केरल Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/केरल/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Thu, 21 Mar 2024 06:01:45 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 सबरीमाला यात्रा निर्देशिका – अरविन्द सुब्रमण्यम https://inditales.com/hindi/sabrimala-yatra-vritant-kerala/ https://inditales.com/hindi/sabrimala-yatra-vritant-kerala/#respond Wed, 24 Jul 2024 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3650

सबरीमाला, भारत के पश्चिमी घाटों के अंक में स्थित भगवान अयप्पा का धाम। केरल के पथानमथिट्टा जिले में स्थित सबरीमाला में भगवान अयप्पा का प्रसिद्ध मंदिर है जो दक्षिण भारतीय श्रद्धालुओं में अत्यंत लोकप्रिय है। सबरीमाला तीर्थयात्रा के लिए प्रसिद्ध यह मंदिर आध्यात्मिक संपदा का महत्वपूर्ण स्रोत है। आज हमने इंडिटेल के माध्यम से प्रसारित […]

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सबरीमाला, भारत के पश्चिमी घाटों के अंक में स्थित भगवान अयप्पा का धाम। केरल के पथानमथिट्टा जिले में स्थित सबरीमाला में भगवान अयप्पा का प्रसिद्ध मंदिर है जो दक्षिण भारतीय श्रद्धालुओं में अत्यंत लोकप्रिय है। सबरीमाला तीर्थयात्रा के लिए प्रसिद्ध यह मंदिर आध्यात्मिक संपदा का महत्वपूर्ण स्रोत है।

आज हमने इंडिटेल के माध्यम से प्रसारित डीटूअर्स में आमंत्रित किया है, श्री अरविन्द सुब्रमण्यम जी को, जो सबरीमाला अयप्पा मंदिर से प्रगाढ़ रूप से संलग्न हैं। वे हमें इस मंदिर एवं सबरीमाला तीर्थयात्रा के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करेंगे। उन्होंने अपने जीवन में सबरीमाला की अनेक यात्राएं की हैं तथा उस पर कई पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं।

सबरीमाला शब्द का क्या अर्थ है?

तमिल, मलयालम तथा अन्य अनेक भारतीय भाषाओं में शिकारी को शबरी अथवा सबरी कहा जाता है। माला का अर्थ पहाड़ी होता है। अर्थात सबरीमाला का शाब्दिक शिकारियों की पहाड़ी होता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस मंदिर का नामकरण शबरी नामक एक योगिनी पर किया गया है जो ऋषि अगस्त्य की शिष्या थी। वह दीर्घ काल से तपस्या में लीन, देव शास्ता के मणिकण्ठ रूप में अवतरित होने की प्रतीक्षा रह रही थी। मणिकण्ठ को अयप्पा स्वामी का अवतार माना जाता है। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान मणिकण्ठ ने इस पहाड़ी पर निवास करते अपने भक्तों के कल्याण के लिए यहीं स्थायी हो जाने का निर्णय लिया।

सबरीमाला का संक्षिप्त इतिहास

ब्रह्मांड पुराण, स्कन्द पुराण एवं ब्रह्म पुराण में मणिकण्ठ अथवा अयप्पा स्वामी को शास्ता भगवान का आठवाँ अवतार माना गया है।

शास्ता महाविष्णु के मोहिनी अवतार एवं महाशिव के संयोग से उत्पन्न पुत्र है। देवी ने महाविष्णु एवं महाशिव को पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। अतः बिना गर्भधारण के उन्हे पुत्र की प्राप्ति हुई थी।

श्री अरविन्द सुब्रमण्यम सबरीमाला में
श्री अरविन्द सुब्रमण्यम सबरीमाला में

शास्ता भगवान के आठ अवतरण हैं। अपने अंतिम अवतार में शास्ता भगवान अयप्पा के रूप में प्रकट हुए हैं जो एक ब्रह्मचारी हैं। आठवें अवतार में शास्ता को मणिकण्ठ भी कहा जाता है क्योंकि वे अपने कंठ में नवरत्न माला धारण करते हैं।

ऐसी मान्यता है कि कलियुग के भक्तों के कल्याण के लिये भगवान अयप्पा स्वामी वर्ष भर ध्यानमग्न रहते हैं। अपने भक्तों को आशीष प्रदान करने के लिए वे संक्रांति तथा अन्य कुछ विशेष दिवसों पर भक्तों को दर्शन देते हैं। इसके अतिरिक्त यह मंदिर सामान्य दर्शनार्थियों के लिए वर्ष भर बंद रहता है।

सबरीमाला मंदिर

सबरीमाला को सबरीगिरी भी कहते हैं। यह पश्चिमी घाट के सह्याद्री पर्वत श्रंखलाओं में स्थित है। पंपा नदी की उपस्थिति के कारण इस क्षेत्र को किष्किन्धा भी कहा जाता है, यद्यपि किष्किन्धा क्षेत्र की अवस्थिति के विषय में अनेक तर्क-वितर्क दिए जाते हैं। कुछ उसे कर्नाटक, तो कुछ उसे केरल में मानते हैं।

सबरीमाला मंदिर
सबरीमाला मंदिर

मुख्य मंदिर के चारों ओर १८ पहाड़ियाँ हैं। इन पहाड़ियों के मध्य में महायोगपीठ है जहाँ मंदिर का गर्भ गृह स्थित है। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र में महर्षि मतंग ने घोर तपस्या की थी। इसलिए इस क्षेत्र को मतंग वन भी कहते हैं।

सबरीमाला तीर्थयात्रा के निर्धारित पथ का वर्णन पुराणों में किया गया है। जो भक्तगण ४५ दिवसों के इस सबरीमाला तीर्थयात्रा व्रत को धारण करते हैं, उन्हे कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है तथा कुछ निर्धारित संस्कारों एवं जप आदि का अनुष्ठान करना पड़ता है। उनके कठोर नियमों के अंतर्गत भूमि पर सोना, सादा भोजन ग्रहण करना, जप, ध्यान आदि का अनुष्ठान करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना आदि सम्मिलित हैं।

अष्टादश सोपान के साथ तीर्थ यात्री
अष्टादश सोपान के साथ तीर्थ यात्री

भक्तगण पदभ्रमण करते हुए पंपा नदी एवं नील पर्वत को पार करते हैं तथा सबरीमाला पहुँचते हैं। सबरीपीठ पहुँचने के पश्चात तीर्थयात्री १८ पवित्र सोपान चढ़ते हैं जिन्हे तत्व शोभनम् कहते हैं। अंततः वे मंदिर पहुंचकर भगवान अयप्पा का दर्शन करते हैं।

यह मंदिर मंडल पूजा के लिए सम्पूर्ण नवंबर, दिसंबर तथा जनवरी मास में खुला रहता है। तत्पश्चात, संक्रांति पर्व के कुछ दिवसों पश्चात इसके पट बंद कर दिए जाते हैं। वर्तमान में तमिल अथवा मलयालम पंचांग के प्रत्येक मास के प्रथम पाँच दिवसों में भी यह मंदिर खुला रहता है। जिन भक्तों ने सबरीमाला तीर्थयात्रा का व्रत धारण नहीं किया है, वे भी मंदिर में भगवान का दर्शन कर सकते हैं लेकिन उन्हे भगवान अयप्पा का प्रसाद प्राप्त नहीं होता है।

सबरीमाला तीर्थयात्रा के नियम

सबरीमाला तीर्थयात्रा के सभी नियम पुराणों में वर्णित हैं। इस तीर्थयात्रा को पूर्ण करने के लिए उन नियमों का उचित रूप से पालन करना आवश्यक है। सबरीमाला की यात्रा करने का प्रमुख उद्देश्य है, जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होना तथा मोक्ष प्राप्त करना।

सबरीमाला यात्रा
सबरीमाला यात्रा

यह तीर्थयात्रा कौन कर सकता है? सभी आयुसीमा के पुरुष यह यात्रा कर सकते हैं। स्त्रियों के लिए यह नियम भिन्न है। अयप्पा भगवान के ब्रह्मचारी अवतार होने के कारण १० वर्ष से कम आयु की बलिकाएं तथा ५० वर्ष से अधिक आयु की स्त्रियाँ ही यह यात्रा कर सकती हैं।

सबरीमाला तीर्थयात्रा से पूर्व भक्तों को निम्नतम ४५ से ४८ दिवसों के व्रत का पालन करना होता है। वे चाहें तो यह अवधि बढ़ा भी सकते हैं। यह व्रत हिन्दू पंचांग के कार्तिगई अथवा कार्तिक पूर्णिमा से आरंभ किया जाता है जो नवंबर मास में पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिवस मंदिर के लिए भूमि पूजन का अनुष्ठान किया गया था। अतः इस अवधि में व्रत आरंभ करना अत्यंत पावन माना जाता है।

व्रत आरंभ करने से पूर्व भक्त को एक गुरु की शरण प्राप्त करना आवश्यक है। गुरु द्वारा स्वीकार किए जाने के पश्चात ही एक भक्त यह यात्रा आरंभ कर सकता है।

ब्रह्मचर्य

सबरीमाला तीर्थयात्रा के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का कठोर पालन अत्यंत आवश्यक है। इस व्रत के अंतर्गत भक्त सम्पूर्ण दिवस में केवल एक ही भोजन करता है। वह प्रत्येक दिवस पूजा-अर्चना के तीन अनुष्ठान करता है। सम्पूर्ण व्रत काल में वह गुरुस्वामी द्वारा प्रदान की गयी व्रत माला धारण करता है जो एक तुलसी माला होती है।

भक्त को दिवस भर में कम से कम दो स्नान आवश्यक है। वह भूमि पर निद्रा करता है। ये देह संबंधी नियम  आवश्यक हैं ही, लेकिन चित्त संबंधी नियम अधिक आवश्यक हैं। भक्त का उस चित्तावस्था में पहुँचना आवश्यक है जहाँ वह भगवान के परम आशीष की कामना करता है। यद्यपि सबरीमाला यात्रा के भक्तगण सम्पूर्ण व्रतकाल में श्याम वस्त्र धारण करते दृष्टिगोचर होते हैं, तथापि पुराणों में ऐसे किसी नियम का उल्लेख नहीं किया गया है।

इरुमुडी

इरुमुडी इस तीर्थयात्रा का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह एक बस्ता होता जिसमें दो खांचे होते हैं। अग्र भाग में स्थित खांचे में स्वामी जी को अर्पित भेंट एवं चढ़ावे रखे जाते हैं। पृष्ठभाग का खांचा भक्त के लिए होता है। अभिषेक अनुष्ठान आदि संपन्न करने के लिए घी को सर्वाधिक पवित्र सामग्री माना जाता है। व्रत के अंतिम दिवस के अभिषेक के लिए एक नारियल के भीतर घी भरा जाता है तथा उसे सीलबंद किया जाता है। मंदिर पहुँचते ही उस नारियल को फोड़कर घी भगवान को अर्पित किया जाता है।

घी आत्मा का द्योतक है। दूध, दही, माखन तथा अन्य दुग्धजन्य वस्तुएँ नाशवान प्रकृति की होती हैं। किन्तु शुद्ध घी नष्ट नहीं होता। घी द्योतक है, आत्मा के अनंत अस्तित्व का। जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, आत्मा एक देह से दूसरे देह में संसरण करती रहती है। अभिषेक के माध्यम से भगवान को घी अर्पण करना आत्मा समर्पण के अनुरूप होता है, अर्थात पूर्ण समर्पण।

सबरीमाला तीर्थयात्रा

सबरीमाला तीर्थयात्रा के लिए दो वैकल्पिक मार्ग हैं। उनमें एक पारंपरिक मार्ग है जो अधिक लंबा है। दूसरा मार्ग अपेक्षाकृत छोटा है।

अधिकांश भक्तगण प्राचीन मार्ग का अनुसरण करते हैं जो अधिक लंबा है। इस पथ की लंबाई ४० मील है। इस पथ के द्वारा गंतव्य तक पहुँचने में साधारणतः ५ से ६ दिवस लगते हैं। यात्रा का लघु पथ लगभग ५ किलोमीटर का है जो पंपा नदी से आरंभ होता है। मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए यह पथ सम्पूर्ण वर्ष खुला रहता है। प्राचीन लंबा पथ केवल दिसंबर मास में खुलता है।

सबरीमाला तीर्थयात्रा एवं उसके आध्यात्मिक लाभ की विस्तृत जानकारी के लिए सुनें, Detours Podcast with Aravind Subramaniyam

इस संस्करण में प्रकाशित सभी छायाचित्र श्री अरविन्द जी द्वारा प्रदत्त हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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केरल के उपहार – भगवान के अपने देश से कौन से स्मृति चिन्ह साथ लाएं? https://inditales.com/hindi/kerala-ke-upahaar-kya-layen/ https://inditales.com/hindi/kerala-ke-upahaar-kya-layen/#respond Wed, 02 Mar 2022 02:30:24 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2605

केरल भारत का सर्वाधिक प्रिय पर्यटन स्थल है। केरल के निवासी इसे भगवान का अपना देश कहते हैं। देशी एवं विदेशी पर्यटकों में यह स्वप्निल पर्यटन स्थल के रूप में अत्यंत लोकप्रिय है। आप इतने मनमोहक राज्य में भ्रमण के लिए जाएँ तथा साथ में वहाँ की स्मृति को सदैव के लिए सँजोने के लिए […]

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केरल भारत का सर्वाधिक प्रिय पर्यटन स्थल है। केरल के निवासी इसे भगवान का अपना देश कहते हैं। देशी एवं विदेशी पर्यटकों में यह स्वप्निल पर्यटन स्थल के रूप में अत्यंत लोकप्रिय है। आप इतने मनमोहक राज्य में भ्रमण के लिए जाएँ तथा साथ में वहाँ की स्मृति को सदैव के लिए सँजोने के लिए कोई केरल के उपहार ना लाएं, यह केरल के प्रति अन्याय होगा।

मैंने अब तक केरल राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के अनेक भ्रमण किए हैं। प्रत्येक भ्रमण के अंत में मेरे संग केरल की अनेक स्मृतियाँ वापिस आयीं हैं। कुछ मेरे मानसपटल को शोभित कर रही हैं तो कुछ मेरे एवं मेरे सगे-संबंधियों  के निवासस्थान को। उन्ही अनेक भ्रमणों से प्राप्त अनुभवों के आधार पर मैंने केरल की स्मृति चिन्हों पर इस संस्करण की रचना की है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मुझे केरल से संबंधित सर्व स्मारिकाओं को लाने का अवसर प्राप्त हो गया है। केरल की अनेक ऐसी वस्तुएं हैं जो मेरी ‘वहाँ से लाने वाली वस्तुओं की सूची’ में अभी भी शेष हैं।

केरल से कौन सी स्मारिकाएं क्रय करें? – एक दिशा निर्देश

केरल के मसाले

केरल के उपहार - मसाले
केरल के उपहार – मसाले

केरल मसालों के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। आप जब भी केरल का भ्रमण करेंगे तो किसी न किसी मसालों के बाग का दर्शन अवश्य करेंगे। आपको काली मिर्च की बेलें, इलायची के पौधे इत्यादि देखने का सुअवसर प्राप्त होगा। आपने भारत के इतिहास में भी पढ़ा होगा कि कैसे विश्व भर के यात्री समुद्र मार्ग से केरल के तट पर इन मसालों की चाह में ही उतरे थे। अतः केरल से कोई विशेष वस्तु अपने साथ लानी हो तो मसालों से बेहतर क्या होगा।

मसाले हमारे भोजन का अभिन्न अंग हैं। वह यदि उसके स्त्रोत स्थल से प्राप्त किया जाए तो इनकी गुणवत्ता अतुल्य हो जाती है। अतः आप बिना हिचक इन ताजे मसालों को अपने प्रयोग के लिए तथा सगे-संबंधियों के लिए ले सकते हैं।

मसालों में आप काली मिर्च, सफेद मिर्च, इलायची, लौंग, दालचीनी, जायफल इत्यादि ले सकते हैं। हो सकता है आपको वनीला की भी अच्छी फलियाँ मिल जाएंगी।

चाय मसाले तथा अन्य मिश्रण

यदि आप इन मूल मसालों से विशेष मिश्रण चूर्ण तैयार करते हैं तो मेरा सुझाव यही होगा कि आप पृथक पृथक मसाले क्रय कर उनसे मिश्रण स्वयं बनाएं। यदि आप बने बनाए समालों के मिश्रण क्रय करना चाहते हैं तो भी ले सकते हैं। चाय मसालों जैसे मसालों की छोटी छोटी शीशियाँ अत्यंत उपयोगी हैं। मसाले की गंध लिए इन अर्को की दो से तीन बूंदे चाय में डालकर आप इच्छित गंध व स्वाद प्राप्त कर सकते हैं। पर्यटकों में अदरक, तुलसी, पुदीना इत्यादि चाय मसालों के अर्क अत्यंत प्रसिद्ध हैं।

भोजन से प्रेम करने वालों के लिए केरल की स्मारिकाएं

केले के कुरकुरे कतले

जब आप केरल भ्रमण के लिए आएंगे, मेरा विश्वास है कि तब आप केले के कुरकुरे चिप्स अथवा कतलों को चबाते हुए ही पर्यटन स्थलों का आनंद लेंगे। क्यों ना हो? ये चिप्स केरल में सर्वत्र उपलब्ध हैं, वह भी ताजे ताजे कढ़ाई से निकले हुए। वे अनेक स्वादों में भी उपलब्ध हैं। आप उन्हे वहाँ भी खा सकते हैं तथा अपने साथ भी जितना चाहें ला सकते हैं।

केरल के प्रसिद्ध केले के चिप्स
केरल के प्रसिद्ध केले के चिप्स

आपके नगर में निवास करते केरल के किसी प्रवासी को यदि आपने ये चिप्स लाकर दिए तो वह आपको आशीषों  से सराबोर कर देगा।

कसावा (टैपियोका) के चिप्स

कसावा (टैपियोका) का सम्पूर्ण भारत में प्रयोग किया जाता है। आप सोच रहे होंगे कि यह मैं क्या कह रही हूँ। जी हाँ, आपने साबूदाना का नाम अवश्य सुना होगा। साबूदाना टैपियोका से ही बनाया जाता है। किन्तु इसके मूल से चिप्स केवल दक्षिण भारत में, विशेषतः केरल में बनाए जाते हैं। ये पतले कुरकुरे चिप्स किंचित कड़क होते हैं। इनका स्वयं का स्वाद अधिक नहीं होता। इन्हे नमक व मसाले डालकर स्वादिष्ट बनाया जाता है।

केले के चिप्स के समान आप ये चिप्स भी अपने साथ ले जा सकते हैं तथा परिजनों का मन जीत सकते हैं।

हलवा

केरल का यह सुप्रसिद्ध हलवा अनेक रंगों एवं स्वादों में आता है। कुछ हल्के रंगों के तथा कुछ गहरे रंगों के होते हैं। यह हलवा मेवों से भरा जेली के समान दिखता है। गहरे रंग के हलवे में गुड का प्रयोग किया जाता है तथा हल्के रंगों के हलवे में शक्कर का। अन्य सामग्री हैं चावल का आटा, नारियल, सूखे मेवे, इलायची इत्यादि। घी तथा सूखे मेवे से भरपूर यह हलवा किंचित गरिष्ट हो सकता है किन्तु इसका स्वाद अत्यंत सुंदर होता है।

आप हलवे के विभिन्न प्रकारों का स्वाद चखें तथा जो पसंद आ जाए वह अपने साथ अवश्य लाएं। इस सुझाव के लिए आप हमें धन्यवाद अवश्य देंगें।

केरल की चाय तथा कॉफी

आप जब भी मुन्नार जाएंगे तथा वहाँ के सुंदर चाय के बागानों के बीच पैदल सैर करेंगे तो आप वहाँ के  बागानों से स्थानीय चाय अवश्य क्रय करेंगे। मुन्नार की स्मारिका के लिए इससे अधिक उपयुक्त अन्य कोई वस्तु नहीं हो सकती। मेरा यह सुझाव है कि आप अपने मुन्नार भ्रमण के समय चाय के बागानों के साथ चाय के किसी कारखाने का अवलोकन अवश्य करें। जिस चाय को आप दिन में दो बार पीते हैं, वह कारखाने में कैसे तैयार होती है, यह देखना अत्यंत रोमांचक होता है। वे आपको चाय प्रोद्योगिकी के विभिन्न चरणों का विवरण देंगे तथा भिन्न भिन्न प्रकार के चाय की भी जानकारी देंगे। इस जानकारी तथा आपके स्वाद के आधार पर आप चाय की पत्ती का चयन कर सकते हैं।

यदि आप दक्षिण भारत के नागरिक नहीं हैं तो आप यहाँ से फ़िल्टर कॉफी भी क्रय कर सकते हैं। अन्यथा दक्षिण भारत में विभिन्न प्रकार की कॉफी के लिए भिन्न भिन्न स्थल हैं।

कलाकृतियों के रूप में स्मारिकाएं

भारत की दो विशेष शास्त्रीय नृत्य कला शैलियों तथा अनेक प्रकार की लोक कला शैलियों का संबंध केरल से है। आप केरल के किसी भी भाग में भ्रमण करें आपको इनकी झलक किसी ना किसी रूप में अवश्य दृष्टिगोचर हो जाएगी।

कथकली मुखौटे

कथकली मूलतः केरल की शास्त्रीय नृत्य शैली है जो अपने विस्तृत साज-श्रंगार तथा रंग-बिरंगे मुखौटों के लिए प्रसिद्ध है। नर्तकों को अपने अलंकरण तथा विस्तृत वेशभूषा में सज्ज होने के लिए घंटों व्यतीत करने पड़ते हैं। तब जाकर वे मंच पर प्रदर्शन करने के लिए उतरते हैं जहाँ वे अत्यंत भारी वेशभूषा व मुखौटे धारण कर नृत्य करते हैं।

कथकली के मुखौटे - केरल के उपहार
कथकली के मुखौटे

यदि आपको उनके साज-सज्जा कक्ष में जाने का अवसर प्राप्त हो तो आप उनके इस कष्टदायी अलंकरण को देख सकते हैं। तब आप उनके नृत्य की अधिक न्यायपूर्वक सराहना कर सकते हैं। आप नर्तकों के नृत्य एवं उनकी वेशभूषा से इतने प्रभावित हो जाएंगे कि उनकी स्मृति में एक कथकली मुखौटा अवश्य ले लेंगे। कथकली मुखौटे भिन्न भिन्न वस्तुओं से तथा भिन्न भिन्न आकार के बनाए जाते हैं। मैंने अपने लिए एक मुखौटा नारियल की जटा द्वारा बनवाया था। छोटे से छोटा मुखौटा यदि लें तो वह चाबी के छल्ले के रूप में होता है।

नेट्टिपट्टम

केरल हाथियों अथवा गजों का प्रदेश है। प्राचीन काल में मानव एवं गज आपस में शांतिपूर्वक जीवन जीते थे। ये गज मंदिरों के अभिन्न अंग होते थे। मंदिरों के उत्सवों में इन्हे विस्तृत रूप से अलंकृत किया जाता था। उनके मस्तक पर जो विस्तृत अलंकरण होता था उसे नेट्टिपट्टम कहा जाता है। उसे सूक्ष्मता से उत्कीर्णित किया जाता था। संग्रहालय में आप इस प्रकार के प्राचीन नेट्टिपट्टम देख सकते हैं।

नेट्टीपट्टम - गज श्रृंगार
नेट्टीपट्टम – गज श्रृंगार

इन्ही नेट्टिपट्टम के लघु अवतार केरल भ्रमण पर आए पर्यटकों के प्रिय स्मारिकाएं हैं। आप प्रत्येक स्मारिका दुकान में सुव्यवस्थित प्रकार से प्रदर्शित इन नेट्टिपट्टम की अनेक पंक्तियाँ देखेंगे। पारंपरिक रूप से ये नेट्टिपट्टम सुनहरे रंग के होते हैं जिन्हे लाल रंग से बांधा जाता है। इनके निचले भाग पर घंटियाँ लटकती हैं।

कई पर्यटक यही नेट्टिपट्टम केरल की स्मृति के रूप में ले जाते हैं तथा अपने भवन एवं गाड़ियों को सजाते हैं। यदि आप इस समय केरल भ्रमण की योजना नहीं बना रहे हैं तो आप इन्हे अमेजॉन से भी ले सकते हैं।

