्थित अधिकांश आवास गृहों पर सम्पूर्ण कार्तिक मास काल में ये दीप प्रज्ज्वलित किये जाते थे। ये दीप कलिंग नदियों एवं कलिंग समुद्री मार्गों पर अग्रसर नौकाओं तथा जलपोतों को रात्रि में दिशा निर्देशन में सहायक होते थे।

आकाश दीप की यह परंपरा कलिंग साधबाओं के समुद्री यात्रा धरोहर का प्रमुख अवशेष है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार पित्रपक्ष काल में हमारे स्वर्गवासी पूर्वज अपने परिवारजन से भेंट करने के लिए तथा उनका कुशलक्षेम जानने के लिए पित्रलोक से धरतीलोक पर पधारते हैं। तब ये टिमटिमाते दीप उन्हे सही मार्ग ढूँढने में सहायता करते हैं। आकाश दीप की यह परंपरा कुछ दशकों पूर्व तक अत्यधिक प्रचलित थी। जीवनशैली में आये परिवर्तन के साथ शनैः शनैः यह परंपरा भी अब लुप्त होने लगी है।

भारत के पूर्वी तटीय क्षेत्रों में प्रचलित डांगा भासा (तैरती नौकाएं) तथा आकाश दीप जैसी परम्पराएं भिन्न रूपों में भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों अथवा कोंकण तटीय क्षेत्रों में भी प्रचलन में हैं। इन क्षेत्रों की परंपराओं में मूलाग्र समानता होने के पश्चात भी किंचित भिन्नता है जो उस क्षेत्र की विशेषताओं एवं लोकपरम्पराओं पर निर्भर करती हैं।

बोईता बंदना एवं जगन्नाथ

सदियों पूर्व से ओडिशा में भिन्न भिन्न स्वदेशी संप्रदायों व मान्यताओं का प्रचलन रहा है, जैसे वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन, सबारा आदि। ऐसी मान्यता है कि ओडिशा की जगन्नाथ संस्कृति इन सभी संप्रदायों व पंथों का समृद्ध सम्मिश्रण है।

जगन्नाथ का नागार्जुन वेष
जगन्नाथ का नागार्जुन वेष

अधिकांश उड़िया नागरिक कार्तिक मास के भिन्न भिन्न परंपराओं का पूर्ण श्रद्धा से पालन करते हैं, विशेषतः घर के बड़े-बूढ़े, स्त्रियाँ आदि। ये परम्पराएं विशेषतः इस क्षेत्र की भिन्न भिन्न प्रथाओं एवं विविध अनुष्ठानों पर निर्भर होते हुए जगन्नाथ संस्कृति का पालन करती हैं।

श्री मंदिर अथवा जगन्नाथ पुरी मंदिर के भीतर स्थापित देवों के विग्रहों को भव्य आभूषणों एवं सुंदर वस्त्रों से अलंकृत किया जाता है। इस अलंकरण को भेस अथवा भेष कहा जाता है। यद्यपि यह प्रथा सम्पूर्ण वर्ष निभाई जाती है, तथापि कार्तिक के पावन मास में उनका विशेष भेष होता है। जिस वर्ष कार्तिक मास में पाँच के स्थान पर छः दिवसों का पंचक होता है, उस वर्ष मंदिर के विग्रहों को दुर्लभ व अद्वितीय “नागार्जुन भेष’ से अलंकृत किया जाता है। उन्हे नागार्जुन के अनुरूप सज्जित किया जाता है।

भक्तगण सम्पूर्ण कार्तिक मास में कार्तिक व्रत का पालन करते हैं। इसके अंतर्गत वे प्रातः शीघ्र उठकर सूर्योदय से पूर्व स्नान आदि से निवृत्त हो जाते हैं। तत्पश्चात मंदिर जाकर देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं। अधिकांश भक्तगण पुरी तथा अन्य पावन स्थलों की यात्रा करते हैं तथा श्रद्धा पूर्वत कार्तिक व्रत का पालन करते हैं।

कार्तिक मास में जिस प्रकार भारत के अन्य स्थलों में पावन तुलसी की आराधना की जाती है, उसी प्रकार ओडिशा में भी कार्तिक मास में तुलसी की वंदना की जाती है। स्कन्द पुराण के कार्तिक माहात्म्य का पठन अथवा श्रवण भी पावन कार्य माना जाता है। जो ग्रहस्थ कार्तिक मास में श्री क्षेत्र अथवा अन्य तीर्थस्थलों की यात्रा करने में असमर्थ होते हैं वे अपने गृहों में ही कार्तिक मास के भिन्न भिन्न अनुष्ठानों का श्रद्धा से पालन करते हैं।

व्रत

कार्तिक मास में जिस प्रकार एक अनुशासित जीवन शैली अपनायी जाती है, वही अनुशासन कार्तिक मास में ग्रहण किये जाने वाले भोजन में भी परिलक्षित होती है। इस मास में व्रत एवं हबीसा का पालन किया जाता है जिसमें व्रत का पालन करने वाले भक्तगण, जिन्हे हबीस्याली कहते हैं, व्रत करते हैं तथा व्रत की गत रात्रि को हबीसा ग्रहण करते हैं। हबीसा एक विशेष व्यंजन होता है जिसमें हल्दी तथा अन्य सामान्य मसालों का प्रयोग नहीं किया जाता। यह व्यंजन सामान्यतः कुछ विशेष प्रकार के स्थानीय, ऋतुजनित तथा स्वदेशी उपज का प्रयोग कर बनाया जाता है।

अनेक उड़िया नागरिक सम्पूर्ण कार्तिक मास में सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं जिसमें वे अपने व्यंजनों में प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग नहीं करते हैं। अधिकांश उड़िया इस मास में किसी भी प्रकार का सामिष भोजन ग्रहण नहीं करते हैं।

यदि किसी व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण कार्तिक मास में इन निषेधों का पालन करना कठिन हो तो वे कार्तिक मास में कम से कम अंतिम पाँच दिवसों में इस व्रत का पालन पूर्ण श्रद्धा से करते हैं। इन पाँच दिवसों को पंचुका अथवा पंचक कहते हैं जब वे केवल शुद्ध शाकाहारी सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं। पंचुका को बक-पंचुका भी कहते हैं क्योंकि उड़िया मान्यताओं के अनुसार मछली ग्रहण करने वाले बक पक्षी भी इन पाँच दिवसों में मछली का सेवन नहीं करते हैं।

कार्तिक मास में ओडिशा के निवासी अपने गृहों के आँगन में, तुलसी चौरा के निकट चावल के चूर्ण से रंगोली जैसी कलाकृतियाँ करते हैं जिन्हे कार्तिक मुरुजा कहते हैं। इन कलाकृतियों में स्थानीय शैली की विविध पारंपरिक एवं धरोहर आधारित आकृतियाँ होती हैं जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करती हैं।

इस प्रकार ओडिशा का कार्तिक पूर्णिमा उत्सव इस क्षेत्र के महान समुद्री धरोहर का प्रतीक है।

यह प्रीता राऊत द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है। प्रीता एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं जो भारत एवं ओडिशा के सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर पर शोधकार्य कर रही हैं। वे ओडिशा के विषय में दुर्लभ तथ्यों को उजागर कर उन्हे प्रकाशित करती हैं।  

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्राची नदी की परिक्रमा ओडिशा की ७ दिवसीय प्राची परिक्रमा https://inditales.com/hindi/prachi-nadi-parikrama-odisha/ https://inditales.com/hindi/prachi-nadi-parikrama-odisha/#respond Wed, 03 Jul 2024 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3637

“भारत में नदियों को मातृतुल्य मानकर उनकी पूजा की जाती है, मातृ उपासना। नदियों का आदर जल का आदर है क्योंकि जल के बिना जीवन नहीं है।“ – प्राची परिक्रमा के संबंध में परम पूज्य गुरु परमहंस प्रज्ञानानन्द जी महाराज के वक्तव्य। प्राची नदी की कथा पद्म पुराण के उत्तरखंड के अंतर्गत प्राची माहात्म्य में […]

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“भारत में नदियों को मातृतुल्य मानकर उनकी पूजा की जाती है, मातृ उपासना। नदियों का आदर जल का आदर है क्योंकि जल के बिना जीवन नहीं है।“ – प्राची परिक्रमा के संबंध में परम पूज्य गुरु परमहंस प्रज्ञानानन्द जी महाराज के वक्तव्य।

प्राची नदी की कथा

पद्म पुराण के उत्तरखंड के अंतर्गत प्राची माहात्म्य में प्राची नदी का गुणगान किया गया है। प्राची नदी का पौराणिक मूल उद्गम कपिल मुनि का आश्रम माना जाता है।

प्राची माहात्म्य के अनुसार समुद्र के भीतर स्थित चट्टानों से एक बड़वाग्नि अर्थात समुद्र के भीतर महा अग्नि उत्पन्न हुई जिसमें तीनों लोकों का विनाश करने की क्षमता थी। मानव, असुर एवं देवतागण ब्रह्मा के पास गए तथा उनसे तीनों लोकों की रक्षा करने का अनुरोध किया।

ब्रह्मा ने उन सब से कहा कि वे सब एकजुट होकर समुद्र देव की आराधना करें। समुद्र देव ने इस विषय में उनकी सहायता करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। तब उन सब ने महान नदियाँ गंगा, यमुना एवं रेवा से याचना की। उन नदियों ने भी इस विषय में अपनी असमर्थता व्यक्त की। अंततः उन्होंने सरस्वती नदी से याचना की। माँ सरस्वती ने कहा, “इस बड़वाग्नि को समाप्त करते करते मैं नष्ट हो जाऊँगी। किन्तु सृष्टि के कल्याण के लिए मैं यह त्याग करने के लिए तत्पर हूँ।”

देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना की कि वे भूमिगत हो जाएँ तथा कहा कि वे बड़वानल अथवा बड़वाग्नि में पूर्णतः नष्ट होने से उसका रक्षण करेंगे। सरस्वती नदी भूमिगत हो गयी तथा कपिल मुनि के आश्रम में पुनः प्रकट हो गयी। उस समय कपिल मुनि उस बड़वानल से मानवों, असुरों व देवताओं का रक्षण करने के लिए यज्ञ कर रहे थे।

आश्रम में कपिल मुनि द्वारा किये जा रहे अनुष्ठान के यज्ञ कुंड में देवी सरस्वती पुनः प्रकट हुई। यद्यपि मूल रूप से सरस्वती पश्चिम दिशा की ओर बह रही थी, तथापि उन्होंने अपनी दिशा परिवर्तित की तथा पूर्व की ओर बहने लगी। चूंकि पूर्व दिशा को प्राची भी कहते हैं, इसलिए उस काल से यह पावन नदी प्राची सरस्वती के नाम से विदित हो गयी। अपने वचन का पालन करते हुए देवतागण इसके तट पर निवास करने लगे।

प्राची परिक्रमा

हमारे शास्त्रों में भारत की केवल दो पावन नदियों का उल्लेख है जिनकी परिक्रमा की जाती है। यह परिक्रमा पथ नदियों के उद्गम स्थान से आरंभ होकर, नदियों के साथ साथ आगे बढ़ते हुए समुद्र तक जाता है तथा वहाँ से परिक्रमा करता हुआ पुनः उद्गम स्थल पर आकार समाप्त होता  है। शास्त्रों के अनुसार जिन दो नदियों की परिक्रमा की जाती है, वे हैं नर्मदा नदी तथा यह प्राची नदी।

०४ चतुर्थी, चैत्र मास, कृष्ण पक्ष, २०६९, विश्वावसु, विक्रम संवत, (११-०३-२०१२), यही वह पावन दिवस था जब परम पूज्य गुरु परमहंस प्रज्ञानानन्द जी महाराज के मार्गदर्शन में सर्वप्रथम प्राची नदी की परिक्रमा आरंभ की गयी थी। गुरुजी इस परिक्रमा में भक्तों एवं तीर्थयात्रियों का नेतृत्व स्वयं करते हैं। ‘प्राची परिक्रमा धर्मार्थ न्यास’ के सहयोगदान से उन्होंने इस पावन प्रकल्प का शुभारंभ किया था।

प्राची घाट पर पूजा के साथ प्राची परिक्रमा का प्रारंभ
प्राची घाट पर पूजा के साथ प्राची परिक्रमा का प्रारंभ

प्राची परिक्रमा धर्मार्थ न्यास के अध्यक्ष व प्रबंध न्यासी, स्वामी शुद्धानंद गिरी के अनुसार “प्राची नदी की पावन परिक्रमा अंधकपिलेश्वर मंदिर से आरंभ होती है। हमारे इतिहास पुराणों के अनुसार प्राची नदी के उद्गम स्थल के दो आयाम हैं, एक भौगोलिक तथा दूसरा आध्यात्मिक।

वर्तमान में प्राची नदी, जो महानदी की सहायक नदी है, वह नराज के निकट फूलनखरा या दकम्बा से बहती है। यह इस नदी का भौगोलिक उद्गम स्थल है। किन्तु नदियों के मार्ग एवं उनके भूगोल सतत परिवर्तित होते रहते हैं। अनवरत रहता है उनका तत्व। अनवरत रहता है उनका पौराणिक उद्गम स्थल। प्राचीन ग्रंथ प्राची माहात्म्य के अनुसार प्राची नदी का उद्गम स्थल कटक के नियाली में स्थित अंधकपिलेश्वर मंदिर है।

ग्रीष्म ऋतु में अन्य क्षेत्रों में सूखा पड़ जाता है किन्तु मंदिर के भीतर स्थित जलमग्न शिवलिंग सदा जल के भीतर ही रहता है। यह प्राची नदी का मूल उद्गम स्थान है।”

प्राची परिक्रमा कब की जाती है?

प्राची परिक्रमा पंक उद्धार विजया एकादशी से छः दिवस पूर्व आरंभ की जाती है। इस परिक्रमा का समापन पंक उद्धार एकादशी के दिवस होता है।

पंक का अर्थ है कीचड़। कपिलेश्वर मंदिर का शिवलिंग सदा जलमग्न रहता है। उस पर वर्ष भर में चढ़ाए गए पुष्प एवं पत्ते निकाले नहीं जाते हैं। इसके कारण शिवलिंग सदा इनसे ढंका रहता है तथा दिखाई नहीं देता है। इन चढ़ावों को पंक कहा गया है। विजया एकादशी के दिवस पुष्प तथा अन्य अर्पित वस्तुओं को निकाला जाता है। इससे भक्तगण शिवलिंग का दर्शन कर सकते हैं।

सन् २०२४ में परिक्रमा तिथि १ मार्च से ७ मार्च थी। ७ मार्च के दिन पंक उद्धार एकादशी थी।

प्राची परिक्रमा का महत्व

प्राची परिक्रमा के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं।

प्रथम, प्राची घाटी सभ्यता ने विभिन्न पंथों के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके तटों पर स्थित असंख्य मंदिर, मठ तथा घाट इसकी पुष्टि करते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश अब खंडित अवस्था में हैं।

माँ प्राची के तटों पर आप सैकड़ों बौद्ध एवं जैन प्रतिमाएं देख सकते हैं जिनके मध्य शंभू, माधव एवं शक्ति की प्रतिमाएं भी स्थित हैं। यह इस तथ्य का द्योतक है कि यहाँ अनेक धर्म एवं पंथ एक साथ विकसित हुए तथा फले-फूले। उनमें आपस में किसी भी प्रकार के धार्मिक अथवा आध्यात्मिक मतभेद नहीं थे।

दूसरा, द्वादश शंभू, द्वादश माधव तथा द्वादश शक्ति पीठों का अस्तित्व। देवतागणों ने प्राची नदी को दिए हुए वचन का पालन किया तथा उसके तट पर निवास करने लगे। इससे अष्ट शंभू, अष्ट माधव, अष्ट शक्तिपीठ, अष्ट मठ, द्वादश तीर्थ, द्वादश शंभू, द्वादश माधव तथा द्वादश शक्तिपीठ आदि का उद्भव हुआ।

कपिल संहिता में प्राची एवं उसकी शुचिता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।

एकाम्र कानन पूर्वे यजन्ते महीपते,

नामे प्राची विख्यात सरिदते सरस्वती

प्राच्य देशे महेशय यत्रस्यात

संग्राम गम क्रोश क्रोश तत लिंग

ततः प्राची सरस्वती

इसका अर्थ है- एकाम्र कानन के पूर्वी भाग में प्राची सरस्वती पूर्व दिशा की ओर बह रही है। उनके दोनों तटों पर भगवान शिव के लिंग स्वरूप की आराधना की जाती है।

संस्कृत भाषा में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है, नदी के निकट की उथली भूमि जहाँ संगम हो। उपनिषदों एवं हिन्दू महाकाव्यों में तीर्थ शब्द की अवधारणा आध्यात्मिक ज्ञान की ओर संकेत करती है, ना कि अनुष्ठानों एवं कर्मकांड पर।

प्राची नदी की परिक्रमा करने वाले भक्तगण नदी के पावन जल में स्नान करते हैं तथा उस तीर्थ के अधिष्ठात्र देव की पूजा-अर्चना करते हैं। इन भक्तगणों को असंख्य आशीष प्राप्त होते हैं तथा उन्हे व उनके पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है।

गुरुजी के मार्गदर्शन में सम्पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति से पूर्ण की गयी प्राची परिक्रमा तीन साधनाओं के फल प्रदान करती है जो हैं, शरीर, मन एवं आत्मा का उत्थान।

७ दिवसीय प्राची परिक्रमा का पथ

प्राची परिक्रमा पदयात्रा द्वारा पूर्ण की जाती है। यह पदयात्रा इस प्रकार की जाती है कि नदी सदैव पदयात्रियों के दाहिनी ओर रहे। पदयात्रा पथ नदी एवं समुद्र के संगम तक जाती है। वहाँ से परावर्तित होते हुए पुनः आरंभ स्थल की ओर प्रस्थान करती है। परावर्तित मार्ग में भी नदी उनके दाहिनी ओर रहती है।

परिक्रमा का आरंभ व समापन दोनों अंधकपिलेश्वर मंदिर में होता है। सम्पूर्ण पदयात्रा की लंबाई १०८ किलोमीटर है। इसे ७ दिवसों में पूर्ण करना श्रेष्ठ माना जाता है जिसके लिए औसतन २० किलोमीटर प्रतिदिन चलना पड़ता है।

दिवस १

कटक जिले के नियाली तहसील के अंतर्गत कपिलेश्वर में स्थित अंधकपिलेश्वर मंदिर से प्राची परिक्रमा आरंभ होती है। यह कटक से ५१ किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है।

अन्धकपिलेश्वर मंदिर
अन्धकपिलेश्वर मंदिर

यहाँ का शिवलिंग प्राची घाटी में स्थित द्वादश शंभू का भाग है। यहाँ का लिंग सदा जलमग्न रहता है। पंक उद्धार एकादशी के दिवस अर्थात महाशिवरात्रि उत्सव से तीन दिवस पूर्व, यहाँ के सम्पूर्ण जल का निकास किया जाता है। इसके पश्चात यहाँ का शिवलिंग दृश्यमान हो जाता है जिसके दर्शन करने के लिए यहाँ भक्तगणों का ताँता लग जाता है।

यहाँ से आगे बढ़ते हुए परिक्रमावासी गोकर्णेश्वर पहुँचते हैं जो कपिल मुनि आश्रम से लगभग १ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसे द्वादश शंभू के अंतर्गत द्वितीय शंभू माना जाता है।

प्रथम दिवस का अंतिम गंतव्य राधाकांत मठ है। प्राची नदी के बाएं तट पर स्थित राधाकांत मठ नियाली तहसील के नुआगांव में स्थित है। यह नियाली के शोभनेश्वर मंदिर से उत्तर-पश्चिमी दिशा में लगभग १ किलोमीटर की दूरी पर है।

सन् १८८६ में स्थापित राधाकांत मठ का स्वयं का भूभाग है। जमींदारी मठ होने के नाते यह मठ स्व-वित्त पोषित है। लोक मान्यताओं के अनुसार पुरी की यात्रा करते हुए चैतन्य महाप्रभु ने कुछ काल इस मठ में निवास किया था। नवकलेवर अथवा नबकलेबारा के समय राधाकांत मठ के वैष्णव जन संकीर्तन में भाग लेते हैं।

शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें वे जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं के लिए नीम की लकड़ियाँ ले जाते हैं जिन्हे स्थानीय भाषा में दारू कहा जाता है। उन्हे यह अधिकार महाराज प्रताप रुद्र देव के शासन काल से प्राप्त है। नवकलेवर अथवा नबकलेबारा का अर्थ है देवों का नवीन शरीर। नवीन काष्ठ से जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं की पुनः नवीन रचना की जाती है।

वृक्षराज तमाल

राधकांत मठ के प्रांगण में एक वृक्ष है। ऐसी मान्यता है कि चैतन्य महाप्रभु जिस दातून से अपने दांत स्वच्छ करते थे, उसके शेष भाग को उन्होंने वहीं भूमि में गाड़ दिया था। कुछ काल पश्चात उस लकड़ी की टहनी पर कोंपलें फूटने लगीं जो कालांतर में एक वृक्ष में परिवर्तित हो गया। इसे वृक्षराज तमाल अथवा बृक्षराज तमाल कहा जाने लगा।

राधाकांत मठ में वृक्षराज तमाल
राधाकांत मठ में वृक्षराज तमाल

इस वृक्ष का एक रोचक आयाम यह है कि मठ के उत्थान एवं पतन के साथ यह वृक्ष भी प्रसुप्त अथवा खिलने लगता है। सन् १९६९ -८५ तक यह मठ जीर्ण अवस्था में था। इस मठ में कोई भी महंत गुरु नियुक्त नहीं थे। उस कालावधी में वृक्षराज तमाल के सभी पत्ते झड़ गए थे तथा यह वृक्ष लगभग सुप्त अवस्था में पहुँच गया था।

इस पतन काल के अंत में इस पर नवीन कोंपलें फूटने लगीं तथा शनैः शनैः नवीन शाखाएं प्रकट होने लगीं। यह इस मठ के उत्थान का संकेत था। इसी समय मठ में नवीन गुरु महंत मदन मोहन दास बाबा का आगमन हुआ। २५ वर्षों के उनके आजीवन संघर्ष के पश्चात मठ की स्थिति में अमूलाग्र सुधार होने लगा। उस काल से वृक्षराज तमाल अपने भव्य रूप में विराजमान है।

दिवस २

राधकांत मठ से परिक्रमावासी मूसीबाबा मठ की ओर कूच करते हैं। नियाली चारीछका मार्ग से २०० मीटर के विमार्ग पर जल्लारपुर के निकट स्थित सहनाजपूर गाँव में यह मूसीबाबा मठ स्थित है। इसे आर्ततरान गड़ी भी कहते हैं। प्रत्येक संध्या को इस मठ में भागवत का पाठ किया जाता है।

शोभानेश्वर मंदिर
शोभानेश्वर मंदिर

प्रातःकालीन आरती के पश्चात परिक्रमावासी अपने दूसरे दिवस की पदयात्रा का आरंभ करते हैं। मूसीबाबा मठ से पदयात्रा करते हुए वे प्राचीन शिव मंदिर शोभनेश्वर मंदिर पहुँचते हैं जो बंगालीसाही नामक गाँव में स्थित है। यह भुवनेश्वर से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर है। यह मंदिर नियाली-माधव मार्ग से ३०० मीटर के विमार्ग पर स्थित है।

यह मंदिर प्राची नदी के बाईं तट पर, गाँव के प्रवेश स्थल पर विराजमान है। इस मंदिर में एक नौकोनिया पत्थर है जिसमें नौ कोने हैं। इस पत्थर को अत्यंत पवित्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भी यह झूठ कहे कि उसने इस पावन पत्थर का स्पर्श किया है, उसे यह पत्थर दंड देता है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि वह झूठा कुछ ही दिवसों में मृत्यु को प्राप्त होता है।

रामायणकालीन मंदिर

प्रातःकाल के जलपान के पश्चात पदयात्री टोलागोपीनाथपुर की ओर प्रस्थान करते हैं। नियाली तहसील के जल्लारपुर गाँव से २ किलोमीटर पूर्वी दिशा में टोलागोपीनाथपुर है जहाँ प्राची नदी के तट के निकट रामेश्वर मंदिर है। भक्तगण रामेश्वर मंदिर में भगवान के दर्शन करते हैं।

रामेश्वर मंदिर
रामेश्वर मंदिर

इस मंदिर को रामायण काल का मंदिर माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्री रामचन्द्र ने स्वयं इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी। उन्होंने यहाँ भगवान शिव की आराधना की थी तथा उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसके पश्चात उन्होंने श्रीलंका के लिए प्रस्थान किया तथा वहाँ रावण का वध किया। इसलिए यहाँ के देव रामेश्वर नाम से लोकप्रिय हो गए।

अगला पड़ाव सोमनाथ मंदिर है। रामेश्वर से सोमनाथ मंदिर की पदयात्रा अधिक नहीं है। सोमनाथ मंदिर की स्थापना के विषय में अधिकृत जानकारी प्राप्त नहीं है। मंदिर के पुरोहित इसे लगभग १०० वर्ष प्राचीन बताते हैं।

सोमनाथ मंदिर के पश्चात परिक्रमावासी माधवनंद मंदिर पहुँचते हैं। नियाली से ६ किलोमीटर दूर, नियाली-माधव मार्ग पर स्थित पनिमल चौक से दक्षिण-पूर्वी दिशा में १.५ किलोमीटर की दूरी पर माधवनंद मंदिर स्थित है। प्राची घाटी में श्री विष्णु के २४ स्वरूपों में से एक, माधव की आराधना अत्यंत लोकप्रिय है। प्राची घाटी वासियों की मान्यताओं में माधव आराधना का अत्यधिक प्रभाव है।

इस मंदिर को दुर्गा माधव भी कहते हैं क्योंकि मंदिर के गर्भगृह में माधव की प्रतिमा के साथ दुर्गा की भी प्रतिमा स्थापित है। दुर्गा एवं माधव की एक साथ आराधना ओडिशा के वैष्णवपंथियों की एक अतरंगी विशेषता है। यह ओडिशा के विभिन्न मान्यताओं के अद्भुत सम्मिश्रण का एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है।

इस मंदिर को पुरी के श्री जगन्नाथ का मामूघर अथवा मामा का घर भी कहते हैं। इसलिए माधव मंदिर के कई अनुष्ठान जगन्नाथ मंदिर के अनुष्ठानों से साम्य रखते हैं।

दिवस ३

आगे की पदयात्रा कथाकुहा हनुमान मंदिर तक जाती है। इस मंदिर के विषय में अधिकृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसे इस क्षेत्र का प्राचीनतम मंदिर माना जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के अनुरूप यह भी एक दक्षिण मुखी मंदिर है। इस मंदिर के प्रत्येक दर्शनार्थी को कथाकुहा अथवा बोलने वाले महावीर से सीधा संवाद साधने का अनुभव प्राप्त होता है। इसीलिए इस मंदिर का नाम कथाकुहा मंदिर पड़ा।

अंगेश्वर मंदिर
अंगेश्वर मंदिर

हनुमान मंदिर के पश्चात पदयात्री अंगेश्वर महादेव मंदिर पहुँचते हैं। यह मंदिर अंगेश्वर पाड़ा में स्थित है। प्राची नदी के बाएं तट पर स्थित इस मंदिर में चौकोर योनिपीठ पर काले पत्थर का शिवलिंग स्थापित है। यह प्राची घाटी के अष्ट-शंभू में से एक है। शक्ति, शैव एवं वैष्णव पंथों का अद्भुत सम्मिश्रण, जो प्राची घाटी सभ्यता की विशेषता है, इस मंदिर में स्पष्ट परिलक्षित होता है।

ग्रामेश्वर मंदिर
ग्रामेश्वर मंदिर

जलपान के पश्चात पदयात्री निभारण गाँव पहुँचते हैं तथा ग्रामेश्वर महादेव के दर्शन करते हैं। ग्रामेश्वर महादेव मंदिर का कुछ काल पूर्व ही नवीनीकरण किया गया है। मंदिर के पुरोहित के अनुसार मूल मंदिर का निर्माण पुरी के जगन्नाथ मंदिर से भी पूर्व किया गया था। यह ओडिशा राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित मंदिर है। मंदिर के दैनंदिनी क्रियाकलापों का प्रबंधन ग्राम समिति करती है। यह मंदिर प्राची घाटी के द्वादश-शंभू में से एक है।

माँ मंगला मंदिर, काकटपुर

प्राची परिक्रमा कर रहे पदयात्री देउली मठ जाते हुए मार्ग में माँ मंगला के मंदिर जाते हैं। माँ मंगला मंदिर पुरी जिले के काकटपुर नगर में स्थित है। माँ मंगला के दर्शनोपरांत भक्तगण मंदिर के चारों ओर स्थित प्रांगण में देवी माँ की परिक्रमा करते हैं। काली शिला में बनी देवी माँ की सुंदर प्रतिमा को बहुरंगी वस्त्रों एवं आभूषणों से अलंकृत किया गया है। माँ के नेत्र सुंदर एवं प्रभावशाली प्रतीत होते हैं।

माँ काकटपुर मंगला
माँ काकटपुर मंगला

ओडिशा के आठ प्रमुख शक्तिपीठों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ काकटपुर मंगला मंदिर है जो प्राची नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। सदियों से यहाँ उनकी परम वैष्णवी के रूप में आराधना की जा रही है। इस मंदिर का निर्माण स्थानीय जमींदार पंचानन मित्रा रॉयचूड़ामनी ने सन् १५४८ में करवाया था।

नवकलेवर के अवसर पर पुरी के पुजारीजी काकटपुर मंगला आते हैं तथा देवी माँ से उस स्थान की जानकारी प्रदान करने का अनुरोध करते हैं जहाँ उन्हे वह पवित्र वृक्ष प्राप्त होगा जिसकी शाखाओं से प्राप्त काष्ठ से जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाओं की रचना की जाएगी। बनजागा जात्रा या यात्रा के आचार्य, पति महापात्रा तथा ब्राह्मण पुजारी देवी के समक्ष नतमस्तक होकर उनसे दिव्य मार्गदर्शन की याचना करते हैं। देवी उनके स्वप्न में प्रकट होकर उनका मार्गदर्शन करती हैं। वे उन्हे उस स्थान का पता बताती हैं जहाँ वे वृक्ष स्थित हैं। प्रतिमाएं गढ़ने के लिए आवश्यक दारू अथवा लकड़ियाँ सात दिवसों के भीतर ढूँढी जाती हैं।

देउली मठ

दोपहर तक प्राची परिक्रमा की पावन पदयात्रा देउली मठ पहुँचती है। भक्तगण दोपहर की आरती करते हैं, दोपहर का महाप्रसाद ग्रहण करते हैं, संध्या सत्संग करते हैं तथा रात्री का प्रसाद ग्रहण कर विश्राम करते हैं। देउली मठ पुरी जिले के बाजपुर ग्राम में प्राची नदी के दाहिने तट पर स्थित है। भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर अनुष्ठान से इस मठ का सीधा संबंध है। पुरी से दारू के शोध में जो आचार्य, पति महापात्रा तथा ब्राह्मण पुजारी आते हैं वे इसी मठ में ठहरते हैं।

