महाराष्ट्र Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/महाराष्ट्र/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Sun, 11 Aug 2024 07:44:08 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 मुद्रा की यात्रा – मुंबई का आर बी आई मुद्रा संग्रहालय https://inditales.com/hindi/mudra-sangrahalay-mumbai/ https://inditales.com/hindi/mudra-sangrahalay-mumbai/#respond Wed, 05 Feb 2025 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3762

मुंबई में भारतीय रिज़र्व बैंक का मौद्रिक संग्रहालय अपने  देश में एक  अलग प्रकार का संग्रहालय है| भारत के इतिहास के माध्यम से यह संग्रहालय आपको सिक्कों, रुपयों  और दूसरी मुद्राओं के इतिहास से अवगत कराता है| इस संग्रहालय के माध्यम से हम स्वतंत्र भारत तक विभिन्न ऐतिहासिक वंशजों, रियासतों और विदेशी साम्राज्यों के प्रारंभ […]

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मुंबई में भारतीय रिज़र्व बैंक का मौद्रिक संग्रहालय अपने  देश में एक  अलग प्रकार का संग्रहालय है| भारत के इतिहास के माध्यम से यह संग्रहालय आपको सिक्कों, रुपयों  और दूसरी मुद्राओं के इतिहास से अवगत कराता है| इस संग्रहालय के माध्यम से हम स्वतंत्र भारत तक विभिन्न ऐतिहासिक वंशजों, रियासतों और विदेशी साम्राज्यों के प्रारंभ काल तक की मुद्राओं से भी अवगत  होते हैं| यह आपको भारतीय रिज़र्व बैंक, उसके उद्देश्यों, इतिहास और उसके कार्यों का परिचय भी देता है|

आर बी आई मौद्रिक संग्रहालय, मुंबई

यहाँ आने वालों को यह संग्रहालय मुद्रा की अवधारणा से परिचित कराता है| इसके शरुआती अवतार जैसे वस्तु विनिमय प्रणाली और गाय प्रणाली  से  भी अवगत कराता है| वहाँ पर आप एक स्वर्ण बार भी देख सकते हैं जिसका उपयोग वित्तीय साधन के रूप में किया जाता है|

सिक्के

यह संग्रहालय आपको समय के माध्यम से सिक्कों के बारे में  अवगत कराता है| कौन सी प्रौधोगिकी सिक्कें बनाने में इस्तेमाल की जाती थी, किस धातु का प्रयोग होता था, उनकी मोहर व टकसाल आदि ये बातें भी वहाँ दर्शाई गयी हैं| मूलरूप से जो भी जानकारी आप सिक्कों के बारें में जानना चाहते हैं उन सभी का उत्तर आपको यहाँ मिल जायेगा| आप वहाँ रखे सिक्कों को देखकर उस अवधी की समृधि का भलीभांति अंदाजा लगा सकतें हैं| अच्छे आर्थिक समय के दौरान सिक्के अधिक कीमती धातु से निर्मित थे और उनकी कारीगरी भी उत्तम थी|

कागज़ी मुद्रा

संग्रहालय का कागज़ी मुद्रा का भाग भी बहुत रोचक है| सिक्कों की तुलना में कागज़ी मुद्रा का चलन अट्ठारवीं शताब्दी में हुआ था लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में ही उसको प्रमुखता मिली| आप वहाँ पर उन प्रारंभिक बैंकों के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जिन्होंने कागज़ी मुद्रा की पेशकश की थी| शुरुवाती समय में कागजी नोट एकतरफा थे| ऐसा लगता है कि बैंकरों ने प्रत्येक नोट व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर करने के लिये इस्तमाल किया और यह हस्ताक्षर करने की प्रथा आज भी विभिन्न रूपों में जारी है| जब आप सरल पुरानी शैली के विशाल नोट को देखेंगे तो आपके चेहरे पर अपने आप ही एक मुस्कान आ जायेगी|

मुद्रा की बारीकियां

आर बी आई मौद्रिक संग्रहालय का एक अन्य खंड आपको मुद्रा की बारीकियों को बताता है| जैसे कि कौन सा सिक्का किस टकसाल में बना, कैसे पता लगा सकते हैं कि नोट असली है या नकली| वहाँ छोटे

क्विज़ेज हैं जिनके माध्यम से आप मुद्रा के बारे में आपने ज्ञान को जाँच सकते हैं| कुछ ऐसी आंख खोलने वाली जानकारियां हमें वहां प्राप्त होती हैं जिनसे हम पहले अवगत नहीं होते| उन सभी आर बी आई गवर्नरके चित्र वहाँ लगे हैं जिनके हस्ताक्षर कागज़ी मुद्रा के पीछे अंकित हैं|

संग्रहालय विवरण

मुंबई में जैसे सब कुछ है उसी तरह संग्रहालय को भी एक संगठित स्थान पर बनाया गया है लेकिन वहाँ जो भी रक्खा गया है वह बड़े व्यवस्थित ढंग से दर्शया गया है| सही चन्हों के माध्यम से आप पूरे संग्रहालय को ठीक प्रकार से  बिना कुछ छोड़े देख सकते हैं| रोशनी की वहाँ उचित व्यवस्था है| कुछ स्थान पर सेंसर प्रकाश  है जैसे जब आप दर्शाई हुई चीज़ के निकट जायेंगे तो प्रकाश स्वतः हो जायेगा और दूर जाने पर पुनः बंद हो जायेगा| आपको संग्रहालय के अंदर कुछ भी ले जाने की अनुमति नही है| इसलिए आप वहाँ की फोटो भी नही ले सकते हैं| वहाँ से आप ५००० और १०००० के नोटों का प्रतिरूप ले सकते हैं एक विवरण पुस्तिका के साथ जिसके माध्यम से आपको उन जानकारियों का पता चलेगा जो असली और नकली मुद्रा को पहचानने में आपकी मदद करेगी| वहाँ बनी एक डेस्क से हम एक छोटी पुस्तिका खरीद सकते हैं जिसके द्वारा संग्रहालय के विभिन्न भागों की जानकारियां हम प्राप्त कर सकते हैं|

मैं चाहती हूँ कि आर बी आई उन लोगों को जो मुद्राशास्त्र में रूचि रखते हैं प्रचलन के सिक्के और स्मारक सिक्के जरूर उपलब्ध करवाये| मैं यह भी चाहती हूँ कि संग्रहालय को देखने वालों की संख्या में वृद्धि हो, और बहुत से लोगों को इस महत्वपूर्ण जगह के बारे में पता चले|

जब तक आप आर बी आई मुद्रिक संग्रहालय की यात्रा नहीं कर पाते तब तक आप उनकी वेबसाइट के माध्यम से मुद्राओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हाँसिल कर सकते हैं|

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देहू – संत तुकाराम की पावन नगरी https://inditales.com/hindi/sant-tukaram-maharaj-samsthan-dehu/ https://inditales.com/hindi/sant-tukaram-maharaj-samsthan-dehu/#respond Wed, 03 Apr 2024 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3423

महाराष्ट्र भक्ति आंदोलन के संत-कवियों की भूमि रही है। वहाँ के सर्वाधिक लोकप्रिय संतों में एक नाम है, देहू के संत तुकाराम! उन्हे उनके सर्वप्रिय, सरल व अत्यंत मार्मिक अभंगों के लिए जाना जाता है जिन्हे भक्तगण भक्ति से आज भी गाते हैं। उनकी रचनाएं जितनी कीर्तनों में प्रसिद्ध है, उतनी ही भक्ति एवं उल्हास […]

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महाराष्ट्र भक्ति आंदोलन के संत-कवियों की भूमि रही है। वहाँ के सर्वाधिक लोकप्रिय संतों में एक नाम है, देहू के संत तुकाराम! उन्हे उनके सर्वप्रिय, सरल व अत्यंत मार्मिक अभंगों के लिए जाना जाता है जिन्हे भक्तगण भक्ति से आज भी गाते हैं। उनकी रचनाएं जितनी कीर्तनों में प्रसिद्ध है, उतनी ही भक्ति एवं उल्हास से उन्हे संगीत कार्यक्रमों में भी गाया जाता है।

संत तुकाराम की लगभग सभी रचनाएं मराठी भाषा में लिखी गयी हैं। मराठी भाषा से अभ्यस्त ना होने के कारण मैं उन्हे पढ़कर समझ नहीं पाती थी। किन्तु उनमें निहित भक्तिभाव के कारण मैं उन्हे सुनती अवश्य थी। उन्हे सुनने में मुझे अत्यंत आनंद आता था। इसीलिए उनकी रचनाओं के हिन्दी भाषा में अनुवाद ढूंढते ढूंढते मैं पुणे के निकट स्थित देहु में उनके गाँव पहुँच गयी।

संत तुकाराम के विषय में तथा उनकी रचनाओं के विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता मन में उत्पन्न हो रही थी। उनकी केवल एक छवि देखी थी जिसमें वे अपने हाथों में इकतारा उठाए हुए भजन गा रहे हैं। ठीक मीरा बाई जैसे, जो उनकी समकालीन संत-कवियित्री रही होंगी।

देहु का भक्तिमय इतिहास

संत तुकाराम १७ वीं सदी के आरंभिक काल के संत थे। देहु श्री क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था। उसे पांडुरंग विट्ठल का प्रिय स्थल माना जाता था।

हम सब जानते हैं कि भगवान विष्णु के विट्ठल स्वरूप का निवास स्थान पंढ़रपुर रहा है जहाँ पत्नी रखमा के साथ उनकी पूजा आराधना की जाती रही है। फिर देहु कब एवं कैसे पवित्र नगरी की श्रेणी में आ गया?

देहू इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित है। इन्द्र के आगमन की कथा से इसका संबंध माना जाता है। इंद्रायणी नदी भीमा नदी की सहायक नदी है। आप सब जानते हैं कि भीमा नदी वह लोकप्रिय नदी है जिसके उद्गम स्थल पर प्रसिद्ध भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग स्थित है। आगे चल कर भीमा नदी पंढ़रपुर भी जाती है।

संत तुकाराम कीर्तनकार विश्वम्भर बुवा के आठवें वंशज है जो देहु में निवास करते थे। विश्वम्भर बुवा पांडुरंग के असीम भक्त थे। वे प्रत्येक पक्ष की एकादशी के दिवस अपने पांडुरंग से भेंट करने पंढ़रपुर अवश्य जाते थे। हम सब जानते हैं कि एकादशी के दिन सभी विष्णु भक्त उपवास करते हैं तथा आत्मसंयम का पालन करते हैं।

जब विश्वम्भर बुवा वयोवृद्ध होने लगे तब उन्हे प्रत्येक एकादशी के दिवस पंढ़रपुर पहुँचने में कठिनाई होने लगी। उन्होंने पांडुरंग से निवेदन किया कि वे उनका मार्गदर्शन करें तथा उन्हे इस दुविधा से बाहर निकालें। पांडुरंग, जिन्हे विठोबा भी कहते हैं, उन्होंने उनके स्वप्न में प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिये तथा उन्हे आज्ञा दी कि वे एक ऐसे स्थान की खोज करें जहाँ उन्हे तुलसी के पत्ते, पुष्प एवं बुक्का दिखाई दें। विठोबा ने उन्हे उस स्थान को उत्खनित करने की आज्ञा भी दी।

आगामी प्रातः को विश्वम्भर बुवा इन तीनों वस्तुओं की खोज में निकाल गये। मार्ग में एक आमराई के मध्य उन्हे ये तीनों वस्तुएं दृष्टिगोचर हुईं। उन्होंने उस स्थान को उत्खनित करना आरंभ किया। महत् आश्चर्य! तत्काल  वहाँ से उन्हे श्री विट्ठल एवं रखमाबाई की मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। तात्पर्य, भगवान ने स्वयं भक्त के समीप जाने का निर्णय लिया क्योंकि वह भक्त अब यात्रा करने में असमर्थ होने लगा था।

इंद्रायणी नदी के तट पर इन मूर्तियों की विधिविधान से स्थापना की गयी तथा चहुँओर मंदिर का निर्माण किया गया। इन मूर्तियों को स्वयंभू माना जाता है।

संत तुकाराम

बालक तुकाराम का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने पिता से व्यापार एवं कृषि संबंधी शिक्षा ग्रहण की थी। किन्तु उनके अल्प वय में ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। पारिवारिक व्यापार का पूर्ण उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया था। वे अपने व्यापार में कुशल थे। किन्तु परिवार में हुए कई आकस्मिक मृत्यु शोकों के पश्चात उन्हे अपने व्यापारिक गतिविधियों से विरक्ति होने लगी थी।

संत तुकाराम महाराज देहू
संत तुकाराम महाराज देहू

उन्होंने भंगिरी पर्वत पर बिना अन्न-जल ग्रहण किये १५ दिवसों तक तपस्या की। इसके पश्चात जब वे पर्वत से नीचे उतरे, उनका मुख-मंडल एक संत के अनुरूप तेजस्वी प्रतीत होने लगा था। उन्होंने अभंग लिखना एवं उन्हे गाना आरंभ किया। वे संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ तथा कबीर जैसे कवि-संतों से अत्यधिक प्रभावित थे।

एक दिवस एक मनमुटाव के चलते खिन्न मन से उन्होंने अपने अभंगों की पुस्तकों को इंद्रायणी नदी में बहा दिया तथा नदी के तट पर एक शिलाखंड के ऊपर बैठकर तपस्या करने लगे। बिना अन्न-जल ग्रहण किये उन्होंने १३ दिवसों तक तपस्या की। उनकी सभी पुस्तकें जल पर तैरती रहीं। उनका तनिक भर भी क्षय नहीं हुआ था। इस शिलाखंड के चारों ओर अब एक मंदिर बनाया गया है।

ऐसी मान्यता है कि संत तुकाराम ने अभंग गाते हुए सदेह ही परलोक प्रस्थान किया था। इसी कारण कहीं भी उनकी समाधि नहीं है।

देहू वह स्थल है जहाँ संत तुकाराम का जन्म हुआ था तथा जहाँ उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया था।

देहू दर्शन

देहू पुणे के निकट, लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मैंने पुणे से एक टैक्सी किराये पर ली तथा हम इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित इस छोटी सी नगरी के दर्शन के लिए निकल गये।

गाथा मंदिर

गूगल मानचित्र की सहायता से हम देहू पहुँचे। सर्वप्रथम हम एक अपेक्षाकृत नवीन मंदिर में पहुँचे जिसे गाथा मंदिर कहते हैं। गाथा मंदिर की ओर जाते मार्ग के दोनों ओर गन्ने के रस की रसवन्तियाँ हैं। वहाँ से आगे जाकर हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। हमारे समक्ष सम्पूर्ण परिसर श्वेत रंग से ओतप्रोत था। मेरी दाहिनी ओर एक विशाल मंदिर स्थित था।

गाथा मंदिर देहू
गाथा मंदिर देहू

परिसर भव्य था। मैं सोचने लगी कि क्या तुकाराम जी इतने वैभवशाली स्थान पर रहे होंगे? इसने मुझे वाराणसी के कबीर चौराहे का स्मरण करा दिया। वह भी कबीर के शब्दों में निहित सादगी की तुलना में कहीं अधिक वैभवपूर्ण है।

दो विशाल गजों के मध्य स्थित सोपानों की सहायता से मैं एक अष्टभुजाकार कक्ष के भीतर पहुँची। उस विस्तृत कक्ष के मध्य संत तुकाराम की एक विशाल प्रतिमा स्थित है जो पंच धातु में निर्मित है। आसन ग्रहण किये तुकाराम अपनी भक्ति में लीन हैं। उनके एक हाथ में वह चिरपरिचित इकतारा तथा दूसरे में पोथी है।

गाथा मंदिर में संत तुकाराम की भव्य प्रतिमा
गाथा मंदिर में संत तुकाराम की भव्य प्रतिमा

उनकी प्रतिमा के चारों ओर अनेक कक्ष हैं जिनकी भित्तियाँ संगमरमर की हैं। उन पर उनके ४१४५ अभंग लिखे हुए हैं। कुछ भित्तियाँ तुकाराम के १०८ नामों से भी अलंकृत है। उनके मध्य कई चित्र हैं जिनमें उनके अभंगों में वर्णित कुछ दृश्य चित्रित हैं। सम्पूर्ण कलाकृतियाँ दो तलों में प्रदर्शित हैं।

प्रथम तल पर एक मंदिर है जो संत तुकाराम के इष्ट देव पांडुरंग विट्ठल एवं रखमा बाई को समर्पित है। परिसर में भ्रमण करते हुए हमें आभास होता है कि संत तुकाराम अपने पीछे अपनी असीमित भक्ति से ओतप्रोत एक समृद्ध धरोहर छोड़ गये हैं। सम्पूर्ण परिसर में भ्रमण करते हुए मैं आत्मविभोर हो गई थी।

इस परिसर में भ्रमण करते हुए मुझे वाराणसी के तुलसी दास मंदिर एवं अयोध्या के वाल्मीकि मंदिर का भी स्मरण हो रहा था। इन मंदिरों की भित्तियों पर भी क्रमशः सम्पूर्ण रामचरितमानस एवं रामायण के दोहे-छंद उत्कीर्णित हैं।

एक विशाल पटल पर भगवान विष्णु के विविध अवतारों के चित्र हैं।

एक पटल पर गाथा मंदिर का सुंदर विवरण लिखा हुआ है जो इस प्रकार है:

  • धनाढ्य का दानतीर्थ
  • जनता का सांस्कृतिक केंद्र
  • भक्तों का पावन तीर्थ स्थल
  • वारकरियों की संपत्ति
  • महाराष्ट्र का गौरव
  • भारत का सार
  • सभी के लिए मार्गदर्शक प्रकाशपुंज

गुरुकुल, अन्नपूर्णा भवन एवं गौशाला

गाथा मंदिर परिसर के भीतर, मुख्य मंदिर के निकट विद्यार्थियों के लिए संत तुकोबाराया गुरुकुल स्थित है। मैं इसके भीतर नहीं गयी। बाहर से देखकर यह एक आधुनिक व उत्तम रखरखाव युक्त गुरुकुल प्रतीत हो रहा था।

आगे जाकर मातोश्री बहिणाबाई अन्नपूर्णा भवन है जहाँ दर्शनार्थी भक्तों को भोजन कराया जाता है। यह भोजन निशुल्क उपलब्ध है। आप चाहें तो कुछ धनराशि का दान कर सकते हैं। भोजन कक्ष के ऊपर एक कक्ष है जहाँ आध्यात्मिक सभाएं आयोजित किये जाते हैं। ‘जय जय राम कृष्ण हरि’, सम्पूर्ण परिसर में इस संकीर्तन का अनवरत जयघोष होता रहता है। मुझे सदा से ही प्रत्यक्ष कीर्तनों से प्रेम रहा है। आपके लिए यहाँ अयोध्या में आयोजित कीर्तन की भेंट लेकर आयी हूँ।

कुछ आगे जाकर नदी के समक्ष श्रीधर गौशाला है।

मुझे केवल मुख्य गाथा मंदिर के चारों ओर हरियाली एवं वृक्षों का अभाव प्रतीत हुआ। इस मंदिर का कार्य अभी सम्पूर्ण नहीं हुआ है। कदाचित कुछ काल पश्चात यहाँ हरियाली एवं वृक्ष भी आ जाएंगे। मंदिर के विषय में अधिक जानकारी के लिए उनके वेबस्थल पर देखें।

इंद्रायणी के तट पर विट्ठल मंदिर

इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित गाथा मंदिर के समीप ही एक छोटा किन्तु प्राचीन विट्ठल रुक्मिणी मंदिर है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए कुछ सोपान उतरकर घाट तक जाना पड़ता है। मंदिर के चारों ओर शैल मंडप हैं जहाँ बैठकर भक्तगण कुछ क्षण विश्राम कर सकते हैं।

देहू में इंद्रायणी नदी
देहू में इंद्रायणी नदी

इस मंदिर में विट्ठल एवं रखमा के विग्रह हैं। साथ ही गणेश एवं हनुमान की प्राचीन शैल प्रतिमाएं भी हैं। चारों ओर स्थित अनेक वृक्ष वातावरण को आनंदमयी बनाते हैं। यहाँ भक्तों की संख्या अधिक नहीं थी। मुझे यह स्थान अत्यंत शांतिमय प्रतीत हुआ। चिंतन, मनन तथा साधना के लिए सर्वोत्तम स्थल। इंद्रायणी नदी का शांत जल तथा विठोबा की करुणामयी आभा हमारे चित्त को इस पावन वातावरण से एकाकार कर देती हैं।

समीप ही एक छोटा सा स्मारिका विक्री केंद्र है जहाँ से आप विट्ठल-रखमा, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर महाराज आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ ले सकते हैं।

जगद्गुरु संत श्री तुकाराम महाराज संस्थान

यह मुख्य मंदिर है जिसका निर्माण संत तुकाराम के पूर्वज विश्वम्भर बुवा ने किया था। ठेठ महाराष्ट्र शैली में निर्मित यह एक शैल मंदिर है। इस मंदिर की ओर संकेत करता एक तोरण मुख्य मार्ग पर स्थापित है। मंदिर परिसर के समक्ष स्थित महाद्वार पर संत तुकाराम की प्रतिमा है।

जगद्गुरु संत श्री तुकाराम महाराज संस्थान
जगद्गुरु संत श्री तुकाराम महाराज संस्थान

