पश्चिम बंगाल Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/पश्चिम-बंगाल/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 06 Nov 2024 06:30:49 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 प्रसिद्ध कुमारतुली कोलकाता के दक्ष मूर्तिकार https://inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/ https://inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/#respond Wed, 06 Nov 2024 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3712

बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत […]

The post प्रसिद्ध कुमारतुली कोलकाता के दक्ष मूर्तिकार appeared first on Inditales.

]]>

बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत में उनकी प्रतिमा का नदी में विसर्जन, ये सभी दृश्य उभर कर आ जाते हैं। हम में से अधिकाँश लोग दुर्गा पूजा के आनंद में रम जाते हैं, नवीन वस्त्र, नवीन आभूषण, स्वादिष्ट व्यंजन तथा अनेक रंगारंग कार्यक्रमों में खो जाते हैं।

दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता
दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता

यहाँ तक कि प्रतिमा की जीवंत सुन्दरता भी हमें भावविभो कर देती है। किन्तु हम में से कितने होंगे जो इन प्रतिमाओं को निहारते हुए उन मूर्तिकारों के विषय में सोचते हैं जिन्होंने ये प्रतिमाएं गढ़ी हैं। कितने लोग होंगे जो इन प्रतिमाओं के दर्शन करते समय उन मूर्तिकारों की कला की सराहना करते होंगे!

ये कोलकाता के कुमारटुली (कुम्हार टोली) क्षेत्र के कुशल मूर्तिकार हैं जिनके अनेक मास के परिश्रम के फलस्वरूप ऐसी सजीव प्रतिमाएं अस्तित्व में आती हैं।

कोलकाता कुमारटुली के मूर्तिकार

जब हम पश्चिम बंगाल में बिश्नुपुर भ्रमण पर जा रहे थे, मार्ग में हमने कोलकाता में एक पड़ाव लिया था। भ्रमण करते करते हम कुमारटुली की गलियों में भी पहुँच गए। यह क्षेत्र मूर्ति गढ़न के लिए विश्व विख्यात है, विशेषतः दुर्गा देवी की मूर्तियों के लिए । आप जैसे ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, आपको पुरातन काल का आभास होने लगेगा। मार्ग के दोनों ओर पुष्प व पुष्पहार विक्री करते विक्रेता। धीमी गति से आती-जाती ट्राम रेलगाड़ी जो इतनी धीमी गति से चलती है कि ऐसा आभास होता है मानो हम पैदल चलकर उससे आगे निकल जायेंगे। जहाँ देखें वहाँ प्रतिमा गढ़ने में मग्न मूर्तिकार। उन पुष्पों में मेरा ध्यान गहरे नीले रंग के अपराजिता पुष्पों ने खींचा। ये पुष्प देश के अन्य भागों में क्वचित ही दृष्टिगोचर होते हैं।

गणेश प्रतिमा का निर्माण
गणेश प्रतिमा का निर्माण

आश्चर्यजनक रूप से, यह सम्पूर्ण क्षेत्र सभी प्रकार की आधुनिकता एवं आधुनिक विश्व के सभी प्रकार के चिन्हों से स्पष्ट रूप से मुक्त प्रतीत हुआ। कहीं कोई आधुनिक पेय की बिक्री नहीं, कहीं कोई ऐसी ठेला गाड़ी नहीं जो अपने चमचमाते नाम पटल से ग्राहकों को आकर्षित कर रहा हो। कहीं कोई जगमगाती रोशनाई नहीं। सम्पूर्ण क्षेत्र अपने मूल रंग में ही लिप्त था।

दुकानें अत्यंत संकरी व लम्बी हैं जो दुकान के साथ साथ कार्यशाला की भूमिका भी निभाती हैं। कारीगर वहीं बैठकर मूर्तियाँ गढ़ते हैं। दुकानों की सम्पूर्ण लम्बाई में मूर्तियाँ भरी हुई रहती हैं। मूर्तिकार एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति पर जाते हुए उन पर अपने सधे हाथ चलाता है।

इन गलियों में मूर्तियों के अतिरिक्त विवाह समारोहों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की भी दुकानें हैं।

दुर्गा की प्रतिमाएं

कुमारटुली के दक्ष मूर्तिकार, जिन्हें कुमोर कहते हैं, इनके हाथों जो सर्वोत्तम मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं, वो हैं, दुर्गा देवी तथा उनके साथ दुर्गा पूजा पंडाल में विराजमान उनका सम्पूर्ण जत्था। इनके अतिरिक्त वे विश्वकर्मा, गणेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती पूजा के लिए भी मूर्तियाँ बनाते हैं।

दुर्गा प्रतिमा - कुमारतुली
दुर्गा प्रतिमा – कुमारतुली

उस समय मैंने भगवान गणेश की अनेक प्रतिमायें देखीं क्योंकि कुछ दिवसों पश्चात गणेश उत्सव मनाया जाने वाला था। कुछ कारीगर जो मुख्य मार्ग पर बैठकर कार्य कर रहे थे, वे मानव आकृतियों पर भी कार्य कर रहे थे। वे पारंपरिक मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ साथ फाइबरग्लास की मूर्तियाँ भी बना रहे थे। आप वहाँ की लगभग सभी दुकानों में रविन्द्र नाथ टैगोर की वक्षप्रतिमा सर्वव्यापी रूप से देखेंगे। उनके साथ कुछ अन्य राष्ट्रीय नेताओं की भी प्रतिमाएं हैं, जैसे इंदिरा गांधी एवं उनका परिवार।

प्रतिमाएं कैसे क्रय करें?

हमें बताया गया कि आप यहाँ आपकी रूचि के अनुसार प्रतिमाएं बनवा सकते हैं। आपको जिस व्यक्ति की प्रतिमा बनवानी है, उसका एक स्पष्ट चित्र मात्र उन्हें देना होगा । मुझे यह जानकार अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि कई लोग यहाँ से अपने माता-पिता अथवा अपने पूर्वजों की प्रतिमाएं बनवाते हैं। उन मूर्तियों की कीमत भी सामान्य ही होती है। सामान्य से सामान्य आय पाने वाले व्यक्ति भी उनका आसानी से निर्वाह कर सकते हैं। मुझे बताया गया कि यहाँ से अनेक मूर्तियाँ विदेश भी भेजी जाती हैं जिससे उन्हें उत्तम निर्यात मूल्य प्राप्त हो जाता है।

कुमारटुली की गणेश प्रतिमाएं

एक क्षेत्र में भगवान गणेश की एक समान प्रतिमाएं रखी हुई थीं जिन पर कुछ भागों पर ही रंग किया था। अधूरी रंगी हुई प्रतिमाएं भी एक समान थीं। ये प्रतिमाएं मुझे अत्यंत रोचक लगीं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कारीगर भगवान को किसी उत्सव के लिए वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत कर रहे हों। इन प्रतिमाओं पर की गयी कुछ कारीगरी इतनी सूक्ष्म एवं जटिल थीं कि यह विश्वास करना कठिन हो रहा था कि ये हाथों द्वारा मिट्टी से बनाई गयी हैं।

कुमारतुली के मूर्तिकार
कुमारतुली के मूर्तिकार

वहाँ खड़े हो कर कारीगरों के दक्ष हाथों को उन प्रतिमाओं पर चलते, उन्हें आकार देते, उन्हें रंगते व उन पर सजीव भाव उभारते हुए प्रत्यक्ष देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था। उनके आभूषण ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो असली आभूषण हों। जो प्रतिमाएं अभी रंगी नहीं गयी थीं उन पर भी मिट्टी से बने पुष्प अलंकरण एवं स्वर्ण अलंकरण में भिन्नता स्पष्ट देखी जा सकती थी। कारीगरों की यह दक्षता अचंभित कर देती है। सम्पूर्ण गली में इसी प्रकार की अर्ध-निर्मित प्रतिमाएं थीं तो आपको ही देखती हुई प्रतीत होती हैं।

इन गलियों में सभी प्रतिमाएं तब अपूर्ण थीं। किसी का शरीर मिट्टी से पूर्णतः निर्मित हो चुका था तो रंगा नहीं गया था, किसी का निचला भाग पूर्ण हो चुका था तो शीष नहीं लगा था, कुछ प्रतिमाएं पूर्ण रूप से निर्मित होकर रंगी जा चुकी थीं तो उनको वस्त्रों से सज्ज करना शेष था, वहीं कुछ प्रतिमाएं लगभग पूर्ण हो चुकी थीं, केवल उन पर आभूषण गढ़ना शेष था। गणेश प्रतिमा के साथ जाने के लिए दहाड़ मारते शेर थे तो नन्हे मूषक भी थे। अनेक अन्य प्राणी भी निर्मित किये गए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे कारीगर सम्पूर्ण सृष्टि की निर्मिती कर रहे हों।

मूल निवासियों का गाँव

इस क्षेत्र को मूल निवासियों का गाँव भी कहते हैं। यह क्षेत्र कोलकाता के दक्षिण में कालीघाट जाते हुए प्राचीन तीर्थ मार्ग का भाग है। नदी के समीप होने के कारण उन्हें मूर्तियाँ गढ़ने के लिए उत्तम स्तर की मिट्टी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अधिकतर मूर्तिकार ऐसे परिवारों से संबंध रखते हैं जो अनेक पीढ़ियों से मूर्तियाँ बनाते आ रहे हैं। मुझे यह ज्ञात नहीं कि इस कला के लिए उन सब ने पूर्व प्रशिक्षण प्राप्त किया है। मेरा अनुमान है कि वे सब अपने परिवार के अन्य सदस्यों को मूर्तियाँ बनाते देखते होंगे व उनसे ही सीखते होंगे।

गणेश प्रतिमाएं
गणेश प्रतिमाएं

सभी मूर्तियों के मध्य भाग में भूसा भरा जाता है जिसके ऊपर मिट्टी से आकार दिया जाता है। तत्पश्चात मूर्तियों को तपाया जाता है। इसके पश्चात प्रतिमाओं पर गीली मिट्टी द्वारा सूक्ष्म भाव भंगिमाएं प्रदान की जाती हैं। वस्त्र एवं आभूषण उकेरे जाते हैं। तत्पश्चात उन पर रंगाई एवं अन्य साज-सज्जा की जाती है।

सोचा जाए तो इन सभी प्रतिमाओं का निर्मिती एवं विसर्जन का एक वर्षीय चक्र चलता है। वर्ष प्रति वर्ष इन्हें जिस मिट्टी से बनाया जाता है, तत्पश्चात वे उसी मिट्टी में जाकर विलीन हो जाती हैं। वर्तमान समय में जब बंगाल की मिट्टी से बंगाल में बनी देवी की मूर्तियाँ विश्व भर के बंगाली परिवारों को भेजी जाती हैं तथा विश्व भर में विसर्जित की जाती हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि बंगाल की मिट्टी विश्व भर में जा रही है।

मुझे बताया गया कि यहाँ से मूर्ति बनवाने के लिए बहुत समय पूर्व ही बताना पड़ता है। बनी बनाई मूर्तियाँ सीधे क्रय करना क्वचित ही संभव हो पाता है।

परम्पराएं

परंपरा के अनुसार पुरातन काल में समृद्ध परिवार इन कारीगरों को अपने निवास पर आमंत्रित करते थे तथा इन कारीगरों से अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार प्रतिमाएं बनवाते थे। ऐसा कहा जाता है कि प्रतिमा बनाने से पूर्व तथा देवी की प्रतिमा पर तीसरा नेत्र बनाने से पूर्व ध्यान-अनुष्ठान किया जाता था। देवी का तीसरा नेत्र बनना मूर्ति के पूर्णत्व का संकेत होता है। देवी की शक्ति का संकेत होता है।

दुर्गा मूर्ति
दुर्गा मूर्ति

वहीं इस क्षेत्र की सादगी ने मेरा मन मोह लिया था। सभी कारीगर मूर्तियाँ बनाने में व्यस्त थे। विभिन्न चरणों में आगामी कलाकारी की प्रतीक्षा में खड़ी उन प्रतिमाओं के छायाचित्र लेने से किसी ने भी हमें रोका नहीं। इसके फल के रूप में उनकी हमसे कोई आशा भी नहीं दिखाई दे रही थी। हमने जो जो भी जिज्ञासाएं व्यक्त कीं, जो जो भी प्रश्न पूछे, उन्होंने बड़ी ही सादगी से उन सबके उत्तर दिए। हमें कहीं भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि हमारे वहाँ रहने से उन्हें किसी भी प्रकार की असुविधा हो रही हो।

कुमारतुली के पुष्प
कुमारतुली के पुष्प

मेरी अभिलाषा है कि अधिक से अधिक लोग इस स्थानीय कला के विषय में जानें, उसे देखें, इन कारीगरों के विषय में जाने व उन्हें प्रोत्साहित करें। विश्व प्रसिद्ध दुर्गा पूजा के पृष्ठभाग में की गयी इन मूर्तिकारों के परिश्रम को देखें व समझें। वहीं, मैं यह भी नहीं चाहती कि यह स्थान पर्यटकों की भीड़ से भरे। इससे इस क्षेत्र का मूल उद्धेश्य भंग हो सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post प्रसिद्ध कुमारतुली कोलकाता के दक्ष मूर्तिकार appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/feed/ 0 3712
अलीपुर संग्रहालय – कोलकाता का ऐतिहासिक कारागृह https://inditales.com/hindi/alipore-jail-sangrahalaya-kolkata/ https://inditales.com/hindi/alipore-jail-sangrahalaya-kolkata/#respond Wed, 30 Aug 2023 02:30:38 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3164

कोलकाता का अलीपुर संग्रहालय पूर्व में एक केंद्रीय कारागृह था। आरंभ में मैं इस संग्रहालय के भ्रमण के लिए आतुर नहीं थी क्योंकि कारागृहों के विषय में सदा यह अवधारण बनी रहती है कि वे भयावह संस्थान होते हैं। साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि वे अत्यंत अस्वच्छ होते हैं। किन्तु इस संग्रहालय […]

The post अलीपुर संग्रहालय – कोलकाता का ऐतिहासिक कारागृह appeared first on Inditales.

]]>

कोलकाता का अलीपुर संग्रहालय पूर्व में एक केंद्रीय कारागृह था। आरंभ में मैं इस संग्रहालय के भ्रमण के लिए आतुर नहीं थी क्योंकि कारागृहों के विषय में सदा यह अवधारण बनी रहती है कि वे भयावह संस्थान होते हैं। साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि वे अत्यंत अस्वच्छ होते हैं। किन्तु इस संग्रहालय के विषय में मेरी ये सभी अवधारणाएँ असत्य सिद्ध हुईं।

मेरा अलीपुर संग्रहालय भ्रमण एक अविस्मरणीय अनुभव था जिसे मैं पुनः दुहराना चाहूँगी। यह संग्रहालय हमारे भीतर एक गौरव की भावना उत्पन्न करता है। मैं यह कहूँगी कि यह वास्तव में एक उत्तम रूप से संरक्षित व प्रदर्शित संग्रहालय है। इसे स्वतंत्रता संग्रहालय तथा अलीपुर जेल संग्रहालय भी कहते हैं। किन्तु इस संग्रहालय के अधिकारिक वेबस्थल पर प्रदर्शित छायाचित्र प्राचीन हैं जो नकारात्मक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

अलीपुर संग्रहालय
अलीपुर संग्रहालय

यह संग्रहालय कोलकाता के लोकप्रिय काली मंदिर के निकट स्थित है। यहाँ पहुँचना अत्यंत सुगम्य है।

अलीपुर संग्रहालय अपने समृद्ध इतिहास का प्रस्तुतिकरण करता है। यह जिस कारागृह में स्थित है, उस कारागृह से अंग्रेजों के विरुद्ध हमारे स्वतंत्रता संग्राम का प्रगाढ़ सम्बन्ध है। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले हमारे वीर स्वतंत्रता सेनानियों में से अनेक महारथियों को इस कारागृह में बंदी बनाकर रखा गया था। जैसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, पंडित जवाहर लाल नेहरु आदि। उनके कालकोठरियों को उनके नाम दिए गए हैं। यद्यपि यह संग्रहालय स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाएँ कहता है तथापि इस संग्रहालय में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बंगाल प्रेसीडेंसी की भूमिका पर अधिक प्रकाश डाला गया है।

इस संग्रहालय से मुझे एक महत्वपूर्ण जानकारी यह भी प्राप्त हुई कि स्वतन्त्र भारत के लिए किये गए संघर्ष में अनेक संन्यासियों एवं फकीरों ने भी भाग लिया था। इन सेनानियों की जीवनी वास्तव में आश्चर्यचकित कर देती है। इनमें से अधिकाँश ऐसे परिवारों से संबंध रखते थे जो आसानी से एक सुगम व सुखी जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन उन्होंने उन सब का त्याग कर यातनापूर्ण जीवन अपनाया तथा स्वयं को इस संग्राम में झोंक दिया। उन सबका स्वप्न था, औपनिवेशिक सत्तावाद से मुक्त मातृभूमि। इस स्वप्न के लिए अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने प्रसन्नता से अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।

अलीपुर संग्रहालय का इतिहास

इस भवन परिसर का निर्माण ब्रिटिश शासन द्वारा सन् १९०६ में एक केंद्रीय कारागृह के रूप में किया गया था। संग्रहालय के अधिकारिक वेबस्थल के अनुसार उस काल में इसे एक आधुनिक कारागृह माना जाता था। सन् २०१९ तक इस परिसर का एक कारागृह के रूप में उपयोग किया जा रहा था।

अलीपुर कारागृह संग्रहालय का भ्रमण पूर्ण करने के पश्चात मुझमें यह जानने की तीव्र  जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी कि स्वतंत्रता के पश्चात तथा इस कारागृह को संग्रहालय में परिवर्तित किये जाने से पूर्व तक यहाँ बंदियों को किस प्रकार रखा जाता था। इस कारागृह का स्वतंत्रता-पश्चात् का इतिहास अधिक दीर्घ होने के पश्चात भी यहाँ एक भी दीर्घा इस कालखंड का चित्रण नहीं करती है। मुझे इसका अनुताप अवश्य हुआ।

अलीपुर कारागृह संग्रहालय में क्या देखें?

आईये मैं आपको इस संग्रहालय का कल्पित भ्रमण कराती हूँ।

आजाद हिन्द फौज पर आधारित कॉफी हाउस (INA Themed Coffee House)

यहाँ एक जलपान गृह अथवा कॉफी हाउस है जो आजाद हिन्द फौज के विषयवस्तु पर आधारित है। यह आधुनिक जलपानगृह संग्रहालय के प्रवेश स्थल पर स्थित भवन के प्रथम तल पर कार्यरत है। इसकी एक भित्ति इस कारागृह के पुरातन काल के चित्रों से अलंकृत है। दूसरी भित्ति पर आजाद हिन्द फौज का इतिहास प्रलेखित है।

आजाद हिन्द फौज पर आधारित कॉफी हाउस
आजाद हिन्द फौज पर आधारित कॉफी हाउस

हरे रंग के काष्ठ निर्मित झरोखों से सज्ज लाल रंग के अनेक कारागृह भवन इस कैफे से दिखाई देते हैं। कैफे की भीतरी सज्जा इतनी अनुपम है कि मुझे इसके भीतर बैठकर अपना कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त हो रही थी। मैंने अनेक कथाओं में पढ़ा था कि कारागृह में बंदियों को निःस्वाद भोजन दिया जाता है इसलिए मैं इस कैफे से भी ऐसे ही भोजन की आशंका कर रही थी। किन्तु यहाँ के व्यंजनों ने मेरी इस धारणा का पूर्णतः खंडन कर दिया था। मुझे यहाँ अत्यंत स्वादिष्ट व्यंजनों का आस्वाद लेने का अवसर प्राप्त हुआ।

पुनरावलोकन करूँ तो मुझे आश्चर्य होता है कि मेरे संग्रहालय भ्रमण काल में मैंने अपने मस्तिष्क में मथते विचारों के विषयों को नाटकीय रूप से कितनी ही बार परिवर्तित कर दिए थे, उसकी गणना नहीं है। यह एक कारागृह था जहाँ बंदियों को रखा जाता था तथा जो मानवता के सर्वाधिक विकृत रूप का साखी था, यह विषय सर्वोपरि है। मेरी मान्यता है कि ऐसी ही परिस्थिति विश्व के अनेक स्थानों के लिए सत्य है। जीवन में अनेक परिस्थितियाँ आती हैं जहाँ हमारा साक्षात्कार मानवता के विकृत रूप से होता है। यहाँ मुझे इस सत्य ने झकझोर दिया था।

और पढ़ें: तिहाड़ कारागृह में कैदियों द्वारा निर्मित TJ छाप की वस्तुएं

शहीद स्मारक

संग्रहालय के भीतर प्रवेश करते ही दाहिनी ओर एक शहीद स्मारक है। यह उन वीर स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों की स्मृति में बनाया गया है जिन्हें यहाँ मृत्युदंड दिया गया था अथवा जिन्होंने यहाँ कारावास में हुए अत्याचार में प्राण गँवा दिए या अत्याचारों के चलते आत्महत्या कर ली अथवा अस्वच्छ कोठरियों में रोगग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो गए थे।

शहीद स्मारक
शहीद स्मारक

एक पटल पर उन सभी सेनानियों के नाम अंकित हैं।

स्वतंत्रता सेनानियों की कालकोठरियाँ

किंचित आगे जाकर, बाईं ओर हम एक एकांत क्षेत्र में पहुंचे जहाँ एक गलियारे में कुछ कालकोठरियाँ थीं। यहीं एक कोठरी में नेहरु को सन् १९३० में कुछ मास के लिए रखा था। उनकी पुत्री इंदिरा हर पखवाड़े उनसे इसी गलियारे में भेंट करती थी। इस कोठरी का नामकरण अब नेहरु के नाम पर किया गया है।

नेहरु ने अपनी पुस्तक, ‘The Discovery of India’ में लिखा था, “निवास करने के लिए कारागृह कोई सुखद स्थान नहीं है, भले ही निवासकाल कुछ ही दिवसों का भी क्यों ना हो”। मैं उस काल की परिस्थिति का वर्तमान की परिस्थिति से तुलना करने से स्वयं को रोक नहीं पायी। आज यह स्थान स्वच्छ, हराभरा एवं अत्यंत सुखदाई प्रतीत होता है।

नेहरु की कोठरी के पश्चात नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, बी सी रॉय, सी आर दास एवं जे एम गुप्ता जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की कोठरियाँ हैं।

और पढ़ें: आगा खान पैलेस – पुणे में गांधीजी का कारागृह 

तांतकल अथवा बुनकर कक्ष

हमने संगोष्ठी कक्ष में प्रवेश किया तथा वहाँ से उस पार निकलकर एक विशाल प्रांगण में पहुंचे। उस प्रांगण को पार कर हम बंदियों के बुनाई कक्ष में पहुँचते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अन्य काराग्रहों के विपरीत, इस काराग्रह में कैदियों से सभ्य रूप से परिश्रम कराया जाता था।

वर्तमान में इस बुनकर कक्ष में हथकरघे रखे हुए हैं। मिट्टी द्वारा निर्मित कैदियों के प्रतिरूप चरखे चलाते हुए प्रदर्शित किये गए हैं।

लोकप्रिय पारंपरिक बंगाली साड़ियों को तांत कहते हैं।

और पढ़ें: भारतीय साड़ियों का इतिहास, धरोहर एवं कला

कालकोठरियाँ

हम वहाँ से वापिस आते हुए अवलोकन दुर्ग की ओर गए। अवलोकन दुर्ग पर ऊपर चढ़ने के लिए पर्यटकों की लम्बी पंक्ति पहले से ही प्रतीक्षा कर रही थी। अतः हमने अवलोकन दुर्ग पर चढ़ने की योजना को टाल देने में भलाई जानी। परिसर में आगे बढ़ते हुए हमने सामूहिक कालकोठरियों की पंक्तियाँ देखीं। साथ ही यूरोपीय बंदियों के लिए पृथक कालकोठरियाँ देखीं। बंदियों के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर के अनुसार उनको प्राप्त हुई सुविधाओं में भिन्नता स्पष्ट देखी जा सकती है।

सिक्कों की दीर्घा

आगे बढ़ते हुए हम एक ऐसी दीर्घा में पहुँचे जहाँ सिक्कों को प्रदर्शित किया गया था। उनमें स्वतंत्रता के पश्चात जारी किये गए सिक्कों की एक बड़ी मात्रा है।

सिक्कों की दीर्घा
सिक्कों की दीर्घा

वहाँ कुछ अतिविशाल अनोखे सिक्के भी थे। मानव आकार के सिक्कों पर स्वतंत्रता सेनानियों की छवियों को उत्कीर्णित कर प्रदर्शित किया है। दुर्गा माँ की भी छवि एक सिक्के पर उत्कीर्णित है।

