तेलंगाना Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/तेलंगाना/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Mon, 12 Jun 2023 05:32:51 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 भूदान पोचमपल्ली – विनोबा भावे और इक्कत बुनाई https://inditales.com/hindi/bhoodan-pochampalli-vonoba-bhave-telangana/ https://inditales.com/hindi/bhoodan-pochampalli-vonoba-bhave-telangana/#respond Wed, 28 Jun 2023 02:30:15 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3096

भारत की अधिकांश महिलाओं के लिए पोचमपल्ली नाम नवीन नहीं होगा। वहाँ की बुनी हुई इक्कत रेशम की साड़ियों एवं चादरों के विषय में उन्हें जानकारी अवश्य होगी। उनमें से कई लोगों के पास स्वयं की इक्कत रेशम की साड़ियाँ एवं चादरें भी अवश्य होंगी। पोचमपल्ली तेलंगाना राज्य में स्थित एक छोटा सा नगर है […]

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भारत की अधिकांश महिलाओं के लिए पोचमपल्ली नाम नवीन नहीं होगा। वहाँ की बुनी हुई इक्कत रेशम की साड़ियों एवं चादरों के विषय में उन्हें जानकारी अवश्य होगी। उनमें से कई लोगों के पास स्वयं की इक्कत रेशम की साड़ियाँ एवं चादरें भी अवश्य होंगी।

पोचमपल्ली इक्कत बुनाई
पोचमपल्ली इक्कत बुनाई

पोचमपल्ली तेलंगाना राज्य में स्थित एक छोटा सा नगर है जो हैदराबाद से लगभग ५० किलोमीटर दूर स्थित है। पोचमपल्ली नगर मुख्यतः बुनाई उद्योग के लिए जाना जाता है। यह उन ५० से भी अधिक गावों में से एक है जिन्हें ग्रामीण पर्यटन के लिए चुना गया है। ऐसे ही एक गाँव में भ्रमण करने की मेरी एक दीर्घ काल से अभिलाषा थी। मेरी यह अभिलाषा तब पूर्ण हुई जब हम हैदराबाद से गाड़ी द्वारा पोचमपल्ली पहुँचे तथा वहाँ एक सम्पूर्ण दिवस व्यतीत किया।

विनोभा भावे का प्रथम भूदान – पोचमपल्ली

हैदराबाद से राष्ट्रीय महामार्ग-७ द्वारा पोचमपल्ली पहुँचने का मार्ग अधिकांशतः सीधा एवं सरल है। केवल रामोजी फिल्म सिटी से कुछ किलोमीटर आगे जाकर बाईं दिशा में एक मोड़ है। इसके लिए भी मार्ग में सूचना पटलों पर पर्याप्त संकेत दिए हुए हैं, एक मुख्य मार्ग से बाईं दिशा में विमार्ग स्थल पर, तत्पश्चात पोचमपल्ली गाँव के पर्यटन केंद्र पहुँचने तक नियमित अंतराल पर सूचना पटल लगे हुए हैं। लगभग सम्पूर्ण गाँव पार करने के पश्चात हम इस पर्यटन केंद्र पर पहुँचते हैं।

पर्यटक केंद्र

पोचमपल्ली पर्यटन केंद्र
पोचमपल्ली पर्यटन केंद्र

यह आकर्षक रूप से निर्मित एक सुन्दर पर्यटन केंद्र है। इसके भीतर एक संग्रहालय, एक बुनाई प्रदर्शन केंद्र, कुछ कुटियाएँ, दुकानों का एक संकुल तथा एक जलपानगृह हैं। यह पर्यटन केंद्र एक विशाल सरोवर के तट पर स्थित है। पर्यटक केंद्र के परिसर में हमें कुछ त्यक्त नावें भी दिखाई दीं। केंद्र की संरचना अपेक्षाकृत नवीन है तथा इसका रखरखाव भी उत्तम है। किन्तु वहाँ पर्यटकों को आवश्यक जानकारी प्रदान करने तथा सेवायें उपलब्ध कराने के लिए क्वचित ही कर्मचारी उपस्थित थे।

संग्रहालय

यद्यपि संग्रहालय में प्रवेश के लिए निर्धारित शुल्क है, तथापि उसे लेने के लिए भी वहाँ कोई भी उपस्थित नहीं था। संग्रहालय सभी के लिए खुला रखा हुआ था। संग्रहालय में प्रवेश करते ही आपको इसका कारण भी ज्ञात हो जाएगा। संग्रहालय में अधिक वस्तुएं प्रदर्शित नहीं हैं।

विनोबा भावे प्रतिमा
विनोबा भावे प्रतिमा

कुछ कक्ष हैं जिनमें चित्र प्रदर्शित किये गए हैं, वहीं कुछ कक्षों में भित्तियों पर कुछ साड़ियाँ लटकी हुई हैं। अधिकाँश प्रदर्शित वस्तुओं के विषय में कोई जानकारी संलग्न नहीं की गयी है। संभवतः संग्रहालय की बाह्य भित्तियों पर कुछ सूचना पटल थे जिन पर पोचमपल्ली में प्रयुक्त भिन्न भिन्न प्रकार की बुनाई तकनीक, आकृतियाँ एवं विविध वस्त्रों के विषय में जानकारी दी गयी थी। किन्तु उनमें से अधिकाँश पटल अब या तो अनुपस्थित हैं या यहाँ-वहाँ पड़े हुए हैं।

बुनाई प्रदर्शन केंद्र

बुनाई प्रदर्शन केंद्र की स्थापना अवश्य की गयी है किन्तु किसी तज्ञ प्रशिक्षक द्वारा जानकारी प्राप्त नहीं हो पाने तथा स्वयं करघा चलाकर उसका अनुभव ना ले पाने के कारण बुनाई प्रदर्शन केंद्र का औचित्य लगभग नगण्य था। हम जिस समय वहाँ पहुंचे थे, जलपानगृह कार्यान्वित नहीं था तथा दुकानों के संकुल में अधिकतर दुकानों के द्वार बंद थे।

हमें बताया गया कि यह स्थिति पर्याप्त संख्या में पर्यटकों की उपस्थिति ना होने के कारण उत्पन्न हुई है। मैं सोच में पड़ गयी कि सर्वप्रथम पर्यटकों की उपस्थिति आवश्यक होनी चाहिए अथवा पर्याप्त साधनों की उपस्थिति! इस पर्यटक केंद्र के निर्माण एवं उसके कार्यान्वयन में पूर्व में ही पर्याप्त धन का निवेश हो चुका है। कुछ दक्ष परिदर्शकों एवं कुशल प्रशिक्षकों की उपस्थिति मात्र से इस गाँव को, साथ ही यहाँ आये दर्शनार्थियों को इस केंद्र का पर्याप्त लाभ प्राप्त हो सकता है।

विनोभा भावे – भूदान आन्दोलन

पोचमपल्ली की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है, भूदान आन्दोलन के सृजक विनोबा भावे से इसका ऐतिहासिक संबंध। इसी स्थान से विनोबा भावे ने अप्रैल सन् १९५१ में भूदान आन्दोलन का आरम्भ किया था। इस आन्दोलन के अंतर्गत सर वेडिरे रामचन्द्र रेड्डी ने तेलंगाना क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली में वोनोबा भावे को १०० एकड़ की भूमि दान में दी थी। पोचमपल्ली वह प्रथम गाँव था जिसे दान में प्राप्त भूमि द्वारा गठित किया गया था। इसीलिए इसे भूदान पोचमपल्ली भी कहते हैं। कालान्तर में उन्होंने इस आन्दोलन द्वारा दान में प्राप्त १२००० एकड़ से भी अधिक भूमि का पुनर्वितरण किया।

https://www.inditales.com/wp-content/uploads/2011/09/vinoba-bhave-mandir-pochampally.jpg
विनोबा भावे मंदिर

वास्तव में जब विनोबा भावे इस क्षेत्र में आये थे, तब भूदान के विषय में उनकी कोई संकल्पना नहीं थी। इस संकल्पना का जन्म इसी भूमि पर हुआ था। देश के भूमिहीन निर्धन व असहाय नागरिकों की समस्याओं का निवारण करने के लिए उन्होंने इस आन्दोलन को जन्म दिया एवं उसे आगे बढ़ाया था। एक प्रकार से कहा जाए तो श्री रामचन्द्र रेड्डी ने उन्हें भूमि का दान कर इस संकल्पना का शुभारंभ किया था।

विनोबा मंदिर – पोचमपल्ली

यहाँ एक छोटा सा घर है जहाँ विनोबा जी ने एक दिवस व्यतीत किया था। इस निवास को अब विनोबा मंदिर कहा जाता है। यह एक छोटा सा दो कक्षों का घर है जिसे ठेठ भारतीय वास्तुशैली में निर्मित किया गया है। सामने की ओर एक बरामदा एवं एक उद्यान भी है।

इसके भीतर विनोबा भावे जी, श्री रामचन्द्र रेड्डी एवं इस आन्दोलन में लाभार्थी प्रथम परिवार के सदस्यों के चित्र हैं। इस गाँव में प्रवेश करने के लिए जिस मुख्य मार्ग से आप आते हैं, वहाँ भी श्री रामचन्द्र रेड्डी की एक प्रतिमा स्थापित है। यहाँ आते ही ऐसा आभास होता है मानो इतिहास में पढ़े इस ऐतिहासिक घटना का हम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हों। इस ऐतिहासिक कार्य को सफल बनाने में कार्यरत इन व्यक्तियों के समर्पणभाव व उनकी सरलता देख हम आत्मविभोर हो जाते हैं।

यहाँ के पर्यटक सूचना केंद्र में इन दोनों महानुभावों की प्रतिमाएं हैं। साथ ही इस ऐतिहासिक उपलब्धि की स्मृति में एक स्मारक स्तंभ की भी स्थापना की गयी है। पर्यटन सूचना केंद्र के मुख्य प्रवेशद्वार के समक्ष एक वृक्ष है। कहा जाता है कि इसी वृक्ष के नीचे उस प्रथम भूदान की प्रक्रिया संपन्न हुई थी।

१०१ द्वारों का गृह

पर्यटन सूचना केंद्र की ओर जाते मार्ग पर एक छोटा सा किन्तु सुरम्य लक्ष्मी नारायण मंदिर है। श्वेत रंग में रंगा यह मंदिर अत्यंत मनोरम है। इसी मार्ग पर १०१ द्वारों से युक्त एक गृह है जो अब जीर्ण अवस्था में है। १०१ द्वारों से युक्त इस निवास की इसके मूल स्वरूप में कल्पना करना उतना ही असंभव जितना कि इसके भीतर प्रवेश करना।

१०१ द्वार का घर
१०१ द्वार का घर

इसका आकार अपेक्षा के अनुरूप विशाल नहीं है। किन्तु इसकी वास्तुशैली कुछ इस प्रकार थी कि इसमें १०१ द्वार थे। इसकी वास्तुशैली एवं स्थापत्य कला अवश्य ही विशेष रहे होंगे। किन्तु अब यह गृह चारों ओर से जीर्ण हो चुका है तथा ढह रहा है। दुर्भाग्य से इसके संरक्षण का कोई कार्य भी नहीं किया जा रहा है। यह अब भटके पशुओं का आश्रय बन चुका है।

यह इतनी गलिच्छ अवस्था में है कि इसके भीतर प्रवेश करना तो दूर, आप इसकी ओर देखने का भी साहस नहीं करेंगे। वर्तमान में यह जिस अवस्था में विद्यमान है, मैं नहीं जानती कि इसे इसके मूल रूप में पुनः स्थापित करना तथा इसे उसका मूल वैभव पुनः प्रदान कराना संभव भी है अथवा नहीं! फिर भी आशा करती हूँ कि इसके पुनरुद्धार के कुछ प्रयास अवश्य किये जाएँ ताकि इसे पूर्णतः नष्ट होने से बचाया जा सके।

पोचमपल्ली की बुनकर गली

पोचमपल्ली में कुछ क्षेत्र हैं जहाँ बुनकरों की गलियाँ हैं। यहाँ के निवासी व्यापार में निपुण हैं। उन्होंने अपने घरों में ही बुनकर यन्त्र रखे हुए हैं जिन पर वे बुनाई का कार्य करते हैं। वे आपको अपने गृहों में आमंत्रित करते हैं तथा इन बुनकर यंत्रों का प्रदर्शन करते हैं। साधारण यंत्रों से रंगबिरंगे आकारों से युक्त मनमोहक वस्त्रों की बुनाई देखना अत्यंत रोमांचक होता है। वे आपको उन यंत्रों में बुनी गयी साड़ियाँ एवं चादरें भी दिखाते हैं जिन्हें आप क्रय कर सकते हैं।

पोचमपल्ली बुनाई
पोचमपल्ली बुनाई

मेरे विचार से उन्हे अब अपने यंत्रों एवं बुनकर तकनीकियों में नव परिवर्तन लाने की आवश्यकता है ताकि वे नित-नवीन रंगों एवं आकृतियों से युक्त वस्त्रों की बुनाई कर सकें। अंततः, एक ही प्रकार के रंगों एवं आकृतियों से युक्त साड़ियों व चादरों के द्वारा वे कितने समय तक अपने व्यवसाय का अस्तित्व बचाए रख सकते हैं? रंगों व आकृतियों में नित-नवीन परिवर्तन कर उन्हें अपने उत्पादों की अभिनवता बनाए रखना चाहिए। कदाचित इस क्षेत्र में अनुसंधान कर रहे संशोधक, इस क्षेत्र में कार्य कर रहे कारीगर एवं इस कला क्षेत्र में रत विद्यार्थी इनकी सहायता कर सकें।

आप जब मुख्य मार्ग से होते हुए जायेंगे, तब वहाँ स्थित इन स्थानीय वस्त्रों की दुकानों के विक्रेता आप से उन को खरीदने का आग्रह करेंगे। इन दुकानों में स्थानीय करघे पर बुने गए इन वस्त्रों के मूल्य अपेक्षाकृत अधिक बताये जाते हैं। बड़े नगरों में आप यही वस्तुएं इसी मूल्य पर अथवा इससे कम मूल्य पर प्राप्त कर सकते हैं। जहाँ तक पोचमपल्ली में बुने गए इन वस्त्रों का प्रश्न है, यह स्थान किसी भी अन्य पर्यटन स्थल के समान प्रतीत होता है जहाँ वस्तुओं के मूल्य बढ़ा-चढ़ा कर बताये जाते हैं तथा वस्तुओं की गुणवत्ता भी सामान्य होती है।

मुझे यहाँ पर मोटरसाइकिल जैसी दुपहिया वाहनों की विक्री एवं मरम्मत करने वाली अनेक दुकानें दिखीं। उनकी संख्या मुझे अचंभित कर रही थी। उन्हें देख कर दुपहिया वाहन उद्योगों द्वारा दी गयी संवृद्धि दर मुझे विश्वसनीय प्रतीत होने लगी।

पोचमपल्ली जलाशय

मुझे बताया गया था कि हम इस जलाशय के चारों ओर पदभ्रमण कर सकते हैं तथा जलाशय में नौकायन भी कर सकते हैं। किन्तु मुझे जलाशय के चारों ओर ना तो पदभ्रमण मार्ग दृष्टिगोचर हुआ, ना ही नौकायन की कोई सुविधा। यहाँ पर्यटन सुविधाओं के अभाव ने मुझे अत्यंत निराश किया था। जो कुछ भी न्यूनतम सुविधाएं हैं, उनकी सेवायें भी शोचनीय हैं।

लक्ष्मी नारायण मंदिर पोचमपल्ली
लक्ष्मी नारायण मंदिर पोचमपल्ली

हमने यहाँ के पर्यटन केंद्र को हमारे आने की पूर्व सूचना एक दिवस पूर्व ही दे दी थी। हमने एक परिदर्शक अथवा गाइड की भी मांग की थी। उन्होंने हमें बताया था कि ८०० रुपयों के शुल्क पर एक पर्यटक उपलब्ध रहेगा। हम स्तब्ध हो गए थे क्योंकि इतना अधिक शुल्क तो विश्व धरोहर स्थलों के परिदर्शक भी नहीं लेते हैं। फिर भी हमने अपनी सहमति दे दी।

नियत दिवस एवं समय पर कोई भी परिदर्शक उपस्थित नहीं था। अनेक फोन करने के पश्चात् जो व्यक्ति एक परिदर्शक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हुआ, वह पर्यटन केंद्र का चौकीदार था। ८०० रुपयों के एवज में उसने जो कार्य किये, वे थे, कुछ ताले खोलना एवं हमें उन स्थानों का अवलोकन करने देना। ऐसी सुविधाओं से यहाँ के पर्यटन उद्योग को कैसे बढ़ावा मिलेगा?

