बिहार Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/बिहार/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 27 Mar 2024 14:07:33 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 बिहार की स्मृतियाँ हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ https://inditales.com/hindi/bihar-kala-shilpa-uphar/ https://inditales.com/hindi/bihar-kala-shilpa-uphar/#respond Wed, 31 Jul 2024 02:30:05 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3654

बिहार एक सुंदर राज्य है। वहाँ की हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ भी उतनी ही अप्रतिम हैं। अपने बिहार भ्रमण की स्मृतियों के रूप में आप इन हस्तनिर्मित कलाकृतियों को ला सकते हैं। चाहे मनमोहक चित्रकारी हो अथवा हाथों द्वारा सूक्ष्मता से गड़ी गई कांच की कलाकृति हो अथवा टेराकोट्टा के शिल्प हों, विकल्प प्रचुर मात्रा में उपलब्ध […]

The post बिहार की स्मृतियाँ हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ appeared first on Inditales.

]]>

बिहार एक सुंदर राज्य है। वहाँ की हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ भी उतनी ही अप्रतिम हैं। अपने बिहार भ्रमण की स्मृतियों के रूप में आप इन हस्तनिर्मित कलाकृतियों को ला सकते हैं। चाहे मनमोहक चित्रकारी हो अथवा हाथों द्वारा सूक्ष्मता से गड़ी गई कांच की कलाकृति हो अथवा टेराकोट्टा के शिल्प हों, विकल्प प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। वस्तुतः, मैने यहाँ जिन बिहार के हस्तनिर्मित कलाकृतियों के विषय में उल्लेख किया है, उनमें से प्रत्येक कलाकृति शैली बिहार के किसी विशेष क्षेत्र अथवा आयाम का प्रतिनिधित्व करती है।

इनके विषय में जानते ही आप भी मुझसे सहमत हो जाएंगे कि ये हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ बिहार की सर्वोत्तम स्मारिकाएँ हो सकती हैं।

बिहार की सर्वोत्तम हस्तशिल्प एवं स्मारिकाएँ

मधुबनी चित्रकला

मधुबनी चित्रकला में श्री राम जानकी विवाह
मधुबनी चित्रकला में श्री राम जानकी विवाह

बिहार का सर्वोत्तम परिचय यदि किसी वस्तु से किया जा सकता है तो वह है, मधुबनी चित्रकला। यह हस्तकला बिहार का प्रतिनिधित्व करती है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। आप में से जिन पाठकों ने दिल्ली हाट का भ्रमण किया है, उन सबने वहाँ से यह लोक चित्रकला अवश्य ली होगी। बिहार के मिथिला क्षेत्र की इस प्रतिष्ठित मधुबनी चित्रकला एवं उसकी सूक्ष्मता-जटिलता पर मैंने एक विस्तृत संस्करण प्रकाशित किया है। उसे अवश्य पढ़ें।

मंजूषा कला शैली

जो चित्रकला की सूक्ष्मताओं से अनभिज्ञ है, हो सकता है उन्हे, प्रथम दृष्टि, मधुबनी चित्रकला शैली एवं मंजूषा चित्रकला शैली में अंतर स्पष्ट ना हो पाये। यह चित्रकला शैली बिहार के पूर्वी क्षेत्र, अर्थात भागलपुर क्षेत्र से उत्पन्न हुई है। इन चित्रों में प्रदर्शित कथाएं बिहूला विषहरी की गाथा पर आधारित है जिसने अपने परिवार की रक्षा करने के लिए अनेक बाधाओं का सामना किया था।

बिहार की मञ्जूषा कला
बिहार की मञ्जूषा कला

मंजूषा कलाकृतियों में लाल, हरा एवं पीला, केवल इन तीन रंगों का ही समावेश किया जाता है। इन चित्रों में किनारियाँ एवं उन पर चित्रित आकृतियों का विशेष महत्व होता है। मैंने विविध प्रकार के मंजूषा चित्र देखे हैं जिन पर मुख्यतः मनसा देवी एवं नाग कथाओं का चित्रण किया गया है।

टिकुली चित्रकला शैली

भारतीय स्त्रियाँ अपने माथे पर जो बिंदी लगाती हैं, उसे इस क्षेत्र में टिकली अथवा टिकुली भी कहा जाता है। १९ वीं सदी में पटना में कांच की टिकली बनाई जाती थी जिसके ऊपर सोने की परत चढ़ाई जाती थी। तत्पश्चात नुकीले औजारों से उस पर विविध आकृतियाँ गड़ी जाती थीं। ये आकृतियाँ भिन्न भिन्न पुष्पों की होती थीं। इन टिकलियों पर देवी-देवताओं की छवि भी गड़ी जाती थीं। हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि ऐसी टिकलियाँ कितनी राजसी व भव्य प्रतीत होती होंगी!

टिकुली कला का नया स्वरुप
टिकुली कला का नया स्वरुप

इसी टिकुली का आधुनिक रूप किंचित परिवर्तित हो चुका है। अब इन्हे लकड़ी अथवा परतदार लकड़ी के गोलाकार टुकड़ों पर कृत्रिम रंगों द्वारा रंग कर बनाई जाती हैं। इनका आकार भी अपेक्षाकृत बड़ा होता है। अब ये माथे पर सजने वाली बिंदी ना होकर प्रदर्शन की कलाकृति में परिवर्तित हो गई हैं। किसी ना किसी रूप में यह कलाशैली अब भी जीवित है। अब श्याम पृष्ठभूमि पर सुनहरे रंग की आकृतियाँ अत्यधिक लोकप्रिय हैं।

सुजनी कला

इस कला की उत्पत्ति उस भावना से हुई है जब माताएं अपने नवजात शिशुओं के लिए अपनी पुरानी साड़ियों से कोमल मृदुल गुदड़ी इत्यादि बनाती हैं ताकि शिशु को किसी प्रकार का कष्ट ना हो। वे पुरानी कोमल साड़ी के टुकड़ों को एक के ऊपर एक रखकर मोटी गुदड़ी सिलती हैं। उस पर कपड़े के छोटे टुकड़ों से विविध आकृतियाँ बनाती हैं। जिनके हाथों में कला की विशेष कृपा होती है, वे इन टुकड़ों से ऐसी आकृतियाँ बनाती हैं जो लोककथाओं को प्रदर्शित करती हैं।

प्रथमदर्शनी मुझे यह कला एप्लीक कला शैली प्रतीत हुई। कदाचित वे एक दूसरे से प्रेरित कला शैलियाँ हों। वर्तमान में इस कला शैली ने व्यावसायिक क्षेत्र में पदार्पण कर लिया है। इसके लिए सुजनी कला अब नवीन वस्त्रों पर की जा रही है। उन पर विविध आकृतियाँ बनाई जाती हैं जिनमें ज्यामितीय आकृतियाँ, पुष्पाकृतियाँ तथा रामायण आदि महाकाव्यों के लोकप्रिय दृश्य सम्मिलित होते हैं।

सुजनी कला बिहार के मुख्यतः दानापुर, भोजपुर तथा मुजफ्फरपुर क्षेत्रों में प्रचलित है।

कागज की लुगदी की कलाकृतियाँ

कागज की लुगदी से कलाकृतियाँ बनाना एक लोकप्रिय कला शैली है। इसके लिए कागज को पानी में तब तक भिगो कर रखा जाता है, जब तक वह कोमल ना हो जाए। साथ में सौंफ के दानों को भी भिगोया जाता है। तत्पश्चात गोंद तथा मुल्तानी मिट्टी के साथ पीसकर इसकी मृदु लुगदी तैयार की जाती है। इस लुगदी से विविध कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं।

कागज की लुगदी से बने चित्र
कागज की लुगदी से बने चित्र

कागज की लुगदी से मूर्तियाँ, खिलौने, टोकरियाँ, पेटियाँ आदि बनाई जाती हैं। विविध रंगों से रंगकर उन्हे आकर्षक बनाया जाता है। कागज की लुगदी से गृह उपयोग की वस्तुएँ भी बनाई जाती हैं जैसे सामान रखने की टोकरियाँ, सूप आदि।

लुगदी सी बनी मातृका
लुगदी सी बनी मातृका

बिहार संग्रहालय में मैंने एक अनोखी किन्तु आकर्षक प्रतिमा देखी जिसे कागज की लुगदी से निर्मित किया गया था। वह मानवाकार प्रतिमा मातृका की थी। यहाँ के अनेक गाँवों में ऐसी ही मानवाकार मनमोहक प्रतिमाएं बनाई जाती हैं जिनका प्रयोग विविध धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है। सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मुलायम लुगदी को हाथों द्वारा इतना सुंदर आकार दिया जाता है। प्रतिमा के विभिन्न आयामों को सूक्ष्मता से उत्कीर्णित किया जाता है। ये प्रतिमाएँ मन मोह लेती हैं।

वेणु शिल्प अथवा बाँस की कलाकृतियाँ

बाँस को संस्कृत में वेणु कहते हैं। आपको स्मरण होगा, श्री कृष्ण को वेणुगोपाल भी कहते हैं क्योंकि उनकी मुरली बाँस की बनी होती है। प्राचीन काल से बिहार में भोजन तथा जल को संग्रहीत करने के लिए बाँस का प्रयोग किया जाता रहा है। बौद्ध काल से विविध लिखित सूत्रों में यह विवरण है कि बौद्ध भिक्षु बाँस के द्वारा भिन्न भिन्न वस्तुएँ बनाते थे, जैसे हस्त पंखे, जूते आदि। बाँस का प्रयोग कर मानवी आकृतियाँ भी बनाई जाती हैं।

वेणु शिल्प से बना मंदिर
वेणु शिल्प से बना मंदिर

वर्तमान में भी बाँस का पर्याप्त प्रयोग किया जाता है। उससे गृहसज्जा की वस्तुएं, सूप, डिबिया, टोकरियाँ आदि बनाई जाती हैं। बिहार में दक्ष कलाकार बाँस का प्रयोग कर अत्यधिक आकर्षक कलाकृतियाँ बनाते हैं जिन्हे आप अवश्य क्रय करना चाहेंगे। उनमें कुछ हैं, नौका अथवा जलयानों के विस्तृत मॉडल, सम्पूर्ण मंदिर जिन्हे गृह के भीतर रखा जा सकता है।

बावन बूटी

बावन बूटी बिहार की स्वराज्यीय बुनाई तकनीक है। बुनाई की यह तकनीक मूलतः नालंदा के निकट स्थित बसवन बीघा ग्राम में प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ के बुनकर बावन भिन्न भिन्न प्रकार के भाव साड़ियों, चादरों अथवा पड़दों पर बुन सकते हैं। वे विविध आकृतियों के माध्यम से स्थानीय वास्तुशैली एवं उसके आयामों को भी इन वस्त्रों पर प्रदर्शित करते हैं।

सिक्की कला

बिहार में जो स्थानीय घास उगती है उसे सिक्की अथवा कुश कहते हैं। इस घास पर मनमोहक सुहनरे रंग की आभा होती है। इस घास को स्वच्छ कर सूर्य प्रकाश में सुखाया जाता है। सूखने के पश्चात तृण को उष्ण जल में उबाला जाता है। तत्पश्चात उसे विविध रंगों में रंगा जाता है, जैसे गुलाबी, नीला, हरा, लाल, पीला आदि। उसके पश्चात सुई की सहायता से तृण को भिन्न भिन्न आकार दिया जाता है। इन रंगबिरंगे कुश को आपस में गूँथ कर खिलौने, टोकरियाँ, पीठिकाएं, कुश-आसन, गृहसज्जा की भिन्न भिन्न वस्तुएं आदि निर्मित किए जाते हैं।

सिक्की से बनी सरस्वती एवं राधा कृष्ण
सिक्की से बनी सरस्वती एवं राधा कृष्ण

ये प्राकृतिक उत्पाद हैं। सिक्की पर सभी उचित उपचार किए जाने के कारण उनसे निर्मित इन सभी वस्तुओं की आयु भी दीर्घ होती है। कीट अथवा फफूंद का इन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता है। मैंने ऐसे ही सुनहरे तिनकों द्वारा निर्मित अनेक कलाकृतियाँ ओडिशा के जाजपुर में भी देखी थीं।

टेराकोट्टा, शैल तथा काष्ठ निर्मित कलाकृतियाँ

ये प्राचीन कला शैलियाँ हैं जो आज भी सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। तो बिहार उनसे कैसे अछूता रह सकता है! आप सम्पूर्ण बिहार में ऐसे कारीगर देख सकते हैं जो चिकनी मिट्टी, शिलाओं तथा लकड़ी के टुकड़ों का प्रयोग कर अनोखी कलाकृतियाँ रचते हैं।

मिटटी से बने पात्र
मिटटी से बने पात्र

मैंने टेराकोट्टा द्वारा निर्मित एक पात्र देखा जिसमें अनेक छिद्र थे। उन छिद्रों से नागकन्याएँ बाहर आ रहीं हैं। यह एक प्राचीन कलाकृति है जिसे मैंने इससे पूर्व नालंदा संग्रहालय में देखा था। वर्तमान काल के आधुनिक कारीगरों ने अब भी इस शैली एवं इस कलाकृति को जीवंत रखा है। वे आज भी इस प्रकार की कलाकृतियाँ बनाते हैं।

बिहार में शैलशिल्प सदियों से लोकप्रिय रहा है। दीदारगंज यक्षी उन सभी में सर्वाधिक लोकप्रिय है।

ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल में पटना चारों ओर से काष्ठ की उत्कीर्णित भित्तियों से घिरी हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि पटना में काष्ठ पर कारीगरी करने वाले कितने अधिक कारीगर रहे होंगे।

उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना

इस संस्थान का आरंभ उपेन्द्र महारथी जी ने किया था। यह संस्थान बिहार की कला एवं शिल्प शैलियों को पुनर्जीवित करने के महत्वपूर्ण कार्य में रत है। वे प्राचीन कला शैलियों को वर्तमान परिदृश्यों की आधुनिक पृष्ठभूमि के अनुरूप ढालने का उत्तम कार्य कर रहे हैं। वे इन शैलियों में नित-नवीन आकृतियों, रंगों आदि का समावेश कर रहे हैं तथा उनके द्वारा नित-नवीन वस्तुओं की रचना कर रहे हैं। मैंने उनकी कार्यशाला का अवलोकन-भ्रमण किया था।  मुझे उन्हे अपनी कला में तल्लीन, अद्भुत कलाकृतियों को रचते देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

इस संस्थान में भिन्न भिन्न कलाशैलियों से संबंधित विविध पाठ्यक्रम भी चलाए जाते हैं जिनमें से अधिकांश निशुल्क हैं। वे बिहार की इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय में सीखने तथा उन्हे अपनी जीविका का साधन बनाने में इच्छुक विद्यार्थियों की हर संभव सहायता करते हैं। अपनी परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने का यह एक अप्रतिम मार्ग है।

बिहार की इन अद्भुत कलाकृतियों में आपके प्रिय कौन कौन से हैं?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post बिहार की स्मृतियाँ हस्तनिर्मित कलाकृतियाँ appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/bihar-kala-shilpa-uphar/feed/ 0 3654
बिहार में मिथिला के दरभंगा के पर्यटक स्थल https://inditales.com/hindi/darbhanga-bihar-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/darbhanga-bihar-paryatan-sthal/#comments Wed, 01 May 2024 02:30:04 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3595

दरभंगा का शाब्दिक अर्थ है, बंगा अथवा बंगाल का द्वार। दरभंगा वह स्थान था जहाँ से भारत के पूर्वी क्षेत्रों की यात्रा करने के लिए प्राचीन बंगाल का आरंभ होता था। यह क्षेत्र मिथिला के नाम से लोकप्रिय तो है ही, इस क्षेत्र को तिरहुत भी कहते हैं। बिहार के मिथिला क्षेत्र का एक प्रमुख […]

The post बिहार में मिथिला के दरभंगा के पर्यटक स्थल appeared first on Inditales.

]]>

दरभंगा का शाब्दिक अर्थ है, बंगा अथवा बंगाल का द्वार। दरभंगा वह स्थान था जहाँ से भारत के पूर्वी क्षेत्रों की यात्रा करने के लिए प्राचीन बंगाल का आरंभ होता था। यह क्षेत्र मिथिला के नाम से लोकप्रिय तो है ही, इस क्षेत्र को तिरहुत भी कहते हैं।

बिहार के मिथिला क्षेत्र का एक प्रमुख नगर है दरभंगा। राजपरिवार से प्राप्त संरक्षण एवं वित्तीय सहायता के चलते दरभंगा में विकास कार्य अपेक्षाकृत शीघ्र आरंभ हो गया था। उदाहरण के लिए दरभंगा उन क्वचित नगरों में से एक है जहाँ विमानतल का निर्माण अनेक वर्षों पूर्व ही हो गया था। सन् १९३८ में निर्मित दरभंगा विमानतल को हाल ही में पुनर्जीवित किया गया है। अब भारत के सभी प्रमुख नगरों से सीधे दरभंगा तक विमान सेवाएं उपलब्ध हो रही हैं।

दरभंगा में रेल सेवाएं १९ वीं सदी के अंतिम चरण में आरंभ हो गयीं थी। भारतीय रेल के आरंभिक दिवसों में ही दरभंगा को उसमें सम्मिलित कर लिया गया था। यहाँ तीन रेल स्थानक निर्मित किये गए थे जो एक दूसरे से निकटवर्ती स्थानों पर स्थित थे। लहरिया सराय रेल स्थानक ब्रिटिश अधिकारियों के लिए था तो दरभंगा रेल स्थानक सामान्य जनता के लिए था। तीसरा स्थानक राजपरिवार का राजभवन था जहाँ तक जाने के लिए विशेष रेल लाइन बिछाई गयी थी।

ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय - दरभंगा
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय – दरभंगा

मिथिला भ्रमण की मेरी अभिलाषा कई वर्षों से अपूर्ण थी। दो अवसरों पर मैंने मिथिला भ्रमण का नियोजन किया था किन्तु कुछ अपरिहार्य कारणों से मुझे अंतिम समय में उन्हे निरस्त करना पड़ा था। अंततः मेरी मिथिला भ्रमण व दर्शन की अभिलाषा साकार हुई।

दरभंगा का इतिहास

दरभंगा को भारत के प्राचीनतम नगरों की सूची में सम्मिलित किया जा सकता है।

निकटतम अतीत में दरभंगा पर खंडवाला राजवंश के शासकों ने शासन किया था जो राज दरभंगा के नाम से भी लोकप्रिय हैं। लगभग १६ वीं सदी के अंत में वे मध्य प्रदेश के खंडवा क्षेत्र से यहाँ आये थे। खंडवाला राजवंश ने लगभग ४०० वर्षों तक यहाँ शासन किया था।

सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो खंडवाला राजवंश के शासक वास्तव में मैथिली ब्राह्मण जमींदार थे जिनके नियंत्रण में कई विशाल भूभाग थे। उन भूभागों पर उनका प्रभुत्व उनके समकालीन देशी रियासतों से कहीं अधिक होने के पश्चात भी उन्हे रियासत की श्रेणी प्रदान नहीं की गयी थी। इसका कारण यह हो सकता है कि उन्होंने ब्रिटिश राज अथवा मुगलों के आधिपत्य को अस्वीकार किया तथा स्वतंत्र रूप से अपने भूभाग पर नियंत्रण किया था।

आप खंडवाला राजवंश के पदचिन्ह दरभंगा में चहुँओर देख सकते हैं। सम्पूर्ण नगर में उनके अनेक राजभवन एवं महल हैं जिनमें से अधिकांश को अब महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में परिवर्तित कर दिया गया है। दरभंगा नगर में दो विश्वविद्यालय हैं, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय एवं कामेश्वर सिंग दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय।

दरभंगा के जलाशय

मिथिला क्षेत्र अपने जलाशयों एवं जलकुंडों के लिए प्रसिद्ध है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मिथिला क्षेत्र का एक प्रमुख भाग होने के नाते दरभंगा भी अनेक जलाशयों एवं जलकुंडों से अलंकृत है।

दरभंगा के पोखर
दरभंगा के पोखर

दरभंगा के मानचित्र पर तीन प्रमुख जलाशय स्पष्ट देखे जा सकते हैं जो एक दूसरे के निकट स्थित हैं। वे हैं,

  • हराही
  • दिघी
  • गंगा सागर

इनके अतिरिक्त भी दरभंगा में अनेक छोटे-बड़े जलाशय हैं। दरभंगा में आप जहाँ भी दृष्टि दौड़ायिए, आपको जलस्रोत दृष्टिगोचर होगा। मैंने दरभंगा में उन्हे सर्वत्र पाया, जैसे मंदिर के निकट, राजभवन एवं दुर्ग के भीतर व आसपास।