कालांतर में मुझे ज्ञात हुआ कि इन सिक्कों को सन् २०२२ में कोलकाता के एक दुर्गा पूजा पंडाल से लाया गया है। दुर्गा पूजा बंगाल का सर्वाधिक लोकप्रिय वार्षिक उत्सव है।

दुर्गा प्रतिमा सिक्के की आकृति में
दुर्गा प्रतिमा सिक्के की आकृति में

कोलकाता में दुर्गा पूजा अत्यंत भव्य रीति से आयोजित किया जाता है। प्रत्येक जाते वर्ष के साथ इसकी भव्यता में अधिकाधिक वृद्धि होती जा रही है। दुर्गा पूजा पंडाल में प्रदर्शित अतिविशाल झांकियों एवं देवी-देवताओं की विशाल प्रतिमाओं को अत्यंत धैर्य के साथ बनाया जाता है। यद्यपि ये पंडाल एवं सभी संरचनाएं अल्पकालिक होते हैं, तथापि उनके निर्माण में प्रयुक्त संसाधनों एवं रचनात्मक प्रयासों में किसी भी प्रकार की कोताही नहीं की जाती है। यदि आपने दुर्गा पूजा काल में कोलकाता का भ्रमण नहीं किया है तो आप उसकी एक छोटी सी झलक इस संग्रहालय में देख सकते हैं।

यूनेस्को ने कोलकाता के दुर्गा पूजा को अपने अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में सम्मिलित किया है। यूँ तो दुर्गा पूजा के पंडाल में देवताओं के विग्रह एवं झाँकियाँ सभी अल्पकालिक अवधि के लिए प्रदर्शित होते हैं, फिर भी उन पर बड़ा परिश्रम किया जाता है। ये अनेक व्यक्तियों के क्रियात्मक विचार, उनके अथक परिश्रम का फल होते हैं। पूजा के पश्चात यहाँ प्रयुक्त सभी वस्तों को ऐसे ही समाप्त करने के स्थान पर उन वस्तुओं को इस संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।

और पढ़ें: कोलकाता के काली मंदिर

अलीपुर केंद्रीय कारागृह चिकित्सालय

सिक्कों की दीर्घा को पार कर हम परिसर के ऐसे भाग में पहुँचे जहाँ पूर्व में अलीपुर कारागृह चिकित्सालय था। उस चिकित्सालय के कक्षों को परिवर्तित कर अनेक प्रदर्शन दीर्घाएं बनाई गयी हैं। ये दीर्घाएं बंगाल प्रेसीडेंसी के क्रांतिकारियों की गाथाएँ कहती हैं। इन दीर्घाओं में बड़ी संख्या में पठन सामग्री उपलब्ध है। आप यहाँ पर्याप्त समय व्यतीत कर सकते हैं।

चिकित्सालय
चिकित्सालय

इस इमारत में भी एक कैफे है जिसका नाम एकांत है। यह जलपानगृह पूर्व में कारागृह के रसोइगृह में था। इसका वातावरण आजाद हिन्द फौज कैफे से भिन्न है। हम यहाँ रविवार के दिन आये थे। यह जलपानगृह ग्राहकों से खचाखच भरा हुआ था।

चिकित्सालय से लगा हुआ एक विस्तृत उद्यान है जो कारागृह की ऊंची भित्तियों से सीमांकित है। यह उद्यान पारिवारिक उद्यानभोज के लिए एक लोकप्रिय स्थल बन गया है। विडम्बना यह है कि ये भित्तियाँ जो अब परिवारों की प्रसन्नता एवं उल्हास की साक्षी हैं, एक समय यही भित्तियाँ बंदीगृह के बंधकों को इसके उस पार स्थित अपने परिवारजनों का स्मरण करती होंगी जिनसे भेंट की प्रतीक्षा में इन्होंने यहाँ वर्षों व्यतीत किये होंगे।

और पढ़ें: गोवा का रीस मागोस कारागृह

मृत्यु दंड स्थल

चिकित्सालय एवं उद्यान अवलोकन के पश्चात् हम प्रवेश द्वार की ओर वापिस मुड़े। वापसी मार्ग पर हम ऐसे भाग में पहुँचे जहाँ दोषियों को दिया गया मृत्यु दंड कार्यान्वित किया जाता था। यहाँ तीन कक्ष हैं जहाँ मृत्यु दंड प्राप्त बंदी अपने अंतिम कुछ क्षण व्यतीत करते थे। यहाँ यदि किसी बंदी की मांग हो तो उन्हें पढ़ने के लिए गीता दी जाती थी। उन्हें अंतिम भोजन के रूप में उनका प्रिय भोजन भी दिया जाता था।

मृत्यु दंड स्थल
मृत्यु दंड स्थल

ये तीनों दोषी कक्ष एक प्रांगण में खुलते हैं जहाँ दोषियों के दंड को क्रियान्वित करने के लिए फाँसी का चबूतरा है। वस्तुतः, इस चबूतरे के समक्ष कारागृह की एक इमारत है जिसकी कोठरियों में अनेक बंदियों को इसलिए रखा जाता था ताकि वे अपने साथी बंदियों को दी जा रही फाँसी को प्रत्यक्ष देखें तथा भयभीत होकर ब्रिटिश साम्राज्य को क्रान्ति व क्रांतिकारियों के विषय में सभी गुप्त जानकारियाँ दे दें।

अलीपुर संग्रहालय का मानचित्र
अलीपुर संग्रहालय का मानचित्र

फाँसी के चबूतरे के निकट एक कक्ष है जहाँ शव परीक्षा की जाती थी।

अलीपुर संग्रहालय के अन्य आकर्षण

प्रत्येक सांध्य के समय यहाँ श्रव्य एवं दृश्य प्रदर्शन किया जाता है। यह प्रदर्शन चिकित्सालय के निकट स्थित एक मुक्तांगन में किया जाता है। यहाँ बैठने के लिए विस्तृत व्यवस्था है।

इनके अतिरिक्त इस परिसर में एक स्मारिका दुकान एवं एक कारागृह मुद्रणालय है।

यात्रा सुझाव

  • इस संग्रहालय में आप २ से ४ घंटों का समय आसानी से व्यतीत कर सकते हैं।
  • संग्रहालय के समीप निजी वाहन रखने के लिए पर्याप्त स्थान है। आप यहाँ सार्वजनिक परिवहन साधनों द्वारा भी पहुँच सकते हैं।
  • मैं यहाँ रविवार के दिन आयी थी, वह भी संध्या लगभग ४ बजे। उस समय यहाँ पर्यटकों की बड़ी भीड़ थी। अतः आप अपना कार्यक्रम अपनी सुविधाओं को ध्यान में रखकर सुनियोजित करें।
  • यहाँ नाममात्र का प्रवेश शुल्क लिया जाता है। वर्तमान टिकट मूल्य एवं समयावधि के लिए संग्रहालय के अधिकारिक वेब स्थल पर जाएँ।

यह खुशबू ललानी द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है। खुशबू ललानी ने सॉफ्टवेर उद्योग में १३ वषों तक कार्य किया है। अब वे मानवी अनुगमन के दीर्घकालीन परिणामों पर शोध कर रही हैं तथा उनसे सीख प्राप्त करने की प्रणाली पर लक्ष्य केन्द्रित कर रही हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post अलीपुर संग्रहालय – कोलकाता का ऐतिहासिक कारागृह appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/alipore-jail-sangrahalaya-kolkata/feed/ 0 3164
होलोंग – जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान का जैव विविधता अतिक्षेत्र https://inditales.com/hindi/hollong-jaldapara-rashtriya-udyaan-pashchim-bengal/ https://inditales.com/hindi/hollong-jaldapara-rashtriya-udyaan-pashchim-bengal/#comments Wed, 18 May 2022 02:30:35 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2681

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान को स्थानीय भाषा में दुआर कहते हैं। इस दुआर का एक छोटा सा कोना है, होलोंग। यह भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में उस स्थान पर स्थित है जिसे मुर्गी का गला कहते हैं। तकनीकी रूप से यह जैव विविधता अतिक्षेत्र पश्चिम बंगाल राज्य में स्थित है। किन्तु यह भूटान, बांग्लादेश एवं असम […]

The post होलोंग – जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान का जैव विविधता अतिक्षेत्र appeared first on Inditales.

]]>

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान को स्थानीय भाषा में दुआर कहते हैं। इस दुआर का एक छोटा सा कोना है, होलोंग। यह भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में उस स्थान पर स्थित है जिसे मुर्गी का गला कहते हैं। तकनीकी रूप से यह जैव विविधता अतिक्षेत्र पश्चिम बंगाल राज्य में स्थित है। किन्तु यह भूटान, बांग्लादेश एवं असम से घिरा हुआ है। आप किसी भी दिशा में कुछ किलोमीटर जाएँ तो आप कदाचित अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा पार कर लेंगे। किन्तु पशु क्या करते होंगे? वे कैसे मानवों द्वारा बनाई गई सीमारेखा का सम्मान कर पाते हैं?

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान – जैव विविधता अतिक्षेत्र

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान का सफारी मार्ग
जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान का सफारी मार्ग

जोरेथाँग, पेलिङ्ग, गंगटोक तथा कुछ दिन सिलिगुड़ी में, इस प्रकार सिक्किम में कुछ ७ दिवस व्यतीत करने के पश्चात हम जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान पहुंचे। हम आगामी कुछ दिवस होलोंग वन विश्रामगृह में रहना चाहते थे। किन्तु इस विश्रामगृह की मांग अत्यधिक होने के कारण हमें यहाँ केवल एक ही रात्रि ठहरने की सुविधा प्राप्त हो पायी। अन्य रात्रियों के लिये हम ने अपनी व्यवस्था जलदापारा विश्रामगृह में की। यह विश्रामगृह ठीक उस मुख्य मार्ग पर स्थित है जो जलदापारा के मध्य से होकर जाती है।

दुआर का वन्य जीवन व्याख्या केंद्र
दुआर का वन्य जीवन व्याख्या केंद्र

दुआर से हमारा साक्षात्कार एक व्याख्या केंद्र से आरंभ हुआ जहाँ हमें वन के विषय में श्रेष्ठ जानकारी प्रदान की गई। हमें यहाँ कैसा व्ययहार करना चाहिए तथा हमें यहाँ क्या क्या देखने की आस रखनी चाहिए इत्यादि। दुआर हाथियों का एक निकास गलियारा है। अतः हमें हाथियों को देख पाने की आस थी। हमें यह भी बताया गया कि दुआर में गेंडे, गौर तथा हिरण भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इस व्याख्या केंद्र की दीर्घा में घूमते हुए हमें इस वन के विषय में पर्याप्त दिशानिर्देश प्राप्त हुए।

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान के मदारीहाट प्रवेशद्वार से जीप सफारी

जलदापारा विश्रामगृह से हमने वन में दो बार जीप सफारी की। उन सफ़ारियों में हमने केवल कुछ गेंडों को देखा, वह भी दूर से। वे ऊंचे ऊंचे घास के बीच में लगभग छुपे हुए थे। उन्हे देखने के लिए हमें पर्यवेक्षण अटारी पर चढ़ना पड़ा था। किन्तु दोनों सफ़ारियों में जंगली हाथी हमसे लुक-छुपी का खेल खेलते रहे। हमारी भेंट वन विभाग के एक पालतू हाथी से अवश्य हुई किन्तु वह भी हमारी ओर ध्यान केंद्रित करने का इच्छुक नहीं था। सफारी करते समय हमने चारों ओर अनेक प्रकार के पक्षी देखे। उनके छायाचित्र लेने की हमारी तीव्र इच्छा थी। हमने हमारे गाइड से कहा भी, किन्तु हमारी प्रार्थनाएँ भैंस के आगे बीन बजाने जैसी व्यर्थ हो रही थीं। सजीले हावभाव वाला एक मनमोहक मोर मुझे आज भी स्मरण है। अत्यंत सामान्य घटना बता कर गाइड तब भी नहीं रुका था। जैसा कि बहुधा देखा गया है, उसका लक्ष्य केवल हमें विशाल वनीय पशु दिखाने की ओर केंद्रित था। शेष वन तथा छोटे पशु व पक्षी दिखाने में उसकी अधिक रुचि नहीं थी।

दुआर का चिलापाटा वन

अगले दिन हमने कूच बिहार का भ्रमण करने का निश्चय किया। वहाँ से वापिस आते समय हम चिलापाटा वन के मध्य से आए। वह वन कुछ ही किलोमीटर लंबा था किन्तु उसके मध्य से गाड़ी की सवारी करना किसी जादुई अनुभव से कम नहीं था। हमें पूर्व निर्देश दिए गए थे कि हमें ना तो कहीं रुकना है, ना ही कहीं गाड़ी से उतरना है क्योंकि कहीं से भी जंगली पशु के आने की संभावना सदैव रहती है तथा समीप कोई सहायता केंद्र भी उपस्थित नहीं है। हम धीमी गति से चलती गाड़ी से बाहर देखते हुए मनोरम वनीय परिदृश्यों को आँखों में भर रहे थे। हरेभरे वन ने हमें तीन ओर से घेर रखा था। जी हाँ, ऊंचे ऊंचे बांस के वृक्ष मार्ग के ऊपर मंडप सा बना रहे थे। सूर्यास्त का समय था। वन से अनेक प्रकार के स्वर सुनायी दे रहे थे। मार्ग में अन्य कोई वाहन भी नहीं था। अर्थात् वहाँ मानवी शोर नाममात्र भी नहीं था।

चिलापाटा वन्य मार्ग
चिलापाटा वन्य मार्ग

वन के सर्वाधिक सघन भाग को पार करने के पश्चात हम एक पुलिया के समीप कुछ क्षण रुके। पुलिये के नीचे से एक छोटी जलधारा बह रही थी। जैसे ही हमने अपने पाँव धरती पर रखे, हमें ऐसा आभास हुआ मानो हम भी इसी वन का एक अभिन्न अंग हों। हमें ऐसा लग रहा था मानो हम भी वन के भीतर विचरण कर सकते हैं, वृक्षों की शाखाओं पर रह सकते हैं। मदमस्त चाल से चलते जंगली हाथी एवं इधर उधर कूदते-फाँदते हिरणों के बीच रह सकते हैं। अचानक मन से सम्पूर्ण भय लुप्त हो गया था।

जैसे ही अंधकार छाने लगा, हमने चिलापाटा वन से विदा ली। एक आस लिए यहाँ से निकले कि हम पुनः कभी इस वन के दर्शन करने आ पाएं।

होलोंग वन विश्राम गृह – वन्यजीव उत्साहियों के लिए एक अविस्मरणीय स्थल

तीसरे दिन हम होलोंग वन विश्राम गृह में स्थानांतरित हो गए। यहाँ तक पहुँचने के लिए कुछ बाधाओं को पार करना पड़ता है। सर्वप्रथम एक किराये की गाड़ी द्वारा वन के प्रवेश द्वार तक पहुंचना पड़ता है। यहाँ आपके पहचान पत्र की जांच की जाती है। तत्पश्चात आपके पहचान पत्र के साथ आपका छायाचित्र लिया जाता है। इसके पश्चात वन विभाग की गाड़ी आपको विश्रामगृह तक ले जाती है।

होल्लोंग जलदापारा का वन विश्राम गृह
होल्लोंग जलदापारा का वन विश्राम गृह

होलोंग वन विश्राम गृह को देख ऐसा आभास होता है मानो किसी शिकारी के प्राचीन बंगले को परिवर्तित कर इस विश्रामगृह की रचना की गई है। इस विश्रामगृह में गिने-चुने ही कक्ष हैं। उनमें से कक्ष क्रमांक ५ की मांग सर्वाधिक है क्योंकि यहाँ से सीधे वन का दृश्य प्राप्त होता है। यदि आपको इस कक्ष में ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ तो आप अपने कक्ष में बैठकर भी वन एवं वहाँ की गतिविधियों को ऐसे देख सकते हैं मानो आप एक वन्यजीव चलचित्र देख रहे हों। अन्य पर्यटकों को भी इसी प्रकार का अनुभव प्राप्त कराने के लिए विश्रामगृह में एक सामूहिक क्षेत्र है जहाँ से आप भी सीधे वन के परिदृश्यों का अवलोकन कर सकते हैं। हमारा भाग्य अच्छा था जो हमें इस कक्ष क्रमांक ५ में ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ। इसका कारण यह था कि उस दिन इस विश्रामगृह में पहुँचने वाले प्रथम पर्यटक हम थे। जी हाँ। आपने सही अनुमान लगाया। जो सर्वप्रथम यहाँ पहुँचकर उस कक्ष की मांग करे, उसे ही यह कक्ष दिया जाता है।

होलोंग वन विश्राम गृह भी अन्य वन्यजीव अभयारण्य के भीतर स्थित अतिथिगृहों के समान विशेष है जहाँ सूर्यास्त के पश्चात आपको अतिथिगृह के भीतर ही सुरक्षित कर दिया जाता है। रात्रि के समय गौर तथा गेंडों जैसे जंगली पशु विश्रामगृह के परिसर में स्वच्छंद विचरण करने आ सकते हैं। अतः आपको कड़े निर्देश दिए जाएंगे कि आप सूर्यास्त के पश्चात विश्रामगृह की चारदीवारी के भीतर ही रहें। चिड़ियाघर में तो पशु-पक्षी पिंजड़े में रखे जाते हैं तथा आप उन्हे बाहर से देखते हैं। इसके विपरीत, यहाँ जैसे ही अंधकार छाता है, आप पिंजड़े में बंद तथा जंगली पशु आपको देखने दूर से आते हैं।

होलोंग वन विश्राम गृह में भोजन की अत्यंत मूलभूत सुविधा है तथा भोजन निर्धारित समय पर ही परोसा जाता है।

होलोंग के जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान के वन्यजीव

एकल सींग वाला गैंडा - जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान
एकल सींग वाला गैंडा

होलोंग वन विश्राम गृह के कर्मचारी अत्यंत जागरूक हैं तथा रात्रि में भी आपको जंगली पशु दिखाने से नहीं चूकते। हम जब रात्रि का भोजन कर रहे थे, हमें सूचना दी गई कि सामने के बगीचे में कई गौर आ गए हैं। हम सब अपना भोजन छोड़कर उन्हे देखने के लिए दौड़ पड़े। विश्रामगृह में इस प्रकार रात्रि में आये जीवों को न्यूनतम प्रकाश में दिखाने की अत्यंत रोचक व्यवस्था है। रात्रि के भोजन के पश्चात निद्रा के अतिरिक्त अधिक कुछ गतिविधि नहीं रहती। जैसे ही हम निद्रामग्न हुए, किसी कर्मचारी ने हमारे द्वार पर आघात कर हमें जगा दिया क्योंकि वह हमें पिछवाड़े बगीचे में आए कुछ गेंडे दिखाना चाहता था। घूमते घूमते गेंडे भोजन कक्ष के समीप तक आ गए थे। १० से १२ फीट की दूरी से, अर्थात् अत्यंत निकट से हमने उन्हे देखा, वह भी बिना किसी भय के क्योंकि हम भीतर थे तथा वे बाहर। हमारी उपस्थिति से उन्हे किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न होती प्रतीत नहीं हो रही थी। मैंने अनुमान लगाया कि वे अचंभित पर्यटकों  की उपस्थिति से अभ्यस्त होंगे। अततः यह विश्रामगृह सदैव भरा जो रहता है।

हिरण
हिरण

विश्रामगृह के बगीचे एवं वन के मध्य से एक छोटी जलधारा बहती है। जलधारा के उस ओर एक छोटा सा खुला क्षेत्र है। प्रत्येक दिवस प्रातःकाल में विश्रामगृह के कर्मचारी यहाँ नमक के ढेर रखते हैं। पशु एवं पक्षी इस नमक को खाने के लिए आते हैं। मैंने इससे पूर्व अनेक वन्यजीव अभयारण्यों का भ्रमण किया है किन्तु इस प्रकार नमक रखने की प्रथा सर्वप्रथम देख रही थी। सम्पूर्ण दिवस एक-दो गेंडे विश्रामगृह के आसपास विचरण करते रहे। थोड़े अंतराल में हमें गौर तथा जंगली सूअर भी दिख जाते थे। किन्तु हाथी अब भी हमसे दूर ही थे।

होलोंग के वन्यजीवों का विडिओ

होलोंग वन विश्राम गृह में हमें एकल-सींग गेंडे, गौर तथा अनेक प्रकार के पक्षी दृष्टिगोचर हुए जिनका एक छोटा सा विडिओ चलचित्र आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ। मेरा सुझाव है कि उत्तम दर्शन हेतु आप यह विडिओ HD पद्धति में देखें। आप हमारा यात्रा विडिओ इंडिटेल के यूट्यूब चैनल में भी देख सकते हैं।

एकल-सींग गेंडे का विडिओ

इस विडिओ में आप एकल-सींग गेंडों को स्वच्छंद विचरण करते एवं घास खाते देख सकते हैं। जंगली जीव किस प्रकार अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहते हैं, इसका अनुमान आप उनके कानों की हलचल देख कर लगा सकते हैं।

भारतीय गौर का विडिओ

इस विडिओ में देखिए कि किस प्रकार एक जंगली भारतीय गौर लवणों की आपूर्ति हेतु नमक के ढेर की ओर आया, तत्पश्चात नमक खाकर जल पीने के लिए जलधारा की ओर चला गया। अपने मार्ग पर आगे बढ़ने से पूर्व किस प्रकार उसने अपने आसपास की स्थिति का सर्वेक्षण किया, यह भी आपके ध्यान में आएगा।

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान के पक्षी

जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान में हमें कुछ पक्षी देखने की आशा अवश्य थी किन्तु जो हमने देखा उसके लिए भी हम कदापि तैयार नहीं थे। हमने हजारों की संख्या में पीले पैरों वाले हरे कबूतर अर्थात् हरियाल पक्षी नाचते व फुदकते देखे। वे नमक के ढेरों पर बैठते थे, तत्पश्चात एक साथ आकाश में उड़ जाते थे जिसके पश्चात फिर से नमक के ढेरों पर आकर किंचित सुस्ताते थे। हरियाल के विशाल झुंड में अनेक प्रकार के जंगली हरियाल पक्षी थे, जैसे सादा हरियाल, मोटी चोंच वाला हरियाल, पीले पाँव वाला हरियाल, नारंगी गले वाला हरियाल इत्यादि।

नमक का आनंद लेते रंग बिरंगे पक्षी
नमक का आनंद लेते रंग बिरंगे पक्षी

तोते भी हरियालों के समान व्यवहार कर रहे थे। तोतों की भी अनेक प्रजातियाँ हमें यहाँ देखने मिली। उनमें ढेलहरा तोते, लाल गले के तोते, टुइयाँ सुग्गा, हीरामन तोते, मदना तोते, लाल चोंच का साधारण तोता, कुसुमशीर्ष सुग्गा इत्यादि सम्मिलित थे।

नदी के आसपास मोर छलांग लगा रहे थे। उन्हे देख अत्यंत आनंद आ रहा था। वे नदी तक चलकर जाते थे, जल के घूंट भरते थे तथा उड़कर नदी के उस पार पहुँच जाते थे। उनकी प्रत्येक क्रिया में उल्हास कूट कूट कर भरा हुआ था। उन्हे देख हमें भी उनके साथ प्रफुल्लित होने की इच्छा होने लगी थी।

होलोंग के पक्षियों का विडिओ

हजारों की संख्या में नमक चुगते अनोखे जंगली पक्षी आहट होते ही उड़ जाते थे तथा सब शांत होते ही उड़कर वापिस आ जाते थे। इन्ही सुंदर क्षणों को इस विडिओ के माध्यम से आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ। मेरा सुझाव है कि उत्तम दर्शन हेतु आप यह विडिओ HD पद्धति में देखें।

एक नीलकंठ पक्षी बड़े ही ठाठ से एक शाखा पर बैठ था। शहरी नीलकंठों के विपरीत उसमें किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं थी। वृक्षों के अनावृत शाखाओं पर अनेक रंगबिरंगे पक्षी बैठे थे। उनके एवं हमारे मध्य के अंतराल से अबाधित, हमारा कैमरा प्रफुल्लित होकर उनके छायाचित्र ले रहा था। जंगल के विषय में हमने जो भी पढ़ा था अथवा दूरदर्शन में देखा था वह सब जीवंत होकर हमारे समक्ष उपस्थित हो गया था।

नीलकंठ
नीलकंठ
चील
चील

चूंकि पशु एवं पक्षी अपने स्थानों पर ही क्रीड़ा कर रहे थे, हमें उनके छायाचित्र एवं चलचित्र लेने में कठिनाई नहीं हुई।

हाथी की सफारी

दूसरे दिवस हमने हाथी की प्रातःकालीन सफारी की। हाथी की पीठ पर बैठकर, उस ऊंचाई से हमने एक घंटे में जो जंगल का दृश्य देखा, उससे जंगल का एक भिन्न स्वरूप हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ। उथले जल एवं ऊंचे ऊंचे घास को चीरते हुए हाथी आगे बढ़ रहा था। कई बार हमें वृक्षों की शाखाओं को हाथों से पकड़ कर उनसे स्वयं को बचाना पड़ रहा था। जब हाथी तालाब के उथले जल में चल रहा था तब उसके प्रत्येक पग पर मेरी हृदयगति बढ़ जाती थी। जब वह ऊंची-नीची सतह पर चल रहा था तो प्रत्येक क्षण मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैं उसकी पीठ पर से नीचे गिर जाऊँगी। महावत मुझे सांत्वना दे रहा था कि हाथी की पीठ पर से साधारणतः कोई नीचे नहीं गिरता है।

हाथी की सवारी
हाथी की सवारी

हाथी की सफारी में हमें केवल पक्षी ही दृष्टिगोचर हुए। स्वाभाविक ही है, हाथी की पीठ पर बैठकर हम वृक्षों की ऊपरी शाखाओं के सम्मुख थे। उस ऊंचाई पर, जंगल के ऊपरी परत का भाग बनकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हम वृक्षों से आमने-सामने चर्चा कर रहे हों।

जलदापारा जंगल से मिलाते रास्ते
जलदापारा जंगल से मिलाते रास्ते

उस समय हम जंगल के जीवन को सर्वाधिक समीप से अनुभव कर रहे थे। जंगल के जीवन से हमारा पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो रहा था। वन्यजीवन का यह अप्रतिम अनुभव मेरे मस्तिष्क में सर्वाधिक प्रगाड़ स्मृति के रूप में सदा के लिए अंकित हो गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post होलोंग – जलदापारा राष्ट्रीय उद्यान का जैव विविधता अतिक्षेत्र appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/hollong-jaldapara-rashtriya-udyaan-pashchim-bengal/feed/ 1 2681
प्राचीन बंगाल में व्यापार- एक चर्चा अनीता बोस जी से https://inditales.com/hindi/prachin-bengal-ka-itihasa-anita-bose/ https://inditales.com/hindi/prachin-bengal-ka-itihasa-anita-bose/#respond Wed, 20 Oct 2021 02:30:48 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2448

अनुराधा गोयल: नमस्ते! डीटूर्स में आपका मनःपूर्वक स्वागत है। आज डीटूर्स के इस संस्करण में हमारे साथ चर्चा करने के लिए उपस्थित हैं, कोलकाता से श्रीमती अनीता बोस जी। अनीताजी एक लेखिका हैं, एक कलाकार हैं, एक स्वतन्त्र शोधकर्ता हैं, बैंकाक के राष्ट्रीय संग्रहालय में परिदर्शिका रह चुकी हैं तथा ग्लोबल रामायण इंसाइक्लोपीडिया प्रकल्प की […]

The post प्राचीन बंगाल में व्यापार- एक चर्चा अनीता बोस जी से appeared first on Inditales.