नेट्टूर पेट्टी  

नेट्टूर पेट्टी एक पारंपरिक जवाहरात की पेटी है। लकड़ी की बनी इस पेटी पर पीतल द्वारा नक्काशी की जाती है। कुछ पेटियों पर चित्रकारी भी देखने को मिलती है। नेट्टूर पेट्टी अन्य जवाहरात पेटियों से अपने आकार के कारण भिन्न प्रतीत होती है। इसका आधार आयताकार होता है किन्तु इसका ऊपरी भाग लगभग शुंडाकार होता है। इस के ऊपर पीतल की एक कड़ी होती है। इसका सम्पूर्ण आकार मुझे किसी मंदिर के लघु प्रतिरूप के समान प्रतीत होता है।

मनमोहक नेत्तूर पेटी
मनमोहक नेत्तूर पेटी

नेट्टूर पेट्टी को अपने घर पर रखना हो तो इसके लिए विशेष स्थान का प्रयोजन करना होगा। मेरी इच्छा है कि मैं भी एक नेट्टूर पेट्टी अपने घर पर रखूँ जिसमें मैं अपने लधु कलाकृतियों को सहेज कर रखूँ तथा अपने परिजनों को दिखाऊँ।

नेट्टूर पेट्टी के कुछ सुंदर संग्रह इस वेबस्थल पर देखें।

भित्तिचित्र

केरल के मंदिरों में एक विशेष प्रकार की चित्रकला शैली दृष्टिगोचर होती है। उनमें नारंगी रंग के अनेक उतार-चढ़ाव होते हैं। इससे पूर्व मैंने इस प्रकार के भित्तिचित्र त्रिवेंद्रम के पद्मनाभस्वामी मंदिर तथा कलदी के मंदिरों में देखा था।

केरल शैली में सरस्वती का भित्तिचित्र - केरल के उपहार
केरल शैली में सरस्वती का भित्तिचित्र – केरल के उपहार

आप केरल की स्मारिका के रूप में इन भित्तिचित्रों के प्रतिरूप तथा उसी शैली में रचित अन्य आधुनिक चित्र ले सकते हैं। यहाँ एक प्रदर्शनी से मैंने लकड़ी के कुछ छोटे आभूषण खरीदे थे जिन पर इसी केरल भित्तिचित्र शैली में चित्रकारी की हुई थी। मैं जब भी उन्हे धारण करती हूँ, वे मुझे केरल के मंदिरों में पहुँचने का आभास प्रदान करते हैं। इसीलिए ये आभूषण मुझे अत्यंत प्रिय हैं। मुझे प्रसन्नता है कि केरल में अब भी अनेक कारीगर हैं जो इस कला शैली को जीवंत व सम्पन्न रखे हुए हैं।

लकड़ी की नौकाएं

काष्ठ की नौकाएं - केरल के उपहार
काष्ठ की नौकाएं – केरल के उपहार

संकरी लंबी सर्प नौकाएं केरल की विशेष पहचान हैं। प्रत्येक वर्ष अनेक सर्प नौकाएं वार्षिक सर्प-नौका दौड़ में भाग लेती हैं। शेष समय ये केरल के अप्रवाही जल में लंगर डाले रहती हैं। आप जब अप्रवाही जल में नौका विहार के लिए जाएंगे तब आप ऐसी कई नौकाओं को देख सकते हैं। अनेक उच्च-स्तरीय अतिथिगृह एवं रिज़ॉर्ट ऐसी नौकाओं को केरल की परंपरा प्रदर्शित करने के लिए प्रयोग करते हैं। हाँ, इतनी बड़ी नौका तो आप क्रय कर अपने घर पर नहीं रख सकते। किन्तु आप इनके लघु प्रतिरूप अवश्य ले जा सकते हैं।

मैंने भी नौका का एक प्रतिरूप यहाँ से लिया था जिसे मैंने अपने घर में प्रदर्शित कर रखा हुआ है। इसके भीतर मैंने केरल के ही खड़े मसाले रखे हैं। दोनों ही केरल की विशेष सौगात हैं।

नारियल के कवच से बनी कलाकृतियाँ

यूँ तो नारियल के कवच से बनी कलाकृतियाँ आप भारत के सभी तटीय क्षेत्रों में देखेंगे, किन्तु प्रत्येक क्षेत्र की कलाकृतियों तथा इन की कलाशैली में भिन्नता होती है। केरल से आप नारियल के कवच से बनी अनेक प्रकार की कलाकृतियाँ तथा पात्र स्मारिका के रूप में ले सकते हैं। पर्यावरण के अनुकूल यह एक उत्तम उपहार होगा।

सीपियों एवं शंखों से बनी कलाकृतियाँ

प्रत्येक छोटे-बड़े स्मारिका दुकानों में आप सीपियों एवं शंखों से बनी अनेक कलाकृतियाँ देखेंगे। कारीगर सीपियों तथा शंखों का प्रयोग कर अत्यंत सुंदर कलाकृतियाँ एवं पात्र बनाते हैं। एक ओर सीपियों एवं शंखों को समुद्र तटों से अन्यत्र ले जाना पर्यावरण के लिए हानिकारक है, वहीं दूसरी ओर उनसे निर्मित ये कलाकृतियाँ अनेक छोटे कलाकारों एवं व्यापारियों के जीवन-यापन का साधन भी हैं। अतः इन कलाकृतियों के क्रय का अंतिम निर्णय आपको ही लेना होगा।

पारंपरिक कसवू साड़ियाँ

यदि आप केरल के किसी माता एवं बहन का स्मरण करें तो आप मोतिया रंग की काठ वाली साड़ी धारण की हुई किसी भद्र स्त्री की छवि देखेंगे। ये साड़ियाँ केरल की पारंपरिक कसवू साड़ियाँ हैं। ये साड़ियाँ दो प्रकार की होती हैं। पहली सामान्य ५ गज की साड़ी होती है। कसवू साड़ी का दूसरा प्रकार है मुन्डु, जो तीन टुकड़ों में धारण किया जाता है। यहाँ आप कसवू साड़ियों के कुछ अप्रतिम नमूने देख सकते हैं।

मोहिनी अट्टम नृत्य में कसवू साडी
मोहिनी अट्टम नृत्य में कसवू साडी

अधिकतर कसवू साड़ियाँ हथकरघे पर बुनी जाती है। कुछ साड़ियों में शुद्ध सोने की काठ होती है। यदि क्षमता हो तो ये साड़ी एक अतुल्य उपहार सिद्ध हो सकती है। अन्य कसवू साड़ियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की तथा विस्तृत मूल्य सीमा में उपलब्ध हैं। पत्नी, माता   एवं बहनों के लिए यह सर्वोत्तम उपहार है। आधुनिकता ने यहाँ भी प्रवेश करना आरंभ कर दिया है। अब आप इन साड़ियों में बूटियों तथा काठ व पल्लू में रंगों का समावेश भी देख सकते हैं। किन्तु प्राधान्यता सदैव सुनहरे एवं मोतिया रंग की ही होती है।

कसवू में पुरुषों के लिए भी मुन्डु उपलब्ध है जो दो भागों में होता है।

आरमल कन्नाडी

आपने कभी चिंतन किया है कि कांच के दर्पणों के आविष्कार से पूर्व लोग अपनी छवि कहाँ देखते थे? इसका उत्तर है धातुई दर्पण। हाथों से बने ये दर्पण ना केवल छवि देखने में सहायक होते थे, अपितु अप्रतिम कलाशैली के द्योतक भी होते थे। केरल में अरणमूल नामक एक नगर है जहाँ इस प्रकार के धातुई दर्पण बनाए जाते हैं। स्थानीय मान्यता है कि वैदिक काल से ऐसे धातुई दर्पणों का प्रयोग किया जा रहा है। कुछ किवदंतियों में इन्हे पार्वती का दर्पण भी कहा गया है।

आरमल कन्नाडी - धातु दर्पण
आरमल कन्नाडी – धातु दर्पण

यह उत्तम चमकदार दर्पण जिस धातु से निर्मित किया जाता है वह एक मिश्र धातु है। दर्पण को धातु के भिन्न भिन्न आकार के चौखट में मड़ा जाता है तथा उन्हे सुंदरता से उत्कीर्णित किया जाता है।

आरमल कन्नाडी केरल की अप्रतिम स्मारिका है किन्तु यह एक मितव्ययी वस्तु नहीं है। इसका मूल्य ३०००/- रुपयों से आरंभ होता है। इनके कुछ नमूने आप अमेजॉन में देख सकते हैं।

जूट के उत्पाद

नारियल के रेशे से रस्सी
नारियल के रेशे से रस्सी

जूट की वस्तुएं बनाना केरल का एक विशाल लघु-उद्योग है। इनमें नरियाल के ऊपर की जटाओं का प्रयोग किया जाता है। जब आप अप्रवाही जल में नौका विहार पर जाएंगे, तब आप अनेक लोगों को इस उद्योग में संलग्न पाएंगे। नारियल की जटाओं को अप्रवाही जल में कई दिनों तक भिगोकर सुखाया जाता है। इससे वे जूट तैयार करते हैं। इस जूट से वे रस्सी, चटायी, टोकरी, थैली, गृहसज्जा की वस्तुएं तथा कलाकृतियाँ बनाते हैं। ये केरल की अप्रतिम स्मारिकाएं हैं।

केरल के उपहार अथवा स्मारिकाओं की सूची तैयार करते समय यदि मुझसे कोई वस्तु छूट गई हो तो इससे मुझे अवश्य अवगत कराएं। अपनी प्रतिक्रिया निम्न टिप्पणी खंड में लिखें। प्रतीक्षारत।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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वडक्कन्नाथन मंदिर केरल के त्रिचूरपूरम का उत्कृष्ट शिव मंदिर https://inditales.com/hindi/keral-thrisssur-vadakkumnatha-mandir/ https://inditales.com/hindi/keral-thrisssur-vadakkumnatha-mandir/#respond Wed, 21 Jul 2021 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2354

वडक्कन्नाथन मंदिर केरल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह मंदिर केरल के त्रिचूर में स्थित है जो इस राज्य का एक महत्वपूर्ण धार्मिक नगर है। ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर परशुराम द्वारा, प्राचीन केरल में स्थापित १०८ शिव मंदिरों में से एक है। यह मंदिर १००० वर्षों से भी […]

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वडक्कन्नाथन मंदिर केरल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह मंदिर केरल के त्रिचूर में स्थित है जो इस राज्य का एक महत्वपूर्ण धार्मिक नगर है। ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर परशुराम द्वारा, प्राचीन केरल में स्थापित १०८ शिव मंदिरों में से एक है। यह मंदिर १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन माना जाता है।

वडक्कन्नाथन मंदिर का उद्भव

श्री वडक्कन्नाथन मंदिर - त्रिचूर केरल
श्री वडक्कन्नाथन मंदिर – त्रिचूर केरल

किवदंतियों एवं लोक कथाओं के अनुसार, इस मंदिर की स्थापना परशुराम ने की थी। ऋषि जमदग्नि एवं रेणुका के पुत्र परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। ऋषि जमदग्नि एवं रेणुका के पास सुरभि नाम की एक गाय थी जो सबकी कामना पूर्ण करती थी। एक समय एक राजा ने ऋषि जमदग्नि से उस गाय की मांग की जिसे ऋषि जमदग्नि ने अस्वीकृत कर दिया। तदनंतर, जब ऋषि जमदग्नि स्नानादि के लिए आश्रम से बाहर गए तब राजा सुरभि गाय को चुरा कर ले गया। इस घटना की जानकारी प्राप्त होते ही क्रोधित परशुराम सुरभि की खोज में निकल पड़े। राजा से युद्ध कर करते हुए, अंततः उसका वध किया तथा सुरभि को आश्रम में वापिस लेकर आये।

जब परशुराम ने अपने पिता ऋषि जमदग्नि को सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया तब उनके पिता ने उन्हे अपने इस पाप का प्रायश्चित करने की सलाह दी तथा उन्हे तीर्थयात्रा पर जाने के लिए कहा। तीर्थयात्रा से वापिस लौटने पर परशुराम ने पाया कि प्रतिशोध की भावना से क्षत्रिय राजाओं ने उनके पिता का वध कर दिया था तथा आश्रम को भी तहस-नहस कर दिया था। प्रतिशोध की अग्नि में तपते परशुराम ने अपना परशु उठाया तथा अनेक क्षत्रिय राजाओं का वध कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि २१ बार उन्होंने इस धरती पर से क्षत्रियों को समाप्त कर दिया था। उन्होंने अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए एक यज्ञ किया तत्पश्चात अपने परशु को समुद्र में फेंक दिया। ऐसी मान्यता है कि इसी के फलस्वरूप भारत के पश्चिमी तटवर्ती मैदानों की उत्पत्ति हुई जिसे हम कोंकण के नाम से जानते हैं।

स्थानीय किवदंती

श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का एक द्वार
श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का एक द्वार

केरल राज्य की एक स्थानीय किवदंती के अनुसार, यज्ञ के पश्चात अनेक ऋषि मुनियों ने परशुराम से दक्षिणा में एकांत भूमि की याचना की। तब उन्होंने एक सुरपा अर्थात् सुपा गोकर्ण से दक्षिण की ओर फेंका। इसके फलस्वरूप समुद्र के भीतर से एक विशाल भूखंड प्रकट हुआ। इसे सुर्पारक कहा गया। केरल इसी भूखण्ड का वर्तमान नाम है। तत्पश्चात परशुराम कैलाश गए व शिव एवं पार्वती से अनुरोध किया कि वे इस नवीन भूखंड में वास कर उसे अनुग्रहित करें ।

मान्यता है कि भगवान शिव ने इस अनुरोध को सहर्ष स्वीकारा एवं पार्वती, गणेश व कार्तिकेय समेत परशुराम के साथ उस भूखंड पर पधारे। उन्होंने स्वयं के वास के लिए जिस स्थान का चयन किया वही वर्तमान त्रिशूर है। कुछ काल यहाँ व्यतीत कर भगवान शिव सपरिवार अंतर्धान हो गए। परशुराम ने उस स्थान पर, एक विशाल वट वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग देखा जिसके भीतर से उज्ज्वल प्रकाश प्रकट हो रहा था। यह स्थान श्री मूलस्थानम के नाम से जाना जाता है अर्थात् वह स्थान जहाँ भगवान शिव ने स्वयं को विग्रह के रूप में प्रकट किया। यह लिंग वडक्कन्नाथन मंदिर के पश्चिमी गोपुरम के बाह्य भाग में स्थित है।

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वडक्कन्नाथन मंदिर की वास्तुकला

मूल्स्थानम - जहाँ शिवलिंग की प्रथम स्थापन हुई थी
मूल्स्थानम – जहाँ शिवलिंग की प्रथम स्थापन हुई थी

शिवलिंग को अनेक वर्षों तक मूलस्थानम में रखा गया था। कालांतर में कोचीन राज्य के शासकों ने एक मंदिर का निर्माण किया तथा शिवलिंग को उस मंदिर में स्थानांतरित किया। यह मंदिर एक छोटी पहाड़ी पर, एक गोलाकार मैदान के मध्य स्थित है जहां से त्रिचूर नगर दृष्टिगोचर होता है। स्थानीय भाषा में इस मैदान को टेक्किनाडु कहा जाता है जिसका अर्थ है सागौन का वन। ९ एकड़ के क्षेत्र में निर्मित यह मंदिर शिलाओं की विशाल भित्तियों से घिरा हुआ है। मंदिर में ४ भव्य गोपुरम हैं जो चार प्रमुख दिशाओं, पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण दिशाओं में स्थित हैं। दर्शनार्थियों के लिए मुख्य द्वार पूर्वी एवं पश्चिमी गोपुरम के भीतर से है जबकि उत्तरी व दक्षिणी गोपुरम सामान्यतः बंद रहते हैं। दक्षिणी गोपुरम को केवल ‘त्रिचूर पूरम’ के समय ही खोला जाता है जो अप्रैल मास में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण उत्सव है।

गोपुरम

इस मंदिर के गोपुरम बहु-तलीय संरचनाएँ हैं जिन्हे ग्रेनाइट एवं खपरैलों का प्रयोग कर बनाया गया है। इस मंदिर की वास्तुशैली केरल में प्रचलित अन्य मंदिरों की ठेठ वास्तुशैली से साम्य रखती है जिसमें लकड़ी एवं खपरैलों का प्रयोग कर पगोडा का आकार दिया गया है। अनेक मंदिरों से भरे परिसर के दो भाग हैं, भीतरी परिसर एवं बाह्य परिसर। भीतरी परिसर एक छोटी भित्ति से संरक्षित है जिसके मध्य में मुख्य वडक्कन्नाथन मंदिर स्थित है। साथ ही पार्वती, शंकराचार्य, श्री राम एवं गणेश को समर्पित छोटे मंदिर भी हैं। बाह्य परिसर से भीतरी परिसर में जाने के लिए एक गलियारा है जिसे चुट्टम्बलम कहते हैं। गलियारे में, उत्तरी भित्ति पर वासुकि-शयन का भित्ति चित्र है जिसमें भगवान शिव को नागराज वासुकि के ऊपर शयन करते दर्शाया गया है। यह नंदी एवं नृत्यनाथ के चित्रों के पश्चात है। नृत्यनाथ सोलह हस्तों के शिव की नृत्य में मग्न मुद्रा है। भगवान की प्रतिमा के साथ इन दो छवियों की भी पूजा अर्चना की जाती है।

शिवलिंग

श्री वडक्कन्नाथन का मंदिर गोलाकार है जिसमें अनेक स्तंभ एवं एक छत है। श्री वडक्कन्नाथन के लिंग पर वर्षों की नियमित आराधना के फलस्वरूप घी की इतनी परतें चढ़ी हुई हैं कि मूल लिंग दिखाई नहीं देता है। ऐसा कहा जाता है कि यह घी कभी पिघलता नहीं है। ना ग्रीष्म ऋतु, ना ही गर्भगृह में प्रज्ज्वलित दीपकों की ऊष्मा घी को पिघलाती है। आश्चर्य है कि अनेक वर्षों से अर्पित किए जा रहे घी की कोई दुर्गंध भी नहीं होती है। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार यह घृत भगवान शिव के वास, कैलाश पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है।

शिवलिंग स्वर्ण के तेरह अर्धचंद्रों से अलंकृत है। उसके ऊपर नागदेव के तीन फन हैं। देवी पार्वती की प्रतिमा भी इसी मंदिर के भीतर, मंदिर के पृष्ठभाग में स्थित है। शिव एवं पार्वती एक दूसरे के समक्ष नहीं हैं।  पार्वती की प्रतिमा लकड़ी की होने के कारण उनका अभिषेक केवल हल्दी द्वारा ही किया जाता है। उनके विग्रह में तीन नेत्र हैं। पार्वती जी की इस प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों व आभूषणों से अलंकृत किया हुआ है।

श्री राम का मंदिर

मंदिर परिसर के भीतर दो तलों पर पश्चिमाभिमुख मंदिर है जो भगवान श्री राम को समर्पित है। मंदिर की भित्तियाँ अप्रतिम भित्तिचित्रों द्वारा अलंकृत हैं। मुख्य मंदिर एवं राम मंदिर के मध्य एक गोलाकार मंदिर है जो श्री शंकरनारायण को समर्पित है। इस मंदिर का मुख भी उसी दिशा में है जिस दिशा में उपरोक्त दो मंदिर हैं। शंकरनारायण का विग्रह भगवान शिव एवं भगवान विष्णु का संयुक्त रूप है। उन्हे हरिहर भी कहा जाता है। विग्रह चतुर्भुज है, दाहिने दो हाथों में त्रिशूल व परशु है तथा बाएं दो हाथों में शंख व गदा है। मंदिर की भित्तियों पर महाभारत के विविध प्रसंगों को प्रदर्शित करते भित्तिचित्र हैं। इन तीनों मंदिरों की वास्तु वृत्ताकार है जिसका आधार गोलाकार एवं छत शंक्वाकार है। इन तीन मंदिरों के समक्ष लकड़ी के तीन मुखमंडप हैं।

महागणपति मंदिर

वडक्कन्नाथन एवं शंकरनारायण मंदिर के मध्य महागणपति को समर्पित एक पूर्व मुखी मंदिर है। यह मुख्य मंदिर के पाकगृह के समीप स्थित है जो शंकरनारायण मंदिर के पृष्ठभाग में है। गणपति का यह विग्रह चतुर्भुज है। मंदिर के उत्तर भाग में एक अन्य विग्रह है जो वेट्टक्योरिमगन देव को समर्पित है। वेट्टक्योरिमगन को भगवान शिव का आखेटक रूप माना जाता है जो इस मंदिर की रक्षा करते हैं। पीतल की एक बलि पीठिका है। भूमि पर चारों ओर दंडवत प्रणाम करते पुरुषों के शिल्प हैं।

भीतरी भित्ति एवं बाह्य भित्ति के मध्य स्थित परिसर में भी अनेक मंदिर हैं। बाह्य प्रकोष्ठ के भीतर पीपल के अनेक वृक्ष हैं। परिसर में एक प्रदक्षिणा पथ भी है। मंदिर के चारों ओर प्रदक्षिणा करते समय पूर्व निर्धारित नियमों का पालन करना आवश्यक है।

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बाह्य प्रकोष्ठ के मंदिर व संरचनाएं

बाह्य प्रकोष्ठ में स्थित विभिन्न मंदिर एवं संरचनाएं हैं:

कूतम्बलम अथवा नाट्यगृह

यह लकड़ी की एक विशाल संरचना है जहाँ कूथु, कोडियेट्टम एवं नंग्यारकूत जैसे केरल के प्राचीन नृत्य एवं कला शैलियों का वार्षिक प्रदर्शन किया जाता है।

गोपालकृष्ण अथवा गोसलकृष्ण

यह मंदिर भगवान कृष्ण के गोपाल अथवा ग्वाल रूप को समर्पित है। ऐसा कहा जाता है कि किसी समय यहाँ एक गोशाला भी थी।

शरा तीर्थम

उत्तरी भाग में एक गहरा कुआँ है। मान्यताओं के अनुसार, महाभारत युद्ध में जयद्रथ का वध करने के पश्चात अर्जुन प्रायश्चित करने यहाँ आए थे। बाण भेद कर उन्होंने इस कुएं की रचना की थी तथा इसमें गंगा नदी का जल भरा था।

वृषभ अथवा नंदिकेश्वर

यह मंदिर भगवान शिव के वाहन, नंदी को समर्पित है। यह मंदिर उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। इस मंदिर में नंदी शयनावस्था में स्थित हैं। इसीलिए मंदिर में सर्वप्रथम करतल ध्वनि कर उन्हे निद्रा से जगाया जाता है। यहाँ भक्तगणों द्वारा अपने वस्त्र का एक दोरा उन्हे अर्पित करने की प्रथा है।

परशुराम

उत्तर-पूर्वी छोर पर एक मंच है जो परशुराम को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि परशुराम इसी स्थान से अन्तर्धान हुए थे। उनकी आराधना में यहाँ एक दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है।

सिंहोदर

सिंहोदर, भगवान शिव के एक गण थे जिन्हे परशुराम के अनुरोध के पश्चात, केरल में शिव के लिए उपयुक्त स्थल की खोज करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। उपयुक्त स्थल के चयन के पश्चात सिंहोदर यहीं विश्राम करने लगे। भगवान शिव जब यहाँ आए तब उन्होंने अंतरंग परिसर के बाहर उसे स्थान प्रदान किया। ऐसा माना जाता है कि तब से सिंहोदर यहीं विराजमान है तथा मंदिर की रखवाली करते हैं। यहाँ एक प्रथा है जिसमें भक्तगण छोटे छोटे ठींकरों को एक छोटी गोलाकार शिला पर रखते हैं। इस शिला को बलिकल्लु कहा जाता है। यह मंदिर की रखवाली करने के उपलक्ष में सिंहोदर को बली अर्पित करने का प्रतीक है। आंतरिक भित्ति पर एक त्रिकोणीय छिद्र है जिसमें से भक्तगण वडक्कन्नाथन मंदिर को देख सकते हैं।

शास्ता मंदिर

दक्षिण-पूर्वी छोर पर एक छोटा सा मंदिर है जो शास्ता अर्थात् श्री अयप्पा को समर्पित है। मंदिर के पृष्ठभाग में एक स्थान है जो अत्यंत हरा-भरा है। ऐसी मान्यता है कि हनुमान द्वारा संजीवनी पर्वत को श्री लंका लेकर जाते समय, पर्वत से कुछ मिट्टी यहाँ गिर गई थी।