परिसर के भीतर प्रवेश करते ही हमारी दृष्टि सर्वप्रथम एक छोटे हनुमान मंदिर पर पड़ी। इसके पश्चात राम मंदिर है। परिसर के मध्य में एक मंदिर है जिसके भीतर विठोबा-रखमा के विग्रह हैं जो इसी स्थल से प्राप्त हुई थीं। सूक्ष्म उत्कीर्णन से परिपूर्ण यह एक आकर्षक मंदिर है। इसे देखने के पश्चात यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह संत तुकाराम के काल से लगभग २०० वर्ष प्राचीन होगा। अर्थात यह मंदिर १५ वीं शताब्दी में निर्मित होगा।

मंदिर से नदी की ओर शैल सोपान बने हुए हैं। किन्तु किसी कारणवश अभी यहाँ से नदी की ओर जाने का मार्ग बंद कर दिया गया है। मंदिर के चारों ओर स्थित गलियारे में संत तुकाराम की जीवनी को प्रदर्शित करते कई आकर्षक चित्रपटल हैं।

तुकाराम महाराज शिला मंदिर

विठोबा मंदिर के पार्श्व भाग में स्थित यह एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसके भीतर वही शिला रखी हुई है जिस पर बैठकर तुकाराम जी ने १३ दिवसों तक तपस्या की थी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि यह तुकाराम के भक्तों के लिए अत्यंत पावन एवं आदरणीय स्थल है।

हस्तलिखित लेख शिला मंदिर में
हस्तलिखित लेख शिला मंदिर में

परिसर के एक कोने में स्थित एक छोटे से मंदिर के भीतर संत तुकाराम की रचनाओं की हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ हैं।

परिसर के भीतर महाराष्ट्र शैली में निर्मित एक दीपस्तंभ तथा एक तुलसी वृंदावन भी है। समीप ही एक वृक्ष के नीचे एक छोटा गरुड मंदिर है।

एक मंडप के भीतर आप चांदी की एक पालकी देख सकते हैं। मेरे अनुमान से यह वारकरी यात्रा की पालकी है। भित्ति पर एक एकतारा लटका हुआ है। किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं हो पाया कि यह एकतारा वास्तव में संत तुकाराम जी का ही है।

संत तुकाराम मंदिर देहू की यात्रा के लिए कुछ सुझाव

संत तुकाराम डाक टिकट पर
संत तुकाराम डाक टिकट पर
  • देहू पुणे नगरी के समीप स्थित है। आप पुणे में ठहरकर वहाँ से एक दिवसीय यात्रा के रूप में देहू भ्रमण कर सकते हैं।
  • मुझे मंदिर के आसपास भोजन अथवा जलपान के लिए बड़े केंद्र दिखाई नहीं दिए। किन्तु मंदिर के आसपास मुझे फल एवं फलों के रस के लिए छोटी दुकानें अवश्य दिखीं।
  • सभी मंदिरों एवं संस्थानों में प्रवेश निशुल्क है। यदि आप दान में कुछ धनराशि देना चाहें तो अवश्य दे सकते हैं।
  • सभी मंदिर सम्पूर्ण दिवस खुले रहते हैं।
  • एकादशी एवं पंढ़रपुर वारी पालकी के दिवसों में यहाँ भक्तों की भारी भीड़ रहती है। अपनी यात्रा नियोजित करते समय इसका ध्यान रखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चिटनवीस वाड़ा नागपुर की एक अद्भुत धरोहर https://inditales.com/hindi/chitnavis-wada-nagpur-dharohar/ https://inditales.com/hindi/chitnavis-wada-nagpur-dharohar/#comments Wed, 24 Jan 2024 02:30:25 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3370

वाड़ा, यह शब्द आप सबने सुना होगा। पुणे का शनिवार वाड़ा एक लोकप्रिय दर्शनीय स्थल है जिसे आप में से अनेक पाठकों ने देखा भी होगा । महाराष्ट्र में राजा – महाराजा तथा अन्य कुलीन परिवारों के भव्य निवासों को वाड़ा कहा जाता है। पुणे स्थित शनिवार वाड़ा पेशवाओं का निवास स्थान था। महाराष्ट्र की […]

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वाड़ा, यह शब्द आप सबने सुना होगा। पुणे का शनिवार वाड़ा एक लोकप्रिय दर्शनीय स्थल है जिसे आप में से अनेक पाठकों ने देखा भी होगा । महाराष्ट्र में राजा – महाराजा तथा अन्य कुलीन परिवारों के भव्य निवासों को वाड़ा कहा जाता है। पुणे स्थित शनिवार वाड़ा पेशवाओं का निवास स्थान था। महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे भव्य वाड़ों के लिए प्रसिद्ध है। वहीं महाराष्ट्र का एक अन्य नगर, नागपुर भी अपने भव्य वाड़ों के लिए जाना जाता है। नागपुर के पुरातन क्षेत्र में अनेक सुंदर वाड़े हैं। नागपुर से मेरा प्रथम परिचय चिटनवीस वाड़े के द्वारा ही हुआ था जो नागपुर के महल क्षेत्र में चिटनवीसपुरा में स्थित है।

चिटनवीस वाड़ा उन कुछ वाड़ों में से एक है जो अपनी भव्यता एवं पुरातन आकर्षण को अखंडित रखने में सफल रहा है।

नागपुर के चिटनवीस वाड़े का भ्रमण

अपने नागपुर भ्रमण में मैं सर्वप्रथम चिटनवीस वाड़े का दर्शन करने निकल पड़ी। मैंने वाड़े में जिस मुख्य द्वार से प्रवेश किया, वह काष्ठ का विशाल किन्तु सामान्य द्वार था। द्वार का ऊपरी भाग तोरण के समान अर्धगोलाकार था। द्वार के ऊपर लगे पटल पर वाड़े का नाम एवं पता अंकित था।

चिटनवीस वाड़ा का प्रवेश द्वार
चिटनवीस वाड़ा का प्रवेश द्वार

मुख्य द्वार से वाड़े के भीतर प्रवेश करते ही मुझे एक मुक्ताकाश परिसर में अनेक संरचनाएं दृष्टिगोचर होने लगीं। मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उत्पन्न होने लगे कि मैंने वाड़े में प्रवेश कर लिया है अथवा अब भी वाड़े के बाहर ही हूँ। मुख्य द्वार की ओर स्थित संरचना पर औपनिवेशिक काल का आभास हो रहा था। औपनिवेशिक काल के कलकत्ता में इमारतों पर जिस प्रकार के लकड़ी के पटल हुआ करते थे, वैसे ही लकड़ी के पटल इस संरचना में भी थे।

औपनिवेशिक काल का वाडा
औपनिवेशिक काल का वाडा

परिसर में सघन ऊँचे वृक्ष हैं जो कदाचित इन संरचनाओं से भी अधिक प्राचीन हैं। मैंने एक भवन के भीतर प्रवेश किया जो यहाँ का कार्यालय कक्ष है। इस कक्ष में काष्ठ द्वारा निर्मित पुरातन भवन साज-सज्जा की अनेक वस्तुएं रखी हुई हैं, जैसे पालकी, सन्दूक, लेखन मंजूषा, बैलगाड़ी आदि। मुझे ज्ञात हुआ कि यह भवन वास्तव में वाड़े का मुख्य भाग है। अर्थात् यह मुख्य वाड़ा है। इसके बाह्य क्षेत्र में जो अन्य भवन मैंने देखे, वे इस वाड़े के अतिरिक्त अंग हैं जिनका उपयोग औपनिवेशिक काल में अतिथि गृह के रूप में किया जाता था।

एक सज्जन जो इस स्थान का प्रबंधन करते हैं, उन्होंने मुझे इस वाड़े की विवरणिका दी तथा एक कर्मचारी को इस वाड़े के द्वार मेरे लिए खोलने का निर्देश दिया। वाड़े का बाह्य दर्शन करने के पश्चात मैं इस वाड़े के भीतर अधिक कुछ देखने की आशा नहीं कर रही थी। मैं कल्पना कर रही थी कि इसके भीतर अधिक से अधिक कुछ उत्कीर्णिक काष्ठ स्तंभ होंगे। मैंने अनेक काष्ठ स्तंभ देखे भी। वाड़े में प्रवेश करते ही मेरी दृष्टि प्रांगण के चारों ओर स्थित अनेक काष्ठ स्तंभों पर पड़ी। किन्तु वास्तव में असीम अचरज तो इन स्तंभों एवं मेरी कल्पना, दोनों के परे छुपा था।

चिटनवीस वाड़ा तीन-चौक हवेली अथवा वाड़ा है । इसका अर्थ है कि इस हवेली में एक के पश्चात एक, तीन प्रांगण हैं। हमने ऐसी ही योजना शेखावटी हवेलियों में भी देखी थी। प्रथम प्रांगण साधारणतः सार्वजनिक स्थल होता है जहाँ सामान्य अतिथि अथवा व्यापार संबंधी व्यक्ति भेंट के लिए आते हैं। इस वाड़े में मैं जहाँ सर्वप्रथम पहुँची थी, वह यही बाह्य प्रांगण है जहाँ वर्तमान में इस परिवार के मुखिया का कार्यालय है।

चिटनवीस कौन थे?

चिटनवीस वास्तव में एक पद का नाम है। चिटनवीस का अर्थ है, मुख्य प्रलेखीकरण अधिकारी जो राजा की सेवा में कार्यरत होता है। इस वाड़े का निर्माण रखमाजी गणेश रणदिवे ने किया था जो नागपुर के भोंसले राजाओं के चिटनवीस थे। वे सर्वप्रथम सन् १७४४ में रघुजी (द्वितीय) भोंसले के संग नागपुर आए थे। इस वाड़े की रचनात्मक सूक्ष्मताओं को देख ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि यह वाड़ा लगभग २०० वर्ष प्राचीन होगा।

चिटनवीस वाड़े का देवघर चौक

जैसे ही मैंने प्रथम प्रांगण में प्रवेश किया, मेरे चारों ओर स्थित अनेक बहुरंगी भित्तिचित्रों को देख मैं कुछ क्षण स्तंभित रह गयी। सुध आने पर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। इस मुक्ताकाश प्रांगण की भूमि को अब काष्ठ फलकों से आवरणित किया गया है लेकिन इसके चारों ओर स्थित गलियारों में मिट्टी की सुखद भूमि है।

देवघर चौक में कृष्ण लीला
देवघर चौक में कृष्ण लीला

गलियारों की भित्तियों पर अनेक उत्कृष्ट चित्र हैं जिनमें कृष्ण की जीवनी पर आधारित दृश्य प्रमुखता से प्रदर्शित हैं। मुझे बताया गया कि कृष्ण इस परिवार के कुल देवता हैं। भित्तियों पर महाभारत जैसे महाकाव्यों से संबंधित चित्र हैं। राजा रवि वर्मा द्वारा रचित शिलामुद्रित चित्र (Lithographs ) हैं जिन्हे चौखटों के भीतर संरक्षित कर प्रदर्शित किया गया है।

राजस्थानी शैली का देवघर
राजस्थानी शैली का देवघर

प्रांगण के एक कोने में काष्ठ निर्मित एक सुंदर मंदिर है। उसे देख मुझे राजस्थान के मंदिरों का स्मरण हो आया। कृष्ण भगवान को समर्पित यह एक मनमोहक मंदिर है। जब आप इस मंदिर के समक्ष बैठेंगे, आप स्वयं को चारों ओर से कृष्ण से घिरा पाएंगे। यह अनुभव इस चौक के नाम, देवघर चौक को पूर्ण रूपेण सार्थक करता है। देवघर चौक का अर्थ है, देवता का प्रांगण।

पारिवारिक चौक अथवा फव्वारा चौक

प्रथम चौक का एक द्वार हमें दूसरे चौक में ले गया। इस चौक अथवा प्रांगण के मध्य में एक सोता अथवा फव्वारा है। इस प्रांगण के चारों भी गलियारे हैं तथा उनकी भूमि भी मिट्टी की सुखद भूमि है।

फ़व्वारा चौक
फ़व्वारा चौक

हमने इस फव्वारे के निकट बैठकर कुछ क्षण विश्राम किया तथा बैठकर वाड़े के इस भाग को मन भरकर निहारा। यह परिवार का निजी क्षेत्र है जहाँ परिवार के सदस्य एकत्र बैठते हैं, भोजन आदि करते हैं। मैं कल्पना करने लगी कि परिवार की स्त्रियाँ अपने दैनंदिनी कार्य समाप्त कर धूप सेंकने अथवा बतियाने के लिए यहाँ अवश्य बैठती होंगी।

रसोईघर चौक

एक अन्य द्वार हमें अंतिम चौक में ले गया जिसका प्रयोग कदाचित परिवार के कर्मचारी अधिक करते हैं। यहाँ परिवार का रसोईघर है। आप यहाँ उनकी चक्की देख सकते हैं। यहाँ एक कुआँ तथा तुलसी का पौधा भी है। उजले चटक रंगों में रंगी कुछ पालकियाँ भी रखी हुई हैं।

भित्ति पर स्थित एक छिद्र मुझे अत्यंत कौतूहलस्पद प्रतीत हुआ। मुझे बताया गया कि यह छिद्र धान्यागार से जुड़ा हुआ है। आप इस छिद्र का द्वार खोलिए तथा आवश्यक धान्य वहाँ से ले लीजिए! आप इस चौक को सेवा चौक भी कह सकते हैं। वास्तव में यह चौक इस वाड़े के कार्यान्वयन में आवश्यक सभी सेवाएं प्रदान करता है।

मुरलीधर मंदिर

मुरलीधर मंदिर
मुरलीधर मंदिर

तीसरे चौक के पार्श्वभाग में स्थित एक द्वार से हम परिवार के मंदिर पहुँचे। जी हाँ, अधिकांश बड़े वाड़ों में परिवार का निजी मंदिर होता है जिसमें उनके कुलदेवता का विग्रह होता है। इस वाड़े में स्थित यह मुरलीधर मंदिर है। यह मंदिर नागर शैली में निर्मित है जिसके अंतर्गत इसमें एक छोटा गर्भगृह है। उसके ऊपर शिखर है। समक्ष स्थित मंडप काष्ठ स्तंभों से भरा हुआ है। ऐसे मंडप मैंने अपनी नागपुर यात्रा के आगामी चरणों में नागपुर के अनेक मंदिरों में देखे। हनुमान एवं गरुड के भी छोटे छोटे मंदिर हैं।

चिटनवीस वाड़े की काष्ठ कलाकृतियाँ

वाड़े के आंतरिक भागों के सौन्दर्य का अवलोकन करने के पश्चात हम वाड़े के अग्र भाग में आ गये। वहाँ की काष्ठ कलाकृतियों ने हमारा मन मोह लिया था। काष्ठ के स्तंभों पर तथा भित्तियों के कोनों पर उत्कृष्ट कलाकृतियाँ की गई थीं। उनमें मोर एवं तोते की आकृतियों की विपुलता थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मोर एवं तोते की कलाकृति महाराष्ट्र के इस क्षेत्र के काष्ठ उत्कीर्णकों की लोकप्रिय शैली है। कई स्थानों पर केले के पुष्प भी उत्कीर्णित हैं, ठीक वैसे ही जैसे पुणे के पेशवा वाड़े में हैं।

काष्ठ में तोते, मोर और केले के फूल की आकृतियाँ
काष्ठ में तोते, मोर और केले के फूल की आकृतियाँ

वाड़े के ऊपरी तल बाह्य अतिथि गृहों से जुड़े हुए हैं। जैसा कि मैंने पूर्व में लिखा है, वाड़े के अतिथि गृह क्षेत्र का प्रमुख भाग औपनिवेशिक शैली में निर्मित है। कदाचित इनका प्रयोग यूरोपीय अतिथियों के स्वागत सत्कार के लिए किया जाता था। यह भाग मुख्य वाड़े से जुड़ा होकर भी अपना पृथक अस्तित्व रखता है।

काष्ठ के खिलोने और मूर्तियाँ
काष्ठ के खिलोने और मूर्तियाँ

इस प्रकार ऊपरी तल पारिवारिक क्षेत्र एवं अतिथि क्षेत्र के मध्य पृथकता स्पष्ट करते हैं। वाड़े के समक्ष चारभाग शैली में एक उद्यान है। इसके भीतर स्थित पगडंडियाँ उद्यान को चार भागों में बांटती हैं। यह उद्यान अपने उत्तम काल की एक धुंधली छवि प्रस्तुत करता है। यहाँ स्थित एक प्राचीन हस्तचालित पंप मुझे अत्यंत रोचक प्रतीत हुआ। यह पंप अब भी क्रियाशील है।

वाड़े की छत

वाड़े की छत से आप वाड़े के भीतर के प्रांगणों को देख सकते हैं। वहाँ से मुरलीधर मंदिर भी दृष्टिगोचर होता है। वाड़े की छत से आप चारों ओर स्थित नागपुर नगरी का विहंगम क्षैतिज दृश्य देख सकते हैं। जब हम वाड़े की छत पर पहुँचे, सूर्यास्त हो रहा था। वाड़े की ढलुआ छत पर लगे लाल रंग के कवेलुओं की पृष्ठभूमि में  सूर्यास्त का दृश्य अद्भुत प्रतीत हो रहा था।

काष्ठ के स्तम्भ, चौखटें और छज्जे
काष्ठ के स्तम्भ, चौखटें और छज्जे

कालांतर में वाड़े के वंशजों ने वाड़े में शौचालय आदि जैसे अनेक आधुनिक सुविधाओं का निर्माण कराया। वाड़े के एक भाग का उपयोग विविध संस्थाएं अपने कार्यालय के रूप में करती हैं। वाड़े को विवाह तथा अन्य छोटे-बड़े आयोजनों के लिए किराये पर भी दिया जाता है। आप देख सकते हैं कि यहाँ पारंपरिक रूप से भोजन परोसने की व्यवस्था है।

यात्रा सुझाव

मेरी जानकारी तक यह वाड़ा सामान्य जनता के अवलोकन के लिए खुला नहीं है। वाड़े का अवलोकन करने के लिए आपको श्री गंगाधर राव चिटनवीस न्यास कार्यालय से संपर्क करना होगा। वास्तुविद निकिता रमानी वाड़े का भ्रमण आयोजित करती हैं। उनके द्वारा वाड़े का भ्रमण आयोजित करवाना उत्तम होगा।

वाड़े में भ्रमण करने तथा उसका अवलोकन करने के लिए १-२ घंटे पर्याप्त हैं। अवलोकन समयावधि आपकी रुचि पर निर्भर करती है।

आप चिटनवीस वाड़े के आसपास के क्षेत्रों में पदभ्रमण अवश्य करें। चिटनवीस वाड़े के चारों ओर स्थित गलियों में आपको अनेक मंदिर एवं अन्य वाड़े दृष्टिगोचर होंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रामटेक – विदर्भ में रामायण के पदचिन्ह https://inditales.com/hindi/ramtek-gadhmandir-nagpur/ https://inditales.com/hindi/ramtek-gadhmandir-nagpur/#comments Wed, 20 Sep 2023 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3184

रामटेक, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नागपुर के निकट स्थित, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक अद्भुत नगर। रामटेक में इतिहास के अनेक कालखंडों ने अपने चिन्ह अंकित किये हैं। रामटेक का रामायण से संबंध रामटेक नाम का संबंध श्री राम के जन्मस्थल अयोध्या से है। टेक का एक अर्थ है, संकल्प अथवा प्रतिज्ञा।  श्री राम […]

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रामटेक, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नागपुर के निकट स्थित, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक अद्भुत नगर। रामटेक में इतिहास के अनेक कालखंडों ने अपने चिन्ह अंकित किये हैं।

रामटेक का रामायण से संबंध

रामटेक नाम का संबंध श्री राम के जन्मस्थल अयोध्या से है। टेक का एक अर्थ है, संकल्प अथवा प्रतिज्ञा।  श्री राम ने रामटेक में इस धरती को असुरों से मुक्त करने की प्रतिज्ञा ली थी। टेक का एक अर्थ सहारा अथवा आश्रय भी होता है। इसलिए रामटेक का अर्थ यह भी हो सकता है कि भगवान राम ने अपनी दक्षिणावर्त यात्रा काल में यहाँ कुछ क्षण विश्राम किया था।

रामटेक का अर्थ राम टेकड़ी भी है। यहाँ एक टेकड़ी अथवा छोटी पहाड़ी पर रामचंद्र जी का प्रसिद्ध मंदिर है। आरंभ में इस पहाड़ी को तपोगिरी कहते थे, जिसका शाब्दिक अर्थ है, तप की पहाड़ी। यहाँ अनेक साधू-संन्यासियों ने तप किया है।

अगस्त्य मुनि का आश्रम

आप सोच रहे होंगे कि श्री राम का यहाँ आने का क्या प्रयोजन था! यहाँ ऋषि अगस्त्य का आश्रम था। अपने १४ वर्षों के वनवास काल में श्री राम जी उनसे भेंट करने के लिए यहाँ आये थे।