]]>

अनुराधा गोयल: नमस्ते! डीटूर्स में आपका मनःपूर्वक स्वागत है। आज डीटूर्स के इस संस्करण में हमारे साथ चर्चा करने के लिए उपस्थित हैं, कोलकाता से श्रीमती अनीता बोस जी। अनीताजी एक लेखिका हैं, एक कलाकार हैं, एक स्वतन्त्र शोधकर्ता हैं, बैंकाक के राष्ट्रीय संग्रहालय में परिदर्शिका रह चुकी हैं तथा ग्लोबल रामायण इंसाइक्लोपीडिया प्रकल्प की संयोजक हैं। उनके द्वारा लिखित दो पुस्तकें हैं, “Ramayana: Footprints in South-East Asian Culture and Heritage” तथा “Patachitra of Odisha and Jagannath Culture”। आज हम अनीताजी से बंगाल के प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों पर चर्चा करेंगे।

नमस्ते अनीताजी! डीटूर्स में आपका हृदयपूर्वक स्वागत है।

अनीता बोस: नमस्ते अनुराधाजी! डीटूर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद।

पॉडकास्ट

प्राचीन बंगाल की यात्रा कराती इस चर्चा को यहाँ सुनिए।

प्राचीन बंगाल- डीटूर्स में अनीता बोस से एक चर्चा

अनुराधा: अनीताजी, आईये इस चर्चा का आरंभ हम उस स्थान से करते हैं, जहां बंगाल की प्राचीनतम जीवंत धरोहर उपस्थित है। बंगाल का प्राचीनतम ज्ञात स्वरूप क्या है?

अनीता: प्राचीन बंगाल को हम साधारणतः औपनिवेशिक बंगाल, ब्रिटिश बंगाल अथवा मुगल बंगाल के रूप में जानते हैं, किन्तु बंगाल का इतिहास इन कालखण्डों से कहीं अधिक प्राचीन है। यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने अपनी यात्रा संस्मरण पुस्तक इंडिका में प्राचीन बंगाल का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त दक्षिण-पूर्वी एशिया के अनेक समुद्री यात्रा संस्मरणों में भी इसका निरंतर उल्लेख मिलता है। अतः बंगाल का इतिहास हमारी जानकारी से भी कहीं अधिक पूर्व आरम्भ हुआ था। ऐतिहासिक आलेखों के अनुसार इसका आरम्भ ईसापूर्व हुआ था। यह अत्यंत प्राचीन तथा अतिसंपन्न धरोहर स्थल है। पूर्व में इसे बंगहृदय कहते थे जिसका अर्थ बंगाल हृदय है, अर्थात भारत के सम्पूर्ण पूर्वी भाग का हृदय। मुगल एवं ब्रिटिश इसकी संपन्न धरोहर से आकर्षित होकर यहाँ खिंचे चले आये थे।

मेगस्थनीज पुस्तक इंडिका

मेगस्थनीज की इंडिका के अनुसार, एक समय सिकंदर की भेंट एक नागा सन्यासी से हुई थी। वह उस सन्यासी के जीवन एवं उसके दार्शनिक विचारों से अत्यंत प्रभावित हुआ था। जब सिकंदर को यमुना नदी पार कर भारत के इस भाग में आने की चाह उत्पन्न हुई तब उसने एक दूत भेजकर सन्यासी को अपने निर्णय से अवगत कराया। सन्यासी ने सिकंदर को रोकते हुए कहा कि क्या तुम इस भाग पर आधिपत्य जमाकर प्रसन्न नहीं हो जो उस पार जाना चाहते हो? वहां मत जाओ क्योंकि वहां बंग नामक एक स्थान है, जहां के निवासी अत्यंत शक्रिशाली एवं पराक्रमी हैं। तुम उन्हें हरा नहीं सकोगे।

बिश्नुपुर के टेराकोटा मंदिर
बिश्नुपुर के टेराकोटा मंदिर

मेगस्थानीज द्वारा दिया यह उल्लेख बंगो का सर्वप्रथम प्रलेखित इतिहास है। पेरिप्लस तथा क्लाडियस टॉलमी ने भी बंग का उल्लेख किया है। टॉलमी के मानचित्र में भी दो संपन्न क्षेत्रों का उल्लेख है, बंग तथा प्रासी अथवा प्रास्वयी।

अनुराधा: क्या बंग में वर्तमान का पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश, त्रिपुरा तथा आसाम के क्षेत्र भी सम्मिलित थे?

अनीता: जी हाँ।

घोड़ों का व्यापार

अनीता: बंगाल में समुद्री व्यापार के अंतर्गत घोड़ों का व्यापार प्रमुख था। बंगाल से घोड़ों को ना केवल भारत के अन्य स्थानों तक पहुँचाया जाता था, अपितु इन घोड़ों को यूनान, प्राचीन चीन, तत्पश्चात कम्बुजा, मलय, सुमात्रा तथा फिलिपीन तक भेजा जाता था। बंगाल की भौगोलिक अवस्थिति समुद्र तथा नदी, दोनों के अत्यंत निकट होने के कारण समुद्री व्यापार नदी परिवहन पर आश्रित था।

इस प्रकार, बौंगो हृदय अथवा गंगा हृदय बंगाल का प्राचीनतम कबीला था। आप उनके विषय में History of early southeast Asia by Kenneth R Hall में पढ़ सकते हैं। पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि गंगा के तट पर स्थित बंगाल के मैदानी क्षेत्र २री एवं ३री सदी में अत्यंत लोकप्रिय थे। बंगाल की खाड़ी से चीन के दक्षिणी भाग के मध्य समुद्री मार्ग द्वारा माल का परिवहन एवं व्यापार होता था।

अनुराधा: बंगाल के प्राचीन बंदरगाहों के विषय में कुछ बताएं।

बंगाल के प्राचीन बंदरगाह

प्राचीन बंगाल में व्यापर
प्राचीन बंगाल में व्यापर

अनीता: गंगाहृदय बंगाल का प्रथम बंदरगाह था। उसके पश्चात चंद्रकेतुगढ़ तथा सप्तगाँव या सातगाँव बंदरगाह अस्तित्व में आये। सातगाँव बंदरगाह एक प्रसिद्ध बंदरगाह था जहां विशाल जहाज लंगर डालते थे। प्राचीन होने के कारण इसे अब आदिसप्तग्राम कहते हैं। इसे देवानंदपुर भी कहा जाता है। सन् १५६० में फ्रांसीसी यात्री सीजर फ्रेड्रिसेह ने सप्तगाँव की समृद्धि की तुलना श्री लंका से की थी। उसने गांववासियों के स्वर्ण आभूषणों एवं स्वर्णजड़ित वास्तुशैली का भी उल्लेख किया था। एक अन्य ब्रिटिश यात्री ने भी १५८३ में सप्तगाँव की यात्रा की थी तथा यहाँ की समृद्धि के विषय में लिखा था। सातगाँव अत्यंत लोकप्रिय था। सातों गाँवों के तट पर विशाल सभ्यता पनप रही थी। यह कोलकाता से अधिक दूर नहीं है।

अनुराधा: सप्तगाँव एवं चंद्रकेतुगढ़ में कौन सा बंदरगाह अधिक प्राचीन है?

अनीता: चंद्रकेतुगढ़ अधिक प्राचीन है क्योंकि कुछ सूत्र इसे १२वीं ईसा पूर्व बताते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार यह कम से कम ४ ईसापूर्व प्राचीन है।

गंगासागर

अनुराधा: अनीताजी, पौराणिक कथाओं में गंगानगर का उल्लेख किया गया है। गंगानगर हमारे महाकाव्यों का एक महत्वपूर्ण अंग है। आज बंगाल के निवासियों के लिए गंगानगर का क्या महत्त्व है?

अनीता: गंगानगर का सम्बन्ध कपिल मुनि से है। यहाँ कपिल मुनि का आश्रम था। आज मूल आश्रम का स्थान भिन्न है क्योंकि गंगा नदी निरंतर अपना मार्ग परिवर्तित करती रहती है। हम सब भागीरथ एवं राजा सगर के १०० पुत्रों की कथा जानते ही हैं। ऋषि भागीरथ के नाम पर गंगा को भागीरथी कहा जाता है। बंगाल में इसे आज भी भागीरथी कहा जाता है। यह मुर्शीबाद से सातगाँव की ओर आती है। तत्पश्चात त्रिवेणी तक आती है। एक त्रिवेणी प्रयागराज में है तथा एक त्रिवेणी सप्तग्राम में है। गंगा, यमुना, सरस्वती का त्रिवेणी संगम सप्तग्राम के समीप होने के कारण यह एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था।

अनुराधा: वही तीन नदियाँ?

अनीता: उस काल में सातगाँव में प्रमुख बंदरगाह तथा व्यापार सरस्वती नदी पर निर्भर थे।

अनुराधा: समुद्री व्यापार पर चर्चा से पूर्व मैं यह जानना चाहती हूँ कि क्या गंगासागर में आज भी किसी प्रकार के वार्षिक अथवा नियमित उत्सव मनाये जाते हैं? क्या वे प्रत्येक वर्ष आयोजित होते हैं?

अनीता: जी हाँ। गंगानगर में पौष संक्रांति के दिन विशाल पौष मेले का आयोजन किया जाता है। भारत के कोने कोने से लोग इस उत्सव में भाग लेने, ध्यान करने तथा पवित्र स्नान करने के लिए आते हैं। यह एक प्रकार से कुम्भ मेले के ही समान है। यह प्रत्येक वर्ष आयोजित किया जाता है।

अनुराधा: प्राचीन सभ्यता की एक डोर अनेक सदियों पश्चात भी जीवंत है, यह देख अत्यंत आनंद हुआ।

अनीता: गंगासागर एवं कपिल मुनि के आश्रम का रामायण साधुओं से एक प्राचीन सम्बन्ध है। रामायण गाने वाले तथा रामायण की कथा सुनाने वाले साधुओं को बंगाल में रामायण साधू कहते हैं जो मूलतः प्राचीन कपिल मुनि आश्रम से सम्बंधित हैं। यद्यपि वर्तमान में ऐसे साधुओं की संख्या अल्प है, तथापि रामायण साधुओं एवं कपिल मुनि आश्रम के मध्य सम्बन्ध अब भी जीवित है।

व्यापार

अनुराधा: इस संस्करण के पाठकों को यह जानकार अत्यंत प्रसन्नता होगी कि प्राचीन सभ्यता के अंश अब भी जीवित हैं। आपके तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों के कोलकाता में प्रवेश से पूर्व ही बंगाल एक महत्वपूर्ण व्यापारिक बंदरगाह था। इस बंदरगाह से किन वस्तुओं का व्यापार होता था? कौन सी वस्तुओं का प्रमुखता से आयात एवं निर्यात होता था? कृपया इस विषय में कुछ बताएं।

अनीता: उस समय बंग अविभाजित था। उसका बांग्लादेश एवं बंगाल में विभाजन नहीं हुआ था। सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में, बंग उच्च स्तर के कपास एवं मलमल के लिए प्रसिद्ध था। ये वस्त्र इतने मुलायम एवं महीन होते थे कि उन्हें एक अंगूठी के मध्य से निकाला जा सकता था। बंगाल से इन वस्त्रों का दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में निर्यात किया जाता था, विशेषतः सुमात्रा, फिलिपिन्स, मलक्का, मलय, जावा इत्यादि। इसके अतिरिक्त इन व्यापार मार्गों द्वारा अन्य अनेक वस्तुओं का आयात-निर्यात होता था, जैसे चावल, सूखे मेवे, फल, तेजपत्ता, सुपारी इत्यादि। इब्न बतूता ने भी अपने यात्रा संस्करणों में लिखा है कि भारत के पूर्वी भागों, बंगभूमि का तेजपत्ता ना केवल मसाले के रूप में प्रसिद्ध है, अपितु अपनी सुगंध के लिए भी लोकप्रिय है।

सुपारी   

अनीता: एक बार हम थाईलैंड के प्राचीन बंदरगाह में गए थे। वहां एक छोटा सा संग्रहालय था। वहां के संग्रहाध्यक्ष ने मुझे प्राचीनकाल में संग्रहीत बंगाल की सुपारी एवं कुम्हारी की कलाकृतियाँ दिखाई। इससे सिद्ध होता है कि मुगल एवं ब्रिटिश के आगमन से पूर्व ही बंगाल के बंदरगाहों की व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका थी। बंगाल का विश्व के अन्य भागों से अत्यंत प्राचीन सम्बन्ध है।

अनुराधा: प्राचीनकाल में हम बंगाल से कपास, सूखे मेवे, तेजपत्ता, सुपारी इत्यादि का निर्यात करते थे। विनिमय के रूप में हम वहां से क्या आयात करते थे?

अनीता: कुछ समाजशास्त्रियों एवं पुरातत्वविदों का मानना है कि विनिमय के रूप में हम स्वर्ण मुद्राओं तथा हस्तिदंत का आयात करते थे। हम धन अर्जित करने में सक्षम थे क्योंकि हमारा देश पूर्णतः आत्मनिर्भर था। मेरे पिता एक नौसैनिक थे। देश-विदेश की जलयात्रा करने के पश्चात उनका अनुभव कहता था कि सम्पूर्ण विश्व में भारत जैसा देश नहीं है। इसीलिए हमारे व्यापारी अपनी इच्छित वस्तुओं का आयात करने में पूर्णतः सक्षम थे। उन्हें इंडोनेशिया एवं जापान की अप्रतिम कलाकृतियों में विशेष रूचि होती थी। इनके अतिरिक्त, वे विनिमय के रूप में बर्मा से माणिक एवं आभूषणों का भी आयात करते थे।

बहुमूल्य धातु एवं माणिक

अनुराधा: क्या हम सभी प्रकार के बहुमूल्य धातु एवं माणिक आयात कर रहे थे? कदाचित स्वर्ण भी ऐसे ही एकत्र किया था?

अनीता: कुछ बहुमूल्य धातु एवं माणिक अवश्य आयात किये थे। जहां तक स्वर्ण का प्रश्न है, रोम एवं यूनान में तो कहावत ही थी कि भारत उन्हें कपास निर्यात करने की एवज में उनका स्वर्ण ले जाता है।

प्राचीन मंदिर

अनुराधा: इसका अर्थ है कि हमारे कपास का महत्त्व उनके स्वर्ण के समान था। अनीताजी, आपने हमें पौराणिक से प्राचीन, तत्पश्चात मध्ययुगीन बंगाल के विषय में बताया। क्या उस काल के कुछ अवशेष हैं जिन्हें हम देख सकते हैं? क्या कोई प्राचीन मंदिर अथवा प्राचीन बंदरगाह अब भी शेष हैं?

अनीता: पूर्वकालीन बंगाल अब पश्चिम बंगाल एवं बंगला देश में विभाजित हो चुका है। विभाजन के समय अनेक बहुमूल्य धरोहरों को नष्ट किया गया था। फिर भी, महास्थानगढ़ विश्वविद्यालय अब भी है। हम सब नालंदा के विषय में जानते हैं किन्तु महास्थानगढ़ के विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है। यह ७०० ईसा पूर्व का अत्यंत प्राचीन स्तूप विश्वविद्यालय है। अब यह बांग्लादेश में स्थित है।

कोलकता से लगभग १०० किलोमीटर दूर, बर्धमान एवं बांकुरा जिलों में ७वीं – ८वीं सदी के कई प्राचीन मंदिर अब भी शेष हैं, जैसे सोनातपल (शोनातपल) मंदिर, देउलघाटा पुरुलिया, बांकुरा मंदिर, जौटारदेउल, बहुलारा मंदिर, सातदेउल, पाकुरिया इत्यादि।

अनुराधा: बंगाल के कुछ प्राचीनतम मंदिरों की वास्तुशैली एवं निर्माण सामग्री के विषय में कुछ बताएं।

अनीता: यदि आप ८वीं – ९वीं सदी के मंदिर देखेंगे तो उनमें प्रमुख रूप से टेराकोटा (लालमिट्टी) के मंदिर हैं। कुछ मंदिरों में शिलाओं का प्रयोग किया गया है। एक अत्यंत प्राचीन एवं विशाल टीला भी है जिसे पांडू राजार धिबी कहते हैं। यह बर्धमान में है। लोग महाभारत के पांडू राजा से इसका सम्बन्ध मानते हैं। इसका उत्खनन बी. बी. लाल के निर्देशन में किया गया था। उनके अनुसार यह १६००-१७०० ईसा पूर्व का अवशेष है। उन्हें वहां ताम्रयुग के ताम्बे के एवं मिट्टी के पात्र प्राप्त हुए थे। हमारी संस्कृति पर अधिक शोध करने की आवश्यकता है।

प्राचीन मंदिरों की धरोहर

अनुराधा: यदि किसी को प्राचीन धरोहरों के अवलोकन में रुची जो तो उन्हें कौन से मंदिर देखने चाहिए?

अनीता: ८वीं सदी का गोकुल मठ मंदिर पाल वास्तुशैली का मंदिर है। यह बांग्लादेश के बोगुरा जिले में स्थित है। कोलकाता के समीप, दक्षिण २४ परगना में १०वीं सदी का जौटारदेउल मंदिर है। यह डायमंड बंदरगाह के समीप है। बांकुरा जिले में भी ८वीं सदी का एक अत्यंत सुन्दर बहुलारा मंदिर है।

अनुराधा: मैंने पाल युग की अनेक कलाकृतियाँ भारत के कई संग्रहालयों में देखी हैं। उनमें से अधिकतर पटना संग्रहालय में तथा कुछ दिल्ली संग्रहालय में भी हैं। वे सभी अत्यंत आकर्षक, सूक्ष्मता से उत्कीर्णित काली शिलाओं की कलाकृतियाँ थीं। काली शिलाएं बंगाल में नहीं पायी जाती हैं। उन्हें अवश्य बाहर से लाया गया होगा। क्या पाल युग के मंदिर अथवा अन्य संरचनाएं अब भी शेष हैं?

अनीता: यदि आप भारतीय संग्रहालय में जाएँ तो आप उस युग की अनेक कलाकृतियाँ देख सकते हैं। पाल युग के अप्रतिम रूप से उत्कीर्णित शैल प्रतिमाएं, विशेषतः बोधिसत्व तथा बौद्ध तारा की प्रतिमाएं अत्यंत आकर्षक हैं। यदि आप बिश्नुपुर अथवा बांकुरा जाएँ तो उस ओर मल्ल वंश का राज था।

अनुराधा: मल्ल राजवंश १६०० ईसवी लगभग में अस्तित्व में था। मुझे उससे पूर्व की जानकारी चाहिए।

अनीता: जब आप सोनातपल मंदिर या बहुलारा मंदिर देखेंगे तो आपको उनकी उत्कृष्ट संरचना की झलक प्राप्त होगी। अब ऐसे मंदिरों की संख्या अत्यंत अल्प हो गयी है। बिश्नुपुर में एक छोटा संग्रहालय है जहां आप पाल युग की कुछ प्राचीन कलाकृतियाँ देख सकते हैं। अधिकतर कलाकृतियाँ अब भारत के बाहर हैं।

मैं जब प्राचीन सुरबाया में थी तब मैंने  मजापहित तथा मोजोकेरतो देखे। उनकी संरचना, वास्तुशैली तथा आसपास की संरचनाएं एवं परिदृश्य ठीक वैसे ही थे जैसे मैंने देउलघाटा एवं सोनातपल में देखे थे। उनमें से अधिकतर सूर्य मंदिर तथा विष्णु मंदिर थे। ११वीं शताब्दी में दोनों की समरूप स्थिति थी।

अनुराधा: क्योंकि उन दोनों में एक प्रगाढ़ सम्बन्ध था।

सूर्य की आराधना

अनुराधा: क्या बंगाल में सूर्य की आराधना का भी प्रचलन है? हम बंगाल को साधारणतः चंडी पूजा अथवा देवी पूजा से जोड़ते हैं।

अनीता: जी हाँ। बंगाल में माँ शक्ति की आराधना अवश्य की जाती है, किन्तु बंगाल में सूर्य की आराधना भी प्रचलित है। यदि आप बंगाल से दक्षिण-पूर्वी एशिया की ओर जाएँ तो समुद्र किनारे के सभी स्थानिक माता की आराधना करते हैं।

अनुराधा: इसके लिए आप कौन सा मार्ग अपनाती है? क्या आप बंगाल से ओडिशा की ओर जाती हैं?

अनीता: जी नहीं। मैं बंगाल से बर्मा, तत्पश्चात कम्बोज थाईलैंड की ओर जाती हूँ। इसे पूर्व में शैम कम्बोज कहते थे। वे उमादेवी की भक्ति करते थे।

बैंकाक में उमा देवी की प्रतिमा
बैंकाक में उमा देवी की प्रतिमा

अनुराधा: जी, मैंने उमादेवी की प्रतिमा देखी है।

अनीता: उमादेवी माँ दुर्गा का ही रूप हैं। इंडोनेशिया में आप महिषासुरमर्दिनी की अनेकों प्रतिमाएं देख सकते हैं। बाली में देवी लक्ष्मी की आराधना की जाती है। उनका सम्बन्ध भी बंगाल से है। प्रत्येक बंगाली घर में हर बहस्पतिवार को लक्ष्मी की पूजा की जाती है। उनका सम्बन्ध धान की खेती से है, इसलिए उन्हें धनलक्ष्मी कहा जाता है। बाली में भी लक्ष्मी को धनलक्ष्मी कहा जाता है। बाली में देवी सरस्वती की भी वर्ष में दो बार पूजा आयोजित की जाती है।

अनुराधा: बंगाल में अप्रतिम सरस्वती मंदिर भी हैं ना?

