मध्य प्रदेश Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/मध्य-प्रदेश/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Sat, 27 Jul 2024 13:51:58 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 कॉलरवाली बाघिन – पेंच राष्ट्रीय उद्यान की रानी https://inditales.com/hindi/collarwali-baghin-pench-rashtriya-udyan/ https://inditales.com/hindi/collarwali-baghin-pench-rashtriya-udyan/#comments Wed, 27 Nov 2024 02:30:29 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3723

मध्य भारत के सघन वनों में बाघों का साम्राज्य है। वे अपने मनोहारी रूप द्वारा पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। यूँ तो पर्यटकों को उनके साम्राज्य में उन्मुक्त विचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है, किन्तु वे पर्यटकों के लिए निर्दिष्ट मार्गों पर स्वयं आकर उन्हें अनुग्रहित करते हैं। उनका चित्ताकर्षक मनमोहक रूप हमें इस […]

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मध्य भारत के सघन वनों में बाघों का साम्राज्य है। वे अपने मनोहारी रूप द्वारा पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। यूँ तो पर्यटकों को उनके साम्राज्य में उन्मुक्त विचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है, किन्तु वे पर्यटकों के लिए निर्दिष्ट मार्गों पर स्वयं आकर उन्हें अनुग्रहित करते हैं। उनका चित्ताकर्षक मनमोहक रूप हमें इस प्रकार सम्मोहित कर देता है कि हम उनके पुनः पुनः दर्शन करने के लिए आतुर हो जाते हैं। जैसे कान्हा का लोकप्रिय मुन्ना बाघ। बांधवगढ़ में भी बाघों के दर्शन की पक्की संभावना रहती है।

बाघ एक स्वच्छंद वन्यप्राणी है। वह हमें दर्शन दे अथवा नहीं, यह पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। कुछ सफारी भ्रमणों में हमें इनके दर्शन नहीं हो पाते हैं। बांधवगढ़ में मेरा ऐसा ही अनुभव रहा था। बाघ मुझसे लुका-छिपी का खेल खेलते रहे। किन्तु निराश होने के स्थान पर मैंने जंगल को निहारने का निश्चय किया तथा उसके अन्य आयामों को अनुभव किया। विविध प्रकार के वृक्षों एवं वन्य प्राणियों के दर्शनों का आनंद उठाया। जंगल के भीतर स्थित बांधवगढ़ का दुर्ग भी मेरे लिए एक आश्चर्यजनक खोज थी। मेरा सुझाव है कि आप जंगल में एक से अधिक सफारी भ्रमण करने का प्रयास करें जिससे बाघों के दर्शन की संभावना बढ़ जाती है तथा आप जंगल के अन्य आकर्षणों का भी अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में बाघ दर्शन की तीव्र अभिलाषा होते हुए भी मैंने अपने मन की पूर्व तैयारी कर रखी थी कि कदाचित यहाँ भी बाघ मुझ से लुका-छिपी खेलें। किन्तु संभवतः वे मेरी व्याकुलता को भांप गए तथा उन्होंने मुझे मन भर कर दर्शन देने का निश्चय किया। सोने पर सुहागा! मेरे समक्ष पेंच राष्ट्रीय उद्यान की सर्वाधिक लोकप्रिय कॉलरवाली बाघिन अपने शावकों के साथ गर्व से विचरण कर रही थी।

कॉलरवाली बाघिन - पेंच राष्ट्रीय उद्यान
कॉलरवाली बाघिन – पेंच राष्ट्रीय उद्यान

कॉलरवाली बाघिन एवं उसके शावकों ने हमारे सफारी भ्रमण मार्ग को अनेक बार पार किया। प्रचुर दर्शनों से उन्होंने मुझे अभिभूत कर दिया था। मुझमें साहस होता व उसकी अनुमति होती तो मैं उनके समीप जाकर उन्हें गले से लगा लेती तथा अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती। किन्तु उन्हें दूर से ही धन्यवाद कहना उचित है तथा मैंने वही किया।

कॉलरवाली बाघिन की वंशावली

कॉलरवाली बाघिन का नाम ऐसा इसलिए पड़ा क्योंकि सन् २००८ में उसके गले में रेडियो कॉलर या अनुवर्तन पट्टा डाला हुआ है। बाघिन के गले में यह पट्टा तब डाला गया था जब वह स्वयं एक शावक थी। इस पट्टे के द्वारा उसके अनुगमन पर दृष्टि रखी जाती थी। अब यह पट्टा दीर्घकाल से निर्जीव हो चुका है किन्तु वह अब भी बाघिन के गले में लटका हुआ है। यहाँ तक कि यह पट्टा उसकी पहचान बन चुका है।

कालरवाली बाघिन अपने शिशुओं के साथ
कालरवाली बाघिन अपने शिशुओं के साथ

कॉलरवाली बाघिन जन्म सन् २००५ में हुआ था। वह एक काल में लोकप्रिय बाघिन, ‘बड़ी माता’ की पुत्री है। उसके पिता को टी-१ तथा पेंच का चार्जर कहा जाता था। कॉलरवाली बाघिन ने अपनी माता के क्षेत्र के एक बड़े भाग पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। बी बी सी के प्रसिद्ध वृत्तचित्र “Spy in the Jungle’ में इसी बाघिन की जीवनी को प्रदर्शित किया गया है। यह वृत्तचित्र सम्पूर्ण विश्व में अत्यंत लोकप्रिय भी हुआ था।

कॉलरवाली बाघिन को माताराम के नाम से भी जाना जाता है। वनीय नामकरण पद्धति के अनुसार उसे टी-१५ कहते हैं।

मैं कॉलरवाली बाघिन को पेंच के जंगलों की रानी माँ कहती हूँ क्योंकि उसने अब तक २९ बाघ शावकों को सफलतापूर्वक जन्म दिया है। सन् २००८ में उसके प्रथम शावक का जन्म हुआ था। इस संस्करण के विडियो में प्रदर्शित शावकों का जन्म सन् २०१५ में हुआ था जिसके एक वर्ष पश्चात मैंने पेंच राष्ट्रीय उद्यान में उनके दर्शन किये थे। ये उसके छठें प्रसव की संतानें हैं। तब तक उसकी २२ संतानें हो चुकी थीं।

भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि करने के लिए अनेक संस्थाएं एवं स्वयंसेवक अनवरत कार्य कर रहे हैं। उनके लिए कॉलरवाली बाघिन एक वरदान सिद्ध हुई है। वन संरक्षक अधिकारियों के अनुसार २९ शावकों को जन्म देना स्वयं में एक कीर्तिमान है। शीघ्र ही पेंच के जंगलों में उसके शावकों का राज होगा। तो अब आप बताइये, क्या कॉलरवाली बाघिन को पेंच राष्ट्रीय उद्यान की ‘रानी माँ’ कहना अतिशयोक्ति है?

पेंच की कॉलरवाली बाघिन से भेंट

पेंच का सर्वोत्तम आकर्षण कॉलरवाली बाघिन का दर्शन है। वो अपने शावकों के साथ आनंद से पर्यटकों को अपने दर्शन देती है। राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते ही वहाँ के अधिकृत गाइड अथवा परिदर्शक हमें उस समय की उसकी गतिविधियों की जानकारी देने लगते हैं। मैंने अनेक राष्ट्रीय उद्यानों में भ्रमण किया है तथा वहाँ अनेक सफारी भी की है। सामान्यतः सभी परिदर्शकों की यही शैली होती है। कदाचित वे पर्यटकों की उत्सुकता व अपेक्षाओं को चरम सीमा तक ले जाना चाहते हैं ताकि बाघिन दर्शन ना दे, तब भी हमें उसकी उपस्थिति का रोमांचक अनुभव प्राप्त होता रहे।

हमारे लॉज से आये सभी पर्यटक आश्वस्त थे कि कॉलरवाली बाघिन के दर्शन की संभावना अत्यधिक है। जून का मास चल रहा था। तपती गर्मी में तृष्णा उन्हें जल स्त्रोत तक खींच ही लायेगी, इसलिए हमने सर्वप्रथम उसे जल स्त्रोतों के समीप ही ढूँढना आरम्भ किया।

प्रसिद्ध बाघिन माँ की पुत्री के दर्शन

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में उस दिन हमारा भाग्य उन्नत था। हमारी सभी आकांक्षाएँ पूर्ण होने को थीं। कुछ ही क्षणों में हमने देखा कि एक बाघिन एक छोटे से जलाशय की ओर चली जा रही थी। झाड़ियों के झुरमुट के पीछे से पीली पट्टियाँ आगे बढ़ती हुई हमसे आँख मिचौली खेलने लगी। ऊँची-नीची भूमि पर मार्ग खोजती हुई वह जलाशय तक पहुँची। उसने जल में प्रवेश किया तथा वहीं बैठ गयी। वह जल की शीतलता का आनंद उठा रही थी।

जून की तपती सूखी उष्णता में मुझे भी उसके साथ शीतल जल का आनंद उठाने की इच्छा होने लगी थी। वह बाघिन माँ नहीं थी, अपितु उसकी एक वर्ष की आयु की पुत्री थी। जल में कुछ क्षण शीतल होने के पश्चात उसने वन में भ्रमण करने का निश्चय किया। जाते हुए उसने हम पर्यटकों की जीपों के सामने से हमारे मार्ग को पार किया। श्वास रोक कर, स्तब्ध होकर हम उसे देखते रहे। मार्ग के एक ओर से वन से बाहर आकर उसने हमारा मार्ग पार किया तथा मार्ग के दूसरी ओर वन के भीतर प्रवेश कर गयी।

कॉलरवाली बाघिन माँ के प्रथम दर्शन

कुछ क्षणों पश्चात बाघिन माँ हमारे समक्ष प्रकट हो गयी। वह भी उसी मार्ग पर चल रही थी जिस पर कुछ क्षणों पूर्ण उसकी बिटिया गयी थी। ठीक उसी प्रकार जैसे अपने बच्चों के पीछे माँएं दौड़ती हैं। वह भी जलाशय की ओर गयी, जल पिया तथा जल के समीप कुछ क्षण बैठ गयी मानो जल में स्वयं को निहारते कुछ क्षण व्यतीत करना चाहती हो। मैं जल में उसका प्रतिबिम्ब देखना चाहती थी तथा उसके प्रतिबिम्ब के साथ उसका चित्र लेना चाहती थी। किन्तु उसके व हमारे बीच की दूरी तथा प्रतिकूल दिशा होने के कारण वह संभव नहीं हो पाया। कुछ क्षण शान्ति से बैठी माँ को निहारना अत्यंत सुखद था। अचानक जैसे उस माँ को अपनी बिटिया का ध्यान आ गया हो, वह उठी तथा बिटिया की दिशा में आगे बढ़ गयी। कुछ समय के उपरांत माँ व बेटी दोनों साथ साथ चलने लगे।

बाघिन माँ का आकार उस मुन्ना बाघ की तुलना में छोटा था जिसे मैंने गत वर्ष कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में देखा था। मेरे परिदर्शक ने बताया कि बाघ व बाघिन के आकारों में भिन्नता अत्यंत सामान्य है।

हम सब के मुखड़ों पर प्रसन्नता व संतोष का भाव स्पष्ट उमड़ रहा था, मानो पेंच यात्रा का समूचा उद्देश्य पूर्ण हो गया हो।

दूसरी भेंट

दूसरे दिवस प्रातः शीघ्र ही हमने राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश किया। हमने वन के अन्य विभिन्न आकर्षणों का अवलोकन करने का निश्चय किया। मुझे विशेषतः विविध पक्षियों को देखने की अभिलाषा थी। वन में सफारी भ्रमण करते समय मार्ग में हमने हिरणों को अठखेलियाँ करते देखा। सांभर के झुण्ड को घास चरते देखा। विभिन्न पक्षियों के दर्शन एवं उनकी चहचहाहट के स्वरों ने हमें आनंद से भर दिया। उन पक्षियों की कथा किसी अन्य दिवस सुनाऊँगी।

हम जैसे ही एक चौरस्ते पर पहुंचे, हमने देखा कि पर्यटकों की ५-६ जीपें एक पंक्ति में शांत खड़ी हैं। एक दिशा में मुड़े उन सबके कैमरों ने हमें भी उस दिशा में देखने के लिए बाध्य कर दिया। बाघिन माँ अपने दो शावकों के साथ शान से जा रही थी। शावकों में एक वही बिटिया थी जिसे हमने गत संध्या को देखा था। दूसरा शावक उसी आयु का उसका पुत्र था।

लजीला पुत्र

हमारे सफारी गाइड ने हमें बताया कि कॉलरवाली बाघिन का पुत्र किंचित संकोची है। वह मानवों से दूर ही रहना चाहता है। वहीं माँ एवं पुत्री वन में पर्यटकों की उपस्थिति से सहज हैं। वे पर्यटकों एवं उनके सफारी वाहनों को देखकर अपना मार्ग परिवर्तित नहीं करतीं। उनकी यह सहजता राष्ट्रीय उद्यान पर्यटन अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है। मानो वे इस तथ्य को समझती हैं तथा हमारी सहायता कर रही हैं। वे अत्यंत सहजता से मार्ग पर प्रकट हो जाती हैं, आपस में क्रीड़ा करती हैं ताकि उनके प्रकट होने पर जितने लोग भी निर्भर हैं, उनकी जीविका चलती रहे। जी हाँ, एक ओर जहाँ बाघ पुत्र सफारी जीपों से दूर रहकर लंबा मार्ग अपना रहा था, वहीं बाघिन माँ एवं उसकी पुत्री निडर होकर जीपों के मध्य से शान से जा रही थीं।

बाघिन एवं उसके दोनों शावक मार्ग के एक ओर वन में विचरण करते रहे तथा हमारी दृष्टि व हमारी जीपें वन की शान्ति भंग किये बिना उनका पीछा करती रहीं। वन में शांतता पालना अत्यावश्यक होता है तथा हम उसका पालन भी कर रहे थे। वन के भीतर हमें सदा वन्य प्राणियों एवं उनकी आवश्यकताओं का आदर करना चाहिए। मार्ग में अनेक स्थानों पर हमारा उनसे सामना हुआ। अंततः वे पेंच नदी को पार कर एक शिला पर बैठ गए। जून मास की गर्मी में नदी में जल की मात्रा कम थी। नदी के तल पर स्थित शिलाखंडों के मध्य से मार्ग निकालते हुए वे अपने प्रिय शिलाखंड पर पहुंचे तथा उस पर चढ़कर बैठ गए। अब उनसे विदा लेने का भी समय आ गया था।

बाघिन माँ एवं उसके दोनों शावकों ने हमें उदार दर्शन दिए थे जिसने हमें अभिभूत कर दिया था। लॉज पहुँचने तक रोमांच से हम सब स्तब्ध थे।

पेंच में किया गया रानी बाघिन एवं उसके दोनों शावकों के अद्भुत रूप का दर्शन मेरे स्मृतियों में सदा के लिए रच-बस गया है। मैं जानती हूँ कि पेंच का यह बाघ सफारी मेरे लिए दीर्घ काल तक एक सर्वोत्तम सफारी रहेगा।

कॉलरवाली बाघिन का विडियो देखें

प्रसिद्ध बाघिन माँ को अपने शावकों के साथ स्वच्छंद विचरण करते हुए इस विडियो में देखें।

कॉलरवाली बाघिन का दूसरा विडियो

कॉलरवाली बाघिन की मृत्यु

मैं अत्यंत दुःख के साथ आपको यह जानकारी दे रही हूँ कि पेंच की रानी, माताराम, कॉलरवाली बाघिन आदि नामों से सुप्रसिद्ध टी-१५ बाघिन ने १५ जनवरी २०२२ को संध्या ६.१५ बजे अपना अंतिम श्वास लिया। लगभग साढ़े सोलह वर्ष की आयु पूर्ण कर चुकी बाघिन माँ की मृत्यु वृद्धावस्था के कारण हुई। २९ शावकों को जन्म देने का कीर्तिमान स्थापित करने वाली बाघिन माँ की मृत्यु वन विभाग एवं वन्य प्राणी प्रेमियों के लिए अपूर्णीय क्षति है। सुपर टाईग्रेस मॉम के नाम से भी लोकप्रिय कॉलरवाली बाघिन ने पेंच राष्ट्रीय उद्यान का नाम सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध कर दिया है।

रविवार १६ जनवरी को पेंच राष्ट्रीय उद्यान में ही उसका अंतिम संस्कार किया गया. पेंच की रानी को हम सब की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि!

भारत के विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव अभयारण्यों में भ्रमण पर मेरे ये यात्रा संस्मरण अवश्य पढ़ें

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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विदिशा की उदयगिरी गुहा, हेलिओडोरस स्तंभ एवं बीजामंडल https://inditales.com/hindi/vidisha-udaygiri-beejamandal-madhya-oradesh/ https://inditales.com/hindi/vidisha-udaygiri-beejamandal-madhya-oradesh/#respond Wed, 18 Sep 2024 02:30:19 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3684

विदिशा प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण नगरी रही है। विदिशा उत्तर भारत एवं  दक्षिण भारत को जोड़ते व्यापार मार्ग पर स्थित थी। अनेक प्राचीन कथाओं में विदिशा का उल्लेख प्राप्त होता है, विशेषतः व्यापारियों से संबंधित लोककथाओं में। विदिशा का नाम लेते ही हमारे मस्तिष्क में सांची स्तूप की छवि प्रकट हो जाती है लेकिन […]

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विदिशा प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण नगरी रही है। विदिशा उत्तर भारत एवं  दक्षिण भारत को जोड़ते व्यापार मार्ग पर स्थित थी। अनेक प्राचीन कथाओं में विदिशा का उल्लेख प्राप्त होता है, विशेषतः व्यापारियों से संबंधित लोककथाओं में। विदिशा का नाम लेते ही हमारे मस्तिष्क में सांची स्तूप की छवि प्रकट हो जाती है लेकिन विदिशा में सांची स्तूप के अतिरिक्त भी अनेक महत्वपूर्ण एवं रोचक पर्यटन स्थल हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जैसे उदयगिरी गुहाएं।

उदयगिरी गुहा

प्राचीन काल में जब मंदिर निर्माण की परंपरा आरंभ हुई, तब पर्वत खंडों को काटकर गुहा मंदिरों का निर्माण किया जाता था। इसके पश्चात भूमि पर तथा ऊँचे जगती पर मंदिर निर्माण की परंपरा आरंभ हुई। कालांतर में मंदिर स्थापत्यकला की अनेक शैलियों का उदय हुआ।

विदिशा की उदयगिरी गुफाएं
विदिशा की उदयगिरी गुफाएं

पर्वत पर स्थित उदयगिरी गुहाओं में लगभग २० हिन्दू देवालय तथा जैन अनुयायियों के लिए एक जिनालय है। गुहा क्रमांक ६ के शिलालेख के अनुसार इनका निर्माण ४थी शताब्दी के अंत तथा ५वीं शताब्दी के आरंभ में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने आरंभिक गुप्त काल में करवाया था। इसका तात्पर्य है कि ये गुहा मंदिर प्राचीनतम ज्ञात व दिनांकित हिन्दू मंदिर हैं। इन्हे विष्णुपदगिरी भी कहा जाता है।

उदयगिरी का शाब्दिक अर्थ है, उगते सूर्य की पहाड़ी। ऐसी पहाड़ी हम बिहार के राजगीर एवं ओडिशा में भुवनेश्वर के निकट देख सकते हैं। क्या इसका यह अर्थ है कि किसी काल में यह सूर्य आराधना का केंद्र था? कदाचित हाँ। इसका एक रोचक तत्व यह भी है कि यह कर्क रेखा पर स्थित है। इसका अर्थ है कि यह सूर्य गमन की रेखा पर स्थित है।

उदयगिरी गुहाएं बेतवा नदी एवं बैस नदी के संगम के निकट स्थित है। किसी काल में कदाचित यह विदिशा राज्य का ही भाग रहा होगा जैसा कि कालिदास के मेघदूत में वर्णित है। एक पहाड़ी पर बड़ी संख्या में मंदिरों की उपस्थिति व नदियों के संगम ने इस स्थान को पावन तीर्थस्थल बनाया होगा। पुरातात्विक सूत्र इस ओर संकेत करते हैं कि ६ ई.पू. में यह स्वयं में एक नगरी थी।

दिल्ली के कुतुब मीनार के निकट लौह स्तंभ आप सबने देखा ही होगा। ऐसी मान्यता है कि वह लौह स्तंभ मूलतः उदयगिरी में स्थापित था।

गुहा मंदिरों से ज्ञात होता है कि गर्भगृह के समक्ष चौकोर मंडप थे। कुछ गुहाओं में स्तंभ अब भी देखे जा सकते हैं। द्वार चौखटों पर किए गए शिल्प भी देखे जा सकते हैं। शिलाओं को उकेर कर उन पर आले बनाए गए हैं जिनके भीतर मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं।