माँ मंगला सर्वप्रथम इसी मठ में प्रकट हुई थीं। मठ के भीतर पतितपावन की आराधना की जाती है। पुरी के सेवक देउली मठ पहुँचते ही माँ मंगला मंदिर में इसकी सूचना दी जाती है। इसके पश्चात सभी सेवक हार, महाप्रसाद तथा अन्य पूजा सामग्री लेकर गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकलते हुए माँ मंगला के मंदिर पहुँचते हैं। वहाँ वे अनेक अनुष्ठान करते हैं। तत्पश्चात वे देउली मठ वापिस आते हैं। देवों के लिए दारू अथवा पावन लकड़ी की पहचान होते तक वे देउली मठ में ही ठहरते हैं।

देउली मठ का निर्माण १२ वीं. सदी में किया गया था। इसकी पुरातनता पुरी के जगन्नाथ मंदिर के समकक्ष है।

दिवस ४

देउली मठ में प्रातःकालीन पूजा के पश्चात पदयात्री सुदर्शन मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं जो अष्टरंग तहसील के सरिपुर में अप्सरा क्षेत्र में स्थित है। अप्सरा क्षेत्र सुदर्शन मठ में स्थित है।

एक लोककथा के अनुसार किसी काल में हाय बेहेरा नामक एक गड़ेरिया ने मठ के निकट स्थित प्राची नदी में कुछ अप्सराओं को स्नान करते देखा। उसने उनका परिचय पूछा। अप्सराओं ने गड़ेरिये को अपना परिचय दिया। साथ ही यह चेतावनी भी दी कि वो उनके विषय में किसी अन्य से नहीं कहेगा। अन्यथा उन सब की मृत्यु हो जाएगी। किन्तु शनैः शनैः इस घटना की चर्चा सम्पूर्ण गाँव में होने लगी।

प्राची परिक्रमा केलुनी मुहाना
प्राची परिक्रमा केलुनी मुहाना

प्राची माहात्म्य के अनुसार बैशाख पूर्णिमा के दिवस, जिसे नरसिंह चतुर्दशी भी कहा जाता है, भक्तगण यहाँ आते हैं तथा नदी के पावन जल में अप्सरा बुड़ा अथवा पावन डुबकी लगाते हैं। वे देवी की पूजा-अर्चना भी करते हैं।

भक्तगण चौथे दिवस के अंत में विश्राम के लिए केलूनी मुहाने के चक्रवात आश्रय में आते हैं। यह चक्रवात आश्रय पुरी जिले के अष्टरंग तहसील में केउटाजंगा ग्राम में स्थित है। यहाँ एक जगती पर केलूनी माता का छोटा सा मंदिर है जो रथ के आकार में निर्मित है।

प्रारंभ में स्थानीय मच्छीमार समुदाय जंगली सारू के एक छोटे से उपवन में केलूनी माँ की पूजा-आराधना करते थे। वर्तमान में जो माँ केलूनी का मंदिर है, उसका निर्माण सन् २००५ में किया गया था। यह प्राची घाटी का अंतिम मंदिर है जिसके पश्चात प्राची नदी समुद्र में विलीन हो जाती है।

दिवस ५

केलूनी मुहाने पर प्रातःकालीन प्राची पूजा के उपरांत वापसी की यात्रा का आरंभ किया जाता है। गत कुछ वर्षों में प्राची नदी ने अपना मार्ग परिवर्तित किया है। अब इसने तीन लघु द्वीपों को अपने आँचल में समेट लिया है। इसलिए परिक्रमा के इस भाग में नौकाओं की सहायता लेनी पड़ती है। इसी मुहाने पर दो अन्य नदियाँ भी समुद्र में जा मिलती हैं। इसलिए नौका द्वारा कडुआ नदी को पार कर मुख्य भूमि तक आना पड़ता है।

तंडाघरा में नौका यात्रा समाप्त कर पुनः पदयात्रा आरंभ की जाती है। टेंटुलियागड़ी घरा में जलपान कर परिक्रमावासी आनंद बाजार के जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करते हैं। तत्पश्चात वे शंकरेश्वर मंदिर पहुँचते हैं जो पुरी से लगभग ६० किलोमीटर दूर काकटपुर तहसील में कुंधेई हाटा के समीप स्थित है। लगभग २०० वर्षों से भी अधिक पुरातन शंकरेश्वर महादेव मंदिर द्वादश शंभुओं में से एक हैं।

भक्तगण कुंधेई हाटा के राम मंदिर में भी भगवान के दर्शन करते हैं। दोपहर का भोजन एवं कुछ क्षण विश्राम करने के उपरांत लगभग ३ बजे पदयात्रा आगे बढ़ती है। मार्ग में भक्तगण पथिक राम मंदिर में भी दर्शन करते हैं। रामेश्वर प्राची घाट पहुँचकर आरती करते हैं।

पदयात्रा आगे बढ़ती हुई प्राचीगुरु धर्मक्षेत्र मठ पहुँचती है जो काकटपुर तहसील के अंतर्गत नरसिंहपुर ग्राम में प्राची नदी के दाहिने तट पर स्थित है। यह स्थान पुरी एवं खोर्धा जिलों की सीमा पर है। गुरु मधुसूदन दास भगवान विष्णु के महान भक्त थे। माँ मंगला की आज्ञा पर वे सनातन धर्म का उपदेश देने तथा श्री विष्णु की कथा कहने के लिए यहाँ पधारे थे।

प्राचीगुरु धर्मक्षेत्र मठ
प्राचीगुरु धर्मक्षेत्र मठ

मठ परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित १६ मंदिर हैं। प्राची घाटी में इस स्थल का बड़ा महत्व है। सम्पूर्ण वर्ष दूर दूर से आए साधु-संन्यासियों एवं अन्य भक्तगणों का ताँता लगा रहता है. साधुओं के धार्मिक बैठकों एवं सम्मेलनों के लिए यह मठ अत्यंत लोकप्रिय है। भारत का यह एकमात्र मठ है जिसके नाम में पावन नदी का नाम भी जुड़ा हुआ है।

दिवस ६

प्राची परिक्रमा के छठे दिवस का आरंभ ३०० वर्ष पुरातन वासुदेव मंदिर में देवदर्शन से होता है। यह मंदिर नुआहाटा में स्थित है। इस मंदिर में वैसे ही अनुष्ठान किये जाते हैं जैसे पुरी के जगन्नाथ मंदिर में किये जाते हैं।

पदयात्रा का आगामी पड़ाव है खिरागाचा मठ जो पुरी जिले के अमरप्रसादगड़ा ग्राम में स्थित है। इसे पाराशर मुनि मठ भी कहते हैं। बताया जाता है कि यह मठ सहस्त्र वर्षों से भी प्राचीन है। भारत के, विशेषतः ओडिशा के कोने कोने से भक्तगण एवं साधु-संन्यासी वर्ष भर इस मठ की यात्रा करते हैं। प्राचीनकाल में इस मठ का प्रयोग धार्मिक सम्मेलनों के लिए किया जाता था।

पदयात्रा करते हुए परिक्रमावासी अमरेश्वर मंदिर पहुँचते हैं। अमरेश्वर चारीछका-काकटपुर मार्ग पर स्थित है। सारला दास द्वारा लिखित सारला महाभारत के अनुसार भगवान अमरेश्वर प्राची घाटी के द्वादश शंभुओं में से एक हैं। यह ओडिशा राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित मंदिर है।

पदयात्रियों का अगला पड़ाव है, बानारगड़ा का प्राचीन बुद्धिकेश्वर मंदिर। यहाँ परिक्रमावासियों के लिए दोपहर के महाप्रसाद की व्यवस्था की जाती है। इस क्षेत्र के अष्ट शंभुओं में इस मंदिर को पश्चिम शंभू कहा जाता है। इस मंदिर के भूभाग पर राजपरिवार का आधिपत्य है। यहाँ के राजा ने ही इस मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान मंदिर लगभग १५० वर्ष प्राचीन है किन्तु इतिहास में इस मंदिर को कोणार्क मंदिर का समकक्ष बताया जाता है।

त्रिवेणी संगम

त्रिवेणी घाट पर जहाँ प्राची नदी, कुशभद्रा की एक शाखा नदी मणिकर्णिका तथा अदृश्य सरस्वती नदी का संगम है, वहाँ एक मठ है जिसका नाम है, अन्तर्वेदी मठ। यह मठ कटक जिले के काँटापाड़ा ससना ग्राम में स्थित है। यह नुआगांव छाक से लगभग ७ किलोमीटर दूर राज्य महामार्ग पर स्थित है। यह मठ खोर्धा जिले के भापुर में स्थित बेलेश्वर एवं त्रिवेणीश्वर मंदिरों से पूर्वी दिशा में १०० मीटर से भी कम दूरी पर स्थित है।

मान्यताओं के अनुसार इस मठ की स्थापना द्वापर युग के अंत तथा कलियुग के आरंभ में की गयी थी। यह एक आदि पीठ है। इसके पश्चात श्री जगन्नाथ मंदिर का निर्माण हुआ था। दूर-सुदूर से साधु-संन्यासी यहाँ आ कर ठहरते थे तथा भगवान की आराधना करते थे।

त्रिवेणी घाट के संगम पर पवित्र स्नान किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में त्रिवेणी बुड़ा कहते हैं। यह स्नान माघ मास की अमावस को किया जाता है। इस दिन सहस्त्रों की संख्या में भक्तगण पावन स्नान के लिए एकत्र होते हैं। इस अवसर पर एक मेले का आयोजन किया जाता है जो एक सप्ताह से भी अधिक दिनों तक चलता रहता है। पवित्र स्नान के पश्चात भक्तगण अन्तर्वेदी मठ में भेंट करते हैं तथा कृष्ण की आराधना करते हैं। समीप स्थित शिव मंदिर बेलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है।

यहाँ पर विवाहोत्सव, सगाई, जनेऊ संस्कार, अस्थि विसर्जन तथा पिंड दान जैसे अनेक सामाजिक अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं। मठ जिस भूमि पर स्थित है उस पर स्वामित्व मठ का ही है। मठ एवं उद्यान का रखरखाव मठ के महंत द्वारा किया जाता है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि यहाँ से एक गुप्त धारा निकलती है जो प्राची में जाकर मिलती है।

ऐसी मान्यता है कि वैष्णव भक्त, संत व महाकवि जयदेव ने त्रिवेणी अमावस्या के दिवस इस घाट पर पवित्र स्नान किया था। पद्म पुराण एवं वराह पुराण के अनुसार श्री कृष्ण ने अपना अंतिम श्वास इसी स्थान पर लिया था। जब कृष्ण भगवान पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम कर रहे थे तब जरा नामक बहेलिये ने हिरण समझ कर उनके चरणों को तीर से घायल कर दिया था जिसके पश्चात कृष्ण ने इस भौतिक विश्व का त्याग कर दिया था। पांडवों ने उनकी देह का दाहसंस्कार करने का प्रयत्न किया किन्तु वे उसमें असफल हुए। इसके पश्चात पांडवों ने उनकी देह को प्राची नदी में विसर्जित कर दिया था।

दिवस ७

सूर्योदय से पूर्व ही प्राची परिक्रमा के सातवें दिवस का आरंभ हो जाता है। दिवस का प्रथम पड़ाव त्रिवेणीश्वर मंदिर में किया जाता है जो भुवनेश्वर से १३ किलोमीटर दूर अंजीरा ग्राम में स्थित है। इसके पश्चात परिक्रमावासी प्राची घाट पर स्थित अन्तर्वेदी मठ जाते हैं जहाँ सूर्योदय होते ही प्राची पूजा तथा आरती की जाती है।

त्रिवेणीश्वर मंदिर की प्राचीनता की जानकारी काल के साथ लुप्त हो गई है। यह अष्ट शंभुओं में तीसरा शंभू है। वर्तमान मंदिर का पुनरुद्धार ग्रामवासियों ने स्वयं किया है। पुराणों के अनुसार जब भगवान राम ने यहाँ विश्राम किया था तब उन्होंने स्वयं इस मंदिर के लिंग की स्थापना की थी। ऐसी मान्यता है कि जब पांडव प्राची नदी घाटी के वनों में निवास कर रहे थे तब उन्होंने भी यहाँ अपना पड़ाव डाला था।

प्राची नदी की परिक्रमा का आरंभ अंधकपिलेश्वर मंदिर से हुआ था जो प्राची नदी का उद्गम स्थल है। उसी प्रकार परिक्रमा का समापन भी अंधकपिलेश्वर मंदिर में ही होता है। पंकोद्धार एकादशी के दिवस परिक्रमा समाप्ति पर पूर्णाहुति अनुष्ठान किया जाता है।

प्राची परिक्रमा यज्ञ
प्राची परिक्रमा यज्ञ

वर्ष भर की आहुतियों को लिंग पर से हटाने के पश्चात पूर्ण स्थान को स्वच्छ किया जाता है। शिवलिंग चमकने लगता है। सर्वप्रथम गुरुजी, संत एवं ग्रामवासी शिवलिंग के दर्शन करते हैं। इस अवसर पर एक महायज्ञ का आयोजन किया जाता है। पूर्णाहुति से पूर्व सभी परिक्रमावासी प्राची नदी के उद्गम स्थल के दर्शन करते हैं, पूजा आरती आदि सम्पन्न करते हैं। वहाँ से वापिस आकार पूर्णाहुति की जाती है। प्रसाद वितरण किया जाता है।

गुरुजी एवं संतों के पावन सानिध्य में रहना, सात दिवस दिव्य आध्यात्मिक वातावरण में पदभ्रमण करना, भगवान का नाम स्मरण करते हुए प्रकृति का आनंद लेना, ये सब एक महान अनुभूतियाँ हैं जो किसी के भी जीवन काल में अविस्मरणीय अनुभव होता है।

प्राची परिक्रमा के लिए कुछ यात्रा सुझाव

प्राची परिक्रमा संयोजक से यहाँ पर संपर्क करें – prachiparikrama@gmail.com

यह एक अतिथि संस्करण है जिसे डॉ. श्रुति महापात्रा ने लिखा है। संस्करण में प्रयुक्त छायाचित्र भी उन्ही के द्वारा प्रदत्त हैं। 

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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छतिया बट मंदिर सत्य युग का अग्रदूत https://inditales.com/hindi/chhatia-bata-mandir-odisha/ https://inditales.com/hindi/chhatia-bata-mandir-odisha/#respond Wed, 27 Mar 2024 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3418

छतिया बट मंदिर स्वयं में एक अनूठा मंदिर है जो उत्कल (ओडिशा) प्रदेश के जाजपुर एवं कटक के मध्य स्थित छतिया ग्राम में स्थित है। सतही रूप से देखा जाए तो यह जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा को समर्पित एक सामान्य मंदिर है। हमें ज्ञात है कि ऐसे मंदिर ओडिशा में चहुँ ओर स्थित हैं। जगन्नाथ, […]

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छतिया बट मंदिर स्वयं में एक अनूठा मंदिर है जो उत्कल (ओडिशा) प्रदेश के जाजपुर एवं कटक के मध्य स्थित छतिया ग्राम में स्थित है।

सतही रूप से देखा जाए तो यह जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा को समर्पित एक सामान्य मंदिर है। हमें ज्ञात है कि ऐसे मंदिर ओडिशा में चहुँ ओर स्थित हैं। जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा को समर्पित ऐसे मंदिर देश के अन्य स्थानों पर भी देखे जाते हैं जहाँ ओड़िया भाषी नागरिकों की बहुलता हो।

छतिया बट मंदिर
छतिया बट मंदिर

इस मंदिर में अनूठा क्या है? जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा के विग्रहों को स्थापित करने का क्रम। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में देवी सुभद्रा को उनके दोनों भ्राताओं, जगन्नाथ एवं बलभद्र के मध्य स्थापित किया है। इनके लगभग सभी मंदिरों में इसी क्रम का पालन किया जाता है। किन्तु छतिया बट मंदिर में इन तीनों विग्रहों को स्थापित करने का क्रम है, बाएं से दाहिनी ओर जाते हुए जगन्नाथ, बलभद्र, तत्पश्चात सुभद्रा। क्या आपने कभी ध्यान दिया कि जब हम इन तीनों के नाम लेते हैं तो किस क्रम में लेते हैं? जी हाँ, इसी क्रम में लेते हैं। तो यह कहा जा सकता है कि यह मंदिर श्रुति परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। अर्थात् हम जैसे इन तीनों भाई-भगिनी को संबोधित करते हैं, यह मंदिर शब्दशः उसी संबोधन को आकार प्रदान करता है। आधुनिक बोलचाल पद्धति के अनुसार कह सकते हैं, जो आप कहते हैं, वही आप देखते हैं!

दार्शनिक रूप से कहें तो यह नई विश्व व्यवस्था को दर्शाता है।

कल्कि अवतार

छतिया बट मंदिर को एक भविष्यवादी मंदिर भी कह सकते हैं  क्योंकि यह मंदिर भगवान विष्णु के कल्कि अवतार को समर्पित है। हमें ज्ञात है कि भगवान विष्णु के दसवें अवतार, कल्कि का अवतरित होना अभी शेष है। भारत में जहाँ कालचक्र को आधार माना जाता है, ऐसे मंदिर उसी मान्यता के द्योतक हैं।

छतिया बट मंदिर से जुड़ी दंतकथाएं

संत अच्युतानंद जी ने लिखा, जीबा जगता होइबा लीना – बैसी पहाचे खेलिबा मीना। कुछ का मानना है कि ये संत हाड़ीदास जी ने लिखा है। इसका अर्थ है, एक दिवस पुरी के जगन्नाथ मंदिर की २२ सीढ़ियों पर जगत के सभी जीव समाप्त हो जायेंगे, केवल जल में मीन तैरेगी

यह प्रलय की स्थिति की ओर संकेत करता है जो सृष्टि के प्रत्येक चक्र के अंत में उपस्थित होता है तथा सभी जीवित एवं निर्जीव तत्वों को निगल जाता है। यह पंक्ति आगे कहती है कि केवल छतिया ही वह स्थान है जो जल में समाहित नहीं होगा, अपितु जल के ऊपर रहेगा।

जब संसार में अन्याय असहनीय स्तर को पार कर जायेगा तब भगवान विष्णु कल्कि अवतार ग्रहण कर धरती पर अवतरित होंगे। अश्वारूढ़ कल्कि अवतार के हाथों में नंदक या नंदकी नामक एक लम्बी तलवार होगी। वे इस विश्व में न्याय व्यवस्था लायेंगे तथा सत्य युग को पुनः स्थापित करेंगे।

मान्यता यह है कि इस सत्य युग का आरंभ छतिया बट मंदिर से ही होगा।

बट एवं संत हाड़ीदास

बट या वट बरगद अथवा बड़ के वृक्ष को कहते हैं। भारत में बड़ के वृक्ष को पवित्र माना जाता है। जी हाँ, इस मंदिर को छतिया बट मंदिर इसलिए कहते हैं क्योंकि इसके परिसर में एक प्राचीन वट वृक्ष है। यह वृक्ष इस मंदिर का अभिन्न अंग है।

इस मंदिर को महापुरुष हाड़ीदास का सिद्ध पीठ भी कहा जाता है। संत हाड़ीदास का जीवनकाल सन् १७७२ से सन् १८३० तक का माना जाता है। वे इसी मंदिर में अपनी साधना करते थे। यहीं उनकी समाधि पीठ भी स्थित है। ऐसी मान्यता है कि अपनी नश्वर देह का त्याग करने के पश्चात भी वे यहीं निवास करते हैं। उन्हें संत अच्युतानंद का बारहवाँ अवतार माना जाता है।

उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक भजन, कई मालिकायें एवं अनेक धर्म ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें शंखनावी, अनंत गुप्त गीता, हनुमान गीता, नील महादेव गीता, भाबाननबाड़ा, अनंतगोई आदि रचनाएँ सम्मिलित हैं। एक स्थानिक शिक्षा शास्त्री, प्रा. आर. साहू ने अपने शोध ग्रन्थ ‘हाड़ीदास रचनावली’ में संत हाड़ीदस की साहित्यिक उपलब्धियों एवं धार्मिक व साहित्यिक ग्रंथों के प्रति उनके योगदान का सविस्तार वर्णन किया है।

मंदिर दर्शन

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम मंदिर के भीतर प्रवेश करते हैं। ऊँची अभेद्य भित्तियों से घिरा हुआ मंदिर का सम्पूर्ण परिसर किसी विशाल दुर्ग का स्मरण कराता है। परिसर के बाहर से मंदिर का लगभग लेश मात्र ही दिखाई देता है। अश्व पर आरूढ़ कल्कि अवतार का विग्रह ही भित्तियों के ऊपर दृष्टिगोचर होता है। प्रवेश द्वार के ऊपर देवी की एक विशाल प्रतिमा है। उनके दोनों ओर अनेक देवी-देवताओं एवं असुरों के विग्रह हैं।

छतिया बट मंदिर का प्रवेश द्वार
छतिया बट मंदिर का प्रवेश द्वार

ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण १२वीं सदी में अनंतवर्मन देव के शासनकाल में किया गया था।

परिसर के भीतर अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं। उनमें कुछ हैं, माँ काली का मंदिर, यम का एक मंदिर जो सामान्यतः दृष्टिगोचर नहीं होते, गणेश का मंदिर आदि। मंदिर की भित्तियों पर रंगबिरंगी चित्रकारी की गयी थी।

जगन्नाथ मंदिर

परिसर में स्थित मुख्य मंदिर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा का है। इसे ओडिशा का द्वितीय श्री क्षेत्र भी कहते हैं। इस मंदिर में वे सभी दैनिक पूजा-अनुष्ठान किया जाते हैं जो पुरी के जगन्नाथ मंदिर में किये जाते हैं। जी हाँ, उसका अर्थ है कि इस मंदिर में भी आपको महाप्रसाद प्राप्त हो सकता है।

इस मंदिर के अतिरिक्त इन तीनों के भिन्न भिन्न एकल मंदिर भी हैं। उनके भीतर उनकी विशाल प्रतिमाएं हैं। इन मंदिरों की एक विशेषता यह है कि इन तीनों मंदिरों में विग्रहों के मुख द्वारों के सम्मुख नहीं हैं अपितु एक ओर हैं। उनके सम्मुख दर्शन मंदिर के एक बाजू से ही होते हैं। बलभद्र की मूर्ति के सामने एक दर्पण रखा गया है जिससे आप उनके पीछे खड़े होकर भी उनके मुख का दर्शन कर सकते हैं।

बलभद्र एक श्वेत अश्व पर आरूढ़ हैं तो जगन्नाथ एक श्याम वर्ण अश्व पर सवार हैं। उनके हाथों में तलवारें हैं जो भविष्य में प्रकट होने वाले कल्कि अवतार की ओर संकेत करते हैं। ऐसी मान्यता है कि काल के साथ उनकी तलवारों की लम्बाई भी बढ़ रही है।

इस मंदिर में वार्षिक रथ यात्रा निकाली जाती है जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से भक्तगण यहाँ आते हैं।

छतिया का  पेडा

भारत देश में पेडा लगभग सर्वसामान्य राष्ट्रीय मिष्टान्न माने जाते हैं। मंदिर के प्रसाद के रूप में उनका प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। धारवाड़ पेडा , मथुरा पेडा आदि के समान ओडिशा के छतिया पेडा अत्यंत लोकप्रिय हैं।

छतिया पेडा
छतिया पेडा

छतिया पेडा खाना चाहें तो छतिया बट मंदिर के बाहर स्थित दुकानों से उत्तम स्थान अन्य नहीं है। मंदिर के बाहर विक्रेता अपनी दुकानों, गुमटियों यहाँ तक कि दुपहिया सायकलों पर भी पेडा विक्री करते हैं। उन स्वादिष्ट पेडा पर विक्रेताओं की मुद्राएँ भी अंकित रहती हैं।

छतिया बट मंदिर के दर्शन के लिए कुछ यात्रा सुझाव:

छतिया बट मंदिर जाजपुर एवं भुवनेश्वर दोनों से लगभग ५० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। आप दोनों ओर से यहाँ पहुँच सकते हैं।

आप अपने ठहरने की व्यवस्था जाजपुर, चंडीखोल, कटक अथवा भुवनेश्वर में कर सकते हैं।

मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण करना निषिद्ध है तथा इस नियम का कठोरता से पालन किया जाता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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ओडिशा का खाना – गलियों के स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन https://inditales.com/hindi/odisha-ka-shakahari-khana/ https://inditales.com/hindi/odisha-ka-shakahari-khana/#comments Wed, 29 Nov 2023 02:30:12 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3331

ओडिशा भगवान श्री जगन्नाथ की भूमि है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री हरि रामेश्वरम में स्नान करते हैं, द्वारका में श्रृंगार करते हैं, पुरी में भोजन करते हैं तथा बद्रीनाथ में साधना करते हैं। चूँकि भगवान जगन्नाथ पुरी में भोजन करते हैं, ओडिशा का खाना और यहाँ के व्यंजनों पर मंदिर की भोजन शैली का […]

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ओडिशा भगवान श्री जगन्नाथ की भूमि है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री हरि रामेश्वरम में स्नान करते हैं, द्वारका में श्रृंगार करते हैं, पुरी में भोजन करते हैं तथा बद्रीनाथ में साधना करते हैं। चूँकि भगवान जगन्नाथ पुरी में भोजन करते हैं, ओडिशा का खाना और यहाँ के व्यंजनों पर मंदिर की भोजन शैली का गहन प्रभाव है।

सामान्यतः यहाँ के व्यंजनों में हल्के मसाले होते हैं तथा उनमें स्वाद एवं सुगंध भी कोमल होते हैं। किन्तु इसके ठीक विपरीत, ओडिशा की गलियों में बिकने वाले व्यंजन अपने चटपटे स्वाद एवं मसालों के लिए लोकप्रिय हैं। यूँ कहिये उनमें स्वाद का धमाका होता है। यूँ तो ओडिशा की गलियों के व्यंजन शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों प्रकार के खवय्यों की जिव्हा को संतुष्ट करते हैं, इस संस्करण में मैं ओडिशा की गलियों के शाकाहारी व्यंजनों पर चर्चा कर रही हूँ।

ओडिशा राज्य के बाहर रहने वालों को तनिक भी भनक नहीं है कि इसकी गलियों में इतने चटपटे व्यंजन बिकते हैं। ओडिशा की गलियों के व्यंजन अखिल भारतीय स्तर पर अब तक अपनी पहचान स्थापित नहीं कर पाए हैं, जैसे मुंबई, वाराणसी, दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, इंदौर इत्यादि की गलियों में उपलब्ध व्यंजनों ने स्थापित किये हैं। ओडिशा के व्यंजन इन स्थानों के व्यंजनों की तुलना में किसी भी मापदंड में न्यून नहीं हैं। आईये मैं आपको ओडिशा की गलियों में ले चलती हूँ जहां ऐसे चटपटे शाकाहारी व्यंजन मिलते हैं कि उनके विषय में जानकार आपके मुंह में पानी आ जाएगा तथा आप तुरंत ओडिशा की यात्रा की योजना बना लेंगे।

ओडिशा राज्य प्राथमिक रूप से चार प्रमुख क्षेत्रों में बंटा हुआ है, तटीय, उत्तरी, पश्चिमी तथा दक्षिणी। प्रत्येक क्षेत्र के अपने स्वयं के क्षेत्रीय व्यंजन हैं जिनमें क्षेत्र-विशेष स्वाद व सुगंध होता है। पश्चिमी क्षेत्र के व्यंजनों में आंध्र प्रदेश के व्यंजनों का प्रभाव झलकता है। वहीं, उत्तरी क्षेत्र के व्यंजनों में पश्चिम बंगाल की निकटता का प्रभाव पड़ा है।

ओडिशा का खाना – गलियों के शाकाहारी व्यंजन

दही बड़ा आलू दम

दही-बड़ा-आलू-दम, इस व्यंजन की उत्पत्ति कटक में हुई है। यह दही बड़ा का ही एक प्रकार है। उड़द डाल एवं चावल को भिगोकर व पीसकर गर्म तेल में उसके बड़े तले जाते हैं। इन बड़ों को दही के मट्ठे में भिगोया जाता है। इस मट्ठे को राई, कढ़ी पत्ते व सूखी लाल मिर्ची का तड़का लगाया जाता है। इसके पश्चात उस पर आलू दम (आलू की सब्जी) तथा घुगनी (मटर का स्सा) डाला जाता है। कटे प्याज व सेव भुजिया से सजाकर परोसा जाता है।

दही वडा और आलू दम - ओडिशा की गलियों का खाना
दही वडा और आलू दम – ओडिशा की गलियों का खाना

यह व्यंजन कटक की पहचान है। सम्पूर्ण कटक नगरी में इसकी बिक्री करने वाले अनेक विक्रेता हैं। यह व्यंजन एवं इसके प्रकार अब राज्य के अन्य भागों में भी अपना स्थान बना रहे हैं। इस व्यंजन को घर घर में लोकप्रिय करने वाले व्यक्तित्व का नाम रघु है। उन्होंने दिल्ली में आयोजित ओडिशा परब के एक आयोजन में यह व्यंजन बनाया था तथा प्रथम पुरस्कार जीता था। इसके पश्चात उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

दही बड़ा आलू दम के विक्रेता प्रातः ६ बजे से ही इसकी बिक्री आरम्भ कर देते हैं जो रात्रि १० बजे तक चलती रहती है। अतः आप दिन के किसी भी समय इसका आस्वाद ले सकते हैं। यह व्यंजन भले ही पेट के लिए भारी हो सकता है किन्तु जेब के लिए कदापि नहीं।

यदि आप असली दही बड़ा आलू दम का स्वाद चखना चाहते है  तो ‘रघु दही बड़ा, बिदानासी कटक’ में अवश्य जाएँ। दुकान खुलने से पूर्व ही वहां खवय्यों की लंबी कतार लग जाती है, इसलिए कुछ क्षण प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। रघु सायंकाल ४.३० बजे मिष्टान भण्डार खोलते हैं तथा ५.३० बजे बंद भी कर देते हैं। एक अन्य उत्तम विक्रेता हैं, इश्वर, जिन्होंने लोगों की रूचि के अनुसार व्यंजन के स्वाद में परिवर्तन भी किये हैं।

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सिंघाड़ा घुघनी / तरकारी

ओडिशा की गलियों का एक अन्य स्वादिष्ट व्यंजन है ओडिया समोसा, जो सम्पूर्ण राज्य में उपलब्ध होता है। सिंघाड़े के आकार से समानता रखने के कारण इसे सिंघाड़ा कहते हैं। इसे सामान्यतः आलू मटर के रस्से के साथ परोसा जाता है जिसे यहाँ घुघनी कहते हैं। कहीं कहीं इसे सादे आलू के रस्से के साथ भी खाया जाता है।