अनीता: जी, बंगाल में अत्यंत सुन्दर सरस्वती मंदिर भी हैं।

बंगाल में पोइला बैसाख अर्थात् वैशाख मास का प्रथम दिवस का उत्सव मनाया जाता है। आसाम में इसे बीहू कहा जाता है। पंजाब में इसे ही बैसाखी कहते हैं। सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्वी एशिया में बैसाखी का उत्सव भिन्न भिन्न नामों से जाना एवं मनाया जाता है। संक्रांति को बर्मा में थिनग्युमिन कहते हैं।

बंगाल, आसाम तथा पंजाब के कुछ भाग बंगाल बंदरगाह द्वारा ही अपना व्यापारिक आदान-प्रदान करते थे। ऐंगो-बौंगो कलिंगो बंदरगाह को कलिंगन तथा बंगन भी कहते हैं। फुकट में एक स्थान है जिसका नाम बांग्ली है। बांग्ली लोग बंग से तथा क्लिंग लोग कलिंगा से आये हैं। दक्षिणपूर्वी एशिया के अनेक क्षेत्रों में क्लिंग एवं बांग्ली लोग रहते हैं।

बंगाल से श्री लंका तक समुद्री मार्ग

अनुराधा: मैंने कुछ दिवसों पूर्व ही चंडीमंगल पढ़ा था जो बंगाल का १५वीं-१६वीं सदी का भाष्य है। इसमें बंगाल से श्रीलंका तक के समुद्री मार्ग का विस्तृत वर्णन है। उसमें मध्य स्थित प्रयेक बंदरगाह का उल्लेख किया गया है।

अनीता: यदि आप श्रीलंका का इतिहास देखेंगे तो उसका सिंघल नामकरण राजकुमार विजयसिंघा ने किया था जो बंगाल का था। इस प्रकार दक्षिणपूर्वी एशिया के अनेक ऐसे आश्चर्यजनक सत्य एवं ऐतिहासिक तथ्य हैं जो उन्हें बंगाल से जोड़ते हैं।

अनुराधा: हमें इस विषय में अधिक विस्तृत चर्चाएँ करनी चाहिए ताकि हम सब जान सकें कि भारत एक वैश्विक देश है।

अनीता: जी हाँ, भारत ने सदैव वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत का पालन किया है।

अनुराधा: अनीताजी, बंग की इस अप्रतिम यात्रा पर हमें ले चलने के लिए आपका बहुत धन्यवाद। आशा है कि विभिन्न क्षेत्रों में आपके द्वारा किये विस्तृत कार्यों के विषय में हमें और अधिक जानने का पुनः अवसर प्राप्त होगा। रामकृष्ण मिशन के साथ किये सामाजिक कार्यों के विषय में जानने की भी उत्सुकता है। मैं आपके कार्यों को सोशल मीडिया पर देखती रहती हूँ। हम रामायण प्रकल्प द्वारा भी जुड़े हुए हैं।

अनीता: मुझे यहाँ आमंत्रित करने के लिए आपका भी हार्दिक आभार।

अनुराधा: बंगाल के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने के लिए आपका हृदयपूर्वक आभार व्यक्त करती हूँ। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post प्राचीन बंगाल में व्यापार- एक चर्चा अनीता बोस जी से appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/prachin-bengal-ka-itihasa-anita-bose/feed/ 0 2448
एकला चलो रे – रवींद्रनाथ ठाकुर का सुप्रसिद्ध बंगला गीत https://inditales.com/hindi/ekla-chalo-re-hindi-rabindranath-thakur/ https://inditales.com/hindi/ekla-chalo-re-hindi-rabindranath-thakur/#comments Wed, 05 May 2021 02:30:23 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2244

हम शांतिनिकेतन में थे। सम्पूर्ण वातावरण में ‘एकला चलो रे’ का स्वर गूंज रहा था। मैं कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन के प्रत्येक तत्व को देख रही थी एवं अनुभव कर रही थी। एक ठेठ बंगाली गाँव के ग्रामीण परिवेश की छाप लिए इस शांतिनिकेतन में चारों ओर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पदचिन्ह एवं उनकी […]

The post एकला चलो रे – रवींद्रनाथ ठाकुर का सुप्रसिद्ध बंगला गीत appeared first on Inditales.

]]>

हम शांतिनिकेतन में थे। सम्पूर्ण वातावरण में ‘एकला चलो रे’ का स्वर गूंज रहा था। मैं कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन के प्रत्येक तत्व को देख रही थी एवं अनुभव कर रही थी। एक ठेठ बंगाली गाँव के ग्रामीण परिवेश की छाप लिए इस शांतिनिकेतन में चारों ओर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पदचिन्ह एवं उनकी धरोहर की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

बाउल गायक के स्वरों में ‘एकला चलो रे’ का विडिओ

शांतिनिकेतन के कलात्मक वातावरण में मेरे सम्पूर्ण अनुभव की चरमसीमा थी, बाउल गायक श्री प्रदीप दास बाउल द्वारा गाया हुआ ‘एकला चलो रे’ गीत का श्रवण। इससे पूर्व मैंने अनेक प्रसिद्ध गायकों को यह गीत गाते सुना था। उनमें बंगाली मूल के गायक भी सम्मिलित हैं। किन्तु प्रत्यक्ष एक बाउल गायक के समक्ष बैठकर उन्हे यह गीत गाते सुनना एक अविस्मरणीय अनुभव था। चारों ओर कण कण में विराजमान रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कलात्मक परिकल्पना के मध्य उन्ही द्वारा रचित गीत को सुनना इस अनुभव को अतुलनीय बना रही थी।

‘एकला चलो रे’ के बोल

Ekla Chalo Re Hindi Lyricsजब वापिस घर पहुंची, श्री प्रदीप दास बाउल के स्वर मेरे कानों में गूंज रहे थे। सम्पूर्ण अनुभव की स्मृतियाँ मेरे मानसपटल पर छायी हुई थीं। अब समय था उस गीत के बोल को समझने का। इसमें गूगल एवं विकिपिडिया ने मेरी पूर्ण सहायता की। वहाँ से मुझे गीत के बोल के साथ उसका अर्थ भी ज्ञात हुआ। कुछ दिनों तक किशोर कुमार जैसे प्रसिद्ध गायकों द्वारा गाए हुए इस गीत के सुर में सुर मिलाते हुए मैंने भी अनेक बार इस गीत को गाया। गीत गाते हुए शनैः शनैः उन शब्दों में छुपे अर्थ मेरे समक्ष स्पष्ट होने लगे।

किशोर कुमार के स्वर में ‘एकला चलो रे’ का विडिओ

‘एकला चलो रे’ इस गीत की रचना रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने सन् १९०५ में एक पत्रिका ‘भंडार’ के लिए की थी। इसके पश्चात ‘बाउल’ नामक एक संकलन में इसका प्रकाशन हुआ था। यद्यपि मुझे इस संकलन के विषय में अधिक जानकारी नहीं है, तथापि मैं इस संकलन के विषय में जानने हेतु आतुर हूँ। कालांतर में एक अन्य संकलन ‘गीताबितान’ के स्वदेशी खंड में भी इसका प्रकाशन किया गया था। इस गीत को रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भांजी इंदिरा देवी ने स्वरबद्ध किया था।

गीत का भावार्थ

इस गीत को स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने रिकार्ड किया था किन्तु दुर्भाग्यवश वह रिकार्ड अब खो गया है। किन्तु यह गीत अब बंगाली संस्कृति का एक अभिन्न अंग हो गया है। स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर के स्वरों को छोड़कर अन्य अनेक गायकों के स्वर में यह गीत उपलब्ध है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की आवाज में इस गीत को ढूंढते समय मेरे हाथों में एक बाउल गायक द्वारा गाया गया यही गीत हाथ लगा। इस संस्करण में आप दो-तारे की ध्वनि को स्पष्ट सुन सकते हैं। दो-तारा एक संगीत वाद्य है जिसमें दो तार होते हैं। यह वाद्य बंगाल के बाउल गायकों का प्रिय वाद्य है।

दो-तारा संगीत वाद्य की संगत के साथ शास्त्रीय गायन शैली में प्रस्तुत इसी गीत का एक विडिओ

व्यक्तिगत रूप से मैं स्वयं को इस गीत से जुड़ा हुआ अनुभव करती हूँ। अपने अधिकतम जीवन की यात्रा मैंने अकेले ही पार की है।

मन्ना डे को एकला चलो रे के हिन्दी संस्करण को गाते हुए सुनिए।

जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं, ’जब कोई आपकी पुकार ना सुने, तो अकेले ही चलते रहिए’। इसे सुनकर मुझे अपने जीवन के अनेक मोड़ों का स्मरण होता है जब मैं यथार्थतः उसी स्थिति में थी। मैं जब भी कहीं जाना चाहती थी, मैं अनेक लोगों से साथ आने के लिए आग्रह करती थी। किन्तु जब कोई मेरी पुकार नहीं सुनता था तो मैं अकेले ही चल पड़ती थी। जब वापिस आती थी तब वे सब मेरे साथ उस पथ पर चलने की इच्छा व्यक्त करते थे।

अकेले चलने के लिए प्रेरित करता यह गीत आपको उन सब का साथ प्रदान करता है जो उस पथ पर अकेले चलते हुए अपनी छाप छोड़ गए हैं।

और पढ़ें – रसिकप्रिया- कवि केशवदास कृत बुंदेली गीत गोविन्द

जब आप दुखी होते हैं तब आप ऐसे किसी सहारे को ढूंढते हैं जो आपको सांत्वना दे सके। सामान्यतः आवश्यकता के समय ऐसी कोई सांत्वना हमें नहीं मिलती। उस स्थिति में अकेले ही अपनी समस्या से जूझते हुए आगे बढ़ना उचित है। यदि आप विश्व के दृष्टिकोण को परिवर्तित करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम अपने भीतर ऐसा दीप प्रज्ज्वलित करें जो विश्व को एक नवीन पथ से अवगत कराए। नवीन पथ की रचना में स्वयं को झोंक देना पड़ता है, वह भी अकेले ही।

श्रेया घोषाल के स्वर में ‘एकला  चलो रे’ का विडिओ

यह गीत अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर प्रतिध्वनित होता है। व्यावहारिक स्तर पर इस गीत का संकेत है कि हमें प्रत्येक क्षण किसी ना किसी का सहारा प्राप्त हो ऐसा संभव नहीं है। भावनात्मक स्तर पर हम सब कभी ना कभी एकाकी अनुभव करते हैं, भले ही हम लोगों से घिरे हुए ही क्यों ना हों। आध्यात्मिक स्तर पर यह गीत संदेश देता है कि हम सब को अकेले ही चलता पड़ता है। एक साधक कभी भी समूह में नहीं चलता, जैसा कि एक भक्तिगीत में भी कहा गया है, ‘साधु ना चले जमात’।

और पढ़ें – सुप्रसिद्ध राम भजन जो राम नाम में ओत-प्रोत कर दें

यह एक प्रेरणादायक गीत है। यह एक ऐसा गीत है जो आपको उस समय सहारा दे सकता है जब आपको उसकी अत्यधिक आवश्यकता है। यह आपको समक्ष स्थित संकट से विचलित ना होने का संदेश देता है। यह आपको आंतरिक शक्ति प्रदान करता है तथा सांत्वना देता है कि आप जिस विपरीत परिस्थिति में है, दूसरे भी इस प्रकार की स्थिति में अनेक बार आते हैं।

अमिताभ बच्चन के स्वर में ‘एकला  चलो रे’ का विडिओ

कुछ समय पूर्ण यह गीत पुनः चर्चा में आया था तथा प्रसिद्धि की सीमाएं लांघ गया था जब प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अपने प्रतिष्ठित स्वर में ‘कहानी’ नामक चित्रपट में यह गीत गाया था।

एकला चलो रे - रबिन्द्रनाथ ठाकुर यूं तो इस गीत को अनेक प्रसिद्ध लोगों ने अपनी अपनी शैली में गाकर इसे उतनी ही गरिमा प्रदान की है। उनमें से कुछ मैंने आपके लिए इस संस्करण में प्रस्तुत किया है। आशा है आपको इन्हे सुनकर अत्यंत आनंद आया होगा। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस गीत का कौन सा संस्करण आपको सर्वाधिक प्रिय प्रतीत हुआ? क्या आप इस गीत का कोई अन्य संस्करण भी जानते हैं? यदि हाँ, तो हमें अवश्य सूचित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post एकला चलो रे – रवींद्रनाथ ठाकुर का सुप्रसिद्ध बंगला गीत appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/ekla-chalo-re-hindi-rabindranath-thakur/feed/ 2 2244
कूच बिहार – पश्चिम बंगाल की राजसी नगरी के पर्यटक स्थल https://inditales.com/hindi/cooch-bihar-ke-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/cooch-bihar-ke-paryatak-sthal/#comments Wed, 25 Nov 2020 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2071

कूच बिहार – इस नगरी के विषय में मैंने सर्वप्रथम उस समय जाना जब मैं जयपुर की महारानी गायत्री देवी से संबंधित एक लेख पढ़ रही थी। महारानी गायत्री देवी के पिता कूच बिहार के राजा थे। जब मैं यह लेख पढ़ रही थी उस समय गूगल अस्तित्व में नहीं था। मैंने कूच बिहार को […]

The post कूच बिहार – पश्चिम बंगाल की राजसी नगरी के पर्यटक स्थल appeared first on Inditales.

]]>

कूच बिहार – इस नगरी के विषय में मैंने सर्वप्रथम उस समय जाना जब मैं जयपुर की महारानी गायत्री देवी से संबंधित एक लेख पढ़ रही थी। महारानी गायत्री देवी के पिता कूच बिहार के राजा थे। जब मैं यह लेख पढ़ रही थी उस समय गूगल अस्तित्व में नहीं था। मैंने कूच बिहार को आज के बिहार का एक भाग समझ लिया था। किन्तु मैं लक्ष्य से अधिक पृथक भी नहीं थी। कूच बिहार पश्चिम बंगाल का एक भाग होते हुए उस स्थान पर स्थित है जहाँ पश्चिम बंगाल असम से जुड़ता है। यह जिला भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों को भारत के अन्य भागों से जोड़ता है। इसके आकार के कारण इस क्षेत्र को मुर्गी की गर्दन भी कहा जाता है। थल मार्ग द्वारा भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में पहुँचने के लिए इस जिले से ही जाना पड़ता है।

सागर दीघी एवं राजबाड़ी का गुम्बज
सागर दीघी एवं राजबाड़ी का गुम्बज

मैंने कूच बिहार के राजाओं के बारे में भी अनेक कथाएं सुन रखी थीं जैसे की उन्होंने चौपड़ के खेल में अनेक बार अपनी जमीनें दांव पर लगा दी थीं। क्या इससे आपको महाभारत की कथा का स्मरण हो आया? मेरे मस्तिष्क में तो महाभारत की कथा अवश्य कौंध गई थी।

इस वर्ष के आरंभ में मैं जब सिक्किम एवं बंगाल की यात्रा पर थी, उस समय मैंने कूच बिहार नगरी का भी भ्रमण किया था। भूटान एवं बांग्लादेश के मध्य में स्थित भारत का यह क्षेत्र उत्कृष्ट महलों के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ की स्त्रियाँ भी अत्यंत सौंदर्यशील मानी जाती हैं।

कूच बिहार का इतिहास

राजा नृपेन्द्र नारायण - कूच बिहार के निर्माता
राजा नृपेन्द्र नारायण – कूच बिहार के निर्माता

कूच बिहार का इतिहास हमें प्रागैतिहासिक काल में ले जाती है। रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। यह नगर प्राग्ज्योतिष साम्राज्य के कामरूप क्षेत्र का एक भाग था जो उस समय आज के गुवाहाटी तक फैला हुआ था। गुप्त साम्राज्य काल के स्तंभों पर ४ थी. शताब्दी के कामरूप का उल्लेख किया गया है। ज्ञात ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार उस समय यहाँ गुप्त राजवंश एवं पाल क्षत्रिय राजवंश का साम्राज्य था। १५ वी. शताब्दी के अंत में अल्प समय के लिए यहाँ मुसलमान शासकों का भी आधिपत्य था। उस समय इसे कामता कहा जाता था। इसके पश्चात राजबोंग्शी अथवा कोच राजवंश के राजाओं ने इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य स्थापित करना आरंभ किया था। भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात भी इस वंश के राजा विद्यमान थे।

कूच बिहार की मनोरम दीवारें
कूच बिहार की मनोरम दीवारें

सन् १८६३ में कूच बिहार के सिंहासन पर राजा नृपेन्द्र नारायण आरूढ़ हुए जो उस समय नन्हे शिशु थे। आज जिस कूच बिहार को हम देखते हैं, उसकी रचना उन्ही के कार्यकाल में कार्यान्वित हुई थी। उनकी सर्वप्रसिद्ध धरोहर कूच बिहार का महल है. यूरोपीय छवि लिया हुआ यह महल मेरे अनुमान से भारतीय महलों में से सर्वाधिक भव्य महल है।

महारानी गायत्री देवी राजा नृपेन्द्र नारायण की पोती थी।

भूटान द्वारा आक्रमण के पश्चात १८ वीं. सदी के मध्य में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक संधि पर समझौता किया गया था। इस संधि के पश्चात इस क्षेत्र में शांति स्थापित हुई। सन् १९४९ में कूच बिहार रियासत का भारत देश में विलय हुआ तथा सन् १९५० में यह पश्चिम बंगाल राज्य का एक जिला बना।

कूच बिहार के विस्तृत इतिहास एवं वंशावली के विषय में अधिक जानकारी NIC वेबस्थल से प्राप्त करें।

कूच बिहार के दर्शनीय स्थल

कूच बिहार का महल – राजबाड़ी

कूच बिहार राजबाड़ी
कूच बिहार राजबाड़ी

सन् १८८७ में निर्मित लाल रंग का यह अप्रतिम महल राजपरिवार का निवासस्थान है। इसे स्थानीय लोग राजबाड़ी भी कहते हैं। प्राचीन धरोहर से परिपूर्ण कूच बिहार नगरी में स्थित यह महल अत्यंत दर्शनीय है। लाल रंग के विशाल एवं विस्तीर्ण महल को घेरते व्यापक विस्तृत बगीचे अत्यंत मनभावन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं जिन्हे देख कर मुख से अनायास ही रमणीय, सुघड़, सुडौल एवं मनोहर जैसे अनेक विशेषताएं बाहर आने लगती हैं। इसकी ४०० फीट की लंबाई तब तक ध्यान में नहीं आती जब तक आप इसके समीप ना आ जाएँ। प्रवेश द्वार से यह एक छोटा महल प्रतीत होता है। बगीचों के बीच से सैर करते हुए जब आप छोटे तालाबों के समीप से आगे बढ़ेंगे तब आपको महल के वास्तविक आकार का अनुमान लगेगा।

कूच बिहार महल को विक्टर जुबिली महल भी कहते हैं।

कूच बिहार राजबाड़ी का दृश्य
कूच बिहार राजबाड़ी का दृश्य

महल की संरचना का दाहिना भाग बाएं भाग से अधिक चौड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि समरूपता के सिद्धांत को जान-बूझकर अंगीकार नहीं किया है। संरचना के शीर्ष पर धातु का एक गुंबद शोभायमान है। यह गुंबद एक बेलनाकार संरचना के ऊपर स्थापित है जिस पर कुछ तोरण-युक्त झरोखे हैं। यह गुंबद कूच बिहार नगरी के किसी भी कोने से दृश्यमान है। कूच बिहार में आप कहीं भी खो नहीं सकते। क्षितिज में चारों ओर दृष्टि दौड़ाएं तथा इस महल का गुंबद खोजें। उस ओर जाने पर आप निश्चित ही महल में पहुँच जाएंगे। यद्यपि यह महल केवल दो तलों का है तथापि यह अपेक्षाकृत ऊंचा प्रतीत होता है। कदाचित इसका कारण इसका ऊंचा गुंबद ही है।

कूच बिहार राजबाड़ी
कूच बिहार राजबाड़ी

कूच बिहार महल की संकल्पना तथा प्रेरणा इंग्लैंड के बकिंघम महल से प्राप्त की गई है।

संग्रहालय

महल के भीतर एक संग्रहालय है। मैं यहाँ शुक्रवार के दिन आई थी। मेरा भाग्य देखिए। यह संग्रहालय प्रत्येक शुक्रवार के दिन बंद रहता है। मैं संग्रहालय के दर्शन नहीं कर पायी। किन्तु मुझे यहाँ जानकारी मिली कि संग्रहालय की अधिकांश प्रदर्शित वस्तुओं की चोरी हो गई है तथा वे अब सदा के लिए अनुपलब्ध हैं।

राजबाड़ी का सुन्दर द्वार
राजबाड़ी का सुन्दर द्वार

मैंने इस महल के कुछ छायाचित्र सोशल मीडिया पर डाले थे। उन्हे मेरे कुछ मित्रों ने देखा जिन्होंने अपने बालपन में इस महल का अवलोकन किया था। महल के नवीन एवं सुंदर अवतार को देख उन्हे अत्यंत आश्चर्य हुआ। इसका कुछ श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को भी जाता है जिन के ऊपर इस महल के रखरखाव का उत्तरदायित्व है।

राजबाड़ी का सरोवर
राजबाड़ी का सरोवर

मैं संग्रहालय के तो दर्शन नहीं कर पायी। किन्तु जब मैंने पीतल धातु से बनी द्वार की यह नक्काशी युक्त घुंडी देखी तो मैंने महल के भीतरी साजसज्जा एवं कलाकृतियों का सहज ही अनुमान लगा लिया।

बंगाल की प्रसिद्द झाल मूडी
बंगाल की प्रसिद्द झाल मूडी

हम महल के चारों ओर भ्रमण करने लगे। इसका पृष्ठभाग भी अग्रभाग जैसा ही आकर्षक प्रतीत हुआ।

महल की भित्तियों के समक्ष एक चाटवाले ने अपनी रेहड़ी बड़ी ही चतुराई से लगायी हुई थी। महल के चारों ओर भ्रमण करते करते हमें भूख एवं तृष्णा का आभास होने लगता है। आपकी सेवा में तत्पर, समक्ष ही उसकी रेहड़ी तैनात थी। इससे उत्तम मूलभूत सुविधा क्या हो सकती है।

कूच बिहार के मंदिर

भारत की एक प्राचीन नगरी की मंदिर विहीन कल्पना असंभव है। भारत के प्राचीन नगरों की सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण का उत्तरदायित्व सदैव उनके मंदिरों ने ही निभाया है। कूच बिहार के इस ऐतिहासिक नगरी में भी अनेक मंदिर हैं। मैंने जिन मंदिरों के दर्शन किए उनके विषय में यहाँ जानकारी दे रही हूँ।

मदन मोहन बाड़ी

कूच बिहारी का मदन मोहन बाड़ी मंदिर
कूच बिहारी का मदन मोहन बाड़ी मंदिर

शुद्ध श्वेत रंग में रंगे मदन मोहन मंदिर की वास्तु अत्यंत विशेष है। इसके मध्य में एक गोलाकार गुंबद है। एक सीधी पंक्ति में स्थित तीन विभिन्न कक्षों के भीतर तीन भिन्न मंदिर हैं। यह सम्पूर्ण मंदिर संकुल एक विस्तृत एवं उत्तम रखरखाव वाले बाग के मध्य स्थित है। जब आप बाग के नरम मुलायम घास पर सैर करते हुए चारों ओर दृष्टि डाले तो आपको अनेक प्रकार के शिल्प दृष्टिगोचर होंगें। मंदिर के प्रवेशद्वार की संरचना किसी दुर्ग के समान प्रतीत होती है। श्वेत रंग में रंगी होने के कारण यह संरचना अत्यंत मनमोहक प्रतीत होती है।

मदन मोहन मंदिर में कृष्ण
मदन मोहन मंदिर में कृष्ण

मदन मोहन मंदिर के प्रमुख देव भगवान कृष्ण हैं। पीत वस्त्र धारण किए एवं बंसी बजाते कृष्ण की पीतल में बनी तथा पीले गेंदे के पुष्पों से सुशोभित मनमोहक मूर्ति आकर्षण का केंद्र है। पूर्व काल में कूच बिहार का राजपरिवार मंदिर के सभी अनुष्ठान आयोजित करता था। मुझे बताया गया कि राजपरिवार का कोई भी सदस्य अब यहाँ निवास नहीं करता। इसीलिए अब ये सभी अनुष्ठान जिलाध्यक्ष करते हैं।

महिषासुरमर्दिनी - मदन मोहन बाड़ी
महिषासुरमर्दिनी – मदन मोहन बाड़ी

हम यहाँ प्रातःकाल के पश्चात पहुंचे थे। हमने देखा कि भक्तगण गलियारे में बैठकर भजन एवं कीर्तन कर रहे थे।

दाहिनी ओर का मंदिर माँ काली को समर्पित है जिन्हे मैंने सदैव से बंगाल से जोड़कर देखा था। तीसरे मंदिर में भवानी देवी एवं तारा देवी की छवियाँ हैं। महिषासुरमर्दिनी को समर्पित एक अन्य लघु मंदिर भी है।