उदयगिरी कंदराएं – गुहा क्रमांक ५

गुहा क्रमांक ५ उदयगिरी गुहाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुहा है। इसके भीतर एक भित्ति पर भगवान विष्णु के वराह अवतार की विशालकाय प्रतिमा उत्कीर्णित है। यह प्रतिमा इन गुहाओं का सांकेतिक शिल्प है।

भूमि देवी और वराह अवतार - उदयगिरी गुहा विदिशा
भूमि देवी और वराह अवतार – उदयगिरी गुहा विदिशा

विष्णु के वराह अवतार ने स्त्री रूपी धरती को अपनी नथूनी के ऊपर उठाया हुआ है। उनके चारों ओर अनेक अन्य देवी-देवताओं के शिल्प हैं। जैसे:

धरती माता के शिल्प के ऊपरी भाग पर कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मा एवं नंदी पर आरूढ़ भगवान शिव की छवियाँ हैं।

वराह की छवि के दाहिनी ओर स्थित शैल फलक पर १२ आदित्य, ८ वसु, ११ रुद्र, अग्नि एवं वायु अर्थात ३३ कोटि देवता विराजमान हैं। साथ ही अनेक ऋषिगण भी दृश्य का आनंद ले रहे हैं।

चित्रवीथिका के निचले भाग पर समुद्र के निकट गुप्त राजाओं एवं उनके मंत्रियों को देखा जा सकता है।

वराह के बाएं चरण के समीप शेषनाग तथा दाहिने चरण के समीप लक्ष्मी के शिल्प हैं।

चित्रवीथिका के ऊपरी भाग पर बायीं ओर वीणा धारी नारद के नेतृत्व में अनेक मुनिगण विराजमान होकर दृश्य का अवलोकन कर रहे हैं।

उदयगिरी गुहाओं के अंतर्गत अन्य गुहाएं एवं मंदिर

पुरातत्वविद् कन्निघम ने गुहा क्रमांक छः का नामकरण वीणा गुहा किया क्योंकि इसके भीतर वीणा वादन करते हुए एक पुरुष की छवि उत्कीर्णित है। गुहा के भीतर ले जाते द्वार पर गंगा एवं यमुना की छवियाँ हैं। गुहा के भीतर एकमुखलिंग है अर्थात एक शिवलिंग है जिसके ऊपर एक मुख उत्कीर्णित है।

विदिशा में विष्णु प्रतिमा
विदिशा में विष्णु प्रतिमा

गुहा क्रमांक १३ के भीतर शेषशायी विष्णु की ३.६६ मीटर लंबी प्रतिमा है। आंध्रप्रदेश के उँदावल्ली गुहाओं में भी आप ऐसी ही प्रतिमा देखेंगे।

गुहा क्रमांक १९ के भीतर सागर मंथन का दृश्य उत्कीर्णित है।

इनके अतिरिक्त यहाँ अनेक मंदिर हैं जो हिन्दू देवी-देवताओं को समर्पित हैं। उनमें से अधिकांश खंडित अवस्था में हैं।

अन्य गुहायें साधारण हैं किन्तु कुछ के भीतर महिषासुरमर्दिनी, गणेश एवं मातृकाओं के उत्कीर्णित शिल्प अब भी देखे जा सकते हैं।

इन गुहाओं में उत्कीर्णित आकृतियों पर यूनानी वैशिष्ठ्य स्पष्ट परिलक्षित होता है। कदाचित भारत का वह काल यूनानी कला से प्रभावित रहा होगा अन्यथा कलाकृतियों के रचयिता यूनानी रहे होंगे। यह भी संभव है कि उस काल में साधारण मानवाकृतियाँ उसी प्रकार की रही होंगी जो कालांतर में वर्तमान रूप में विकसित हुई होंगी।

पहाड़ी के शीर्ष पर मंदिर के अवशेष है जो गुप्त काल के प्रतीत होते हैं। सांची के अशोक स्तंभ के अनुरूप यहाँ से भी एक विशाल स्तंभ प्राप्त हुआ था। पहाड़ी से नीचे अवतरण करते हुए आप एक विश्रामगृह देखेंगे जिसका निर्माण लगभग १०० वर्षों पूर्व ग्वालियर महाराजा ने करवाया था।

कर्क रेखा

कर्क रेखा एक काल्पनिक रेखा है जो उत्तरी गोलार्द्ध को दो भागों में विभाजित करती है। यह रेखा उत्तरी भोपाल से होकर जाती है। जब आप भोपाल से विदिशा की ओर जाते हैं तब आप इस रेखा को लाँघ कर जाते हैं। मेरी अभिलाषा है कि इसी प्रकार किसी दिवस मैं भूमध्य रेखा को भी लाँघ सकूँ।

हेलिओडोरस स्तंभ        

हेलिओडोरस स्तंभ विदिशा एवं उदयगिरी गुहाओं के मध्य स्थित है। यह दर्शनीय स्थल अधिक लोकप्रिय नहीं है। इसलिए इसके सटीक अवस्थिति के विषय में अधिकांश स्थानीय नागरिकों को जानकारी ना हो। यदि आप खांब बाबा के विषय में पूछेंगे तो वे आपको कदाचित इसकी जानकारी दे दें। हेलिओडोरस स्तंभ को स्थानीय रूप से खांब बाबा के नाम से पूजा जाता है।

हेलिओडोरस स्तंभ एक गरुड़ स्तंभ है जिसके शीर्ष पर विष्णु का वाहन गरुड़ का चिन्ह है। इस स्तंभ के विषय में मान्यताएं हैं कि इसकी स्थापना हेलिओडोरस नामक एक यूनानी विद्वान ने की थी जिसने अपने भारत निवासकाल में हिन्दू धर्म को अपना लिया था। वह विदिशा के राजा भागभद्र की राजसभा में यूनानी राजदूत था।

स्तंभ पर अंकित ब्राह्मी शिलालेख के अनुसार इसे १५० ई. पू. का माना जाता है। शिलालेख में वासुदेव को देवों के देव कहा गया है। कालांतर में शोधित स्तंभ शिलालेख में महाभारत के छंद भी लिखे हुए हैं।

एक परिगृहीत भूमि पर स्थित यह एक एकल संरचना है। जब हमने इस स्तंभ के विषय में इस क्षेत्र के निवासियों से चर्चा की तब उन्होंने हमें कुछ रोचक लोककथाएं सुनाई।

हेलिओडोरस स्तंभ के विषय में रोचक लोककथाएं

हमें हेलिओडोरस स्तंभ के विषय में अनेक लोककथाएं सुनने को मिलीं। यद्यपि उनकी प्रामाणिकता सिद्ध करना असंभव है, तथापि रोचक होने के कारण आपसे साझा करने से स्वयं को रोक ना सकी। एक व्यक्ति के अनुसार यह स्तंभ जितना भूमि के ऊपर है, उतना ही भूमि के भीतर भी है। उनके अनुसार यह छोटा सा भूखंड अनवरत रूप से धँसता जा रहा है। ऐसी मान्यता है कि इस स्तंभ के नीचे एक स्वर्ण मंदिर है। किन्तु इस भूखंड का उत्खनन नहीं हो सकता है। जब भी इस भूखंड के उत्खनन का प्रयास किया जाता है, यह स्थान सर्पों एवं बिच्छुओं से भर जाता है जिसके कारण उत्खनन संभव नहीं हो पाता है।

हेलिओदोरस स्तम्भ
हेलिओदोरस स्तम्भ

जब मैंने स्तम्भ के नीचे स्वर्ण मंदिर के विषय में सुना, मैं उस पर पूर्णतः अविश्वास नहीं कर पायी। साधारणतः विष्णु मंदिर के बाह्य भाग पर गरुड़ स्तम्भ अवश्य होता है जिसकी ऊंचाई मंदिर से कहीं अधिक होती है। जिस प्रकार स्तंभ के छोटे छोटे भाग भूमि से बाहर निकले हुए हैं, उन्हे देख ऐसा प्रतीत होता है मानो स्तंभ की स्थापना निकट स्थित मंदिर की ओर संकेत करने के लिए ही किया गया हो। काल एवं कुछ उत्खनन ही इस भेद को उजागर कर सकते हैं।

रहस्यमयी वृक्ष

स्तंभ के समीप एक रहस्यमयी वृक्ष है। जब आप इस वृक्ष को ध्यान से देखेंगे तो आप पाएंगे कि इसके तने पर कई नख गड़े हुए हैं। एक गाँववासी ने हमें बताया कि इस स्थान पर अनेक तांत्रिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं। कई मन नख इस वृक्ष के तने के भीतर गड़े हुए हैं। काल के साथ तने पर नवीन वल्कल की रचना हो जाती है तथा लोग अधिक से अधिक नख उस पर गड़ाते रहते हैं।

सती विग्रह

यहाँ सती के कई शैल विग्रह हैं। वैवाहिक संबंध में अग्नि की महत्ता मुझे सर्वप्रथम यहीं दृष्टिगोचर हुई। शैल चित्र द्वारा यह चित्रित किया गया है कि विवाह बंधन में बंधने जा रहे युगल अग्नि में ही प्रतिज्ञा बद्ध होते हैं। एक साथ इस विश्व को त्यागकर उसी अग्नि में विलीन होने की प्रतिज्ञा करते हैं। आधुनिक समाज में इस पर अनेक प्रश्न उठ सकते हैं किन्तु यह एक रोचक आयाम अवश्य है।

बीजामंडल मंदिर संकुल

बीजामंडल मंदिरों का एक संकुल है जो विदिशा नगरी के मध्य स्थित है। इसके विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है। इस प्राचीन स्थल की ओर संकेत करता कोई सूचना पटल भी नहीं है।

महावारह - बीजामंडल
महावारह – बीजामंडल

इस मंदिर का निर्माण चर्चिका देवी मंदिर के रूप में किया गया था जिन्हे माँ दुर्गा का अवतार माना जाता है। कुछ उन्हे माँ सरस्वती का अवतार मानते हैं। इस मंदिर का निर्माण परमार राजा नववर्मन ने ११ वीं सदी में करवाया था। औरंगजेब ने इसे ध्वस्त कर इसे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया था। उस समय से यह केवल एक स्मारक है।

बीजामंडल
बीजामंडल

भोजपुर मंदिर के अनुरूप यह मंदिर भी एक ऊँचे जगती पर निर्मित है। यहाँ के भंगित शिल्प कृतियों पर हिन्दू देवी-देवताओं के विग्रह हैं। जगती पर पड़े हुए सहस्त्रों की संख्या में मंदिर के भग्नावशेष उस पर किए गए अत्याचारों की गाथा कहते हैं।

कुछ सूत्रों के अनुसार यह सूर्य मंदिर था तो कुछ सूत्र इसे विजय मंदिर कहते है जिसका निर्माण युद्ध में प्राप्त विजय का उल्हास व्यक्त करने के लिए किया जाता था।

बावड़ी

मंदिर के समीप एक बावड़ी अथवा वापी है जो ८ वीं सदी का माना जाता है। बावड़ी के समीप स्थित दो स्तंभों पर कृष्ण लीला उत्कीर्णित है। आगे जाकर एक गोलाकार बावड़ी है जो पाटन में स्थित रानी की वाव के अनुरूप है।

ऐसा माना जाता है कि यह बावड़ी भूमिगत जलस्रोत से पोषित होती है। इस बावड़ी का जलस्तर सदा एक समान रहता है।

इस स्मारक की भीतरी एवं बाह्य अवस्था अत्यंत दयनीय है जिसे गंभीर रखरखाव की आवश्यकता है।

विदिशा संग्रहालय

विदिशा संग्रहालय में विविध प्रकार की अनेक कलाकृतियाँ एवं शिल्प हैं। उनमें से अधिकांश कृतियाँ विदिशा एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में किए गए उत्खनन के समय प्राप्त हुई थीं। उनमें कुबेर एवं यक्षी के विशाल विग्रह भी सम्मिलित हैं।

यक्ष एवं यक्षी - बीजामंडल
यक्ष एवं यक्षी – बीजामंडल

ये कलाकृतियाँ सम्पूर्ण संग्रहालय में बिखरी हुई हैं। संग्रहाल में एक स्मारिका विक्रय केंद्र है जहाँ से आप इन कलाकृतियों के पेरिस पलस्तर में निर्मित प्रतिलिपियाँ क्रय कर सकते हैं। इस स्थल से संबंधित कुछ पुस्तकें भी हैं।

ऐसे धरोहर स्थलों की यात्रा करना इतिहास में विचरण करने जैसा प्रतीत होता है। ऐसा इतिहास जो किसी काल में फलता-फूलता वर्तमान था तथा दूसरे काल में विलुप्त हो गया। अनमोल धरोहरों के शोध में जिसे इतिहासकारों ने पुनः ढूंढ निकाला।

विदिशा यात्रा के लिए कुछ सुझाव

उदयगिरी गुहायें सांची से लगभग १६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।

विदिशा उदयगिरी से भी आगे लगभग ६-८ किलोमीटर दूर स्थित है।

विदिशा का भ्रमण करने के लिए आप भोपाल अथवा सांची में ठहर सकते हैं तथा एक दिवसीय यात्रा के रूप में विदिशा भ्रमण कर सकते हैं।

इसी यात्रा में आप भोजपुर शिव मंदिर तथा भीमबेटका गुहाओं का भी अवलोकन कर सकते हैं।

इन पर्यटन स्थलों पर गाइड आसानी ने उपलब्ध नहीं रहते हैं। अतः आप इनके विषय में भलीभांति अध्ययन करने के पश्चात यात्रा करें।

इनमें से अधिकांश स्थलों पर दर्शन शुल्क नाममात्र है अथवा दर्शन शुल्क नहीं है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बुद्ध के अवशेष संरक्षित करता साँची का भव्य स्तूप https://inditales.com/hindi/sanchi-stupa-vishwa-dharohar-madhya-pradesh/ https://inditales.com/hindi/sanchi-stupa-vishwa-dharohar-madhya-pradesh/#respond Wed, 17 Apr 2024 02:30:25 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3508

साँची! मध्यप्रदेश प्रदेश के विदिशा जिले में, भोपाल के निकट स्थित एक छोटी सी नगरी। वर्तमान में जहाँ विदिशा नगर स्थित है, वहाँ से लगभग ३ किलोमीटर दूर बेसनगर नामक एक गाँव है जहाँ प्राचीन विदिशा बसी हुई थी। प्राचीन काल में यह एक लोकप्रिय व्यावसायिक केंद्र था। इसके समीप स्थित साँची नगरी बौद्ध स्तूपों […]

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साँची! मध्यप्रदेश प्रदेश के विदिशा जिले में, भोपाल के निकट स्थित एक छोटी सी नगरी। वर्तमान में जहाँ विदिशा नगर स्थित है, वहाँ से लगभग ३ किलोमीटर दूर बेसनगर नामक एक गाँव है जहाँ प्राचीन विदिशा बसी हुई थी। प्राचीन काल में यह एक लोकप्रिय व्यावसायिक केंद्र था। इसके समीप स्थित साँची नगरी बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। एक पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित इन स्तूपों में से विशालतम स्तूप को साँची स्तूप कहते हैं।

साँची स्तूप
साँची स्तूप

साँची स्तूप को महान स्तूप भी कहते हैं।

साँची स्तूप का निर्माण किसने कराया?

राजा अशोक ने सम्पूर्ण भारत में अनेक स्थानों पर स्तूपों का निर्माण कराया था जिनके भीतर बुद्ध के अवशेषों को संरक्षित किया था। उन सभी बौद्ध स्तूपों में साँची स्तूप को सर्वोत्तम संरक्षित स्तूपों में से एक माना जा सकता है। तीसरी शताब्दी में अशोक ने इस स्तूप की नींव रखी थी। अशोक के पश्चात अनेक राजाओं ने इस स्तूप पर संवृद्धिकरण का कार्य अनवरत जारी रखा। नवीन कटघरों एवं विविध शिल्पों का संयोग करते हुए इसके आकार में वृद्धि करते रहे।

साँची का महा स्तूप
साँची का महा स्तूप

सम्राट अशोक का विवाह देवी से हुआ था जो विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री थी। अशोक से विवाह के पश्चात भी देवी ने अनवरत विदिशा में ही निवास किया।

ऐसा कहा जाता है कि अशोक ने यहाँ के शैल स्तंभों में से एक स्तंभ को स्थापित किया था जो दुर्भाग्य से अब यहाँ उपस्थित नहीं है। इस स्तूप के अशोक से संबंध की पुष्टिकरण चुनार के बलुआ शिलाओं की यहाँ उपस्थिति एवं मौर्य शैली की चमक से भी होती है। ये तत्व हम बराबर गुफाओं में देख चुके हैं।

यह अत्यंत अचरज का विषय है कि ७वीं सदी के चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इस स्तूप का उल्लेख कहीं नहीं किया है। क्या वह साँची कभी आ नहीं पाया या उस काल तक इस स्तूप की आध्यात्मिक महत्ता समाप्त हो गयी थी?

साँची में स्थित अन्य लघु स्तूपों के भीतर बुद्ध के शिष्यों, अन्य बौद्ध भिक्षुओं तथा बौद्ध गुरुओं के अवशेष हैं। स्तूप के चारों ओर आराधना स्थल एवं मठ हैं। इससे यह संकेत प्राप्त होता है कि लगभग २००० वर्षों पूर्व यह बौद्ध धर्म के पालन एवं अध्ययन का केंद्र था। विडम्बना यह है कि बुद्ध ने स्वयं कभी इस स्तूप का अथवा इस क्षेत्र का भ्रमण नहीं किया है।

मथुरा के संग्रहालय में प्रदर्शित चित्र यह दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र को भी गुप्त राजाओं का संरक्षण प्राप्त था। किन्तु गांधार, मथुरा एवं सारनाथ जैसे क्षेत्रों में प्रफुल्लित स्वशैली के विपरीत साँची अपनी स्वयं की शैली विकसित करने में असफल रही।

१४वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य साँची का यह स्तूप हमारे इतिहास में कहीं लुप्त हो गया था। सन् १८१८ में जनरल टेलर ने स्तूप क्रमांक १,२ एवं ३ के अवशेषों का अन्वेषण किया था। आगामी १०० वर्षों तक इस स्थान पर विविध उत्खनन एवं जीर्णोद्धार के कार्य किया गए। अनेक बौद्ध मंदिरों, मठों, मन्नत के स्तूपों, भित्तियों एवं आवास गृहों को उत्खनित किया गया एवं उनका पुनरुद्धार किया गया। उत्खनन स्थल से बड़ी मात्रा में मिट्टी के पात्रों के अवशेष, सिक्के, पात्र इत्यादि प्राप्त हुए।

साँची पहाड़ी के स्मारक

साँची पहाड़ी पर स्थित स्मारकों को दो विभागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम विभाग जिसके स्तूप पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित हैं, जैसे मुख्य स्तूप। दूसरा विभाग जिसके स्तूप पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर स्थित हैं।

पहाड़ी के शीर्ष पर आयताकार पठार है जो लगभग ४०० मीटर लम्बा एवं २०० मीटर चौड़ा है। यह पठार गोलाकार भित्तियों द्वारा सीमाबंध है। अधिकतर स्मारक इसी भित्ति के भीतर स्थित है। चिकनी घाटी से एक प्राचीन पथ हमें पहाड़ी के शीर्ष तक ले जाता है।

अंग्रेज अधिकारियों ने पहाड़ी के शीर्ष तक पहुँचने के लिए एक शैल पदपथ का निर्माण किया था। उसके स्थान पर अब एक चौड़ा मार्ग है जिसके द्वारा वाहन भी पहाड़ी के शीर्ष तक पहुँच सकते हैं।

पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर स्थित दूसरे भाग के स्मारकों तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग है। स्तूप क्रमांक १ से नीचे उतरते हुए हम इन स्मारकों तक पहुँच सकते हैं।

साँची का मुख्य स्तूप अथवा स्तूप क्रमांक १

साँची का स्तूप क्रमांक १ अथवा मुख्य स्तूप एक विशाल अर्ध गोलाकार गुम्बद है। इस स्तूप की विशेषता इसका विशाल आकार है। अपने आकार के कारण यह अन्य स्तूपों में विशेष जान पड़ता है। इसके दक्षिणी भाग पर सोपान हैं जिसके द्वारा आप परिक्रमा पथ तक चढ़ सकते हैं तथा परिक्रमा कर सकते हैं। इसकी चार दिशाओं में चार तोरण युक्त द्वार हैं जो परिक्रमा पथ से साथ मिलकर स्तूप के चारों ओर एक वृत्ताकार सीमा की रचना करते हैं।