सिंघाड़ा एवं समोसा में अंतर उसके भरावन के कारण है। ओडिशा के समोसे अथवा सिंघाड़ा में कटे आलू की सब्जी का भरावन होता है, ना कि किसे हुए आलू की सब्जी का भरावन, जैसा कि सामान्यतः भारत के अन्य स्थानों में किया जाता है। भरावन को अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए उस में मूंगफली के दाने एवं नारियल के टुकड़े डाले जाते हैं।

आलू चॉप/ पियाजी/ अन्य पकोड़े

पकोड़े अथवा भजिये ओडिशा का सर्वसामान्य नाश्ता है जो सम्पूर्ण राज्य में दिन के किसी भी समय उपलब्ध हो जाता है। आलू चॉप उत्तर भारत के आलू बोंडा का ही एक रूप है जिसमें घिसा हुआ आलू, हरे मटर, मूंगफली के दाने एवं नारियल के टुकड़ों में मसाले इत्यादि डालकर स्वादिष्ट भरावन बनाया जाता है। इसके पश्चात उसके गोले बनाकर बेसन व चावल के आटे के घोल में डुबोकर गर्म तेल में तला जाता है। इसमें बेसन की परत आलू बोंडे के बेसन की परत से अपेक्षाकृत पतली होती है। इसी प्रकार प्याज, बैंगन, पत्ता गोभी, आलू के कतले, भावनगरी मिर्ची आदि को भी इसी घोल में डुबोकर गर्म तेल में तल कर भजिये बनाए जाते हैं।

भजिये के लिए उपरोक्त भाजियों का चुनाव मौसम, ग्राहकों की रूचि तथा लोकप्रियता के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। उत्तरी ओडिशा में बैंगन के भजिये अधिक लोकप्रिय हैं जिसे बेगुनी कहा जाता है। दक्षिणी ओडिशा के बेरहामपुर में पत्ता गोभी के भजिये अधिक खाए जाते हैं। अधिकतर इन भजियों को घुघनी अथवा आलू के सादे रस्से के साथ खाया जाता है। कुछ स्थानों में इन भाजियों पर केवल काला नमक छिड़ककर प्याज के टुकड़े के साथ परोसा जाता है।

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वड़ा घुघनी/तरकारी

दक्षिण भारत का मेदुवड़ा भी ओडिशा की गलियों का लोकप्रिय नाश्ता है किन्तु यहाँ वह अपने स्थानिक अवतार में उपलब्ध होता है। उड़द दाल को भिगोकर एवं पीसकर उसके वड़े तले जाते हैं। इन वड़ों को घुघनी अथवा आलू के सादे रस्से के साथ खाया जाता है। कहीं कहीं इसे दालमा के साथ भी खाया जाता है। दालमा को अरहर अथवा चने की दाल में विभिन्न भाजियों को डालकर बनाया जाता है। दालमा भी ओडिशा का एक लोकप्रिय व्यंजन है।

पूरी तरकारी/ दालमा

यह व्यंजन भी सम्पूर्ण ओडिशा राज्य में उपलब्ध है। पूरी के साथ घुघनी, आलू का रस्सा अथवा दालमा परोसा जाता है। बेरहामपुर एवं कोरापुट जैसे दक्षिणी भागों में पूरी तरकारी के साथ उपमा व चटनी भी दी जाती है।

गुपचुप

गोलगप्पे अथवा पानी पूरी को ओडिशा में गुपचुप कहा जता है। गोल, कुरकुरी, खोखली, छोटी छोटी पूरियों में मसालेदार मसले हुए उबले आलू, उबले काबुली चने, प्याज एवं अन्य मसाले भरे जाते हैं। उसमें चटपटा खट्टा पुदीना इमली का पानी भरा जाता है। यहाँ के पानी में नमकीन बूंदी नहीं होती है। ओडिशा के प्रत्येक छोटे-बड़े नगर की लगभग सभी गलियों में गुपचुप के ठेले होते हैं। यहाँ के गुपचुप की विशेषता पूरियों के भरावन तथा पानी की खटास है।

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चाट

पारंपरिक ओड़िया चाट में तवे पर कुरकुरी सिकी आलू टिक्की होती है जिस के ऊपर घुघनी डालकर, उस पर कटे प्याज, गाजर, चुकंदर, दही, सेव, भुजिया व पापड़ी का चूरा बुरककर परोसा जाता है। इसकी विशेषता उस पर बुरके मसालों का उत्तम सम्मिश्रण है। चाट के अन्य प्रकार हैं, पापड़ी चाट, दही पुरी आदि।

चाउल बरा

चौल बरा - ओडिशा का खाना
चौल बरा – ओडिशा का खाना

यह पश्चिमी ओडिशा की गलियों का अत्यन्त ही लोकप्रिय नाश्ता है। चावल एवं उड़द डाल को ८०:२० के माप में लेकर भिगोया जाता है तथा उसे पीसकर घोल बनाया जाता है। गर्म तेल में इसके छोटे छोटे पकोड़े तले जाते हैं। इसे मिर्ची की चटनी अथवा रस्से के साथ खाया जाता है।

दही आलू

यह उत्तरी ओडिशा का व्यंजन है जिसमें उबले आलू के टुकड़ों को दही, विभिन्न चटनियाँ, कटे प्याज, मिर्ची आदि के मिश्रण में लपेटा जाता है। इसे पत्ते के दोनों में परोसा जाता है।

मुरी/मुढ़ी आलू दम

मुरमुरा उत्तरी ओडिशा के व्यंजनों का प्रमुख भाग है। इस नाश्ते में मुरमुरे में आलू दम मिलाकर आलू चॉप जैसे पकोड़ों के साथ परोसा जाता है। आलू दम के रस्से के कारण यह मिश्रण कुछ गीला होता है।

मसाला मुरी/मुढ़ी

मसाला मूढ़ी- ओडिशा का खाना
मसाला मूढ़ी

यह व्यंजन झाल मुढ़ी का ही एक संबंधी है। इसमें मुरमुरे में उबले आलू, उबले मटर अथवा उबले चने, मिर्च, कटे प्याज, मूंगफली के दाने आदि मिलाकर उस पर सरसों का तेल डाला जाता है। यह मुढ़ी आलू दम जैसा गीला नहीं होता है, अपितु सूखा होता है।

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चनाचूर मिक्सचर

उबले काबुली चने को दबाकर चपटा किया जाता है। तत्पश्चात उसे भूनकर सुखाया जाता है। इसे चनाचूर कहते हैं। कटे प्याज, कटे टमाटर, मिर्च तथा मसाले डालकर इसका चटपटा मिश्रण बनाया जाता है। यह एक लोकप्रिय व्यंजन है। खोमचे वाले अधिकतर बाजार तथा समुद्रतट पर इसे बेचते दिखाई पड़ते हैं। कटक में चनाचूर के अतिरिक्त खोमचेवाले सेव भुजिया तथा तले हुए चना दाल के मिश्रण में प्याज, टमाटर तथा मसाले डालकर उसका भी चटपटा भेल बनाते हैं।

इडली घुघनी

आपको आश्चर्य होगा किन्तु ओडिशा के दक्षिणी भागों में प्रातःकालीन जलपान के रूप में इडली भी खाई जाती है। कदाचित आन्ध्र प्रदेश से समीपता के कारण इन भागों के खानपान में आन्ध्र का भी कुछ प्रभाव है। यद्यपि इन भागों में स्थित दक्षिण भारतीय टिफिन केन्द्रों में इडली के साथ सांभर व चटनी दी जाती है, तथापि सड़क के किनारे स्थित खोमचों में इडली की साथ घुघनी परोसी जाती है। यह एक लोकप्रिय प्रातःकालीन नाश्ता है।

चकुली घुघनी

चकुली पीठा अथवा डोसा ओडिशा का महत्वपूर्ण व्यंजन है। अनेक ओड़िया उत्सवों एवं पूजा अनुष्ठानों में पीठा का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। इडली के समान इसे भी घुघनी के साथ खाया जाता है।

थुंका पूरी

यह एक मौसमी व्यंजन है जिसे सामान्यतः कटक में बाली जात्रा के समय बनाया जाता है। बाली जात्रा, कार्तिक पूर्णिमा या  नवम्बर-दिसंबर मास में आयोजित एक मुक्त व्यापारिक मेला है। यह एशिया का विशालतम व्यापारिक मेला होता है जिसे ओडिशा राज्य के प्राचीन समुद्री व्यापारियों के सम्मान में आयोजित किया जाता है। थुंका पुरी एक बहुत बड़े आकार की पुरी होती है, भटूरे से भी बड़ी। इसे सदा छेना तरकारी के साथ खाया जाता है। पनीर के मुलायम गोलों को आलू के टुकड़ों के साथ पकाकर रस्सा बनाया जाता है।

ओडिशा का खाना – गलियों की मिठास

रसगोल्ला/रसगुल्ला

पहाल का रसगोला
पहाल का रसगोला

इसे छेने से बनाया जाता है। ओडिशा स्वयं को रसगोल्ला का मूल स्थान मानते हुए गौरान्वित होता है। छेने के गोलों को शक्कर की चाशनी में पकाया जाता है। इसका एक अन्य रूप है, खीरमोहन। दोनों प्रकार अत्यंत लोकप्रिय हैं तथा सम्पूर्ण ओडिशा की गलियों में उपलब्ध हैं। रसगोल्ला का आस्वाद लेने के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय दुकानें हैं, कटक के समीप सालेपुर में बिकलनंदा कार तथा कटक एवं भुवनेश्वर के मध्य राष्ट्रीय महामार्ग पर स्थित पहल।

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छेना पोड़ा – ओडिशा का खाना

यह मिष्टान्न ओडिशा की पहचान है, अथवा यूँ कहिये कि छेना पोड़ा ओडिशा की संस्कृति का पर्यायवाची शब्द है। इस नाम का शाब्दिक अर्थ है, जला हुआ छेना। इसकी रचना अकस्मात् ही हुई थी जब कुछ छेना रात्र भर चूल्हे पर ही छूट गया।

छैना पोड़ा
छैना पोड़ा

छेना अथवा पनीर में सूजी एवं शर्करा मिलाई जाती है। तत्पश्चात उसे केले अथवा सागौन के पत्ते में बाँधकर तंदूर या चूल्हे की आंच में भूना जाता है। मिष्टान्न के रूप में छेना पोड़ा की उत्पत्ति सर्वप्रथम नयागढ़ जिले में हुई थी। अब यह दक्षिणी भागों को छोड़, सम्पूर्ण ओडिशा में बहुतायत में उपलब्ध है। ओडिशा के दक्षिणी भागों में यह थोक में उपलब्ध नहीं है। पुरी एवं नयागढ़ में उपलब्ध छेना पोड़ा के स्वाद सर्वोत्तम होता है।

रसाबली

यह केन्द्रापड़ा जिले की प्रसिद्ध मिठाई है। छेना या पनीर के गोलों को घी में तल कर गाढ़े दूध में भिगाया जाता है। यह मिष्टान्न ओडिशा के समुद्रतटीय भागों के सभी मिष्टान्न भंडारों  में उपलब्ध है।

छेना झिल्ली

चाइना झिल्ली नीमपारा की
चाइना झिल्ली नीमपारा की

भुवनेश्वर-कोणार्क महामार्ग पर स्थित निमपारा में उपलब्ध छेना झिल्ली राज्य की सर्वोत्तम झिल्ली मानी जाती है। इसमें छेना या पनीर के गोलों को घी में तल कर शक्कर की चाशनी में डुबाया जाता है। ये गोले जिव्हा पर रखते ही मुंह में घुलने लगते हैं।

छेना गाजा

यह रसगुल्ला का ही एक प्रकार है जिसमें पनीर व सूजी को मसल कर उसे छोटे छोटे चौकोर टुकड़ों में विभाजित किया जाता है। तत्पश्चात उन्हें शक्कर की चाशनी में डालकर उबाला जाता है। उन्हें तब तक उबालते हैं जब तक चाशनी सूखकर शक्कर वापिस टुकड़ों पर जमने न लगे।

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छेना रबड़ी

छेना या पनीर को रबड़ी में मिलकर यह व्यंजन बनाया जाता है। यह ओडिशा के सभी महत्वपूर्ण नगरों के विभिन्न प्रमुख मार्गों में बिकता है।

खाजा

खाजा - पुरी का प्रसाद
खाजा – पुरी का प्रसाद

खाजा ओडिशा का एक महत्वपूर्ण मिष्टान्न है जिसे मंदिरों में प्रसाद के रूप में अर्पण किया जाता है। इसे बनाने में आटा, घी एवं शक्कर की चाशनी का प्रयोग किया जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के निकट स्थित मिष्टान्न भंडारों में सर्वोत्तम खाजे बिकते हैं।

छेना मुरगी

छेना के छोटे छोटे चौकोर टुकड़ों पर शक्कर की गाढ़ी चाशनी चढ़ाई जाती है। यद्यपि ओडिशा का भद्रक क्षेत्र छेना मुरगी के लिए प्रसिद्ध है, तथापि अब यह सम्पूर्ण ओडिशा में उपलब्ध है।

ओडिशा का खाना – गलियों के मीठे शीतल पेय

लस्सी शरबत

उमस भरी गर्मी के मौसम में मीठी शीतल लस्सी अत्यंत आनंददायक प्रतीत होती है। यह भारत के अन्य भागों में उपलब्ध लस्सी के ही समान होती है किन्तु इसे बनाने की विधि में किंचित भिन्नता है। दही को मथकर उसमें शक्कर की चाशनी मिलाई जाती है। तत्पश्चात उस पर रबड़ी डाली जाती है। काजू एवं नारियल के टुकड़ों से सजाकर परोसा जाता है। यह लस्सी अनेक मिष्टान्न भंडारों में उपलब्ध है, किन्तु भुवनेश्वर के लिंगराज लस्सी की लस्सी सर्वोत्तम है।

बेल पना/ बेल शरबत

बेल पना भी ग्रीष्म ऋतु में उपलब्ध होता है। बेल फल के गूदे में पानी, काली मिर्च एवं गुड़ या शक्कर मिलाकर यह शीतल पेय बनाया जाता है। बैशाख मास के प्रथम दिवस पर ओडिया नूतन वर्ष होता है। इस अवसर पर बनाए जाने वाले बेल पना में बेल फल के गूदे में दूध, केला, शहद अथवा गुड़, काली मिर्च तथा छेना मिलाकर पेय तैयार किया जाता है। उसे काजू व नारियल के टुकड़ों से सजाकर परोसा जाता है। उमस भरे उष्ण वातावरण में यह पेय शीतलता प्रदान करता है।

उपरोक्त बताये ओडिशा का खाना, यहाँ की गलियों के सामान्य शाकाहारी व्यंजन हैं जिनमें अधिकतर मिष्टान्न वर्ष भर उपलब्ध होते हैं। ओडिशा के विभिन्न भागों के स्थानिक प्रभावों के कारण स्वाद एवं सजावट में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। किन्तु उन सब में एक समानता है, वे सभी अत्यंत स्वादिष्ट व चवदार हैं। साथ ही उनका मूल्य भी अधिक नहीं है। आप जब भी ओडिशा जाएँ, वहां की समृद्ध संस्कृति व धरोहर के अवश्य दर्शन करें, साथ ही वहां की गलियों के ये स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन भी अवश्य चखें। इनके बिना ओडिशा का अनुभव पूर्ण नहीं हो सकता।

यह संस्करण अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है।

श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के समृद्ध धरोहरों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से भी अत्यंत लगाव है। वे पाककला में भी विशेष रुचि रखती हैं। वर्तमान में वे बंगलुरु की निवासी हैं। उनका यह स्वप्न है कि वे समृद्ध धरोहर के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर- कलिंग स्थापत्यशैली की उत्कृष्ट कृति https://inditales.com/hindi/lingaraj-mandir-bhubaneswar-odisha/ https://inditales.com/hindi/lingaraj-mandir-bhubaneswar-odisha/#respond Wed, 16 Aug 2023 02:30:08 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3142

भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर से मेरा सर्वप्रथम परिचय राष्ट्रीय संग्रहालय में आयोजित ‘भारतीय कला’, इस विषय के अध्ययनकाल में हुआ था। इस पाठ्यक्रम के अंतर्गत, मंदिर निर्माण की उत्तर भारतीय नागर स्थापत्यशैली पर दिए गए व्याख्यान में जिस मंदिर को इस शैली में निर्मित सर्वोत्तम कृति के रूप में प्रस्तुत किया गया था, वह था […]

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भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर से मेरा सर्वप्रथम परिचय राष्ट्रीय संग्रहालय में आयोजित ‘भारतीय कला’, इस विषय के अध्ययनकाल में हुआ था। इस पाठ्यक्रम के अंतर्गत, मंदिर निर्माण की उत्तर भारतीय नागर स्थापत्यशैली पर दिए गए व्याख्यान में जिस मंदिर को इस शैली में निर्मित सर्वोत्तम कृति के रूप में प्रस्तुत किया गया था, वह था भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर। जब व्याख्याता इस भव्य मंदिर के सभी आयामों एवं तत्वों का विस्तृत विवरण दे रहे थे, मेरे भीतर इस मंदिर के दर्शन करने की अभिलाषा जन्म ले रही थी। कुछ ही वर्षों में मेरी यह अभिलाषा पूर्ण भी हुई।

लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर
लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर

प्रथम दर्शन में भुवनेश्वर के भव्य लिंगराज मंदिर एवं उसके विस्तृत संकुल के आकार अचंभित कर देते हैं। हमारे परिदर्शक हमें सर्वप्रथम उस ऊँचे चबूतरे पर ले गए जहाँ से मंदिर का सम्पूर्ण परिदृश्य दृष्टिगोचर होता है। यह चबूतरा ब्रिटिश शासकों के लिए निर्मित किया गया था जिन्हें मंदिर के भीतर जाने की अनुमति नहीं थी। जी हाँ, यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहाँ केवल हिन्दू धर्म के अनुयायियों को ही भीतर जाने की अनुमति दी जाती है। इस चबूतरे से सम्पूर्ण मंदिर संकुल का विहंगम दृश्य दिखाई देता है जो संकुल के भीतर प्रवेश करने के पश्चात संभव नहीं होता है।

यहाँ से जो दृश्य दिखाई देता है, उसके केंद्र में एक विशाल मंदिर स्थित है जिसके चारों ओर अनेक छोटे मंदिर हैं। बड़ी संख्या में भक्तगण परिसर में एक मंदिर से दूसरे मंदिर में आते-जाते दिखाई पड़ते हैं।

लिंगराज मंदिर का इतिहास

ओडिशा में चार प्रमुख पवित्र क्षेत्र हैं। उनके नाम शंख, चक्र, गदा एवं पद्म हैं जो महाविष्णु के चार आयुधों द्वारा प्रेरित हैं। भुवनेश्वर चक्र क्षेत्र में स्थित है। इसे एकाम्र क्षेत्र भी कहा जाता है जो आम के वृक्ष की ओर संकेत करता है। इसका अर्थ कदाचित यह है कि मूल मंदिर आम के एक वृक्ष के नीचे स्थित था। आपको स्मरण होगा कि कांचीपुरम में भी एकाम्बरेश्वर नामक एक शिव मंदिर है।

लिंगराज मंदिर का निर्माण किसने किया?

प्रारंभिक साक्ष्यों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण ७वीं सदी के आरम्भ में केशरी राजाओं ने करवाया था। वहीं मंदिर के प्रमुख भागों का दिनांकन ११वीं शताब्दी किया गया है जिन्हें सोमवंशी राजा ययाति केशरी ने तब बनवाया था जब उन्होंने अपनी राजधानी जाजपुर से भुवनेश्वर स्थानांतरित की थी।

दर्शक दीर्घा से लिंगराज मंदिर का दृश्य
दर्शक दीर्घा से लिंगराज मंदिर का दृश्य

यह मंदिर स्थापत्य शैली का वह स्वर्णिम काल था जब खजुराहो के कंदरिया महादेव मंदिर एवं तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर जैसे सर्वोत्कृष्ट मंदिरों का निर्माण किया गया था।

लिंगराज मंदिर – नागर स्थापत्य शैली

भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर विश्व के विशालतम हिन्दू मंदिरों में से एक है। इसका परिसर ५२० फीट लम्बा तथा ४६५ फीट चौड़ा है। यह एक पूर्वाभिमुख मंदिर है जिसके निर्माण में बलुआ पत्थरों एवं लेटराइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है।

लिंगराज मंदिर का शिखर
लिंगराज मंदिर का शिखर

विशिष्ट कलिंग नागर स्थापत्य शैली अथवा देउल शैली में निर्मित इस मंदिर में इस शैली के सभी तत्व उपस्थित हैं। इस मंदिर की सर्वोच्च संरचना है, इसका गर्भगृह अथवा विमान। ऊँचाई के मापदंड में दूसरे क्रमांक पर इसका मंडप अथवा जगमोहन है तथा तीसरे क्रमांक पर नाट्यमंडप है। चौथे क्रमांक पर भोग मंडप है। इन सभी संरचनाओं की छतें इसी घटते क्रमांकानुसार हैं।

मंदिर के चारों ओर ऊँची भित्तियाँ हैं जिन्हें प्राकार कहा जाता है। मंदिर परिसर के भीतर लगभग १५० छोटे मंदिर भी हैं। स्थानीय तीर्थ के अनुसार यहाँ सभी तीर्थों की परंपराओं का पालन किया जाता है। इसका अर्थ है कि यह एक राजसी मंदिर होने के साथ साथ एक पवित्र तीर्थ भी है। भगवती का मंदिर परिसर के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित है। मैंने यहाँ अनेक प्राचीन शिवलिंग भी देखे थे। परिसर में कई मुक्तांगन हैं जहाँ बैठकर भक्तगण कुछ क्षण विश्राम कर सकते हैं।

मंदिर का शिखर अथवा अधिरचना १८० फीट ऊँचा है जिसे १२ शार्दुल उठाये हुए हैं। शिखर पर किया गया जटिल एवं सघन उत्कीर्णन मंदिर इतिहासकारों को भी अचंभित कर देता है। शिखर के सभी शिलाखंडों का एक एक बिंदु उत्कीर्णित है। प्रत्येक शिलाखंड अनेक कथाएं प्रस्तुत करता है।

मंदिर प्रवेशद्वार के दोनों ओर सिन्हाकृतियाँ उत्कीर्णित है जिसके कारण इस द्वार का नामकरण सिंहद्वार किया गया है।

देवी पदहरा कुण्ड

मंदिर के समक्ष देवी पदहरा कुण्ड है जहाँ तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। इसके चारों ओर अनेक छोटे मंदिर एवं कई अति-लघु मंदिर हैं।

देवी पदहरा कुण्ड
देवी पदहरा कुण्ड

कुण्ड के उस पार एक सार्वजनिक उद्यान है जहाँ एक उंचा चबूतरा है। आप जब भी इस मंदिर में आयें, इस चबूतरे पर अवश्य चढ़ें। यहाँ से सम्पूर्ण मंदिर एवं कुण्ड का अप्रतिम विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है।

देवी पदहरा कुंड का सूचना पट्ट
देवी पदहरा कुंड का सूचना पट्ट

यह मंदिर से केवल १००-१५० मीटर की दूरी पर ही है। इसलिए यहाँ आना ना भूलें। अन्यथा आप एक अद्भुत दृश्य से वंचित रह जायेंगे।

अवश्य पढ़ें: भुवनेश्वर के प्राचीन मंदिर – ओडिशा की धरोहर

लिंगराज

लिंगराज का शाब्दिक अर्थ है लिंगों के राजा। यह एक शिव मंदिर है किन्तु यहाँ भगवान शिव के हरिहर रूप की आराधना की जाती है। हरिहर भगवान शिव एवं भगवान विष्णु का संयुक्त रूप है। मंदिर के लिंग पर एक रेखा खिंची हुई है जो यह दर्शाती है कि यह दो देवताओं का संयुक्त रूप है। इस तत्व का संकेत मंदिर के शीर्ष पर फहराते ध्वज पर भी दिखाई देता है जो त्रिशूल अथवा चक्र के ऊपर स्थित ना होकर एक पिनाकी धनुष के ऊपर स्थित है। उसी प्रकार, इस मंदिर में भगवान को बिल्व पत्र एवं तुलसी दोनों चढ़ाए जाते हैं।

ग्रेनाइट पत्थर द्वारा निर्मित लिंग का व्यास लगभग ८ फीट है जिस पर कोई भी उत्कीर्णन नहीं किया गया है। यह भूमि से लगभग ८ इंच उंचा है। इसके चारों ओर काले क्लोराइट पत्थर की योनी है। इसे त्रिभुवनेश्वर भी कहा जाता है। अर्थात् तीन विश्वों के ईश्वर। इसका एक अन्य नाम है, क्रितिबासा।

कुण्ड से लिंगराज मंदिर का दृश्य
कुण्ड से लिंगराज मंदिर का दृश्य

मंदिर के लिंग को स्वयंभू लिंग माना जाता है। यह भारत के ६४ प्रमुख शिव क्षेत्रों में से एक है। कहा जाता है कि यह लिंग द्वापर एवं कलियुग में ही प्रकट हुआ है। ऐसा भी माना जाता है कि समीप स्थित बिन्दुसागर जलाशय में उस नदी का जल भरता है जिसका उद्गम इस मंदिर के नीचे से हुआ है।

परंपराओं के अनुसार जगन्नाथ पुरी की यात्रा इस एकाम्र क्षेत्र के दर्शन के अभाव में अपूर्ण मानी जाती है। यहाँ तक कि चैतन्य महाप्रभु ने भी पुरी के दर्शन से पूर्व इस परंपरा का पालन किया था।

एकाम्र कानन

पौराणिक कथाओं के अनुसार एकाम्र कानन अथवा आम का उद्यान भगवान शिव को अत्यंत प्रिय था। एकाम्र कानन उन्हें काशी से भी अधिक भाता था। यह सत्य उन्होंने देवी पार्वती के साथ साझा की। तब देवी के मन में भी इस स्थान के दर्शन की अभिलाषा उत्पन्न हुई। उन्होंने एक गोपिका के रूप में इस क्षेत्र में प्रवेश किया। जब वे इस एकाम्र क्षेत्र में विचरण कर रही थीं, तब कृति व बासा नाम के दो दैत्यों ने उनका पीछा किया। देवी के अप्रतिम रूप पर मोहित होकर उन्होंने देवी से विवाह करने की इच्छा जताई। देवी ने लजाते हुए सर्वप्रथम उनसे उन्हें अपने कन्धों पर उठाने का आग्रह किया। देवी के मूल रूप से अज्ञान दोनों दैत्य सहर्ष तत्पर हो गए। देवी को उठाते ही उनके भार के नीचे दबकर दोनों दैत्यों के प्राणपखेरू उड़ गए।

इस घटना के पश्चात पार्वती देवी को हुई तृष्णा को शांत करने के लिए भगवान शिव ने बिन्दुसागर जलाशय की रचना की तथा उसके जल से देवी की तृष्णा शांत की। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने सभी पवित्र नदियों एवं जलाशयों के जल से अनुरोध किया था कि वे बिन्दुसागर जलाशय में आयें। कहा जाता है कि गोदावरी नदी को छोड़ सभी अन्य नदियों ने भगवान शिव के अनुरोध को स्वीकार किया। इसके कारण गोदावरी नदी शापित हो गयी। उन्हें इस श्राप से तभी मुक्ति मिली जब उन्होंने भगवान शिव एवं देवी पार्वती की आराधना की।

बिन्दुसागर जलाशय

भुवनेश्वर में तीर्थ यात्रा बिन्दुसागर जलाशय के जल में स्नान कर के आरम्भ की जाती है। संक्रांत अथवा ग्रहण के दिवसों में इसके जल में स्नान करने का विशेष महत्त्व है। उसके पश्चात ही भक्तगण अनंत वासुदेव के दर्शन करते हैं जो इस क्षेत्र के अधिष्ठात्र देव हैं। उनके परिवार के सभी सदस्यों के दर्शन करने के पश्चात वे परमपूज्य त्रिभुवनेश्वर भगवान के लिंगराज मंदिर में प्रवेश करते हैं। इस मंदिर के विभिन्न अनुष्ठानों का विस्तृत विवरण ब्रह्म पुराण में दर्शाया गया है।

बिंदु सागर सरोवर
बिंदु सागर सरोवर

जगन्नाथ पुरी मंदिर के ही समान इस मंदिर का प्रसाद भी बेंत की छोटी टोकरियों में दिया जाता है। सामान्यतः शिव मंदिरों में प्रसाद देने की प्रथा नहीं होती है। चूँकि इस मंदिर में भगवान विष्णु भी विराजमान है, उन्हें प्रसाद अर्पित किया जाता है।

मंदिर के नियमों के अनुसार यहाँ सम्पूर्ण दिवस में २२ विभिन्न अनुष्ठान किये जाते हैं जिनमें जल, दुग्ध तथा भांग आदि से अभिषेक, आरती तथा भोग सम्मिलित हैं। ये अभिषेक प्रातः उन्हें निद्रा से उठाने से आरम्भ होकर उनके शयन पर समाप्त होते हैं।

लिंगराज मंदिर के विभिन्न उत्सव

शिव मंदिर होने के कारण महाशिवरात्रि इस मंदिर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। यह उत्सव इस मंदिर में सर्वाधिक धूमधाम से मनाया जाता है। भक्तगण भगवान लिंगराज की भक्ति में व्रत रखते हैं, उन्हें बेल पत्तियाँ अर्पित करते हैं तथा उनका अभिषेक करते हैं। इस दिन एक महादीप प्रज्ज्वलित किया जाता है।

श्रावण का पावन मास भगवान शिव के भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इस मास में बोल बम नाम के भक्त महानदी से जल लाकर भगवान शिव को अर्पित करते हैं। वे उत्तर भारत के कांवड़ियों से समानता रखते हैं।

प्राकार से लिंगराज मंदिर
प्राकार से लिंगराज मंदिर

अशोक अष्टमी अथवा चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन रथ यात्रा या रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस दिन मंदिर से लिंगराज एवं रुक्मिणी की मूर्तियाँ भुवनेश्वर के ही प्राचीन रामेश्वर मंदिर के दर्शन के लिए जाती हैं। यह उस परंपरा का पालन है जिसके अंतर्गत नगर के प्राचीनतम देव प्रतिमा के दर्शन करने के लिए वे मूर्तियाँ आती हैं जो अपेक्षाकृत नवीन हैं तथा अब अधिक महत्वपूर्ण हो गयी हैं।

चन्दन यात्रा २२ दिवसों का उत्सव होता है जहाँ भक्तों को चन्दन दिया जाता है। भगवान के विग्रह, पुरोहितजी एवं मंदिर के सभी कर्मचारी अपने शरीर पर चन्दन का लेप लगाकर बिन्दुसागर के जल में स्नान करते हैं।

सुन्यान दिवस का आयोजन भाद्रपद मास में किया जाता है। इस उत्सव में मंदिर से सम्बंधित सभी व्यक्ति मंदिर के प्रति अपनी निष्ठा का प्रण लेते हैं। मेरे अनुमान से इतिहास के किसी कालखंड में यह राजसी प्रथा प्रचलित रही होगी।