मंदिर के समक्ष एक छोटा जलकुंड है जिसके चारों ओर तोरणयुक्त मंडप है।

मदन मोहन मंदिर का निर्माण भी राजा नृपेन्द्र नारायण ने करवाया था।

कार्तिक पूर्णिमा के समय इस मंदिर में रास यात्रा का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यह उत्सव दीपावली से १५ दिवस पश्चात आता है। इसका अर्थ है कि यह उत्सव उसी समय मनाया जाता है जब सम्पूर्ण भारत में देव दीपावली अथवा त्रिपुरारी पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है।

बनेश्वर शिव मंदिर

नगर के किंचित उत्तरी भाग में एक जलाशय के समीप बनेश्वर शिव मंदिर स्थित है।

बनेश्वर महादेव मंदिर
बनेश्वर महादेव मंदिर

श्वेत रंग के इस सादे से मंदिर के भीतर एक प्राचीन शिवलिंग है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह शिवलिंग धरातल से लगभग १०-१२ फीट नीचे स्थित है। अतः मंदिर के भीतर प्रवेश करने के पश्चात कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरना पड़ता है। तभी शिवलिंग के दर्शन होते हैं। मेरा अनुमान है कि समय तथा आधुनिकता के साथ धरातल के अन्य भागों की सतह ऊपर उठती चली गई तथा शिवलिंग अपनी स्थापित स्थान पर अबाधित स्थित है।

कूच बिहार के कछुए
कूच बिहार के कछुए

बनेश्वर मंदिर के समीप स्थित जलाशय में बड़ी संख्या में कछुए हैं। मंदिर के समीप भी हमने कई कछुओं को स्वच्छंद विचरण करते देखा।

सागर दीघी

कूच बिहार का सागर दीघी
कूच बिहार का सागर दीघी

नगर के मध्य में सागर दीघी नामक एक ताल अथवा जलाशय है। नगर के यंत्र-तंत्र के सार का अनुभव प्राप्त करने के लिए हम इस जलाशय के चारों ओर सैर करने लगे। हमने जो कुछ देखा व अनुभव किया वह कुछ इस प्रकार है:

औपनिवेशिक काल के भवन
औपनिवेशिक काल के भवन

औपनिवेशिक काल की कुछ भवनों को अब सरकारी कार्यालयों में परिवर्तित कर दिया गया है। उनमें से अधिकतर भवन लाल रंग में रंगे हैं जो औपनिवेशिक कलकत्ता का स्मरण कराते हैं।

नियमित अंतराल पर बंगाल के प्रसिद्ध पुरुषों की प्रतिमाएं हैं। उनके नाम बंगाली भाषा में लिखे हुए थे। अतः गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर को छोड़कर मैं अन्य किसी को भी पहचान नहीं पायी।

आधुनिक कूच बिहार के शिल्पकार राजा नृपेन्द्र नारायण की भी एक प्रतिमा है जो सागर दीघी के एक ओर स्थित है।

कूच बिहार में गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिमा
कूच बिहार में गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिमा

सागर दीघी – यह शांत चौकोर जलाशय अत्यंत मृदुल एवं निर्मल है। इसमें घाटों के समान सीढ़ियाँ हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो सम्पूर्ण कूच बिहार नगरी का जीवन इसी जलाशय के चारों ओर ही गतिमान है। इस नगरी में घटते सर्व घटनाओं का यह एक मूक दर्शक है। इसके ऊपर उड़ते नभचर, जल के किनारों पर तैरते बतख तथा छाँव प्रदान करते वृक्ष हमें एक दूसरे विश्व में पहुंचा देते हैं। इन सबका दर्शन अत्यंत ही आनंददायी हैं।

पच्चीकारी अथवा सरैमिक टाइल के छोटे छोटे टुकड़ों को भित्तियों पर जड़कर सुंदर भित्तिचित्र बनाए गए हैं। एक भित्तिचित्र पर नगर के सभी तत्वों को रम्यता से प्रदर्शित किया गया है। एक अन्य भित्तिचित्र में बंगाल के बाउल गायकों को दिखाया गया है।

यात्रा सुझाव

  • कूच बिहार देश के अधिकतर प्रमुख नगरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।
  • मदन मोहन मंदिर में दर्शन करने के लिए प्रवेश शुल्क लिया जाता है। कैमरा के लिए भी शुल्क लिया जाता है। यहाँ के पुजारी अत्यंत असभ्य एवं शिष्टाचारविहीन प्रतीत हो सकते हैं।
  • नगर में भ्रमण करने के लिए आप रिक्शा अथवा टैक्सी की सेवा ले सकते हैं। हमने जलदापारा से टैक्सी ली तथा कूच बिहार की एक-दिवसीय यात्रा कर वापिस लौट आए।
  • नगर के अधिकांश प्रमुख स्थलों का अवलोकन आप एक दिन में पूर्ण कर सकते हैं।
  • वापिस आते समय आप घने चिलपट वन के भीतर से गाड़ी चलाते हुए आ सकते हैं।

कूच बिहार मुझे प्रकृति, संस्कृति, धरोहर एवं आध्यात्मिकता का सर्वोत्तम सम्मिश्रण प्रतीत हुआ।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post कूच बिहार – पश्चिम बंगाल की राजसी नगरी के पर्यटक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/cooch-bihar-ke-paryatak-sthal/feed/ 3 2071
शांतिनिकेतन – रवींद्रनाथ ठाकुर का स्वप्निल विश्व भारती विद्यालय https://inditales.com/hindi/vishwa-bharti-shanti-niketan-west-bengal/ https://inditales.com/hindi/vishwa-bharti-shanti-niketan-west-bengal/#comments Wed, 23 Sep 2020 02:30:06 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2012

शांतिनिकेतन – शिक्षा की इस नगरी का नाम सुनते ही नयनों के समक्ष रवींद्र नाथ ठाकुर की छवि प्रकट हो जाती है। बालपन से हमने रवींद्रनाथ ठाकुर एवं उनकी कर्म भूमि शांतिनिकेतन के विषय में सुना एवं पढ़ा था। लंबे समय से इस शांतिनिकेतन के दर्शन करने की मेरी तीव्र इच्छा थी। इसीलिए जब मैं […]

The post शांतिनिकेतन – रवींद्रनाथ ठाकुर का स्वप्निल विश्व भारती विद्यालय appeared first on Inditales.

]]>

शांतिनिकेतन – शिक्षा की इस नगरी का नाम सुनते ही नयनों के समक्ष रवींद्र नाथ ठाकुर की छवि प्रकट हो जाती है। बालपन से हमने रवींद्रनाथ ठाकुर एवं उनकी कर्म भूमि शांतिनिकेतन के विषय में सुना एवं पढ़ा था। लंबे समय से इस शांतिनिकेतन के दर्शन करने की मेरी तीव्र इच्छा थी। इसीलिए जब मैं बोलपुर रेल स्थानक पर उतरी तब मैं अत्यंत रोमांचित थी। मेरी सम्पूर्ण देह पर रोंगटे खड़े हो रहे थे। ऐसा मेरे साथ उस समय होता है जब किसी स्थान के दर्शन करने की मेरी बहुप्रतीक्षित इच्छा अंततः पूर्ण होती है।

शांतिनिकेतन का इतिहास

शांतिनिकेतन का ब्रह्मा मंदिर
शांतिनिकेतन का ब्रह्मा मंदिर

शांतिनिकेतन की स्थापना सन् १८६० के आसपास देवेंद्रनाथ ठाकुर ने की थी। शांतिनिकेतन की भूमि पर सदैव ठाकुर परिवार का स्वामित्व था किन्तु किसी समय वहाँ कदाचित डकैत बसते थे। यहाँ तक कि इस स्थान का नाम भी उन्ही में से एक डकैत के नाम पर था, भुबन डकत। इस स्थान की लाल माटी तथा छतिम वृक्षों(सप्तपर्णी) से परिपूर्ण परिदृश्यों को देखते ही देवेंद्रनाथ मंत्रमुग्ध हो गए थे। उन्होंने स्वयं के लिए यहीं एक भवन का निर्माण कराने का निश्चय किया। उन्होंने अपने उस भवन का नाम शांतिनिकेतन रखा। उस समय उन्हे रत्ती भर भी कल्पना नहीं थी कि एक दिन यही नाम संस्कृति के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध हो जाएगा। शांतिनिकेतन का शब्दशः अर्थ है, शांति का आवास। कालांतर में इस आवास ने आश्रम का रूप ले लिया जो ध्यान-उपासना के लिए तथा आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में आए प्रत्येक साधक के लिए खुला था। इस स्थान ने बंगाल के ब्रह्म समाज आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

देवेंद्रनाथ के सुपुत्र रबीन्द्रनाथ ने यहीं पाठभवन आरंभ किया जो ५ विद्यार्थियों की एक लघु पाठशाला थी। कक्षा के भीतर बैठकर अध्ययन करने के स्थान पर बाहर, प्रकृति के सानिध्य में अध्ययन करना, यही उनकी संकल्पना थी। कालांतर में यह व्यवस्था आश्रम प्रणाली के रूप में प्रसिद्ध हुई। मेरे अनुमान से यह प्राचीन गुरु-शिष्य प्रणाली एवं आधुनिक कक्षा प्रणाली का उत्तम संगम है। आज भी आप यहाँ विशाल वृक्षों की छाँव में कक्षा लगते देख सकते हैं।

आज यह छोटी सी पाठशाला विकसित होकर एक विश्व विश्वविद्यालय बन गयी है।

शांतिनिकेतन का सार्थक साक्षात्कार कैसे करें ?

शांतिनिकेतन के अधिकांश आकर्षण आप एक दिन में ही देख सकते हैं। यहाँ मैंने शांतिनिकेतन के आकर्षणों के एक सार्थक अवलोकन के संबंध में मार्गदर्शन करने का प्रयास किया है। आशा है इससे आपको लाभ अवश्य होगा।

रबीन्द्र भवन संग्रहालय (ठाकुर संग्रहालय)

रबीन्द्र भवन संग्रहालय
रबीन्द्र भवन संग्रहालय

उत्तरायण संकुल के अनेक घरों में से एक घर में यह लघु किन्तु रोचक संग्रहालय स्थित है। सम्पूर्ण संग्रहालय रबीन्द्रनाथ ठाकुर को समर्पित है। इस संग्रहालय का सर्वाधिक विशेष आकर्षण था ठाकुर को प्रदत्त नोबल पुरस्कार का पदक जो कुछ वर्षों पूर्व यहाँ से चोरी हो गया। उसके पश्चात यहाँ के कर्मचारी अधिक सतर्क हो गए हैं। यहाँ कर्मचारियों एवं चौकीदारों की इतनी अधिक संख्या देख मैं अचंभित थी। यहाँ अधिकांश समय कर्मचारियों एवं चौकीदारों की संख्या दर्शकों एवं पर्यटकों की संख्या से अधिक होती है।

गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर की कार
गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर की कार

संग्रहालय दर्शन ठाकुर परिवार की वंशावली से आरंभ होता है। यहाँ पात्र, कंघे, पूजा की वस्तुएं एवं औषधि पेटी जैसी परिवार के व्यक्तिगत वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है। ठाकुर परिवार को चीन, फ्रांस, जापान तथा रोम से उपहार में प्राप्त कलाकृतियों का संग्रह है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर की व्यक्तिगत वस्तुएँ, जैसे उनकी चित्रकारी के संबंधित वस्तुएं, तूलिकाएं, रंग इत्यादि का भी संग्रह है।

संग्रहालय में रबीन्द्रनाथ ठाकुर का पासपोर्ट भी है जो एक पत्र के रूप में है। ज्ञात नहीं भारत में कब पासपोर्ट आज की पुस्तिका के रूप में प्रचलन में आई।

संग्रहालय में अनेक छायाचित्र हैं। एक छायाचित्र में स्वयं ठाकुर को ही चित्रकारी करते दर्शाया गया है। गांधीजी, आइन्स्टाइन, सिग्मंड फ्रायड, जार्ज बर्नार्ड शा, हेलेन एडम्स केलर, सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू तथा उस काल के अन्य अनेक दिग्गज महानुभावों से ठाकुर की भेंट से संबंधी अनेक आलेख हैं। उनसे किये गए अनेक पत्र-व्यवहार भी प्रदर्शित किये गए हैं।

यहाँ सभी कुछ बंगाली भाषा में लिखा गया है। संग्रहालय तथा उत्तरायण के अन्य विभागों में यह मेरे लिए बहुत बड़ा अवरोध था। हिन्दी अथवा अंग्रेजी भाषा में उनका अनुवाद अवश्य होना चाहिए था।

संग्रहालय के भीतर छायाचित्र लेने की अनुमति नहीं है।

उत्तरायण संकुल

उत्तारायण संकुल का एक घर
उत्तारायण संकुल का एक घर

उत्तरायण संकुल में ठाकुर परिवार के सदस्यों द्वारा निर्मित अनेक घर हैं। उनमें कुछ के नाम हैं, उदयन, कोणार्क, श्यामली, पुनश्च तथा उदीची। प्रथम दर्शन में, हल्के पीले एवं श्वेत रंगों में रंगी भित्तियाँ तथा लाल रंग में रंगे जमीन वाले ये घर अत्यंत सादे प्रतीत होते हैं। इनकी भव्यता इनमें प्रदर्शित वस्तुओं से आती है। एक घर के बाहर एक छपाई यंत्र रखा हुआ है। एक गैरेज में रवींद्रनाथ ठाकुर की कार रखी हुई है। कुछ घरों में उत्कृष्ट नक्काशीदार लकड़ी की पट्टिकाएं हैं। कुछ घरों में मैंने सुंदर दीवान देखे जिन पर उत्कृष्ट साज-सज्जा की हुई थी।

छपाई मशीन
छपाई मशीन

बागीचों में सुंदर पेड़-पौधे तथा उत्कृष्ट शिल्पकलाएं एक दूसरे से प्रतियोगिता करते प्रतीत होते हैं।

एक खुली ड्योढ़ी है जिसे मृणमोई कहा जाता है।

संथाल परिवार को दर्शाती एक कलाकृति
संथाल परिवार को दर्शाती एक कलाकृति

असंख्य शाखाओं से युक्त एक विशाल बरगद का वृक्ष है जो अनेक वर्षों से यहीं अबाधित खड़ा है। उसे देख ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वह मुझे कह रहा है कि वह इस स्थान पर तब से है जब यह स्थल एक झोपड़ी से अधिक कुछ नहीं था।

एक मैदान में एक संथाल परिवार का एक प्रसिद्ध शिल्प है।

शांतिनिकेतन के सर्व खुले प्रांगणों में तथा घरों के मध्य अनेक कलाकृतियाँ प्रदर्शित की गई हैं। कुछ समय पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि कला शांतिनिकेतन की संस्कृति का ही एक अभिन्न अंग है। इस नगरी में आप कहीं भी खड़े हो जाएँ आप अपने चारों ओर अनेक कलाकृतियाँ देखेंगे। उनमें से कुछ नन्द लाल बोस जैसे प्रतिष्ठित कलाकारों की कलाकृतियाँ हैं। अधिकतर कलाकार शांतिनिकेतन के ही विद्यार्थी थे।

शांतिनिकेतन के विश्व भारती में पदयात्रा

विश्व भारती के प्रवेश द्वार पर संस्कृत शिलालेख
विश्व भारती के प्रवेश द्वार पर संस्कृत शिलालेख

हमने यह पदभ्रमण ब्रह्म मंदिर अर्थात् उपासना गृह से आरंभ की। लोहे के प्रवेशद्वार के पीछे संगमरमर की पट्टिका में संस्कृत में एक श्लोक लिखा हुआ था।

बाग के मध्य में कांच का एक अलंकृत कक्ष है। यह ठीक वैसा ही है जैसा आप बहुधा अंग्रेजों द्वारा पीछे छोड़े गए बगीचों में देखते हैं। यह वास्तव में ब्रह्म मंदिर है। यह कुछ विशेष दिवसों में ही खुलता है। सामान्यतः वर्ष का अधिकांश काल यह बंद ही रहता है।

खुले प्रांगण में विद्यालय
खुले प्रांगण में विद्यालय

यहाँ से भीतर की ओर जाते हुए हम कुछ दूर और गए। वहाँ हमने मुक्तांगण कक्षा देखी। एक प्राचीन वृक्ष के चारों ओर कम ऊंचायी के गोलाकार तख्त रखे हुए थे।लाल चौखट के ऊपर एक घंटी लटकी हुई थी। यह चौखट सांची स्तूप के तोरण का सादा रूप प्रतीत हो रहा था।

चित्रकारी

शान्तिनिकेतन के चित्रकारी विभाग का प्रवेश द्वार
शान्तिनिकेतन के चित्रकारी विभाग का प्रवेश द्वार

विश्वविद्यालय की संरचना सादी अवश्य थी किन्तु उसमें भारतीय तथा इस्लामी वास्तुकला की झलक स्पष्ट विदित होती है। हमारे गाइड ने हमें वह वसतिगृह दिखाया जहाँ इंदिरा गांधी ने कुछ समय के लिए निवास किया था। कुछ इमारतों पर उत्कृष्ट चित्रकारी की गई थी। उस काल के कुछ प्रतिष्ठित चित्रकारों द्वारा चित्रित मूल कृतियाँ अब भी संरक्षित कर रखी हुई हैं।

विश्व भारती के डिजाइन स्कूल ने तो मुझे झकझोर कर रख दिया। काले रंग की इस इमारत पर श्वेत रंग में अनेक भित्तिचित्र हैं जो अत्यंत आकर्षक हैं। समीप ही एक अन्य संरचना पर भी काले रंग में कलाकारी की गई है किन्तु यह उभरी हुई शिल्पकारी है।

विश्व भारती का डिजाईन विद्यालय
विश्व भारती का डिजाईन विद्यालय

विश्वविद्यालय के तात्कालिक विद्यार्थी अनेक कलाकृतियाँ रचने में व्यस्त थे। वे इस सम्पूर्ण कला क्षेत्र की कलामय आभा में सम्मोहक वृद्धि कर रहे थे। मैंने कुछ विद्यार्थियों से वार्तालाप किया तथा उनसे उनके कलाक्षेत्र के विषय में अधिक जानने का प्रयत्न किया। सम्पूर्ण वातावरण अत्यंत रचनात्मक हो रहा था। ऐसा वातावरण किसी की भी रचनात्मकता को उभरने एवं फलने-फूलने का भरपूर अवसर प्रदान करता है।

पौराणिक कथाओं का चित्रण
पौराणिक कथाओं का चित्रण

रेशमी आभा लिए एक इमारत की सम्पूर्ण सतह पर बंगाली भाषा में स्तोत्र लिखे हुए थे। उस समय मुझे अत्यंत खेद हुआ कि मुझे बंगाली भाषा का ज्ञान नहीं है।

रेशमी आभा पर बंगाली काव्य
रेशमी आभा पर बंगाली काव्य

एक अन्य भित्ति पर एलोरा के कुछ दृश्यों के प्रतिरूप चित्रित हैं।

एलोरा के शिल्प का प्रतिरूप
एलोरा के शिल्प का प्रतिरूप

छोटी छोटी झोपड़ियों को यहाँ के विद्यार्थी कलाकारों ने नवीन रूप प्रदान कर उन्हे अत्यंत दर्शनीय बना दिया है। एक झोपड़ी जिस पर कांच के रंगीन टुकड़ों से सजावट की है, मुझे अत्यधिक भाई।

कलात्मक झोंपड़ी
कलात्मक झोंपड़ी

रवींद्रनाथ ठाकुर का तेज

शांतिनिकेतन संकुल के भीतर भ्रमण करना १०० वर्ष पूर्व के भारत में भ्रमण करने जैसा है। ऐसा प्रतीत होता है मानो रबीन्द्रनाथ ठाकुर अभी उनके किसी एक घर से बाहर आ जाएंगे। ऐसा लगता है जैसे वे अभी किसी विद्यालय से बाहर आकार आपसे चर्चा करेंगे। वे प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं आते किन्तु शांतिनिकेतन के कोने कोने में उनके द्वारा रचित प्रत्येक स्थल के द्वारा वे आपसे अपरोक्ष रूप में वार्तालाप करते प्रतीत होते हैं।

विश्व भारती - शांतिनिकेतन
विश्व भारती – शांतिनिकेतन

मई का मास था। पीले चटक रंग के अमलतास के पुष्प सम्पूर्ण संकुल को सुनहरी आभा प्रदान कर रहे थे। उनके कारण शांतिनिकेतन का परिसर अत्यंत उजला एवं चमकीला प्रतीत हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मंत्रमुग्ध कर देने वाली प्रकृति कवि एवं दार्शनिक रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित कृतियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही है।

सृजनी शिल्पग्राम

विश्व भारती से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक शिल्पग्राम है जो भारत की आदिवासी जनजातियों की धरोहरों का उत्सव मनाता है। यहाँ भारत के अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों के आदिवासी जनजातियों द्वारा रचित भित्तिचित्र तथा अन्य अनेक प्रकार की कलाकृतियाँ प्रदर्शित की गई हैं।

बंगाल के आदिवासी जीवन का चित्रण
बंगाल के आदिवासी जीवन का चित्रण

सृजनी शिल्पग्राम के भित्तिचित्रों पर प्रथक संस्करण प्रकाशित करने का मेरा विचार है। अतः यहाँ उनके विषय में अधिक विस्तृत विवरण प्रस्तुत नहीं कर रही हूँ।

आदिवासी कला एवं भित्तिचित्रों के प्रति अपनी रुचि के अनुसार आप यहाँ १ से २ घंटों का समय व्यतीत कर सकते हैं। इस स्थान को आप सम्पूर्ण कभी भी नहीं कह सकते। यहाँ कला एवं कलाकृतियों का सतत विकास होता रहता है। अतः यहाँ कार्य सदैव प्रगति पर रहता है।

अमर कुटीर

अमर कुटीर हस्तकला द्वारा निर्मित वस्तुओं की एक दुकान है जहाँ से आप शिल्पग्राम में ही हाथों से बनी कलाकृतियाँ क्रय कर सकते हैं। यहाँ से क्रय करने योग्य वस्तुओं में अधिक प्रचलित हैं, परिधान, वस्त्र, ढोकरा शिल्पकला की कलाकृतियाँ, नारियल की कवटी से बने कृत्रिम आभूषण, चमड़े की वस्तुएं इत्यादि।

शांतिनिकेतन में बाउल संप्रदाय का संगीत

बाउल बंगाल का एक वैष्णव संप्रदाय है। बंगाल के जिस क्षेत्र में शांतिनिकेतन स्थित है वह क्षेत्र बाउल गायकों के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। हमारा सौभाग्य था कि उस दिन अमर कुटीर के निकट एक वृक्ष के नीचे बैठकर गाते एक बाउल गायक से हमने भेंट की। उसके द्वारा गायी गयी रवींद्रनाथ ठाकुर की रचना ‘एकला चलो रे’ का हमने भरपूर आनंद उठाया।

मैं उस गायक से इतना प्रभावित हुई कि मैंने एक सम्पूर्ण संस्करण उस पर समर्पित कर दिया। उस संस्करण का नाम है, ‘एकला चलो रे’।

यात्रा सुझाव

टुक-टुक - शांतिनिकेतन देखने का सबसे बढ़िया साधन
टुक-टुक – शांतिनिकेतन देखने का सबसे बढ़िया साधन

शांतिनिकेतन कोलकाता से रेल व सड़क मार्ग द्वारा सुविधाजनक रूप से जुड़ा हुआ है। रेल मार्ग पर निकटतम स्थानक बोलपुर है। यह शांतिनिकेतन से अत्यंत समीप स्थित है। वास्तव में बोलपुर स्थानक पर ही आपको शांतिनिकेतन की प्रथम झलक प्राप्त हो जाएगी।

हमने ठहरने की व्यवस्था नगर के पश्चिम बंगाल पर्यटन लॉज में की थी। यह लॉज अधिकतर पर्यटन स्थल से पैदल चलने लायक दूरी पर स्थित है। बैटरी चालित रिक्शा अथवा टुक-टुक भी सभी स्थानों पर उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post शांतिनिकेतन – रवींद्रनाथ ठाकुर का स्वप्निल विश्व भारती विद्यालय appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/vishwa-bharti-shanti-niketan-west-bengal/feed/ 2 2012
कोलकाता के उपहार – बंगाल के १० सर्वोत्तम स्मृतिचिन्ह https://inditales.com/hindi/best-kolkata-souvenirs-shopping-list/ https://inditales.com/hindi/best-kolkata-souvenirs-shopping-list/#comments Wed, 25 Oct 2017 02:30:37 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=483

कोलकाता के स्मृतिचिन्ह से मुझे पुराने चलचित्रों का स्मरण हो आया जहां नायक अथवा नायक के पिता को कई बार कोलकाता जाते दिखाया जाता था और आशा की जाती थी कि वह वहां से परिवार के हर सदस्य हेतु उपहार खरीद कर लाये। बंगाल सम्पूर्ण विश्व में कई आकर्षक भेंट वस्तुएं व स्वादिष्ट मिष्ठान हेतु […]

The post कोलकाता के उपहार – बंगाल के १० सर्वोत्तम स्मृतिचिन्ह appeared first on Inditales.