साँची स्तूप की तोरणों पर जातक कथाएं
साँची स्तूप की तोरणों पर जातक कथाएं

स्तूप के शीर्ष पर मुकुट सदृश एक छत्रावली है। छत्रावली के ऊपर एक के ऊपर एक तीन छत्र हैं। ये तीन छत्र बौद्ध धर्म के तीन सिद्धांतों को दर्शाते हैं –

बुद्धं शरणं गच्छामि,

धम्मम शरणं गच्छामि,

संघम शरणं गच्छामि।

इस मुख्य स्तूप अथवा स्तूप क्रमांक १ का व्यास ३६.६ मीटर है तथा उसकी ऊँचाई १६.४६ मीटर है। इसमें छत्रावली की ऊँचाई सम्मिलित नहीं है।

तोरण पर उत्कीर्णित शालभंजिका
तोरण पर उत्कीर्णित शालभंजिका

स्तूप के चारों ओर स्थित परिक्रमा पथ का कटघरा शिलाखंडों द्वारा निर्मित है जिन्हें देश के विभिन्न भागों से अनेक श्रद्धालुओं ने दान में प्रदान किये हैं। शिलाखंडों पर अंकित दाताओं के नाम प्राचीन काल के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं।

मूल मंदिर टेराकोटा नामक पदार्थ से निर्मित किया गया था। टेराकोटा में निर्मित यह मंदिर वर्तमान मंदिर के भीतर अब भी स्थित है। पुरातन स्तूप के नवीनीकरण के समय उस पर ईंटों एवं चूने की एक परत बिछाई गयी है। अब चूने की परत कहीं कहीं से उखड़ रही है जो इस सम्पूर्ण संरचना को दृष्टिगत रूप से रोचक बना रही है।

शिलाओं का आवरण, छत, कटघरा, हर्मिका अथवा ग्रीष्म भवन, छत्रावली के चारों ओर की बाड़, ये सब पुरातन स्तूप पर कालांतर में नवीनीकरण के समय जोड़े गए हैं।

साँची के मुख्य स्तूप का तोरण

साँची के मुख्य स्तूप की चार दिशाओं में चार तोरण हैं जो इस स्तूप के विशेष तत्व हैं। इसका निर्माण प्रथम शताब्दी में सातवाहन वंश के राजाओं के किया था। दक्षिणी तोरण पर लगे शिलालेख द्वारा इसकी पुष्टि की जा सकती है।

साँची स्तूप की तोरण
साँची स्तूप की तोरण

स्तूप के प्रत्येक तोरण में तीन क्षैतिज फलक हैं जो दो स्तंभों पर जुड़े हुए हैं। इन तीनों फलकों को आपस में भी छोटे लम्बवत शिलाखंडों द्वारा जोड़ा गया है। सभी तोरणों एवं उनके स्तंभों पर चारों दिशाओं में सघन उत्कीर्णन किया गया है। तोरण का ऊपरी भाग ऐसा दर्शाया गया है मानो उसे हाथी, सिंह अथवा गन्धर्व अपने ऊपर ढो रहे हों। पश्चिमी तोरण पर निर्मित गन्धर्व की प्रतिमाओं के मुख पर अभिव्यक्त हाव-भाव दर्शनीय हैं। भार उठाते हुए उनके मुखड़े पर अभिव्यक्त भावनाओं को शिल्पकार ने पूर्ण सत्यता से प्रदर्शित किया है। तीनों क्षैतिज फलकों के दोनों छोरों पर कुण्डलियाँ अंकित हैं।

तोरणों के कथा कहते पट्ट
तोरणों के कथा कहते पट्ट

तीनों फलकों को आपस में जोड़ते तीन तीन लम्बवत शैलखंड रिक्त स्थान को ८ भागों में विभाजित करते हैं। इन खण्डों में अश्व तथा गज पर आरूढ़ सवारों की प्रतिमाएं हैं। जहाँ आड़ी पट्टिकाएं स्तंभों से जुड़ती हैं, उसके बाह्य भागों के ऊपर शालभंजिकाओं की प्रतिमाएं हैं। शालभंजिका स्त्री के उस रूप का चित्रण है जो साल वृक्ष के नीचे उसकी एक शाखा पकड़ कर भिन्न भिन्न मुद्राओं में खड़ी है। तोरण के शीर्ष पर धर्म चक्र है जिसके दोनों ओर चामरधारी एवं बुद्ध, धम्म एवं संघ, ये त्रिरत्न हैं।

माया का गजस्वपन - बुद्ध के जन्म का संकेत
माया का गजस्वपन – बुद्ध के जन्म का संकेत

तोरण की रचना करने वाले कारीगर हस्तदन्त कारीगर थे। उनके हाथों की कला इन उत्कीर्णनों की सूक्ष्मता एवं जटिलता में स्पष्ट विदित होती है।

तोरणों के शिल्प एवं उत्कीर्णन

सम्पूर्ण तोरण पर विविध प्रकार की मूर्तियाँ एवं उत्कीर्णन हैं। उनमें हैं-

  • बौद्ध चिन्ह जैसे, कमल, चक्र एवं स्तूप
  • बुद्ध के जीवन के दृश्य जैसे, माया के स्वप्न के द्वारा बुद्ध का जन्म, बोधि वृक्ष द्वारा प्रदर्शित परम ज्ञान की प्राप्ति का दृश्य, उनका प्रथम धर्मोपदेश जिसे चक्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है, स्तूप द्वारा प्रदर्शित उनकी मृत्यु। जी हाँ, बुद्ध को उनके मानवी रूप द्वारा नहीं अपितु उनके चिन्हों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
  • अन्य दृश्यों में कपिलवस्तु से उनका प्रस्थान, सुजाता द्वारा अर्पित नैवेद्य, मार के साथ उनका युद्ध आदि सम्मिलित हैं।
  • जातक कथाएं जो हमें बोधिसत्त्व की कथाएं कहती हैं। जैसे –
    • दक्षिणी, पश्चिमी व उत्तरी तोरण पर उत्कीर्णित छद्दन्त जातक
    • पश्चिमी तोरण के स्तम्भ पर अंकित साम जातक
    • पश्चिमी द्वार के स्तम्भ पर उत्कीर्णित महाकपि जातक
    • उत्तरी द्वार के दोनों ओर अंकित वेस्सन्तर जातक
    • उत्तरी द्वार पर उत्कीर्णित अलम्बस जातक
  • बौद्ध धर्म के इतिहास से सम्बंधित घटनाएँ
  • एक बौद्ध भिक्षुक के जीवन के दृश्य
  • अशोक चक्र एवं सिंह चतुर्भुज
  • सज्जा आकृतियाँ एवं रूपांकन

स्तूप के दक्षिणी भाग का तोरण स्तूप का मुख्य तोरण है। सर्वप्रथम इसी तोरण की स्थापना की गयी थी। यहीं से आगे जाकर सोपान हैं जो आपको स्तूप के शीर्ष तक ले जाती हैं। इस तोरण पर अशोक चिन्ह है जिसमें चार सिंह हैं। इस तोरण के निकट अशोक स्तंभ है। इसका केवल निचला भाग ही यथास्थान है। यह तोरण सर्वाधिक भंजित भी है। उत्तरी दिशा में स्थित तोरण का संरक्षण सर्वोत्तम रूप से किया गया है।

साँची स्तूप में बुद्ध की प्रतिमाएं

आप किसी भी तोरण के द्वारा स्तूप के भीतर जा सकते हैं। भीतर प्रवेश करते ही आपको बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा दृष्टिगोचर होगी। एक छत्र के नीचे विराजमान बुद्ध के मुख पर परम शान्ति का भाव है। ये गुप्त वंश के राजकाल में निर्मित प्रतिमाएं हैं। मुख्य स्तूप में इन्हें सन् ४५० में जोड़ा गया था।

बुद्ध की पाषण प्रतिमा - साँची
बुद्ध की पाषण प्रतिमा – साँची

प्रत्येक छवि में स्तूप की भित्ति का टेका लगाकर बुद्ध ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। प्रत्येक बुद्ध प्रतिमा के पृष्ठभाग पर विस्तृत रूप से उत्कीर्णित प्रभामंडल है।

साँची के बौद्ध धरोहर में किये गए संवर्धन

साँची के मुख्य स्तूप के चारों ओर भिन्न भिन्न कालावधि में अनेक बौद्ध मंदिर बनाए गए अथवा उनमें संवर्धन किये गए। यह इस ओर संकेत करता है कि लगभग ७-८ वीं शताब्दी तक यह धरोहर एक जीवंत बौद्ध स्थल था। इसके पश्चात यह सघन वन में लुप्त हो गया। लोगों ने इसे अनेक प्रकार से भंजित किया। वे जो भी उपयोगी भाग देखते, उसे निकालकर ले जाते थे। अशोक स्तंभ को भंजित कर गन्ने का रस निकालने में उसका प्रयोग करने लगे।

धरोहरी स्मारक का परिवेश

स्तूप की भूमि पर स्थित शिलाखंडों एवं उसके गोलाकार कटघरे की भित्ति पर ब्राह्मी अथवा पाली लिपि में अनेक शिलालेख हैं। उन पर उन व्यक्तियों के नाम उकेरे हैं जिन्होंने उनका दान किया था। छोटे से दान द्वारा शिलाखंडों पर अपना नाम अमर कर लेने की यह प्रथा कितनी प्राचीन है!

साँची में अन्य स्तूप

मुख्य स्तूप के चारों ओर कई लघु स्तूप सदृश संरचनाएं हैं। ये मन्नत के स्तूप हैं जिनकी स्थापना उन व्यक्तियों ने की थी जिनकी मनोकामनाएं स्तूप के दर्शन के पश्चात पूर्णत्व को प्राप्त हुई थीं।

स्तूप क्रमांक ३

मुख्य स्तूप के पश्चात स्तूप क्रमांक ३ ही ऐसा स्तूप है जिसका उत्तम रूप से संवर्धन किया गया है। यह मुख्य स्तूप का लघु प्रतिरूप है। इसकी उंचाई एवं व्यास मुख्य स्तूप से न्यून हैं किन्तु रचना मुख्य स्तूप सदृश ही है। स्तूप के चारों ओर स्थित कटघरा अपेक्षाकृत छोटा है। शिलालेखों के अनुसार इन दोनों कटघरों का प्रायोजक एक ही व्यक्ति है।

स्तूप क्रमांक ३ में एक ही तोरण अथवा द्वार है। ऐसी मान्यता है कि इस स्तूप के भीतर सारिपुत्र एवं मौद्गल्यायन के अस्थि अवशेष समाहित हैं। ये दोनों गौतम बुद्ध के शिष्य थे।

इस स्तूप का दिनांकन २री शताब्दी अनुमानित किया गया है।

मठ

मुख्य स्तूप अथवा स्तूप क्रमांक १ के पश्चिमी ओर नीचे जाते हुए कुछ सोपान है जो आपको एक समतल क्षेत्र की ओर ले जाते हैं। वहाँ एक विशाल जलकुंड एवं कुछ मठों के भग्नावशेष हैं। मठ ५१ चौकोर आकार का है। इसके चारों ओर अनेक कक्ष हैं तथा मध्य में एक प्रांगण है।

४६ एवं ४७ क्रमांक के मठों का अन्वेषण हाल ही में किये गए उत्खनन में किया गया था।

इन मठों के भग्नावशेषों के आसपास मंदिरों समेत कई अनेक संरचनाओं के अवशेष देखे जा सकते हैं।

स्तूप क्रमांक २

यहाँ से कुछ सोपान उतारकर आप स्तूप क्रमांक २ पहुँचते हैं। यह एक सीमा तक स्तूप क्रमांक ३ के ही समान है। यहाँ भी ४ प्रवेश द्वार हैं किन्तु उन पर अलंकारिक तोरण नहीं है। इसका गोलाकार कठघरा उत्तम रूप से संरक्षित है।

मार्ग में आपको एक बड़ा भिक्षा पात्र भी दिखाई देगा।

मुख्य स्तूप के दक्षिणी एवं पूर्वी दिशा में कई लघु स्तूप हैं। उन स्तूपों में बुद्ध के शिष्यों के अवशेष हैं। उनमें से कुछ स्तूपों के आधार चौकोर आकार के भी हैं। उनकी स्थापत्य शैली यह संकेत करती है कि वे सब गुप्त काल से सम्बंधित हैं।

स्तूप क्रमांक ५ में बुद्ध की एक छवि है जिसमें बुद्ध ध्यान मुद्रा में बैठे हैं।

परिसर में स्थित पूर्वकाल के कुछ मंदिर

इस धरोहर संकुल के भीतर कुछ ऐसे भी मंदिर हैं जो प्राचीनतम ज्ञात मंदिर संरचनाएँ हैं। ये संरचनाएं गुप्त एवं मौर्य काल की हैं। इन्हें उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली की पूर्वतर कोपलें कहा जा सकता है।

मंदिर क्रमांक १८  एक गजपृष्ठाकार मंदिर है। ७वीं सदी में निर्मित यह मंदिर एक ऊँचे जगती एवं १२ स्तंभों पर स्थापित रहा होगा। अजंता एल्लोरा गुफाओं के भीतर आपने जो चैत्य गृह देखे थे, उसकी क्षणिक झांकी आप यहाँ भी देख सकते हैं।

मंदिर क्रमांक १७ में गर्भगृह का आकार चौकोर है। उसकी छत सपाट है तथा समक्ष एक द्वारमंडप है। द्वारमंडप के स्तंभों पर सिंह चतुर्भुज अथवा Lion Capital हैं। द्वार के चौखटों पर पुष्पाकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। मैंने इस प्रकार के उत्कीर्णन इसी कालावधि में निर्मित महाराष्ट्र के नागपुर में स्थित रामटेक मंदिर में भी देखा था। इसमें गुप्त काल की स्थापत्य शैली का आभास होता है।

मंदिर क्रमांक ६ मंदिर क्रमांक १७ के ही समान है।

३१ क्रमांक का मंदिर आयताकार है। स्तंभों से सज्ज इस मंदिर की छत सपाट है। इसके भीतर जो बुद्ध की प्रतिमा है, वह इस मंदिर की प्रतीत नहीं होती है।

मंदिर क्रमांक ४० में ३री सदी से ८वीं सदी के मध्यकाल में पल्लवित तीन विविध राजवंशों की स्थापत्य शैली दृष्टिगोचर होती है।

यात्रा सुझाव

यह यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। अतः स्वाभिक रूप से इसका उत्तम रखरखाव किया गया है। चारों ओर उत्तम रूप से अनुरक्षित घास के अप्रतिम मैदान हैं। सभी स्तूपों एवं मंदिरों पर सुनियोजित रूप से संख्यांकन किया गया है।

स्तूपों एवं मंदिरों की जानकारी प्रदान करने के लिए परिदर्शकों अथवा गाइड की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें ऐसा परिदर्शक प्राप्त हुआ जो पुरातत्व विज्ञान का छात्र था। उसने हमें इस स्थल की अनेक सूक्ष्मताओं के विषय में विस्तार से बताया। साँची के इस विश्व धरोहर स्थल के विषय में विस्तृत रूप से जानने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संचालित विश्व धरोहर श्रंखला सर्वोत्तम साधन है।

मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग का गेटवे रिट्रीट नामक विश्राम गृह इस धरोहर स्थल के निकट स्थित है। आप इस होटल से धरोहर स्थल तक पदभ्रमण द्वारा आसानी से पहुँच सकते हैं। प्रातःकालीन पदभ्रमण के लिए भी आप होटल से स्तूपों तक जा सकते हैं।

सभी स्तूप खुले आकाश में स्थित है। भारत के मैदानी क्षेत्रों की कड़कती धूप से आप भलीभांति अवगत होंगे। अतः प्रातःकाल उनका अवलोकन करना सर्वोत्तम है। उसी प्रकार सूर्यास्त का समय भी स्तूपों के अवलोकन के लिए उत्तम है। इससे आप दिवस भर की चिलचिलाती धूप से बच सकते हैं।

आप चाहें तो इन स्तूपों को सूर्य की किरणों के नीचे भी देख सकते हैं। सूर्य की किरणों में यह स्तूप चन्दन के काष्ठ से निर्मित प्रतीत होता है।

स्तूपों के तथा उनके साथ अपने छायाचित्र लेने के लिए भी सूर्योदय एवं सूर्यास्त काल सर्वोत्तम होता है। इस कालावधि में चारों ओर छायी निस्तब्धता चित्तभेदक प्रतीत होती है। प्रातःकाल के समय सौभाग्य से आपको बड़ी संख्या में मोर के दर्शन भी प्राप्त हो सकते हैं।

पहाड़ी पर खड़े होकर आपको नीचे से जाती रेलगाड़ी की ध्वनि सुनाई देगी एवं वह दिखाई भी देगी। यदि आप रेलगाड़ी द्वारा दिल्ली से भोपाल की ओर जा रहे हैं तो आपको अपनी बायीं ओर ये स्तूप दृष्टिगोचर होंगे। विदिशा रेल स्थानक पार करते ही आप अपनी बायीं ओर की खिड़की से बाहर की ओर देखते रहें।

साँची स्तूप का भ्रमण व अवलोकन करने के लिए यदि आप वायु मार्ग द्वारा पहुँचना चाहते हैं अथवा रेल यात्रा करना चाहते हैं तो निकटतम विमानतल तथा रेल स्थानक, दोनों भोपाल में है। भोपाल देश के अन्य स्थानों से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगम रूप से सम्बद्ध है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कंदरिया महादेव मंदिर- खजुराहो का विश्व धरोहर स्थल https://inditales.com/hindi/kandariya-mahadev-mandir-khajuraho-vishwa-dharohar/ https://inditales.com/hindi/kandariya-mahadev-mandir-khajuraho-vishwa-dharohar/#respond Wed, 07 Feb 2024 02:30:01 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3380

खजुराहो स्थित कंदरिया महादेव मंदिर उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली का एक उत्कृष्ट प्रतीक है। १०-११वीं सदी में निर्मित यह मणि चंदेल वंश के राजाओं की देन है। चंदेल साम्राज्य को जेजाकभुक्ति कहा जाता था तथा खजुराहो अथवा खर्जुरवाहक उसकी राजधानी थी। १०- ११वीं सदी में सम्पूर्ण भारत ने उस काल में प्रचलित भारतीय मंदिर […]

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खजुराहो स्थित कंदरिया महादेव मंदिर उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली का एक उत्कृष्ट प्रतीक है। १०-११वीं सदी में निर्मित यह मणि चंदेल वंश के राजाओं की देन है। चंदेल साम्राज्य को जेजाकभुक्ति कहा जाता था तथा खजुराहो अथवा खर्जुरवाहक उसकी राजधानी थी।

कंदरिया महादेव और जगदम्बी मंदिर - खजुराहो
कंदरिया महादेव और जगदम्बी मंदिर – खजुराहो

१०- ११वीं सदी में सम्पूर्ण भारत ने उस काल में प्रचलित भारतीय मंदिर स्थापत्य की सभी शैलियों के कुछ सर्वोत्कृष्ट रचनाओं के दर्शन किये हैं। उनके कुछ सर्वोत्तम उदहारण हैं, तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर, कर्नाटक के होयसल मंदिर, मोढेरा का सूर्य मंदिर, भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर आदि।

कंदरिया महादेव मंदिर का इतिहास

मंदिर के मंडप पर लगे शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण राजा विद्याधर ने करवाया था। उन्होंने ११वीं सदी के उत्तरार्ध में इस क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित किया था। उनकी सर्वोत्तम उपलब्धियों में से एक है, महमूद गजनवी के प्रथम आक्रमण को सफलता पूर्वक कुचल देना। महमूद गजनवी कुछ वर्षों उपरांत पुनः लौटा था। उसका यह आक्रमण भी अनिर्णायक सिद्ध हुआ था। कुछ सूत्रों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण महमूद गजनवी की पराजय का उत्सव मनाने के लिए ही किया गया था।

इस मंदिर का निर्माण सन् १०२५-५०ई. के मध्य हुआ था।

कंदरिया महादेव के शिखर
कंदरिया महादेव के शिखर

संभव है कि इस मंदिर की संकल्पना विश्वनाथ द्वारा की गयी थी जो विद्याधर के पूर्वज थे। यह चंदेल वंश के कुलदेव भगवान शिव का मंदिर है। जिस कालावधि में इस मंदिर का निर्माण हुआ था, वह कालावधि निसंदेह भारतीय मंदिर स्थापत्य कला शैली का स्वर्णिम युग था।

सन् १९८६ से खजुराहो के इस कंदरिया महादेव मंदिर को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का मान प्राप्त हुआ है।