अयप्पा मंदिर

पोचमपल्ली भ्रमण का सर्वाधिक आनंददायी आकर्षण था, अयप्पा मंदिर। यह मंदिर गाँव की सीमा के पार स्थित है। इस मंदिर का निर्माण पगोडा शैली में किया गया है। इसके निर्माण में काले पत्थर एवं लाल मंगलुरु टाइलों का प्रयोग किया गया है। इस पर सुनहरी नक्काशी की गयी है। यह अपेक्षाकृत एक नवीन मंदिर है।

अयप्पा मंदिर
अयप्पा मंदिर

चारों ओर की हरियाली के मध्य यह मंदिर अत्यंत आकर्षक प्रतीत होता है। इसका सुनहरा ध्वजस्तंभ अत्यंत आकर्षक है। मंदिर संकुल के चारों ओर तिरछी छतों से युक्त भित्तियाँ एवं अनेक प्रवेश द्वार हैं। परिसर के भीतर एक मुख्य मंदिर, अनेक लघु मंदिर, एक यज्ञशाला, सुनहरा ध्वजस्तंभ, दो ऊँचे दीपस्तंभ तथा कुछ वृक्ष हैं। यह मंदिर जितना सादा एवं सुन्दर है, उतना ही अनूठा एवं भिन्न है। भारत के ऐसे कई अनूठे मंदिर हैं जो हमें अचंभित करने में चूकते नहीं हैं।

अयप्पा मंदिर की ओर आता हुआ मार्ग अनेक विशेषताओं से युक्त है। यह मार्ग अत्यंत सुरम्य है। इसके दोनों ओर हरियाली से भरे मैदान हैं जिन पर छोटी छोटी अनेक पहाड़ियां हैं।  नीले आकाश के परिप्रेक्ष्य में, हरियाली से भरे मैदानों में स्थित छोटी छोटी पहाड़ियां मंत्र-मुग्ध कर देती हैं। मार्ग में वाहनों की संख्या अधिक नहीं होती है। आप आसानी से अपने चारों ओर के परिदृश्यों का आनंद उठा सकते हैं। मार्ग में ठहर कर छायाचित्रीकरण कर सकते हैं। अथवा अपने चारों ओर के परिदृश्यों को निहारने का आनंद उठा सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चेरियल चित्रकारी – तेलंगाना के चेरियल गाँव की विशेष सौगात https://inditales.com/hindi/cherial-chitrakala-telangana/ https://inditales.com/hindi/cherial-chitrakala-telangana/#respond Wed, 08 Jun 2022 02:30:22 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2704

कलमकारी कला कौशल के पश्चात कदाचित चेरियल चित्रकारी ही आंध्र क्षेत्र की सर्वोत्तम कला देन है। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में, जो अब स्वयं एक राज्य है, चेरियल नामक एक गाँव है। हैदराबाद से इसकी दूरी १०० किलोमीटर से भी कम है। वारंगल से वापिस लौटते समय हमने चेरियल में एक लघु पड़ाव लिया […]

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कलमकारी कला कौशल के पश्चात कदाचित चेरियल चित्रकारी ही आंध्र क्षेत्र की सर्वोत्तम कला देन है। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में, जो अब स्वयं एक राज्य है, चेरियल नामक एक गाँव है। हैदराबाद से इसकी दूरी १०० किलोमीटर से भी कम है। वारंगल से वापिस लौटते समय हमने चेरियल में एक लघु पड़ाव लिया था। इस पड़ाव का मुख्य उद्देश्य था, इस प्रसिद्ध पट्टचित्र कलाकृति के विभिन्न कारीगरों से भेंट तथा कदाचित कुछ चित्रों का क्रय। हम राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कलाकार श्री डी. वैकुण्ठम से संपर्क साधने में सफल हो गए जो चित्रकारों के परिवार से हैं।

तेलंगाना की चेरियल पट्टचित्र कला
तेलंगाना की चेरियल पट्टचित्र कला

गूगल मानचित्र की सहायता से हम चेरियल भी पहुँच गए। वहां श्री डी. वैकुण्ठम के सुपुत्र ने हमसे भेंट की तथा गाँव की संकरी गलियों में हमारा मार्गदर्शन करते हुए हमें उनके कार्यशाला तक ले गए। यह कार्यशाला उनके निवास्थान के भीतर ही एक कक्ष में स्थापित की गयी थी।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता

श्री डी. वैकुण्ठम जी के निवास के बाहर लगे सूचना पटल पर लिखा था कि यह राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता का निवासस्थान है। मैंने अनुमान लगाया था कि इस गाँव के अनेक निवासी इस कला से जुड़े होंगे। किन्तु गाँव के कुछ परिवार ही इस कला शैली की चित्रकारी से जुड़े हैं। हम श्री डी. वैकुण्ठम जी के कार्यशाला के भीतर गए। कार्यशाला अत्यंत ही साधारण स्तर की प्रतीत हो रही थी। लकड़ी की एक तिरछी मेज थी जिस के ऊपर बिजली का बल्ब लटक रहा था। भित्ति से टिकी लकड़ी की कुछ अलमारियां थीं जिन के भीतर तैयार चित्र एवं चित्रकारी के लिए आवश्यक सामान रखे हुए थे। भित्तियों पर यहाँ-वहां कुछ पुरस्कार, प्रशस्ति पत्र, कैलेंडर एवं उनकी चित्रकला शैली को दर्शाते कुछ पर्यटन पर्चे लटक रहे थे। श्री डी. वैकुण्ठम का परिवार अत्यंत ही विनम्रता से हमें उनकी कलाकृतियाँ दिखा रहा था। उनका कहना था कि उस समय उनकी कुछ उत्तम कलाकृतियाँ किसी प्रदर्शनी में भेजी गयी थीं। अतः हम उन्हें नहीं देख पाए।

चेरियल चित्रकारी

चेरियल शैली में कृष्ण लीला
चेरियल शैली में कृष्ण लीला

चेरियल चित्रकारी एक प्रकार की पट्टचित्र कला है जो पुराणों की लोकप्रिय पौराणिक कथाओं को दर्शाती सूक्ष्म चित्रकारी जैसी प्रतीत होती है। इन चित्रों की पृष्ठभूमि अधिकतर लाल रंग की होती है। पट्टचित्र का आरम्भ सदा गणपति के चित्र से होता है। उनके पश्चात सरस्वती का चित्र होता है। किसी भी नवीन चित्र का आरम्भ करने से पूर्व चित्रकार इन दोनों देवताओं की आराधना करते हैं। उसके पश्चात कथानक के विभिन्न दृश्य चित्रित किये जाते हैं। पट्टचित्र के आकार के अनुसार एक पंक्ति में एक दृश्य अथवा अनेक दृश्य हो सकते हैं। इस प्रकार की लोक कला भारत के विभिन्न भागों में पायी जाती थी। मेरे विचार से पट्टचित्र की रचना का हेतु किसी संग्रहालय अथवा किसी धनाड्य के निवास की भित्तियों का अलंकरण नहीं होता था। भारत के अन्य प्राचीन लोककला शैलियों के समान यह शैली भी भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी।

पारंपरिक कथावाचक

रंगभरी पारंपरिक लोक कथाएं
रंगभरी पारंपरिक लोक कथाएं

प्राचीन काल में पारंपरिक कथावाचक अपनी कथा कहने के लिए गायन के साथ इन पट्टचित्रों का सहारा लेते थे। ऐसी ही परंपरा राजस्थान में भी देखने मिलती है जहां गायक स्थानीय देवता पाबूजी की कथाएं सुनाने के लिए फड़ चित्रों की सहायता लेते थे जो विशाल चित्र होते हैं। मैं सोच रही थी कि अंततः यह कला शैली किस स्थान से किस स्थान पर पहुँची होगी।

चेरियल चित्रकला – ७ जनजातियों की कथा

कला से सम्बंधित मेरे सीमित ज्ञान के आधार पर मैंने यह अनुमान लगाया था कि वे केवल पौराणिक कथाओं, विशेषतः रामायण तथा महाभारत की कथाओं का चित्रण करते हैं। किन्तु श्री डी. वैकुण्ठम जी ने मुझे बताया कि वे वास्तव में इस क्षेत्र की ७ जनजातियों के जीवन को इन चित्रों में सजीव करते हैं। उन जनजातियों में ताड़ी संग्राहक, धोबी, चमार, नाई, बुनकर, मछुआरे तथा किसान सम्मिलित हैं। इन में से कुछ जनजातियों की उपजातियां भी होती हैं जिनके स्वयं के देव, अनुष्ठानिक विधियां तथा कथाएं होती हैं। इन चित्रकारों के चित्रों में इन जनजातियों के दैनन्दिनी जीवन का चित्रण होता है जो उनके कार्य पर आधारित होता है।

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उदहारण के लिए, एक फल विक्रेता का दिवस विभिन्न वृक्षों से फल तोड़कर लाने से आरम्भ होता है। तत्पश्चात वह उन फलों की बिक्रि करता है। उसी प्रकार ताड़ी संग्राहक प्रातः ताड़ के वृक्षों पर चढ़कर उन पर खांचे करता है। उनसे रिसते स्त्राव का संग्रह करने के लिए घड़े लटकाता है। कुछ घंटों के पश्चात ताड़ के रस से भरे उन घड़ों को लाकर अपने आँगन में लटका देता है। कुछ समय पश्चात रस विक्री के लिए सज्ज हो जाता है। इन चित्रों में इन्ही जनजातियों की कथाओं का चित्रण होता है जो उनके दैनिक क्रियाकलापों, अनुष्ठानों, देवी-देवताओं, उनके नायकों इत्यादि पर आधारित होते हैं।

रंग

पारंपरिक रूप से इन चित्रों में प्रयुक्त रंग बहुधा विशेष पत्थरों से प्राप्त होते थे। उन पत्थरों को पीसकर रंग बनाए जाते थे। अब इनमें कृत्रिम रंगों का प्रयोग किया जाता है जो बाजार में आसानी से उपलब्ध होते हैं। उन्हें तैयार करने का कष्ट अब उन्हें नहीं उठाना पड़ता है। किन्तु कुछ अधिकृत कृतियाँ अब भी पारंपरिक रूप से तैयार रंगों द्वारा ही बनाई जाती हैं।

कथा वाचक व गायक

हमें बताया गया कि चेरियल में अब ऐसे गायक कम ही हैं जो अपने गायन द्वारा इन कथाओं को कहते हैं। जो कुछ गायक गाँव में शेष हैं, वे अपनी सेवा की एवज में भारी मेहनताने की अपेक्षा रखते हैं जिनका भुगतान करना गांव वासियों के लिए संभव नहीं होता है।

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हमने जिन कलाकृतियों को देखा, उनमें कला का स्तर अत्यंत प्राथमिक था। उनमें एक दक्ष कारीगर के हाथों की सूक्ष्मताओं का अभाव था। हमें बताया गया कि वे साधारण चित्र थे। उन्हें साधारण प्रदर्शनियों के लिए बनाया गया था। उत्कृष्ट कलाकृतियों के लिए विशेष निविदा की जाती है जिसमें कथानक, रंग इत्यादि का विशेष चुनाव किया जाता है। ऐसी निविदा अधिकतर संग्रहालयों एवं कलाघरों से प्राप्त होती हैं जहां विशेष कथानक पर आधारित चित्रों की मांग की जाती है। कुछ निजी संग्राहक भी ऐसी निविदा देते हैं।

चेरियल चित्रकारी का विडियो

चेरियल चित्रों में निहित कथाओं को दर्शाता यह विडियो अवश्य देखें।

मुझे जैसा चित्र चाहिए था, वैसा चित्र उस समय उपलब्ध नहीं था। आशा है, भविष्य में मैं पुनः इन कारीगरों से भेंट कर सकूं तथा ऐसे चित्र बनवा सकूँ अथवा ले सकूँ जिनके कथानक मेरे हृदय के समीप हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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हैदराबाद में भारत का प्राचीनतम महापाषाण स्थल https://inditales.com/hindi/hyderabad-bharat-ka-prachintam-sthal/ https://inditales.com/hindi/hyderabad-bharat-ka-prachintam-sthal/#comments Wed, 23 Jun 2021 02:30:41 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2329

जब भी हैदराबाद का उल्लेख हमारे सामने होता है तो सर्वप्रथम दम बिरयानी, ईरानी चाय, उस्मानिया बिस्कुट जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों के स्मरण से मुंह में पानी आ जाता है। एक पल यदि अपनी जठराग्नि से पृथक जा कर सोचें तो हैदराबाद, इस शब्द से हमारे समक्ष चारमीनार, सैकड़ों वर्ष प्राचीन गोलकोंडा दुर्ग जैसे कई धरोहरों […]

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जब भी हैदराबाद का उल्लेख हमारे सामने होता है तो सर्वप्रथम दम बिरयानी, ईरानी चाय, उस्मानिया बिस्कुट जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों के स्मरण से मुंह में पानी आ जाता है। एक पल यदि अपनी जठराग्नि से पृथक जा कर सोचें तो हैदराबाद, इस शब्द से हमारे समक्ष चारमीनार, सैकड़ों वर्ष प्राचीन गोलकोंडा दुर्ग जैसे कई धरोहरों की छवि उभर कर आ जाती है। यदि आप इतिहास में रुचि रखते हैं तो आप कदाचित यह जानते होंगे कि यह सब आरंभ कब तथा कैसे हुआ। १४ वी. सदी में हुए इस्लामिक आक्रमण से भी पूर्व, मोतियों के इस नगर में गोल्ला-कोंडा (गोलकोंडा) दुर्ग की माटी के नीचे से इसका आरंभ हुआ था। तीन सहस्त्र वर्षों पूर्व यहाँ जिस महापाषाण युगीन जीवन का अस्तित्व था, वह स्थल गोलकोंडा दुर्ग के समीप ही है। उस स्थान पर अब हैदराबाद विश्वविद्यालय स्थित है।

मिट्टी के शमशान कुंड
मिट्टी के शमशान कुंड

हैदराबाद के विकास को ५ पृथक चरणों में बांटा जा सकता है:

  • प्रागैतिहासिक
  • इस्लाम पूर्व
  • इस्लामी
  • स्वतंत्र
  • उच्च-तकनीकी नगर

ये इसके विकास की विभिन्न समय सीमाएं हैं। अंतिम चार चरणों पर अनेक अनुसंधान एवं सामग्री उपलब्ध हैं। फिर भी हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुछ ही शिक्षक एवं वैज्ञानिक हैं जिन्होंने इस क्षेत्र के प्रथम मूल निवासियों के विषय में जाना है। गच्छीबावली के चकाचौंध भरे क्षेत्र के नाक के ठीक नीचे इस प्राचीनतम महापाषाण स्थल को गुप्त रूप से अंधकार एवं विस्मृति में छुपा दिया गया था।

भारत का प्राचीनतम महापाषाण स्थल

यह स्थल कहाँ है?