]]>
कोलकाता के उपहार
कोलकाता के उपहार

कोलकाता के स्मृतिचिन्ह से मुझे पुराने चलचित्रों का स्मरण हो आया जहां नायक अथवा नायक के पिता को कई बार कोलकाता जाते दिखाया जाता था और आशा की जाती थी कि वह वहां से परिवार के हर सदस्य हेतु उपहार खरीद कर लाये। बंगाल सम्पूर्ण विश्व में कई आकर्षक भेंट वस्तुएं व स्वादिष्ट मिष्ठान हेतु प्रसिद्ध है। मैंने कई बार बंगाल की यात्रा की। जहां एक ओर मुझे बिश्नुपुर स्थित टेराकोटा मंदिर बहुत पसंद आये, वहीं दोआर अथवा डुआर के जंगल बहुत लुभावने प्रतीत हुए। वहां खाए भिन्न भिन्न मिष्टान्नों का स्मरण होते ही अभी भी मुंह में पानी आ जाता है। बंगाल की हर यात्रा में कोलकाता के विषय में नवीन जानकारी प्राप्त होती है। मेरे पास कोलकाता के कई स्मृतिचिन्ह हैं जिनमें कुछ मैंने अपनी बंगाल यात्रा के समय खरीदा था व कुछ मित्रजनों और परिवारजनों ने उपहार स्वरुप मुझे दिए हैं। मुझे कोलकाता की विशेषताओं व यहाँ उपलब्ध विशेष वस्तुओं को बारीकी से जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। इसलिए अपने अनुभव को इस संस्मरण में संकलित कर, १० सर्वोत्तम भेंट वस्तुएं अंकित कर रही हूँ।

कोलकाता के १० सर्वोत्तम भेंट वस्तुओं की खरीददारी

शंख से बनी चूड़ियाँ

शंख से बनी चूड़ियाँ - कोलकाता का शुभ उपहार
शंख से बनी चूड़ियाँ – कोलकाता का शुभ उपहार

इस सूची का आरम्भ शुभ वस्तु से करते हुए, कौंच अथवा शंख पर की गयी कारीगरी व उससे बनी वस्तुओं का उल्लेख करना चाहती हूँ। बिश्नुपुर की गलियों में शंख पर की गयी नक्काशी को बारीकी से देखने का अवसर हमें प्राप्त हुआ। कलाकार शंख को कोमलता से हाथ में पकड़ कर उस पर आकृतियाँ गढ़ते हैं। देवों के चित्रों की नक्काशी युक्त श्वेत शंख बहुत सुन्दर व शोभायमान प्रतीत होते हैं। घर के मंदिर की शोभा बढ़ाने हेतु यह एक सुन्दर व शुभ वस्तु सिद्ध होगी। इसी तरह शंख से बनी चूड़ियों पर भी उत्कृष्ट नक्काशी की जाती है। पारंपरिक रूप से इन चूड़ियों द्वारा बंगाल की सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपना श्रृंगार पूर्ण करती हैं। आधुनिक समाज में हर स्त्री इन चूड़ियों को अपने साजश्रृंगार का हिस्सा बनाने की इच्छा रखती है। इसलिए आप ये चूड़ियाँ स्वयं अथवा आपके परिवार की महिलाओं हेतु खरीदकर उन्हें भेंट कर सकते हैं।

शंख से बनी चूड़ियों की कुछ और विशेषताओं का उल्लेख करना चाहती हूँ। कुछ चूड़ियों पर घोड़ों की छोटी छोटी नक्काशी की जाती है। यह बांकुरा जिले के पंचमुढ़ा ग्राम में बनाए जाने वाले टेराकोटा अर्थात् लाल पकी मिट्टी के घोड़ों को समर्पित है। यह चूड़ियाँ पूर्णतः गोलाकार नहीं होती क्योंकि इन्हें प्राकृतिक शंखों को काटकर बनाया जाता है। अनियमित आकार की चूड़ियों पर की गयी उत्तम कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना है यह चूड़ियाँ।

टेराकोटा कलाकृतियाँ

बंगाल की मिट्टी से बने गणपति
बंगाल की मिट्टी से बने गणपति

टेराकोटा अर्थात् लाल पकी मिट्टी बंगाल का मूलभूत अंग है। बंगाल की धरती पर पत्थरों का अभाव है। इसलिए यहाँ के प्राचीन मंदिर भी टेराकोटा की पट्टियों से सुसज्जित हैं। परन्तु इन मंदिरों के दर्शन हेतु बंगाल के भीतरी भागों की यात्रा आवश्यक है। कोलकाता में ही उपलब्ध, टेराकोटा से बने कुछ रोचक व चित्तरंजक वस्तुएं जो आप खरीद सकते हैं वह हैं-

बांकुरा घोड़े

बांकुरा जिले में सर्वत्र उपलब्ध यह टेराकोटा से बने बांकुरा घोड़ों की विशेषता है उनके नोकदार लंबे कान। यह हर आकार में उपलब्ध हैं। अपने घर के प्रवेशद्वार के दोनों ओर रखे यह रक्षक भांति प्रतीत होते हैं। उसी तरह बैठक कक्ष में रखे गए यह घोड़े आपको बंगाल का स्मरण कराते रहेंगे। यह बंगाल की एक उत्कृष्ट स्मृतिचिन्ह है।

घोड़ों के अलावा टेराकोटा द्वारा गणेश की विभिन्न संगीत वाद्य बजाते हुए मूर्तियाँ भी बहुत मनभावनी हैं। मैंने इन मूर्तियों का एक सम्पूर्ण संग्रह खरीदा था। वह अब मेरे पुस्तकालय में सुसज्जित है और संभवतः हर आपदाओं से हमारी रक्षा कर रही है।

टेराकोटा के आभूषण

बंगाल के कलाकारों ने टेराकोटा से छोटे छोटे आभूषण भी बनाने आरम्भ किये हैं। विभिन्न चटक रंगों में रंगे इन आभूषणों को देख सहसा विशवास नहीं होता कि यह टेराकोटा से बनी हैं। मैंने अपने लिए टेराकोटा से बने झुमके खरीदे। यथोचित मूल्य में उपलब्ध यह छोटे छोटे आभूषण ले जाने में आसान व हलके वजन के हैं। यह आपके परिवार की बेटियों हेतु सर्वोत्तम भेंट होंगी।

स्त्रियों की सर्वप्रिय साड़ियाँ

बंगाल के साडी बुनकर
बंगाल के साडी बुनकर

यूँ तो बंगाल में साड़ियों के इतने प्रकार विक्री हेतु उपलब्ध है कि किसी का भी मन डोल सकता है। परन्तु यह साड़ियाँ आपको कही भी मिल जायेंगीं। बंगाल आ कर केवल बंगाली साड़ियों पर ही ध्यान केन्द्रित करना उपयुक्त होगा। यहाँ की कुछ प्रसिद्ध बंगाली साड़ियाँ हैं-

तांत की साड़ियाँ

बंगाल में स्त्रियाँ ज्यादातर जो साड़ियाँ पहनती हैं वह बहुत महीन कपड़े पर चौड़ी किनार की तांत साड़ियाँ हैं। सूती, महीन किन्तु कड़क साड़ियाँ बंगाल के बुनकरों की कला का सजीव नमूना है। पारंपरिक तौर पर यह साड़ियाँ हलके रंग में बनाई जाती हैं जिन पर गहरे चटक रंग केवल बूटी व किनार पर उपयोग किये जाते हैं। परंपरा व आधुनिकता के मिश्रण से अब रंगों व नमूनों की कोई सीमा नहीं रही। ढाका, तांगेल और मुर्शिदाबाद तांत साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। बंगाल में सर्वत्र उपलब्ध इन साड़ियों को अच्छे दाम व गुणवत्ता के लिए स्थानीय बाजार से खरीदें।

बालुचरी अथवा स्वर्णचरी साड़ियाँ

कहा जाता है कि हर बालुचरी साडी एक कहानी कहती है। बांकुरा के बुनकर मंदिरों की दीवारों पर बनी नक्काशियों को इन कच्ची रेशम से बनी साड़ियों के पल्लू व किनारों पर हुबहू उतारते हैं। राधा कृष्ण की सुन्दर मुद्राएँ, महाभारत युद्ध के समय अर्जुन को ज्ञान देते कृष्ण, सखियों संग झूला झूलती राधा इत्यादि कई पौराणिक कथाओं पर आधारित आकृतियाँ आप इन साड़ियों पर देख सकते हैं। कच्चे रेशम के रंग में बनी बालुचरी साड़ियों में बुनाई का धागा रेशमी व स्वर्णचरी साड़ियों में बुनाई धागा सोने की जरी का होता है। आप अपने पसंद की कहानी कहती यह साड़ियाँ, अपने पसंदीदा रंगों व नमूनों में खरीद सकतें हैं।

कांथा साड़ियाँ

कांथा, गाँव की स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला कढ़ाई का एक प्रकार है। पारंपरिक रूप से कोमल धोती व साड़ियों पर की जाने वाली इस कढ़ाई में सम्पूर्ण कपड़े पर सादे टाँके की कढ़ाई की जाती है। सादे टसर रेशम पर रंगीन धागों से बनाए गए पारंपरिक नमूने इन साड़ियों को अनमोल रूप प्रदान करते हैं।

सोलापीठ (भारतीय काग) के हस्तशिल्प

सोलापीठ में गढ़ा हाथी
सोलापीठ में गढ़ा हाथी – लगता है न हाथीदांत से बना

शोला अथवा सोला एक पौधा है जो बंगाल के आर्द्र भूमि के दलदल में उगता है। इसके तने के भीतरी भाग को सुखाया जाय तब यह दुधिया सफ़ेद रंग का मुलायम व अत्यंत हल्का पदार्थ बनता है। इसे सोलापीठ अथवा भारतीय काग कहते है। यह देवी देवताओं की प्रतिमाओं को सजाने हेतु व वर-वधु के मुकुट इत्यादि बनाने हेतु उपयोग में लाया जाता है। आजकल कारीगर इससे कई सजावटी वस्तुएं भी बनाने लगे हैं। यह थर्मोकोल की तरह दिखने वाला, परन्तु प्राकृतिक पदार्थ है जो लचीलापन, संरचना, चमक व झिर्झिरापन में उससे कई गुना उत्तम है।

आपने दुर्गापूजा के समय कालीबाड़ी की दुर्गा प्रतिमा का चेहरा, मुकुट व अन्य सजावट एक श्वेत पदार्थ द्वारा बने देखे होंगे। यही सोलापीठ है। माला गूंथने वाले मालाकारी ही सोलापीठ पर नक्काशी करते हैं। सोलापीठ पर नक्काशी कर अन्य सजावटी वस्तुएं भी बनायी जाती हैं।

मैंने यहाँ से एक नक्काशीदार, सोला से बना हाथी खरीदा था। दूर से देखने पर यह हाथी दांत से बना प्रतीत होता है।

मेरी आशा है आप सोलाशिल्प की खरीददारी अवश्य करेंगे। यह इस कला को जीवित रखने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

बंगाली मिठाइयाँ

संदेष - बंगाल का मीठा उपहार
संदेष – बंगाल का मीठा उपहार

कुछ बंगाली मिठाइयां यूँ तो देश के लगभग हर मिठाई की दुकानों में उपलब्ध हैं। रसगुल्ला, या रोशोगुल्ला जैसे की मेरे बंगाली मित्र कहते हैं, चमचम, सन्देश इत्यादि इनमें मुख्य हैं। पर इन मिठाइयों जो स्वाद बंगाल में होता है वह अद्भुत है। केवल सन्देश के ही इतने प्रकार देख आप दंग रह जायेंगे। ज्यादातर बंगाली मिठाइयां तली हुई नहीं होती, इसलिए इन्हें बिना शंका खाया जा सकता है। पाती शाप्ता भी एक मिष्टान्न है जिसे बनाना मैंने एक बंगाली परिजन से सीखा। ताड़ शर्करा से बना नोलेन गुड़ इन मिठाइयों की मूल सामग्री है।

मिष्टी दोई के बारे में आप सब जानते होंगे। भारत के कोने कोने में इसे स्वाद लेकर खाया जाता है। दही का इतना स्वादिष्ट व मीठा रूप किसी बंगाली के ही मष्तिष्क की उपज हो सकती है।

इन मिठाइयों का भरपूर स्वाद आप अपनी बंगाल यात्रा में ले सकते हैं। परन्तु केवल सन्देश ही अपने साथ वापिस ले आने की सलाह देना चाहूंगी क्योंकि यह अपेक्षाकृत सूखा व ले जाने में आसान है। यह जल्दी बासी भी नहीं होगा।

डोकरा शिल्प

डोकरा शिल्प - कोलकाता के उपहार
डोकरा शिल्प में मेरे गणपति

डोकरा शिल्प एक ऐसी कला है जिसे बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में सामान तरीके से बनाया जाता है। इन प्रदेशों के नाम पढ़ कर आप को ज्ञात हो चुका होगा कि यह उन्ही स्थानों पर प्रचलित है जहां आदिवासी जनसँख्या का प्रमाण ज्यादा है। मूल शिल्प सामान होते हुए भी इनमें प्रदेश के अनुसार बदलाव देखा जाता है। हर प्रदेश अपनी विशेषता इस शिल्प कला को प्रदान करता है। प्रचलित वस्तुएं जिन पर यह शिल्पकारी की जाती है वह है सुन्दर गुडियां, रोजमर्रा की वस्तुएं जैसे कलम रखने हेतु पात्र, आदिवासी जनजीवन का उल्लेख करतीं पट्टिका इत्यादि।

बंगाल यात्रा में मैंने आपने लिए डोकरा पद्धति से बने छोटे आभूषण इत्यादि खरीदे। उनमें मेरी पसंदीदा वस्तुएं हैं गणेश झुमके व गले के हार का लटकन। झुमके का नमूना पारंपरिक होते हुए भी, लटकन का नमूना आधुनिक है।

इन छोटी छोटी कांसे की वस्तुओं से आप अपने घर की सम्पूर्ण सजावट कर सकते हैं। यह आपको विश्व की सबसे प्राचीन धातु शिल्पकारी पद्धति का स्मरण कराते रहेंगे।

दार्जिलिंग चाय

दार्जीलिंग के चाय बागान
दार्जीलिंग के चाय बागान

जब आप दार्जिलिंग के पहाड़ों से गुजरें, आपको अपने चारों ओर अद्भुत दृश्य दिखाई देगा। चाय के बागानों से भरी पहाड़ियों की ढलानें मन मोह लेती हैं। कहते हैं कि जैसे जैसे ऊंचाई बढ़ती है, चाय की पत्तियों के स्वाद में वृधि होती है। शायद ये पत्तियाँ इन पहाड़ों की हवा से ताजगी सोख कर हमारे चाय की प्याली तक लाती हैं।

दार्जिलिंग चाय विश्व भर में प्रसिद्ध है। आप यहाँ से मनपसंद चाय खरीद सकते हैं, जैसे पहली खेप, दूसरी खेप, काली, हरी, अथवा विशेष स्वाद में घुली हुई चाय इत्यादि।

दार्जिलिंग की यात्रा के समय मैंने यहाँ से पुदीने के स्वाद सहित चाय खरीदी थी। ऐसे संस्मरण लिखते समय मेरी नींद भगाने हेतु अतिउपयुक्त साबित होती है यह चाय।

कोलकाता व दर्जिलिंग में कई उच्चस्तरीय दुकानें हैं जो आकर्षक डिब्बों में चाय उपलब्ध कराते हैं। यह डिब्बे भेंट स्वरुप ले जाने व देने में सुविधाजनक व अनोखे सिद्ध होते हैं।

कालीघाट की चित्रकारी

कालीघाट की चित्रकारी - कोलकाता के उपहार
कालीघाट की चित्रकारी

कोलकाता के काली मंदिर के आसपास के इलाके में कालीघाट चित्रकारी ने जन्म लिया। इसलिए इसका नाम भी कालीघाट चित्रकारी पड़ गया। इस कला का मुख्य उद्देश्य था कालीघाट मन्दिर के दर्शनार्थियों को यहाँ की स्मृतिचिन्ह उपलब्ध कराना। इसलिए कालीघाट चित्रकारी मुख्यतः देवी काली और अन्य हिन्दू देवी देवता व रामायण और महाभारत महाकाव्य के दृश्यों पर आधारित होती है। कालान्तर में इन कलाकारों ने आधुनिक विषयों पर भी चित्रकारी करना आरम्भ कर दिया।
राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय” के परोक्ष गलियारे से आप कुछ उत्कृष्ट कालीघाट चित्रकारियों की जानकारी प्राप्त कर सकते है।

कालीघाट चित्रकारी पद्धति की और जानकारी आप “उत्सवपीडिया” से प्राप्त कर सकते हैं।

इन्टरनेट पर भी इन चित्रकारियों के क्रय हेतु कई सुविधायें उपलब्ध हैं। वे ज्यादातर मूल प्रतियों के पुनर्मुद्रण होते हैं। इसलिए मेरी सलाह होगी कि आप चित्रों की मूल प्रति कोलकाता से ही खरीदें। मौलिक स्थल से इस स्मृतिचिन्ह को पाने की संतुष्टि और आनंद अद्वितीय है।

जूट से बनी वस्तुएं

जूट से बने कोलकाता के उपहार
जूट से बने कोलकाता के उपहार

बंगाल जूट की उद्योगनगरी है। जूट से बनी कई वस्तुएं, जैसे रस्सी और जूट के बोरे इत्यादि, यहीं बनाए जाते हैं। दिल छोटा ना कीजिये, यह वस्तुएं किसी भी दृष्टिकोण से स्मृतिचिन्ह नहीं हो सकते। कुछ कलाकार जूट का इस्तेमाल कर खूबसूरत और रोजमर्रा हेतु उपयोगी वस्तुएं भी बनाने लगे हैं। सामान लाने योग्य जूट की सुन्दर थैलियाँ, बटुए, पानी की बोतल व खाने के डिब्बे हेतु जूट की थैलियाँ, मेजपोश इत्यादि कई वस्तुएं कोलकाता व बंगाल के अन्य स्थानों से खरीद सकते हैं।

जूट की छोटी छोटी थैलियाँ भेंट वस्तु रखने योग्य उपयुक्त होती हैं। इन्हें पुनः पुनः उपयोग में लाया जा सकता है।

पुतुल गुड़िया

पुतुल - माटी की गुडिया - कोलकाता के उपहार
पुतुल – माटी की गुडिया

संस्कृत शब्द पुत्तालिका अर्थात् पुतली का अपभ्रंश शब्द है पुतुल। बंगाल के कलाकार मिट्टी की छोटी छोटी गुड़िया बना कर उसे चटक रंगों से रंगते हैं। सर्वप्रथम मैंने इन्हें बिशनुपुर के एक कलाकार के निवासस्थान में देखा था। यह गुड़ियाएं दबाकर ढलाने की पद्धति से बनाए जाते हैं। कई बार गुडिया के विभिन्न भागों को अलग अलग ढाल कर, तत्पश्चात उन्हें जोड़ा जाता है।

मेरा अनुमान है कि यह गुड़ियाएं, पुतली प्रदर्शन के मनोरंजन हेतु उपयोग में लाये जाते थे। यह छोटे व ले जाने में सुविधाजनक होने के कारण बंगाल की मिट्टी से बनी उत्तम स्मृतिचिन्ह होगी।

भारत को अनेकता में एकता का देश कहा जाता है। क्या किसी और देश में आपको इतनी विभिन्नता, रंग व कला का ऐसा अद्भुत संगम दिखाई देगा?

तो आपकी मनपसंद स्मृतिचिन्ह कौन कौन से हैं।

हिंदी अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post कोलकाता के उपहार – बंगाल के १० सर्वोत्तम स्मृतिचिन्ह appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/best-kolkata-souvenirs-shopping-list/feed/ 2 483
कोलकाता मे बसा अंग्रेजों के ज़माने का कलकत्ता https://inditales.com/hindi/calcutta-kolkata-heritage-walk/ https://inditales.com/hindi/calcutta-kolkata-heritage-walk/#comments Wed, 16 Aug 2017 02:30:35 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=339

कलकत्ता के पुराने इलाकों की सैर करते हुए आप समय के उस दौर में पहुँच जाते हैं, जब कलकत्ता अंग्रेजों का शासनकेंद्र हुआ करता था। तब सभी बड़ी-बड़ी कंपनियों के कार्यालय कलकत्ता में अपने पैर जमा रहे थे और यहां की वास्तुकला भी उपनिवेशियों की शैली में ढलती जा रही थी। इस औपनिवेशिक काल ने […]

The post कोलकाता मे बसा अंग्रेजों के ज़माने का कलकत्ता appeared first on Inditales.

]]>

कलकत्ता की पद यात्रा कलकत्ता के पुराने इलाकों की सैर करते हुए आप समय के उस दौर में पहुँच जाते हैं, जब कलकत्ता अंग्रेजों का शासनकेंद्र हुआ करता था। तब सभी बड़ी-बड़ी कंपनियों के कार्यालय कलकत्ता में अपने पैर जमा रहे थे और यहां की वास्तुकला भी उपनिवेशियों की शैली में ढलती जा रही थी। इस औपनिवेशिक काल ने कोलकाता में बहुत ही मौलिक विरासत पीछे छोड़ी है।

तो आइए आपको औपनिवेशिक दृष्टि से कोलकाता के कुछ महत्वपूर्ण और देखने लायक स्थलों की सैर कराते हैं।

कलकत्ता की विरासत यात्रा करना यानी कलकत्ता के इतिहास के गलियों की सैर करने जैसा है, जिसकी जड़ें भारत में अंग्रेजों के शासन काल से जुडी हैं। वे अंग्रेज़ ही थे जिन्होंने अपनी सुविधा के लिए कलकत्ता शहर का निर्माण किया था और इसके साथ ही उन्होंने पश्चिमी तटीय क्षेत्र पर मुंबई और पूर्वी तटीय क्षेत्र पर मद्रास जैसे शहरों का भी निर्माण किया था।

इस बार जब मैं कोलकाता गयी थी तब मैंने वहां के इतिहास को जानने और समझने का निश्चय किया। मैं कोलकाता के इतिहास के उन पन्नों को समझना चाहती थी जब वह कलकत्ता में परिवर्तित हो रहा था। इस यात्रा पर मेरे गाइड थे श्री रंगन दत्त, जो कोलकाता से भली-भांति परिचित है, जो एक ब्लॉगर भी है और मेरे अच्छे दोस्त भी। उन्होंने बड़ी विनम्रता से मुझे औपनिवेशिक कलकत्ता की पूरी सैर कराई। गर्मियों की कड़कती धूप से बचने के लिए हम सुबह के 6:30 बजे ही अपनी यात्रा पर निकाल चुके थे। और मैं आपको भी यही सलाह दूँगी कि आप भी सूर्य की नर्मी पिघलने से पहले ही अपनी यात्रा शुरू करें, ताकि आपको सूर्य की कड़कती धूप का सामना न करना पड़े। ऐसे में आप कोलकाता की सड़कों पर बढ़ते ट्रेफिक से भी बच सकते हैं।

कोलकाता में स्थित विरासत की इन महत्वपूर्ण जगहों पर जरूर जाना चाहिए।

कलकत्ता की विरासत यात्रा – कोलकाता में घूमने की जगहें 

कलकत्ता की लाल इमारतें
कलकत्ता की लाल इमारतें

कलकत्ता की विरासत यात्रा आप किसी गाइड के बिना स्वयं भी कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल के पर्यटन विभाग द्वारा कोलकाता के धरोहर स्थलों पर स्थित प्रमुख संरचनाओं के आस-पास सूचना पट्ट लगाए गए हैं, ताकि यात्रियों को घूमते समय कोई मुश्किल न हो। ये सूचना पट्ट इन संरचनाओं का संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण इतिहास प्रदान करते हैं और कुछ विशेष स्थलों का उल्लेख भी करते हैं जिन्हें देखे बिना आपकी यात्रा पूरी नहीं होती। ऐसे में अगर आपके साथ कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो 20 सालों से भी अधिक समय के लिए कोलकाता में रहा हो और जिसे यहां का चप्पा-चप्पा मालूम हो, जो यहां की हर बात की जानकारी रखता हो, तब तो आपकी यात्रा और भी मजेदार और उत्सुकतापूर्ण हो जाती है।