अधिकांश जलस्रोतों के निकट हमने अनेक निवासियों को मछली पकड़ते देखा। जी हाँ, यहाँ के निवासियों के प्रिय भोजन में मछली का विशेष स्थान है। पुष्करों के उथले जल में मखाने की खेती भी की जाती है। किन्तु यह खेती ऋतु अनुसार वर्ष में कुछ काल ही की जाती है। इसे देखने के लिए आपको उचित ऋतुकाल में यहाँ का भ्रमण करना होगा।

दरभंगा में चहुँओर उपस्थित कूड़े-कचरे ने मुझे अत्यंत आहत किया। दरभंगा नगर एवं उसके जलस्रोत स्वच्छ होते तो उनके आसपास भ्रमण करना अत्यंत आनंददायक होता। मैंने भारत के अनेक छोटे-बड़े नगरों में भ्रमण किया है किन्तु उन सभी की तुलना में दरभंगा मुझे मलिनतम नगर प्रतीत हुआ।

दरभंगा के मंदिर

श्यामा माई मंदिर संकुल

दरभंगा की हृदयस्थली श्यामा माई मंदिर संकुल है जिसमें अनेक मंदिर हैं। इस संकुल के चारों ओर भी अनेक मंदिर हैं। इस मंदिर संकुल की विशेषता यह है कि यह वास्तव में राज परिवार का समाधिस्थल है। राजाओं एवं रानियों की समाधियों के ऊपर मंदिर निर्मित किये गए हैं जो देवी के विभिन्न स्वरूपों को समर्पित हैं।

श्यामा काली मंदिर दरभंगा
श्यामा काली मंदिर दरभंगा

समाधि का भाग होने के पश्चात भी इन मंदिरों ने अपार प्रसिद्धि अर्जित की है। इन मंदिरों में श्यामा काली मंदिर सर्वाधिक लोकप्रिय है। ये सभी मंदिर एक चौकोर जलकुंड के चारों ओर स्थित हैं।

हम इन मंदिरों के दर्शन के लिए प्रातः शीघ्र ही आ गए थे। मंदिर संकुल भक्तगणों से भरा हुआ था। हमें बताया गया कि इन में से अधिकांश मंदिरों के नीचे भूमिगत कक्ष हैं जहाँ पर तांत्रिक अनुष्ठान किये जाते हैं।

जलकुंड के चारों ओर दक्षिणावर्त जाते हुए हमने इन मंदिरों के दर्शन करना आरंभ किया:

माधवेश्वर महादेव मंदिर

यह इस संकुल का इकलौता मंदिर है जिसका निर्माण समाधि स्थल के ऊपर नहीं किया गया है। इस मंदिर का निर्माण सन् १८०६ में महाराजा माधव सिंग ने करवाया था। यह एक शिव मंदिर है। इसका नाम इसके निर्माता के नाम पर रखा गया है।

यह एक छोटा सा मंदिर है जिसे श्वेत रंग में रंगा गया है। इसकी किनारियाँ लाल रंग की हैं। इसके प्रवेश स्थल पर तीन द्वार हैं जो बंगाल-चला शैली में निर्मित मंडप की ओर खुलता है। मंडप के समक्ष गर्भगृह है जहाँ शिवलिंग स्थापित है।

श्यामा माई मंदिर

श्यामा काली मंदिर इस संकुल का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण दरभंगा का सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिर है। दूर-सुदूर से भक्तगण अपनी कामनायें लेकर इस मंदिर में आते हैं।

इस मंदिर का निर्माण सन् १९२९ में महाराजा रामेश्वर सिंग के निधन के उपरांत उनकी समाधि के ऊपर किया गया है। यह मंदिर रामेश्वर काली मंदिर भी कहलाता है। सम्पूर्ण मंदिर उजले लाल रंग में रंगा है। मंदिर के गर्भगृह के भीतर माँ काली का काले रंग का विशाल विग्रह स्थापित है। माँ काली की सम्पूर्ण छवि वशीभूत कर देती है जो स्मृति में अनंत काल के लिए अंकित हो जाती है। विग्रह में माँ काली की चार भुजायें दर्शाई गई हैं किन्तु उन्हे निहारने के पश्चात मुझे उनकी दो भुजायें दीर्घ काल के लिए स्मरण रहेंगी। एक है उनका ऊपरी बायाँ हाथ जिसमें वे तलवार उठाए हुए हैं। दूसरा है उनका निचला बायाँ हाथ जिसमें उन्होंने असुर का शीष पकड़ा हुआ है। अन्य दो हाथ उदार मुद्रा में स्थिर हैं, अभय एवं वरदान।

मूर्ति के समक्ष एक कलश रखा हुआ है।

लक्ष्मेश्वर तारा मंदिर

लक्ष्मेश्वर सिंग ने १९ वीं सदी के उत्तरार्ध में इस क्षेत्र पर राज किया था। उनके देहांत के पश्चात उनकी समाधि के ऊपर यह मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर के चारों ओर गुलाबी रंग में रंगी कम ऊंचाई की भित्तियाँ हैं। कुछ सोपान चढ़कर हमने इस मंदिर के भीतर प्रवेश किया।

इस समाधि मंदिर के भीतर लक्ष्मेश्वर सिंग की इष्ट देवी तारा की प्रतिमा स्थापित है। माँ तारा की प्रतिमा अपेक्षाकृत लघु होते हुए भी विशाल प्रतीत होती है। चतुर्भुजा माँ तारा ने अपने दोनों ऊपरी हाथों में आयुध धारण किया है।

इस मंदिर के समीप ही रानी लक्ष्मीवती को समर्पित एक मंदिर है।

अन्नपूर्णा मंदिर

चटक लाल रंग का यह एक छोटा सा मंदिर है।

रुद्रेश्वर काली मंदिर

यह इस संकुल का प्राचीनतम मंदिर है। यह अन्य मंदिरों की तुलना में स्वच्छ था। हमने मंदिर के पुजारी को इसे स्वच्छ करते हुए देखा भी। यह अपेक्षाकृत एक बड़ा मंदिर है। मध्य स्थित जलकुंड के विपरीत तट पर श्यामा काली मंदिर है।

रुद्रेश्वर काली मंदिर महाराजा रुद्र सिंग की समाधि के ऊपर निर्मित किया गया है। इस मंदिर में देवी माँ काली के रूप में विराजमान हैं। चतुर्भुजा माँ काली ने अपने दो ऊपरी हथेलियों में तलवार पकड़ी हुई है।

कामेश्वर श्यामा मंदिर

यह मंदिर दरभंगा के अंतिम महाराजा बहादुर कामेश्वर सिंग की स्मृति में निर्मित किया गया है। मंदिर के भीतर माँ काली श्यामा के रूप में उपस्थित हैं।

इन मंदिरों के अतिरिक्त कुछ रिक्त स्थान हैं जहाँ कदाचित राज परिवार के अन्य सदस्यों की समाधियाँ हैं।

मनोकामना मंदिर

यह लघु व अत्यंत सुंदर मंदिर है जिसके भीतर हनुमान विराजमान हैं। श्वेत संगमरमर में निर्मित यह मंदिर जैन शैली में निर्मित मंदिर का लघु रूप प्रतीत होता है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए कुछ सोपान निर्मित हैं।

मनोकामना मंदिर
मनोकामना मंदिर

यह मंदिर इतना छोटा है कि इसके भीतर प्रवेश करने के लिए लगभग रेंगना पड़ता है। अधिकांश भक्तगण मंदिर के समक्ष स्थित मुक्तांगन में बैठकर ही हनुमान जी के दर्शन करते हैं।

यहाँ हमने कुछ बालकों को हनुमान चालीसा का जाप करते देखा। हम भी इस जाप में उनके साथ हो लिए।

समीप स्थित एक गुमटी में हनुमान जी का प्रिय प्रसाद लड्डू उपलब्ध था। आप उन्हे क्रय कर सकते हैं।

राम मंदिर

यह अन्य मंदिरों की तुलना में एक विशाल मंदिर है। नरगौना महल के समीप स्थित यह मंदिर ठेठ भारतीय-मुगल (Indo-Saracenic) शैली में निर्मित है। मंदिर के शिखर गुंबद के रूप में निर्मित हैं। मंदिर के भीतर की वास्तुकला आपको राजस्थान का स्मरण करा देगी। काष्ठ पर किये गए उत्कीर्णन एवं भित्तियों पर की गयी गचकारी अत्यंत आकर्षक हैं। किन्तु मंदिर के रूप में यह संरचना लगभग परित्यक्त प्रतीत हुई। एक परिवार इस मंदिर के भीतर निवास करता भी प्रतीत हो रहा था।

गर्भगृह के भीतर राम दरबार है। वहाँ चारों भ्राताओं, माँ सीता एवं हनुमान जी के विग्रह हैं। संकुल में राधा कृष्ण का भी एक लघु मंदिर है।

कंकाली देवी मंदिर

यह मंदिर दरभंगा दुर्ग के भीतर स्थित है। यह मंदिर देवी के कंकाली स्वरूप को समर्पित है। यह मंदिर श्यामा माई मंदिर संकुल के भीतर स्थित मंदिरों के अनुरूप ही निर्मित है। इस मंदिर को देख मुझे मथुरा का कंकाली टीला स्मरण हो आया।

दरभंगा के संग्रहालय

दरभंगा एक छोटा सा नगर है। इतने छोटे नगर के भीतर संग्रहालयों के आकार व संख्या देख सुखद आश्चर्य होता है। किन्तु इन संग्रहालयों की स्वच्छता एवं रखरखाव उतनी ही दुखद स्थिति में है।

लक्ष्मीश्वर सिंग संग्रहालय

विशाल दिघी सरोवर के निकट स्थित इस संग्रहालय का कार्यभार कला संस्कृति एवं युवा विभाग के अंतर्गत है। हमें बताया गया कि कुछ काल पूर्व ही इस संग्रहालय का जीर्णोद्धार एवं नवीनीकरण किया गया है।

हाथीदांत से बनी महिषासुरमर्दिनी
हाथीदांत से बनी महिषासुरमर्दिनी

संग्रहालय में राज परिवार से प्राप्त हस्तिदंत कलाकृतियों का बड़ा संग्रह है। उनमें गृह साज-सज्जा की वस्तुएं एवं अनेक मूर्तियाँ हैं। हमें बताया गया कि हाथी का हौदा टीपू सुल्तान के हाथी का है किन्तु इसकी पुष्टि करने के लिए हमें कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ।

चंद्रधारी संग्रहालय

यह संग्रहालय लक्ष्मीश्वर सिंग संग्रहालय के समीप ही स्थित है। यद्यपि यह एक विशाल संरचना के भीतर स्थित है तथापि इसके प्रदर्शित संग्रह अपेक्षाकृत सीमित हैं। मुझे संग्रहालय की संरक्षण स्थिति दयनीय प्रतीत हुई। प्रदर्शित चित्र अत्यंत दुर्लभ होने के पश्चात भी उनका अनुरक्षण नहीं किया गया है। उनमें से कई ऐसे यंत्रों के दुर्लभ चित्र हैं जिनका प्रयोग विविध धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता रहा होगा।

संग्रहालय में इस क्षेत्र से प्राप्त भगवान विष्णु की अनेक प्रतिमाएँ हैं जो यह दर्शाती हैं कि इस क्षेत्र में विष्णु आराधना की प्राधान्यता थी।

दरभंगा से मिथिला की स्मृतियाँ – क्या क्रय करें?

मधुबनी चित्र – मिथिला की स्मृतियों की चर्चा करें तो सर्वप्रथम नाम जो मस्तिष्क में उभरता है, वह है मधुबनी चित्र। किन्तु यह विडंबना है कि मुझे दरभंगा अथवा मधुबनी से उन्हे क्रय करने के लिए कोई स्रोत दृष्टिगोचर नहीं हुए। आपको मधुबनी चित्रकारों अथवा कारीगरों से सीधे संवाद साधना पड़ेगा।

हमें जानकारी दी गयी कि कुछ चित्रकार वस्त्रों एवं साड़ियों पर मधुबनी चित्रकारी करते हैं। उन्होंने कई आधुनिक कार्यशालाएँ भी स्थापित की हैं, जैसे मधुबनी पैंटस्।

मिथिला के स्वर्ण वैदेही मखाने
मिथिला के स्वर्ण वैदेही मखाने

मखाने  – दरभंगा की कोई स्मृति साथ लाना चाहें तो वहाँ के मखाने सर्वोत्तम विकल्प हैं। दरभंगा के किसी भी हाट में मखाने सुलभता से उपलब्ध हैं। किसी भी प्रमुख नगर में उपलब्ध मखानों की तुलना में दरभंगा में आप मखाने कम से कम ३०-४०% कम मूल्य में क्रय कर सकते हैं। यदि आप इन पौष्टिक मखानों के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो आप दरभंगा के मखाना अनुसंधान केंद्र का भ्रमण कर सकते हैं।

सत्तू – बिहार का सर्वव्यापी पौष्टिक पेय है सत्तू। यहाँ पूर्वनिर्मित सत्तू विविध आकार के पुलिंदों में सर्वत्र उपलब्ध हैं। उन्हे क्रय कर अपने साथ ले जाएँ तथा अपने घर पर बैठकर बिहार के इस पौष्टिक पेय का आनंद लें।

दरभंगा के महल अथवा राजभवन

दरभंगा एक रियासती नगरी रही है। अतः यहाँ अनेक दुर्ग एवं राजमहल थे जो अब भी देखे जा सकते हैं। मुझे दरभंगा के महलों की एक विशेषता अत्यंत प्रशंसनीय प्रतीत होती है। वह यह है कि यहाँ के राजमहलों को अब शैक्षणिक संस्थानों में परिवर्तित कर दिया गया है। इससे यहाँ की धरोहर अनवरत जीवित है, साथ ही सर्वोत्तम रूप से अनुरक्षित व संरक्षित भी है।

भूकंप सुरक्षित नरगौना महल

श्वेत रंग में रंगा यह एक साधारण महल है। इसकी संरचना में परिलक्षित सममिति औपनिवेशिक काल की देन है। यह संरचना अब संस्कृत विश्वविद्यालय का एक भाग है। विश्वविद्यालय के परिसर में प्रवेश करते ही पटलों पर लिखे संस्कृत दोहे आपका स्वागत करते हैं।

नरगौना महल
नरगौना महल

नरगौना महल की एक विशिष्टता है। यह आधुनिक भारत में निर्मित भूकंप से सुरक्षित सर्वप्रथम संरचनाओं में से एक है। सन् १९३४ में इस क्षेत्र को तीव्र भूकंप का सामना करना पड़ा था। इसके पश्चात ही नरगौना महल का निर्माण हुआ था। भूकंप को ध्यान में रखते हुए इसकी संरचना में भूकंप संरक्षण तत्व सम्मिलित किए गए थे। महल के भूतल में आप एक रिक्त स्थान देख सकते हैं। संरचना की यह रिक्तता भूकंप के उत्पन्न प्रघाती तरंगों को सोख लेती है तथा उसके आघातों से संरचना का रक्षण करने में सहायता करती है। इसके पश्चात सन् १९८८ में पुनः इस क्षेत्र को तीव्र भूकंप का सामना करना पड़ा था। इस विशेष संरचना के कारण यह भूकंप नरगौना महल को क्षति नहीं पहुँचा पाया।

नरगौना महल के समक्ष स्थित सरोवर में कुछ लोग मछली पकड़ रहे थे। बुद्धि-बल अथवा शतरंज की बिसात के अनुरूप निर्मित भूमि तथा यहाँ के मंडप इस के समृद्ध काल का साक्ष्य दे रहे थे।

लक्ष्मी विलास महल एवं आनंदबाग महल

ये दोनों महल अब दरभंगा के दो विश्वविद्यालयों के रूप में कार्यरत हैं। महल के समक्ष महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंग की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है। लाल रंग का सम्पूर्ण महल तथा उसके समक्ष उजले श्वेत रंग की प्रतिमा दोनों अत्यंत मनभावन प्रतीत होते हैं। महल के एक ओर घंटाघर है।

संस्कृत विश्वविद्यालय महारजा लक्ष्मीश्वर सिंह की प्रतिमा
संस्कृत विश्वविद्यालय महारजा लक्ष्मीश्वर सिंह की प्रतिमा

महल के भीतर उत्कृष्ट काष्ठ उत्कीर्णन किये गए हैं। कुछ कार्यालयों में आप उन्हे देख सकते हैं। महल में एक दरबार कक्ष है। इस कक्ष में भी उत्कृष्ट काष्ठकारी की गयी है जिसके लिए गहरे रंग के बर्मा टीक लकड़ी का प्रयोग किया गया है। ऊपरी मुंडेर को आधार देते कोष्ठकों को उड़ान भरती युवतियों के रूप में यूरोपीय शैली में निर्मित किया गया है। झूमर एवं भित्ति व भूमि पर लगी टाइलें अब भी संरक्षित हैं किन्तु प्राचीन मंच के स्थान अब एक असंगत सा प्रतीत होता नवीन मंच स्थित है।

बर्मा की लकड़ी से बना दरबार हॉल
बर्मा की लकड़ी से बना दरबार हॉल

महल के परिसर में आप अनेक विद्यार्थियों को अध्ययन करते एवं अपनी आयु के चरम चरण का आनंद उठाते देखेंगे।

महात्मा गांधी सदन

प्राचीन काल में यह यूरोपीय अतिथियों की आवभगत करने में प्रयुक्त एक औपनिवेशिक शैली का विश्राम गृह था। अब यह विश्वविद्यालय का विश्राम गृह है। इस संरचना के भूतल में एक कक्ष है जहाँ महात्मा गांधी ने एक रात्रि व्यतीत की थी। उनकी स्मृति में यह कक्ष अब उनको समर्पित है। अब यहाँ उनके जन्म एवं मृत्यु दिवस के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।

इंद्र भवन

एक विस्तृत रिक्त भूमि के मध्य में खड़ी तथा श्वेत रंग में रंगी यह एक एकल संरचना है। इस स्थान पर हाथियों एवं अश्वों के साथ इन्द्र की आराधना की जाती थी। किन्तु अब यह प्रथा अस्तित्व में नहीं है। अब यह संरचना लगभग परित्यक्त पड़ी हुई है।

इंद्र भवन
इंद्र भवन

यह उन दुर्लभ स्थलों में से एक है जहाँ इन्द्र की आराधना की जाती थी तथा जिसके चिन्ह अब भी शेष हैं। मेरी अभिलाषा है कि कोई अनुसंधानकर्ता इसके विषय में अध्ययन करे तथा भावी पीढ़ी के लिए उसका यथोचित प्रलेखन करे।

दरभंगा दुर्ग

दुर्ग की लाल रंग की भित्तियाँ तथा अलंकृत द्वार आपका दुर्ग में स्वागत करते हैं। दुर्ग के नाम पर अब इतना ही शेष है। अब यह नगर का ही एक भाग हो गया है। दुर्ग की भित्तियाँ तथा द्वार केवल यह स्मरण कराती हैं कि किसी काल में यहाँ एक दुर्ग था। यह दरभंगा नगर का सर्वाधिक मलिन व कीचड़ भरा क्षेत्र है। दुर्ग के मुख्य द्वार का अवलोकन करने के लिए हमें हमारे वाहन को दो फीट गहरे जल में से ले जाना पड़ा जो जलकुंभियों से भरा हुआ था।

यहाँ दुर्ग की भंगित भित्तियों एवं कंकाली मंदिर के अतिरिक्त कुछ भी दर्शनीय शेष नहीं है।

बेला महल

यह राजा बहादुर विशेश्वर सिंग का महल है जो राजा बहादुर कामेश्वर सिंग के अनुज भ्राता थे। इसे दरभंगा के सभी महलों में सबसे सुंदर माना जाता है। इस महल के विषय में मैं यह कह सकती हूँ कि यह इस क्षेत्र की सर्वोत्तम अनुरक्षित संरचना है।

बेला महल अब डाक प्रशिक्षण केंद्र
बेला महल अब डाक प्रशिक्षण केंद्र

सन् १९६६ से इस महल का उपयोग भारतीय डाक विभाग के डाक प्रशिक्षण केंद्र के रूप में किया जा रहा है। यह महल भी डाक सेवा के लाल एवं श्वेत रंगों में रंगा हुआ है।

महल के उद्यान अप्रतिम हैं। उनका रखरखाव उत्तम है। आप यहाँ के दूब उद्यानों, पुष्प उद्यानों एवं सरोवरों के चारों ओर भ्रमण कर सकते हैं।

यात्रा सुझाव

  • दरभंगा भारत के सभी प्रमुख नगरों से वायु, रेल एवं सड़क मार्ग द्वारा सुविधाजनक रूप से संयुक्त है।
  • यहाँ कुछ मध्यम वर्गीय विश्राम गृह उपलब्ध हैं।
  • दरभंगा में भोजन के लिए राधे-राधे नाम से एकमात्र भोजनालय उपलब्ध हैं जहाँ आप शांति से बैठकर भोजन कर सकते हैं। अन्यथा दरभंगा के मार्गों पर भुंजा एवं सत्तू के अनेक ठेले उपलब्ध हैं।
  • नगर में भ्रमण करने के लिए ऑटोरिक्शा की सुविधाएं उपलब्ध हैं।
  • दरभंगा में पड़ाव डालकर आप मिथिला के अधिकांश क्षेत्रों का भ्रमण कर सकते हैं। दरभंगा के विस्तृत दर्शन के लिए १-२ दिवस पर्याप्त हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post बिहार में मिथिला के दरभंगा के पर्यटक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/darbhanga-bihar-paryatan-sthal/feed/ 1 3595
पटना का बिहार संग्रहालय – अप्रतिम कलाकृतियों का संग्रह देखें https://inditales.com/hindi/bihar-sangrahalay-patna/ https://inditales.com/hindi/bihar-sangrahalay-patna/#respond Wed, 21 Feb 2024 02:30:38 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3391

पटना नगर के मध्य में स्थित बिहार संग्रहालय अप्रतिम कलाकृतियों का अद्भुत संग्रह है। इस संग्रहालय का सर्वाधिक विशेष तत्व इसकी रूपरेखा है। इस संग्रहालय में बिहार के इतिहास एवं धरोहर को सुंदर रीति से प्रदर्शित किया गया है जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है, विशेषतः युवा दर्शकों को। भारत के अधिकतर संग्रहालयों के […]

The post पटना का बिहार संग्रहालय – अप्रतिम कलाकृतियों का संग्रह देखें appeared first on Inditales.