मेनहिर या स्मारक शिला
मेनहिर या स्मारक शिला

आप यह गुप्त कलाकोष विश्वविद्यालय के मुख्य प्रवेशद्वार से कुछ सौ मीटर की दूरी पर देख सकते हैं। हैदराबाद के आई टी हब से घिरा यह क्षेत्र गच्छीबावली में पुराने बॉम्बे राजमार्ग से केवल सौ मीटर दूर स्थित है। फिर भी यह प्राचीनतम महापाषाण स्थल इस विश्वविद्यालय परिसर के एक अंधेरे कोने में लुप्त था। यदि इस स्थान को रास्ता बनाने के लिए विशेष रूप से स्वच्छ नहीं किया गया होता तो यह स्थान तथा वहाँ जाने का मार्ग अच्छे जानकार के प्रशिक्षित आँखों को भी दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। एक प्रकार से ऐसा कह सकते हैं कि यह अंधकार ही इस स्थल का सर्वोत्तम सुरक्षा कवच था।

यह कितना प्राचीन है?

हैदराबाद विश्वविद्यालय के भीतर स्थित यह भारत का प्राचीनतम महापाषाण स्थल है। इस स्थल को विश्व का प्राचीनतम लौह युगीन स्थल भी माना जाता है। विश्वविद्यालय के दो प्राध्यापक, के. पी. राव तथा आलोका पाराशर ने सन २००३-०४ में इस स्थान को खोजा था। लौह युग सामान्यतः १००० वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। किन्तु यहाँ पायी गई कई महापाषाण वस्तुएं उससे भी १००० वर्ष पीछे ले जाती हैं, अर्थात लगभग २७९५-२१४५ ईसा पूर्व।

हैदराबाद में महापाषाण काल का स्नानीय संग्रहालय
हैदराबाद में महापाषाण काल का स्नानीय संग्रहालय

यहाँ प्राप्त हुए मिट्टी के पात्रों की आयु मापने के लिए थर्मो-ल्यूमिनेसेंस तकनीक का उपयोग किया गया है। इन्हे सर्वप्रथम १९७२ में देखा गया था। प्रथम प्रारम्भिक खुदाई पुरातात्विक विभाग के तत्कालीन ए. पी. ने किया था। तत्पश्चात खुदाई एवं खोज का कार्य विश्वविद्यालय के अपने इतिहास प्राध्यापकों द्वारा किया गया।

जिन्हे प्राचीन युग के विषय में अधिक जानकारी नहीं है, उनके लिए महापाषाण का अर्थ है बड़ा पत्थर जो यूनानी शब्द ‘मेगास’ अर्थात बड़ा तथा ‘लिथोस’ अर्थात पत्थर से मिलकर बना है। महापाषाण सामान्यतः आवासीय क्षेत्र से दूर स्थित शमशानगृह के भीतर बड़े समाधि पत्थरों से भी संबंध रखता है। यह स्थान वास्तव में महापाषाणी शमशान स्थान था।

 ग्रेनाइट मेनहिर (स्मारक शिला)

इस पुरातत्व स्थल पर एक विशाल २०,००० किलोग्राम की ग्रेनाइट स्मारक शिला है। पुरातात्विक दृष्टिकोण से इस मेनहिर का अर्थ है, ‘मेन’ अर्थात शिला तथा ‘हिर’ अर्थात लंबा। इसका अर्थ है लंबी शिला जो कब्र पर रखी जाती है। इस शिला की ऊंचाई भूमि के ऊपर २० फुट से अधिक हो सकती है तथा भूमि के नीचे भी यह आधार देने के लिए २० फुट गहरी जा सकती है।

हैदराबाद में महापाषाण काल का स्नानीय संग्रहालय
हैदराबाद में महापाषाण काल का स्नानीय संग्रहालय

यह स्थल २१ समाधिस्थल भी पाए गए है। यहाँ काली एवं लाल मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं। जैसे कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं। इस स्थल की एक विशेष खोज है एक मापक पात्र जिसका माप २५० मिलीलीटर है।

पुरातात्विक उत्खनक मानते हैं कि यदि यह एक शमशान स्थल है तो जिन पूर्व-ऐतिहासिक महापाषाण कालीन लोगों ने इसकी संरचना की थी वे इस स्थल से कुछ किलोमीटर दक्षिण की ओर बसे होंगे। इसका अर्थ है कि वे जहां निवास करते थे वह भाग विश्वविद्यालय के दक्षिण भाग में कहीं था। विकास एवं आवास के नाम पर मानव सभ्यता ने वह भूमि हड़प ली है।

हैदराबाद में पाए गए प्राचीन मिट्टी के बर्तन
हैदराबाद में पाए गए प्राचीन मिट्टी के बर्तन

इस स्थान के आसपास कई जल स्त्रोत हैं जो इस परिकल्पना को समर्थन देते हैं कि विश्वविद्यालय का दक्षिण परिसर एक समय एक जीवित महापाषाणी सभ्यता को बसाया हुआ था।

इतिहास

यदि कोई हैदराबाद का इतिहास जानने का इच्छुक है तो यही वह स्थान है जहां उसे हैदराबाद का इतिहास देखने मिलेगा। शाब्दिक रूप से हमें प्रागितिहास कहना चाहिए क्योंकि इस स्थल के विषय में ना तो लिखा गया है ना ही संचयन किया गया है। इस स्थल के विषय में कोई भी मौखिक अथवा लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है। यह चित्र स्थल-संग्रहालय का है जहां दर्शकों को देखने के लिए उत्खनन खुला छोड़ा गया है। आप यहाँ उस काल के मिट्टी के पात्र तथा उनके टुकड़े देख सकते हैं।

यहाँ एक तथ्य आप ध्यान रखें कि यह इकलौता भारतीय पुरातात्विक उत्खनन स्थल है जिसे स्थल-संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया है।

और पढ़ें: १५ अद्भुत हैदराबाद संग्रहालय जो आपको अपनी ही दुनिया में ले जाएँ

इस महापाषाणी स्थल पर प्राप्त कलाकृतियों को देख कर यह ज्ञात होता है कि इस स्थान के निवासियों ने भैंसों एवं बकरियों को पाला था। यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे खाने के लिए ज्वार, बाजरा इत्यादि की खेती करते थे।

जैव विविधता

भारत का यह प्राचीनतम शमशान स्थल, परिकल्पित जीविका स्थल तथा विश्वविद्यालय का परिसर सभी अधिसूचित जैव विविधता आरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। यह विश्वविद्यालय, जिसका क्षेत्रफल लगभग २२०० एकड़ है, एक जैव विविधता संवेदनशील केंद्र है। यहाँ तेलंगाना राज्य की सर्वाधिक जैव विविधता उपलब्ध है जो किसी भी वन से अधिक है।

सौभाग्यवश अथवा दुर्भाग्यवश, यह स्थल किसी भी बाहरी व्यक्ति, यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के अपने विद्यार्थियों के लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। विश्वविद्यालय के मानव जाती विज्ञान विभाग के विद्यार्थियों का इस स्थल में वर्ष में एक भ्रमण आयोजित किया जाता है जो उनके पुरातत्व पाठ्यक्रम का एक भाग है तथा जिसके लिए पूर्व-व्यवस्था की जाती है। यह भ्रमण तब आयोजित किया जाता है जब दक्षिण-पश्चिम मानसून अपने अंतिम चरण को पार कर गया हो तथा धरती की नमी सूख गई हो। धरती इतनी स्थायी हो गई हो कि झाड़ियों को हटा सकें तथा समीप स्थित सड़क से यहाँ तक का मार्ग पुनः खींचा जा सके।

तेलंगाना के ऐसे ही प्रागैतिहासिक स्थलों के विषय में आप ऐबीड्स के गन –फाउन्ड्री में स्थित राज्य पुरातात्विक संग्रहालय में देख सकते हैं।

अतिथि संस्करण

यह मेरे एक मित्र, श्रीराम द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है।


श्रीराम वर्तमान में एक शोधकर्ता हैं जो CRIDP में ‘Research in Infrastructure Development and Practice’ पर कार्यरत हैं। शैक्षणिक दृष्टि से उन्होंने MBA तथा हैदराबाद विश्वविद्यालय से मानव जाती विज्ञान में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) हैदराबाद से मानव जाती विज्ञान-समाज, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (STS) में ‘Burnout: An ethnographic study of Mid-Career Professionals in Hyderabad, India‘ इस विषय पर एम. फिल किया है। उन्होंने व्यावसायिक क्षेत्र में एक दशक तक कार्यरत रहते हुए अनेक भूमिकाएं निभाई हैं। इसके पश्चात उन्होंने शिक्षण के क्षेत्र में पदार्पण किया तथा मानव जाती वैज्ञानिक बने।

इससे पूर्व उन्होंने बैक-पैक करते हुए ११ देशों में भ्रमण किया है। वे Go-UNESCO यात्रा चुनौती २०१२ के द्वितीय विजेता भी रह चुके हैं। इसमें उन्हे ४५ दिनों में २०,००० किलोमीटर बैक-पैक करते हुए भारत के २७ विश्व धरोहर स्थलों में से २४ स्थलों का भ्रमण करना था। वे ‘हैदराबाद रनर’ के लिए धावक भी हैं। उन्होंने गुरु पद्म भूषण डॉक्टर वेम्पति चिन्न सत्यम की सुपुत्री गुरु श्रीमती बाला त्रिपुरसुंदरी से कुचीपुड़ी नृत्य की भी शिक्षा प्राप्त की है। आप उनसे ट्विटर पर @bhsriram अथवा Linkedin पर संपर्क कर सकते हैं।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लाड बाजार – हैदराबाद की प्रतिष्ठा,प्रतीक एवं जीविका https://inditales.com/hindi/hyderabad-ka-laad-bazar-chudi-moti-khada-dupatta/ https://inditales.com/hindi/hyderabad-ka-laad-bazar-chudi-moti-khada-dupatta/#comments Wed, 09 Sep 2020 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1627

हैदराबाद में निवास करते समय मैंने यहाँ की धरोहरों के दर्शन हेतु कई पदयात्राएं की थीं। लाड़ बाज़ार उनमें से एक है। जिस किसी ने लाड बाजार के आसपास अथवा इसकी गलियों में भ्रमण किया है, वह इसकी चमक-धमक से अछूता नहीं होगा। यहाँ बिकती रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, स्वच्छ श्वेत मोती एवं विभिन्न प्रकार के वस्त्र […]

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हैदराबाद में निवास करते समय मैंने यहाँ की धरोहरों के दर्शन हेतु कई पदयात्राएं की थीं। लाड़ बाज़ार उनमें से एक है। जिस किसी ने लाड बाजार के आसपास अथवा इसकी गलियों में भ्रमण किया है, वह इसकी चमक-धमक से अछूता नहीं होगा। यहाँ बिकती रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, स्वच्छ श्वेत मोती एवं विभिन्न प्रकार के वस्त्र व परिधान एक दूसरे के पूरक होकर आपका ध्यान आकर्षित करने में एक दूसरे से स्पर्धा करते भी प्रतीत होते हैं।

हैदराबाद का लाड बाजारयूँ तो मैं वहां हैदराबाद का एक विशेष दुपट्टा, खड़ा दुपट्टा क्या है एवं इसे कैसे धारण किया जाता है, यह जानने के लिए गयी थी। किन्तु बाजार में प्रवेश करते ही आपका ध्यान लाख की चूड़ियों पर ना जाए, यह हो नहीं सकता।

लाड बाजार हैदराबाद के दो प्रसिद्ध स्मारकों, चारमिनार एवं चौमहल्ला महल के मध्य स्थित है। यह बाजार चूड़ियों, आभूषणों एवं वस्त्रों के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। मूसी नदी के तट पर स्थित हैदराबाद के लाड़ बाजार को मैं इस मनोरम नगरी का श्रृंगार रस मानती हूँ।

आईये मैं आपको इस लाड बाजार के मुख्य आकर्षण दिखाती हूँ।

खड़ा दुपट्टा – हैदराबाद की वधु पोशाक

हैदराबाद का खड़ा दुपट्टा
हैदराबाद का खड़ा दुपट्टा

मैंने जैसे ही लाड बाजार की गली में प्रवेश किया, स्वभाववश मैंने कैमरे में दृश्यों को अमर करना आरम्भ कर दिया। कैमरे की आँखों से भी वहां की चमक मुझे चकाचौंध करने लगी थीं। मेरे मन मष्तिष्क में सर्वप्रथम जो विचार कौंधा, वह था, ‘क्या यह हैदराबाद की शान है?’। चारों ओर चटकीले उजले रंगों के लहंगे, दुपट्टे एवं साड़ियाँ लटकी हुई थीं। उनमें खड़े दुपट्टे कुछ अधिक ही चटक एवं चमचमा रहे थे। उन पर पसरी रंगों की छटा एवं चमकीले जड़ाऊ काम ध्यान खींच रहे थे। किन पर दृष्टी टिके, किन पर नहीं, मेरी दृष्टी को ही समझ नहीं आ रहा था। मैंने निश्चय किया कि कुछ दुकानों में जाकर उन्हें खड़ा दुपट्टे दिखाने का आग्रह करूँ।

मेरी चाल-ढाल एवं मेरे परिधान देख दुकानदारों को गंभीर शंका हो रही थी कि मैं वास्तव में खड़ा दुपट्टा खरीदना चाहती हूँ। मैंने सत्यवादी बनाना ही ठीक समझा। मैंने उन्हें बताया कि मैं हैदराबाद की विशेष वस्तुओं की खोज में निकली हूँ तथा खड़ा दुपट्टा उनमें से एक है। उनमें से एक दुकानदार ने मुझे कृतार्थ किया तथा ६ मीटर से भी अधिक लंबा, पीले रंग का खड़ा दुपट्टा ओढ़ने व अपने कन्धों पर उसे संभालने में मेरी सहायता की।