व्यास शिला

पीपल के एक वृक्ष के नीचे, चबूतरे पर व्यास ऋषि का एक लघु मंदिर है। व्यास ऋषि को महाभारत का रचयिता माना जाता है। भक्तगण इस चबूतरे पर अपनी उंगली से ‘ओम श्री महागणपतये नमः’ यह अदृश्य मंत्र लिखते हैं।

आदि शंकराचार्य

आदि शंकराचार्य को समर्पित एक मंदिर है। आदि शंकराचार्य ने यहाँ कुछ दिवस व्यतीत किए थे। इस मंदिर से संबंधित उनके जन्म की कुछ दंतकथाएं भी प्रचलित हैं।

सम्बोदरा

दक्षिण-पूर्वी छोर पर एक चबूतरा है जहाँ खड़े होकर, पूर्व की ओर मुख कर, आप श्री चिदंबरम को प्रणाम कर सकते हैं तथा दक्षिण की ओर मुख कर श्री रामेश्वरम को प्रणाम कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि चिदंबरम मंदिर के शिव के आनंद तांडव नृत्य का प्रतिबिंब रामेश्वरम में भी पड़ता है। ऐसी भी मान्यता है कि भगवान शिव के आनंद तांडव नृत्य का दर्शन सहस्त्र फनों वाले सर्प अनंतशेष ने यहीं से किया था।

अम्मदरा

इस चबूतरे पर ‘ऊरगत्तम्मा’ की आराधना की जाती है। ऊरगत्तम्मा जिन्हे कामाक्षी का एक स्वरूप माना जाता है, मंदिर से लगभग १० किलोमीटर स्थित ऊरकम में वास करती हैं। श्री राम के भ्राता, भरत, जिन्हे यहाँ श्री कूदलमाणिक्यस्वामी कहा जाता है, उनकी प्रतिमा मंदिर से २० किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित इरिंजलकुडा में स्थापित है। ऐसी मान्यता है कि ऊरकथम्मा एवं श्री कूदलमाणिक्यस्वामी, दोनों इस चबूतरे पर आकर मंदिर के सभी देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं।

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श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का संध्या दृश्य
श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का संध्या दृश्य

मंदिर में अर्चना के नियम

आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर में परिक्रमा अथवा प्रदक्षिणा करने के लिए कुछ नियम बांधे थे। भक्तगण पूर्ण श्रद्धा से इन नियमों का पालन करते हैं। बाह्य एवं अंतरंग प्रकोष्ठों में पूजा एवं प्रदक्षिणा के लिए दो प्रकार के नियम हैं।

बाह्य प्रकोष्ठ के प्रदक्षिणा एवं पूजन क्रम

क्रमवार प्रदक्षिणा एवं पूजन के नियम अंग्रेजी एवं मलयालम भाषा में कूतम्बलम के निकट लिखे हुए हैं। उनका क्रम इस प्रकार है:

  • श्री मूलस्थानम: पश्चिमी गोपुरम के बाह्य भाग में स्थित है।
  • गोपालकृष्णन
  • नंदिकेश्वर/वृषभ
  • परशुराम
  • सिंहोदर
  • काशीविश्वनाथ: सम्बोदरा मंदिर से उत्तर की ओर मुख कर वंदना करें।
  • संबुकुम्बलम: भीतरी भित्ति पर स्थित त्रिकोणीय छिद्र से श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का कलश दर्शन
  • सम्बोदरा: चिदंबरम एवं रामेश्वरम का वंदन
  • दक्षिणी गोपुरम: दक्षिण की ओर मुख कर कोडुंगल्लूर देवी की वंदना
  • अम्मदरा: ऊरगत्तम्मा देवी एवं श्री कूदलमाणिक्यस्वामी के दर्शन व वंदन
  • शंकरनारायण, श्री राम मंदिर एवं श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के कलश दर्शन
  • वेट्टक्योरिमगन: आखेटक शिव
  • व्यासशिला एवं उंगली से ‘ओम श्री महागणपतये नमः’ लिखना
  • अयप्पा अथवा शास्ता
  • मंदिर का पृष्ठभाग जहाँ संजीवनी पर्वत की मिट्टी गिरी थी
  • आदि शंकराचार्य की समाधि

बाह्य प्रकोष्ठ की प्रदक्षिणा के उपरांत भीतरी परिसर में जाने के लिए चुट्टमबलम में प्रवेश किया जाता है। तत्पश्चात चुट्टमबलम के भीतर इनके दर्शन किए जाते हैं:

  • वृषभ
  • वासुकि-शयन भित्तिचित्र। इसे फणीवरशयन भी कहा जाता है। यह एक दुर्लभ भित्तिचित्र है जिसमें भगवान विष्णु के अनंतशयन के समान भगवान शिव को वासुकि-शयन रूप में चित्रित किया गया है।
  • नृत्यनाथ भित्तिचित्र

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अंतरंग प्रकोष्ठ के प्रदक्षिणा एवं पूजन क्रम

भीतरी परिसर में प्रदक्षिणा एवं दर्शन का क्रम इस प्रकार है। कुछ स्थानों पर दर्शन की पुनरावृत्ति इस क्रम का ही भाग है।

  • श्री वडक्कन्नाथन
  • पार्वती
  • श्री गणेश
  • श्री शंकरनारायण
  • श्री राम
  • श्री शंकरनारायण
  • श्री गणेश
  • पार्वती
  • श्री वडक्कन्नाथन
  • श्री गणेश
  • श्री शंकरनारायण
  • श्री राम
  • श्री शंकरनारायण
  • श्री राम
  • श्री शंकरनारायण
  • श्री गणेश
  • पार्वती
  • श्री वडक्कन्नाथन

श्री वडक्कन्नाथन मंदिर

इस मंदिर से संबंधित अनेक किवदंतियाँ प्रचलित हैं। उन किवदंतियों में से एक आदि शंकर के जन्म से संबद्ध है। कलदी के शिवगुरु भट्ट एवं आर्यम्बा को दीर्घ काल तक संतान प्राप्ति नहीं हुई थी। वे त्रिचूर के श्री वडक्कन्नाथन मंदिर गए तथा अपने दिवस पूजा व ध्यान में व्यतीत करने लगे। एक दिवस स्वप्न में भगवान शिव ने उन्हे दर्शन दिए तथा वर प्रदान किया। किन्तु भगवान शिव ने उनके समक्ष एक बंधन भी रखा। उन्हे विद्वान व बुद्धिमान किन्तु अल्पायु पुत्र अथवा दीर्घायु किन्तु सामान्य बुद्धि के पुत्र में से एक का चयन करने का बंधन रखा। उस दम्पत्ति ने विद्वान व बुद्धिमान किन्तु अल्पायु पुत्र का चयन किया। एक वर्ष के भीतर ही उन्हे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। भगवान शिव के वरदान स्वरूप पुत्र का नामकरण उन्होंने शंकर किया।

मंदिर के बाह्य परिसर में आदि शंकर की समाधि निर्मित की गई है।

नृत्यनाथ का भित्तिचित्र

मंदिर परिसर के भीतर, चुट्टमबलम के निकट स्थित नृत्यनाथ अथवा नटराज के भित्तिचित्र से संबंधित भी एक दंत कथा प्रचलित है। श्री वडक्कन्नाथन का एक भक्त ख्यातिप्राप्त भित्ति-चित्रकार था। उसने तीन मास तक अथक परिश्रम कर नटराज का एक अप्रतिम भित्तिचित्र चित्रित किया था। किन्तु दूसरे ही दिवस एक नंबूदिरी भक्त ने अपने पूजन कमंडल के जल से उस भित्तिचित्र को धो दिया। इस प्रकार नंबूदिरी भक्त ने चित्रकार के तीन प्रयासों को नष्ट किया। तब चित्रकार ने मंदिर के अधिकारियों से शिकायत करने का निश्चय किया।

इसकी सूचना प्राप्त होती ही उस नंबूदिरी भक्त ने चित्रकार को सांत्वना दी तथा कहा कि एक दिवस वह उससे अधिक उत्कृष्ट भित्तिचित्र चित्रित करेगा जिसे देखकर सब दंग रह जाएंगे। उस नंबूदिरी भक्त ने भित्तिचित्र का चित्रण आरंभ किया जिसे देखने भक्तगण एकत्र हो गए। जब नटराज का चित्र पूर्ण हुआ, उस में नटराज जीवंत हो उठे। सबने उन्हे नेत्रों को हिलाते हुए नृत्य करते देखा। एक मिनट के पश्चात उस चित्र में नटराज पुनः जड़ हो गए। उस समय से इस भित्तिचित्र की भी वंदना की जाती है।

भक्तों को आशीर्वाद

श्री वडक्कन्नाथन के विषय में कहा जाता है कि ‘जैसी इच्छा वैसा आशीर्वाद’। इस संबंध में भी अनेक किवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक किवदंती एक वृद्ध व अशक्त ब्राह्मण के विषय में है जिसे काशी भ्रमण की तीव्र अभिलाषा थी। उसने काशी भ्रमण पर निकले एक नंबूदिरी से अपनी अभिलाषा व्यक्त की। उस समय काशी की यात्रा पैदल चल कर पूर्ण की जाती थी जो अत्यंत कष्टकर होती थी। ब्राह्मण की दैहिक स्थिति देख नंबूदिरी ने उसके निवेदन को अस्वीकृत कर दिया। तब उस वृद्ध ब्राह्मण ने श्री वडक्कन्नाथन की आराधना की तथा उनसे काशी दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। ऐसा माना जाता है कि भगवान ने स्वयं सिंहोदर को आज्ञा दी कि वह ब्राह्मण को काशी लेकर जाए।

सिंहोदर ब्राह्मण को एक सुरंग से काशी लेकर गया। अगले दिन जब ब्राह्मण घाट पर स्नान कर रहा था तब नंबूदिरी की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने ब्राह्मण से पूछा कि वह इतने शीघ्र काशी कैसे पहुँच। तब ब्राह्मण ने सम्पूर्ण वृत्तान्त उसे सुनाया कि कैसे श्री वडक्कन्नाथन के आशीर्वाद से वह यहाँ पहुँच पाया है। अब उस सुरंग के मुहाने पर एक शिला रखी गई है जो माना जाता है कि देवी पार्वती की आज्ञा पर सिंहोदर ने रखी थी। इसी परिपाटी के अंतर्गत भक्तगण उस शिला के ऊपर पत्थर रखते हैं।

श्री वडक्कन्नाथन से संबंधित ऐसी अनेक दंतकथाएं प्रचलित हैं।

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श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के उत्सव

श्री वडक्कन्नाथन मंदिर में मनाए जाने वाले प्रमुख उत्सव इस प्रकार हैं:

शिवरात्रि

शिवरात्रि श्री वडक्कन्नाथन मंदिर का प्रमुख उत्सव है जिसे फरवरी-मार्च मास में आयोजित किया जाता है। इस उपलक्ष्य में मंदिर परिसर में अनेक सांस्कृतिक एवं संगीतमय कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दिन मंदिर के सम्पूर्ण परिसर को प्रकाशमान किया जाता है। मंदिर के द्वार सम्पूर्ण रात्रि खुले रहते हैं। श्रीफल के जल एवं घी से भगवान का अनवरत अभिषेक किया जाता है। किन्तु इस दिन कोई शोभायात्रा आयोजित नहीं की जाती है।

आनाऊट्ट

अन्नऊटू - हाथियों को भोजन कराने के प्रथा
अन्नऊटू – हाथियों को भोजन कराने के प्रथा

यह इस मंदिर के बड़े उत्सवों में से एक है जिसमें हाथियों को भोजन अर्पण किया जाता है। यह उत्सव जुलाई मास में आता है। मलयालम पंचांग के अनुसार यह उत्सव करकिडगम मास के प्रथम दिवस मनाया जाता है। इस दिन महागणपति होम का आयोजन किया जाता है। बड़ी संख्या में भक्तगण मंदिर में गज पूजा के लिए आते हैं तथा यहाँ एकत्रित अनेक हाथियों को भोजन अर्पित करते हैं।

त्रिचूर पूरम

श्री वडक्कन्नाथन मंदिर में त्रिचूर पूरम उत्सव
श्री वडक्कन्नाथन मंदिर में त्रिचूर पूरम उत्सव

आसपास के सभी मंदिरों के विभिन्न विग्रहों को श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के प्रांगण में लाकर विशाल सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन प्रतिवर्ष मलयालम पंचांग के मेढम मास में किया जाता है जो अंग्रेजी पंचांग के अप्रैल में आता है। यह केरल राज्य में आयोजित सभी पूरम उत्सवों में से सर्वाधिक भव्य उत्सव है। पूरम उस मलयालम मास का नक्षत्र है जिसमें यह उत्सव मनाया जाता है। इस दिन मध्य केरल के मंदिरों में, संबंधित भगवान की विशेष वंदना का, वार्षिक उत्सव आयोजित किया जाता है। हाथियों को सजा-सवाँरकर, अधिष्ठात्र देवों की उत्सव मूर्तियों को उन पर बिठाकर भव्य शोभायात्रा यात्रा निकाली जाती है। वाद्य यंत्रों का बेजोड़ सामूहिक प्रभाव इस शोभायात्रा को अत्यंत अद्भुत एवं अद्वितीय बना देते हैं। यह उत्सव नवंबर मास से आरंभ होकर मई मास तक चलता है। इस समयावधि में अनेक उत्सव आयोजित होते हैं किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव त्रिचूर पूरम है।

शक्तन थमपुरण

पूरम २०० वर्ष प्राचीन उत्सव है जिसका आरंभ राजा राम वर्मा ने किया था। राजा राम वर्मा कोचीन के राजा थे तथा शक्तन थमपुरण के नाम से लोकप्रिय थे। उन्होंने श्री वडक्कन्नाथन मंदिर के चारों ओर स्थित सभी दस मंदिरों को एकीकृत किया था तथा इस उत्सव को एक सामूहिक उत्सव बनाने के लिए अनेक कदम उठाए थे। पूरम उत्सव की सम्पूर्ण प्रक्रिया को उन्होंने सूक्ष्मता से नियोजित किया। अब भी बिना किसी परिवर्तन के सम्पूर्ण प्रक्रिया उसी प्रकार पूर्ण की जाती है।

राजा राम वर्मा ने मंदिरों को दो समूहों में बांटा था, पूर्वी समूह तथा पश्चिमी समूह। सभी मंदिरों की शोभायात्रा श्री वडक्कन्नाथन मंदिर तक जाती है तथा वंदना अर्पण करती है। यह सात दिवसों का उत्सव है जिसका आरंभ प्रत्येक मंदिर में ध्वज फहराकर किया जाता है। साथ ही आतिशबाजी का प्रदर्शन कर उत्सव आरंभ होने की घोषणा की जाती है। उत्सव के चौथे एवं पाँचवें दिवस, मंदिरों के दोनों समूह अपने आभूषणों तथा गज अलंकरणों का प्रदर्शन करते हैं। तत्पश्चात पूरम अथवा महासम्मेलन का आयोजन होता है।

नैतिकावु भगवती देवी

पूरम उत्सव से एक दिवस पूर्व, मंदिरों के पश्चिमी समूह से नैथिकव्वु भगवती देवी श्री वडक्कन्नाथन मंदिर पहुँचती हैं तथा भगवान शिव को श्रद्धा सुमन अर्पित करती हैं। तत्पश्चात, दक्षिणी गोपुरम का द्वार खोलती हैं तथा मूलस्थानम जाती हैं। वहाँ कोचीन देवास्वोम मण्डल के प्रतिनिधि उनका स्वागत करते हैं। इसके पश्चात तीन शंखनाद कर पूरम की घोषणा की जाती है।

३६ घंटों के विस्तृत पूरम उत्सव में कार्यक्रम सारणी का कठोरता से पालन किया जाता है। अपने अपने अलंकृत हाथियों पर सवार, सभी देवी-देवता पूर्व निर्धारित पथ द्वारा ही श्री वडक्कन्नाथन को श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुंचते हैं। इस पथ का भी कठोरता से पालन किया जाता है। दिवस का आरंभ, सारणी के अनुसार, प्रत्येक देवी-देवता के पारंपरिक भव्य प्रवेश से होता है। अंततः, आतिशबाजी के प्रदर्शन द्वारा उत्सव का समापन किया जाता है। यह अत्यंत चकाचौंध भरा दृश्य होता है। दूर-सुदूर से भक्तगण एवं पर्यटक इस उत्सव में भाग लेने यहाँ आते हैं। इस आयोजन के भव्य समापन का अनुभव करने वे सम्पूर्ण रात्रि जागरण भी करते हैं।

सन् १९६४ से एक अन्य आकर्षण भी लोगों को यहाँ आकर्षित कर रहा है। वह है, दक्षिण भारत के सर्वाधिक विशाल व्यापार मेलों में से एक व्यापार मेले का आयोजन। यहाँ केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार, दोनों अपने खेमे लगाकर अपने विभिन्न उत्पादों की प्रदर्शनी लगाते हैं।

अवश्य पढ़ें: कलमेड्त्तुम पाट्टुम – केरल के मन्दिरों का एक मनमोहक अनुष्ठान

यात्रा सुझाव

  • इस मंदिर में भक्तों को परिधान के विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है। पुरुषों को केवल धोती धारण करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त देह पर कोई वस्त्र नहीं होता है। स्त्रियाँ साड़ी, केरल का लंबा लहंगा अथवा सलवार-कुर्ता पहन सकती हैं।
  • वडक्कन्नाथन मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ४ बजे से १० बजे तक तथा सायं ४:३० बजे से रात्रि ८:३० बजे तक का होता है।
  • वडक्कन्नाथन मंदिर परिसर के भीतर किसी भी प्रकार का छायाचित्रिकरण प्रतिबंधित है।
  • इस मंदिर के दर्शन का सर्वोत्तम समय पूरम उत्सव है। अपने ठहरने की सुविधाएं पूर्व निर्धारित एवं नियोजित कर लें। अन्यथा उत्सव काल में यहाँ पर्यटकों की संख्या अत्यधिक रहती है।
  • मंदिर के आसपास अनेक विश्रामगृह तथा अतिथिगृह हैं। अतः ठहरने की कोई समस्या नहीं है।
  • राज्य के अनेक भागों से तथा कुछ अंतरराज्यीय स्थलों से केरल राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों की सुविधाएं नियमित रूप से उपलब्ध हैं।
  • त्रिचूर रेल स्थानक सभी महत्वपूर्ण नगरों से जुड़ा हुआ है।
  • निकटतम विमानतल कोची एवं कालीकट हैं।
  • भ्रमण के लिए आसपास के अन्य महत्वपूर्ण स्थल हैं, कलदी, गुरुवायुर, इत्यादि।

यह संस्करण एक अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है। यदि विशेष उल्लेख ना हो तो सभी छायाचित्र भी उन्ही की देन हैं।


श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के सम्पन्न विरासतों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से भी अत्यंत लगाव है। उन्हे पाककला में भी विशेष रुचि है। वर्तमान में वे बंगलुरु में निवास करती हैं। उनकी तीव्र इच्छा है कि वे विरासत के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गुरुवायुर मंदिर – देवों के देस केरल में भगवान कृष्ण का वास https://inditales.com/hindi/https-www-inditales-com-guruvayur-mandir-thrissur-kerala/ https://inditales.com/hindi/https-www-inditales-com-guruvayur-mandir-thrissur-kerala/#comments Wed, 09 Dec 2020 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2085

श्री विष्णु के अवतार, गुरुवायुरप्पन को समर्पित यह मंदिर दक्षिणी राज्य केरल के गुरुवायुर नगरी में स्थित है। इस नगरी के अत्यंत लोकप्रिय मंदिरों में से एक, इस मंदिर का नाम भी नगरी के नाम पर ही है। इस मंदिर में गुरुवायुरप्पन को बाल कृष्ण के रूप में पूजा जाता है। गुरुवायुर को बहुधा भूलोक […]

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श्री विष्णु के अवतार, गुरुवायुरप्पन को समर्पित यह मंदिर दक्षिणी राज्य केरल के गुरुवायुर नगरी में स्थित है। इस नगरी के अत्यंत लोकप्रिय मंदिरों में से एक, इस मंदिर का नाम भी नगरी के नाम पर ही है। इस मंदिर में गुरुवायुरप्पन को बाल कृष्ण के रूप में पूजा जाता है। गुरुवायुर को बहुधा भूलोक वैकुंठ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है धरती पर विष्णु का पवित्र निवास। मंदिर का कार्यभार गुरुवायुर देवासम के ऊपर है जो मंदिर के सर्व कार्यकलापों का निर्देशन करती है। गुरुवायुर केरल के त्रिशूर जिले की एक सम्पन्न वसाहत है। यह त्रिशूर नगर से लगभग २९ किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित है।

भगवान कृष्ण के निवास गुरुवायुर मंदिर की दंत कथाएं

तीन शब्दों के संयोजन से गुरुवायुर शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। गुरु बृहस्पति के लिए गुरु, वायु देव से वायु तथा ऊर जिसका मलयालम भाषा में अर्थ होता है स्थान। ऐसा माना जाता है कि कलयुग के आरंभ में भगवान कृष्ण ने इस मूर्ति की स्थापना द्वारका में की थी। कालांतर में एक भयंकर बाढ़ में यह मूर्ति बह गई थी जिसे वायु की सहायता से बृहस्पति ने बचा लिया था। पुनः स्थापना हेतु स्थल खोजते वे केरल पहुंचे जहाँ भगवान शिव एवं माता पार्वती ने उन्हे उसी स्थान पर स्थापना की आज्ञा दी। गुरु बृहस्पति एवं वायु देव ने मूर्ति का अभिषेक कर उसका देवत्वारोपण किया। भगवान ने वरदान दिया कि गुरु बृहस्पति एवं वायु देव द्वारा स्थापना होने के कारण वह स्थान गुरुवायुर कहलाएगा।

गुरुवायुर मंदिर - केरल
गुरुवायुर मंदिर – केरल

नारद पुराण में उल्लेख किया गया है कि अर्जुन के पड़पोते जनमेजय के पिता परिक्षित को श्राप था कि उनकी मृत्यु सर्प दंश के कारण होगी। अंततः उनकी मृत्यु तक्षक नामक सर्पराज के दंश से ही हुई थी। प्रतिशोध स्वरूप जनमेजय ने विश्व के सभी सर्पों को मारने के लिए नागदाह यज्ञ करवाया जिसमें उसने मंत्रों द्वारा सैकड़ों नागों का आवाहन कर उन्हे अग्नि में समर्पित कर दिया था। किन्तु नागराज वासुकि की प्रेरणा एवं ब्राह्मण आस्तीक की तपस्या के कारण तक्षक एवं अन्य सर्प जीवित बच पाए थे। चूंकि जनमेजय ने सर्पों की हत्या की थी, वह कुष्ट रोग से ग्रसित हो गया था। गुरुवायुर मंदिर में पूजा-अनुष्ठान करने के पश्चात उसे अपने कुष्ठ रोग से मुक्ति मिली थी।

तमिल साहित्य कोकसन्देसम् में भी इस स्थान का क्षणिक उल्लेख किया गया है। उसमें इस स्थान पर श्री विष्णु के नौवें अवतार श्री कृष्ण के रूप में पूजे जाने का उल्लेख है। यहाँ श्री कृष्ण को गुरुवायुरप्पन कहा गया है जो वास्तव में कृष्ण का बाल रूप है।

गुरुवायुर मंदिर का इतिहास

श्री गुरुवायुरप्पन
श्री गुरुवायुरप्पन

सन् १७१६ में डच लोगों ने मंदिर पर आक्रमण कर इसे अग्नि में भस्म कर दिया था। सन् १७४७ में इसका पुनर्निर्माण किया गया। हैदर अली ने भी कालीकट एवं गुरुवायुर पर आक्रमण किया था किन्तु उसने मंदिर को हानि नहीं पहुंचाई थी। किन्तु उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने इस मंदिर को लूटा एवं निर्ममता से पूरे परिसर को अग्नि में झोंक दिया। किन्तु यथासमय पर आयी वर्षा ने मंदिर का बचाव किया। मंदिर की मूल प्रतिमा को भक्तों ने सही समय पर भूमि के भीतर छुपा दिया था। इस प्रकार प्रतिमा को बचा लिया गया था। कालांतर में मंदिर का पुनः निर्माण एवं नवीनीकरण किया गया। २० वीं. सदी तक मंदिर प्रशासन ने अनेक सुधार कार्य भी प्रतिपादित किए।