]]>

पटना नगर के मध्य में स्थित बिहार संग्रहालय अप्रतिम कलाकृतियों का अद्भुत संग्रह है। इस संग्रहालय का सर्वाधिक विशेष तत्व इसकी रूपरेखा है। इस संग्रहालय में बिहार के इतिहास एवं धरोहर को सुंदर रीति से प्रदर्शित किया गया है जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है, विशेषतः युवा दर्शकों को।

भारत के अधिकतर संग्रहालयों के अनुरूप यह संग्रहालय भी आपके सम्पूर्ण मनोयोग एवं समय की अपेक्षा रखता है। मुझे आपको यह जानकारी देते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि इस संग्रहालय में छायाचित्रीकरण निषिद्ध नहीं है। आप स्वेच्छा से इन अप्रतिम कलाकृतियों के छायाचित्र ले सकते हैं।

पटना के बिहार संग्रहालय में प्रदर्शित कुछ अद्भुत कलाकृतियों की यहाँ संक्षिप्त व्याख्या करना चाहती हूँ। मुझे विश्वास है, इसे पढ़कर आप शीघ्र ही पटना यात्रा का नियोजन अवश्य करेंगे।

दीदारगंज यक्षी – बिहार संग्रहालय का उत्कृष्ट मणि

यह एक यक्षी का अत्यंत ही शोभायमान विग्रह है जिसके एक हाथ में चँवर है। यह बिहार की सर्वाधिक लोकप्रिय शिल्पकला है। अनेक वर्षों पूर्व यह पटना संग्रहालय का मुख्य आकर्षण थी। अब इसने बिहार संग्रहालय में अपना वही स्थान अर्जित किया है।

दीदारगंज यक्षी - बिहार संग्रहालय की शान
दीदारगंज यक्षी – बिहार संग्रहालय की शान

यक्षी की यह सुंदर प्रतिमा संग्रहालय के प्रथम तल पर उसके निर्धारित कक्ष के भीतर कुछ इस प्रकार स्थित है कि आप उसे चारों ओर से निहार सकते हैं। इस प्रतिमा में एक ओर जहाँ यक्षी के विभिन्न अंगों की रचना एवं उनके शारीरिक अनुपात सम्मोहित करते हैं, वहीं दूसरी ओर शैल प्रतिमा की सतही चमक चकित कर देती है।

इतनी मनमोहक यक्षी जिस महानुभाव को यह सुंदर चँवर डुला रही है, वह स्वयं कितना मनमोहक होगा, इस प्रतिमा को देख ऐसे विचार अनायास ही मन में उभरने लगते हैं। हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं। इस प्रतिमा को मुलायम चुनार बलुआ पत्थर पर जटिल व सूक्ष्म उत्कीर्णन कर रचित किया गया है। सूत्रों के अनुसार इसकी रचना मौर्य वंश के कालखंड में की गयी है।

बिहार संग्रहालय में बुद्ध प्रतिमाएं

बिहार बुद्ध की भूमि है। बुद्ध ने अपने जीवन का लगभग सम्पूर्ण काल इसी क्षेत्र में व्यतीत किया था। बोध गया में उन्हे परम ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यही कारण है कि यहाँ भिन्न भिन्न कालखंडों की अनेक बुद्ध प्रतिमाएं एवं छवियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।

भूमि स्पर्श मुद्रा में भगवान् बुद्ध
भूमि स्पर्श मुद्रा में भगवान् बुद्ध

इस संग्रहालय में बुद्ध की अनेक धातु एवं शैल प्रतिमाएं हैं जिन्हे देख आप आश्चर्य चकित रह जाएंगे। उन सभी प्रतिमाओं में जो मुझे सर्वाधिक प्रिय है, वह है बुद्ध की भूमि स्पर्श मुद्रा में एक विशाल मूर्ति। बुद्ध की भूमि स्पर्श मुद्रा उनके द्वारा परम ज्ञान प्राप्ति के उस पावन क्षण का द्योतक है। इस प्रतिमा के पृष्ठभाग में जो चित्र है, उसके द्वारा उनके वन परिवेश को प्रदर्शित किया गया है। सम्पूर्ण दृश्य हमें सहजता से उस कालखंड में एवं उस स्थान पर स्थानांतरित कर देता है जहाँ भाग्यशाली जनमानस को बुद्ध के सत्संग का अवसर प्राप्त हुआ था।

धातु शिल्प में बुद्ध
धातु शिल्प में बुद्ध

बुद्ध की अन्य आकर्षक प्रतिमाओं में एक अन्य प्रतिमा जो ध्यानाकर्षित करती है, वह है धातु में निर्मित बुद्ध की खड़ी मुद्रा। उसे देखना ना भूलें!

और पढ़ें: बौद्ध कलाशैली में कथाकथन के रूप – शिलालेखों में बौद्ध कथाएं

कागज लुगदी की मातृका

बिहार की विविध कला शैलियों में माध्यम के रूप में कागज की लुगदी का एक विशेष स्थान है। यहाँ लोक -देवी मातृका की एक विशाल व अद्भुत प्रतिमा है जिसकी रचना में कागज की लुगदी का प्रयोग किया गया है। यह प्रतिमा आपको अवश्य अचंभित कर देगी।

इस प्रतिमा में एक दूसरे तो पीठ टिकाए दो स्त्रियाँ हैं जिन्होंने एक शिशु को अपने कटि क्षेत्र में पकड़ा हुआ है। मुझे यह जानकारी दी गयी कि ऐसी प्रतिमाएं बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में बहुधा दृष्टिगोचर होती हैं। किन्तु बिहार के जिन ग्रामीण क्षेत्रों में मैंने भ्रमण किया, वहाँ मुझे ऐसी कोई छवि दिखाई नहीं दी। आशा करती हूँ कि अन्य कई परंपराओं के अनुरूप यह परंपरा भी लुप्त ना हो जाए।

इनके अतिरिक्त संग्रहालय में अनेक ऐसे तीन-आयामी भित्तिचित्र हैं जिन्हे कागज की लुगदी द्वारा बनाया गया है।

मधुबनी की कोहबर चित्रकला शैली

मिथिला चित्रकारी शैली अथवा मधुबनी चित्रकारी शैली पर मैंने एक विस्तृत संस्करण पूर्व में प्रकाशित किया है। उस संस्करण में मैंने कोहबर चित्रकला शैली के विषय में भी वर्णन किया है। ये चित्र बहुधा विवाहोत्सव जैसे आयोजनों में चित्रित किये जाते हैं। इस शैली के विषय में अधिक जानकारी आप वहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।

बिहार संग्रहालय में आप कोहबर शैली के कुछ भव्य चित्र देख सकते हैं जिनमें कुछ बहुरंगी हैं तथा कुछ केवल श्वेत-लाल रंग में चित्रित हैं। कोहबर चित्रों के विषय में प्रत्यक्ष रूप से जानने के लिए यह बिहार संग्रहालय सर्वोत्तम साधन है। आप देखेंगे कि कोहबर चित्रों में शुभ चिन्हों, समृद्धि चिन्हों एवं प्रजनन सूचक चिन्हों का विपुलता से प्रयोग किया जाता है।

मौर्यवंशी राजसी ठाठ का आनंद उठायें

हम जानते हैं कि पाटलीपुत्र, अर्थात पटना, विशाल मौर्य साम्राज्य की राजधानी थी। पटना के कुम्रहार में मौर्य साम्राज्य के राजमहल के प्रसिद्ध सभागृह के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उसी सभागृह का एक सुंदर प्रतिरूप बिहार संग्रहालय में पुनः निर्मित किया है।

मौर्य सिंहासन
मौर्य सिंहासन

इस सभागृह में मौर्य वंश का सिंहासन है जिसके ऊपर बैठकर आप अपना छायाचित्र ले सकते हैं। यह इस संग्रहालय भ्रमण की अविस्मरणीय स्मृति होगी।

ब्राह्मी लिपि

ब्राह्मी एक प्राचीन लिपि है। हम में से अधिकांश ब्राह्मी लिपि समझने में असमर्थ हैं। जानकार सूत्रों के अनुसार ब्राह्मी लिपि में लिखित पांडुलिपियों में प्राचीन काल के अनंत तथ्य लुप्त हैं। उन्हे देखकर यह अनुमान लगता है कि हमारे पूर्वज इन अभिलेखों के माध्यम से हमारे लिए असंख्य संकेत एवं संदेश छोड़कर गए हैं।

ब्राह्मी लिपि - बिहार संग्रहालय
ब्राह्मी लिपि – बिहार संग्रहालय

एक प्रकार से ये हमारे समक्ष प्राचीन काल की अद्भुत संस्कृतियों को उजागर करते हैं। इनके द्वारा हम यह जान सकते हैं कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए इतनी सम्पन्न संस्कृति की रचना की थी जो अब हमारी अनभिज्ञता के चलते लुप्त होती जा रही है।

एक विशाल भित्ति पर ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्णित शिलालेख ने मुझे अत्यंत आकर्षित किया। इसके समक्ष खड़े होकर लिया गया मेरा चित्र मुझे अतिप्रिय है।

नालंदा की पुनर्रचना

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय एवं आततायीयों द्वारा उस पर किये गये अत्याचारों के विषय से हम सब अभिज्ञ हैं। यह विश्वविद्यालय अब पूर्ण रूप से खंडित अवस्था में है। नालंदा विश्वविद्यालय के स्थल पर किये गए उत्खनन में इसके अवशेष पाये गए थे। लाल रंग की ईंटों द्वारा निर्मित भित्तियों के आलों में अनेक प्रतिमाएं प्राप्त हुई थीं। उनमें से अधिकांश प्रतिमाओं को उसी स्थान पर निर्मित भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।

नालंदा का अवलोकन
नालंदा का अवलोकन

पटना के बिहार संग्रहालय में उसी प्रकार की भित्ति पर वैसे ही आलों को पुनर्निर्मित किया गया है। उन  आलों के भीतर नालंदा उत्खनन में पायी गयीं कुछ मूल प्रतिमाएं एवं कुछ की प्रतिकृतियाँ प्रदर्शित की गयी हैं। यद्यपि यह पुनर्रचना मूल नालंदा विश्वविद्यालय का कण मात्र है, तथापि उन्हे देख आप प्राचीन नालंदा के भव्य रूप का अनुमान लगा सकते हैं। यहाँ प्रदर्शित भगवान विष्णु की चमक से परिपूर्ण शैल प्रतिमा ने मेरा मन मोह लिया था।

सूर्य प्रतिमाएं

बिहार सूर्य आराधकों का क्षेत्र है। वस्तुतः, बिहार भारत का एकमात्र क्षेत्र है जहाँ छठ पूजा के रूप में सूर्य भगवान की पूजा-अर्चना अब भी अनवरत की जा रही है। बिहार के लगभग सभी क्षेत्रों में अनेक सूर्य मंदिर हैं।

सूर्य प्रतिमा
सूर्य प्रतिमा

बिहार में अनेक ऐसे गाँव हैं जहाँ से सूर्य की अनेक प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं, कुछ जलाशयों से तो कुछ उत्खनन स्थलों से। पटना के बिहार संग्रहालय में आपको सूर्य भगवान के कुछ उत्कृष्ट विग्रहों के अवलोकन का अवसर प्राप्त होगा।

मुझे भगवान सूर्य को समर्पित एक विशाल शिल्प कृति का अब भी स्मरण है जिसमें अपने सात अश्वों से लैस रथ को हाँकते हुए उनका भव्य रूप दर्शाया गया है। सूर्य के विग्रह को पहचानने के लिए दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकेत हैं। एक है, पुरुष की आकृति जिसके दोनों हाथों में खिले हुए कमल के पुष्प हैं। दूसरा संकेत है, बड़े जूते एवं सात अश्व।

शैल शिल्पों का अवलोकन करते हुए प्रथम तल पर स्थित मातृका की मानवाकृति शैल प्रतिमा के दर्शन अवश्य करें।

बिहार के पुरातात्विक मानचित्र को समझें

बिहार भारत के उन विरले क्षेत्रों में से एक है जहाँ प्राचीनतम संस्कृति अखंडित अनवरत वसाहत के रूप में अब भी जीवित है। यह महाभारत काल का मगध एवं अंग महाजनपद था, मौर्यवंश का पाटलीपुत्र था तथा नालंदा, उदंतपुरी तथा विक्रमशिला जैसे जगप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों की पावन भूमि थी।

बिहार का पुरातत्त्व मानचित्र
बिहार का पुरातत्त्व मानचित्र

बिहार की भूमि अपने विभिन्न परतों में अपने गौरवशाली इतिहास को सँजोये हुए है। बिहार संग्रहालय में एक मानचित्र है जो बिहार के भिन्न भिन्न पुरातात्विक स्थलों को दर्शाता है। बिहार में किस रूपरेखा के अंतर्गत उत्तम पुरातात्विक उत्खनन किये गए, उसका अद्भुत वर्णन किया गया है। सिक्के, औजार, मिट्टी के पात्रों के अवशेष जैसी कौन कौन सी पुरातत्व वस्तुओं की किन किन स्थानों से प्राप्ति हुई, उसका सुंदर चित्रण यहाँ किया गया है।

मुझे संग्रहालय के इस विभाग ने विशेष रूप से आकर्षित किया। मुझे यह विभाग अत्यंत शिक्षाप्रद एवं दृश्य रूप से अत्यंत मनमोहक प्रतीत हुआ।

चलित मधुबनी चित्रकारी

बिहार का नाम लेते ही वहाँ की लोकप्रिय मधुबनी चित्रकला शैली का स्मरण हो आता है। वस्तुतः, विश्वभर में बिहार की पहचान इन मधुबनी चित्रों से होती है।

चलित मधुबनी चित्रकारी
चलित मधुबनी चित्रकारी

बिहार संग्रहालय में मधुबनी चित्रकला शैली का एक नवीन रूप मेरे समक्ष था जिसने मुझे पुलकित कर दिया था। बिहार संग्रहालय में मधुबनी चित्रों की एक चलित दीर्घा थी। संग्रहालय में संगणक द्वारा रचित डिजिटल चित्रों के पटल थे। आप जैसे ही इनके समक्ष खड़े हो जाएँ, ये पटल गति करने लगते हैं। चित्र से संबंधित संगीत बजने लगता है। इन प्रोद्योगिकी क्रियान्वयनों से चालित चित्रपटल का आभास होता है।

जब मैं बिहार संग्रहालय के इस दीर्घा में पहुँची, उसे देखने के लिए दर्शकों की भारी भीड़ एकत्र थी। मुझे संगीत सुनाई नहीं पड़ रहा था। उस आयाम को त्याग दिया जाए तब भी वह मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव था। बिहार की संस्कृति से अभिज्ञ होने का यह एक उत्तम मार्ग है।

बिहार संग्रहालय के अन्य आकर्षण

बिहार संग्रहालय में उपरोक्त  आकर्षणों के अतिरिक्त अनेक ऐसे प्रदर्शन हैं जो बिहार की संस्कृति को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं। उनमें मंजूषा से लेकर टेरकोटा उत्कीर्णन की सिक्की कला तक अनेक कला शैलियाँ सम्मिलित हैं।

बिहार का सांस्कृतिक मानचित्र
बिहार का सांस्कृतिक मानचित्र

संग्रहालय का ‘बिहार के वन्यजीव’ प्रदर्शन विभाग बिहार के वन्यजीवों को समर्पित है। किन्तु बिहार के वन्यजीवों को संग्रहालय में देखने के स्थान पर उन्हे प्रत्यक्ष देखने में मुझे अधिक आनंद आता। यदि इन वन्यजीव अभयारण्यों में भ्रमण करने के लिए अधिक सुविधाएं प्रदान कराई जाएँ तथा सुगम्य आधारभूत संरचनाएं विकसित किये जाएँ तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी।

संग्रहालय का नौनिहाल विभाग नन्हे दर्शकों को क्रियात्मक रूप से व्यस्त रखने में पूर्ण रूप से सक्षम है।

व्यापार तंत्र – किसी भी महान सभ्यता का आधार उसका व्यापारिक तंत्र होता है। पुरातन काल से बिहार की सभ्यता का आधार उसका व्यापार रहा है। बिहार संग्रहालय में प्राचीन काल के सिक्कों, व्यापारिक वस्तुओं तथा व्यापारियों की जीवनशैली को अप्रतिम रूप से प्रदर्शित किया गया है। इन प्रदर्शित वस्तुओं में विचित्र रूपों के भारों एवं मापों ने मुझे अत्यंत आश्चर्यचकित किया था।

बिहार संग्रहालय के दर्शन के लिए कुछ यात्रा सुझाव

बिहार संग्रहालय पटना नगर के मध्य स्थित है।

बिहार संग्रहालय के दर्शन के लिए कम से कम दो घंटों का समय आवश्यक है। मुझसे पूछें तो मुझे ऐसे संग्रहालय के अवलोकन के लिए एक सम्पूर्ण दिवस आवश्यक है।

संग्रहालय में एक जलपानगृह है। यहाँ आप बिहार के विशेष व्यंजन, लिट्टी-चोखा का आनंद ले सकते हैं।

संग्रहालय के विषय में अधिक जानकारी के लिए इनके museum map इस वेबस्थल अप संपर्क करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post पटना का बिहार संग्रहालय – अप्रतिम कलाकृतियों का संग्रह देखें appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/bihar-sangrahalay-patna/feed/ 0 3391
मिथिला बिहार की मधुबनी चित्रकला शैली – एक संदर्शिका https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/ https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/#comments Wed, 01 Nov 2023 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3313

मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी […]

The post मिथिला बिहार की मधुबनी चित्रकला शैली – एक संदर्शिका appeared first on Inditales.