वधु के लिए खड़ा दुपट्टा

12 मीटर की पोषक - खड़ा दुपट्टा
12 मीटर की पोषक – खड़ा दुपट्टा

मुझे बताया गया कि इस ६ मीटर के दुपट्टे के साथ २ मीटर का एक और दुपट्टा वधु को अपने सिर पर संभालना पड़ता है। इसके अतिरिक्त ४ मीटर कपड़ा कुर्ती एवं सलवार बनाने में आवश्यक होता है। इन सब पर भारी कढ़ाई एवं जरदोजी का काम होता है। आप सोच रहे होंगे इतना भार वधू कैसे ढोती होगी? यहाँ एक जानकारी आप को दे दूँ कि खड़ा दुपट्टा बनाने में प्रयोग किये जाने वाले वस्त्र का भार अधिक नहीं होता। अतः वधु के परिधान का भार अधिक नहीं होता।

खड़े दुपट्टों को सजाते कारीगर
खड़े दुपट्टों को सजाते कारीगर

लाड बाजार की गलियों में जाएँ तो आपको वहां कई कारीगर वस्त्रों पर कढ़ाई का कार्य करते दिखाई देंगे। एक खड़ा दुपट्टे पर एक साथ कई कारीगर कार्य करते हैं। कुछ उस पर धागों से कढ़ाई करते हैं तो कुछ उस पर सलमे-सितारे जड़ते हैं। इतने लम्बे दुपट्टे पर कढ़ाई करना आसान कार्य नहीं है।

लाड बाजार में लाख की चूड़ियाँ

मैं जब भी लाड बाजार आती थी, सदैव चूड़ियों की दुकानों के समक्ष मेरे पैर ठहर से जाते थे। मैंने यहाँ से अनेक चूड़ियाँ खरीदी हैं। रंगबिरंगी चूड़ियों से भरी यहाँ कई दुकानें हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध वे चूड़ियाँ हैं जिन पर पुष्पाकृतियाँ बनी हुई हैं।

हैदराबाद के लाड़ बाज़ार में चमचमाती चूड़ियाँ
हैदराबाद के लाड़ बाज़ार में चमचमाती चूड़ियाँ

इस समय मैं चूड़ियाँ खरीदने नहीं, अपितु उन्हें बनाने वालों से भेंट करने की अभिलाषा लिए इन गलियों में आयी थी।

लाख की चूड़ियों की निर्मिती

धातु चूड़ी पे लाख चढाते कारीगर
धातु चूड़ी पे लाख चढाते कारीगर

टुकड़ों टुकड़ों में ही सही, अंततः मुझे लाख की चूड़ियों की निर्मिती की सम्पूर्ण प्रक्रिया को देखने एवं समझने का अवसर लाड़ बाजार की इन गलियों में प्राप्त हुआ।

धीमी आग पर सिकती चूड़ियाँ
धीमी आग पर सिकती चूड़ियाँ

• लाख की चूड़ियाँ बनाने के लिए सर्वप्रथम धातु की पतली चूड़ियाँ ली जाती हैं।
• इन्हें हाथों द्वारा पूर्ण गोलाकार दिया जाता है।
• लाख को अंगारों पर गर्म किया जाता है तथा इच्छित रंग उसमें मिलाया जाता है। इस लाख की पट्टियों को इच्छित आकृति एवं आकार दिया जाता है।
• तत्पश्चात इस लाख को धातु की चूड़ी पर चढ़ाया जाता है। हाथों द्वारा एक एक चूड़ी के आकार में सुधार किया जाता है ताकि इन्हें सही वृत्ताकार प्राप्त हो सके।
• तत्पश्चात इन मौलिक चूड़ियों को अन्य कारीगरों के पास भेजा जाता है जो इन पर सलमे-सितारे एवं नग जड़ते हैं।

हैदराबाद एवं राजस्थान की लाख की चूड़ियों में भिन्नता

हाथों से गढती एक एक चूड़ी
हाथों से गढती एक एक चूड़ी

एक कारीगर ने मुझे राजस्थान एवं हैदराबाद की लाख की चूड़ियों में भिन्नता समझाई। उसने अत्यंत गर्व से मुझे बताया कि हैदराबाद के कारीगरों में पायी जानी वाली कला अन्यत्र कहीं भी नहीं है। हैदराबाद की लाख की चूड़ियों को पहचानने का आसान माध्यम है उसकी चमक। जितनी अधिक चमक, उतनी ही अधिक संभावना है कि वह हैदराबाद की गलियों में बनी है। चमचमाती चूड़ियाँ हैदराबाद की विशेषताओं में से एक है।

राजस्थानी शैली में बनी लाख की चूड़ियों में एक चूड़ी पर सम्पूर्ण आकृति रंगी होती है जबकि हैदराबादी शैली की चूड़ियों में चूड़ियों का एक सम्पूर्ण समूह मिलकर एक आकृति चित्रित करता है।

और पढ़ें – बिदरी धातु-शिल्पकला सृजन का प्रत्यक्ष दर्शन

लाख की चूड़ियों की अर्थव्यवस्था

मैंने यहाँ गलियों में कई कार्यशालाएं देखीं जहां स्त्री एवं पुरुष एक छोटी अंगीठी के चारों ओर बैठकर लाख की चूड़ियाँ बनाते हैं। तत्पश्चात ये रंगबिरंगी मनमोहक चूड़ियाँ मुख्य बाजार पहुंचकर ग्राहकों को आकर्षित करती हैं। मुझे सहसा आभास हुआ कि ये चूड़ियों कितने ही घरों में उजाला करती हैं तथा कितने ही लोगों का उदर भरण करती हैं।

लाड बाज़ार में लाख की चूड़ियाँ
लाड बाज़ार में लाख की चूड़ियाँ

मुझे व्यक्तिगत रूप से कभी गहनों एवं साजसज्जा का मोह नहीं रहा। मेरे लिए ये आभूषण, चूड़ियाँ इत्यादि ऐसी वस्तुएं हैं जिनके बिना भी आसानी से जिया जा सकता है। मैंने इन्हें सदैव दूसरों पर ही सराहा है। किन्तु हैदराबाद के लाड बाजार की इन गलियों में घूमते हुए मुझे आभास हुआ कि एक एक चूड़ी बनाने में कितना परिश्रम एवं समय लगता है। किसी की कलाइयों में सजने से पूर्व ये चूड़ियाँ कितने ही कारीगरों के हाथों से होकर जाती हैं। कितने परिवार इस उद्योग पर निर्भर हैं।

लाख की चूड़ियाँ ऑनलाइन खरीदें

अचानक मेरी भी इच्छा हुई कि मैं कुछ चूड़ियाँ अपने लिए भी ले लूं। नग जड़ी कुछ चूड़ियाँ मैंने भी खरीदी। लाड बाजार की गलियों में घूमने के पश्चात इन चूड़ियों एवं इन्हें बनाने वाले कारीगरों के प्रति मेरे दृष्टिकोण में अब परिवर्तन आने लगा है। मेरे लिए अब ये मात्र आभूषण नहीं, अपितु इस उद्योग में रत कई परिवारों की जीविका है।

लाड बाजार के मोती

हैदराबाद के मोती हार
हैदराबाद के मोती हार

हैदराबाद को भारत की मोतियों की नगरी कहा जाता है। हैदराबाद किसी भी ऐसी नदी अथवा समुद्र के समीप स्थित नहीं है जहां मोतियों का उत्पादन होता हो। फिर भी यह मोतियों का सर्वाधिक विशाल संसाधन एवं व्यापारिक केंद्र है। आप जैसे ही इस बाजार के समीप पहुंचेंगे, आपको मोतियों की दूकान ढूंढनी नहीं पड़ेगी। जहां आपकी दृष्टी जायेगी, वहां मोतियों की दुकानें होंगी। दुकानों के विक्रेता आपको प्रेम से भीतर बुलाते हैं तथा मोतियों के आभूषणों को देखने का आमंत्रण देते हैं। आप चाहकर भी उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते।

श्वेत एवं धूमिल श्वेत रंग की मोतियों की लड़ियाँ चारों ओर लटकी हुई दृष्टिगोचर होंगी। मोतियों से बने गले के हार, कान के झुनके, चूड़ियाँ तथा अन्य आभूषण छलने लगते हैं। सबकी रूचि के अनुसार आभूषणों का अम्बार है। यहाँ मुझे भी मेरी रूचि के अनुसार मोती मिले। मैंने धूसर जैसे असाधारण रंगों के एवं असामान्य आकार के कई बड़े मोती खरीदे।

मोती उद्योग

मोतियों की छान बीन
मोतियों की छान बीन

यहाँ भी मुझे मोती संसाधन एवं उनसे आभूषण बनाने की कला को देखने की अभिलाषा थी। अतः मैं दुकान के पिछवाड़े स्थित मोती संसाधन इकाई में गयी। मोतियों को सर्वप्रथम इनके आकार के अनुसार छांटा जाता है। बड़ी बड़ी छलनियों द्वारा एक आकार की मोतियों के प्रथक ढेर बनाए जाते हैं। तत्पश्चात हाथों से उसकी माप एवं आकार के अनुसार छंटनी की जाती है।

हैदराबाद के मोती
हैदराबाद के मोती

तत्पश्चात छंटी हुई मोतियों में एक एक कर छोटी मशीन द्वारा छिद्र बनाए जाते हैं। इसके पश्चात उन्हें धागे में पिरोया जाता है। कुछ लड़ियाँ ऐसे ही बेची जाती हैं तथा कुछ को आभूषण निर्मिती इकाई में आकर्षण आभूषण बनाने के लिए भेज दिया जाता है। हम सबने इन इकाईयों को अवश्य देखना चाहिए। अंततः हमें भी जानना चाहिए कि जो आभूषण हम रूचि से धारण करते हैं, उन्हें बनाते कैसे हैं।

मोती के गहने
मोती के गहने

मेरी हार्दिक अनुशंसा है कि हैदराबाद के इस बाजार में आप अवश्य जाएँ एवं उसकी गलियों में विचरण करें। यह खरीददारों का स्वर्ग है।

और पढ़ें – पुरानी दिल्ली की गलियों के 10 प्रसिद्ध बाजार

सरोजिनी नायडू की कविता ‘हैदराबाद के बाजारों में’

१०० से अधिक वर्षों पूर्व, प्रसिद्ध कवियित्री, लेखिका, स्वतंत्रता सेनानी एवं हैदराबाद की निवासी सरोजिनी नायडू ने हैदराबाद के बाजारों पर एक स्तुतिपूर्ण कविता रची थी। यह स्वदेशी अभियान का एक भाग भी था जहां देश के तात्कालिक नेताओं ने देश में बनी स्वदेशी वस्तुओं के उपभोग को बढ़ावा दिया था तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का अव्वाहन किया था। सरोजिनी नायडू ने हैदराबाद के इस जीवंत बाजार को किस प्रकार अपनी कविता द्वारा सजीव किया, यह आप इस कविता में देख सकते हैं। उस समय से अब तक इस बाजार में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है।

In The Bazaars of Hyderabad
What do you sell, O merchants?
Richly your wares are displayed
Turbans of crimson and silver
Tunics of purple brocade
Mirrors with panels of amber
Daggers with handles of jade
What do you weigh, O ye vendors?
Saffron, lentil, and rice
What do you grind, O ye maidens?
Sandalwood, henna, and spice
What do you call, O ye pedlars?
Chessmen and ivory dice
What do you make, O ye goldsmiths?
Wristlet and anklet and ring
Bells for the feet of blue pigeons
Frail as a dragonfly’s wing
Girdles of gold for the dancers
Scabbards of gold for the kings
What do you cry, O fruitmen?
Citron, pomegranate and plum
What do you play, O ye musicians?
Sitar, Sarangi, and drum
What do you chant, O magicians?
Spells for the aeons to come
What do you weave, O ye flower-girls?
With tassels of azure and red?
Crowns for the brow of a bridegroom
Chaplets to garland his bed
Sheets of white blossoms new-garnered
To perfume the sleep of the dead.

और पढ़ें – हैदराबाद के अद्भुत संग्रहालय 

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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हैदराबाद के चिलकुर बालाजी मंदिर – वीसा दिलवाने वाले भगवान https://inditales.com/hindi/visa-devta-chilkur-balaji-hyderabad/ https://inditales.com/hindi/visa-devta-chilkur-balaji-hyderabad/#comments Wed, 10 Jun 2020 02:30:20 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1995

चिलकुर बालाजी का शाब्दिक अर्थ है छोटे बालाजी। चिलकुर बालाजी मंदिर हैदराबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्रों का सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिर है। यह इच्छा-पूर्ति मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहाँ के भक्तों की इच्छाओं में सर्वोपरि इच्छा  विदेश जाने के लिए वीसा पाने की होती है। इस मंदिर के भगवान को वीसा का […]

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चिलकुर बालाजी का शाब्दिक अर्थ है छोटे बालाजी। चिलकुर बालाजी मंदिर हैदराबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्रों का सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिर है। यह इच्छा-पूर्ति मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहाँ के भक्तों की इच्छाओं में सर्वोपरि इच्छा  विदेश जाने के लिए वीसा पाने की होती है। इस मंदिर के भगवान को वीसा का भगवान माना जाता है, अर्थात वह भगवान जो विशेषतः भक्तों के पासपोर्ट में वीसा अंकित करवाने की इच्छा पूर्ण करते है।

वीसा देवता चिलकुर बालाजी का मंदिर
वीसा देवता चिलकुर बालाजी का मंदिर

मुझे जब इस मंदिर के विषय में ज्ञात हुआ, मुझमें इसके दर्शन करने की एवं इसके विषय में अधिक जानकारी एकत्र करने की इच्छा जागृत हुई। यही इच्छा एक दिन मुझे इस मंदिर तक ले आई। प्रारंभ में मैंने यहाँ सप्ताह के अंत में आने का निश्चय किया था किन्तु मंदिर के एक नियमित भक्त ने मुझे आगाह किया कि सप्ताहांत में यहाँ भक्तों की अत्यधिक भीड़ हो जाती है। अतः हमने एक सोमवार के दिन यहाँ आने की योजना बनाई। उस दिन भी भीड़ थी किन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं थी।

मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग खेतों, किसानों के घरों तथा मृगवनी राष्ट्रीय उद्यान के प्रवेश द्वार के समीप से होकर जाता है। यह मंदिर उस्मान सागर झील के समीप स्थित है। हैदराबाद शहर के भीड़भाड़ भरे मार्गों से जब हम मंदिर पहुंचे, हमारा चित्त शांत व प्रसन्न हो गया।

हैदराबाद का चिलकुर बालाजी मंदिर

चिलकुर बालाजी हैदराबाद के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण १७ वीं. शताब्दी में अक्कना एवं मदन्ना के शासनकाल में किया गया था। अक्कना एवं मदन्ना भक्त रामदास के काका हैं। भक्त रामदास कर्नाटक शैली के शास्त्रीय संगीत के विद्वान थे तथा भगवान राम के परम भक्त थे।