श्री गुरुवायुरप्पन की दैनिक पूजा-अनुष्ठान

आदि शंकर द्वारा नियोजित मंदिर के सभी दैनिक अनुष्ठानों का पूर्ण श्रद्धा से पालन किया जाता है। सभी वैदिक संस्कारों का अत्यंत शुद्धता से पालन किया जाता है तथा मंदिर की पवित्रता बनाए रखी जाती है। भक्तों के लिए मंदिर के पट प्रातः ३ बजे खुलते हैं तथा संध्या पूजन के पश्चात रात्रि १० बजे पट बंद कर दिए जाते हैं। मंदिर में तीन प्रमुख पूजा-अर्चनाएँ की जाती है जिन्हे प्रातः पूजन, दोपहर पूजन एवं संध्या पूजन कहा जाता है।

शेषशायी विष्णु - मंदिर की भित्तियों पे
शेषशायी विष्णु – मंदिर की भित्तियों पे

प्रातः पूजन(उषा पूजन)

निर्माल्यम्

प्रातः ३ बजे जब मंदिर के पट खुलते हैं, निर्माल्यम् द्वारा प्रातः पूजन का आरंभ होता है। भगवान के प्रथम दर्शन को निर्माल्य दर्शन कहते हैं। पिछली रात्रि की प्रगाड़ निद्रा के पश्चात जब भगवान को उठाया जाता है तब उनके निर्माल्य दर्शन का सौभाग्य भक्तों को भी प्राप्त होता है। उनके ऊपर पिछले दिवस के सर्व अलंकार होते हैं। इस दर्शन को सर्वाधिक पवित्र दर्शन माना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इस समय भगवान सर्वाधिक शक्तिशाली होते हैं।

वाकचारथ

निर्माल्य दर्शन के पश्चात तिल के तेल द्वारा भगवान को स्नान कराया जाता है। भगवान की प्रतिमा शिला द्वारा बनायी गई है जिसमें औषधिक गुण हैं। इसीलिए जिस तेल द्वारा भगवान को स्नान कराया जाता है, उसे प्रसाद माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह प्रसाद रूपी तेल पक्षाघात सहित अनेक असाध्य रोगों का समाधान करने में सक्षम है। मंदिर की विक्रय खिड़की में यह तेल उपलब्ध है। आप चाहें तो क्रय कर सकते हैं। स्नान के पश्चात भगवान की पूर्ति पर जड़ी-बूटियों के मिश्रण का लेप लगाया जाता है। इस मिश्रण को वाक कहा जाता है।

मालेर नैवेद्यम

लेप के पश्चात भगवान को जल स्नान कराया जाता है। इसके लिए मंदिर के जलकुंड से पुजारीजी तीर्थ जल लाते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव(रुद्र) ने परिवार सहित इस स्थान पर भगवान विष्णु की आराधना की थी। यही कारण है कि इस जलकुंड को रुद्रतीर्थम कहा जाता है। शंख द्वारा यह जल भगवान की मूर्ति पर अर्पित जाता है। अभिषेक के पश्चात मूर्ति को वस्त्रों एवं अलंकरणों से सजाते हैं। चंदन का लेप लगाते हैं तथा आभूषणों से अलंकृत करते हैं। सम्पूर्ण अलंकरण बाल कृष्ण के स्वरूप का होता है। लाल धोती धारण किए तथा हाथों में बाँसुरी एवं माखन लिए हुए बाल कृष्ण। मालेर नामक नैवेद्यम या प्रसाद भगवान को अर्पित किया जाता है जो मुरमुरे के समान दिखता है।

उषा नैवेद्यम तथा एथिरेत्तु पूजा

मालेर नैवेद्यम के पश्चात गर्भगृह के पट उषा पूजा हेतु बंद किए जाते हैं। भगवान को माखन, नेई पायसम, केले का एक विशेष प्रकार, गुड़, एक विशेष प्रकार की शक्कर, कई मिठाइयां इत्यादि अनेक प्रकार के नैवेद्यम अर्पित किए जाते हैं। यह पूजा सूर्य उदय होने के पूर्व ही आरंभ हो जाती है। जब तक सूर्य की प्रथम किरण पूर्व-मुखी भगवान के चरणों पर ना पड़े, यह पूजा अनवरत जारी रहती है। इसी समय गणपती होम तथा अन्य भगवानों की पूजा अर्चना भी समानांतर रूप से की जाती है।

शीवेली

प्रातः पूजन के पश्चात भगवान की सोने एवं चांदी में गढी प्रतिमाओं को मंदिर के गज की पीठ पर बैठाकर मंदिर परिसर मे उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा को शीवेली कहा जाता है। यह शोभायात्रा प्रतिदिन तीन बार निकली जाती है। मंदिर के स्वामित्व में ६९-८० गज इस अनुष्ठान के लिए उपलब्ध हैं। स्थान की कमी के रहते उन्हे मंदिर से ३ किलोमीटर दूर एक विशेष आश्रय में रखा गया है। उनकी देखरेख मंदिर प्रशासन ही करता है। शीवेली के समय चयनित गज को यहाँ लाया जाता है। आप यदि उन्हे देखना चाहें तो यहाँ से औटोरिक्षा लेकर जा सकते हैं। नाममात्र शुल्क पर आप इन्हे देख सकते हैं।

सामान्यतः स्वर्ण प्रतिमा की शोभायात्रा होती है। किन्तु विशेष अवसरों पर चांदी की प्रतिमा भी निकाली जाती है। इस आयोजन का प्रमुख उद्देश्य यह है कि भगवान अपने रक्षकों, अष्टदिग्पालों, सप्तमातृकाओं, वीरभद्र एवं गणपती को अर्पित किए गए भोजन का निरीक्षण करते हैं।

पालभिषेकम् तथा नवभिषेकम्

शीवेली के पश्चात, मूर्ति को मंदिर के कुएं से लाए गए जल से पुनः स्नान कराया जाता है। इसके पश्चात अभिषेकम् किया जाता है जिसमें मूर्ति को दूध, नारियल पानी तथा गुलाब जल में डुबाया जाता है। तदनंतर मूर्ति को पीत वस्त्र धारण करवा कर किशोर वय के कृष्ण का स्वरूप दिया जाता है।

पंद्रयान्डी पूजा

यह पूजा कुछ पारंपरिक पुरोहित करते हैं। पंद्रयान्डी का अर्थ है १२ फीट। सूर्य की किरणें जब मूर्ति पर पड़ती हैं तब उसके द्वारा बनी छाया की लंबाई से इस नाम का संबंध है। इस पूजा के पश्चात मंदिर के पट दर्शन के लिए खोल दिए जाते हैं। अगले अनुष्ठान तक मंदिर के पट भक्तों के लिए खुले रहते हैं।

दोपहर का पूजन अर्थात् उच्च पूजा

गुरुवायुर मंदिर का दीपस्तंभ
गुरुवायुर मंदिर का दीपस्तंभ

उचा पूजा दोपहर ११:३० बजे के पश्चात की जाती है। इस समय मंदिर भक्तों के लिए बंद होता है। यह पूजा द्वार बंद कर की जाती है। पूजा के समय भगवान को पायसम अथवा खीर का विशेष पूजा प्रसाद अर्पित किया जाता है। मंदिर के गायक जयदेव के गीत गोविंद की पंक्तियाँ गाते हैं। इसके पश्चात १२:३० बजे मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। संध्या पूजन एवं दर्शन हेतु संध्या ४:३० बजे पुनः पट खोले जाते हैं।

संध्या पूजन

संध्या पूजा का आरंभ दीप आराधना से होता है। सूर्यास्त के पश्चात, मंत्रोच्चारण के मध्य दीपों को प्रज्ज्वलित कर मंदिर को जगमगाया जाता है। कपूर आरती के लिए गर्भगृह पुनः खुलता है।

दिन की अंतिम पूजा के लिए रात्रि ७:३० बजे मंदिर बंद होता है। भगवान को विभिन्न पक्वान्न अर्पित किए जाते हैं। नैवेद्यम् में अप्पम, अड़ा, पालपायसम, पान तथा सुपारी प्रस्तुत किए जाते हैं। पूजा के पश्चात भगवान को पुनः शीवेली अनुष्ठान के लिए गज की पीठ पर बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। रात्रि में जगमगाती यह शीवेली अत्यंत दर्शनीय होती है।

यहाँ का एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है थ्रीपक्क जिसमें गर्भगृह को एक विशेष चूर्ण के ताजे धुएं से भरते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह चूर्ण श्वास रोगों के निवारण हेतु अत्यंत उपयोगी है।

एक चौखट पर भक्तगण अनेक दीप प्रज्वलित करते हैं जिसे विलक्कुमाथम कहते हैं। मंदिर के चारों ओर प्रज्वलित असंख्य दीपों का दृश्य अभूतपूर्ण प्रतीत होता है।

ऐसे ही धार्मिक अनुष्ठान नाथद्वारा के श्रीनाथजी के लिए भी किए जाते हैं।

अन्य प्रतिमाएं

मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिर भी हैं जो शास्ता , दुर्गा, सुब्रमन्य, अनंत तथा गणपती को समर्पित हैं।

गर्भगृह के चारों ओर अनेक छोटी शिलाएं हैं जिन्हे बलिकल्लु कहा जाता है। ये अष्टदिग्पालिकाओं अर्थात् आठ दिशाओं के देवों तथा सप्तमातृकाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

गुरुवायुर मंदिर की संरचना

केरल की चित्रकला शैली
केरल की चित्रकला शैली

गुरुवायुर मंदिर केरल के मंदिरों की विशेष वास्तुशैली के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। दो गोपुरों के मध्य से आप मंदिर के भीतर प्रवेश कर सकते हैं। एक पूर्व दिशा में है तथा दूसरा पश्चिम दिशा में स्थित है। दोनों गोपुरों के दो दीप स्तंभ हैं। गोपुरम के भीतर से आप एक प्रांगण में पहुंचते हैं जिसके मधोमध मुख्य मंदिर स्थित है। मंदिर की शुंडाकार छत पर खपरैल की टाइलें बिठायी हुई हैं। प्रांगण के भीतर अन्य कई मंदिर भी हैं जो विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित हैं। अधिकतर मंदिर केवल एकल कक्ष हैं जिस के भीतर भगवान स्थापित हैं। सब के छतों पर खपरैल की टाइलें बिठायी हुई हैं।

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प्रांगण के मध्य में स्तंभों वाला विशाल कक्ष है जिसके समक्ष एक ध्वजस्तंभ है। पूर्वी गोपुरम की ओर एक दीपस्तंभ है। स्तंभों वाला यह विशाल कक्ष हमें श्रीकोविल अर्थात् मुख्य मंदिर की ओर ले जाता है। इस श्रीकोविल का सबसे भीतरी कक्ष गर्भगृह कहलाता है जहाँ भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। गर्भगृह के समक्ष मुखमंडप है। मुखमंडप के बाहर नमस्कार मंडप है।

गणेश मंदिर

मंदिर के दक्षिणी ओर गणेश भगवान का मंदिर है। श्रीकोविल को घेरता एक कक्ष है जिसमें श्री कृष्ण की जीवनी का प्रदर्शन करते अनेक शिल्प हैं। निद्रामग्न विष्णु की शेषशय्या स्वरूप में एक विशाल छवि है जिसमें भूदेवी एवं श्रीदेवी उनके दोनों ओर स्थित हैं। इसे थिरुवनंतपुरम के पद्मनाभस्वामी मंदिर के समान बताया जाता है।

उत्तर दिशा में स्थित निकास द्वार से आप एक कक्ष सदृश संरचना के भीतर पहुंचते हैं जहाँ भक्तगण प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। उत्तर-पूर्वी दिशा में देवी को समर्पित एक मंदिर है। मुख्य मंदिर के दक्षिणी ओर शास्ता या श्री एयप्पा को समर्पित एक मंदिर है। दक्षिणी ओर स्थित कक्ष के भीतर प्रसाद पकाने के लिए कई विशाल पात्र रखे हुए हैं। उत्तरी दिशा में मंदिर का जलकुंड तथा कुआं हैं। भीतरी गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर कृष्णलीला को सजीव करते अनेक भित्तिचित्र हैं।
भगवान की मूल प्रतिमा पातालँजना शिला नामक पवित्र शिला द्वारा बनाई गई है।

परिधान-संहिता

मंदिर के भीतर परिधान संहिता का कठोरता से पालन किया जाता है। पुरुषों को कुर्ता अथवा शर्ट के बिना, केवल धोती पहननी पड़ती है। स्त्रियाँ केवल साड़ी, कुर्ते के साथ लंबा केरल लहंगा अथवा सलवार-कुर्ता पहन सकती हैं।

गुरुवायुर मंदिर के उत्सव

उल्सवम् – यह उत्सव फरवरी-मार्च में मनाया जाता है। दस दिवसों का यह उत्सव ध्वजस्तंभ पर ध्वज फहराकर आरंभ किया जाता है।

विषु –मलयाली नव-वर्ष का यह उत्सव इस मंदिर का प्रमुख आयोजन होता है।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी – यूँ तो श्री कृष्ण जन्माष्टमी अर्थात् श्री कृष्ण के जन्म का उत्सव अगस्त-सितंबर मास में सम्पूर्ण भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। यह उत्सव यहाँ भी अत्यंत लोकप्रिय है।

माम्मियुर श्री महादेव मंदिर

माम्मियुर श्री महादेव मंदिर
माम्मियुर श्री महादेव मंदिर

समीप ही एक लोकप्रिय महादेव मंदिर स्थित है। प्रमुख अधिष्ठात्र देव भगवान शिव हैं। इसका निर्माण शिवालय शैली में किया गया है। परिसर में स्थित अन्य छोटे मंदिर गणपती, विष्णु, सुब्रमन्य, अयप्पा तथा काली को समर्पित हैं। यहाँ के दो प्रमुख उत्सव शिवरात्रि तथा अष्टमी रोहिणी हैं। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन के उपरांत ही इस नगरी की यात्रा सम्पूर्ण होती है।

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यात्रा सुझाव

• मंदिर के समीप अनेक अतिथिगृह हैं। पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों के रहने के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं।
• कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम की बसें राज्य के अनेक भागों से तथा अनेक अंतर-राज्यीय बसें भी यहाँ तक पहुँचती हैं।
• दोपहर १२:३० बजे से संध्या ४:३० बजे तक मंदिर के पट बंद रहते हैं।
• मंदिर के भीतर परिधान-संहिता का कड़ाई से पालन किया जाता है। अतः उपयुक्त परिधान धारण करें।
• मंदिर के भीतर मोबाईल यंत्र ले जाना पूर्णतः निषिद्ध है। अमानती सामानघर की सुविधाएँ उपलब्ध हैं जहाँ आप जूते, मोबाईल तथा अन्य व्यक्तिगत सामान रख सकते हैं।
• यहाँ की दुकान से आप प्रसादम् तथा अभिषेक का तेल क्रय कर सकते हैं।
• यहाँ अनेक दुकानें हैं जहाँ केरल दीप जैसी वस्तुएं तथा पूजा से संबंधित अन्य सामग्रियों की विक्री की जाती है। इन वस्तुओं का मूल्य बहुधा अधिक बताया जाता है। अतः आप अपनी समझ के अनुसार मोल-भाव करके ही इन्हे क्रय करें। केरल के स्मृति चिन्ह के रूप में आप क्या क्रय कर सकते हैं, उनके अनेक पर्याय इन संस्करण में देखें।
• यहाँ का रेल स्थानक मंगलुरु-मद्रास रेलमार्ग से त्रिशूर में जुड़ता है।
• कोची एवं कोजिकोड (कालीकट), दो निकटतम विमानतल हैं।

यह यात्रा संस्करण श्रुति मिश्रा द्वारा Inditales Internship Program के अंतर्गत साझा किया गया है।


श्रुति मिश्रा एक व्यावसायिक बँककर्मी हैं। उन्हे भिन्न भिन्न स्थानों की यात्रा कर वहाँ की समृद्ध धरोहरों को जानने व समझने तथा वहाँ के स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद लेने में अत्यंत रुचि है। उन्हे किताबें पढ़ने तथा अपने परिवार के लिए भोजन बनाने में भी अत्यंत आनंद आता है। वे बंगलुरु की निवासी हैं। इनकी अभिलाषा है कि वे सम्पूर्ण भारत की समृद्ध धरोहरों के दर्शन करें तथा उन पर एक पुस्तक प्रकाशित करें।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कोची का चोट्टानिकारा देवी मंदिर जहां मानसिक विकारों से मुक्ति मिले https://inditales.com/hindi/chottanikkara-devi-mandir-kochi/ https://inditales.com/hindi/chottanikkara-devi-mandir-kochi/#comments Wed, 20 May 2020 02:30:06 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1852

केरल भगवती अर्थात भद्रकाली की भूमि है। गत वर्ष मुझे भद्रकाली देवी के विषय में ज्ञात हुआ था जब मुझे पदयनी तथा कलमेड्तुम जैसे केरल के प्रसिद्ध अनुष्ठानों के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इस वर्ष जब मैं केरल की जगप्रसिद्ध सर्प नौका स्पर्धा देखने कोची आई थी, मेरे हाथों में कुछ समय शेष […]

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केरल भगवती अर्थात भद्रकाली की भूमि है। गत वर्ष मुझे भद्रकाली देवी के विषय में ज्ञात हुआ था जब मुझे पदयनी तथा कलमेड्तुम जैसे केरल के प्रसिद्ध अनुष्ठानों के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इस वर्ष जब मैं केरल की जगप्रसिद्ध सर्प नौका स्पर्धा देखने कोची आई थी, मेरे हाथों में कुछ समय शेष था। कोची नगरी के दर्शन करने का विचार मस्तिष्क में कौंधा। मैंने कोची के मंदिरों के दर्शन करने का निश्चय किया जिनमें प्राचीन चोट्टानिकारा भगवती मंदिर मेरी सूची में सर्वोच्च स्थान पर था।

यह केरल का अत्यंत लोकप्रिय मंदिर है। ऐसा माना जाता है की मानसिक रोग से पीड़ित भक्त जब यहाँ आकर देवी की आराधना करते हैं तब वे अपनी पीड़ा से मुक्ति पा जाते हैं।

चोट्टानिकारा देवी कौन हैं?

चोट्टानिकारा अम्मा
चोट्टानिकारा अम्मा

चोट्टानिकारा संस्कृत भाषा के ज्योतिकरा का अपभ्रंशित रूप है जिसका अर्थ है आलोकित अथवा प्रकाशमान करने वाला। देवी आदि पराशक्ति हैं जिन्हे भगवती तथा देवी जैसे सामान्य नामों से भी संबोधित किया जाता है। वे सर्वशक्तिमान हैं जिनमें उनके ही तीन स्वरूपों का समावेश है, महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती। अतः आश्चर्य नहीं है कि प्रातः श्वेत साड़ी में सज्ज सरस्वती के रूप में उनकी आराधना की जाती है, दोपहर में उज्ज्वल लाल रंग की साड़ी धारण किये एवं विस्तृत शृंगार किये लक्ष्मी के रूप में उन्हे पूजा जाता है तथा संध्याकाल में नीली साड़ी में लिपटी महाकाली अथवा दुर्गा के रूप में उनका पूजन किया जाता है। मैंने इस मंदिर के दर्शन प्रातः काल में किये थे। मुझे देवी के सरस्वती रूप के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

कहा जाता है कि इस चोट्टानिकारा मंदिर में प्रातःकाल, कोलूर की मूकाम्बिका सरस्वती विराजमान रहती हैं। इसिलिए मूकाम्बिका मंदिर के द्वार दोपहर के पश्चात खोले जाते हैं जब देवी सरस्वती कोची से यहाँ वापिस आती हैं।

चोट्टानिकारा मंदिर - कोची
चोट्टानिकारा मंदिर – कोची

किवदंतियों के अनुसार, आदि शंकराचार्य शारदम्बा को केरल में निवासित करना चाहते थे। उन्होंने पर्वत के ऊपर बैठकर उनकी कठोर तपस्या की। देवी उन पर प्रसन्न हुईं तथा उन्होंने उनके साथ आने की स्वीकृति भी दी। किन्तु उन्होंने एक बंधन रखा कि वे उनके पीछे तभी आएंगी जब शंकराचार्य पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। शंकराचार्य पीछे मुड़कर तो देख नहीं सकते थे। अतः उन्होंने देवी के पैंजन से आते सुरों पर ध्यान केंद्रित किया एवं आगे बढ़ गए। अचानक उन्हे पैंजन के सुरों की अनुपस्थिति का आभास हुआ। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। वह स्थान कोलूर था। शर्त के अनुसार देवी वहीं ठहर गईं। शंकराचार्य को अपनी भूल का आभास हुआ। उन्होंने देवी से तीव्र विनती की। अंततः देवी उन पर प्रसन्न हुईं तथा उन्हे वचन दिया कि वे प्रत्येक दिवस प्रातःकाल कोलूर से चोट्टानिकारा मंदिर आयेंगी। यही कारण है कि प्रत्येक प्रातः के समय देवी यहाँ श्वेत साड़ी में पूजी जाती हैं।

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कोची का चोट्टानिकारा मंदिर

कोची नगर से किंचित बाहर, इसके दक्षिणी उपनगरीय क्षेत्र में स्थित यह मंदिर मुख्यतः लकड़ी द्वारा ठेठ केरल वास्तुशैली में निर्मित है। किसी काल में इस क्षेत्र में लकड़ी की बहुलता रही होगी किन्तु अब यह अत्यंत भीड़भाड़ भरा उपनगरीय क्षेत्र है।

मंदिर परिसर में दो भगवती मंदिर हैं जो दो भिन्न तलों में हैं। इनके साथ कुछ छोटे मंदिर भी हैं।

मुख्य चोट्टानिकारा देवी मंदिर

चोट्टानिकारा देवी
चोट्टानिकारा देवी

यह अपेक्षाकृत विशाल मंदिर है जिसमें बड़ा खुला प्रांगण है। यहाँ मंदिर की अधिष्ठात्री देवी अपने पति नारायण के संग विराजमान है। यह संकेत है कि यहाँ देवी यहाँ अपने महालक्ष्मी स्वरूप में पूजी जाती हैं।

देवी की प्रतिमा लेटराइट अर्थात में निर्मित है। इस शिला को संस्कृत में रुद्राक्ष शिला कहा जाता है। देवी की प्रतिमा को स्वयंभू माना जाता है। देवी के जिस रूप को आप देखते हैं वह स्वर्ण पात्र से ढँका हुआ तथा देवी के सब चिन्हों से सज्ज देवी का मानवी स्वरूप है।

भगवती की मूर्ति के साथ महाविष्णु की प्रतिमा भी स्थापित है। दोनों की जोड़ी को अम्मेनारायण, देवीनारायण, लक्ष्मीनारायण तथा भद्रेनारायण भी कहा जाता है। आप यहाँ भक्तगणों को ‘अम्मे नारायण’ तथा ‘बद्रे नारायण’ का जाप करते देख सकते हैं। इनके साथ ब्रह्मा, शिव, गणेश, सुब्रमन्य तथा शस्ता अर्थात अय्यप्पा की भी प्रतिमाएं हैं।

कीज़्हूक्कावु मंदिर

यह एक प्राचीन मंदिर है जो मुख्य मंदिर से एक तल नीचे स्थित है। यहाँ से मुख्य मंदिर तक कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर पहुंचा जा सकता है। इन दोनों मंदिरों के मध्य मंदिर का जलकुंड स्थित है।

मंदिर का कुण्ड
मंदिर का कुण्ड

भद्रकाली यहाँ की अधिष्ठात्री देवी है।

मुझे बताया गया कि प्रत्येक शुक्रवार को संध्या के समय यहाँ एक शक्तिशाली पूजा की जाती है जिसे गुरुथी पूजा कहते हैं। गुरुथी का अर्थ है बलि चढ़ाना किन्तु अब यहाँ पूजा में केवल भोजन ही अर्पण किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस पूजा द्वारा मानसिक रोग से पीड़ित स्त्री पर चिकित्सीय प्रभाव पड़ता है। जिन व्यक्तियों पर भूत-प्रेत की बाधा हो ऐसे लोग भी समस्या निवारण के लिए यहाँ आते हैं।

इस प्राचीन मंदिर के भीतर एक विचित्र सी अधीरता से भरी ऊर्जा का आभास होता है। आप प्रत्यक्ष इसे अनुभव कर सकते हैं। यहाँ अनेक प्रकार के मानसिक रोगी चारों ओर बैठे रहते हैं। कह नहीं सकती कि आपको उन्हे देख लाचारी का आभास होगा अथवा मंदिर की विचित्र ऊर्जा का रोमांच, किन्तु मैंने मंदिर में चारों ओर व्याकुलता भरी ऊर्जा का अनुभव किया। कुछ क्षणों से अधिक मैं उस मंदिर में नहीं रह पायी। अन्यथा मैं मंदिर के भीतर, वह भी प्राचीन मंदिर के भीतर घंटों बिता देती हूँ।