]]>

मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी जाती है।

मिथिला का संक्षिप्त इतिहास

बिहार का मिथिला क्षेत्र मुख्यतः गंगा के उत्तरी घाटों एवं नेपाल स्थित हिमालय की तलहटी क्षेत्रों के मध्य स्थित है।

मिथिला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिचय माता सीता के पीहर के रूप में दिया जाता है। मिथिला क्षेत्र को माता सीता का जन्म स्थान माना जाता है। इसी कारण उन्हें मैथिली के नाम से भी संबोधित किया जाता है। उनके पिता राजा जनक के राज्य का नाम जनकपुरी था जो वर्तमान में नेपाल का भाग है। जनकपुरी भारत-नेपाल सीमा से केवल कुछ ही किलोमीटर भीतर स्थित है।

सीता जन्म, राम सीता मिलन, राम जानकी विवाह - मधुबनी चित्रकला के विषय
सीता जन्म, राम सीता मिलन, राम जानकी विवाह – मधुबनी चित्रकला के विषय

सीता माता जिस स्थान पर शिशु रूप में प्रकट हुई थीं, वह स्थान सीतामढ़ी में है, परन्तु जिस क्षेत्र में भगवान राम से उनकी सर्वप्रथम भेंट हुई, तत्पश्चात उनसे विवाह संपन्न हुआ, वह क्षेत्र जनकपुरी में है। मिथिला चित्रों में राम-जानकी विवाह का दृश्य एक लोकप्रिय विषयवस्तु है।

मिथिला क्षेत्र की अन्य विशेषताएं हैं, यहाँ स्थित असंख्य जलाशय, उनमें तैरती विविध प्रकार की मछलियाँ जिन्हें यहाँ रूचिपूर्वक ग्रहण किया जाता है, मखाने जिनकी यहाँ प्रचुर मात्रा में खेती की जाती है, यहाँ की मधुर भाषा तथा यहाँ के आनंदमय निवासी। यह मुख्यतः एक कृषि प्रधान क्षेत्र है।

मिथिला एवं मधुबनी चित्रकला की अनमोल  धरोहर

मिथिला चित्रकला पारंपरिक रूप से एक भित्तिचित्र कलाशैली थी जो स्त्रियाँ अपने घरों की भित्तियों पर चित्रित करती थीं। वे अनुष्ठानिक चित्र हुआ करते थे जिन्हें बहुधा विवाहोत्सवों, प्रसवोत्सवों तथा अन्य पावन उत्सवों पर चित्रित किया जाता था।

मिथिला के सामान्य जन जीवन का चित्रण
मिथिला के सामान्य जन जीवन का चित्रण

मिथिला चित्रों को स्थायी रूप से चित्रित करने का उद्देश्य नहीं होता था। जब भी घर में कोई नवीन उत्सव अथवा अनुष्ठान होता था तब उन्हें पुनः नवीन रूप से चित्रित किया जाता था।

किसी भी अन्य लोककला के अनुसार मिथिला चित्रों में भी विविध कथानकों एवं प्रस्तुतीकरण शैलियों का समावेश किया जाता था। इस परंपरा से संयुक्त प्रत्येक समुदाय के स्वयं के विशेष रूपांकन आकृतियाँ एवं चिन्ह होते थे जिन्हें वे अपने चित्रों में चित्रित करते थे।

वर्तमान में मिथिला चित्रकला शैली का इस स्तर तक व्यवसायीकरण हो गया है कि अब सामुदायिक वैशिष्ठ्य लुप्त होने लगा है। अब स्थिति यह है कि कलाकारों की स्वयं की व्यक्तिगत चित्रण शैलियाँ अवश्य हैं किन्तु चित्रों के विषय, उपभोक्ता माँग द्वारा ही निर्धारित होते हैं।

मधुबनी चित्रों का आधुनिक रूप

मधुबनी चित्रों ने सर्वप्रथम मिथिला के बाहर के प्रेक्षकों का ध्यान अपनी ओर तब आकर्षित किया जब सन् १९३० में आये भूकंप के पश्चात भूकंप में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए कुछ अंग्रेज सर्वेक्षकों ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी। किन्तु मिथिला के इन मधुबनी चित्रों को मिथिला का प्रतीक बनने के लिए एक अन्य भूकंप के आने तक की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

मधुबनी चित्रकला में आधुनिक विषय
मधुबनी चित्रकला में आधुनिक विषय

सन् १९६० में आये एक अन्य भूकंप के पश्चात सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक पुपुल जयकर ने छायाचित्रकार भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी क्षेत्र में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए वहाँ भेजा। उन्होंने विचार किया कि एक नवीन व्यवसाय के रूप में यदि इन भित्ति चित्रों को अन्य माध्यमों पर भी चित्रित किया जाए तो ये भूकंप से पीड़ित किसानों के लिए उनके दुष्काल में आजीविका का एक उत्तम स्त्रोत उत्पन्न कर सकते हैं।

तब से कलाकारों ने इन चित्रों को कागज जैसे अन्य माध्यमों पर चित्रित करना आरम्भ किया जिनकी वे आसानी से विक्री कर सकते थे। विश्व स्तर पर कई प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया ताकि इस अप्रतिम कला शैली को विश्व भर में पहुँच प्राप्त हो सके। तात्कालिक विदेश मंत्री ललित नारायण मिश्र, जो इसी क्षेत्र के निवासी थे, उनके अथक प्रयास से इस कलाशैली को अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध हुआ। Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाओं ने भी इस कार्य में अपना योगदान दिया।

अर्धनारीश्वर मिथिला चित्रण में
अर्धनारीश्वर मिथिला चित्रण में

शनैः शनैः मधुबनी चित्रों ने वैश्विक कला जगत में अपने लिए एक सुदृढ़ स्थान निर्मित कर लिया। अब सम्पूर्ण विश्व में भित्ति चित्रों पर मधुबनी चित्र का भी समावेश दृष्टिगोचर होता है। चूँकि अधिकाँश देशी-विदेशी कला प्रेमियों ने मधुबनी के माध्यम से ही इन चित्रों को जाना है, इसलिए इन्हें मधुबनी चित्रकला कहा जाता है। अन्यथा पारंपरिक रूप से देखें तो ये अनुष्ठानिक कला शैली थी जिसका प्रचलन सम्पूर्ण मिथिलांचल में था।

कदाचित उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिवस सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला उनकी सांकेतिक परिचय के रूप में प्रसिद्धी प्राप्त करेगी।

मधुबनी चित्रों के विविध प्रकार

मधुबनी चित्रों को दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है।

प्रथम आधार है, जाति अथवा समुदाय। प्रत्येक चित्रकार अपने समुदाय के ऐतिहासिक धरोहरों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने पर आधारित विषयवस्तुओं को अपने भित्तिचित्रों के माध्यम से साकार करता है। किन्तु उन सभी समुदायों अथवा जातियों की कलाशैली में एक तत्व सार्व है। वे चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हों, कायस्थ हों अथवा पासवान हों, वे सभी एक ही कलाशैली में भित्ति चित्रण करते हैं। वह है, मधुबनी चित्रकला शैली।

कछनी और भरनी से अर्धनारीश्वर
कछनी और भरनी से अर्धनारीश्वर

चित्रों के विभाजन का दूसरा आधार है, चित्रकला शैली। इस आधार के तीन अवयव हैं।

कछनी शैली – इस शैली में कलाकार मुक्त हाथों से रेखाचित्र बनाते हैं।

भरनी – भरनी का अर्थ है भरना। रेखाचित्र के भीतर विविध रंगों को भरा जाता है।

मधुबनी चित्रों की रचना कछनी एवं भरनी इन दोनों के संगम से ही होती है। मधुबनी चित्रकला शैली में अधिकाँश दृश्य इन दो तकनीकों द्वारा ही साकार किये जाते हैं।

गोदना –  गोदना एक पारंपरिक कला है जो सम्पूर्ण भारत में लगभग सभी समुदायों में प्रचलित थी। इस कला में शरीर के विभिन्न अंगों पर पारंपरिक आकृतियाँ गुदवायी जाती थीं। चूँकि ये आकृतियाँ शरीर के उन भागों पर गुदवायी जाती थीं जो बहुधा ढंके हुए नहीं होते थे, जैसे हाथ, गला, मुख आदि, ये आकृतियाँ आकार में लघु होती हैं।

गोदना मधुबनी चित्रण
गोदना मधुबनी चित्रण

जब इन गुदना आकृतियों को कागज पर चित्रित करने का क्रम आरम्भ हुआ तब अनेक आकृतियों को संयुक्त कर एक चित्र बनाने की परंपरा आरम्भ हुई। गुदना आकृतियों से निर्मित चित्र अधिक ज्यामितीय होते हैं तथा अधिक भरे हुए प्रतीत होते हैं।

तांत्रिक चित्र – ये चित्र वे कलाकार चित्रित करते हैं जो उपासना के अंतर्गत तंत्र पथ के अनुयायी हैं। ये अधिकांशतः शक्ति के उपासक होते हैं। उनके चित्रों में सामान्यतः दश महाविद्या जैसे देव एवं उनके यंत्र होते हैं। कभी कभी वे केवल यंत्रों को ही चित्रित करते हैं।

साधना एवं उपासना में इन चित्रों का प्रयोग किया जाता है।

कोहबर – विवाहोत्सवों के लिए अनुष्ठानिक चित्र

ये विवाहोत्सव अनुष्ठानिक चित्र वर-वधु के कक्ष की भित्तियों पर चित्रित किये जाते हैं। यह परंपरा मिथिला के सभी समुदायों में प्रचलित है। इन चित्रों में विभिन्न प्रजनन एवं समृद्धि चिन्ह होते हैं। इन्हें सामान्यतः कक्ष की पूर्वी भित्ति पर चित्रित किया जाता है।

पद्मश्री गोदावरी दत्त जी का रचा कोहबर
पद्मश्री गोदावरी दत्त जी का रचा कोहबर

इन चित्रों के प्रमुख अवयव हैं:-

  • चित्र के मध्य में कमल का पुष्प होता है जिसकी पंखुड़ियां बाहर की ओर खुलती हैं।
  • वनस्पतियों एवं प्राणियों के चित्र जैसे बांस, मोर आदि।
  • शिव एवं पार्वती
  • विवाह सम्बन्धी अनुष्ठान जैसे वर-वधु द्वारा पूजा आदि।
  • विवाह उत्सव का दर्शन करते तथा वर-वधु को आशीष देते सूर्य, चन्द्र तथा अन्य ग्रह।

भिन्न भिन्न समुदायों एवं परिवारों में प्रचलित चित्रों की सूक्ष्मताओं में भिन्नता हो सकती है किन्तु व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इन चित्रों का मुख्य उद्देश्य होता है, नव वर-वधु के लिए संरक्षण, सौभाग्य एवं आशीष की मांग करना।

पूर्व में कोहबर चित्रों को विवाह उत्सवों के उपलक्ष्य में भित्तियों पर नवीन रंगा जाता था। किन्तु अब अधिकतर लोग कागज में पूर्व में ही चित्रित चित्रों को क्रय कर लाते हैं तथा अपनी भित्तियों पर चिपकाते हैं। यहाँ तक कि दिग्गज चित्रकारों के घरों में भी हमने कागज पर चित्रित चित्र ही देखे।

व्यक्तिगत शैलियाँ

प्रत्येक कलाकार अथवा चित्रकार की एक व्यक्तिगत शैली होती है जिसमें आकृतियों एवं रंगों का उसका व्यक्तिगत चयन होता है। यद्यपि गंगा देवी जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकारों की शैलियों का रीतिसर अभ्यास हुआ है एवं प्रलेखन हुआ है, तथापि प्रत्येक चित्रकार की अपनी विशिष्ट शैली होती है जिनका रीतिसर अभ्यास एवं प्रलेखन अभी शेष है।

मधुबनी चित्रों में प्रयुक्त रंग

आप सबने कभी ना कभी कहीं ना कहीं मधुबनी चित्र अवश्य देखे होंगे। यदि मैं आपसे आग्रह करूँ कि आप अपने नेत्र बंद कर लें ,  तथा यह बताएं कि उन चित्रों में कौन से रंगों का प्रयोग किया गया था, तो आप अवश्य यह कहेंगे कि आपने मुख्यतः काले रंगों की रेखाएं देखी हैं जिनके मध्य कुछ रंग भरे गए हैं। आपको गहरे पीले अथवा मटमैले श्वेत रंग की पृष्ठभूमि पर श्याम एवं लाल रंग में कलाकृतियाँ दृश्यमान होंगी।

चटकीले होली के रंगों में मधुबनी चित्र
चटकीले होली के रंगों में मधुबनी चित्र

कागज पर गाय के गोबर का लेप लगाकर धूप में सुखाया जाता है जिससे गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि तैयार होती है।

अधिकाँश भारतीय चित्रण परम्पराओं के अनुरूप मिथिला चित्रों में भी प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है जो प्राकृतिक स्त्रोतों द्वारा प्राप्त होते हैं, जैसे वनस्पति, पुष्प, पत्तियाँ, फल तथा कालिख जैसी अन्य गृह वस्तुएं। यद्यपि कुछ चित्रकार अब भी गेरु का प्रयोग करते हैं, तथापि अधिकाँश चित्रकारों का रुझान आसान, सुलभ एवं चिरस्थायी कृत्रिम रंगों के प्रयोग की ओर होने लगा है।

भारत एक ऐसा देश है जहाँ लोगों को विविध रंग अत्यंत प्रिय हैं, वह भी चटक उजले रंग। इसलिए पारंपरिक चित्रों में चटक उजले रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे बैंगनी, उजला पीला, चटक हरा आदि।

श्वेत-श्याम मधुबनी चित्र

जैसे जैसे यह कला व्यावसायीकरण के चंगुल में फंसने लगी है, रंगों के चयन पर ग्राहकों का अधिपत्य बढ़ने लगा है। अब उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार रंगों का चयन किया जा रहा है। सन् १९६० के पश्चात के दशकों से हमें इन चित्रों में श्वेत एवं श्याम रंगों की प्राधान्यता दृष्टिगोचर होने लगी है। इनके साथ कुछ सौम्य रंगों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें देख यह अनुमान लगा सकते हैं कि इन रंगों का चयन पाश्चात्य देशों की मांग पर किया गया होगा क्योंकि वहाँ इन रंगों का प्रचलन अधिक है।

काली - बिहार संग्रहालय पटना में
काली – बिहार संग्रहालय पटना में

इन कलाकारों एवं वैश्विक बाजार के मध्य मध्यस्थता करने वाले बिचौलिये भी इन रंगों के चयन को प्रभावित करने लगे। यहाँ तक कि ये बिचौलिये विभिन्न समुदायों के कलाकारों से विशेष रंगों एवं आकृतियों का ही प्रयोग करने का आग्रह करने लगे हैं ताकि वे विभिन्न शैलियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर सकें।

जहाँ तक लोक कला शैलियों का प्रश्न है, वे कभी किसी सीमा में नहीं बंधे हैं। वे किसी सीमा के भीतर विकसित नहीं हुए हैं। ना ही उन्हें कभी किसी सीमा में बांधकर रखा जा सका है। किन्तु कला क्षेत्र से सम्बंधित बाजार में इन कलाकृतियों की मांग को उत्पन्न करने के लिए उनकी शैलियों को सीमाबद्ध करना आवश्यक हो जाता है। गत कुछ दशकों से मिथिला चित्रकला का विकास इसी सीमाबद्ध शैली के अंतर्गत हो रहा है।

मिथिला में मधुबनी चित्रकारों के गाँवों का भ्रमण

हमारी मिथिला यात्रा के समय हमारी तीव्र अभिलाषा थी कि हमें कुछ ऐसे गाँवों के भ्रमण का अवसर प्राप्त हो जहाँ से ऐसी महिला कलाकारों का उदय हुआ हो जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

मिथिला के मधुबनी कलाकार
मिथिला के मधुबनी कलाकार

मैं ऐसे एक गाँव की कल्पना करने लगी जहाँ प्रत्येक गृह की भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की गयी है। उस समय हम दरभंगा में ठहरे हुए थे। दरभंगा में तो मुझे कहीं भी ये चित्र दृष्टिगोचर नहीं हुए, अपवाद स्वरूप कुछ सरकारी संरचनाओं को छोड़कर। इन संरचनाओं पर पारंपरिक एवं आधुनिक दोनों दृश्यों को चित्रित किया गया था। मुझे कोई गाँव मेरी कल्पना के अनुरूप दिखाई नहीं दिया।

हमने मधुबनी नगरी का भ्रमण करने का निश्चय किया। मुझे यह जानकारी थी कि कम से कम मधुबनी रेल स्थानक की भित्तियों पर अत्यंत सूक्ष्मता एवं दक्षता से मधुबनी चित्रों का चित्रण किया गया है। मुझे अब भी महाराष्ट्र के रत्नागिरी रेल स्थानक का स्मरण है जहाँ की भित्तियों पर वारली चित्रों का प्रदर्शन किया गया है।

अंततः हमारे भाग्य ने हमारा साथ दिया जब हमारी भेंट इतिहासकार डॉ. नरेन्द्र नारायण सिंग ‘निराला’ जी से हुई जो मधुबनी चित्रकला शैली के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने मिथिला चित्रों के आधुनिक स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने हमें बताया कि किस प्रकार Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाएं इसके विकास में अपना योगदान दे रही हैं।

निराला जी ने हमें ऐसी कई संस्थाओं के विषय में बताया जिनकी स्थापना विशेष रूप से इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए ही की गयी है। उन्होंने बताया कि यूँ तो मिथिला चित्र मिथिला में सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु बाह्य विश्व में जिन चित्रों की विक्री होती है वे मधुबनी चित्र के नाम से जाने जाते हैं।

निराला जी हमें विभिन्न ग्रामों में ले गए जहाँ हमारी भेंट भिन्न भिन्न चित्रकारों से हुई। हमने प्रत्येक गाँव की विशेष शैलियों को भी देखा व समझा। इसके पश्चात उन्होंने हमें कुछ पुरातन मिथिला चित्र भी दिखाए जो उनके व्यक्तिगत संग्रह थे।

जितवारपुर ग्राम

जितवारपुर ग्राम मुख्यतः मधुबनी चित्रों के लिए जाना जाता है।

हमने सर्वप्रथम कृष्ण कान्त झा जी से उनके निवासस्थान पर ही भेंट की। वे एक महापात्रा ब्राह्मण हैं। वे मुख्यतः रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों के भव्य दृश्यों का चित्रण करते हैं। हम जब वहाँ गए थे तब वे हनुमान के चित्रों पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने हमें उनको इन चित्रों को रंगते हुए देखने की अनुमति भी दे दी थी।

उन्होंने सर्वप्रथम अनेक सीधी रेखाओं द्वारा चित्र के सीमावर्ती भागों को रेखांकित किया। तत्पश्चात उन्होंने उन सीधी रेखाओं के मध्य भागों को त्रिकोणीय आकृतियों से भर कर चित्र की किनारी तैयार की। उन्हें देख कर यह बोध हुआ कि सभी मिथिला चित्रों की यही किनारी होती है।

इसके पश्चात उन्होंने रेखांकन करते हुए पर्वत धारी हनुमान जी की छवि को चित्रपटल पर उतारा। मुक्त हाथों से रेखांकन करते उनके हाथ स्वच्छंदता से चित्रपटल पर हनुमान जी की छवि को साकार कर रहे थे। काली स्याही में डूबी कूची के अतिरिक्त वे किसी भी अन्य चित्रकारी सामग्री का प्रयोग नहीं कर रहे थे।

श्याम रंग द्वारा रेखांकन समाप्त होते ही वे अथवा उनके परिवार के सदस्य उन में रंगों को भरने का कार्य करते हैं जिसके पश्चात वह चित्र पूर्ण होगा। अधिकाँश चित्र सम्पूर्ण परिवार के संयुक्त प्रयासों का फल होते हैं। मुख्य चित्रकार दृश्य अथवा छवि को रेखांकित करता है। इसके पश्चात परिवार के अन्य सदस्य उनमें रंग भरते हैं।

कृष्ण कान्त झा जी हमें अत्यंत निर्मल व निश्छल व्यक्ति प्रतीत हुए। यदि आप उनके निवास के सामने से जायेंगे तो आपको यह अनुभव ही नहीं होगा कि यह एक सफल व्यावसायिक कलाकार का घर है। वे अपने घर से ही अपने चित्रों की विक्री करते हैं। इसके अतिरिक्त वे विद्यार्थियों को इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए भिन्न भिन्न स्थलों का भ्रमण भी करते हैं। अनेक सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत स्थानों की भित्तियों पर मधुबनी चित्र बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित भी किया जाता है।

शानू पासवान का गृह

कृष्ण कान्त झा जी से भेंट करने के पश्चात हमने एक गाँव के भीतर प्रवेश किया। हम पासवान समुदाय की चित्रकला शैली से अवगत होना चाहते थे। यहाँ अवश्य हमें कुछ घर ऐसे दिखे जिनकी भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की हुई थी। शानू पासवान जी के निवास में हमने गोदना शैली में चित्रित अनेक चित्र देखे। शीला देवी जी से भी हमारी भेंट हुई जिनका बाह्य कक्ष चित्रों से भरा हुआ था। उनमें कुछ पर अब भी कार्य शेष था।

पासवान समुदाय की राहू पूजा
पासवान समुदाय की राहू पूजा

हमने पासवान समुदाय के स्थानीय अनुष्ठान सम्बन्धी चित्र भी देखे, जैसे राहु पूजा आदि। पासवान समुदाय के लोक देवता राजा सलहेस अथवा सल्हेश से संबंधित कथाओं पर आधारित चित्र भी देखे। इस समुदाय के मधुबनी चित्रों में बाघों की छवि का प्रयोग बहुलता से किया जाता है।

उन चित्रों को देख मुझे तेलंगाना के चेरियल चित्रों का स्मरण हो आया।

कृष्णानंद झा के तांत्रिक चित्र

चित्रकार कृष्णानंद झा के निवास तक पहुँचने के लिए हमें खेतों के मध्य से होकर जाना पड़ा। इन खेतों के अंतिम छोर पर उनका निवासस्थान था। वहाँ स्व. कृष्णानंद झा की पत्नी ने हमारा अतिथी सत्कार किया। उन्होंने हमें अपने पति द्वारा चित्रित सभी चित्रों के छायाचित्र दिखाए।