कंदरिया शब्द की व्युत्पत्ति

कंदरिया शब्द की व्युत्पत्ति कन्दरा शब्द से हुई है। कन्दरा का अर्थ है, पर्वत अथवा धरती पर स्थित मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक गुफा। अतः कंदरिया महादेव का सरल अर्थ है, कन्दराओं के महादेव।

ऐसा कहा जाता है कि मातंगेश्वर मंदिर एवं विश्वनाथ मंदिर के संग कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो के तीन प्रमुख शिव मंदिरों के त्रयी की रचना करता है। इनके अतिरक्त तीन देवी मंदिर भी हैं जो चौसठ योगिनियाँ, छत्री देवी एवं जगदम्बी के लिए हैं। ये तीन मंदिर भी एक अन्य प्रतिच्छेदन त्रिभुज की रचना करते हैं। ये छः मंदिर एकत्र रूप में एक यंत्र की रचना करते हैं। यह यंत्र एक पावन आकृति है जिसका विस्तृत विवरण यहाँ इस शोध पत्र में किया गया है।

कंदरिया महादेव मंदिर का दर्शन

शीत ऋतु की वह शीतल प्रभात मुझे अब भी स्मरण है। मैं मंदिर के समक्ष खड़ी मंदिर को निहार रही थी। सूर्य की किरणें मंदिर की परिरेखा से अठखेलियाँ खेल रहीं थी। उनके प्रातःकालीन वार्तालापों को हम लगभग सुन व समझ पा रहे थे।

दमकता हुआ कंदरिया महादेव
दमकता हुआ कंदरिया महादेव

सूर्य की प्रथम किरणों के प्रकाश में मंदिर चमचमा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो यह मंदिर उत्कीर्णित शिलाखंडों द्वारा नहीं, अपितु चन्दन के उत्कीर्णित काष्ठों द्वारा निर्मित हो। उनकी सौम्य गुलाबी रंग की विविध छटाएं सूर्य की किरणों के संग लुका-छिपी का खेल खेल रहीं थी।

मंदिर के गठन में मुझे एक लय का अनुभव हो रहा था। वह लय जगती, मंडप एवं शिखर के सही अनुपात में निहित था अथवा कदाचित स्थापत्य विदों ने महादेव के कैलाश पर्वत की यहाँ पुनरावृत्ति करने के लिए सर्वोत्तम सूत्रों का प्रयोग किया है, मुझे ज्ञात नहीं। मुझे केवल इतना स्मरण है कि मेरे नेत्र अश्रु जल से भर गए थे। मुझे अपने एवं मंदिर के मध्य एक अद्भुत संस्पंदन का अनुभव हो रहा था। इस अनुभव ने मेरे एवं मंदिर के मध्य सम्बन्ध को एक नवीन परिभाषा प्रदान कर दी थी।

कंदरिया महादेव मंदिर का स्थापत्य
कंदरिया महादेव मंदिर का स्थापत्य

मैंने इस अद्वितीय अद्भुत अनुभव का उल्लेख अपनी पुस्तक, ‘Lotus In The stone – Sacred Journeys in Eternal India’ में भी किया है।

गत संध्या के समय मैंने एक दृश्य एवं श्रव्य प्रदर्शन में इस मंदिर को जीवंत होते देखा था। मैंने इसकी बाह्य सुन्दरता को नेत्र भर कर निहारा था। किन्तु प्रातः काल मंदिर एवं मेरे मध्य जिस लय की रचना हुई, उसने मेरे अंतर्मन को भेध दिया था। उसने मुझे अंतर्बाह्य मोह लिया था।

मंदिर की स्थापत्य कला

खजुराहो के अन्य मंदिरों के अनुरूप इस मंदिर की संरचना भी बलुआ शिलाओं द्वारा की गयी है। गुलाबी एवं पीतवर्ण की भिन्न भिन्न छटाओं में रंगी बलुआ शिलाएं केन नदी के तट पर स्थित पन्ना की खदानों से लायी गयी हैं।

कंदरिया मंदिर खजुराहो मंदिर संकुल के पश्चिमी भाग पर स्थित मंदिरों में से एक है। यह मंदिर एक उच्च जगती पर स्वतन्त्र रूप से स्थापित है। इसके चारों ओर किसी भी प्रकार का प्राकार उपस्थित नहीं है। इसी कारण मंदिर की परिक्रमा करते हुए आप चारों ओर से इसकी सुन्दरता का अवलोकन कर सकते हैं। दो अन्य मंदिर भी इसी जगती पर स्थापित हैं। उनमें से एक लघु मंदिर भगवान शिव का है तथा एक मंदिर देवी जगदम्बी का है।

खजुराहो का विशालतम मंदिर

कंदरिया महादेव मंदिर इस संकुल का विशालतम मंदिर होते हुए भी एक सघन व सुगठित मंदिर है। पूर्व-पश्चिम अक्षांश पर स्थित इस मंदिर की लम्बाई ३०.५ मीटर व चौड़ाई २० मीटर है। ३१ मीटर ऊँचा मंदिर ४ मीटर ऊँचे जगती पर स्थापित है। इस मंदिर में एक ठेठ हिन्दू मंदिर के सभी तत्व उपस्थित हैं।

एक अर्ध मंडप के मध्य से आप मंदिर में प्रवेश करते हैं। यह प्रवेश द्वार आपको मंदिर के मुख्य मंडप तक ले जाता है। मंडप एवं गर्भगृह के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता एक अंतराल है। गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा पथ है।

शिखर का लय

मंदिर का संग्रथित शिखर समूह एक ऐसा तत्व है जो इस मंदिर को एक लय प्रदान करता है। मंदिर का संयुक्त शिखर ८४ स्वतन्त्र शिखरों द्वारा संरचित है। प्रत्येक शिखर दूसरे की प्रतिकृति है। जैसे जैसे ऊपर जाते हैं, समरूप शिखरों के आकार में संवृद्धि होती जाती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो शिखरों का उंचा ढेर हो। एक प्रकार से यह कैलाश पर्वत की प्रतिकृति प्रतीत होता है जो भगवान शिव का प्रिय निवास स्थान है। इस संरचना का चुनाव कदाचित इसीलिए किया गया हो ताकि भगवान शिव को यह स्वयं का भवन प्रतीत हो।

मंडप को महामंडप कहा जाता है क्योंकि इसमें अनेक गलियारे हैं जिनके झरोखे बाहर की ओर खुलते हैं। मंदिर के दोनों पार्श्वभागों पर एवं पृष्ठभाग पर प्रलंबन हैं जिन पर ये झरोखे निर्मित हैं। इन झरोखों के आतंरिक भागों पर बैठकों की सुविधाएं प्रदान की गयी हैं। ये बैठकें इतनी विशाल हैं कि हम असमंजस में पड़ जाते हैं कि ये ध्यान साधना के लिए हैं अथवा किसी अनुष्ठान के लिए हैं।

बाह्य भित्तियाँ

बाह्य भित्तियों पर अप्रतिम आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं जिनमें प्रमुख हैं, गजाकृतियाँ, अश्वाकृतियाँ, संगीतज्ञ, नर्तक, वाद्य यंत्र, दैनन्दिनी जीवन के विभिन्न आयाम जिनमें प्रेमशास्त्र भी सम्मिलित है।

मैथुन - गर्भगृह और मंडप के मिलन बिंदु पर
मैथुन – गर्भगृह और मंडप के मिलन बिंदु पर

झरोखों के स्तर पर स्थित तीन पट्टिकाओं पर अधिक विस्तृत एवं सुस्पष्ट शिल्प हैं। इन पट्टिकाओं पर देवी-देवताओं के शिल्प हैं। एक शिव मंदिर होने के नाते उन शिल्पों में प्रमुख रूप से शिव की प्रतिमाएं हैं। कहीं कहीं वे अपनी शक्ति के संग भी विराजमान हैं। उन शिल्पों में सप्तमातृकाओं की भी प्रतिमाएं हैं। अन्य शिल्प हैं, सुर सुंदरियाँ, प्रेमशास्त्र संबंधी शिल्प जो विशेषतः गर्भगृह एवं मंडप के संगम पर प्रदर्शित हैं, नाग एवं व्याल आकृतियाँ आदि।

सुर सुंदरियाँ
सुर सुंदरियाँ

मंदिर की बाह्य भित्तियों पर रचित स्त्रियों के शिल्प सभी मापदंडों में सर्वोत्तम हैं। उनके शरीर के विभिन्न अंगों को सही अनुपात में उकेरा गया है। उनके शरीर के उभारों को विभिन्न मुद्राओं की सहायता से विशिष्टता प्रदान की गयी है। जैसे खड़े होने की त्रिभंगी मुद्रा जिसमें उनकी शारीरिक मुद्रा तीन स्थानों पर वक्र होती है। उनके आभूषणों एवं उनके उत्तम महीन वस्त्रों की परतों के शिल्प आपको मंत्रमुग्ध कर देंगे।

मंदिर के भीतर प्रवेश

मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक आकर्षक मकर तोरण है जिसके छोरों पर मगर के मुख की आकृतियाँ हैं। यह तोरण एकल शिलाखंड को उत्कीर्णित कर निर्मित किया गया है। कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो का इकलौता मंदिर है जिसमें दो मकर तोरण हैं।

मंदिर की भीतरी छत
मंदिर की भीतरी छत

मंदिर की छत शिलाखंड द्वारा निर्मित है जिस पर संकेन्द्रीय वृत्त के आकार में प्रचुर मात्रा में उत्कीर्णन किया गया है। अद्भुत, असाधारण, विलक्षण, अद्वितीय, आश्चर्य चकित कर देने वाले, सूक्षमता एवं सौंदर्य का अद्भुत सम्मिश्रण! मैं इस स्तर तक सम्मोहित हो गयी थी कि उनके लिए जितने विशेषणों का प्रयोग करूँ, मेरे लिए वे कम ही होंगे।

स्तंभों पर पुष्प की बेलें उत्कीर्णित हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार एवं भारतीय मंदिर वास्तुकला के विशेषज्ञ जॉर्ज मिचेल के अनुसार मंदिर की बाह्य भित्तियों पर ६४६ प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। वहीं आतंरिक भित्तियों पर २२६ प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं।

क्या कंदरिया महादेव मंदिर को अनुष्ठानिक मंदिर बनाया जा सकता है?

जैसा कि नाम से विदित होता है, कंदरिया मंदिर एक शिव मंदिर है। वर्तमान में यह अनुष्ठानिक मंदिर नहीं है, अर्थात् यहाँ किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना अथवा अनुष्ठान का आयोजन नहीं किया जाता है। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि इस मंदिर में भगवान की प्राण प्रतिष्ठा की जाए तथा यह मंदिर पुनः एक जीवंत अनुष्ठानिक शिव मंदिर बने।

यह मंदिर इतना मनमोहक व अप्रतिम है कि इसकी अविस्मरणीय सुन्दरता पर अनेक साहित्य लिखे जा सकते हैं। इसके चित्र एवं चलचित्र हमें मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इसके विलक्षण सौंदर्य पर यदि दिव्य उर्जा का तिलक लग जाए तो इसे आध्यात्मिक रूप से भी जीवंत किया जा सकता है। इससे सभी प्रकार के दर्शनार्थियों को लाभ प्राप्त हो सकेगा।

जैसा कि स्थापति पोन्नी सेल्वनाथ ने बताया, हमारे शास्त्रों में भी परित्यक्त मंदिरों के जीर्णोद्धार के विषय में विस्तृत रूप से उल्लेख किया गया है।

यह मंदिर हमारे लिए ना केवल वास्तुकला के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, अपितु खजुराहो के पवित्र भौगोलिक महत्ता के संरक्षण के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भारतीय मंदिर वास्तुशैली व स्थापत्यकला के स्वर्णिम युग से प्राप्त एक विलक्षण मणि है। इसे जीवंत रखना ना केवल हमारा उत्तरदायित्व है, अपितु हमारे लिए आवश्यक भी है।

यात्रा सुझाव

यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक सप्ताह के सातों दिवस खुला रहता है।

खजुराहो में स्वयं का विमानतल है। यह रेल मार्ग द्वारा भी देश के अन्य नगरों से सुगम रूप से सम्बद्ध है। झांसी से खजुराहो तक उत्तम सड़क मार्ग उपलब्ध है।

कंदरिया महादेव मंदिर खजुराहो के मंदिरों के पश्चिमी समूह का एक भाग है। खजुराहो पहुँचते ही, लगभग सभी मार्ग आपको इस मंदिर तक ले जायेंगे।

खजुराहो में सभी स्तर के अनेक विश्रामगृह उपलब्ध हैं। हम मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग द्वारा संचालित विश्रामगृह में ठहरे थे जो इन मंदिरों के अत्यंत निकट स्थित है। यहाँ से आप पदभ्रमण करते हुए सुगमता से मंदिर तक जा सकते हैं। प्रातः शीघ्र दर्शन करना उत्तम होगा।

यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यहाँ देशी पर्यटकों के साथ साथ बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक भी आते हैं। अतः खजुराहो की गलियों में विविध प्रकार के स्वादिष्ट देशी एवं विदेशी व्यंजन उपलब्ध होते हैं।

खजुराहो के मंदिर समूह का दर्शन करने के लिए १-२ दिवसों का समय पर्याप्त है। मेरा सुझाव है कि इस मंदिर के दर्शन के लिए कम से कम एक घंटे का समय अवश्य रखें।

यह यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। यहाँ पर्यटन परिदर्शक या गाइड तथा श्रव्य परिदर्शन की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हैं। मेरा सुझाव है कि आप भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा अनुमोदित परिदर्शकों की ही सेवायें लें। आपको जिस गति से भ्रमण करना हो, उसकी सूचना देते हुए सुगमता से मंदिरों का अवलोकन करें।

अधिकाँश मंदिरों में छायाचित्रीकरण निषिद्ध नहीं है।

संध्या के समय दृश्य एवं श्रव्य प्रदर्शन किया जाता है जिसे देखना ना भूलें।

खजुराहो भ्रमण के साथ आप पन्ना राष्ट्रीय उद्यान, ओरछा एवं झांसी के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण भी नियोजित कर सकते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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राजा भोज का भोजेश्वर मंदिर – भोजपुर का प्रसिद्ध शिवलिंग https://inditales.com/hindi/bhojeshwar-mandir-bhojpur-madhya-pradesh/ https://inditales.com/hindi/bhojeshwar-mandir-bhojpur-madhya-pradesh/#comments Wed, 08 Nov 2023 02:30:52 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3318

मैंने जब सर्वप्रथम भोजपुर का नाम सुना था तब मुझे इस लोकप्रिय हिन्दी मुहावरे का स्मरण हो आया था, “कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली”। इस मुहावरे का प्रयोग साधारणतः दो विपरीत स्थितियों को दर्शाने के लिए किया जाता है। कदाचित यह मुहावरा राजा भोज की छवि एवं उनके राज्य की समृद्धि को दर्शाने के […]

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मैंने जब सर्वप्रथम भोजपुर का नाम सुना था तब मुझे इस लोकप्रिय हिन्दी मुहावरे का स्मरण हो आया था, “कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली”। इस मुहावरे का प्रयोग साधारणतः दो विपरीत स्थितियों को दर्शाने के लिए किया जाता है। कदाचित यह मुहावरा राजा भोज की छवि एवं उनके राज्य की समृद्धि को दर्शाने के लिए भी सर्वोपयुक्त है। राजा भोज के राज्य की भव्यता एवं सम्पन्नता निसंदेह असाधारण व अतुलनीय थी।

भोजपुर का यह भोजेश्वर मंदिर उसी समृद्ध एवं भव्य राज्य का एकमात्र जीवंत प्रमाण है।

राजा भोज कौन थे?

राजा भोज परमार वंश के राजा थे। वे उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के वंशज माने जाते हैं। उन्होंने सन् १०१० से १०५५ तक मालवा क्षेत्र में राज्य किया था। उनकी राजधानी धार नगरी थी जो अब धार नाम से जानी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि यह क्षेत्र तलवारों की धार के कारण प्रसिद्ध थी। इसीलिए इसे धार नगरी कहा जाता था।

भोजेश्वर मंदिर के स्तम्भ, चौखटें और लिंग
भोजेश्वर मंदिर के स्तम्भ, चौखटें और लिंग

राजा भोज एक शक्तिशाली राजा थे। उन्होंने दूर दूर के क्षेत्रों तक अपने सैन्य अभियान क्रियान्वित थे। भोज राजा ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था तथा अनेक भव्य मंदिरों के निर्माण का नियोजन भी किया था। भोपाल एवं उसके आसपास स्थित तालाबों के निर्माण का श्रेय भी उन्ही को जाता है। वास्तव में भोजेश्वर मंदिर भीमताल नामक एक विशाल सरोवर के निकट बनाया गया था। बेतवा नदी पर बाँध निर्मित कर इस विशाल सरोवर की रचना हुई थी।

राजा भोज की एक अन्य उपलब्धि भी है जिसके विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है। वे शिक्षा एवं साहित्य के अनन्य उपासक थे। उन्होंने स्थापत्य कला से लेकर दर्शन शास्त्र, औषधि शास्त्र तथा संगीत जैसे विषयों पर लगभग ८४ पुस्तकें लिखी थीं। वे बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न एक विद्वान राजा थे जिनके विषय में यह प्रसिद्ध धारणा बन गयी थी कि वे साक्षात् ज्ञान की देवी सरस्वती को ही धरती पर ले आये थे। धार में उनके द्वारा स्थापित महाविद्यालय, कालान्तर में जिसे भोजशाला कहा गया, उनकी इसी बहुआयामी व्यक्तित्व का साक्ष्य है। उदयपुर प्रशस्ति शिलालेख से संकेत प्राप्त होता है कि उन्होंने धार में लगभग १०४ मंदिरों का निर्माण कराया था। दुर्भाग्य से वे सभी अब अस्तित्वहीन हो चुके हैं।

भोपाल नगर का यह नामकरण राजा भोज की ही देन है। आरम्भ में इसे भोजपाल कहा जाता था जो कालांतर में अपभ्रंशित होते हुए भोपाल कहलाया।

विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेवराय ने भोज राजा से प्रभावित होकर स्वयं को अभिनव-भोज तथा सकल-काल-भोज की उपाधि से अलंकृत किया था।

भोजेश्वर मंदिर – भोजपुर का अभिनव शिव मंदिर

भोजपुर शिव मंदिर की विशाल योनि
भोजपुर शिव मंदिर की विशाल योनि

भोजेश्वर मंदिर, राजा भोज के भव्य भोजपुर नगर से सम्बंधित केवल यही रचना शेष है। काली शिला में निर्मित एक विशाल शिव मंदिर, जो अपूर्ण होते हुए भी जीवंत है। यहाँ भगवान शिव की नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। ११वीं सदी के मध्यकाल में निर्मित इस मंदिर की संरचना कभी पूर्ण नहीं हुई। अपने इस अपूर्ण रूप में यह मंदिर अपनी निर्माण प्रक्रिया के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।

विशाल शिवलिंग

भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर विशेषतः अपने विशाल शिवलिंग के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। जैसा कि हम जानते हैं, शिवलिंग के दो भाग होते हैं, लिंग एवं योनि। शिवलिंग की निचली पीठिका भाग योनि कहलाता है। इस मंदिर के शिवलिंग की योनि अतिविशाल एवं सुन्दर है। कदाचित, इससे अधिक विशाल योनि आपने कहीं नहीं देखी होगी। जहाँ तक लिंग का प्रश्न है, वह भी विशाल है किन्तु मैं उसे विशालतम नहीं कहूंगी। खजुराहो के मतंगेश्वर मंदिर का लिंग इससे भी अधिक विशाल है।

भोजपुर शिव मंदिर की छत
भोजपुर शिव मंदिर की छत

यह शिवलिंग चूना पत्थर के अनेक आवरणों द्वारा निर्मित है। सम्पूर्ण शिवलिंग की ऊँचाई लगभग ४० फीट है।

मंदिर की भीतरी छत संकेंद्रित वृत्तों की आकृति से उत्कीर्णित है जिसे देख खजुराहो के मंदिरों का स्मरण हो आता है।

मंदिर में चार अष्टकोणीय स्तम्भ हैं। भित्तियों को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्हें कालांतर में निर्मित किया गया है। अथवा कालांतर में उनका नवीनीकरण किया गया होगा क्योंकि शेष मंदिर के अलंकरण की तुलना में भित्तियाँ साधारण प्रतीत होती हैं। स्तम्भों के ऊपरी कोष्ठकों पर शिव-पार्वती, ब्रह्म-ब्रह्मणी, लक्ष्मी-नारायण एवं राम-सीता की छवियाँ उत्कीर्णित हैं।

मेरे अनुमान से आरम्भ में यह मंदिर चार स्तम्भों पर आधारित एक खुला मंदिर रहा होगा, जैसे कि बहुधा शिव मंदिरों की संरचना होती है। किन्तु मेरे इस प्रस्थापित सिद्धांत का कोई प्रमाण नहीं है।

भोजेश्वर मंदिर की स्थापत्य शैली

यह मंदिर एक विशाल चबूतरे पर निर्मित है जिसे जगती कहते हैं। यह उस काल की प्रचलित शैली थी।

अपूर्ण भोजेश्वर महादेव मंदिर
अपूर्ण भोजेश्वर महादेव मंदिर

मंदिर में सभा मंडप नहीं है। जगती पर स्थापित यह एक स्वतन्त्र मंदिर है।

गर्भगृह का शिखर, मंदिर निर्माण की नागर शैली में प्रचलित वक्रीय आकार में ना होकर सरलरेखीय है। मंदिर के केवल अग्र भाग में अप्सराओं, गणों तथा अन्य देवी-देवताओं के शिल्प उत्कीर्णित हैं। मंदिर की अन्य भित्तियों पर शिल्पकारी नहीं है, मानो वे शिव की कथाओं पर आधारित शिल्पों के उत्कीर्णन की प्रतीक्षा कर रही हों।

मकरनाल
मकरनाल

शिखर के आकार के कारण कुछ विद्वानों का मानना है कि यह एक स्वर्गारोहण प्रासाद है। अर्थात् वह मंदिर जिसे स्वर्गवासी पूर्वजों की स्मृति में निर्मित किया जाता है।

शिला ढोने के लिए ढालू मार्ग

मंदिर के दाहिनी ओर एक विशाल ढालू मार्ग है। मेरा अनुमान है कि इसकी रचना मंदिर के निर्माण के लिए विशाल शिलाओं को जगती तक ले जाने के लिए की गयी होगी। यदि हम इस ढालू मार्ग का दर्शन नहीं करते तो हमारी यह मनन श्रंखला अखंड जारी रहती कि विशाल शिलाओं एवं शैलशिल्पों को इस विशालकाय जगती के ऊपर किस प्रकार ले जाया गया होगा! अथवा इस जगती के निर्माण के लिए भी विशालकाय शिलाओं को यहाँ तक कैसे लाया होगा!