मंदिर के पेड़ में गड़े कील और लटकते झूले
मंदिर के पेड़ में गड़े कील और लटकते झूले

मंदिर के चारों ओर स्थित वृक्ष मोटे एवं लंबे नखों से भरे हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि जब मानसिक रूप से रोगी व्यक्ति यहाँ, 41 दिनों तक पूजा करने के पश्चात, रोगमुक्त हो जाता है तब वह यहाँ एक नख अर्पित करता है। मंदिर के वेबस्थल के अनुसार रोगी स्वयं अपने शीश द्वारा इस नख को वृक्ष के तने में ठोकता है।

वृक्षों के तनों पर कई छोटे छोटे झूले भी लटके हुए थे जिन्हे देख मुझे श्री लंका के त्रिन्कोमाली कोनेश्वर मंदिर की स्मृति हो आई। वहाँ भी मैंने ऐसे ही कई छोटे छोटे झूले लटके देखे थे। ये झूले कदाचित संतान प्राप्ति की इच्छा रखते पालक लटकाते हैं।

वेडी वडीवाड

वेडी वडीवाड अर्थात पटाखे जलाना, यह इस मंदिर का एक अनोखा अनुष्ठान है। यह एक प्रकार की पूजा है जो लोग यहाँ करते हैं। वे इस पूजा का टिकट खरीदते हैं तब एक प्रशिक्षित व्यक्ति उनके लिए एक पटाखा फोड़ता है। मैं कुछ घंटों तक इस मंदिर में थी। बिना रुकावट निरंतर पटाखों की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वे बंदूक की गोलियों के समान प्रतीत हो रहे थे।

दो मंदिरों के मध्य स्थित सीढ़ियों पर यह अनुष्ठान किया जाता है।

चोट्टानिकारा मंदिर के उत्सव

हाथी को सजाने का सामान
हाथी को सजाने का सामान

देवी मंदिर होने के कारण, इस मंदिर का सर्वोच्च उत्सव नवरात्रि ही है। मुझे बताया गया कि नवरात्रि के समय यहाँ सभी विशेष पूजा-अर्चना एवं अनुष्ठानों के साथ कई संगीत उत्सवों तथा नृत्य प्रदर्शनों का भी आयोजन किया जाता है।

मकम थोज़ल देवी का एक वार्षिक स्नान अनुष्ठान है जब देवी मंदिर के जलकुंड तक जाती हैं। तत्पश्चात सात हाथियों के संग उनकी शोभायात्रा निकली जाती है। मुझे विश्वास है कि सजे-धजे हाथियों की यह शोभायात्रा अत्यंत भव्य होती होगी।

मंदिर की दुकानें

देवी की पहनी हुई साड़ियाँ
देवी की पहनी हुई साड़ियाँ

मुख्य मंदिर के समीप एक अधिकारिक दुकान है जहां मंदिर में प्रयुक्त वस्तुओं की बिक्री की जाती है। उनमें तेल के दीप तथा देवी द्वारा धारण की हुई साड़ियाँ प्रमुख हैं। देवी की पूजा आराधना में प्रयोग की गई प्रत्येक वस्तु भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मैंने इसके पूर्व ऐसी दुकान किसी मंदिर में नहीं देखी थी।

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मंदिर में उपयोग किये गए दीप
मंदिर में उपयोग किये गए दीप

इस मंदिर एवं नीचे स्थित प्राचीन कवु मंदिर के मध्य भी कई दुकानें हैं जहां से आप कई कलाकृतियाँ खरीद सकते हैं। इनमें प्रमुख है चोट्टानिकारा अम्मा के चित्र।

मंदिर के भीतर छायाचित्रिकारण प्रतिबंधित है। इसी कारण आप इस मंदिर के चित्र इंटरनेट अथवा मंदिर के वेबस्तल पर कदाचित ही देखेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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केरल की सर्प नौका दौड़ – अप्रवाही जल पर गति का तांडव https://inditales.com/hindi/sarp-nauka-daud-alleppey-kerala/ https://inditales.com/hindi/sarp-nauka-daud-alleppey-kerala/#respond Wed, 04 Mar 2020 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1720

केरल की सर्प नौका दौड़ अर्थात स्नैक बोट रेस के विषय में मेरी प्रथम स्मृति मेरी पाठ्यक्रम पुस्तक से जुड़ी हुई है। मुझे स्मरण है, मैंने अपनी पुस्तक में सर्प के समान एक लंबी नौका का श्वेत-श्याम चित्र देखा था जिसका एक छोर सर्प के फन के समान उठा हुआ था। वह चित्र मेरी आँखों […]

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केरल की सर्प नौका दौड़ अर्थात स्नैक बोट रेस के विषय में मेरी प्रथम स्मृति मेरी पाठ्यक्रम पुस्तक से जुड़ी हुई है। मुझे स्मरण है, मैंने अपनी पुस्तक में सर्प के समान एक लंबी नौका का श्वेत-श्याम चित्र देखा था जिसका एक छोर सर्प के फन के समान उठा हुआ था। वह चित्र मेरी आँखों में स्वप्न के रूप में अमिट छाप छोड़ गया था। किसी दिन मैं केरल के अप्रवाही जल पर आयोजित इस सर्प नौका दौड़ को स्वयं अपनी आँखों से देखूँ। भले ही मेरे इस स्वप्न को साकार होने में कई दशक लग गए किन्तु मेरा स्वप्न सत्य अवश्य हुआ।

केरल की प्रसिद्द सर्प नौका दौड़कुछ दिनों पूर्व मैं अलपुझा अर्थात अल्लेप्पी गई थी। मेरी इस यात्रा का उद्देश्य था ६७वीं. नेहरू नौका दौड़ देखना। साथ ही मैं हाल ही में आरंभ की गई चॅम्पियन्स बोट लीग की सर्वप्रथम दौड़ भी देखना चाहती थी।

केरल की सर्प नौका दौड़ का इतिहास

अलपुझा केरल का जलप्रधान जिला है। इस क्षेत्र में कई आड़ी –तिरछी अप्रवाही जल-धाराएं हैं जो अरब सागर से जुड़ी हुई हैं। यहाँ आप कहीं भी चले जाएँ, आप जल के समीप ही रहते हैं। जल यहाँ के निवासियों के जीवन का एक अभिन्न अंग है। जैसे हम अनजाने ही चलना सीख जाते हैं, ठीक वैसे ही यहाँ के निवासी अनजाने ही समुद्र के जल में तैरना सीख जाते हैं। यहाँ के प्रत्येक घर में कम से कम एक नौका अवश्य रहती है तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य नौका खेना जानता है।

केरल के मंदिरों का जलोत्सव

परंपरा के अनुसार नौका दौड़ मंदिर के उत्सव का ही एक भाग था। भगवान की उत्सव मूर्ति को नौका में बिठाकर समुद्र के अप्रवाही जल पर शोभायात्रा निकली जाती थी। यह उत्सव ३ दिवसों तक जारी रहता था। भगवान की उपस्थिति में लोग नौका दौड़ में भाग लेते थे। इस क्षेत्र में कई प्रकार के जलोत्सव आयोजित किए जाते थे। प्राचीन काल में नौका दौड़ का समय पंचांग देखकर तय किया जाता था।

केरल के सर्प नौका दौड़ को मलयालम भाषा में वल्लम काली कहा जाता है। पारंपरिक रूप से इस स्पर्धा का आयोजन ओणम पर्व के आसपास किया जाता है।

युद्ध नौकाएं

लगभग ५००-६०० वर्षों पूर्व, इस प्रकार की नौकाओं का प्रयोग पड़ोसी राज्य के राजा आपस में युद्ध करने के लिए युद्ध नौकाओं के समान करते थे।

२० वीं. सदी के अवतार स्वरूप, तात्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू ने इस नौका दौड़ की एक रोलिंग ट्रॉफी घोषित कर दी। तब से केरल के नौका दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने वाले समुदायों में नेहरू नौका दौड़ ट्रॉफी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आयोजन बन गया है।

चॅम्पियन्स बोट लीग

केरल के सर्प नौका दौड़ का नवीनतम अवतार है, चॅम्पियन्स बोट लीग। इसका शुभारंभ इस वर्ष २०१९ में किया गया है। लीग के रूप में कुल ९ टोलियाँ अर्थात दलों की नीलामी होगी। इस लीग का कुल समयकाल ३ मास है जब केरल के सम्पूर्ण जलक्षेत्र में नौका दौड़ प्रतियोगिताएं आयोजित किए जाएंगे।

इस प्रकार दौड़ का आयोजन करने पर अधिकतम लोगों को इस दौड़ में भाग लेने तथा देखने का आनंद प्राप्त हो सकेगा। दौड़ प्रतियोगिता उस समय आयोजित की जाती है जब केरल में अधिक पर्यटक नहीं होते। केरल राज्य के बाहर के लोगों को भी इस प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर प्राप्त हो, इसलिए २५ प्रतिशत टोलियाँ राज्य के बाहर से आमंत्रित करने की अनुमति होती है। मैंने उत्तर पूर्वी भारत के सदस्यों की ए टोली यहाँ देखी थी।

नौका दौड़ आयोजन को बढ़ावा देने के लिए, केरल पर्यटन विभाग शीघ्र ही एक नौका संग्रहालय का आरंभ करने की योजना बना रहा है।

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केरल सर्प नौका दौड़ की समयसारणी

वल्लम कली - केरल की पारंपरिक नौकाएं
वल्लम कली – केरल की पारंपरिक नौकाएं

नेहरू ट्रॉफी नौका दौड़ – इसका आयोजन अलपुझा के पुन्नमदा झील में अगस्त के दूसरे रविवार के दिन किया जाता है। इस वर्ष बाढ़ के कारण इस आयोजन को विलंबित किया गया है।

चंपाकुलम मूलम नौका दौड़ – इसका आयोजन भी अलपुझा जिले में किया जाता है। यह आयोजन अंबलपुजा में स्थित श्री कृष्ण मंदिर के उत्सव का एक भाग है। ऐसा माना जाता है कि जब मंदिर की मूर्ति को मंदिर तक लाया जा रहा था, वह कुछ क्षण के लिए यहाँ रुक गई थी। इसके दर्शन के लिए इसके चारों ओर नौकाएं एकत्र हो गई थीं। वही दृश्य अब तक दुहराया जाता है। यह कदाचित प्राचीनतम पारंपरिक दौड़ है। प्रत्येक वर्ष आयोजित किए जाने वाली प्रतियोगिताओं में यह वर्ष की प्रथम दौड़ भी है। यह वर्षा ऋतु के आरंभ में, जून/जुलाई में आयोजित की जाती है।

अरणमुला नौका दौड़ – पंपा नदी पर आयोजत की जाने वाली यह दौड़ अरणमुला पार्थसारथी मंदिर के वार्षिक उत्सव का भाग है जो प्राचीनतम जलोत्सवों में से एक है। इसका आयोजन श्री कृष्ण द्वारा पंपा नदी को पार करने की घटना की स्मृति में किया जाता है।

पईपड़ जलोत्सव – यह हरिपड़ के स्वामी सुब्रमन्य मंदिर में आयोजित ३ दिवसीय जलोत्सव है। ऐसा माना जाता है कि एयप्पा स्वामी की मूर्ति कायमकुलम झील से प्राप्त हुई थी। यह उत्सव उस मूर्ति के इस मंदिर के भीतर स्थापना किए जाने की स्मृति में आयोजित किया जाता है।

अन्य उत्सव

साडी पहने महिलाएं नौका दौड़ में
साडी पहने महिलाएं नौका दौड़ में

इंदिरा गांधी स्मारक नौका दौड़, एर्णाकुलम के मरीन ड्राइव में ओणम के समय आयोजित किया जाता है।
राष्ट्रपति ट्रॉफी नौका दौड़, कोलम के अष्टमुंडी झील में आयोजित की जाती है।
कलड़ा नौका दौड़ कोलम के कलड़ा नदी में आयोजित की जाती है।
कुमारकोम नौका दौड़
कानेट्टी श्री नारायण नौका दौड़ कोलम के करूनागपल्ली में आयोजित की जाती है।
थजथंगड़ी नौका दौड़, कोट्टायम
गोथुरुथ नौका दौड़ एर्णाकुलम के पेरियार नदी में आयोजित की जाती है।
पिरवोम नौका दौड़, पिरवोम

मैं प्रयास कर रही हूँ कि आपको इन आयोजनों की पंचांग तिथियाँ ढूंढकर दूँ जिससे आप स्वयं ही प्रत्येक वर्ष इनके समय की गणना कर सकें। तब तक के लिए आप केरल पर्यटन द्वारा अपने वेबस्थल ‘उत्सव समयसारिणी’ में प्रत्येक वर्ष प्रकाशित तिथियाँ देख सकते हैं।

कुछ छोटी नौका दौड़ आयोजनों की सूची आप यहाँ देख सकते हैं

चॅम्पियन बोट लीग केरल का सर्वाधिक नवीन आयोजन है जिसमें विभिन्न दलों को राज्य स्तर पर भाग लेने की अनुमति प्रदान की जाती है।

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चूडन वल्लम अर्थात सर्प नौका

पतली लम्बी चूड्म वल्ली नौका
पतली लम्बी चूड्म वल्ली नौका

केरल की प्रसिद्ध नौकाएं, जिन्हें मैं यहाँ सर्प नौका कह रही हूँ, उन्हें मलयालम भाषा में चूडन वल्लम कहा जाता है। यह लकड़ी की बनी एक संकरी लंबी नौका है जिसकी लंबाई लगभग १००-१५० फीट तक होती है। इसके पृष्ठभागीय छोर की ऊंचाई २० फीट तक होती है जिससे यह नौका सर्प के समान दिखायी पड़ती है। इस प्रकार की नौकाओं के निर्माण की कला का उद्भव प्राचीन हिन्दू शास्त्र, स्थापत्य शास्त्र, से हुआ है। उदाहरण के लिए इसका पेंदा एक विशेष आकार की लकड़ी से ही निर्मित किया जाता है।

एक चूडन वल्लम एक समुदाय अथवा एक गाँव की अधिकारिक संपत्ति होती है। इन नौकाओं का अत्यन्त सम्मान से प्रयोग किया जाता है। इन पर चढ़ने से पूर्व लोग अपने जूते-चप्पल उतार देते हैं। उत्तम रखरखाव की सहायता से ये नौकाएं एक समुदाय में कई पीढ़ियों तक चलती रहती हैं।

दौड़ के पहले विश्राम करती नौका
दौड़ के पहले विश्राम करती नौका

इस नौका के निर्माण में अंजली लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जो स्थानीय स्तर पर उपलब्ध है। नारियल के वृक्ष के प्राप्त लकड़ी से इसकी पतवारें निर्मित की जाती हैं। गाँव में आप ऐसी नौकाओं को देख सकते हैं। दौड़ से एक दिवस पूर्व इन नौकाओं को स्वच्छ किया जाता है। उस पर रंगरोगन कर उसे चमकाया जाता है। यह गाँव के सम्मान का प्रश्न जो है।

इनके अलावा अन्य भी कई नौकाएं हैं जो आकार में किंचित छोटी हैं। हमने स्त्रियों को इन छोटी नौकाओं पर सवार होकर प्रतियोगिता में भाग लेते देखा। पल्लीयोडम इन सर्प नौकाओं का एक अन्य नाम है।

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सर्प नौका दौड़ की टोलियाँ

१९५५ में अस्तित्व में आया यूनाइटेड बोट क्लब केरल का सर्वाधिक प्राचीन बोट क्लब है। हमने इस क्लब के दो सदस्यों, श्री सुनील एवं श्री प्रमोद से चर्चा की। उन्होंने हमें बताया कि यूनाइटेड बोट क्लब ने १४ बार नेहरू बोट ट्रॉफी जीती है, जिसमें ३ बार लगातार अनवरत ३ वर्षों तक जीती है। २०१३ उनके लिए विशेष है क्योंकि उस वर्ष उनका नेतृत्व एक स्त्री, हरिता अनिल ने किया था। उन्होंने हमें नौका दौड़ के लिए एक टोली की संरचना कैसी होनी चाहिए, यह समझाया।

अपनी मौका के साथ नौका चलाने वाले
अपनी मौका के साथ नौका चलाने वाले

एक टोली में ११० तक सदस्य हो सकते हैं। उनमें से ८५ सदस्य चप्पू चालक होते हैं जिन्हे तुजकर कहा जाता है। २ से ३ किलो भार के छोटे छोटे चप्पुओं द्वारा वे नौका खेते हैं।

५ सदस्य नौका के दोनों छोर से नौका की दिशा तय करते हैं। इन्हें वलियवीडु कहा जाता है। उनके चप्पू लंबे तथा १५ किलो तक भारी हो सकते हैं।

नारियल की लकड़ी से बना चप्पू
नारियल की लकड़ी से बना चप्पू

नौका में ११ संगीतज्ञ होते हैं जिन्हे तजकर कहा जाता है। उनमें २ सदस्य ढोल बजाते हैं तथा ९ सदस्य नौका गीत गाकर अन्य सदस्यों की हिम्मत बढ़ाते हैं। अपने सदस्यों को प्रोत्साहित करने के लिए जो नौका गीत वे गाते हैं, उसे वंचिपट्टु कहा जाता है। नौका पर सवार सदस्य विभिन्न क्षेत्रों से आते हैं। कुछ किसान तो कुछ मछुआरे तथा कुछ विद्यार्थी तो कुछ नौकरी-धंधे में संलग्न हो सकते हैं। सर्व सदस्य १८ से ३० वर्ष की आयु सीमा के मध्य होते हैं। कुछ अतिरिक्त सदस्य भी होते हैं जो किसी विपरीत परिस्थिति में किसी सदस्य के विकल्प के रूप में उपस्थित होते हैं।

ताल

इन नौकाओं की ताल देखते ही बनती है। इनका खरा अनुभव प्राप्त करने के लिए इन्हे प्रत्यक्ष देखना आवश्यक है। आप सोच में पड़ जाएंगे कि वे वास्तव में नृत्य कर रहे हैं या युद्धाभ्यास का खेल खेल रहे हैं।

वल्लम कल्ली के प्रतियोगी
वल्लम कल्ली के प्रतियोगी

प्रतियोगिता से लगभग एक मास पूर्व से विभिन्न दलों का पूर्वाभ्यास आरंभ हो जाता है। वे प्रातः ३ घंटे तथा दोपहर के समय ३ घंटों तक अभ्यास करते हैं। इस के अंतर्गत वे केवल उत्तम तादाम्य के साथ नौका खेने का ही अभ्यास नहीं करते, बल्कि कसरत द्वारा शक्ति एवं आंतरिक बल में वृद्धि भी करते हैं। कसरत करने के लिए वे दौड़ते हैं, भारोत्तोलन करते हैं तथा योग भी करते हैं।

प्रतियोगिता से पूर्व वे अपनी नौका को सज्ज करते हैं। प्रतियोगिता से पूर्व जब हमने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो हमने देखा कि एक टोली अपने पतवारों को चमका रही थी तो दूसरी टोली अपनी नौका को रंग-रोगन देने का कार्य पूर्ण कर रही थी। एक टोली अपने प्रशिक्षक, एक सेवा निवृत्त सेना कप्तान, से प्रतियोगिता के विषय में कुछ बारीकियाँ समझ रही थी। अपने गाँव के चारों ओर स्थित अप्रवाही जल पर इन टोलियों को नौका दौड़ में भाग लेते देखना अत्यन्त आनंद की अनुभूति है।

दौड़ प्रतियोगिता सम्पन्न होने के पश्चात सारे प्रतियोगी जल में छलांग लगाते हुए ऊंचे स्वरों में अपने ईश का नामोच्चारण करते हैं, जैसे आरपो-रोरो, स्वामी आयप्पा अथवा जय श्री राम इत्यादि।

वल्लम काली अनुष्ठान अर्थात सर्प नौका दौड़ प्रतियोगिता

यद्यपि सर्प नौका दौड़ अब व्यावसायिक खेल का रूप लेने लगी है तथापि एक पारंपरिक खेल होने के कारण यह इस धरती के संस्कारों से अधिक दूर नहीं जा सकती। या कहूँ, यहाँ के जल के संस्कारों से भिन्न नहीं हो सकती है।

कथकली नर्तक नेहरु बोट रेस के उद्घाटन पर
कथकली नर्तक नेहरु बोट रेस के उद्घाटन पर

प्रतियोगिता के दिन, सर्व टोलियाँ प्रातः ६:३० बजे मंदिर में दर्शन के लिए जाते हैं। सभी दल अपने अपने मंदिर में जाते हैं। जैसे यूनाइटेड बोट क्लब के सदस्य पनेक्कल शिव मंदिर जाते हैं। तत्पश्चात वे गिरिजाघर जाते हैं। इसके पश्चात ११ बजे तक वे स्वास्थ्य से परिपूर्ण स्वल्पाहार ग्रहण करते हैं। दोपहर का भोजन करने के पश्चात वे दोपहर २ बजे तक वल्लम काली अर्थात नौका दौड़ प्रतियोगिता के लिए सज्ज हो जाते हैं।

उद्घाटन समारोह के समय पारंपरिक ढोल बजाए जाते हैं। कथकली एवं बाघ नर्तक नौकाओं पर नृत्य करते हैं। दर्शकों के समक्ष ट्रॉफी का अनावरण किया जाता है। एक नौका पर रखे मंदिर में पूजा अर्चना की जाती है। चारों ओर उत्साह एवं उत्सव का वातावरण आकाश के रंगों को आत्मसात करते हुए हमें आत्मविभोर करने लगता है।

अलपुझा के पुन्नमदा झील के दोनों ओर दर्शकों की कतार लग जाती है। १.२५ किलोमीटर लंबे जलमार्ग को पार कर नौकाएं झील में स्थित नेहरू टापू तक पहुंचते हैं।

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केरल की नौका दौड़ प्रतियोगिता के जादू का दर्शन

सर्प नौकाओं को सर्प के समान चपलता व गति से आगे बढ़ते देखना किसी जादू से कम नहीं है। तजकरों के गीत एवं संगीत अन्य ध्वनियों को मंद कर देते हैं। लयबद्ध चलते चप्पू एक साथ जब जल को काटते हुए उसे उछालते हैं वह दृश्य किसी गतिमान गद्य के समान प्रतीत होता है।

छोटी नौकाएं
छोटी नौकाएं

नौका के सभी सदस्यों के परिधानों के रंग कुछ इस प्रकार होते हैं मानो उनके रंग आपस में ही प्रतियोगिता कर रहे हों। यह नौका दौड़ प्रतियोगिता कौन जीतेगा अथवा कौन हारेगा, एक दर्शक के रूप में मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था। मेरी तो केवल इतनी ही अभिलाषा थी कि जल पर बजते किसी संगीत के समान इन नौकाओं को ऊपर-नीचे अठखेलियाँ करते देख सकूँ। चारों ओर स्थित नारियल के वृक्षों के संग मैं भी उनकी लंबी लंबी उछालों को देखने का आनंद उठा सकूँ।

अलपुझा में चॅम्पियन बोट लीग तथा नेहरू नौका दौड़

पोंनुमदा झील में नेहरू नौका दौड़ प्रतियोगिता के दिन वह स्थान लोगों एवं रेड़ी वालों से भरा हुआ था। रेड़ी वाले भिन्न भिन्न प्रकार की सीटियाँ एवं भोंपू बिक्री कर रहे थे। उस दिन यह प्रतियोगिता विशेष थी क्योंकि नेहरू नौका दौड़ एवं चॅम्पियन बोट लीग दोनों का आयोजन एक ही स्थान पर होने जा रहा था। प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंडुलकर इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे। सचिन को एक नौका में सवार होकर उपस्थित प्रशंसकों का अभिवादन स्वीकार करते देख वही दर्शक बावले हुए जा रहे थे।

अल्लेप्पी की नौका दौड़
अल्लेप्पी की नौका दौड़

झील में रंग बिरंगे पताकाओं को लगाकर नौका दौड़ का जलपथ अंकित किया गया था। दर्शकों एवं झील के मध्य नारियल के वृक्षों की पंक्ति मानो आपस में ही प्रतियोगिता कर रहे हों, कौन इस दौड़ का अधिक आनंद उठाएगा। झील का जल एवं उसके चारों ओर स्थित हरे-भरे नारियल के वृक्ष हमें यथार्थ जीवन के कठोर सत्य से दूर लिए जा रहे थे। इन पर चार चाँद लगा रहे थे पंक्ति में खड़ी नौकाएं।