रामटेक गढ़ मंदिर का प्रवेश द्वार
रामटेक गढ़ मंदिर का प्रवेश द्वार

आपने रामायण में पढ़ा होगा कि भारत के सघन वनों के भीतर विचरण करते हुए श्री राम ने अनेक असुरों का वध किया था। उन्होंने घने वनों के भीतर अपने आश्रम में साधना करते अनेक साधू-संतों को अभय व सुरक्षा का आश्वासन दिया था। दण्डकरण्य ऐसा ही एक सघन वन था। रामटेक इसका एक भाग था। इस क्षेत्र में विचरण करते असुर ऋषियों एवं साधकों को शांति से साधना नहीं करने देते थे।

ऋषि अगस्त्य से भेंट करने आये श्री रामचन्द्र जी को ऋषियों की यह दयनीय स्थिति ज्ञात हुई। तब उन्होंने धरती को उन असुरों से मुक्त करने की प्रतिज्ञा ली जिन्होंने अनेक ऋषियों का वध किया था। साथ ही उन्होंने असुरों द्वारा मारे गए ऋषियों के लिए यहाँ तर्पण भी किया था। इसके लिए उन्होंने भारत के सभी तीर्थों को अम्बाकुंड भोगवती में आमंत्रित किया था। वर्तमान में यह अम्बाला तालाब के नाम से जाना जाता है।

अगस्त्य मुनि की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ राजा की कन्या थी। विदर्भ क्षेत्र रामटेक के समीप स्थित है।

अगस्त्य मुनि ने श्री राम, देवी सीता एवं लक्ष्मण से प्रार्थना की थी कि वे तपोगिरी पर्वत पर ज्योति के रूप में विराजमान हो जाएँ। ऐसा माना जाता है कि अगस्त्य मुनि के आश्रम में जो ज्योत प्रज्ज्वलित है, वह वास्तव में त्रेता युग से विराजमान श्री राम, देवी सीता एवं लक्ष्मण का प्रतिरूप है।

श्री राम की दूसरी भेंट

अयोध्या के राजा का पदभार स्वीकार करने के पश्चात भगवान राम पुनः रामटेक आये थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार अयोध्या के रामराज्य में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अपने परिवार के ज्येष्ठ सदस्यों की मृत्यु से पूर्व नहीं होती थी। किन्तु एक दिवस श्री राम जी की आमसभा में एक व्यक्ति उपस्थित हुआ जिसके हाथों में उसके पुत्र का मृतदेह था। उसका आक्षेप था कि राज्य में कहीं अधर्म हो रहा है जिसके कारण उससे पूर्व उसके पुत्र का देहांत हो गया है। रामटेक के समीप शम्बूक नामक साधक सदेह स्वर्ग गमन हेतु तपस्या कर रहा था। उसे इस तप का अधिकार नहीं था। श्री राम ने रामटेक आकर शम्बूक को इस जीवन से मुक्त किया जिससे ब्राह्मण पुत्र पुनः जीवित हो उठा।

शम्बूक ने राम जी से प्रार्थना की कि वे सीता एवं लक्ष्मण समेत अपने राजावतार में उस पहाड़ी पर स्थाई हो जाएँ। श्री राम ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की।

इस यात्रा में श्री राम के साथ हनुमान जी भी आये थे। शम्बूक का वध करते समय हनुमान ने राम का धनुष धारण किया था तथा राम ने केवल तीर से शम्बूक का वध किया था। यहाँ हनुमान जी का एक मंदिर है जहाँ हनुमान जी को भगवान राम का धनुष धारण करते हुए दर्शाया गया है। कदाचित यही एक ऐसा मंदिर है जहाँ हनुमान की ऐसी प्रतिमा स्थापित है।

रामटेक पहाड़ी के मंदिर

रामटेक मंदिर रामटेक पहाड़ी पर स्थित है। यह गढ़ मंदिर के नाम से भी लोकप्रिय है क्योंकि इसकी संरचना एक गढ़ के समान है। यहाँ से चारों ओर के परिदृश्यों को निहारा जा सकता है। पहाड़ी पर चढ़कर जिस प्रवेश द्वार के द्वारा हम मंदिर में प्रवेश करते हैं, वह प्रवेश द्वार भी किसी राज गढ़ के प्रवेश द्वार सा प्रतीत होता है। कदाचित उन्होंने अयोध्या का प्रतिरूप बनाने की चेष्टा की होगी।

रामटेक का इतिहास

मुझे बताया गया कि ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान राम एवं अगस्त्य आश्रम की उपस्थिति दर्शाने के लिए यहाँ केवल राम पादुकाएं ही थीं। १२-१४ ई. में सर्वप्रथम यादव शासकों ने यहाँ एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान में जो मंदिर यहाँ उपस्थित है, उसका निर्माण १८वीं ई. में नागपुर के रघुजी भोंसले ने करवाया था। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार रघुजी भोंसले ने प्रतिज्ञा की थी कि देवगढ़ के युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात वे यहाँ एक मंदिर का निर्माण करवाएंगे।

गढ़ मंदिर का गोकुल द्वार
गढ़ मंदिर का गोकुल द्वार

मंदिर में भगवान राम, सीता एवं लक्ष्मण की प्राणप्रतिष्ठा करवाने के लिए रघुजी भोंसले ने जयपुर से उनकी प्रतिमाएं गढवा कर बुलवाई थीं। किन्तु उन्होंने अपने स्वप्न में देखा कि यहाँ स्थित तीनों की प्राचीन मूर्तियाँ सुर नदी के तल पर पड़ी हैं। शोध करने पर नदी के तल से तीन प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त भी हुईं। मंदिर के भीतर उन्ही तीन प्रतिमाओं को स्थापित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की गई थी। जयपुर से बुलवाई गयी मूर्तियों को मंदिर की संपत्ति के रूप में संग्रहीत कर रखा गया है।

रघुजी भोंसले ने गढ़ के अनुरूप इस मंदिर के चारों ओर भी प्राचीर की संरचना करवाई थी। यह वही काल था जब मंदिरों पर आक्रान्ताओं का आक्रमण एक सामान्य घटना थी। कदाचित इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मंदिर के चारों ओर भित्तियाँ बनवाई गई थीं।

इस मंदिर का निर्माण शिलाखंडों द्वारा हेमादपंती स्थापत्य शैली में किया गया है। इस शैली की विशेषता है, इसका उंचा शिखर एवं स्तंभों द्वारा अलंकृत मंडप।

गढ़ मंदिर

पहाड़ी के शिखर पर स्थित मुख्य मंदिर परिसर के भीतर अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं।

अगस्त्य मुनि प्रतिमा
अगस्त्य मुनि प्रतिमा

हम गोकुल द्वार से मंदिर के भीतर प्रवेश करते हैं। गोकुल द्वार को विपुलता से उत्कीर्णित किया गया है। उस पर एक विशाल घंटा लटका हुआ है। इसके दोनों ओर अलंकृत शैल स्तम्भ हैं। मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश करते ही प्रथम दृष्टि अगस्त्य आश्रम पर पड़ती है। एक श्वेत भित्ति पर लाल अक्षरों में इस स्थान से संबंधित पौराणिक कथा का अभिलेखन किया गया है।

गढ़ मंदिर राम मंदिर रामटेक
गढ़ मंदिर राम मंदिर रामटेक

आश्रम के भीतर एक अखंड ज्योत है जो इस स्थान का सर्वाधिक परम तत्व है। ऐसी मान्यता है कि यह ज्योत उस काल से अनवरत प्रज्ज्वलित है जब श्री राम रामटेक पधारे थे। यहाँ राधा-कृष्ण का भी एक मंदिर है। अनुमानतः, यह मंदिर कालांतर में निर्मित किया गया है।

लक्ष्मण मंदिर
लक्ष्मण मंदिर

आश्रम के पश्चात आपकी दृष्टि लक्ष्मण मंदिर पर पड़ेगी। साधारणतः लक्ष्मण को श्री राम एवं सीता माता के संग देखा जाता है। किन्तु यहाँ लक्ष्मण का मंदिर श्री राम एवं सीता माता के मंदिर के समक्ष स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे अब भी दंडकारण्य में उनका रक्षण कर रहे हैं।

गढ़ मंदिर की संरचना
गढ़ मंदिर की संरचना

लक्ष्मण मंदिर के पृष्ठभाग में मुख्य मंदिर स्थित है। राम-सीता का यह मंदिर छोटा अवश्य है किन्तु यह एक अत्यंत आकर्षक मंदिर है। इसका वृत्ताकार मंडप हमें गर्भगृह की ओर ले जाता है।

राम-सीता मंदिर के समक्ष एक हनुमान मंदिर एवं एक लघु गरुड़ मंदिर भी हैं।

पुष्कर के पश्चात, यह दूसरा स्थान है जहाँ मुझे एकादशी माता का मंदिर दृष्टिगोचर हुआ।

त्रिविक्रम मंदिर

यह एक प्राचीन मंदिर है जो पहाड़ी के वाहन स्थल के समीप स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए हमें पहाड़ी पर स्थित कच्ची पगडंडी पर कुछ दूर रोहण करना पड़ता है। यह एक मुक्ताकाश मंडप है। कुछ सोपान चढ़कर हम वहाँ तक पहुँचते हैं।

प्राचीन त्रिविक्रम मंदिर
प्राचीन त्रिविक्रम मंदिर

एक मुक्ताकाश चबूतरे पर त्रिविक्रम रूप में भगवान विष्णु की एक प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा खंडित होने के पश्चात भी आप देख सकते हैं कि विग्रह का दायाँ पैर उठा हुआ है। प्रथम दर्शनी यह प्रतिमा पकी मिट्टी (टेराकोटा) द्वारा संरचित प्रतीत होती है। किन्तु ध्यान से अवलोकन करते पर ज्ञात होता है कि इस प्रतिमा की रचना में लाल रंग के बलुआ शिला का प्रयोग किया गया है। यह एक स्थानीय शिलाखंड है। मैंने ऐसी शिलाएं नागपुर एवं उसके आसपास के अनेक मंदिरों में देखा है।

इन मंदिरों की निर्माण अवधि ५वीं शताब्दी के आरम्भ काल की आंकी गयी है। इसका अर्थ है कि ये मंदिर भारत के प्राचीनतम मंदिरों की सूची में सम्मिलित हैं।

सिन्दूर बावड़ी

यह एक विशाल बावड़ी है जिसके भीतर सोपान निर्मित हैं। यह उस स्थान पर स्थित है जहाँ आप अपने वाहन खड़ा करते हैं। इसका नाम सिन्दूर बावड़ी है। इस बावड़ी के एक ओर स्तंभ युक्त मंडप है।

इस बावड़ी का नाम सिन्दूर बावड़ी कदाचित इसलिए रखा गया है क्योंकि इसके आसपास पाए जाने वाले शिलाखंडों का रंग सिंदूरी है। मुझे यह भी बताया गया कि इस पहाड़ी का एक नाम सिन्दूर गिरी भी है। कदाचित बावड़ी के नाम की व्युत्पत्ति यहीं से हुई हो।

उग्र नरसिंह मंदिर

उग्र नरसिंह मूर्ति
उग्र नरसिंह मूर्ति

यह भी एक छोटा मंदिर है जिसे लाल बलुआ शिलाखंडों द्वारा निर्मित किया गया है। इसके भीतर अनेक शैल स्तंभ हैं। गर्भगृह के भीतर स्थापित उग्र नरसिंह की प्रतिमा इतनी विशाल है कि उसने गर्भगृह का लगभग सम्पूर्ण अंतराल ग्रहण कर लिया है। मंदिर के समक्ष एक लघु मंडप भी है।

मुख्य प्रतिमा के दोनों पार्श्वभागों में अन्य प्रतिमाएं रही होंगीं किन्तु उनके विषय में मुझे जानकारी प्राप्त नहीं हुई।

केवल नरसिंह मंदिर

यह एक छोटा सा मंदिर है जिसकी बाह्य भित्तियों पर आकर्षक शिल्पकारी की गयी है। प्रवेश द्वार के चौखट पर भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों को उकेरा गया है। एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित इस मंदिर में नरसिंह की लगभग दो मीटर ऊंची विशाल प्रतिमा है। इसके समक्ष स्थित मंडप में चार उत्कीर्णित शैल स्तंभ हैं।

प्राचीन केवल नरसिंह मंदिर
प्राचीन केवल नरसिंह मंदिर

इस मंदिर के समीप मुक्ताकाश के नीचे एक नाग मंदिर है जिसके समीप एक विशाल त्रिशूल रखा हुआ है।

समीप ही एक अन्य लघु मंदिर है जो एक ठेठ वाहन मंदिर है। इसके भीतर भी नरसिंह की वैसी ही प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा पर सिन्दूर का लेप है जिसके कारण लोग इसे हनुमान की मूर्ति समझ लेते हैं।

वराह मंदिर

वराह मंदिर
वराह मंदिर

गढ़ मंदिर जाते हुए आधी दूरी पार करते ही आप एक विस्तृत परिसर में विराजमान एक लघु मंदिर पर पहुँचेंगे। चार स्तंभों से युक्त चबूतरे पर वराह की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है।

एक प्रचलित मान्यता के अनुसार केवल सदाचारी धर्मभीरु व्यक्ति ही वराह के उदर के नीचे से उस पार जा सकता है।

रामटेक गढ़ मंदिर के उत्सव

यह अत्यंत स्वाभाविक ही है कि राम नवमी इस मंदिर का एक विशेष व महत्वपूर्ण उत्सव है।

राम नवमी के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण उत्सव कार्तिक चतुर्दशी के दिवस आयोजित जाता है। अर्थात् कार्तिक पूर्णिमा से एक दिवस पूर्व, जब मंदिर में कार्तिक उत्सव आयोजित किया जा रहा है। इस दिन भगवान शिव को तुलसी एवं भगवान विष्णु को बिल्व पत्र अर्पित किये जाते हैं। यह अनूठी अदला-बदली यह दर्शाती है कि शिव एवं विष्णु वास्तव में समरूप ही है।

कालिदास व रामटेक का संबंध

उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने अपने दरबार के राजकवि कालिदास को रामटेक भेजा था क्योंकि उनकी पुत्री का विवाह विदर्भ में हुआ था। रामटेक पहाड़ी पर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना, दूतकाव्य की रचना की थी। इस काव्य का नाम था, मेघदूत। इस काव्य रचना के आरम्भ में ही रामटेक पहाड़ी का उल्लेख किया गया है।

रामटेक स्थित कालिदास स्मारक
रामटेक स्थित कालिदास स्मारक

पहाड़ी पर नवनिर्मित कालिदास स्मारक उसी लोकप्रिय कवि कालिदास एवं उनकी प्रसिद्ध काव्य रचना मेघदूत का उत्सव मनाता है। ॐ के आकार में निर्मित इस स्मारक के कक्ष में अनेक चित्र प्रदर्शित है जो कालिदास की विभिन्न रचनाओं का चित्रण करते हैं। यहाँ एक मुक्ताकाश रंगशाला भी है। रंगशाला के चारों ओर की भित्तियों पर मेघदूत के विभिन्न दृश्यों को चित्रित किया गया है। बाह्य भित्तियों पर मेघदूत के सभी छंदों को उकेरा गया है।

यदि स्मारक स्थल की स्वच्छता एवं रखरखाव पर अधिक ध्यान दिया गया होता तथा इस स्मारक को जीवंत बनाने के अधिक प्रयास किये गए होते तो ये उस महान कवि के प्रति महान श्रद्धांजलि होती। यह मेरे द्वारा देखे गए सर्वाधिक अस्वच्छ स्थलों में से एक था। इस स्मारक के चारों ओर झाड़ियाँ उगी हुई थीं तथा सर्वत्र कूड़ा-करकट फैला हुआ था।

कालिदास जैसे महान कवि के लिए सुन्दर शैल स्मारक निर्माण करने का क्या प्रयोजन यदि उनकी रचनाएँ ना किसी पुस्तक की दुकान में दृष्टिगोचर होती हैं, ना ही किसी कथानक, नाटक अथवा चलचित्र में उनका चित्रण किया जाता है! आशा है कि महाराष्ट्र पर्यटन इसका संज्ञान ले तथा इस स्मारक की स्वच्छता एवं रखरखाव पर लक्ष केन्द्रित करे ताकि इसे एक लोकप्रिय व जीवंत स्मारक बनाया जा सके।

रामटेक एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यहाँ पर्याप्त संख्या में पर्यटक आते हैं। यदि यहाँ के परिदृश्यों को अधिक आकर्षक बनाया जाए, कुछ जलपान गृह खोले जाएँ तथा कुछ विशेष शिक्षण गतिविधियों को इसमें जोड़ा जाए तो रामटेक भ्रमण एक अद्वितीय अनुभव सिद्ध हो सकता है।

कपूर बावड़ी

रामटेक पहाड़ी की तलहटी पर स्थित कपूर बावड़ी अथवा कर्पूर बावड़ी एक प्राचीन बावड़ी है। इसके निकट एक मंदिर भी है जो इस समय जर्जर अवस्था में है। मुझे यह देख अत्यंत वेदना हुई कि पर्यटक इस मंदिर की जर्जर अवस्था से नितांत अन्यमनस्क हैं। मैंने अनेक लोगों को मंदिर के शिखर पर जूते-चप्पलों के साथ भी चढ़ते देखा। मुझे ये देख अत्यंत पीड़ा हुई।

कपूर बावड़ी रामटेक
कपूर बावड़ी रामटेक

बावड़ी में जल का स्तर अत्यधिक होने के कारण मैं मंदिर के दर्शन नहीं कर पायी थी। बावड़ी कमल के पुष्पों से सुशोभित थी। इस क्षेत्र में छोटे छोटे जलाशयों में सिंघाड़े की खेती सामान्य है। सिंघाड़े की खेती के साथ साथ कमल के पुष्पों की भी खेती की जाती है। यहाँ के मंदिरों में अर्पित करने के लिए ये कमल के पुष्प सर्वत्र उपलब्ध होते हैं।

एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि यह मंदिर भगवान शिव का है जो यहाँ कर्पुरेश्वर के रूप में स्थानस्थ हैं। वहीं एक अन्य व्यक्ति ने इसे सप्तमातृका मंदिर बताया। मुझे अचरज नहीं होगा यदि ये सभी यहाँ स्थानस्थ होंगे क्योंकि मैं इस भंगित संरचना में भी तीन मंदिर शिखर स्पष्ट रूप से देख पा रही थी। इसका अर्थ है कि यहाँ तीन मंदिर हैं।

बावड़ी के तीन पार्श्वभागों में तीन गलियारे हैं। कदाचित उन गलियारों के ऊपर भी मंदिर स्थित रहे होंगे। शिखर के शीर्ष पर बिठाए जाने वाला अमलका, कुछ खंडित मूर्तियाँ आदि यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं।

आशा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग शीघ्र ही पहल करे तथा इस मंदिर एवं बावड़ी के संरक्षण की दिशा में त्वरित कार्य करे। यह एक सुन्दर बावड़ी है। यदि इसका रखरखाव सुनिश्चित किया जाए तो यह अनेक पर्यटकों एवं भक्तों को आकर्षित कर सकता है।

कर्पूर बावड़ी के निकट एक प्राचीन शांतिनाथ जैन मंदिर भी है किन्तु मैं उसके दर्शन नहीं कर पायी थी।

रामसागर के अप्रवाही जल में कयाकिंग जैसी विभिन्न जलक्रीडाएं आयोजित की जाती हैं। आप उनका भी आनंद ले सकते हैं।

यात्रा सुझाव

रामटेक नागपुर से लगभग ५० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अतः यह देश के विभिन्न भागों से वायुमार्ग, रेलमार्ग अथवा सड़कमार्ग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से जुड़ा हुआ है।

इस पर्यटन स्थल का अवलोकन करने के लिए २-३ घंटों का समय आवश्यक है। जिन्हें इतिहास में रूचि हो, वे यहाँ एक से दो दिवस आसानी से व्यतीत कर सकते हैं। उनकी जिज्ञासु रूचि के लिए यह स्थान अनेक प्राचीन धरोहर स्थलों से संपन्न है।

पहाड़ी पर सीधे रोहण करने के लिए लगभग ७०० सोपान हैं। अन्यथा आप वाहन द्वारा पहाड़ी की तलहटी तक जा सकते हैं। वाहन स्थल से पहाड़ी के शीर्ष तक आपको लगभग १५० सोपान चढ़ने पड़ेंगे।

वाहन स्थल से मंदिर के प्रवेश द्वार तक, सम्पूर्ण मार्ग में अनेक दुकानें हैं जहाँ जलपान, स्मृति चिन्ह, पुष्प तथा अन्य पूजा सामग्री उपलब्ध हैं।

मुख्य मंदिर के बाह्य भागों में छायाचित्रीकरण की अनुमति है किन्तु मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण निषिद्ध है।

पहाड़ी पर वानरों का भी वास है। अतः साथ में खाने पीने की सामग्री हो तो सावधानी रखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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महाबलेश्वर – महाराष्ट्र का एक रमणीय पर्यटन स्थल https://inditales.com/hindi/mahabaleshwar-maharashtra-ke-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/mahabaleshwar-maharashtra-ke-paryatak-sthal/#respond Wed, 29 Mar 2023 02:30:51 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3016

महाबलेश्वर! यह नाम सुनते ही हमारा मस्तिष्क एक दिव्य एवं धार्मिक स्थल की कल्पना करते लगता है। मंदिरों से परिपूर्ण महाबलेश्वर को वास्तव में हिन्दुओं का एक तीर्थ स्थल कहा जा सकता है। साथ ही यह एक अत्यंत मनोरम पर्वतीय स्थल भी है जिसकी ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग १३७२ मीटर है। महाबलेश्वर एक विस्तृत […]