तो चलिये मैं आपको अपनी इस इतिहासपूर्ण यात्रा की कुछ झलकियाँ देती हूँ।

एस्प्लेनेड मैनशन 

एस्पलेनैड मेन्शन - कलकत्ता
एस्पलेनैड मेन्शन – कलकत्ता

वैसे तो हम अपनी यात्रा का आरंभ राज भवन से करनेवाले थे, लेकिन इस सुंदर सी सफ़ेद इमारत ने हमे अपनी मंजिल तक पहुँचने से पहली ही बीच में ही रुकने पर मजबूर किया। हम उसकी सुंदरता की प्रशंसा में पूरी तरह डूब चुके थे। इस इमारत के प्रवेश द्वार पर ही एक छोटा सा तख़्ता लगा हुआ था, जिस पर लिखा था – ‘एस्ल्पेनेड मैनशन’। मूलतः एक आवासीय भवन के रूप में निर्मित इस इमारत पर, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमरीकियों ने कब्जा कर लिया था। यह वही इमारत है जहां पर कभी अमरीकी पुस्तकालय हुआ करता था।

एस्प्लेनेड मैनशन यहूदी (जुविष) व्यापारी, एलियास डेविड जोसफ एजरा द्वारा 1910 में बनवाया गया था।

राज भवन  

कोल्कता राज भवन के मुख्या द्वार पर सिंह
कोल्कता राज भवन के मुख्या द्वार पर सिंह

लॉर्ड वेलेसले, 1799 में भारत के गवर्नर जनरल बने थे। उस समय वे चितपुर के नवाब की जमीन पर बने एक बहुत बड़े बंगले में रहते थे। न जाने उन्हें कौनसी बात खटकी और उन्हें अचानक से एहसास हुआ कि भारत महलों और प्रासादों का देश होने के कारण, इस भूमि पर शासन करनेवाले शासक को भी इसी प्रकार के महल से अपना राज्य चलाना चाहिए। इसी बात पर उन्होंने अपने लिए एक खास सरकारी आवास बनवाने का निश्चय किया और यहीं से राज भवन की धारणा जन्म हुआ। हाँ, जिसे हम आज राज भवन कहते हैं उसे पहले सरकारी आवास के रूप में जाना जाता था।

यह भवन वास्तुकार चार्ल्स वायट द्वारा नियोक्लासिकल शैली में बनवाया गया था, जो डर्बिशायर के कर्ज़न परिवार की हवेली से प्रेरित है। और इत्तेफाक तो देखिये कि, 100 साल बाद जब लॉर्ड कर्ज़न भारत के वाइसरॉय के रूप कलकत्ता में पधारे तो वे इसी राज भवन के निवासी थे।

कोल्कता राज भवन
कोल्कता राज भवन

इस राज भवन में कुल 6 प्रवेश द्वार हैं, उत्तर और दक्षिण दिशा में एक एक प्रवेशद्वार और पश्चिम और पूर्वी दिशा में दो दो प्रवेशद्वार हैं। इस आलीशान से भवन की झलक पाने का एकमात्र जरिया यही प्रवेश द्वार हैं। क्योंकि, इन प्रवेश द्वारों के पार जाने की अनुमति किसी को नहीं दी जाती। इस भवन के पूर्वी और पश्चिमी प्रवेश द्वारों पर सिंहचतुर्मुखी संरचना है, जो शायद अशोक स्तंभों पर स्थित सिंहचतुर्मुख से प्रेरित हो सकता है। यह पूरा राज भवन 27 एकड़ की जमीन पर फैला हुआ है, जो लगभग 84,000 स्क्वेर फूट की है। इसके विविध निवासियों ने इसमें अपने अनुसार बहुत से सुधारणिकरण किए हैं, तथा इसमें कुछ नवीन विशेषताएँ भी जोड़ी हैं, जैसे कि, गुबन्द, लिफ्ट इत्यादि।

कोल्कता राज भवन के अस्तबल की साज सज्जा
कोल्कता राज भवन के अस्तबल की साज सज्जा

वैसे तो इस राज भवन के आंतरिक भागों को देखने की अनुमति किसी को नहीं दी जाती। लेकिन मेरे हिसाब से तो इस राज भवन कि सबसे रोचक बात उसके बाहर ही स्थित है, जिसे कोई भी आसानी से देख सकता है। इस भवन के बाहर ही दो पुरानी घुडशालाएँ हैं जो एक-दूसरे के ठीक आमने-सामने हैं। मुझे बताया गया कि अब उन्हें वरिष्ठ आइ.ए.एस. अधिकारियों के आवासों में परिवर्तित किया गया है, जो राज भवन का ही विस्तारित भाग है। इनके अगवाड़े की सीढ़ियाँ जो इमारत के बाहरी तरफ हैं और जो पहले मजले की ओर जाती हैं, सच में तस्वीरें खिचने योग्य थी, जैसे कि उन्हें इसी उद्देश्य से बनाया गया हो। वे अन्य इमारतों की सीढ़ियों से कुछ अलग ही थी।

कोल्कता राज भवन के अस्तबल
कोल्कता राज भवन के अस्तबल

इस घुडशाला के प्रवेश द्वार के ऊपरी भाग पर एक उभड़ा हुआ नक्काशी का काम है, जिसमें एक आदमी दो घोड़ों की लगाम को संभाले हुए है।

स्टैण्डर्ड लाइफ अस्युरंश कंपनी की इमारत 

स्टैण्डर्ड लाइफ अस्सुरंस कम्पनी की लाल ईमारत - कोल्कता
स्टैण्डर्ड लाइफ अस्सुरंस कम्पनी की लाल ईमारत – कोल्कता

कलकत्ता की विरासत यात्रा के दौरान मिली अनेक लाल इमारतों में से यह लाल इमारत हमने सबसे पहले देखी थी। ऐसा लगता है औपनिवेशिक कलकत्ता में बीमा कंपनियाँ बहुत अच्छा व्यवसाय कर रही थी। इन उपनिवेशियों द्वारा निर्मित इन विराट इमारतों को देखकर कोई भी बिना किसी हिचकिचाहट के यह अंदाज़ा लगा सकता है कि, उनके पास अपार निधि भी थी और कर्मचारी वर्ग भी जो इन इमारतों को खड़ा कर सके और जो इन इमारतों में निवास कर सके। वास्तव में, लाल दीघी के चारों ओर फैली इमारतों में से यह इमारत सबसे बेहतरीन है। इसके उत्तर पूर्वीय कोने के ऊपर पंच रत्न शैली में बने समूहिक गुबन्द की संरचना है जो इस इमारत की शोभा को बढ़ाते हुए शान से खड़ी है। थोड़ा नजदीक से देखने पर आपको वहां के मेहराबों के ऊपरी भाग पर प्लास्टर की सुंदर और महीन कारीगरी नज़र आती है। यद्यपि इस चित्रकारी को समझने के लिए आपको ईसाई कथाओं और मूर्तिविज्ञान की जानकारी होना आवश्यक है।

कलकत्ता की स्टैण्डर्ड लाइफ अस्युरंश कंपनी की इमारत के वास्तुकार फ्रेडेरिक डब्ल्यू स्टीवन्स ने बंबई के विक्टोरिया टर्मिनस का खाका भी तैयार किया था।

स्टैण्डर्ड लाइफ अस्युरंश कंपनी के मूल एडीनबर्ग में पाये जाते हैं। अंग्रेजों के उपनिवेशों में लोगों को बीमा प्रदान करनेवाले अग्रदूत वे ही थे। कलकत्ता में स्थित यह कार्यालय उनका मुख्यालय है, तथा बंबई में भी उनका एक कार्यालय है।

डैड लेटर ऑफिस

डेड लैटर ऑफिस - कोल्कता
डेड लैटर ऑफिस – कोल्कता

लाल और सफ़ेद रंगों में सजी यह खूबसूरत सी इमारत अपने उत्तर पूर्वीय कोने के उपर स्थित लंबे से मीनार के साथ बहुत ही आकर्षक लगती है। यह पुराने जमाने का टेलीग्राफ कार्यालय हुआ करता था। बंगाल के सभी आवक पत्र यहीं पर छाँटे जाते थे। इसका यही अर्थ हुआ कि जो पत्र अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच पाते थे, वे यहीं पर रह जाते थे, जिसके चलते इस भवन का नाम डैड लेटर ऑफिस पड़ गया। यह इमारत आज भी भारतीय डाक विभाग द्वारा इस्तेमाल होती है, यद्यपि कलकत्ता का मुख्य डाकघर इस कार्यालय से कुछ ही समय की दूरी पर स्थित है।

यहां पर पड़े इन अप्राप्य पत्रों के बारे में सोचकर मुझे आश्चर्य हुआ कि न जाने वे उन सारे पुराने पत्रों का क्या करते होंगे। मुझे तो लगता है कि शायद उन सारे पत्रों में बहुत सारा इतिहास वैसा ही कैद पड़ा होगा।

डल्हौज़ी चौक के दक्षिण पूर्वीय कोने में स्थित यह इमारत 1873 – 76 के बीच में बनवाई गयी थी।

लाल दीघी – कलकत्ता की विरासत यात्रा का केंद्र   

लाल दीघी - डलहौज़ी स्क्वायर - बी बी दी बाग़ - कोल्कता
लाल दीघी – डलहौज़ी स्क्वायर – बी बी दी बाग़ – कोल्कता

यह छोटा सा आयताकार जलाशय औपनिवेशिक कोलकाता के केंद्र में बसा हुआ है और इसलिए हमारी कलकत्ता की विरासत यात्रा का भी केंद्रीय स्थल है। इस स्थान को मूलतः लाल दीघी ही कहा जाता था। कहते हैं कि, दोल उत्सव के समय इस जलाशय का पानी लाल रंग में बादल जाता था जिसके कारण उसे यह नाम दिया गया था। और इत्तेफाक की बात तो यह है, कि आज इस जलाशय के चारों ओर जितनी भी इमारतें खड़ी हैं, सभी लाल रंग की ही हैं। बाद में 1848-56 तक जब लॉर्ड डल्हौज़ी भारत पर शासन कर रहे थे, तब इसे डल्हौज़ी चौक के नाम से जाना जाता था। और स्वतंत्रता के पश्चात यह बी.बी.डी. बाग के नाम से जाना जाने लगा, जब तीन भारतीय राष्ट्रवादियों ने देश के लिए इसी स्थान के आस-पास अपन जीवन समर्पित किया था।

अगर आपके पास ज्यादा समय नहीं है तो आप लाल दीघी का बस एक चक्कर लेते हुए कलकत्ता की सबसे अच्छी औपनिवेशिक इमारतें देख सकते हैं।

सेंट एंड्रूस चर्च 

सेंट एंड्रूस चर्च - कलकत्ता की सबसे पुरानी चर्च
सेंट एंड्रूस चर्च – कलकत्ता की सबसे पुरानी चर्च

यह साधारण सी दिखनेवाली सफ़ेद चर्च जिसके उपर एक लंबी सी शिखर है कोलकाता की सबसे पहली और एकमात्र स्कॉटिश चर्च है। 1818 में इसका निर्माण हुआ था। मैंने कहीं पर पढ़ा था कि, यद्यपि अग्रेज़ों ने कलकत्ता में अपना शासन कायम किया हो, लेकिन वे स्कॉटिश ही थे जिन्होंने कलकत्ता में काफी व्यापार घरों का निर्माण किया था।

राइटर्स बिल्डिंग   

राइटर्स बिल्डिंग - कोल्कता
राइटर्स बिल्डिंग – कोल्कता

राइटर्स बिल्डिंग कोलकाता के बी.बी.डी. बाग के क्षेत्र में सबसे मशहूर भवन है। गहरे लाल रंग की ये इमारत लाल दीघी के पूरे उत्तरी छोर को व्याप्त किए हुए है। इस इमारत के पास ही एक खूबसूरत सा बगीचा है जो कलकत्ता की विरासत यात्रा का सबसे सुखमय हिस्सा है।

राइटर्स बिल्डिंग एक समय पर ईस्ट इंडिया कंपनी के लिपिक और प्रशासकीय कर्मचारियों का कार्यालय हुआ करती थी। लेकिन अब वह पश्चिम बंगाल के राज्य सचिवालय में परिवर्तित हो गयी है। इन भवन का निर्माण 1777 में हुआ था। और तब से लेकर आज तक यहां के निवासियों द्वारा इस इमारत में बहुत कुछ नया जोड़ा गया है।

इस भवन की मुख्य इमारत पर भारत का सिंहचतुर्मुख वाला राज्य प्रतीक देखा जा सकता है, जो स्वर्णिम रंग का है। इसी के ऊपर ग्रीक देवी मिनेर्वा की मूर्ति स्थित है। इसके अलावा यहां पर और भी मूर्तियाँ हैं लेकिन जब तक कोई आपको उनके बारे में न बताए उन्हें ढूंढ पाना थोड़ा कठिन है।

राष्ट्रवादी बिनोय बासू, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता की तिगड़ी
राष्ट्रवादी बिनोय बासू, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता की तिगड़ी

दिसम्बर 1930 में राष्ट्रवादी बिनोय बासू, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता की इस तिगड़ी ने राइटर्स बिल्डिंग पर हमला किया था। इस कांड में उन्होंने भले ही पुलिस इंस्पेक्टर जनरल कॉल सिम्पसन को मार दिया था, लेकिन इसके दौरान उन तीनों की भी मौत हो गयी थी। उन तीनों राष्ट्रवादियों की स्मृति में राइटर्स बिल्डिंग के ठीक सामने वाले बगीचे उनकी मूर्तियाँ बनवाई गयी हैं।

राइटर्स बिल्डिंग के चारों ओर फैले सुरक्षा कर्मी आपको इस भवन की तस्वीरें खीचने की अनुमति नहीं देते। इसलिए इन सुरक्षा कर्मियों से हमारा सामना होने से पहले ही मैं दूर से ही इस भवन की कुछ तस्वीरें खीच ली थी। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि उन्होंने मुझे पश्चिम बंगाल के पर्यटन संबंधी सूचनाफलक की तस्वीर लेने से भी मना कर दिया।

राइटर्स बिल्डिंग के विस्तृत इतिहास की जानकारी के लिए टेलीग्राफ में लिखे गए पोस्ट को जरूर पढ़िये।

कलेक्ट्रेट भवन कलकत्ता 

कलेक्ट्रेट भवन कलकत्ता
कलेक्ट्रेट भवन कलकत्ता

कलेक्ट्रेट भवन यहां की और एक सुंदर ईमारत है जो लाल रंग में सजी है। इस भवन की बहुत अच्छे से देखरेख की गयी है। 1890 में निर्मित यह इमारत इस क्षेत्र की अन्य इमातों की तुलना में काफी बाद में बनवाई गयी थी। इस कलेक्ट्रेट भवन को बनवाने के लिए यहां पर स्थित प्राचीन कस्टम भवन की इमारत को तोडा गया था। यह कलेक्ट्रेट भवन अब कोलकाता के अधिकारी विभाग के कमिशनर के कार्यालय में परिवर्तित किया गया है। इस भवन का अधिकतम भाग एक विशाल से पेड़ के पीछे छुपा होने के कारण आप इसके मशहूर अलंकरण को ठीक से नहीं देख पाते।

मैंने कलकत्ता की बहुत सी इमारतों के बारे में सुना था लेकिन कलकत्ता की विरासत से जुड़ा यह भवन मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था।

जनरल पोस्ट ऑफिस, कोलकाता 

ऐसा था कलकत्ता का डाक घर
ऐसा था कलकत्ता का डाक घर

कोलकाता का जनरल पोस्ट ऑफिस लाल दीघी का एकमात्र ऐसा भवन है, जो अपने प्रज्वलित शुभ्र रंग से देखनेवालों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तथा इसके ऊपर स्थित विशाल गुबन्द आपकी नज़र को अपनी ओर खीचे बिना नहीं रह सकता।

कलकत्ता जी पी ओ पे लगा एक सूचना पट
कलकत्ता जी पी ओ पे लगा एक सूचना पट

आज यह पोस्ट ऑफिस जिस स्थान पर खड़ा है, वहां पर 18वी शताब्दी के प्रारंभिक काल के दौरान फोर्ट विलियम बसा हुआ था। लेकिन 1756 में सिराज-उद-दौला ने उस पर कब्जा कर लिया और 1868 के आस-पास यहां पर जनरल पोस्ट ऑफिस का निर्माण हुआ। इस भवन की सीढ़ियों पर लगी पीतल की पट्टी आज भी उस प्राचीन किले के अस्तित्व की निशानियों को बयां करती है।

काल कोठरी या ब्लैक होल, कलकत्ता  

कलकत्ता ब्लैक होल की संभावित जगह
कलकत्ता ब्लैक होल की संभावित जगह

कलकत्ता की काल कोठरी एक जगह भी है और एक ऐतिहासिक घटना भी। यह काल कोठरी एक छोटा सा कमरा है जो कभी सैन्य जेल हुआ करती थी। इस जगह पर 20 जून 1756 को सिराज-उद-दौला के आक्रमण के दौरान 146 लोगों को बंदी बनाकर रखा गया था। इन में से 123 लोग अगली सुबह तक घुटन के मारे मर चुके थे। इन्हीं मृत लोगों की स्मृति में इस जेल के ठीक बाहर ही एक स्मारक बनवाया गया था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्मारक यानी जनरल पोस्ट ऑफिस और कलकत्ता कलेक्ट्रेट भवन के बीच का छोटा सा अंतर है। यह जगह 146 लोगों के हिसाब से बहुत ही छोटी है, लेकिन इसके साथ ही वहां पर बंद लोगों की संख्या पर भी थोड़ी आशंका जतायी जाती है। 1901 में लॉर्ड कर्ज़न ने इसी स्थान पर एक और स्मारक बनवाया था जिसे बाद में सेंट जॉन्स चर्च के परिसर में स्थानांतरित किया गया था, जो यहां से ज्यादा दूर नहीं है। यहां के आधे लोगों का मानना है कि यह घटना कभी घटित ही नहीं हुई थी, तो आधे लोग मानते हैं कि यह सब कुछ सच में घटित हुआ था।

इसी घटना के कारण ‘कोलकाता की काल कोठरी’ मुहावरे का निर्माण हुआ होगा। जिसका अर्थ है वह भीड़ भरी जगह जहां पर सांस लेना बहुत मुश्किल हो।

कलकत्ता की विरासत यात्रा के दौरान सीखा गया यह नया यात्रा वाक्यांश था।

कलकत्ता की काली कोठरी के बारे में विस्तृत जानकारी पाने के लिए दीपंजन के बोल्ग पोस्ट को जरूर पढ़िये।

रॉयल इंश्योरेंस बिल्डिंग  

रॉयल इन्शुरन्स बिल्डिंग - कोल्कता
रॉयल इन्शुरन्स बिल्डिंग – कोल्कता

जनरल पोस्ट ऑफिस के पास ही रॉयल इंश्योरेंस की खूबसूरत सी इमारत खड़ी है जो 1905 में बनवायी गयी थी। इस भवन का रूप-आकार आपको स्वतंत्रता के पूर्व की बीमा कंपनियों के वैभव के बारे में बताते हैं। यह उस समय की बात है जब भारतवासियों को बीमा करने की अनुमति भी नहीं दी जाती थी।

वॉलेस हाउस  

वॉलेस हाउस - कोल्कता
वॉलेस हाउस – कोल्कता

यह भवन पहले स्कॉटिश कंपनी शॉ वॉलेस का कार्यालय हुआ करता था, जो हाल ही में यूनाइटेड ब्रुवरीज (यू.बी. ग्रुप) द्वारा अधिग्रहित किया गया है।

मेटकैफ हॉल 

मेटकैफ हॉल - कोल्कता
मेटकैफ हॉल – कोल्कता

इस भवन को बनाने की प्रेरणा एथेंस के ‘टावर ऑफ द विंड्स’ से प्राप्त की गयी थी। इस इमारत के लंबे-लंबे खंबे बहुत ही आकर्षक लगते हैं। 1840-42 के बीच में  निर्मित इस भवन में कलकत्ता की इंपीरियल लाइब्ररी हुआ करती थी, जो बाद में भारत की नेशनल लाइब्ररी बन गयी। आज यहां पर ‘एशिएटिक सोसाइटी’ की लाइब्ररी भी अपना स्थान ग्रहण कर चुकी है।

लाल दीघी की अन्य इमारतों की तुलना में यह ऊंचा सफ़ेद भवन अपनी हरी खिड़कियों के साथ अपना एक अलग ही रूप प्रदर्शित करती है जो अत्यंत सुंदर है।

हावड़ा ब्रिज - कोल्कता
हावड़ा ब्रिज – कोल्कता

यहां से निकलकर हम कुछ समय के लिए विश्राम करने हेतु हूगली नदी पर बसे फ्लोटेल होटल गए जो वास्तव में पानी पर तैरता हुआ सा नज़र आता है। इसका डेक जो परिदृश्य दर्शन के लिए बनवाया गया है, कोलकाता के दो मशहूर पुल – दाईं ओर हावड़ा ब्रिज और बाईं ओर विद्यासागर सेतु, के ठीक बीच में बसा हुआ है। इस डेक पर खड़े होकर हम इन दोनों पूलों और हमारे सामने से गुजरती हुई नावों की प्रशंसा कर रहे थे। हमारे ठीक पीछे स्टेट बैंक की इमारत थी जो कलकत्ता की विरासत का ही भाग है।

कलकत्ता हाइ कोर्ट 

कोल्कता उच्च न्यायालय
कोल्कता उच्च न्यायालय

कलकत्ता का हाइ कोर्ट 1862 से चलता आ रहा है, जो देश का सबसे पुराना कोर्ट है। 1911 में भारत की राजधानी दिल्ली में स्थानांतरित होने से पहले यह भारत का सूप्रीम कोर्ट हुआ करता था। पश्चिम बंगाल के पर्यटन बोर्ड के अनुसार निओ-गोथिक शैली में बनवायी गयी इस इमारत पर ऑक्सफोर्ड महाविद्यालयों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह इमारत 1872 में बनवायी गयी थी।

कोल्कता उच्च न्यायलय के सामने का फव्वारा
कोल्कता उच्च न्यायलय के सामने का फव्वारा

हाइ कोर्ट की इमारत के ठीक सामने ही एक बहुत ही आकर्षक सिंह मुखी फव्वारा है जिस पर दो तारीखें लिखी हुई हैं, 1850 और 1886। यह फव्वारा विलियम फ्रेजर मैकडोनेल की स्मृति में बनवाया गया था। कलकत्ता की विरासत यात्रा का यह अदृश्य मणि था जो एक अनूठी खीज थी।

इसके बारे में अगर आपको और जानकारी पानी हो, तो आपको रंगन दत्त का ब्लॉग पढ़ सकते हैं।

टाउन हॉल

कोल्कता टाउन हॉल
कोल्कता टाउन हॉल

टाउन हॉल एक सार्वजनिक भवन है जो 1814 में बनवाया गाया था। यह सभागृह सार्वजनिक समारोह आयोजित करने हेतु बनवाया गया था। लेकिन अब कोलकाता व्यापारसंघ द्वारा इसकी देखरेख होती है, और अब यहां पर चित्रकला के प्रदर्शन आयोजित किए जाते हैं।

शायद अंग्रेजों ने हर जगह पर टाउन हॉल की इमारतों के लिए एक ही प्रकार की शैली अपनायी थी। क्योंकि, उनके द्वारा निर्मित सभी टाउन हॉल एक समान लगते है। और अगर इस ब्लॉग में उल्लेखित सारी इमारतों में से हमे टाउन हॉल पहचानने के लिए कहा गया होता तो हम आसानी से बता देते कि अमुक इमारत टाउन हॉल है।

सेंट जॉन्स चर्च 

सेंट जॉन्स चर्च - कोल्कता में लास्ट सप्पर
सेंट जॉन्स चर्च – कोल्कता में लास्ट सप्पर

1787 में निर्मित सेंट जॉन्स चर्च कलकत्ता या कोलकाता की तीसरी पुरानी चर्च है। स्थानीय लोग इसे ‘पत्थर गिरजा’ बुलाते हैं क्योंकि, उस काल के दौरान पत्थर से बनवायी गयी इमारतों में से यह एक है। सेंट जॉन्स चर्च में ‘लास्ट सप्पर’ का एक चित्र है जो लियोनार्ड के चित्र से थोड़ा मिलता-झूलता है, लेकिन इसमें आप भारतीयता को महसूस कर सकते हैं। यह चित्र इस चर्च की अनेक विशेषताओं में से एक है।

इसके अलावा आपको यहां पर काली कोठरी के बनाए गए स्मारक को जरूर देखना चाहिए जिसका उल्लेख मैं पहले भी कर चुकी हूँ।

एक दिन के लिए इतना सारा इतिहास बहुत था। हमारी यात्रा वास्तव में 2 घंटों में पूरी होनी चाहिए थी, लेकिन हमने उसे 4-5 घंटों के लिए खीच दिया।

कलकत्ता की विरासत यात्रा को सफल बनाने में मेरी सहायता आय.टी.सी. सोनार के कंसीयज ने की थी, जो कोलकाता में मेरे मेजबान थे। उनके पास कोलकाता से जुड़े ऐसे बहुत से अनुभव हैं, और वे अपने अतिथियों के लिए भी ऐसी यात्राओं का आयोजन जरूर करते हैं।

अनुवादक – रूनिता नायक

The post कोलकाता मे बसा अंग्रेजों के ज़माने का कलकत्ता appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/calcutta-kolkata-heritage-walk/feed/ 4 339
दार्जिलिंग हिमालय रेलवे – एक जीता जागता स्वप्न https://inditales.com/hindi/darjeeling-himalaya-rail-world-heritage/ https://inditales.com/hindi/darjeeling-himalaya-rail-world-heritage/#comments Wed, 03 May 2017 02:30:11 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=232

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे, भारत की उन ३ पर्वतीय रेल सेवाओं में से एक है जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित किया है। दार्जिलिंग हिमालय रेल की दार्जिलिंग से घूम की यात्रा, भारत के इस पर्वतीय रेल की प्रारम्भिक दिनों की हमारी कल्पना साकार करती है। इस रेल का पुराना कोयले वाला इंजन अभी भी इस […]

The post दार्जिलिंग हिमालय रेलवे – एक जीता जागता स्वप्न appeared first on Inditales.