यंत्रों के साथ बनाये हाय तांत्रिक चित्र
यंत्रों के साथ बनाये हाय तांत्रिक चित्र

इसके पश्चात उन्होंने हमारे समक्ष चित्रों की एक गड्डी खोली। उनमें दश महाविद्या एवं भगवान विष्णु के दशावतारों पर चित्रित अनेक चित्र थे। ये सभी चित्र भिन्न भिन्न अनुष्ठानों से संबंधित थे जो ग्राहकों की विशेष मांग पर बनाए गए थे।

पद्मश्री गोदावरी दत्त

अंत में हम पद्मश्री गोदावरी दत्त जी से भेंट करने रांटी गाँव पहुँचे। उनके आगंतुक कक्ष की भित्ति पर जो कोहबर चित्र चित्रित था, वो मेरे देखे अब तक के सर्वाधिक सुन्दर कोहबर चित्रों में से एक था। ९० वर्ष को पार कर चुकी गोदावरी जी की सक्रियता अब ढलान पर थी। फिर भी उन्होंने प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया एवं माता सुलभ प्रेम से हमारा अतिथि सत्कार किया।

उनकी पुत्रवधु अंजनी देवी जी ने हमें उनके निवासस्थान में प्रदर्शित सभी कोहबर चित्र दिखाए तथा उस शैली के विषय में जानकारी दी। वे कायस्थ समुदाय से संबंध रखती हैं। उनके चित्रों में श्वेत, श्याम एवं लाल रंगों की प्राधान्यता थी।

गोदावरी दत्त जी द्वारा चित्रित अनेक चित्रों को जापान के टोकामाची नगर में स्थित मिथिला संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। इस संग्रहालय के संग्रह को विकसित करने के लिए उन्होंने जापान की अनेक यात्राएं की हैं।

दरभंगा में मधुबनी साड़ी कलाकेन्द्र

दरभंगा में हमने राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मधुबनी कलाकार आशा झा जी के कला केंद्र का अवलोकन किया। चित्रों के साथ साथ उन्हें साड़ियों एवं दुपट्टों पर मधुबनी चित्रण का भी वैशिष्ठ्य प्राप्त है।

उनकी पुत्री ने मुझे एक पाग एवं एक दुपट्टा भेंट स्वरूप प्रदान किया। अतिथियों को मधुबनी चित्रों द्वारा सज्जित ये उपहार वस्तुएं प्रदान करने की उनकी विशेष परंपरा है। मैथिलि ब्राह्मण ये पाग तथा दुपट्टे औपचारिक अवसरों व उत्सवों पर धारण करते हैं। आप यदि इन्हें अपने सर पर धारण कर लें तो आप अपना सर अधिक हिला-डुला नहीं सकते।

आशा झा के कला केंद्र में निर्मित विशेष साड़ियों की अत्यधिक मांग है। उन साड़ियों पर उनके द्वारा चित्रित मधुबनी चित्र भी विशेष रूप से आग्रहीत होते हैं। इनके विषय में अधिक जानकारी के लिए आशा झा की मधुबनी पेंट्स इस वेबस्थल पर जाएँ अथवा उनके IG हैंडल से संपर्क करें।

मधुबनी यात्रा के लिए कुछ आवश्यक सुझाव

मधुबनी देश के अन्य भागों से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से जुड़ा हुआ है। निकटतम नगर तथा हवाई अड्डा दरभंगा है।

जितवारपुर का मुख्य परिचय है, मधुबनी कलाकारों का ग्राम।

स्वयं अपने बलबूते पर इन गाँवों तक पहुँचना आसान नहीं है। इन गाँवों तक आपको पहुँचाने के लिए किसी भी प्रकार के यात्रा नियोजक उपलब्ध नहीं है। इसके लिए सर्वोत्तम साधन है कि आप किसी स्थानीय व्यक्ति से संपर्क करें जो आपको इन कलाकारों से भेंट करवा सके।

यदि किसी चित्रकार से भेंट करने में आपकी रूचि नहीं है, आप केवल मधुबनी चित्रों को क्रय करना चाहते हैं तो दिल्ली का ‘दिल्ली हाट’ आपके लिए सर्वोत्तम गंतव्य होगा। मिथिला के अधिकाँश चित्रकार अपनी रचनाएँ नियमित रूप से उस हाट में प्रदर्शित करते हैं।

इन में से कई चित्रकार अपने चित्र ऑनलाइन भी विक्री करते हैं। इसके लिए अमेज़न सर्वोत्तम साधन है।

उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र पटना
उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र पटना

मधुबनी चित्रकला शैली में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए पटना के उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान से संपर्क करें जो मधुबनी चित्रकला में निशुल्क पाठ्यक्रम संचालित करते हैं।

मधुबनी चित्रकला अवलोकन एवं मिथिला के गाँवों का भ्रमण करने के लिए आप दरभंगा में ठहर सकते हैं जहाँ सुलभ विश्रामगृह उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

The post मिथिला बिहार की मधुबनी चित्रकला शैली – एक संदर्शिका appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/feed/ 1 3313
माधवेश्वर मंदिर परिसर दरभंगा – इस ‘श्मशान’ में होता है जीवन का दर्शन https://inditales.com/hindi/madhaveshwar-mandir-darbhanga-bihar/ https://inditales.com/hindi/madhaveshwar-mandir-darbhanga-bihar/#respond Wed, 09 Oct 2019 02:30:23 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1646

बागमती नदी के किनारे बसे बिहार के पुराने शहरों में से एक दरभंगा आज बिहार का प्रमंडलीय मुख्यालय है। इस शहर का सर्वप्रथम जिक्र 12वीं शताब्दी के आसपास के दस्तावेजों में मिलता है। वैसे तिरहुत (मिथिला) की राजधानी बनने का गौरव इसे 1762 में प्राप्त हुआ। दरभंगा जितना ऐतिहासिक है, उतना ही उपेक्षित भी। इसके […]

The post माधवेश्वर मंदिर परिसर दरभंगा – इस ‘श्मशान’ में होता है जीवन का दर्शन appeared first on Inditales.

]]>

बागमती नदी के किनारे बसे बिहार के पुराने शहरों में से एक दरभंगा आज बिहार का प्रमंडलीय मुख्यालय है। इस शहर का सर्वप्रथम जिक्र 12वीं शताब्दी के आसपास के दस्तावेजों में मिलता है। वैसे तिरहुत (मिथिला) की राजधानी बनने का गौरव इसे 1762 में प्राप्त हुआ।

दरभंगा जितना ऐतिहासिक है, उतना ही उपेक्षित भी। इसके बावजूद पुराने और महत्वपूर्ण शहर होने के नाते यहां पहुंचना बेहद सुगम है। 1938 से ही यहां एयरपोर्ट तैयार है (जो 1963 तक सेवरत्त था और तत्पश्चात वायुसेना के अधीन। आम जनों के लिए सेवा पुनः शुरु होनेवाली है जिसपर आधा से ज्यादा कार्य हो चुका है)। ध्यातव्य है कि 1874 से ही यह शहर रेलमार्ग से जुडा हुआ है। राजधानी दिल्ली समेत सभी महत्वपूर्ण जगहों के लिए यहां से सीधी ट्रेनें है। राजधानी पटना से करीब तीन घंटे का सफर तय कर ईस्ट वेस्ट कोरिडोर (एनएच 57) के रास्ते आप दरभंगा तक पहुंच सकते है।

शहर के मुहाने पर ही आपको एहसास हो जायेगा कि आप एक ऐसे शहर के अंदर जा रहे हैं, जो ठहरा हुआ है। अपने अतीत को ढोता हुआ किसी तरह जिंदा है। महलों और मंदिरों के खंडहरों के बीच से आ रही आवाज आपको उस परिसर की ओर ले जायेगी, जहां मृत्यु एक सत्य है। भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष रहे महाराजा रमेश्वर सिंह की करीब 22 फुट ऊंची इटेलियन मार्बल की विशाल प्रतिमा के सामने से गुजरते हुए जब आप उस परिसर में दाखिल होंगे तो धर्म, दर्शन और आध्यात्म की एक अलग ही दुनिया से आपका परिचय होगा। आप एक ऐसे शमसान की ओर बढ़ते जायेंगे जहां का महौल गम भरा नहीं, बल्कि उत्सवी दिखेगा। इस श्मशान स्थल के कण-कण में जीवन का दर्शन छुपा है।

करीब 51 एकड़ में फैले इस परिसर में तिरहुत के अंतिम राजवंश के कई सदस्यों की चिताओं पर भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है। राजपरिवार के इस श्मसान परिसर का निर्माण राजा राममोहन रॉय के प्रेरणा स्रोत रहे खंडवाला राजवंश के महान समाजसुधारक महाराजा माधव सिंह ने 1806 में करवाया था। यहाँ वर्णित किया जाता है कि खंडवाला राजवंश (मध्यप्रदेश के खंडवा में रहते हुए 1557 में महेश ठाकुर को तिरहुत का राज मिला था।) ने करीब 400 साल तक तिरहुत पर राज किया।

Madhaveshwar Mahadev Temple Darbhanga
माधवेश्वर महादेव मंदिर जिसके नाम से इस परिसर को जाना जाता है।

परिसर के मुख्य दरवाजे से सटा उजले रंग के गोल आकार का मंदिर इस परिसर का सबसे पुराना मंदिर है। भौडागढी से तिरहुत की राजधानी दरभंगा लाने के बाद महाराजा माधव सिंह ने शिव और शिवा दोनों को यहां स्थापित किया था। इस कारण ही इस महादेव को माधवेश्वर महादेव और परिसर को माधवेश्वर नाम से पुकारा जाता है। हालांकि कालांतर में परिसर की पहचान इसमे स्थित श्यामा मंदिर से भी बढ़ी है, सो लोग पूरे स्थल को ‘श्यामा माई मंदिर’ नाम से भी पुकारने लगे हैं।

माधवेश्वर महादेव मंदिर के पुजारी हेमचंद्र झा कहते हैं कि माधेश्वर शिव मंदिर ही इस परिसर में एकमात्र मंदिर है, जो किसी की चिता पर नहीं है। माधेश्वर नाथ महादेव को छोड़कर इस परिसर में बने अन्य मंदिरों में देवियों की प्रतिमाएं हैं, जिनका चयन साधकों की इष्ट (तंत्र में काली के कई रूप हैं, साधक किसी एक रूप का बीजमंत्र ग्रहण करता है उस रूप को साधक का इष्ट कहा जाता है) के आधार पर किया गया है।

श्री झा कहते हैं कि यह संयोग ही कहा जाये कि महाराजा माधव सिंह का निधन दरभंगा में नहीं हुआ, इसलिए उनकी चिता भूमि इस परिसर में नहीं है, लेकिन महाराजा माधव सिंह का अस्थि कलश महादेव मंदिर के आगे रखा हुआ है। राज परिवार के पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार से पूर्व इस कलश के पास रखने की परंपरा है। परिसर में सबसे पुरानी चिता के संदर्भ में श्री झा कहते हैं कि माधव सिंह के पुत्र महाराजा छत्र सिंह का निधन भी काशी में हुआ, इसलिए उनकी चिता भी यहां नहीं सजी। परिसर में चिता भूमि पर बने सबसे पुराने मंदिर रुद्रेश्वरी काली की है, जो महाराजा माधव सिंह के पोते महाराजा रुद्र सिंह की चिता भूमि पर है।

rudreshwari kali mandir darbhanga
रुद्रेश्वरी काली मंदिर जो महाराजा रुद्र सिंह की इष्ट देवी को समर्पित है

माधवेश्वर महादेव मंदिर के आगे बने बड़े तालाब से दक्षिण उजले रंग का विशाल मंदिर है जिसका मुख चिता भूमि पर होने के कारण उत्तर दिशा की ओर है। इस मंदिर में पूजा दक्षिण दिशा की ओर होती है। कहा जाता है कि चिताभूमि पर पूजा किसी भी दिशा में की जा सकती है। महाराजा रुद्र सिंह की इष्ट देवी (तांत्रिकों की मूल देवी को इष्ट कहा जाता है) मां दक्षिणेश्वरी काली थी, इसलिए इनकी चिता पर रुद्रेश्वरी काली की स्थापना की गयी है।

rudreshwari kali mandir darbhanga statue
रुदरेश्वरी काली मंदिर स्थिति माता की प्रतिमा।

इसी मंदिर के पुजारी श्यामनंदन मिश्र कहते हैं कि शाक्त संप्रदाय के अंदर श्मसान स्थल पर अवस्थित मंदिरों की अपनी महत्ता है। चिता पर स्थापित प्रतिमाओं में अद्भुत शक्ति होती है। आमतौर पर ऐसे मंदिरों में तंत्र साधना ही होती है, लेकिन दरभंगा के माधेश्वर राज श्मसान में अवस्थित मंदिरों में तंत्र साधना के अलावा शादी-ब्याह से लेकर सभी मांगलिक कार्य होते हैं और मान्यता है कि यहाँ होने वाले सभी मांगलिक कार्य अतिशुभ होते हैं।

rudreshwari kali mandir darbhanga inside
रुद्रेश्वरी काली मंदिर से दृश्य में आता परिसर के मध्य स्थित तालाब और श्यामा मंदिर

तालाब के पूर्वी हिस्से पर पीले और उजले रंग का भव्य मंदिर लक्ष्मीश्वरी तारा का है।

Lakshmishwari Tara Mandir Darbhanga
परिसर स्थित लक्ष्मीश्वरी तारा मंदिर जो महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की इष्ट देवी हैं।

काली का तारा रूप बौद्ध रूपी है और महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की इष्ट होने के कारण उनकी चिता भूमि पर माता तारा की प्रतिमा स्थापित की गयी है।

lakshmishwari tara darbhanga
देवी काली का एक और रूप – माता तारा जो बौद्धिक संपदा की द्योतक है

इस मंदिर की स्थापना 1899 में हुई। इसी मंदिर से सटा महारानी लक्ष्मीवती की चिताभूमि पर भी एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। रुद्रेश्वरी काली की तरह ही इन मंदिरों का मुख भी उत्तर दिशा की ओर है और पूजा दक्षिण मुखी होती है।

Lakshmishwari Tara Mandir Rear View Darbhanga
लक्ष्मीश्वरी तारा मंदिर से लगा महारानी लक्ष्मीवती को समर्पित मंदिर जो उन्ही की चिताभूमि पर है

लक्ष्मीश्वरी तारा से सटा हुआ तालाब के उत्तर परिसर का सबसे भव्य मंदिर है मां रमेश्वरी श्यामा का। काली का एक अन्य रूप है श्यामा। विश्व में श्यामा की सबसे बडी प्रतिमा इसी परिसर में महान तंत्र साधक महाराजा रमेश्वर सिंह की चिता भूमि पर अवस्थित है।

Maa Shyama Mandir Darbhanga Bihar
माता श्यामा का मंदिर जो महाराजा रामेश्वर सिंह को समर्पित है

वैसे कहा जाता है कि इतनी ही बड़ी श्यामा की प्रतिमा खुद महराजा रामेश्वर सिंह राजनगर में स्थापित किया था जहाँ दोनों प्रतिमाओं का आकार तो समान है परंतु राजनगर में माता जहां वात्सल्य रूपी है, वही माधेश्वर स्थित रमेश्वरी श्यामा का रूप रौद्र है।

Maa Shyama Darbhanga Bihar
मंदिर स्थित देवी श्यामा की प्रतिमा

प्रसिद्ध तांत्रिक व शक्ति के प्रबल उपासक महाराज रामेश्वर सिंह की चिता पर 1933 में स्थापित मां श्यामा की यह आदमकद प्रतिमा भगवान शिव की छाती पर अवस्थित है। बगल में गणेश, वटुक भैरव व काल भैरव की प्रतिमाएं हैं।

Shyama Mandir Darbhanga Frontview
देवी श्यामा मंदिर (बाह्य दृश्य)

रमेश्वरी श्यामा के पूजारी शरदचंद्र झा कहते हैं कि मंदिर में तांत्रिक और वैदिक दोनों रीतियों से पूजा होती है, जबकि अन्य मदिरों में पूजा पद्धति तांत्रिक विधि पर आधारित है। यही कारण है कि यहां के हर मंदिर में बलि वेदी है, लेकिन यज्ञ मंडप केवल रमेश्वरी श्यामा मंदिर में ही बनाया गया है। इसलिए तांत्रिक और वैदिक दोनों संप्रदाय के लोगों की आस्था व विश्वास का यह मुख्य केंद्र हैं। यहाँ प्रतिवर्ष लाखों भक्त पूजा-अर्चंना के लिए आते हैं।

Shyama Mandir Bell
आरती तथा अनुष्ठान के समय बजाया जाने वाला वजनी घंटा जो मंदिर के ठीक सामने अलग से स्थित है

श्यामा मंदिर के प्रबंधक चौधरी हेमकांत राय ने बताया कि यहाँ की आरती अन्य जगहों से अगल होती है। यहाँ षोडशोपचार (यह आरती जल, अक्षत, पुष्प, चानन (चन्दन) और नेवैद्य समेत 16 प्रकार की वस्तु से माँ की पूजा के उपरांत की जाती है) और पंचोपचार (यह आरती जल, अक्षत, पुष्प, चानन  और नेवैद्य से पूजन के उपरांत की जाती है) विधि से आरती होने की परंपरा है। तारापीठ और कोलकाता के बेलूर मठ में भी षोडशोपचार आरती होती है। सुबह 11 बजे व रात को 10 बजे आरती षोडशोपचार होती है। इस दौरान मंदिर के आगे लगे महाघंटा को बजाया जाता है जिसकी आवाज पूरे राज प्रासाद तक पहुंचती है (मंदिर के इर्द-गिर्द कई राजमहल व पुराने राजसी आवास है)। इस दौरान माता का आशीर्वाद पाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं।

Kameshwari Shyama Mandir Darbhanga Bihar
कामेश्वरी श्यामा – दरभंगा के अंतिम महाराज को समर्पित मंदिर

तालाब के दक्षिण-पश्चिम कोण पर परिसर का सबसे नया और आकार में सबसे छोटा पीले रंग का कामेश्वरी श्यामा मंदिर है। श्यामा की यह प्रतिमा तिरहुत के आखिरी महाराजा कामेश्वर सिंह की चिता भूमि पर है। इस मंदिर का निर्माण महाराजा कामेश्वर सिंह की पहली पत्नी महारानी राजलक्ष्मी ने अपने सुहाग के गहने बेच कर कराया था, इसलिए इसके आकार और भव्यता अन्य मंदिरों की अपेक्षा कम है, लेकिन मान्यता में कोई कमी नहीं है। इसी मंदिर के बगल में महारानी राजलक्ष्मी की भी चिताभूमि है, जिसपर अब तक मंदिर का निर्माण नहीं हो पाया है।

Annapurna Mandir, Shyama Mandir Complex Darbhanga
दरभंगा की अंतिम राजमाता (रामेश्वर सिंह की भार्या) को समर्पित देवी अन्नपूर्णा का मंदिर। पास ही छोटी रानी का मोक्षस्थल जिसपर मंदिर का निर्माण होना बाकी है

लाल पत्थर से बना अन्नपूर्णा मंदिर परिसर के उत्तरी दरवाजे पर है जो तिरहुत की अंतिम राजमाता रामेश्वरी की चिता पर अवस्थित है। वहीं रामेश्वरी श्यामा और बड़ी राजमाता (अन्नपूर्णा मंदिर) के बीच भी एक और निर्माणाधीन मंदिर है जो छोटी महारानी के चिता पर है। मिथिला की देवी प्रतिमाओं पर शोध करनेवाले सुशांत भाष्कर कहते हैं कि परिसर में तो पग-पग पर चिता भूमि है लेकिन कुल मिलाकर इस परिसर में कुल सात चिंताओं पर ही मंदिर हैं, जबकि एक चिता पर मंदिर निर्माणाधीन है। आखिरी युवराज समेत कई चिताओं पर बरगद और पीपल के पेड़ हैं, जिनकी पूजा भी लोग मौके बे मौके करते रहते हैं। वट सावित्री के दिन युवराज की चिता पर लगे बरगद के पेड की पूजा कर महिलाएं अपने पति की लंबी आयु की कामना करती हैं।

परिसर के संदर्भ में राज परिवार के सदस्य और महाराजा कामेश्वर सिंह के सबसे बड़े पोते कुमार रत्नेश्वर सिंह कहते हैं कि यह पूरा परिसर 1949 में महाराजा कामेश्वर सिंह धार्मिक न्यास के अधीन आ गया। आज इन मंदिरों की देखरेख इसी न्यास के जिम्मे है। सिंह कहते हैं कि वैदिक पूजा (यज्ञ) यहाँ बहुत बाद में 1988 के भूकंप के बाद शुरु हुई। यहाँ के मंदिरों का निर्माण ही तांत्रिक विधि से पूजा को देखते हुए किया गया है। श्यामा की पूजा पश्चिम दिशा की ओर होती है, जबकि तारा और काली की पूजा दक्षिण दिशा की ओर मुख कर के होती है। सभी मंदिरों के अंदर मूर्ति के साथ-साथ तांत्रिक यंत्र बने हुए हैं। नवरात्र के दौरान यहाँ बलि भी चढ़ाई जाती है।