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महाबलेश्वर! यह नाम सुनते ही हमारा मस्तिष्क एक दिव्य एवं धार्मिक स्थल की कल्पना करते लगता है। मंदिरों से परिपूर्ण महाबलेश्वर को वास्तव में हिन्दुओं का एक तीर्थ स्थल कहा जा सकता है। साथ ही यह एक अत्यंत मनोरम पर्वतीय स्थल भी है जिसकी ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग १३७२ मीटर है।

महाबलेश्वर एक विस्तृत पठार है जो चारों ओर से घाटियों से घिरा हुआ है। महाबलेश्वर के ऊँचे ऊँचे पर्वत एवं हरियाली से ओतप्रोत घाटियाँ उन सभी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं जो मुंबई व पुणे जैसे महानगरों के प्रदूषण एवं कोलाहल से दूर एक शांत स्थल पर आकर कुछ क्षण आनंद से व्यतीत करना चाहते हैं।

यद्यपि महाबलेश्वर अपने रम्य परिदृश्यों, चिक्की एवं स्वादिष्ट झरबेरियों(strawberries) के लिए पर्यटकों में लोकप्रिय है, तथापि यह अनेक तीर्थयात्रियों को भी आकर्षित करता है। महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश एवं कर्णाटक में से बह कर जाने वाली कृष्णा नदी का उद्गम महाबलेश्वर के समीप पश्चिमी घाटों से ही होता है। कृष्णा की चार सहायक नदियों का उद्गम स्थल भी महाबलेश्वर ही है। कृष्णा नदी एवं महाबलेश्वर मंदिर के दर्शन करने की अभिलाषा से दूर सुदूर से अनेक यात्री यहाँ आते हैं।

महाबलेश्वर पुणे नगरी से लगभग १२० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सड़क मार्ग द्वारा महाबलेश्वर पहुँचना अत्यंत सुगम्य एवं सुविधाजनक है। सड़क मार्ग द्वारा प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाते हुए आप यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं।

महाबलेश्वर का इतिहास

महाबलेश्वर का इतिहास विशेष है। इतिहासकारों का मानना है कि महाबलेश्वर का उद्भव १२वीं सदी के आरंभिक वर्षों में हुआ था। जब देवगिरी के राजा सिंघण ने प्राचीन महाबलेश्वर के दर्शन किये थे तब उन्होंने कृष्णा नदी के उद्गम स्थल पर एक छोटा मंदिर तथा एक जलाशय का निर्माण कराया था। मंदिर में शिवलिंग की स्थापना कराई थी। चूँकि भगवान शिव को भगवान महाबली भी कहते हैं, यह नगरी का नामकरण महाबलेश्वर किया गया।

महाबलेश्वर महाराष्ट्र के पर्यटक स्थल
महाबलेश्वर महाराष्ट्र के पर्यटक स्थल

महाबलेश्वर मंदिर एवं कृष्णा नदी के उद्गम के कारण महाबलेश्वर एक हिन्दू तीर्थ स्थल था। अंग्रेजों ने इस रमणीय क्षेत्र को एक पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित किया। जनरल पीटर लुडविग एवं मुंबई के राज्यपाल सर जॉन मैल्कम के नेतृत्व में सन् १८२८ में यहाँ एक आरोग्य आश्रम की भी स्थापना की गयी। उस काल में महाबलेश्वर को अंग्रेज अधिकृत क्षेत्र माना जाता था। यहाँ तक कि कुछ वर्षों तक इस क्षेत्र का नामकरण भी ‘मैल्कम पेठ’ कर दिया गया था।

अंग्रेजी शासन ने इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए अनेक कार्य किये थे। सड़कों से लेकर विश्राम गृहों तक की सभी सुविधाओं का सुनियोजित ढंग से निर्माण कराया गया था। १९वीं सदी में यहाँ खुला कारावास सुधार केंद्र की स्थापना की गयी। चीन एवं मलेशिया के बंदियों को इन कारागृहों में रखा जाता था। मुक्त कारागृह में बंदी दोषियों को कोठरी में सदा के लिए बंद नहीं किया जाता था। अपितु दिवस भर उन्हें मजदूरी करने की छूट दी जाती थी ताकि वे सुधार के मार्ग पर अग्रसर हों तथा कुछ धन भी अर्जित कर सकें। इसी योजना के अंतर्गत उन्हें सड़क निर्माण परियोजना में मजदूरी करना, मक्के को पीसकर आटा तैयार करना, अंग्रेजी विश्राम गृहों के उद्यानों में आलू एवं अन्य भाजियों की खेती करना जैसे अनेक कार्यों में नियुक्त किया जाता था। आज इस कारागृह के स्थान पर लोक निर्माण विभाग का बंगला है। महाबलेश्वर ने शीघ्र ही बम्बई प्रेसीडेंसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी की उपाधि प्राप्त की।

महाबलेश्वर के लोकप्रिय दर्शनीय स्थल

महाबलेश्वर मंदिर

प्राचीन महाबलेश्वर मंदिर
प्राचीन महाबलेश्वर मंदिर

महाबलेश्वर मंदिर महाराष्ट्र के प्राचीन मंदिरों में से एक है। यह एक शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण १६वीं सदी में चंदा राव मोरे राजवंश ने करवाया था। इस मंदिर के चारों ओर १.५ मीटर ऊंची शैल भित्ति है। मंदिर के दो भाग हैं, गर्भगृह एवं सभा कक्ष। मंदिर परिसर में भगवान शिव से सम्बंधित अनेक वस्तुएं हैं, जैसे डमरू, त्रिशूल आदि। शिवलिंग के अतिरिक्त भगवान शिव, पवित्र नंदी बैल एवं कालभैरव की सुन्दर मूर्तियाँ भी हैं। महाबली ने नाम से लोकप्रिय इस शिव मंदिर में वर्ष भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। आपको इस मंदिर का वातावरण शांत व आध्यात्मिक प्रतीत होगा।

कर्णाटक के गोकर्ण में भी एक प्रसिद्ध महाबलेश्वर मंदिर है।

एलीफैंट हेड पॉइंट

यह महाबलेश्वर का सर्वाधिक देखा जाने वाला एवं लोकप्रिय आकर्षण स्थलों में से एक है। यह चट्टानी संरचना है जो हाथी के शीष एवं उसके सूंड जैसी प्रतीत होती है। इसे नीडल पॉइंट भी कहते हैं क्योंकि चट्टानों के मध्य स्थित छिद्र सिलाई की सुई का स्मरण कराता है। यह महाबलेश्वर के सर्वोत्तम अवलोकन स्थलों में से एक है। यहाँ से हरीभरी घाटियों एवं पर्वतों का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है।

गज आकृति में पहाड़ी
गज आकृति में पहाड़ी

नगरी भीड़-भाड़ एवं कोलाहल से कोसों दूर, ऊंचाई पर खड़े होकर शांत वातावरण का आनंद लेना एक अद्वितीय अनुभव होता है। यहाँ के उत्कृष्ट परिदृश्यों का आनंद उठाने के लिए सर्वोत्तम समय मानसून अथवा वर्षा ऋतु है क्योंकि इस समय सभी चट्टानें एवं घाटियाँ हरियाली से परिपूर्ण हो जाते हैं तथा इनका सौंदर्य कई गुना अधिक हो जाता है। वर्षा के पश्चात शीत ऋतु का आरम्भ होते ही यहाँ का वातावरण हराभरा होने के साथ अत्यंत सुखमय हो जाता है।

वेन्ना सरोवर

महाबलेश्वर का वेन्ना सरोवर
महाबलेश्वर का वेन्ना सरोवर

७-८ किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह सुन्दर सरोवर चारों ओर हरियाली से घिरा हुआ है। यहाँ पर्यटकों के आनंद के लिए अनेक गतिविधियाँ आयोजित की जाती हैं, जैसे सरोवर में नौका विहार, सरोवर के चारों ओर घोड़े पर सवारी, बच्चों के लिए छोटी रेलगाड़ी, झूले व हिंडोले आदि। ऐसा कहा जाता है कि इस सरोवर का निर्माण मूलतः नगर के स्थानिकों को जल आपूर्ति करने के उद्देश्य से किया गया था।

मैप्रो गार्डन

झरबेरियाँ अथवा स्ट्रॉबेरी
झरबेरियाँ अथवा स्ट्रॉबेरी

मैप्रो गार्डन केवल एक उद्यान नहीं है। यह एक बहुउद्देशीय संकुल है जिसके भीतर एक बड़े क्षेत्र में स्ट्रॉबेरी की खेती की जाती है। साथ ही इस संकुल में एक चॉकलेट कारखाना, विशाल मुक्तांगन जलपान गृह, बच्चों के लिए क्रीड़ा क्षेत्र, पौधशाला तथा एक खुदरा दुकान भी है जहां मैप्रो के सभी उत्पादों की विक्री की जाती है। मैप्रो गार्डन में प्रतिवर्ष ईस्टर सप्ताहांत के समय वार्षिक स्ट्रॉबेरी उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस उत्सव द्वारा वे इस क्षेत्र में स्ट्रॉबेरी की खेती को प्रोत्साहित करने का प्रयास करते हैं।

यहाँ के जलपानगृह में उपलब्ध अनेक प्रकार के व्यंजनों में स्ट्रॉबेरी की झलक विशेष रूप से दिखाई देती है। स्ट्रॉबेरी पिज्जा, स्ट्रॉबेरी भेल, स्ट्रॉबेरी शेक, स्ट्रॉबेरी क्रश क्रीम तथा अनेक ऐसे स्वादिष्ट व्यंजनों का आप यहाँ आस्वाद ले सकते हैं।

विल्सन पॉइंट

इसे सूर्योदय पॉइंट अथवा सूर्योदय अवलोकन स्थल भी कहते हैं। इसकी ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग १४३५ मीटर है। यह महाबलेश्वर का एक विशेष आकर्षण है। यहाँ से सूर्योदय का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है। उदय होता सूर्य एक अनोखी आभा बिखेरता है। यह महाबलेश्वर का उच्चतम बिंदु है। यह एक विस्तृत पठारी क्षेत्र है जहां तीन विभिन्न स्थानों पर तीन पर्यवेक्षण दुर्ग हैं। वहां से आप सम्पूर्ण महाबलेश्वर का विहंगम दृश्य देख सकते हैं।

आर्थर सीट

इस स्थान को महाबलेश्वर के आकर्षणों की रानी कहा जाता है। यहाँ से सावित्री नदी एवं ब्रह्मा अरायण की घनी घाटियों का मनमोहक दृश्य दिखाई पड़ता है। सावित्री नदी उन पांच नदियों में से एक है जिनका उद्गम स्थल महाबलेश्वर में है। आर्थर सीट हलके वस्तुओं को वायु में बहाने के लिए लोकप्रिय है। यदि आप प्लास्टिक बोतल के ढक्कन जैसी हल्की वस्तु को घाटी में फेंकेंगे तो वह घाटी में उपस्थित वायु के दबाव के कारण वापिस उड़कर आप तक आ जायेगी।

आर्थर सीट महाबलेश्वर
आर्थर सीट महाबलेश्वर

आर्थर सीट के नाम की पृष्ठभूमि में स्थित कथा दुखदायी है। इसका नाम यहाँ के प्रथम निवासी सर आर्थर मालेट के नाम पर रखा गया है। लोगों का कहना है कि उन्होंने अपनी पत्नी एवं पुत्री को सावित्री नदी में हुई एक नौका दुर्घटना में खो दिया था। ऐसा कहा जाता है कि उस दुर्घटना के पश्चात वे प्रतिदिन नदी के तट पर जाकर बैठते थे तथा दुखी मन से नदी को निहारते थे।

कनॉट पीक

कनॉट पीक महाबलेश्वर की दूसरी सर्वाधिक ऊंची चोटी है। औसत समुद्र सतह से इसकी ऊँचाई लगभग १४०० मीटर है। आरम्भ में इसका नाम माउंट ओलम्पिया था। कालांतर में इसका नाम कनॉट पीक कर दिया गया क्योंकि कनॉट के ड्यूक को इस स्थान से प्रेम हो गया था। यह स्थान वेन्ना जलाशय एवं कृष्णा घाटी के अप्रतिम दृश्यों के अवलोकन के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। यहाँ से सूर्यास्त का दृश्य भी आपके मन को मोहित कर देगा। आप यहाँ अवश्य आयें।

चाइनामैन फॉल

चाइनामैन फॉल महाराष्ट्र के सर्वाधिक आकर्षक जलप्रपातों में से एक है। महाबलेश्वर की यात्रा इस जलप्रपात के दर्शन के बिना अपूर्ण है। दो विभिन्न जलस्त्रोतों का जल एकत्र होकर एक जलप्रपात का निर्माण करता है। वर्षा ऋतु में इस प्रपात का दृश्य अद्भुत होता है। साथ ही वर्षा ऋतु में घाटी की हरियाली अपनी चरम सीमा पर होती है।

टेबल लैंड

टेबल लैंड पर्वत के ऊपर, समुद्र सतह से लगभग १३८५ मीटर ऊपर स्थित एक विस्तृत सपाट पठारी क्षेत्र है। ९५ एकड़ के क्षेत्रफल में फैला यह पठार लेटराइट चट्टानों से निर्मित है जिस पर घास की मोटी चादर बिछी हुई है। इसे एशिया का सबसे चौड़ा पर्वत पठार माना जाता है। यह स्थान पर्यटकों का आकर्षण बिंदु है। यहाँ से सूर्योदय एवं सूर्यास्त का अबाधित मनोरम दृश्य प्राप्त होता है। यहाँ से दिखते भव्य घाटियों के अप्रतिम दृश्य आपको मंत्रमुग्ध कर देंगे। यह स्थान घुड़सवारी, ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग, मेर्री-गो-राउंड, आर्केड गेम्स तथा मिनी रेल जैसे अनेक क्रियाकलापों के लिए प्रसिद्ध है। इस स्थान को प्रकृति की अप्रतिम अभिव्यक्ति कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

वेलोसिटी एंटरटेनमेंट

वेलोसिटी एंटरटेनमेंट महाबलेश्वर एवं विशेषतः पंचगनी का  विशालतम थीम मनोरंजन स्थल है। किसी भी पर्वत के ऊपर गो-कार्टिंग ट्रैक सम्पूर्ण भारत में केवल यहीं है। यहाँ भीतर एवं बाहर किये जाने वाले क्रीड़ाओं एवं क्रियाकलापों की भरमार है। सभी आयु के पर्यटकों के लिए यहाँ कुछ ना कुछ आयोजन अवश्य उपलब्ध है।

इन क्रियाकलापों में डैशिंग कार्स, गायरोस्कोप, गो-कार्टिंग, बास्केटबाल, एयर हॉकी, जोर्बिंग, मेर्री-गो-राउंड आदि सम्मिलित हैं। साथ ही यहाँ खाने-पीने के लिए अनेक प्रकार के जलपानगृह उपलब्ध हैं जहां आप दक्षिण भारतीय, पंजाबी, चीनी, इटली तथा अनेक अन्य प्रकार के व्यंजनों का आनंद ले सकते हैं। आनंद उठाते हुए आप यहाँ एक सम्पूर्ण दिवस आसानी से व्यतीत कर सकते हैं।

महाबलेश्वर से क्या खरीदें?

महाबलेश्वर में खरीददारी स्वयं में एक अनोखा अनुभव है। यहाँ की संकरी गलियों में अनेक दुकानें हैं जहां परिधानों से लेकर कोल्हापुरी चप्पल एवं चमड़े की विभिन्न वस्तुओं तक अनेक प्रकार की वस्तुएं उपलब्ध हैं। यहाँ उपलब्ध चमड़े की विभिन्न वस्तुओं की बड़ी मांग है। पर्यटक इसे खरीदे बिना नहीं जाते हैं। हस्तकला एवं हस्तशिल्प द्वारा निर्मित निरनिराली कलाकृतियाँ आपको सम्मोहित कर देंगी। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार की बेरियाँ एवं उनके द्वारा निर्मित जैम, शहद, जेली इत्यादि भी उपलब्ध हैं।

यह संस्करण IndiTales Internship Program के अंतर्गत अंशिका गर्ग द्वारा लिखा एवं इंडीटेल द्वारा प्रकाशित किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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सातारा के पर्यटन स्थल – धरोहर, झरने, जैवविविधता और सरोवर https://inditales.com/hindi/satara-maharashtra-ke-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/satara-maharashtra-ke-paryatan-sthal/#respond Wed, 28 Dec 2022 02:30:27 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=666

सातारा शहर के परिदृश्य सातारा सात पहाड़ियों से घिरा हुआ नगर है। महाराष्ट्र में बसे इस छोटे से नगर की परिधि निर्धारित करने वाले ये सात पहाड़ उसे उसका नाम प्रदान करते हैं – सातारा। लाक्षणिक रूप से यह नगर लंबे समय तक मराठों की राजधानी रहा है, जो महाराष्ट्र के अन्य प्रसिद्ध नगरों के […]

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सातारा शहर के परिदृश्य

सातारा सात पहाड़ियों से घिरा हुआ नगर है। महाराष्ट्र में बसे इस छोटे से नगर की परिधि निर्धारित करने वाले ये सात पहाड़ उसे उसका नाम प्रदान करते हैं – सातारा।

सातारा महाराष्ट्र
सातारा की संध्या

लाक्षणिक रूप से यह नगर लंबे समय तक मराठों की राजधानी रहा है, जो महाराष्ट्र के अन्य प्रसिद्ध नगरों के बीच उसे और भी महत्वपूर्ण बनाता है। सातारा महाराष्ट्र के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में से एक है।

सज्जनगढ़ दुर्ग

सज्जनगढ़ – यहाँ की सात पहाड़ियों में से एक है, जो पर्यटकों में बहुत लोकप्रिय है। जब हम इस पहाड़ी की ओर बढ़ रहे थे तो हमारे गाड़ी चालक हमे बार-बार बताए जा रहे थे कि इस पहाड़ी के ऊपर तक पहुँचने के लिए 200-300 सीढ़ियों की चढ़ाई करनी पड़ती है। जबकि मुझे तो वहाँ पर एक घुमावदार सड़क नज़र आ रही थी जो पहाड़ी के ऊपर तक जा रही थी।

सज्जनगढ़ दुर्ग
सज्जनगढ़ दुर्ग

जब हम वहाँ पहुंचे तो मुझे एहसास हुआ कि हम दोनों ही अपने-अपने स्थान पर सही थे। जो घुमावदार सड़क मैंने दूर से देखी थी वह दरअसल एक चौड़ा सा सीढ़ीमार्ग था जिसकी चढ़ाई करके आप ऊपर तक पहुँच सकते हैं। ये सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पास में आपको गणेश जी की अनेक मूर्तियाँ मिलेंगी जो आस-पास के अनेक गांवों से लाकर यहाँ पर स्थापित की गयी हैं। शायद ये मूर्तियाँ चढ़ाई करनेवाले यात्रियों के लिए प्रेरणा शक्ति का स्वरूप हो सकती हैं। इन सीढ़ियों को चढ़ते हुए आप आस-पास का सुंदर नज़ारा देख सकते हैं। चारों ओर स्थित पहाड़ियों के मिलन से उपजी घाटियों का वह दृश्य सच में बहुत ही खूबसूरत है।

हम इस पहाड़ी के ऊपर तक नहीं गए, जहाँ पर स्वामी रामदास की समाधि है। माना जाता है कि वे शिवाजी महाराज के निवेदन पर यहाँ आए थे।

प्रतीत होता है कि सज्जनगढ़ नाम इसे मुगल काल से प्राप्त हुआ होगा। इस जगह का मूल नाम आश्वल्य था जो पुरातन काल के साधू ऋषि आश्वलायन के नाम से व्युत्पन्न किया गया था, जो मान्यताओं के अनुसार यहाँ पर तप किया करते थे।

पवन चक्कियाँ

पवन चक्कियां
पवन चक्कियां

सातारा की पहाड़ियों पर यहाँ-वहाँ पवन चक्कियाँ देखी जा सकती हैं। अपने आप चल रहे ये बड़े-बड़े पंखे हमारे लिए बिजली उत्पन्न करते हैं। यहाँ के टूर गाइड्स आपको एक ऐसे स्थान पर ले जाते हैं जहाँ पर आप अपने आप को इन पवन चक्कियों के बीचोबीच खड़े पाते हैं और उन्हें नजदीक से देख भी सकते हैं।

सरोवर

यहाँ की अनेक छोटी-छोटी पहाड़ियों पर छितरे हुए जल स्रोत सातारा शहर के अनोखे परिदृश्य का विशिष्ट भाग है। कुछ जगहों पर आप इन पहाड़ियों से बह रहे छोटे-छोटे झरनों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, जिन्हें देखने के लिए ठहरे हुए यात्री उनकी प्रशंसा में संलगन दिखाई देते हैं। तो कुछ जगहों पर ये झरने पहाड़ियों के साथ लुका-छिपी खेलते हुए नज़र आते हैं और आपकी नज़र उनका पीछा करती हुई यहाँ-वहाँ दौड़ती रहती है।