मंदिर की ओर जाते मार्ग पर एक सम्पन्न बाजार है। अन्य मंदिरों के बाहर जो आम वस्तुओं की विक्री की जाती है, उन वस्तुओं के साथ यहाँ श्वेत एवं हरित संगमरमर में बनी छोटी कलाकृतियों की भी विक्री की जाती है। सम्पूर्ण हैदराबाद में केवल इसी स्थान पर मैंने ऐसा सम्मिश्रण देखा।

१०८ परिक्रमा

१०८ परिक्रमा गणक पत्र
१०८ परिक्रमा गणक पत्र

एक विचित्र वस्तु की विक्री ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। एक पेन के साथ एक पुट्ठे का पत्रक जिस पर १ से १०८ तक की संख्या लिखी हुई थी। यह कैसा पत्रक है? इसका क्या उपयोग है? प्रथम दृष्टि यह तंबोला खेल के पत्रक के समान प्रतीत हो रहा था। ऐसा सोचते हुए मुझे खेद भी हो रहा था किन्तु मैं तंबोला खेल का मंदिर से कोई संबंध ढूंढ नहीं पा रही थी। कैसे ढूंढ पाती? ना तो यह तंबोला का पत्रक था, ना ही इस मंदिर का उस खेल से कोई संबंध। फिर किसी ने मुझे जानकारी दी कि इच्छा पूर्ति के पश्चात भक्तगण मंदिर की १०८ प्रदक्षिणा अर्थात परिक्रमा करते हैं। किन्तु १०८ प्रदक्षिणा करते समय कभी कभी गणना चूक जाती है। ऐसे समय यह पत्रक अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है। प्रत्येक प्रदक्षिणा के पश्चात संबंधित संख्या को चिन्हित किया जा सकता है। मंदिर के भीतर हम उपयोग किये गए ऐसे अनेक रंगबिरंगे पत्रक सर्वत्र देखने वाले थे।

चिलकुर बालाजी मंदिर एक छोटा सा मंदिर है, यह जानकारी मुझे पूर्व से ही थी। किन्तु प्रत्यक्ष देखने पर यह मेरी कल्पना से भी अधिक लघु प्रतीत हुआ। मंदिर की सादी श्वेत भित्तियों की पृष्ठभूमि पर एक छोटा किन्तु रंगबिरंगा चमकता हुआ गोपुरम है जिसके ऊपर सुनहरा ध्वजस्तम्भ है। भक्तगणों की भीड़ को संयमित पंक्तियों में सीमित करने के लिए चारों ओर बाड़ लगी हुई थीं। चूंकि उस दिन अधिक भीड़ नहीं थी, हम सीधे चिलकुर बालाजी मंदिर के परिसर पहुंच गए। यहाँ भक्तगण मंत्रोच्चारण के साथ मंदिर की प्रदक्षिणा कर रहे थे।

इच्छा पूर्ति के लिए ११ परिक्रमा

चिलकुर बालाजी मंदिर में परिक्रमा लगते भक्तगण
चिलकुर बालाजी मंदिर में परिक्रमा लगते भक्तगण

मेरे साथियों ने ११ प्रदक्षिणा करने का निश्चय किया जो किसी भी इच्छा की मांग करने के लिए आवश्यक है। मैं भी उनके साथ हो ली। परिसर में एक सूचना पट्टिका पर लिखा था, ‘भगवान पर ध्यान केंद्रित करें, परिक्रमा की संख्या पर नहीं’। प्रदक्षिणा करते भक्तगण “गोविंदा, गोविंदा” का नाद कर रहे थे जबकि ध्वनि-विस्तारक के माइक पर एक भक्त किसी दूसरे मंत्र का उच्चारण कर रहा था। कुछ किशोर वय के बालक यहाँ-वहाँ घूमकर जल की बोतल की विक्री कर रहे थे।

११ परिक्रमा के पश्चात हमने मंदिर में प्रवेश किया जहाँ एक फलक सूचना दे रहा था कि दर्शन के समय अपनी आँखें बंद ना करें। मुख्य द्वार का चौखट चांदी का था जिसके ऊपरी भाग पर वैष्णवी देवी की छवि उत्कीर्णित थी। मंदिर के भीतर राजस्थानी कलाशैली में उत्कीर्णित एक और तोरण था। मंदिर के भीतर भगवान की प्रतिमा पर वस्त्रों एवं अलंकारणों की इतनी परतें थीं कि इन परतों के अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं था। भगवान की छवि की केवल कल्पना ही कर सकते हैं।

इस मंदिर में कहीं भी दान पेटी अथवा हुंडी नहीं है। मंदिर में किसी भी प्रकार का दान भी स्वीकार नहीं किया जाता।

मंदिर की कथा

मंदिर में पूजा हेतु सामग्री
मंदिर में पूजा हेतु सामग्री

दर्शन के पश्चात हम मंदिर के पृष्ठभाग में गए जहाँ हमें मंदिर के मुख्य पुरोहित श्री चिलकुर मदभूषी गोपालकृष्णन से भेंट करना था। उनका परिवार गत ४०० वर्षों से मंदिर की देखरेख कर रहा है। उन्होंने हमें मंदिर से संबंधित अनेक कथाएँ तथा किवदंतियाँ सुनाईं।

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एक प्राचीन किवदंती हमें बताती है कि किस प्रकार इस मंदिर का निर्माण किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि एक भक्त प्रत्येक वर्ष तिरुपति बालाजी के मंदिर जाता था। एक वर्ष अस्वस्थता के कारण वह बालाजी के दर्शनार्थ नहीं जा पाया था। बालाजी ने उसके स्वप्न में आकर उससे चिंता छोड़ने के लिए कहा। स्वप्न में बालाजी ने कहा कि वे उसके समीप स्थित एक जंगल में हैं तथा उन्होंने उन तक पहुँचने का मार्ग भी बताया। बालाजी के बताए स्थान पर जब भक्त पहुँचा तब उसे उस स्थान पर छुछूँदर की बाँबी दिखी। उस बाँबी से  श्रीदेवी एवं भूदेवी सहित बालाजी की मूर्ति प्राप्त हुई। कालांतर में इन मूर्तियों के लिए एक मंदिर का निर्माण किया गया जिसे चिलकुर बालाजी मंदिर अर्थात छोटे बालाजी मंदिर के नाम से जाना गया। वे भक्त जो बालाजी के मुख्य मंदिर में नहीं जा पाए, वे समीप स्थित इस मंदिर में बालाजी के दर्शन कर सकते हैं।

मंदिर के वेबस्थल में एक अन्य दंतकथा का उल्लेख है –

सन् १९६३में, अर्थात चीनी आक्रमण के एक वर्ष पश्चात अम्मवरु की प्रतिमा की स्थापना की गई थी। जब आक्रमणकारी स्वेच्छा से पीछे हटे तब उस घटना का उत्सव मनाने के लिए अम्मवरू का नामकरण राज्य लक्ष्मी किया गया। इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि उनके तीन हाथों में कमल के पुष्प हैं तथा चौथा हाथ कमलचरण की ओर संकेत करता है जो शरणागति के सिद्धांत को दर्शाता है।

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जो कथाएं मुझे पुरोहितजी ने सुनाईं उनकी रचना उनके जीवनकाल में हुई थीं। जैसे वीसा की इच्छा भगवान के समक्ष रखना तथा उन इच्छाओं की पूर्ति होना। उन्होंने बताया कि इन मान्यताओं का आरंभ सन् १९८० से हुआ था। उन्होंने कहा कि मंदिर में एक कुएं की खुदाई के समय वे मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने ११ परिक्रमा सम्पूर्ण की तभी कुएं से जल बाहर आया। अपनी क्रतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन्होंने मंदिर की १०८ प्रदक्षिणा की। तभी से यह परंपरा आरंभ हो गई। भक्तगण भगवान के समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त करते समय मंदिर की ११ परिक्रमा करते हैं। जब उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती है तो वे पुनः यहाँ आकर मंदिर की १०८ परिक्रमा अर्थात प्रदक्षिणा लगाते हैं।

आप सबको यह स्मरण होगा कि सन् १९८० से सन् १९९० के मध्य नवयुवक-नवयुवतियों में विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा अपनी चरम सीमा पर थी। इसके लिए उन्हे वीसा प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक था। यही इच्छा लिए अनेक नवयुवक-नवयुवतियाँ तथा उनके माता-पिता चिलकुर बालाजी मंदिर आने लगे। तभी से चिलकुर बालाजी का नवीन नाम हो गया, वीसा के देवता। इनमें से अनेकों की इच्छा-पूर्ति भी हुई होगी। विद्यार्थियों एवं उनके पालकों की सहायता करने के लिए किसी ने यह अनोखा पत्रक तैयार किया होगा। अब मुझे समझ आया कि क्यों मंदिर में इतने लोग गणना पत्रक पकड़ कर मंत्रों का उच्चारण करते हुए परिक्रमा लगा रहे थे।

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अंत में स्मित हास्य झलकाते हुए गोपालकृष्णन जी ने कहा कि यह युवाओं का मंदिर है।

अधिकतर मंदिरों में माता-पिता अपने बच्चों को ले कर जाते हैं। किन्तु इस मंदिर में बच्चे अपने माता-पिता को ले कर जाते हैं। जो इच्छाएं अधिकतर व्यक्त की जाती हैं वे हैं, प्रवेश परीक्षा में सफलता प्राप्ति, इच्छित व्यक्ति से विवाह, नौकरी प्राप्ति इत्यादि के साथ मुख्यतः वीसा की प्राप्ति जो आज के युवाओं की प्रमुख मांग बनती जा रही है।

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यहाँ आकर कितने लोगों की इच्छा पूर्ण होती है इसका मुझे अनुमान नहीं है। किन्तु परिक्रमा करते इन भक्तों के मुख पर छाई असीम श्रद्धा एवं संपूर्ण समर्पण की छटा मैंने स्वयं देखी एवं अनुभव की है। ऐसा कहते हैं ना, श्रद्धा एवं विश्वास बड़े बड़े पर्वतों को हिला सकते हैं, कदाचित यह भी उसी का एक प्रकार हो।

चिलकुर बालाजी मंदिर की यात्रा से संबंधित कुछ जानकारियाँ

यह मंदिर हैदराबाद शहर से लगभग ३३ किलोमीटर की दूरी पर, उस्मान सागर झील के समीप स्थित है।

आंध्र प्रदेश पर्यटन विकास निगम (APTDC) का हरिथ अतिथिगृह मंदिर से केवल १०० मीटर दूर स्थित है। मंदिर के समीप ठहरने एवं भोजन करने के लिए यह एक उत्तम स्थान है।

सप्ताहांत, विशेषतः शुक्रवार एवं शनिवार के दिनों में प्रतिदिन लगभग एक लाख से भी अधिक भक्तगण मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। अतः आप अपनी यात्रा नियोजित करते समय इसका विशेष ध्यान रखें।

मंदिर प्रातः ५ बजे से रात्रि ८ बजे तक खुला रहता है।

मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है।

अधिक जानकारी के लिए मंदिर का यह वेबस्थल देखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अद्भुत हैदराबाद संग्रहालय जो आपको अपनी ही दुनिया में ले जाएँ https://inditales.com/hindi/must-see-hyderabad-sangrahalaya/ https://inditales.com/hindi/must-see-hyderabad-sangrahalaya/#comments Wed, 13 Mar 2019 02:30:07 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1182

हैदराबाद का विविधताओं से भरा एक लंबा इतिहास है। दक्खन के पठारों में प्राकृतिक रूप से संतुलन बिठाये अनोखी प्राचीन चट्टानें हैं जो इसकी प्राचीनतम रचना हैं। एक ओर इसके आदिवासी रहवासी हैं जिनके इलाकों को आप नामों से पहचान सकते हैं। दूसरी ओर यह विश्व के कुछ सर्वाधिक धनाड्यों की नगरी है। जहां हैदराबाद […]

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हैदराबाद का विविधताओं से भरा एक लंबा इतिहास है। दक्खन के पठारों में प्राकृतिक रूप से संतुलन बिठाये अनोखी प्राचीन चट्टानें हैं जो इसकी प्राचीनतम रचना हैं। एक ओर इसके आदिवासी रहवासी हैं जिनके इलाकों को आप नामों से पहचान सकते हैं। दूसरी ओर यह विश्व के कुछ सर्वाधिक धनाड्यों की नगरी है।

हैदराबाद के संग्रहालयजहां हैदराबाद सूचना प्रोद्योगिकी उद्योग क्षेत्र में भारत के सर्वाधिक सफल नगरों में से एक है वहीं दूसरी ओर भारत के कई सर्वाधिक महत्वपूर्ण खिलाड़ी यहाँ निवास करते हैं। हैदराबाद की आकर्षक ऐतिहासिक इमारतों की एक लम्बी सूची है वहीं हैदराबाद अद्भुत एवं विविध संग्रहालयों की भी नगरी है। इस सब को एक संस्मरण में समेटना असंभव है। यह संस्मरण मैं समर्पित करती हूँ हैदराबाद के उन संग्रहालयों को जहां आप अपने अगले हैदराबाद यात्रा के समय कुछ ज्ञानवर्धक व मनोरंजक क्षण बिता सकते हैं।

हैदराबाद में देखने योग्य कुछ विलक्षण संग्रहालय

हैदराबाद के संग्रहालयों का अवलोकन का अर्थ है हैदराबाद की, एक प्राचीन नगरी से, अत्यंत आधुनिकता से भरपूर नगरी तक की यात्रा को समझना। इससे आप हैदराबाद को अच्छी तरह से जान सकते हैं।

सालारजंग संग्रहालय

सालारजंग संग्रहालय - हैदराबाद
सालारजंग संग्रहालय – हैदराबाद

सालारजंग संग्रहालय हैदराबाद का सर्वाधिक प्रसिद्ध संग्रहालय है। मूसी नदी के तीर पर मौलिक श्वेत रंग की यह रम्य इमारत किसी श्वेत पक्षी के खुले पंखों सी प्रतीत होती है। इसके संग्रह को देख विश्वास ही नहीं होता कि यह एक इकलौते व्यक्ति द्वारा संग्रहित वस्तुओं का भण्डार है। वह व्यक्ति थे सालारजंग। संग्रहालय की यह इमारत भारत के उन कुछ इमारतों में से है जिनका निर्माण विशेषतः संग्रहालय के रूप में ही किया गया था। इसी प्रकार से विशेष रूप से निर्मित एक अन्य इमारत है, दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय

पत्थर में बनी, घूंघट ओढ़े रिबेक्का की मूर्ति हो या बोलती घड़ी जिसमें से गुड़ियायें बाहर निकलकर घंटी बजाते हैं, अथवा उच्च कोटि की चित्रकलाएं हों, या हाथीदांत एवं चीनी मिट्टी से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ हों, सब आपको सम्मोहित कर देंगी। हैदराबाद में देखने योग्य उत्कृष्ट स्थलों में इसका स्थान सर्वप्रथम है।