श्रेष्ठता का अभ्यास

प्रातःकाल ही सभी छोटी-बड़ी नौकाएं झील में उतर गई थीं। झील में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाते हुए अधिकतर प्रतियोगी दोपहर में आयोजित होने वाली प्रतियोगिता का अभ्यास कर रहे थे। उनके साथ ही झील में जेट स्की तथा मोटरबोट थीं। साथ ही कई बड़ी नौकाएं थीं जो अतिमहत्वपूर्ण एवं गणमान्य व्यक्तियों सहित टिकटधारी दर्शकों को तट से टापू पर ले जा रही थीं। उनमें से कुछ के साथ अपने सुरक्षा कर्मी भी थे जो सम्पूर्ण आयोजन का जायजा ले रहे थे।

उद्घाटन समारोह की झलकियाँ
उद्घाटन समारोह की झलकियाँ

लगभग २ बजे रोमांच आरंभ होने लगा। सभी नौकाओं को १.२५ किलोमीटर तक जाने में ४ से ५ मिनटों का समय लगता है। आप कहाँ खड़े हैं यह निर्धारित करता है कि आप दौड़ का कौन सा भाग देखने वाले हैं। सौभाग्य से मैं अंत रेखा के समक्ष ही बैठी थी। अतः मुझे कई दौड़ों के रोमांचक अंत का आनंद उठाने का अवसर प्राप्त हुआ।

लयबद्ध रीति से चप्पू चलाकर जलसतह को काटते हुए जैसे ही नौकाएं अंत रेखा की ओर बढ़ने लगीं, चारों ओर उत्तेजना का वातावरण हो गया। दर्शक अपने इच्छित दल का उत्साह वर्धन कर रहे थे। सम्पूर्ण प्रक्रिया कुछ क्षणों में ही समाप्त हो जाती है। पलक झपकायी तो आप कुछ देख नहीं पाएंगे। किन्तु उत्साह एवं उत्तेजना इतनी शीघ्र समाप्त नहीं होती। विजयी होने का उत्सव दौड़ समाप्त होने के पश्चात भी बहुत देर तक जारी रहता है।

प्रमुख दौड़ों के मध्य अन्य प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। जैसे स्त्रियों की नौका दौड़ जिसमें स्त्रियाँ रंगबिरंगी साड़ियाँ धारण कर नौकाएं खेती हैं।

इस प्रतियोगिता के विजयी थे ट्रापिकल टाइटन। इनके विजय के समान उनका विजयोत्सव भी उतना ही मनोरंजक था।

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केरल नौका दौड़ प्रतियोगिता देखने के लिए कुछ यात्रा सुझाव

केरल नौका दौड़ के लिए यात्रा सुझाव नेहरू नौका दौड़ अगस्त के दूसरे रविवार को आयोजित की जाती है। अन्य प्रतियोगिताओं के लिए केरल पर्यटन का वेबस्थल देखें

प्रतियोगिता के टिकट ऑनलाइन उपलब्ध हैं। अन्यथा प्रतियोगिता स्थल से भी आप टिकट क्रय कर सकते हैं। प्रतियोगिता के टिकट १०० रूपये से लेकर ३००० रुपयों तक हैं। ३००० रुपयों का टिकट लेकर आप अतिविशिष्ट व्यक्तियों के साथ टापू पर बैठकर दौड़ देख सकते हैं।

यह स्थान अत्यन्त भीड़-भाड़ भरा होता है। अतः भीड़ का सामना करने के लिए सज्ज हो जाईए।

प्रतियोगिता स्थल पर मूलभूत खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं। केरल का सर्वप्रसिद्ध खाद्य पदार्थ, ‘केले के चिप्स’ केरल में हर ओर उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कलदी – केरल में आदिगुरूआदि शंकराचार्य की जन्म स्थली https://inditales.com/hindi/adi-shankaracharya-janam-sthali-kalady/ https://inditales.com/hindi/adi-shankaracharya-janam-sthali-kalady/#comments Wed, 04 Sep 2019 02:30:12 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1493

कलदी, इस स्थान के विषय में मुझे सर्वप्रथम जानकारी तब प्राप्त हुई थी जब मैं आदि शंकराचार्यजी की जीवनी पढ़ रही थी। मैंने ढूंडने का प्रयत्न किया कि कलदी कहाँ है? गूगल की सहायता से ज्ञात हुआ कि यह कोच्ची हवाईअड्डे से अत्यंत समीप स्थित है। मन ही मन निश्चय कर लिया था कि प्रथम […]

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कलदी, इस स्थान के विषय में मुझे सर्वप्रथम जानकारी तब प्राप्त हुई थी जब मैं आदि शंकराचार्यजी की जीवनी पढ़ रही थी। मैंने ढूंडने का प्रयत्न किया कि कलदी कहाँ है? गूगल की सहायता से ज्ञात हुआ कि यह कोच्ची हवाईअड्डे से अत्यंत समीप स्थित है। मन ही मन निश्चय कर लिया था कि प्रथम अवसर में ही वहाँ जाने का प्रयत्न करुँगी।

कीर्ति स्तम्भ - कांची मठ, कलदीमेरी इच्छा शीघ्र ही पूर्ण हुई जब मुझे केरल यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ। इस अवसर को हाथ से जाने ना देते हुए मैंने पूर्णा नदी के तीर स्थित आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली के दर्शन को तुरंत अपने यात्रा-कार्यक्रम में सम्मिलित कर लिया। पूर्णा नदी अब पेरियार नदी के नाम से जानी जाती है।

आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली कलदी में आप अब भी कई मंदिर देखेंगे जहां उनकी माताश्री पूजा अर्चना करती थीं। आज उस स्थान पर श्रृंगेरी मठ स्थापित है। इस स्थान को आदि शंकराचार्य जन्म क्षेत्र कहा जाता है। अर्थात् वह क्षेत्र जिसकी धरती पर भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक के प्रथम चरण स्पर्श हुए थे।

कलदी की दन्तकथा

आदि शंकर जन्म क्षेत्र में केरल शैली में चित्रकारी
आदि शंकर जन्म क्षेत्र में केरल शैली में चित्रकारी

कलदी का अक्षरशः अर्थ है, पदचिन्ह। कुछ किवदंतियों के अनुसार, पूर्णा अर्थात् पेरियार नदी गाँव से कुछ दूरी पर बहती थी। एक दिन बाल शंकराचार्य की माता नदी की ओर जाते समय मूर्छित होकर गिर पड़ी। उन्हें देख शंकराचार्य आहत हो गए तथा उन्होंने कृष्ण की आराधना की। बालक की भक्ति एवं आस्था से प्रसन्न होकर कृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि नदी उनके पदचिन्हों का अनुगमन करेगी। इस प्रकार वे नदी को गाँव के समीप ले आये। आज भी कलदी पेरियार नदी के तीर बसा हुआ है।

संयोग से कलदी एवं आदि शंकराचार्य से उसके सम्बन्ध की खोज कुछ १०० वर्षों पूर्व ही हुई थी। तब से देश के विभिन्न शंकर मठों के अनुयायियों ने इस क्षेत्र के संरक्षण का बीड़ा उठाया है।

कलदी के दर्शनीय स्थल

दर्शन योग्य यहाँ तीन प्रमुख क्षेत्र हैं। उनमें से दो क्षेत्र कांची एवं श्रृंगेरी के शंकर मठों के हैं। तीसरे क्षेत्र में कई प्राचीन मंदिर एवं गाँव के चारों ओर स्थित अन्य स्थल सम्मिलित हैं। तो आईये कलदी दर्शन के लिए चलते हैं।

श्रृंगेरी मठ

कलदी श्रृंगेरी मठ यहाँ का विशालतम मठ है। आदि शंकराचार्य एवं उनकी जन्मस्थली के विषय में जानने के लिए यहीं सर्वाधिक समय व्यतीत करना चाहिए।

आदि शंकराचार्य जन्म भूमि क्षेत्र

आदि शंकर जन्म क्षेत्र - कलदी
आदि शंकर जन्म क्षेत्र – कलदी

जैसा कि इस क्षेत्र के नाम से ही विदित है, यह आदि शंकराचार्य की जन्म भूमि है। इसका प्रवेश द्वार अत्यंत ही मनमोहक है। इसकी भित्तियों पर गेरुआ नारंगी रंग में पारंपरिक केरल चित्रकारियाँ हैं जिनकी शोभा बढ़ाते हुए मध्य में गहरे रंग की लकड़ी की पट्टियां लगाई हुई हैं। द्वार के ऊपर कई चित्र शोभायमान हैं जिनमें प्रमुख हैं, शिष्यों समेत आदि शंकराचार्य, मठ की अधिष्ठात्री देवी शारदम्बा तथा मठ के विभिन्न शंकराचार्य। उन चित्रों के सौंदर्य ने मुझे इतना मोह लिया कि मैं कितने क्षण वहीं खड़ी उन्हें निहारती रही। भारतीय सौंदर्यशास्त्र से रूपांकित, समकालीन इमारतों के इतने मनमोहक अग्रभाग सामान्यतः दृष्टिगोचर नहीं होते।

और पढ़ें: श्रृंगेरी – शारदम्बा मंदिर के चहुँ ओर मंदिरों की नगरी

परिसर के भीतर एक विशाल शारदम्बा मंदिर है। जिस समय मैं यहाँ उपस्थित थी, उस समय मंदिर के पट बंद थे। झरोखों से भीतर झांकने पर मुझे सभी सप्तमातृकाओं की प्रतिमाएं दिखीं। मुझे यह विशाल भित्तियों से युक्त एक विशाल मंदिर प्रतीत हुआ। भीतर से दर्शन करने की तीव्र इच्छा दबाते हुए आशा की कि मेरी अगली यात्रा के समय कदाचित यह मंदिर मुझे अपने पट खोलकर दर्शन दे।

श्रृंगेरी मठ - कलदी
श्रृंगेरी मठ – कलदी

यहाँ मैंने आर्यम्बा का वृन्दावन देखा जो वास्तव में आदि शंकराचार्य की माता की समाधि है। एक शक्ति गणपति मंदिर भी है। आप सोच रहे होंगे कि आदि शंकराचार्य की जन्म स्थली है तो उनकी जीवनी भी यहाँ उल्लेखित अवश्य होगी। जी हाँ, आप उनकी जीवनी संगमरमर के फलकों पर पढ़ सकते हैं। आदि शंकराचार्य की जन्म स्थली उनके जन्म का मंगलगान करती है तथा दर्शनों द्वारा करोड़ों का मंगल करती है।

खुलने का समय: प्रातः ६ बजे से दोपहर १२.३० बजे तक तथा संध्या ४ बजे से रात्रि ८ बजे तक है। परिधान पर कोई विशेष पाबंदी नहीं है।

संकुल के भीतर छायाचित्रकारी की अनुमति नहीं है। मठ के विषय में अधिक जानकारी हेतु मठ के वेबसाइट पर संपर्क करें।

पूर्णा नदी के घाट

पूर्णा या पेरियर नदी के घाट
पूर्णा या पेरियर नदी के घाट

पूर्णा अर्थात् वर्तमान में पेरियार नदी आदि शंकराचार्य जन्म क्षेत्र के पृष्ठभाग से मृदुता से बहती रहती है। आदि शंकराचार्य जन्म क्षेत्र संकुल से एक पगडण्डी इस नदी तक जाती है। नदी चारों ओर से वनीय परिवेश से घिरी हुई है। इसके ऊपर एक इकलौता सेतु है जिसे आप नदी के तटों से देख सकते हैं। यदि आपने आदि शंकराचार्य के विषय में पढ़ा है तो आपने कई कथाएं पढ़ी होंगी जो आपको इस नदी तक ले आती हैं।

अवश्य पढ़ें – आदि शंकराचार्य की आत्मकथा

आदि शंकराचार्य के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। उनमें से एक कथा के अनुसार उनकी माताजी को उनके संन्यास ग्रहण करने पर आपत्ति थी। एक बार वे नदी के भीतर गये जहां एक मगरमच्छ ने उनके पैर को अपने जबड़े में जकड़ लिया। शंकराचार्य ने अपनी माता से कहा कि मगरमच्छ उनके पैर तभी छोड़ेगा जब वे उन्हें संन्यास लेने की अनुमति दे दें। उनकी माताजी ने उन्हें सहमति दे दी। इस घटना ने बालक शंकराचार्य के आदि शंकराचार्य बनने के द्वार खोल दिए। यहाँ प्राचीन कृष्ण मंदिर में इस कथा पर आधारित एक भित्तिचित्र आप देख सकते हैं।

प्राचीन श्री कृष्ण मंदिर

कलदी का प्राचीन कृष्णा मंदिर
कलदी का प्राचीन कृष्णा मंदिर

श्री कृष्ण मंदिर इस नगरी का प्राचीनतम मंदिर है। आदि शंकराचार्यजी के माता-पिता यहाँ पूजा अर्चना हेतु आते थे। आप उनकी कथाओं में इस मंदिर का उल्लेख देख सकते हैं। वर्तमान में यह मंदिर एक नवीन संरचना है जिसका मुख्य भाग आज भी छोटा सा है।

प्राचीन श्री कृष्ण मंदिर
प्राचीन श्री कृष्ण मंदिर

इसका परिसर अत्यंत विशाल है। मंदिर संकुल में एक मंदिर धर्म शास्त्र को समर्पित है जिन्हें कार्तिक का अवतार माना जाता है। यहाँ कई भित्तिचित्र हैं जिनमें अन्य देवताओं की उपस्थिति में बालक शंकराचार्य को उनकी माता के संग कृष्ण की भक्ति करते दर्शाया गया है। एक अन्य भित्तिचित्र में वे एक मगरमच्छ से क्रीड़ा कर रहे हैं।

आगंतुकों हेतु परिधान संहिता: पारंपरिक वस्त्र

कलदी कांची कामकोटी पीठम

कांची मठ ने एक अति सुन्दर कीर्ति स्तंभ की स्थापना करवाई है जो आदि शंकराचार्य द्वारा बताये गए भक्ति के ६ पथों का प्रतीक है।

श्री आदि शंकराचार्य कीर्ति स्तंभ मंडप

आदि शंकर कीर्ति स्तम्भ मंडप
आदि शंकर कीर्ति स्तम्भ मंडप

गेरुए रंग के इस ऊंचे स्तंभ में कई झरोखे हैं जिन्हें देख आपको किसी प्राचीन मंदिर में स्थित ऊंचे दीपस्तंभ का स्मरण होगा। यह अपेक्षाकृत नवीन संरचना है। सौंदर्य की अत्यधिक कमतरता भी इसका प्रमाण है। प्रवेश द्वार पर दो गज प्रतिमाएं हैं। द्वार के ऊपर अपने चार शिष्यों समेत शंकराचार्य की प्रतिमाएं हैं। मेरे अनुमान से इन्ही चार शिष्यों ने कालान्तर में भारत के चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी।

आदि शंकर कीर्ति स्तम्भ का प्रवेश द्वार
आदि शंकर कीर्ति स्तम्भ का प्रवेश द्वार

मंडप के भीतर एक घुमावदार ढलुआ मार्ग आपको ऊपर ले जाता है। ऊपर जाते हुए आप हिन्दू धर्म के ६ पंथों को समर्पित मन्दिर देखेंगे जिनके देव क्रमशः गणेश, षन्मुख अर्थात् कार्तिकेय, सूर्य, विष्णु, शक्ति तथा शिव हैं। प्रत्येक मंदिर में देवों की पूजा अर्चना आदि शंकराचार्य द्वारा की जाती है। ऊपर जाते हुए ढलुआ मार्ग की भित्तियों पर आप आदि शंकराचार्य की जीवनी देख सकते हैं। उनके जीवन की कई घटनाओं को नक्काशी एवं चित्रकला द्वारा यहाँ चित्रित किया गया है।

कीर्ति स्तंभ के ऊपरी तलों से आप केरल के हरे-भरे ग्रामीण क्षेत्रों के अप्रतिम विहंगम दृश्य देख सकते हैं।

कीर्ति स्तंभ के भीतर प्रवेश करने के लिए १०/- रुपयों का नाममात्र शुल्क है।

कांची मठ के मंदिर

कांची मठ के छोटे मंदिर
कांची मठ के छोटे मंदिर

कांची मठ के इसी परिसर में दो छोटे मंदिर और हैं। उनकी जन्म स्थली का प्रतीक, आदि शंकराचार्य का मंदिर इनमें से एक है। दूसरा मंदिर शिव पार्वती तथा गणेश को समर्पित है। यद्यपि ये मंदिर छोटे एवं साधारण हैं तथापि आपको इनके भीतर विशेष ऊर्जा का अनुभव तुरंत प्रतीत होगा।

इन दोनों मंदिरों के पृष्ठभाग छोटे एवं गोलाकार हैं। ये उस क्षेत्र की वास्तु शैली का अनुसरण करती प्रतीत होती हैं।कलदी के प्राचीन मंदिर एवं अन्य आकर्षण

भारत प्राचीन मंदिरों से भरा हुआ है। किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में आप इन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। यहाँ भी मैंने एक प्राचीन मंदिर देखा जो केरल की देवालय वास्तुकला का ठेठ नमूना था।

नायथोडू शंकर नारायण मंदिर

नायथोडू शंकर नारायण मंदिर
नायथोडू शंकर नारायण मंदिर

यह मंदिर कोची विमानतल से अत्यधिक समीप स्थित है। दूर से यह एक बड़ा घर प्रतीत होता है जिसकी श्वेत भित्तियाँ तथा लाल टाईलों युक्त तिरछी छत है। हमने भीतर प्रवेश कर एक खुले प्रांगण में एक अन्य छोटे घर के समान संरचना देखी। एक संकरी गली हमें इसके प्रवेश द्वार तक ले गयी। भीतर एक सुन्दर गोलाकार मंदिर था जो लाकड़ी स्तंभों से घिरा हुआ था।

केरल के काष्ठ से घिरे भित्ति चित्र
केरल के काष्ठ से घिरे भित्ति चित्र

मंदिर की सम्पूर्ण गोलाकार भित्ति पर मद्धम गहरे नारंगी रंग में भित्तिचित्र बने हुए हैं। मैंने इस प्रकार के भित्तिचित्र इससे पूर्व त्रिवेंद्रम के पद्मनाभस्वामी मंदिर में देखे थे। छत से पीतल के दीपक लटकाए हुए हैं। चारों दिशाओं पर बनी पाषाणी सीड़ियाँ आपको गर्भगृह तक ले जाती हैं। प्रवेश द्वारों पर शिला के द्वारपाल स्थापित हैं। इन्हें देख मैं कल्पना के विश्व में खो गयी कि संध्याकाळ में तेल के दीपक प्रज्ज्वलित करने के पश्चात ये भित्ति चित्र कितने मनमोहक प्रतीत होते होंगे। दीपकों पर एकत्र तेल एवं कालिमा अवश्य बता रहे थे कि इन्हें संध्याकाळ प्रज्ज्वलित किया जाता है।

केरल की देवालय वास्तुकला

केरल के मंदिरों के काष्ठ मंडप
केरल के मंदिरों के काष्ठ मंडप

नायथोडू शंकर नारायण मंदिर में जब हम पहुंचे, दोपहर का समय हो चुका था। यह समय सामान्यतः भक्तों द्वारा देव दर्शन का नहीं होता। कदाचित इसी कारण वहां हमारे सिवाय अन्य कोई नहीं था। सम्पूर्ण मंदिर को निहारने का मुझे पर्याप्त अवसर प्राप्त हुआ था। मृदु रंगों से रंगी गोलाकार भित्तियाँ, ढलुआ शुण्डाकार छत, लाकड़ी कोष्टक, लाकड़ी स्तंभों एवं छतों का मंडप, बाहरी भित्ती से सटे गलियारे। नायथोडू शंकर नारायण मंदिर केरल के देवालय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

पाषाण के द्वारपाल - केरल का शंकर नारायण मंदिर
पाषाण के द्वारपाल – केरल का शंकर नारायण मंदिर

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है कि यहाँ भगवान् शिव की आराधना विष्णु मंत्र द्वारा की जाती है। ऐसी मान्यता है कि भगवान् विष्णु भगवान् शिव के आराध्य हैं जो उनके संग इसी मूर्ति में वास करते हैं। शिव एवं विष्णु का एक ही प्रतिमा में वास होना एक प्रकार से आदि शंकराचार्य की अद्वैत दर्शन का उत्सव है। मुझे मंदिर के व्यालमुख भी किंचित अनोखे प्रतीत हुए। यक्ष के शीश पर बैठे व्यालमुख मुझे पुनः प्रयोग किये गए तोप की भान्ति प्रतीत हुए।

रामकृष्ण अद्वैत आश्रम – यह बेलूर के रामकृष्ण मठ की शाखा है। यह श्रृंगेरी मठ के समीप स्थित है।

मनिक्कमंगलम कार्त्यायनी मंदिर – ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य के पिता इस मंदिर में पुजारी थे।

संस्कृत विश्वविद्यालय – यह संस्कृत भाषा पर केन्द्रित स्वयं में एक अनोखा विश्वविद्यालय है।

शंकराचार्य की जन्मस्थली कलदी कैसे पहुंचें?