सातारा के सरोवर
सातारा के सरोवर

संध्या के समय जब पूरे शहर की बत्तियाँ जल उठती हैं, तो पहाड़ी के ऊपर से नीचे बसे शहर का पूरा स्वरूप ही जैसे चांदनी में डूबा हुआ प्रतीत होता है। नीचे फैले हुए निवासित क्षेत्र, अंधेरे से घिरी हुई इन पहाड़ियों के बीच ऐसे चमक उठते हैं जैसे कोई चमकीला कटोरा जगमगा रहा हो। समय के विविध पड़ावों के अनुसार बदलते इन परिदृश्यों को देखना किसी मनोरम चलचित्र को देखने से कम नहीं है।

सातारा की हरियाली

सातारा की हरियाली
सातारा की हरियाली

जब हम पवन चक्कियाँ, ठोसेघर झरना, कास पठार और सज्जनगड की तरफ जानेवाली सड़कों से गुजर रहे थे, तो आस-पास की विविध घाटियों पर फैली हरियाली को हम चाह कर भी अनदेखा नहीं कर सकते थे। उनमें से कुछ घाटियों पर चरते हुए पशु नज़र आ रहे तो अन्य घाटियों पर दूर तक फैली फुलवारियाँ दिखाई दे रही थीं।

सातारा की घाटियाँ
सातारा की घाटियाँ

अगर आप कभी सातारा जाए तो इन सभी जगहों की सैर जरूर कीजिये।

महाराष्ट्र के इस छोटे से मनमोहक शहर का सबसे शोभायमन भाग है कास पठार। मुंबई और पुणे से कुछ ही घंटों की दूरी पर बसा हुआ सातारा शहर मनोरंजक यात्राओं के लिए सबसे उत्तम जगह है।

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माथेरान – महाराष्ट्र का एक विलक्षण पर्यटन स्थल https://inditales.com/hindi/matheran-mumbai-ke-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/matheran-mumbai-ke-paryatan-sthal/#respond Wed, 16 Nov 2022 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2867

माथेरान, महाराष्ट्र का एक लोकप्रिय सप्ताहांत गंतव्य। समुद्र तल से लगभग ८०० मीटर ऊँचाई पर पश्चिमी घाटों की गोद में बसा माथेरान मुंबई से ९० किलोमीटर तथा पुणे से १२० किलोमीटर दूर है। मुंबई एवं पुणे जैसे भीड़भाड़ भरे नगरों के दौड़ते जीवन से कुछ काल पलायन करने के लिए माथेरान एक उत्तम गंतव्य है। […]

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माथेरान, महाराष्ट्र का एक लोकप्रिय सप्ताहांत गंतव्य। समुद्र तल से लगभग ८०० मीटर ऊँचाई पर पश्चिमी घाटों की गोद में बसा माथेरान मुंबई से ९० किलोमीटर तथा पुणे से १२० किलोमीटर दूर है। मुंबई एवं पुणे जैसे भीड़भाड़ भरे नगरों के दौड़ते जीवन से कुछ काल पलायन करने के लिए माथेरान एक उत्तम गंतव्य है।

माथेरान एक छोटा सा किन्तु विलक्षण पर्वतीय कस्बा है जो प्रदूषण रहित स्वच्छ वातावरण में, नीले अम्बर के तले, हरियाली भरे परिदृश्यों के मध्य, कुछ सुन्दर क्षण शांति से व्यतीत करने के लिए उपयुक्त स्थान है। ऐसा माना जाता है कि यह सम्पूर्ण एशिया का इकलौता वाहन-मुक्त पर्वतीय पर्यटन स्थल है। माथेरान आपको उस काल का स्मरण करा देता है जब मिट्टी के पथों पर चलते घोड़े गाड़ियों के साथ हम एक सादगी भरा शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।

माथेरान का इतिहास

माथेरान का मराठी भाषा में अर्थ होता है, माथे पर स्थित वन। प्राप्त सूत्रों के अनुसार माथेरान का सर्वप्रथम उल्लेख १५वीं सदी में किया गया था। बहमनी सल्तनत ने उत्तर कोंकण प्रान्तों पर दृष्टि रखने के लिए मुरंजन दुर्ग का निर्माण कराया था। यह दुर्ग अब प्रबलगढ़ दुर्ग के नाम से जाना जाता है। बहमनी सल्तनत के पतन के पश्चात यह दुर्ग मुगलों के हाथों में चला गया। सन् १६५७ में छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर तथा इसके आसपास के क्षेत्रों पर अपना अधिपत्य जमाया। उस समय इस पर्वतीय स्थान पर धनगर (चरवाहा) जनजाति का निवास था।

छत्रपति शिवाजी महाराज मार्ग - माथेरान
छत्रपति शिवाजी महाराज मार्ग – माथेरान

कालांतर में, सन् १८५० में अंग्रेज ह्यू मालेट (Hugh Malet) ने इस स्थान की पुनः खोज की थी। Hugh Malet उस समय रायगढ़ के जिलाध्यक्ष थे। मुंबई के गवर्नर लॉर्ड एल्फिन्स्टन (Lord Elphinstone) ने पुनः इसकी नींव रखी थी। सन् १९०७ में श्री आदमजी पीरभाई ने माथेरान से नेरुल के मध्य मीटर गेज रेल मार्ग का निर्माण किया था।

माथेरान भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल

माथेरान भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल शिशिर ऋतु के नवम्बर मास से ग्रीष्म ऋतु के मई मास तक होता है। मिटटी के कच्चे मार्गों के कारण वर्षा ऋतु में माथेरान में भ्रमण कठिन होता है। साथ ही वर्षा में पैदा हुए जोंक की उपस्थिति निश्चित कष्टकर  होती है। यदि आप वर्षा ऋतु में माथेरान जाना ही चाहते हैं तो जोंक से निपटने की तैयारी रखें।

माथेरान की खिलौना रेल
माथेरान की खिलौना रेल

अधिकतर पर्यटक पर्वतीय पर्यटन स्थलों का भ्रमण सप्ताहांत में ही करते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में ऐसे स्थलों पर सप्ताहांत के अतिरिक्त ही जाना चाहिए। आप जिस पर्यटन स्थल में शांति की खोज में आये हैं, सप्ताहांत की भीड़ में वही स्थान आपको शांति के अतिरिक्त सब कुछ प्रदान करेगा। माथेरान की ओर जाते मार्ग पर, घाटों पर तथा दस्तूरी नाका, जहाँ वाहन खड़े किये जाते हैं, वाहनों का जमावड़ा आपकी असुविधा कई गुना बढ़ा देता है। अनेक अवसरों पर घाटों में वाहनों का जाम इतना अधिक होता है कि मार्ग खुलने में कई घंटे लग जाते हैं।

माथेरान कैसे पहुंचें?

मैंने मुंबई से टैक्सी ली थी। मेरा सुझाव है कि आप प्रातः शीघ्र ही, लगभग ६ बजे से पहले ही मुंबई से निकलें क्योंकि मुंबई के मार्ग प्रातः शीघ्र ही वाहनों से भर जाते हैं। मुंबई नगरी से बाहर होते ही कर्जत से नेरुल की ओर जाने वाले मार्ग पर जाएँ। नेरुल के पश्चात घाटों के मार्ग अत्यंत ढलुआ, लगभग ७० अंश, हो जाते हैं तथा अत्यंत सर्पिल भी हो जाते हैं। अतः आप अपनी टैक्सी वहीं छोड़कर वहाँ की ओम्नी गाड़ी किराये पर ले लें।

माथेरान का मानचित्र
माथेरान का मानचित्र

यदि आप स्वयं की गाड़ी से यहाँ आये हैं तब भी या तो आप अपनी गाड़ी वहाँ छोड़कर वहाँ की ओम्नी गाड़ी किराये पर ले लें अथवा अपनी गाड़ी के लिए किसी स्थानिक वाहन चालक की सेवा लें। दस्तूरी नाके तक चढ़ने के लिए पर्वतीय मार्गों में वाहन चलाने में अभ्यस्त चालकों पर ही निर्भर रहने में भलाई है।

छोटी लाइन की रेल/टॉय ट्रेन

एक विकल्प है कि आप वाहन द्वारा मुंबई से नेरुल पहुंचें तथा नेरुल से माथेरान टॉय ट्रेन या छोटी लाइन की रेल गाड़ी से जाएँ। अधिक भीड़ ना हो तो यह एक अत्यंत आनंददायक व मनोरंजक यात्रा होती है। किन्तु आप उसकी समयसारिणी पूर्व में ज्ञात कर लें तथा उसके अनुसार ही स्थानक पर पहुंचें। यह टॉय ट्रेन नेरुल से माथेरान के मध्य दोनों ओर चलती है। यह यात्रा लगभग ३० मिनटों की होती है। इसकी टिकिटें आप ऑनलाइन नहीं ले सकते। इसकी टिकिटें आप ट्रेन छूटने से पूर्व वहीं कतार में लग कर ही क्रय कर सकते हैं।

दूसरा विकल्प है कि आप नेरुल ना रुकते हुए वाहन द्वारा सीधे अमन लॉज तक जाएँ तथा वहाँ से टॉय ट्रेन या छोटी लाइन की रेल गाड़ी से माथेरान जाएँ। दस्तूरी नाके पर पहुंचकर आप पार्किग स्थल पर अपना वाहन खड़ा कर दें। यह पार्किंग स्थल बंदरों के उत्पात के लिए कुख्यात है। आप अपने सामान का ध्यान रखें अन्यथा वे उन्हें खींच कर ले जा सकते हैं। अपना जलपान व्यवस्थित रूप से बैग में छुपा कर रखें। वे मेरा बैग भी खींचना चाहते थे। किसी प्रकार से मैंने उन्हें भगाकर अपना बैग बचाया था। मुझे सावधान रहना चाहिए था।

दस्तूरी नाके से लगभग ४०० मीटर चलकर आप अमन लॉज पहुंचते हैं। वहाँ महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम का विश्राम गृह है। वहाँ के जलपान गृह में आप चाय पी सकते हैं। माथेरान से नेरुल के मध्य चलती टॉय ट्रेन के लिए एक स्थानक अमन लॉज भी है। माथेरान पहुँचने के लिए आप यहाँ से घोड़ा ले सकते हैं, हाथगाड़ी ले सकते हैं अथवा टॉय ट्रेन में चढ़ सकते हैं। अमन लॉज से माथेरान तक की यात्रा के लिए टॉय ट्रेन में लगभग १५ मिनट लगते हैं। जिस दिन मैं वहाँ पहुँची थी, टॉय ट्रेन के लिए टिकिट समाप्त हो गए थे। अतः मैंने घोड़ा किराये पर लेने का निश्चय किया। घोड़े एवं हाथगाड़ी के लिए भिन्न भिन्न शुल्क हैं। आपके विश्राम गृह में भी यह शुल्कसूची उपलब्ध होगी।

ट्रेक/पदयात्रा

यदि आप माथेरान तक पदयात्रा करना चाहते हैं तथा आपके पास सामान अधिक है तो आप एक कुली ले लें। आपकी गति के अनुसार यह पदयात्रा ४५ मिनट से एक घंटे का समय ले सकती है। मार्ग अधिक ढलुआ नहीं है। चढ़ाई अत्यंत सौम्य है। केवल एक समस्या है कि यह पूर्ण रूप से पक्की सड़क नहीं है। कहीं पक्की सड़क है तो कहीं पर लाल लेटराइट शिलाएं बिठाई हुई हैं। अतः पदयात्रा करने की योजना हो तो पदयात्रा के लिए उपयुक्त जूते पहनें। इन सब बाधाओं से सफलता पूर्वक निपट लें तो यह पदयात्रा अत्यंत आनंददायक एवं सन्तुष्टिप्रदायक होती है। घने वन की छाया व शीतल वायु की औषधी, घंटे भर की पदयात्रा में होनी वाली थकान को हमारे मन मस्तिष्क पर अभिभूत नहीं होने देते। केवल पत्थरों एवं घोड़ों की लीद से बचकर चलें।

माथेरान में कहाँ ठहरें?

माथेरान में ठहरने के लिए अनेक उत्तम विकल्प हैं। आपकी व्ययसीमा एवं भ्रमण योजना के अनुसार आप उनमें से योग्य विश्रामगृह का चयन कर सकते हैं। माथेरान पर्यटन स्थल की यह विशेषता है कि यहाँ के लगभग सभी रिसोर्ट व होटल लगभग सभी पर्यटकों की व्ययसीमा के भीतर हैं। कुछ रिसोर्ट ऐसे हैं जहां ठहरने एवं सभी भोजन के साथ साथ मनोरंजन भी शुल्क में सम्मिलित होते हैं।

रिसोर्ट या होटल निश्चित करने से पूर्व उसकी मुख्य माथेरान बाजार से दूरी देख लें। अन्यथा आप जब जब मुख्य नगरी जाएँ तो आपको व्यर्थ ही लम्बी दूरी पैदल पार करनी पड़ेगी । मेरा रिसोर्ट मुख्य नगरी से दूर था। हरे भरे परिवेश में मुख्य बाजार तक पैदल चलना सुखद प्रतीत होता है किन्तु इसकी अति भी असहनीय हो जाती है।

माथेरान के दर्शनीय स्थल

माथेरान में एवं उसके आसपास अनेक दर्शनीय स्थल हैं। यहाँ तीन प्रमुख भ्रमण मार्ग हैं। पहला मार्ग दक्षिण में एलेग्जेंडर पॉइंट से रामबाग पॉइंट, वन ट्री हिल एवं ओलिम्पिया रेस कोर्स होते हुए बेल्वेडेर पॉइंट पर समाप्त होता है।

दूसरा मार्ग पश्चिम में लॉर्ड्स पॉइंट से आरम्भ होकर लुईसा पॉइंट पर समाप्त होता है।

तीसरा मार्ग सबसे अधिक लम्बा है। वह पश्चिम में मलंग पॉइंट से आरम्भ होकर उत्तर में पोर्क्युपाईन पॉइंट पर समाप्त होता है। यदि आप ट्रेकिंग में रूचि रखते हैं तथा उससे अभ्यस्त हैं तो आप पैनोरमा पॉइंट तक ट्रेक करके जा सकते हैं।

माथेरान में लगभग ३८ अवलोकन बिंदु हैं। उनमें पैनोरमा पॉइंट, लुईसा पॉइंट, वन ट्री हिल, हार्ट पॉइंट, मंकी पॉइंट, पोर्क्युपाईन पॉइंट तथा रामबाग पॉइंट सम्मिलित हैं। ये अवलोकन बिंदु सम्पूर्ण माथेरान में पसरे हुए हैं। यद्यपि सभी स्थानों में घोड़े उपलब्ध हैं, तथापि मेरा सुझाव है कि आप पैदल जाएँ। कुछ कुछ अंतराल पर जलपान गृह उपलब्ध हैं। इन्टरनेट, संचार सुविधाओं में कमतरता के कारण, लगभग सभी स्थानों में नगद भुगतान करना पड़ता है। इन अवलोकन बिन्दुओं तक जाने में असुविधा ना हो, इसके लिए इस क्षेत्र का मानचित्र साथ रखें।

माथेरान रेल स्थानक

आपको आश्चर्य होगा लेकिन यह सत्य है कि माथेरान के दर्शनीय स्थलों में प्रथम नाम माथेरान रेल स्थानक का है। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। माथेरान रेल स्थानक मुख्य बाजार में स्थित है। यह एक निराला रेल स्थानक है जिसकी पुरातनता आकर्षित करती है। इसमें केवल दो मीटर गेज की लाइनें हैं। यदि आपको रेलों में रूचि है तो आप रेल के इंजन भी देखिये। सन् २००५ की बाढ़ में इन लाइनों को भारी क्षति पहुँची थी। अनवरत सुधार एवं नवीनीकरण के पश्चात इन लाइनों को २००७ में पुनः कार्यान्वित किया गया। शिमला, दार्जीलिंग एवं ऊटी के टॉय ट्रेनों के विपरीत माथेरान रेल अब तक यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में अपना नाम अंकित नहीं कर पाया है।

हाट की गलियाँ

रेल स्थानक के चारों ओर माथेरान का हृदय बसता है, जी हाँ, यह माथेरान का हाट या बाजार है। आप जब यहाँ भ्रमण करेंगे, आपको अनेक दुकानें, क्रीड़ा स्थल, जलपानगृह, कैफे, होटल आदि दिखाई देंगे। कई पर्यटक ऐसे हैं जिन्हें हाट के आसपास ठहरना रुचिकर लगता है। वे यहाँ संध्या के पश्चात भी आसानी से भ्रमण कर सकते हैं। सांयकालीन बाजार की दुकानें ६ बजे से रात ११ बजे तक खुली रहती हैं। यहाँ की चहल-पहल देखने एवं अनुभव करने योग्य है।

माथेरान की हाट गली
माथेरान की हाट गली

सप्ताह के दिवसों में सभी दुकानें नहीं खुलती हैं। क्योंकि माथेरान में अधिकतर पर्यटक सप्ताहांत में ही आते हैं। यदि आप सप्ताह के दिनों में यहाँ आते हैं, तब भी आप यहाँ की वैशिष्ठ्य पूर्ण स्मारिकाएं क्रय कर सकते हैं तथा स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद ले सकते हैं। मैंने सप्ताह के दिनों में माथेरान आना अधिक योग्य जाना था तथा मैंने भी स्थानीय व्यंजनों का भरपूर आस्वाद लिया था।

एक विशेष वस्तु है जो केवल माथेरान में ही उपलब्ध है। नन्हा सा जूता जिसे आप भित्ति पर चिपका सकते हैं। बचे-खुचे चमड़े से बनाए गए ये रंगबिरंगे जूते अंगुली के आकार के होते हैं  तथा अत्यंत सुन्दर दिखते हैं। आपके उपयोग के लिए यहाँ उत्तम गुणवत्ता के चमड़े के जूते भी बिकते हैं। चमड़े द्वारा निर्मित अन्य वस्तुएं भी उत्तम दरों में उपलब्ध हैं, जैसे बेल्ट आदि। मुझे मीठा खाना भाता है। इसलिए मैंने यहाँ से चॉकलेट एवं भिन्न भिन्न स्वादों की चिक्की क्रय की। यहाँ चिक्की, फज, जुजुब्स तथा अंजीर मिठाई आदि की अनेक दुकानें हैं।

शार्लोट झील

मैं जब भी उत्कृष्ट परिदृश्यों के चित्र देखती थी तो सोचती थी कि क्या वास्तव में ऐसे मनोरम स्थल कहीं होते हैं! शार्लोट झील ऐसा ही एक अप्रतिम मनोरम स्थान है। मैं यहाँ तक कहना चाहूंगी कि उन चित्रों में से कोई भी परिदृश्य शार्लोट झील के परिदृश्य को मात नहीं दे सकता। इसका निर्मल स्वच्छ जल, नीला आकाश तथा चारों ओर से इसको घेरते वृक्षों की हरियाली अप्रतिम दृश्य प्रस्तुत करते हैं।

शार्लट झील
शार्लट झील

स्थानीय जनता के पेयजल की आपूर्ति के लिए शार्लोट झील का जल प्रमुख स्त्रोत है। इसलिए इसमें उतरना, तैरना अथवा इस प्रकार का कोई भी क्रियाकलाप निषिद्ध है। शार्लोट झील के लिए जल का स्त्रोत एक बाँध है। झील तक पहुँचने का मार्ग घने वन से होकर जाता है। यह उन पर्यटकों के लिये आदर्श स्थल है जो प्रकृति के सानिध्य में कुछ क्षण शान्ति से व्यतीत करना चाहते हैं। घने वन में आपको अनेक पक्षियों के भी दर्शन होंगे।

पिशरनाथ महादेव मंदिर

पिशरनाथ मंदिर
पिशरनाथ मंदिर

शार्लोट झील से कुछ आगे बढ़ते ही एक पुरातन मंदिर है, पिशरनाथ महादेव मंदिर। वे माथेरान के अधिष्ठात्र देवता है। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग को स्वयंभू लिंग माना जाता है। अन्य मंदिरों के विपरीत इस मंदिर में शिवलिंग पर सिन्दूर का लेपन किया जाता है।

श्री पिशरनाथ महादेव मंदिर
श्री पिशरनाथ महादेव मंदिर

ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर यहाँ पर अनादि काल से है। पर्यटन बिन्दुओं के मध्य स्थित होने के पश्चात भी जब मैंने मंदिर के भीतर प्रवेश किया, मुझे निस्तब्धता का, पूर्ण शान्ति का अनुभव हुआ। वह अनुभव ऐसा था मानो यह धरती कुछ क्षणों के लिए गतिविहीन हो गयी हो।

ओलिम्पिया रेस कोर्स

माथेरान में सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन बिन्दुओं में एक है, ओलिम्पिया रेस कोर्स। यह एक धरोहर संरचना है जहां आज भी घोड़ों की दौड़ का आयोजन किया जाता है। मैंने फरवरी के अंत में माथेरान का भ्रमण किया था। तब वहां घुड़दौड़ के अनेक आयोजन हो रहे थे। किन्तु मेरे पास समय की कमी होने के कारण मैं वहां नहीं जा पायी।