आपको स्मरण होगा कि तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के विशाल शिलाखंड को ले जाने के लिए भी ढालू मार्ग का प्रयोग किया गया था।

मंदिर की अवधारणा शिला पर
मंदिर की अवधारणा शिला पर

मंदिर के समीप एक खदान है जहाँ भिन्न भिन्न चरणों में अनेक उत्कीर्णित शैलशिल्प रखे हुए हैं। अब ये भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा अधिगृहीत हैं। मंदिर के चारों ओर चट्टानों पर मंदिर के वास्तु चित्र रेखांकित हैं। उन्हें देख यह अनुमान लगा सकते हैं कि प्रारंभ में एक विशाल मंदिर परिसर की संरचना नियोजित थी। इस प्रकल्प के चरणागत निर्माणकार्य के प्रबंधन के लिए किये गए चिन्ह भी इन चट्टानों पर दृष्टिगोचर होते हैं।

मुख्य मंदिर के बाह्य भाग में दो लघु मंदिर हैं। यहाँ भी नियमित पूजा-अर्चना होती है। दाहिनी ओर स्थित लघु मंदिर की बाह्य भित्तियों पर कुछ अपूर्ण कलाकृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इन कलाकृतियों से मंदिर निर्माण अवधि में निर्माण कार्य की प्रगति का प्रत्यक्षीकरण होता है।

उत्खनन

इस स्थान पर किये गए उत्खनन से यह जानकारी प्राप्त होती है कि यहाँ इससे अधिक मंदिरों के निर्माण की योजना बनाई गयी थी। कदाचित खजुराहो के पदचिन्हों पर विस्तृत मंदिर संकुल के निर्माण की योजना थी। किन्ही अप्रत्याशित कारणों से उस योजना को बीच में ही स्थगित कर देना पड़ा होगा।

भोजपुर में एक और शिवलिंग
भोजपुर में एक और शिवलिंग

भोजेश्वर मंदिर का पर्याप्त निर्माण कार्य पूर्ण किया गया ताकि शिवलिंग की स्थापना कर उसकी पूजा-अर्चना आरम्भ हो सके। आज भी पूजा-अर्चना की प्रथा अनवरत अखंडित है।

प्रत्येक वर्ष महाशिवरात्रि के दिवस यहाँ विशाल महाशिवरात्रि मेला लगता है।

भोजपुर के अन्य दर्शनीय स्थल

भोजेश्वर मंदिर के निकट एक भोजेश्वर मंदिर संग्रहालय है। यह संग्रहालय आपको मंदिर की दृष्टि से इस क्षेत्र के इतिहास का परिचय देता है।

यदि आप मंदिर के ऊँचे विशाल जगती पर खड़े होकर चारों ओर दृष्टि दौड़ायेंगे तो आपको इस क्षेत्र के अंधाधुंध आधुनिकरण के चिन्ह दृष्टिगोचर होंगे। हमारे समक्ष विशाल औद्योगिक इकाइयाँ थीं जो अपने भीमकाय चिमनियों से आकाश में काले घने धुंए की धार उत्सर्जित कर रही थीं। समीप स्थित मंडीदीप नामक औद्योगिक नगरी आकाश को प्रदूषित करने में अपना योगदान दे रही थी।

मंडीदीप के समीप एक अपूर्ण जैन मंदिर है जो शांतिनाथ जी को समर्पित है।

बेतवा की संकरी घाटी में पार्वती गुफा है जहाँ अनेक संतों ने साधना की है।

मंदिर के समीप राजा भोज के प्राचीन राजमहल के अवशेष देखे जा सकते हैं। राजा भोज ने भारतीय वास्तुशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी थी, समरांगणसूत्रधार। इस पुस्तक में उन्होंने इस महल के विषय में विस्तृत जानकारी दी है। इन अवशेषों में आप उस महल की कल्पना कर सकते हैं जिसका उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है।

यह सब देख मुझे तीव्र पीड़ा होती है कि मैंने भारत के उस स्वर्णिम काल में जन्म क्यों नहीं लिया! एक स्थान से दूसरे स्थान जाकर उस स्वर्णिम इतिहास के अवशेषों को ढूँढने के स्थान पर मैंने भारत की सम्पन्नता एवं सौंदर्य की चरमसीमा का अनुभव प्राप्त किया होता।

यात्रा सुझाव

भोजपुर भोपाल से लगभग ३२ किलोमीटर दूर स्थित है। आप भोपाल से एक दिवसीय यात्रा के रूप में भोजेश्वर मंदिर एवं आसपास के स्थलों का आसानी से दर्शन कर सकते हैं।

भोपाल देश के सभी भागों से वायु, रेल तथा सड़क मार्गों द्वारा सुगमता से संयुक्त है।

मंदिर दर्शन के लिए एक घंटे का समय पर्याप्त है।

भोजपुर भ्रमण को सांची भ्रमण एवं भीमबेटका भ्रमण के साथ भी किया जा सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान – बाघ दर्शन के परे वन्य-जीवन https://inditales.com/hindi/bandhavgarh-rashtriya-udyaan-safari/ https://inditales.com/hindi/bandhavgarh-rashtriya-udyaan-safari/#respond Wed, 09 Aug 2023 02:30:36 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3136

बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान बाघों के दर्शन के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। अन्य राष्ट्रीय उद्यानों की तुलना में यह एक छोटा राष्ट्रीय उद्यान है जहां बाघों की संख्या प्रशंसनीय है। इस कारण सफारी के समय यहाँ बाघों के दर्शन सामान्य है। इन परिस्थितियों में बाघों के दर्शन ना हो पाना दुर्भाग्य ही कह सकते हैं। जब […]

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बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान बाघों के दर्शन के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। अन्य राष्ट्रीय उद्यानों की तुलना में यह एक छोटा राष्ट्रीय उद्यान है जहां बाघों की संख्या प्रशंसनीय है। इस कारण सफारी के समय यहाँ बाघों के दर्शन सामान्य है। इन परिस्थितियों में बाघों के दर्शन ना हो पाना दुर्भाग्य ही कह सकते हैं।

बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान सफारी
बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान सफारी

जब हम यहाँ सफारी के लिए आये, हमारा भी कुछ ऐसा ही भाग्य रहा। उद्यान के ताला एवं मगधी क्षेत्र में हमने तीन सफारियाँ की किन्तु हमें एक भी बाघ नहीं दिखा। हमारे साथ आये कुछ अन्य पर्यटकों को बाघ ने अवश्य दर्शन दिए। सत्य ही है, उनके दर्शन कर पाना अथवा ना करना नियति का ही खेल है।

जब हम बाघ दर्शन की आस में जंगल में घूम रहे थे, तब बाघ तो हमसे छुपे रहे किन्तु वन के अन्य वैशिष्ट्य एवं उसके परितंत्र हमारा ध्यान आकर्षित करने में सफल हो रहे थे। हमने बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के विविध आयामों को सूक्ष्मता से देखा व जाना।

बाघ दर्शन के परे बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान का वन्य-जीवन

वृक्ष

बांधवगढ़ के वनों में मुख्य रूप से चटक हरे पत्तों से आच्छादित साल वृक्ष बहुसंख्य में उपस्थित हैं। इसके पश्चात, बांस वृक्षों की संख्या है। इस क्षेत्र की रेतीली भूमि, जिनमें ये वृक्ष प्रस्फुटित होते हैं, उस काल का स्मरण कराते हैं, जब यह क्षेत्र कदाचित सागर का एक भाग रहा होगा। सागर ने इस भूमि पर बालू से अपने चिन्ह छोड़ दिए हैं।

वृक्षों को जकड़े हुए लताएँ
वृक्षों को जकड़े हुए लताएँ

इस क्षेत्र की एक अन्य विशिष्ठता है, साल वृक्षों का संबल लेते हुए उगती मोटी मोटी लताएँ, जो वृक्ष के तने को ढँक लेती है। यह एक परजीवी बेल होती हैं जो जिस वृक्ष का संबल लेते हुए उगती है, उसी वृक्ष को खा जाती है। वृक्ष के मरते ही शनैः शनैः वह स्वयं भी मृत हो जाती है। दार्शनिक रूप से इसका विश्लेषण करें तो क्या अधिकतर मानवों का व्यवहार ऐसा नहीं होता है? जिन वृक्षों पर उनका जीवन निर्भर होता है, क्या वे उन्ही वृक्षों की कटाई नहीं कर देते? वे यह भूल जाते हैं कि इन वृक्षों के अस्तित्वहीन होने पर उनका स्वयं का अस्तित्व भी शेष नहीं रहेगा।

हमारे गाइड ने वन में उगते अनेक औषधीय पौधों एवं वृक्षों से हमारा परिचय कराया। वनों के आसपास रहते जनजाति के लोग अनेक रोगों के निवारण के लिए इनका प्रयोग करते हैं। उदहारण के लिए, Chloroxylon Swietania नामक पौधे का प्रयोग मलेरिया से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है जिसे स्थानिक भीरा का पौधा भी कहते हैं।

यहाँ वृक्ष की एक अन्य प्रजाति है, साजा, जिसका तना राख के रंग का होता है। इसकी सतह पर मगरमच्छ की त्वचा के समान आकृतियाँ होती है। स्थानिक इसे शिव रूप मानते हुए इसकी आराधना करते हैं क्योंकि इसके तने का रंग भस्म निरुपित शिव की त्वचा के रंग के अनुरूप दृष्टिगोचर होती है। वे इस वृक्ष की कटाई कभी नहीं  करते हैं। इसके पास से जाते समय वे इसे झुक कर प्रणाम करते हैं।

जामुन के भी अनेक वृक्ष हैं जिनसे टपके हुए जामुनों से निकले रंग पगडंडियों की मिट्टी को लाल व जमुनी कर देते हैं।

बांधवगढ़ के पक्षी

मेरे कैमरे के लिए सर्वाधिक प्रिय दृश्य थे, अपने स्वयं के परिवेश में स्वच्छंद उड़ते रंगबिरंगे पक्षी। नौरंगा (Pitta) एवं नीलकंठ(Indian Roller) अपने पंखों के रंगों का प्रदर्शन करते आकाश में उड़ रहे थे।

नीलकंठ
नीलकंठ

शांत बैठे नौरंगा के पंखों के उजले किन्तु सौम्य रंग अत्यंत मनमोहक प्रतीत होते हैं। वही जब आकाश में उड़ान भरता है, उसके पंख मानों विभिन्न रंगों की होली खेलते प्रतीत होते हैं। इसी कारण इसे नौरंगा कहते हैं।

नौरंगा
नौरंगा

वहीं जब नीलकंठ उड़ान भरता है तब अपना चटक नीला रंग प्रकट करता है तथा जब बैठता है तब उसके नीले पंख राखाड़ी रंग के पंखों के साथ आंखमिचौली खेलने लगते हैं।

कठफोड़वा (Woodpecker) एवं भारतीय सुनहरे पीलक (Oriole) पक्षियों ने मेरे कमरे के संग खूब आंखमिचौली खेली। वे मेरे कमरे में बंद होने के लिए कदापि तत्पर नहीं थे। मानो यह कह रहे हों कि कमरे छोड़िये एवं आँखों से हमें देखकर आनंद उठाइये। आप सब भी यह ध्यान में रखिये।

पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ

शिकारी अथवा परभक्षी पक्षी, जैसे मधुबाज (Oriental Honey Buzzard), कलगीदार सर्प चील (Crested Serpent Eagle) आदि, वृक्षों की शाखाओं पर आत्मविश्वास से बैठे, अपनी पैनी दृष्टी से शिकार ढूंढ रहे थे। वे उन पर्यटकों से तनिक भी विचलित नहीं थे जो अपने कैमरे के लम्बे लम्बे लेंस उनकी ओर ताने हुए थे।

मधुबाज़
मधुबाज़

दूर स्थित घास के मैदानों में बैठे जांघिल सारस (Painted Storks) घास में छुपे कीट-भोज ढूंढ रहे थे। यूँ तो Jungle Babblers अथवा सात भाई पक्षियों के समूह छद्मावरण के कारण मिट्टी के परिवेश में अदृश्य से प्रतीत होते हैं किन्तु निरंतर आंदोलित होते अंगों के कारण वे हमारी दृष्टी को खींच रहे थे। वे सदा समूह में ही रहते हैं।

कलगीदार सर्प चील
कलगीदार सर्प चील

श्वेत श्याम दहियर (Magpie) भी मेरे कैमरे व मेरे साथ लुका-छुपी का खेल खेल रही थी। उस खेल में अंततः उसकी ही विजय हुई तथा मेरा कैमरा उसके छायाचित्र से वंचित रह गया।

चितरोखा (Spotted dove) जंगल में शांत बैठे रहते हैं। काला बाजा (Black Ibis), भीमराज / बुजंगा (Drongo), जलकाक (Cormorant) तथा  टिटहरी (Lap wing) अधिकतर आकाश में ही उड़ते हुए दिखाई पड़ रहे थे। जंगल में मंगल करते व विविध रंग बिखेरते मोर यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे।

वन्यजीव

एक भालू भूमि टटोलता हुआ भोजन ढूंढ रहा था जिसने अनेक क्षणों तक हमारा मनोरंजन किया। उसने उग्रता से दीमकों की एक बाम्बी पर आक्रमण कर दिया। उसके चारों ओर घूमते हुए वह उस पर अनेक दिशाओं से टूट पडा।

बांधवगढ़ में भालू
बांधवगढ़ में भालू

विडियो एवं छायाचित्र लेते हम छायाचित्रकारों को उसने निमिष मात्र के लिए अपना मुखड़ा दिखाया, तत्पश्चात बाम्बी को तोड़कर वह दीमकों को ढूंढ ढूंढ कर चट करने लगा।

जंगले में अठखेलियाँ करते हिरण
जंगले में अठखेलियाँ करते हिरण

यत्र-तत्र हमें जंगली सूअर दिख जाते थे। सर्वाधिक अधिक संख्या थी चितकबरे हिरणों की, जो सदा समूहों में दृष्टिगोचर हो रहे थे। कदाचित समूहों में वे स्वयं को परभक्षी पशुओं से सुरक्षित अनुभव करते होंगे। सांभर भी जोड़ों में सतर्क कानों के साथ यहाँ-वहाँ विचरण कर रहे थे।

बन्दर एवं हनुमान लंगूर भी दिखे जिनमें कुछ अपने शिशुओं को सीने से चिपटाए कूद-फांद रहे थे तो कुछ वृक्षों पर लटके हुए थे। अनेक बन्दर एक विशाल समूह में समीप स्थित एक जलाशय से जल ग्रहण कर रहे थे तथा जल में अपना प्रतिबिम्ब देख इतरा रहे थे।

बांधवगढ़ में रीछ का एक चलचित्र

राष्ट्रीय उद्यान में रीछ का एक सुन्दर विडियो लेने में मैं सफल हुई। आप इसे अवश्य देखें।

रीछ का एक जोड़ा हमने सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान में हमारे रात्रि सफारी में भी देखा था। सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान में रात्रि सफारी के विषय में अवश्य पढ़ें।

तितलियाँ एवं अन्य कीट

छोटे छोटे श्वेत पुष्पों से लदे एक विशेष वृक्ष को मैंने गूंजता हुआ वृक्ष, यह नाम प्रदान कर दिया क्योंकि उस पर तितलियों एवं कीटों की अनेक प्रजातियाँ गुंजन कर रही थीं।

मनमोहक तितलियाँ
मनमोहक तितलियाँ

हमने प्रातः एवं संध्या, दो सफारियों में उस वृक्ष के नीचे अनेक क्षण व्यतीत किये। प्रातःकालीन एवं संध्याकालीन सफारियों में तितलियों एवं कीटों की प्रजातियों की भिन्नता देख हम दंग रह गए।

बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के ३ क्षेत्र अथवा जोन

राष्ट्रीय उद्यान को ३ प्रमुख क्षेत्रों में बाँटा गया है, खतौली, मगधी एवं ताला।

जल की होड़ में बंदरों के झुण्ड
जल की होड़ में बंदरों के झुण्ड

उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र ताला है, तत्पश्चात मगधी है। ये दोनों जोन विशाल चट्टानी पहाड़ी के ऊपर स्थित प्राचीन बांधवगढ़ दुर्ग के दोनों ओर स्थित हैं। एक दूसरे से सटे होने के पश्चात भी उन दोनों क्षेत्रों में तीव्र भिन्नता है।

पंख फैलाये पक्षी
पंख फैलाये पक्षी

ताला क्षेत्र अत्यंत सघन क्षेत्र है जिसमें मगधी जोन की तुलना में अधिक घने वृक्ष तथा मनमोहक परिदृश्य हैं। मैंने मगधी जोन में दो तथा ताला क्षेत्र में एक सफारी की। यद्यपि मगधी क्षेत्र में बाघों के दर्शन की संभावना अधिक रहती है, तथापि मैं मगधी क्षेत्र की तुलना में ताला क्षेत्र की अधिक अनुशंसा करूंगी।

हाथियों के लिए विशेष रोटियाँ

वन विभाग के पास कुछ हाथी हैं जिन पर बैठकर वन रक्षक वन के भीतर विचरण करते हैं। वे बाघों की उपस्थिति एवं उनके क्रियाकलापों की जानकारी रखते हैं तथा उन पर किसी संकट के अंदेशा का अनुमान लगाते हैं। बाघों की उपस्थिति ज्ञात होते ही वे सफारी के जीपों को सूचना देते हैं ताकि जीपें पर्यटकों को वहां ले जा सकें। यदि बाघ वन में भीतर हों जहाँ जीप ना पहुँच सके तब वे पर्यटकों जो हाथी पर बिठाकर उनके समीप तक ले जाते हैं।

हाथी के लिए बनती रोटियां
हाथी के लिए बनती रोटियां

हमने देखा, विभाग के कर्मी उन हाथियों के लिए मोटी व बड़ी बड़ी रोटियाँ बना रहे थे। प्रत्येक रोटी में लगभग एक किलो आटे का प्रयोग किया जा रहा था। उसके पश्चात भी, हाथी के समक्ष रोटियाँ कितनी लघु प्रतीत हो रही थीं। कर्मियों ने हमें बताया कि एक हाथी को प्रतिदिन दो ऐसी रोटियां प्रातः जलपान के लिए दी जाती हैं। तत्पश्चात भोजन में आठ ऐसी रोटियाँ दी जाती हैं। उसके पश्चात भी वह वन में चरने के लिए स्वतन्त्र होता है।