आदि शंकराचार्य अपनी जन्मस्थली में
आदि शंकराचार्य अपनी जन्मस्थली में

कोच्चि अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, नेदुम्बसरी ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित, कलदी से निकटतम हवाईअड्डा है। निकटतम रेल स्थानक एर्नाकुलम(लगभग ८ की.मी.), अन्गमाली( लगभग ८ की.मी.) अथवा अलुवा(लगभग १६ की.मी.) हैं। आपकी सुविधा के लिए स्थानीय बसें भी चलती हैं।

कलदी प्रसिद्ध धार्मिक नगरी गुरुवायुर से लगभग ८० की.मी. की दूरी पर है। दोनों के मध्य पर्याप्त बसें चलती हैं।

मुझे कलदी में कोई बड़ा अतिथिगृह दृष्टिगोचर नहीं हुआ। आप कोच्चि में ठहर कर दिन के समय कलदी की एक दिवसीय यात्रा कर सकते हैं। श्रृंगेरी मठ में ठहराने की कुछ सुविधायें हैं किन्तु इसके लिए आप मठ के नियमों का अध्ययन अवश्य करें।

यदि आपके पास स्वयं अपनी गाड़ी अथवा टैक्सी हो तो सर्वाधिक उचित होगा क्योंकि यहाँ के उपरोक्त उल्लेखित तीन क्षेत्र कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। आप कोच्चि हवाईअड्डे से टैक्सी के सेवा ले सकते हैं।

कलदी के ग्रामीण भागों को निहारने के लिए आप यहाँ पहुंचकर गाँव की पैदल यात्रा करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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पदयनी – केरल में माँ भगवती को प्रसन्न करने का अनोखा अनुष्ठान https://inditales.com/hindi/padayani-bhadrakali-temple-kerala/ https://inditales.com/hindi/padayani-bhadrakali-temple-kerala/#comments Wed, 12 Jun 2019 02:30:43 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1383

पदयनी केरल के देवी मंदिरों का एक अनुष्ठान है। पदयनी शब्द की व्युत्पत्ति पेदनी से हुई है जिसका अर्थ है, सेना अथवा सैन्य संरचना। आप सोच रहे होंगे कि क्या यह उत्सव युद्ध के वीरों की स्मृति में मनाया जाता है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ भी है तथा ना भी! हाँ इसलिए क्योंकि यह […]

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पदयनी केरल के देवी मंदिरों का एक अनुष्ठान है। पदयनी शब्द की व्युत्पत्ति पेदनी से हुई है जिसका अर्थ है, सेना अथवा सैन्य संरचना। आप सोच रहे होंगे कि क्या यह उत्सव युद्ध के वीरों की स्मृति में मनाया जाता है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ भी है तथा ना भी! हाँ इसलिए क्योंकि यह युद्ध का उत्सव है। ना इसलिए क्योंकि यह मानव युद्ध से सम्बंधित उत्सव नहीं है। आपको और भ्रम में ना डालते हुए सीधे बताती हूँ। यह उत्सव देवी भद्रकाली का राक्षसों से युद्ध एवं उन पर विजय का उत्सव है। भिन्न भिन्न आकार-विकार के राक्षस जिनमें कुछ हमारे भीतर हैं तथा कुछ बाहर।

पदयनी - केरल के भद्रकाली मंदिरों का अनुष्ठान पदयनी अनुष्ठान मध्य केरल में पम्पा नदी के तट पर स्थित कई भगवती अर्थात् भद्रकाली मंदिरों में मनाया जाता है। मुझे बताया गया कि शास्त्रों में जिन ६४ कलाओं का उल्लेख है उन सभी कलाओं का प्रयोग इस पदयनी अनुष्ठान में किया जाता है।

पारंपरिक रूप से इस अनुष्ठान का आयोजन २१ रात्रियों के लिये किया जाता था। वर्तमान में यह अनुष्ठान केवल ७ अथवा ३ रात्रियों में ही सिमट कर रह गया है। कभी कभी तो इसे केवल एक रात्रि में ही संकुचित कर दिया जाता है।

ऐसे ही एक दिवसीय अनुष्ठान में भाग लेने का सौभाग्य मुझे कुछ समय पूर्व प्राप्त हुआ। अपनी केरल यात्रा के अंतिम दिवस मुझे इस अनुष्ठान का आनंद उठाने का सुअवसर प्राप्त हो रहा था। मेरा उत्साह संभाले नहीं संभल रहा था।

पदयनी की पृष्ठभागीय कथा

देवी भद्रकाली ने राक्षसों के वध हेतु रौद्र रूप धारण किया था। देवी ने अपने इस रूप में दारुक जैसे दानवों का वध किया था जिन्हें मारना अन्यथा असंभव हो गया था। दारुक वध के पश्चात भी देवी का क्रोध शांत नहीं हुआ। क्रोधित अवस्था में ही देवी ने, हिमालय में अपने पिता शिव के निवास, कैलाश की ओर प्रस्थान किया।

देवी के क्रोध की अग्नि को शांत करना आवश्यक था। अतः शिवजी तथा उनके भूतगणों ने स्वयं को पत्तों से अलंकृत कर उनको प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। उन्हें शांत करने के लिए उनके समक्ष नृत्य एवं गायन प्रस्तुत किया। इस पर भी देवी का क्रोध शांत नहीं हुआ। तभी देवी की दृष्टी धरती पर बने कोलम अर्थात् रंगोली द्वारा बनी आकृति पर पड़ी। यह उनकी ही क्रोधित अवतार की छवि थी। उसे देख देवी प्रसन्न हुई। ऐसा माना जाता है कि यह सृष्टि की प्रथम कोलम थी जिसकी रचना किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं कार्तिकेय ने की थी। इस घटना को कलमेड्त्तुम अनुष्ठान का आरम्भ माना जाता है।

और पढ़ें: कलमेड्त्तुम पाट्टुम– केरल के भद्रकाली मंदिर का एक अनुष्ठान

भगवती अर्थात् भद्रकाली को प्रसन्न करने की इस घटना को पदयनी अनुष्ठान द्वारा पुनः सजीव किया जाता है। भगवती के समक्ष नर्तक नृत्य प्रस्तुत करते हैं। सब नर्तक अपने मुँह पर मुखौटे पहनते हैं जिन पर रंगोली के सामान आकृतियाँ बनी होती हैं। इसीलिए इन मुखौटों को भी कोलम कहा जाता है। जो गीत गाया जाता है उसे थप्पू कहते हैं। मदन, मरुथ, यक्षी, पक्षी, कलां कोलम, भैरवी कोलम इत्यादि नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं। प्रत्येक नृत्य में एक प्रमुख नर्तक होता है। एक नृत्य में मुख्य नर्तक शिव का वेश भी धरता है।

गायन एवं नृत्य इस अनुष्ठान का ही भाग हैं। इस अनुष्ठान के अंत में जो नृत्य प्रस्तुत किया जाता है उसमें भगवती अथवा भद्रकाली शांत अवस्था में नृत्य प्रस्तुत करते हुए सबको आशीर्वाद देती है।

मुझे बताया गया कि आरम्भ में पदयनी अनुष्ठान केरल के गनक समुदाय द्वारा किया जाता था। गनक समुदाय अर्थात् केरल का वैद्य समाज। हो सकता है यह अनुष्ठान मानसिक अथवा आध्यात्मिक चिकित्सा का एक रूप हो। कुछ जानकारों का मानना है कि गनक समुदाय के नागरिक आत्मरक्षण युद्धविद्या का भी अभ्यास करते थे। पदयनी के प्रदर्शन में इस आत्मरक्षण युद्धविद्या की झलक अवश्य देखने को मिलती है।

पदयनी अनुष्ठान मुख्यतः नवम्बर मास से अप्रैल मास के बीच संपन्न किया जाता है। प्रत्येक गाँव के मंदिरों में भिन्न भिन्न तिथियों में यह संस्कार संपन्न किया जाता है।

नृत्य के लिए मुखौटे

संध्याकालीन अनुष्ठान हेतु तैयार होते मुखौटों द्वारा पदयनी से मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ।

पदयनी के मुखौटेएक विशाल कक्ष में पदयनी के सदस्यों ने सम्पूर्ण दिवस लगाकर सुपारी के वृक्ष के विभिन्न भागों का प्रयोग कर कई ताजे मुखौटे बानाए थे। इनमें कुछ मुखौटे तो इतने विशाल थे कि मैं सोच में पड़ गयी, कोई इन्हें पहनेगा कैसे? कक्ष के एक कोने में खड़े होकर मैं शान्ति से उनके दक्ष हाथों द्वारा सुपारी के वृक्ष के विभिन्न भागों को सुन्दर सज्ज मुखौटों में परिवर्तित होते देख रही थी एवं स्तब्ध हो रही थी।

और पढ़ें : कथकली – केरल का पारंपरिक नृत्य

बड़े बड़े सुसज्जित मुखौटे तो अपने विशाल आकार के कारण ध्यानाकर्षित कर ही रहे थे, किन्तु छोटे मुखौटों की सुन्दरता भी कुछ कम नहीं थी। चारों ओर मुखौटों में लगने वाली आँखें, आभूषण तथा अन्य सामग्रियां बिखरी पड़ी थीं। कुछ समय पश्चात मैं मुखौटों एवं इन सामग्रियों को नर्तकों के सर पर सजते देखने वाली थी। उस समय मैं कल्पना करने में असमर्थ थी कि इन मुखौटों को धारण कर नर्तक कैसे लगने वाले थे। उन्हें प्रत्यक्ष देखने की उत्सुकता थी।

पदयनी के मुखौटे बनते हुए
पदयनी के मुखौटे बनते हुए

मुखौटों को बनाने के लिए सुपारी के वृक्षों के हरे पत्तों पर गहरे लाल एवं काले रंग का प्रयोग किया गया था। रंगबिरंगे चित्रों द्वारा भिन्न भिन्न भावों को उभारा गया था। इनमें मुख्यतः रौद्र रूप ही प्रधान दिखा।

ये मुखौटे नर्तक को भिन्न भिन्न रूप प्रदान कर रहे थे। जैसे भिन्न भिन्न देवता, दानव तथा कभी कभी लोगों का मनोरंजन करते विदूषक भी।

इन मुखौटों को कोलम तथा इस मूल कला को कोलम थुल्लल कहा जाता है। इसका अर्थ है मुखौटों के साथ नृत्य करना।

कलमेड्त्तुम पाट्टुम के ही समान, पदयनी के विभिन्न क्रियाकलापों को विभिन्न समुदायों द्वारा संपन्न किया जाता है। जैसे नायर समाज पदयनी का प्रदर्शन करता है, वहीं कनियर समाज पत्तों द्वारा भव्य वस्त्रों, आभूषणों एवं मुखौटों को बनाता है।

केरल के पदयनी अनुष्ठान का विडियो

पदयनी – भद्रकाली को शांत करने का अनोखा अनुष्ठान

पदयनी अनुष्ठान के लिए बहुत सारे लोग एवं उन लोगों की सक्रिय भागीदारी अत्यंत आवश्यक है। अतः यह स्पष्ट है कि इसके लिए एक बड़े स्थान की भी आवश्यकता होगी। मैंने यह अनुष्ठान अमृता विश्वविद्यालय में देखा था। वहां विश्वविद्यालय का सम्पूर्ण मध्यवर्ती प्रांगण कलाकारों के लिए निश्चित किया गया था। हम जैसे स्तब्ध दर्शकों ने प्रांगण के चारों ओर स्थित गलियारों में डेरा जमा लिया था।

इस अनुष्ठान का आरम्भ दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। दीप जलाने के लिए पवित्र आनुष्ठानिक अग्नि प्रांगण में लाई गयी थी। यह दीप अब सम्पूर्ण रात्रि के लिए अनुष्ठान का केंद्र होने वाला था।

पदयनी नृत्य

माँ भद्रकाली का नृत्य
माँ भद्रकाली का नृत्य

श्वेत व लाल रंग की वेष्टियाँ एवं श्वेत अंगवस्त्र पहने पुरुषों ने अब धीरे धीरे दीप के चारों ओर नृत्य आरम्भ कर दिया था। इन नर्तकों को लय प्रदान करता संगीत प्रांगण के एक छोर से आ रहा था। संगीतकारों का एक समूह वाद्य बजा रहा था, वहीं एक समूह भगवती की प्रशंसा में गीत गा रहा था।

थप्पू – थप्पू एक प्रकार का वाद्ययन्त्र है। पदयनी में बजने वाले वाद्यों में थप्पू प्रमुख वाद्य है। वस्तुतः कई सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ कि अनुष्ठान का आरम्भ थप्पू को गर्म कर किया जाता है। इसे थप्पू चूडक्कल कहते हैं। अन्य वाद्य हैं, चेंडा, परा, कुम्भम एवं कैमनी।

थप्पू बजाते संगीतज्ञ
थप्पू बजाते संगीतज्ञ

दीप के चारों ओर नाचते नर्तकों की गति अब बढ़ने लगी थी। उनके नृत्य मुद्राएँ भी अब जटिल होने लगी थीं। सब नर्तक लगभग अवचेतन अवस्था में पहुँच गए थे।

कुछ क्षण पश्चात सब नर्तक वहां से हट जाते थे एवं उनका स्थान एक अथवा कई मुखौटाधारी पुरुष ग्रहण करते थे। ये पुरुष सर पर मुखौटे उठाये एवं हाथों में तलवार व मशाल उठाये ओजपूर्ण नृत्य करते थे। कभी कभी ये दोनों समूह आपस में संवाद साधते एक दूसरे में प्रवेश भी करते थे। सब कुछ घड़ी के कांटे सा सटीक चल रहा था मानो ये कलाकार प्रतिदिन यह अनुष्ठान ही करते रहते हों।

पदयनी के कोलम

जिस प्रकार पदयनी के मुखौटों को कोलम कहा जाता है, उसी प्रकार नृत्य के एक अंग को भी कोलम कहा जाता है। प्रत्येक कोलम एक भिन्न कथा कहता है तथा एक भिन्न पौराणिक कथानक प्रस्तुत करती है।

प्रज्वलित दीप के इर्द गिर्द नृत्य
प्रज्वलित दीप के इर्द गिर्द नृत्य

पदयनी अनुष्ठान में कई कोलम प्रस्तुत किये जाते हैं। कुछ लोकप्रिय कोलम इस प्रकार हैं:

गणपति कोलम – इस कथानक अर्थात् कोलम में गणेश के जन्म की कथा प्रदर्शित की जाती है। मेरा ऐसा विश्वास है कि इस कोलम का प्रदर्शन सर्वप्रथम किया जाता है।

यक्षी कोलम – इस कोलम में यक्षों की गाथा दिखाई जाती है। यक्ष अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं।

नर्तकों का श्रृंगार
नर्तकों का श्रृंगार

मादं कोलम – यह कथा है मवेशियों के रक्षक की एवं उसकी है जो अपनी परछाई से किसी का भी वध कर सकता है।

कालं कोलम – यह प्रतीक है समय एवं काल के देवता दोनों का। कालं कोलम कथा है अल्पायु प्राप्त ऋषि मार्कंडेय की। शिव भक्ति द्वारा उन्हें दीर्घायु की प्राप्ति हुई थी। यदि आप ऋषि मार्कंडेय के विषय में और जानना चाहें तो मेरे संस्करण कुरुक्षेत्र में पढ़ सकते हैं। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कोलम है। वैशिष्ठ्य प्राप्त कलाकार स्वयं इसका प्रदर्शन करते हैं।

कालं कोलम के मुख्य नर्तक
कालं कोलम के मुख्य नर्तक

मरुथ कोलम – यह कोलम चेचक की देवी को शांत एवं प्रसन्न करने के लिए किया जाता है ताकि चेचक का समूल नाश हो सके। चेचक की देवी को मंदोदरी का पुनर्जन्म माना जाता है। मंदोदरी अर्थात् दारुक की पत्नी, जिसका वध स्वयं देवी ने किया था। ऐसी मान्यता है कि मंदोदरी के रूप में चेचक की देवी ने काली की देह में चेचक के बीज बोये थे। तत्पश्चात मरुथ बनकर उसका इलाज भी किया।

पक्षी कोलम – पक्षी कोलम उन पक्षियों की कहानी कहती है जो रोते हुए शिशुओं में रोग फैलाते हैं।

भैरवी कोलम – इस कोलम में देवी का रौद्र रूप दर्शाया जाता है। यह कोलम इस अनुष्ठान के अंत में किया जाता है। इसका मुखौटा सुपारी वृक्ष के १०१ पत्तियों से निर्मित होता है।

गन्धर्व कोलम
मुकिलन कोलम
पिशाचु कोलम
मनुष्य कोलम – साधारण मानव को दर्शाया जाता है।
परदेशी कोलम – अपनी धरती पर उपस्थित परदेशियों से सम्बंधित है यह कोलम।

कलाकार प्रत्येक कोलम में उससे सम्बंधित विशेष मुखौटा धारण करते हैं।

कोलम में विनोद

मैंने देखा कि नृत्यों एवं कोलमों के मध्य कुछ संवाद किये जा रहे थे। विदूषक जैसा दिखने वाला एक कलाकार बीचोंबीच खड़ा होकर गायकों से बातचीत करने लगता। यूँ तो मुझे उस संवाद का कोई ओर-छोर नहीं लगा, किन्तु उस विदूषक के स्वरों को सुनकर इतना अवश्य कह सकती हूँ कि वह किसी प्रचलित सामयिक विषय पर व्यंग कस रहा था। मैं समझ रही थी कि यह पूर्ण प्रदर्शन एक हंसी-ठठ्ठा है जो पदयनी अनुष्ठान की गंभीरता में कुछ मनोरंजक तत्वों का समावेश करने का प्रयत्न कर रहा था।

साधारणतः पदयनी के मध्य प्रदर्शित यह विनोद मनुष्य अथवा परदेशी कोलम का भाग होते हैं।

पदयनी नर्तक अपनी वेशभूषा सवारते हुए
पदयनी नर्तक अपनी वेशभूषा सवारते हुए

पदयनी के अंतिम चरण में एक जीवित वृक्ष की शाखाओं के समन्वय द्वारा एक वृक्ष की रचना की गयी। एक कलाकार ने इस वृक्ष पर चढ़कर वहां से नीचे छलांग लगाई। लोग यहाँ-वहां दौड़ रहे थे मानो किसी जंगल में दौड़ रहे हों। अंत में एक प्रदर्शक ने एक पंक्ति में रखे कई नारियलों को फोड़ा। इसे देख मेरे मष्तिष्क में एक बात आयी। कदाचित इन नारियलों को फोड़ना, किसी समय यहाँ दी जाती बलि का वर्तमान द्योतक है। कुछ क्षण पश्चात यही नारियल हमें प्रसाद के रूप में दिया जाने वाला था। सम्पूर्ण रात्रि इस प्रदर्शन को देखने के पश्चात थोड़ी भूख लग गयी थी। मैं इस प्रसाद का व्याकुलता से प्रतीक्षा करने लगी।

अंत में भगवती आयीं एवं उन्होंने नृत्य प्रस्तुत किया। नर्तक का मुखौटा उसकी ऊंचाई से कहीं अधिक लंबा था। मैंने सभी नृत्यों की भरपूर प्रशंसा की। साथ ही मैं सभी नर्तकों की भरपूर ऊर्जा से अत्यंत प्रभावित थी। सम्पूर्ण रात्रि बिना थके वे अनवरत प्रदर्शन कर रहे थे।

सम्पूर्ण अनुष्ठान में अग्नि का भी भरपूर प्रयोग किया गया था। पदयनी के अंतिम कोलम में भगवती ने हाथों में मशाल पकडे हुए थी।

अनुष्ठान समाप्त होते होते प्रातः ४ बज गए। आश्चर्यजनक रूप से मुझे निद्रा भी नहीं आ रही थी। गीत-संगीत एवं ओजपूर्ण फुर्तीले नृत्यों ने ऐसी ऊर्जा उत्पन्न कर दी थी कि हमारे मष्तिष्क से निद्रा का विचार लुप्त हो गया था। इन सब के पश्चात जब मैं गाड़ी से तिरुअनंतपुरम के विमानतल की ओर जा रही थी, मैं सोचने लगी कि जो मैंने देखा वह एक स्वप्न था अथवा मैंने वास्तव में एक सम्पूर्ण रात्रि कला, संस्कृति, आध्यात्म, तंत्र तथा मानवी उत्साह के अनोखे सम्मिश्रण की अनुभूति में व्यतीत की है।

पदयनी – एक प्राचीन किन्तु जागृत कला

मैंने वापिस आकर पदयनी के विषय में कुछ और जानकारी एकत्र की। मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि सन् २००४ से पदयनी को पुनर्जीवित करने के सक्रिय प्रयास किये जा रहे हैं। पदयनी प्रदर्शन के लिए युवकों को कोलम कला में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। पदयनी नाम से एक गाँव के विकास की भी योजना है। मेरे विचार से यदि इन प्रयासों को विश्वासपूर्वक सही दिशा दी गयी तो यह केरल पर्यटन को एक विशेष आयाम प्रदान करेगा तथा उसे नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाएगा।

पदयनी पर और अधिक जानकारी के लिए प्राध्यापक कदाम्मनित्त रामकृष्णन द्वारा एकत्रित किया गया साहित्य पढ़ें अथवा इस वेबस्थल पर देखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कलमेड्त्तुम पाट्टुम – केरल के मन्दिरों का एक मनमोहक अनुष्ठान https://inditales.com/hindi/kalamezhuthum-pattum-bhadrakali-temple-ritual-kerala/ https://inditales.com/hindi/kalamezhuthum-pattum-bhadrakali-temple-ritual-kerala/#comments Wed, 27 Mar 2019 02:30:19 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1247

कलमेड्त्तुम पाट्टुम मेरी केरल यात्रा की एक अप्रत्याशित खोज थी। यह उस समय की बात है जब मैं ‘भारत में देवी पूजन’, इस  विषय पर एक संगोष्ठी अर्थात् सेमीनार में भाग लेने केरल आयी थी। उस समय तक  मुझे यह अनुमान नहीं था कि केरल में देवी आराधना, विशेषतः देवी के भद्रकाली रूप की आराधना […]

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कलमेड्त्तुम पाट्टुमकलमेड्त्तुम पाट्टुम मेरी केरल यात्रा की एक अप्रत्याशित खोज थी। यह उस समय की बात है जब मैं ‘भारत में देवी पूजन’, इस  विषय पर एक संगोष्ठी अर्थात् सेमीनार में भाग लेने केरल आयी थी। उस समय तक  मुझे यह अनुमान नहीं था कि केरल में देवी आराधना, विशेषतः देवी के भद्रकाली रूप की आराधना इतनी लोकप्रिय है। इस संगोष्ठी में प्रस्तुत कुछ परिसंवादों के द्वारा मुझे केरल में देवी आराधना की कुछ झलक प्राप्त हुई। यदि मैंने इस संगोष्ठी में भाग ना लिया होता तो मुझे रत्ती भर भी आभास नहीं होता कि संगोष्ठी कक्ष  के बाहर स्थित मंदिर में मैं एक अद्भुत अतिरंजना के दर्शन करने वाली हूँ।

हमें बताया गया कि वहां एक भव्य कोलम अर्थात् रंगोली बनायी जायेगी, तत्पश्चात उसकी पूजा की जायेगी। मैंने अनुमान लगाया कि यह एक बड़ी एवं ज्यामितीय, मंडल के आकार की सुन्दर सी रंगोली होगी। परन्तु वहां मंदिर के भीतर एक अत्यंत ही लुभावना दृश्य हमारे सम्मुख प्रस्तुत हुआ।  अमृतापुरी के इस मंदिर में जिस अद्भुत दृश्य ने हमें दंग कर दिया, आईये उसकी एक झलक आपको देती हूँ।

कलमेड्त्तुम पाट्टुम – केरल के मन्दिरों का अनुष्ठान

प्रातः ११ बजे:- पूजा द्वारा अनुष्ठान का आरम्भ

सर्वप्रथम पूजन द्वारा मंदिर के धार्मिक संस्कारों का आरम्भ किया गया। इसके लिए चार स्तंभों पर एक मंडप सजाया गया था। इसके ऊपर श्वेत वस्त्र का छत्र था, जिसे यहाँ ‘कूर’ कहा जाता है। मंडप के मध्य लकड़ी की चौकी को टिकाकर एक चंद्राकार तलवार रखी हुई थी। यह शस्त्र पूर्णतः तलवार ना होते हुए तलवार एवं हंसिये के मध्य का आकार लिए हुए था। वह चंद्रहास था, माँ भद्रकाली का शस्त्र । चौकी के ऊपर एवं  चारों कोनों में केले के पत्तों पर धान्य के छोटे छोटे ढेर सजाये हुये थे। ये समृद्धी के  प्रतीक हैं। अब उनके समक्ष दीप जलाये जा रहे थे।

कोलम बनाने से पहले पूजा
कोलम बनाने से पहले पूजा

धार्मिक विधि का प्रारंभ शंखनाद से  किया गया। पूजा के यजमान ने पंडित को लाल वस्त्र प्रदान किया जिसे पंडित ने मंडप के छत्र पर रखा। तदनंतर वादकों के अप्रतीम संगीत के साथ पूजन आरंभ किया गया।

हमने लगभग आधे घंटे तक पूजा का आनंद लिया। उसके पश्चात हम संगोष्ठी कक्ष में वापिस लौट आये।

द्वितीय प्रहर १२ बजे – भद्रकाली का कोलम

दोपहर १२ बजे भोजन हेतु हमारी संगोष्ठी को कुछ समय के लिए लिए विश्राम दिया गया था। इस समय  का सदुपयोग करते हुए मैं तत्काल मंदिर पहुँच गयी। मन में जानने की उत्सुकता थी कि रंगोली कितनी बन गयी व कैसी लग रही होगी। वहां पहुंचकर जो मैंने देखा, मैं दंग रह गयी। मंडप के नीचे, रंगोली द्वारा आठ भुजाओ वाली देवी की सुडौल व विशाल रूपरेखा बनायी हुई थी। देवी के प्रत्येक हस्त में उनका एक भव्य आयुध बनाया गया था। लगभग आधी रूपरेखा रंगों से भर चुकी थी। बचा आधा भाग रंगों की प्रतीक्षा कर रहा था।

माँ भद्रकाली का चित्र बनते हुए
माँ भद्रकाली का चित्र बनते हुए

यहाँ मुझे बताया गया कि इस कलमेडित्त अथवा रंगोली बनाने के लिए पांच रंगों का प्रयोग किया जाता है, लाल, पीला, काला, हरा एवं श्वेत। प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग कर वे स्वयं इन रंगों को बनाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। रसायनों के अतिक्रमण से पूर्व भारत में प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग ही प्रचलित था। श्वेत रंग की रंगोली के लिए चावल का आटा, काले रंग के लिए कोयले का चूरा, पीले के लिए हल्दी, हरे रंग के लिए हरी पत्तियाँ तथा लाल रंग की रंगोली के लिए हल्दी एवं चूने के मिश्रण का प्रयोग किया जाता है।

वेष्टि धारण किये चार कलाकारों की निपुण उंगलियाँ जिस प्रकार रंगोली बनाने में व्यस्त थीं, वह देखने लायक था। सबसे चित्तरंजक था उनके द्वारा देवी के आभूषणों को रंगोली द्वारा उकेरना। जिस प्रकार उँगलियों के बीच से रंगो को गिरा गिरा कर वे आभूषणों को गड़ रहे थे, यह विस्मयाकारी दृश्य था। जब तक मैं उनकी रंगोली की कला को समझती, माँ भद्रकाली की विविध आभूषणों एवं वस्त्रों से सज्ज भव्य छवि तैयार हो चुकी थी।