Madhweshwar Mandir Complex Darbhanga View
परिसर में ऐसे कई वट वृक्ष हैं जो राजपरिवार के किसी न किसी युवराज की समाधि-स्थली है।

परिसर में आये बदलाव को रेखांकित करते हुए कुमार रत्नेश्वर सिंह कहते हैं कि जंगलों के बीच बने इन मंदिरों में कभी पूरे देश के तंत्र साधक आकर तंत्र साधना करते थे। धीरे-धीरे जंगल गायब हो गये। 1988 के तीव्र भूकंप के बाद यहाँ नौ दिनों का श्यामा नामधुन नवाह कीर्तन का आयोजन शुरु हुआ। इस आयोजन के कारण आम लोगों की आवाजाही इन मंदिरों में बढ़ने लगी और फिर इसके प्रति मान्यताएं भी बदलने लगी। आज यह श्मशान स्थल लोगों की धार्मिक आस्था का केंद्र बन गया है। अब तो यहाँ शहनाइयां भी बजने लगी हैं। मंदिर परिसर में आज विवाह से लेकर हर मांगलिक अनुष्ठान व संस्कार होते हैं। विवाह, मुंडन, उपनयन, होने वाले वर-वधू का पारिवारिक मिलन (विवाह के लिए), सप्तशती सामान्य पाठ, कुमारी भोजन, हवन, विष्णु पूजन और वाहन पूजा आदि कार्य होते हैं। माँ श्यामा नाम धुन नवाह के दौरान लाखों की संख्या में लोग यहाँ आते हैं। यहाँ तक कि नेपाल से भी भक्त आते हैं।

उत्तरी बिहार में अवस्थित इस मंदिर परिसर का अपना ही महत्व है जो इस इलाके को अलग पहचान देता है। परिसर के आस-पास भी कई पुराने तथा भव्य मंदिर है जिनका निर्माण राजपरिवार ने करवाया था जिसमे कंकालिनी मंदिर, मनोकामना मंदिर और प्राचीन राम मंदिर प्रमुख है।


लेख: आशीष झा, दरभंगा के रहनेवाले आशीष झा पिछले करीब 20 वर्षों से पत्रकार हैं। दैनिक जागरण, अमर उजाला समेत करीब आधा दर्जन अखबारों में काम कर चुके झा संप्रति दैनिक प्रभात खबर के संपादकीय विभाग में है। इतिहास और कला के प्रति गहरी रुचि रखनेवाले झा पर्यावरण और धरोहर के लिए चलाये जा रहे विभिन्‍न आंदोलनों से जुडे हुए हैं।

छायांकन: संतोष कुमार, दरभंगा के रहनेवाले संतोष कुमार पिछले कई वर्षों से धरोहर और इतिहास पर शोध कर रहे हैं। संप्रति ललित नारायण मिथिला विश्‍वविद्यालय के आईटी सेल में कार्यरत संतोष कुमार विश्‍वविद्यालय के सिनेटर हैं। इंटैक के आजीवन सदस्‍य और इसमाद फाउंडेशन के न्‍यासी संतोष कुमार बिहार के इकलौते हैरिटेज फोटोग्राफर हैं।

The post माधवेश्वर मंदिर परिसर दरभंगा – इस ‘श्मशान’ में होता है जीवन का दर्शन appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/madhaveshwar-mandir-darbhanga-bihar/feed/ 0 1646
उत्प्रेरक बनने का सौभाग्य – बिहार से जुड़ी एक यात्रा कथा https://inditales.com/hindi/bihar-travel-tale/ https://inditales.com/hindi/bihar-travel-tale/#comments Wed, 23 May 2018 02:30:08 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=492

यह ब्लॉग एक लम्बा सफ़र तय कर चुका है। इस लंबे सफर के साथ कई अच्छे बुरे किस्से जुड़े हैं। बहुत सी यात्रा कथा  ऐसी है जो आपके होने का अर्थ सार्थक कर देते हैं. आज आपसे साझा करने के लिए मेरे पास इससे बेहतर और अच्छी कहानी शायद कोई और नहीं हो सकती। मैंने […]

The post उत्प्रेरक बनने का सौभाग्य – बिहार से जुड़ी एक यात्रा कथा appeared first on Inditales.

]]>

यह ब्लॉग एक लम्बा सफ़र तय कर चुका है। इस लंबे सफर के साथ कई अच्छे बुरे किस्से जुड़े हैं। बहुत सी यात्रा कथा  ऐसी है जो आपके होने का अर्थ सार्थक कर देते हैं. आज आपसे साझा करने के लिए मेरे पास इससे बेहतर और अच्छी कहानी शायद कोई और नहीं हो सकती। मैंने कभी नहीं सोचा था कि नियति मुझे इस ब्लॉग के जरिये एक दिन किसी की ज़िंदगी सुधारने का प्रमुख स्त्रोत बना देगी।

बिहार की यात्रा और उत्प्रेरक बनने का सौभाग्य 

बराबर गुफा के समीप खिलखिलाते बच्चे
बराबर गुफा के समीप खिलखिलाते बच्चे

फ़रवरी २०११ में मैंने बिहार की कुछ प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण जगहों की यात्रा की थी, जिससे संबंधित विवरण मैंने अपने इस ब्लॉग पर लिखे थे। इन यात्रा वृत्तान्तों में से एक लेख बिहार की बराबर पहाड़ियों में स्थित प्राचीन गुफाओं पर भी लिखा गया था। उस पहाड़ी पर कुछ उत्साहित से बच्चे थे जो हमसे अपनी तस्वीरें खिचवाने चाहते थे और उनकी मासूमियत ने हमे उनकी इस इच्छापूर्ति के लिए बाध्य किया। अपने कैमरे में उनके प्रफुल्लित चेहरों को एक अच्छी याद के रूप में संजोने के विचार से हम बहुत प्रसन्न थे।

आम तौर पर जब भी मैं किसी अजनबी व्यक्ति की तस्वीरें सोशियल मीडिया पर साझा करती हूँ तो थोड़े सोच-विचार के बाद ही अपना निर्णय लेती हूँ। लेकिन इस बार मैंने पहाड़ी पर खींची उन तीनों मुस्कुराते हुए लड़कों की तस्वीर अपने ब्लॉग पोस्ट पर डाल दी। और अब जाकर मुझे पता चला कि मेरे इस कार्य में नियति कहीं पर अपने ताने-बाने बुन रही थी।

उत्प्रेरक बनने का सौभाग्य 

इस लेख के छपने के कुछ माह बाद कोलकाता में रहनेवाली किसी ऑस्ट्रलिया की महिला ने मुझे एक लंबा सा ईमेल भेजा। जिसमें उन्होंने लिखा था कि, जिस होटल में वह रह रही है वहां उनके कमरे की खिड़की के ठीक नीचे एक चाय की दुकान है, जहां पर एक छोटा सा लड़का काम करता है। उन्हें लगा कि शायद वह उस चाय वाले का लड़का होगा और उन्होंने उस लड़के को कुछ नए कपड़े और एक मोबाइल फोन देकर उसकी मदद करने की कोशिश की। लेकिन कुछ समय बाद उन्हें पता चला कि वह उस चाय वाले का लड़का है ही नहीं, बल्कि वह तो बिहार का है।

उत्सुकतापूर्वक उन्होंने गूगल से बिहार संबंधित कुछ जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की, जिसके द्वारा वह हमारे ब्लॉग तक पहुंची। इस ब्लॉग पर उस लड़के की तस्वीर देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ और उन्होंने तुरंत उस लड़के से इस संबंध में बात की जिसके उत्तर में उस लड़के ने अपनी स्वीकृति दी। यहाँ से शुरू हुई यह यात्रा कथा।

उसके बाद उस महिला ने बिना समय गवाए मुझे एक ईमेल भेजा, जिसमें उन्होंने उस लड़के के बारे में और जानकारी प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की थी। वह उस लड़के को वापस उसके परिवार के पास पहुंचाना चाहती थी। उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि मैंने वह तस्वीर कब और कहां पर खींची थी। उनकी इस कोशिश को देखकर मैंने सहज रूप से अपने पास उस लड़के से संबंधित जितनी भी जानकारी थी वह उनके साथ साझा की। इस तस्वीर में नीले रंग के कपड़े पहने हुए जो लड़का है वही वह लड़का है।

मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि, उस लड़के को कोलकाता उसके परिवार ने ही भेजा था या फिर वह खुद कोलकाता से भाग गया था। मुझे तो यह भी नहीं पता कि उसके परिवार वाले उसे फिर से अपनाएँगे भी या नहीं, या शायद उसके परिवार वाले ही चाहते थे कि, वह अपना पालन-पोषण स्वयं करे और उनपर बोझ ना बने। मैं तो यह भी नहीं जानती कि इस सबसे मुझे कोई मतलब है भी या नहीं। लेकिन मुझे इस बात की खुशी जरूर है कि, कहीं ना कहीं मेरा काम किसी के जीवन के छूटे हुए तार फिर से जोड़ने का माध्यम तो बन सका। इस घटना से मुझे एक बात का एहसास तो हो गया कि, यह दुनिया वास्तव में बहुत छोटी है और कभी-कभी वह अनजाने में ही आपको इसे एक बेहतरीन जगह बनाने का सौभाग्य प्रदान करती है।

अगर इस सबसे उस लड़के का अपने परिवार से पुनर्मिलन हो जाए और अगर दोनों तरफ से यही इच्छा है…तो शायद यह ब्लॉग अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में जरूर सफल रहा होगा।

 कैसी लगो आपको हमारी यह यात्रा कथा, हमें अवश्य बताइयेगा।

The post उत्प्रेरक बनने का सौभाग्य – बिहार से जुड़ी एक यात्रा कथा appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/bihar-travel-tale/feed/ 6 492
गंगा देवी – मिथिला की मधुबनी चित्रकार और उनकी चित्रकारी https://inditales.com/hindi/ganga-devi-mithila-madhubani-artist/ https://inditales.com/hindi/ganga-devi-mithila-madhubani-artist/#comments Wed, 17 Jan 2018 02:30:27 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=498

मिथिला की प्रसिद्ध चित्रकार गंगा देवी की मधुबनी चित्रकारी   आज मधुबनी और वार्ली चित्रकारी भारत की आदिवासी चित्रकला या लोक कला का प्रतीक बन चुकी है। यह चित्रकारी दिल्ली हाट की गलियों में, सूरजकुंड मेले में और अन्य कला उत्सवों में भी देखी जा सकती है। ये कला उत्सव भारत भर के विविध प्रकार […]

The post गंगा देवी – मिथिला की मधुबनी चित्रकार और उनकी चित्रकारी appeared first on Inditales.

]]>

मिथिला की प्रसिद्ध चित्रकार गंगा देवी की मधुबनी चित्रकारी  

गंगा देवी द्वारा अमरीका यात्रा का चित्रण
गंगा देवी द्वारा अमरीका यात्रा का चित्रण

आज मधुबनी और वार्ली चित्रकारी भारत की आदिवासी चित्रकला या लोक कला का प्रतीक बन चुकी है। यह चित्रकारी दिल्ली हाट की गलियों में, सूरजकुंड मेले में और अन्य कला उत्सवों में भी देखी जा सकती है। ये कला उत्सव भारत भर के विविध प्रकार के कलाकारों को एकत्र लाने का सबसे अच्छा माध्यम है। भारत के ग्रामीण घरों की दीवारों पर सजी इस चित्रकारी को जब कागज का सहारा मिला, तो चित्रकारों ने भी इस नए माध्यम के जरिये अपनी कला को पंख देने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार पिछले 2-3 दशकों से आदिवासी चित्रकला व्यापक स्तर पर अपनी विशेष पहचान बनाने में सफल रही है।

एक बार मुझे गोवा विश्वविद्यालय में आदिवासी चित्रकला के संबंध में हुई संगोष्ठी में भाग लेने का मौका मिला था, जो नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक श्री ज्योतीन्द्र जैन द्वारा आयोजित की गयी थी। इस संगोष्ठी में उन्होंने कुछ आदिवासी चित्रकारों की जीवनकथाएं सुनाई थी, जिन्होंने ग्रामीण चित्रकला के क्षेत्र में आए परिवर्तनों को लाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इन्हीं में से एक थी मिथिला की गंगा देवी, जिन्होंने मधुबनी चित्रकारी के आंदोलन का मार्गदर्शन किया।

तो अब मैं इस महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध चित्रकार की जीवन कथा को आपके साथ साझा करने जा रही हूँ।

गंगा देवी और मधुबनी चित्रकारी   

गंगा देवी द्वारा रामायण में रावण वध का चित्रण
गंगा देवी द्वारा रामायण में रावण वध का चित्रण

गंगा देवी बिहार के मिथिला क्षेत्र में बसे एक छोटे से गाँव में रहती थी। बच्चा न हो पाने के कारण उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया और दूसरा विवाह कर लिया। और इतना ही नहीं, उनके पास जो कुछ बचा था वह घरेलू मतभेदों के चलते उन्हें अपनी सौतन को सौपना पड़ा। समय के जिस दौर और वातावरण में गंगा देवी रह रही थी, उसमें उनकी किस्मत कुछ खास अलग नहीं थी। यद्यपि उनका भाग्य दूसरों से अलग जरूर था। इसी भाग्य ने एक दिन एक फ़्रांसिसी कला संग्राहक को उनके दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया। इस कला संग्राहक ने गंगा देवी को कागज देकर उसपर उनके लिए कुछ चित्र बनाने को कहा। उनकी चित्रकारी देखकर वे इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने गंगा देवी को इनाम के तौर पर बहुत बड़ी रकम दे दी। उनके लिए शायद उन पैसों का कोई मोल नहीं था, लेकिन गंगा देवी के लिए ये पैसे ज़िंदगी काटने के लिए काफी थे।

इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी कला चित्रकारी के क्षेत्र में उभरने लगी और उनके चित्रों की मांग बढ़ती गयी। वे दिल्ली के संग्रहालयों के अध्यक्षों की नजरों पर छाने लगी, जिन्होंने उन्हें शिल्प संग्रहालय जैसी जगहों पर आमंत्रित करना शुरू किया। इसी के साथ उन्होंने साधिकार चित्रों पर काम करना आरंभ किया। इसके बाद जैसे प्रसिद्धि ने उनके कदम चूम लिए।

मधुबनी चित्रकारी 

अनंतता का प्रतीक - मधुबनी, गंगा देवी
अनंतता का प्रतीक – मधुबनी, गंगा देवी

मधुबनी चित्रकारी पारंपरिक रूप से मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित घरों की दीवारों पर की जाती थी। ये चित्र धार्मिक क्रियाकर्मों पर आधारित हुआ करते थे, जिन्हें कोहबर कहा जाता था। इन चित्रों में वर्णनात्मक प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है जिन्हें विशिष्ट रंगों में दर्शाया जाता है। ये चित्र ज्यादातर शादी-ब्याह जैसे समारोहों पर बनाए जाते थे। उदाहरण के लिए, दूल्हे का कमरा जिसमें नव-विवाहित दूल्हा-दुल्हन रहते थे, उसे प्रजनन के प्रतीकों से चित्र रूप में सजाया जाता था, जैसे बांस का पेड़ या पूर्ण रूप से खिला हुआ कमल का फूल।

इन भित्तिचित्रों से एक प्रकार की पवित्रता की भावना जुड़ी होती थी। ये चित्र घर की औरतों से संबंधित हुआ करते थे, जो स्वयं ये चित्र बनाती थीं। यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि यह कला उन्होंने अपने परिवार की बुजुर्ग औरतों के अनुसरण द्वारा सीखी है क्योंकि, उस समय चित्रकारी सीखने के लिए कोई खास प्रशिक्षण केंद्र नहीं होते थे और महिलाओं के लिए तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। इसके पीछे या तो इन महिलाओं की व्यक्तिगत रुचि रही होगी या फिर हालात कारणीभूत रहे होंगे। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन इनके चलते इनमें से कुछ महिलाओं ने शायद अपनी सखियों से कई अधिक चित्र बनाए होंगे।

मधुबनी चित्रकारी का कागजी सफर  

1960 के दौरान भारत सरकार ने इस गाँव में मुफ्त के कागज वितरित करने का निश्चय किया, जिसने महिलाओं को दीवारों के बदले कागजों पर अपनी कलाकारी को आकार देने के लिए प्रोत्साहित किया। चित्रकारी के बदलते माध्यम के साथ-साथ उसके विषयवस्तु की व्यापकता भी बढ़ती गयी। अब तक अनभिज्ञता के आवरण में ढके इस नए और प्रभावपूर्ण माध्यम की अचानक उपलब्धि ने गंगा देवी जैसी अनेकों महिलाओं की रचनात्मकता को अनावृत किया।

आगे जाकर इनमें से बहुत सी महिलाएं अपनी अनोखी चित्रण शैली के कारण सुविख्यात चित्रकार बन गईं। तथापि, विरासत के रूप में इन महिलाओं ने अपने क्षेत्र के लोगों के लिए कलाकेंद्र बनवाया। मधुबनी चित्रकारों की वृद्धि देखने के लिए आपको दिल्ली हाट जैसी जगहों की सैर करनी चाहिए या फिर किसी कला उत्सव में जाना चाहिए। इन कलाकारों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने का यही सबसे प्रभावी माध्यम है। इससे भी अधिक यह ग्रामीण समुदायों के लिए रोजगार का प्रमुख स्त्रोत है।

गंगा देवी द्वारा निर्मित रामायण की चित्रकथा  

राम लक्ष्मण सीता का केवट के नाव पे जाना - मधुबनी चित्र गंगा देवी
राम लक्ष्मण सीता का केवट के नाव पे जाना – मधुबनी चित्र गंगा देवी

धार्मिक क्रिया-कर्मों पर आधारित भित्तिचित्र बनाने वाली गंगा देवी ने रामायण जैसे विषय पर किस प्रकार की चित्रकारी की होगी? वैसे तो बचपन से हम सभी रामायण जैसे महाकाव्यों की गाथाएँ सुनते आए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी से गुजरती रामायण की इन्हीं कथाओं को गंगा देवी ने अपनी चित्र श्रृंखला में अनुवादित किया। इसके अलावा उन्होंने बचपन से सुनती आयी अन्य लोक कथाओं को भी अपने चित्रों में ढाल दिया।

उनकी चित्रकारी में हाथ की संयमता, चित्रों की स्पष्टता और रंगों की प्रयोगात्मकता साफ झलकती है, जो चित्रकारी के इस व्यापक क्षेत्र में अन्यत्र दुर्लभ है। कागज के चौखटे में उपलब्ध सीमित जगह को चित्रकारी में इस्तेमाल करने की उनकी कला अप्रतिम है। चाहे उन्हें एक ही चित्र में अनेक दृश्य दिखाने हो या फिर गुजरते समय को दिखाना हो, उस छोटी सी जगह का प्रयोग वे उत्तम रूप से करती हैं।

गंगा देवी द्वारा बनाई गयी मानव जीवन की चित्र श्रृंखला  

गंगा देवी की मानव जीवन श्रृंखला
गंगा देवी की मानव जीवन श्रृंखला

मानव जीवन की चित्र श्रृंखला गंगा देवी की चित्रकारी का उत्कृष्ट नमूना है। इसमें उन्होंने एक ग्रामीण स्त्री का जीवन-चक्र चित्रित किया है। उस स्त्री के जन्म से लेकर यौनावस्था में उसका प्रवेश, उसकी शादी, उसका गर्भवती होना और विविध संस्कारों से गुजरना, बच्चे को जन्म देना, उसका पालन-पोषण करना, ताकि वह बच्चा आगे जाकर अपना एक नया जीवन चक्र आरंभ करने में सक्षम बन सके।

गर्भवती स्त्री का चित्रण - गंगा देवी
गर्भवती स्त्री का चित्रण – गंगा देवी

इस चित्र श्रृंखला में उन्होंने एक स्त्री के जीवन पड़ावों का चित्रण बहुत ही सादगी और सरलता के साथ किया है। इस में चित्रित दृश्यों को दर्शाने के लिए उन्होंने विशिष्ट प्रतीकों का उपयोग किया है और इन प्रतीकों के साथ भी उनकी प्रयोगात्मकता साफ दिखाई देती है। उनकी चित्रकारी जैसे समकालीन समाज की सांस्कृतिक बुनावट का दस्तावेजीकरण बन गयी है। जिसमें बच्चे को बुरी नज़र से बचाना या बच्चे के जन्म पर क्लीवों का नाच-गाना या कुलदेवता की पूजा करना जैसी छोटी-छोटी बातों को कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है।