यात्रा सुझाव

  • इस मंदिर में केवल हिन्दू धर्म के अनुयायियों को ही प्रवेश करने की अनुमति दी जाती है। अन्य दर्शनार्थी अथवा पर्यटक दर्शक दीर्घा से मंदिर के दर्शन कर सकते हैं।
  • आदर्श स्वरूप भक्तगणों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मंदिर में दर्शन के लिए आने से पूर्व स्नान आदि से स्वच्छ होकर आयें। वे धार्मिक अथवा किसी भी अन्य प्रकार से मंदिर को अपवित्र ना करें।
  • मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ६ बजे से दोपहर १२ बजे तक तथा संध्या ३:३० बजे से रात्रि ९ बजे तक का है।
  • मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है। मंदिर के भीतर मोबाइल फोन ले जाने की भी अनुमति नहीं है।
  • यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है किन्तु इसका प्रबंधन मंदिर न्यास समिति करती है।
  • सामान्यतः सम्पूर्ण मंदिर परिसर के दर्शन के लिए २ घंटों का समय पर्याप्त है। यह अवधि भक्तगणों की संख्या के आधार पर परिवर्तित हो सकती है।
  • यह मंदिर नगर के मध्य स्थित है। यहाँ आने के लिए बस, ऑटो अथवा टैक्सी जैसे सार्वजनिक परिवहन के साधनों की पर्याप्त व्यवस्था है।
  • भुवनेश्वर ओडिशा राज्य की राजधानी होने के कारण देश के अन्य भागों से वायुमार्ग, रेलमार्ग अथवा सड़क मार्ग द्वारा सुव्यवस्थित रीति से जुड़ा हुआ है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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ओडिशा का जाजपुर इतिहास, धरोहर एवं किवदंतियां https://inditales.com/hindi/jajpur-odisha-prachin-rajdhani-itihasa/ https://inditales.com/hindi/jajpur-odisha-prachin-rajdhani-itihasa/#respond Wed, 07 Jun 2023 02:30:10 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3066

भारत एक प्राचीन भूमि है। भारत में अनेक ऐसे स्थान हैं जो प्रोटो-ऐतिहासिक काल अर्थात् प्रागैतिहासिक काल एवं इतिहास काल के मध्य से अब तक अनवरत अखंड रूप से बसे हुए हैं। हम सब अयोध्या एवं काशी जैसे प्राचीन, ऐतिहासिक एवं पवित्र स्थलों के विषय में जानते ही हैं जो सनातन काल से बसे हुए […]

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भारत एक प्राचीन भूमि है। भारत में अनेक ऐसे स्थान हैं जो प्रोटो-ऐतिहासिक काल अर्थात् प्रागैतिहासिक काल एवं इतिहास काल के मध्य से अब तक अनवरत अखंड रूप से बसे हुए हैं। हम सब अयोध्या एवं काशी जैसे प्राचीन, ऐतिहासिक एवं पवित्र स्थलों के विषय में जानते ही हैं जो सनातन काल से बसे हुए हैं। किन्तु इनके अतिरिक्त भी भारत देश में ऐसे अनेक स्थान हैं। उत्कृष्ट उदहारण है, ओडिशा की प्राचीन नगरी जाजपुर।

आज जाजपुर ओडिशा का एक जिला है। एक ओर जाजपुर आदि शक्ति बिरजा माता शक्तिपीठ की गद्दी के लिए प्रसिद्ध है, वहीं दूसरी ओर इस धरती में लोहखनिज का समृद्ध भण्डार होने के कारण यह एक महत्वपूर्ण इस्पात केंद्र है। यदि आप आरम्भ से इस क्षेत्र का इतिहास पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि भिन्न भिन्न कालखंडों में इस क्षेत्र को अनेक नामों द्वारा अलंकृत किया गया है। प्रत्येक नाम उस कालखंड में इस क्षेत्र के सार को दर्शाता है।

आप उन नामों एवं उनकी महत्ता के विषय में जानना चाहते हैं? तो आईये मेरे साथ, हम संक्षिप्त में जाजपुर के इतिहास, उसके विभिन्न नाम एवं उनकी सारगर्भिता के विषय में चर्चा करते हैं।

जाजपुर का संक्षिप्त इतिहास

बैतरणी अथवा वैतरणी नदी जाजपुर की प्राचीनतम जीवंत अस्तित्व है। यह वही पौराणिक वैतरणी नदी है जिसे सत्कर्म रूपी पुण्य द्वारा पार कर सत्धर्मी स्वर्ग पहुँचते हैं। जाजपुर में अनंतकाल से बहती हुई यह शांत नदी इस प्राचीन भूमि को पोषित कर रही है। इसके तट पर अनेक प्राचीन व पवित्र मंदिर स्थित हैं। उनके सभी महत्वपूर्ण उत्सवों में नदी के तट पर अनेक जत्रायें एवं मेले लगाए जाते हैं।

बैतरनी नदी पर स्तिथ जाजपुर
बैतरनी नदी पर स्तिथ जाजपुर

सभी प्रकार के तर्पण अनुष्ठान में इस नदी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसीलिए इसे बैतरणी तीर्थ भी कहा जाता है।

आधुनिक काल में इसे जाजपुर जिले की लम्बी सीमा के रूप में देखा जाता है।

ब्राह्मणी नदी भी एक अन्य महत्वपूर्ण नदी है जो जाजपुर के मध्य से बहते हुए इसे पोषित करती जाती है।

पौराणिक काल

यज्ञ क्षेत्र, सती पीठ, बिरजा क्षेत्र, ये सभी पौराणिक नाम हमें उस कथा का स्मरण कराते हैं जिसके अनुसार यहाँ एक प्रसिद्ध यज्ञ किया गया था।

जाजपुर स्थित बिरजा देवी शक्तिपीठ
जाजपुर स्थित बिरजा देवी शक्तिपीठ

पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा ने यहाँ स्थित ब्रह्म कुण्ड में एक यज्ञ किया था। उस यज्ञ वेदी से बिरजा देवी प्रकट हुई थी। ब्रह्मा ने स्वयं उनकी मूर्ति यहाँ प्रतिष्ठापित की थी। चूँकि इस स्थान पर देवी यज्ञ से प्रकट हुई थी, इस क्षेत्र को यज्ञपुरा नाम दिया गया था जो इसका प्राचीनतम नाम है।

नाभि गया कूप
नाभि गया कूप

ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर गयासुर की नाभि स्थित है, इसलिए इसे नाभि गया भी कहते हैं। इसी कारण इसे बिहार में स्थित गया का समकक्ष माना जाता है। अतः ये दोनों स्थान पिंड दान अथवा तर्पण के लिए प्रसिद्ध हैं।

इस क्षेत्र में श्वेत वराह का एक मंदिर है। हिन्दू पंचांग के अनुसार यह वर्तमान कल्प का नाम भी है। यहाँ सप्तमातृका के रूप में शक्ति की भी आराधना की जाती है। उनका मंदिर बैतरणी नदी के तट पर स्थित है।

महाभारत

महाभारत के वन पर्व के अनुसार पांडवों ने अपने वनवास काल में इस क्षेत्र में भी विचरण किया था। ज्येष्ठ पांडव भ्राता, युधिष्ठिर ने यहाँ एक धर्म यज्ञ का आयोजन भी किया था।

दुर्योधन की पत्नी भानुमती कलिंग की राजकुमारी थी जिसकी राजधानी राजपुर को अब जाजपुर के नाम से जाना जाता है। उनके पिता शत्रुयुध ने कौरवों की ओर से महाभारत युद्ध में भाग लिया था।

गदा क्षेत्र

ओडिशा में चार पवित्र क्षेत्र हैं जिन्हें विष्णु के चार प्रतीक चिन्हों के नाम से जाना जाता है। पुरी को शंख क्षेत्र, कोणार्क को पद्म क्षेत्र, भुवनेश्वर को चक्र क्षेत्र तथा बिरजा के क्षेत्र जाजपुर को गदा क्षेत्र कहा जाता है।

प्रागैतिहासिक काल

जाजपुर में अनेक पुरातात्विक स्थल हैं जो प्रागैतिहासिक काल के विभिन्न युगों से संबंधित हैं। उदहारण के लिए, दर्पणगढ़, सुनामुखी तन्गेर, रानीबंदी, धानमहल तथा महागिरी तन्गेर में छः मुक्ताकाश पुरापाषाण स्थल हैं।

सुभा स्तम्भ - जाजपुर
सुभा स्तम्भ – जाजपुर

इन प्रागैतिहासिक स्थलों से खुरचनी, छेनी, पत्रक, चाकू के फल जैसी अनेक कृतियाँ प्राप्त हुई हैं।

चंडीखोल में एक लौहयुग के पुरातात्विक स्थल की खोज हुई है। यहाँ लोहा गलाने के विविध यंत्रों के अतिरिक्त मिट्टी के अनेक प्रकार के पात्र भी प्राप्त हुए हैं।

ऐतिहासिक काल

जाजपुर के इतिहास में अनेक कालावधियों में यह इस क्षेत्र की राजधानी रह चुकी है। विभिन्न कालावधियों में उसकी सीमाओं एवं उसके नामों में परिवर्तन होता रहा है, जैसे कलिंग, उत्कल, ओड्र, तोशाली, ओडिशा आदि। जाजपुर इन सभी की राजधानी रही है। इस क्षेत्र में अनेक राजे-महाराजे आये व चले गए किन्तु जाजपुर ने दीर्घ काल तक उनकी राजधानी होने का मान बनाए रखा।

कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात विभिन्न राजाओं की ३२ पीढ़ियों ने कलिंग पर राज किया। उसके पश्चात, लगभग ४थी सदी के आसपास मगध के नंदवंश ने इस पर अधिपत्य जमाया। मौर्य साम्राज्य के आरम्भ होते ही यह पुनः एक शक्तिशाली स्वतन्त्र राज्य बन गया।

मौर्य सम्राट अशोक का कलिंग युद्ध अनेक कारणों से जाना जाता है। जाजपुर में उनके शासनकाल में बौद्ध धर्म का आगमन हुआ जो एक दीर्घ काल तक इस क्षेत्र में फलता-फूलता रहा।

मौर्य साम्राज्य के पश्चात इस क्षेत्र पर चेदि राजाओं ने अपना अधिपत्य स्थापित किया। उन्होंने वर्तमान भुवनेश्वर के निकट स्थित शिशुपालगढ़ नामक स्थान को अपनी राजधानी घोषित की। जाजपुर उनके साम्राज्य का भाग नहीं बचा था क्योंकि प्रथम एवं द्वितीय सदी में उत्तर कलिंग पर शासन करते खारवेल ने जाजपुर को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। इसके पश्चात, प्रथम सहस्त्राब्दी के आरंभिक सदियों में वह कुषाण साम्राज्य के अंतर्गत आ गया जिसने अपने जागीरदारों के माध्यम से इस क्षेत्र पर राज किया। ये जागीरदार इस क्षेत्र के १३ मुरुंड राजा थे।

रत्नागिरी बौद्ध मठ
रत्नागिरी बौद्ध मठ

गुप्त वंश ने भी इस क्षेत्र पर शासन किया था, इस विषय में ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है किन्तु उनकी संस्कृति का प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर होता है। जानकारों का ऐसा मानना है कि बिरजा माता की प्रतिमा का दिनांकन इसी कालखंड से संबंध रखता है। इस क्षेत्र से गुप्त वंश की स्वर्ण मुद्राएँ भी उत्खनित की गयी हैं। ऐसी मान्यता है कि गुप्त वंश ने रत्नागिरी एवं ललितगिरी में स्थित बौद्ध मठों की स्थापना के लिए वित्तीय भार भी वहन किया था।

छठी शताब्दी में पृथ्वी विग्रह ने इस क्षेत्र पर शासन किया, वहीं सातवीं शताब्दी के आरम्भ में इस क्षेत्र को हर्षवर्धन के शासन के अंतर्गत ले लिया गया। उस समय इस क्षेत्र को ओड्र विसया कहा जाता था जो कुछ अन्य नहीं, अपितु विरजा मंडल अथवा जाजपुर ही है।

७वीं सदी के प्रसिद्ध यात्री व्हेन त्सांग ने जाजपुर का भ्रमण किया था। उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण में इसे जाजपुर ही कहा है। उनके यात्रा संस्मरण के अनुसार इस क्षेत्र के स्थानिक ऊँचे एवं श्यामवर्ण थे जिनकी अध्ययन में प्रगाढ़ रूचि थी। उन्होंने अपने संस्मरण में यहाँ १०० से अधिक बौद्ध मठों एवं ५० से अधिक हिन्दू मंदिरों की उपस्थिति का भी उल्लेख किया है।

८वीं सदी के मध्य में जाजपुर में भौमकार वंश अधिक शक्तिशाली राजवंश के रूप में उभरने लगा था। उन्होंने आधुनिक ओडिशा के अधिकांश भागों एवं उसके पार भी अनेक क्षेत्रों पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। इस राजवंश की विशेषता है कि २०० वर्षों से अधिक की कालावधि में इस क्षेत्र पर जिन १८ भौमकार शासकों का अधिपत्य रहा, उनमें ६ शासक स्त्रियाँ थी। उनमें से प्रथम महिला शासक का नाम त्रिभुवना महादेवी था। मुझे ज्ञात नहीं कि इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य राजवंश में इतनी बड़ी संख्या में महिला शासक रही होंगी।

इस काल में जाजपुर को गुहादेव पताका अथवा गुहेश्वर पताका कहा जाता था तथा उस काल को भौम काल कहा जाता था। अनेक ताम्र अभिलेखों में इसके साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उस कालखंड में जाजपुर ने संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगती की थी। विविध कलाक्षेत्र, वास्तु एवं स्थापत्य शैली, साहित्य, भाषा एवं सामाजिक रूपरेखा आदि में उनका सराहनीय योगदान रहा।

ऐसी मान्यता है कि इसी काल में ओडिशा की उड़िया भाषा का उद्भव हुआ था।

जजाति केशरी तथा जाजपुर का स्वर्णिम काल

१०वीं सदी के मध्यकाल में भौमकार साम्राज्य दक्षिण कोशल के जजाति प्रथम के हाथों पराजित हो गया। कुछ काल अराजकता में व्यतीत होने के पश्चात सोमवंशी राजवंश के चंडीहर राजा का साम्राज्य अधिक शक्तिशाली हो गया। चंडीहर स्वयं को जजाति द्वितीय मानता था। कालांतर में उन्हें जजाति केशरी कहा गया। इतिहास जजाति केशरी को अनेक मंदिरों के निर्माणकर्ता के रूप में स्मरण करता है। उन्होंने विरजा मंदिर, वराह मंदिर एवं शुभस्तंभ जैसे अनेक प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया था।

उन्होंने अपनी राजधानी का नाम परिवर्तित कर अभिनव जजातिनगर कर दिया था। कालांतर में उनके पुत्र उद्योत केशरी ने भुवनेश्वर में लिंगराज मंदिर का निर्माण करवाया।

राजा जजाति अपने साम्राज्य का प्रभाव स्थापित करने के लिए यहाँ दशाश्वमेध यज्ञ करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने उत्तर भारत के कन्नौज से १०,००० ब्राह्मणों को यहाँ आमंत्रित किया। उन्हें अपने राज्य में स्थाई रूप से बसाने के लिए भूमि अनुदान प्रदान किये जिसे संसना कहा जाता है। आज भी इस क्षेत्र के पुरोहित अपने मूल स्थान का संबंध इसी स्थानांतरगमन से जोड़ते हैं।

आज बैतरणी नदी के तट पर स्थित दशाश्वमेध घाट जजाति केशरी द्वारा किये गए इसी महान यज्ञ का स्मरण कराता है।

ब्रह्मकुंड - जाजपुर
ब्रह्मकुंड – जाजपुर

१२वीं सदी के आरंभ में पूर्वी गंग वंश ने जाजपुर को अपने अधिपत्य में ले लिया। किन्तु तब भी जाजपुर लगभग सम्पूर्ण सदी के लिए उनकी राजधानी बना रहा। तत्पश्चात उन्होंने कटक को अपनी राजधानी घोषित की तथा अफगान आक्रमणकारियों से निपटने के लिए सांस्कृतिक व राजनैतिक राजधानी जाजपुर को परिवर्तित कर सेना की छावनी बना दी।

१६वीं सदी में काला पहाड़ ने इस क्षेत्र पर आक्रमण कर इसका घोर विनाश किया। उसने इस क्षेत्र के लगभग सभी मंदिर नष्ट कर दिए। मूर्तियों को भंग कर उन्हें बैतरनी नदी में फेंक दिया।

आगामी कुछ वर्षों में राजस्थान के राजा मानसिंग एवं नागपुर के भोंसले मराठाओं ने कुछ मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया। उनमें जगन्नाथ मंदिर, सप्तमातृका मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर आदि प्रमुख मंदिर सम्मिलित हैं। १९वीं सदी के आरम्भ से भारतीय स्वातंत्र्य तक यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधिपत्य में रहा।

जाजपुर के स्थानिकों ने भारत स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने गांधीजी द्वारा दिए गये सभी आवाहनों में भाग लिया था।

जाजपुर – एक सांस्कृतिक एवं राजनैतिक राजधानी

विभिन्न पुरातात्विक स्थलों पर किये गए उत्खननों में प्राप्त सिक्के इस ओर संकेत करते हैं कि जाजपुर विभिन्न कालखंडों में व्यापार मार्ग का एक भाग था।

हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म, ये तीनों प्राचीन भारतीय धर्म जाजपुर में फले-फूले हैं। कुछ कालखंडों में ये तीनों धर्म एक साथ अस्तित्व में थे। जाजपुर जिले में स्थित कई विशाल बौद्ध मठ इसका जीवंत प्रमाण हैं, जैसे उदयगिरी, रत्नागिरी, ललितगिरी तथा लंगुड़ी पहाड़ अथवा पुष्पगिरी।

आधुनिक जाजपुर

जाजपुर जिले को सन् १९९३ में कटक जिले से विभक्त कर निर्मित किया गया था। वर्तमान में यह ओडिशा का सर्वाधिक सघन वसाहत का जिला है।

इस क्षेत्र में स्थित खनन उद्योग द्वारा हमें क्रोमाइट (एक प्रकार का कच्चा लोहा), लौह अयस्क एवं निकल धातु जैसे खनिज प्राप्त होते हैं। वस्तुतः, क्रोमाइट खनिज उत्पादन में जाजपुर सर्वाधिक अग्रणी खनन स्थल है। क्रोमाइट खनिज का प्रयोग इस्पात जैसे अनेक औद्योगिक उत्पादनों में किया जाता है।

कलिंग नगर एकीकृत औद्योगिक संकुल (Kaling Nagar Integrated Industrial Complex) एक इस्पात केंद्र है जहाँ अनेक अनेक छोटे-बड़े इस्पात कारखाने हैं। एक प्रकार से जाजपुर लौह अयस्क प्रगलन की अपनी प्राचीन धरोहर को अब भी संजोये हुए हैं।

जाजपुर में इस प्रकार के अनेक आधुनिक कालीन उद्योग तथा टसर रेशम बुनाई, काष्ट कारीगरी एवं शैल उत्कीर्णन जैसे अनेक पारंपरिक उद्योग सह-अस्तित्व में हैं। हम इनके विषय में आगामी संस्करणों में विस्तार में चर्चा करेंगे। कृषि उद्योग एवं खनन उद्योग इस जिले के विशालतम आर्थिक कारक हैं। भविष्य में यह देश के महत्वपूर्ण जलमार्गों के स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होगा।

कुल मिलाकर जाजपुर अपनी समृद्ध धरोहर एवं विविध इतिहास के अनेक परतों से सज्ज एक प्राचीन भूमि है जिसे प्रकृति ने संपन्न प्राकृतिक संसाधनों से पोषित किया है। यहाँ अनेक प्रकार के भारी उद्योगों एवं कुटीर उद्योगों का सर्वोत्तम मेल है। ओडिशा के इस अनछुए गहने में जिज्ञासु यात्रियों एवं पर्यटकों के लिए कई माणिक्य छुपे हुए हैं जिनकी खोज में वे जाजपुर की यात्रा कर सकते हैं। यह आपके लिए अवश्य एक रोचक अनुभव सिद्ध होगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कला भूमि – भुवनेश्वर ओडिशा का शिल्प संग्रहालय https://inditales.com/hindi/kala-bhumi-sangrahalay-bhubaneshwar-odisha/ https://inditales.com/hindi/kala-bhumi-sangrahalay-bhubaneshwar-odisha/#respond Wed, 12 Apr 2023 02:30:25 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3008

कला भूमि – ओडिशा शिल्प संग्रहालय आधुनिक काल के सर्वोत्कृष्ट संग्रहालयों में से एक है जहां ओडिशा की उत्कृष्ट विरासत को कला एवं शिल्प के रूप में सर्वोत्तम रूप से प्रदर्शित किया गया है। भुवनेश्वर नगर में स्थित यह संग्रहालय अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रहालय है जिसका अपने ओडिशा यात्रा के समय आप अवश्य अवलोकन करें। ओडिशा […]

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कला भूमि – ओडिशा शिल्प संग्रहालय आधुनिक काल के सर्वोत्कृष्ट संग्रहालयों में से एक है जहां ओडिशा की उत्कृष्ट विरासत को कला एवं शिल्प के रूप में सर्वोत्तम रूप से प्रदर्शित किया गया है। भुवनेश्वर नगर में स्थित यह संग्रहालय अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रहालय है जिसका अपने ओडिशा यात्रा के समय आप अवश्य अवलोकन करें।

ओडिशा के पारंपरिक शिल्प एवं कला के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त करने एवं इस अद्भुत कला संग्रह को सराहने में आप कुछ घंटे आसानी से व्यतीत कर सकते हैं।

कला भूमि – ओडिशा शिल्प संग्रहालय

भुवनेश्वर नगर की सीमा पर स्थित इस निजी संग्रहालय में भूतपूर्व कलिंग राज्य की विरासत दर्शाती कला एवं शिल्प की सर्वोत्कृष्ट कलाकृतियों का अद्भुत संग्रह है।

कला भूमि भुवनेश्वर में लघु आकृति
राधा कृष्ण हाथी की सवारी करते हुए

सप्ताह के सातों दिवस खुले इस संग्रहालय में प्रतिदिन दर्शन समयावधि प्रातः १० बजे से सायं ५.३० बजे तक है। संध्या के समय टिकट खिड़की १५ मिनट पूर्व, अर्थात् ५.१५ बजे बंद हो जाती है। यह ध्यान रखें कि जिस दिन आप यहाँ आयें, वह भारत का कोई प्रमुख राष्ट्रीय अवकाश दिवस ना हो क्योंकि उन दिवसों में यह संग्रहालय अतिथियों के लिए बंद रहता है।

भुवनेश्वर के केंद्र से लगभग ८ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित इस संग्रहालय के अवलोकन के साथ आप उदयगिरी एवं खंडगिरी की गुफाओं के भी दर्शन कर सकते हैं। ये गुफाएं संग्रहालय से केवल ३ किलोमीटर दूर स्थित हैं। १२ एकड़ से अधिक क्षेत्रफल में फैले इस संग्रहालय का उद्घाटन सन् २०१८ में ही हुआ है। इस परिक्षेत्र को पोखरिपुट कहते हैं।

कैमरा

संग्रहालय में पहुंचते ही इसका सुन्दर परिसर आपका मन मोह लेगा। हरा-भरा एवं सुव्यवस्थित परिसर, वाहनों  के लिए भरपूर व सुनियोजित व्यवस्था, अतिथियों की मनःपूर्वक सहायता करते कर्मचारी, ये सभी आपको संग्रहालय में प्रवेश से पूर्व ही प्रसन्न कर देंगे । किन्तु अन्य संग्रहालयों के समान इनके भी कुछ विचित्र नियम/प्रणालियाँ/दिशानिर्देश/नियंत्रण हैं जो आश्चर्यजनक हैं।

जैसे, संग्रहालय में पधारे अवलोकनकर्ताओं को कैमरे भीतर ले जाने की अनुमति नहीं दी जाती, ना ही किसी प्रकार से उनके द्वारा चित्र अथवा चलचित्र लेने की अनुमति होती है। उससे अधिक आश्चर्यजनक यह है कि “कैमरे” ले जाने की अनुमति नहीं है, किन्तु मोबाइल फ़ोन ले जाने, उसके कैमरे से चित्र अथवा विडियो लेने पर वे कोई आपत्ति नहीं करते।

संग्रहालय के विभाग

संग्रहालय में पर्यटकों के लिए एक श्रव्य/दृश्य विभाग है जहां अवलोकनकर्ता ओडिशा की कला एवं शिल्प से सम्बंधित अनेक छोटे छोटे चलचित्र देख सकते हैं तथा उन्हें समझ सकते हैं। यदि शिल्प एवं कला की सूक्ष्मताओं को जानने एवं समझने में आपकी रूचि हो तथा आपके पास पर्याप्त समय भी हो तो यह विभाग आपके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध होगा।

संग्रहालय के प्रमुख विभाग वे हैं जहां ओडिशा राज्य के सर्वोत्कृष्ट शिल्प कौशल को प्रदर्शित करती कलाकृतियों के उत्कृष्ट नमूने रखे हुए हैं। ये दीर्घाएं सुव्यवस्थित, सुदीप्तमान, उत्तम रूप से प्रस्तुत, संगृहीत एवं प्रदर्शित हैं। यदि आपके मस्तिष्क में कोई प्रश्न अथवा जिज्ञासा हो तो यहाँ के कर्मचारी उसके विषय में जानकारी देने तथा आपकी जिज्ञासा शांत करने में तत्पर रहते हैं।

निकास के निकट स्मारिकाओं की एक उत्तम दुकान है जहाँ से आप सीधे स्थानिक कलाकारों द्वारा प्रमाणित कलाकृतियाँ, हथकरघे द्वारा निर्मित वस्तुएं, हस्तशिल्प इत्यादि ले सकते हैं।

हस्तशिल्प एवं हथकरघा दीर्घाएँ

ओडिशा कला संग्रहालय की कला भूमि में दीर्घाओं को राज्य के विभिन्न विरासती कलाशैलियों के अनुसार अनेक विभागों में विभाजित किया है। इस संग्रहालय में प्रमुखता से स्थानीय परम्पराओं, इतिहास, विरासत, पुरी के जगन्नाथ त्रिदेव एवं भगवान कृष्ण से सम्बंधित अनेक कलाकृतियों एवं कलाशैलियों की प्राधान्यता है।

सूक्ष्म चित्रकारी – कला भूमि

इस दीर्घा में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग कर चित्रित की गयी सूक्ष्म चित्रकारियों की प्रदर्शनी है। इन चित्रों में प्राचीनकाल की अनेक कथाएं सन्निहित हैं। यदि प्राकृतिक रंगों, सूक्ष्म चित्रकारियों एवं महान पौराणिक कथाओं की विरासत में आपकी रूचि हो तो आपका अधिकाँश समय इस दीर्घा में व्यतीत होगा। यहाँ ऐसे अनेक चित्र प्रदर्शित हैं। प्रत्येक चित्र का सूक्ष्मता से अवलोकन आवश्यक है। अतः अपने अपने चश्मे धारण कर सज्ज हो जाईये। तभी आप चित्रकार के कलाकौशल की सराहना कर सकेंगे।

सूक्ष्म चित्रकारी से बने राधा कृष्ण
सूक्ष्म चित्रकारी से बने राधा कृष्ण

मेरा विश्वास है, आप उनके गुणों के कायल हो जायेंगे। आप सोच में पड़ जायेंगे कि बिना किसी आवर्धक लेन्स अथवा चश्मे के इन कारीगरों ने ऐसी कलाकृतियाँ कैसे रची हैं! बिना किसी अतिरिक्त सुविधाओं के, चित्रों में इतनी सूक्ष्मता पाना किसी दैवी उपलब्धि से कम नहीं है। इन चित्रों के विषयवस्तु प्रमुखता से भगवान कृष्ण, महाभारत के दृश्य, सामाजिक जीवन तथा प्राचीन काल के सम्राटों के जीवन पर आधारित हैं।

योद्धा रानी घुड़सवारी करते हुए - लघु चित्रकारी
योद्धा रानी घुड़सवारी करते हुए – लघु चित्रकारी

यहाँ चित्रों की कुछ ऐसी श्रंखलायें हैं जिनके द्वारा सूक्ष्म चित्रकारी प्रणाली में प्रयुक्त प्रत्येक चरण को समझा जा सकता है। चित्रों में प्रयुक्त प्राकृतिक रंग सदियों पश्चात भी अखंडित हैं, यह अत्यंत आश्चर्यजनक है। सम्पूर्ण भारत के अनेक संग्रहालयों में संगृहीत ऐसे अप्रतिम सूक्ष्म चित्रों की संख्या एक लाख से अधिक में होगी। अनेकों ऐसे चित्र अब नष्ट भी हो गए हैं।

कृष्ण की कथा कहता एक पट्टचित्र
कृष्ण की कथा कहता एक पट्टचित्र

काठ के उत्कीर्णित चौखट एवं पट्टिकाएं

कला भूमि ने ओडिशा के कुछ विरासती भवनों तथा इमारतों के काठ के मुख्य द्वारों, उनके चौखटों तथा पट्टियों को उत्तम रूप से संरक्षित किया है तथा उन्हें इस संग्रहालय में प्रदर्शित किया है। वे सभी उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित हैं। उन्हें देख अचरज होता है कि कैसे समय, वातावरण, मौसम एवं कदाचित उपेक्षा की मार सहने के पश्चात भी वे उत्तम स्थिति में हैं।

काष्ठ के द्वारों के उत्कीर्णित भाग
काष्ठ के द्वारों के उत्कीर्णित भाग

उन्हें देख आप हमारे पूर्वजों के काष्ठ उत्कीर्णन कौशल के कायल हो जायेंगे। इन वस्तुओं को गढने के लिए टीक जैसे उत्तम लकड़ी का प्रयोग किया गया होगा। उन्हें बनाने से पूर्व कारीगरों की मंशा भी यही रही होगी कि वे वर्षानुवर्ष उत्तम स्थिति में रहें। हमारे पूर्वजों की यही मनःस्थिति एवं जीवनमूल्य अब इक्कीसवीं सदी में दृष्टिगोचर नहीं होते।

आप स्मरण कीजिये कि आपने ऐसे ही उत्कीर्णित द्वार, चौखट अथवा पट्टिकाएं आपके नगर/गाँव के किसी जीर्ण भवन अथवा इमारत में देखी होंगी। ऐसी विरासतों का संरक्षण करना आवश्यक है। उन्हें किसी स्थानिक संग्रहालय में संरक्षित करने का महान कार्य अवश्य करें।

लाख की कलाकृतियाँ

लाख एक प्राकृतिक राल है जो सूक्ष्म कीटों द्वारा बनाया जाता है। यह प्रणाली प्राकृतिक रूप से जंगली है किन्तु अब इनकी खेती भी की जाती है। संभवतः लाखों कीटों द्वारा उत्पन्न होने के कारण इसे लाख कहा जाता है। यह एक अति उपयोगी राल है जिसका प्रयोग अनेक वस्तुओं को बनाने में प्राकृतिक सामग्री के रूप में किया जाता है।

