कर्नाटक Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/कर्नाटक/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 07 Aug 2024 15:25:53 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 कुर्ग – तलकावेरी, भागमण्डल एवं त्रिवेणी संगम https://inditales.com/hindi/talakaveri-kaveri-udgam-coorg-karnataka/ https://inditales.com/hindi/talakaveri-kaveri-udgam-coorg-karnataka/#respond Wed, 15 Jan 2025 02:30:37 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3749

कावेरी दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों को पोषित करती एक जीवनदायिनी नदी है। ये दो राज्य हैं, कर्नाटक एवं तमिलनाडु। इन दोनों राज्यों का जीवन कावेरी नदी पर निर्भर है। कदाचित यही कारण है कि उसके जल की वितरण व्यवस्था के संबंध में इन दोनों राज्यों ने एक दूसरे के मध्य विवाद उत्पन्न कर […]

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कावेरी दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों को पोषित करती एक जीवनदायिनी नदी है। ये दो राज्य हैं, कर्नाटक एवं तमिलनाडु। इन दोनों राज्यों का जीवन कावेरी नदी पर निर्भर है। कदाचित यही कारण है कि उसके जल की वितरण व्यवस्था के संबंध में इन दोनों राज्यों ने एक दूसरे के मध्य विवाद उत्पन्न कर लिया है। यह वर्तमान काल की विडंबना है कि अब कावेरी नदी का उल्लेख इस विवाद के संबंध में अधिक किया जाता है। इसके चलते हम कावेरी नदी एवं उसके उद्गम की महत्ता, उसके पावित्र्य को विस्मृत करते जा रहे हैं।

कावेरी अम्मा प्रतिमा
कावेरी अम्मा प्रतिमा

कावेरी नदी का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत की गोद में स्थित तलकावेरी है। इसके पश्चिमी दिशा में १०० किलोमीटर से भी निकट अरब महासागर है।

भूल-भुलैया मार्गों से बलखाती हुई कावेरी पूर्व दिशा की ओर बढ़ती है तथा बंगाल की खाड़ी में सागर से जा मिलती है। अपने मार्ग में आगे बढ़ते हुए कावेरी नदी अनेक प्राकृतिक सौन्दर्यों को जन्म देती जाती है, जैसे शिवना समुद्र जलप्रपात, होगेनक्कल जलप्रपात आदि। नदी पर अनेक बांधों का निर्माण किया गया है। उसमें मैसूर स्थित श्री कृष्णा राजा सागर बांध भी सम्मिलित है।

तलकावेरी के गिर्द पहाड़ियां
तलकावेरी के गिर्द पहाड़ियां

मन में प्रश्न यह उठता है कि कावेरी ने अंततः इतना घुमावयुक्त मार्ग क्यों चुना? उसके मन में कैसा मंथन चल रहा था? समुद्र से मिलने के लिए पश्चिम दिशा की ओर सीधे भी जा सकती थी। इस प्रकार उसे केवल १०० किलोमीटर की ही दूरी तय करनी पड़ती। किन्तु उसने भूल-भुलैया मार्ग पर इठलाते-बलखाते हुए पूर्व दिशा में ७६० किलोमीटर की दूरी तय की। कदाचित कावेरी को दक्षिण भारत के निवासियों की भविष्य में उद्भव होने वाली जल समस्या का आभास हो गया था। इसी कारण उनकी जल समस्या का निराकरण करने के उद्देश्य से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचते हुए उन्होंने स्वयं के लिए ऐसे मार्ग की रचना की।

कावेरी के विषय में एक अद्भुत तथ्य यह भी है कि उसका उद्गम तलकावेरी से हुआ है, जो ब्रह्मगिरी पर्वत के शिखर पर स्थित है। धरती माँ के गर्भ से निकलने से पूर्व वो भीतर ही भीतर पर्वत के शिखर तक जाती है, तत्पश्चात उसका जन्म अथवा उगम होता है।

तुला संक्रमण

तलकावेरी में कावेरी नदी के उद्गम का उत्सव आयोजित किया जाता है। यह उत्सव अक्टूबर मास के मध्य में, लगभग १७/१८ अक्टूबर को मनाया जाता है। इस दिवस सूर्य का तुला राशि में प्रवेश होता है। इसीलिए इस तिथि को तुला संक्रांति अथवा तुला संक्रमण कहते हैं। इस काल में कावेरी कुंड से जल अपनी पूर्ण भव्यता एवं शक्ति के साथ बाहर आता है। वह दृश्य कितना दर्शनीय होता होगा! बड़ी संख्या में तीर्थयात्री इस दृश्य का आनंद उठाने दूर दूर से आते हैं। पवित्र जलकुंड में स्नान करते हैं। इसका जल अपने साथ भी ले जाते हैं जिससे वे अपने घरों की शुद्धि करते हैं।

इस दिवस कावेरी के तट पर मेलों का आयोजन किया जाता है। तुला संक्राति के दिवस कावेरी नदी के जल में स्नान एवं दान-पुण्य की मान्यता है।

तलकावेरी उद्गम – कावेरी नदी की दंतकथा

तलकावेरी की लोककथा

ऐसी कथा है कि जब भगवान शिव एवं पार्वती का कैलाश पर्वत पर विवाह हो रहा था, तब उनके विवाह उत्सव का दर्शन करने सभी वहाँ चले गए जिसके कारण असंतुलित होकर पृथ्वी एक ओर को झुक गई थी। तब अगस्त्य ऋषि को दक्षिण दिशा की ओर जाने का आदेश दिया गया ताकि पृथ्वी का संतुलन पुनः सामान्य हो सके। अगस्त्य ऋषि जाने के लिए अनिच्छुक थे। उन्होंने असंतोष प्रकट किया कि उन्हे नित्य कर्मों के लिए पवित्र जल कहाँ से प्राप्त होगा! तब भगवान शिव ने उनके कमंडल में पवित्र जल भर दिया तथा उन्हे जाने की आज्ञा दी। तब अगस्त्य मुनि दक्षिण भारत आए। वे अपना कमंडल लेकर ब्रह्मगिरी पर्वत पर गए तथा तपस्या करने लगे।

तलकावेरी का प्रवेश द्वार
तलकावेरी का प्रवेश द्वार

समानांतर ब्रह्मांड में एक अपराध बोध के चलते इन्द्र कमल की डंठल में छुपा हुआ था। उसे अपना राज्य एवं अपना स्वरूप पुनः प्राप्त करने के लिए पवित्र जल की आवश्यकता थी। वह जहाँ था, वहाँ से पवित्र जल का निकटतम स्रोत था, अगस्त्य मुनि का कमंडल। इन्द्र ने सहायता के लिए गणेश की आराधना की। गणेश एक गौ का रूप धर कर अगस्त्य मुनि के कमंडल पर बैठ गए। जब अगस्त्य मुनि ने कमंडल पर से गाय को परे करने का प्रयास किया तब कमंडल लुड़क गया तथा उसमें से जल बाहर आ गया। अगस्त्य मुनि ने गाय को तब तक दौड़ाया जब तक उसने एक बालक गणेश का रूप ना ले लिया।

स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, कावेरी वास्तव में ऋषि कावेर की दत्तक पुत्री लोपमुद्रा का नदी अवतार है। अगस्त्य ऋषि से उनका विवाह हुआ था।

मडिकेरी से तलकावेरी का अर्ध दिवसीय भ्रमण

तलकावेरी मडिकेरी से पूर्वी दिशा में लगभग ४५ किलोमीटर दूर स्थित है। कुर्ग से अर्ध दिवसीय भ्रमण के रूप में आप तलकावेरी का दर्शन कर सकते हैं। कुर्ग में हम कॉफी उद्यान के भीतर ठहरे थे। वहाँ से प्रातः काल सड़कमार्ग द्वारा हम तलकावेरी की ओर निकल पड़े। कुर्ग के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित अनूठे आकर्षक गाँवों से जाते हुए हम प्रकृति का भरपूर आनंद उठा रहे थे।

मार्ग में हमने भागमण्डल जैसे अनेक सुंदर मंदिर देखे।

तलकावेरी के प्रवेश स्थल पर एक विशाल तोरण है जिसके आगे सोपान हैं जो आपको तलकावेरी जलकुंड तक ले जाएंगे। यदि आप इस तोरण के नीचे, घाटी की दिशा में खड़े होते हैं तो आप अपने समक्ष हरियाली से ओतप्रोत विस्तृत घाटी देखेंगे। घाटी की परतों में हरियाली के विविध रंग देख आप मंत्रमुग्ध हो जाएंगे। जब हम वहाँ पहुँचे, सूर्य हमारे ऊपर दमकने लग गया था। हमारे लिए वहाँ खड़े होकर परिदृश्यों का अवलोकन करना किंचित दूभर हो रहा था। समक्ष स्थित हरियाली हमारे नयनों को सुख अवश्य पहुँचा रही थी किन्तु सूर्य की तपती किरणें असह्य हो रहीं थी। हमें खेद हो रहा था कि हम प्रातः शीघ्र क्यों नहीं निकले। यहाँ का सुखद आनंद प्राप्त करने के लिए आप यहाँ सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय पहुँचें।

हम सबने तोरण के नीचे, बहते जल में अपने चरण धोए तथा सोपान चढ़ना आरंभ किया। सोपान नवीन प्रतीत हो रहे थे। किन्तु शैल निर्मित होने के कारण धूप में सोपान तप रहे थे। चरणों को जलन से सुरक्षित रखने के लिए हम सोपानों पर लगभग दौड़ रहे थे। जी हाँ, पैरों में जूते-चप्पल नहीं थे। उन्हे तोरण से पूर्व ही उतारने पड़ते हैं। मोजे धारण करने की भी अनुमति नहीं होती है।

जलकुंड

मंदिर के जलकुंड पर पहुँचते ही हमारे समक्ष मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य था। जलकुंड चौकोर था जिसका आकार एक लघु तरण-ताल के अनुरूप था। हमें जो बताया गया था, उसके विपरीत मार्च मास में भी जलकुंड में जल था। जलकुंड के एक किनारे पर कावेरीअम्मा का एक लघु मंदिर स्थित है। कावेरीअम्मा मंदिर के भीतर देवी कावेरी की खड़ी मुद्रा में प्रतिमा है जहाँ वे अपने मटके से जल उड़ेल रही हैं। एक पुजारी मंदिर में उनकी पूजा-अर्चना कर रहे थे। कुछ भक्तगण जलकुंड के भीतर खड़े थे जिससे मुझे जलकुंड की गहराई का अनुमान प्राप्त हुआ।

कावेरी उद्गम का कुंड
कावेरी उद्गम का कुंड

पुजारी जी ने हमसे अपने चरणों को जलकुंड में ना डालने के लिए कहा क्योंकि जलकुंड के जल को पवित्र माना जाता है। आप जल के भीतर जाकर पवित्र स्नान कर सकते हैं, डुबकी लगा सकते हैं लेकिन उसके जल को अकारण पाँव से छू नहीं सकते। इसे कुर्ग क्षेत्र का पावनतम स्थान माना जाता है। अतः इसका आदर होना चाहिए। हमने वहाँ खड़े होकर प्रार्थना की। इसके पश्चात जलकुंड के पृष्ठभाग में पहाड़ी के ऊपरी भागों पर स्थित मंदिरों के दर्शन करने चल दिए।

अगस्तीश्वर मंदिर एवं गणेश मंदिर

पहाड़ी के ऊपरी भाग पर लघु किन्तु आकर्षण मंदिर स्थित हैं। उनमें से एक मंदिर को अगस्तीश्वर मंदिर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगस्त्य मुनि ने इसका निर्माण किया था। दूसरा मंदिर गणेश जी का है। गणेश भगवान का इस स्थान से गहन संबंध है। मैंने पूर्व में ही लिखा है कि गणेश ने कावेरी नदी को यहाँ लाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हमने कुछ क्षण वहाँ शांति के साथ व्यतीत किये। मन में एक सुखद शांति की अनुभूति थी जो साधारणतः उन स्थानों से प्राप्त होती है जहाँ दीर्घ काल से अनवरत पूजा-अर्चना की जा रही हो।

ब्रह्मगिरी पर्वत

तलकावेरी के निकट ही ब्रह्मगिरी पर्वत का शिखर है। शिखर तक पहुँचने के लिए लगभग ३५० सोपान चढ़ने पड़ते हैं। मुझे विश्वास है, शिखर से चारों ओर स्थित घाटियों का अप्रतिम दृश्य प्राप्त होता होगा। हम जब तक तलकावेरी पहुँचे तथा वहाँ के मनोरम दृश्यों का आनंद उठाकर दर्शन एवं पूजा-अर्चना आदि से निवृत्त हुए, सूर्य अपनी चरम ऊष्मा पर पहुँच चुका था। उस वातावरण में तपते सोपानों पर चरण रखकर पर्वत शिखर तक जाने के विषय में विचार करना भी हमारे लिए असह्य था।

कावेरी अम्मा

कुर्ग में कुछ दिवस व्यतीत करने के पश्चात मुझे यह आभास हुआ कि कुर्ग में आपकी दृष्टि जहाँ भी जाएगी, आपको कावेरी अम्मा की प्रतिमा अवश्य दृष्टिगोचर होगी। वे इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। साधारणतः खड़ी मुद्रा में उनकी प्रतिमा होती है। उनके हाथों में जल का एक कलश होता है मानो वे लोगों को जल का वरदान दे रही हों। हमने तलकावेरी में उनकी ऐसी प्रतिमा देखी थी। तलकावेरी उनका निवासस्थान है। इसके अतिरिक्त सभी परिदृश्य अवलोकन केंद्रों पर, निसर्गधाम के बांस वन में, सभी संग्रहालयों में, कुल मिलाकर देखें तो सभी स्थलों पर उनकी प्रतिमाएँ स्थापित हैं।

भागमण्डल  मंदिर

तलकावेरी से विश्रामगृह की ओर आते हुए हम भागमण्डल नगर में स्थित एक आकर्षक मंदिर में रुके। यह नगर भगंदेश्वर अथवा भागंदेश्वर मंदिर के लिए लोकप्रिय है। दुहरी तिरछी छतों से युक्त यह मंदिर ठेठ केरल शैली में निर्मित है।

मंदिर के बाह्य क्षेत्र में लगे सूचना पटल के अनुसार इस मंदिर का नामकरण भगन्द ऋषि के नाम पर किया गया है जिन्होंने यहाँ शिवलिंग की स्थापना कर तपस्या की थी। वे स्कन्द के आराधक थे। उन्होंने इस क्षेत्र का नाम स्कन्द क्षेत्र रखा था। लोग इस क्षेत्र को भगन्द क्षेत्र भी कहते हैं।

भागमंडल मंदिर - तलकावेरी
भागमंडल मंदिर – तलकावेरी

इस मंदिर को इस क्षेत्र के सभी शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ था। वर्तमान में मंदिर की जो संरचना है, उसका निर्माण १८ वीं शताब्दी के अंतिम काल में राजा डोड्डा वीरा राजेन्द्र ने करवाया था। मंदिर में सूक्ष्म व जटिल उत्कीर्णन किये गए हैं। शैल स्तंभों पर पौराणिक कथाएँ प्रदर्शित की गयी हैं।

मंदिर परिसर के चारों ओर परिधीय भित्तियाँ हैं जिनके साथ साथ स्तंभ युक्त गलियारे हैं। इनके मध्य चार छोटे मंदिर हैं जो शिव, शक्ति, स्कन्द एवं विष्णु को समर्पित हैं। कुछ भित्तियों पर प्राचीन भित्तिचित्र भी हैं।

इनके अतिरिक्त मंदिर की छत को देखना ना भूलें। मंदिर की छत पर पौराणिक कथाओं के दृश्य उत्कीर्णित हैं।

भागमण्डल त्रिवेणी संगम

भागमण्डल त्रिवेणी संगम कावेरी, कन्निके एवं सुज्योति, इन तीन नदियों का त्रिवेणी संगम है। यह संगम भागमण्डल मंदिर के ठीक सामने है। इनमें से सुज्योति नदी को पौराणिक नदी माना जाता है, जैसे प्रयाग संगम में सरस्वती नदी को एक पौराणिक नदी माना जाता है।

कावेरी संगम
कावेरी संगम

यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल एवं आकर्षक पर्यटन स्थल है। शांतिपूर्ण रीति से बहती दो नदियाँ मिलकर एकरूप हो जाती हैं, इसे देखने का आनंद अवर्णनीय है। इन दोनों नदियों के ऊपर छोटे छोटे सेतु बांधे गए हैं जिन के ऊपर जाकर आप भिन्न भिन्न कोणों से त्रिवेणी संगम का अवलोकन कर सकते हैं। ये नदियां कछुओं एवं मछलियों से भरी हुई हैं।

संगम के आसपास कई लघु मंदिर हैं। नदी के तट पर हमने शिवलिंग एवं नंदी के विग्रह को देखा था। लगभग सभी वृक्षों के नीचे नाग प्रतिमाएं थीं।

यात्रा सुझाव

  • तलकावेरी, भागमण्डल एवं ब्रह्मगिरी पर्वत के दर्शन-अवलोकन के लिए आप अपने विश्रामगृह से ऐसे समय निकलें कि आप तलकावेरी में प्रातः शीघ्र पहुँचें जब वातावरण शीतल रहता है। आपको मंदिर के सोपान चढ़ने, वहाँ विचरण करने तथा ब्रह्मगिरी पर्वत शिखर तक चढ़ने में आसानी होगी।
  • मडिकेरी से तलकावेरी तक नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। हमने टैक्सी किराये पर ली थी क्योंकि हम तलकावेरी के साथ साथ कुछ अन्य पर्यटन स्थलों के भी दर्शन करना चाहते थे।
  • तलकावेरी, भागमण्डल मंदिर, ब्रह्मगिरी पर्वत शिखर तथा त्रिवेणी संगम, इन सब के दर्शन करने के लिए आपको एक सम्पूर्ण दिवस की आवश्यकता होगी।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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धारवाड़ पेड़ा – कर्नाटक की प्रसिद्ध मिठाई https://inditales.com/hindi/dharwad-peda-ki-kahani/ https://inditales.com/hindi/dharwad-peda-ki-kahani/#respond Wed, 28 Aug 2024 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3672

धारवाड़ कर्नाटक का एक ऐसा क्षेत्र है जो अनेक विशिष्टताओं से अलंकृत है। उनमें निर्विवाद सर्वप्रथम है, धारवाड़ की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका, डॉ. गंगुबाई हंगल। उन से आप सब अवगत ही हैं। धारवाड़ की दूसरी विशेषता है, वहाँ का प्रसिद्ध मिष्टान्न, धारवाड़ पेड़ा। इसका सर्वप्रथम आस्वाद मैंने १०-१२ वर्षों पूर्व बंगलुरु में लिया था। जिव्हा […]

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धारवाड़ कर्नाटक का एक ऐसा क्षेत्र है जो अनेक विशिष्टताओं से अलंकृत है। उनमें निर्विवाद सर्वप्रथम है, धारवाड़ की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका, डॉ. गंगुबाई हंगल। उन से आप सब अवगत ही हैं। धारवाड़ की दूसरी विशेषता है, वहाँ का प्रसिद्ध मिष्टान्न, धारवाड़ पेड़ा। इसका सर्वप्रथम आस्वाद मैंने १०-१२ वर्षों पूर्व बंगलुरु में लिया था। जिव्हा पर रखते ही मेरे प्रथम उद्गार कुछ इस प्रकार थे, ‘बंगलुरु में मथुरा पेड़ा’! मेरे साथ कर्नाटक के कुछ कन्नड़ भाषी मित्र भी थे। मेरे उद्गारों ने कदाचित उनके कन्नड़ गौरव को आहत किया। उन्होंने त्वरित ही मेरे निष्कर्ष का खंडन किया। उन्होंने दृढ़ता पूर्वक प्रतिपादित किया कि वह शुद्ध धारवाड़ पेड़ा है तथा वह इस शैक्षणिक केंद्र नगरी के रूप में प्रसिद्ध धारवाड़ के अतिरिक्त अन्य किसी स्थान पर उपलब्ध नहीं है.

धारवाड़ पेड़ा
धारवाड़ पेड़ा

मेरा अंतर्मन यह स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं हो रहा था। वह मेरी जिज्ञासा को अधिक पुष्ट कर रहा था कि इस पेड़े का प्रसिद्ध मथुरा पेड़े से कुछ संबंध अवश्य है। मेरी यह जिज्ञासा अनेक वर्षों पश्चात फलीभूत हुई जब मैं धारवाड़ के लाइन बाजार में स्थित प्रतिष्ठित बाबूसिंह ठाकुर के मिष्टान्न दुकान में पहुँची।

धारवाड़ पेड़ा – लोकप्रिय भारतीय मिष्टान्न

सम्पूर्ण कर्नाटक राज्य में सुप्रसिद्ध बाबूसिंह ठाकुर मिष्टान्न भंडार के विषय में जितना सुना था, मेरे मन में एक कल्पना ने आकार ले लिया था कि वह कोई अति विशाल आधुनिक दुकान होगी जो भिन्न भिन्न मिठाइयों से भरी हुई होगी। किन्तु दुकान का वास्तविक रूप उससे ठीक विपरीत निकला। वह दुकान तो ऐसी प्रतीत हुई मानो भित्ति में एक चौकोर बड़ा छिद्र हो। दुकान को दो नवयुवक संचालित कर रहे थे। ऊपर से इस दुकान के नाम पर इस मार्ग का नामकरण किया गया है, लाइन बाजार। क्यों? क्योंकि प्रतिदिन प्रातः इस दुकान के समक्ष यह पेड़ा क्रय करने के लिए ग्राहकों की लंबी कतार लगती थी। मुझे कालांतर में यह ज्ञात हुआ कि ग्राहकों की संख्या अत्यधिक होने पर प्रत्येक ग्राहक केवल ५०० ग्राम पेड़ा ही ले सकता था ताकि सभी को पर्याप्त पेड़ा प्राप्त हो सके।

मैंने दुकान पर पहुँचकर दुकान के स्वामी से भेंट करने की माँग की। दुकान के कर्मचारी मेरी माँग सुनकर सकते में आ गए। “वे स्वयं किसी ग्राहक से भेंट नहीं करते”। मैं अपनी माँग पर अडिग रही। अंततः उन्होंने मुझे परिवार के कनिष्ठतम व्यावसायिक सदस्य का दूरसंचार क्रमांक दिया। साथ ही मुझे चेतावनी दी कि मैं इन मिठाईयों का छायाचित्र नहीं ले सकती। मेरे कंधे पर लटके कॅमेरे को देख उन्होंने मुझे लगभग चुनौती ही दे दी कि मैं उन पेड़ों का चित्र कदापि नहीं ले सकती।

मथुरा पेड़ा

अंततः मैंने बाबूसिंह ठाकुर से भेंट कर ही ली। वे मूल बाबूसिंह ठाकुर के पोते हैं जिन्हे यह प्रसिद्ध पेड़ा इस नगर में लाने का श्रेय प्राप्त है। दुकान के पृष्ठ भाग में ही उनका निवासस्थान है। मैंने उनसे उनके निवास पर ही भेंट की। उन्होंने बताया कि उनके परिवार का मूलस्थान उत्तर प्रदेश है। कालांतर में वे बंगाल के उन्नाव से होते हुए अंततः धारवाड़ पहुँचे। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इस स्थानीय लोकप्रिय मिष्टान्न का पूर्वज मथुरा पेड़ा ही है। मुझे अपनी परख पर किंचित गर्व हुआ। मेरी रसेंद्रियों ने मुझे सही संकेत प्रदान किया था।

बाबूसिंह ठाकुर का परिवार आया तो उत्तर प्रदेश से है लेकिन मैंने कुछ क्षण पूर्व उन्हे अपने कर्मचारियों को कन्नड़ भाषा में अनुदेश देते देखा था। मैं जानना चाहती कि उनका परिवार आपस में किस भाषा में वार्तालाप करता है। तुरंत उनका आया, “हिन्दी”। उसके पश्चात मैं भी उनसे शुद्ध हिन्दी में वार्तालाप करने लगी। उन्होंने बताया कि किस प्रकार उनके दादाजी एवं पिताजी ने इस व्यवसाय को आरंभ किया एवं आगे बढ़ाया। आरंभ में उनके दादाजी एवं पिताजी प्रतिदिन प्रातः, अपने निवास पर ही, स्वयं पेड़े बनाते थे तथा इसी दुकान से उनकी विक्री करते थे।

अतीत की स्मृतियाँ

बाबूसिंह ठाकुर जी अपने अतीत की स्मृतियों में विचरण करने लगे। उन्होंने बताया कि उनकी दुकान के समक्ष ग्राहकों की लंबी कतार होती थी। प्रत्येक दिवस प्रातः १० बजे से दोपहर १२ बजे तक उनके सभी पेड़े समाप्त हो जाते थे। चूंकि वे सर्व मिष्टान्न अपने निवास पर स्वयं तैयार करते थे, वे प्रतिदिन लगभग ५० किलो से अधिक मिठाइयाँ नहीं बना पाते थे। उनके शब्दों ने मुझे पुणे के चितले बंधु की भाकरवड़ी का स्मरण कर दिया। उनकी विशेष कृतियाँ भी प्रातः कुछ ही घंटों में समाप्त हो जाती थीं। भारत के अनेक स्थानों में ऐसे ही अनेक मिष्टान्न भंडार हैं जो उस स्थान को गौरवान्वित करते हुए जगप्रसिद्ध हैं।

वर्तमान में धारवाड़ में अनेक पेड़ा विक्रेताओं की श्रंखलाएं प्रस्फुटित हो गयी हैं। संयोग से उनमें से अधिकांश व्यवसायकों का मूल स्थान उत्तर प्रदेश ही है। गत कुछ वर्षों में बाबूसिंह पेड़े ने भी भरपूर प्रगति की है। अब उनके तीन कारखाने हैं जहाँ वे भिन्न भिन्न प्रकार के मिष्टान्न तैयार करते हैं। राज्य के लगभग सभी नगरों में उनकी अनेक दुकानें हैं। कई स्थानों पर मैंने उनके विज्ञापन देखे। धारवाड़ बस स्थानक पर लगभग सर्वत्र उनका नाम अंकित था।

वे औसतन लगभग ७००-८०० किलो पेड़े प्रतिदिन तैयार करते हैं। उन्होंने अपनी मिष्टान्न सूची में अनेक अन्य लोकप्रिय मिठाइयाँ सम्मिलित की हैं, जैसे विविध प्रकार के लड्डू आदि। उन्होंने अब डबलरोटी, केक, पैस्ट्री जैसे पदार्थ भी बनाना एवं विक्री करना आरंभ किया है।

चूँकि भारत में मधुमेह का रोग तीव्र गति से प्रगति कर रहा है, बाबूसिंह ठाकुर जी उन ग्राहकों के स्वास्थ्य एवं रुचि दोनों को ध्यान में रखते हुए, मिष्टान्न में नित-नवीन प्रयोग कर रहे हैं तथा नित-नवीन शर्करा रहित मिष्टान्न अपनी सूची में जोड़ रहे हैं।

धारवाड़ पेड़ा कारखाने का भ्रमण

मुझे धारवाड़ पेड़ा कारखाने का भ्रमण करने की उत्सुकता थी। बड़ी मात्रा में ये पेड़े कैसे तैयार किये जाते हैं, मैं देखना चाहती थी। ठाकुर जी ने मुझे इसकी स्वीकृति दे दी किन्तु मेरे समक्ष एक शर्त रखी कि मैं वहाँ छायाचित्रीकरण नहीं करूंगी। मैं सहमत थी क्योंकि मुझे उनकी व्यावसायिक गोपनीयता की माँग का सम्मान करना चाहिए।