सुधा कार संग्रहालय – हैदराबाद का सर्वाधिक सनकी संग्रहालय

हैदराबाद के संग्रहालयों में मेरा सबसे पसंदीदा संग्रहालय है, सुधा कार संग्रहालय। यह रचनात्मकता एवं नवीनता की पराकाष्ठा है। यदि उत्साह भरपूर हो तथा निश्चय दृड़ हो तो एक अकेले मानव की उपलब्धियां भी आकाश चूमने लगती हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है यह संग्रहालय। सुधाकरजी ने कई आकारों एवं आकृतियों में कार को परिवर्तित किया है।

सुधा कार म्यूजियम हैदराबाद
यह क्रिकेट का बल्ला नहीं एक चलती फिरती कार है – सुधा कार म्यूजियम हैदराबाद

उपयोग में आने वाली प्रत्येक वस्तु के आकार में आपको यहाँ कार दिख जायेगी। उदाहरणतः क्रिकेट बैट, बॉल, पिंजरा, पश्चिमी संडास कमोड, प्याला, पर्स, जूता, ऊंची एड़ी के सैंडल, हेलमेट, कैमरा, बर्गर, सोफा व अन्य कई। शिवलिंग के आकार की भी एक कार यहाँ है।

और पढ़ें:- हैदराबाद का सुधा कार संग्रहालय

मेरे अनुमान से यह भारत का सर्वाधिक सनकी व अभिनव संग्रहालय है।

पुरानी हवेली संग्रहालय

पुरानी हवेली, हैदराबाद के निज़ाम का आवासीय महल था। वर्तमान में यहाँ अन्य वस्तुओं के साथ साथ निजाम का संग्रहालय भी है।

यह एक अत्यंत अनूठा संग्रहालय है। यहाँ निजाम की एक दुमंजिली अलमारी है जिसमें १२४ द्वार हैं। यह १२० फीट लम्बे एक कक्ष के दोनों ओर फैली हुई है। निजाम को अलमारी की दोनों मंजिलों तक पहुंचाने के लिए प्रयोग की गयी हस्तचालित लिफ्ट अब भी यहाँ है। जी हाँ, आपका अनुमान सही है। यह विश्व की सर्वाधिक विशाल अलमारी है।

और पढ़ें:- पुराने हैदराबाद की पुरानी हवेली का पदभ्रमण

यह भी हैदराबाद का एक और विचित्र संग्रहालय है जो इस धरती के सर्वाधिक धनाड्य किन्तु सबसे कंजूस व्यक्ति से आपका परिचय कराता है, हैदराबाद के निज़ाम। उनके वस्त्र जो यहाँ प्रदर्शित हैं, वे अन्य स्थलों में प्रदर्शित राजसी वस्त्रों से अपेक्षाकृत सादे प्रतीत हुए। अधिकतर वे श्वेत लखनवी कुर्ते थे।

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आप यहाँ कुछ सूक्ष्म चित्रकारी देख सकते हैं जिनमें निजाम परिवार की वंशावली अत्यंत रचनात्मक प्रकार से की गयी है।

तेलंगाना राज्य संग्रहालय

तेलंगाना राज्य संग्रहालय
तेलंगाना राज्य संग्रहालय

पब्लिक गार्डन्स अर्थात् बाग़-ए-आम, निजाम द्वारा बनवाया गया हैदराबाद का प्राचीनतम ऐतिहासिक बाग़ है जहां हैदराबाद के कई प्रतिष्ठित इमारतों के साथ साथ कई संग्रहालय भी हैं। इनमें विशालतम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण संग्रहालय है तेलंगाना राज्य पुरातात्विक संग्रहालय। जब मैंने इसके दर्शन किये थे, तब आंध्र प्रदेश विभाजित नहीं हुआ था तथा इसे आन्ध्र प्रदेश राज्य संग्रहालय कहा जाता था।

और पढ़ें:- हैदराबाद के बाग़-ए-आम के संग्रहालय

यहाँ अमरावती से लाई गयी मनोहारी बौध प्रतिमाएं हैं। एक ताबूत में रखे बुद्ध के अवशेष भी आप यहाँ देख सकते हैं। जैन दीर्घा में कई आकर्षक जैन प्रतिमाएं हैं। काकातिया वास्तुकला में बने द्वार-स्तंभ निहारने योग्य हैं।

स्वास्थ्य संग्रहालय

स्वास्थ्य संग्रहालय भी हैदराबाद के बाग़-ए-आम में स्थित है। यह छोटा होते हुए भी एक अनोखा संग्रहालय है जो स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के महत्त्व को बल देता है। पोषण व स्वास्थ्य तथा मातृत्व व प्रसव पर केन्द्रित यह पुराना संग्रहालय एक छोटे कक्ष में संग्रहित है। स्वतंत्रता के पश्चात निर्मित इस संग्रहालय में उस काल की स्वास्थ्य दशा एवं व्याधियां दर्शाई गयी हैं।

पुरातत्व संग्रहालय – गनफाउंड्री

वारंगल शैली का द्वार - हैदराबाद संग्रहालय
वारंगल शैली का द्वार – हैदराबाद संग्रहालय

आदर्श रूप से यह एक ठेठ पुरातत्व संग्रहालय है जिसकी वृत्ताकार संरचना अनूठी है। इसे देख मुझे चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय का छात्र केंद्र स्मरण हो आया। यहाँ आप काकातिया के उत्कृष्ट द्वार स्तंभ देखना ना भूलें। साथ ही हैदराबाद क्षेत्र के पूर्व ऐतिहासिक अवशेषों को भी अवश्य देखें। विशेषतः वे अवशेष जो सदियों पुरानी दफ़न प्रथाओं से सम्बंधित हैं।

बिड़ला विज्ञान संग्रहालय एवं तारामंडल

डायनासोर के अवशेष - बिड़ला विज्ञान संग्रहालय एवं तारामंडल
डायनासोर के अवशेष – बिड़ला विज्ञान संग्रहालय एवं तारामंडल

नौबत पहाड़ पर स्थित शुद्ध श्वेत रंग के बिड़ला मंदिर के एक ओर, स्तंभों से घिरा पदमार्ग आपको कांच व इस्पात से निर्मित एक विशाल इमारत तक ले जाएगा। यह हैदराबाद का बिड़ला विज्ञान संग्रहालय एवं तारामंडल है। यह एक अद्भुत संग्रहालय है जो विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों को नमूनों एवं प्रयोगों द्वारा सरलता से समझाता है। यह आपको आपके विद्यार्थी जीवन एवं विज्ञान पुस्तकों के विश्व में ले जाएगा। यहाँ आकर आप भी बच्चे बन जायेंगे।

और पढ़ें:- हैदराबाद का बिड़ला विज्ञान संग्रहालय एवं तारामंडल

एक ओर डायनासोरस के अवशेष रखे हैं। द्वारका के समुद्र के भीतर की गयी खुदाई का भी नमूना रखा हुआ है।

सांस्कृतिक कला दीर्घा संस्थान

यह कला दीर्घा नौबत पहाड़ पर स्थित बिड़ला विज्ञान संग्रहालय के परिसर के भीतर ही स्थित है। जिस समय मैंने इस कला दीर्घा का भ्रमण किया था तब यहाँ कृष्ण के अप्रतिम विश्वरूप का सुन्दर प्रदर्शन किया गया था। निचली मंजिल पर गुरचरण दास जैसे चित्रकारों की समकालीन चित्रकारियाँ हैं जिनमें वर्तमान से लेकर महाकाव्यों की कथाओं तक के विषय चित्रित हैं।

निर्मला बिड़ला संग्रहालय

यह संग्रहालय भी बिड़ला विज्ञान संग्रहालय के परिसर के भीतर ही स्थित है। इस संग्रहालय में चीनी मिट्टी की वस्तुओं, गुड़ियों, हाथी दन्त में उत्कीर्णित वस्तुओं, बिदरी कलाकारी एवं तंजावुर की चित्रकारियों का सर्वोत्तम संग्रह है। यह हैदराबाद के गुप्त रहस्यों में से एक है। यदि आपको संग्रहालय प्रिय हैं तो इस संग्रहालय में आपको अधिक समय व्यतीत करना चाहिए। कई वर्षों पूर्व देखी उल्टे नटराज की प्रतिमा मुझे अब भी स्मरण है।

चौमहल्ला महल अथवा चौमहल्ला पैलेस

चौमहल्ला महल का संग्रहालय - हैदराबाद
चौमहल्ला महल का संग्रहालय – हैदराबाद

हैदराबाद के निज़ाम का यह प्यारा सा महल पुराने हैदराबाद के लाड बाजार अथवा चूड़ी बाजार के दूसरे छोर पर स्थित है। औपनिवेशिक युग का यह महल अपने आप में एक आकर्षक संग्रहालय है। इसके दरबार में आप विशाल झूमर देखेंगे जो बेल्जियम से लाया गया है। अन्य स्थानों पर आप पुराने रेडियो तथा अनोखी प्राचीन घड़ियाँ देख सकते हैं। यहाँ निजाम का पुरानी विंटेज कारों का भी संग्रह है जिनमें अधिकतर अब भी चालू स्थिति में हैं। आप में से जिन्हें भी इन पुरानी विंटेज कारों में रूचि है, उनके लिए यह अद्भुत संग्रह है।

ओर पढ़ें:- चारमीनार से चौमहल्ला तक पदयात्रा

नेहरु शताब्दी आदिवासी संग्रहालय, बंजारा हिल्स

आदिवासी संग्रहालय - बंजारा हिल्स हैदराबाद
आदिवासी संग्रहालय – बंजारा हिल्स हैदराबाद

आँध्रप्रदेश एवं तेलंगाना में कई आदिवासी समुदाय हैं। इनमें चेंचू, लम्बाड़ा, पुर्जा, येरुकला इत्यादि मुख्य हैं। इनमें से कुछ जातियां एक पहाड़ी पर निवास करती थीं जो अब हैदराबाद का एक आधुनिक रहवासी क्षेत्र है। इस क्षेत्र को बंजारा हिल्स कहा जाता है। स्पष्टतः हैदराबाद के आदिवासी संग्रहालय के लिए बंजारा हिल्स का चुनाव सबसे उपयुक्त है। इस संग्रहालय में कई चित्रावालियाँ हैं जो विभिन्न आदिवासी समुदायों की जीवनशैली प्रदर्शित करती हैं। आप वहीं खड़े होकर विभिन्न समुदायों के बीच तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं।

मुझे जो चित्रावली अत्यन्य भायी वह है आदमकद आकार में नृत्य दृश्य।

और पढ़ें:- बंजारा हिल्स में हैदराबाद का आदिवासी विरासत

जगदीश एवं कमला मित्तल भारतीय कला संग्रहालय

यह एक व्यक्तिगत संग्रहालय है। अतः इसके अवलोकन के लिए पूर्व अनुमति आवश्यक है। यह मेरा सौभाग्य था कि मैं यहाँ श्री जगदीश मित्तल जी से मेरी भेंट हो गयी। उनका घर भारतीय कला पर आधारित पुस्तकों से भरा हुआ है। उन्होंने स्वयं भी भारतीय कला पर कई पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने जिस प्रकार राजस्थानी सूक्ष्म चित्रावलियों को सहेज कर रखा था, वह मुझे अब भी स्मरण है। अधिक जानकारी के लिए उनके इस संकेत स्थल पर संपर्क करें।

शिल्परमम का ग्रामीण संग्रहालय

शिल्परामम हैदराबाद
शिल्परामम हैदराबाद

शिल्परमम दिल्ली हाट के सामान है। कारीगर यहाँ हस्तनिर्मित वस्तुएं एवं कलाकृतियाँ स्वयं बनाकर बेचते हैं। कुछ स्थान नाट्य-संगीत प्रदर्शनों के लिए निश्चित किये गए हैं। यहाँ सदैव उत्सव का वातावरण बना रहता है। यहाँ एक छोटा ग्रामीण संग्रहालय है। देखा जाय तो यह अन्य संग्रहालय के सामान नहीं है, बल्कि वास्तव में यह इस क्षेत्र के ग्रामीण परिवेश की प्रतिकृति है। जो भी हो, यह स्थान आपको अवश्य आनंदित कर देगा। क्यों न हो? शहरी परिवेश से त्रस्त लोगों को ऐसा ग्रामीण वातावरण शान्ति प्रदान करता है।

यहाँ आप आँध्रप्रदेश एवं तेलंगाना क्षेत्र के आदिवासियों के प्रसिद्ध सिक्कों के गहने अवश्य ढूंढें।

सुरेंद्रपुरी का पौराणिक संग्रहालय

सुरेंद्रपुरी पौराणिक संग्रहालय में दुर्गा की प्रतिमा
सुरेंद्रपुरी पौराणिक संग्रहालय में दुर्गा की प्रतिमा

सुरेंद्रपुरी का यह पौराणिक संग्रहालय हैदराबाद के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित है। यह भी एक अनूठा संग्रहालय है। यहाँ पर हिंदू महाकाव्यों पर आधारित दृश्यों एवं उनमें स्थित देवी देवताओं को पुनः सजीव किया है।

और पढ़ें:- सुरेंद्रपुरी का पौराणिक संग्रहालय

प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय – नेहरु चिड़ियाघर

नेहरु चिड़ियाघर हैदराबाद में एक बूढा कछुआ
नेहरु चिड़ियाघर हैदराबाद में एक बूढा कछुआ

नेहरु प्राणी उद्यान का प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय आपको इस धरती के प्राकृतिक इतिहास का भ्रमण कराएगा। साथ ही नेहरु प्राणी उद्यान में आप कई अनूठे पशु-पक्षी देख सकते हैं। इनमें श्वेत मोर एवं श्वेत शेर अत्यंत आकर्षक एवं अनोखे हैं।

और पढ़ें:- हैदराबाद का नेहरु प्राणी उद्यान

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बिदरी धातु-शिल्पकला सृजन का प्रत्यक्ष दर्शन https://inditales.com/hindi/bidri-dhatu-shilp-making/ https://inditales.com/hindi/bidri-dhatu-shilp-making/#comments Fri, 23 Nov 2018 02:30:54 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1059

काले स्याह जस्ते अर्थात् जिंक पर उज्जवल सजीली नक्काशी, ऐसी कलाकारी आप सभी ने अवश्य देखी होगी। इसे देख आपको वर्षा ऋतु की काली रात्री में स्याह घटाओं के पीछे से चन्द्रमा की चमकती चाँदनी भी अवश्य स्मरण हुई होगी। हाँ, मैं सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध बिदरी की विलक्षण धातुकला के विषय में चर्चा कर […]

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काले स्याह जस्ते अर्थात् जिंक पर उज्जवल सजीली नक्काशी, ऐसी कलाकारी आप सभी ने अवश्य देखी होगी। इसे देख आपको वर्षा ऋतु की काली रात्री में स्याह घटाओं के पीछे से चन्द्रमा की चमकती चाँदनी भी अवश्य स्मरण हुई होगी। हाँ, मैं सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध बिदरी की विलक्षण धातुकला के विषय में चर्चा कर रही हूँ।

बिदरी धातु शिल्प कैसे बनती है?
बिदरी धातु शिल्प कैसे बनती है?