यहाँ-वहाँ वृक्षों के तने पर से आर्किड प्रस्फुटित हो रहे थे। मुझे बैगा जनजाति का एक व्यक्ति दिखा जो भूमि पर पड़ी कुछ वस्तुएं चुन रहा था। उसे देख मुझे अत्यंत आनंद हुआ कि कैसे वनों के आसपास जीवन व्यतीत करती जनजातियाँ वनों के प्रति श्रद्धा रखती हैं तथा आदर पूर्वक वही स्वीकारती हैं जो वन उन्हें स्वयं देते हैं।

हमें वन में बाघ भले ही नहीं दिखे किन्तु हमारी सफारी व्यर्थ नहीं थी। बाघों के ना दिखने पर हम निराश हुए बिना वन को अधिक सूक्ष्मता से निहार पाए। बाघों का ना दिखना एक प्रकार से वरदान ही सिद्ध हुआ जिसके कारण हमें इस वन की अन्य विशेषताओं की भी जानकारी प्राप्त हुई। इसके पश्चात भी इस वन के विषय में जानना अभी शेष है क्योंकि अनेक वन्य जीव एवं पक्षी वन के भीतर छुप कर बैठे थे जिनमें बाघ भी सम्मिलित हैं। कदाचित उन्हें देखने का अवसर मुझे पुनः शीघ्र ही प्राप्त होगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के वन का आनंद उठाने के ५ प्रकार https://inditales.com/hindi/satpura-rashtriya-udyaan-safaari-madhya-pradesh/ https://inditales.com/hindi/satpura-rashtriya-udyaan-safaari-madhya-pradesh/#respond Wed, 23 Nov 2022 02:30:25 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2872

सतपुड़ा के वनों के विषय में कवि भवानी प्रसाद ने सुन्दर उद्गार व्यक्त किये हैं, घने किन्तु उनिंदे। मैं उनसे पूर्णतः सहमत हूँ। लताओं व मकड़ियों से भरे वन वास्तव में उनिंदे हैं। एक समय बाघों से भरे इन वनों में अब उतने बाघ नहीं हैं जितने कदाचित कवि भवानी प्रसाद ने देखे होंगे। इस […]

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सतपुड़ा के वनों के विषय में कवि भवानी प्रसाद ने सुन्दर उद्गार व्यक्त किये हैं, घने किन्तु उनिंदे। मैं उनसे पूर्णतः सहमत हूँ। लताओं व मकड़ियों से भरे वन वास्तव में उनिंदे हैं। एक समय बाघों से भरे इन वनों में अब उतने बाघ नहीं हैं जितने कदाचित कवि भवानी प्रसाद ने देखे होंगे।

सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के उनींदे जंगल
सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के उनींदे जंगल

इस मास के आरम्भ में हमें पगडण्डी सफारी से आमंत्रण मिला था कि हम देन्वा नदी के तट पर स्थित उनके मनमोहक देन्वा बैकवाटर एस्केप रिसोर्ट (Denwa Backwater Escape resort) में ठहरे व उसका आनंद उठायें। रिसोर्ट के समक्ष ही सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान स्थित है। तीन दिवसों तक हम रिसोर्ट एवं राष्ट्रीय उद्यान में पूर्णतः मग्न रहे। देन्वा के अप्रवाही जल को पार कर राष्ट्रीय उद्यान का विभिन्न किन्तु रोचक रीति से अवलोकन करना अत्यंत रोमांचक अनुभव था। इस राष्ट्रीय उद्यान में हमने भिन्न भिन्न सफरियों का कैसे आनंद उठाया, उसका विस्तृत विवरण एवं अनुभव मैं आपके साथ बांटना चाहती हूँ।

सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के वनों का आनंद उठाने के ५ प्रकार

जीप सफारी

यह राष्ट्रीय उद्यानों के अवलोकन का सर्वसामान्य मार्ग है। लगभग सभी राष्ट्रीय उद्यानों में जीप सफारी की सुविधा होती है। वन विभाग का वनरक्षक आपको जीप में बिठाकर पूर्व निर्धारित मार्गों द्वारा वन के आतंरिक भागों में ले जाता है ताकि हमें वन्य पशु-पक्षियों को उनके प्राकृतिक परिवेश में देखने का अवसर प्राप्त हो सके। हमने भी दो सफारियाँ की, एक प्रातः काल में जो लगभग ६:३० बजे आरम्भ होती है तथा दूसरी संध्या में जो लगभग संध्या ४ बजे आरम्भ होती है। ऋतुओं के अनुसार इन समयों में किंचित फेरबदल हो सकता है।

जंगल में खेलते हिरण
जंगल में खेलते हिरण

हमारे रिसोर्ट के कुछ रहवासियों को एक सफारी में एक तेंदुआ एवं एक रीछ दृष्टिगोचर हुए थे। इस समाचार ने हमारी आशाओं में पर्याप्त वृद्धि कर दी तथा हम भी इन वन्य पशुओं के दर्शन करने के लिए आतुर हो उठे। सफारी के समय हमने हिरणों व बंदरों की हांक सुनी जो यह दर्शाती है कि कोई मांसाहारी वन्य पशु निकट ही है। किन्तु बाघ, रीछ अथवा तेंदुए जैसे विशाल वन्य पशुओं को देख पाने के लिए भाग्य एवं सही समय की आवश्यकता होती है।

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हमारा सौभाग्य नहीं था कि हम उस सफारी में बाघ, रीछ अथवा तेंदुए देख पाते। किन्तु हमने बड़ी संख्या में भारतीय गौर अथवा जंगली भैंसे तथा सांभर हिरण देखे जो विभिन्न क्रियाकलापों में व्यस्त थे। हमने लंगूर, बन्दर तथा चित्तीदार हिरणों के अनेक झुण्ड देखे। वन में अनेक पक्षी भी देखे। वास्तव में ये पक्षी ही थे जिनके कारण हम पुनः पुनः वन में जाने के लिए इच्छुक हो रहे थे।

सतपुड़ा की विशालकाय मकड़ियाँ
सतपुड़ा की विशालकाय मकड़ियाँ

सतपुड़ा के वनों में हमारी सर्वोत्तम खोज थी, विशालकाय मकड़ियाँ। उनके जाले इतने विस्तृत थे कि उनके द्वारा ऊँचे ऊँचे वृक्ष आपस में जुड़कर एक हो रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे विशालकाय मकड़ियाँ वृक्षों के ऊपर एक छत बुन रही हों। रात्रि के अन्धकार में अन्य वृक्ष लुप्त हो जाते थे किन्तु भूतिया वृक्ष अथवा कटीरा अपने उजले तने के कारण चन्द्रमा के प्रकाश में भूत के समान चमकता रहता था।

पदयात्रा सफारी

वन के मूल क्षेत्र की सीमा पर पगडंडियाँ बनाई गयी हैं जहां पदयात्रा करने की अनुमति होती है। टिकट क्रय करने के पश्चात वन संरक्षक आपको एक परिदर्शक प्रदान करता है जो आपको उन पगडंडियों के द्वारा वन का भ्रमण करवाता है। वन में वृक्षों के मध्य पक्षियों, पशुओं, मकड़ियों एवं तितलियों को ढूँढने में आपकी सहायता करता है। वन एवं आसपास के क्षेत्रों में उगने वाले वृक्षों एवं अन्य पौधों की जानकारी भी देता है। किन वृक्षों व पौधों के समीप जाना जोखिम भरा हो सकता है तथा किन के समीप जाना सुरक्षित है, इसकी भी जानकारी देता है। वन के कुछ पौधे अथवा झाड़ियाँ काँटों से भरी होती हैं, कुछ हमारे वस्त्रों में अटक जाती है अथवा खाज उत्पन्न कर सकती हैं, इत्यादि जानकारी हमारा परिदर्शक भी हमें निरंतर दे रहा था। हमारे सचेत परिदर्शक ने हमें झाड़ियों में छुपी सरीसर्प जैसी कई प्रजातियाँ दिखाई।

सतपुड़ा की पहाड़ियों पर सूर्योदय
सतपुड़ा की पहाड़ियों पर सूर्योदय

१४ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं को इस सफारी की अनुमति नहीं होती है। इस सफारी के लिए ऐसे वस्त्र एवं जूते धारण करें जो आपके अधिकतम अंगों को पूर्णतः ढँक सकें, सुखद हों तथा वन के सामान्य परिवेश से साम्य रखते रंगों के हों। इससे आप स्वयं को सुरक्षित रख पायेंगे तथा वन्य पशु-पक्षियों को आशंकित भी नहीं करेंगे।

सतपुड़ा के अप्रवाही जल में नौका सफारी

यह सफारी लगभग एक घंटे की है जो देन्वा नदी के अप्रवाही जल पर नौका द्वारा की जाती है। नदी में अनेक लघु द्वीप हैं जो पक्षियों के लिए सर्वोत्तम वास हैं। इस सफारी में हरेभरे घने वन आपको चारों ओर से घेर लेते हैं। यहाँ का सर्वोत्तम आकर्षण है, उड़ते हुए पक्षियों को देखना। उन्हें देख आपकी आँखे स्तब्ध रह जायेंगी। पक्षी कभी एकल, कभी जोड़े में तो कभी झुण्ड में उड़ते हुए आपका मन मोह लेंगे।

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दोपहर की सफारी का एक अन्य आकर्षण है जल में डूबते हुए सूरज को देखना। यह दृश्य प्रतिदिन एवं प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। जिस दिन हम यहाँ आये थे, सूर्य जल को केसरिया एवं नीले रंगों की सम्मिश्रित छटा प्रदान कर रहा था। उस दृश्य को शब्दों में सीमित करना अन्याय होगा। उसका आनंद उठाने के लिए आपको यहाँ प्रत्यक्ष आना होगा ताकि आप स्वयं प्रकृति के विभिन्न आयामों का अद्भुत आनंद उठा सकें तथा उन रंगों की अठखेलियों से एकाकार हो सकें।

रात्रिकालीन जीप सफारी

यह अत्यंत रोमांचक सफारी है। रात्रि के अन्धकार में खुली जीप में वनों में घूमना, भयावह प्रतीत होता है। वर्षों के अनुभव से सफारी के परिदर्शक को पशु-पक्षियों की उपस्थिति का आभास हो जाता है। तब वह तेज बत्ती अथवा टॉर्च का प्रयोग कर उसके प्रकाश में हमें वन्य पशु दिखाता है। यह सफारी नदी के तट पर की जाती है। सामान्यतः यह सफारी रिसोर्ट द्वारा ही आयोजित की जाती है। प्रकृति तज्ञ परिदर्शक भी रिसोर्ट ही प्रदान करता है जो रात्रि में पशुओं को देख पाने में हमारी सहायता करता है, विशेषतः निशाचर पशु।

रात्रि की जीप सफारी
रात्रि की जीप सफारी

हमारे परिदर्शक अथवा सफारी गाइड ने हमें चमकती आँखों को ढूँढते रहने का महत्वपूर्ण परामर्श दिया। रात्रि में पशुओं को ढूँढने का यह एक कारगर व एकमात्र उपाय है। इसका अर्थ है कि उस समय आप उन पशुओं के समीप भी हों तथा वे आपकी ओर देख भी रहें हों। इसके लिए अच्छे भाग्य की अत्यंत आवश्यकता होती है। आरम्भ में हमने केवल कुछ भारतीय खरगोश यहाँ-वहां कूदते-फांदते देखे। वे मानो हमारे लिए सौभाग्य का पिटारा ही ले आये।

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इसके पश्चात, सर्वप्रथम हमने दो भारतीय रीछ देखे, उनमें से एक ने हमारी जीप के समक्ष ही सड़क पार की। उसे देख तो मानो हमारी सफारी सफल हो गयी। इसके पश्चात हमने कुछ निशाचर पक्षी भी देखे। उनमें इंडियन नाईट जार अथवा चपका पक्षी को देखना हमारे लिए विशेष था।

पक्षी दर्शन पगडंडी

पक्षियों के दर्शन का सर्वोत्तम उपाय है, पैदल चलना। उस पर, यदि आप विशाल समूह में ना हो तो अति उत्तम। हमने अपने रिसोर्ट के चारों ओर स्थित जलभूमि के चारों ओर पैदल भ्रमण किया। हमने जलाशय के आसपास अनेक पक्षी देखे, जैसे कठफोड़वा, नीलकंठ, तुइया तोता एवं कुछ रंगबिरंगी बतखें। पक्षी दर्शन का सर्वोत्तम समय सूर्योदय एवं सूर्यास्त होता है। पक्षी दर्शन के समय मेरे पतिदेव तो पक्षियों के छायाचित्रीकरण में जुट गए।

सूखे पेड़ों पर पक्षी
सूखे पेड़ों पर पक्षी

वहीं मैंने पक्षियों के साथ इस क्षेत्र में उगते अनेक औषधिक पौधों को भी देखा। इन वनों में तेंदू पत्तों के अनेक वृक्ष हैं जिनका प्रयोग बीड़ी बनाने में होता है। यह इन वनों से प्राप्त राजस्व का प्रमुख स्त्रोत है। यहाँ उपलब्ध घिरिया के वृक्षों के भी अनेक उपयोग हैं। इसके पत्तों का प्रयोग मच्छरों को भगाने के लिए तथा रोगाणुरोधक के रूप में किया जाता है। इसकी लकड़ी से हल के हत्थे बनाये जाते हैं क्योंकि यह हल्के होने के पश्चात भी इनमें अपार शक्ति व दृढ़ता होती है।

रिमझा वृक्ष की लकड़ी से बैलगाड़ी के चक्के बनाए जाते हैं क्योंकि यह शीघ्र झिरता नहीं है। जंगली तुलसी का प्रयोग यहाँ के लोग औषधि निर्माण में किया जाता है।

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इन सफारियों के अतिरिक्त, हाथी पर सवार होकर सफारी करने का विकल्प भी उपलब्ध है। इस सफारी की विशेषता यह है कि आप ऊँचाई से वन्य परिवेश का अवलोकन कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण परिवेश के अवलोकन के लिए ग्राम-सफारी भी होती है। यह विशेष रूप से विदेशी पर्यटकों के लिए अत्यंत रोचक हो सकती है एवं हमारे ग्रामीण परिवेश से परिचित होने में उनकी सहायक हो सकती है।

हमने जिन वनस्पतियों, वृक्षों व पौधों, पशु-पक्षियों एवं अन्य जीवों को यहाँ देखा उनके अन्य चित्र हम शीघ्र ही आपसे साझा करेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान उन प्रसिद्ध बाघों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है जो अधिकतर पर्यटकों को अपने अद्वितीय दर्शन देकर तृप्त कर देते हैं। यद्यपि राष्ट्रीय उद्यान अथवा वन्यजीव उद्यान का नाम सुनते ही मन मस्तिष्क में एक घने वन की कल्पना उभर कर आ जाती है जहां केवल वन्य प्राणियों का वास होता है, तथापि […]

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बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान उन प्रसिद्ध बाघों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है जो अधिकतर पर्यटकों को अपने अद्वितीय दर्शन देकर तृप्त कर देते हैं। यद्यपि राष्ट्रीय उद्यान अथवा वन्यजीव उद्यान का नाम सुनते ही मन मस्तिष्क में एक घने वन की कल्पना उभर कर आ जाती है जहां केवल वन्य प्राणियों का वास होता है, तथापि बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान केवल एक राष्ट्रीय उद्यान नहीं है। बांधवगढ़, इस नाम को ध्यानपूर्वक पढ़ें। बांधव का अर्थ है बंधु व सखा तथा गढ़ का अर्थ है महल अथवा दुर्ग। क्या इस राष्ट्राय उद्यान में कोई गढ़ अथवा दुर्ग है? जी हाँ। इस वन के भीतर, एक विशाल चट्टान के ऊपर एक दुर्जेय गढ़ है जिसकी ऊँचाई ८११ मीटर है।

बांधवगढ़ का इतिहास और धरोहर
बांधवगढ़ का इतिहास और धरोहर

जिस पहाड़ी पर यह दुर्ग स्थित है, उसका शीर्ष सपाट मंच सदृश है जो इस पहाड़ी को एक आवास योग्य पठार बनाता है। आप इस पहाड़ी को वन के ताला एवं मागधी दोनों क्षेत्रों से देख सकते हैं। इस दुर्ग एवं इसकी धरोहर के दर्शन के लिए विशेष मार्ग पर जाना पड़ता है। मुझे भी यहाँ की धरोहरों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान की अनमोल ऐतिहासिक धरोहर

बांधवगढ़ की धरोहर
बांधवगढ़ की धरोहर

भारत की अधिकाँश किवदंतियों के समान इस स्थान का सम्बन्ध भी महाकाव्य रामायण से जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि यह दुर्ग भगवान राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण का था जिसके कारण इसका नाम बांधवगढ़ पड़ा। यहाँ से प्राप्त कुछ प्राचीन ब्राह्मी शिलालेखों के आधार पर पुरातत्वविद इसे ईसापूर्व युग का मानते हैं। पुरातात्विक साक्ष्य दुर्ग की संरचना को १०वीं सदी का मानते हैं जो यह दर्शाता है कि यह दुर्ग ज्ञात ऐतिहासिक काल तक अनवरत बसा हुआ था। ऐसा माना जाता है कि बघेल वंश के शासकों ने १७वीं सदी के आरम्भ तक इस गढ़ से शासन के कार्यभार का निर्वाह किया था, जिसके पश्चात उन्होंने अपनी राजधानी यहाँ से १२० किलोमीटर दूर रीवा में स्थानांतरित कर दी थी। इस दुर्ग पर अब भी राज परिवार का स्वामित्व है।

बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में शिव मंदिर
बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में शिव मंदिर

सिद्धबाबा मंदिर

वन के भीतर श्रद्धा का प्रथम चिन्ह जो मैंने देखा, वह था एक छोटा सा सिद्धबाबा मंदिर, जिसके भीतर एक शिवलिंग एवं त्रिशूल था। यह स्थान बाघों के दर्शन के लिए भी लोकप्रिय है। वाहन द्वारा यहाँ के कुछ दूर जाते ही हम बांधवगढ़ पहाड़ी पर चढ़ने लगे थे। दूर से ही पहाड़ी पर मानव निर्मित संरचनाएं दृष्टिगोचर होने लगी थीं। मैंने अपने कैमरे को जूम करते हुए एक मंदिर देखा जो एक मध्ययुगीन संरचना प्रतीत होती है। तीव्र ढलुआ मार्ग गुफा जैसी संरचनाओं के सामने से जाता है। विशाल चट्टानों को काटकर ये स्तम्भ युक्त कक्ष निर्मित किये गए हैं जिन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ मानव एवं वन्य प्राणी दोनों आश्रय लेते हैं। वे इन संरचनाओं के विषय में क्या धारणा रखते हैं, यह मेरी कल्पना के परे है।

शेषशायी भगवान विष्णु की प्रतिमा

शेषाशायी विष्णु की विशाल प्रतिमा - बांधवगढ़
शेषाशायी विष्णु की विशाल प्रतिमा – बांधवगढ़

पहाड़ी के शीर्ष की ओर जाते समय, आधी पहाड़ी चढ़ते ही हमारी सफारी जीप जलकुंड के समक्ष रुक गयी। यह जलकुंड एक बावड़ी के समान है। इस जलकुंड के पृष्ठभाग में सुप्रसिद्ध शेषशायी की प्रतिमा है। अर्थात्  शेषनाग के ऊपर योगनिद्रा में लीन भगवान विष्णु। ३५ फीट लम्बी इस प्रतिमा को एक ही शिला में उत्कीर्णित किया गया है। १०वीं सदी में निर्मित इस प्रतिमा का श्रेय कलाचुरी राजवंश के राजा युवराजदेव के मंत्री गोल्लक को दिया जाता है।

चरणगंगा का उद्गम
चरणगंगा का उद्गम

इस क्षेत्र में बहती सरिता को चरण गंगा कहते हैं, जिसका अभिप्राय है, भगवान विष्णु के चरणों के समीप से बहती गंगा। इस नदी का प्राचीन नाम वेत्रावली है। यह नदी आज भी वन एवं यहाँ बसे गाँवों के लिए एक महत्वपूर्ण जल स्त्रोत है।

शिव एवं ब्रह्मा

बांधवगढ़ वन में भगवान विष्णु अकेले विराजमान नहीं हैं। यहाँ उनका साथ देने के लिए ब्रह्माजी  एवं शिवजी  भी हैं। विष्णु के समीप एक सादा किन्तु बड़ा शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंग के समीप विष्णु की नरसिंह अवतार की प्रतिमा है। मुझे बताया गया कि एक कोने में ब्रह्मा की प्रतिमा है। कोने में कुछ शिल्पकारी थी किन्तु मैं उसमें ब्रह्मा की छवि नहीं देख पायी। जलकुंड के समीप ऊपर जाती सीढ़ियाँ हैं जिससे आप पहाड़ी के ऊपर चढ़कर चारों ओर के परिदृश्यों का विहंगम दृश्य देख सकते हैं। ऊपर से देखने पर आपको जलकुंड के चारों ओर छोटी छोटी अर्धगोलाकार सुन्दर सीढ़ियाँ दिखाई देंगी। चारों ओर के वृक्षों के जल पर पड़ते प्रतिबिम्ब अप्रतिम दृश्य प्रस्तुत करते हैं। ये प्रतिबिम्ब पुनः आपको स्मरण करा देते हैं कि आप अब भी वन में ही हैं।