लाख से बने गुड्डे गुडिया - कला भूमि भुवनेश्वर
लाख से बने गुड्डे गुडिया – कला भूमि भुवनेश्वर

जनसामान्य के लिए चूड़ियों में लाख का प्रयोग सर्वविदित है। भारत में हैदराबाद का लाड बाजार लाख की चूड़ियों एवं अन्य वस्तुओं के लिये अत्यंत लोकप्रिय है। कच्चे माल के रूप में लाख का उत्पादन करने में भारत का स्थान विश्व भर में प्रथम है। कला भूमि में आप लाख से निर्मित अनेक सजावटी कलाकृतियाँ देखेंगे।

यहाँ आप एक ओर लाख से बनी गुड़ियां तथा अन्य खिलौने देखेंगे तो दूसरी ओर अनेक ऐसी सजावटी कलाकृतियाँ हैं जिनका प्रयोग भवनों की साज-सज्जा में किया जाता है।

चाँदी में फिलिग्री प्रणाली ने बनी कलाकृतियाँ

चाँदी के आभूषणों का श्रृंगार में अपना विशेष स्थान है। सूक्ष्म कारीगरी एवं उत्कीर्णन में चाँदी अत्यंत लोकप्रिय है क्योंकि चाँदी एक लचीला धातु है। भुवनेश्वर की जुड़वा नगरी कटक, चाँदी पर सूक्ष्म फिल्ग्री नक्काशी करने वाले उत्कृष्ट कारीगरों का गढ़ है। निस्संदेह ओडिशा के इस संग्रहालय में भी फिल्ग्री प्रणाली से उत्कीर्णित कुछ सर्वोत्कृष्ट कलाकृतियों का संग्रह होगा।

चंडी में फिल्ग्री से बनी मोरनी के आकार में नाव
चंडी में फिल्ग्री से बनी मोरनी के आकार में नाव

यहाँ फिल्ग्री प्रणाली से उत्कीर्णित पाल-नौका एक अप्रतिम कलाकृति है जिसमें वायु की शक्ति का प्रयोग कर नौका को चलाने एवं निर्देशित करने के लिए दंड पर पाल बने हुए हैं। दोनों छोरों पर मोर की आकर्षक छवियाँ हैं। यह नौका हमें इस क्षेत्र के प्राचीनकालीन समुद्रीय इतिहास का स्मरण कराती है।

फिल्ग्री चांदी से बना रथ - कला भूमि भुवनेश्वर
फिल्ग्री चांदी से बना रथ

फिल्ग्री प्रणाली में उत्कीर्णित एक आकर्षक घोड़ा-रथ है जो हमें महाभारत युद्ध एवं भागवत गीता का स्मरण करती है।

फिल्ग्री में बर्तन और साज सज्जा का सामान
फिल्ग्री में बर्तन और साज सज्जा का सामान

फिल्ग्री उत्कीर्णन पद्धति से ही बनी अनेक अन्य सुन्दर वस्तुएं भी है जो आपका मन मोह लेंगी, जैसे आभूषण, रसोईघर के पात्र, दोने इत्यादि तथा अन्य घरेलू सामान।

चित्रित नारियल एवं पात्र

सुन्दर चित्रकारी लिए मिटटी का घड़ा
सुन्दर चित्रकारी लिए मिटटी का घड़ा

प्राचीन काल में चित्रकला के कौशल से युक्त कलाकार, माध्यम के रूप में जो वस्तु आसानी से उपलब्ध हो जाती थी उन्ही के द्वारा अपने कला कौशल का प्रदर्शन कर लेते थे। उदहारण के लिए जो प्राकृतिक रंग उपलब्ध होते थे उनसे चित्रकारी करते थे। मिट्टी के पात्र, घड़े इत्यादि तथा सूखे नारियल का चित्रफलक के रूप में प्रयोग कर उन पर अप्रतिम चित्रकारी कर लेते थे।

नारियल के खोल पर चित्रकारी
नारियल के खोल पर चित्रकारी

शिल्पकला, चित्रकला अथवा किसी भी अन्य कला को सीखने एवं उनका प्रदर्शन करने के लिए एक सच्चे कलाकार को किसी विशेष वस्तु की कदापि आवश्यकता नहीं होती, इस तथ्य का सटीक उदहारण है यह संग्रहालय, जहां विभिन्न वस्तुओं पर अप्रतिम चित्रकारी कर उन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया है।

पारंपरिक हथकरघा

पारंपरिक हथकरघे की बुनाई के कुछ सर्वोत्कृष्ट उदहारण आप ओडिशा में देख सकते हैं। उनको समर्पित प्रदर्शनी दीर्घा इस संग्रहालय की विशालतम दीर्घा है। ओडिशा के रेशमी एवं सूती, दोनों प्रकार के हस्त निर्मित साड़ियों के कुछ विशेष प्रकार विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। उनमें इकत, बांधा, पसपल्ली इत्यादि साड़ियों के प्रशंसक विश्व भर में हैं।

ओडिशा की पारंपरिक हथकरघे की बुनाई
ओडिशा की पारंपरिक हथकरघे की बुनाई

प्राचीन काल में साहसी ओडिया सधबा पुआ अर्थात् व्यापारी गण दक्षिण-पूर्वी एशिया, श्री लंका एवं अन्य देशों की समुद्र मार्ग से यात्रा करते थे तथा सर्वोत्कृष्ट हस्त करघे में बुने वस्त्रों का व्यापार करते थे।

चिरस्थायी, दीर्घकालीन, आधुनिक, हस्तनिर्मित, कालनिरपेक्ष, पर्यावरण अनुकूल तथा अनेक ऐसे विरासती बुनाई तकनीक से बुने वस्त्रों को यहाँ प्रदर्शित किया गया है।

कला भूमि में उत्कीर्णित व चित्रित काठ मुखौटे

काठ के पारंपरिक मुखौटे
काठ के पारंपरिक मुखौटे

गत शताब्दी एवं उससे पूर्व काल में ऐतिहासिक पात्रों एवं घटनाओं को नाट्य प्रदर्शन में दर्शाने के लिए काठ के मुखौटों का एक महत्वपूर्ण भाग होता था। कला भूमि में उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित व विभिन्न रंगों में चित्रित ऐसे अनेक प्रकार के आकर्षक मुखौटे प्रदर्शित किया गए हैं।

आदिवासी आभूषण

आदिवासी आभूषण - कला भूमि भुवनेश्वर
आदिवासी आभूषण – कला भूमि भुवनेश्वर

ओडिशा अनेक आदिवासी जनजातियों का निवास स्थान है। वे अनेक प्रकार के पारंपरिक चाँदी एवं धातुई आभूषण बनाते व धारण करते हैं। संग्रहालय में प्रदर्शित ऐसे आभूषणों के संग्रह से आप उनके उत्तम कला कौशल का अनुमान सहज ही लगा सकते हैं। यहाँ मैं यह अवश्य उल्लेख करना चाहूंगी कि अदिवासी पारंपरिक कलाकृतियों का इससे कहीं अधिक विशाल एवं विस्तृत संग्रह भुवनेश्वर के आदिवासी संग्रहालय में है।

आदिवासिओं के धातु के बर्तन
आदिवासिओं के धातु के बर्तन

दैनन्दिनी उपयोग के बर्तन एवं पात्रों की प्रदर्शनी अत्यंत रोचक व अनूठी है। यहाँ रखे कुछ अति विशाल पात्र उत्सवों एवं विशेष अवसरों में सामूहिक रसोई की ओर संकेत करते हैं।

संग्रहालय में प्रदर्शित सभी वस्तुएं अत्यंत रोचक हैं। इन्हें सूक्ष्मता से, भरपूर समय देते हुए, ध्यान पूर्वक निहारे। आपको अनेक ऐसी वस्तुएं दृष्टिगोचर होंगी जो आपको अचरज में डाल देंगी।

लाल पकी मिट्टी टेराकोटा की कलाकृतियाँ

मृणमूर्तियाँ
मृणमूर्तियाँ

आप सोच रहे होंगे कि संग्रहालय की अनेक उत्कृष्ट वस्तुओं का मैंने उल्लेख कर दिया है किन्तु अब तक मैंने टेराकोटा का उल्लेख कैसे नहीं किया, जबकि टेराकोटा एक अत्यंत सस्ता, प्रचलित तथा सरलता से ढलने वाला पदार्थ है। तो इस संग्रहालय में भी पदार्थ के रूप में टेराकोटा कैसे पीछे रह सकता है?

जी हाँ, इस संग्रहालय में भी टेराकोटा में निर्मित कुछ अत्यंत आकर्षक कलाकृतियाँ प्रदर्शित हैं।

ताड़ के पत्ते पर चित्रकारी – पट्टचित्र

ताड़ के पत्ते पर चित्रकारी
ताड़ के पत्ते पर चित्रकारी

मैंने पुरी के रघुराजपुर में रहनेवाले पट्टचित्र कलाकारों पर एक संस्करण पूर्व में प्रकाशित किया है। पट्टचित्र कला को समझने के लिए आप वह संस्करण “रघुराजपुर का पट्टचित्र, शिल्पग्राम  पुरी- ओडिशा” अवश्य पढ़ें। इस संग्रहालय में ताड़ के पत्तों पर किये गए कुछ अति उत्कृष्ट चित्र प्रदर्शित हैं।

शैल उत्कीर्णन

प्रस्थर में गढ़े जगन्नाथ
प्रस्थर में गढ़े जगन्नाथ

शिलाओं को सर्वोत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित करने का सर्वोत्तम उदहारण कोणार्क के सूर्य मंदिर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकता। इसमें शंका नहीं कि शिलाओं को उत्कीर्णित करने के शिल्प कौशल के लिए ओडिशा राज्य अत्यंत लोकप्रिय रहा है। भगवान जगन्नाथ का प्रिय स्थान होने के कारण यहाँ उनकी अनेक मूर्तियाँ हैं। कोणार्क के सुप्रसिद्ध चक्र के साथ अनेक अन्य उत्कृष्ट शिल्प भी यहाँ प्रदर्शित हैं।

राष्ट्रीय मार्ग पर कोणार्क के उत्कीर्णित शैल चक्र के अनेक सुन्दर प्रतिरूपों ने भी हमारा मन मोह लिया था।

घंटा धातु – ढोकरा धातुई कला

घंटा धातु पर ढोकरा धातुई कला में शिल्प किया हुआ एक विशाल सांड है जिस पर अति सूक्ष्म नक्काशी है। साथ ही जटिल आकृतियों से उत्कीर्णित अनेक गज मुख भी इस संग्रहालय में प्रदर्शित किये हैं। ये ढोकरा धातुई कला के कुछ उत्कृष्ट विरासत हैं।

ढोकरा शिल्प में नंदी बैल
ढोकरा शिल्प में नंदी बैल

घंटा धातु एक कठोर मिश्र धातु है जिसमें ताम्बा, जस्ता एवं रांगा(टिन) धातु का सम्मिश्रण होता है। इसका अधिकतर प्रयोग मंदिर की घंटियाँ बनाने में किया जाता है। स्थानीय भाषा में इसे कान्ह कहा जाता है। भुवनेश्वर के आसपास के जिले इस धातु पर किये शिल्प कौशल के लिए प्रचलित हैं। इस कला को भारत में ढोकरा धातुई कला कहा जाता है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त नृत्य करती कन्या की मूर्ति इस धातुई कला का अनोखा नमूना है।

ढोकरा शिल्प में गजमुख
ढोकरा शिल्प में गजमुख

इस कला का नाम बंजारा जनजाति ढोकरा दामर पर पड़ा है जो ओडिशा एवं अन्य सटे राज्यों के अनेक क्षेत्रों के निवासी थे। ५००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन, ढोकरा अलोह अयस्क कला में मोम-ढलाई तकनीक का प्रयोग कर मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।  ढोकरा कलाकृतियाँ एवं मूर्तियाँ देश-विदेश में अत्यंत लोकप्रिय हैं।

एकताल शिल्प और कला का गाँव- छत्तीसगढ़” के विषय में पढ़ें। राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत ढोकरा कलाकार श्रीमती बुधियारिन देवी के विषय में जानें।

सोलापीठ के हस्तशिल्प (भारतीय काग)

शोला अथवा सोला एक पौधा है जो ओडिशा एवं बंगाल के आर्द्र भूमि के दलदल में उगता है। इसके तने के भीतरी भाग को सुखाया जाय तब यह दुधिया सफ़ेद रंग का मुलायम व अत्यंत हल्का पदार्थ बनता है। इसे सोलापीठ अथवा भारतीय काग कहते है। इस पदार्थ को अत्यंत पवित्र माना जाता है। यह देवी देवताओं की प्रतिमाओं को सजाने व वर-वधु के मुकुट इत्यादि बनाने में  उपयोग में लाया जाताहै। वर्तमान  में कारीगर इससे कई सजावटी वस्तुएं  भी बनाने लगे हैं।

सोलापीठ में माँ दुर्गा
सोलापीठ में माँ दुर्गा

यह थर्मोकोल की तरह दिखने वाला, परन्तु प्राकृतिक पदार्थ है जो लचीलापन, संरचना, चमक व झिर्झिरापन में उससे कई गुना उत्तम है। यह थर्मोकोल से विपरीत, प्राकृतिक रूप से नश्वर पदार्थ है। अतः यह कलाकारों का प्रिय व हस्तकला योग्य पदार्थ है। सोलापीठ में निर्मित भगवान जगन्नाथ एवं देवी दुर्गा की प्रतिमाएं सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सुगठित कलाकृतियाँ हैं। यह ओडिशा एवं बंगाल की कला की उत्कृष्ट स्मारिकाएं हैं।

सोलापीठ में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा - कला भूमि भुवनेश्वर
सोलापीठ में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा

पुरी के जगप्रसिद्ध रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ त्रिदेव के भव्य मुकुट से लेकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाये जाने वाले बोइता बन्दना(बाली यात्रा उत्सव) में प्रयुक्त नौकाओं की निर्मिती में शोलापीठ एवं उससे बनी सजावटी वस्तुओं का विस्तृत रूप से प्रयोग किया जाता है। भुवनेश्वर के ओडिशा कला संग्रहालय-कला भूमि में भी सोलापीठ से बनी अनेक अति उत्कृष्ट कलाकृतियों का संग्रह है।

चैती घोड़ा लोकनृत्य के परिधान

संग्रहालय की प्रदर्शनी दीर्घा में बांस के कुछ कृत्रिम घोड़े हैं जिनकी सम्पूर्ण देह पर रंगबिरंगे चमकीले वस्त्रों की अनेक परतें हैं। इन घोड़ों के गले के ऊपर का भाग काठ का बना होता है तथा पीठ पर छिद्र होता है। घोड़ी नृत्य करते समय नर्तक इस ढाँचे के भीतर जाकर, छिद्र से अपना धड़ बाहर निकालता है तथा ढांचे को उठाकर नृत्य करता है। उसे देख ऐसा प्रतीत होता है जैसे घोड़े पर सवार होकर नर्तक नृत्य कर रहा है।

घोड़ों के साथ लोकनृत्य
घोड़ों के साथ लोकनृत्य

घोड़ी नृत्य भारत भर में साधारणतः धार्मिक उत्सवों तथा शोभायात्राओं के समय किया जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि इस नृत्य का आरम्भ गुजरात के कच्छ भाग से हुआ था तथा शनैः शनैः सम्पूर्ण भारत ने इसे अपना लिया। गोवा में भी यह उत्सव होली के समय, वार्षिक शिगमोत्सव की शोभायात्रा में उत्साह से किया जाता है। गोवा के घोड़ी नृत्य अथवा घोड़े मोड़नी का यूट्यूब विडियो मेरे चैनल में यहाँ एवं यहाँ देखें।

यात्रा सुझाव

  • कला भूमि की यात्रा से पूर्व इनके वेबस्थल से सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लें।
  • केवल वयस्कों के लिए प्रवेश शुल्क है, वह भी मात्र ५० रुपये है।
  • संग्रहालय में प्रत्येक दिवस एक घंटे की निःशुल्क निर्देशित यात्रा आयोजित की जाती है। संग्रहालय का निर्देशित भ्रमण अनेक भाषाओं में आयोजित किया जा सकता है, जैसे इंग्लिश, हिंदी, ओडिया इत्यादि। किन्तु उनकी समयसारिणी में आपकी प्रिय भाषा के समय की पूर्वसूचना अवश्य प्राप्त कर लें।
  • संग्रहालय में धान शिल्प एवं कुम्हारी का प्रशिक्षण भी आयोजित किया जाता है।
  • यूँ तो आप इस संग्रहालय के अप्रतिम संग्रह के अवलोकन में एक घंटा आसानी से व्यतीत कर सकते हैं। यदि आपकी कला एवं शिल्प में विशेष रूचि है तो स्थानीय कलाकौशल से अवगत होने के लिए कम से कम आधे दिवस का समय अवश्य लगेगा। यदि किसी प्रशिक्षण शिविर में भाग लेना हो अथवा संग्रहालय से सम्बंधित विडियो इत्यादि देखना हो तो कुछ अधिक समय लगेगा।
  • कला भूमि संग्रहालय में अवलोकनकर्ताओं के लिए पेयजल एवं शौचालय की पर्याप्त व्यवस्था है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भुवनेश्वर का आदिवासी संग्रहालय – एक परिचय https://inditales.com/hindi/bhubaneshwar-odisha-adivasi-sangrahalya/ https://inditales.com/hindi/bhubaneshwar-odisha-adivasi-sangrahalya/#respond Wed, 18 Jan 2023 02:30:26 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2916

हम जब भी पर्यटन के लिए किसी गंतव्य में जाते हैं, हमारी पर्यटन क्रियाकलापों की सूची में स्थानीय विशेषताओं एवं आकर्षणों के अंतर्गत वहां स्थित संग्रहालयों का समावेश अवश्य होता है। हमारी भुवनेश्वर यात्रा में भी यही स्थिति थी। हमने भुवनेश्वर के संग्रहालयों एवं कलाक्षेत्रों के दर्शन किये थे। मैंने भुवनेश्वर की कला भूमि के […]

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हम जब भी पर्यटन के लिए किसी गंतव्य में जाते हैं, हमारी पर्यटन क्रियाकलापों की सूची में स्थानीय विशेषताओं एवं आकर्षणों के अंतर्गत वहां स्थित संग्रहालयों का समावेश अवश्य होता है। हमारी भुवनेश्वर यात्रा में भी यही स्थिति थी। हमने भुवनेश्वर के संग्रहालयों एवं कलाक्षेत्रों के दर्शन किये थे। मैंने भुवनेश्वर की कला भूमि के विषय में एक पृथक संस्करण पूर्व में ही लिख कर प्रकाशित कर दिया है। वास्तव में भुवनेश्वर में सर्वप्रथम हमने ओडिशा राज्य आदिवासी संग्रहालय का अवलोकन किया था।

पूर्व में आदिवासी कला एवं कलाकृति संग्रहालय (Museum of Tribal Arts and Artifacts) के नाम से लोकप्रिय इस संग्रहालय के प्रवेशद्वार पर ही यह आभास हो जाता है कि हम आदिवासियों के विश्व में प्रवेश कर रहे हैं। वारली चित्रकारी जैसी आकृतियों से चित्रित परिसर की भित्तियाँ, ऊंचे वृक्षों से घिरी संग्रहालय की संरचना, हरे-भरे घास के मैदान तथा रंग-बिरंगे मौसमी पुष्पों से लदे अनेक पौधे जनवरी मास में हमारा स्वागत कर रहे थे। संग्रहालय में प्रवेश शुल्क नाममात्र है। यहाँ के कर्मचारी अत्यंत आत्मीयता से सब की सहायता कर रहे थे। यह संग्रहालय भुवनेश्वर नगर के भीतर, नगर केंद्र से लगभग ४ किलोमीटर दूर स्थित है।

सन् १९५३ में स्थापित इस आदिवासी संग्रहालय में अनेक कलाकृतियाँ प्रदर्शित हैं जो इस क्षेत्र के आदिवासी जनजातियों के जीवन को दर्शाती हैं, जैसे उनकी वेशभूषा, उनके आभूषण, उनकी परम्पराएं, खान-पान, उनके निवास स्थानों की प्रतिकृतियाँ, कलाकृतियाँ तथा आदिवासी  संस्कृति के उद्भव एवं क्रमिक विकास के विभिन्न चरण आदि। वास्तव में ओडिशा राज्य में ६० से भी अधिक आदिवासी जनजातियाँ हैं। इस अप्रतिम परिसर में एक पुस्तकालय भी है जहां आप राज्य के आदिवासी जीवन के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही एक स्मारिका दुकान एवं जलपान के लिए अनेक विकल्प उपलब्ध हैं।

भुवनेश्वर का आदिवासी संग्रहालय

संग्रहालय में अनेक दीर्घाएं हैं जहां स्थानीय व क्षेत्रीय आदिवासी जीवनशैली, संस्कृति, साज सज्जा, औजार, निवास शैलियाँ, कृषि पद्धतियाँ, परिधान, आभूषण, मछली पकड़ने व शिकार करने के यंत्र/औजार तथा अनेक अन्य वस्तुएं प्रदर्शित की गयी हैं।

आदिवासी जनजीवन का चित्रण करते कला एवं कलाकृतियों की दीर्घाएं/कक्ष-

  • संग्रहालय परिसर में संथाल, जुआंग, गदबा, सौरा, कौंध तथा चुक्तिया भुंजिया जनजातियों के विशेष निवास-योग्य आदिवासी झोपड़ियां/आवास को शिल्पकलाकृति के रूप में पुनर्रचित किया गया है।
  • आदिवासियों के वैयक्तिक अलंकरण: आदिवासी जनजातियों की पारंपरिक वेशभूषा, सूक्ष्मता से उत्कीर्णित वैयक्तिक आभूषण जैसे कंगन, केशकाँटा, गले का हार, कमरबंद, कर्णफूल आदि।
ढोकरा शैली में धातु शिल्प
ढोकरा शैली में धातु शिल्प
  • वस्त्र, वैयक्तिक वस्तुएं, चित्र, कला एवं शिल्प।
  • आक्रमण एवं रक्षण अस्त्र-शस्त्र, मछली पकड़ने एवं शिकार करने के औजार/यन्त्र: जैसे शिला प्रक्षेपक, पिजरे, फंदे, जाल, तीर, भाले, कुल्हाड़ी, तलवार, पारंपरिक छुरियाँ आदि। मछलियाँ रखने की टोकरियाँ, एवं जाले भी हैं। जंगल स्वच्छ करने के औजार, बलि के औजार आदि भी प्रदर्शित हैं।
  • घरेलु वस्तुएं एवं कृषि उपकरण: जैसे बर्तन, चाकू, पात्र, वर्षा से रक्षण करने के साधन, बुनी हुई रस्सियाँ, तेल निकालने के कोल्हू आदि। माप पात्र, सूखी लौकी से निर्मित पात्र, खुदाई के औजार, पराली एकत्र करने के औजार, हल, भूमि समतल करने के यन्त्र, धान पछारने के साधन, मूसल आदि भी रखे हुए हैं। गाय के गले की घंटियाँ, डोरी, गुलेल अथवा गोफन, कांवड़ आदि जो विभिन्न आदिवासी जनजातियों की विशेषता दर्शाते हैं।
  • नृत्य मुद्राएँ, ढोकरा कलाकृतियाँ, संगीत वाद्य: पीतल एवं सींगों द्वारा निर्मित तुरही, ढोलक, तबला, झांझ, मंजीरा, तम्बूरा एवं अन्य तार युक्त संगीत वाद्य, नृत्य की वेशभूषाएं आदि। ढोकरा धातु शिल्प-कला में विभिन्न धातुओं द्वारा निर्मित अनेक आकृतियाँ प्रदर्शित की गयी हैं। इनमें मूल रूप से हाथी, ऊँट, घोड़े, भैंस तथा अन्य पशु-पक्षी, बक्से, दीपक तथा देवी-देवताओं की आकृतियाँ होती हैं।

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भुवनेश्वर आदिवासी संग्रहालय की धातु शिल्प कलाकृतियाँ

संग्रहालय में धातु का प्रयोग कर ढोकरा शिल्पकला द्वारा रचित कलाकृतियों को देख आप आश्चर्य में पड़ जायेंगे कि प्राचीन काल से धातुओं का प्रयोग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किया जाता रहा है। ओडिशा की यह शिल्पकला भी अप्रतिम है, विशेषतः ढोकरा शिल्पकला जिसमें प्राचीन मोम ढलाई तकनीक द्वारा मूर्तियाँ एवं अन्य वस्तुएं बनाई जाती हैं। जैसे

धातु शिल्प में सरस्वती एवं नंदी मुख
धातु शिल्प में सरस्वती एवं नंदी मुख
  • सभी प्रकार के आयुध, क्योंकि बचाव एवं सुरक्षा मानव की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
  • भोजन उपलब्ध करने के लिए कृषि के उपकरण
  • विभिन्न धातुओं में निर्मित भोजन पकाने एवं परोसने के पात्र
  • मछली पकड़ने के उपकरण। मछली उनके भोजन का एक अभिन्न अंग है।
  • विभिन्न देवी-देवताओं एवं उनके वाहनों की प्रतिमाएं।

आभूषण

चांदी के बने उत्कृष्ट गहने - भुवनेश्वर का आदिवासी संग्रहालय
चांदी के बने उत्कृष्ट गहने

भुवनेश्वर आदिवासियों की चित्रकला शैली

इडीताल लांजिया सौरा चित्र

हमने जैसे ही संग्रहालय परिसर में प्रवेश किया, हमारी दृष्टि हमारे चारों ओर स्थित परिसर भित्तियों एवं मुख्य संरचना की भित्तियों पर चित्रित अप्रतिम आदिवासी चित्रों पर पड़ी। पुष्पों से आच्छादित पौधे एवं हरी-भरी दूब से भरे उद्यान इसका सौंदर्य द्विगुणीत कर रहे थे। उन चित्रों को देख खुशी से उदगार फूट पड़े, ‘इतने सारे वारली चित्र!’। संग्रहालय दीर्घा में विचरण करते हुए उन्ही के समान अनेक अन्य आदिवासी चित्रों को देख यह जाना कि ये वारली चित्र नहीं हैं। अपितु ये चित्र दक्षिण ओडिशा में पुट्टासिंग व रायपाड़ा के लांजिया सौरा आदिवासियों द्वारा निर्मित हैं।

लांजिया सौरा चित्रकला
लांजिया सौरा चित्रकला

ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार की चित्रकारी सौर जनजाती के प्रमुख भगवान इडीताल के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए, किसी आध्यात्मिक अनुष्ठान के लिए, अपने पूर्वजों की स्मृति में अथवा जन्म, विवाह, खेतों की कटाई जैसे विशेष अवसरों पर आदिवासियों द्वारा की जाती है। पारंपरिक रूप से उनके पुरोहित कुदंग इन चित्रों का चित्रण करते हैं, उनका सार व दर्शन समझते हैं तथा समझाते हैं। लिखित अभिलेखों की अनुपस्थिति में मान्यताओं को प्रदर्शित करने की यह एक मौखिक परम्परा है।

मानवों, पशुओं एवं वृक्षों को दर्शाते ये ज्यामितीय चित्र सामाजिक समारोहों में जीवन चक्र को प्रदर्शित करते प्रतीत होते हैं। किन्तु वास्तव में चित्र अति विशिष्ट दायित्व निभा रहे हैं, आगामी पीढ़ी तक अपनी संस्कृति को पहुँचाना।

लांजिया सौरा चित्रकला
लांजिया सौरा चित्रकला

चिकनी मिट्टी द्वारा बनाई गयी लाल अथवा गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग कर ये चित्र बनाए गए हैं। उनमें श्वेत व नीले रंग प्रमुख हैं। पुरातन काल में पारंपरिक रूप से वे इन चित्रों को अपनी कुटिया के भीतर रंगते थे। चिकनी मिट्टी से भित्तियों को सम रंग देकर उन पर पिसा चावल, श्वेत शिला का चूरा, पुष्पों एवं पत्तियों के प्राकृतिक रंगों आदि से बांस द्वारा निर्मित कूची द्वारा चित्र रंगते थे।

ऐसा माना जाता है कि ये आदिवासी जनजाति भारत की प्राचीनतम जनजाति है। रामायण तथा महाभारत जैसे महाकाव्यों में भी इनका उल्लेख किया गया है।

लांजिया सौरा एवं वारली चित्रों में अंतर

लांजिया सौरा गाँव के आदिवासी चित्रों की वारली चित्रों से समानता अत्यंत आश्चर्यजनक है। कुछ शोधकर्ताओं द्वारा प्रदर्शित शोधकार्यों के अनुसार उनमें कुछ अंतर अवश्य है। लांजिया सौरा चित्रों में चित्रित मानव आकृतियाँ अपेक्षाकृत अधिक लम्बी हैं। मानव आकृतियाँ स्त्री की हैं अथवा पुरुष की, यह स्पष्ट नहीं होता है। त्रिकोण नुकीले ना होकर किंचित गोलाकार होते हैं। इनमें रंगों का प्रयोग अधिक है। जीवन वृक्ष का चित्र अनेक स्थानों पर किया जाता है। चित्रकारी सीमारेखा से भीतर की दिशा में किया जाता है। इन चित्रों में उनके अनुष्ठान/परम्पराएं/श्रद्धा/ विश्वास तथा उनके आसपास के प्राकृतिक/ दैनन्दिनी जीवन के दृश्यों का चित्रण अधिक परिलक्षित होता है।

आदिवासी चित्रकारी से अनभिज्ञ हम जैसे दर्शकों के लिए इन सूक्ष्म अंतरों को पूर्णतः जानना एवं समझना आसान नहीं है। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो ये दोनों चित्रकला शैली एक दूसरे से गर्भनाल द्वारा जुड़े हुए हैं। अथवा कदाचित वारली चित्रकला सौरा आदिवासी चित्रकला से ही प्रेरित हो। मुझे इस विषय में स्पष्ट ज्ञात नहीं है। किन्तु मेरी तीव्र अभिलाषा है कि इन दोनों अप्रतिम पारंपरिक चित्रकला शैलियों को विश्व भर के कला प्रेमियों द्वारा भरपूर प्रोत्साहन मिले तथा उन कारीगरों को भरपूर सम्मान एवं पारिश्रमिक भी प्राप्त हो। अन्यथा सम्पूर्ण विश्व बाजार कृत्रिम कलाकृतियों से भरा हुआ है।