होली क्रॉस गिरिजाघर

जब अंग्रेजों ने माथेरान की पुनः खोज की थी, तब सन् १८५३ में इस होली क्रॉस गिरिजाघर की स्थापना की गयी थी। सन् १९०६ में इसका नवीनीकरण भी किया गया था। सन् १९४७ तक यहाँ एक रहवासी पादरी थे। इसके पश्चात भायखला, मुंबई के आवर लेडी ऑफ ग्लोरी गिरिजाघर के पादरियों ने इस गिरिजाघर में सेवायें प्रदान करना आरंभ किया।

माथेरान में ट्रैकिंग/ पदभ्रमण

यदि आप एक अनुभवी ट्रेकर हैं तो आप प्रबलगढ़ एवं विकटगढ़ तक की पदयात्रा या ट्रैकिंग कर सकते हैं। इन दोनों दुर्गों का मराठा शासन काल में महत्वपूर्ण स्थान था। प्रबलगढ़ दुर्ग का प्रयोग कूटनीतिक सैन्य अभियानों में किया जाता था। वहीं, विकटगढ़ का प्रयोग अनाज संग्रहण के लिए किया जाता था।

प्रबल्गढ़ दुर्ग
प्रबल्गढ़ दुर्ग

ट्रेकिंग करने के लिए गाइड उपलब्ध हैं जो आपका मार्गदर्शन करते हुए आपको इच्छित दुर्ग तक ले जाकर वापिस ले आयेंगे। माथेरान की तलहटी पर कुछ आदिवासी गाँव हैं। आप चाहें तो इन गाँवों के दर्शन कर सकते हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्पराओं को जानने व समझने का प्रयत्न कर सकते हैं तथा स्थानीय हस्तशिल्प की वस्तुओं का क्रय कर सकते हैं।

माथेरान पर्वतीय क्षेत्र के मूल निवासी

मैंने जब से यात्राएं आरम्भ की हैं, मैंने इससे पूर्व कभी इतने विनम्र एवं सादे-सरल लोग नहीं देखे, जो मैंने यहाँ देखे। हाथगाड़ी हांकने वाले से लेकर दुकानदार तक, सभी इतने समंजक व मिलनसार प्रतीत हुए। वे सभी पर्यटकों की सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे। अधिकतर निवासी वारली, ठाकर एवं कातकरी जनजाति के लोग हैं जो माथेरान के पर्वतों की तलहटी में स्थित, पास के गाँवों में रहते हैं। वे प्रतिदिन दो घंटे पहाड़ी रास्तों से चढ़ते हुए माथेरान पहुँचते हैं तथा अपना दैनिक व्यावसायिक क्रियाकलाप करते हैं।

माथेरान में इकलौता वाहन जो मैंने देखा, वह एक रुग्णवाहिका थी। यहाँ एक सर्व सुविधा संपन्न अस्पताल भी है। अब तक शहरी वातावरण की चकाचौंध में मैं धुंधले आकाश को देखने में अभ्यस्त थी। माथेरान के स्वच्छ वातावरण में तारों से भरे आकाश को देखना मेरे लिए एक अद्भुत अविस्मरणीय अनुभव था। यह एक ऐसी नगरी है जहां पुरातनता का आधुनिकता से मेल होता है। यहाँ आकर आप अपने ऊपरी आडंबरों से मुक्त होकर भीतरी शान्ति को अनुभव कर सकते हैं।

यह संस्करण IndiTales Internship Program के लिए अक्षया विजय ने लिखा है तथा इंडीटेल ने प्रकाशित किया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मुम्बा देवी की मुंबई – नगर के प्राचीन मंदिरों की यात्रा https://inditales.com/hindi/mumba-devi-mumbai-ke-prachin-mandir/ https://inditales.com/hindi/mumba-devi-mumbai-ke-prachin-mandir/#comments Wed, 23 Mar 2022 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2624

अनुराधा गोयल – मुंबई निवासी भरत गोठोसकर मेरे घनिष्ठ मित्र हैं जो मुंबई के धरोहरों से सम्बंधित मेरी सभी जिज्ञासाओं को सहर्ष व अविलम्ब शांत करते रहते हैं। हमारी प्रथम भेंट पर वे मुझे लोअर परेल ले गए थे जहां उन्होंने मुझे मुंबई के प्राचीन इतिहास से सम्बंधित एक अप्रतिम शिल्प दिखाया था। मेरी पिछली […]

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अनुराधा गोयल – मुंबई निवासी भरत गोठोसकर मेरे घनिष्ठ मित्र हैं जो मुंबई के धरोहरों से सम्बंधित मेरी सभी जिज्ञासाओं को सहर्ष व अविलम्ब शांत करते रहते हैं। हमारी प्रथम भेंट पर वे मुझे लोअर परेल ले गए थे जहां उन्होंने मुझे मुंबई के प्राचीन इतिहास से सम्बंधित एक अप्रतिम शिल्प दिखाया था। मेरी पिछली मुंबई यात्रा के समय मुम्बा देवी मंदिर के दर्शन की मेरी तीव्र अभिलाषा थी। तब भी भरत ही मुझे वहां ले गए थे। दर्शन के पश्चात वे मुझे मंदिर के समीप के क्षेत्र में पदयात्रा के लिए ले गए। उन्होंने मुझे जो दिखाया, उसने मुझे विस्मित कर दिया था. मैंने मुंबई की परतों के भीतर स्थित वह मंदिर नगरी देखी जिसका अस्तित्व मेरे लिए लुप्त हो चुका था। वे सदा मुझे मुंबई के उन आयामों के दर्शन कराते रहे हैं जिनका मुझे अनुमान तक नहीं होता है। इसीलिए आज मैंने उनसे अनुरोध किया है कि वे हमें मुंबई के उस भाग के विषय में बताएं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं। भरत, आज की चर्चा में आपका स्वागत है।

मुंबई के मंदिरों की खोज

अनुराधा – भरत, आज की चर्चा का आरम्भ हम मुम्बा देवी से करते हैं जिन्होंने मुंबई को अपना नाम प्रदान किया है। हमें उनके मंदिर, उसका इतिहास एवं मुंबई से उनके संबंधों के विषय में कुछ जानकारी दें।

मुंबई स्थित मुम्बा देवी मंदिर
मुंबई स्थित मुम्बा देवी मंदिर

भरत – कई लोगों को ऐसा भ्रम है कि सन् १९९५ में बॉम्बे का नाम परिवर्तित कर मुंबई रख दिया है। यह सही नहीं है। यह द्वीप लगभग १२वीं या १३वीं सदी से ही मुंबई के नाम से जाना जाता रहा है। इस नाम की पृष्ठभूमि में एक अत्यंत रोचक कथा है। किवदंतियों के अनुसार यहाँ के निवासियों ने देवी से प्रार्थना की थी कि वे मुम्बारख राक्षस से उनकी रक्षा करें। चूंकि देवी ने मुम्बारख राक्षस से उनकी रक्षा की थी, भक्तगण उन्हें मुम्बा देवी के नाम से पुकारने लगे। अतः मुम्बारख की संहारक मुम्बा देवी कहलाई।

यह अत्यंत रोचक है कि दिल्ली के सुलतान मुबारक शाह को ही स्थानिक मुम्बारख राक्षस मानते थे। अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था। लोगों की श्रद्धा है कि देवी ने ही उनकी रक्षा की थी। अतः, दिल्ली रियासत का भी मुंबई नाम से कुछ सम्बन्ध अवश्य है।

मूल मुम्बा देवी मंदिर

मुम्बा देवी की मनोहर मूर्ति
मुम्बा देवी की मनोहर मूर्ति

मूल मंदिर लगभग उसी स्थान पर स्थित था जहां अब छत्रपति शिवाजी महाराज रेल स्थानक स्थित है। उस काल में यह औपनिवेशिक बॉम्बे नगर में, बाजार द्वार के ठीक बाह्य भाग में स्थित था। इस क्षेत्र की स्वच्छता के समय उन्होंने इसे वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित किया था जो मूल नगरी है। दुर्ग क्षेत्र श्वेत नगर था जहां अंग्रेज निवास करते थे। स्थानीय निवासी दूसरी ओर निवास करते थे जिसे मूल नगर माना जाता है। अतः, क्रोफर्ड बाजार के उत्तर में मुम्बा देवी ने अपना नवीन स्थान निश्चित किया। मुम्बा देवी का नवीन मंदिर दो सौ वर्ष प्राचीन है।

अनुराधा – जी। तो बॉम्बे अथवा बम्बई नाम कैसे पड़ा?

भरत – इसके पृष्ठभाग में कई अनुमान हैं। कुछ का मानना है कि बम्बई शब्द की युत्पत्ति बोम्बाया शब्द से हुई है जो एक पुर्तगाली शब्द है। इसका अर्थ “अच्छी खाड़ी’ होता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार, इस क्षेत्र में बिम्बस्थान नामक एक राजा था जिसका सात द्वीपों पर साम्राज्य था तथा माहिम में उसकी राजधानी थी। कदाचित बिम्बस्थान शब्द ही अपभ्रंशित होता हुआ बॉम्बे में स्थिर हो गया। कुछ प्राचीन पुर्तगाली मानचित्रों में इस नगर को मुम्बईम के नाम से दर्शाया गया है। इस प्रकार बॉम्बे अथवा बम्बई से सम्बंधित अनेक सिद्धांत हैं किन्तु उनसे सम्बंधित लिखित अभिलेख नहीं हैं।

अनुराधा – आपके साथ इस क्षेत्र के भ्रमण के पश्चात मैंने मुंबई से सम्बंधित कुछ शोध किया था। तब मुझे मुम्बा देवी महात्म्य के विषय में ज्ञात हुआ।

भरत – जी हाँ। उसी ग्रन्थ में मुम्बारख राक्षस एवं उसकी कथा का उल्लेख है।

मुम्बा देवी मंदिर के आसपास अन्य मंदिर

अनुराधा –क्या आप मुम्बा देवी मंदिर के आसपास स्थित मंदिरों के विषय में बताएँगे, जो आपने मुझे दिखाए थे?

भरत –  आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि मुम्बा देवी मंदिर से भी अधिक प्राचीन कुछ मंदिर थे जिन्हें अन्यत्र स्थानांतरित किया गया था। गोवा राज्य के समान, उन मंदिरों को भी पुर्तगाली साम्राज्य में नष्ट किया गया था। उसी प्रकार, मुंबई के उत्तर में वसई से लेकर दमन तक तथा दक्षिण में अलीबाग तक के क्षेत्र पुर्तगालियों के अधीन थे। उस काल में अनेक मंदिरों को नष्ट किया गया था तथा अंग्रेजी शासनकाल में उनका पुनर्निर्माण किया गया था।

अधिकाँश मंदिरों का निर्माण ५० वर्ष पूर्व किया गया था जिनमें भूलेश्वर जैसे क्षेत्र के आकर्षण प्राचीन मंदिर भी सम्मिलित हैं। भुलेश्वर तीन सौ वर्ष प्राचीन एक भव्य मंदिर है। इसमें एक सुन्दर नगारखाना है। प्रवेश द्वार पर उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित एक कक्ष है जहां संगीतज्ञ विराजमान होते थे। महल अथवा हवेली का प्रवेशद्वार भव्य होता है। किसी भी अनुष्ठान के समय, गणमान्य व्यक्तियों एवं भक्तगणों के प्रवेश करने से पूर्व नगारखाने में वाद्ययंत्र बजाये जाते थे। भुलेश्वर का नगारखाना भी अत्यंत आकर्षक है जिस पर की गयी शिल्पकारी नासिक, गुजरात अथवा खानदेश की शैली के समान है।

स्थापत्य

मंदिर नागर स्थापत्य शैली में निर्मित है जो एक उत्तर भारतीय स्थापत्य शैली है। सभा मंडप ढलुआ लौह स्तंभों से युक्त है। मुंबई विभिन्न संस्कृतियों तथा व्यक्तित्वों का सर्वदेशीय मिश्रण है। यही उसकी स्थापत्य शैली के विषय में भी कहा जा सकता है। इसका प्रवेश द्वार पुर्तगाली तोरण के समान है जिस पर गुजरात शैली का नगारखाना है। विभिन्न शैलियों का बेमेल सम्मिश्रण ही इस मंदिर की विशेषता है।

जवेरी बाजार में स्थित मुम्बा देवी का मंदिर प्रमुख मंदिर है। समीप ही, कपड़ा मंडी में कालबा देवी अथवा कलिका देवी का मंदिर है। भूलेश्वर में अनेक संकरी तथा अत्यंत भीड़भरी गलियाँ हैं, जैसे फूल गली, चाँदी गली तथा पापड़ गली। किन्तु उनमें कुछ अत्यंत आकर्षक मंदिर हैं।

मोटा मंदिर

इनमें से मेरा सर्वाधिक प्रिय मंदिर है, मोटा मंदिर, जो ढाई एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। मुंबई जैसे नगर में ढाई एकड़ की भूमि पर एक मंदिर का होना स्वयं में विशेष है। कृष्ण को समर्पित, ढाई सौ वर्ष प्राचीन यह मंदिर वास्तव में एक राजमहल है जहां उनके बालरूप की आराधना की जाती है। प्रातः से रात्रि तक उन्हें लोरी गाकर सुलाया व उठाया जाता है। उन्हें छप्पन भोग अर्पित किये जाते हैं। उनकी गायों को चराने के लिए घास के मैदान हैं। विशेष आयोजनों में यहाँ कृष्ण भगवान की राजसभा लगती है जहां उनके दरबारी उनसे भेंट करने आते हैं। सम्पूर्ण सभागृह उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित लकड़ी से निर्मित है।

समुद्री माता

समुद्री माता मंदिर भी अतिविशेष है क्योंकि यह दुर्लभ है। पूर्व में मैंने कराची में स्थित, समुद्र देव को समर्पित, वरुण मंदिर के विषय में पढ़ा था। भारत के दक्षिण में भी समुद्र देव का एक मंदिर है।

अनुराधा – दमन में भी एक मंदिर है जिसे समुद्र नारायण वरुण देव मंदिर कहते हैं।

भरत – यह रोचक जानकारी है। समुद्री माता मंदिर भी रोचक है क्योंकि भूलेश्वर चारों ओर से भूमि से घिरा हुआ है। तो, समुद्री माता यहाँ कैसे आयी? मानचित्र देखकर हमें ज्ञात हुआ कि यहाँ पृथक पृथक सात द्वीप थे जिनका हृदयस्थल वर्तमान का दक्षिण बॉम्बे है जो उस काल में दलदल युक्त जलमग्न भूमि थी। एक काल में भूलेश्वर समुद्र के समक्ष था तथा समुद्री माता मंदिर कदाचित समुद्रतट पर स्थित था। दलदली भूमि के पुनरुद्धार के पश्चात सम्पूर्ण दृश्य परिवर्तित हो गया है।

पंचमुखी हनुमान मंदिर मुंबई
पंचमुखी हनुमान मंदिर मुंबई

पंचमुखी हनुमान मंदिर में हनुमानजी की पंचमुखी प्रतिमा है जिनके चार मुख चार दिशाओं की ओर हैं तथा पाँचवाँ मुख आकाश की ओर है। रामायण कथा के अनुसार पाताल का अधिपति अहिरावण भगवान राम एवं लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताललोक ले गया तथा उनका वध करना चाहा। तब अहिरावण का वध करने के लिए हनुमान ने विशेष पंचमुखी अवतार धारण किया जिसमें क्रमशः वराह, अश्व, नृसिंह, वानर तथा गरुड़ के मुख हैं। यह इसलिए क्योंकि अहिरावण को वरदान प्राप्त था कि जो पांच दिशाओं में स्थित पांच दीपकों को एक साथ बुझाए, वही अहिरावण का वध कर सकता है। इस प्रकार हनुमान ने पांच दिशाओं के दीपक एक साथ बुझाए तथा अहिरावण का वध किया। इससे पूर्व मैंने अनेक पंचमुखी हनुमान देखे हैं किन्तु केवल इसी प्रतिमा में हनुमान के पांच मुख वास्तव में पांच दिशाओं में हैं।

अनुराधा – वह प्रतिमा प्राकृतिक शिला दृष्टिगोचर होती है।

भरत – जी। मुंबई की रचना ज्वालामुखी के कारण हुई है। यह प्रतिमा भी एक ज्वालामुखी चट्टान है। यह मंदिर भूलेश्वर मंदिर के समक्ष स्थित है। इसके विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है क्योंकि वहां कोई सूचना पटल भी नहीं है। यहाँ अधिकतर स्थानीय भक्तगण ही आते हैं।

अनुराधा – मुंबई जैसे भीड़भाड़ भरे नगर की तुलना में यह एक विशाल मंदिर है।

भूलेश्वर मंदिर

भरत – मुंबई का प्रथम स्वामीनारायण मंदिर भी भूलेश्वर में है जो तीजा भोईवाड़ा में स्थित है। यह आकर्षक मंदिर उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित एवं चित्रित है। इसका दर्शन नेत्रों को तृप्त कर देता है। ऐसा ही एक भव्य स्थान है, सूरजवाड़ी, जहां एक सूर्यनारायण मंदिर है। यह प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय के समय खुलता है तथा संध्या सूर्यास्त के समय बंद होता है। यह अत्यंत विशेष है क्योंकि मुंबई में इसके अतिरिक्त कोई अन्य सूर्य मंदिर नहीं है। सबसे निकट कदाचित मोढेरा सूर्य मंदिर होगा।

अनुराधा – अधिक लोग यह नहीं जानते हैं कि दिल्ली में भी अनेक सूर्य मंदिर थे। किन्तु सूरजकुंड के अतिरक्त अन्य सभी मंदिर नष्ट हो गए हैं। आशा है उनका पुनर्निर्माण शीघ्र किया जाएगा। एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कौंध रहा है। यदि ये सभी मंदिर अधिकतम ३०० से ४०० वर्ष प्राचीन हैं, तो मुंबई का प्राचीनतम वसाहती क्षेत्र कौन सा है?

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भुलेश्वर मंदिर मुंबई
भुलेश्वर मंदिर मुंबई

वाल्केश्वर

भरत – इन सात द्वीपों में से एक मुंबई था। औपनिवेशिक काल में हिन्दू समाज व्यापार द्वारा जीविकोपार्जन करता था। उन्होंने ये मंदिर ब्रिटिश राज में बनाए थे किन्तु इससे पूर्व भी वहां एक प्राचीन तीर्थ उपस्थित था। पुराणों में उसका उल्लेख है। इसे वाल्केश्वर मंदिर कहा जाता है क्योंकि इस क्षेत्र के मुख्य आराध्य वाल्केश्वर देव हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस क्षेत्र में ऋषि गौतम का आश्रम था। भगवान राम नासिक के पंचवटी से लंका की ओर प्रस्थान करते समय यहाँ आये थे। यहाँ गौतम ऋषि ने उन्हें भगवान शिव की आराधना करने का परामर्श दिया जिसके लिए उन्हें काशी से स्फटिक का लिंग लाने के लिए कहा। भगवान राम ने लक्ष्मण को लिंग लाने के लिए भेजा। लक्ष्मण को आने में विलम्ब होता देख भगवान राम ने बालू से लिंग की रचना की। उस लिंग को वालुका कहा जाता है। उस लिंग के कारण भगवान शिव को वालुकेश्वर कहा जाता है। यह एक भव्य मंदिर है।

शिलाहार राजवंश

लगभग सहस्त्र वर्ष पूर्व यहाँ शिलाहार राजवंश का साम्राज्य था जिन्होंने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था। उनमें से एक मंदिर अब भी विद्यमान है जो मुंबई की सीमा पर स्थित है। यह अम्बरनाथ मंदिर है जो एक आकर्षक मंदिर है। ठीक इसी प्रकार का मंदिर उस स्थान पर भी था जहां अब राजभवन है। वह वाल्केश्वर मंदिर था जिसे इस्लामिक आक्रमणकारियों ने तोप के गोलों से नष्ट कर दिया था। पुर्तगाली इस मंदिर को ब्लैक पैगोडा कहते थे। बाणगंगा नामक जलकुंड अथवा तीर्थ के एक कोने में स्थित विभिन्न समाधियों में इस मंदिर के अवशेष अब भी प्राप्त होते हैं।

एक अन्य किवदंती के अनुसार, यहाँ फुटबाल मैदान के आकार की एक बावडी थी। चूँकि इस क्षेत्र के समीप मीठे जल का कोई स्त्रोत नहीं था तथा यह स्थान चारों ओर से खारे समुद्र से घिरा था, भगवान राम ने भूमि पर अपना तीर साधा, जिससे भोगवती अथवा देवी गंगा बाहर आयी तथा मीठे जल का स्त्रोत प्रस्फुटित हुआ। इस जल को एकत्र करने के लिए जलकुंड का निर्माण किया गया। कालांतर में शिलाहार शासनकाल में जलकुंड के भीतर जाने के लिए सीढ़ियों का निर्माण कराया गया। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि ज्वालामुखी के कारण यहाँ गड्ढा हो गया है जहां जल एकत्र होता है। किन्तु समुद्र के इतने समीप मीठे जल का स्त्रोत विद्यमान होना, स्वयं में एक आश्चर्यजनक घटना है।

प्राचीनतम संरचना

वाल्केश्वर मंदिर वास्तव में दक्षिण मुंबई की प्राचीनतम संरचना है। यद्यपि मुंबई नगरपालिका की सीमा की दृष्टि से कान्हेरी गुफाएं प्राचीनतम हो सकती हैं, तथापि मूल सीमा के अनुसार यह मंदिर प्राचीनतम संरचना है। इसके चारों ओर अनेक अन्य मंदिर हैं।