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मुझे ज्ञात हुआ कि पहाड़ी पर अधिक ऊपर जाने पर दुर्ग के विभिन्न भागों में विष्णु के अनेक अवतारों की प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं।  विभिन्न सूत्रों के अनुसार दिवाली एवं जन्माष्टमी के अवसरों पर शेषशैय्या के समीप उत्सव आयोजित किये जाते हैं। ये दोनों दिवस विष्णु के दो अवतारों से सम्बंधित हैं, राम एवं कृष्ण। किन्तु वन विभाग के कड़े नियमों देखते हुए मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यहाँ भव्य स्तर पर उत्सव आयोजित किये जाते होंगे। मैंने मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग के वेबस्थल पर कबीर मेले के विषय में पढ़ा था जो दिसंबर मास में पहाड़ी के ऊपर मनाया जाता है। किन्तु वहां कोई मुझे यह जानकारी नहीं दे सका कि ये उत्सव अब भी मनाया जाता है अथवा नहीं।

बांधवगढ़ के भीतर के गाँव

बांधवगढ़ की पारंपरिक कलाकारी
बांधवगढ़ की पारंपरिक कलाकारी

मेरे बांधवगढ़ भ्रमण की कालावधि में एक दुपहरी हम रान्छा गाँव गए जो हमारे होटल किंग्स लॉज से अधिक दूर नहीं था। हमने पैदल भ्रमण करते हुए इस गाँव को समीप से देखा। पाठशाला का भवन किंचित जीर्ण था किन्तु वहां के घर सुन्दर थे। मुझे हमारे परिदर्शक के स्नेही, श्रीमती मुन्नी के घर के भीतर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। उनका घर विशाल था। परिसर में कुआँ एवं खेत भी थे। मुन्नीजी अपने नातिन की देखभाल करते हुए अपने बड़े घर, कुआँ व खेतों की देखरेख भी कर रही थीं। उनके घर में अप्रतिम रूप से सजा गलियारा था। प्रत्येक कक्ष के प्रवेश द्वार को प्लास्टर अथवा गचकारी द्वारा अलंकृत किया गया था। द्वार के चौखट के ऊपरी भागों पर मिट्टी की उभरी हुई शिल्पकारी हैं। हमें शीघ्र ही यह ज्ञात हुआ कि इन रंग-बिरंगी प्रतिमाओं को घर के कर्ता पुरुष अर्थात् मुन्नी जी के पतिदेव ने उत्कीर्णित किया है।

चूल्हा
चूल्हा

हम घर के गलियारों में घूमते हुए उस पर किये गए कलाकारी को सराहते जा रहे थे। इस प्रकार के घर को समीप से देखना हमारे भूतकाल के अवशेषों को देखने के समान था। मिट्टी के चूल्हे, अब भी उपयोग में लाया जा रहा कुआं इत्यादि हमें हमारे पूर्वकाल का स्मरण करा रहे थे।

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रान्छा गाँव के इस घर पर की गयी कलाकारी को देख कर मुझे मध्यप्रदेश के सरगुजा जिले की प्रसिद्ध कलाकार सोनाबाई रजवार का भी स्मरण हो आया जिनकी अद्भुत कला का उदहारण मैंने रायपुर के पुरखौती मुक्तांगन में देखा था। यहाँ की कलाशैली भी उसी प्रकार की है जिसमें गचकारी द्वारा भित्तियों एवं द्वार के चौखटों पर उभरी हुई आकृतियाँ चित्रित की गयी हैं। यद्यपि दोनों कलाकृतियों के स्तरों में भिन्नता थी तथापि ये कलाकृतियाँ छत्तीसगढ़ समेत इस सम्पूर्ण क्षेत्र की उत्तम लोककला का स्पष्ट अनुमान प्रदान करती हैं। ये कलाकृतियाँ यह दर्शाती हैं कि कैसे इस क्षेत्र के आदिवासी अपने सादे घरों को अपनी कला के रूप में स्वयं का एक अस्तित्व प्रदान करते हैं। कैसे गाँव के स्त्री-पुरुष अपनी रचनात्मकता को उजागर करते हुए अपनी कलाक्षमता को गर्व से प्रदर्शित करते हैं, यह अनुसरणीय है।

बांधवगढ़ की बैगा जनजाति

नृत्य की वेशभूषा में बैगा जनजाति के सदस्य
नृत्य की वेशभूषा में बैगा जनजाति के सदस्य

मेरी तीव्र अभिलाषा रहती थी कि मैं मध्य भारत के कुछ आदिवासी जनजातियों से भेंट कर सकूं। मेरी यह अभिलाषा छोटी मात्रा में उस दिन पूर्ण हुई जब बैगा जनजाति के कुछ सदस्यों से मेरा साक्षात्कार हुआ। यद्यपि मैं उनके गाँवों के दर्शन नहीं कर सकी, तथापि हमारे आयोजक ‘पगडंडी सफारी’ ने एक नृत्य प्रदर्शन का आयोजन किया जिसमें बैगा जनजाति के सदस्यों ने कुछ पारंपरिक नृत्यों का प्रदर्शन किया था। उन्होंने विवाह समारोहों में गाये जाने वाले पारंपरिक गीतों पर लोकनृत्य किये। वे लयबद्ध गति से गोलाकार आकृति में घूमते हुए नृत्य कर रहे थे। कुछ क्षणों के पश्चात उनकी मुद्राएँ हमें भी समझ में आने लगीं। हममें से कुछ ने उनके साथ नृत्य करने की पहल की। उनकी मुद्राएँ भले ही समझ आ जाएँ किन्तु उन्हें प्रदर्शित करने की शक्ति हम कहाँ से लायेंगे? शीघ्र ही थक कर हमारे साथी पुनः अपने स्थान पर बैठ गए। नृत्य के अंतिम भाग में नृत्य संघ के पुरुष सदस्यों ने आश्चर्यजनक करतब प्रदर्शित किये जिन्हें देख हमारी आँखें फटी की फटी रह गयीं।

बैगा जनजाति का भव्य रूप

दो दिवसों के पश्चात हमें बैगा जनजाति के सदस्यों को उन के भव्य परिधान एवं अलंकरण के साथ देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी भव्य केशसज्जा, वैभवशाली आभूषण तथा रंगबिरंगे वस्त्र व परिधान अद्भुत व दर्शनीय थे। स्त्रियों ने गले में जो चाँदी के हार धारण किये थे उन्हें सुतिया कहते हैं। मुझे वे हंसली समान प्रतीत हो रहे थे। वयस्क स्त्रियों व पुरुषों ने टखने में मिश्र धातु द्वारा निर्मित भारी कड़े पहने हुए थे। मुझे बताया गया कि बैगा आदिवासी ये कड़े तभी धारण करते हैं जब उन्हें अपने परिवार एवं समाज के अनुभवी व सयाना माना जाता है। अतः आप किसी भी बैगा युवक अथवा युवती को यह कड़ा धारण करते नहीं देखेंगे। यह एक प्रकार का संकेत है कि कड़ा धारक बैगा समाज का एक सम्माननीय व्यक्तित्व है। उनके परिधानों ने भी मेरा ध्यान आकर्षित किया। उनकी देह पर वस्त्रों की अनेक परते थीं। मध्य भारत के उष्ण तापमान में आदिवासी जीवन जीते हुए ऐसे वस्त्रों का परिधान अचरज कारक है। मैं सोच में पड़ गयी कि क्या ये उनके दैनिक वस्त्र हैं अथवा उन्होंने प्रदर्शन के लिए इन्हें धारण किया है?

जंगल में बैगा जनजाति के पुरुष
जंगल में बैगा जनजाति के पुरुष

मेरे सहयात्री पुनीत ने मेरी शंकाओं की पुष्टि की। बैगा जनजाति ने ऐसे भारी परिधानों को नृत्य प्रदर्शनों के कारण स्वीकार किया है। अन्यथा वे इस प्रकार के वस्त्र धारण नहीं करते हैं। सामान्य जनजीवन में ना स्त्रियाँ सर पर तुरे धारण करती हैं, ना ही पुरुष भारी अंगरखे धारण करते हैं। ना जाने केवल प्रदर्शन के लिए उन्होंने यह रूपांतरण क्यों किया तथा वे किससे प्रभावित हुए है? ऐसे अनुभवों से यह प्रश्न उठता है कि वास्तव में प्रामाणिक एवं मूल परंपरा क्या है? क्या हम परिकल्पित अवधारणाओं को इतना महत्त्व देते हैं कि मनुष्य अपनी परंपरा को त्याग कर काल्पनिक व्यक्तित्व को धारण कर ले?

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मैंने बैगा जनजाति के एक पुरुष को उसके मूल पारंपरिक परिवेश में देखा जब वह वन्य क्षेत्र के भीतर छोटे छोटे पौधे बीन रहा था। उसके सर पर बड़ी टोपी, कटि पर छोटी धोती, हाथ में कुल्हाडी थी तथा कंधे पर कपडे का बस्ता था।

बांधवगढ़ वन के विभिन्न तत्व

बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के विभिन्न तत्वों को एक साथ देखकर मेरे मन मस्तिष्क में अनेक प्रश्न उभर कर आ रहे थे। उद्यान का वन्य जीवन, आदिवासी जनसँख्या, गाँव, खेत, विभिन्न कला शैलियाँ, पहाड़ी दुर्ग, मंदिर, जलस्त्रोत एवं इसकी जैव-विविधता, इन सब को एक चौखट में देखने का बांधवगढ़ एक स्वर्णिम अवसर है। इन्हें देख मैं सोच में पड़ गयी कि कब व कैसे हमने प्रकृति के साथ पूर्ण सामंजस्यता से जीवन निर्वाह करने की कला को विस्मृत कर दिया है? प्रकृति कब से हमारे लिए इतनी गौण हो गयी है? मनुष्य ने कब से यह धारणा बना ली है कि वही इस प्रकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है तथा वह इसके अन्य तत्वों के साथ मनमाने ढंग से खिलवाड़ कर सकता है? वह भी केवल अपने क्षणभंगुर व्यक्तिगत संतुष्टि व अभिमान के लिए?

इस पर विचार एवं कृत्य अत्यावश्यक है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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घुघुआ जीवाश्म उद्यान में भारत के प्राचीनतम निवासियों से एक भेंट https://inditales.com/hindi/ghughua-jeevashm-udyaan-madhya-pradesh/ https://inditales.com/hindi/ghughua-jeevashm-udyaan-madhya-pradesh/#comments Wed, 30 Mar 2022 02:30:08 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2632

मेरी प्रत्येक यात्रा मेरे लिए नवीन अनुभव का भण्डार लेकर आती है। इस वर्ष मेरी मध्य प्रदेश यात्रा के समय मुझे बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान एवं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के मध्य एक अनोखा व अद्वितीय अनुभव प्राप्त हुआ। मार्ग में हम एक स्थान पर कुछ क्षणों के लिए रुके थे। जो स्थान मुझे आरम्भ में किंचित […]

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मेरी प्रत्येक यात्रा मेरे लिए नवीन अनुभव का भण्डार लेकर आती है। इस वर्ष मेरी मध्य प्रदेश यात्रा के समय मुझे बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान एवं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के मध्य एक अनोखा व अद्वितीय अनुभव प्राप्त हुआ। मार्ग में हम एक स्थान पर कुछ क्षणों के लिए रुके थे। जो स्थान मुझे आरम्भ में किंचित विश्राम के लिए लिया गया अल्पावकाश प्रतीत हुआ, वह स्थान वास्तव में एक अचम्भा था। कदाचित वह विश्व का सर्वाधिक प्राचीन स्थान हो सकता है। वह घुघुआ जीवाश्म उद्यान था।।

घुघुआ जीवाश्म उद्यान
घुघुआ जीवाश्म उद्यान

वहां मुझे ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व, गोंडवाना महाद्वीप के काल के जीवाश्म देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्हें देखते ही मेरी उत्सुकता तीव्र हो उठी। मैंने उनके विषय में जानने के लिए किसी जानकार परिदर्शन को ढूँढना आरम्भ कर दिया। उद्यान के टिकट के साथ हमें एक परिदर्शक अर्थात् गाइड भी उपलब्ध कराया गया।

घुघुआ जीवाश्म उद्यान – एक राष्ट्रीय उद्यान

घुघुआ जीवाश्म उद्यान एक मुक्त आँगन है। जो वस्तु ६.५ करोड़ वर्ष से हर प्रकार के थपेड़ों को सहन कर चुकी हो, उसे खुले आकाश में कौन नष्ट कर सकता है? किन्तु शीघ्र ही मुझे इसका उत्तर भी प्राप्त हो गया। इस अनमोल धरोहर को हमारी ही पीढ़ी ने सस्ते रंगों से चिन्हित कर अत्यंत क्षति पहुंचाई है। यह एक विस्तृत उद्यान है जहां घास के विशाल मैदान हैं। पगडंडी के दोनों ओर वृक्ष हैं। इन प्राचीन अनमोल धरोहरों का अवलोकन करते हुए आप उद्यान में शांति से समय व्यतीत कर सकते हैं।

विभिन्न वृक्षों के जीवाश्म

जीवाष्म मुक्तांगन संग्रहालय
जीवाष्म मुक्तांगन संग्रहालय

विशेष रूप से निर्मित गोलाकार मंचों पर विभिन्न वृक्षों के जीवाश्मों को रखा गया है। एक छोटे सूचना पटल पर जीवाश्मों के विषय में लघु जानकारी दी गई है किन्तु वह कदाचित प्रदर्शित जीवाश्मों के विषय में ना हो। जीवाश्म कैसे बनाते हैं तथा उनका हमारे जीवन में क्या महत्त्व है, इस पर संक्षिप्त में जानकारी दी गयी है। हमारे गाइड ने वृक्षों की परतों के मध्य फंसे कुछ कीटों एवं बीजों की ओर संकेत किया जो अपने स्थान पर ही जीवाश्म में परिवर्तित हो गए थे। उसने अनेक जीवाश्मों पर पत्तियों के चिन्हों की ओर संकेत किया। देखने पर ये जीवाश्म वृक्ष के तने के टुकड़े प्रतीत होते हैं किन्तु स्पर्श करने पर अनुभव होता है कि वे शिला बन चुके हैं। जहां वृक्ष का अनुप्रस्थ परिच्छेद(cross-section) दृष्टिगोचर होता है, वहां वह स्फटिक के अन्तर्भाग सा प्रतीत होता है। वह उज्जवल रूप से चमकीला होता है।

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इस उद्यान में सर्व ओर जीवाश्म रखे हुए हैं। मैं नहीं जानती कि प्रत्येक जीवाश्म का कोई लेखा-जोखा रखता है अथवा उद्यान में आये पर्यटक कुछ टुकड़े उठा भी लें तो किसी को इसकी भनक भी ना हो। यद्यपि इस उद्यान में अधिक पर्यटक नहीं आते हैं, तथापि उन जीवाश्मों का व्यवस्थित रूप से संरक्षण व लेखा-जोखा किया जाना चाहिए।

वृक्ष तले वृक्षों के जीवाश्म
वृक्ष तले नए पुराने का मिलन

जीवाश्म उद्यान की स्थापना सन् १९७० में डॉ. धर्मेन्द्र प्रसाद ने की थी जो उस समय मध्य प्रदेश के मंडला जिले के सांख्यिकीय अधिकारी तथा जिला पुरातत्व इकाई के मानद अधिकारी थे। इस उद्यान को सन् १९८३ में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। इस उद्यान की विशेषता वनस्पतियों का वह गौरवशाली इतिहास है जिसका यह प्रतिनिधित्व करता है। यहाँ विभिन्न प्रकार के अनेक पौधों, पत्तियों, फलों, बीजों तथा सीपियों के जीवाश्म हैं।

जीवाश्म हुआ एक प्राचीन वृक्ष
जीवाश्म हुआ एक प्राचीन वृक्ष

उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, ताड़ का जीवाश्म। मुझे बताया गया कि यहाँ स्थित अनेक जीवाश्म ऐसे वृक्षों के हैं जो इस क्षेत्र के स्थानीय उपज नहीं हैं। यह दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन की ओर संकेत करते हैं।

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प्राचीन ताड़ का पेड़
प्राचीन ताड़ का पेड़

इन जीवाश्मों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रदर्शनों में नीलगिरी वृक्ष का एक जीवाश्म भी सम्मिलित है जिसे इस प्रकार का सर्वाधिक प्राचीन जीवाश्म माना जाता है। ऐसे वृक्ष ऑस्ट्रेलिया में पाए जाते हैं। ताड़ वृक्ष का जीवाश्म भी अनोखा है क्योंकि यह भी इस क्षेत्र का नैसर्गिक वृक्ष नहीं है। अन्य जीवाश्मों में रुद्राक्ष एवं आंवले के वृक्ष भी सम्मिलित हैं।

नीलगिरी के पेड़ का जीवाश्म
नीलगिरी के पेड़ का जीवाश्म

उद्यान में जीवित जामुन वृक्ष भी हैं। यदि आपकी यात्रा के समय जामुनों का मौसम हो तो आपको ताजे जामुनों का आस्वाद लेने का भी अवसर प्राप्त होगा।

संग्रहालय

संग्रहालय की इमारत के भीतर कुछ प्राचीनतम जीवाश्मों को संरक्षित किया गया है। जीवाश्म बनने की प्रक्रिया को विस्तृत चित्रों व विवरणों समेत दर्शाते हुए कुछ सूचना पटल हैं। जीवाश्मों के विषय में अन्य जानकारी भी दी गयी हैं जैसे, जीवाश्मों के प्रकार इत्यादि। यहाँ का सर्वाधिक अनोखा आकर्षण है, डायनासोर का अंडा, जिसने इस उद्यान को विशेष प्रसिद्धि प्रदान की है।

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घुघुआ जीवाश्म उद्यान में जीवाश्म बनने की प्रक्रिया का चित्रण
घुघुआ जीवाश्म उद्यान में जीवाश्म बनने की प्रक्रिया का चित्रण

आप जब भी कान्हा अथवा बांधवगढ़ या दोनों राष्ट्रीय उद्यानों की यात्रा का नियोजन करें, तब आप गोंडवाना महाद्वीप के इन प्राचीनतम वृक्षों के दर्शन को अपने यात्रा कार्यक्रम में अवश्य सम्मिलित करें। यह भारत का एक अति विशेष उद्यान है जहाँ प्रदर्शित जीवाश्म एक महान शैक्षिकीय अनुभव सिद्ध हो सकते हैं। यह प्रदर्शन आपके भीतर स्थित, प्राचीन युग के प्रति वैज्ञानिक कुतूहलता को जगाता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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इंदौर की गलियों के १७ लोकप्रिय व्यंजन- जिनके बिना इंदौर यात्रा अपूर्ण है https://inditales.com/hindi/indore-sarafa-chhappan-ka-chatpata-khana/ https://inditales.com/hindi/indore-sarafa-chhappan-ka-chatpata-khana/#comments Wed, 17 Nov 2021 02:30:23 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2441

यदि आपको कभी मध्य प्रदेश की चहल-पहल भरी नगरी, इंदौर की यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तो मैं निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि आप इंदौर की खाऊ गलियों में बिकते स्वादिष्ट व्यंजनों से अछूते नहीं रहे होंगे। इंदौर के कुछ क्षेत्र, सराफा बाजार एवं छप्पन दुकान, इंदौर की इस स्वाद पूर्ण विशेषता […]