गोंड चित्रकला शैली

गोंद चित्रकला
गोंद चित्रकला

इस प्रकार की चित्रकारी मूलतः भारत के विशालतम आदिवासी समुदाय, गोंड जनजाति द्वारा अपनी झोपडी/कुटिया की भित्तियों पर की जाती थी। ओडिशा के साथ इससे लगे कुछ अन्य राज्यों में भी पाई जाने वाली यह जनजाति अपने प्रकृति प्रेम के लिए लोकप्रिय है, वह चाहे वन्य प्राणियों के प्रति हो अथवा मानसून, पर्वत तथा अन्य प्राकृतिक तत्वों के प्रति हो। उनके द्वारा की गयी पारंपरिक चित्रकारी शैली को गोंड चित्रकला शैली कहा जाता है। उनकी विषयवस्तु सामान्यतः प्रकृति के वे तत्व होते हैं जिनसे उनका दैनिक साक्षात्कार होता है, जैसे वन्य प्राणी, पक्षी, वृक्ष आदि। इन चित्रों का आरम्भ सामान्य रेखाओं से होता है। तदनंतर चल तत्वों को दर्शाने के लिए बिन्दुओं एवं टूटी रेखाओं का समावेश किया जाता है। अनेक प्राकृतिक रंगों का प्रयोग कर प्रकृति के जीवंत दृश्यों को प्रदर्शित किया जाता है।

सभी चित्र ध्यानाकर्षित करते हैं। ये मुझे किंचित आसान भी प्रतीत हुए। मेरे अनुमान से आज के बालक-बालिकाओं को इन्हें चित्रित करने में कठिनाई नहीं आयेगी। वे इस कला को प्रोत्साहित कर सकते हैं। इस संग्रहालय में अनेक गोंड चित्र प्रदर्शित हैं। इन आदिवासियों ने इस प्रकार अपने सहस्त्र वर्षों का इतिहास अभिलेखित किया है।

बांस की वस्तुएं

धान द्वारा निर्मित कलाकृतियाँ

धान कृतियाँ लक्ष्मी गणपति
धान कृतियाँ लक्ष्मी गणपति

धान कला शैली ओडिशा के आदिवासियों की विशेष कला शैलियों में से एक है। वे उनसे साखली, देवी-देवताओं के विग्रह, पशु आकृतियाँ, पुष्प, हार तथा अनेक अन्य वस्तुएं बनाते हैं। इन कलाकृतियों को बनाने में सूक्ष्म कारीगरी एवं एकाग्रता की आवश्यकता होती है। देवी लक्ष्मी, सरस्वती, सुभद्रा, भगवान जगन्नाथ, बालभद्र, गणेश के विग्रहों के अतिरिक्त मोर इत्यादि की कलाकृतियाँ मूलतः यहाँ के कारीगर निर्मित करते हैं। साथ ही दैनिक प्रयोग की वस्तुएं एवं दृश्यों को भी अपनी कलाकृतियों में सजीव करते हैं। यह इस पर निर्भर करता है कि किस वस्तु की कितनी मांग है। इनमें से प्रत्येक कलाकृति को पूर्ण करने में कारीगरों को लगभग ३-४ दिवसों का परिश्रम करना पड़ता है।

धान से बने सरस्वती एवं जगन्नाथ
धान से बने सरस्वती एवं जगन्नाथ

धान, उसकी बालियाँ, सूत एवं बांस की खपच्चियों को प्राकृतिक रगों से रंग कर इस शिल्प में प्रयोग करते हैं। धान की बालियों को सूत से बाँध कर तथा बांस की खपच्चियों के साथ गूंथ कर हार बनाया जाता है। तदनंतर उन्हें मोड़कर तथा कुंडली बनाकर उन्हें अंतिम रूप प्रदान किया जाता है। उन्हें स्थानिक धान मूर्ति अथवा धन मूर्ति कहते हैं क्योंकि एक प्रकार से वे अच्छी फसल, समृद्धि एवं संपत्ति का ही प्रतीक हैं।

धान से बने आभूषण
धान से बने आभूषण

एक काल में यह क्षेत्र कृषि संपन्न होने के कारण तथा इन कलाकृतियों के आध्यात्मिक महत्ता होने के कारण यह एक समृद्ध कला शैली थी। किन्तु वर्त्तमान में यह कला शैली अवनति की ओर अग्रसर हो रही है। अब केवल नाममात्र के शिल्पकार ही इस कला में लिप्त हैं। वे अपनी कलाकृतियों को स्थानीय हाटों एवं बाजारों में विक्री करते हैं। उनमें से कुछ गिनी-चुनी कलाकृतियाँ नगरी शिल्प बाजारों तक भी पहुँच जाती हैं।

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भुवनेश्वर का ओडिशा राज्य आदिवासी संग्रहालय सदा प्रयत्नशील रहता है कि वह ऐसे कार्यशालाओं का आयोजन करे जहां धान शिल्पकार आकर अपनी कला को प्रदर्शित कर सकें तथा अपनी कलाकृतियों की विक्री भी कर सकें।

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यात्रा सुझाव – भुवनेश्वर का आदिवासी संग्रहालय :

भुवनेश्वर का आदिवासी संग्रहालय
भुवनेश्वर का आदिवासी संग्रहालय
  • दर्शन समयावधि: प्रातः १० बजे से संध्या ५ बजे तक
  • राज्य सरकार द्वारा घोषित छुट्टियों के दिन यह संग्रहालय बंद रहता है।
  • यह संग्रहालय बस स्थानक, रेल स्थानक एवं विमानतल, तीनों के समीप स्थित है। आप ऑटोरिक्शा, टैक्सी अथवा सार्वजनिक परिवहन के साधनों द्वारा यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं।
  • दर्शनार्थियों के लिए प्रवेश एवं वाहन खड़ा करना निशुल्क है।
  • व्यवस्थित रूप से अभिलेखित सैकड़ों आदिवासी कलाकृतियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं।
  • संग्रहालय में पर्यटकों की संख्या में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। सन् २०१९ में लगभग एक लाख पर्यटक इस संग्रहालय के अवलोकन के लिए आये थे।
  • कलाकृतियों की दीर्घाओं में प्रदर्शित कलाकृतियों के विषय में जानकारी प्रदान करने के लिए डिजिटल तथा टच स्क्रीन इंटरएक्टिव कियोस्क स्थापित किये गए हैं।
  • संग्रहालय एवं कलाकृतियों के विषय में जानकारी बहुमाध्यम से परिसर के भीतर ही अंग्रेजी, हिन्दी एवं ओडिया भाषा में दिया जाता है।
  • कुछ विशेष अवसरों पर कलाकृतियों को बनाने का जीवंत प्रशिक्षण भी पर्यटकों को दिया जाता है।
  • इन दिनों इसका वर्चुअल अवलोकन उपलब्ध है।
  • ओडिशा राज्य के आदिवासी संग्रहालय के विषय में अधिक जानकारी के लिए उनके इस संकेतस्थल पर जाएँ।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नंदनकानन प्राणी उद्यान -भुवनेश्वर एक प्राकृतिक चिड़ियाघर https://inditales.com/hindi/nandankanan-prani-udyan-bhubaneshwar/ https://inditales.com/hindi/nandankanan-prani-udyan-bhubaneshwar/#comments Wed, 29 Jun 2022 02:30:40 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2723

नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क अथवा नंदनकानन प्राणी उद्यान, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में भ्रमण करने आए पर्यटकों का एक लोकप्रिय गंतव्य! यह उद्यान भुवनेश्वर के लोगों का भी अत्यंत प्रिय भ्रमण स्थल है। स्थानीय भाषा, ओडिया में नंदनकानन के शाब्दिक अर्थ कुछ इस प्रकार हैं, ‘स्वर्ग का बगीचा’ या ‘स्वर्गिक आनंद’ अथवा ‘सुख का बाग’ या […]

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नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क अथवा नंदनकानन प्राणी उद्यान, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में भ्रमण करने आए पर्यटकों का एक लोकप्रिय गंतव्य! यह उद्यान भुवनेश्वर के लोगों का भी अत्यंत प्रिय भ्रमण स्थल है। स्थानीय भाषा, ओडिया में नंदनकानन के शाब्दिक अर्थ कुछ इस प्रकार हैं, ‘स्वर्ग का बगीचा’ या ‘स्वर्गिक आनंद’ अथवा ‘सुख का बाग’ या ‘देवों का दिव्य उद्यान’।

सुनहरी तीतर
सुनहरी तीतर

भुवनेश्वर से लगभग १५ किलोमीटर दूर स्थित यह उद्यान खोर्धा जिले के जुझगढ़ वनीय क्षेत्र में स्थित है। यह लगभग १००० एकड़ से कुछ अधिक क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यह सम्पूर्ण हराभरा क्षेत्र इतना विशाल है कि १३० एकड़ में फैली कंजिया सरोवर की विशाल व महत्वपूर्ण आर्द्रभूमि को अपने भीतर समाया हुआ है। नंदनकानन प्राणी उद्यान की स्थापना सन् १९६० में हुई थी जिसके एक दशक पश्चात इसे जनसामान्य के लिए खोला गया था।

नंदनकानन में भालू
नंदनकानन में भालू

नंदनकानन प्राणी उद्यान, वनीय क्षेत्र के भीतर, प्राकृतिक परिवेश के मध्य में बनाया गया है। इस उद्यान में प्राणियों को विशाल बाड़ों में रखा गया है जिन्हे विशेष रूप से उनके मूल प्राकृतिक आवासों के रूप प्रदान किए गए हैं ताकि वे उनमें स्वाभाविक रूप से बस सकें तथा स्वस्थ जीवन जी सकें।

जंगल की रानी शेरनी
जंगल की रानी शेरनी

नंदनकानन प्राणी उद्यान भारत के विशालतम प्राणी उद्यानों  में से एक है। इस उद्यान ने, अनेक मापदण्डों में, वैश्विक स्तर पर प्रथम पद अर्जित किया है। इस प्राणी उद्यान  को अनेक विशिष्टताओं से विभूषित किया गया है। भारतीय रेल ने एक एक्सप्रेस रेल का नामकरण, इस प्राणी उद्यान  के नाम पर, नंदनकानन एक्सप्रेस किया है।

नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क अथवा नंदनकानन प्राणी उद्यान

नंदनकानन प्राणी उद्यान को सुव्यवस्थित खाके के अंतर्गत उत्तम रीति से निर्मित किया गया है। इस उद्यान के मुख्य आकर्षण हैं-

  • प्राणियों की लगभग १५०० विभिन्न प्रजातियों से युक्त एक विशाल प्राणी उद्यान
  • वनस्पति उद्यान एवं तितली उद्यान
  • सिंहों, बाघों, हिरणों एवं भालुओं के बाड़ों मे भीतर सफारी भ्रमण
  • कंजिया सरोवर में नौका विहार – यंत्रचलित नौकाओं एवं पैडल स्वचालित नौकाओं में जलविहार
  • उभयचरों या जलथलचरों के घेरे
  • मछलीघर
  • बच्चों की छोटी रेलगाड़ी
  • पुस्तकालय
  • निशाचर प्राणियों एवं पक्षियों की बाड़
  • सरीसृप अथवा रेंगने वाले प्राणियों का केंद्र
  • संग्रहालय
  • चिड़ियाघर
  • लगभग ७०० प्रजातियों के विभिन्न स्थानिक वृक्षों से भरा वनीय क्षेत्र
  • इस उद्यान का प्राकृतिक वनीय क्षेत्र, स्तनपायियों की १३ विभिन्न प्रजातियों, सरीसृपों की १५ प्रजातियों, पक्षियों की लगभग १७९ प्रजातियों, उभयचरों या जलथलचरों की २० विभिन्न प्रजातियों, तितलियों की ९६ भिन्न भिन्न प्रजातियों तथा मकड़ियों की भी ५१ विभिन्न प्रजातियों का आवासक्षेत्र है।
कांकड़ या भौंकने वाला हिरण
कांकड़ या भौंकने वाला हिरण
  • नंदनकानन प्राणी उद्यान के आधिकारिक वेबस्थल पर नंदनकानन वन्यजीव अभयारण्य में उपस्थित पक्षियों की विस्तृत सूची है। उन्हे ‘Arial feeding bird’, ‘Arboreal bird’, ‘Birds of prey’, ‘Ground feeding bird’ तथा ‘Wetland birds’, इन उपनामों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है। यदि आप पक्षी प्रेमी अथवा नभचर प्रेमी हैं तो यह जानकारी अवश्य देखें।

प्राणी उद्यान  एवं वनस्पति उद्यान से संबंधित जानकारी

ढ़ोल या जंगली कुत्ता
ढ़ोल या जंगली कुत्ता
  • नंदनकानन प्राणी उद्यान में जनसाधारण के लिए भ्रमण समयावधि, अप्रैल से सितंबर मास तक प्रातः ७:३० बजे से सायं ५:३० बजे तक तथा अक्टूबर से मार्च मास तक प्रातः ८ बजे से सायं ५ बजे तक है।
  • नंदनकानन प्राणी उद्यान प्रत्येक सोमवार के दिन बंद रहता है।
  • नंदनकानन प्राणी उद्यान में प्रवेश के लिए ५० रुपये का नाममात्र प्रवेश शुल्क निर्धारित है।
  • पशु सफारी एवं नौका विहार हेतु अतिरिक्त शुल्क लिया जाता है।
  • केवल उच्च स्तर के चलचित्र कैमरे एवं चित्रपट छायाचित्रण हेतु अतिरिक्त शुल्क निर्धारित हैं।
  • नंदनकानन प्राणी उद्यान में पर्यटकों के लिए अनेक सुविधाएं हैं। इनमें प्रमुख हैं, पेयजल गुमटियाँ, शौचालय संकुल, वाहन प्रतीक्षा स्थल, पर्यटक विश्राम कक्ष, जलपानगृह, समान-कक्ष, विकलांगों हेतु पहियेदार कुर्सियाँ, प्रथम उपचार सुविधाएं, बैटरी चलित वाहन, मार्गदर्शक नक्शे, स्मारिका दुकानें, शिशु देखरेख सुविधाएं इत्यादि।

नंदनकानन प्राणी उद्यान  में भ्रमण का मेरा अनुभव

धूसर भेड़िया
धूसर भेड़िया

नंदनकानन प्राणी उद्यान एक अत्यंत लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध गंतव्य है। अतः उसका प्रभाव भी अवश्य दृष्टिगोचर होगा। हम वर्ष २०२० के जनवरी मास में नंदनकानन प्राणी उद्यान में भ्रमण करने गए थे। प्राणी उद्यान के प्रवेशद्वार पर प्रवेशपत्र प्राप्त करने के लिए शालेय विद्यार्थियों की लंबी पंक्ति थी। सौभाग्य से शालेय विद्यार्थियों एवं अन्य पर्यटकों के लिए पृथक पंक्तियाँ थीं। प्राणी उद्यान के कर्मचारियों द्वारा पर्यटकों की भीड़ को सुचारु रूप संचालित किया जा रहा था। उद्यान में प्रवेश करने के लिए हमें १० मिनट से भी कम समय लगा। आपको यह जानकर अचरज होगा कि गत कुछ वर्षों से नंदनकानन प्राणी उद्यान में, प्रतिवर्ष ३० लाख से भी अधिक पर्यटक आते रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि इस उद्यान में भ्रमण हेतु लगभग १०,००० पर्यटक प्रतिदिन आते हैं।

मेरा परामर्श है कि यदि आप इन प्राणियों के दर्शन करना चाहते हैं तो भ्रमण से पूर्व ही उनके विषय में आवश्यक विवरण प्राप्त करें। तत्पश्चात उनका अवलोकन करें। पर्यटन-परिदर्शक अथवा गाइड की सेवाएं ना लें। सामान्यतः ये परिदर्शक अत्यंत संक्षिप्त में आपको इन प्राणियों की जानकारी देकर शीघ्रता से आपका भ्रमण सम्पूर्ण कर देते हैं ताकि आपके पश्चात वे अन्य ग्राहक ले सकें। अतः परिदर्शक की सेवाएँ तभी लें जब आप भी शीघ्रता से उद्यान का भ्रमण पूर्ण करना चाहते हों। अन्यथा नहीं।

मांसभक्षी प्राणी

प्राणी उद्यान के भीतर भ्रमण करना हमारे अनुमान से अपेक्षाकृत कहीं अधिक आसान था। प्राणी उद्यान के भीतर पूर्वनिर्धारित पगडंडियाँ सुव्यवस्थित प्रकार से बनायी गई हैं जिन पर सभी संबंधित सूचनाएं एवं मार्गदर्शन अंकित हैं। प्राणी उद्यान के सभी बड़े प्राणियों के लिए पृथक विशाल बाड़ बनाए गए हैं। बाड़ों के भीतर पर्याप्त मात्रा में वृक्ष एवं झाड़ियाँ उगाए गए हैं जो उन्हे प्राकृतिक आवास प्रदान करते हैं। उनका परिवेश इतना प्राकृतिक वन सदृश बनाया गया है, कि आप जब भी सिंह, बाघ, तेंदुआ, सियार, जंगली कुत्ते इत्यादि के बाड़ों के समीप जाएं, तो आपको उनके दर्शन सहज ही प्राप्त नहीं होंगे। उनके दर्शन करने के लिए धीरज रखते हुए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वे जब भी विचरण करते हुए बाड़ की सीमा पर आते हैं तब ही आप उन्हे देख सकते हैं। अन्यथा झाड़ियों के मध्य उनकी एक झलक से ही आपको संतुष्ट होना पड़ेगा। अतः धीमी चाल तथा धीरज अत्यंत सहायक सिद्ध होगी।

जब हम रीछ के बाड़ के समीप पहुंचे, वह अपने समान दर्शकों को देख कर चंचल हो उठा था। बाड़ के उस पार एक सिंहनी दहाड़ मार रही थी। उपस्थित दर्शक रीछ को अधिक करतब दिखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। साथ ही वे शांत भी थे ताकि दहाड़ मारती सिंहनी अधिक उत्तेजित ना हो जाए।

बाघ एवं तेंदुए अपनी प्रकृति के अनुसार एकांतप्रिय प्राणी प्रतीत हो रहे थे। वे दर्शकों से कुछ दूर बैठकर विश्राम कर रहे थे। बाघ वृक्षों की छाँव में, तो तेंदुए वृक्षों की शाखाओं पर चढ़कर बैठे थे। वृक्षों एवं पर्णसमूहों के मध्य उन्हे खोजने में कुछ समय लगा। जो भी पर्यटक उन्हे पहले खोज लेते थे वे दूसरों की सहायता के लिए उस ओर संकेत कर रहे थे।

हिरण

नीलगाय
नीलगाय

हिरणों के लिए भी एक विशाल बाड़ बनायी गई है ताकि वे उसके भीतर स्वच्छंद विचरण कर सकें। इस प्राणी उद्यान में बड़ी संख्या में हिरण विद्यमान हैं। ना तो दर्शकों को उन्हे देखने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है, ना ही उन हिरणों को दर्शकों की उपस्थिति व्याकुल करती है।

बौने से चूहा हिरण
बौने से चूहा हिरण

माउस डीयर अथवा छोटा हिरण हमारे लिए एक आश्चर्य से कम नहीं था। हमने इससे पूर्व ना तो उन्हे देखा था, ना ही उनके विषय में कभी पढ़ा था। इस दुर्लभ तथा संकोची प्राणी की लंबाई लगभग १५ इंच होती हैं। इसे इंडियन चेर्वोटैन के नाम से भी जाना जाता हैं। इस उद्यान में इनकी पर्याप्त संख्या है।

साम्भर
साम्भर

नंदनकानन प्राणी उद्यान में हिरणों की अनेक प्रजातियाँ बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। सभी प्रकार के हिरण यहाँ दर्शकों की उपस्थिति में भी स्वच्छंद व सुरक्षित अनुभव करते प्रतीत हो रहे थे।

निशाचर प्राणी

निशाचर श्वेत उल्लू
निशाचर श्वेत उल्लू

निशाचर पशु-पक्षियों का भाग अत्यंत अंधकार भरा है। प्रकाश अत्यंत मंद होता है। इसके भीतर से जाते समय कुछ दर्शकों को किंचित असुविधा हो सकती है। किन्तु इस प्रकार के प्राणियों की सुविधा के लिए मंद प्रकाश अथवा अंधकार आवश्यक है। संकरी पगडंडी तथा पर्यटकों की अधिक संख्या के कारण हमें मंद प्रकाश छायाचित्र लेने में असुविधा हो रही थी। वहाँ एक बार्न उल्लू या श्वेत उल्लू को देखना मेरा प्रथम अनुभव था।

सरीसृप

नंदनकानन में नाग देवता
नंदनकानन में नाग देवता

इस उद्यान में सर्पों की अनेक प्रजातियाँ हैं। नाग से लेकर अजगर तक, रैट-स्नेक अर्थात् धामिन तथा अनेक अन्य प्रजातियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं। गोह, गिरगिट तथा अनेक अन्य सरीसृप इस भाग में देखे जा सकते हैं।

गोह
गोह
भारतीय गिरगिट
भारतीय गिरगिट

मगरमच्छ

भारत में उपस्थित तीनों प्रकार के मगरमच्छ आप यहाँ देख सकते हैं। खारे जल के मगरमच्छ, मीठे जल के मगर तथा घड़ियाल, तीनों प्रजातियों का इस उद्यान में प्रजनन किया जाता है। उनकी प्रजनन प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में आप इन दीर्घजीवी प्रजातियों को देख सकते हैं। आप देख सकते हैं कि किस प्रकार ये शक्तिशाली व खूंखार प्राणी छोटे छोटे शिशुओं से विशालकाय प्राणियों में परिवर्तित होते हैं।

खारे पानी के मगर नंदनकानन में
खारे पानी के मगर नंदनकानन में

खारे जल के मगर मूलतः नदी के मुहाने तथा समुद्री जल के समीप पनपते हैं। मगर की ये प्रजाति सर्वाधिक विशालकाय तथा सर्वाधिक दीर्घजीवी होती है। ऐसा कहा जाता है कि वे सम्पूर्ण समुद्र को तैर कर पार कर लेते हैं। ओडिशा का भितर्कनिका वन उनके सर्वोत्तम प्राकृतिक आवास तथा प्रजनन स्थलों में से एक है।

मेरी भितर्कनिका यात्रा के अविस्मरणीय अनुभव यहाँ पढ़ें।

घड़ियाल
घड़ियाल

घड़ियाल अर्थात् नदी के जलचर, मीठे जल के प्राणी हैं। भारत में सामान्यतः ये गंगा नदी में पाए जाते हैं। इन्हे इनके मुख से पहचाना जा सकता है। इनका मुख, अन्य प्रजातियों में सर्वाधिक लंबा, संकरा तथा सुडौल होता है जो तेज दांतों से भरा होता है। मगर भी मीठे जल के प्राणी हैं जो साधारणतः नदियों, उथली आर्द्र-भूमि तथा अप्रवाही जल में पाए जाते हैं। मुझे स्मरण है, मैंने उन्हे चम्बल नदी में भी देखा था।

कछुए

नंदनकानन प्राणी उद्यान में जलीय एवं थलीय कछुओं की अनेक प्रजातियाँ हैं। उन्हे उनके वयानुसार वर्गीकृत कर रखा हुआ है।

भारत का स्टार या तारा कछुए
भारत का स्टार या तारा कछुए

इन कछुओं में लुप्तप्राय भारतीय स्टार कछुए भी सम्मिलित हैं। आप यहाँ स्थित कछुओं की विविधता देख अचरज में पड़ जाएंगे।

नभचर

मंदारिन बत्तख
मंदारिन बत्तख

इस प्राणी उद्यान  में दुर्लभ पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ हैं जिन्हे उनकी प्रजाति के अनुसार भिन्न भिन्न बाड़ों में रखा गया है। इनमें सारस, सुनहरा तीतर, श्वेत मोर, रजत तीतर इत्यादि सम्मिलित हैं।

जंगली मुर्गा
जंगली मुर्गा

उद्यान में विशाल जलक्षेत्र हैं जहां अनेक जलपक्षियों ने बसेरा किया हुआ है।

श्वेत मोर
श्वेत मोर

इन जलपक्षियों में बगुले, सुरखिया, पेलिकन अथवा हवासील, सारस इत्यादि सम्मिलित हैं।

सारस पक्षी नंदनकानन में
सारस पक्षी नंदनकानन में

यहाँ आप इन पक्षियों को देख सकते हैं:

  • कबूद/अंजन अथवा धूसर बगुला (grey heron)
  • जामुनी बगुला (purple heron)
  • कोकराइ (night heron)
  • अंधा बगुला (pond heron)
  • काली चोंच वाले किलचिया बगुले (little egret)
  • पीली चोंच वाले लघु श्वेत बगुले (intermediate egret)
  • पीली चोंच व काली टांगों वाले श्वेत (सुर्खिया) बगुले (great egret)
  • चमकीला बुज्जा (glossy ibis)
  • काला बुज्जा (black-headed ibis)
  • चकवा/सुर्खाब (ruddy shelducks)
  • नारंगी बतख (mandarin duck)
  • एशियाई घुँगिल (Asian open bill stork)
  • जाँघिल (painted stork)
  • हवासील (pelicans)
  • बाज (eagles)
  • चील (kites)
  • चहचहाते रंगबिरंगे छोटे तोते (Love Birds)

और पढ़ें: ओडिशा की मंगलाजोड़ी आद्रभूमि-जलपक्षियों के स्वर्ग में नौकाविहार

नंदनकानन का  कंजिया सरोवर

मुझे यह देख अत्यंत प्रसन्नता हुई कि कंजिया सरोवर इस प्राणी उद्यान का ही एक भाग है तथा इस सरोवर में पर्यटकों के लिए मनोरंजक नौका सवारी भी आयोजित की जाती है।

नंदनकानन के कंजिया सरोवर में नौका विहार
नंदनकानन के कंजिया सरोवर में नौका विहार

कई पर्यटक सरोवर के जल में नौका सवारी का आनंद उठा रहे थे तथा अनेक पर्यटक नौका सवारी का अनुभव लेने के लिए पंक्ति में खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे।

सरोवर के शांत जल में पैडल स्वचालित नौकाएँ तथा यंत्रचलित नौकाएँ लोगों को अत्यंत सुखकर एवं अद्वितीय अनुभव प्रदान कर रहे थे। देश-विदेश के अन्य आधुनिक स्थानों पर नौकाविहार कर आए लोगों को यहाँ की सेवाएं कुछ कमतर प्रतीत हो सकती हैं किन्तु सामान्य पर्यटकों के लिए यह एक रोमांचक अनुभव है।

जलहस्ती अथवा दरियाई घोडा

जलक्रीडा करता जलहस्ती
जलक्रीडा करता जलहस्ती

जलहस्ती अथवा दरियाई घोड़ा इतना विशालकाय प्राणी होता है कि आप इसे अनदेखा कर ही नहीं सकते। नंदनकानन प्राणी उद्यान में इन विशालकाय प्राणियों के लिए कंजिया सरोवर का विशेष भाग निहित किया गया है। जब तक हम प्राणी उद्यान के इस भाग तक पहुंचे, वातावरण अत्यंत उष्ण हो चुका था तथा सूर्यदेव पूर्ण ऊर्जा से दमक रहे थे। दर्जन भर जलहस्ती अपनी देह को शीतलता प्रदान करने के लिए सरोवर के जल में शांतता से तैर रहे थे। जलहस्तियों को शीतल जल में विचरण करना अत्यंत भाता है।

हमने नंदनकानन प्राणी उद्यान में भ्रमण के लिए केवल २-३ घंटों का समय निश्चित किया था। अतः हमें उद्यान के अनेक रोचक क्रियाकलापों से अछूते ही रहना पड़ा था, जैसे सफारी, वनस्पति उद्यान, कंजिया सरोवर में नौकायन तथा कुछ अन्य वन्यप्राणियों के बाड़े।

नंदनकानन प्राणी उद्यान संबंधित यात्रा सुझाव

जंगली बिल्ली
जंगली बिल्ली
  • इस क्षेत्र की ग्रीष्म ऋतु अत्यंत ऊष्णता भरी होती है। अतः यदि आपने ग्रीष्म ऋतु में नंदनकानन प्राणी उद्यान का भ्रमण नियोजित किया है तो प्रातःकाल का समय निश्चित करें।
  • यदि आप मर्यादित समय सीमा में सम्पूर्ण उद्यान की झलक पाना चाहते हों तो पर्यटन परिदर्शक अथवा गाइड की सेवाएं ले सकते हैं।
  • यदि आपके पास भुवनेश्वर में आधा दिन या उससे अधिक का समय है तथा आप प्रकृति व वन्यजीवन में रुचि रखते हैं तो वह समय नंदनकानन प्राणी उद्यान में व्यतीत करें। पर्याप्त समय का पूर्ण आनंद उठाने के लिए, पर्यटन परिदर्शक अथवा गाइड की सेवाएं ना लेते हुए, स्वयं ही अपनी गति से सभी प्राणियों को निहारें तथा उनके विषय में जानें।
  • उद्यान में सभी पगडंडियाँ पक्की व सुव्यवस्थित हैं जिन पर सभी आवश्यक संकेत एवं सूचनाएं इंगित हैं। सम्पूर्ण मार्ग में, नियमित अंतराल पर, पेयजल, छाँव तथा विश्राम/बैठने की व्यवस्था की गई है। सम्पूर्ण उद्यान में, विभिन्न स्थानों पर, “उद्यान मानचित्र पर आप यहाँ हैं” सूचना पट्टिका लगायी गई है। अतः निश्चिंत रहिए, इस विस्तृत उद्यान में आप मार्ग से नहीं भटकेंगे।
  • उद्यान के प्रवेशद्वार पर अनेक जलपानगृह हैं जहां आपको कई स्थानीय व्यंजन प्राप्त हो जाएंगे। यदि आप इस विशाल एवं विस्तृत उद्यान में पर्याप्त समय व्यतीत करना चाहते हैं तो उद्यान में प्रवेश से पूर्व ही पर्याप्त जलपान कर लें। अन्यथा पेट की क्षुधा उद्यान के भ्रमण को असुविधाजनक बना सकती है।
  • उद्यान में सैकड़ों पर्यटक भ्रमण करने के लिए आते हैं। सम्पूर्ण उद्यान में उद्यान के कर्मचारी एवं गाइड उपस्थित रहते हैं। अतः किसी भी स्थान पर स्वयं को एकाकी समझ कर व्यथित ना हो। निश्चिंत होकर उद्यान एवं वन्यजीवों का अवलोकन करिए।
  • प्राणी उद्यान एवं उसकी समयसारिणी/विशेष आयोजनों से संबंधित, समय समय पर उभरते किसी भी प्रश्न/स्पष्टता/अद्यतनीकरण में प्राणी उद्यान का वेबस्थल अवश्य सहायक होगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भुवनेश्वर भारत की धरोहर नगरी का इतिहास https://inditales.com/hindi/bhubaneshwar-mandiron-ka-nagar-odisha/ https://inditales.com/hindi/bhubaneshwar-mandiron-ka-nagar-odisha/#comments Wed, 13 Apr 2022 02:30:47 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2645

“इस धरा के विभिन्न क्षेत्रों में भारत खंड एकमात्र सर्वाधिक विशिष्ट क्षेत्र है। वहीं भारत खंड के सभी प्रदेशों में उत्कल सर्वाधिक प्रसिद्धि का दावा करता है। उत्कल का सम्पूर्ण क्षेत्र एक विशाल अखंड तीर्थ है। इसके आनंदमय निवासियों ने पुण्यात्माओं के विश्व में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। जो इस पावन धरती की […]