गंगा देवी और अमरीका    

गंगा देवी की अमरीका यात्रा के दृश्य - मधुबनी चित्र शैली में
गंगा देवी की अमरीका यात्रा के दृश्य – मधुबनी चित्र शैली में

अमरीका जैसे पाश्चात्य देशों की यात्रा करने के पश्चात गंगा देवी के चित्रों में एक परिवर्तनात्मक मोड आया। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने जो भी देखा या अनुभव किया वह उनके लिए बिलकुल नया था। इन अनुभवित नज़ारों को उन्होंने अपनी चित्र श्रृंखला के जरिए अभिव्यक्त किया। उनकी इस चित्र श्रृंखला के कुछ चित्र मुझे सच में बहुत पसंद आए। उनके ये चित्र प्राच्य लोक कला और पश्चिमी समाज के अद्भुत सम्मिश्रण की उत्तम कलकारी है।

इन चित्रों को देखकर लगता है, जैसे गंगा देवी ने अपने अनुभवों को पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया हो। मुझे याद है कि जब गोंड चित्रकार लंदन से वापस आए थे तब उन्होंने भी तारा बुक्स द्वारा प्रकाशित एक किताब के लिए कुछ इसी प्रकार की चित्रकारी की थी। इसके अलावा गंगा देवी ने अपनी अन्य यात्राओं, जैसे बद्रीनाथ और उत्तराखंड की यात्रा से अर्जित अनुभवों के आधार पर ऐसे ही चित्र बनाए थे।

बद्रीनाथ यात्रा - गंगा देवी की मधुबनी शैली में
बद्रीनाथ यात्रा – गंगा देवी की मधुबनी शैली में

अपने अनुभवों को चित्रानुवाद द्वार अभिव्यक्त करने की गंगा देवी की कला अद्वितीय है। चित्रकला के प्रति उनके इस योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

जीवन की इतनी सारी उपलब्धियों के दौरान गंगा देवी कैंसर जैसी भयानक बीमारी से जूझ रही थी। लेकिन उन्होंने इसे अपनी कमजोरी न बनाकर, अपने संघर्षों को कलात्मकता का रूप देकर उन्हें अपने चित्रों में ढाल दिया। तथापि कैंसर से उनकी इस लड़ाई में आखिर जीत उन्हीं की हुई और वे वापस अपने गाँव में रहने चली गयी। लेकिन नियति को शायद कुछ और मंजूर था। उनके सौतेले बेटे, जो शायद उनकी नयी-नयी अधिग्रहीत संपत्ति को हड़पना चाहता था, के हाथों गंगा देवी को बहुत ही हिंसक मृत्यु प्राप्त हुई।

चित्रकार और चित्रकारी  

गंगा देवी ने जिन परिस्थितियों में चित्रकारी का यह सफर शुरू किया था, उससे स्पष्ट होता है कि इस सफर में उन्होंने बहुत कुछ अर्जित किया है। लेकिन इससे अधिक वे अपने गाँव में अपने लिए एक पक्का घर बनवाना चाहती थी। आज उनकी इस कला के माध्यम से बहुत से लोग उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। उनके द्वारा बनाए गए चित्र, कला के बाज़ारों में लाखों–करोड़ों में बिक रहे हैं। इसके अलावा उनके कुछ भित्तिचित्र आप आज भी दिल्ली के शिल्प संग्रहालय में देख सकते हैं।

किसी भी चित्रकार की चित्रकारी की महत्ता और उसका मूल्य गुजरते समय के साथ बढ़ता जाता है। जो चित्रकारी जितनी पुरानी होती है, उसका मोल भी उतना ही अधिक होता है। ये कलाकृति जिसके भी पास जाती है उसकी झोली खुशियों और संपत्ति से भर देती है।

The post गंगा देवी – मिथिला की मधुबनी चित्रकार और उनकी चित्रकारी appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/ganga-devi-mithila-madhubani-artist/feed/ 1 498
वैशाली – भगवान महावीर का जन्मस्थान – बिहार के ऐतिहासिक स्थल https://inditales.com/hindi/vaishal-birth-place-mahavir-bihar/ https://inditales.com/hindi/vaishal-birth-place-mahavir-bihar/#comments Wed, 20 Dec 2017 02:30:49 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=506

वैशाली की पहली छवि जो मेरे मन में बनी थी वह आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ‘वैशाली की नगरवधू’ द्वारा थी। इसमें वर्णित विलासिता और पात्र, जिनके बारे में आपने शायद सुना तो होगा लेकिन जिनके बारे में आप ज्यादा नहीं जानते, आपको इस जगह की ओर खींच लाते हैं। ऐसे में इस जगह के बारे […]

The post वैशाली – भगवान महावीर का जन्मस्थान – बिहार के ऐतिहासिक स्थल appeared first on Inditales.

]]>

वैशाली की पहली छवि जो मेरे मन में बनी थी वह आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ‘वैशाली की नगरवधू’ द्वारा थी। इसमें वर्णित विलासिता और पात्र, जिनके बारे में आपने शायद सुना तो होगा लेकिन जिनके बारे में आप ज्यादा नहीं जानते, आपको इस जगह की ओर खींच लाते हैं। ऐसे में इस जगह के बारे में और जानने की उत्सुकता इसे और भी रोचक और आकर्षक बनाती है। इतिहास ज्ञानी भी इस जगह के प्रति गहरी रूचि रखते हैं।

वैशाली के आस पास के गाँव
वैशाली के आस पास के गाँव

इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि, वैशाली भगवान महावीर का जन्मस्थान है। अतः इसे जैन धर्म का जन्मस्थान भी माना जाता है। इन सभी बातों को मद्दे नज़र रखते हुए मेरे लिए बिहार में स्थित इस जगह को देखना जरूरी हो गया। लेकिन आज अगर इस जगह को देखा जाय तो लगता है जैसे वह अपने गौरवपूर्ण अतीत को काफी पीछे छोड़ चुकी है। वैशाली की यात्रा करके और उससे संबंधित कुछ अनभिज्ञ, नवीन और रोचकपूर्ण बातों को जानकर मैं बहुत प्रसन्न हुई। यद्यपि लोग वैशाली को बुद्ध और महावीर से जोड़ते हैं, लेकिन मेरे लिए तो वैशाली हमेशा आम्रपाली का नगर ही रहेगा।

वैशाली पटना से एक घंटे की दूरी पर बसा हुआ है। पटना से वैशाली जाते समय रास्ते में आपको वहां के ग्रामीण जीवन की झलकियाँ देखने को मिलती हैं। हमे वहां पर बहुत सी बालिकाएँ अपनी रंगबिरंगी साइकिलों पर जाते हुए दिखी। उन में से कुछ लड़कियों से हमने दो-चार बातें भी की। उनकी बातों से उनका आत्मविश्वास और उनकी प्रसन्नता साफ झलक रही थी।

वैशाली के रास्ते पे घर बहुत ही साफ-सुथरे थे और प्रत्येक घर के बाहर चारे की गोलाकार गठरियाँ बनाकर रखी गयी थीं। वह समय ही कुछ ऐसा था कि, लग रहा था जैसे हम सरसों के पीले-पीले खेतों और दूर तक फैले खुले मैदानों से गुजर रहे हो। इस भाग में अभी तक प्रगति ने पदार्पण नही किया था, यानी भवनों का निर्माण अब तक यहां पर एक अन्यदेशीय बात थी। यही कारण है कि दूर क्षितिज तक जहां भी आपकी नज़रें जाती हैं, वहां तक आपको सिर्फ खुला आसमान और दूर तक फैली धरती नज़र आती है। इसी दौरान हमे उस क्षेत्र के विधायक को भी देखने का मौका मिला जो अपने चमचमाते सफ़ेद कपड़ों में गाँव-गाँव घूमकर लोगों से मिलते, उनसे बातें करते और उन्हें आश्वासनों से भरे भाषण सुनाते थे।

बिहार में वैशाली की यात्रा 

बुद्ध का प्रथम स्तूप - वैशाली
बुद्ध का प्रथम स्तूप – वैशाली

हमने वैशाली की यात्रा का आरंभ पुराने बुद्ध अवशेष स्तूप के दर्शन के साथ किया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों को संबंधित आठ हकदारों में समान रूप से वितरित किया गया था। जिन में से एक थे वैशाली के लिच्छवी। इन अवशेषों के लिए लिच्छवियों ने वैशाली में एक स्तूप का निर्माण किया था। लेकिन बाद में इन अवशेषों को उत्खनन द्वारा इस स्तूप से निकाल कर पटना संग्रहालय में रखा गया था। यह बुद्ध अवशेष स्तूप वास्तव में एक छोटा सा मिट्टी का स्तूप हुआ करता था, जिसका बाद में मौर्य, शुंग और कुषाण शासन काल के दौरान विस्तार किया गया था।

बुद्ध के अवशेष पत्थर की सन्दुक में पाये गए थे, जिस में उनकी अस्थियों की राख, एक छोटा सा शंख, काँच के दो मणि, एक स्वर्ण पत्ता और तांबे का एक सिक्का था।

वैशाली में एक नया विश्व शांति स्तूप बनवाया गया है, जो राजगीर के विश्व शांति स्तूप जैसा ही है। पर समय के अभाव के कारण हम यह स्तूप नहीं देख पाये।

पुरातन वैशाली शहर का कोल्हुआ भाग  

कोल्हुआ पुरातन वैशाली शहर का एक भाग है, जो बुद्ध से जुड़ा हुआ है। यही वह जगह है जहां पर बंदरों ने बुद्ध को शहद अर्पित किया था और इस प्रकार वे बुद्ध की कथा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए थे। यहां पर स्थापित बुद्ध स्तूप दरअसल इसी घटना की स्मृति में बनवाया गया था। बुद्ध अवशेष स्तूप की तरह यह स्तूप भी पहले बहुत छोटा था, जिसे बाद में इस क्षेत्र पर शासन करनेवाले विविध राजवंशों द्वारा बढ़ाया गया। कहा जाता है कि बुद्ध ने यहां पर बहुत से वर्षाऋतु बिताए थे।

दो महत्वपूर्ण बातें जो वैशाली में घटित हुई वह थी महिलाओं को संघ में शामिल करना और यहां की तपस्विनियों के लिए मठ का निर्माण करना, जो कि तपस्विनियों के लिए बनाया गया सबसे पहला मठ था। तथा उन्होंने प्रख्यात आम्रपाली को एक बौद्ध तपस्विनी में परिवर्तित कर उसे संघ में शामिल किया था। इस स्तूप के पीछे एक अशोक स्तंभ खड़ा है जिसके ऊपर सिंह चतुर्मुख का चिह्न बना हुआ है।

अशोक स्तंभ  

अशोक स्तम्भ वैशाली
अशोक स्तम्भ वैशाली

आज तक जितने भी अशोक स्तंभ मैंने देखे हैं, उन सब में से वैशाली में स्थित अशोक स्तंभ शायद सबसे अच्छे तरीके से संरक्षित किया गया है। यद्यपि इस स्तंभ की प्रसिद्ध चमक अब फीकी पड़ गयी है। इस स्तंभ पर किसी भी प्रकार के कोई अभिलेख नहीं हैं, लेकिन इस स्तंभ के ऊपर सिंह चतुर्मुख का चिह्न बड़ी शान से सजाया हुआ है। इसके अलावा अन्य अशोक स्तंभों पर पायी जानेवाली सभी विशेषताएँ इस स्तंभ पर भी देखी जा सकती हैं, जैसे कि उल्टा कमल। यहां पर स्वास्तिक के आकार का एक मठ है जो हाल ही में उत्खनन द्वारा खोजा गया है और इससे जुड़े कुछ जलकुंडों की भी खोज की गयी है। यहां का परिसर अन्य किसी भी बौद्ध क्षेत्र के परिसर जैसा ही है, जहां पर मन्नत के हजारों स्तूप और हर जगह पर छोटे-छोटे मंदिर स्थित हैं।

वैशाली में उत्खनन के क्षेत्र, बिहार 

वैशाली के एक भाग में आज भी उत्खनन का काम जारी है और हर रोज़ यहां पर नयी-नयी बातों की खोज होती रहती है। इस परिसर से कीमती पत्थर, मणि, मुहर, मृण्मूर्तियाँ आदि, जैसी अनेक वस्तुएं पायी गयी हैं, तथा यहां पर एक मुकुट जड़ित बंदर भी पाया गया है। इस जगह से जुड़े उपाख्यानों में बंदर अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन बंदरों ने ना सिर्फ बुद्ध को शहद अर्पित किया था बल्कि उनके लिए एक बड़ा सा सप्त-स्तरीय जलकुंड भी खोदा था। नालंदा की तरह इन अवशेषों में भी हमे कुछ उत्कीर्णित ईंट देखने को मिले जो यहां-वहां से बाहर झांक रहे थे।

वैशाली – भगवान महावीर का जन्मस्थान 

भगवान् महावीर का जन्म स्थल
भगवान् महावीर का जन्म स्थल

वैशाली जैन धर्म के प्रतिष्ठापक भगवान महावीर का जन्मस्थान है। लेकिन दुर्भाग्य से उनका जन्मस्थान एक छोटी सी जगह में सीमित है, जहां पर लगा हुआ सूचना फ़लक आपको बताता है कि, यही वह जगह है जहां पर भगवान महावीर का जन्म हुआ था। इसी के पीछे एक अध-निर्मित संरचना है जो कि मंदिर के उद्दिष्ट से बनवाई गयी थी। स्थानीय लोगों से हमे पता चला कि यह संरचना किन्हीं कारणों से विवादों का विषय बनी हुई है, जिसकी वजह से इसके निर्माण को स्थगित रखा गया है और काफी समय से वह इसी अवस्था में है। इसके विपरीत अन्य जगहों पर पाए जाने वाले जैन मंदिर बहुत ही संपन्न और सुंदर हैं। लगता है कि इस जगह को सच में पूरी तरह से अनदेखा किया जा रहा है। इसके अलावा वैशाली में जैन शास्त्र पर संशोधन करने हेतु एक संस्थान है, जिसमें एक पुराना लेकिन बहुत ही सुंदर पुस्तकालय है।

राजा विशाल का गढ़, वैशाली 

राजा विशाल का गढ़ वैशाली का प्राचीनतम भाग है। माना जाता है कि यह महाकाव्यों के काल से जुड़े, विशाल नाम के राजा का गढ़ हुआ करता था। मुझे लगता है कि इस जगह को शायद उन्ही का नाम दिया गया होगा। कहा जाता है कि यह गढ़ उस समय राजा विशाल का महल हुआ करता था। मैं अभी तक किसी इमारत की नींव को देखकर उसकी निर्माण योजना को समझने की कला नहीं सीख पायी हूँ, इसलिए इस जगह के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं जान पायी। लेकिन वहां पर लगा हुआ सूचना फ़लक आपको उस जगह से संबंधित विस्तृत जानकारी देता है। इस सूचना फ़लक के अनुसार यहां पर विविध ऐतिहासिक कालों से जुड़ी प्राचीन वस्तुएं पायी गयी हैं, जिन में से अधिकतर वस्तुओं को अब संग्रहालय में रखा गया है।

खुदाई से प्राप्त चतुर्मुखीलिंग  

वैशाली में पाया गया प्राचीन चतुर्मुख लिंग
वैशाली में पाया गया प्राचीन चतुर्मुख लिंग

हाल ही में खुदाई के दौरान यहां पर एक चतुर्मुखीलिंग की खोज हुई है। चतुर्मुखीलिंग का अर्थ है चार मुख वाला लिंग जिसके चारों मुख चारों दिशाओं की ओर मुंह किए हुए हैं। इस पर बने हुए मुख ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य के हैं। इस लिंग के निचले भाग पर कुछ अभिलेख हैं, जो उसे गुप्त काल से जोड़ते हैं। इस चतुर्मुखीलिंग को शहर में स्थापित कर वहां पर एक मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। जब हम वहां पर गए थे उस समय वहां पर महिलाओं का एक समुह कीर्तन कर रहा था। इसके अलावा यहां पर और भी कई पुरातन मूर्तियाँ हैं, जो बावन पोखर मंदिर में देखी जा सकती हैं। यद्यपि इन मूर्तियों को मंदिर के प्रमुख भाग में नहीं रखा गया है।

बावन पोखर मंफिर में प्राचीन प्रतिमाएं
बावन पोखर मंफिर में प्राचीन प्रतिमाएं

मान्यताओं के अनुसार जो जलकुंड आम्रपाली के प्रासाद से जुड़ा हुआ करता था वह आज भी यहां पर मौजूद है। यहां के स्थानीय लोगों ने हमे बताया कि इस कुंड की एक खासियत है कि, इसमें कभी जंगली घास नहीं उगती। वैसे तो इस कुंड के आस-पास बहुत सी जंगली झाड़ियाँ हैं लेकिन कुंड के भीतर किसी भी प्रकार की घास-पुस नहीं उगती। दुर्भाग्यवश हम वैशाली का संग्रहालय नहीं देख पाये, जहां वैशाली में स्थित अनेक स्थानों से प्राप्त पुरातन वस्तुएं रखी गयी हैं। भारत में स्थित अन्य संग्रहालय आमतौर पर सोमवार के दिन बंद रहते हैं लेकिन यह अकेला ऐसा संग्रहालय है जो शुक्रवार के दिन बंद रहता है।

मुझे वैशाली शहर सच में बहुत पसंद आया, जिसका अतीत अपने-आप में बहुत ही गौरवशाली है। इस जगह को गहराई से जानने और समझने के लिए आपको उसके इतिहास के बारे में पता होना बहुत आवश्यक है।

The post वैशाली – भगवान महावीर का जन्मस्थान – बिहार के ऐतिहासिक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/vaishal-birth-place-mahavir-bihar/feed/ 1 506
बराबर गुफाएँ – भारत की सबसे प्राचीन गुफाएँ – बिहार का ऐतिहासिक स्थल https://inditales.com/hindi/ancient-barabar-caves-gaya-bihar/ https://inditales.com/hindi/ancient-barabar-caves-gaya-bihar/#respond Wed, 15 Nov 2017 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=467

बिहार की मेरी प्रथम यात्रा के रूप में मुझे बराबर गुफाएँ देखने का मौका मिला। चट्टानों को काटकर बनाई गयी गुफाएँ भारत भर की कई पहाड़ियों पर फैली हुई हैं। इन गुफाओं का प्रयोग विविध संप्रदायों जैसे – जैन संप्रदाय, बौद्ध संप्रदाय और आजीविका संप्रदाय के संन्यासियों द्वारा होता था। ये संन्यासी वर्षा ऋतु के […]

The post बराबर गुफाएँ – भारत की सबसे प्राचीन गुफाएँ – बिहार का ऐतिहासिक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
बराबर गुफाएँ - एक मानचित्र
बराबर गुफाएँ – एक मानचित्र

बिहार की मेरी प्रथम यात्रा के रूप में मुझे बराबर गुफाएँ देखने का मौका मिला। चट्टानों को काटकर बनाई गयी गुफाएँ भारत भर की कई पहाड़ियों पर फैली हुई हैं। इन गुफाओं का प्रयोग विविध संप्रदायों जैसे – जैन संप्रदाय, बौद्ध संप्रदाय और आजीविका संप्रदाय के संन्यासियों द्वारा होता था। ये संन्यासी वर्षा ऋतु के दौरान बारिश से अपना रक्षण करने हेतु इन्हीं गुफाओं में आश्रय लेते थे। गुजरते दौर के साथ इन गुफाओं की वास्तुकला अपने आप में चित्रकारी के अद्भुत नमूने के रूप में उभरी जिसका विकसित रूप आप अजंता और एलोरा की गुफाओं के रूप में देख सकते हैं।

गुफाओं के निर्माण का आरम्भ

बराबर गुफाओं को जाने का रास्ता
बराबर गुफाओं को जाने का रास्ता

भारत से जुड़ी अन्य कई बातों की तरह गुफाओं के निर्माण का आरंभ भी बिहार में ही हुआ था, जिसका जीता-जागता स्वरूप बराबर गुफाओं के रूप में खड़ा है। बिहार में स्थित ये गुफाएँ गया शहर से कुछ ही कि.मी. की दूरी पर बसी बराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों में पायी जाती हैं। बराबर पहाड़ी में स्थित 3 गुफाएँ हैं तो नागार्जुनी पहाड़ी में स्थित 4 गुफाएँ हैं। इन सातों गुफाओं को समूह में सातघर के नाम से जाना जाता है। ये गुफाएँ भारत की सबसे प्राचीन गुफाएँ हैं, जिनका निर्माण सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के शासनकल के दौरान किया गया था। ये बराबर गुफाएँ चैत्य गृहों और सभागृहों का प्रारंभिक स्वरूप मानी जाती हैं, जिन्हें समय के साथ कुछ जटिल विकास कार्यों से गुजरना पड़ा।