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यदि आपको कभी मध्य प्रदेश की चहल-पहल भरी नगरी, इंदौर की यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तो मैं निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि आप इंदौर की खाऊ गलियों में बिकते स्वादिष्ट व्यंजनों से अछूते नहीं रहे होंगे। इंदौर के कुछ क्षेत्र, सराफा बाजार एवं छप्पन दुकान, इंदौर की इस स्वाद पूर्ण विशेषता को समर्पित हैं। दिन के समय यहाँ खाने में रूचि रखने वालों की भीड़ तो आती ही है, किन्तु सायंकाल होते ही इन स्थानों की चमक-दमक को चार चाँद लग जाते हैं। सराफा की गलियों एवं छप्पन दुकान परिसर में स्थित स्वादिष्ट व्यंजनों की ढेरों दुकानों, ठेलों एवं खोमचेवालों के समक्ष रसिकों का जमघट लग जाता है। वे अनेक प्रकार के नाश्तों, चाट, भोजन, विभिन्न प्रकार के पेय पदार्थों एवं मिष्टान्न का आस्वाद लेने उमड़ पड़ते हैं। अर्ध रात्रि उलटने के पश्चात भी यहाँ की शोभा तनिक भी धूमिल नहीं होती। यहाँ सभी प्रकार के लोगों के भिन्न भिन्न प्रिय व्यंजनों की भरमार रहती है। यदि आप भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन चखने में रूचि रखते हों, वह चाहे नाश्ते हों अथवा गरिष्ठ भोजन, पेय पदार्थ हो अथवा मिठाईयां या कोई नवीन व्यंजन जिसका स्वाद आपने अब तक नहीं चखा हो, तो इंदौर में आप आपनी जिव्हा या यूँ कहें, चटोरेपन का भरपूर दुलार कर सकते हैं।

इस संस्करण के माध्यम से मैं आपके लिए भारत के स्वादों की राजधानी, इंदौर के सर्वाधिक लोकप्रिय १७ व्यंजनों को ढूंढ कर लाई हूँ। इस संस्करण को पढ़ते हुए आपके मुंह में पानी अवश्य आने वाला है। अतः मेरा सुझाव है कि इसे पढ़ते समय अपने साथ अपना प्रिय नाश्ता अवश्य रख लें।

इंदौर की खाऊ गलियों के स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन

यूँ तो इंदौर में अनेक प्रकार के अद्वितीय/दुर्लभ निरामिष एवं सामिष व्यंजन उपलब्ध हैं, मैं यहाँ आपके लिए कुछ लोकप्रिय शाकाहारी नाश्तों का उल्लेख कर रही हूँ जो इंदौर के खाऊ गलियों में प्रसिद्ध हैं।

१. खोपरा पैटिस

यदि आपको आलू टिक्की प्रिय लगती है तो आपको यह खोपरा पैटिस अत्यंत रोचक प्रतीत होगा। यूँ तो आलू टिक्की के लिए, उबले आलुओं एवं डबल रोटी के मिश्रण में मसाले डाल कर उन्हें गोल व चपटा आकार दे कर घी अथवा तेल में सेंका जाता है। खोपरा पैटिस में इन गोलों के भीतर किसे हुए ताजे नारियल एवं सूखे मेवों के मिश्रण को भरा जाता है, तत्पश्चात उन्हें तेल/घी में तला जाता है। इनकी बाहरी परत कुरकुरी रहती है एवं भीतर से यह नम रहता है। इसे चटपटी-मीठी चटनी के साथ गर्म परोसा जाता है। यह पदार्थ उपवास योग्य भी बनाया जाता है। दुकान के समक्ष खड़े होकर, गर्म तेल से निकले कुरकुरे पैटिस एवं चटनी खाना अत्यंत संतोषजनक व आनंददायी होता है। विशेषतः विजय चाट हाउस के खोपरा पैटिस अत्यंत लोकप्रिय हैं।

२. खट्टा समोसा

इन्दौरी खट्टा  समोसा
इन्दौरी खट्टा समोसा

चाव से समोसा खाने वाले आप सब को यह व्यंजन अत्यंत भा जाएगा। यूँ तो भारतीय समोसे आप सभी को प्रिय हैं, किन्तु यह साधारण समोसों का अत्यंत रुचिकर रूप है।  साधारणतः, समोसे बनाने के लिए, मैदे के आवरण में विभिन्न प्रकार के मसाले डले आलुओं को भर कर, इन्हें तला जाता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के समोसों में भिन्न भिन्न स्वाद पाया जाता है। इंदौर के इन समोसों को एक खट्टी-मीठी चटनी डाल कर परोसा जाता है। इस व्यंजन की विशेषता इसके विशेष भरावन में है जिसे अनारदाने का चूर्ण डालकर खट्टा-मीठा बनाया जाता है। इसके कारण इन्हें खट्टा समोसा कहा जाता है। आप सराफा बाजार की गुमटियों एवं ठेलों से ये समोसे खा सकते हैं।

३. मूंग दाल भजिया/मूंग बड़े/ मुंगोडे

इन भजियों को हरी मूंग अथवा खड़ी मूंग द्वारा तैयार किया जाता है जिसके कारण ये अत्यंत कुरकुरे रहते हैं। मूंग भजियों को गर्म तेल में तलकर, चटनी के साथ गरमा गरम परोसा जाता है। यह इंदौर के अनेक घरों में भी संध्या के नाश्ते के लिए बनाया जाता है। वर्षा ऋतु में इन भजियों को खाने का आनंद अत्यंत विशेष होता है। यूँ तो ये भजिये इंदौर की गली-गलियों में एवं कोने कोने में बिकते हैं, किन्तु मेरे अनुमान से इंदौर के एच.आइ.जी. मुख्य मार्ग पर स्थित श्री महालक्ष्मी मूंग के भजिये सर्वोत्तम भजिये बनाते हैं। इसके साथ कड़क चाय पीना ना भूलें!

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४. पोहा-जलेबी

यूँ तो पोहा ऐसा व्यंजन है जिसे सम्पूर्ण महाराष्ट्र, मध्य भारत एवं उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में प्रातःकालीन जलपान / न्याहारी के रूप में खाया जाता है, किन्तु उनके स्वाद एवं सामग्री में भिन्नता होती है। इंदौर के पोहे अत्यंत लोकप्रिय हैं जिसे साधारणतः जलेबी के साथ परोसा व खाया जाता है। यहाँ पोहे को प्याज, मूंगफली, मसालों इत्यादि का छौंक लगाकर बनाया जाता है तथा सेव, धनिया पत्ती तथा जिरामन (इंदौर का विशेष मसाला) बुरक कर परोसा जाता है। नमकीन पोहा तथा मीठी, कुरकुरी रसभरी जलेबी, यह एक अप्रतिम संगम है। पोहे एवं जलेबी एक दूसरे के स्वादिष्ट पूरक होते हैं जिसका आनंद अंतिम कौर तक प्राप्त होता रहता है।

५. साबूदाना खिचड़ी

यदि आप उपवास कर रहे हैं, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं तथा तले व्यंजनों के स्वस्थ विकल्प खोज रहे हैं तो साबूदाना खिचड़ी एक स्वादिष्ट विकल्प है। साबूदाना श्वेत गोलाकार दाने होते हैं जिसे टेपियोका की जड़ से बनाया जाता है। साबूदाने का प्रयोग कर खिचड़ी एवं अनेक अन्य व्यंजन बनाए जाते हैं। इंदौर में साबूदाना खिचड़ी अत्यंत लोकप्रिय है। इसकी विशेषता है कि यह ग्लूटेन अर्थात् लस से मुक्त होती है तथा अत्यंत कम तेल में तैयार की जाती है जिसके कारण इसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं माना जाता है। साबूदाना खिचड़ी में जीरा, मूंगफली, हरी मिर्चें, नींबू, ताजा नारियल का कीस तथा अन्य मसाले डाले जाते हैं तथा इसे ताजे दही के साथ परोसा जाता है। इसे खिचड़ी कहा जाता है किन्तु यह सामान्य खिचड़ी ना होकर, एक भुरभुरा स्वादिष्ट जलपान है।

६. गराडू चाट

यह इंदौर का अत्यंत लोकप्रिय, चटपटा तथा मसालेदार व्यंजन है जो इंदौर की प्राचीन गलियों का गौरव है। गराडू एक कंद-मूल है जो अधिकांशतः शीत ऋतु में उपलब्ध होता है। इस कंद को चौकोर टुकड़ों में काटकर तेल में कुरकुरा होने तक तला जाता है। तत्पश्चात विशेष गराडू मसालें छिड़ककर व भरपूर नींबू निचोड़ कर परोसा जाता है। चटपटे खट्टे मसालों में लिपटे कुरकुरे गराडू इंदौर का विशेष व्यंजन है जो अत्यंत स्वादिष्ट होता है।

७. शाही शिकंजी

यह एक ऐसा पेय है जिसे आपने इंदौर आने से पूर्व कभी नहीं ग्रहण किया होगा। इंदौर की शाही शिकंजी दूध एवं सूखे मेवों का अत्यंत स्वादिष्ट संगम होता है। उत्तर भारत में शिकंजी का अर्थ बहुधा नींबू का चटपटा-मीठा शरबत होता है जिसे ग्रीष्म ऋतु में थकावट मिटाने के लिए, शुधा तृप्त करने के लिए अथवा पाचन के लिए पिया जाता है। किन्तु इंदौर की शिकंजी स्वयं में एक पूर्ण आहार है। दूध में सूखे मेवे, केसर एवं इलायची डालकर महीन मिश्रण बनाया जाता है तथा ऊपर से मलाई डालकर ठंडा परोसा जाता है। यह विभिन्न स्वादों में भी उपलब्ध है। ग्रीष्म ऋतु में यह शीतलता तो देती ही है, साथ ही पूर्ण आहार का भी आनंद प्रदान करती है।

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८. दाल बाटी

यह एक लोकप्रिय राजस्थानी व्यंजन है। इसका एक रूप दाल-बाफला भी है। बाटियाँ बनाने के लिए, गेहूं के आटे में मोयन, नमक तथा अन्य आवश्यक मसाले डालकर उसे गूंथा जाता है तथा उनके गोल लोइयां बनाई जाती है। इन्हें बेलकर रोटियाँ बनाए बिना, सीधे ही उपलों/कंडों की आग में सेंका जाता है। तत्पश्चात उन्हें किंचित खोलकर घी में डुबाया जाता है। इसे मसालेदार दाल एवं चटनी के साथ परोसा जाता है। इसे बहुधा दोपहर अथवा रात्रि के भोजन में खाया जाता है। इसे खाने के लिए थाली में बाटियों को फोड़ा जाता है। ऊपर से भरपूर मात्रा में दाल एवं घी डालकर खाया जाता है। यह एक अत्यंत स्वादिष्ट एवं गरिष्ट भोजन होता है। बाफले बनाने के लिए आटे की लोइयों को सर्वप्रथम उबलते पानी में पकाया जाता है, तत्पश्चात उन्हें आग में सेंका जाता है। इसे भी बाटियों के समान ही खाया जाता है।

९. भुट्टे का कीस – इंदौर की खाऊ गलियों का विशेष व्यंजन

इंदौर की सुप्रसिद्ध भुट्टे की खीस
इंदौर की सुप्रसिद्ध भुट्टे की खीस

भुट्टे के कीस का अर्थ है किसे (कद्दूकस किये) हुए भुट्टे (कोमल व ताजे मक्के के दाने) का चटपटा नाश्ता। यह इंदौर के निवासियों का अत्यंत प्रिय व्यंजन है। क्यों ना हो? यह अत्यंत स्वादिष्ट जो है। भुट्टे के मौसम में इंदौर की खाऊ गलियों में इसके चहेतों की भीड़ लग जाती है। भूट्टे को किस कर उसे चटपटा बघार लगाया जाता है। यह कढ़ाई में जितना भूना जाता है, यह उतना ही स्वादिष्ट होता है। परोसते समय ऊपर से नींबू, ताजा हरा धनिया  एवं जिरामन छिड़का जाता है। है ना यह अत्यंत विशेष व्यंजन? इसे खाने के लिए आपको इंदौर ही आना पड़ेगा।

१०. दहीबड़ा

दहीबड़ा सम्पूर्ण भारत का लोकप्रिय नाश्ता है। आप इसे चाट में भी गिन सकते हैं। उड़द डाल को भिगोकर एवं महीन पीसकर उसके बड़े तले जाते हैं। इसके पश्चात इन्हें नमकीन पानी में भिगोकर रखा जाता है। तत्पश्चात इसे शीतल दही एवं चटपटे मसाले डालकर खाया जाता है। चाट हो एवं चटनी ना हो, यह कैसे हो सकता है? जी हाँ! दहीबड़े पर भी खट्टी-मीठी इमली चटनी एवं पुदीना चटनी डालकर परोसा जाता है। शीतल दही, चटपटे मसाले, खट्टी-मीठी चटनी, शीतलता प्रदान करती पुदीना चटनी तथा नर्म-मुलायम बड़े, आ गया ना मुंह में पानी! आपने अनेक स्थानों के दहीबड़े खाए होंगे, किन्तु इंदौर के दहीबड़े अत्यंत स्वादिष्ट हैं। कदाचित उनमें डाले मसाले विशेष हैं। इंदौर के सराफा बाजार में स्थित जोशी बड़ेवाले की दुकान में इंदौर के सर्वोत्तम दहीबड़े मिलते हैं। आप वहां जाएँ तो जोशीजी को दहीबड़े का दोना तैयार करते देखना ना भूलें। वह एक अत्यंत विशेष अनुभव होगा।

११. इंदौर का कुल्फी फलूदा – ग्रीष्म ऋतु का लोकप्रिय व्यंजन

कुल्फी फालूदा
कुल्फी फालूदा

क्या आप ग्रीष्म ऋतु में इंदौर जा रहे हैं? तब आप कुल्फी फलूदा का आस्वाद लिए बिना कैसे रह सकते हैं? इंदौर की कुल्फी-फलूदा में मीठी शीतल सेवईयों के ऊपर ठंडी जमी कुल्फी डाली जाती है। उस पर रूह-अफजा एवं मेवे डालकर परोसा जाता है। यह जितना सुन्दर दिखाई देता है, उससे भी अधिक यह स्वादिष्ट होता है। इंदौर की खाऊ गलियों में विभिन्न व्यंजनों का आनंद लेते समय कुल्फी-फलूदा के लिए उदर में स्थान अवश्य बचा कर रखें!

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१२. इंदौरी नमकीन  

यदि आप इंदौर भ्रमण पर आये हैं तथा यहाँ से ऐसा कुछ व्यंजन साथ  ले जाना चाहते हैं जिसे आप घर वापिस जाकर खा सकें एवं मित्रों-परिजनों को भी खिला सकें तो इंदौर के प्रसिद्ध नमकीनों से बेहतर क्या हो सकता है? इंदौर विभिन्न प्रकार के सेव, चूड़ा, मिक्सचर, फलाहारी चूड़ा इत्यादि के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। इंदौर नमकीन विभिन्न रूपों, आकारों एवं स्वादों में उपलब्ध है जैसे लौंग की सेव, पालक की सेव, पुदीने की सेव, फलाहारी चिवड़ा, लसहन की गाठी, खट्टा-मीठा मिक्सचर इत्यादि। इन्हें आप चाय के साथ खा सकते हैं, पोहे के ऊपर बुरक कर खा सकते हैं, खाने के साथ खा सकते हैं अथवा जब मन चाहा तब खा सकते हैं।

१३. दूध पाक

यदि आपको मिल्क केक खाने में आनंद आता है तो आपको दूध पाक का आस्वाद अवश्य लेना चाहिए। मीठे दूध को पका कर तब तक गाढ़ा किया जाता है जब तक वह जमने योग्य हो जाए। ठंडा होते ही उसके टुकड़े काटकर उसे कटे हुए सूखे मेवों से सजाया जाता है। यह एक ऊंचे स्तर की मिठाई है। लोग उत्सवों तथा विशेष अवसरों पर उपहार स्वरूप इस मिठाई का आदान-प्रदान करते हैं। खाने के पश्चात इस मिठाई का स्वाद अवश्य चखें।

१४. गजक

शीत ऋतु के आते ही समस्त मिठाई की दुकानें एवं घरों के भण्डार कक्ष इस मिठाई से भर जाते हैं। गजक एक मीठा, खस्ता तथा विशेषतः अत्यंत स्वास्थ्यवर्धक मिठाई है जो शीत ऋतु में अत्यंत लाभकारी होती है। इसे तिल, मूंगफली एवं गुड़ से बनाया जाता है। गजक हमारे उत्सवों में चार चाँद तो लगाती ही है, साथ ही इसकी सभी सामग्रियां हमारी देह को ऊर्जा से भर देती हैं।

१५. जलेबा

जी हां! जलेबा! यह जलेबी का एक रूप है जिसका आकार बड़ा होता है। इसीलिए इसे जलेबा कहा जाता है। इसके विशाल आकार के कारण यह अधिक रसभरा, कुरकुरा तथा अत्यंत स्वादिष्ट होता है। बड़े आकार का होने के पश्चात भी आपका मन एक जलेबा से भरने वाला नहीं है! न्यू पलासिया में छप्पन दुकान आईये तथा गर्म रसभरे जलेबों का स्वाद चखिए।

१६. नारियल क्रश

यदि आप ग्रीष्म ऋतु में इंदौर की यात्रा कर रहे हैं तो यहाँ के सूखे उष्ण वातावरण में यह पेय आपको जलयोजित रखेगी। ताजे नारियल का जल अत्यंत पौष्टिक एवं शीतलता प्रदान करने वाला होता है। सूखे उष्ण वातावरण में यह अत्यंत लाभदायक होता है। किन्तु इंदौर तो इंदौर है! यह सादे साधारण व्यंजनों को भी विशेष रूप देकर ही परोसता है। इसीलिए यहाँ का नारियल क्रश लोकप्रिय है। ताजे नारियल से दूध निकालकर उसे मीठा व ठंडा किया जाता है। सूखे मेवों से सजाकर यह पेय उपभोग के लिए प्रस्तुत किया जाता है। इसे पीकर आप तरोताजा हो जायेंगे तथा अधिक समय तक ऊर्जावान  अनुभव करेंगे।

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१७. मावा बाटी

मावा बाटी
मावा बाटी

भारत के सभी क्षेत्रों की लोकप्रिय मिठाई, गुलाब जामुन से मिलता-जुलता यह मावा बाटी अत्यंत स्वादिष्ट मिष्टान्न है। यह सुनहरे भूरे रंग का तथा रस से भरा होता है। इसे मावा अथवा खोए से बनाया जाता है। दूघ को तब तक पकाया जाता है जब तक वह अत्यंत गाढ़ा हो जाए। इसे मावा अथवा खोवा या खोया कहते हैं। यह अनेक मिठाइयों की प्रमुख सामग्री होती है। यह अत्यंत गरिष्ठ होता है। सादा मावा भी अत्यंत स्वादिष्ट होता है। मावा बाटी को बाटी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका आकार आटे की बाटी के समान बड़ा व गोलाकार होता है। ताजे मावे को मुलायम कर उसके गोले बनाए जाते हैं। इनके भीतर सूखे मेवों के टुकड़ों को भरा जाता है। तत्पश्चात इन्हें धीमी आंच पर तेल अथवा घी में तला जाता है। तदनंतर इसे शक्कर की चाशनी में डुबाया जाता है। इससे यह इतना मुलायम व रसभरा हो जाता है कि जिव्हा पर रखते ही घुलने लगता है। इंदौर की मावा बाटी अत्यंत लोकप्रिय है।

इंदौर के व्यंजनों की विशेषताएं

इंदौर की खाऊ गलियों के स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजनों एवं मिष्टान्नों के इतने प्रकार व विकल्प हैं, आप निश्चय नहीं कर पायेंगे कि क्या खाएं एवं क्या छोड़ें। इंदौर के विक्रेता सादे साधारण व्यंजनों को भी विशेष कृतियों एवं सामग्रियों द्वारा असाधारण एवं विशेष बना देते हैं। इंदौर के व्यंजन यहाँ की संस्कृति एवं परम्पराओं को स्वादिष्ट रूप में प्रस्तुत करते हैं। ये मिष्टान्न व पकवान अपने स्वाद के द्वारा एकता, आनंद एवं सांस्कृतिक समृद्धि का भाव उत्पन्न करते हैं तथा सबको एक स्वाद के धागे से बांधकर रखते हैं। सभी इंदौर वासियों को अपनी इस समृद्ध विरासत पर गर्व है तथा वे इसे सहेज कर रख रहे हैं। इन स्वादिष्ट व्यंजनों के द्वारा सभी इंदौर वासियों में बसी एकता उल्लेखनीय है। अतः आप जब भी इंदौर जाएँ तो उत्तम नियोजन कर सभी विशेष व्यंजनों का स्वाद चखें।

श्रृष्टि पाटनी द्वारा प्रस्तुत अतिथि संस्करण


श्रृष्टि ‘F and B Recipes’ की संस्थापक हैं। इससे पूर्व वे Raletta में Chief Content Officer थीं। वर्तमान में वे अपनी दूसरी पाककला पुस्तक पर कार्य कर रही हैं। उन्होंने व्यंजनों पर आधारित अनेक लेख लिखे हैं तथा व्यंजन संस्करणों के अन्य लेखकों से की गयी चर्चाएं भी प्रसारित किये हैं। Shamballa Reiki एवं Intuitive Energy Healing, इन वेब स्थलों द्वारा आप उनके कार्य के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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