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“इस धरा के विभिन्न क्षेत्रों में भारत खंड एकमात्र सर्वाधिक विशिष्ट क्षेत्र है। वहीं भारत खंड के सभी प्रदेशों में उत्कल सर्वाधिक प्रसिद्धि का दावा करता है। उत्कल का सम्पूर्ण क्षेत्र एक विशाल अखंड तीर्थ है। इसके आनंदमय निवासियों ने पुण्यात्माओं के विश्व में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। जो इस पावन धरती की यात्रा करते हैं व यहाँ की पवित्र नदियों में स्नान करते हैं, वे अपने पहाड़ों से भी भारी पापों से मुक्ति पा जाते हैं। इसकी पावन धरती का स्पर्श, इसकी पवित्र नदियाँ, मंदिर, विभिन्न पावन क्षेत्र, यहाँ पनपते सुगंधी पुष्प तथा अमृततुल्य फलों की मधुरता तथा इस क्षेत्र की बहुआयामी महत्ता के विषय में पूर्ण वर्णन कौन कर सकता है? यह एक ऐसा गौरवपूर्ण स्थान है जिसके दर्शन भर से देवता भी स्वयं को धन्य मानते हैं” – कपिल संहिता

“उत्कल (ओडिशा) में भगवान कृत्तिवास (शिवजी) का क्षेत्र है। यह क्षेत्र सभी पापों से मुक्ति प्रदान करता है। ऐसे क्षेत्र अत्यंत विरले होते हैं। यहाँ करोड़ों की संख्या में शिवलिंग हैं। महत्ता में यह वाराणसी के समकक्ष है। एकाम्र क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध इस क्षेत्र में आठ प्रमुख तीर्थ हैं” – ब्रह्म पुराण

भुवनेश्वर – भारत की धरोहर नगरी

ऐतिहासिक रूपरेखा

भिन्न भिन्न भौगोलिक सीमाओं में सीमित ओडिशा का वर्तमान क्षेत्र प्राचीनकाल व मध्ययुगीन काल में कलिंग, ओड्र अथवा उत्कल के नाम से प्रसिद्ध था। अशोक, शर-ए-कुना तथा शाहबाज गढ़ी के कांधार शिलालेखों में कलिंग के आरंभिक सन्दर्भ प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों में कलिंग युद्ध तथा उसके पश्चात उसका मौर्य साम्राज्य में विलय का उल्लेख है। यह युद्ध ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। कलिंग आक्रमण सम्राट अशोक के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि कलिंग युद्ध में हुए भीषण रक्तपात को देखने के पश्चात सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था।

कलिंग

कलिंग के नाम का उल्लेख खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेखों में भी किया गया है। इन अभिलेखों में सम्राट अशोक को कलिंगाधिपति के नाम से संबोधित किया गया है। इन अभिलेखों का समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी बताया जाता है। इसका उल्लेख प्लिनी के प्राकृतिक इतिहास (Pliny’s Natural History) में भारत के पूर्वी तट पर बसे एक स्थल के रूप में किया गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में जम्बुद्वीप (भारतवर्ष) के प्रान्तों में कलिंग एवं उत्कल के नाम भी सम्मिलित हैं। वहीं, महाभारत के सभा पर्व में कलिंग के राजा की ओर से दिया गया हस्तिदंत द्वारा निर्मित एक उपहार का भी उल्लेख है।

उसी महाभारत के द्रोण पर्व से हमें यह ज्ञात होता है कि कलिंग के राजकुमार ने महाभारत के युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। सातवीं सदी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने भी राज्य की राजधानी की यात्रा की थी जिसका उल्लेख उसने ‘की-लिंग-किया’ के रूप में किया था।

ओड्र

ओड्र का प्रारंभिक सन्दर्भ प्लिनी के प्राकृतिक इतिहास के छठे ग्रन्थ में पाया गया है। उस में ओरेटी नामक देश की परिकल्पना है जिसके राजा के पास केवल १० हाथी तथा एक विशाल सेना है। इतिहासकार ने मोनाडीस व सुआरि नामक दो जनजातियों का भी उल्लेख किया है जो मौलिअस पर्वत के निवासी थे। कन्निंग्हम के अनुसार ओरेटी ओड्र है, मौलिअस का तात्पर्य महेंद्र है तथा मोनाडीस व सुआरि नामक जनजाती कुछ अन्य नहीं, अपितु मुंडा एवं सुआर जनजाति हैं। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग की यात्रा के विषय में कन्निंग्हम ने टिप्पणी की थी कि ह्वेन त्सांग का वू चा एक ओड्र निवासी था। यद्यपि ओड्रा शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, तथापि व्यापक रूप से स्वीकृत सिद्धांतों के अनुसार यह शब्द यहाँ के स्थानिकों की जाति के नाम पर आधारित है। भारतीय सांस्कृतिक शोधकर्ता व इतिहासकार राजा राजेन्द्र लाल मित्रा ने ओडा जनजाति का उल्लेख किया है जो ओडिशा के विभिन्न क्षेत्रों के निवासी हैं तथा आदिवासियों के वंशज हैं।

उत्कल

हरिवंश पुराण के १०वें अध्याय में उत्कल की कथा कही गयी है। इस कथा के अनुसार, वैवस्वत मनु ने जब मित्र एवं वरुण देवताओं को समर्पित करते हुए हवन-यज्ञ किया था तब उस यज्ञ कुण्ड से इला नामक सुन्दरी प्रकट हुई थी। किन्तु इला मनु के संग जाने के लिए तत्पर नहीं थी। तब मित्र एवं वरुण ने इला के दो भाग किये। एक भाग सुद्दुम्न्य नामक पुरुष तथा दूसरा भाग इला नामक स्त्री में परिवर्तित हो गया। इला ने बुध गृह के स्वामी बुध से विवाह कर पुरुरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। वहीं, सुद्दुम्न्य के तीन पुत्र हुए, उत्कल, गया एवं विनता। उत्कल को उत्कल क्षेत्र राजधानी के रूप में प्राप्त हुई।

यूँ तो उत्कल से सम्बंधित अनेक सन्दर्भ विभिन्न ग्रंथों, अभिलेखों व अन्य साहित्यों में प्राप्त होते हैं। उन सभी तथ्यों को सत्यापित करने का ना तो यह स्थान है ना ही समय। हम यहाँ केवल कुछ प्रारंभिक सन्दर्भों को प्रकाशित करना चाहते हैं। अतः, उनमें से कुछ का ही यहाँ उल्लेख किया गया है। हमारा उद्देश्य केवल यह दर्शाना है कि आधुनिक ओडिशा क्षेत्र का प्राचीनतम इतिहास मौर्य काल तक जाता है। इस तथ्य को दो अशोक शिलालेखों द्वारा सत्यापित किया गया है जिन्हें इस राज्य में ही खोजा गया था।

अवश्य पढ़ें: कलिंग की नागर स्थापत्य शैली- रेखा देउल, पीढ देउल, खाखरा देउल

भुवनेश्वर की किवदंतियां

भुवनेश्वर से सम्बंधित किवदंतियों एवं लघु कथाओं की चर्चा करें तो भुवनेश्वर के सन्दर्भ में आरंभिक शोधकर्ताओं ने अनेक कथाएं कहीं हैं। इतिहासकार व शोधकर्ता ऐंड्रू स्टर्लिंग ने सर्वप्रथम ओडिशा के इतिहास पर शोधकार्य का प्रकाशन किया था। स्टर्लिंग के अनुसार, कटक के विद्वानों का मानना है कि कलियुग के आरंभिक काल में, भारत के ऊपरी भाग के विशाल राजवंश के पतन के पश्चात हिन्दू राजवंशों की चार प्रमुख गद्दियों ने देश पर शासन किया था। वे थे, नरपति राजवंश, अश्वपति राजवंश, छत्रपति राजवंश तथा गजपति राजवंश। तेलंगाना एवं कर्णाटक के क्षेत्रों पर नरपति राजवंश का अधिपत्य था। अश्वपति राजवंश का मराठा क्षेत्रों पर शासन था। छत्रपति राजवंश जयपुर के राजपूत शासक थे तथा ओडिशा के क्षेत्रों पर गजपति राजवंश साम्राज्य था।

पुरी

ओडिशा का पुरी प्राचीन काल से ही एक हिन्दू तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। स्टर्लिंग को ज्ञात हुआ कि उत्कल-देश में चार तीर्थ स्थल हैं, जो चार विशेष पावन उद्देश्यों से सम्बंधित हैं। वे थे, हर-क्षेत्र, विष्णु अथवा पुरुषोत्तम-क्षेत्र, अर्क अथवा पद्म-क्षेत्र तथा विजयी अथवा पार्वती-क्षेत्र। हर-क्षेत्र ही वर्तमान में भुवनेश्वर है। पुरी पुरुषोत्तम-क्षेत्र है। अर्क-क्षेत्र कोणार्क है तथा पार्वती-क्षेत्र जाजपुर में है।

स्टर्लिंग

भुवनेश्वर पर स्टर्लिंग ने उल्लेख किया है, “कटक से सोलह मील की दूरी पर, नवीन मार्ग पर स्थित बलवंता में एक यात्री की दृष्टि, पड़ोसी राज्य खुर्दा की सीमा को घेरते घने वनों के मध्य से उभरते, पत्थर के एक ऊंचे विशाल स्तम्भ पर पड़ी। वनों के मध्य से उस जिज्ञासा की वस्तु की ओर जाता एक पथ था जो छह मीलों के पश्चात फूलकर लौह युक्त मिट्टी की ऊंची चट्टान में परिवर्तित हो गया।

वहां पहुँचते ही आप विस्मय से देखेंगे, एक विध्वस्त नगरी के मध्य, जो केवल वीरान ध्वस्त दुर्ग एवं महादेव की आराधना से पावन हुए मंदिरों से आच्छादित है, जिसे अनेक उपाधियाँ प्राप्त हुईं जिसे असंगत किवदंतियों तथा अनुयायियों की कल्पनाओं ने भगवान से सम्बद्ध किया है, उन सब के मध्य से लिंग राज के शिवालय का अद्वितीय रूप प्रकट हो रहा है, आकार व विशालता दोनों में तथा वास्तुशिल्प की उत्कृष्टता के अनुसार उल्लेखनीय रूप से विशिष्ट ”

अवश्य पढ़ें: उदयगिरि, रत्नागिरि एवं ललितगिरि- ओडिशा का बौद्ध इतिहास

भुवनेश्वर – ओडिशा की राजधानी

ओडिशा की वर्तमान राजधानी भुवनेश्वर है। सन् १९३६ में, भारत में ब्रिटिश राज के काल में, बंगाल प्रेसीडेंसी से विभक्त होकर ओडिशा एक पृथक प्रान्त बना जिसकी राजधानी कटक थी। स्वतंत्रता के पश्चात्, सन् १९५६ में हुए राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात्, ओडिशा १४ नवनिर्मित राज्यों में से एक था। सन् १९४८ में ओडिशा की राजधानी को कटक से भुवनेश्वर स्थानांतरित किया गया।

भुवनेश्वर का भव्य श्री लिंगराज मंदिर
भुवनेश्वर का भव्य श्री लिंगराज मंदिर

भुवनेश्वर २००० वर्ष प्राचीन, समृद्ध व अखंडित सांस्कृतिक धरोहर पर गौरान्वित अनुभव करता है। एक ओर इसका इतिहास हमें भारत के आरंभिक आलेखित इतिहास तक पीछे ले जाता है तो दूसरी ओर वह हमें हिन्दू वर्चस्व की समृद्धि की पराकाष्ठा के अंतिम चरण तक लाता है। इस स्थान का आरंभिक आलेखित इतिहास शिशुपालगढ़ की ओर संकेत करता है जिसकी पुरातनता ३री से ४थी ई.पू. काल पीछे तक जाती है।

शिशुपालगढ़

शिशुपालगढ़ मौर्य काल तक एक समृद्ध नगर था। कलिंग पर विजय प्राप्त करने के पश्चात सम्राट अशोक ने इसे दो भागों में विभक्त कर दिया था, तोसली व समापा। अपने नव विजय प्राप्त क्षेत्र में प्रजा की आस्था एवं विश्वास संपादन करने के उद्देश्य से अशोक ने दो शिलालेखों की स्थापना की, एक धौली में तथा एक जौगड़ा में, जिसमें राज्य के अधिकारियों से अपेक्षित आचरण का विवरण प्रदर्शित किया था। धौली शिलालेख में उल्लेखित विभाजन का नाम तोसली है।

धौली स्तिथ चट्टान में गज प्रतिमा
धौली स्तिथ चट्टान में गज प्रतिमा

भारतीय इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा साहित्यिक विशेषज्ञ, ओडिशा के कृष्ण चन्द्र पाणिग्रही तोसली को ही शिशुपालगढ़ कहते हैं। उनके अनुसार मौर्य साम्राज्य से पूर्व धौली की पुरातनता का कोई प्रमाण नहीं है। मौर्य शासनकाल में बौद्ध धर्म का पालन प्रचलन में था। किन्तु अशोक कालीन शिलालेखों एवं राजधानी के स्तंभों व अन्य संरचनाओं के कुछ अवशेषों के अतिरिक्त उस काल से सम्बंधित अब कुछ भी अस्तित्व में नहीं हैं।

सम्राट खारवेल

कलिंग मौर्य वंश के अधिपत्य में अधिक काल तक नहीं रह पाया क्योंकि उसे चेदि राजवंश के सम्राट खारवेल ने छीन लिया था। ऐसा कहा जाता है कि प्रथम सदी ई.पू. के अंतराल में सम्राट खारवेल कलिंग के एकमात्र संप्रभु थे। सम्राट खारवेल ने राजधानी कलिंग नगर से शासन का कार्यभार चलाया था जिसे हम सुविधाजनक रूप से शिशुपालगढ़ कह सकते हैं। चेदि राजवंश के शासनकाल में जैन धर्म ने बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक विकास किया। इस नगर के आसपास, खंडगिरि एवं उदयगिरि पहाड़ियों पर, अनेक गुफा मंदिर उत्खनित किये गए हैं।

खारवेल साम्राज्य के पश्चात, ओडिशा का स्वर्णिम इतिहास अप्रसिद्धि की परतों में लुप्त हो गया क्योंकि उसके पश्चात् उसका राजनैतिक इतिहास अत्यंत कलुषित है। जब भारत के अधितम क्षेत्रों में गुप्त वंश का आधिपत्य स्थापित हुआ तब ओडिशा में भी आशा की किरण प्रकट होने लगी थी। यद्यपि यह स्पष्टतः ज्ञात नहीं है कि गुप्त काल में कलिंग का राजनैतिक महत्व कितना था, तथापि यह मत अवश्य व्यक्त किया जाता है कि गुप्त राजवंश के संरक्षण में कलिंग पर विग्रह राजवंश ने शासन किया था। एक ओर जहां गुप्त राजवंश के शासनकाल में भारत के अन्य भागों में ब्राह्मणवाद पुनर्जीवित हो रहा था, वहीं कलिंग राज्य ने बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म की मान्यताओं को छोड़कर शैव धर्म को अपना लिया था। इस धार्मिक आन्दोलन में लकुलीश पंथ का महत्वपूर्ण प्रभाव था। उस काल से भुवनेश्वर एकाम्र-कानन, एकाम्र-वन अथवा एकाम्र-क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा था।

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एकाम्र

एकाम्र के विषय में आरंभिक पुरालेखिक सन्दर्भ गुप्त वंश के २८० वर्षों के राज्यकाल से सम्बंधित एक शिलालेख से प्राप्त होता है जो लगभग ६०० ईसवी के समतुल्य है। यह शिलालेख विग्रह राजवंश के अंतर्गत आता है। इस शिलालेख में एकम्बक का उल्लेख है जो एकाम्र की ओर संकेत करता है। धार्मिक गतिविधियों के विस्तार के कारण भुवनेश्वर ने शीघ्र ही एक लोकप्रिय पवित्र तीर्थ की प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। ९वीं-१०वीं सदी के भौमकार काल के एक शिलालेख में किये गए उल्लेख के अनुसार, संतिकरदेवा नामक एक राजा ने एकाम्र तीर्थ का भ्रमण किया था तथा भूदान द्वारा बिन्दुसागर को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। भुवनेश्वर से सम्बंधित कालांतर के अनेक अभिलेखों में भी इस क्षेत्र को एकाम्र नाम से ही संबोधित किया था जिसके अधिष्ठात्र देव कृत्तिवास थे। इस के अधिष्ठात्र देव के नाम पर इस क्षेत्र को कृत्तिवास कटक भी कहा जाता था।

सन्दर्भ

कपिल- संहिता, पुरुषोत्तम-माहात्म्य, एकाम्र-चन्द्रिका तथा तीर्थ-चिंतामणि में एकाम्र क्षेत्र से सम्बंधित सन्दर्भ हैं। इनमें कपिल-संहिता सर्वाधिक प्राचीन है। कुछ अन्य पुराणों में भी कपिल-संहिता का उल्लेख है। कपिल-संहिता को १८ उप-पुराणों में से एक माना जाता है तथा यह ११वीं ई. से सम्बंधित है। कपिल-संहिता में उत्कल-क्षेत्र, हर-क्षेत्र, अर्क-क्षेत्र, पुरुषोत्तम-क्षेत्र तथा पार्वती-क्षेत्र के तीर्थों का उल्लेख है।

एकाम्र पुराण स्वयं को एक उप-पुराण घोषित करता है। यह एक शैव साहित्य है। पुरुषोत्तम-माहात्म्य एकाम्र-पुराण से लघु है तथा स्वयं को स्कन्द पुराण का भाग मानता है जो प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि नारद पुराण इसे स्कन्द पुराण का भाग नहीं मानता है। पुरुषोत्तम-माहात्म्य जगन्नाथ की स्तुति एवं पुरी की प्रशंसा को समर्पित है। एकाम्र-चन्द्रिका एक प्रकार से तीर्थयात्रा निर्देशिका है जिसमें भुवनेश्वर के विभिन्न मंदिरों, पवित्र कुण्डों तथा जल स्त्रोतों के विषय में विस्तृत उल्लेख है। इसके अतिरिक्त, इन तीर्थस्थलों की यात्रा करने एवं यहाँ विभिन्न अनुष्ठान करने के लाभों के विषय में भी बताया गया है। इसमें धार्मिक अथवा लोक कथाएं एवं उपाख्यान अधिक नहीं हैं, अपितु यह माहात्म्य धार्मिक मंत्रों पर ही केन्द्रित है।

वाचस्पति मिश्र की तीर्थ-चिंतामणि १३वीं सदी की रचना है। इसमें भारत के उन सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दी गयी है जिनकी एक धर्मनिष्ठ हिन्दू ने अपने जीवनकाल में कम से कम एक यात्रा अवश्य करनी चाहिए।

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कपिल संहिता

कपिल संहिता की एक कथा के अनुसार, राजा शल्यजीत सभी पवित्र तीर्थस्थलों के विषय में जानना चाहते हैं। उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कपिल मुनि कहते हैं, “सभी महाद्वीपों में भारत महाद्वीप, सभी देशों में उत्कल देश सर्वाधिक महान है। सम्पूर्ण धरती में इसके जैसा उत्कृष्ट देश नहीं है। पुरातन काल में, पुष्कर के पावन जल के समीप एकत्र मुनियों को आत्मज्ञान की प्राप्ति लिए, महान मुनि भारद्वाज ने उत्कल के पवित्र स्थलों का ही सुझाव दिया था। उनके विषय में मैंने जो कुछ सुना है, मैं आपको अवश्य बताउँगा।” कपिल संहिता में उड़ीसा के चार पवित्र क्षेत्र के उद्भव के विषय में क्रमवार जानकारी दी गयी है, शंख क्षेत्र या पुरी, अर्क क्षेत्र या कोणार्क, विरजा क्षेत्र या जाजपुर तथा पद्म क्षेत्र अथवा भुवनेश्वर। कालांतर के संतों ने इसमें पाँचवाँ क्षेत्र भी जोड़ा, दर्पण में गणेश। किन्तु काल के साथ इसकी महत्ता में अधिक वृद्धि नहीं हुई।

त्रेता युग

उत्कल प्रदेश की स्थापना के विषय में कपिल संहिता में लिखा है, “ त्रेता युग में भगवान शिव पाप एवं कोलाहल भरे अति संकुलित वाराणसी से निवृत्ति चाहते थे। इस विषय में उन्होंने नारद मुनि से परामर्श लिया। नारद मुनि के सुझाव पर उन्होंने अपने आवास हेतु इस शांत, एकांत व रमणीय स्थान का चयन किया था।”  इतिहासकार राजेन्द्र लाल मित्रा के अनुसार, भुवनेश्वर को मूल वाराणसी के प्रतिरूप के रूप में ढालने में सूक्ष्म से सूक्ष्म तथ्यों का भी ध्यान रखा गया था। वाराणसी के प्रत्येक मंदिर, प्रत्येक स्तम्भ, प्रत्येक नदी, प्रत्येक समारोह, प्रत्येक अनुष्ठान तथा प्रत्येक दिव्य चरित्र की प्रतिकृति भुवनेश्वर में बनाई गयी।

एकाम्र नाम की व्युत्पत्ति के विषय में कपिल संहिता में उल्लेख है कि , “पुरातन काल में इस स्थान पर आम का एक अत्यंत लाभकारी वृक्ष था। चूँकि वहां केवल एक ही वृक्ष था, उस स्थान को एक आम्र वृक्ष का वन कहा गया। एक उन्नत वृक्ष, मणि सदृश पत्तों से लदी विशालकाय शाखाएं, पुण्य, संपत्ति, इच्छित वस्तुएं एवं मोक्ष के चौगुने आशीष प्रदान करते फल।  इसी कारण इस स्थान का नाम एकाम्र पड़ा।

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शिव पुराण

“भगवान शिव को कौन सा स्थान सर्वाधिक प्रिय है?” शिव पुराण की एक कथा में, माँ दुर्गा द्वारा पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने कहा, “हे पर्वतराज पुत्री, हे देवी, तुमने मुझसे अत्यधिक प्रेम किया है। इसलिए तुम्हारी संतुष्टि के लिए मैं तुम्हे अवश्य बताउँगा कि इस पृथ्वी पर मेरा सर्वाधिक प्रिय क्षेत्र कौन सा है। दक्षिणी महासागर के समीप, एक महान उत्कल क्षेत्र है जिसमें एक अप्रतिम नदी है तथा जिसका जल स्त्रोत विन्ध्य पर्वत की तलहटी से आता है। यह नदी पूर्व की ओर बहती है। इस नदी से गंधवती नामक एक आकर्षक जलधारा निकलती है जो गंगा सदृश है तथा उत्तर की ओर बहती है।

इस जलधारा पर, सुनहरे कमलों के मध्य कलहंस तथा कारण्डव के झुण्ड मंडराते रहते हैं। इसका जल सभी पापों का नाश करता है तथा आगे जाकर यह दक्षिण महासागर में समा जाती है। इसके तट पर एक वन है जो मुझे अत्यंत प्रिय है। यह सभी पापों का नाशक है। यह सभी पावन स्थलों से भी सर्वाधिक पावन स्थल है। यह स्थान एकाम्र नाम से जाना जाता है। वैभव एवं ऐश्वर्य से ओतप्रोत इस स्थान पर सभी छह ऋतुएँ सदा उपस्थित रहते हैं। हे पार्वती, वह मेरा क्षेत्र है। वह स्थान कैलाश सदृश है।”

यह स्पष्ट नहीं है कि किस काल से यह नगर भुवनेश्वर के नाम से जाना जाने लगा था। लिंगराज मंदिर में स्थित १२वीं सदी के एक शिलालेख में मंदिर के अधिष्ठात्र देव का नाम त्रिभुवनेश्वर बताया गया है। निःसंदेह ही भुवनेश्वर नाम की व्युत्पत्ति त्रिभुवनेश्वर से हुई है। शीघ्र ही यह नाम कृत्तिवास नाम से अधिक लोकप्रिय हो गया।

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शक्ति तीर्थ

भुवनेश्वर ना केवल शैव तत्वों के लिए प्रसिद्ध था, अपितु यह एक पवित्र शक्ति तीर्थ भी था। इसकी प्रमुख देवी कीर्तिमती के नाम से जानी जाती थी। उनके विषय में सम्बंधित सन्दर्भ मत्स्य पुराण में पाए गए हैं। एक अन्य तंत्र ग्रन्थ, तंत्रसार ने यहाँ की प्रमुख देवी का नाम भागवाहा बताया है। शिव पुराण के उत्कल खंड में चार शक्ति पीठों का उल्लेख है, केदार एवं भावापीठ रूपी गौरी, उत्तरेश्वर एवं महाश्मशान पीठ के रूप में उत्तरेश्वरी, लिंगराज में स्व पीठ के रूप में गोपालिनी तथा वृहद पीठ के रूप में वैद्यनाथ।

आरंभिक यूरोपीय खोजकर्ता एवं भुवनेश्वर

ऐंड्रू स्टर्लिंग

ऐंड्रू स्टर्लिंग आरंभिक यूरोपीय खोजकर्ता थे जिन्होंने उड़ीसा क्षेत्र, उसका भूगोल तथा उसकी संस्कृति के विषय में शोध किया तथा अपने निष्कर्ष प्रकाशित किये थे। उन्होंने लिखा था, “ हर दशा में, युरोपीय खोजकर्ता शीघ्र ही इस परिणाम पर पहुँच जायेगा कि इसकी पौराणिक महत्ता होने के पश्चात भी, इस देश की मिट्टी साधारणतः बंजर एवं निष्फल है। इसके सभी प्राकृतिक उत्पादनों की गुणवत्ता निम्न स्तर की है। नैतिकता एवं बुद्धिमत्ता के मानदंड पर, भारत के इस भाग के अन्य निवासियों की तुलना में इस स्थान के रहवासी सर्वाधिक निचले स्तर के हैं।”

विलियम विलसन हन्टर

विलियम विलसन हन्टर दूसरे यूरोपीय थे जिन्होंने उड़ीसा के विषय में लिखा था। उन्होंने लिखा, “उड़ीसा जिनका पोषण करती है, उन नागरिकों ने मानव स्वातंत्र्य की दिशा में कोई महान युद्ध नहीं किया है। ना ही प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त उसे मानव के अधीन करने जैसे मूल कार्य में कोई सफलता  प्राप्त की है। उनके लिए, सम्पूर्ण विश्व उनका ऋणी है क्योंकि उन्होंने एक भी ऐसी खोज नहीं की जिससे उनके सुख-साधनों में वृद्धि हो अथवा जीवन की आपदाओं में कमी आये। साहित्यिक दृष्टि से भी, जिसे भारतीय जाति का विचित्र यश माना जाता है, उन्होंने कोई विशिष्ट विजय प्राप्त नहीं की है। उन्होंने कोई प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना नहीं की है, दर्शन शास्त्र के किसी पृथक विद्यालय की स्थापना नहीं की है, ना ही किसी नवीन कानून व्यवस्था का विस्तार ही किया है।

इसके पश्चात भी, यदि मैंने अपने शोधकार्य के प्रति किसी भी स्तर का न्याय किया है तो, मेरे निष्कर्ष इतिहास की घटनाओं एवं उनसे फलीभूत दृश्यों को निष्पन्न करती हैं। एक ओर जहां यूरोप की प्रकृति अत्यंत शीत व  रूखी है, वहीं प्रकृति यहाँ अतिप्राचीन रूप से अंधाधुंध श्रम करती है, मानो उसके समक्ष महान अपूर्ण सृष्टि कार्य हो। मानो उड़ीसा के इस एकल प्रांत में, उसने नदी के मुहाने के चारों ओर के अर्ध-घटित स्थल-जलचर क्षेत्र से लेकर प्रदेश के भीतरी पहाड़ी क्षेत्रों की प्राचीन चट्टानों की भीड़ तक, अपनी हस्तकला की सभी कलाकृतियों को, किसी विशाल संग्रहालय के रूप में एकत्र कर दिया हो।”

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राजा राजेन्द्र लाल मित्रा

राजा राजेन्द्र लाल मित्रा प्रथम भारतीय सांस्कृतिक शोधकर्ता व इतिहासकार हैं जिन्होंने भुवनेश्वर के विषय में शोधकार्य कर उसे प्रकाशित किया था। उन्होंने लिखा, “वर्तमान में भुवनेश्वर एक लघु, महत्वहीन, अनाकर्षक व अरुचिकर स्थान है, जहां ना समृद्धि है, ना कोई व्यापार है, ना ही कोई कारखाना है। भूखे पुजारियों से भरा यह स्थान हर प्रकार से उजाड़ है। फिर भी, पुरातात्विकता के आधार पर यह सर्वाधिक रुचिकर क्षेत्र है, यहाँ प्रचुर मात्रा में उत्कृष्ट पुरातात्विक अवशेष हैं तथा दुर्लभ महत्त्व के ऐतिहासिक सन्दर्भों से जुड़ा हुआ है।

यद्यपि १८वीं सदी में यह स्थान प्रसिद्ध नहीं था, औद्योगिक नहीं था, तथापि यह स्थान अपनी पुरातनता व पुरातात्विक अवशेषों के लिए शीघ्र ही अत्यंत प्रसिद्ध व लोकप्रिय हो गया।

जेम्स फर्ग्यूसन

स्थापत्य इतिहासकार जेम्स फर्ग्यूसन ने लिखा है, “इसके विपरीत, अन्य शैलियों का मिश्रण ना होने के कारण उड़ीसा की शैली शुद्ध है, इसी के परिणाम स्वरूप यह भारत के सर्वाधिक सुगठित एवं सजातीय वास्तुकला समूहों में से एक है। अतः यह सामान्य से अधिक रूचि का अधिकारी है। इसके फलस्वरूप इस प्रांत की स्थापत्यशैली का अध्ययन सर्वाधिक लाभकारी होगा।”

मंदिरों की नगरी भुवनेश्वर

भुवनेश्वर के स्थानिकों ने स्टर्लिंग को जानकारी दी कि प्राचीनकाल में भुवनेश्वर में ७००० से अधिक शिव मंदिर थे जिनमें एक करोड़ से भी अधिक शिवलिंग थे। यद्यपि इस तथ्य की पुष्टि नहीं की जा सकती है, तथापि भुवनेश्वर में इतने मंदिर हैं कि उसे “मंदिरों की नगरी” कहा जा सकता है।

वर्तमान में नगर में ५०० से अधिक मंदिर हैं। उनमें से लगभग ५० मंदिर पुरातन हैं। भुवनेश्वर नगर के धरोहर विभिन्न धर्मों एवं पंथों से सम्बंधित हैं, जैसे बौद्ध, जैन तथा हिन्दू, जो भुवनेश्वर नगर की स्थापत्य शैली के भीतर सीमित हैं। भुवनेश्वर सही मायने में ‘भारत का महानतम धरोहर नगर’ की उपाधि का अधिकारी है।

यद्यपि भुवनेश्वर नगर अब हिन्दू सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र का प्रतिनिधि है, तथापि प्राचीन काल में विभिन्न आस्थाओं से संसर्ग होने के कारण यह नगर एक बहुआयामी चरित्र प्रस्तुत करता है जिसके कारण यहाँ सभी आस्थाओं एवं धर्मों का सम्मिश्रण है।