धारवाड़ पेडे से भरी पेटी
धारवाड़ पेडे से भरी पेटी

कारखाने में भ्रमण करते हुए भी मुझे आभास हुआ कि वे अपने धारवाड़ पेड़ों की सामग्री सूची एवं विधि को स्वयं तक ही सीमित रखे हुए हैं। प्रत्येक प्रातः वे सामान्य कर्मचारियों की अनुपस्थिति में, स्वयं सभी सामग्री एकत्र कर उनका प्रारम्भिक मिश्रण तैयार करते हैं, ताकि बाजार में उनके अन्य प्रतियोगी, उनके कर्मचारियों को किसी भी प्रकार का प्रलोभन देकर, उनकी गोपनीयता ना भंग कर दें। कारखाने में भ्रमण करते हुए मैंने देखा कि वे लकड़ी के चूल्हे पर दूध को गाढ़ा करते हैं, ना कि गैस अथवा बिजली के चूल्हे पर। लकड़ी के चूल्हे की सौंधी गंध कदाचित पेड़े का स्वाद एवं सुगंध का एक प्रमुख रहस्य हो।

मैंने इससे पूर्व कभी मिष्टान्न कारखाना नहीं देखा था। बड़े बड़े कक्षों में विविध प्रकार के नमकीन एवं मीठे पदार्थ बनते देखना मुझे आनंदित कर रहा था। मैं अपने नेत्रों एवं नासिक से उनका भरपूर आस्वाद ले रही थी। गर्म कड़ाही एवं गर्म घी-तेल से बाहर निकले पदार्थ कितने ताजे प्रतीत हो रहे थे। एक कक्ष में डबलरोटी तो दूसरे में केक बन रहा था। तीसरे कक्ष में मिठाइयाँ बनाई जा रही थीं। स्वाभाविक ही है कि पेड़े बनाने का कक्ष सर्वाधिक विशाल होगा। वे उन पेड़ों को गत्ते के छोटे छोटे डिब्बों में भर कर, उन्हे बंद कर स्टील के सन्दूक में रख रहे थे ताकि उन्हे सभी दुकानों तक पहुँचाया जा सके।

भिन्न भिन्न सामग्री द्वारा ताजी भारतीय मिठाइयाँ बनने से लेकर हम-आप जैसे ग्राहकों की जीव्हा तक पहुँचने की उनकी यात्रा को देखना व समझना मुझे रोमांचित कर गया था।

आपको जब भी अवसर प्राप्त हो, यह धारवाड़ पेड़ा अवश्य चखें तथा अपने परिवार जनों व मित्रों को भी चखाएं। उनके अन्य मिष्टान्नों का आनंद भी अवश्य उठायें।

यदि मैंने आपकी जिव्हा सक्रिय व रसीली कर दी है तो मेरा यह संस्करण भी अवश्य पढ़ें, Must-try food in Varanasi

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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उडुपी के प्राचीन शिव मंदिर https://inditales.com/hindi/udupi-ke-prachin-shiv-mandir/ https://inditales.com/hindi/udupi-ke-prachin-shiv-mandir/#respond Wed, 12 Jun 2024 02:30:46 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3625

कर्णाटक के तटीय क्षेत्र में बसा उडुपी नगर अनेक प्राचीन मंदिरों तथा स्वादिष्ट उडुपी व्यंजनों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। उडुपी नगर के हृदयस्थल पर श्री कृष्ण मठ स्थित है जो एक मंदिर भी है। १३वीं सदी में निर्मित इस मंदिर की स्थापना श्री माधवाचार्य जी ने की थी। इस मंदिर के चारों ओर ८ […]

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कर्णाटक के तटीय क्षेत्र में बसा उडुपी नगर अनेक प्राचीन मंदिरों तथा स्वादिष्ट उडुपी व्यंजनों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। उडुपी नगर के हृदयस्थल पर श्री कृष्ण मठ स्थित है जो एक मंदिर भी है। १३वीं सदी में निर्मित इस मंदिर की स्थापना श्री माधवाचार्य जी ने की थी। इस मंदिर के चारों ओर ८ मठों की स्थापना की गयी है। वर्ष भर असंख्य भक्तगण, दर्शनार्थी एवं श्रद्धालू अत्यंत उत्साह से इस मंदिर के दर्शन करते हैं। मंदिर परिसर के भीतर भगवान शिव के दो प्राचीन मंदिर भी स्थित हैं।

शैव धर्म को समर्पित इन प्राचीन मंदिरों के नाम हैं, अनंतेश्वर मंदिर एवं चन्द्रमौलीश्वर मंदिर। इन दो प्राचीन मंदिरों की उपस्थिति ने श्री कृष्ण मंदिर की स्थापना के पूर्व से ही उडुपी को एक पावन भूमि का स्तर प्रदान कर दिया था। प्रचलित प्रथाओं के अनुसार श्री कृष्ण मंदिर के दर्शन से पूर्व इन दो मंदिरों के दर्शन करना आवश्यक है।

उडुपी के प्राचीन शिव मंदिर

चन्द्रमौलीश्वर मंदिर

उडुपी नगर का इतिहास उडुपी नाम में ही सन्निहित है। उडुपी नाम की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द उडुपा से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है, नक्षत्रों के स्वामी चन्द्र। प्रचलित किवदंतियों के अनुसार चन्द्र का विवाह दक्ष प्रजापति की २७ पुत्रियों से हुआ था। दक्ष प्रजापति की २७ पुत्रियाँ २७ नक्षत्रों का प्रतीक हैं। उन २७ पत्नियों में से चन्द्र को रोहिणी से विशेष स्नेह था जिसके कारण उनसे अपनी अन्य २६ पत्नियों की उपेक्षा हो गयी। जब चन्द्र की २६ पत्नियों ने अपने पिता दक्ष से अपनी व्यथा कही, तब दक्ष ने चन्द्र के इस व्यवहार से क्रोधित होकर उन्हे श्राप दे दिया कि उनकी कान्ति शनैः शनैः क्षीण हो जायेगी तथा एक दिवस वे कांतिहीन हो कर विस्मृत हो जायेंगे। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए चन्द्र ने भगवान शिव की आराधना की तथा कठोर तप किया।

चन्द्रमौलीश्वर मंदिर उडुपी
चन्द्रमौलीश्वर मंदिर उडुपी

चन्द्र की घोर तपस्या से प्रभावित होकर भगवान शिव ने श्राप के ताप को दुर्बल करते हुए इन्हें पूर्णतः क्षय हो जाने के स्थान पर क्रमवार क्षय एवं वृद्धि होने की क्षमता प्रदान की। जिस स्थान पर चन्द्र ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, उस स्थान को अब्जारण्य कहा गया जो अब उडुपी है। समीप स्थित सरोवर चन्द्रपुष्करणी कहलाया। इस घटना के पश्चात भक्तों ने भगवान शिव को चन्द्रमौलीश्वर की उपाधि से अलंकृत किया।

मंदिर का परिसर

चन्द्रमौलीश्वर मंदिर का निर्माण ८वीं सदी में किया गया था। यह मंदिर स्थापत्य कला की उडुपी शैली में निर्मित है। इसकी छत ढलवाँ है तथा भूमि पर शीतल ग्रेनाईट शिलाओं की परत है। यह मंदिर श्री कृष्ण मठ के समक्ष स्थित है। इसके एक ओर इस क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय जलपानगृह मित्र समाज स्थित है।

मंदिर में स्थित नंदी का विग्रह एक ओर झुका हुआ है जिसके कारण शिवलिंग के दर्शन प्राप्त करने के लिए हमें भी अपना शीष उसी प्रकार झुकाना पड़ता है। यह मंदिर भूतल से लगभग ६ फीट नीचे स्थित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए हमें कुछ सोपान नीचे उतरना पड़ता है। भूतल से नीचे स्थित होने के पश्चात भी इस मंदिर में कभी भी बाढ़ के जल ने प्रवेश नहीं किया है।

ऐसी मान्यता है कि मंदिर में स्थापित स्फटिक के शिवलिंग का रंग एक दिवस में तीन बार परिवर्तित होता है। प्रातःकाल शिवलिंग श्याम वर्ण का प्रतीत होता है, दूसरे प्रहर में नीलवर्ण तथा रात्रि काल में श्वेत प्रतीत होता है। शिवलिंग पर चाँदी का मुख अथवा मुखौटा चढ़ाया जाता है। पर्याय स्वामीजी पर्याय सिंहासन पर विराजमान होने से पूर्व चन्द्रमौलीश्वर मंदिर में भगवान के दर्शन करते हैं। इसके पश्चात वे भगवान अनंतेश्वर एवं श्री कृष्ण के दर्शन करते हैं। यह प्रथा अब भी अनवरत अखंडित चली आ रही है।

अनंतेश्वर मंदिर

उडुपी को तुलु भाषा में ओडिपू कहते हैं। ओडिपू शब्द संस्कृत शब्द रजतपीठपुर से प्रेरित है जिसका अर्थ है, चाँदी के पीठासन का नगर। अनंतेश्वर मंदिर के भीतर अनंतेश्वर लिंग चाँदी द्वारा निर्मित एक प्राचीन पीठासन पर प्रतिष्ठापित है। इस परशुराम क्षेत्र पर राजा रामभोज का आधिपत्य था।

अनंतेश्वर मंदिर उडुपी
अनंतेश्वर मंदिर उडुपी

एक समय राजा रामभोज ने स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट अर्थात् सम्पूर्ण धरती का निर्बाध सम्राट सिद्ध करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। अश्वमेध यज्ञ की यज्ञ भूमि चन्द्रमौलीश्वर मंदिर के पश्चिमी पार्श्वभाग पर स्थित थी। यज्ञ वेदी के निर्माण के लिए जब भूमि की जुताई की जा रही थी तब एक सर्प हल से आहत हो गया तथा उसकी मृत्यु हो गयी। सर्पहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए राजा ने पूर्ण श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना की। भगवान् शिव राजा की घोर तपस्या से प्रसन्न हुए। राजा को पापमुक्त करने के लिए भगवान ने उसे यज्ञ भूमि पर चाँदी के पीठासन का निर्माण कराकर उस पर लिंग की स्थापना कराने का आदेश दिया। कालान्तर में यही लिंग अनंतेश्वर लिंग कहलाया तथा उस पर निर्मित मंदिर को अनंतेश्वर मंदिर कहा गया।

तुलुनाडू का प्राचीनतम मंदिर होने के नाते यह मंदिर शिवल्ली ब्राह्मण समुदाय का आध्यात्मिक केंद्र है। ऐसी मान्यता है कि माधवाचार्य के माता-पिता ने संतान प्राप्ति के लिए १२ वर्षों तक अनंतेश्वर मंदिर में अनंतेश्वर स्वामी की आराधना की थी।

मंदिर का परिसर

अनंतेश्वर मंदिर को लगभग २री. सदी में निर्मित माना जाता है। भित्तियों का निर्माण करने के लिए ग्रेनाईट के फलकों को चूने के पलस्तर से जोड़ा गया है। यह एक अनूठा मंदिर है। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ शेषनाग विराजमान हैं। इसी कारण इस मंदिर में शैव एवं वैष्णव, दोनों मान्यताओं के भक्तगण आते हैं।

इस मंदिर के गर्भगृह के दो भाग हैं। जहाँ एक भाग भक्तों को दृश्यमान है, वहीं दूसरा भाग मूलस्थान के पृष्ठभाग में होने के कारण भक्तों के लिए अदृश्यमान है। प्रवेश द्वार पर शंख एवं चक्र की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं। मंदिर के विशेष आकर्षणों में मंदिर परिसर में विराजमान ४० फीट उंचा दीपस्तंभ भी सम्मिलित है। भक्तगण तेल का आर्पण करते हुए दीपों को प्रज्ज्वलित करते हैं।

मंदिर की परिक्रमा करते हुए आप भित्तियों पर गणपति एवं पार्वती की छवियाँ देख सकते हैं। मंदिर के एक कोने में शेषनाग एवं ऐयप्पा स्वामी की लघु आकृतियाँ हैं जो शक्तिशाली देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शेषनाग की प्रतिमा शुद्ध स्वर्ण धातु में निर्मित है।

उडुपी के शिव मंदिरों में शिवरात्रि पर्व का उत्सव

हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि भगवान शिव की सर्वाधिक पावन आराधना बिल्व पत्र अर्चना मानी जाती है। उडुपी के इन दोनों प्राचीन मंदिरों में विशेष रुद्राभिषेक एवं बिल्वपत्र अर्चना द्वारा भगवान शिव की आराधना की जाती है। माधवाचार्य जी के अनुयायी अथवा माधव ब्राह्मण समुदाय के विष्णु आराधक शिवरात्रि के दिवस उपवास अथवा अल्पभोजन करने के स्थान पर भरपेट भोजन करते हैं। वैष्णव प्रथाओं को मानने के पश्चात भी शिव की आराधना करने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता है। वे शिवपंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए भिन्न भिन्न उपचारों व सेवाओं द्वारा भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हैं।

अनंतेश्वर मंदिर की शिल्प कला
अनंतेश्वर मंदिर की शिल्प कला

महाशिवरात्रि पर्व के अवसर पर सूर्यास्त के पश्चात दोनों मंदिरों में रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। महाशिवरात्रि उत्सव के अंतिम दिवस अनंतेश्वर महादेव के लिए विशेष रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। शिवरात्रि के उत्सव में भाग लेने के लिए अनेक भक्तगण यहाँ आते हैं। मैंने शिवरात्रि उत्सव से एक दिवस पश्चात मंदिर के दर्शन किये थे। चारों ओर निर्मल एवं शांत वातावरण था। मंदिर में भक्तों की संख्या नगण्य थी। मुझे अपने चारों ओर सकारात्मक उर्जा का दिव्य अनुभव प्राप्त हो रहा था।

हमने मथुरा में भी देखा था कि कृष्ण की नगरी का संरक्षण करते चार प्राचीन शिव मंदिर हैं। ऐसी मान्यता है कि उडुपी के शिव मंदिरों के समान ये मंदिर भी कृष्ण के काल से भी अधिक पुरातन हैं।

संस्कृति एवं पाकशैली

उडुपी तुलुनाडू एवं प्राचीन परशुराम क्षेत्र का एक अभिन्न अंग है। उडुपी में तीन भिन्न भिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है, कन्नड़, तुलु एवं कोंकणी। इसी कारण यहाँ की पाकशैली एवं यहाँ के व्यंजन तीनों संस्कृतियों के विभिन्न मसालों एवं स्वादों का अद्भुत समागम है।

उडुपी का पर्यटन मानचित्र
उडुपी का पर्यटन मानचित्र

सज्जिगे बाजिल, मैंगलोर बंस, गोली भाजे, बिस्कुट अम्बाडे, बोंडा सूप, मीठे अवलक्की, सन्ना पोला, मेंथे दोसे आदि उन स्वादिष्ट व्यंजनों में से हैं जो इन तीनों संस्कृतियों के अभिन्न अंग हैं। ये सभी व्यंजन मंदिर परिसर के भीतर स्थित अनेक जलपानगृहों में भी उपलब्ध हैं। इन स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए १०० वर्ष प्राचीन जलपानगृह, ‘मित्र समाज’ विशेषरूप से प्रसिद्ध है। कुरकुरा मसाला डोसा एवं मूदे इडली के साथ गर्म फिल्टर कॉफी हमारी जिव्हा एवं मन दोनों को तृप्त कर देती है।

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दोपहर के भोजन के लिए शुद्ध शाकाहारी कोंकणी थाली एक स्वादिष्ट विकल्प है जो यहाँ के अनेक भोजनालयों में उपलब्ध है। इस थाली की विशेषता है, भिन्न भिन्न प्रकार के उपकारी, दाल तोय एवं विभिन्न प्रकार के पोड़ी। बसवेश्वर खानावल्ली में आपकी जिव्हा एवं मन को तृप्त करने के लिए स्वादिष्ट उत्तर कर्णाटक व्यंजनों से सज्ज थाली उपलब्ध है। इस थाली के प्रमुख व्यंजन हैं, जोलदा रोटी, एन्ग्गई पाल्या, होलिगे आदि।

उडुपी भिन्न भिन्न प्रकार के आइसक्रीमों के लिए भी लोकप्रिय है। सर्वप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गड़बड़ आइसक्रीम का आविष्कार यहाँ के होटल डायना में ही हुआ था। यहाँ के प्रत्येक जलपानगृहों एवं भोजनालयों में भिन्न भिन्न प्रकार के आइसक्रीम एवं उनके निराले सम्मिश्रण परोसे जाते हैं। उडुपी के उष्ण एवं आर्द्र वातावरण में ये स्फूर्ति के स्त्रोत होते हैं। उडुपी के मंदिरों में सदियों से दूर-सुदूर से तीर्थयात्री भगवान के दर्शनार्थ आते रहे हैं। उडुपी ने सदा स्वादिष्ट एवं सात्विक व्यंजनों से उनकी सेवा की है। इसी कारण यहाँ उत्तम स्तर के उत्तर भारतीय व्यंजन भी उपलब्ध हैं।

उडुपी के शिव मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम काल

सितम्बर मास से फरवरी मास का समयकाल उडुपी भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ की ऊष्णता एवं आर्द्रता अत्यंत कष्टकारी होती हैं। जून मास से सितम्बर मास तक यहाँ घनघोर वर्षा होती है। यद्यपि वर्षा काल में उडुपी भ्रमण किंचित असुविधाजनक हो, तथापि इस काल में उडुपी भ्रमण आपको मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर भी कर देगा। वर्षा काल में उडुपी एवं आसपास के क्षेत्र अत्यंत मनोरम प्रतीत होते हैं।

सोमवार भगवान शिव के लिए एक विशेष दिवस होता है। इसलिए सोमवार के दिन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है।

परिवहन एवं आवास सुविधाएं

उडुपी पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल मंगलुरु में है जो उडुपी से लगभग ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंगलुरु से आप सड़कमार्ग द्वारा उडुपी पहुँच सकते हैं।

यदि आपको रेल यात्राएं प्रिय हैं तो आप रेल मार्ग द्वारा भी मंगलुरु पहुँच सकते हैं। यदि आप बंगलुरु की ओर से आ रहे हैं तो मेरा सुझाव है कि आप बंगलुरु से करवार एक्सप्रेस अथवा विस्टाडोम से यात्रा करें। ८ घंटों की यह रेल यात्रा आपको पश्चिमी घाटों के अप्रतिम परिदृश्यों के दर्शन का सुअवसर प्रदान करेगी। बंगलुरु, मुंबई, पुणे, मंगलुरु आदि नगरों से यहाँ तक की सुविधाजनक बस सेवायें भी सुगमता से उपलब्ध हैं।

चूँकि उडुपी नगर अनेक वर्षों से तीर्थयात्रा का केंद्र रहा है, आवास हेतु यहाँ अनेक सुविधाजनक विश्राम गृह उपलब्ध हैं। आपकी व्यय क्षमता के अनुसार यहाँ अनेक अतिथिगृह, धर्मशालाएं, होटल एवं होमस्टे आदि की उत्तम सुविधाएं हैं। आपको भिन्न भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन का आनंद प्रदान करने के लिए अनेक भोजनालय आपकी सेवा के लिए तत्पर हैं।

यह संस्करण इंडीटेल्स प्रशिक्षण योजना के अंतर्गत अक्षया विजय द्वारा लिखित एवं प्रदत्त है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बनशंकरी अम्मा मंदिर – बादामी उत्तर कर्णाटक का एक शक्तिपीठ https://inditales.com/hindi/banashankari-amma-mandir-badami-karnataka/ https://inditales.com/hindi/banashankari-amma-mandir-badami-karnataka/#respond Wed, 13 Mar 2024 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3408

श्री बादामी बनशंकरी देवी की पूजा-आराधना स्वर्णिम कर्नाटक के चालुक्य काल से चली आ रही है। कर्णाटक के बागलकोट जिले में बादामी तालुका में स्थित बनशंकरी मंदिर उत्तर कर्णाटक का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं तथा बनशंकरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। राजा जगदेकमल्ल प्रथम […]

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श्री बादामी बनशंकरी देवी की पूजा-आराधना स्वर्णिम कर्नाटक के चालुक्य काल से चली आ रही है। कर्णाटक के बागलकोट जिले में बादामी तालुका में स्थित बनशंकरी मंदिर उत्तर कर्णाटक का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं तथा बनशंकरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।

राजा जगदेकमल्ल प्रथम ने ६०३ ई. में इस मंदिर का निर्माण कराया तथा मंदिर के भीतर बनशंकरी देवी की मूर्ति की स्थापना करवाई थी। बनशंकरी देवी कल्याणी के चालुक्य वंश की कुलदेवी मानी जाती है।

मरारी दंडनायक परुषाराम अगले ने सन् १७५० में इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। नवरात्रि के उत्सव में विशेष आभूषणों एवं वस्त्रों से देवी बनशंकरी का अलंकरण किया जाता है। नवरात्रि में देवी के नौ अद्भुत रूपों का दर्शन करने के लिए लाखों की संख्या में भक्तगण यहाँ आते हैं।

बादामी बनशंकरी का ऐतिहासिक महत्त्व

बादामी बनशंकरी मंदिर के स्वयं के ऐतिहासिक पदचिन्ह हैं।

स्कन्द पुराण में चालुक्य एवं पड़ोसी राज्यों के राजाओं की संरक्षक देवी के रूप में बादामी बनशंकरी की कथाओं का उल्लेख मिलता है।

बनशंकरी अम्मा मंदिर  बादामी में
बनशंकरी अम्मा मंदिर बादामी में

प्राचीन काल में तिलकारण्य नामक वन में दुर्गमासुर नाम का एक क्रूर राक्षस निवास करता था। वह वन में ध्यानरत साधुओं तथा आसपास के ग्रामीणों को अविरत कष्ट देता था। दुर्गमासुर के अत्याचारों से त्रस्त होकर सभी साधूगण सहायता माँगने देवताओं के पास पहुँचे। उनके अत्याचारों के निदान हेतु आदिशक्ति, जो  देवी पार्वती का रूप है, यज्ञ कुण्ड से अवतरित हुईं तथा उन्होंने दुर्गमासुर का वध किया।

बन का अर्थ है, वन अथवा जंगल। शंकरी का अभिप्राय है, पार्वतीस्वरूपा अथवा भगवान शिव की शक्ति। इसी कारण उनका नाम पड़ा, बनशंकरी।

बनशंकरी अम्मा का एक अन्य नाम शाकम्भरी भी है। इसके पृष्ठभाग में भी एक रोचक कथा है।

एक काल में एक नगर सूखे की चपेट में था। वहाँ के निवासियों के पास उदरनिर्वाह हेतु कुछ भी शेष नहीं था। फलस्वरूप नागरिकों ने देवी माँ से गुहार लगाई। देवी बनशंकरी ने अपने अश्रुओं से धरती माता की तृष्णा शांत की तथा अपने भक्तों को जीवनदान दिया। भक्तों की क्षुधा शांत करने के लिए देवी ने शाक भाजियों की रचना की। मंदिर के आसपास के वनों में नारियल, केला आदि के वृक्षों की उपस्थिति इस ओर संकेत भी करती है। इसी किवदंती के कारण देवी को देवी शाकंभरी भी कहते हैं। शाक का अर्थ है भाजी तथा भृ धातु पोषण करने से संबंधित है।

देवी शाकंभरी का उल्लेख दुर्गा सप्तशती में भी किया गया है जहाँ उन्हें देवी का एक अवतार कहा गया है।

अम्मा के भिन्न भिन्न नाम

भक्तगण देवी बनशंकरी को अनेक नामों से पूजते हैं, जैसे बलव्वा, बनदव्वा, शिरावंती, चौदम्मा, चूडेश्वरी, संकव्वा, वनदुर्गे तथा वनशंकरी। देवी सिंहारूढ़ हैं अर्थात सिंह वाहन पर आरूढ़ रहती हैं।

शाकम्बरी देवी
शाकम्बरी देवी

मंदिर के भीतर काली शिला में गढ़ी उनकी प्रतिमा अत्यंत आकर्षक है। लक्ष्मी एवं सरस्वती के संयुक्त रूप में बनशंकरी देवी को मुख्यतः कर्णाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा तमिल नाडु में पूजा जाता है।

मंदिर की स्थापत्य शैली एवं बनशंकरी अम्मा का विग्रह

बनशंकरी देवी के मंदिर का वर्तमान में जो प्रारूप है, वह विजयनगर स्थापत्य शैली में निर्मित है। मूल मंदिर द्रविड़ स्थापत्य शैली में निर्मित था। मंदिर के चारों ओर ऊँचा प्राकर है।

मंदिर में एक चौकोर मंडप है। मंदिर के समक्ष प्रवेश द्वार के ऊपर उंचा गोपुरम है जिस पर अनेक देवी-देवताओं के शिल्प हैं। साथ ही अनेक पौराणिक पात्र भी उत्कीर्णित हैं। यह मुख्य मंदिर का प्रवेश द्वार है।

मुख्य संरचना के अंतर्गत एक मुख मंडप एवं एक अर्ध मंडप है जो गर्भगृह के समक्ष स्थित है। गर्भगृह के ऊपर शिखर अथवा विमान है। मंदिर परिसर के मध्य में मुक्तांगन है जिसके चारों ओर अनेक स्तंभ युक्त कक्ष हैं। इन कक्षों का प्रयोग विविध अनुष्ठानों एवं उत्सवों में किया जाता है।

गर्भगृह के भीतर बनशंकरी अम्मा का पावन विग्रह है जिसे काली शिला में गढ़ा गया है। देवी अपने वाहन सिंह पर विराजमान हैं तथा अपने चरणों के नीचे राक्षस के शीष रहित धड़ को दबाये हुए हैं। अष्टभुजाधारी बनशंकरी अम्मा के हाथों में त्रिशूल, घंटा, डमरू, तलवार, ढाल तथा असुर का शीष है।

बनशंकरी मंदिर के उत्सव

मंदिर के समक्ष एक चौकोर जलकुंड अथवा कल्याणी है जिसका नाम हरिद्रतीर्थ है।

हरिद्रा तीर्थ
हरिद्रा तीर्थ

इस कल्याणी से सम्बंधित एक अनुपम अनुष्ठान है। नवजात शिशुओं को केले की पत्तियों द्वारा निर्मित पालने में लिटाकर कल्याणी के जल पर स्थित नौका पर रखते हैं। लोगों की मान्यता है कि यह अनुष्ठान शिशुओं के भविष्य के लिए अत्यंत शुभ एवं कल्याणकारी होता है।

शाकम्भरी राहु की प्रिय देवी हैं। इसीलिए भक्तगण राहुकाल में यहाँ नींबू का दीपक जलाते हैं। उनका मानना है कि इस अनुष्ठान के द्वारा राहु दोष से मुक्ति प्राप्त होती है।

इस मंदिर का एक अद्वितीय उत्सव है, पल्लेदा हब्बा अथवा शाकभाजी का उत्सव जिसमें भक्तगण देवी को विविध शाकभाजियों से अलंकृत करते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर बनशंकरी देवी को अर्पित किये जाते हैं। इस अनुष्ठान का अनेक दशकों से अनवरत पालन किया जा रहा है। इस उत्सव में विविध शाकभाजियों का प्रयोग कर कुल १०८ प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं तथा देवी को अर्पित किये जाते हैं।

उत्तर कर्णाटक में एक अन्य लोकप्रिय सांस्कृतिक आयोजन किया जाता है, बनशंकरी जत्रा। यह एक वार्षिक मेला जो ३ सप्ताहों तक चलता है। यह जत्रा हिन्दू पंचांग के पौष मास की अष्टमी से आरम्भ होता है तथा  माघ मास की पूर्णिमा के दिन उत्सव मनाया जाता है जो साधारणतः जनवरी/फरवरी में आता है। इस दिन देवी पार्वती की रथयात्रा का शुभारम्भ होता है। ऐसी मान्यता है कि यह काल देवी लक्ष्मी एवं उनके विभिन्न रूपों की आराधना के लिए परम पावन होता है।

दीपस्तंभ - बादामी बनशंकरी
दीपस्तंभ – बादामी बनशंकरी

कर्णाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा आँध्रप्रदेश से असंख्य भक्तगण उत्सव में भाग लेने के लिए बनशंकरी मंदिर आते हैं। वे देवी की पूजा-आराधना करते हैं तथा उनसे आशीष माँगते हैं। उत्सव काल में सम्पूर्ण वातावरण उल्हासपूर्ण, जीवंत तथा रंगों से परिपूर्ण हो जाता है। मंदिर के आसपास भक्तों का ताँता लग जाता है। विक्रेता उन्हें भिन्न भिन्न वस्तुएं, जैसे खाद्य प्रदार्थ, परिधान, खिलौने, मिष्टान, देवी को अर्पण करने की वस्तुएं आदि विक्री करने में व्यस्त हो जाते हैं।

बनशंकरी अम्मा मंदिर में नवरात्रि का पर्व

हिन्दू पंचांग के अनुसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवरात्रि पर्व अश्विन मास में आता है जो साधारणतः सितम्बर-अक्टूबर मास में पड़ता है। किन्तु कर्णाटक के बादामी में स्थित इस मंदिर में नवरात्रि का उत्सव पौष मास में मनाया जाता है। नौ दिवसों का यह उत्सव देवी बनशंकरी को समर्पित किया जाता है।

बाणदाष्टमी एक अत्यंत पवित्र दिवस माना जाता है। सम्पूर्ण उत्तर कर्णाटक, विशेषतः बनशंकरी मंदिर में विविध उत्सव एवं जत्रायें आयोजित किये जाते हैं।

मंदिर में विशेष उत्तर कर्णाटक भोजन अवश्य ग्रहण करें

स्थानीय स्त्रियाँ अपने घरों में अनेक प्रकार के उत्तर कर्नाटकी व्यंजन बनाते हैं, जैसे मक्के/जवार की रोटियाँ, करगडुबू (पूरण कडबू), कलुपल्ले (अंकुरित दालों का रस), लाल मिर्च की चटनी, पुंडी पल्ले (गोंगुरा भाजी) आदि। वे ये सभी व्यंजन मंदिर में लाते हैं तथा भक्तगणों को देते हैं।

वे एक थाली का मूल्य ३०-५० रुपये तक लेते हैं। आप भी न्यूनतम मूल्य में उपलब्ध इस स्वादिष्ट भोजन का आस्वाद लेकर प्रसन्न हो जायेंगे। इसका स्वाद आपके दैनिन्दिनी स्वाद से अवश्य भिन्न एवं विशेष होगा।

यदि आप बनशंकरी मंदिर में दर्शन के लिए आयें तथा मंदिर के बाहर उपलब्ध इस भोजन का आस्वाद ना लें तो आपकी यात्रा अपूर्ण है!