यह भी सत्य है कि मूल मंदिरों के पूर्णतः नष्ट होने के पश्चात ब्रिटिश काल में उनका पुनर्निर्माण कराया गया था। भूलेश्वर मंदिर के समान ये मंदिर भी विभिन्न शैलियों के सम्मिश्रण हैं। नागर शैली के मंदिर होते हुए भी उनके ऊपर गुम्बद हैं। इस्लाम आक्रमणों के पश्चात देश की स्थापत्य शैली में गुम्बद, तोरण एवं सुरक्षा कक्ष का पदार्पण हुआ जिसके कारण संरचनाओं में मस्जिद की शैली का आभास होने लगा। वाल्केश्वर मंदिर के गर्भगृह के ऊपर भी गुम्बद है। उसके समक्ष सभागृह है जिसमें सुन्दर उत्कीर्णन किया गया है।

बालाजी मंदिर में मराठी शैली का उत्कृष्ट काष्टकला की गयी है। कुछ ऐसे मंदिर हैं जिनके गर्भगृह नागर शैली के हैं तथा उनके सभागृह कोंकण शैली के हैं जिनके भीतर मंगलोर टाइलें लगी हुई हैं। ऐसे मंदिर बहुधा कोंकण क्षेत्र में दृष्टिगोचर होते हैं।

एक अन्य भव्य मंदिर है, सिद्धेश्वर मंदिर। मान्यताओं के अनुसार इसका निर्माण पेशवा रघुनाथराव ने करवाया था। पूर्णतः शिलाओं द्वारा निर्मित यह मंदिर दक्खन शैली का मंदिर है जो पुणे एवं कोल्हापुर के मंदिरों से साम्य रखता है।

साधू अखाड़ा

नासिक, उज्जैन, बनारस अथवा कानपूर के अखाड़ों जैसे अनेक अखाड़े यहाँ भी हैं जो मुझे अचंभित करते हैं। ये साधू अखाड़े हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी काल में आक्रमणकारियों से अपने धर्म के रक्षण हेतु साधुओं ने भी कदाचित अस्त्र-शस्त्र उठाये थे। कालांतर में जयराम गीर बाबा अखाड़ा जैसे कुछ अखाड़े मिठाई की दुकानों अथवा वसाहत क्षेत्र में परिवर्तित हो गए हैं। अन्य अखाड़े अब मंदिर बन गए हैं। इन अखाड़ों से सटे हुए साधुओं के समाधि स्थल हैं। आप जानते हैं कि साधुओं का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता, अपितु उन्हें पद्मासन की स्थिति में समाधि दी जाती है।

समाधियाँ चौकोर आकार की हैं। यदि समाधि के ऊपर शिवलिंग हो तो वह साधू की समाधि होती है, वहीं, यदि समाधि पर दो पदचिन्ह उत्कीर्णित हो तो वह साध्वी की समाधि होती है। एक काल में यहाँ अनेक अखाड़े तथा समाधिस्थल थे किन्तु अब कुछ ही शेष रह गए हैं।

इन्चगिरी सम्प्रदाय

नवनाथपुर में इन्चगिरी नामक एक सम्प्रदाय है। उनके एक संत सिद्धरामेश्वर जी की समाधि बाणगंगा में है। औपनिवेशिक काल में मालाबार हिल्स में अनेक राजपरिवारों के महल थे। यहाँ अनेक समाधियाँ ऐसी हैं जो उन राजपरिवारों से सम्बंधित हैं, जैसे गोंडल अथवा अंग्रेज राजशाही। लोग बाणगंगा को केवल एक तीर्थ मानते हैं। वे वहां जाकर प्रार्थना अवश्य करते हैं किन्तु उस स्थान के सत्व को जाने बिना ही लौट आते हैं। वे बहुधा किसी परिजन के अंतिम विधियों के लिए जाते हैं किन्तु वहां स्थित धर्मशालाओं, समाधियों, मंदिरों इत्यादि के दर्शन किये बिना वापिस आ जाते हैं।

लक्ष्मीनारायण मंदिर
लक्ष्मीनारायण मंदिर

पंजाबी धर्मशाला अत्यंत विशेष है जिस पर ‘अमृतसर के दुकानदारों की धर्मशाला’ लिखा हुआ है। इस धर्मशाला का निर्माण अमृतसर के दुकानदारों ने निधि एकत्र उन दुकानदारों के ठहरने के लिए बनवाया था जो दर्शन के लिए अमृतसर से मुंबई जाते हैं। सौ वर्ष पूर्व पंजाब से के. एल. सहगल जैसे अनेक चित्रपट कलाकार मुंबई आये थे। उनमें से अनेक कलाकार पंजाबी धर्मशाला में ठहरे थे। बॉलीवुड के अनेक चित्रपटों में होली के जो दृश्य दिखाए जाते हैं, उनका आरम्भ वाल्केश्वर के पंजाबी धर्मशाला में ही हुआ था। समुद्र के समक्ष स्थित यह धर्मशाला अब चिंतनीय स्थिति में है।

कृष्ण मंदिर

कृष्ण का मूल मंदिर समुद्र की लहरों के थपेड़ों के कारण नष्ट हो गया है। किन्तु उन अवशेषों से भी अत्यंत रोचक जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ एक जयंत समाधि है। ऐसा माना जाता है कि अनुराग नामक एक भवन में एक साधू ने जीवित समाधि ली थी। मान्यता है कि वे अब भी चिरकालीन ध्यान में मग्न हैं। यहाँ अनेक ऐसे छोटे छोटे किन्तु महत्वपूर्ण तत्व हैं जिन्हें पर्यटकों को देखना चाहिए।

एक मंदिर परशुराम का भी है। किवदंतियों के अनुसार, परशुराम ने सह्याद्री पर्वत श्रंखला पर खड़े होकर समुद्र की ओर अपना परशु फेंका था जिससे समुद्र पीछे चला गया तथा कोंकण क्षेत्र की उत्पत्ति हुई। उन्होंने इस क्षेत्र का नाम अपनी माताजी, रेणुका के नाम पर रखा था जिन्हें कोंकणा भी कहते थे। परशुराम ने अपना परशु किस ओर फेंका था तथा वह कहाँ गिरा था, इस विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार उनका परशु बाणगंगा में गिरा था जिससे बाणगंगा सरोवर की रचना हुई थी। भंसाली परिवार ने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया है। मेरे अनुमान से संजय लीला भंसाली इसी परिवार से सम्बन्ध रखते हैं।

विट्ठल रुक्मिणी

विट्ठल रुक्मिणी का एक छोटा सा मंदिर है जो चार राज्यों से सम्बंधित है। मंदिर महाराष्ट्र के मुंबई में है। भगवान को कन्नड़ विट्ठल कहते हैं, अर्थात् वे कर्णाटक से सबंधित हैं तथा कन्नड़ भाषी हैं। मंदिर का निर्माण एक गुजरती परिवार ने किया है तथा उन्हें राजस्थान के श्रीनाथजी जैसे वस्त्र एवं आभूषणों से सज्ज किया है। जैसे मुंबई सर्वदेशीय है उसी प्रकार यह मंदिर भी सार्वभौमिक प्रतीत होता है।

यहाँ दो मठ भी हैं। कैवल्य मठ, जिसे कवलम मठ भी कहते हैं, उसकी एक सहायक शाखा मुंबई में है। ३-४ सदियों प्राचीन मठ में माँ शांतादुर्गा की प्रतिमा है। इस प्रकार मुंबई में माँ शांतादुर्गा का निवास वाल्केश्वर है। यह काशी मठ की सहायक शाखा है। इस प्रकार वालकेश्वर में अत्यंत दुर्लभ स्थानों के दर्शन होते हैं।

मालाबार हिल्स

मालाबार हिल्स के विषय में रोचक तथ्य यह है कि इसका नाम मालाबार के आये तीर्थ यात्रियों के कारण पड़ा है। मुंबई के दक्षिण का सम्पूर्ण भाग मालाबार कहलाता था। वहां एक श्री गुंडी थी तथा चट्टान पर एक चाक था जिसे दिव्य योनी कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि वहीं से सभी की उत्पत्ति हुई है। जो वहां से होकर जाए उसका भी पुनर्जन्म हो जाता है तथा वह अपने सभी पापों से मुक्ति पा जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि छत्रपति शिवाजी यहाँ आये थे। कदाचित शिवाजी महाराज मुंबई में केवल इसी स्थान में आये थे। यह चट्टान कदाचित ३० वर्षों पूर्व तक अस्तित्व में थी किन्तु समुद्र के थपेड़ों के कारण क्षतिग्रस्त होकर समुद्र में गिर गयी।

अनुराधा – मैं बाणगंगा को सदा ही मुंबई एवं मीठे जल का उत्पत्ति स्थान मानती हूँ। अन्य सभी तत्व कालांतर में प्रकट हुए थे। मीठे जल का स्त्रोत यह दर्शाता है कि यहाँ सदा से वसाहत रही थी।

भरत – जी हाँ। १२ सदियों से यहाँ वसाहत रही है। उससे पूर्व में भी रही होगी जो उजड़ गयी होगी।

अनुराधा –  भरत, मुंबई की गुफाओं के विषय में भी कुछ बताएं।

कान्हेरी गुफाएं

भरत – मुंबई में विभिन्न समयावधियों की अनेक गुफाएं हैं। मेरे अनुमान से कान्हेरी गुफाएं सर्वाधिक पुरातन हैं, ईसा से भी पूर्व। इसके अतिरिक्त, महाकाली है, जो ५-६वीं सदी में निर्मित गुफा मंदिर है। जोगेश्वरी एवं मंडपेश्वर में भी गुफाएं हैं। मगट्ने गुफाओं की दशा अत्यंत चिंताजनक है। गुफाओं के भीतर ही झुग्गी बस्ती है। उन्हें यह ज्ञात ही नहीं है कि वहां गुफाएं हैं।

एक काल में पुर्तगालियों ने मंडपेश्वर को गिरिजाघर में परिवर्तित कर दिया था। उस पर अनेक ईसाई चिन्ह भी अंकित किये गए थे। महाकाली बौद्ध गुफा है, यद्यपि लोग इसे महाकाली मंदिर मानते हैं। जोगेश्वरी एक हिन्दू गुफा है तथा कदाचित प्राचीनतम जीवंत मंदिरों में से एक है। मुझे विश्वास है कि जोगेश्वरी के अधिकांश निवासियों ने इस मंदिर को नहीं देखा होगा क्योंकि यह झुग्गी-झोपड़ियों से पूर्णतः व्याप्त है।

व्यापार मार्ग

अनुराधा –  मैंने उस मंदिर के दर्शन किये हैं। एक प्रश्न मस्तिष्क में उठता है कि क्या वे व्यापार मार्ग का एक भाग हैं क्योंकि मुंबई के निकट ही प्राचीन बंदरगाह हैं?

भरत – सही कहा आपने। ये मंदिर पूर्ण रूप से प्राचीन व्यापार मार्ग पर थे। उस काल में इस क्षेत्र की राजधानी जुन्नर अथवा पैठन में हुआ करती थी। सम्पूर्ण व्यापार मार्ग पर आप सोपारा, घाट एवं दर्रों के अरितिक्त अनेक गुफाएं भी देखेंगे। जिस काल में, जो धर्म अपनी चरम सीमा पर होता था, वहां का स्थानीय राजा उन्हें तदनुसार संरक्षण प्रदान करता था। यहाँ ब्राह्मण गुफाएं हैं, हिन्दू गुफाएं हैं तथा ब्राह्मण गुफाओं से हिन्दू गुफाओं में परिवर्तित गुफाएं भी हैं। गोमाशी नामक गुफा में बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में प्रतिमा है जिसे अब लोग भृगु कहते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि कैसे स्थानिक तदनुसार विवेचना करने लगते हैं। दहाणु के समीप एक गुफा है जिसे पारसी गुफा में परिवर्तित किया गया था। आक्रमण के समय दहाणु गुफा के भीतर पवित्र अग्नि उपस्थित थी।

अनुराधा –  ये सब मुंबई की सार्वभौमिक प्रकृति को दर्शाता है।

भरत – सही। यह अन्यंत रोचक है। हम जब मुंबई दर्शन कराते हैं, तब हम इसकी इसी विशेषता से लोगों का परिचय कराते हैं।

मुंबई नगर का भ्रमण

अनुराधा –  यदि मुंबई को जानने का प्रयत्न करें तो इसके अनेक आयाम पायेंगे। इस महानगरी के विषय में चिरकालीन चर्चा की जा सकती है। किन्तु समय की कमी के कारण आज की चर्चा को समाप्त करने पर बाध्य हूँ। इस चर्चा को समाप्त करने से पूर्व मेरे पाठकों को यह जानकारी देना चाहती हूँ कि वे आपके खाकी टूर्स के मार्गदर्शन में मुंबई नगरी की खोज कैसे कर सकते हैं।

भरत – हमारी कंपनी एक आम भ्रमण कंपनी नहीं है। मुंबई की गलियों में इतनी ऐतिहासिक जानकारी लुप्त है कि उसे खोजकर सबके समक्ष लाना अत्यंत आवश्यक है। इसमें हम लोगों की सहायता करना चाहते हैं। यही हमारा ध्येय व लक्ष्य है। हमारी कंपनी का सर्वोत्तम आकर्षण खुली जीप सफारी है जिसे हम अर्बन अथवा शहरी सफारी कहते हैं। कदाचित हमारी कंपनी विश्व की इकलौती कंपनी है जो शहरी सफारी उपलब्ध कराती है। हम वनीय पशु-पक्षी नहीं अपितु शहरी इमारतें व संरचनाएं दिखाते हैं। यह सर्वोत्तम उपाय है जिससे बिना अधिक पदयात्रा किये हम विभिन्न क्षेत्रों का अवलोकन करते हुए १७ किलोमीटर पार कर जाते हैं।

आपकी आवश्यकता एवं इच्छा अनुसार हम सफारी में परिवर्तन करते हैं। यदि आप आयरिश डॉक्टर हैं तो आपकी सफारी जापानी कलाकार की सफारी से भिन्न होगी। यही हमारी विशेषता है जो हमें सामान्य भ्रमण कंपनियों से भिन्न श्रेणी में खड़ा करती है। भ्रमण गाइड भी सामान्य प्रशिक्षित गाइड नहीं हैं। हमारे गाइड आपके साथ आते हैं क्योंकि वे स्वयं खोजकर्ता हैं, उन्होंने यहाँ विस्तृत खोज की है तथा इस विषय में उन्हें विशेष रूचि व लगाव है। इसीलिए उन्हें भ्रमण गाइड नहीं अपितु मुंबई के दूत कहा जाता है।

अनुराधा –  हमारे पाठकों में जिन्हें भी मुंबई व उसके इतिहास से लगाव है तथा वे इस पर शोध करना चाहते हैं, तो वे भरत से संपर्क कर सकते हैं।

भरत – अवश्य।

भरत गोठोसकर के साथ मुंबई के मुम्बा देवी मंदिर एवं अन्य प्राचीन मंदिरों पर हुई चर्चा की लिखित प्रतिलिपि IndiTales Internship Program के अंतर्गत अनुषा सिंह ने तैयार की है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भीमाशंकर मंदिर पुणे के निकट एक प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग https://inditales.com/hindi/bhimashankar-jyotirlinga-mandir-maharashtra/ https://inditales.com/hindi/bhimashankar-jyotirlinga-mandir-maharashtra/#comments Wed, 05 Jan 2022 02:30:49 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2527

हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार कुल बारह ज्योतिर्लिंग हैं जिनमें से तीन ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में स्थित हैं। भीमाशंकर मंदिर उन तीन ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुछ वर्षों पूर्व जब मैं पुणे नगर में प्रशिक्षण ले रही थी, उस समय मैंने इस मंदिर के दर्शन किये थे। हमारा मुख्य लक्ष्य मंदिर दर्शन नहीं, अपितु […]

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हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार कुल बारह ज्योतिर्लिंग हैं जिनमें से तीन ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में स्थित हैं। भीमाशंकर मंदिर उन तीन ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुछ वर्षों पूर्व जब मैं पुणे नगर में प्रशिक्षण ले रही थी, उस समय मैंने इस मंदिर के दर्शन किये थे। हमारा मुख्य लक्ष्य मंदिर दर्शन नहीं, अपितु पर्वतारोहण था। किन्तु वर्त्तमान में, मेरे उस अभियान की स्मृतियों में केवल मंदिर तथा समीप स्थित एक नदी स्पष्ट रूप से शेष है।

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंगा मंदिर
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंगा मंदिर

महाराष्ट्र राज्य अनेक प्राचीन मंदिरों की विरासत से समृद्ध है। विभिन्न हिन्दू ग्रंथों में भी इन मंदिरों का उल्लेख किया गया है। उनमें कुछ अत्यंत लोकप्रिय तीर्थ स्थान हैं, जैसे कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर, पंचवटी नासिक में, तुलजापुर भवानी, घृष्णेश्वर मंदिर, अष्ट विनायक मंदिर इत्यादि।

भारत में पसरे १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक, भीमाशंकर मंदिर महाराष्ट्र ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। आईये मैं आपको इस मंदिर के दर्शन कराती हूँ तथा इसके आसपास के सुन्दर परिदृश्यों से आपको अवगत कराती हूँ। साथ ही इसके इतिहास को जानने का प्रयास करते हैं तथा इससे सम्बंधित कथाओं का आनंद उठाते हैं।

भीमाशंकर मंदिर कहाँ स्थित है?

भीमाशंकर मंदिर महाराष्ट्र के पुणे नगरी से लगभग ११० किलोमीटर तथा खेड़ तालुका से 50 किलोमीटर दूर स्थित है। भौगोलिक दृष्टी से यह मंदिर सह्याद्री पर्वत श्रंखलाओं में स्थित पश्चिमी घाटों की गोद में आसीनस्थ है। भीमाशंकर भीमा नदी का उद्गम स्थल भी है जो आगे कावेरी नदी में विलीन हो कर बंगाल की खाड़ी तक जाती है, जहां समुद्र से उसका संगम होता है। भीमा नदी चंद्रप्रभा भी कहलाती है।

भीमाशंकर मंदिरउत्कीर्णित शिल्प
भीमाशंकर मंदिरउत्कीर्णित शिल्प

पश्चिमी घाटों में स्थित होने के कारण इस मंदिर तक पहुँचने के लिए चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। यहाँ तक पहुँचने के लिए सुविधाजनक सड़क मार्ग भी हैं किन्तु हमारा ध्येय पर्वतारोहण करते हुए मंदिर तक पहुँचने का था। चारों ओर सघन वन के अप्रतिम प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर यह अत्यंत मनमोहक रोहण अनुभव है। किन्तु जंगली जानवरों से सावधान रहने की भी आवश्यकता है। भीमाशंकर तक का पर्वतारोहण युवाओं में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें पठारों पर लम्बी दूरी तक चलना, चिकनी चट्टानों पर चढ़ना तथा जीर्ण हो चुकी सीढ़ियों पर चढ़ना इत्यादि भी सम्मिलित हैं। वर्षा ऋतु में सघन कोहरे की संभावना रहती है तथा सम्पूर्ण प्रकृति रहस्यमयी धुंध से ढँक जाती है।

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग

भारत की पावन भूमि में बारह ज्योतिर्लिंग है। आदि शंकराचार्यजी ने सभी बारह ज्योतिर्लिंगों के नामों को एक श्लोक में पिरोया है तथा उसमें उनके स्थानों की जानकारी दी है। उस श्लोक में उन्होंने भीमा नदी के उद्गम पर स्थित भीमाशंकर मंदिर के विषय में इस प्रकार उल्लेख किया है, ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’। यह महाराष्ट्र राज्य का सौभाग्य है कि १२ में से ३ ज्योतिर्लिंग इस राज्य में हैं। ज्योतिर्लिंग भगवान शिव का स्वयंभू रूप है। अन्य दो ज्योतिर्लिंग हैं, नासिक में गोदावरी नदी के उद्गम स्थल पर स्थित त्र्यम्बकेश्वर तथा घृष्णेश्वर, जो वेलुर में स्थित है, जिसे अब हम एलोरा कहते हैं।

भीमाशंकर मंदिर की लोककथाएं

इस मंदिर से सम्बंधित सर्वाधिक लोकप्रिय दंतकथा उसे त्रिपुरासुर से जोड़ती है। त्रिपुरासुर अत्यंत शक्तिशाली हो गया था तथा तीनों लोकों की शांति के लिए एक विशाल संकट बन चुका था। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने यहीं उसका अंत किया था। त्रिपुरासुर का वध करने के पश्चात भगवान शिव कुछ क्षण विश्राम करने के लिए यहीं बैठ गए थे। उनकी देह से स्वेद की धारा बह रही थी। वही धारा धरती पर बहने लगी तथा भीमा नदी बन गयी।