]]>
दार्जीलिंग हिमालय रेल - वाष्प इंजन
दार्जीलिंग हिमालय रेल – वाष्प इंजन

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे, भारत की उन ३ पर्वतीय रेल सेवाओं में से एक है जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित किया है। दार्जिलिंग हिमालय रेल की दार्जिलिंग से घूम की यात्रा, भारत के इस पर्वतीय रेल की प्रारम्भिक दिनों की हमारी कल्पना साकार करती है। इस रेल का पुराना कोयले वाला इंजन अभी भी इस रेल को खींचने में बहुत हद तक सक्षम है। दुर्गम मार्ग पर सहायता के लिए एक डीजल इंजन भी इसके पीछे लगाया जाता है। घूम स्टेशन पर स्थित संग्रहालय अपने विभिन्न रेलवे कलाकृतियों द्वारा पर्यटकों का अपने इतिहास से परिचय कराता है।

कई दिनों से दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का रोमांचक अनुभव प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी। दरअसल रेल यात्राएं मुझे हमेशा से रोमांचित करतीं हैं। बचपन में मैंने अपने माता पिता के साथ भारत भ्रमण हेतु अनेक रेल यात्राएं की थीं। हालांकि समय की कमी के रहते मेरी रेल यात्रा अब पहले से बहुत कम हो गयी हैं। फिर भी रेल यात्रायें मेरी यादों का एक अहम् हिस्सा जरूर बन गईं हैं। भारत में रेल, परिवहन का एक महत्वपूर्ण साधन है। साथ ही साथ भारत में ऐसी रेलें भी हैं जो राजसी ठाटबाट से भरपूर यात्रा का आनंद देतीं है और कुछ ऐसी जो आपको अतीत के वाष्प इंजन की दुनिया में ले जाती हैं। कुछ वर्षों पूर्व मुझे डेक्कन ओडिसी रेल में ७ दिनों तक राजसी ठाटबाट से यात्रा का आनंद उठाने का सुअवसर मिला था। इस बार मुझे दार्जिलिंग हिमालय रेलवे में मजा व मस्तीभरी सवारी का अवसर मिला।

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे- यूनेस्को विश्व विरासत

दार्जीलिंग हिमालय रेल - यूनेस्को विश्व धरोहर
दार्जीलिंग हिमालय रेल – यूनेस्को विश्व धरोहर

इस बार मेरी दार्जिलिंग यात्रा का मुख्य उद्देश्य दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का अनुभव प्राप्त करना था। भारत की अन्य २ पर्वतीय रेल सेवाओं, शिमला-कालका रेल व नीलगिरी पर्वतीय रेल की तरह, दार्जिलिंग हिमालय रेल भी यूनेस्को विश्व विरासत स्षित हुआ है। इनकी दिलचस्प विशेषतायें यह है कि तीनों विश्व विरासत रेलवे सेवायें अभी भी सुचारू रूप से कार्यान्वत है और देश के ३ कोनों में स्थित हैं। जहाँ दार्जिलिंग हिमालय रेल और शिमला-कालका रेल दोनों हिमालय पर्वतों से होकर गुजरती है वहीं ऊटी रेल नीलगिरी पर्वतों से गुजरती है। मैं, नीलगिरी रेल व शिमला-कालका रेल, दोनों की यात्रा का आनंद उठा चुकी हूँ। हालांकि मैंने उन दिनों अपने यात्रा संस्मरण लिखना आरम्भ नहीं किया था। परन्तु दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का अवसर मेरे हाथों से बच कर निकल जाता था। पिछली बार मेरी भूटान व सिक्किम यात्रा के दौरान मैंने यह अवसर गंवाया था। बेहद अफसोस हुआ कि मै इसके बगल से होकर निकल गयी थी।

गाँधी जी - दार्जीलिंग हिमालय रेल पर
गाँधी जी – दार्जीलिंग हिमालय रेल पर

कुछ समय पूर्व मैं भारतीय पर्वतीय रेल के बारे में यूनेस्को वेबसाइट से जानकारी हासिल कर रही थी। यह, भारत के तीनों पर्वतीय रेल सेवाओं के विश्व विरासत स्थल चुने जाने के कारण भी बताती है। इनमें से दो मुख्य कारण हैं-

अभियांत्रिकी उत्कृष्टता

दार्जिलिंग से घूम तक की रेल यात्रा में बतासिया का मोड़ देख कर इस पर्वतीय दार्जीलिंग हिमालय रेल सुविधा की अभियांत्रिकी उत्कृष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस मार्ग में रेल पहाड़ों पर भी चढ़ती है। कहीं कहीं चढ़ाव इतना अधिक है कि इंजन रेल को ऊपर खींचने में असमर्थ होती है। इसलिए इस रेल सेवा के निर्माण में रत अभियंताओं ने एक अनोखे तकनीक के तहत, घुमावदार व टेढ़ी मेढ़ी रेल की पटरियों का इस्तेमाल कर पटरियों की लम्बाई बढ़ाई ताकि चढ़ाई धीरे धीरे बढ़े| इससे रेल यात्रा भी आरामदायी व सुखद होती है। इसे देख हमारे पूर्वजों की तकनीकी प्रतिभा को सलाम कहने को जी चाहता है।

सामाजिक आर्थिक जीवन पर प्रभाव

पर्वतीय रेल सेवाएं, पर्वतीय क्षेत्रों को मुख्य धारा से जोड़ने में अहम् भूमिका निभातीं हैं। यह, पहाड़ी व मैदानी इलाकों के बीच की यात्रा को सुविधाजनक और सुखदायी बनातीं हैं, साथ ही वहाँ के वासिओं के संस्कृति आदान प्रदान में भी सहायक होतीं हैं। दोनों तरफ भौतिक वस्तुओं का आदान प्रदान कर आर्थिक लेन देन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं हैं। नतीजतन, कुछ समय पश्चात दोनों इलाके एक दूसरे पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं और धीरे धीरे एक दूसरे का अभिन्न अंग बन जातें हैं।

दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा

दार्जिलिंग हिमालय रेलवेदार्जिलिंग में प्रवेश करते ही मुझे दार्जिलिंग स्टेशन व वहां खड़ी वाष्प इंजन की पहली झलक मिली। अगले दिन, कोई और भ्रमण योजना न बनाते हुए, सिर्फ इस विरासती पर्वतीय रेल व इसके साथी, दार्जिलिंग और घूम स्टेशनों के दर्शन का निश्चय किया। चूंकि हमने इस रेल यात्रा की टिकट पहले से आरक्षित नहीं करायी थे, हम पर्याप्त समय हाथों में ले कर स्टेशन पहुंचे क्योंकि हम किसी भी शर्त पर रेल छूटने का खतरा मोल नहीं ले सकते थे। हालांकि हमारा होटल प्रतिनिधि हमें निरंतर धाडस बंधा रहा था कि हमें टिकट आसानी से मिल जायेगी क्योंकि ज्यादा पर्यटक नहीं आयें हैं। हमें टिकट तो मिल गयी परन्तु साथ ही हमें यह भी ज्ञात हुआ कि मजेदार यात्रा प्रदान करती यह छोटी रेल हमेशा ही भरी हुई चलती है। कई सालों बाद मैंने रेलवे आरक्षण फार्म भरा। मुझे मिली पुट्ठे की छोटी सी टिकट ने मेरी बचपन की यादें ताज़ा कर दीं। मेरे रोमांच और आनंद की शुरुआत यहीं से हो गयी थी।

“दार्जिलिंग हिमालय रेलवे में, १८८१ में हुए स्थापना के पश्चात, बहुत कम बदलाव किया गया है।”

पहाड़ों को छू कर जाती दार्जीलिंग हिमालय रेल
पहाड़ों को छू कर जाती दार्जीलिंग हिमालय रेल

मुझे वाष्प इंजन चलित रेल की सवारी का बहुत इंतज़ार था। परन्तु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि वाष्प इंजन के पीछे पीछे ही डीजल इंजन वाली गाडी भी चलती है। इस रेल यात्रा के दौरान, घुमावदार मोड़ों पर मैं अपनी ही रेल के इंजन को पटरी पर दौड़ते देख सकती थी। इस छोटी सी वाष्प इंजन को पटरी पर दौड़ते देखने का आनंद मैं शब्दों में नहीं बांध सकती इसलिए इन अविस्मरणीय व खूबसूरत दृश्यों को छोटी छोटी चलचित्रों में कैद कर लिया। यह और बात है कि वाष्प इंजन से निकला हुआ धुआं और कालिख इस अविस्मरणीय यात्रा पर अपनी छाप छोड़ने से नहीं चूक रहा था।

“इस रेल की यात्रा का आनंद उठाने वाले जानी मानी हस्तियों में महात्मा गांधी और मार्क ट्वेन का भी समावेश है।”

वाष्प इंजन - आयरन शेरपा
वाष्प इंजन – आयरन शेरपा

जब हम इस रेल का, पिछली यात्रा से वापिस लौटने का इंतजार कर रहे थे, लोकोशेड में तैयार होते वाष्प इंजन पर मेरी नजर पड़ी और उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह पायी। पर्यटक, जिनमें ज्यादातर विदेशी नागरिक सम्मलित थे, धीरे धीरे स्टेशन पर इकट्ठे होने लगे। स्टेशन स्वयं भी एक विरासत इमारत है। उस पर लगे “पर्चे ना चिपकाएँ” चिन्ह भी इस बात का संकेत है। चूंकि रेल अभी पहुंची नही थी, मैंने स्टेशन के बारे में और जानने की चेष्टा की व कई तस्वीरें भी खींचीं। यहाँ कुछ ऐसी तस्वीरें भी लगीं हुईं हैं जो १८८१ में स्थापित इस स्टेशन व रेल का, उस समय का, नजारा दिखा रहीं हैं। मैंने उस वक्त की रेल व स्टेशन की कल्पना करने की असफल चेष्टा की। आज के इस भीड़ भरे स्टेशन में खड़े होकर ऐसा करना मेरे लिए असंभव हो रहा था।

सड़कों पे दार्जीलिंग हिमालय रेल
सड़कों पे दार्जीलिंग हिमालय रेल

इस रेल की पटरियां बहुधा सड़क पर से गुजरतीं हैं और कई बार घरों, दुकानों व इमारतों के बहुत करीब आतीं हैं। रेल के अन्दर प्रवेश करने से पहले तक मुझे शंका थी कि इन घरों व इमारतों को छुए बिना, यह रेल यात्रा कैसे संभव है। तथापि रेल के अन्दर प्रवेश करते से ही इसके संकरेपन का अहसास सबसे पहले आप को झकझोर देता है।

“ यह एक आश्चर्यजनक घटना है कि १३५ साल पुराना यह दार्जिलिंग हिमालय रेल अभी भी कार्य सक्षम है और लोगों की सेवा में रत है।”

वाष्प इंजन

घूम स्टेशन पर वाष्प इंजन
घूम स्टेशन पर वाष्प इंजन

जैसे ही वाष्प इंजन ने स्टेशन में प्रवेश किया, सबकी आँखें फटी की फटी रह गईं। जैसे जैसे इंजन अन्दर प्रवेश कर रहा था, आस पास की सारी कायनात हमारे जहन से अस्तित्वहीन होने लगी। ऐसा अहसास हुआ जैसे आने वाले २-३ घंटे में हम एक युग जीने वाले हों। नीले रंग के इंजन के ऊपर “आयरन शेरपा” अर्थात लोह शेरपा गुदा हुआ था। एक छोटा लाल रंग का फलक रेल का क्रमांक ८०५ दर्शा रहा था। जैसे ही वाष्प इंजन चालित छोटी रेल आगे सरकी, हम अपने डीजल इंजन चलित डिब्बे में प्रवेश किये। डिब्बा अन्दर से बहुत छोटा व खचाखच भरा हुआ था। रेल के कुल ३ डिब्बे थे और प्रत्येक में २८ यात्री सवारी कर सकते थे। २ फीट की पटरी के ऊपर चलती रेल के अन्दर इससे ज्यादा जगह की उम्मीद कैसे की जा सकती है? धीरे धीरे रेल स्टेशन से बाहर सरकी और हमारी उन्मादपूर्ण व रोमांचक यात्रा की शुरुआत हुई। चूंकि यह रेल की पटरी सड़क पर चलती, कई बार सड़क पार करती है, हमने कई बार सड़क यातायात को अपने खातिर रोका।

दार्जीलिंग हिमालयन रेल के अन्दर
दार्जीलिंग हिमालयन रेल के अन्दर

कई बार घरों व दुकानों के सामने खड़े लोगों को हमने पीछे धकेला व रेल गुजरने की जगह बनायी। एक तरफ रस्ते भर बच्चे हाथ हिला हिला कर हमारा अभिनन्दन कर रहे थे तो दूसरी तरफ दुकानदार, खरीददार व अन्य लोग हमारे जाने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि वे अपने अपने कार्य पर जल्द वापिस लौट सकें।

शहर को धकेलती हुई गुज़रती दार्जिलिंग हिमालय रेल
शहर को धकेलती हुई गुज़रती दार्जिलिंग हिमालय रेल

रेल पटरी के एक बाजू घाटी थी तो दूसरी तरफ सम्पूर्ण दार्जिलिंग शहर। कभी कभी शहर हमारे अत्यंत करीब आ कर हमें बैचैन कर देता था तब हम दूसरी तरफ घाटी का सुन्दर नजारा देख सुकून पाते।

बतासिया लूप अर्थात् बतासिया का घेरा

दार्जीलिंग एवं घूम के बीच - बतासिया लूप
दार्जीलिंग एवं घूम के बीच – बतासिया लूप

बतासिया घेरे पर रेल करीब १० से १५ मिनट तक रुकती है। यह घेरा रेलवे अभियंताओं ने इसलिए बनाया ताकि यह रेल पहाड़ की तीव्र चढ़ाई को सरलता से पार कर सके। पहले रेल रेलवे पुल के नीचे से होकर गुजरती है और फिर घूम कर उसी पुल के ऊपर से जाती है। यह एक मजेदार दृश्य होता है। इस घेरे के भीतर एक शहीद स्मारक है जो विभिन्न युद्धों में शहादत पाने वाले गोरखा सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। इस शहीद स्मारक के चारों ओर सुन्दर बगीचा बना है।

दार्जिलिंग में फिल्माई हिंदी फ़िल्में
दार्जिलिंग में फिल्माई हिंदी फ़िल्में

बतासिया घेरा हिमालय की कंचनजंगा पर्वतमाला के अवलोकन हेतु सर्वोत्तम स्थान है, बशर्ते आसमान साफ़ हो।

यहाँ लगे एक सूचना फलक पर उन सभी भारतीय व विदेशी चलचित्रों की तस्वीरें लगीं हैं जिनके कई दृश्य दार्जिलिंग पर्वतीय रेल पर चित्रित किये गए हैं।

दार्जिलिंग स्टेशन

दार्जीलिंग स्टेशन के पुरानी तस्वीर
दार्जीलिंग स्टेशन के पुरानी तस्वीर

दार्जिलिंग स्टेशन भी उतना ही पुराना है जितना यह दार्जिलिंग पर्वतीय रेल परन्तु स्टेशन के मौलिक स्वरुप में समय के साथ बहुत बदलाव आया है। एक सूचना फलक पर इस रेल स्टेशन की अनेक तस्वीरें लगीं हैं जो समय के साथ इसमें आये बदलाव की कहानी कहतीं हैं।

दार्जिलिंग हिमालय रेल का नक्शा
दार्जिलिंग हिमालय रेल का नक्शा

श्वेत श्याम तस्वीरों में दिखता पुराने जमाने का स्टेशन वर्त्तमान स्वरुप से अपेक्षाकृत अधिक खूबसूरत है।

आज का दार्जिलिंग स्टेशन
आज का दार्जिलिंग स्टेशन

एक और फलक पर दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का दार्जिलिंग से न्यू जलपाईगुड़ी तक का विस्तृत मार्ग बनाया है जो सभी स्टेशनों के नाम, ऊंचाई व सिलीगुड़ी से दूरी दर्शाता है। संयोग से दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का मुख्यालय, दार्जिलिंग या सिलीगुड़ी में ना होकर, कर्सियांग में है।

घूम स्टेशन

घूम स्टेशन
घूम स्टेशन

घूम स्टेशन, दार्जिलिंग छोटी रेल का एक गंतव्य स्टेशन है। यहाँ रेल ३० मिनट रूकती है ताकि यात्री घूम स्टेशन व यहाँ स्थित एक संग्रहालय भी देख सकें। यह स्टेशन भी एक विरासती इमारत है। इसके पहिले मंजिल पर डी एच आर अर्थात् दार्जिलिंग हिमालय रेलवे संग्रहालय है। चटक पीले व लाल रंग में रंगे इस स्टेशन पर भी हिंदी चलचित्रों के कई दृश्य चित्रित किये गए हैं। इस स्टेशन को देख आपको उन सभी चलचित्रों की यादें ताज़ा हो आएगी। स्टेशन पर घूमते हुए, वाष्प इंजन की रेल को निहारते हमें ऐसा एहसास हो रहा था मानो हम स्वप्नलोक पहुँच गएँ हों। हमारे चारों ओर पहाड़, घाटियाँ, व्यस्त बाज़ार और इन्हें निहारते पर्यटक हमें किसी दूसरी दुनिया में ले गए।

“घूम स्टेशन भारत का सर्वाधिक ऊंचा रेलवे स्टेशन है।”

घूम स्टेशन की डाक पेटी
घूम स्टेशन की डाक पेटी

घूम स्टेशन पर टहलते मैं इस स्टेशन जितने पुराने डाकपेटी तक पहुंची जिसके दोनों तरफ युनेस्को द्वारा घोषित विरासत स्थल की फलक पट्टियां रखीं हुईं थीं।

अपनी सारी जिज्ञासाएं शांत कर मैं जैसे ही घूम स्टेशन की तरफ वापिस मुड़ी, मैंने देखा कि स्टेशन दो रेलगाड़ियों के बीच गर्व से खड़ा था। उस पर लिखा स्थापना दिवस “१८९१” शान से चमक रहा था।

घूम संग्रहालय

घूम सग्रहालय
घूम सग्रहालय

स्टेशन के एक कमरे में यह संग्रहालय बनाया है जो दार्जिलिंग हिमालय रेलवे की कहानी कहता है। जैसे मैदानी इलाकों से दार्जिलिंग तक पहुँचने हेतु लोगों को कैसी कैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता था और समय बर्बाद होता था। समय की बचत करने व लोगों की यात्रा सुविधाजनक बनाने हेतु कैसे इस रेलवे की संकल्पना की गयी। चूंकि इसकी पटरियां “हिल कार्ट” रस्ते के समान्तर चलती है, धीमी गति की रेल सुविधा कालांतर में कैसे द्रुत गति बसों से अपेक्षाकृत पिछड़ने लगी। कुछ फलकों पर इस रेल की तकनीकी बारीकियां भी दिखायीं गईं हैं। स्टेशन, पटरियां, घेरों व दृश्यों की सुन्दर चित्रकारियां दार्जिलिंग हिमालय रेलवे के प्रारंभिक दिवसों को सजीव करतीं हैं। अखबार के पन्ने भी रखे हैं जिन पर इस रेल व इसकी यात्रा करते प्रतिष्ठित नागरिकों पर लेख छपे थे।

रेलवे के पुराने टिकट
रेलवे के पुराने टिकट

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे के कई प्रतीकचिन्ह भी यहाँ रखे हैं। उनमें से एक सन १८७९ का था। इसका अर्थ यह है कि इस प्रतीकचिन्ह की कल्पना, १८८१ में हुए इस रेलवे की स्थापना के कई वर्ष पूर्व करी गयी थी।

“हिल कार्ट शेड अर्थात् पर्वतीय गाड़ी सड़क उन घोड़ागाड़ियों के लिए थी जो सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग के मध्य दौड़तीं थीं। अब यह सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग ५५ है।”

इस संग्रहालय में जिसने मेरा अधिकाँश ध्यान आकर्षित किया वह था, पुराने अंदाज़ का रेलवे टिकट जो गत्ते का बना और माचिस की डिबिया के आकार का था। काश इस विरासती धरोहर रेल को शोभायमान, इन्हीं टिकटों को आज भी इस्तेमाल किया जाता तो सोने पर सुहागा हो जाता।

दार्जिलिंग हिमालय रेल का विडियो

दार्जिलिंग हिमालय रेल की यात्रा के दौरान मेरे द्वारा लिया गया ३ मिनट का यह विडियो आपके लिए प्रस्तुत है-

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे से मेरी अपेक्षाएं

एक ही सड़क - रेल, पैदल और गाडी के लिए
एक ही सड़क – रेल, पैदल और गाडी के लिए

घूम स्टेशन पर लगा एक सूचना पट्ट भारत के २ अनोखे रेल अनुभव का जिक्र करता है- एक हिमालय रेल और दूसरा डेक्कन ओडिसी। मुझे ख़ुशी है कि इस यात्रा के उपरांत मेरे दोनों अनुभव संपन्न हुए। तथापि मेरी यह इच्छा है कि रेल मंत्रालय इस दार्जिलिंग हिमालय रेलवे पर और ध्यान दे ताकि सवारी के उपरांत पर्यटकों का अनुभव अविस्मरणीय हो सके।इससे सरकार द्वारा अर्जित राजस्व में भी बढ़ोतरी होगी। इसके लिए मेरे कुछ सुझाव हैं-

जैसा कि मैंने पहले कहा था, इसकी टिकटें ठीक वैसी ही हों जैसी इसके स्थापना के दौरान हुआ करतीं थीं, गत्ते की बनी माचिस की डिबिया के आकार की। इसे पर्यटक यादगार स्वरुप रख सकते हैं।

एक परिदर्शक अर्थात् गाइड जो पर्यटकों को इस हिमालय रेलवे के इतिहास की जानकारी प्रदान कर सके। एक अनुभवी कथाकार जो इस अनुभव को अपने निराले अंदाज़ में अभूतपूर्व व स्वप्निल बना सके।

दार्जिलिंग स्टेशन की स्वछता पर खास ध्यान दिया जाय। रेल यात्रा के दौरान पर्यटकों को बाहर का दृश्य स्वच्छ व सुन्दर दिखे तो उनका आनंद दुगुना हो जाएगा। यह आसान कार्य नहीं है परन्तु कहते हैं ना! जहाँ चाह वहां राह।

रेल यात्रा के दौरान यदि जलपान की व्यवस्था हो तो पर्यटकों को सहूलियत होगी। साथ ही लोगों को रोजगार भी उपलब्ध होगा। पुराने तरीके से परोसी चाय का आनंद भी कुछ और ही होगा।

दार्जिलिंग व घूम स्टेशन पर लगी दुकानें भी यदि पुराने शैली की हों तो माहौल एकसार होगा।

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे हेतु विशेष चिन्ह व स्मारिकाएं तैयार किये जाएँ जिन्हें पर्यटक यादगार स्वरुप खरीदकर ले जा सकें| स्मारिका पुस्तिका भी प्रकाशित की जा सकती है जो इस रेलवे की सारी जानकारी दर्शाती हो।

इन्टरनेट द्वारा इस रेल में स्थान निश्चित करने सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए ताकि स्टेशन पर समय बर्बाद ना हो और पर्यटकों को निश्चिन्तता रहे।

आप लोगों के लिए इस तरह के कुछ और विश्व धरिहरों के यात्रा संस्मरण-

अजंता गुफाएं और उनकी चित्रकारी

चित्तोरगढ़ दुर्ग – राजस्थान 

तंजौर का विरत ब्रिह्दीश्वर मंदिर 

इंडोनेशिया का प्रमबनन मंदिर समूह 

लुम्बिनी का मायादेवी मंदिर 

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

The post दार्जिलिंग हिमालय रेलवे – एक जीता जागता स्वप्न appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/darjeeling-himalaya-rail-world-heritage/feed/ 4 232