बनशंकरी मंदिर तक पदयात्रा

भक्तों द्वारा पदयात्रा कर बनशंकरी मंदिर तक पहुँचना, विशेषतः पूर्णिमा के दिवस, यह एक सर्वसामान्य दृश्य होता है। यह परंपरा जनवरी-फरवरी में आयोजित वार्षिक बनशंकरी उत्सव/जत्रा में विशेष रूप से लोकप्रिय है।

भक्तगण अपनी पदयात्रा सामान्यतः अपने निवासों से अथवा निकट के गाँवों एवं नगरों से आरंभ करते हैं। वे लम्बी दूरी की पदयात्रा कर बादामी के बनशंकरी मंदिर पहुँचते हैं। कुछ भक्तगण नंगे पैरों से ही पदयात्रा करते देखे जा सकते हैं। कदाचित भक्ति, कोई विशेष कार्यसिद्धि का हेतु अथवा पश्चाताप की भावना उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती होगी।

बनशंकरी अम्मा का आशीष प्राप्त करने के लिए पदयात्रा करते हुए उन तक पहुँचना, यह एक अत्यंत पावन एवं सुखद अनुभव होता होगा। अनेक भक्तगण अपने परिवारजनों एवं मित्रों के संग यह यात्रा प्रत्येक वर्ष करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह अम्मा के प्रति उनके समर्पण एवं भक्ति में उनका विश्वास दृढ़ करता है।

बादामी के बनशंकरी मंदिर कैसे पहुँचे?

बनशंकरी मंदिर बादामी नगर की बाहरी सीमा में अवश्य स्थित है लेकिन वहाँ पहुँचना कठिन नहीं है। आप सड़क मार्ग से इस मंदिर तक आसानी से पहुँच सकते हैं। आप किसी भी परिवहन सेवा द्वारा बादामी पहुँचें तथा वहाँ से सड़क मार्ग द्वारा बनशंकरी मंदिर पहुँचें जो नगर के केंद्र से लगभग ४ किलोमीटर दूर स्थित है।

यदि आप वायुमार्ग द्वारा पहुँचना चाहते हैं तो बादामी से निकटतम विमानतल हैं, ११० किलोमीटर दूर स्थित हुबली विमानतल तथा १३० किलोमीटर दूर स्थित बेलगावी। यदि आपकी प्राथमिकता रेल मार्ग है तो बनशंकरी मंदिर पहुँचना अधिक सुगम है। बादामी रेल मार्ग द्वारा देश के सभी मुख्य नगरों से जुड़ा हुआ है। बादामी रेल स्थानक बनशंकरी मंदिर से लगभग ९ किलोमीटर दूर है।

बादामी नगर में किसी भी स्थान से बनशंकरी मंदिर पहुँचने के लिए कर्णाटक राज्य परिवहन निगम की सुविधाजनक बस सेवायें नियमित रूप से उपलब्ध रहती हैं। आप बस से ना जाना चाहें तो ऑटो अथवा ताँगे से भी जा सकते हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होती हैं।

बादामी एवं आसपास के अन्य अद्भुत दर्शनीय स्थल

बादामी चालुक्य वंश से संबंधित एक ऐतिहासिक नगर है। बादामी अनेक प्राचीन मंदिरों तथा शैल-कृत गुफाओं व शिल्पों के लिए प्रसिद्ध है। बादामी में बनशंकरी मंदिर में दर्शन के पश्चात आप आसपास के अनेक दर्शनीय स्थलों का आनंद ले सकते हैं। उनमें कुछ हैं,

बादामी गुफाएं – बादामी गुफाएँ वास्तव में गुफा मंदिर हैं। यहाँ कोमल बलुआ शिलाओं को काटकर चार गुफा मंदिर निर्मित किये गए हैं।

ऐहोले –  ऐहोले भी एक ऐतिहासिक नगरी है। बादामी से लगभग ३५ किलोमीटर दूर स्थित ऐहोले चालुक्य वंश की प्रथम राजधानी थी। यहाँ १२० से अधिक शिला एवं गुफा मंदिरों का समूह है।

पत्तदकल/पट्टदकल्लु – बादामी से लगभग २३ किलोमीटर दूर स्थित, यूनेस्को द्वारा घोषित इस विश्व धरोहर स्थल में ९ प्रसिद्ध हिन्दू एवं एक प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं।

महाकुटा – बादामी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित महाकुटा एक लघु नगरी है जो अनेक प्राचीन मंदिरों एवं उष्ण जल के प्राकृतिक सोते के लिए प्रसिद्ध है। इसे दक्षिण की काशी भी कहा जाता है।

बादामी-ऐहोले-पत्तदकल कर्णाटक का लोकप्रिय पर्यटन परिपथ है।

बादामी के आसपास स्थित ये ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल कर्णाटक के संपन्न इतिहास एवं संस्कृति की एक झलक प्रदान करते हैं।

यह एक अतिथि यात्रा संस्करण है जिसे गायत्री आरी ने प्रदान किया है। वे बागलकोट जिले में स्थित इल्कल नगर की स्थानिक हैं जो प्रसिद्ध इल्कल साड़ियों के लिए जग प्रसिद्ध हैं। वे व्यवसाय से गुणवत्ता विशेषज्ञ हैं। उनके जीवन का सर्वाधिक उत्साहवर्धक क्रियाकलाप है, विश्वभर में यात्राएं करना एवं नित-नवीन संस्कृतियों पर शोध करना। एक प्रकृति प्रेमी तथा आध्यात्मिक यात्री के रूप में उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य एवं भिन्न भिन्न स्थलों के आध्यात्मिक सार में शान्ति का अनुभव होता है।      

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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पश्चिमी घाटों में बसे कूर्ग के दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/coorg-madikeri-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/coorg-madikeri-paryatan-sthal/#respond Wed, 22 Nov 2023 02:30:34 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3326

कर्णाटक में स्थित कूर्ग भारत के पश्चिमी घाटों की गोद में बसा एक अप्रतिम पर्वतीय पर्यटन स्थल है। कॉफी के अनेक बगीचे होने के कारण इसे कॉफी के प्याले के नाम से जाता जाता है। कूर्ग का अधिकारिक नाम कोडगु है। कूर्ग या कोडगु प्रकृति एवं संस्कृति से अत्यंत समृद्ध क्षेत्र होने का कारण सभी […]

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कर्णाटक में स्थित कूर्ग भारत के पश्चिमी घाटों की गोद में बसा एक अप्रतिम पर्वतीय पर्यटन स्थल है। कॉफी के अनेक बगीचे होने के कारण इसे कॉफी के प्याले के नाम से जाता जाता है। कूर्ग का अधिकारिक नाम कोडगु है। कूर्ग या कोडगु प्रकृति एवं संस्कृति से अत्यंत समृद्ध क्षेत्र होने का कारण सभी प्रकार के पर्यटकों का एक प्रिय गंतव्य है। कूर्ग से भले ही कॉफी के बागों का ध्यान आता है किन्तु कूर्ग केवल कॉफी के बागों तक ही सीमित नहीं है। उसके अतिरिक्त भी कूर्ग में अनेक सुन्दर दर्शनीय स्थल हैं। आईये हम साथ मिलकर उन दर्शनीय स्थलों का अवलोकन करें।

कूर्ग के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल

ये कूर्ग के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों की सूची है। इनमें से अधिकतर स्थलों के अवलोकन का अविस्मरणीय सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ था। इस सूची में मैंने उन पर्यटन बिन्दुओं का भी उल्लेख किया है जिन्हें मैं अपनी उस यात्रा में सम्मिलित नहीं कर पायी थी। निकट भविष्य में उन्हें देखने के लिए मैंने उन्हें अपनी इच्छा पोटली में डाल रखा है। इन पर्यटन स्थलों के अवलोकन करने के लिए आप को अपनी यात्रा व्यवस्थित रूप से नियोजित करनी पड़ेगी क्योंकि ये स्थल सम्पूर्ण मडिकेरी नगरी में पसरे हुए हैं। मडिकेरी में पड़ाव रखते हुए टैक्सी द्वारा आप इन स्थलों तक जा सकते हैं।

कूर्ग के प्रसिद्ध मंदिर

तलकावेरी मंदिर

कावेरी नदी का उद्गम स्थल तलकावेरी
कावेरी नदी का उद्गम स्थल तलकावेरी

कावेरी नदी, कर्णाटक एवं तमिल नाडू के अधिकाँश भागों की पोषिका, कूर्ग से ही प्रस्फुटित होती है। कूर्ग में ही कावेरी नदी का उद्गम स्थल है। भारत में नदियों के उद्गम स्थलों को अत्यंत पावन माना जाता है। कावेरी नदी के उद्गम स्थल को तलकावेरी कहा जाता है। यहाँ आप कावेरी अम्माँ की प्रतिमा देख सकते हैं। कूर्ग में कावेरी नदी को सभी आदर से कावेरी अम्मा या कावेरी अम्मन कह कर पुकारते हैं।

और पढ़ें: कूर्ग में तलकावेरी, भागमंडला एवं त्रिवेणी संगम

भागमंडला मंदिर एवं त्रिवेणी संगम

भागंदा ऋषि द्वारा स्थापित इस मंदिर को स्कन्द क्षेत्र भी कहते हैं। ब्रह्मगिरी पर्वतों की तलहटी पर स्थित यह एक विस्तृत मंदिर है जहाँ तलकावेरी स्थित है। इसकी पुरातनता, इसकी स्थानीय वास्तुशैली, इसकी अप्रतिम काष्ठ एवं शैल उत्कीर्णन अत्यंत दर्शनीय हैं। इनका आनंद लेने के लिए आपको इस मंदिर के दर्शन अवश्य करने चाहिए।

भागमंडल मंदिर परिसर
भागमंडल मंदिर परिसर

इस मंदिर के समक्ष ही तीन नदियों का त्रिवेणी संगम है। ये नदियाँ हैं, कावेरी, कन्निगे एवं सुज्योत। प्रयागराज के समान इन तीन नदियों के इस संगम को भी अत्यंत पवित्र माना जाता है। यहाँ अनेक धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। इसके आसपास आप अनेक प्राचीन शिवलिंग देखेंगे। यहाँ आने से पूर्व ‘तलकावेरी, भागमंडला एवं त्रिवेणी संगम’ पर लिखे मेरे संस्करण को अवश्य पढ़ें।

इग्गुथप्पा मंदिर

पडी इगुथाप्पा मंदिर - कूर्ग
पडी इगुथाप्पा मंदिर – कूर्ग

पडी इग्गुथप्पा मंदिर कोडगु के अधिष्ठात्र देवता का मंदिर है जिन्हें फसल का देवता एवं समृद्धि का देवता भी माना जाता है। मैंने इस मंदिर पर एक विस्तृत संस्करण पहले से ही लिखा हुआ है। उसे अवश्य पढ़ें।

और पढ़ें: पडी इग्गुथप्पा मंदिर – कूर्ग के अधिष्ठात्र देवता

कॉफी उद्यानों का अनुभव

कॉफी उद्यानों का अनुभव प्राप्त करना हो तो उसका सर्वोत्तम मार्ग है, किसी कॉफी उद्यान में ही रहना। आप उद्यान में शांति से टहल सकते हैं। कॉफी की खेती कैसे की जाती है, यह देख सकते हैं। कॉफी के विभिन्न प्रकारों के विषय में सीख सकते हैं। भारत में कॉफी के इतिहास के विषय में जान सकते हैं। कॉफी के बीजों के जीवन चक्र को समझ सकते हैं।

कॉफ़ी उद्यान की सैर
कॉफ़ी उद्यान की सैर

इसके पश्चात आप जब भी कॉफी पियेंगे, वह आपको अधिक रुचिकर प्रतीत होगी। उससे अधिक निकटता का अनुभव होगा। कॉफी के बीजों को भूनने तथा उससे कॉफी पेय बनाने के विभिन्न तकनीकों को जानना भी अत्यंत रोचक होता है। इनमें से अधिकतर कॉफी उद्यानों में कॉफी के साथ साथ काली मिर्च, इलायची जैसे मसालों की भी खेती की जाती है। आप दैनन्दिनी जीवन में जिन मसालों का प्रयोग करते हैं, उन्हें उनके मूल रूप में उगते देखना आपको प्रसन्न कर देगा। अधिकतर कॉफी उद्यान ब्रिटिश काल के हैं जिनके भीतर स्थित इमारतें एवं अन्य संरचनाएं आपको औपनिवेशिक काल का एक प्रत्यक्ष अनुभव देंगी।

और पढ़ें: कूर्ग के एक कॉफी उद्यान में रहना

सूचना- कॉफी उद्यानों में रहना हो तो सर्वोत्तम समय तब होता है जब कॉफी के पेड़ों पर पुष्प पल्लवित हो रहे हों। वे अत्यंत सुन्दर दिखते हैं मानो पेड़ों पर पुष्प हार चढ़ाए गए हों।

दूबारे हाथी प्रशिक्षण शिविर

जैसा कि नाम से ही विदित होता है, यह एक ऐसा कैंप अथवा शिविर है जहां आप हाथियों को समीप से देख सकते हैं। उनसे जुड़े क्रियाकलापों में भाग ले सकते हैं। जैसे हाथियों को स्नान करवाना, हाथियों द्वारा लकड़ी के लट्ठों को उठवाना एवं व्यवस्थित रूप से रखवाना आदि।

दुबारे हाथी उद्यान में जलक्रीडा करते हाथी
दुबारे हाथी उद्यान में जलक्रीडा करते हाथी

ये सभी क्रियाकलाप किसी महावत या पशुविद्याविज्ञ के कुशल निरिक्षण में किया जाता है। यदि आप स्वयं भाग ना लेना चाहें तब भी उन्हें नदी के जल में क्रीड़ा करते देखना भी अत्यंत मनोरंजक होता है।

कावेरी निसर्गधाम वन उद्यान

यह एक सघन वनीय क्षेत्र है जहां आप विभिन्न प्रकार के वनों के मध्य कुछ समय व्यतीत कर सकते हैं। आप वन में टहल सकते हैं। कावेरी नदी पर बने झूला सेतु पर टहल सकते हैं। कावेरी के जल द्वारा पोषित हरियाली से ओतप्रोत परिवेश का आनंद ले सकते हैं। कोडगु के स्थानिकों के जीवन की विशेषताओं को दर्शाती एक प्रदर्शनी भी है। वृक्षों पर एवं सूखे तनों पर स्थानिकों के इतिहास एवं लोक-साहित्यों का सुन्दर चित्रण किया गया है।

कावेरी निसर्गधाम वन उद्यान
कावेरी निसर्गधाम वन उद्यान

कोडगु जीवन शैली की विशेषताओं को दर्शाती यहाँ अनेक चित्रावलियाँ हैं। रोमांच की खोज में आये पर्यटकों के लिए यहाँ ज़िप-लाइन की भी सुविधा है। परिसर के निकास द्वार के समीप स्मारिकाओं की कई दुकानें हैं जहां से आप यहाँ के विशेष मसाले तथा घरेलु रूप से बने चॉकलेट आदि क्रय कर सकते हैं। यदि आपको प्रकृति के सानिध्य में समय व्यतीत करना भाता है तो यहाँ अवश्य आईये। विशेष रूप से मुझे यहाँ का बांस का उद्यान भा गया।

बैलकुप्पे का तिब्बती मठ

भारत में सन् १९६१ से अब तक के विशालतम तिब्बती बस्तियों की चर्चा करें तो सर्वप्रथम नाम है, धर्मशाला जो हिमाचल प्रदेश का एक नगर है। इसके पश्चात दूसरे क्रमांक पर बैलकुप्पे का नाम आता है। इस वसाहती क्षेत्र में तिब्बती मूल के लगभग १००,००० रहवासी रहते हैं। यह स्वयं में एक छोटी सी नगरी है। यहाँ का नामद्रोलिंग निंगमापा मठ प्रसिद्ध है जो अपने उजले स्वर्णिम रंगों के कारण पर्यटकों में गोल्डन टेम्पल या स्वर्ण मंदिर के नाम से लोकप्रिय है। इस मठ में अनेक बौद्ध उत्सवों का आयोजन किया जाता है।

दक्षिण भारत में स्थित यह एक अहम बौद्ध स्थल है। बौद्ध अनुयायियों के लिए इसे दक्षिण भारत का एक मरूद्यान माना जाता है। ठीक वैसे ही जैसे मध्य भारत में छत्तीसगढ़ का मैनपाट है।

नलकनाड (पैलेस) महल

कूर्ग के स्थानिक इसे नालनाड अरमाने कहते हैं। यह महल कूर्ग के यवकपाडी नाम के गाँव में स्थित है। १८वीं सदी में निर्मित यह महल कोडगु के अंतिम हलेरी राजाओं का था जिसके पश्चात इस महल पर अंग्रेजों ने अधिपत्य जमा लिया। यह संरचना महल कम, दो-तलों की विशाल हवेली अधिक प्रतीत होती है। इस पर दुहरी ढलुआ छतें हैं। छत एवं द्वारों पर अप्रतिम काष्ठकारी की गयी है। भीतर लगे कुछ चित्र तो अत्यंत दर्शनीय हैं। महल के भीतर सभी स्थानों पर नाग के चिन्ह चित्रित अथवा उत्कीर्णित हैं। मुझे लगा यह हलेरी राजवंश का चिन्ह हो सकता है।

नलकनाड महल का दरबार कक्ष
नलकनाड महल का दरबार कक्ष

यहाँ उपस्थित गाइड आपको बताएँगे कि कैसे इस महल की संरचना यह सुनिश्चित करती थी कि भीतर के सैनिक स्वयं शत्रुओं की दृष्टि से ओझल रहते हुए भी आसानी से बाहर देख सकते थे तथा शत्रुओं पर वार कर सकते थे। उस काल में यह महलों एवं दुर्गों की महत्वपूर्ण आवश्यकता मानी जाती थी ताकि राजमहल एवं राजपरिवार के सदस्यों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

महल के बाहर एक छोटा मंडप है जहां कदाचित् विभिन्न समारोह एवं अनुष्ठान आयोजित किये जाते थे। दरबार कक्ष एवं अन्धकार में स्थित कुछ अन्य कक्ष रोचक हैं। यह एक साधारण धरोहर संपत्ति है। किन्तु, यदि आपको राजमहलों एवं उनकी धरोहरों में रूचि हो तथा आपके पास समय की समस्या ना हो तो आप इस महल में अवश्य आयें।

मडिकेरी नगरी के दर्शनीय स्थल

मडिकेरी दुर्ग

मडिकेरी दुर्ग
मडिकेरी दुर्ग

मडिकेरी दुर्ग को मरकरा दुर्ग भी कहा जाता है। १७वीं सदी में निर्मित इस दुर्ग को मुद्दुराजा ने बनवाया था। इसके पश्चात इस पर टीपू सुल्तान ने अधिपत्य जमाया। टीपू सुल्तान के पश्चात यह दुर्ग डोड्डा वीर राजेन्द्र के स्वामित्व में आया तथा अंततः अंग्रेजों के पास चला गया। वर्तमान में इस दुर्ग को उप-आयुक्त के कार्यालय में परिवर्तित किया गया है जिसके कारण यह अब भारत सरकार की संपत्ति है। दुर्ग के बाहर स्थित हाथियों के दो शिल्प पर्यटकों में लोकप्रिय हैं। दुर्ग की भित्तियों पर चलते हुए आप दुर्ग के चारों ओर के परिदृश्यों का विहंगम रूप देख सकते हैं।

मडिकेरी राजमहल

मडिकेरी राजमहल एक काल में मडिकेरी दुर्ग का ही भाग था।

मडिकेरी राजमहल
मडिकेरी राजमहल

अब यह एक स्थानीय सरकारी कार्यालय है जिसके कारण आप इसे केवल बाहर से देख सकते हैं। फिर भी आप इस धरोहरी संरचना की प्रशंसा किये बिना नहीं रह पायेंगे।

सरकारी संग्रहालय

सरकारी संग्रहालय मडिकेरी
सरकारी संग्रहालय मडिकेरी

दुर्ग की भित्तियों के ठीक बाहर एक प्राचीन गिरिजाघर है जो अब एक संग्रहालय है। इस संग्रहालय में रखी कलाकृतियाँ अत्यंत रोचक हैं। बाहर स्थित उद्यान में अनेक वीरगल स्थापित हैं। उस क्षेत्र के वीरों के सम्मान में स्थापित शैल खण्डों को वीरगल कहते हैं। संग्रहालय में स्थित स्मारिकाओं की दुकान से मैंने कर्णाटक की धरोहरी संपत्तियों पर लिखी अनेक पुस्तकें खरीदीं।

ओंकारेश्वर मंदिर

ओंकारेश्वर मंदिर
ओंकारेश्वर मंदिर

यह एक अप्रतिम मंदिर है। मेरे हृदय का काशी से सम्बन्ध होने के कारण यह मंदिर व उसके सुन्दर जलकुंड ने मेरी स्मृतियों में सदा के लिए एक अमिट छाप छोड़ दी है। इस मंदिर के शिवलिंग को वाराणसी से लाया गया है। इस मंदिर का नाम भी वही है जो मध्यप्रदेश में नर्मदा के तट पर बने ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का नाम है।

जलकुंड के मध्य स्थित मंदिर इसकी सुन्दरता में कई गुना वृद्धि करता है। जलकुंड में बहुत सारे कछुए भी हैं।

राजा की गद्दी (राजा सीट)

यह स्थान मडिकेरी का सर्वाधिक पर्यटन प्रिय बिंदु है। यह एक सुन्दर उद्यान है। यहाँ से पर्वतों एवं हरियाली से परिपूर्ण परिदृश्यों का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है। इसलिए भी यह एक महत्वपूर्ण अवलोकन बिंदु भी है। घाटियों में हरियाली के विभिन्न रंग मन मोह लेते हैं। पर्वत श्रंखला के पीछे होते सूर्यास्त का दृश्य भी अत्यंत मनमोहक होता है।

रजा की गद्दी - कूर्ग के मडिकेरी नगर में
रजा की गद्दी – कूर्ग के मडिकेरी नगर में

यदि वातावरण में धुंध हो तो वह परिदृश्यों को अधिक रहस्यमयी बना देती हैं। उद्यान का रखरखाव उत्तम रीति से किया गया है। यदि आप यहाँ मार्च के महीने में आयें तो आपको पुष्प प्रदर्शनी का भी आनंद प्राप्त होगा। इस उद्यान के समीप बच्चों के लिए ट्रेन है जिस पर बैठकर चक्कर लगाने में बच्चे क्या, बड़ों को भी आनंद आ जाता है।

राजा स्मारक

यहाँ पर राज-स्मारकों की पंक्तियाँ हैं जो हैदराबाद की कुतुब शाही स्मारकों के समान प्रतीत होती हैं। किन्तु इन स्मारकों पर नंदी की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। इन स्मारकों के भीतर शिवलिंग हैं जिनकी पूजा अर्चना की जाती है।

राजसी स्मारक
राजसी स्मारक

कुछ स्मारकों के द्वार पर द्वारपालों की आकृतियाँ भी उत्कीर्णित हैं। इन स्मारकों के द्वारों एवं झरोखों के शैल-चौखट दर्शनीय हैं। प्रत्येक स्मारक पर लगे सूचना पटल पर सम्बंधित राजा का नाम एवं उसकी जीवनी की झलक प्राप्त होती है जिसके लिए यह स्मारक बनाया गया है।

यहाँ पर्यटकों की अधिक भीड़ नहीं होती है। इसके परिसर में सुन्दर उद्यान एवं अन्य धरोहर संरचनाएं भी हैं।

कूर्ग में और क्या करें:

  • विभिन्न प्रकार की कॉफी का आस्वाद लें।
  • स्थानीय व्यंजन चखें।
  • प्रकृति का छायाचित्रीकरण करें।
  • पक्षियों का दर्शन एवं छायाचित्रीकरण करें।
  • बारापोल नदी में रोमांचक रिवर राफ्टिंग करें।
  • प्रत्यक्षदर्शियों से हाथियों एवं उनसे हुए सामनाओं की रोमांचक कथाएं सुनें।
  • स्मारिकाओं की खरीदी करें। आपकी सुविधा के लिए मैंने कूर्ग की विशेष स्मारिकाओं की सूची बनाई है।

जलप्रपात

पश्चिमी घाट की सीमा पर स्थित होने के कारण कूर्ग में मानसून में अत्यधिक वर्षा होती है। स्वाभाविक है, घाटियाँ एवं अत्यधिक वर्षा, दोनों ही स्थितियाँ अनेक जलप्रपातों को जन्म देती हैं। वर्षा का जल पर्वतों से जलधाराओं के रूप में बहते हुए नीचे आता है। घाटियों से नीचे आते हुए ये जलधाराएं जलप्रपातों का रूप ले लेती हैं। इन जलप्रपातों में से अधिकतर प्रपात केवल मानसून में अथवा मानसून के पश्चात ही दृष्टिगोचर होते हैं। ये जलप्रपात अपेक्षाकृत अधिक ऊँचे नहीं हैं। फिर भी अप्रतिम परिवेश के कारण ये सुन्दर दिखाई पड़ते हैं।

मौसमी जलप्रपातों का सर्वोत्तम सौंदर्य मानसून में ही होता है। किन्तु इन जलप्रपातों तक पहुँचने के लिए जंगल अथवा वनीय क्षेत्रों में पैदल चलना पड़ता है। मानसून में इन्हें देखने जाने का अर्थ है, चिकनी सतह पर चलने का जोखिम उठाना, जोंक का खतरा और धुआंधार वर्षा से जूझना। यदि योग्य सहायता की अनुपस्थिति में वहाँ फंस गए तो आप संकट की स्थिति में आ सकते हैं।

अबे जलप्रपात - कूर्ग
अबे जलप्रपात – कूर्ग

मानसून के ठीक पश्चात, अर्थात् नवम्बर मास में किसी स्थानीय गाइड के साथ यहाँ आना सर्वोत्तम होगा। तब यही जलप्रपात रोमांचक आनंद प्रदायक हो सकते हैं। इस काल के पश्चात जल के प्रवाह में कमी आ जाती है। जलप्रपात के नाम पर चट्टानों से टपकती जल धाराएँ ही शेष रह जाती हैं। किन्तु यदि आपको जंगल में पैदल चलना, ट्रेक करना भाता है तो आप जलप्रपात के दृश्य का मोह ना रखते हुए, प्रकृति के सानिध्य में ट्रेक करने का आनंद उठायें।

एब्बी फाल्स/जलप्रपात

इस जलप्रपात तक पहुँचने के लिए स्थानीय अधिकारियों ने व्यक्तिगत स्वामित्व के हरियाली भरे वनों में सुव्यवस्थित सीढ़ियाँ बनाई हैं। जिन्हें सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने में कष्ट हो उनके लिए यह यात्रा कष्टदायक हो सकती है किन्तु अन्य के लिए यह आसान है। चढ़ाई एवं वनीय प्रदेशों की आर्द्रता के कारण पसीने  की असुविधा अवश्य हो सकती है। प्रवेश स्थल पर जलपान एवं पेयजल की सुविधाएं उपलब्ध हैं।

हमने भी जलप्रपात तक की यात्रा की थी। जलप्रपात के साथ साथ हमें यहाँ की प्रकृति में समय व्यतीत करने में आनंद आया था। यह जलप्रपात ना तो विशाल है, ना ही बहुत ऊँचा है। यह लगभग ६०-७० फीट ऊँचा जलप्रपात  है। मानसून में इसकी सुन्दरता चरम सीमा पर होती है। इससे उठता शोर सम्पूर्ण वातावरण को गुंजायमान कर देता है। मानसून के पश्चात इसके आकर्षण में कमी आ जाती है। इसलिए अपनी अपेक्षाएं कम रखकर यहाँ आयें तो आपको अवश्य आनंद आएगा।

जलप्रपात तक जाने के लिए नाममात्र का शुल्क लिया जाता है। पर्यटकों को जलप्रपात के जल में अथवा जलाशय में उतरने की अनुमति नहीं है। यह जलप्रपात मडिकेरी नगरी से लगभग ८ किलोमीटर दूर है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ तक आने का कष्ट करना व्यर्थ होगा क्योंकि तब तक जलप्रपात का जल लगभग लुप्त हो जाता है।

अन्य जलप्रपात

अन्य सभी जलप्रपात भी मौसमी हैं। वर्षा ऋतु अथवा इसके तुरंत बाद ही वहाँ तक जाना फलदायी होगा। मैं मार्च के महीने में कूर्ग पहुँची थी। वह ना तो जलप्रपात के लिए योग्य मौसम था, ना ही हमारे पास इन सब जलप्रपातों तक जाने के लिए पर्याप्त समय था। इसलिए हमने इन जलप्रपातों के दर्शन तो नहीं किये। किन्तु यदि आप वर्षा ऋतु में अथवा उसके पश्चात कूर्ग जाते हैं तो आप इनके दर्शनों का प्रयास कर सकते हैं। आप की सुविधा के लिए मैं उन जलप्रपातों की सूची यहाँ दे रही हूँ।

  • इरुप्पू जलप्रपात (Iruppu Falls लक्षमण तीर्थ) – वायनाड सीमा पर पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत श्रंखलाओं में स्थित है।
  • चेलवरा जलप्रपात (Chelavara Falls) – जिसे कछुआ शिला भी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में एम्बेपेरे कहा जाता है।
  • कब्बे जलप्रपात (Kabbe Falls)
  • बगनमाने जलप्रपात (Baganamane Waterfalls)
  • गर्वाले जलप्रपात (Garwale Waterfalls)
  • कल्याला जलप्रपात (Kalyala Waterfalls) – इसे कन्नड़ भाषा में स्पतिका जलपथा कहा जाता है।
  • देवराकोल्ली जलप्रपात (Devarakolli Waterfalls)
  • कुप्पेहोले जलप्रपात (Kuppehole Waterfalls)
  • करिके जलप्रपात (Karike Waterfalls)
  • मल्लाली जलप्रपात (Mallalli Waterfalls)

पर्वतारोहण

कूर्ग पश्चिमी घाटियों में बसी एक अप्रतिम नगरी है। स्वाभाविक है कि इसके चारों ओर पर्वत श्रंखलायें हैं जिन पर चढ़कर इस क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। किन्तु इन पर्वतों पर चढ़ना थकावट एवं संकट भरा हो सकता है। इसलिए ऐसे रोमांचक चढ़ाई के लिए पूर्व योजना बनाएं। समूह में चढ़ाई करें। अपने साथ स्थानीय मार्गदर्शक अवश्य रखें।

इनमें से अधिकतर यात्रा मार्ग वनीय प्रदेशों से होकर जाते हैं। इसलिए चढ़ाई आरम्भ करने से पूर्व वन विभाग से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक होता है। आपको पुनः सचेत कर दूं कि ऐसी चढ़ाई के लिए अकेले ना जाएँ। पूर्व नियोजित समूह में जानकार गाइड के मार्गदर्शन में जाएँ। पर्वतीय क्षेत्रों में मोबाइल तंत्र कार्य नहीं करते हैं। किसी दुर्घटना की परिस्थिति में शीघ्र सहायता पहुँचाने में कठिनाई हो सकती है। हमने इनमें से कोई भी रोहण स्वयं नहीं किया है।

कुछ पर्वतारोहण मार्गों की सूची इस प्रकार है:

  • ताडियान्दामोल शिखर (Tadiandamol peak)– यह कूर्ग का सर्वोच्च पर्वत शिखर है जिसकी ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग १७५० मीटर है।
  • पुष्पगिरी (Pushpagiri) – इसे कुमार पर्वत या सुब्रमन्य पर्वत भी कहते हैं। समुद्र सतह से लगभग १७१० मीटर ऊँचाई पर स्थित यह शिखर कूर्ग का दूसरा सर्वोच्च शिखर है।
  • ब्रह्मगिरी (Brahmagiri) – समुद्र सतह से लगभग १६१० मीटर ऊँचाई पर स्थित यह शिखर कूर्ग का चौथा सर्वोच्च शिखर है।
  • मंडलपट्टी (Mandalpatti)
  • निशानी बेट्टा (Nishani Betta) – बेट्टा का अर्थ पर्वत होता है। इसकी ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग १२७५ मीटर है।
  • कोपट्टी (Kopatty)
  • कब्बे (Kabbe)
  • चोमाकुंडा (Chomakund)
  • कोटे बेट्टा (Kote Betta) – समुद्र सतह से लगभग १६२० मीटर ऊँचाई पर स्थित इस शिखर को कूर्ग का तीसरा सर्वोच्च शिखर माना जाता है।
  • गलिबीडू (Galibeedu) – सुब्रमन्य
  • कक्कबे (Kakkabe)
  • तवूर (Tavoor)

कूर्ग के आसपास के राष्ट्रीय उद्यान

कूर्ग क्षेत्र चारों ओर से कई वन्य प्राणी उद्यानों, राष्ट्रीय उद्यानों एवं बाघ अभयारण्यों से घिरा हुआ है। ये सभी उद्यान कर्णाटक, तमिलनाडु एवं केरल राज्यों की सीमाओं को पार करते हैं। यदि आप पर्याप्त समय लेकर कूर्ग की यात्रा पर आये हैं तो इनमें से कुछ अभयारण्य अवश्य जाएँ।

  • नागरहोले (Nagarahole) राष्ट्रीय उद्यान एवं बाघ अभयारण्य
  • काबिनी (Kabini) वन्यजीव अभयारण्य
  • बाँदीपुर (Bandipur) बाघ अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यान
  • मधुमलई (Madumalai) राष्ट्रीय उद्यान
  • वायनाड (Wayanad) वन्यजीव अभयारण्य
  • ब्रह्मगिरी (Brahmagiri) वन्यजीव अभयारण्य

मैं किसी दिन इन सभी वन्यजीव अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यानों को देखने की अभिलाषा रखती हूँ। आशा है कि मेरी इच्छा शीघ्र पूर्ण होगी।

कूर्ग के समीप अन्य दर्शनीय स्थल

यदि आपके पास समय हो तो आप कूर्ग के आसपास अन्य पर्यटन स्थलों का भी आनंद ले सकते हैं। उनमें कुछ इस प्रकार हैं:

  • काबिनी (Kabini) जलाशय
  • होन्नामाना केरे (Honnamana Kere) – एक विशाल प्राकृतिक सरोवर
  • हरंगी (Harangi) बाँध
  • चिकलीहोले (Chiklihole) जलाशय

मैंने इस स्थलों का अवलोकन नहीं किया है। आशा है निकट भविष्य में मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हो।

कूर्ग का आनंद उठायें! उसके प्राकृतिक सौंदर्य में सराबोर हो जाएँ!

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्री चामुंडेश्वरी मंदिर – चामुंडी पहाड़ी मैसूर के निकट https://inditales.com/hindi/chamundeshwari-mandir-chamundi-pahadi-mysore/ https://inditales.com/hindi/chamundeshwari-mandir-chamundi-pahadi-mysore/#comments Wed, 10 May 2023 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3054

श्री चामुंडेश्वरी मंदिर आदि शंकराचार्यजी द्वारा बताये गए १८ शक्तिपीठों में से एक है। यह चामुंडी पहाड़ी पर स्थित है जो कर्णाटक के मैसूरू नगरी के निकट है। मैसूरू को पहले मैसूर कहा जाता था। चामुंडी पहाड़ी का देवी की कथा से प्रगाढ़ सम्बन्ध है। चामुंडेश्वरी देवी की पौराणिक कथा चामुंडा या चामुंडेश्वरी का नाम […]

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श्री चामुंडेश्वरी मंदिर आदि शंकराचार्यजी द्वारा बताये गए १८ शक्तिपीठों में से एक है। यह चामुंडी पहाड़ी पर स्थित है जो कर्णाटक के मैसूरू नगरी के निकट है। मैसूरू को पहले मैसूर कहा जाता था। चामुंडी पहाड़ी का देवी की कथा से प्रगाढ़ सम्बन्ध है।

चामुंडेश्वरी देवी की पौराणिक कथा

चामुंडा या चामुंडेश्वरी का नाम देवी की उन कथाओं में प्राप्त होता है जो मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत आते देवी माहात्मय अथवा दुर्गा सप्तशती का भाग हैं। इस ग्रन्थ में माँ दुर्गा समय समय पर प्रकट होते विभिन्न असुरों का वध करने के लिए भिन्न भिन्न स्वरूप में अवतरित होती हैं। देवी का वह स्वरूप जिसमें उन्होंने चंड एवं मुंड नामक दो असुर भ्राताओं का वध किया था, चामुंडा कहलाता है।

देवी श्री चामुंडेश्वरी
देवी श्री चामुंडेश्वरी

चामुंडा देवी ने एक ऐसे असुर का भी वध किया था जो आधा मानव व आधा भैंसा था। उस असुर का नाम महिषासुर था। इसीलिए उन्हें महिषासुर मर्दिनी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी ने इसी चामुंडी पहाड़ी पर महिषासुर का वध किया था। इसीलिए इस पहाड़ी का नाम चामुंडी पहाड़ी पड़ा तथा समीप स्थित मैसूर या मैसूरू का नाम भी इसी असुर के नाम पर पड़ा है। इस प्रकार की नामकरण पद्धति असामान्य नहीं है। महाराष्ट्र में स्थित कोल्हापुर नगरी का नाम भी कोलासुर नामक असुर के कारण पड़ा है जिसका वध महालक्ष्मी ने किया था। पूर्व में कोल्हापुर नगरी को करवीरपुर कहा जाता था।

चामुंडी पहाड़ी के ऊपर विराजमान देवी चामुंडेश्वरी आस पास के विस्तृत क्षेत्र की अधिष्टात्री देवी है। इस क्षेत्र में मैसूरू नगरी भी सम्मिलित है जो कर्णाटक राज्य की सांस्कृतिक राजधानी मानी जाती है। मैसूरू एक राज नगरी होने के कारण देवी चामुंडेश्वरी मैसूरू के राजपरिवार की कुलदेवी भी हैं। वस्तुतः, देवी चामुंडेश्वरी को सम्पूर्ण कर्णाटक राज्य की देवी माना जाता है।

Chamundeshwari Temple Gopuram
Chamundeshwari Temple Gopuram

माँ चामुंडेश्वरी को कर्णाटक में नाद देवी के नाम से भी पुकारते हैं। मैसूरू नगरी का विश्वप्रसिद्ध दशहरा उत्सव देवी की अनुमति से यहीं से आरम्भ किया जाता है। इस दशहरा उत्सव को मैसूरू में नाद हब्बा कहते हैं।

नाग देवता मूर्तियाँ
नाग देवता मूर्तियाँ

यह एक शक्ति पीठ है। आदि शंकराचार्यजी ने इसे क्रौंचपट्टनम कहा जिसे क्रौंच पीठ भी कहते हैं। देवी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा, अपने पति भगवान शिव की अवमानना सहन ना कर पाने के कारण पिता दक्ष के ही यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। इससे क्रोधित होकर भगवान शिव देवी सती का मृत देह उठाकर तांडव करने लगे थे। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र द्वारा सती की देह का विच्छेद कर दिता था। जहाँ जहाँ उसके भाग गिरे, वहाँ वहाँ देवी के शक्तिपीठ की स्थापना हुई।

ऐसी मान्यता है कि चामुंडी पहाड़ी पर देवी के केश गिरे थे।

श्री चामुंडेश्वरी मंदिर

 चामुंडी पहाड़ी पर स्थित यह पुरातन मंदिर औसत समुद्र सतह से लगभग ३४०० फीट की ऊँचाई पर स्थित है। भारत में अनेक देवी मंदिर हैं जो पहाड़ी के ऊपर स्थित हैं। प्राचीन काल में भक्तगण इन पहाड़ियों पर उगे झाड़-झंखाड़ के बीच से जाते दुर्गम पगडंडियों द्वारा मंदिर तक पहुंचते थे। जैसे जैसे सभ्यता में विकास हुआ, राज्यों में प्रगति हुई, मंदिरों की वैभवता में भी वृद्धि होने लगी। साथ ही मंदिरों की ओर जाते मार्गों को भी अधिक सुगम बनाया जाने लगा।

मंदिर वास्तुशिल्प की ठेठ द्रविड़ शैली में निर्मित इस मंदिर में एक ऊँचा गोपुर अथवा गोपुरम है जो हलके पीले रंग का है। इस मंदिर का निर्माण १२वीं सदी में होयसल राजवंश ने करवाया था। समय के साथ इसमें नवीन संरचनाएं जोड़ी गयीं। जैसे इसका गोपुरम, जिसे कदाचित विजयनगर के महाराजाओं ने बनवाया था। इस पुरातन मंदिर संरचना का एक विशेष भाग है, मंदिर की ओर जाती पत्थर की सहस्त्र सीढ़ियाँ, जिन्हें १७वीं सदी में मैसूरू के महाराजा डोड्डा देवराज ने बनवाया था। मैसूरू के विभिन्न महाराजाओं द्वारा इस मंदिर के दर्शन करने एवं देवी द्वारा विभिन्न रूपों में वरदान प्राप्त करने की अनेक कथाएं प्रचलित हैं।

मंदिर स्वयं में अधिक विशाल नहीं है। भक्तगणों की अधिक भीड़ ना हो तो आप मंदिर के चारों ओर शान्ति से घूम सकते हैं। मंदिर से मैसूरू नगरी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

आप सात तल ऊंचे गोपुरम से मंदिर के भीतर प्रवेश करेंगे। गोपुरम इतना ऊँचा प्रतीत होता है कि उसके ऊपर स्थापित स्वर्ण कलश को देखने के लिए अपने शरीर को पीछे झुकाना पड़ता है।

मंदिर में प्रवेश करते ही समक्ष नवरंग मंडप एवं अंतराल मंडप हैं जिनके पश्चात गर्भगृह है। मंदिर के चारों ओर भित्तियाँ हैं जिन्हें प्राकार कहा जाता है।

गणेश, हनुमान और भैरव

मंदिर परिसर के भीतर कुछ लघु मंदिर हैं जो गणेश भगवान, हनुमाजी एवं भैरव को समर्पित हैं। मुख्य द्वार का रक्षण करतीं दोनों ओर द्वारपालिकाएं विराजमान हैं जिनके नाम हैं, नंदिनी और कमलिनी। मैसूरू के महाराजा कृष्णराज वड्यार तृतीय एवं उनकी पत्नियां रामविलासा, लक्ष्मीविलासा एवं कृष्णविलासा भी भक्त के रूप में मंदिर में विराजमान हैं। किन्तु भक्तगणों की अत्यधिक संख्या के कारण में उन्हें नहीं देख पायी।

देवी की मुख्य मूर्ति अष्टभुजा रूप में स्थापित है। आठ भुजाओं वाली इस देवी की प्रतिमा वैसी ही है जैसी मार्कंडेय पुराण में वर्णित है। ऐसी मान्यता है कि कदाचित वे मार्कंडेय ऋषि ही थे जिन्होंने इस मूर्ति का सर्वप्रथम अभिषेक किया था। देवी के ज्यामितीय स्वरूप, श्री चक्र की भी यहाँ पूजा की जाती है।

मंदिर के आसपास अनेक छोटी छोटी दुकानें हैं जो पुष्प एवं अन्य पूजा सामग्री की विक्री करते हैं। मंदिर में मुख्य प्रसाद के रूप में लड्डू का अर्पण किया जाता है जो तिरुपति में भगवान बालाजी को अर्पित लड्डू से साम्य रखता है। परिसर में स्थिर वृक्षों के नीचे मुझे अनेक नाग  प्रतिमाएं दिखीं जो दक्षिण भारत में सर्व-सामान्य है।

चामुंडेश्वरी देवी मंदिर के उत्सव

यह एक देवी मंदिर है। तो स्वाभाविक ही है कि शुक्रवार का दिवस मंदिर के लिए विशेष होगा। शुक्रवार के दिन मंदिर में अधिक संख्या में भक्तगण देवी के दर्शन करने एवं उनका प्रसाद पाने के लिए आते हैं।

इस मंदिर में नित्य प्रातःकाल एवं सांयकाल देवी का दैनिक अभिषेक किया जाता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक संध्या को देवी को तोप की सलामी दी जाती है। इस प्रथा का आरम्भ मैसूरू के वड्यार महाराजाओं ने तब किया था जब उन्होंने टीपू सुलतान को मृत्यु के पार पहुंचाकर अपना राज्य उससे वापिस प्राप्त किया था।

आषाढ़ शुक्रवार

आषाढ़ मास के शुक्रवार को मंदिर में विशेष उत्सवों का आयोजन किया जाता है। आषाढ़ मास अंग्रेजी तिथिपत्र के अनुसार जुलाई-अगस्त में आता है।

चामुंडी जयंती

चामुंडी जयंती आषाढ़ मास की कृष्ण सप्तमी के दिन मनाई जाती है। इस दिन देवी अपने उत्सव मूर्ति स्वरूप में अपनी स्वर्ण पालकी में बैठकर मंदिर से बाहर आती हैं। मंदिर परिसर में उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है।

इस पूजा में मैसूरू के राजपरिवार के सदस्य भी भाग लेते हैं तथा देवी से आशीष लेते हैं कि वे उनके मार्गदर्शन में राज्य पर निष्पक्ष रूप से शासन करें।

नवरात्रि और नाडा हब्बा या दशहरा

नवरात्रि वर्ष में दो बार आती है, चैत्र मास में तथा अश्विन मास में। देश भर के अन्य देवी मंदिरों के समान इस मंदिर में भी ये दोनों नवरात्रियाँ बड़ी धूमधाम से मनायी जाती हैं। चामुंडेश्वरी मन्दिर में नवरात्रि के नौ दिवस देवी का विभिन्न स्वरूपों में श्रृंगार किया जाता है, जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। इनमें कुछ दिन मैसूरू के राजकोष से आये आभूषणों द्वारा भी देवी का श्रृंगार किया जाता है।

चामुंडी मैसूरू में आयोजित विश्वप्रसिद्ध दशहरा उत्सव का अभिन्न अंग हैं। हम उसके विषय में किसी अन्य दिवस चर्चा करेंगे।

मंदिर के अन्य महत्वपूर्ण दिवस:

  • अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया को आयोजित शयन उत्सव
  • अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को आयोजित मुदी उत्सव
  • चैत्र प्रतिपदा या चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिवस में आयोजित वसंतोत्सव
  • कार्तिक पूर्णिमा के दिन कार्तिकोत्सव
  • अश्विन मास की पूर्णिमा को प्रातः रथोत्सव अश्वयुज
  • अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया की संध्या में आयोजित टेप्पोत्सवा
  • फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को आयोजित श्री महाबलेश्वर रथोत्सव
  • माघ मास के तृतीय रविवार को आयोजित उत्तानहल्ली ज्वालामुखी मंदिर की जत्रा

महाबलेश्वर मंदिर

चामुंडेश्वरी मंदिर से लगभग १०० मीटर की दूरी पर एक छोटा शिव मंदिर है जो शिलाओं द्वारा निर्मित है। इसके स्तम्भ ठेठ होयसल मंदिर वस्तु शैली में निर्मित हैं जो यह संकेत करने हैं कि इस मंदिर का निर्माण कदाचित होयसल राजवंश ने ही करवाया होगा। इस मंदिर परिसर में कन्नड़ भाषा में उकेरा गया एक शिलालेख है।

कन्नड़ भाषा में शिलालेख
कन्नड़ भाषा में शिलालेख

मंदिर का मंडप मूर्तियों से भरा हुआ है। गर्भगृह के एक ओर सप्तमातृकाओं को दर्शाता एक पटल मुझे अब भी स्पष्ट रूप से स्मरण है।

हम मंदिर में दर्शन के लिए प्रातः शीघ्र ही आ गए थे। जिसके फलस्वरूप हमें मंदिर की आरती में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रातःकालीन आरती के समय गिने-चुने ही भक्तगण थे जिसके कारण वातावरण में एक सम्मोहक शान्ति थी। सम्पूर्ण आरती एक अत्यंत भाव-विभोर कर देने वाला अनुभव था।

महाबलेश्वर मंदिर के स्तम्भ
महाबलेश्वर मंदिर के स्तम्भ

मुझे यहाँ का वातावरण अत्यंत भा गया। चामुंडेश्वरी मंदिर में इतनी बड़ी संख्या में भक्तगण व दर्शनार्थी उपस्थित रहते हैं कि देवी के दर्शन करना भी दूभर हो जाता है। किन्तु यह मंदिर लगभग खाली था। यहाँ शांत वातावरण में भगवान के सान्निध्य में कुछ क्षण व्यतीत करने का अद्वितीय अनुभव प्राप्त होता है।

यह मंदिर चामुंडेश्वरी मंदिर एवं अन्य समकालीन मंदिरों से पुरातन हो सकता है। यह मंदिर जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसका नाम है महाबलाद्री पहाड़ी। कालांतर में चामुंडी पहाड़ी अधिक लोकप्रिय हो गयी।

यहाँ से निकट ही एक नारायणस्वामी मंदिर भी है।

नंदी मूर्ति एवं शिव मंदिर

चामुंडी पहाड़ी के ऊपर जाती सहस्त्र सीढ़ियों को चढ़ते समय जब आप ७००वीं सीढ़ी पर पहुंचेंगे, आप शिलाओं को उकेर कर बनाई गयी नंदी की एक विशाल प्रतिमा देखेंगे। नंदी की इस प्रतिमा को एक विशाल एकल शिला को उकेर कर बनाया गया है। इसमें नंदी के विभिन्न अवयव अत्यंत यथोचित, सुडौल तथा सटीक अनुपात में निर्मित हैं। हम जानते हैं इस क्षेत्र में नंदी अत्यंत लोकप्रिय हैं। कभी कभी नंदी की प्रतिमा शिवलिंग से भी विशाल बनाई जाती है। भक्तगण चाहे जिस माध्यम से चामुंडेश्वरी मंदिर जा रहे हों, वे मार्ग में यहाँ ठहर कर नंदी के दर्शन अवश्य लेते हैं।

भव्य नंदी प्रतिमा
भव्य नंदी प्रतिमा

यह स्थान छायाचित्रीकरण के लिए भी अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, चाहे वह स्वयं का हो अथवा परिदृश्यों का। यहाँ एक ऐसा चबूतरा है जहाँ से आप नंदी की प्रतिमा के समीप ना जाते हुए भी उत्तम छाया चित्र ले सकते हैं। साथ ही आगे की सीढ़ियाँ चढ़ने से पूर्व भक्तगणों को कुछ क्षण विश्राम करने का भी अवसर मिल जाता है।

नंदी की प्रतिमा लगभग १६ फीट ऊँची तथा लगभग २५ फीट लम्बी है। इसके सामने अपने आकार को देखते हुए नंदी एवं भगवान के समक्ष अपने अस्तित्व की सूक्ष्मता का आभास होता है। नंदी के गले में कई साखलियाँ एवं घंटियाँ हैं जिन्होंने नंदी के सम्पूर्ण पीठ को भी ढँक दिया है। इनको उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित कर बनाया गया है। यह नंदी पर्यटकों को अत्यंत प्रिय है। इसका निर्माण भी डोड्डा देवराज ने करवाया था, जिन्होंने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए सीढ़ियों का निर्माण करवाया था।