माँ भद्रकाली का चित्रण अंतिम चरण में
माँ भद्रकाली का चित्रण अंतिम चरण में

मुझे बताया गया कि भद्रकाली कोलम का सम्पूर्ण रूप पूर्वनियोजित ना होकर उत्स्फूर्त  होता है। केवल मूलभूत रूप एवं मौलिक चिन्हों में परिवर्तन नहीं किया जाता। देवी के परिधान एवं आभूषण प्रतिदिन भिन्न होते हैं। अर्थात् एक निर्धारित सीमा के भीतर  कलाकारों को अपना कौशल्य प्रस्तुत करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है।

संध्या ५ बजे:- भद्रकाली कोलम पूजने हेतु सज्ज

संध्या छाने से पूर्व भद्रकाली की रंगोली से बनी विलक्षण छवि पूर्णतः तैयार हो चुकी थी। विविध रंगों से युक्त माँ भद्रकाली का रौद्र रूप स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। छाती पर लटकता भव्य कंठहार माँ की छवि को तीसरा आयाम दे रहा था ।

रंगोली पे बना दाराकासुर का सिर
रंगोली पे बना दाराकासुर का सिर

एक घंटे के पश्चात हम यहाँ फिर लौटे तो आभास हुआ कि पहले माँ भद्रकाली की छवि तो तैयार हो चुकी थी किन्तु रंगोली सम्पूर्ण नहीं हुई थी। उस रंगोली में सबसे कठिन भाग अब जोड़ा गया था। वह था दारुक दानव का सिर। दारुक वही राक्षस था जिसका देवी भद्रकाली ने वध किया था। दारुक का सिर  इतना जीवंत प्रतीत हो रहा था मानो अभी ही  देवी ने उसका वध किया हो।

हमें यहाँ कई नवीन वाद्य भी दिखे जैसे इलथलम, वीक्कम चेंडा, कुज्हल, कोम्बू तथा चेंडा।

रात्री ७ बजे:- भद्रकाली पूजन

देवी माँ अपने भद्रकाली अवतार में तैयार हो चुकी थी। एक हाथ में नाग तथा दूसरे हाथ में दारुक का सिर लिए उनका भव्य रूप अत्यंत आकर्षक प्रतीत हो रहा था। उनकी छवि के चारों ओर, नियमित अंतराल पर केले के पत्तों पर धान्य के छोटे छोटे ढेर रखे थे। मंडप के चार कोनों पर दीप जलाये हुये थे। एक पंडित ने देवी के चरणों के पास बैठकर उनकी पूजा प्रारम्भ की। पूजा द्वारा उसने देवी के स्वरूप को उस रंगोली की छवि में अवतरित की तथा उनकी आराधना की। तीन संगीतकार वाद्य बजाते हुए देवी की स्तुति गा रहे थे।

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चंद्रहास –  भद्रकाली माँ के शीश के समीप चौकी को टेक लगाए हँसियानुमा तलवार, चंद्रहास रखा हुआ था। इसके पीछे केरल का धातु का बना आईना रखा था जिसे चटक हस्तपंखे से चारों ओर सज्जित किया था। कुछ क्षण पश्चात पूजन प्रक्रिया समाप्त हुई और इसके पश्चात ढोल बजने लगे।

रात्री ९ बजे:- देवी की उत्तर पूजा

अचानक हमारा ध्यान कक्ष के बाहर एक पुजारी ने खींचा जो कुछ समय पूर्व पूजा में संलग्न था। उसके शरीर में देवी अवतरित हो रही थी। वह कांपने एवं झूमने लगा। चारों ओर घुमते हुए नृत्य करने लगा। वहां उपस्थित सब भक्तों के लिए वह देवी का रूप था। सब ने दीप एवं पुष्प से सज्ज आरती की थालियां ले कर देवी का स्वागत किया। चूंकि मैंने उस दिन साड़ी पहनी थी, मुझे भी देवी का स्वागत करने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने भी आनंदपूर्वक इस अनुष्ठान में भाग लिया।

वह जगह जगह पर रुक जाते, हमारी थालियों में रखे धान्य व पुष्प उठाते तथा चारों ओर छिड़क कर हमें आशीर्वाद देते।

पुजारी के परिवेश में माँ भद्रकाली
पुजारी के परिवेश में माँ भद्रकाली

ढोल व नृत्य की ताल अब द्रुत होने लगी थी। वह पुजारी कक्ष के भीतर पहुँच गए थे। हम भी उसके साथ कक्ष के भीतर आ गये। कक्ष में वह देवी की रंगोली के चारों ओर नृत्य करने लगे। पूरे समय उन्होंने पूजित तलवार हाथ में उठायी हुई थी। भले ही उनके हाथ कांप रहे थे परन्तु तलवार पर उनकी पकड़ मजबूत थी। अपने प्रदर्शन के अंत में वह तलवार को और जोर से घुमाते हुए देवी भद्रकाली के कोलम की परिक्रमा करने लगे। जहां कुछ लोग डर रहे थे, वहीं हम जैसे अधिकाँश लोग सामने घटित दृश्य को देख स्तब्ध थे। कुछ ३० से ४० मिनट तक उसने नृत्य किया होगा।

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इसी बीच प्रमुख पुजारी ने देवी की रंगोली से उनका चेहरा मिटा दिया। पंडित, जिन पर देवी अवतरित हुई थी, उस रंगोली के ऊपर खड़ा होकर नृत्य करने लगे तथा धीरे धीरे उसने अपने पैरों से बची रंगोली मिटाने लगे। रंगोली का यह चूर्ण वहां उपस्थित लोगों को प्रसाद के रूप में दिया गया।

पांच रंगों द्वारा बनी देवी की भव्य छवि, सुन्दर सजीला मंदिर, ढोल का गूंजता स्वर, पंडित के भीतर देवी का अवतरण तथा अपने ही धुन में पुजारी का नृत्य करना, इन सब ने हमें स्तब्ध कर दिया था। नृत्य करते करते उन्होंने कब सम्पूर्ण रंगोली तहस नहस कर दी पता ही नहीं चला। हाँ, अंत में देवी के भव्य छवि के नष्ट होने का कुछ दुःख भी अवश्य हुआ।

कलमेड्त्तुम पाट्टुम का विडियो

मुझे मंदिर के इस कलमेड्त्तुम पाट्टुम अनुष्ठान का छायाचलचित्र लेकर छोटा सा विडियो बनाने का अवसर मिला। वह विडियो आप के लिए लेकर आयी हूँ। इसे देखिये एवं सम्पूर्ण दृश्य का आनंद लीजिये।

दूसरे दिन हमने स्थानीय विशेषज्ञों को कहा कि वे हमें केरल के कलमेड्त्तुम पाट्टुम मंदिर अनुष्ठान के विषय में हर दृष्टिकोण से समझाएं। उन्होंने जो हमें बताया वह कुछ इस प्रकार है।

कलमेड्त्तुम पाट्टुम क्या है?

कलमेड्त्तुम यह मलयालम भाषा के दो शब्दों से बना है, कलम एवं एड्त्तुम। कलम का अर्थ है छवि एवं एड्त्तुम का अर्थ है चित्रित करना। अर्थात् छवि चित्रित करना। यह और बात है कि छवि का चित्रीकरण पूर्ण अनुष्ठान का एक छोटा सा भाग है। इसका पूर्ण रूप से साथ देते हैं, गायन, नृत्य एवं सुर बिखेरते वाद्य। गायन जिस भाषा में किया जाता है वह वर्तमान के तमिल व मलयालम भाषाओं का मिश्रित रूप है।

इस संस्कारों के आरम्भ में स्तुति गाकर देवी को रंगोली की छवि में अवतरित किया जाता है। वहीं अनुष्ठान के अंत में देवी को शांत करने के लिए भजन गाये जाते हैं।

कलमेड्त्तुम का सम्बन्ध फसल से भी है जहां किसान देवी से अपने फसलों की रक्षा करने का अनुरोध करते हैं।

यह उत्सव विभिन्न समुदायों को एकत्र लेकर आता है। प्रत्येक समुदाय इस उत्सव में भिन्न भिन्न भूमिका निभाता है। मुख्य अनुष्ठान ब्राम्हणों द्वारा किया जाता है। कुरूप समाज वाद्य बाजाते हैं, पोल्लुवर समाज ढोल बजाते हैं तथा क्षत्रिय पुष्प एकत्र कर हार बनाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक समाज को इस अनुष्ठान में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता है।

कलमेड्त्तुम कला यूनेस्को की विरासती सूची में सम्मिलित है।

दार्शनिक रूप से देखा जाये तो कलमेड्त्तुम पाट्टुम विश्व में मानव अस्तित्व की तीन दशायें दर्शाता है, सृष्टि, स्थिति एवं संहार।

दरुकासुर की कथा

एक समय की बात है जब दरुक नामक एक असुर ने घोर तपस्या कर भगवान् शिव को प्रसन्न किया था। उसने भगवान् शिव से वरदान माँगा कि वह अमर हो जाय, अर्थात उसे कोई मार ना सके। भगवान् शिव ने उसकी मांग स्वीकार कर ली। अमरत्व का वरदान पाकर दरुकासुर घमंडी एवं उद्दंड हो गया। उसे किसी का भी भय ना रहा। वह लोगों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने लगा। सब ओर हाहाकार मचाने लगा। इसकी सूचना प्राप्त होते ही भगवान् शिव के क्रोध की सीमा ना रही। उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी जहां से क्रोध से तमतमाती भद्रकाली प्रकट हुई। भद्रकाली ने शिव की आज्ञा पाकर दरुकासुर का वध किया।

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ऐसा कहा जाता है कि जब नारद मुनि भगवान् शिव को भद्रकाली द्वारा दारुकासुर वध की कथा सुना रहे थे तब उन्होंने विविध आयुधों व दारुकासुर का सर हाथ में लिये भद्रकाली की छवि बनाकर उन्हें दिखायी थी। तभी से दरुकाजीत, अर्थात् दारुक को जीतने वाली, इस रूप में काली की छवि बनाने की परंपरा चली आ रही है।

कलमेड्त्तुम पाट्टुम का अनुष्ठान कब किया जाता है?

हमें बताया गया कि यूँ तो यह अनुष्ठान कभी भी किया जा सकता है। अधिकतर लोग देवी से मन्नत प्राप्त करने के लिये यह अनुष्ठान कराते हैं। कई लोग व्याधियों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये, तो कई काम-धंधे की कामना से एवं कई विवाह में आते रोड़े हटाने की इच्छा से यह अनुष्ठान कराते हैं।

कलमेड्त्तुम पाट्टुमवार्षिक रूप से यह अनुष्ठान कार्तिक मास में अवश्य कराया जाता है। कार्तिक मास अंग्रेजी पंचांग से अक्टूबर/नवम्बर महीने में आता है। केरल के भद्रकाली मंदिर में यह अनुष्ठान कार्तिक मास की प्रतिपदा अर्थात् प्रथम दिवस से लेकर ४१ दिनों तक दररोज की जाती है।

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कलमेड्त्तुम पाट्टुम, यह अनुष्ठान विशेष रूप से संध्या में किये जाने वाला संस्कार है। रंगोली द्वारा देवी की छवि वनाने की प्रक्रिया सम्पूर्ण दिवस चलती है। रंगोली द्वारा छवि बनाना प्रातः से आरम्भ किया जाय अथवा दोपहर से, यह इस बात बार निर्भर करता है कि छवि कितनी बड़ी एवं जटिल है। मैंने आपको पहले बताया था कि मूलभूत विशेषता भले ही ना बदले, देवी की सम्पूर्ण वस्त्र एवं आभूषण सज्जा प्रत्येक छवि में  भिन्न होती है। संध्या तक छवि बनाने के पश्चात देवी के सारे प्रमुख पूजा-अर्चना संध्या के पश्चात ही किये जाते हैं।

कलमेड्त्तुम पाट्टुम उत्सव कहाँ कहाँ मनाया जाता है।

पारंपरिक रूप से कलमेड्त्तुम पाट्टुम अनुष्ठान काली अथवा भगवती के मंदिरों में किया जाता है। केरल के भद्रकाली मंदिर का यह अनुष्ठान विशेष रूप से प्रसिद्ध है। कुछ इसी प्रकार के अनुष्ठान अय्यप्पा मंदिरों अथवा वेट्टाक्कोरुमाकन( शिव एवं पार्वती का शिकारी रूप में पुत्र) मंदिरों में भी किया जाता है। यहाँ मंदिर के पीठासीन देव की छवि बनायी जाती है।

यदि स्थल की पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाये तो यह अनुष्ठान कहीं भी किया जा सकता है। फिर वह कोई सार्वजनिक मंदिर हो अथवा आपके घर का देवघर।

आप सब के लिए मेरा सुझाव है कि केरल के कलमेड्त्तुम पाट्टुम अनुष्ठान के दर्शन आप अवश्य करें। जब तक आप देखेंगे नहीं, आपको विश्वास नहीं होगा कि जो कुछ मैंने यहाँ दर्शाया है, वास्तव में यह अनुष्ठान और भी भव्य, रोमांचक एवं संतोषप्रदायिनी है। यहाँ कला के कई आयामों का महासंगम होता है। जो तीव्र ऊर्जा यहाँ उत्पन्न होती है उसकी व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अष्टमुडी झील – केरल के विशाल जल सरोवर का भ्रमण https://inditales.com/hindi/kerala-backwaters-ashtmudi-lake/ https://inditales.com/hindi/kerala-backwaters-ashtmudi-lake/#respond Wed, 12 Jul 2017 02:30:21 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=320

कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम से वापस घर लौटते समय केरला के कोल्लम शहर के पास स्थित अष्टमुडी झील के किनारे बिताए गए पूरे दो दिन सच में बहुत यादगार रहे। गूगल पर दिखाये गए नक्शे के अनुसार यह सरोवर काफी बड़ा है। मुझे उसकी व्यापकता को समझने और जानने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन, […]

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अष्टमुडी झील - केरल
अष्टमुडी झील – केरल

कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम से वापस घर लौटते समय केरला के कोल्लम शहर के पास स्थित अष्टमुडी झील के किनारे बिताए गए पूरे दो दिन सच में बहुत यादगार रहे। गूगल पर दिखाये गए नक्शे के अनुसार यह सरोवर काफी बड़ा है। मुझे उसकी व्यापकता को समझने और जानने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन, इससे भी अधिक मुझे उसके जीवन और उसकी आत्मा को समझना था। अष्टमुडी झील केरल के पर्यटकों के बीच उतना मशहूर नहीं है, क्योंकि, केरल में आने वाले अधिकतम पर्यटक या तो कोल्लम में या फिर दक्षिण में कोवलम में रहना ज्यादा पसंद करते हैं। तो कुछ पर्यटक उत्तरी भागों में जैसे कि अलेप्पी और कोचीन में रहना पसंद करते हैं।

अष्टमुडी झील – केरल के स्थिर जल स्रोत

अष्टमुडी झील
अष्टमुडी झील – सूर्यास्त के समय

अष्टमुंडी का शब्दशः अर्थ है 8 शंकु। उसके इस विचित्र से आकार को कुछ लोग तारे की उपमा देते हैं, तो कुछ इसे ऑक्टोपस के आकार का बताते हैं। लेकिन अगर आप इंटरनेट पर जाकर अष्टमुंडी सरोवर का नक्शा देखे तो वह कुछ अजीब सा लगता है। इसे देखने के बाद आप खुद तय कर सकते हैं कि, उसे कौन सी उपमा देना उचित होगा।

कोल्लम पहुँचते ही हम अपने होटल में गए और हाथ मुह धोकर, तैयार होकर दोपहर के खाने के लिए उपस्थित हुए। हमरा खाना होटल की खास नाव पर आयोजित किया गया था। इस बड़ी सी नाव पर सिर्फ हम दोनों के लिए ही भोजन का प्रबंध किया गया था। जैसे ही हमारी नाव अष्टमुडी झील के शांत, स्थिर पानी पर धीरे-धीरे चलने लगी तो नाव पर मौजूद कर्मचारी वर्ग ने हमे खाना परोसना शुरू किया। यह सब कुछ एक सपने जैसा था। जब हम खाना खा रहे थे तो अपने आस-पास देखकर मुझे लगा कि, प्रकृति के सारे नज़ारे जैसे हमारे लिए खास चलचित्र पेश कर रहे हो। यह दृश्य सच में बहुत खूबसूरत था। जैसे-जैसे हमारी नाव सरोवर की सीमाओं के पास से गुजरते हुए, एक कोने से दूसरे कोने तक जा रही थी वैसे-वैसे मुझे सरोवर का आकार कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।

रोशनी की देवी

रौशनी की देवी - अष्टमुडी झील
रौशनी की देवी – अष्टमुडी झील

सरोवर की सैर करते हुए हमे एक स्थान पर हाथ में मशाल पकड़े एक स्त्री की विशाल मूर्ति दिखी जिसे रोशनी की देवी कहा जाता है। यहां के लोग उसे ‘स्टेचू ऑफ लिबर्टी’ का स्थानीय रूप मानते हैं। वास्तव में शायद यह सरोवर में घूमनेवाली नावों के लिए प्रकाशस्तंभ का कार्य करती होगी, ताकि वे अपना रास्ता ना भटक जाए। अपने विशिष्ट रूपाकार से यूरोपीय लगने वाली इस स्थूलकाय महिला की मूर्ति काफी दूर से भी देखी जा सकती है। कुछ नाविकों का कहना है कि यह मूर्ति मल्लाहों को उनके घर-परिवार और पत्नी की याद दिलाने का तरीका है जिन्हें वे अपने व्यापार के लिए पीछे छोड़ आए हैं। इस मूर्ति के नीचे ही एक छोटा सा सूचना पट्ट है जिस पर ‘रोशनी की देवी’ लिखा गया है। मेरे खयाल से शायद यहां पर अनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार उसकी व्याख्या करता है। लेकिन इन सभी भिन्न विचारों के अलावा एक बात तो तय है कि यह मूर्ति जल, हरियाली और आकाश की नीरसता को भंग करते हुए दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। इस सुंदर सी मूर्ति को अनदेखा करना थोड़ा कठिन है।

मछली पकड़ने का चीनी जाल

मछली पकड़ने के चीनी जाल - अष्टमुडी झील - केरल
मछली पकड़ने के चीनी जाल – अष्टमुडी झील – केरल

अष्टमुडी झील की सैर करते हुए जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, हमे धीरे-धीरे मछली पकड़ने के चीनी जाल नज़र आने लगे जो अब हर जगह पर पाये जाते हैं। सरोवर के किनारे से पानी के ऊपर लटकते हुए ये जाल बहुत ही आकर्षक लग रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने हाथ में विशालकाय चाय की छलनी पकड़ी हो। इन जालों को अक्सर एक साथ एक कतार में लगाया जाता है। यह नज़ारा सच में अद्वितीय है जो अनेकों फोटोग्राफरों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह प्रसन्नता भरा दृश्य इन फोटोग्राफरों का दिन बना देता है। और आप विभिन्न दृष्टिकोणों से उनकी तस्वीरें लेने में खो जाते हैं। अगर केरल के तटीय क्षेत्र की बात करते समय इन चित्रों से आपका सामना हो जाए तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी। कुछ ही जगहों पर इन जालों को सरोवर के बीचोबीच लगाया जाता है। लेकिन अधिकतर जगहों पे ये जाल आपको सरोवर के किनारे पर ही लगे हुई दिखाई देती हैं। दूर से देखने पर ये जाल बहुत ही साधारण से दिखते हैं, पर पास जाकर देखने से पता चलता है कि इनकी बुनावट कितनी जटिल है।

रंगीन नावें

अष्टमुडी झील - रंगीन नाव
अष्टमुडी झील – रंगीन नाव

अष्टमुडी झील के किनारे पर स्थित खूबसूरत से मकानों के पास ही मछली पकड़नेवाली रंगीन नावें रखी गयी थी। और मछली पकड़ने की सभी जालें किनारे पर लेटे हुए आराम करती हुई नज़र आ रही थी, जो पुनः नए उत्साह के साथ सूर्यास्त के बाद पानी में खड़े होने का इंतजार कर रही थी।

इस सरोवर के आस-पास का निर्मल पर्यावरण बहुत सारे पक्षियों का घर है। इन पक्षियों को सरोवर के एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़ते हुए जाते देखना बहुत ही आमोदजनक बात थी।

पर्यटकों के लिए खास हाउसबोट

पर्यटक हाउसबोट - अष्टमुडी झील
पर्यटक हाउसबोट – अष्टमुडी झील

यहां पर पर्यटकों के लिए खास हाउसबोट होते हैं जो उन्हें पूरे सरोवर की सैर कराते हैं। कुछ ऐसी ही नावें हमारे सामने से गुजरती हुई जा रही थी, जिनमें कुछ ही लोग नज़र आते थे। ये नावें कभी भी लोगों से भरी हुई नहीं होती थीं। यह देखकर मेरे मन में खयाल आया कि, या तो हम सरोवर के कम भीड़ वाले भाग में होंगे या तो यह सरोवर ही इतना बड़ा होगा कि आप यहां पर कहीं भी आराम से एकांत में समय बिता सकते हैं।

सूर्य और बादल भी अपनी ओर से हमारे लिए अद्वितीय परिदृश्य निर्माण कर रहे थे। नारियल और ताड़ के पेड़ भी अपने हरे रंग से पानी और आकाश के क्षेत्र की सीमाओं को निर्धारित कर रहे थे। इस सरोवर में उपस्थित द्वीप हरे बिन्दुओं के समान पानी पर तैरते हुए नज़र आ रहे थे।

अष्टमुडी झील से जुड़े कुछ तथ्य

चीनी जाल - अष्टमुडी झील - केरल
चीनी जाल – अष्टमुडी झील – केरल

अष्टमुडी झील क्लैम मत्स्य पालन का प्रमुख केंद्र है। यहां पर वार्षिक रूप से 10,000 टन क्लैम मछली का उत्पादन होता है। जिस में से अधिकतर निर्यात की  जाती हैं। रामसर सम्मेलन के अनुसार यह महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय आर्द्रभूमि की सूची में गिना जाता है। मत्स्य पालन पर लिखा गया ‘हिन्दू लेख’ आपको जरूर पढ़ना चाहिए जो यहां के विकासशील और टिकाऊ मत्स्य पालन के बारे में विस्तार से बताता है। इस सरोवर के पर्यावरण की सबसे अच्छी बात यह है कि, वह दिन में अपने पर्यटकों और पर्यटन अर्थशास्त्र का पूरा-पूरा खयाल रखता है, और रात को वह मछुआरों का इलाका बन जाता है। ये मछुआरे रात के समय ही अपना जाल बिछा देते हैं ताकि अगली सुबह उनकी पकड़ में अच्छी और ताजी मछली आ सके। इस वक्त अष्टमुडी झील में पर्यटकों की नावों को घूमने की अनुमति नहीं दी जाती।

अष्टमुडी झील का पानी कल्लाडा नदी से आता है, जिसका उद्गम पोंन्मुड़ी पर्वतों में होता है। यह केरल का दूसरा विशालतम एस्चुरिन एकोसिस्टम है।

केरल में स्थिर जल पर्यटन का सबसे लंबा किनारा अष्टमुडी झील और अलपुझा के बीच है। इस पूरे किनारे की यात्रा करने के लिए लगभग 8 घंटे लगते हैं। और अब इस किनारे की यात्रा करना मेरी इच्छा सूची में अव्वल क्रमांक पर होगा।

मैं सही-सही तो नहीं बता सकती लेकिन शायद अष्टमुडी झील ने केरल के बंदरों पर हो रहे व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका जरूर निभाई होगी।

स्थानीय यातायात की नावें

स्थानीय नाव - अष्टमुडी झील
स्थानीय नाव – अष्टमुडी झील

दूसरे दिन शाम के समय हम आराम से अपने कमरे में बैठे सरोवर में घूम रही नावों को देख रहे थे। इनमें जो लंबी और बड़ी नावें थी उन्हें दोनों छोरों से खेया जा रहा था। ये नावें इसी सरोवर के आस-पास रहने वाले परिवारों को एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जा रही थीं। इनके अतिरिक्त यहां पर उत्कृष्ट हाउसबोट भी थे जो केरल पर्यटन का प्रमुख आकर्षण है। जिस नाव में पिछले दिन हम सैर कर रहे थे वह अब सूर्यास्त के खूबसूरत से दृश्य को अपने चौखटे में समेटने की कोशिश कर रही थी।

अष्टमुंडी सरोवर की यात्रा किए कई साल बीत गए हैं, लेकिन आज भी मेरे दिमाग में उससे जुडी यादें उतनी ही ताजा हैं जितनी उसे अलविदा कहते समय थी।

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