भुवनेश्वर की स्थापत्य वंशावली

स्थापत्य व वास्तुकला किसी भी सभ्यता का महत्वपूर्ण आयाम होता है जो नागरिक एवं धार्मिक स्तर पर उसकी प्रगति को समझने में सहायक होता है। विश्व के सभी पुरातन सभ्यताओं में से भारतीय सभ्यता का एक विशेष महत्त्व है, जिसका कारण है इसका अनवरत अस्तित्व, जो अपनी स्थापना काल से अखंडित दृष्टिकोण का निर्माण कर रहा है।

भुवनेश्वर का स्थापत्य इतिहास
भुवनेश्वर का स्थापत्य इतिहास

विभिन्न अनुष्ठानों एवं आराधनाओं का लिए साधन एवं उपाय उपलब्ध कराते हुए मंदिरों ने इस नगरी के धार्मिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत में अनेक प्रसिद्ध मंदिर-नगर हैं जो अपनी स्थापत्य शैली, धार्मिक महत्ता एवं स्थानीय अनुष्ठानों के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं।

यद्यपि वाराणसी, उज्जैन, द्वारका, मथुरा, पुरी, तिरुपति, रामेश्वरम आदि अत्यंत प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से कुछ हैं, तथापि आरंभिक काल से ही इनमें से अधिकतर स्थानों में जीवित पुरातात्विक अवशेषों की कमी है। खजुराहो, महाबलीपुरम, अजंता, एल्लोरा, बादामी, सांची, नालंदा आदि कुछ धार्मिक केंद्र हैं जो अपनी पुरातन कला एवं स्थापत्य शैली के लिए प्रसिद्ध हैं। किन्तु इन सभी ने ऐसे काल का सामना किया है जिसके कारण उनकी धरोहर विस्मृति में लुप्त होने लगी है तथा खँडहर में परिवर्तित होने लगी है।

कला एवं स्थापत्य का धनी नगर

जब आप भारतीय सभ्यता के अनवरत स्वरूप से ओतप्रोत मंदिर नगरी को खोजना चाहें तो उनमें भुवनेश्वर एक शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आता है। वास्तव में, यह इकलौता भारतीय नगर है जो आलेखित भारतीय इतिहास के आरंभिक काल से हिन्दू प्रभुत्व के अंतिम स्वर्णिम काल तक की कला एवं स्थापत्य पर गौरान्वित होता है। भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में भुवनेश्वर की उत्कृष्टता तीन महत्वपूर्ण आधारों पर सिद्ध होती है। सर्वप्रथम, यह दो सहस्त्राब्दियों से अनवरत कलात्मक क्रियाकलापों का प्रदर्शन करता आ रहा है। दूसरा, इसके भीतर भारत के तीन प्रमुख प्राचीन धर्मों को समर्पित स्मारक हैं, हिन्दू, जैन एवं बौद्ध। तीसरा आधार है, यह नगर अब भी एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में लोकप्रिय है तथा इसके अनेक मंदिरों में निरंतर पूजा एवं अनुष्ठान किये जा रहे हैं।

शिशुपालगढ़

भुवनेश्वर की स्थापत्य यात्रा का आरम्भ शिशुपालगढ़ से हुआ था जो ध्वस्त घेराबंद नगर है, जिसकी वसाहत ३री से ४थी सदी आँकी गयी है। ऐसी मान्यता है कि मौर्य वंश द्वारा अधिपत्य स्थापित करने से पूर्व यह एक समृद्ध नगर था तथा कदाचित यह प्राचीन कलिंग क्षेत्र की राजधानी भी थी। इस नगर के अवशेषों के नाम पर अब केवल ४थी सदी के कुछ स्तम्भ खड़े हैं। खुदाई में संरचनाओं के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, वे इस ओर संकेत करते हैं कि प्राचीन काल में यह एक समृद्ध नगर था जिसकी एक राजधानी सदृश शोभायमान व सुनियोजित अभिन्यास तथा संरचना थी।

मौर्य सम्राट अशोक

भुवनेश्वर का अगला महत्वपूर्ण युग २६८ ई.पू. से २३२ ई.पू. के मध्य, मौर्य सम्राट अशोक के शासन काल में आया। अशोक ने अपने पिता से एक विशाल साम्राज्य विरासत में प्राप्त किया था। इस साम्राज्य के अंतर्गत, कुछ दक्षिणी भागों एवं कलिंग क्षेत्र को छोड़कर भारत के अधिकाँश भाग, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान थे। अशोक ने अपने जीवन का इकलौता युद्ध कर कलिंग क्षेत्र को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया था। ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध में हुए विनाश को देखकर अशोक ने अपने पड़ोसी राज्यों से शत्रुता समाप्त कर दी थी। अशोक ने पूर्व में ही बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था। अतः बौद्ध धर्म का दूर-सुदूर तक विस्तार करने के लिए उसने अनेक मार्ग अपनाए।

भुवनेश्वर सदा से ही कलिंग का एक भाग रहा है। अशोक के शिलालेख संख्या १-१० एवं १४ तथा दो अन्य कलिंग शिलालेख धौली गिरि की चट्टानों पर गड़े हुए प्राप्त हुए थे। इन शिलालेखों के एक ओर, चट्टान पर गज का उभरा हुआ एक शिल्प है जिसमें गज का अग्र भाग चट्टान से बाहर आता प्रतीत होता है। गज का यह शिल्प मौर्य कला के कुछ ही बचे अवशेषों में से एक है। यद्यपि इस शिल्प में ठेठ मौर्य कला की चमक अनुपस्थित है, तथापि इसकी प्राणी सुलभ सूक्ष्मताएँ सराहनीय है।

राजा खारवेल

मौर्य अधिपत्य के कुछ काल पश्चात ही, प्रथम ई.पू. में राजा खारवेल ने कलिंग पर पुनः विजय प्राप्त कर ली थी। चूँकि राजा खारवेल जैन था, उस काल की कला एवं स्थापत्य शैली भी मूलतः जैन शैली की थी। उस काल में जैन मुनियों की ध्यान-साधना के लिए अनेक गुफाओं एवं शैलाश्रयों की खुदाई की गयी थी। उनमें से अधिकतर गुफाएं एक दूसरे के निकट स्थित दो पहाड़ियों पर हैं। १८ गुफाएं उदयगिरि पहाड़ी पर तथा १५ गुफाएं खंडगिरि पहाड़ी पर स्थित हैं जो नगर के समीप ही हैं। ये गुफाएं उभरे हुए शिल्प के लिए प्रसिद्ध हैं, विशेषतः, शकुंतला एवं वासवदत्त्ता की कथाएं कहते शिल्प अत्यंत लोकप्रिय हैं।

राजा खारवेल के पश्चात तथा गुप्त वंश के उदय से पूर्व, भुवनेश्वर अथवा कलिंग का इतिहास अस्पष्ट है। सातवाहन, कुषाण तथा मुरुंड वंश के कुछ सिक्कों के अतिरिक्त अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। दुर्भाग्य से, हमारे पास उस काल की कोई जीवित स्थापत्य संरचना अथवा भवन भी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे, उस समय इस क्षेत्र में अत्यधिक राजनैतिक उथल-पुथल होने के कारण अथवा अत्यधिक लघु स्थानीय शक्तियों के आधीन होने के कारण, उस काल में भवन निर्माण कार्य की दिशा में अधिक गतिविधियाँ नहीं होती थीं।

गुप्त वंश

गुप्त राजवंश के शासन काल से भारतीय कला एवं हिन्दू धर्म का स्वर्णिम युग आरम्भ होता है। किन्तु गुप्त राजवंश के शासन काल में कला क्षेत्र में विशेष प्रगति नहीं हुई। गुप्त राजाओं ने इस क्षेत्र पर परोक्ष रूप से अथवा क्षेत्रीय प्रमुखों के माध्यम से राज किया था। जिस प्रकार से इस नगर में गुप्त काल का कोई भी स्मारक उपलब्ध नहीं है, यह इस ओर संकेत करता है कि इन क्षेत्रीय प्रमुखों ने अपने कार्यकाल में कोई विशेष अथवा विशाल निर्माण कार्य नहीं किया था।

शैलोद्भवा वंश

शैलोद्भवा वंश का शासनकाल, ६वीं-७वीं सदी के मध्य भुवनेश्वर के कला क्षेत्र का स्वर्णिम युग था। इस काल के मंदिरों की कुछ विशेषताएँ हैं, तीन बार ढले पभाग(आधार), देउल(विमान) व जगमोहन(मंडप) के मध्य असंगत जोड़, राहू को छोड़कर अन्य आठ ग्रहों की उपस्थिति, गर्भगृह के द्वार चौखट, तुला के आकार का गर्भगृह द्वार आदि। इनमें अंतिम विशेषता गुप्त काल के समय उनके समकालीन साम्राज्यों की विरासत है।

नगर का प्राचीनतम मंदिर, शत्रुघ्नेश्वर समूह, इस राजवंश से सम्बंधित है। इस समूह में तीन मंदिर हैं, लक्ष्मनेश्वर, भरतेश्वर तथा शत्रुघ्नेश्वर। इन मंदिरों के भग्नावशेषों पर उन्ही से प्राप्त अवशेषों का प्रयोग कर व्यापक रूप से पुनर्निर्माण का कार्य किया गया है। इन मंदिरों की संरचना साधारण है जिसमें एक देउल(विमान) होता है तथा यदा-कदा उससे जुड़ा एक जगमोहन(मंडप) होता है। इस काल के अन्य प्रमुख मंदिर स्वर्ण जलेश्वर मंदिर तथा परशुरामेश्वर मंदिर हैं।

परशुरामेश्वर मंदिर

परशुरामेश्वर मंदिर भुवनेश्वर के सर्वाधिक भव्य मंदिरों में से एक है। यह उत्कृष्ट रूप से अलंकृत तथा विविध चित्रों व शिल्पों से सज्ज है। इसके जगमोहन में सप्तमातृकाओं की उपस्थिति शक्ति पूजन का प्रभाव दर्शाती है। आरंभिक काल के इन मंदिरों एवं कालांतर के कुछ मंदिरों की एक अन्य रोचक विशेषता है, लकुलीश छवि की उपस्थिति, जो यह संकेत करती है कि इस क्षेत्र एवं आसपास के क्षेत्रों में, उस काल में एवं कालान्तर में, लकुलीश पंथ का प्रभाव था।

भौमकर वंश

शैलोद्भवा वंश के शासनकाल के पश्चात, ८वीं से  १०वीं सदी के मध्य भौमकर वंश ने कलिंग पर राज किया था। यह वंश अपने स्त्री शासकों के लिए प्रख्यात  था क्योंकि इस वंश के अंतिम चार शासक स्त्रियाँ थीं। यद्यपि इस काल में स्थापत्य एवं वास्तु शैली में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, तथापि कुछ नवीन तकनीकों का पदार्पण अवश्य हुआ था। प्रभाग की ढलाई तीन से चार की गयी तथा पार्श्व-देवताओं का उत्कीर्णन भित्ति खण्डों द्वारा किया जाने लगा। भित्ति खण्डों द्वारा पार्श्व-देवताओं के उत्कीर्णन के कारण उन्हें भित्ति से पृथक करना कठिन होता है। इसी कारण अधिकतर भंगित मंदिरों में इन्हें आज भी देखा जा सकता है।

शैलोद्भवा वंश के अंतिम शासनकाल एवं भौमकार वंश के आरंभिक शासनकाल (७वीं सदी) के मंदिरों में यमेश्वर संकुल का एक लघु मंदिर, भंगित पश्चिमेश्वर मंदिर, मोहिनी मंदिर, उत्तरेश्वर मंदिर, तलेश्वर मंदिर, परमगुरु मंदिर, गौरी-शंकर-गणेश मंदिर तथा नवीन भवानी शंकर मंदिर प्रमुख हैं। ये मंदिर तथा कालांतर के कुछ मंदिर बिन्दुसागर जलाशय के चारों ओर स्थित हैं।

बिन्दुसागर

इस समय तक बिन्दुसागर की शुद्धता एवं निर्मलता जगप्रसिद्ध हो गयी थी। इसके चारों ओर अनेक मंदिरों का निर्माण होने लगा था। भौमकार वंश के आरंभिक शासक बौद्ध थे। कालांतर में उन्होंने शैव धर्म अपना लिया जिसके कारण मंदिर निर्माण कार्य में तीव्रता आ गयी थी।

बिंदु सागर अथवा बिंदु सरोवर
बिंदु सागर अथवा बिंदु सरोवर

भौमकार वंश के कालांतर शासनकाल (८वीं सदी) में स्थापत्य शैली का विकास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। देउल(विमान) एवं जगमोहन(मंडप) के मध्य जोड़ में सुधार होने लगा था। यद्यपि इस सुधार का आरम्भ मार्कंडेश्वर मंदिर से हुआ था तथापि इस काल की स्थापत्य शैली का आदर्श उदहारण वेताल मंदिर है। परशुरामेश्वर मंदिर में शक्ति उपासना की झलक दिखाई देती है किन्तु शक्ति उपासना की पराकाष्ठा वेताल मंदिर में है जो शक्ति पंथ का सच्चा उपासना स्थान है।

वेताल मंदिर के नाम की व्युत्पत्ति पर इतिहासकार पाणिग्रही कहते हैं, इस मंदिर का नाम वेताल से लिया गया है जिसका अर्थ है, प्रेतात्मा। वे कहते हैं, कापालिक एवं तांत्रिक इस मंदिर का प्रयोग प्रेतात्माओं को जगाने के लिए करते थे।

इस मंदिर की एक अन्य विशेषता है कि यह मंदिर-संरचना की खाखरा शैली में निर्मित है(आयताकार खाखरा देउल)। इससे पूर्व के मंदिर रेखा शैली में निर्मित होते थे। इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा अत्यंत रौद्र रूप में विराजमान हैं। इसी परिसर में स्थित शिशिरेश्वर मंदिर वेताल मंदिर से किंचित प्राचीन है।

हीरापुर का महामाया मंदिर

हीरापुर का महामाया मंदिर
हीरापुर का महामाया मंदिर

भौमकार वंश के अंतिम काल का एक अन्य मंदिर है, योगिनी मंदिर अथवा महामाया मंदिर। भुवनेश्वर से १५ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से नगर, हीरापुर में स्थित यह मंदिर ९वीं शताब्दी का है। इस मंदिर में ६४ योगिनियाँ हैं जिनमें महामाया रूपी चामुंडा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं। इस मंदिर का निर्माण भौमकार वंश की रानी हीरामहादेवी के संरक्षण में किया गया था जो सिम्हमान की पुत्री तथा लोणभद्र अर्थात् शान्तिकरदेव की पत्नि थी।

भौमकार वंश के पश्चात, सोमवंशियों ने भुवनेश्वर एवं आसपास के क्षेत्रों की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अपने शासनकाल में उन्होंने विभिन्न स्थापत्य एवं वास्तुकला की विविध उपलब्धियों को प्राप्त किया। उनकी स्थापत्य यात्रा अत्यंत उल्लेखनीय है। इसका उदहारण मुक्तेश्वर मंदिर है जिसे अनेक इतिहासकार एवं वास्तुविद ओडिशा का अतुलनीय मणि मानते हैं।

मुक्तेश्वर मंदिर

भुवनेश्वर का प्राचीन मुक्तेश्वर मंदिर
भुवनेश्वर का प्राचीन मुक्तेश्वर मंदिर

ऐसा माना जाता है कि उड़ीसा के स्थापत्य कारीगरों द्वारा अनवरत किये गए प्रयोग, परिक्षण व परिश्रम का सफल परिणाम है यह मुक्तेश्वर मंदिर। उससे पूर्व निर्मित मंदिरों में उनके द्वारा किये गए विभिन्न प्रयोग स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। अतः, मुक्तेश्वर मंदिर को एक सफल कलात्मक युग का अंत कह सकते हैं। इस मंदिर की विशेषताओं में कुछ हैं, कम ऊँचाई की अलंकृत भित्तियाँ, प्रवेश द्वार पर तोरण, शिल्पों से गढ़ी मंडप की छत इत्यादि। यद्यपि उड़ीसा की कलाशैली में इन तत्वों का प्रथम प्रयोग था तथापि कालांतर में इन तत्वों का प्रयोग कभी किसी मंदिर में नहीं किया गया। इसके फलस्वरूप, मुक्तेश्वर मंदिर एक विशेष वर्ग का मंदिर सिद्ध होता है। नाग-नागिनी स्तम्भ भी यहाँ सर्वप्रथम समाविष्ट किये गए तथा कालांतर में भी अनेक मंदिरों में उन्हें बनाया गया।

मुक्तेश्वर मंदिर सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिरों में से एक तथा कदाचित सर्वाधिक छायाचित्रीकृत मंदिर है। भारतीय पुरातत्वविद देबल मित्रा के अनुसार, “सबसे सुन्दर, उड़ीसा मंदिर स्थापत्य कला की सर्वोत्कृष्टता का आकर्षक प्रतीक, सहस्त्र वर्षों के थपेड़े सहन करने के पश्चात फीका, रंगहीन, आनंदहीन किन्तु फिर भी अप्रतिम”।

राजारानी मंदिर

राजारानी मंदिर
राजारानी मंदिर

सोमवंशियों का एक अन्य अचम्भा है, ११वीं सदी का यह राजारानी मंदिर। राजारानी मंदिर से वास्तुविदों ने मंदिर की ऊँचाई पर विशेष बल देना आरम्भ किया था। इसका निष्पादन करने के लिए उन्होंने ३ से ५ फीट ऊँचे चबूतरों पर मंदिर का निर्माण आरम्भ किया। जंघा की ऊँचाई में महत्वपूर्ण रूप से बढ़ोतरी की गयी तथा इसका पुरातन रूप एवं भाव अटल रखने के लिए इसे दो तलों में विभक्त कर उनके मध्य एक पट्टी बनाई गयी है। गंडी अर्थात् शिखर पर भी अतिरिक्त तलों का निर्माण कर उसकी ऊँचाई बढ़ाई गयी है।

ब्रह्मेश्वर मंदिर

ब्रह्मेश्वर मंदिर परिसर
ब्रह्मेश्वर मंदिर परिसर

इसी क्रम में अगला मंदिर है, ब्रह्मेश्वर मंदिर। यह भी एक महत्त्वपूर्ण  मंदिर है क्योंकि इसमें एक आधार शिलालेख है जो कालक्रम को उचित क्रम में रखने में सहायक है। यह पंचायतन शैली का मंदिर है तथा इस शैली का सर्वप्रथम मंदिर है। चबूतरे का प्रयोग किये बिना भी इस मंदिर की ऊँचाई ६० फीट है। मुक्तेश्वर मंदिर के समान इस मंदिर की छत पर भी उत्कीर्णन किये गए हैं जो मुक्तेश्वर मंदिर से अपेक्षाकृत कम हैं। अभिलेखों में लिखा गया है कि सोमवंशी राजा उद्द्योता केसरी की माता कोलावती ने कुछ देवदासियों को इस मंदिर को दान में दिए थे। यह कलिंग के मंदिरों में देवदासी प्रथा का प्रथम उल्लेख था।

सोमवंशी स्थापत्य कला

सोमवंशी स्थापत्य शैली की परिणति प्रसिद्ध लिंगराज मंदिर के रूप में हुई है जिसमें कलिंग स्थापत्य शैली के सभी प्रमुख तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। लिंगराज भुवनेश्वर के अधिष्ठात्र देव हैं जिन्हें अभिलेखों में कृत्तिवासा तथा त्रिभुवनेश्वर भी कहा गया है। इस मंदिर की प्रभावशाली ऊँचाई १८० फीट है तथा इसमें देउल, तत्पश्चात जगमोहन, नट-मंडप तथा भोग-मंडप हैं। इस संकुल में अनेक युग के कई लघु मंदिर भी हैं।

१२वीं सदी का आरम्भ ओडिशा को पूर्वी गंग वंश अधिराज्य के क्षेत्र में लेकर आता है जिसके आरंभिक दशकों ने भौमकर वंशियों का पतन देखा। शीघ्र ही पूर्वी गंग वंश ने इस क्षेत्र में अपना अधिपत्य जमा लिया। उनके शासनकाल में प्राचीन परम्पराओं को अटल रखते हुए कुछ नवील तत्वों का भी समावेश आरम्भ हुआ। मंदिर के बाह्य भागों की सज्जा व अलंकरण में कटौती की गयी। मंदिर की सीमाओं पर गणों के साथ नवग्रह फलक भी बनाए गए हैं। द्वार के चौखट पर द्वारपालों के साथ नदी की देवियों को भी उत्कीर्णित किया गया।

गंग परंपरा को लघु मंदिरों से आरम्भ किया गया, जैसे कोटि तीर्थेश्वर मंदिर, सुवर्ण-जलेश्वर मंदिर तथा सम्पूर्ण- जलेश्वर मंदिर। सिद्धेश्वर मंदिर से आरम्भ करते हुए इस शैली ने भी पूर्ण ऊँचाई प्राप्त की तथा कालांतर में रामेश्वर मंदिर, भास्करेश्वर मंदिर तथा मेघेश्वर मंदिर का निर्माण किया।

मौसी माँ मंदिर

रामेश्वर मंदिर को ही मौसी माँ मंदिर कहते हैं। भगवान लिंगराज अपनी रथ यात्रा के समय इस मंदिर में दर्शन करते हैं, जो यह संकेत करता है कि लिंगराज पंथ के उद्भव से पूर्व रामेश्वर मंदिर का महत्वपूर्ण स्थान था। इस पुरातन स्थल पर भास्करेश्वर मंदिर भी स्थित है जो मौर्य बौद्ध काल से सम्बंधित है। मंदिर के समीप विभिन्न बौद्ध कलाकृतियों के अवशेषों का प्राप्त होना इस ओर संकेत करता है। गर्भगृह के भीतर एक अत्यंत उंचा शिवलिंग है जिसे भीतर स्थापित करने के लिए मंदिर को विचित्र आकार दिया गया है।

वस्तुतः, यह शिवलिंग एक अशोक कालीन स्तम्भ का अवशेष है जिसे मंदिर वास्तुविदों ने शिवलिंग के रूप में प्रयोग किया था।

मेघेश्वर मंदिर

मेघेश्वर मंदिर एक महत्वपूर्ण मंदिर है क्योंकि इसमें एक आधार शिलालेख है, जो १२वीं सदी का माना जाता है। मेघेश्वर मंदिर उड़ीसा की स्थापत्य शैली एवं वास्तुकला की भव्यता की पराकाष्ठा है। यह मंदिर ओडिशा में नव-रथ स्थापत्य योजना के अंतर्गत निर्मित मंदिरों के प्रथम समूह में से एक है। चूंकि उस समय वास्तुविद सप्त-रथ स्थापत्य योजना से नव-रथ स्थापत्य योजना की ओर अग्रसर होने के लिए प्रयोग कर रहे थे, उन्हें इन प्रयोगों के सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं हुए, अपितु वे संकुचित आकार में परिणमित हो गए। इन संकुचित प्रारूपों में पगों की चौड़ाई भिन्न थी जिसके कारण मंदिरों का रूप सममित नहीं रहा। मंदिर स्थापत्य में रथ एवं पग शिखर एवं विमान की बाह्य संरचना से सम्बंधित तकनीकी शब्द हैं जिन पर शिखर एवं विमान के रूप निर्भर होते हैं, अर्थात् अनुप्रस्थ एवं लम्बवत दिशाओं में इनकी सतह पर कितने उतार-चढ़ाव होंगे।

१३वीं सदी में नगर में अनंत वासुदेव नामक प्रथम वैष्णव मंदिर का निर्माण किया गया। इसका निर्माण गंग राजा अनंग-भीम तृतीय की पुत्री चन्द्रिका ने करवाया था। लिंगराज मंदिर के समान, अनंत वासुदेव मंदिर भी एक कलिंग मंदिर के सभी अवयवों को प्रदर्शित करता है, एक देउल, एक जगमोहन, एक नाट्य मंडप तथा एक भोग-मंडप। इस मंदिर के अधिष्ठात्र देव अनंत, वासुदेव तथा सुभद्रा हैं।

यमेश्वर मंदिर

यमेश्वर मंदिर उस सदी का एक अन्य अद्भुत मंदिर है। यह ऐसे स्थान पर निर्मित है जहाँ पुरातन काल के अनेक मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मंदिर परिसर के भीतर ७वीं सदी का एक अन्य लघु मंदिर भी है। प्रत्येक वार्षिक जत्रा में भगवान लिंगराज यमेश्वर मंदिर में दर्शन के लिए पधारते हैं, यह परंपरा इस स्थान की पुरातनता की ओर संकेत करती है। इस मंदिर में एक ऊँचे चबूतरे पर एक देउल एवं एक जगमोहन हैं।

उस काल की अद्भुत संरचनाओं में सरि एवं सुका का जुडवाँ मंदिर है। यमेश्वर मंदिर संकुल के समान इस संकुल में भी ७वीं सदी के तीन पूर्वकालीन मंदिर हैं। सरि मंदिर अपने उत्कृष्ट उत्कीर्णन के लिए प्रसिद्ध है। किन्तु नर्म बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित होने के कारण बड़े प्रमाण में इसका क्षय हुआ है। यद्यपि ये मंदिर लिंगराज मंदिर एवं अनंत-वासुदेव मंदिर के पश्चात निर्मित हैं तथापि ये मंदिर नट-मंडप एवं भोग मंडप विहीन हैं।

मंगलेश्वर मंदिर

१४वीं शताब्दी में निर्मित प्रमुख मंदिरों की संख्या अधिक नहीं है। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर मंगलेश्वर मंदिर है जो एक शिव मंदिर है। इस मंदिर में उल्लेखनीय विशेष तत्व कुछ अधिक नहीं है। यह एक साधारण संरचना है जिसमें एक देउल एवं एक जगमोहन है। इसका बाह्य भाग भी सादा है। प्रायिक स्थानों पर प्रतिमाओं के प्रावधान हैं किन्तु सभी प्रतिमाएं अब अनुपस्थित हैं। इस काल का एक अन्य मंदिर है, चिंतामणिश्वर मंदिर। इस मंदिर पर विस्तृत नवीनीकरण हुआ है जिसके कारण इसके पुरातन तत्व अब लुप्त हो चुके हैं।

१५वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में पूर्वी गंग वंश का पतन आरंभ हुआ। शीघ्र ही गजपति राजवंश ने उन्हें प्रतिस्थापित कर दिया। उनके लोकप्रिय राजा कपिलेन्द्र देव सन् १४३४ में सिंहासन पर विराजमान हुए। इस काल में निर्मित कलिपेश्वर मंदिर स्थापत्य व वास्तुकला का एक अद्भुत उदहारण है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार यह स्थान कपिलमुनि का जन्मस्थल है। इस मंदिर में एक देउल, एक जगमोहन एक नट-मंडप तथा एक भोग-मंडप है। इस मंदिर की विशेषता इसके समीप स्थित इसका जलकुंड है।

कपिलेश्वर मंदिर के समीप व चारों ओर अनेक अन्य मंदिर हैं जिसके कारण इस क्षेत्र को कपिलेश्वर मंदिर परिसर कहा जाता है। उनमें से कुछ मंदिर मुख्य कपिलेश्वर मंदिर से प्राचीन हैं। प्रति वर्ष शिवरात्रि के पश्चात आते प्रथम शनिवार के दिन, भगवान लिंगराज इस संकुल का भ्रमण करते हैं तथा शनिश्वर मंदिर तथा कपिलेश्वर मंदिर में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

ब्रह्मा मंदिर

गजपति वंश के शासनकाल का एक अन्य विशेष मंदिर ब्रह्मा मंदिर है जो बिन्दुसागर के पूर्वी तट पर स्थित है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, भगवान लिंगराज के राज्याभिषेक के लिए जब ब्रह्मा भुवनेश्वर आये थे तब भगवान ने उन्हें सदा के लिए वहीं स्थाई होने का निवेदन किया था। तब ब्रह्मा से अपनी असमर्थता दर्शाते हुए कहा था कि वे स्थाई रूप से वहां नहीं रह सकते। किन्तु उन्होंने भगवान को वचन दिया कि वे प्रति वर्ष चैत्र मास में भुवनेश्वर की यात्रा पर अवश्य आयेंगे। यह मंदिर उसी किवदंती के सम्मान में निर्मित है।

कपिलेन्द्र देव के देहावसान के पश्चात उनका राजवंश पारिवारिक मतभेदों की चपेट में आ गया जिससे वे कभी उबर नहीं पाए। उनके हाथों से दक्षिणी एवं पश्चिमी प्रदेश छूटने लगे। इसके अतिरिक्त, बंगाल सल्तनत से आतंक अनवरत जारी था। सन् १५४१ में हुए विद्रोह के पश्चात गोविन्द विद्यासागर ने भोई वंश आरम्भ किया जो दो दशक भी पार नहीं कर पाया। मुकुंद देव द्वारा किये एक विद्रोह के पश्चात सन् १५५९ में भोई राजवंश का भी अंत हो गया।

भास्करेश्वर मंदिर भुवनेश्वर
भास्करेश्वर मंदिर भुवनेश्वर

भुवनेश्वर नगर पर अंतिम आघात किया बंगाल के सुल्तान सुलेमान खान कर्रानी के पुत्र बायजीद खान कर्रानी ने, जब उसकी सेना ने सेनानायक कालापहाड़ की नेतृत्व में नगर पर धावा बोल दिया था। अंततः, सन् १५९० में, अकबर के शासनकाल में ओडिशा को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिया गया।

१५वीं शताब्दी के पश्चात मंदिर निर्माण कार्य लगभग पूर्ण रूप से बंद हो गया था। इसका प्रमुख कारण इस क्षेत्र की राजनैतिक अस्थिरता माना जाता है। बंगाल सुल्तान, तदनंतर मुगल शासन काल में यही स्थिति अनवरत बनी रही।

भुवनेश्वर की धरोहर – दर्शनीय मंदिरों की सूची

  • उदयगिरि गुफाएं
  • रानी-गुम्फा अथवा रानी की गुफा में शकुंतला दृश्य
  • रानी की गुफा में वासवदत्ता दृश्य
  • शत्रुघनेश्वर मंदिर समूह
  • स्वर्ण-जलेश्वर
  • परशुरामेश्वर
  • पश्चिमेश्वर
  • मोहिनी
  • उत्तरेश्वर
  • तलेश्वर
  • गौरी-शंकर-गणेश
  • नवीन भवानी शंकर
  • मर्कंडेश्वर
  • शिशिरेश्वर
  • वेताल
  • महामाया
  • मुक्तेश्वर
  • राजारानी
  • ब्रह्मेश्वर
  • कोटि-तीर्थेश्वर
  • सम्पूर्ण जलेश्वर
  • सिद्धेश्वर
  • रामेश्वर
  • भास्करेश्वर
  • मेघेश्वर
  • अनंत-वासुदेव
  • यमेश्वर
  • सरि
  • सुका
  • चित्रकरणी

यह इंडीटेल के लिए संकलित एक अतिथि संस्करण है जिसे Puratattva portal के सौरभ सक्सेना ने प्रेषित किया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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