यदि नंदी हैं तो शिव भी आसपास ही होंगे। नंदी के चबूतरे के निकट एक छोटा शिव मंदिर है।

महिषासुर मूर्ति

पहाड़ी के ऊपर महिषासुर की एक विशाल प्रतिमा है जिसके हाथों में एक तलवार एवं एक नाग है। महिषासुर की प्रतिमा अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। यह इस तथ्य का भी प्रतीक है कि जब धरती पर अधर्म एक सीमा के पार बढ़ा तो देवताओं को धरती पर अवतरित होना पड़ा।

चामुंडी पहाड़ी

चामुंडी पहाड़ी चामुंडेश्वरी मंदिर के लिए तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही यह पहाड़ी प्रातः एवं संध्याकालीन पदभ्रमण करने, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के दृश्यों का आनंद उठाने व छायाचित्रीकरण करने, यहाँ के सुखमय वातावरण में सराबोर होने के लिए तथा हरियाली भरे परिदृश्यों के दर्शन करने वालों में भी अत्यंत लोकप्रिय है।

मैसूरू नगरी से केवल १३ किलोमीटर दूर होने के पश्चात भी इन पहाड़ियों की श्रंखला लगभग ११ किलोमीटर लम्बी है। इन पहाड़ियों के ऊपर स्थित वन वास्तव में सरकार द्वारा घोषित संरक्षित वन हैं जहाँ वनस्पतियों एवं वन्यप्राणियों की अनेक दुर्लभ प्रजातियाँ पायी जाती हैं। यह एक उष्ण कटिबंधीय कटीला पतझड़ी वन(tropical deciduous thorn scrub forest) है। यहाँ फूलों वाले पौधों के लगभग ४४० प्रजातियाँ पायी जाती हैं। पक्षी प्रेमियों ने यहाँ पक्षियों के लगभग १९० प्रजातियों को ढूंड निकला है जिनमें लगभग १३० प्रजातियाँ स्थानिक हैं।

यहाँ लगभग १५० प्रकार की तितलियों को भी देखा गया है। इस पहाड़ी वन में वानरों, गंधबिलावों(civet), तेंदुओं तथा नेवलों का वास है। चामुंडी पहाड़ी के वनीय प्रदेश में पदभ्रमण के लिए पगडंडियाँ हैं जहाँ भ्रमण कर आप प्रकृति का आनंद उठा सकते हैं। लेकिन यह पदभ्रमण आधिकारिक अनुमति प्राप्त करने के पश्चात किसी परिदर्शक के साथ समूह में ही करिए जो इस प्रकार के रोमांचक गतिविधियों के लिए दक्षता प्राप्त किये हुए हैं।

मैसूरू का विहंगम दृश्य

चामुंडी पहाड़ी के ऊपर से मैसूरू नगरी का अप्रतिम विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है। मैंने इस पहाड़ी के अनेक अवलोकन बिन्दुओं से मैसूरू नगरी को निहारा। वहाँ से मुझे मैसूरू नगरी एक श्वेत नगरी के समान प्रतीत हुई क्योंकि मैसूरू में अनेक प्रमुख संरचनाएं श्वेत रंग की हैं।

चामुंडी पहाड़ी से मैसूर नगर का दृश्य
चामुंडी पहाड़ी से मैसूर नगर का दृश्य

यदि आपके साथ कोई स्थानिक व्यक्ति है अथवा कोई स्थानीय परिदर्शक है तो वह आपको वहीं से मैसूरू नगरी का आकाशीय भ्रमण करा देगा। यदि आकाश स्वच्छ हो तो यहाँ से आप कृष्णराजसागर बाँध तक देख सकते हैं।

ज्वालामालिनी एवं त्रिपुरसुंदरी मंदिर

चामुंडी पहाड़ी से नीचे आते समय आप उत्तानहल्ली गाँव की ओर विमार्ग लें। यह गाँव मुख्य पहाड़ी के लगभग तलहटी पर बसा हुआ है। यहाँ दो मंदिर हैं जो जुड़वा देवियों, ज्वालामालिनी एवं त्रिपुरसुंदरी को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि ये दोनों देवियाँ देवी चामुंडा की बहनें हैं।

ज्वालामालिनी मंदिर
ज्वालामालिनी मंदिर

ये दोनों मंदिर साथ साथ हैं। इस परिसर में एक सुन्दर शिव मंदिर भी है। मुझे यहाँ भैरव की कुछ शैल प्रतिमाएं भी दिखीं जिन्हें किसी भी देवी क्षेत्र का प्रमुख भाग माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ के राजा-महाराजा युद्ध के लिए प्रस्थान करने से पूर्व इस मंदिर में आकर देवी के दर्शन करते थे तथा उनका आशीष ग्रहण करते थे।

यहाँ आसपास के क्षेत्र में आपको देवी के अनेक स्वरूपों को समर्पित कई मंदिर दिखाई देंगे। ठीक वैसे ही जैसे कोल्हापुर में महालक्ष्मी के पास कालिका एवं रेणुका देवी विराजमान हैं।

यात्रा सुझाव:

  • चामुंडेश्वरी मंदिर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। आप इस पहाड़ी पर सीढ़ियाँ चढ़कर जा सकते हैं अथवा वाहन से भी ऊपर तक जा सकते हैं। मैसूरू नगरी से पहाड़ी के ऊपर तक जाने के लिए नियमित बस सेवायें भी उपलब्ध हैं।
  • चामुंडेश्वरी मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ७:२० से दोपहर २ बजे तक, तत्पश्चात दोपहर ३:३० से संध्या ६ बजे तक तथा इसके पश्चात संध्या ७:३० से रात्रि ९ बजे तक है।
  • विशेष दर्शन का भी प्रावधान है जिसमें आप टिकट लेकर एक अन्य द्वार से मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। इस द्वार पर सामान्यतः कम भीड़ रहती है।
  • दोपहर के भोजन के समय मंदिर का महाप्रसाद निशुल्क उपलब्ध रहता है। यदि आप यहाँ कुछ दान-दक्षिणा करने में समर्थ हैं तो अवश्य करें।
  • यदि आपके पास कुछ खाने-पीने की वस्तुएं हैं तो वानरों से सावधान रहें।
  • मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है। बाहर, मंदिर परिसर में आप छायाचित्रीकरण कर सकते हैं।
  • चामुंडी पहाड़ी एक वनीय क्षेत्र है जहाँ अनेक दुर्लभ वन्य प्राणियों का वास है। अतः वनीय प्रदेश में भ्रमण करते समय सावधान रहें।
  • पहाड़ी के ऊपर वाहन खड़ा करने के लिए पर्याप्त स्थान है।
  • पहाड़ी के ऊपर जलपान एवं स्मारिकाओं की दुकानें भी उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बंगलुरु से मैसूर तक – कर्नाटक का रेशम पथ https://inditales.com/hindi/bengaluru-mysuru-resham-udyog/ https://inditales.com/hindi/bengaluru-mysuru-resham-udyog/#respond Wed, 22 Feb 2023 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2976

बंगलुरु के रेशम पथ अथवा सिल्क रूट का आरम्भ बंगलुरु के प्रसिद्ध सिल्क बोर्ड जंक्शन से होता है। जी हाँ, यह वही सिल्क बोर्ड जंक्शन है जिसे पार करने के लिए पथिकों को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह जंक्शन अब यातायात अवरोधों के लिए इतना कुप्रसिद्ध हो गया है कि इसका नाम यहाँ स्थित […]

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बंगलुरु के रेशम पथ अथवा सिल्क रूट का आरम्भ बंगलुरु के प्रसिद्ध सिल्क बोर्ड जंक्शन से होता है। जी हाँ, यह वही सिल्क बोर्ड जंक्शन है जिसे पार करने के लिए पथिकों को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह जंक्शन अब यातायात अवरोधों के लिए इतना कुप्रसिद्ध हो गया है कि इसका नाम यहाँ स्थित केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल के नाम पर सिल्क बोर्ड जंक्शन पड़ा है, यह तथ्य बहुधा लोग बिसार देते हैं।

रेशम के कोषों से बने गणपति
रेशम के कोषों से बने गणपति

अपने बंगलुरु निवास के समय, अवरुद्ध यातायात के कारण मैंने इस जंक्शन पर प्रचुर समय व्यतीत किया था किन्तु मार्ग के किनारे स्थित इस संकुल के कभी दर्शन नहीं कर पायी थी। कहावत ही है कि प्रत्येक घटना का एक निर्धारित समय होता है। अपनी इस बंगलुरु यात्रा में मैंने भारतीय सिल्क मार्क संगठन (Silk Mark Organization of India) के साथ केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल में पांच दिवस व्यतीत किये एवं उनकी गतिविधियों को समझा। बंगलुरु व कदाचित भारत के रेशम पथों को समझने के लिए सम्पूर्ण बंगलुरु नगर को खंगाला।

बंगलुरु का रेशम मार्ग

बंगलुरु नगर ने अनेक काल से अपने अप्रतिम बाग-बगीचों, सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगों एवं नवीन लघु उद्योगों के लिए अपार लोकप्रियता अर्जित की है। साथ ही यह भारत का रेशम नगर होने की भी पात्रता रखता है। सम्पूर्ण बंगलुरु-मैसूरू गलियारा रेशम उद्योग मूल्य शृंखला के प्रमुख व्यावसायिक इकाइयों से भरा हुआ है।

हथकरघे पर रेशम की बुनाई
हथकरघे पर रेशम की बुनाई

यह यात्रा बंगलुरु नगर के केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल के खेत में सावधानीपूर्वक पाले गए रेशम कीटों से आरम्भ होकर दक्षिण बंगलुरु के उच्च स्तरीय भव्य रेशम धरोहर वस्त्रालयों में समाप्त होती है। रेशम प्रेमियों से लेकर रेशम उद्यमियों तक, इस गलियारे में सभी की अभिरुचि एवं लाभ के तत्व उपस्थित हैं। आईये, बंगलुरु नगर के इस गुप्त चित्र यवनिका के शोध पर चलते हैं।

बंगलुरु का केंद्रीय सिल्क बोर्ड

केंद्रीय सिल्क बोर्ड वह सर्वोच्च सरकारी संस्था है जो भारत को विश्व स्तरीय रेशम बाजार में अग्रणी देश बनाने के ध्येय पर कार्यरत है। बंगलुरु में अपना मुख्यालय स्थापित करना अनायास ही नहीं है। कर्णाटक भारत का अग्रणी सिल्क उत्पादक राज्य है। इसके अतिरिक्त, अधिकतर रेशम समूह बंगलुरु एवं मैसूरू के मध्य स्थित हैं जबकि मैसूरू सिल्क की प्रसिद्धि के कारण हम बहुधा रेशम का सम्बन्ध केवल मैसूरू से जोड़ देते हैं।

रेशम से बने जूते, मोज़े और दुशाले
रेशम से बने जूते, मोज़े और दुशाले

केंद्रीय सिल्क बोर्ड के अनेक उपविभाग हैं जो इस क्षेत्र के अनुसंधान एवं विकास की ओर अग्रसर हैं। एक ओर वे रेशम कृषकों, सूतकारों एवं बुनकरों की उत्पादकता एवं उत्पादन में वृद्धि करने के लिए नवीन उपायों पर  शोध करते हैं तो दूसरी ओर रेशम के नवीन उत्पादनों पर भी अनुसंधान करते हैं, जैसे डेनिम रेशम अथवा रेशम मोजे इत्यादि।

राष्ट्रीय रेशमकीट बीज संस्था रेशम कीट प्रजनन केन्द्रों का नियंत्रण करती है एवं किसानों को उनकी सुविधाएं उपलब्ध करती है। उत्तम स्तर के रेशम कोषों के उत्पादन एवं संरक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने में मुझे दो घंटों से अधिक समय लग गया।

विभिन्न तकनीकियां

केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल में मैंने अनेक सम्बंधित तकनीकों के विषय में जाना, जैसे रेशमी वस्त्रों को सुगंधित करना, तेल अथवा जल से वस्त्रों का रक्षण करना इत्यादि। यहाँ रेशमी वस्त्रों के डेनिम रेशम तथा वोयड रेशम जैसे विभिन्न नवीन प्रकारों पर शोध किये जा रहे हैं।

टसर रेशम से बने जूते, रेशमी वस्त्र पर जरदोजी द्वारा पारिवारिक चित्र बुनना, कोमल व मृदु एरी रेशम द्वारा हल्के वजन के उपवस्त्र (शाल) बनाना आदि तकनीकों को उन्होंने अपने उत्पाद विकास सुविधाओं के अंतर्गत प्रदर्शित किया है। टसर कोष की डंठल द्वारा बुना गया वस्त्र मुझे अत्यंत भाया जिसे पेडंकल कहते हैं। गहन भूरे रंग के इस वस्त्र पर अपनी पृथक चमक होती है। घरेलू साज-सज्जा हेतु एवं शिशुओं के लिए भी भिन्न भिन्न रेशमी वस्त्रों पर अनुसंधान किया जा रहा है।

क्या आप जानते हैं, International Sericulture Commission, एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय सरकारी संगठन है, जो रेशम उत्पादन एवं रेशम के विश्व स्तरीय विकास पर कार्य कर रहा है तथा इसका मुख्यालय भी बंगलुरु में है। ये एक निश्चित प्रमाण है कि रेशम जगत में भारत विश्व का नेतृत्व कर रहा है।

भारतीय सिल्क मार्क संगठन भी इस ओर सक्रियता से कार्य कर रहा है कि जो रेशम हम क्रय कर रहे हैं, वह पूर्णतः सत्यापित है। वे तकनीकी विकास की ओर अनवरत अग्रसर हैं ताकि हमें शुद्धतम रेशम उपलब्ध हो सके तथा मूल्य भी सीमित हो सके। सिल्क मार्क संगठन द्वारा हम उपभोक्ताओं के लिए क्या क्या सुनिश्चित किया जाता है, इसके विषय में किसी अन्य संस्करण में चर्चा करेंगे।

अवश्य पढ़ें: भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार

रामनगर रेशम-कोष बाजार

क्या आपको चित्रपट शोले का विशाल चट्टानों से भरा वह गाँव स्मरण है जहां गब्बर सिंह रहता था? जी हाँ, यह वही रामनगर गाँव है जहां एशिया का विशालतम रेशम-कोष बाजार है। रामनगर को भारत का रेशमनगर कहना अतिशयोक्ति नहीं है। बंगलुरु से मैसूरू की ओर जाते हुए, बंगलुरु से लगभग 50 किलोमीटर दूर यह गाँव स्थित है जो अब कर्णाटक का एक जिला भी है।

रामनगर की रेशम कोष मंडी
रामनगर की रेशम कोष मंडी

ना केवल राज्य भर के रेशम उद्यमी अपितु तमिलनाडू व महाराष्ट्र जैसे पड़ोसी राज्यों के किसान भी यहाँ आकर अपने रेशम-कोषों का विक्रय करते हैं। कर्णाटक राज्य सरकार द्वारा संचालित इस बाजार में ४०,००० से ५०,००० किलोग्राम रेशम-कोषों की नीलामी प्रतिदिन की जाती है। प्रतिदिन प्रातः बाजार के विशाल कक्षों के भीतर रेशम-कोषों से भरे धातुई थालों को रखा जाता है।

उनमें से श्वेत कोष द्विवर्षप्रज है अर्थात् प्रति वर्ष उनके दो प्रजनन चक्र होते हैं। उसी प्रकार किंचित पीतवर्ण कोष बहुवर्षप्रज हैं अर्थात् एक वर्ष में उनके अनेक प्रजनन चक्र होते हैं। वे दोनों मलबरी रेशम के ही प्रकार हैं। रेशम के विभिन्न प्रकारों में मलबरी रेशम का योगदान सर्वाधिक होता है। प्रत्येक थाल पर विक्रेता एवं उत्पादन सम्बन्धी जानकारी अंकित होती है। इनके क्रेता वो सूतकार होते हैं जो इन कोषों से रेशम के धागे बनाते हैं।

रेशम-कोषों की नीलामी –  जीवंत ई-विक्री

प्रतिदिन नीलामी के कम से कम तीन चक्र होते हैं। मुझे नीलामी के नवीन तकनीकों ने आकर्षित एवं अत्यंत प्रभावित किया। वहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर कंप्यूटर द्वारा ई-नीलामी की जा रही थी। प्रत्येक क्रेता के मोबाइल अथवा टेबलेट पर ई-नीलामी का ऐप होता है। वह प्रत्येक थाल में रखे कोषों की गुणवत्ता का अपने वर्षों के अनुभव द्वारा परिक्षण करता है। अपनी मांग के अनुसार वह थाल क्रमांक पर बोली लगाता है।

रेशम कोषों की इ-नीलामी
रेशम कोषों की इ-नीलामी

विभिन्न उत्पाद क्रमांकों के जीवंत मूल्य बड़े बड़े कंप्यूटर पटलों पर प्रदर्शित किये जाते हैं जो रेशम मंडी में अनेक स्थानों पर लगे हैं। ये मूल्य विक्रय मांग के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। क्रेता अपने ऐप पर देख सकता है कि उसकी बोली सर्वोच्च है अथवा किसी ने उससे अधिक बोली लगाई है। यह बोली एवं नीलामी ३०- ६० मिनटों तक चलती है जिसके अंत में कोषों को तौलकर क्रेता को भेजा जाता है।

मुझे यहाँ एक अनोखी परंपरा देखने मिली। कुछ किसान अपने प्रिय थालों में कुछ कोष पीछे छोड़ देते हैं अथवा कुछ कोषों को एक छोटी थैली में बांधकर अपने पैर पर बांधते हैं। वे उन थालों को अपने व्यापार के लिए शुभकारी तथा अच्छा मूल्य प्राप्त कराने में सहायक मानते हैं। कुछ लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे थालों को पूर्णतः रिक्त करना अशुभ मानते हैं। परम्पराएं हमारे जीवन के सभी आयामों को प्रभावित करती हैं।

रामनगर के रेशम-कोष बाजार के बाहर अनेक दुकानें हैं जहां रेशम-कीट कृषकों एवं सूतकारों की आवश्यकता अनुसार सभी वस्तुएं एवं सुविधाएं उपलब्ध हैं। वे रेशम उद्योग के परितंत्र को पूर्ण करते हैं।

रामनगर में सूतकारी

रामगर की गलियों में आप सूत कातने के स्वचलित यंत्रों से प्रस्फुटित ध्वनि सुन सकते हैं। रेशम-कीट रेशों को चिपचिपे पदार्थ द्वारा बांधकर कोष बनाते हैं। इन कोषों को इस चिपचिपे पदार्थ से छुड़ाने के लिए उन्हें जल में उबाला जाता है। तत्पश्चात इन स्वचलित यंत्रों द्वारा एक अखंड सूत काता जाता है। इस सूत को अनेक शीत एवं उष्ण प्रक्रियाओं को पार करना पड़ता है। तत्पश्चात उन्हें अटेरन अथवा चरखियों पर लपेटा जाता है। तत्पश्चात उन्हें श्वेतीकरण कर एवं विभिन्न रंगों में रंग कर बुनाई के लिए बुनकरों के पास भेजा जाता है।

रेशम की सूतकारी
रेशम की सूतकारी

रेशम कोषों से सूत निकालने के पश्चात मृत रेशम-कीटों से तेल निकला जाता है। तत्पश्चात उनके अवशेषों को मवेशियों तथा मछलियों को खिलाया जाता है क्योंकि इनमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन होते हैं।

मैं जहां भी गयी, मुझे यही कहा गया कि रेशम एक शून्य-अपशिष्ट उद्योग है जहां कुछ भी व्यर्थ नहीं होता है। इस पर किसी अन्य दिवस चर्चा करेंगे।

गोटिगेरे/येलहंका – बंगलुरु में रेशम बुनकरों के समूह

कुछ वर्ष पूर्व अनायास ही मेरी भेंट येलहंका के रेशम बुनकरों से हुई थी। उन पर लिखा मेरा संस्करण मेरे पाठकों में अब तक लोकप्रिय है। उस समय तक मेरा यह अनुमान था कि रेशम बुनकरों का समूह केवल यहीं है। यह मेरी अनभिज्ञता थी। मेरी इस यात्रा में मैंने जाना कि बंगलुरु नगर में छोटे बुनकरों के अनेक ऐसे समूह हैं। उनमें से अनेक अब गोटिगेरे नामक स्थान पर स्थानांतरित हो गए हैं जो बन्नेरघट्टा राष्ट्रीय उद्यान के निकट है।

रेशमी बुनाई की रूपरेखा संगणक पर
रेशमी बुनाई की रूपरेखा संगणक पर

गोटिगेरे में प्रवेश करते ही चारों ओर से हथकरघों की लयबद्ध ध्वनी सुनाई देने लगती है। विद्युत्-चलित करघों की स्थाई ध्वनि होती है जबकि हथकरघों का स्वयं का मंद-गति संगीत होता है। मैंने कांचीपुरम, वाराणसी, पोचमपल्ली, पाटन तथा बिश्नुपुर जैसे अनेक स्थानों पर विद्युत्-चलित करघे एवं हथकरघे दोनों देखे थे। किन्तु गोटिगेरे में ही मैंने हस्त-चलित एवं विद्युत्-चलित बुनकर यंत्रों द्वारा बुनी गयी आकृतियों (Jacquard) के मध्य का अंतर समझा था।

सामान्य ज्ञान – जमशेटजी टाटा ने १८९६ में बंगलोर में टाटा रेशम उद्योग की स्थापना की थी।

पंच कार्ड
पंच कार्ड

जैकार्ड (Jacquard) वे आकृतियाँ होती हैं जिन्हें रेशमी वस्त्रों में बुना जाता है, जैसे सुन्दर किनारियाँ, बूटियाँ एवं पल्लू। पारंपरिक रूप से इन आकृतियों के अनुसार गत्ते के पत्रकों पर छिद्र बनाए जाते हैं जिन्हें पंच कार्ड अथवा छिद्र पत्रक कहते हैं। वर्त्तमान के तकनीकी जीवन शैली के चलते अब यह कार्य संगणकों द्वारा किया जाता है। संगणकों पर आकृतियाँ बनाना आसान हो गया है तथा उनमें विभिन्न परिवर्तन करना भी कठिन नहीं होता है। आकृतियों के अनुसार स्वचलित यन्त्र गत्ते के पत्रकों पर छिद्र बनाते हैं। इन पत्रकों का प्रयोग दीर्घ काल तक किया जा सकता है।

इलेक्ट्रोनिक जैकार्ड

इलेक्ट्रोनिक जैकार्ड स्वचालित यंत्रणा को एक उच्च आयाम प्रदान करते हैं। इस यंत्रणा में छिद्रक पत्रकों की आवश्यकता नहीं होती है। जैकार्ड यंत्र उपभोक्ता के आवश्यकतानुसार आकृतियाँ बनाने में सक्षम होता है। यह उन आकृतियों के लिए सर्वोत्तम है जो विशिष्ट होते हैं तथा उन्हें पुनः पुनः नहीं बनाया जाता। इसकी लागत हस्त जैकार्ड की तुलना में किंचित अधिक होती है। किन्तु मेरा विश्वास है कि जैसे जैसे मात्रा में वृद्धि होगी, इसकी लागत भी घटती जायेगी।

बेंगलुरु के गोटिगेरे में हथकरघे बन रेशम बुनाई
बेंगलुरु के गोटिगेरे में हथकरघे बन रेशम बुनाई

यद्यपि अनेक रेशम बुनकरों ने स्वचलित करघों को अपना लिया है तथापि आप अब भी अनेक हथकरघे बुनकरों को करघों के भीतर पैर डालकर रेशम के वस्त्र बुनते देख सकते हैं। बुनाई के समय लम्बाई की दिशा में फैलाये हुए सूत को ताना कहते हैं तथा चौड़ाई लम्बाई की दिशा में बुने जाने वाले सूत को बाना कहते हैं। बाने के सूत को आकृतियों के अनुसार ताने के मध्य से पिरोया जाता है। इस प्रकार इन दोनों के समागम द्वारा वस्त्र की बुनाई की जाती है।

हमारे जीवन में भी इसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों एवं संयोगों के संगम से हमारा जीवन पूर्ण होता है। हमारे जीवन में बुनकर की भूमिका उस सर्वोच्च शक्तिमान तत्व की है जिसे हम अनेक नामों से पुकारते हैं। इसमें आश्चर्य नहीं है कि कबीर जैसे कवियों ने करघे के माध्यम से हमें जीवन का बहुमूल्य पाठ पढ़ाया है।

अवश्य पढ़ें: भारत की रेशमी साड़ियाँ – कला एवं धरोहर का अद्भुत संगम

गोटिगेरे का स्वयं का एक परितंत्र है जिसके माध्यम से उसे रेशमी धागों का कच्चा माल प्राप्त होता है। उन धागों को वे अप्रतिम साड़ियों एवं वस्त्रों में परिवर्तित करते हैं जो दुकानों में पहुंचकर हमें रिझाते हैं। इसमें असंख्य प्रकार के सूत, रंग, तकनीक, यंत्र, अभियांत्रिकी तथा दक्ष कारीगरों के परिश्रम का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

बेंगलुरु रेशम बुनाई का चलचित्र

जीवंत वस्त्रों का विमोर संग्रहालय (Vimor Museum of Living Textiles)

हमारी वस्त्र संबंधी पुरातन धरोहर को संग्रहालयों एवं अनुभवी संरक्षण केन्द्रों में संजो कर रखने की आवश्यकता है। मैंने तब तक केवल अहमदाबाद का कैलिको संग्रहालय एवं दिल्ली का आनंदग्राम वस्त्र संग्रहालय ही देखा था। इन दोनों संग्रहालयों में वस्त्रों की हमारी धरोहर को सर्वोत्तम रीति से प्रदर्शित किया गया है। इसी कारण, बंगलुरु के हृदय स्थल में स्थित जीवंत वस्त्रों के विमोर संग्रहालय को देख मुझे अत्यंत आनंद आया था।

विमोर संग्रहालय बेंगलुरु
विमोर संग्रहालय बेंगलुरु

श्रीमती पवित्र मुद्दैय्या जी अपनी माताजी चिमी नन्जप्पा जी से साथ इस संग्रहालय का प्रबंधन कार्य देख रही हैं जो उनके सुन्दर लाल ईंटों से निर्मित सुन्दर निवास के प्रथम तल पर स्थित है। इस संग्रहालय में उन्होंने सम्पूर्ण भारत के विभिन्न बुनकरों एवं आकृतियों का प्रदर्शन करने का सफल प्रयत्न किया है। उनमें उनके स्वयं के द्वारा रचित एवं निर्मित आकृतियाँ भी हैं।

अपनी आगामी बंगलुरु यात्रा में इस संग्रहालय का अवलोकन करना ना भूलें।

रेशम उत्पादन उद्यमियों की नवीन पीढ़ी

बंगलोर में आयें एवं ऐसी अग्रणी तकनीक का अवलोकन ना करें, यह सही नहीं है। यहाँ रेशामंडी जैसे अनेक नवीन लघु उद्यमी हैं जो रेशम उद्योग के लिए सम्पूर्ण प्रोद्योगिकी मंच का विकास करते हैं। ये मंच रेशम उद्यमियों के लिए उनकी कार्यप्रणालियों को निर्बाध रूप से पूर्ण करने में सहायक अनेक नवीन तकनीकों का अनुसन्धान करते हैं। कुशल प्रचालन तंत्र एवं आंकड़ों के विश्लेषण व अंतर्दृष्टि द्वारा उनकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने में सहायता करते हैं।