सुदामा, कर्ण और लोमांस ऋषि की गुफाएँ  – बराबर गुफाएँ

चट्टान जिसे काट बनायो गयी - बराबर गुफाएँ
चट्टान जिसे काट बनायो गयी – बराबर गुफाएँ

बराबर पहाड़ियों में बसी इन तीन गुफाओं को सुदामा, कर्ण और लोमांस ऋषि की गुफाओं से जाना जाता है। इन में से सुदामा और लोमांस ऋषि की गुफाएँ चैत्य के सभागृह हैं और कर्ण की गुफा एक आवास गृह है। इन गुफाओं की छत और दीवारों पर उच्च स्तरीय पॉलिश देखी जा सकती है। माना जाता है कि, यह पॉलिश अशोक स्तंभो पर पायी जानेवाली पॉलिश के समान है। लेकिन मुझे लगता है कि, अपनी यात्राओं के दौरान मैंने जीतने भी अशोक स्तंभ देखे हैं उनपर पायी गयी पॉलिश की तुलना में इन गुफाओं की आंतरिक सतहों पर पायी गयी पॉलिश क कहीं ज्यादा अच्छी है। इसके पीछे का एक कारण यह हो सकता है कि, ये गुफाएँ हमेशा इन पहाड़ियों के आवरण में संरक्षित थीं, जबकि उन स्तंभों को हर प्रकार की हानि से गुजरना पड़ता है, चाहे वह प्रकृतिक हो या मनुष्यों द्वारा पहुंचाई गयी हानि हो।

जब आप इन गुफाओं की दीवारों पर हाथ फेरते हैं, तो लगता है जैसे उन्हें कल ही पॉलिश किया गया हो। यह पॉलिश एकदम नयी सी लगती है। इसे देखकर आपके लिए यह मानना कि, ये गुफाएँ 2400 साल पुरानी हैं, थोड़ा मुश्किल सा हो जाता है। जब आप इन गुफाओं के गोलाकार चैत्य भाग को देखते हैं तो आप इसी सोच में पड़ जाते हैं, कि इन गुफाओं के कारीगरों ने इतनी बड़ी चट्टान को काटकर, उसे तराशकर इतना अच्छा और सुंदर गुबंद न जाने कैसे बनाया होगा।

लोमांस ऋषि की गुफा 

लोमांस ऋषि गुफा - बराबर पहाड़ी - बिहार
लोमांस ऋषि गुफा – बराबर पहाड़ी – बिहार

लोमांस ऋषि की गुफा एकमात्र ऐसी गुफा है जिसके प्रवेश द्वार पर उत्कीर्णन का काम देखा जा सकता है। इस  द्वार पर वास्तुकला के कुछ अलंकृत विवरण हैं, जो बाद में चट्टानों से खुदी गयी गुफाओं के लिए चलन बन गया। इस प्रवेश द्वार पर बने मेहराब पर एक के ऊपर एक ऐसे दो अर्धवृत्त हैं, जिन में से ऊपरी अर्धवृत्त पर जाली का काम किया गया तो निचले अर्धवृत्त पर बारीकी से उत्कीर्णित हाथियों की पंक्ति है जो स्तूपों को श्रद्धांजलि दे रहे हैं। पत्थर पर किया गया यह नक्काशी काम लकड़ी की कारीगरी से प्रेरित है। पत्थर की कारीगरी से पहले लकड़ी की कारीगरी ही चित्रकला का प्रसिद्ध माध्यम थी। जब इन गुफाओं का निर्माण हो रहा था तब पत्थर की कारीगरी चित्रकला की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने के मार्ग पर अपने कदम बढ़ा रही थी। इसकी उच्च स्तरीय पॉलिश और बारीक उत्कीर्णन इसे चित्रकारी का एक अप्रतिम नमूना बनाती है।

पहाड़ी की यात्रा 

बराबर गुफाओं की दीवारें - आज भी चमकती हुई
बराबर गुफाओं की दीवारें – आज भी चमकती हुई

पटना-गया की प्रमुख सड़क से विमार्ग होकर जब आप चक्करदार रास्ते से जाते हैं, तो आपको वहां दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आता, जैसे कि वह मार्ग किसी भी मंजिल की ओर नहीं जाता हो। लेकिन जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, आपको खेतों के बीच खड़ा इकहरा पहाड़ दिखाई देने लगता है। उस पहाड़ी को देखकर आपके मन में यही सवाल उठता है कि यह पतला और नाजुक सा मार्ग आपको उस पहाड़ी तक कैसे ले जाएगा। ऐसे समय में हमारे साथ एक बहुत ही अच्छे गाइड थे जिन्होंने पूरी यात्रा के दौरान हमारा अच्छे से मार्गदर्शन किया था। इसके बावजूद भी मैं इसी चिंता में थी कि अगर किसी को अकेले ही इस सुनसान से रास्ते से उस सुनसान सी पहाड़ी पर जाना हो तो न जाने इसके लिए उसे कितनी हिम्मत चाहिए होगी। मुझे तो इस पहाड़ी की तरफ जाता एक भी सार्वजनिक परिवाहन नहीं दिखा। लेकिन पहाड़ी के पास पहुँचते ही आपको कुछ उचित आधारिक संरचनाएं नज़र आती हैं, जैसे अतिथिगृह, एक परित्यक्त संग्रहालय और चौड़े रास्ते जो पहाड़ी पर स्थित गुफाओं की ओर जाते हैं।

शिव मंदिर    

बराबर पहाड़ी का परिदृश्य
बराबर पहाड़ी का परिदृश्य

बराबर पहाड़ी के उस पार वाली पहाड़ी पर एक शिव मंदिर है। हमे बताया गया कि शिवरात्रि के दिन इस मंदिर में बहुत सारे शिव भक्त भगवान के दर्शन के लिए आते हैं। इसके अलावा यहां पर लगभग एक महीने के लिए मेले का भी आयोजन होता है, जिसमें भी भक्तों की बहुत भीड़ होती है। इस मंदिर तक जाने के लिए सीढ़ियाँ भी हैं।

हमे नागार्जुनी पहाड़ी के दर्शन करने का मौका नहीं मिला लेकिन मेरा मानना है कि, ये गुफाएँ भी बराबर गुफाओं की तरह ही बहुत आकर्षक होंगी।

अगर आप कभी पटना और बोधगया के बीच यात्रा कर रहें हो तो इन पहाड़ियों की यात्रा जरूर कीजिये, जहां पर आप वास्तुकला के सबसे आरंभिक उदाहरण प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं।

The post बराबर गुफाएँ – भारत की सबसे प्राचीन गुफाएँ – बिहार का ऐतिहासिक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/ancient-barabar-caves-gaya-bihar/feed/ 0 467
राजगीर – बौद्ध परिषदों का मेजबान – बिहार के ऐतिहासिक स्थल https://inditales.com/hindi/rajgir-buddhist-council-city-bihar/ https://inditales.com/hindi/rajgir-buddhist-council-city-bihar/#comments Wed, 01 Nov 2017 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=457

राजगीर या राजगृह, जैसे कि यह जगह अपने अच्छे दिनों में जानी जाती थी, मगध महाजनपद की सबसे पहली राजधानी हुआ करती थी, जो बाद में गंगा नदी के किनारे बसे पाटलीपुत्र शहर में स्थानांतरित की गयी। आज यह एक छोटा सा नगर है जो पटना से दक्षिण-पूर्वी दिशा में 60 कि. मी. की दूरी […]

The post राजगीर – बौद्ध परिषदों का मेजबान – बिहार के ऐतिहासिक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
विश्व शांति स्तूप - राजगीर, बिहार
विश्व शांति स्तूप – राजगीर, बिहार

राजगीर या राजगृह, जैसे कि यह जगह अपने अच्छे दिनों में जानी जाती थी, मगध महाजनपद की सबसे पहली राजधानी हुआ करती थी, जो बाद में गंगा नदी के किनारे बसे पाटलीपुत्र शहर में स्थानांतरित की गयी। आज यह एक छोटा सा नगर है जो पटना से दक्षिण-पूर्वी दिशा में 60 कि. मी. की दूरी पर बसा हुआ है। सात पहाड़ियों से घिरी यह जगह इन्हीं पहाड़ियों से घिरी घाटी में बसी हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है राजपरिवारों का निवासस्थान।

राजगीर – बिहार की ऐतिहासिक जगहें 

रंग बिरंगी बोद्ध पताकाएं - राजगीर, बिहार
रंग बिरंगी बोद्ध पताकाएं – राजगीर, बिहार

ऐतिहासिक दृष्टि से राजगीर जैनों, बौद्धों, हिंदुओं और इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि बुद्ध अनेक बार राजगीर की यात्रा कर चुके हैं। यहां पर आने का उनका प्रमुख उद्देश्य था बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार। यहीं वह जगह है जहां पर उन्होंने अपने महत्वपूर्ण उपदेशों को व्याख्यायित किया था। इन्हीं उपदेशों में से एक उपदेश ऐसा था जिसने यहां के पूर्व महाराज बिंबिसार को अन्य बहुत से लोगों के साथ बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के लिए मजबूर किया था।

माना जाता है कि भगवान महावीर ने भी राजगीर में 14 वर्षा ऋतु या चौमास बिताए थे। और यहीं पर उन्होंने अपना पहला उपदेश भी दिया था, यद्यपि उनके इस धर्मोपदेश को बुद्ध जितनी प्रसिद्धि नहीं मिल पायी। राजगीर में जैनों का एक श्वेतांबर और एक दिगंबर मंदिर भी है। इस शहर की जड़ें महाभारत तक फैली हुई हैं, जिसके अनुसार यह जरासंध की नगरी हुआ करती थी। कहते हैं कि इस शहर में आज भी जरासंध का अखाड़ा मौजूद है जहां पर पहलवान अपना अभ्यास करते हैं। लेकिन समय की कमी के कारण हमे यह अखाड़ा देखने का मौका नहीं मिला।

राजगीर वह जगह है, जहां पर सम्राट अशोक ने अपने प्रसिद्ध स्तंभ का निर्माण किया था, जिस पर हाथी का चिह्न बना हुआ है। यहां पर इस स्तंभ की मौजूदगी इसी बात की ओर संकेत करती है कि यह जगह सम्राट अशोक के शासनकाल में भी, यानी 2400 से भी अधिक साल पहले भी बहुत महत्वपूर्ण हुआ करती थी। कुछ लेखों के अनुसार सम्राट अशोक की मृत्यु यहीं राजगीर की किसी पहाड़ी के ऊपर हुई थी। यहां से शासन करने वाले मगध के अंतिम शासक बिंबिसार को उन्हीं के पुत्र अजातशत्रु द्वारा यहां की जेल में बंदी बनाकर रखा गया था, जिसने बाद में मगध की राजधानी को पाटलीपुत्र में स्थानांतरित किया। वह जेल आप आज भी वहां के दुर्ग की दीवारों के सहारे खड़ी देख सकते हैं।

विश्व शांति स्तूप, राजगीर 

किसी ज़माने का रोपवे - राजगीर, बिहार
किसी ज़माने का रोपवे – राजगीर, बिहार

आज विश्व शांति स्तूप राजगीर का सबसे प्रसिद्ध स्थल बन गया है, जो एक पहाड़ी के ऊपर बसा हुआ है। यहां पर पहुँचने का सिर्फ एक ही तरीका है और वह है रोपवे यानी रस्सी का मार्ग अर्थात इसी रस्सी के द्वारा आप उस स्तूप तक पहुँच सकते हैं। यह रोपवे बहुत साधारण सा है, जिसमें बैठने के लिए एक कुर्सी है जिसमें एक समय पर एक ही व्यक्ति बैठ सकता है। इस आसान को एक लोहे की रोड से ऊपर की मजबूत रस्सी से जोड़ा जाता है। जब आप इससे सवारी करते हैं तो आपको बार-बार अपने आसन से उछला और बैठना पड़ता है। आधे रास्ते तक पहुँचते-पहुँचते यह सवारी अचानक से थोड़ी डरावनी सी लगती है। रोपवे की यह सवारी लगभग 12 मिनटों की है। इसी बीच अगर अचानक से बिजली ने कुछ समय के लिए आराम करने का मन बना लिया तब तो आप इस छोटे से आसन पर, घाटी के ऊपर, बीच राह पर लटकते हुए अटके ही समझो। लेकिन अगर इन बातों को नज़रअंदाज़ किया गया तो यह सवारी बहुत ही मजेदार होती है।

विश्व शांति स्तूप एक विशाल स्तूप है जो धुँधले से सफ़ेद रंग का है और जिस पर बुद्ध की स्वर्णिम प्रतिमाएँ हैं, जो उनकी विविध मुद्राओं को दर्शाती हैं। यह स्तूप जापानी लोगों द्वारा बनवाया गया था। आज भी यहां पर एक जापानी साधु रहते हैं, जिन्हें फूजी बाबा के नाम से जाना जाता है, जो इस स्तूप और यहां के मंदिर की देखरेख करते हैं। हम बहुत भाग्यवान थे कि हमे बाबा द्वारा उनके घर पर जापानी चाय पीने के लिए आमंत्रित किया गया। उनका कक्ष उतना ही मनोहर था जितना कि वहां का स्तूप। यह कक्ष पहाड़ी की नैसर्गिक चट्टानों के सहारे बनवाया गया था, जो वहां पर मौजूद अन्य सभी वस्तुओं की तरह इस कक्ष का अविभाज्य हिस्सा थे। यहां पर खड़े होकर आप नीचे फैले पूरे राजगीर शहर और उसके आस-पास की जगहों का सुंदर नज़ारा देख सकते हैं।

इस जगह की बहुत ही अच्छे से देखरेख की जाती है। यहां पर आकर आप एक अलग ही प्रकार की खुशी और शांति महसूस करते हैं, जिसकी जरूरत आज हम सभी को है। यहां पर बहती हुई मंद-मंद हवा के साथ फहराते यहां पर लगे रगबिरंगी ध्वज इस जगह को और भी रंगीन और जीवंत बना देते हैं। यहां का वातावरण कभी भी सुस्त नहीं होता और आपको यहां कभी उबाऊपन महसूस नहीं होता।

सोन भंडार की गुफाएँ, राजगीर 

सोन भंडार गुफाएं - राजगीर, बिहार
सोन भंडार गुफाएं – राजगीर, बिहार

राजगीर की सोन भंडार की गुफाएँ आपको इस जगह से जुडे उपाख्यानों के बारे में बताती हैं। कहा जाता है कि इन गुफाओं के पीछे स्थित पहाड़ी स्वर्ण से जड़ी हुई है। इन्हीं में से किसी एक गुफा के भीतर वहां तक पहुँचने का दरवाजा है। इस दरवाजे के पास की दीवार पर शंखलिपि में एक मंत्र लिखा गया है, जिसका अर्थ अब तक नहीं पता है। कहते हैं कि जब उस मंत्र का अर्थ पता चलेगा और उसका उच्चारण होगा तभी यह दरवाजा खुल पाएगा, जिससे की उसमें छिपे स्वर्ण का पता लगाया जा सकता है।

हमे यह भी बताया गया कि अंग्रेजों ने, जिन्होंने इन सारी गुफाओं की खोज की थी, इस दरवाजे को खोलने की सारी कोशिशें की थी लेकिन सबकुछ व्यर्थ था। इन गुफाओं की दीवारों पर कुछ और भी नक्काशी काम दिखाई देते हैं, जो भारत में पत्थर पर नक्काशी काम के शुरुवाती दौर को प्रदर्शित करते हैं। इन में से एक गुफा की बाहरी दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी देखी जा सकती हैं।

शीलालेखों के अनुसार जैन साधुओं का मानना है कि, इन गुफाओं का उत्खनन 3-4वी शताब्दी के दौरान हुआ था। ये गुफाएँ दुमंजिला हुआ करती थी लेकिन अब ऊपर की मंजिलों तक पहुँचना असंभव है। 20वी शताब्दी के आरंभिक काल में हुए व्यापक भूकंप में इन संरचनाओं के बहुत से भाग उद्धवस्थ हुए थे।

मनियार मठ, राजगीर 

मनियार मठ - राजगीर, बिहार
मनियार मठ – राजगीर, बिहार

मनियार मठ राजगीर का एक और खुदाई स्थल है। यह एक अष्टकोणी मंदिर है, जिसकी दीवारें गोलाकार हैं। इन गोलाकार दीवारों में नियमित अंतर की दूरी पर आले बने हुए हैं, जिनमें प्लास्टर से बनी विविध हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और प्रतिमाएँ स्थापित थीं। इनमें से अधिकतर मूर्तियाँ आज विस्थापित हो गयी हैं। लेकिन इनके बारे में हमे जितनी भी जानकारी मिली है, उससे तो यही लगता है कि, यह जगह नाग देवताओं की पुजा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मानी जाती है। आप मंदिर के आलों के कोनों और छोरों पर इसके कुछ निशान देख सकते हैं। मनियार मठ के परिसर में आप विविध राजकुलों की छाप देख सकते हैं, जैसे गुप्त राजकुल का धनुष, जो आज पुराने राजगीर के बीचोबीच स्थित है और यह महाभारत में उल्लिखित मणि-नाग का समाधि स्थान माना जाता है।

राजगीर में स्थित गरम पानी के स्तोत्र  

गरम पानी के झरने - राजगीर, बिहार
गरम पानी के झरने – राजगीर, बिहार

राजगीर में ऐसे भी गरम पानी के स्तोत्र पाये जाते हैं, जिनके बारे में यह मान्यता है कि उनमें रोग निवारण की शक्तियाँ हैं। इस परिसर के बाहर लगे सूचना फलक के अनुसार यहां पर 22 कुंड और 52 छोटी-छोटी नदियां हैं, जिनके नाम भी इस फलक पर दिये गए हैं। इन स्तोत्रों का उद्गम सप्तर्णी गुफाओं के पीछे बताया जाता है जो पहाड़ियों के पीछे बसी हैं। यहां का सबसे गरम स्तोत्र है ब्रह्मकुंड, जिसके पास में ही लक्ष्मी नारायण का एक मंदिर है। जीतने भी लोग यहां पर आते हैं, वे सारे इस कुंड में स्नान करने के बाद ही मंदिर के दर्शन करने जाते हैं।

टम टम या घोड़ागाड़ी 

टमटम पड़ाव - राजगीर
टमटम पड़ाव – राजगीर

राजगीर में घूमते वक्त आप अपने आस-पास नज़र आते रंगीन और ऊंचे-ऊंचे तांगों को बिलकुल भी अनदेखा नहीं कर सकते। यहां के तांगे बहुत ही आकर्षक होते हैं। इन तांगों के लिए यहां पर एक खास अड्डा है जिसे ‘टम टम पड़ाव’ कहा जाता है। यहां पर कोई भी तांगा किराए पर लेकर शहर में जहां चाहे घूम सकते हैं। यहां का प्रत्येक तांगा सुंदर रूप से सजाया गया होता है और हर तांगे का अपना एक नाम भी होता है। सजावट के साथ इन तांगों में घुंगरू या फिर छोटी-छोटी घंटियाँ भी बांधी जाती हैं। जब भी तांगा चलता है तो ये घुंगरू एक अलग ही प्रकार की ध्वनि पैदा करते हैं। यहां के सभी तांगे एक जैसे हैं, लेकिन उनका शृंगार ही है जो उन्हें एक दूसरे से अलग बनाता है। ये तांगे इतने लुभावने होते हैं, कि जो भी तांगा आपकी नज़रों को मोह लेता है आप बस उसी पर सवारी करना चाहते हैं। इन तांगों का मूल उद्देश्य यही है कि, इस शहर में कम से कम गाडियाँ हो जिससे कि प्रदूषण भी नियंत्रण में रह सके।

सिलाओ का खाजा

सिलाओ का खाजा
सिलाओ का खाजा

राजगीर और नालंदा के बीच एक छोटी सी जगह है सिलाओ, जो खाजा, यानी बिहार का एक प्रकार का मीठा या नमकीन पदार्थ, के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सिलाओ का खाजा बिहारी लोगों का सबसे पसंदीदा खाद्य पदार्थ है। जब भी आप इस शहर से गुजरते हैं आपको यहां हर जगह सिर्फ खाजा की ही दुकानें दिखाई देती हैं। अगर आप कभी यहां पर गए तो इस स्वादिष्ट व्यंजन का लुत्फ जरूर लीजिये।

राजगीर में और भी बहुत सी अच्छी-अच्छी जगहें हैं जो हम नहीं देख पाए। इस जगह को अच्छी तरह से देखने और घूमने के लिए आपको लगभग दो दिन चाहिए। मैं आशा करती हूँ कि मुझे यहां पर आने का एक और मौका जरूर मिले ताकि मैं इस जगह को अच्छे से देख सकू।

The post राजगीर – बौद्ध परिषदों का मेजबान – बिहार के ऐतिहासिक स्थल appeared first on Inditales.

]]>
https://inditales.com/hindi/rajgir-buddhist-council-city-bihar/feed/ 7 457