बिदरी कला से मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ जब किसी ने मुझे इसी कलाकारी द्वारा सज्ज एक आकर्षक डिबिया उपहार स्वरूप दी थी । उस कलाकारी ने मुझे इतना मोहित किया कि मैं जब भी शिल्पकला वस्तुएं देखती, इन्हें अवश्य ढूँढती थी। अंततः मुझे इनके दर्शन हुए लेपाक्षी में जो की आंध्र प्रदेश राज्य का आधिकारिक शोरूम या विक्रय केंद्र है। इनसे प्रभावित होकर मैंने हैदराबाद को छानना आरम्भ किया। तब जाकर मुझे बिदरी कला गढ़न पद्धति की जानकारी मिली।

मेरा अनुमान था कि बिदरी कार्यशाला ढूँढने हेतु मुझे हैदरबाद के सालारजंग संग्रहालय के आसपास के क्षेत्र का सूक्ष्मता से निरिक्षण करना पड़ेगा। और मेरा अनुमान सही निकला। ढूँढते ढूँढते हम एक साधारण सी छोटी दुकान में पहुंचे। गुलिस्तान-ए-बिदरी, इस कार्यशाला के सम्मुख मोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बिदरी कला में राष्ट्रीय सम्मान द्वारा पुरस्कृत’। असमंजस की अवस्था लिए हम धीरे से इस दुकान के भीतर गए। भीतर पहुंचते ही हमारी सर्व व्याकुलता लुप्त हो गयी। दुकान के मालिक ने हमारा अत्यंत आत्मीयता से स्वागत किया।

यह कार्यशाला किसी घर के पिछवाड़े सा प्रतीत हो रही थी। हमने इस कार्यशाला का सम्पूर्ण चक्कर लगाया। कारीगर सतत अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए ही हमें इस कला के विषय में जानकारी देते रहे तथा हमारे जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देते रहे।

बिदरी कला का इतिहास

यूँ तो भारत में विभिन्न धातुओं तथा धातु शिल्पों की विस्तृत जानकारी प्राचीनकाल से ही उपलब्ध थी। विभिन्न मिश्रित धातुओं तथा उनकी उपयोगता के विषय में भी भारतवासियों को पर्याप्त ज्ञान था। साथ ही यह भी माना जाता है कि बहामनी शासकों के काल में एक फारसी कारीगर यहाँ आया था तथा बीदर के धातु शिल्पकारों के साथ मिलकर इस अनूठी कला को जन्म दिया था जिसे इस नगर के ही नाम पर बिदरी अथवा बीदर कला कहा जाता है। अतः भारत में बिदरी कार्य का इतिहास लगभग ५०० वर्ष प्राचीन है।

स्वतंत्रता पूर्व बीदर दक्खन तथा हैदराबाद का अभिन्न अंग था। १९४७ के पश्चात इसे कर्नाटक राज्य में सम्मिलित किया गया। यह बिदरी कला अब भी बीदर के साथ साथ हैदराबाद में भी जीवित है।

इस शोध पत्र के अनुसार बिदरी कला कई अन्य स्थानों में भी की जाती है। इनमें मुख्य हैं, उत्तर प्रदेश में लखनऊ, बंगाल में मुर्शीदाबाद, बिहार में पुर्निया इत्यादि।

तकनिकी भाषा में बिदरी कार्य को अलंकृत पपड़ीदार धातु कार्य कहा जाता है।

बिदरी कार्य से सम्बंधित आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के पश्चात आईये हैदराबाद की एक कार्यशाला में जाते हैं जहां हम इस कार्य में उपयुक्त तकनीक तथा मेहनत को देखने तथा समझने का प्रयत्न करेंगे।

बिदरी कला हेतु आवश्यक सामग्री

बिदरी के काम में उपयोग होता रेसिन
बिदरी के काम में उपयोग होता रेसिन

बिदरी कार्य करने के लिए अधिक सामग्री की आवश्यकता नहीं होती। मुख्य सामग्री कुछ इस प्रकार है-

1. बिदरी कार्य हेतु सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है एक मिश्र धातु जिसे जस्ता (९५%) तथा ताम्बा (५%) को मिलाकर बनाया जाता है। अथवा जस्ते तथा तांबे तो १६:१ के अनुपात में मिलाकर बनाया जाता है।
2. चांदी की तारें तथा चद्दरें जिन्हें धातु पर उकेरी गयी आकृति के भीतर बिछाया जाता है। कभी कभी कांसे की तारों का भी उपयोग किया जाता है जो नक्काशी को लालिमा प्रदान करता है।
3. एक विशेष मिटटी जिससे कलाकृतियों के सांचों का निर्माण किया जाता है। वस्तुओं को अंतिम रूप प्रदान करने के लिए भी इस मिटटी का प्रयोग होता है। मैंने स्वयं देखा की बीदर की मिटटी से अत्यंत गठीला सांचा बनता है।
4. रूपरेखा अनुसार कलाकृतियों की सतह को श्याम रंग देने हेतु कॉपर सल्फेट।
5. छेनी तथा घिसाई के औजार।

बिदरी कला की प्रक्रिया

जैसा कि इस विडियो में दिखाया गया है, बिदरी कला एक कठिन तथा बहुचरणीय प्रक्रिया है। अधिकतर कार्य हाथों द्वारा ही किया जाता है। आईये इस प्रक्रिया को समझने का किंचित प्रयत्न करें-

ढलाई – मिटटी में राल तथा अरंडी का तेल मिलाकर तैयार किया जाता है। तत्पश्चात धातु का सांचा व इस मिटटी का प्रयोग कर एक खोखला सांचा तैयार करते हैं। यहाँ के कारीगरों ने मुझे बताया कि बीदर की मिटटी में विशेष गुण होता है। इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं हो पाया। किन्तु मैंने देखा कि यह शीघ्र तथा अच्छी तरह ठोस हो रहा था। इसके पश्चात इस खोखले सांचे में पिघला हुआ जस्ता-कांसा मिश्र धातु भरा जाता है जो कुछ क्षण पश्चात इस सांचे का रूप ले लेता है। मिटटी से सांचे को तोड़ कर धातु की कलाकृति बाहर निकाली जाती है।

रेखांकन तथा नक्काशी-कलाकार निर्मित वस्तु के ऊपर भिन्न भिन्न आकृतियाँ खांचों के रूप में रेखांकित करते हैं। इन खांचों के भीतर छेनी द्वारा चांदी की तारें भरी जाती हैं तथा हथोड़े से पीट कर इन तारों को खांचों में दृडता से बिठाया जाता है। तत्पश्चात रेगमार तथा लेथ मशीन से घिस कर सतह को चिकना करते हैं। इस प्रकार मूल धातु की सतह पर चांदी जड़ी जाती है।

श्याम सज्जा– बीदर की मिटटी में नौसादर तथा पानी मिलाकर कलाकृति की चुनी सतह को काला किया जाता है। इस प्रक्रिया के पश्चात सम्पूर्ण काली मूल सतह पर चांदी की अंकित आकृति खुलकर चमकने लगती है। रंग को पक्का करने के लिए नारियल का तेल लगाया जाता है।

बिदरी कला के विशेष नमूने

धातु में चांदी की गढ़ाई
धातु में चांदी की गढ़ाई

बिदरी कला की वस्तुओं को देख मुझे ज्यामितीय रेखाएं बिदरी कारीगरों का प्रिय नमूना प्रतीत हुए। विशेषतः थोक निर्मित वस्तुओं में रेखाओं का बहुतायत से उपयोग किया गया था। मैंने अनुमान लगाया कदाचित रेखाओं की नक्काशी अधिक आसान होगी। बिदरी कालाकार पुष्पों की नक्काशी भी उतनी ही उत्कृष्टता से करते हैं।

चांदी को धातु के खांचों में किस प्रकार से बिठाया जाता है, इस पर उस कलाकारी को नाम दिया गया है:
1. आफताबी – धातु(चांदी) आवरण – यह उभारयुक्त कलाकारी है।
2. कोफ़्तगिरी – धातु(चांदी) चद्दर की जड़ाई
3. ज़रबुलंद – उभरी हुई नक्काशी
4. ताराकशी – धातु(चांदी) तारों की जड़ाई

बिदरी कारीगरी की गयी प्रचलित वस्तुएं

1. धातुई डिबिया – छोटे छोटे आभूषण इत्यादि रखने के लिए उत्तम वस्तु
2. थाली, कटोरी, चमचे इत्यादि
3. लेखन सामग्री, जैसे कलम रखने का पात्र, कागज़ काटने की कैची, पत्रभार इत्यादि
4. सुराही
5. आभूषण – कंगन, हार लोलक, कर्णफूल इत्यादि

प्राचीनकाल में कारीगर इसी कला का उपयोग कर तलवार की मूठ, ढाल, पानदान जैसी कई वस्तुएं बनाते थे। किन्तु अब ये सब वस्तुएं केवल संग्रहालय में ही दिखाई पड़ती हैं।

हाल ही में मैंने भी बिदरी कला से बने कर्णफूल तथा लोलक खरीदे हैं।

बिदरी कला द्वारा बने आभूषण यदि आप भी खरीदना चाहें, तो अमेज़न से संपर्क कर सकते हैं।

बिदरी कला से बनी इन वस्तुओं को देख मन अत्यंत प्रसन्न हुआ। ह्रदय से यह आशा निकलती है कि इसके कारीगर इस कला में नवीनता लाते रहें। साथ ही दैनिक उपयोग में हम इस कला की वस्तुएं सम्मिलित कर सकें, ऐसे प्रयत्नों की भी अपेक्षा है।

जगदीश मित्तल द्वारा लिखी गयी इस किताब में बिदरी कलाकारी का विस्तृत विवरण है। २०१२ में जब मैं उनसे मिली थी, तभी ही उनकी इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। पुस्तक में छपे इस कला के विलक्षण चित्रों को देख दंग रह गयी थी। उन्होंने मुझे बताया था, यह आवश्यक नहीं कि बिदरी कला के कलाकारों में यह कला विरासत स्वरूप ही आये। इसके विपरीत, जो भी कारीगर इस कला में रूचि रखता हो, वह इस कला को सीख कर बिदरी कलाकार बन सकता है। किन्तु विडम्बना यह है कि यह अब तक पुरुष प्रधान कलाकारी ही रही है।

इस कला पर ‘क्राफ्ट कौंसिल ऑफ़ इंडिया’ के विचार इस प्रकार हैं।

बिदरी कार्यशाला दर्शन का मुझ पर प्रभाव

बिदरी - एक उत्कृष्ट धातु शिल्प
बिदरी – एक उत्कृष्ट धातु शिल्प

आप जब भी किसी नवीन स्थल के दर्शन करने जाते हैं, वह स्थान आप पर कुछ प्रभाव अवश्य छोड़ती है। फिर वह कोई अप्रतिम परिदृश्य हो, या स्वादिष्ट व्यंजन हो अथवा कोई विलक्षण व्यक्तित्व। किन्तु बिदरी कार्यशाला के दर्शानोपरांत मैं इन कारीगरों की लगन व मेहनत से अत्यंत प्रभावित हुई। बिदरी कला की एक वस्तु तैयार करने में जितना कष्ट उठाना पड़ता है, उसे देख आप इन्हें खरीदते समय कभी मोलभाव नहीं करेंगे। पहले मुझे भी ये वस्तुएं महंगी लगती थीं। किन्तु अब मुझे इनके निर्माण के पीछे की मेहनत व लगन का पूर्ण अनुमान है। उपरोक्त विडियो देख आप भी मुझसे सहमत होंगे।

अतः मैं आप सब से आवाहन करना चाहूंगी, आईये हम सब मिलकर इस कारीगरों तथा दस्तकारों को हर संभव प्रोत्साहन दें।

अंत में मैं गुलिस्तान-ए-बिदरी के सदस्यों को ह्रदय से धन्यवाद देना चाहती हूँ कि उन्होंने आनंदपूर्वक मेरी आवभागत की, बिदरी कला के विषय में जानकारी दी तथा अपनी कार्यशाला में मुझे इसकी निर्मिती विधि भी दिखाई।

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अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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वारंगल दुर्ग – काकतीय वंश की विरासत https://inditales.com/hindi/warangal-fort-kakatiya-capital-telangana/ https://inditales.com/hindi/warangal-fort-kakatiya-capital-telangana/#comments Wed, 26 Jul 2017 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=326

हैदराबाद शहर से 150 कि.मि. की दूरी पर बसा हुआ वारंगल दुर्ग, तेलंगाना का एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है। यहां के मनोरम वातावरण से लगता है जैसे कि यहां पर हर समय लोगों की चहल-पहल रहती होगी, लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। वारंगल किले के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते । यहां […]

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वारंगल दुर्ग तेलंगाना
वारंगल दुर्ग तेलंगाना

हैदराबाद शहर से 150 कि.मि. की दूरी पर बसा हुआ वारंगल दुर्ग, तेलंगाना का एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है। यहां के मनोरम वातावरण से लगता है जैसे कि यहां पर हर समय लोगों की चहल-पहल रहती होगी, लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। वारंगल किले के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते । यहां का सहस्त्र खंबों वाला मंदिर सुप्रसिद्ध है ।

पिछले हफ्ते ही हम इस किले की सैर करने गए थे। यह किला एक समय पर काकतीय वंशजों की राजधानी हुआ करता था। यहाँ पर आज उनके द्वारा पीछे छोड़ी गयी विरासत के सिर्फ अवशेष ही देखे जा सकते हैं। इसके बावजूद आज भी इस किले में देखने लायक बहुत से स्थान हैं। देश के अन्य प्राचीन धरोहर के स्थलों की तरह इसे भी संरक्षण और संवर्धन की सख्त जरूरत है। यह सब देखकर मैं सोचने लगी कि,आंध्रप्रदेश पर्यटन द्वारा वारंगल किले की मरम्मत कर उसे पर्यटन स्थल क्यों नहीं घोषित किया गया है।

वारंगल दुर्ग के रास्ते पे
वारंगल दुर्ग के रास्ते पे

वारंगल जाते समय रास्ते में ही भोनगीर किला मिलता है, जो एक विशालकाय चट्टान पर बसा हुआ है। इस किले की संरक्षक दीवार दूर से ही देखी जा सकती है। यह जगह नियमित रूप से इस किले की चढ़ाई करने वाले समूहों के बीच काफी प्रसिद्ध होगी। यहीं से थोड़ा आगे यादगिरीगुट्टा है। लेकिन समय के बंधन के कारण हमने इन जगहों पर जाना अगली बार के लिए रद्द कर दिया।

यहां पर इन जगहों का उल्लेख करना मैं जरूरी समझती हूँ क्योंकि,यहां के पथरीले भूभाग को पार करते ही, आपको आगे हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। यहां का पूरा परिदृश्य खेतों से,छोटी-छोटी पहाड़ियों से, जल स्रोतों और विविध प्रकार के पेड़-पौधों से भरपूर है।ये सारे सुखमय नज़ारे मिलकर आपकी आगे की यात्रा को और भी सुहाना बनाते हैं।