गंडभेरुंड - कर्णाटक का राज्य चिन्ह रेशमी बुनाई में
गंडभेरुंड – कर्णाटक का राज्य चिन्ह रेशमी बुनाई में

इन्हें हम कृषी प्रोद्योगिकी संबंधी उद्यमों का आरंभिक चरण कह सकते हैं जो २१वीं सदी के भारत में सिल्क उद्योग के महत्वपूर्ण ताना-बाना हैं।

जयनगर रेशम पथ

बंगलुरु नगर के व्यवसायिक जिला जयनगर में भ्रमण करते हुए मैंने अनेक पारंपरिक दुकानें, विशाल एम्पोरियम तथा अंगदी हेरिटेज जैसे विशिष्ट बहुतलीय स्टोर देखे। अंगदी हेरिटेज में किसी संग्रहालय के समान पुरातन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया है। मैंने यह अनुभव किया कि आज के उपभोक्ताओं का रुझान पारंपरिक दुकानों से दूर होते हुए इन भव्य विशाल बहुतलीय स्टोर्स की ओर अधिक झुक रहा है।

जयनगर ५वां खंड में इतनी बड़ी संख्या में रेशमी वस्त्रों की विशाल दुकानें हैं कि उसे बंगलुरु का रेशम पथ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। बंगलुरु के सिल्क रूट का अंत भी यहीं होता है। सम्पूर्ण मूल्य श्रंखला की परिणति भी यही आकर होती है जब आप एवं हम यहाँ से रेशमी साड़ियों, दुपट्टों अथवा वस्त्रों का क्रय करते हैं। जब आप एवं हम रेशमी साड़ियाँ व वस्त्र धारण कर अपने तीज-त्यौहार मनाते हैं तब उनके उद्देश्य भी पूर्ण होते हैं।

यह संस्करण भारतीय सिल्क मार्क संगठन (Silk Mark Organization of India) के सहकार्य से लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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उडुपी का श्री कृष्ण मठ भक्तों का लोकप्रिय मंदिर https://inditales.com/hindi/udupi-shri-krishna-mutt-karnataka/ https://inditales.com/hindi/udupi-shri-krishna-mutt-karnataka/#respond Wed, 30 Nov 2022 02:30:49 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2878

भारत के पश्चिमी तट पर बसी उडुपी मंदिरों की नगरी है जो भक्तों का बड़े उत्साह से स्वागत करती है। यह एक परशुराम क्षेत्र है जिसके मध्य में श्री कृष्ण मठ स्थित है। साथ ही यहाँ चन्द्रमौलेश्वर मंदिर एवं अनंतेश्वर मंदिर नामक प्राचीन मंदिर भी हैं। उडुपी के श्री कृष्ण मठ का इतिहास श्री कृष्ण […]

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भारत के पश्चिमी तट पर बसी उडुपी मंदिरों की नगरी है जो भक्तों का बड़े उत्साह से स्वागत करती है। यह एक परशुराम क्षेत्र है जिसके मध्य में श्री कृष्ण मठ स्थित है। साथ ही यहाँ चन्द्रमौलेश्वर मंदिर एवं अनंतेश्वर मंदिर नामक प्राचीन मंदिर भी हैं।

उडुपी के श्री कृष्ण मठ का इतिहास

श्री कृष्ण मंदिर की स्थापना के पूर्व से ही उडुपी एक पावन भूमि कहलाती थी। यहाँ स्थित प्राचीन चन्द्रमौलेश्वर मंदिर एवं अनंतेश्वर मंदिर वर्षों से अनेक भक्तगणों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे थे। उडुपी के दक्षिणी ओर, लगभग १२ किलोमीटर की दूरी पर पजाका नामक गाँव है जिसे द्वैत दार्शनिक श्री माधवाचार्य का जन्मस्थान माना जाता है। १२३८ ई. में पजाका में जन्मे माधवाचार्य जी ने ना केवल द्वैत दर्शन की स्थापना की थी, अपितु उन्होंने श्री कृष्ण मंदिर की नींव भी रखी थी।

श्री कृष्ण मठ उडुपी
श्री कृष्ण मठ उडुपी

किवदंतियों के अनुसार श्री कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी ने अपने पति से बालकृष्ण अर्थात् कृष्ण के बाल रूप की प्रतिमा की मांग की थी। श्री कृष्ण ने निर्माण व सृजन के देवता विश्वकर्मा से मूर्ति गढ़ने के लिए कहा। विश्वकर्मा देव ने शालिग्राम शिला द्वारा एक मनमोहक प्रतिमा गढ़ी तथा पूजन हेतु रुक्मिणी को प्रदान की। द्वारका में सैकड़ों भक्तों ने इस प्रतिमा पर चन्दन का लेप लगाकर इसकी आराधना की। प्रतिमा पूर्ण रूप से चन्दन के लेप से आच्छादित हो गयी।

एक भयावह बाढ़ की स्थिति में यह प्रतिमा द्वारका से बहकर दूर चली गयी। जब एक व्यापारी जहाज के मल्लाह ने इसे देखा, वह उसे एक शिला समझ बैठा तथा जहाज को संतुलित करने के लिए उस का प्रयोग कर लिया। जब व्यापारी का जहाज द्वारका से मालाबार जा रहा था तब तुलुब के निकट वह जहाज डूब गया। उसमें गोपीचंदन से ढकी भगवान कृष्ण की वह मूर्ति भी थी। उस समय भगवान ने स्वयं माधवाचार्य जी के स्वप्न में अवतरित होकर उन्हें आज्ञा दी। माधवाचार्य ने मूर्ति को जल से निकाल कर उडुपी में उसकी स्थापना की। इस मूर्ति की स्थापना लगभग ७०० वर्ष पूर्व हुई थी।

श्री कृष्ण मंदिर

इस मंदिर की यह विशेषता है कि इसके आसपास ८ मठ स्थापित हैं जो क्रमशः, चक्रीय क्रम में इस मंदिर का कार्यभार संभालते हैं। पूर्व में यह अवधि दो मास की थी जिसे कालांतर में स्वामी वदिराज ने परिवर्तित कर दो वर्ष कर दिए थे।

श्री कृष्ण मठ उडुपी का आकाशीय दृश्य
श्री कृष्ण मठ उडुपी का आकाशीय दृश्य

कार्यावधि परिवर्तन को पर्याय महोत्सव के रूप में आयोजित किया जाता है जिसमें मंदिर का प्रशासन  एक मठ से दूसरे मठ को स्थानांतरित किया जाता है। संत माधवाचार्य जी द्वारा स्थापित इन आठ मठों के नाम उन गाँवों पर दिए गए हैं जहाँ इनकी स्थापना की गयी है, पालिमारु, अदमरू, कृष्णपुरा, पुत्तिगे, शिरूर, सोढे, कनियूरू, पेजावर। इन मठों के मुख्यालय श्री कृष्ण मंदिर के आसपास ही स्थित हैं।

कनकदास कथा

कृष्ण मठ का मनोहर गोपुरम
कृष्ण मठ का मनोहर गोपुरम

मंदिर में प्रवेश से पूर्व आपकी दृष्टि एक झरोखे पर निर्मित एक अलंकृत गोपुरम पर पड़ेगी। गोपुरम एक विशाल, उत्कीर्णित व अलंकृत अटारी होता है जो दक्षिण भारत के मंदिरों के प्रवेश द्वारों के ऊपर स्थित होता है। यह दक्षिण भारत में बहुप्रचलित द्रविड़ शैली की वास्तुकला का अप्रतिम उदहारण है। श्री कृष्ण मंदिर के इस झरोखे से आप सीधे मंदिर में स्थापित भगवान की प्रतिमा को देख सकते हैं। एक लोककथा के अनुसार कनकदास भगवान कृष्ण का एक परम भक्त था जो भगवान के दर्शन के लिए उडुपी के इस श्री कृष्ण मंदिर में आया था। किन्तु उसे भगवान के दर्शन नहीं प्राप्त हुए। उसने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की। भगवान ने प्रसन्न होकर उसकी ओर मुख कर लिया। आज भी यह प्रथा है कि भक्तगण सर्वप्रथम इस झरोखे से भगवान कृष्ण के दर्शन करते हैं जिसके पश्चात ही वे मंदिर में प्रवेश करते हैं। यह बताना आवश्यक है कि इस कथा को ना ही किसी ग्रन्थ में, ना ही किसी साधक द्वारा प्रमाणित किया गया है।

श्री कृष्ण मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व, समक्ष स्थित चन्द्रमौलिश्वर मंदिर में दर्शन करने की प्रथा प्रचलित है।

हाल ही में मंदिर के अधिकारियों ने मंदिर में प्रवेश हेतु भक्तों के लिए परिधान संहिता निर्दिष्ट की है जिसके अनुसार स्त्रियों को साड़ी अथवा सलवार-कुर्ता तथा पुरुषों को धोती एवं अंगवस्त्र धारण करना अनिवार्य है।

विष्णु की कथाएं कहते गोपुरम का स्थापत्य
विष्णु की कथाएं कहते गोपुरम का स्थापत्य

मंदिर में प्रवेश करते ही हमें एक भिन्न वातावरण की अनुभूति होती है। एक आकस्मिक निस्तब्धता, एक दिव्य प्रभामंडल हमें अभिभूत कर देती है। चारों ओर का विश्व गतिहीन प्रतीत होने लगता है। काले कडप्पा शिलाओं द्वारा निर्मित इसकी शीतल भूमि उडुपी के उष्ण व आर्द्र वातावरण से छुटकारा दिलाती है। श्री कृष्ण मंदिर का गर्भगृह एक लंबे गलियारे के बाईं ओर स्थित है। भगवान की प्रतिमा अत्यंत मनमोहक है। उनके दर्शन करते ही हृदय प्रसन्न हो जाता है। उत्सवों में गर्भगृह के चारों ओर तेल के दीपक प्रज्ज्वलित किये जाते हैं।

मंदिर मंडप

आगे बढ़ते हुए आप मंदिर के मुख्य मंडप में पहुंचेंगे। यह एक विस्तृत मंडप है जो भक्तों के विभिन्न क्रियाकलापों से गुंजायमान रहता है। एक कोने में पर्याय मठ के वर्तमान गुरु भक्तों के लिए विभिन्न अनुष्ठान आयोजित करते हैं तथा भक्तों के विभिन्न समस्याओं के निवारण का मार्ग भी सुझाते हैं। मंडप के भीतर एक हनुमान मंदिर है तथा एक नवग्रह मंदिर भी है। प्रातः ६ बजे से लेकर रात्रि ९ बजे तक भोजन मंडप में भक्तों के लिए अन्नदान आयोजित किया जाता है। यहाँ परोसे जाने वाला भोजन सरल किन्तु स्वादिष्ट होता है जिसे अत्यंत भक्तिभाव से बनाया व परोसा जाता है।

कृष्ण मठ का रथ
कृष्ण मठ का रथ

मंडप के एक छोर पर गौशाला है। किन्तु उसके भीतर जाने की अनुमति हमें नहीं है। केवल उसके अभिरक्षक ही भीतर जा सकते हैं। दैनिक प्रसाद तथा नैवेद्य प्राप्त करने के लिए एक छोटी दुकान भी है।

मंडप से बाहर जाते ही आपको मंदिर के हाथी, सुभद्रा की गजशाला दिखाई देगी। यद्यपि अब सुभद्रा गज को होन्नाली नगरी में रखा गया है, तथापि विशेष अवसरों व उत्सवों में उसे यहाँ लाया जाता है।

श्री कृष्ण मठ मंदिर संकुल

मंदिर के चारों ओर आठ मठ, अनेक अतिथि गृह एवं जलपान गृह हैं।

माधव सरोवर - श्री कृष्ण मठ उडुपी
माधव सरोवर – श्री कृष्ण मठ उडुपी

एक जलपान गृह ऐसा है जहाँ आपको अवश्य जाना चाहिए। वह है, मित्र समाज। मंदिर के आसपास उनके दो जलपान गृह हैं तथा एक जलपान गृह उडुपी नगरी में है। उनकी गर्म गोली भाजी, बन, फिल्टर कॉफी आदि आपकी सुबह को प्रफुल्लित कर देगी।

गीता भवन
गीता भवन

मंदिर के भोजनालय में स्वादिष्ट भोजन करने के पश्चात मंदिर परिसर में ही कुछ समय व्यतीत करें। मंदिर से कुछ मीटर दूर मुझे अचानक एक पुस्तक की दुकान दिखाई दी जिसका नाम था, नंदिता फ्रेग्रेन्स बुकस्टोर। यद्यपि यह दुकान मंदिर परिसर में स्थित है, तथापि यह आसपास के विभिन्न क्रियाकलापों एवं चहल-पहल से कुछ क्षण के लिए हमें पलायन देती है। इस दुकान में संस्कृत की पुस्तकें, अध्यात्म, ज्योतिषशास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि पर पुस्तकें तथा विभिन्न शास्त्रों के अंग्रेजी, हिन्दी व कन्नड़ भाषा में अनुवाद उपलब्ध हैं।

संस्कृत महाविद्यालय

मंदिर के पृष्ठभाग में एक संस्कृत महाविद्यालय है। इस पुस्तक दुकान में वेदों, उपनिषदों, पुराणों आदि के संस्कृत भाषा में ग्रन्थ उपलब्ध हैं। मैंने कवि कालिदास द्वारा रचित कुमारसंभव, अष्टावक्र गीता एवं The Yoga of Kashmir Shaivism नामक पुस्तक का क्रय किया।

इस संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत में स्नातक, स्नातकोत्तर एवं अन्य अल्पावधि पाठ्यक्रम के अध्ययन निशुल्क उपलब्ध कराये जाते हैं। इस महाविद्यालय में विश्व भर से अनेक विद्यार्थी ज्ञान अर्जन के लिए आते हैं। इस महाविद्यालय में सभी प्रकार के संस्कृत ग्रंथों से भरा एक पुस्तकालय है जिसमें कालिदास एवं शुद्रका जैसे महा नाटकों से लेकर दर्शन तक की पुस्तकें उपलब्ध हैं।

समीप ही अनेक दुकानें हैं जहाँ लकड़ी की बिलोनी जैसी अनेक काष्ठी वस्तुएं, चीनी मिट्टी के पात्र, लौह पात्र तथा श्री कृष्ण व अन्य देवी देवताओं की पीतल में निर्मित प्रतिमाएं विक्री के लिए रखी हुई हैं। यदि आप विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में रूचि रखते हैं तो यहाँ से अनेक स्थानीय व्यंजन ले सकते हैं जैसे, चुर्मुरी, फरसान, चकली, मुरुक्कू आदि।

यदि आपके पास कुछ अतिरिक्त समय हो आप समीप के अन्य तीर्थ स्थलों का अवलोकन कर सकते हैं जैसे, कोल्लूर मूकाम्बिका, कतील, श्रृंगेरी, मुरुडेश्वर एवं गोकर्ण

मठ के उत्सव

यदि आप जन्माष्टमी एवं पर्याय महोत्सव जैसे उत्सवों में यहाँ आ पायें तो यह सोने पर सुहागा होगा। आपको यहाँ के भव्य उत्सवों के अवलोकन का आनंद प्राप्त होगा।

जन्माष्टमी उत्सव

उत्सव के अवसर पर मंदिर की सजावट
उत्सव के अवसर पर मंदिर की सजावट

श्री कृष्ण मंदिर में जन्माष्टमी का उत्सव विट्टल पिंडी के नाम से जाना जाता है। यह उत्सव बड़ी भव्यता एवं उत्साह से मनाया जाता है। सम्पूर्ण मंदिर को विस्तृत रूप से विभिन्न पुष्पों द्वारा अलंकृत किया जाता है। तेल के अनेक दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। भक्त गण दूर-सुदूर स्थलों से आकर यहाँ एकत्र होते हैं तथा श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का उत्सव मनाते हैं। भगवान को एक स्वर्ण रथ पर विराजमान किया जाता है तथा सम्पूर्ण मंदिर परिसर में उनका भ्रमण कराया जाता है।

इस उत्सव की विशेषता यह है, हुली वेष अर्थात बाघ आवरण के परिधान धारण कर नर्तकों के विभिन्न समूह पारंपरिक नृत्य प्रदर्शित करते हैं।

पर्याय महोत्सव

पर्याय महोत्सव का आयोजन तब किया जाता है जब मंदिर का प्रशासन एक मठ से दूसरे मठ के हाथों में सौंपा जाता है। प्रत्येक मठ के हाथों में दो वर्षों के लिए मंदिर के प्रशासन का कार्यभार रहता है।

श्री कनियुरु मठ - उडुपी
श्री कनियुरु मठ – उडुपी

ग्रंथों के अनुसार, यह उत्सव प्रत्येक दो वर्षों में मकर संक्रांति के पश्चात, चौथे दिवस आयोजित किया जाता है। यह दिवस १८ जनवरी के दिन आता है। इस उत्सव में उडुपी के आसपास के सभी घरों को दीयों एवं साज-सज्जा से अलंकृत किया जाता है। उडुपी नगरी के विभिन्न चौकों एवं सार्वजनिक स्थलों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। अन्न संतर्पण आयोजित किये जाते हैं जिनमें बड़े स्तर पर अन्न वितरण किया जाता है। इस वर्ष कृष्णपुर मठ के दैवज्ञ स्वामी विद्यासागर तीर्थ ने अदमरू मठ के दैवज्ञ संत ईशप्रिय तीर्थ स्वामीजी से मंदिर का कार्यभार स्वीकार किया है।

श्री कृष्ण मंदिर दर्शन एवं उडुपी भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल

उडुपी भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल सितम्बर से फरवरी का होता है। यही काल मंदिर अवलोकन के लिए भी सर्वोत्तम है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ की उष्णता एवं आर्द्रता कष्टकर हो सकती है। जून से सितम्बर के मध्य यहाँ भारी वर्षा का अनुमान सदा रहता है। भारी वर्षा की स्थिति में यात्रा में कुछ कष्ट हो सकता है, जैसे सड़कों की परिस्थिति, वर्षा के कारण बाहर ना निकल पाना, स्वास्थ्य आदि। किन्तु जिन्हें वर्षा ऋतु प्रिय है तथा जिन्हें वर्षा ऋतु मार्ग का रोड़ा प्रतीत नहीं होती, उन्हें वर्षा ऋतु में भी उडुपी में आनंद आएगा क्योंकि मानसून में इस क्षेत्र का प्राकृतिक सौंदर्य एवं हरियाली अपनी चरम सीमा पर होती है।

परिवहन एवं आवास

उडुपी पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल मंगलुरु है। यह उडुपी से लगभग ५५ किलोमीटर दूर स्थित है। आप मंगलरू से टैक्सी अथवा बस द्वारा उडुपी पहुँच सकते हैं। यदि आपको रेल यात्रा भाती है तो आप रेल द्वारा भी यहाँ पहुँच सकते हैं। उडुपी रेल मार्ग द्वारा देश के सभी भागों से जुड़ा हुआ है। यदि आप बंगलुरु से आ रहे हैं तो आप कारवार एक्सप्रेस अथवा विस्ताडोम द्वारा यात्रा कर सकते हैं। बंगलुरु से उडुपी तक, लगभग ८ घंटों की यात्रा में आपको पश्चिमी घाटों के अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाने का अवसर प्राप्त होगा। बंगलुरु, मुंबई, पुणे, मंगलुरु जैसे देश के सभी प्रमुख नगरों या शहरों से उडुपी के लिए बस सेवायें भी उपलब्ध हैं।

उडुपी अनेक वर्षों से एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल रहा है। इसीलिए यहाँ लघुकालीन आवासों, विश्राम गृहों, होटलों तथा रिसोर्ट की कोई कमी नहीं है। आपके सामर्थ्य के भीतर आपको लघुकालीन आवासों, विश्राम गृहों, होटलों तथा रिसोर्ट के अनेक पर्याय उपलब्ध हो जायेंगे। आपको सभी स्थानों पर स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन भी आसानी से प्राप्त हो जाएगा।

यह संस्करण IndiTales Internship Program के अंतर्गत अक्षया विजय ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर एवं कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान https://inditales.com/hindi/annapurneshwari-mandir-kundremukh-rashtriya-udyaan-karnataka/ https://inditales.com/hindi/annapurneshwari-mandir-kundremukh-rashtriya-udyaan-karnataka/#comments Wed, 05 Oct 2022 02:30:40 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2823

होरनाडु, प्रकृति की गोद में स्थित एक मनमोहक व अत्यंत दर्शनीय गाँव है। यह कर्णाटक के चिकमगलुरु जिले के अंतर्गत, मुदिगेरे तालुका के अप्रतिम परिदृश्यों से युक्त पश्चिमी घाट में स्थित है। यह स्थान अपने चित्ताकर्षक निसर्ग व अनेकों आकर्षक मंदिरों के लिए जाना जाता है जिनमें अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर प्रमुख है। होरनाडु का अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर […]

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होरनाडु, प्रकृति की गोद में स्थित एक मनमोहक व अत्यंत दर्शनीय गाँव है। यह कर्णाटक के चिकमगलुरु जिले के अंतर्गत, मुदिगेरे तालुका के अप्रतिम परिदृश्यों से युक्त पश्चिमी घाट में स्थित है। यह स्थान अपने चित्ताकर्षक निसर्ग व अनेकों आकर्षक मंदिरों के लिए जाना जाता है जिनमें अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर प्रमुख है।

होरनाडु का अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर

होरनाडू का श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर
होरनाडू का श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर

होरनाडु स्थित अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर को आद्यशक्तिनाथमका श्री अन्नपूर्णेश्वरी अम्मनवरा मंदिर भी कहते हैं। भद्रा नदी के तट पर स्थित यह मंदिर चहुँ ओर से हरियाली भरे वनों, कॉफ़ी व चाय के बागीचों एवं पश्चिमी घाटों से घिरा हुआ है। लगभग ४०० वर्षों पूर्व धर्मकार्थरु पुरोहितों के परिवारजनों ने यहाँ पूजा-अर्चना एवं अन्य अनुष्ठानों का आयोजन आरम्भ किया था। उस काल से धर्मकार्थरु परिवार के सदस्यगण ही मंदिर की सेवाकार्य में रत हैं।

अन्नपूर्णेश्वरी की कथा

किवदंतियों के अनुसार, एक समय भगवान शिव एवं देवी पार्वती चौपड़ खेल रहे थे। क्रीड़ा के समय उन दोनों  के मध्य किसी विषय पर विवाद उत्पन्न हो गया। उस विवाद के मध्य शिव ने कहा कि इस संसार में सब माया है। यहाँ तक कि भोजन भी एक माया है। पार्वतीजी शिव के विचारों से असहमत थीं। अपना मत सिद्ध करने के लिए वे अदृश्य हो गयीं। इसके फलस्वरूप, चारों ओर अकाल पड़ गया। असुरों समेत सभी को भोजन के लाले पड़ गए। सभी भोजन प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करने लगे।

श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर
श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर

जब भगवान शिव ने सबकी व्यथा देखी, उन्हें अपनी भूल का आभास हुआ। उन्होंने स्वीकार किया कि भोजन माया नहीं है, अपितु वह सभी जीवों की मूलभूत आवश्यकता है। तत्पश्चात देवी पार्वती काशी में अवतरित हुईं तथा उन्होंने सभी को भोजन वितरित किया। ऐसी मान्यता है कि स्वयं भगवान शिव भी एक याचक का रूप धर कर देवी पार्वती के सम्मुख प्रकट हुए तथा देवी ने उन्हें अपनी कडछी से भोजन परोसा। इसीलिए देवी पार्वती को देवी अन्नपूर्णेश्वरी भी कहा जाता है जिसका अर्थ है भोजन प्रदान करने वाली देवी।

उसी दिन से देवी अन्नपूर्णा काशी की अधिष्ठात्री देवी हैं। देवी पार्वती के अन्नपूर्णा स्वरूप में उनके एक हाथ में पात्र एवं दूसरे हाथ में कडछी होती है। आदि शंकराचार्य ने उनकी स्तुति में एक अप्रतिम अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की है जिसका उच्चारण भोजन ग्रहण करने से पूर्व किया जाना चाहिए।

एक अन्य दंतकथा के अनुसार, किसी काल में भगवान शिव ने ब्रह्मा का शीर्ष विच्छेदन किया था। उसका शीश भगवान शिव के हाथ में चिपक गया। उन्हें श्राप मिला कि जब तक वह मुंड भोजन अथवा धान्य से भर नहीं जाता, वह शिव के हाथ से ऐसे ही चिपका रहेगा। भगवान शिव ने उसे धान्य से भरने का अथक प्रयास किया किन्तु वह मुंडपात्र रिक्त ही रहता था। शिव उस मुंड को भरने के लिए अनेक स्थानों पर गए एवं भोजन की मांग की किन्तु मुंड भरा नहीं। अंततः वे इस मंदिर में आये जहां माँ अन्नपूर्णेश्वरी ने वह मुंड धान्य से भर दिया। उन्होंने भगवान शिव को श्राप से भी मुक्त किया।

इतिहास

ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सदियों पूर्व महर्षी अगस्त्य ने किया था। वर्तमान में जो मंदिर हम देखते हैं, उसकी पुनःस्थापना पांचवें धर्मकार्थरु ने वस्तु शिल्प एवं ज्तोतिश शास्त्र के अनुसार सन्१९७३ में की थी। अक्षय तृतीया की पवन तिथि में इसकी पुनर्स्थापना हुई थी। श्रृंगेरी शारदापीठम के श्री जगद्गुरु शंकराचार्य ने यहाँ महाकुम्भाभिषेक संपन्न किया था।

स्थापत्य

मंदिर का गोपुरम अत्यंत भव्य एवं समृद्धता से सज्जित है जिस पर विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम मंदिर के भीतर पहुंचते हैं। मंदिर की तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू हैं जिन्हें हम सामान्यतः मलनाड क्षेत्र में देखते हैं। प्रसादम का मंडपम मंदिर के प्रवेश द्वार के बाईं ओर है। इसके समीप, मंदिर के भीतर जाने वाले भक्तजनों की भीड़ को पंक्ति में संयमित करने के लिए बाड़ लगाई हुई है।

मंदिर की आन्तरिक छत को विभिन्न प्रकार के उत्कीर्णन द्वारा सुन्दरता से अलंकृत किया गया है। सिंहों की दो विशाल प्रतिमाएं प्रवेश द्वार की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। गर्भगृह के तीन ओर स्तम्भ युक्त गलियारे हैं। गर्भगृह के भीतर देवी अन्नपूर्णेश्वरी की चतुर्भुज प्रतिमा एक पीठिका पर आसीन है। यह प्रतिमा स्वर्ण में निर्मित है तथा इसे आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रों द्वारा अलंकृत किया है। देवी ने अपने ऊपरी दो हाथों में शंख व चक्र धारण किया है, वहीं उनके निचले दो हाथ वर मुद्रा एवं अभय मुद्रा में हैं। निचले हाथों पर श्री चक्र एवं देवी गायत्री के चिन्ह हैं। विग्रह के दोनों ओर दीप प्रज्वलित किये जाते हैं। प्रदक्षिणा के पश्चात, गर्भगृह के दाहिनी ओर निकास द्वार है। निकास के समय भक्तगण खिड़की से प्रसादम प्राप्त कर सकते हैं।

अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर के पूजा एवं उत्सव

 मंदिर प्रातः ६:३० बजे से रात्रि ९ बजे तक खुला रहता है।

महामंगल आरती प्रातः ९ बजे, सायं ६ बजे तथा रात्रि ९ बजे की जाती है।

नन्हे शिशुओं के नामकरण उत्सव एवं उनके अक्षराभाष्यं अनुष्ठान भी इस मंदिर में आयोजित किये जाते हैं। मंदिर में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों की सुविधाएं उपलब्ध हैं। टिकट खिड़की के समीप इन अनुष्ठानों एवं इन सेवाओं के शुल्क की सूची है जिससे आप अपने नियोजन के अनुसार सेवाओं का चुनाव कर सकते हैं।

अक्षय तृतीया एक महत्वपूर्ण उत्सव है जिसे देवी अन्नपूर्णेश्वरी का जन्मदिवस माना जाता है। फरवरी-मार्च मास में चार से पाँच दिवसों के लिए रथोत्सव मनाया जाता है। नौ दिवसों का नवरात्रि भी एक महत्वपूर्ण उत्सव है।

यात्रा सुझाव:

  • यह मंदिर बंगलुरु से लगभग ३०० किलोमीटर एवं मंगलुरु से लगभग १३० किलोमीटर दूर स्थित है।
  • परिधान संबंधी नियमों का कड़ाई और आदर से पालन किया जाता है। मंदिर परिसर के भीतर आप अंगों को ढँक लें, ऐसी अपेक्षा की जाती है।
  • मंदिर संस्थान द्वारा भक्तगणों को दिवस भर में तीन भोजन उपलब्ध कराया जाता है। इसके अतिरिक्त, अनेक जलपानगृह भी हैं जहां शाकाहारी भोजन उपलब्ध हैं।
  • होरनाडु एवं उसके आसपास अनेक होमस्टे हैं। मंदिर में भी ठहरने की व्यवस्था है।

होरनाडु एवं आसपास के अन्य पर्यटन आकर्षण

श्री आंजनेय स्वामी मंदिर

अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर के वाहन स्थल के समीप श्री हनुमान जी को समर्पित यह मंदिर स्थित है।

क्यातनमक्की पहाड़ी से परिदृश्य

यह स्थान होरनाडु से लगभग ८-१० किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ से पश्चिमी घाट का ३६० डिग्री दृश्य प्राप्त होता है। प्रकृति प्रेमियों एवं छायाचित्रकारों के लिए यह एक सर्वोत्तम स्थान है। पहाड़ी के ऊपर चारों ओर घनी दूब है जिसके मध्य से अनेक स्थानों पर पौधे झाँकते दृष्टिगोचर होते हैं।

क्यातनमक्की पहाड़ी से परिदृश्य
क्यातनमक्की पहाड़ी से परिदृश्य

घाटी में एक छोटा जलप्रपात है जिसे आप इस पहाड़ी के शीर्ष से देख सकते हैं। यहाँ तक पहुँचने के लिए होरनाडु से जीपों की सुविधाएं उपलब्ध हो जाती हैं। किन्तु वहां तक पहुँचने का मार्ग अत्यंत जर्जर एवं जोखिम भरा है। अतः मेरा सुझाव है कि आप होरनाडु से जीपों की सुविधाएं अवश्य लें। शक्तिशाली दुपहिये वाहनों द्वारा भी चालक पहाड़ी के शीर्ष तक रोमांचक यात्रा करते हैं किन्तु इसके लिए अति दक्षता एवं सुरक्षा आवश्यक है। यहाँ आने का सर्वोत्तम समय वर्षा ऋतु से दिसंबर मास तक माना जाता है क्योंकि उस समय यह पहाड़ी घनी हरियाली से आच्छादित रहती है।

कलसा का कलशेश्वर मंदिर

कलसा का कल्सेश्वर मंदिर
कलसा का कल्सेश्वर मंदिर

कलशेश्वर मंदिर अथवा श्री कलसेश्वरा स्वामी मंदिर चिकमंगलुरु जिले के कलसा नगर में स्थित है। यह होरनाडु से लगभग ८ किलोमीटर दूर स्थित एक शिव मंदिर है। भद्रा नदी के तट के समीप स्थित इस मंदिर का निर्माण महर्षी अगस्त्य द्वारा किया गया है, ऐसी मान्यता है। ऐसी भी मान्यता है कि मंदिर के भीतर स्थित शिवलिंग एक स्वयंभू लिंग है।

कलशेश्वर की लोककथा

एक लोककथा के अनुसार हिमालय में शिव एवं पार्वती के विवाह के समय धरती का संतुलन बाधित हो गया था। विवाह समारोह में उपस्थित देवी-देवताओं के भार के कारण उत्तरी टेक्टोनिक प्लेट तिरछा हो गया था। तब भगवान शिव ने महर्षी अगस्त्य को आज्ञा दी कि वे दक्षिण की ओर यात्रा करें ताकि धरती का संतुलन पुनः स्थापित हो सके। शिव की आज्ञा का पालन करते हुए महर्षी अगस्त्य ने दक्षिण की ओर यात्रा आरम्भ की। जब वे कलसा पहुंचे, धरती का संतुलन पुनः स्थापित हो गया। तब भगवान शिव ने उन्हें वहीं रुक जाने की आज्ञा दी। साथ ही उन्हें वरदान भी दिया कि वे उन के पवित्र विवाह समारोह का प्रत्यक्ष दर्शन वहां से भी कर सकेंगे। महर्षी अगस्त्य की भगवान शिव में इतनी भक्ति व आस्था थी कि उनके जल कलश से एक शिवलिंग प्रकट हुआ जो यहाँ स्थापित है। इसी कारण इस मंदिर का नाम कलशेश्वर मंदिर पड़ा।

स्थापत्य

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम इस मंदिर तक पहुंचते हैं। बायीं ओर एक मंडप है जहां उत्सवों के समय विभिन्न आयोजन किये जाते हैं। प्रवेशद्वार के समीप गणेशजी की दो मूर्तियाँ हैं। उन्हें आन गणपति कहा जाता है। उनमें से एक पुरुष रूप तथा दूसरा स्त्री रूप माना जाता है। कुछ और सीढ़ियाँ चढ़ने के पश्चात आप एक प्रांगण में पहुंचेंगे जहां गंगा की आराधना करते भागीरथ की प्रतिमा स्थापित है। सम्पूर्ण संरचना दो तलों की है जिसकी तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू रखे हैं। तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू इस क्षेत्र की इमारतों में सामान्य है।

दाईं ओर एक द्वार है जिसके भीतर से आप एक मुक्तांगण में पहुंचेंगे। यहाँ मुख्य मंदिर स्थित है। मुख्य मंदिर एक एककूट मंदिर है। मुख्य गर्भगृह एक अन्य लघु प्रांगण में स्थित है। चाँदी के मंच पर शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंग पर भी चाँदी का मुखौटा चढ़ा हुआ है। मुक्तांगण में आप प्रदक्षिणा कर सकते हैं। प्रांगण के दो कोनों में विश्वेश्वर मंदिर एवं सुब्रमन्य मंदिर है।

मंदिर के बाहर देवी पार्वती का मंदिर है। देवी पार्वती को सर्वांगसुन्दरी कहा जाता है। देवी की प्रतिमा काले पत्थर में बनी है। पुष्पों, आभूषणों एवं वस्त्रों से देवी का अत्यंत मनमोहक अलंकरण किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों पर अनेक शिल्प उत्कीर्णित हैं। देवी के मंदिर के समीप क्षेत्रपाल को समर्पित एक लघु मंदिर है। समीप ही कुछ कार्यालय एवं अनेक छोटी दुकानें हैं जहां पूजा सामग्री बिक्री की जाती है।

पूजा एवं उत्सव

मंदिर प्रातः ७:३० बजे से दोपहर १ बजे तक, तदनंतर दोपहर ३:३० बजे से रात्रि ८:३० बजे तक खुला रहता है। महत्वपूर्ण उत्सवों के समय यह मंदिर पूर्ण दिवस व पूर्ण रात्रि खुला रहता है। मंदिर में विभिन्न सेवायें अर्पित की जाती हैं जिसका लाभ भक्तगण ले सकते हैं। इस मंदिर में आयोजित कुछ महत्वपूर्ण उत्सव हैं:

  • गिरिजा कल्याण – कार्तिक मास में भगवान शिव व देवी पार्वती के विवाह का समारोह आयोजित किया जाता है।
  • फरवरी-मार्च में शिवरात्रि मनाई जाती है।
  • माघ मास में रथोत्सव आयोजित किया जाता है।
  • नवरात्रि
  • गोकुलाष्टमी
  • लक्ष दीपोत्सव

अन्य आकर्षण

पंच तीर्थ

कलसा को पंच तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। पंच तीर्थ अर्थात् पाँच पवित्र जल स्त्रोतों का स्थल। वे हैं, वसिष्ठ तीर्थ, नागा तीर्थ, कोटि तीर्थ, रूद्र तीर्थ एवं अम्बा तीर्थ।

वेंकटरमण मंदिर

यह भी एक सुन्दर मंदिर है जो श्री विष्णु को समर्पित है। इसकी संरचना भी अन्य मंदिरों के समान है जिसमें तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू हैं। मुख्य मंदिर एक प्रांगण में है तथा इसके चारों ओर गलियारे हैं। यह मंदिर होरनाडु जाने के मार्ग पर स्थित है। इसके अतिरिक्त भी यहाँ अनेक मंदिर एवं जैन बसदियाँ हैं।

अन्य पर्यटन स्थल

समसे

समसे जैन बसदी
समसे जैन बसदी

कलसा से लगभग १० किलोमीटर दूर स्थित यह एक छोटा गाँव है। यह कुद्रेमुख पर्वत शिखर के पर्वतारोहणपथ का प्रमुख केंद्र है। ठहरने के लिए यहाँ अनेक होमस्टे हैं। यह स्थल अत्यंत दर्शनीय है जहां आप पैदल सैर करते हुए प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले सकते हैं। गूमंखन चाय के बागीचे में कुछ जैन बसदियाँ एवं एक सुन्दर गणपति मंदिर है।

कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान

कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान एक यूनेस्को विश्व विरासत स्थल है। यह प्राकृतिक सौंदर्य, जीवों व वनस्पतियों से भरे ऊंचे पर्वत शिखर, हरी-भरी दूब से आच्छादित मनमोहक रोहणपथ इत्यादि से अलंकृत है। कुद्रेमुख का शब्दशः अर्थ है अश्व का मुख। इस राष्ट्रीय उद्यान के सर्वोच्च पर्वत शिखर को एक दिशा ने निहारने पर यह अश्व मुख सदृश प्रतीत होता है। इस शिखर की ऊंचाई १८९४ मीटर है जो कर्नाटक का दूसरा सर्वोच्च शिखर है।

कुद्रेमुख राष्रीय उद्यान
कुद्रेमुख राष्रीय उद्यान

श्रृंगेरी, करकला एवं मंगलुरु जाने का मार्ग इसी राष्ट्रीय उद्यान के मध्य से जाता है। यह मार्ग अत्यंत दर्शनीय है। मार्ग में आप अनेक झरने एवं हरियाली भरे मैदानी क्षेत्र देखेंगे। आप कुद्रेमुख की भूतिया नगरी भी देख सकते हैं। यदि आप पर्वतारोहण में रूचि रखते हैं तो राष्ट्रीय उद्यान में पर्वतारोहण करने के लिए आपको कुद्रेमुख के राष्ट्रीय उद्यान वन-विभाग से अनुमति-पत्र प्राप्त करना होगा।

करकला

करकला उडुपी जिले का एक तालुका मुख्यालय है। यह पश्चिमी घाट की तलहटी पर स्थित है। होरनाडु से लगभग ८० किलोमीटर दूर स्थित करकला बाहुबली अर्थात् गोमतेश्वर की विशाल अखंड प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है जो श्रवणबेलगोला में स्थित उनकी प्रतिमा के पश्चात दूसरी विशालतम प्रतिमा है। सन् १४३२ में स्थापित इस प्रतिमा की उंचाई ४२ फीट है। प्रत्येक १२ वर्षों के पश्चात इस प्रतिमा का महाकुम्भाभिषेक किया जाता है। पिछला अभिषेक सन् २०१५ में किया गया था। यह प्रतिमा एक पहाड़ी पर स्थित है। वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें लगभग ५०० शैल सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं।

और पढ़ें: कर्नाटक के बाहुबली

इनके अतिरिक्त, अनेक जैन बसदियाँ हैं जिनके आप दर्शन कर सकते हैं। उनमें प्रमुख हैं, चतुर्मुख बसदी एवं आदिनाथ बसदी। चतुर्मुख बसदी भी एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। शीर्ष तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। एक विशाल प्रांगण के मध्य स्थित इस बसदी में ग्रेनाईट के १०८ स्तम्भ हैं। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए चार दिशाओं में चार प्रवेशद्वार हैं। इसके गर्भगृह में तीन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं हैं।

आदिनाथ बसदी अनेकेरे सरोवर के मध्य स्थित है। इस बसदी को मुख्य मार्ग से जोड़ने के लिए एक जोड़ मार्ग है। बसदी के समीप एक छोटा बगीचा भी है। अनेकेरे सरोवर का निर्माण राजा पंड्यादेवा ने सन् १२६२ में करवाया था। नगर को जल की आपूर्ति कराना इस सरोवर का उद्देश्य था। इनके अतिरिक्त अन्य प्रमुख स्थल हैं, अत्तुर गिरिजाघर, रामसमुद्र सरोवर, वेंकटरमण मंदिर, अनंतशयन मंदिर तथा वेंनुर।

वरंगा जैन बसदी

करकला के निकट स्थित यह छोटा सा गाँव जैन बसदियों के लिए प्रसिद्ध है। प्रमुख बसदियाँ हैं, केरे बसदी एवं नेमिनाथ बसदी। केरे बसदी एक सरोवर के मध्य स्थित है। यह तीन ओर धान के हरे-भरे खेतों एवं नारियल के वृक्षों से घिरा हुआ है, वहीं इसकी चौथी ओर एक पहाड़ी है। इसे पार्श्वनाथ बसदी भी कहा जाता है क्योंकि यह पार्श्वनाथ को समर्पित है। इस बसदी की चार स्तरीय सममित संरचना है। यह बसदी ८५० वर्ष प्राचीन है। बसदी के भीतर देवी पद्मावती की प्रतिमा भी स्थापित है। सरोवर के मध्य स्थित केरे बसदी तक नौका द्वारा पहुंचा जा सकता है। बसदी प्रशासन नाममात्र शुल्क पर नौका सेवायें उपलब्ध करता है।

वारंगा जैन बसदी
वारंगा जैन बसदी

नेमिनाथ की बसदी १२०० वर्ष प्राचीन बसदी है। इसे हीरे बसदी भी कहा जाता है। इसके दो प्रवेशद्वार हैं। ग्रेनाईट में निर्मित मुख्य मंदिर एक प्रांगण के मध्य स्थित है। प्रवेशद्वार के समीप एक विशाल दीपस्तंभ है। इस बसदी में अनेक धार्मिक अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं।

मूदबिदरी

करकला से १८ किलोमीटर दूर स्थित मूदबिदरी को जैन काशी भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में जैन बसदियाँ हैं। उनमें से प्रमुख हैं, सहस्त्र स्तम्भ मंदिर, गुरु बसदी तथा अम्मनवरा बसदी।

श्रृंगेरी

करकला से ६० किलोमीटर दूर स्थित श्रृंगेरी श्री आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा पीठ के लिए प्रसिद्ध है।

धर्मस्थल

करकला से लगभग ६० किलोमीटर दूर स्थित धर्मस्थल एक प्राचीन शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ भगवान शिव “श्री मंजुनाथ” के रूप में विराजमान हैं। नवम्बर-दिसंबर मास में आयोजित लक्षदीप इस मंदिर का एक महत्वपूर्ण उत्सव है।

यात्रियों के लिए महत्वपूर्ण सूचनाएं:

  • सभी धार्मिक स्थलों पर परिधान सम्बन्धी नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता है। अतः उनका पालन करें।
  • कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान के भीतर कुछ निर्दिष्ट स्थानों के अतिरिक्त कहीं भी वाहन खड़ी करने की अनुमति नहीं है। उद्यान के भीतर कूड़ा डालना दंडनीय कृत्य है।

यह संस्करण अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है।


श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के सम्पन्न विरासतों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से अत्यंत लगाव है। उन्हे पाककला में भी विशेष रुचि है। उनकी तीव्र इच्छा है कि वे विरासत के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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होयसल मंदिर – देखिये कर्नाटक के ११ प्राचीन उत्कृष्ट मंदिर https://inditales.com/hindi/karnataka-prachin-hoysala-mandir/ https://inditales.com/hindi/karnataka-prachin-hoysala-mandir/#comments Wed, 27 Apr 2022 02:30:03 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2661

आधुनिक कर्नाटक में ११वी. से १३ वीं. सदी के मध्य होयसल राजवंश का साम्राज्य था। कला, साहित्य एवं धर्म के क्षेत्र में होयसल वंश की सदैव रुचि रही तथा उन्होंने सदा इनका संरक्षण किया। होयसल राज आज भी अप्रतिम मंदिर वास्तु के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। बेलूर, हैलेबिडु तथा सोमनाथपुरा ऐसे महत्वपूर्ण स्थान हैं जहां […]

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आधुनिक कर्नाटक में ११वी. से १३ वीं. सदी के मध्य होयसल राजवंश का साम्राज्य था। कला, साहित्य एवं धर्म के क्षेत्र में होयसल वंश की सदैव रुचि रही तथा उन्होंने सदा इनका संरक्षण किया। होयसल राज आज भी अप्रतिम मंदिर वास्तु के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। बेलूर, हैलेबिडु तथा सोमनाथपुरा ऐसे महत्वपूर्ण स्थान हैं जहां अनुकरणीय उत्कृष्टता से युक्त होयसल मंदिर निर्मित किए गए थे।

बेलूर के चेन्नाकेशव मंदिर के दर्शन करने के पश्चात मैं इतनी प्रसन्न हुई कि मैंने होयसल राज में निर्मित अन्य सभी महत्वपूर्ण मंदिरों के दर्शन करने की ठान ली। कर्नाटक में लगभग ९२ होयसल मंदिर हैं। इनमें से अधिकतर हासन, मैसूर तथा मंड्या जिले में स्थित हैं। हमने हासन को अपना केंद्र बिन्दु नियुक्त किया तथा इन मंदिरों के दर्शन के लिए आगे कूच किया।

होयसल मंदिर – बेंगलुरू से एक दिवसीय दर्शन

प्रमुख होयसल मंदिर जो अविस्मरणीय होते हुए भी अधिक प्रसिद्ध नहीं है:

  • नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
  • नग्गेहल्ली का सदाशिव मंदिर
  • अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर
  • बेलवाडी का वीर नारायण मंदिर
  • किक्केरी का ब्रह्मेश्वर मंदिर
  • गोविंदनहल्ली का पंचलिंगेश्वर मंदिर
  • डोड्डगड्डवल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर
  • जवगल का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
  • शांतिग्राम का भोग नरसिंह मंदिर
  • अनेकेरे का चेन्नाकेशव मंदिर
  • होसहोललु का लक्ष्मीनारायण मंदिर

आइये इन अप्रतिम मंदिरों के दर्शन करते हैं।

नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर

कर्नाटक के हासन जिले में चन्नारायपटना तालुका में एक छोटा सा गाँव है, नग्गेहल्ली। यहाँ दो महत्वपूर्ण होयसल मंदिर हैं।

नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर
नग्गेहल्ली का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर

लक्ष्मी नरसिंह मंदिर का निर्माण बोम्मन्ना दंडनायक ने करवाया था जो १२४६ ई. में होयसल सम्राट वीर सोमेश्वर के सेनाध्यक्ष थे। यह एक त्रिकुटा मंदिर है जिसके तीन शिखर हैं। यह एक ऊंचे समतल धरती अर्थात जगती पर स्थित है जो होयसल वास्तुकला की विशेषता है। इस मंदिर में तीन गर्भगृह हैं। पश्चिमी गर्भगृह में चेन्नाकेशव, दक्षिणी गर्भगृह में वेणुमाधव तथा उत्तरी गर्भगृह में लक्ष्मी नरसिहं की प्रतिमाएँ हैं। तीनों गर्भगृह के द्वार एक ही नवरंग मंडप में खुलते हैं। एक ओर जहां चेन्नाकेशव मंदिर में एक सुकनासी है, वहीं अन्य दो सीधे नवरंग मंडम में खुलते हैं। सुकनासी एक प्रकार का बाहरी अलंकरण है जो गर्भगृह के समक्ष स्थित होता है। नवरंग मंडप के मध्य में एक उठा हुआ गोलाकार मंच है जो चार स्तंभों पर टिका हुआ है।

द्रौपदी स्वयंवर का दृश्य - लक्ष्मी नरसिंह होयसल मंदिर
द्रौपदी स्वयंवर का दृश्य

मंदिर के सभी नौ छतें सुंदरता से उत्कीर्णित हैं। नवरंग मंडप मुख मंडप से जुड़ा हुआ है जिसके भीतर अनेक स्तंभ हैं। इसके भीतर दुर्गा तथा सरस्वती की प्रतिमाएं हैं तथा बाईं ओर हरिहर की मूर्ति है।

कदम्ब वृक्ष के नीचे बंसीधर कृष्ण
कदम्ब वृक्ष के नीचे बंसीधर कृष्ण

एक महाद्वार से हम मंदिर में प्रवेश करते हैं। मुख मंडप तथा महाद्वार अपेक्षाकृत नवीन संरचनाएं हैं जिन्हे कालांतर में विजयनगर सम्राटों द्वारा निर्मित गया था। मंदिर की बाहरी भित्तियों को देवी-देवताओं, रामायण व महाभारत की कथाओं तथा भागवत की कथाओं पर आधारित शिल्प द्वारा अलंकृत किया गया है। कई भित्ति-खंडों पर ११ वी. तथा १२ वीं. सदी में प्रचलित सामाजिक ताने-बाने को दर्शाती भी कई छवियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर की निर्मिती यहीं उपलब्ध शैलखटी द्वारा की गई है।

इस मंदिर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव रथोत्सव है जो अप्रैल मास में आयोजित किया जाता है।

नग्गेहल्ली का सदाशिव मंदिर

सदाशिव मंदिर होयसल साम्राज्य का एक अन्य, अत्यंत विशिष्ट वास्तुकला का नमूना है। एक महाद्वार, जिसके दोनों ओर दो द्वारपाल हैं, उसके नीचे से होते हुए हम एक स्तंभों से भरे कक्ष में पहुंचते हैं। ऊंचे जगती तक कुछ सीढ़ियाँ जाती हैं जिसके दोनों ओर दो अत्यंत सुंदर गज के शिल्प हैं। यह एक एककुटा मंदिर है जिसमें एक ही शिखर अर्थात विमान है। गर्भगृह के भीतर एक बड़ा शिवलिंग है। गर्भगृह एक बार फिर सुकनासी तथा नवरंग मंडप से जुड़ा हुआ है। नवरंग मंडप के मध्य में उठा हुआ गोलाकार मंच है जिसे दर्शन मंडप कहा जाता है। नंदी मंडप एक बंद कक्ष है जिसके भीतर आदिशेष की एक मनमोहक प्रतिमा है।

सधाशिव मंदिर - नग्गेहल्ली
सधाशिव मंदिर – नग्गेहल्ली

मंडप में महिषासुरमर्दिनी, गणेश, सुब्रमण्य तथा सूर्यनारायण के विग्रह हैं। द्वार के तोरण पर नंदी पर विराजमान शिव-पार्वती हैं। सभी लेथ स्तंभ गोलाकार हैं जो होयसल शैली में चक्रयन्त्र अर्थात खराद यंत्र द्वारा निर्मित हैं। मुख्य कक्ष में खड़ी हुई पार्वती की एक आदमकद प्रतिमा है। महाद्वार तथा बाहरी कक्ष कालांतर में विजयनगर साम्राज्य द्वारा जोड़ा गया है।

सधाशिव होयसल मंदिर में पार्वती अम्मा
सधाशिव मंदिर में पार्वती अम्मा

मंदिर के शिखर को ज्यामितीय आकृतियों एवं रेखाओं द्वारा सुंदरता से उकेरा गया है। इसके शीर्ष पर एक कलश है। शिखर के ऊपर चारों दिशाओं में नंदी की मनमोहक प्रतिमाएँ हैं। साथ ही होयसल राजवंश का राज चिन्ह, बाघ का वध करते सल, की भी शिल्पकारी की गई है।

इस मंदिर का निर्माण भी बोम्मन्ना दंडनायक ने करवाया था। नग्गेहल्ली एक समृद्धशाली अग्रहार था। विजय सोमनाथपुरा के नाम से भी प्रचलित यह नगर शिक्षा का केंद्र था।

नग्गेहल्ली हासन से ६३ किलोमीटर तथा बंगलुरु से १६३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर

अरसिकेरे कर्नाटक के हासन जिले में स्थित एक लघु नगरी है। यह होयसल काल के ईश्वर मंदिर के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। कन्नड भाषा में अरसिकेरे का शब्दशः अर्थ है रानी का कुंड। अरसी का अर्थ है रानी अथवा राजकुमारी तथा केरे का अर्थ है झील।

अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर
अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर

भगवान शिव को समर्पित ईश्वर मंदिर एककुटा मंदिर है। इसमें एक शिखर तथा दो मंडप हैं जिनमें एक मंडप खुला तथा दूसरा घिरा हुआ है। मंदिर की भीतरी संरचना में गर्भगृह, सुकनासी, दर्शन मंडप तथा एक नाट्य मंडप सम्मिलित हैं। गोलाकार नाट्य मंडप एक संवृत अथवा बंद संरचना है जो २१ लेथ स्तंभों तथा तारे के आकार के एक अनियमित गुंबद द्वारा मंडित है। मंदिर की भीतरी छत को उलटे कमल के आकार में सूक्ष्मता से उकेरा गया है। बैठने के लिए एक मंच है जिसको आधार देते कई छोटे गजों की आकृतियाँ हैं।

नाट्य मंडप

अरसिकेरे के ईश्वर मंदिर का नाट्य मंडप
अरसिकेरे के ईश्वर मंदिर का नाट्य मंडप

नाट्य मंडप तथा दर्शन मंडप आपस में एक बाड़ द्वारा जुड़े हुए हैं। दर्शन मंडप में अनेक लघु-मंदिर हैं जो वीरभद्र, गणपती, ब्रह्मा, विष्णु तथा अष्ट दिग्पालों को समर्पित हैं। यह एक झरोखा विहीन चौकोन कक्ष है जिस में छः स्तंभ तथा नौ छतें हैं। छतों पर पुष्पों एवं जालीदार आकृतियों को सूक्ष्मता से उकेरा गया है। मंदिर के दाहिनी ओर स्थित एक अन्य कक्ष में २४ स्तंभ हैं। इस कक्ष में वीरेश्वर, बाकेश्वर तथा चामुंडेश्वर को समर्पित तीन छोटे मंदिर हैं।

मंदिर की बाहरी भित्तियाँ देवी-देवता, पुराण तथा महाभारत व रामायण जैसे महाकाव्यों की कथाओं पर आधारित शिल्पों द्वारा अलंकृत हैं। सुकनासी के ऊपर होयसल राजवंश की राजमुद्रा के स्थान पर नंदी बैल की प्रतिमा है। तारे का अनियमित आकार लिए इस मंदिर की संरचना आपको अत्यंत विशेष प्रतीत होगी।

राजा वीर बल्लाल के काल में निर्मित यह मंदिर शैलखटी अथवा सिलखड़ी शिला में है।

इस मंदिर में दो प्रमुख उत्सव आयोजित किए जाते हैं, शिवरात्रि तथा कार्तिक अमावस्या।

अरसिकेरे हासन से ४१ किलोमीटर तथा बैंगलुरु से २०० किलोमीटर दूर स्थित है।

बेलवाडी का वीर नारायण मंदिर

बेलवाडी कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले में हालेबिडु के समीप स्थित है। इस स्थान का उल्लेख महाभारत में भी किया गया है। वहाँ इस स्थान को एकचक्रनगर के नाम से दर्शाया गया है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ पांडव राजकुमार भीम ने बकासुर का वध किया था। यह स्थान एक होयसल मंदिर, वीर नारायण स्वामी मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है।

बेलवाड़ी का वीर नारायण मंदिर
बेलवाड़ी का वीर नारायण मंदिर

यह एक त्रिकुटा मंदिर है। मध्य में स्थित मंदिर वीर नारायण स्वामी को समर्पित है। इसके बाईं ओर वेणुगोपाल तथा दायीं ओर योगनरसिंह के मंदिर हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो हाथियों के शिल्प हैं। चतुर्भुज वीर नारायण स्वामी की शालिग्राम पर उकेरी हुई ८ फीट ऊंची मूर्ति है जो एक खुले कमल के पुष्प पर खड़ी है। इसके दोनों ओर श्रीदेवी एवं भूदेवी की प्रतिमाएं हैं। ऊपर विष्णु के दस अवतार उत्कीर्णित हैं।

उत्कृष्ट स्तम्भ - होयसल मंदिर के प्रतीक
उत्कृष्ट स्तम्भ – होयसल मंदिर के प्रतीक

इस मंदिर में होयसल मंदिरों की सभी विशेषताएं उपस्थित हैं, जैसे गर्भगृह, सुकनासी, मंडप तथा लेथ मशीन पर निर्मित व आईने के समान चमक लिए गोलाकार स्तंभ।

कल्पवृक्ष के नीचे, बाँसुरी हाथों में लिए वेणुगोपाल की ८ फीट ऊंची अत्यंत मनमोहक विग्रह है। उनके आसपास सनक, सनन्दन, सनातन, संत कुमार, गोपिका, रुक्मिणी तथा सत्यभामा की प्रतिमाएं हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने स्वयं इस मूर्ति को भारत की सर्वाधिक मनमोहक कृष्ण मूर्ति के रूप में सत्यापित किया है। इस मूर्ति पर अत्यंत सूक्ष्मता से की गई नक्काशी हमें उनके दिव्य रूप का आभास कराती हैं।

हाथों में शंख व चक्र धारण किए योगनरसिंह की सात फीट ऊंची, बैठी मुद्रा में एक सुंदर प्रतिमा है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी तथा भूदेवी की प्रतिमाएं हैं। ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकश्यप का वध करने के पश्चात क्रोधित नरसिंह अपना क्रोध शांत करने के लिए योग मुद्रा में विराजमान हुए थे।

ये तीनों मूर्तियाँ एकशिला शालिग्राम द्वारा निर्मित की गई हैं।

मंदिर की बाहरी भित्तियाँ ठेठ होयसल वास्तु शैली में उत्कीर्णित हैं। इस मंदिर की अद्वितीय विशेषताएँ हैं इसका त्रिकुटा विमान तथा इसके आश्चर्यचकित कर देने वाली अत्यंत मनभावन मूर्तियाँ। मंदिर एवं मूर्तियों के भीतरी सौन्दर्य को प्राधान्यता दी गई है।

इस मंदिर की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है इसके निर्माता का अभियांत्रिकी कौशल। ठीक विषुव अर्थात २३ मार्च के दिन सूर्य की प्रथम किरण मंदिर के सात द्वारों को पार कर वीरनारायण की मूर्ति पर पड़ती है। इसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस माना जाता है। इस दिन यहाँ भक्तों की अपार भीड़ उपस्थित रहती है। यहाँ के प्रमुख उत्सवों में चैत्र पूर्णिमा, जन्माष्टमी, रथसप्तमी तथा नरसिंह जयंती सम्मिलित हैं। चैत्र पूर्णिमा के दिन विष्णु, श्रीदेवी तथा भूदेवी की उत्सव मूर्तियों की शोभायात्रा निकाली जाती है।

मंदिर परिसर के भीतर, विशेषतः गर्भगृह एवं मूर्तियों के छायाचित्रिकरण पर पाबंदी है।

जवगल चिकमंगलूर महामार्ग पर स्थित बेलवाडी हालेबिडु से १२ किलोमीटर दूर है।

किक्केरी का ब्रह्मेश्वर मंदिर

किक्केरी गाँव का ब्रहमेश्वर मंदिर
किक्केरी गाँव का ब्रहमेश्वर मंदिर

एक मनमोहक विशाल झील के तीर स्थित ब्रह्मेश्वर मंदिर भी होयसल वास्तुशिल्प की एक अति विशिष्ट कृति है। भगवान शिव को समर्पित यह एककुटा मंदिर इस समय जीर्ण स्थिति में है क्योंकि इसका रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत नहीं आता है। तथापि नवीनीकरण का कुछ कार्य कार्यान्वित होते हमने अवश्य देखा। यहाँ नियमित पूजा अर्चना की जाती है। चूंकि यहाँ भक्तगण अधिक संख्या में नहीं आते, इस मंदिर के पट अधिकतर बंद रहते हैं। स्थानीय निवासियों की सहायता से आप पुजारीजी को बुलावा भेज सकते हैं। हमें पुजारीजी अत्यंत सज्जन तथा भद्र पुरुष प्रतीत हुए। उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता से हमें सम्पूर्ण मंदिर का दर्शन कराया।

ब्रहमेश्वर मंदिर के नंदी देव
ब्रहमेश्वर मंदिर के नंदी देव

यह मंदिर धरती के समतल पर स्थापित है जो ऊंचे मंच अर्थात जगती पर स्थापित अन्य होयसल मंदिरों के विपरीत है। गर्भगृह के तोरण पर ब्रह्मा की छवि विराजमान है। ऐसा कहा जाता है कि हम ब्रह्मा की प्रत्यक्ष रूप में आराधना नहीं कर सकते। उनकी आराधना भगवान शिव के माध्यम से ही की जाती है। इस मंदिर में जब हम भगवान शिव की पूजा करते हैं तब हम अपरोक्ष रूप से ब्रह्मा की पूजा अर्चना करते हैं। इसीलिए इस मंदिर को ब्रह्मेश्वर मंदिर कहा जाता है। मंदिर की बाहरी भित्तियों पर देवी-देवताओं, पुराणों व महाकाव्यों की कथाओं पर आधारित छवियाँ उत्कीर्णित हैं। इनमें सर्वाधिक विलक्षण छवियाँ विष्णु के वराह अवतार एवं विघ्नेश्वर की हैं।

महिषासुरमर्दिनी
महिषासुरमर्दिनी

इस मंदिर में भी गर्भगृह, सुकनासी तथा नवरंग मंडप हैं। बाहरी घेरदार संरचना के भीतर एक विशाल एवं अलंकृत नंदी की बैठी मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की प्रतिमा के ऊपर की गई नक्काशी देख आपकी आंखे फटी की फटी रह जायेंगी। भीतरी गर्भगृह की ओर मुख कर खड़े सूर्यनारायण की प्रतिमा नंदी के पृष्ठभाग में है।

एक गोलाकार मंच लेथ-रचित चार स्तंभों पर रखे हैं जिन पर रामायण के दृश्य चित्रित हैं। प्रत्येक स्तंभ के कोष्ठक वास्तव में सुंदर मदानिकाओं की उत्कृष्ट प्रतिमाएँ हैं। इनमें से अधिकतर प्रतिमाओं को मंदिर से चुरा लिया गया है। आप इनमें से कुछ ही यहाँ देख सकते हैं। विगृह की ओर मुख किए हुए एक छोटे नंदी नाट्य मंडप में विराजमान हैं। भीतरी गर्भगृह के दोनों ओर महिषासुरमर्दिनी तथा गणेश के दो छोटे मंदिर हैं।

लावण्यपूर्ण मदनिका
लावण्यपूर्ण मदनिका

उत्तरी तथा दक्षिणी दिशा में दो मंदिर हैं जिनमें एक मंदिर ईश्वर रूप में भगवान शिव तथा दूसरा केशव रूप में भगवान विष्णु को समर्पित है। गणेश के विग्रह के समीप सप्त मातृका का पटल तथा केशव के समीप कालभैरव का विग्रह है। कालभैरव की यह मूर्ति मंदिर के समीप स्थित जलकुंड के भीतर से प्राप्त हुई थी। छत पर अष्टदिग्पालों तथा नवग्रहों की छवियाँ हैं।

प्रांगण में अन्य कई छोटी मंदिर संरचनाएं हैं किन्तु उनमें अधिकतर जीर्ण अवस्था में हैं। केवल पार्वतीअम्मा को समर्पित एक छोटे मंदिर का ही अब तक जीर्णोद्धार किया गया है। यहाँ दैनिक पूजा अर्चना भी की जाती है।

किक्केरी श्रीरंगपटना- चनरायपटना महामार्ग पर स्थित है तथा के आर पेटे से ११ किलोमीटर दूर है।

गोविंदनहल्ली का पंचलिंगेश्वर होयसल मंदिर

पंचलिंगेश्वर एक पंचकुटा मंदिर है जिस पर उत्तर-दक्षिण अक्षांश पर पाँच विमान हैं। ये विमान पूर्व दिशा की ओर एक स्तंभ युक्त बड़े कक्ष में खुलते हैं। प्रत्येक मंदिर के भीतर एक गर्भगृह तथा सुकनासी है जो स्तंभ युक्त कक्ष की ओर मुख किए हुए हैं। सुदृढ़ता से गड़ा एक नंदी भी है जो मंदिर की ओर मुख किए ड्योढ़ी पर बैठा है। आप देखेंगे कि पाँच मंदिरों में से प्रत्येक मंदिर के बाईं ओर एक छोटा गणेश मंदिर तथा दाईं ओर चामुंडेश्वरी को समर्पित एक छोटा मंदिर है।

गोविन्दन्ह्ल्ली का पञ्चलिंगेश्वर मंदिर
गोविन्दन्ह्ल्ली का पञ्चलिंगेश्वर मंदिर

इस मंदिर में ध्यान देने योग्य वैशिष्टताएँ हैं, सुब्रमण्य, आदिशेष, सप्त मातृका, शिव तथा पार्वती। पाँच शिवलिंगों के नाम हैं, इशानेश्वर, तत्पुरुशेश्वर, अघोरेश्वर, वामदेवेश्वर तथा सदज्योतेश्वर। प्रत्येक मंदिर के गर्भगृह के बाह्य क्षेत्र में द्वारपाल, नंदी तथा वृन्गी हैं। गर्भगृह के तोरण पर गजलक्ष्मी की छवि है। लेथ द्वारा निर्मित स्तंभों की चमक एवं नक्काशी विलक्षण है। उन पर थपथपाने से गूँजता हुआ धातुई स्वर सुनाई देता है। मंदिर की बाहरी भित्तियों पर उकेरे विष्णु के दस अवतार, देवी-देवताओं तथा अन्य शिल्प होयसल शैली में हैं।

मंदिर की संरचना ऊंचे मंच अथवा जगती पर नहीं, अपितु पर धरातल पर की गई है।

इसकी स्थापना लगभग १२३७-३८ ई. के आसपास, प्रसिद्ध होयसल शिल्पकार मल्लितम्मा द्वारा किया गया है। मंदिर के बाहरी भित्तियों पर उत्कीर्णित कुछ शिल्पों पर उनका नाम भी उकेरा हुआ है। यह मंदिर किक्केरी से लगभग ५ किलोमीटर दूर, श्रीरंगपटना- चनरायपटना महामार्ग पर स्थित है।

डोड्डगड्डवल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर

डोड्डगड्डवल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर
डोड्डगड्डवल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर

लक्ष्मी देवी को समर्पित यह अत्यंत आकर्षक मंदिर डोड्डगड्डवल्ली गाँव में स्थित है जो हासन-हालेबिडु महामार्ग से २ किलोमीटर की दूरी पर है। झील के किनारे स्थित यह शांत एवं निर्मल मंदिर एक चतुष्कुटा मंदिर है जिस के चार दिशाओं में चार शिखर हैं। यह होयसल वंश के प्राचीनतम जीवित मंदिरों में से एक है। इसका प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में है। वायु एवं प्रकाश के आवागमन के लिए इसकी भित्तियाँ जालीदार बनाई गई हैं। इस मंदिर परिसर में काली, लक्ष्मी, शिव एवं विष्णु को समर्पित चार मंदिर चार दिशाओं में स्थित हैं।

काली मंदिर

शांतिस्वरूप काली
शांतिस्वरूप काली

इस मंदिर की अद्वितीय विशेषताएँ यह हैं कि यह मंदिर शांतस्वरूप काली को समर्पित है तथा इसके दोनों ओर शाकिनी एवं डाकिनी हैं। यह अन्य होयसल मंदिरों से भिन्न हैं जो अधिकतर विष्णु अथवा शिव को समर्पित हैं। यहाँ उपस्थित नागकन्या, विषकन्या तथा वेताल के शिल्प भी इसे अन्य होयसल मंदिरों से भिन्न बनाते हैं।

रूद्र वीणा बजाते शिव
रूद्र वीणा बजाते शिव

गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर स्थित तोरण पर छः वेताल नागकन्याओं एवं विषकन्याओं संग नृत्य करते दर्शाये गए हैं। यह तोरण मंडप की ओर खुलता है। इसके दोनों ओर कालिका अंगरक्षकों की दो विशाल शिल्प हैं। इन्हे देख मंदिर की संरचना में तांत्रिक उपासना के प्रभाव का आभास होता है।

महालक्ष्मी

पश्चिमी दिशा में स्थित महालक्ष्मी मंदिर में एक गर्भगृह है जिसकी सुकनासी  नवरंग मंडप में खुलती है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक लिंग है जिसके समक्ष शिव का लघु मंदिर तथा दक्षिण में विष्णु का लघु मंदिर है। विष्णु की मूल प्रतिमा नष्ट हो गई है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने नवीन प्रतिमा स्थापित की है जिनकी अब केशव रूप में आराधना की जाती है।

बेताल तोरण
बेताल तोरण

इसकी छत पर सघन उत्कीर्णन है जिस पर भगवान शिव को रुद्र तांडव करते एवं रुद्र वीणा बजाते दर्शाया गया है। अन्य छवियों में संबंधित वाहनों की सवारी करते अग्नि, वरुण, निरुत्त व यम तथा ऐरावत की सवारी करते इन्द्र संमिलित हैं। छत के मध्य में भुवनेश्वरी की छवि थी किन्तु अब वह स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं है।

काली
काली

प्रांगण में एक शिला पर कन्नड भाषा में लिखे कुछ अभिलेख हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर तथा इसके बाग-बगीचे का रखरखाव अत्यंत कुशलता से किया है। इसका निर्माण सहजा देवी ने करवाया था जो कलहन राहुता की पत्नी थीं। राहुता ११ वीं. सदी में होयसल सम्राट विष्णुवर्धन के दरबार में मंत्री थे।

जवगल का लक्ष्मी नरसिंह मंदिर

यह एक त्रिकुटाचल मंदिर है। इसका प्रवेश द्वार विजयनगर काल का महाद्वार है जिसके दोनों ओर हाथियों के शिल्प हैं। इसके तीन लघु मंदिर एक छोटे नाट्य मंडप द्वारा जुड़े हुए हैं। गरुडस्तंभ पर नतमस्तक होने के पश्चात तथा जय व विजय नामक दो द्वारपालों से भेंट करने के पश्चात आप एक अन्य मंडप से होते हुए इस मंदिर के भीतर पहुंचेंगे।

लक्ष्मी नरसिंह मंदिर जवगल - एक होयसल मंदिर
लक्ष्मी नरसिंह मंदिर

कालांतर में विजयनगर सम्राटों ने इस मंदिर परिसर में दीपस्तंभ, लक्ष्मी मंदिर तथा स्तंभयुक्त कक्ष की संरचनाएँ जोड़ी थीं। पृष्ठभाग में, एक कोने में स्तंभों से भरा एक अन्य कक्ष है जो अब जीर्ण अवस्था में है। राज्य पुरातत्व विभाग ने अब इस मंदिर के रखरखाव का उत्तरदायित्व उठाया है।

कालिया मर्दन - जवगल मंदिर की तोरण पर
कालिया मर्दन – जवगल मंदिर की तोरण पर

इस मंदिर के अधिष्ठात्र देव श्रीधर रूप में वीर नारायण स्वामी हैं। बाईं ओर वेणुगोपाल तथा दाईं ओर पत्नी लक्ष्मी समेत लक्ष्मीनरसिंह विराजमान हैं। देवी-देवताओं को ठीक उसी प्रकार स्थापित किया गया है जैसा आपने बेलवाडी मंदिर में देखा होगा। यहाँ वेणुगोपाल बाल्य अवस्था के कृष्ण हैं। इसीलिए उन पर मुकुट नहीं है। बेलवाडी में कृष्ण किशोर अवस्था में उपस्थित हैं। इस मंदिर में भी आप दशावतार, गोपिकाएं, गौमाताएं, सत्यभामा तथा रुक्मिणी की छवियाँ देख सकते हैं। तोरण पर कालिया मर्दन अर्थात कालिया संहार का दृश्य अंकित है जिसमें कृष्ण को कालिया नाग का वध करते प्रदर्शित किया है।

सभी प्रतिमाएं शालिग्राम शिला में निर्मित हैं।

यहाँ दो-लघु मंदिर हैं, बाईं ओर महागणपती तथा दाईं ओर चामुंडेश्वरी। महागणपति लघु-मंदिर की छत पर गणपति की १०८ छवियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर की छत पर अष्ट दिग्पाल उत्कीर्णित हैं।

इस मंदिर की निर्मिती १३ वी. सदी में होयसल सम्राट वीर सोमेश्वर के कारवाई थी।

जवगल नगरी हासन से लगभग ५० किलोमीटर की दूरी पर है।

शांतिग्राम का भोग नरसिंह मंदिर

यह एक सादा एवं जीवंत मंदिर है जो श्री लक्ष्मी समेत वरद योग भोग नरसिंह मंदिर के नाम से अत्यंत लोकप्रिय है। एक विशाल, भव्य तथा अनेक रंगों में सजे गोपुरम से होते हुए हम इसके भीतर प्रवेश करते हैं। प्रांगण के भीतर एक छोटा एककुटा मंदिर है जो नरसिंह को समर्पित है। मंदिर के अंत में एक कक्ष है जिसमें अनेक स्तंभ हैं। यह कक्ष तथा एक यज्ञ कुंड कालांतर में जोड़े गए प्रतीत होते हैं।

शंतिग्राम का भोग नरसिंह मंदिर
शंतिग्राम का भोग नरसिंह मंदिर

इस मंदिर को श्वेत रंग में रंगा गया है। इसीलिए इसके स्तंभ तथा बाहरी भित्तियाँ होयसल वास्तुशिल्प प्रतीत नहीं होते। नरसिंह बाईं ओर लक्ष्मी संग बैठे हुए हैं। उनके दायें हाथ में शंख तथा बाएं हाथ में चक्र है। गत १२०० वर्षों से यहाँ अनवरत पूजा अनुष्ठान किए जा रहे हैं जिसकी दिव्य शक्ति से यह मंदिर परिपूर्ण है।

मंदिर के मध्य, छत पर नरसिंह के नौ अवतारों को गोलाकार में उत्कीर्णित किया है। नव नरसिंह के नौ अवतार हैं, उग्र, क्रोध, वीर, विलंब, कोप, योग, अघोर, सुदर्शन तथा लक्ष्मी नरसिंह।

इस मंदिर का निर्माण ११ वीं. सदी में रानी शांतला देवी ने करवाया था जो सम्राट विष्णुवर्धन की पत्नी थीं।

शांतिग्राम हासन से १३ किलोमीटर दूर बंगलुरु हासन महामार्ग पर स्थित है।

अनेकेरे का चेन्नाकेशव मंदिर

श्रीरंगपटना-चनरायपटना महामार्ग पर चनरायपटना तालुका में एक छोटा सा नगर है, अनेकेरे। यहाँ स्थित चेन्नाकेशव मंदिर एक एककुटा मंदिर है जिसके ऊपर एक विशाल कलश है।

सीढ़ियाँ युक्त प्रवेशद्वार से हम इसके भीतर पहुंचते हैं। यह प्रवेशद्वार हमें एक प्रांगण में ले जाता है जिसके मध्य में मंदिर स्थित है। स्तंभों पर आधारित कक्ष सम्पूर्ण प्रांगण के चारों ओर स्थित है। तुलसी का एक अत्यंत प्राचीन वृंदावन है। गर्भगृह के भीतर भूदेवी एवं श्रीदेवी समेत चेन्नाकेशव विराजमान हैं।

अनेकेरे के चेन्नकेशव मंदिर का कन्नड़ शिलालेख
अनेकेरे के चेन्नकेशव मंदिर का कन्नड़ शिलालेख

तोरण पर गज लक्ष्मी उत्कीर्णित हैं। वहीं भित्तियों पर द्वारपाल जय एवं विजय हैं। छत पर विपुलता से की गई नक्काशी आपको होयसल वास्तुकला के इस विशेष तत्व का स्मरण कराएंगी।

शिखर पर ज्यामितीय आकृतियाँ एवं रचनाएं उकेरी गई हैं। मंदिर की बाईं भित्ति पर कन्नड़ भाषा में कुछ अभिलेख हैं। यह एक छोटा सा अत्यंत आकर्षक मंदिर है जो अत्यंत दर्शनीय है।

यहाँ की उत्सव मूर्ति की शोभायात्रा मार्च-अप्रैल में आने वाले उगादि के उत्सव में निकाली जाती है।

होसहोललु का लक्ष्मीनारायण मंदिर

होसहोललु मंड्या जिले में स्थित एक छोटा सा नगर है। यह नगर १२५० ई. में सम्राट वीर सोमेश्वर द्वारा निर्मित होयसल वास्तुशिल्प की इस अद्भुत कलाकृति के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है।

होसहोललु का लक्ष्मीनारायण मंदिर
होसहोललु का लक्ष्मीनारायण मंदिर

लक्ष्मीनारायण मंदिर एक त्रिकुटा मंदिर है। पश्चिम दिशा में स्थित इसका मुख्य मंदिर लक्ष्मीनारायण को समर्पित है। इन्हे नम्बीनारायण भी कहा जाता है। इस प्रमुख मंदिर के दोनों ओर दो छोटे मंदिर हैं जो गणेश तथा चामुंडी को समर्पित हैं। उत्तर दिशा में वेणुगोपाल मंदिर तथा दक्षिण दिशा में लक्ष्मीनरसिंह मंदिर हैं।

लक्ष्मीनारायण मंदिर की बाहरी दीवारें
लक्ष्मीनारायण मंदिर की बाहरी दीवारें

मुख्य मंदिर में गर्भगृह तथा सुकनासी हैं जो नाट्य मंडप में खुलते हैं। नाट्य मंडप के पश्चात एक और कक्ष है। अन्य दोनों मंदिरों के गर्भगृह भी नाट्य मंदिर में ही खुलते हैं। मंदिर की भीतरी संरचना अन्य होयसल मंदिरों के समान विपुलता से उत्कीर्णित है। इसमें भी भव्यता से उत्कीर्णित छत तथा गोलाकार लेथ स्तंभ हैं। स्तंभों पर थपथपाने से धातुई स्वर निकलता है। अन्य होयसल मंदिरों के समान जगती मंच पर स्थापित यह मंदिर भी शैलखटी द्वारा निर्मित है। बाहरी भित्तियाँ सर्वोत्कृष्ट हैं जिनकी छः पट्टिकाओं पर गजों, मकरों, हंसों, मोरों तथा मनमोहक पुष्पाकृतियों की उत्कृष्ट शिल्पकारी की गई है। इन पट्टिकाओं के ऊपर देवी-देवताओं तथा पुराण, रामायण व महाभारत की कथाओं को दर्शाते दृश्यों के शिल्प हैं।

गरुडारूड लक्ष्मीनारायण
गरुडारूड लक्ष्मीनारायण

चूंकि इस मंदिर पर आतताईयों ने आक्रमण नहीं किया था, यहाँ प्रतिमाएं एवं मंदिर नष्ट नहीं हुए हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर तथा इसके बाग-बगीचे का रखरखाव अत्यंत कुशलता से किया है।

इस मंदिर का प्रमुख उत्सव वैकुंठ एकादशी है।

कर्नाटक के होयसल मंदिर दर्शन के लिए यात्रा सुझाव:

  • कर्नाटक के होयसल मंदिरों के दर्शन करने हेतु आप बंगलुरु, हासन अथवा मैसूर को अपना पड़ाव केंद्र चुन सकते हैं। यहाँ ठहरने की उत्तम व्यवस्थाएँ हैं तथा ये स्थान मंदिरों से अधिक दूर भी नहीं हैं।
  • इन मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम समय अक्टूबर से मार्च मास के मध्य है।
  • इनमें से अधिकतर मंदिर महामार्ग से दूर, गांवों के निर्मल वातावरण में स्थित हैं। वहाँ कदाचित आपको खाने पीने की इष्टित वस्तुएं प्राप्त ना हों। अतः अपने खाने पीने के पदार्थ साथ ले जाएँ।
  • स्थानीय निवासी अत्यंत विनम्र एवं भद्र हैं। मार्गदर्शन के लिए आप उनसे अवश्य सहायता ले सकते हैं। यहाँ गूगल नक्शा आपको भ्रमित कर सकता है।
  • प्रत्येक मंदिर में परिदर्शक अथवा गाइड कदाचित उपलब्ध ना हो। परंतु जहां भी आपको यह सुविधा मिले, उसका लाभ अवश्य उठायें। कई स्थानीय निवासी भी बिना किसी आशा के आपकी सहायता करने में तत्पर रहेंगे। उन्हे अपनी धरोहर प्रदर्शित करने में अत्यंत गर्व होता है।
  • अधिकतर होयसल मंदिरों में भीड़ नहीं रहती है। आप यहाँ शांति से भरपूर समय बिताते हुए इन मंदिरों के वास्तु कौशल का आनंद उठा सकते हैं।

यह यात्रा संस्करण श्रुति मिश्रा द्वारा Inditales Internship Program के अंतर्गत साझा किया गया है।

श्रुति मिश्रा एक व्यावसायिक बँककर्मी हैं। उन्हे भिन्न भिन्न स्थानों की यात्रा कर वहाँ की समृद्ध धरोहरों को जानने व समझने तथा वहाँ के स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद लेने में अत्यंत रुचि है। उन्हे किताबें पढ़ने तथा अपने परिवार के लिए भोजन बनाने में भी अत्यंत आनंद आता है। वे बंगलुरु की निवासी हैं। इनकी अभिलाषा है कि वे सम्पूर्ण भारत की समृद्ध धरोहरों के दर्शन करें तथा उन पर एक पुस्तक प्रकाशित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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