वारंगक किला – काकतीय वास्तुकला की विशिष्टता

काकतीय शिल्पकला
काकतीय शिल्पकला

वारंगल त्रिशहरों में से एक है – यानी वारंगल-काजीपेट-हनामकोंडा। हनामकोंडा काकतियों की सबसे पहली राजधानी थी,जो बाद में वारंगल में स्थानांतरित की गयी थी। इसी वारंगल शहर में वारंगल दुर्ग स्थित है। 12वी शताब्दी में महाराजा गणपती देव द्वारा बनवाया गया यह विशाल किला 19 कि.मि. की जमीन पर फैला हुआ है। इस किले की तीन पड़ावों वाली किलाबंदी के अंतर्गत लगभग 45 स्तंभ और मीनारें हुआ करती थीं, जिन पर नक्काशी का बारीक और नाज़ुक काम किया गया था। लेकिन आज यहां पर उनमें से कुछ ही स्तंभ और मीनारें खड़े हैं, तथा कुछ ही स्थान ऐसे हैं जो अपने आगंतुकों से अपने गुजरे हुए कल की, अपने बिखरे हुए वैभव की कथाएं कहते हैं।

स्वयंभू मंदिर

वारंगल दुर्ग के अवशेष
वारंगल दुर्ग के अवशेष

वारंगल किले का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है स्वयंभू मंदिर। इस मंदिर को पुरातत्व विभाग द्वारा टूटे हुए मंदिर के उपलब्ध अवशेषों से, तथा उस स्थान के आस-पास मिले अवशेषों से पुनः निर्मित करने का प्रयास किया गया है। यह सच में बहुत अच्छी बात है और इस पर पिछले 10 सालों से संशोधन किया जा रहा है। मंदिर के इस स्थान के चारों ओर बड़े-बड़े मेहराब हैं, जो काकतियों की वास्तुकला के परिचायक हैं। इन मेहराबों की प्रतिकृतियाँ आप इस पूरे शहर में देख सकते हैं।

काकतीय वास्तुकला की विशिष्ट बात है उनके दरवाजों की चौखट, जो बड़ी बारीकी से उत्कीर्णित की गयी होती है। उनकी सूक्ष्मता ही उनकी सुंदरता और आकर्षण का प्रमुख कारण है। काकतियों की और एक विशेषता है उनके स्तंभ जिनकी निर्माण शैली थोड़ी अजीब सी है। 5-6 अलग-अलग भागों को एकत्रित कर एक सम्पूर्ण और बड़े से स्तंभ का निर्माण किया जाता है। लेकिन उन्हें देखने पर नहीं लगता कि उन्हें विविध भागों को जोड़कर बनाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह पूरा स्तंभ एक ही पत्थर से उत्कीर्णित किया गया है।

पत्थरों से बनी विराट संरचनाएं

काकतीय मंदिर स्तम्भ
काकतीय मंदिर स्तम्भ

इन स्तंभों के ऊपर बने गोलाकार ढांचे ने मुझे तात्या टोपे की टोपी की याद दिलाई, जो शायद इन्हीं स्तंभों से प्रभावित होगी। ये विराट पत्थर जो छतों और कोष्टों में उत्कीर्णित किए गए हैं आपको अपने महान आकार से ही विस्मित कर देते हैं। इन पत्थरों पर की गयी खुदाई सच में बहुत बारीक और नाजुक है,जो मनुष्य के शरीर, उसके आकार-प्रकार और उनके आभूषणों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाती है। इन पत्थरों पर उत्कीर्णित पशुओं की शक्ति और देवी-देवताओं की भावनाओं को गहराई और जीवंतता के साथ चित्रित किया गया है।

यहां पर पत्थरों की एक पंक्ति है जिनपर 9 छेद हैं। इन छेदों या खाली स्थानों पर कभी शिवलिंग स्थापित हुआ करते थे, जिनके नीचे कीमती पत्थर दफनाये गए थे। इन्हीं कीमती पत्थरों को निकालने के लिए इन सारे शिवलिंगों को उद्धवस्थ किया गया था। ये उखाड़े हुए शिवलिंग शायद आज किसी और स्थान पर रखे गए होंगे। यही पर एक सुंदर सा गोलाकार पत्थर है जिस पर नवग्रहों को उत्कीर्णित किया गया है।

वहां पर पेरिणी शिव तांडव, यानी तांडव नृत्य का एक प्रकार जो वास्तव में युद्ध पर जाने से पहले सैनिकों द्वारा किया जाता था, का प्रदर्शन करती स्त्रियों की मूर्तियाँ भी हैं। इनके अतिरिक्त यहां आप खूबसूरत से मकरध्वज भी देख सकते हैं, जो हनुमान के स्वेदजल से जन्मे हुए माने जाते हैं। इस मंदिर में उनकी बहुत सारी उत्कीर्णित मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

आज आप इन अवशेषों को देखकर सिर्फ उनकी संपूर्णता की कल्पना कर उनकी खूबसूरती का अंदाज़ा लगा सकते हैं। आप सोच सकते हैं कि अगर ये बिखरे हुए भाग अवशेषों के रूप में इतने अच्छे लग सकते हैं तो अपने संपूर्ण रूप में वे कितने सुंदर दिखते होंगे।

स्वयंभू मंदिर की कथा

पत्थर में घड़ा कमल - वारंगल दुर्ग
पत्थर में घड़ा कमल – वारंगल दुर्ग

स्वयंभू मंदिर की कथा कुछ इस प्रकार है – 12वी शताब्दी के दौरान हनामकोंडा, जो उस समय अनाज का बाज़ार हुआ करता था, में अपनी लगान बेचने जाने वाले किसान इसी स्थान से गुजरते हुए जाते थे। ऐसे ही एक दिन यहां पर किसी किसान की बैलगाड़ी का पहिया कीचड़ में फंस गया। जब लोगों ने उस पहिये को बाहर निकालने की कोशिश की तो उन्हें वहां पर एक शिवलिंग दिखा। और बाद में लोगों ने इसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया। इसी कारण इस मंदिर को स्वयंभू नाम पड़ा। स्वयंभू का शाब्दिक अर्थ है अपने आप जन्मा हुआ, या फिर वह वस्तु जिसकी खोज नहीं हुई हो बल्कि वह स्वयं ही प्रकट हुआ हो।

हमारे गाइड ने हमे बताया कि इस किले में 365 शिव मंदिर हुआ करते थे, साल के प्रत्येक दिन के लिए एक मंदिर। इन प्रत्येक मंदिरों के नाम भी एक-दूसरे से अलग थे जो भगवान शिव के विविध रूपों को दर्शाते थे। लेकिन आज यहां पर इन मंदिरों के बिखरे हुए अवशेष मिलते हैं। इन बिखरे हुए अवशेषों के बीच हमे सिर्फ एक मंदिर दिखा,जिसके आस-पास के वातावरण से वह किसी तांत्रिक मंदिर लगता था।

चारों प्रमुख दिशाओं में चार मेहराबों से घिरी इस व्यापक भूमि पर वारंगल किले से खोदे हुए अवशेषों के हजारों टुकड़े यहां-वहां पड़े हुए नज़र आते हैं। इन्हीं अवशेषों को जोड़कर इस मंदिर को पुनः निर्मित कर उसे अपना मूल रूपाकार देने का प्रयास किया जा चुका है। लेकिन जैसा कि रहीम कहते हैं, “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ी जाए”। अर्थात अगर कोई वस्तु एक बार टूट जाए तो उसे जोड़ना बहुत कठिन है,और अगर उसे जोड़ भी लिया जाए तो हम उसके मूल स्वरूप को नहीं पा सकते।

एकशीला – विशाल चट्टान

एक्शिला - वारंगल
एक्शिला – वारंगल

स्वयंभू मंदिर के ठीक सामने है एकशीला, यानी एक विशाल चट्टान। इस चट्टान के शीर्ष पर एक शिव मंदिर स्थित है। अन्य शिव मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी एक नंदी मंडप और उत्कीर्णित स्तंभ देखे जा सकते हैं। इस मंदिर के पास एक छोटा सा किला भी है। यहां पर पहुँचने के लिए इस बड़ी सी चट्टान में लगभग 100 छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनवाई गयी हैं, जिन्हें पार करके आप ऊपर तक जा सकते हैं। इस ऊंचाई से आप चट्टान के चारों ओर फैले वारंगल किले का अप्रतिम नज़ारा देख सकते हैं। यहां से आप स्वयंभू मंदिर का शीर्ष दृश्य भी देख सकते हैं, जो अपने जगमगाते हुए अवशेषों द्वारा अपनी उपस्थिती का एहसास दिलाता है। इसके अलावा आप यहां से नीचे स्थित सरोवर का मंत्रमुग्ध करनेवाला नज़ारा देख सकते हैं। यह सरोवर इस एकशीला के पास ही स्थित है। इस सरोवर के बीचोबीच आधुनिक चित्रकारी की एक रोचक सी संरचना बनाई गयी है, जो बहुत ही आकर्षक है। इस चट्टान पर एक कृत्रिम झरना भी बनवाया गया है।

इस चट्टान के पास स्थित वारंगल शहर को उसका नाम भी इसी एकशीला से प्राप्त हुआ है–‘वारंगल’,जिसे स्थानीय भाषा में ‘ओरुगुल्ला’ कहा जाता है।

इस एकशीला और सरोवर के आस-पास बगीचे बनाने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा यहां पर कुछ कृत्रिम पूल भी बनाने की कोशिश की गयी है,जिसकी वास्तव में जरूरत तो नहीं है। मुझे तो लगता है कि आंध्रप्रदेश के पर्यटन विभाग को प्रकृति के रंग में कृत्रिमता का भंग डालना कुछ ज्यादा ही पसंद है।

खुश महल

खुश महल - वारंगल दुर्ग
खुश महल – वारंगल दुर्ग

खुश महल अर्थात सिताभ खान महल इस किले में स्थित एक और खूबसूरत सी संरचना है। यह एक बहुत बड़ा मंडप है, जिसमें किले के आस-पास की जगहों से खुदाई के समय मिली मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इनमें से अधिकतर मूर्तियों के कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलते। इस महल के मेहराबदार प्रवेशद्वार भारत-इस्लाम की प्राचीन वास्तुकला का सुंदर नमूना है। ये मेहराब इस मंडप के आंतरिक दीवारों को भी संभाले हुए हैं। इस मंडप की जमीन पर आयताकार आप्लावन बनवाया गया है जिसके पीछे का उद्देश्य में नहीं समझ सकी। उपाख्यानों के अनुसार यह आप्लावन सिताभ खान द्वारा बनवाया गया था। वे एक हिन्दू थे, और उनका नाम सीतापति था। वे काकतियों के प्रवेशद्वार के रक्षक हुआ करते थे। लेकिन ज़ौना खान के आक्रमण के बाद वे इस्लाम में परिवर्तित हुए और ज़ौना खान की तरफ से यहां से शासन चलाने लगे।

एकशीला और खुश महल के बीच के अंतर पर आपको साड़ियों पर कढ़ाई का काम, ज़्यादातर सलमा-सितारा की कढ़ाई करनेवाले कारीगर दिखेंगे जो मुगल काल की विशिष्टता रही है।

वारंगल किले की दिवारें

वारंगल शिल्पकला
वारंगल शिल्पकला

वारंगल किले की परिधि के अंतर्गत बनी सड़कों पर चलते समय आपको यहां-वहां किले की सुरक्षा दीवारों के टूटे हुए भाग नज़र आते हैं। कहीं पर एक छोटा सा प्रवेश द्वार दिखाई देता है,कहीं दीवारों के टूटे हुए टुकड़े,तो कुछ जगहों पर इन दीवारों के छोटे-छोटे अवशेष मिलते हैं।

वारंगल किले के पास ही एक पर्वत है जिस पर मिट्टी का एक सुंदर किला है। लेकिन समय की कमी के कारण हम वहां पर नहीं जा सके। काकतियों के पहले इस क्षेत्र पर जैनों का शासन हुआ करता था, जिसका कुछ-कुछ प्रभाव आप यहां-वहां देख सकते हैं।

तीन प्रकार के किले

झील के बीच आधुनिक शिल्प कला
झील के बीच आधुनिक शिल्प कला

हमारे गाइड ने हमे वारंगल किले के संदर्भ में कुछ चित्तरंजक सी बाते बताई हैं। उन्होंने बताया कि किले मूल रूप से तीन प्रकार के होते हैं।

• गिरि दुर्ग या वे किले जो किसी पर्वत पर बांधे जाते हैं, ताकि सुरक्षा हेतु दूर तक हो रही हलचल पर किले से ही नज़र रखी जा सके। और उन्हें दुश्मनों के आगमन की खबर समय रहते मिल सके।

• वन दुर्ग यानी वे किले जो घने जंगलों में बनवाए जाते हैं। इसका एक फायदा यह है कि आक्रमण के समय दुश्मनों के विरुद्ध आपको जंगली जानवरों से सुरक्षा मिलती है।

• जल दुर्ग यानी वे किले जो चारों तरफ से पानी से घिरे होते हैं। यह या तो प्रकृतिक जल स्रोतों द्वारा किया जाता है, या फिर खोदे हुए खंदकों में भरे पानी के द्वारा। और जब किसी को किले में आना-जाना होता है तब इन खंदकों के ऊपर लकड़ी का बड़ा सा तख़्ता गिराया जाता है ताकि वे लोग खंदक के पार जा सके।

वारंगल किला – किलाबंदी के 3 चरण

वारंगल दुर्ग की शिल्पकला
वारंगल दुर्ग की शिल्पकला

वारंगल किला सुरक्षा के इन सभी प्रकारों से रहित है। ना ही वह किसी पहाड़ी पर स्थित है, ना ही वह किसी जंगल में बसा हुआ है और ना ही उसके चारों ओर पानी है। इसीलिए यह किला बनानेवालों ने किले की सुरक्षा के लिए किलाबंदी के ये 3 चरण बनवाए। उन्होंने मिट्टी के किले बनवाए जिनके चारों ओर फिर खंदक बनवाए और किले की चारों प्रमुख दिशाओं में चार प्रवेश द्वार बनवाए।

वारंगल किले का विध्वंस

ग्यासुद्दीन तुगलक के बेटे ज़ौना खान, जिन्हें मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से भी जाना जाता है,जो तब की दिल्ली सल्तनत के शासक हुआ करते थे, ने 14वी शताब्दी के मध्यकाल में वारंगल किले पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण के दौरान उन्होंने यहां के सभी मंदिरों का विध्वंस किया। वे उस समय के काकतीय महाराज को बंदी बनाकर दिल्ली ले गए। लेकिन रास्ते में ही महाराज की मौत हो गयी थी। कुछ लोगों का मानना है कि ज़ौना खान ने ही महाराज का वध किया था, तो कुछ लोग मानते हैं कि महाराज ने आत्महत्या की थी। सच्चाई चाहे कुछ भी हो लेकिन इस घटना के साथ ही काकतीय वंशजों के वैभवपूर्ण काल का अंत हो चुका था।

वारंगल दुर्ग तेलंगाना का एक सांस्कृतिक अवशेष है, जिसे हैदराबाद से आसानी से देखा जा सकता है ।

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