भीमा

एक अन्य लोककथा के अनुसार, भीमा नामक एक असुर इन्ही वनों में निवास करता था जहाँ भीमाशंकर मंदिर स्थित है। वह श्रीलंका एवं कर्कटी के प्रसिद्ध राजा रावण के भ्राता, कुम्भकर्ण का पुत्र था। जैसे ही भीमा को ज्ञात हुआ कि श्री राम एवं रावण के मध्य हुए युद्ध में उसके पिता की मृत्यु हो गयी है, वह क्रोधित हो गया। प्रतिशोध की अग्नि में जलते हुए उसने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। भीमा की निष्ठा व समर्पण से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसकी अभिलाषा पूर्ण की तथा उसे सर्व पुरुषों में सर्वाधिक शक्तिशाली पुरुष बना दिया।

श्री हनुमान की पूजा करती एक भक्त
श्री हनुमान की पूजा करती एक भक्त

वरदान पाकर भीमा अधिक उद्दंड हो गया तथा अपना प्रतिशोध आरम्भ कर किया। सर्वप्रथम उसने देवराज इंद्र को परास्त कर किया। तत्पश्चात कामरुपेश्वर अर्थात् राजा प्रियधर्मन को परास्त किया जो भगवान शिव का परम भक्त था। कारागृह में बंदी बनने के पश्चात भी राजा प्रियधर्मन ने शिव स्तुति नहीं छोड़ी तथा अनवरत शिवलिंग की पूजा-अर्चना करता रहा।

भीमा चाहता था कि कारागृह में बंदी राजा प्रियधर्मन उसकी स्तुति करे। जब राजा ने भीमा का आदेश स्वीकार नहीं किया तब भीमा ने अपनी तलवार से लिंग पर प्रहार किया। उसी क्षण लिंग से भगवान शिव प्रकट हुए तथा उनके एवं भीमा के मध्य भीषण युद्ध आरम्भ हो गया। शिव ने भीम को परास्त कर उसे भस्म में परिवर्तित कर दिया। सभी देवताओं ने भगवान शिव की स्तुति की तथा उनसे आग्रह किया कि वे शिवलिंग के रूप में वहीं विराजमान हों। अब उसी स्थान पर चारों ओर सुन्दर पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा भीमाशंकर मंदिर है।

इस स्थान पर शाकिनी एवं डाकिनी का भी निवास है, जिन्होंने भीमा को परास्त करने में शिव की सहायता की थी।

भीमाशंकर मंदिर का आकार एक रथ के समान है इसलिए इसे रथचला भी कहते हैं।

और पढ़ें: जागेश्वर धाम में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

मंदिर के समक्ष रोमन शैली का एक विशाल घंटा है जिस पर जीसस एवं माँ मैरी की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। उस पर वर्ष १७१२ ई भी चिन्हित है। यह घंटा बाजीराव पेशवा प्रथम के भ्राता तथा नाना साहेब पेशवा के काका, चिमाजी अप्पा ने इस मंदिर को भेंट चढ़ाया था। वसई दुर्ग पर आधिपत्य करते पुर्तगालियों को युद्ध में परास्त कर वे उस दुर्ग से पांच विशाल घंटे लेकर आये थे। उन्होंने ये पांच घंटे पांच विभिन्न शिव मंदिरों में चढ़ाए थे। उनमें से एक घंटा इस मंदिर में भी अर्पित किया था।

और पढ़ें: पुणे की पेशवा धरोहर

भीमाशंकर मंदिर की वास्तुकला

भीमाशंकर मंदिर मूलतः उत्तर भारत की नागर वास्तु शैली में निर्मित है। इसमें दक्खन के हेमाडपंती वास्तु शैली के अंश भी दृष्टिगोचर होते हैं। मुख्य मंदिर अपेक्षाकृत छोटा है तथा १३वीं सदी में निर्मित है। मंदिर के सभा मंडप, गोपुर तथा शिखर नाना फडणवीस द्वारा १८वीं सदी में निर्मित किये गए हैं। शिवाजी महाराज ने भी इस मंदिर के निर्माण में निधि प्रदान की थी। अनेक महान संतों ने अपने अपने काल में इस मंदिर में भेंट की थी, जैसे संत ज्ञानेश्वर।

एक सामान्य मंदिर के सभी वास्तु तत्व आप इस मंदिर में देख सकते हैं, जैसे गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप, शिखर इत्यादि। गर्भगृह के मध्य में स्वयंभू लिंग स्थित है। इस स्वयंभू लिंग को देख सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस लिंग के चारों ओर मंदिर का निर्माण किया गया था।

मंदिर की भित्तियों एवं द्वार के चौखटों पर अनेक शिल्प उत्कीर्णित हैं।

मंदिर परिसर में एक छोटा शनि मंदिर भी है जिसे शनिश्वर कहते हैं।

और पढ़ें: कोपेश्वर मंदिर खिद्रापुर – एक अद्भुत वास्तुकला

किसी भी अन्य प्राचीन तीर्थ स्थल के समान भीमाशंकर में भी अनेक तीर्थ अर्थात् पवित्र जल स्त्रोत हैं। ऐसी मान्यता है कि समीप स्थित मोक्षकुंड तीर्थ के निकट ऋषि कौशिक ने तपस्या की थी। एक अन्य तीर्थ, कुशारण्य तीर्थ से भीमा नदी का उद्गम होता है। अन्य तीर्थ हैं, जयकुंड, हनुमान कुंड तथा सर्व तीर्थ। अनेक मंदिरों एवं तीर्थों की उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि यह एक प्राचीन तीर्थ स्थल था।

सभी शिव मंदिरों के समान इस मंदिर में भी प्रत्येक सोमवार एवं शिवरात्रि के अवसर पर भक्तों का तांता लगा रहता है। शिवलिंग के नियमित अभिषेक के अतिरिक्त रुद्राभिषेक भी किया जाता है।

वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र

श्री भीमाशंकर वन्यजीवन अभ्यारण्य
श्री भीमाशंकर वन्यजीवन अभ्यारण्य

मंदिर के चारों ओर, लगभग १३० वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र एक संरक्षित वनीय क्षेत्र है। इस क्षेत्र को सन् १९८५ में वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र घोषित किया गया था। अधिकारिक रूप से इसे श्री भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग वन्यजीव अभ्यारण्य कहा जाता है। यहाँ की विशेषता है, बड़ी गिलहरी, जो महाराष्ट्र का राज्य पशु है। उसे स्थानीय मराठी भाषा में शेखरू कहते हैं। यूनेस्को विश्व विरासत स्थलों की सूची में सम्मिलित पश्चिमी घाट विविध जैव-विविधता हॉटस्पॉट है। आप यहाँ विविध प्रकार के वनीय पशु एवं पक्षियों के विभिन्न प्रजातियाँ देख सकते हैं, जैसे तेंदुआ, हिरन, सांभर, गीदड़, बन्दर तथा अनेक प्रकार की तितलियाँ।

यहाँ विभिन्न प्रकार की वृक्षवाटिकाएं हैं जो इस क्षेत्र की जैव-विविधता में संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं।

मंदिर के आसपास अन्य दर्शनीय स्थल हैं, भीमा नदी का उद्गम स्थान, गुप्त भीमाशंकर, भोरगिरी दुर्ग, नाग फणी, बॉम्बे पॉइंट तथा साक्षी विनायक का मंदिर।

कमलजा देवी मंदिर हमें प्रकृति की आराधना का स्मरण कराती है।

और पढ़ें: मार्लेश्वर शिव मंदिर तथा पश्चिमी घाट के जलप्रपात

कैसे पहुंचें?

  • भीमाशंकर मंदिर पहुँचने के लिए आप मुंबई अथवा पुणे से सार्वजनिक अथवा निजी सड़क परिवहन की सेवायें ले सकते हैं।
  • आप यहाँ स्थानीय धर्मशाला में ठहर सकते हैं। किन्तु इसके लिए आपको पुरोहितजी को पूर्व सूचना देना आवश्यक है।
  • मंदिर प्रातः ५ बजे से रात्रि ८ बजे तक खुला रहता है।
  • इस मंदिर के दर्शन एवं आसपास के स्थलों के भ्रमण हेतु शीत ऋतु का समय सर्वोत्तम है जब यहाँ का वातावरण अत्यंत सुखमय होता है। ग्रीष्म ऋतु की तीक्ष्ण समयावधि जितना हो सके टालने का प्रयास करें। वर्षा ऋतु में यहाँ का परिदृश्य अत्यंत सुन्दर हो जाता है किन्तु उस समय यहाँ पहुँचने के लिए केवल सड़क मार्ग का ही प्रयोग करें। वर्षा ऋतु में पर्वतारोहण जोखिम भरा होता है, अतः टालने योग्य है।

पुणे में तथा आसपास के अन्य दर्शनीय स्थल हैं:

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्राचीन कान्हेरी गुफाएं मुंबई के संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान में https://inditales.com/hindi/prachin-kanheri-gufaayen-mumbai/ https://inditales.com/hindi/prachin-kanheri-gufaayen-mumbai/#comments Wed, 26 May 2021 02:30:43 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2304

मुझे जब कान्हेरी गुफाओं के विषय में जानकारी प्राप्त हुई थी, उसके पूर्व मुंबई के भीतर स्थित इन अद्भुत प्राचीन ऐतिहासिक गुफाओं के विषय में मैंने ना तो पढ़ा था, ना ही सुना था। सर्वप्रथम ब्रिटिश काल के समय इन कान्हेरी गुफाओं के अस्तित्व के विषय में जानकारी प्राप्त हुई थी। बोरिवली के संजय गांधी […]

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मुझे जब कान्हेरी गुफाओं के विषय में जानकारी प्राप्त हुई थी, उसके पूर्व मुंबई के भीतर स्थित इन अद्भुत प्राचीन ऐतिहासिक गुफाओं के विषय में मैंने ना तो पढ़ा था, ना ही सुना था। सर्वप्रथम ब्रिटिश काल के समय इन कान्हेरी गुफाओं के अस्तित्व के विषय में जानकारी प्राप्त हुई थी। बोरिवली के संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान के भीतर स्थित इन गुफाओं तक पहुँचने के लिए सुव्यवस्थित सड़क मार्ग उपलब्ध हैं। इन गुफाओं के आरंभिक बिन्दु तक गाड़ियां पहुँच सकती हैं। यहाँ से कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर आप टिकट खिड़की तक पहुंचेंगे, तत्पश्चात गुफा में प्रवेश करेंगे।

पाषाण में उत्कीर्णित बुद्ध की विशाल मूर्ति
पाषाण में उत्कीर्णित बुद्ध की विशाल मूर्ति

कान्हेरी गुफाएं – मुंबई का लोकप्रिय पर्यटन स्थल

अजंता एवं एलोरा की प्रसिद्ध गुफाओं के समान ही, कान्हेरी गुफाओं का उत्खनन भी १ ई.पू. से ११ ई. तक किया गया था। ये गुफाएं महायान एवं हीनयान, बौद्ध धर्म के इन दोनों पथों से सम्बंधित हैं। इस तथ्य का साक्ष्य देती हैं वे गुफाएं, जहां कुछ गुफाओं में बुद्ध को स्तूप एवं चरण पादुका जैसे संकेतों से दर्शाया गया है तो कुछ गुफाओं में उनके मानवरूपी छवियाँ हैं।

कान्हेरी गुफाएं मुंबई
कान्हेरी गुफाएं मुंबई

कान्हेरी गुफाओं के नाम की व्युत्पत्ति उस पहाड़ के नाम से हुई है जिस पर ये स्थित हैं, कृष्णगिरी। यह एक ज्वालामुखी से उत्पन्न पर्वत है। इस पर्वत पर कुल ११० गुफाओं का समूह है जो इस समूह को सर्वाधिक विशाल गुफा समूह बनाता है। यद्यपि कुछ गुफाएं अपूर्ण प्रतीत होती हैं। प्राचीन काल में ये गुफाएं उस व्यापार मार्ग पर थीं जो सोपारा, नासिक, पैठन तथा उज्जैन को जोड़ती थी।

चट्टान पर सुव्यवस्थित प्रकार से उकेरी गई सीढ़ियाँ अत्यंत दर्शनीय हैं।

चैत्य गृह

इन गुफाओं में एक चैत्य गृह अथवा प्रार्थना कक्ष है। एक विशाल भोजन कक्ष भी है जिसके भीतर भोजन करने के लिए दोनों ओर कम ऊंचाई की लम्बे शिलापाट हैं। अनेक भूमिगत जलकुण्ड हैं। भिक्षुओं के निवास के रूप में अनेक विहार हैं जिसके बाह्य प्रांगण में बैठकें भी हैं। ऐसा कहा जाता है कि ३री सदी तक कान्हेरी गुफ़ाएं बौद्ध भिक्षुओं की स्थाई बस्ती बन चुकी थीं।

गुफा क्र. ३

गुफा क्र. ३ अथवा चैत्य गृह वर्तमान प्रवेश स्थल के समीप स्थित है। इसकी छत पर उत्कीर्णित आकृतियाँ लकड़ी पर की जानी वाली नक्काशी के समान है। ठीक वैसी ही जैसी, लोनावला के समीप स्थित कारले गुफाओं के भीतर हैं। इस विशाल कक्ष के मध्य में एक विशाल स्तूप है। इसके पार्श्व भाग में कुछ उत्कीर्णित स्तम्भ हैं जिन पर गजों की आकृतियाँ हैं। यह कक्ष कम से कम दो तलों का है किन्तु ऊपरी तलों तक पहुँचने का मार्ग ढूँढना अब कठिन है। गुफा के बाहर, ड्योढ़ी पर,बुद्ध की विशाल, उभरी हुई प्रतिमाएं हैं। अग्र भित्तियों पर उन दाताओं की छवियाँ हैं जिन्होंने इन गुफाओं को प्रायोजित किया था। गुफा के बाहर आप कुछ अन्य स्तूप भी देखेंगे। उनमें से एक स्तूप पूर्णतः ढका हुआ है किन्तु अन्य स्तूप अपेक्षाकृत कुछ खुले हैं जिनके चारों ओर आप चल सकते हैं।

यहाँ पर उन सभी ठेठ कठघरों जैसी मेढ हैं जो सामान्यतः प्रसिद्ध स्तूपों के चारों ओर बनी हुई हैं। जैसे अमरावती, सांची, सतना जिले के भरहुत तथा महाबोधि मंदिर में पाए जाने वाले स्तूपों में हैं। उन पर बनी आकृतियाँ ठेठ आड़ी-तिरछी रेखाएं हैं जिन पर कमल पुष्प का चिन्ह उत्कीर्णित है। १६ वीं से १७ वीं सदी के मध्य इन गुफाओं को ईसाई गिरिजाघरों में परिवर्तित कर दिया गया था। वर्तमान में इस परिवर्तन के किसी भी प्रकार के चिन्ह अस्तित्व में नहीं हैं।

विहार

विहार की रूपरेखा भी चैत्य गृह के ही समान है। इनके समक्ष स्थित प्रांगण में बैठने के लिए बैठकें हैं। इनके पश्चात भिक्षुओं के लिए कक्ष हैं। ऊपरी तल की भी यही रूपरेखा है। कक्षों के भीतर शिला के शयन हैं। सामान्यतः गुफाओं के दोनों ओर जलकुण्डों की व्यवस्था है। साहित्यों के अनुसार, दक्षिणपूर्वी देशों से अनेक साधक इस विहार में अध्ययन हेतु आते थे जिस के कारण यह अध्ययन का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था।

गुफा क्र. ११ को महाराजा अथवा दरबार गुफा भी कहते हैं क्योंकि यह एक प्रकार से सभा कक्ष प्रतीत होता है।

गुफा संबंधी सुरक्षा निर्देश

गुफाओं के भीतर से ऊपर-नीचे जाती सीढ़ियों में से कुछ अत्यंत भंगित अवस्था में हैं। उनका प्रयोग करते समय अत्यंत सावधानी का पालन करें। अन्यथा दुर्घटना की संभावना हो सकती है। गुफाओं के बाहर स्थित एक सूचना पटल के अतिरिक्त अन्य कहीं भी, गुफाओं एवं उत्कीर्णित आकृतियों की जानकारी नहीं दी गई है। टिकट घर पर भी कोई सूचना पुस्तिका अथवा जानकारी प्रदान करते साहित्य उपलब्ध नहीं है। यदि आपने इससे पूर्व कहीं बौद्ध गुफाएं देखी हों तो वहाँ से प्राप्त जानकारी का स्मरण करें। इससे इन गुफाओं एवं उत्कीर्णित आकृतियों को समझने में आसानी हो सकती है।

कान्हेरी गुफाओं की जल प्रबंधन प्रणाली

इन गुफाओं का एक अत्यंत उत्कृष्ट एवं रोचक तत्व है यहाँ की जल प्रबंधन प्रणाली। अनेक नलिकाएं एवं धाराएं वर्षा के जल को एक विशाल भूमिगत कुण्ड तक ले जाती हैं। यह प्राचीन काल के आरंभिक वर्षा जल संचयन प्रणाली का उत्तम उदाहरण हो सकता है। जल का प्रबंधन किस प्रकार सावधानी से किया जाता था, यह इसका उत्कृष्ट दृष्टांत है।

गुफाओं में भ्रमण करते हुए आप देख सकते हैं कि कैसे गुफाओं की छतें वर्षा के जल को गुफा के बाहर स्थित नलिकाओं की ओर ले जाती हैं। तत्पश्चात, ये नलिकाएं विभिन्न तलों पर कुण्डों से इस प्रकार जुड़ती हैं ताकि जल का अपव्यय न हो तथा सम्पूर्ण गुफा प्रणाली में शुद्ध जल उपलब्ध हो सके। इन गुफाओं का वास योग्य होने का प्रमुख कारण यह एकीकृत जल प्रबंधन प्रणाली ही हो सकता है। वर्तमान में यह शोध का विषय है कि किस प्रकार इन उत्खनित प्राकृतिक गुफा प्रणाली में इस प्रकार की आत्मनिर्भर जल प्रबंधन प्रणाली अंतर्निहित की गई थी।

मैंने ऐसी ही जल प्रबंधन प्रणाली जोर्डन की प्राचीन नगरी पेट्रा में भी देखी थी। उन्हे भी प्राकृतिक चट्टानों में उत्खनित किया गया था।

शिलालेख

आप गुफा की भित्तियों पर अनेक शिलालेख देख सकते हैं किन्तु उन्हे समझने का कोई साधन नहीं है। कान्हेरी गुफाओं में ब्राह्मी, देवनागरी एवं पाहलवी लिपि में कुल ५१ अभिलेखों एवं २६ उद्धरणों की खोज हो चुकी है। अधिकतर अभिलेखों में उन राजा-महाराजाओं के नाम हैं जिन्होंने इन गुफाओं को संरक्षण प्रदान किया था। एक अभिलेख में राजगद्दी पर विराजमान सातवाहन राजा सतकर्णी वशिष्टिपुत्र के विवाह का उल्लेख है।

कान्हेरी गुफाओं में कुछ ताम्रपत्र भी प्राप्त हुए थे जो अब ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की सूचना पट्टिका के अनुसार एक गुफा में अजंता की गुफाओं के समान भित्तिचित्र हैं। किन्तु मैं उस गुफा को ढूंढ नहीं पायी। उसे खोजने का कोई साधन अथवा सूचना भी उपलब्ध नहीं थी।

चित्रपट चित्रीकरण

जब मैं इन गुफाओं में भ्रमण कर रही थी, उस समय यहाँ, एक गुफा के ऊपर यशराज फिल्म्स के किसी चित्रपट का चित्रीकरण हो रहा था। किसी चित्रपट के चित्रीकरण में कितने बड़े स्तर पर परिश्रम, ऊर्जा तथा साधनों की आवश्यकता होती है, इस तथ्य से वह मेरा प्रथम साक्षात्कार था। कदाचित यह चित्रपट देखते समय, वह परिदृश्य दर्शकों के ध्यान में भी न आए, किन्तु उसे साकार करने में कम से कम १०० व्यक्तियों का जनबल जुटा हुआ था। वहाँ बिजली उत्पादक वाहन, अभिनेताओं के लिए चलित प्रसाधन कक्ष, खाद्य पदार्थों के वाहन, साज-सज्जा का सामान तथा अनेक उपकरण भी थे।

कान्हेरी गुफाओं में फिल्मीकरण
कान्हेरी गुफाओं में फिल्मीकरण

अनेक सुरक्षा कर्मचारी तैनात थे जो साधारण जनमानस को को चित्रीकरण स्थल पर जाने से निषिद्ध कर रहे थे। उन्होंने चित्रीकरण के लिए एक विस्तृत क्षेत्र घेर कर रखा था। यह न्यायसंगत नहीं है। यह एक सार्वजनिक स्थल है। सभी पर्यटक प्रवेश-शुल्क देकर भीतर प्रवेश किए हैं। उन्हे सभी स्थानों पर जाने एवं अवलोकन करने की स्वतंत्रता है।

गांधी स्मारक

जब आप कान्हेरी गुफाएं देखने यहाँ आएं तब आप गांधी स्मारक भी देख सकते हैं। गांधी स्मारक एक पहाड़ी की चोटी पर बना एक मंडप है जिसे महात्मा गांधी की स्मृति में बनवाया गया था। वहाँ से आप सम्पूर्ण नगर का ३६० अंश का परिदृश्य देख सकते हैं।

संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान

आप इस राष्ट्रीय उद्यान में विचरण कर सकते हैं तथा यहाँ की शुद्ध वायु का आनंद उठा सकते हैं। यहाँ एक छोटी झील है जिसमें आप नौका विहार का आनंद ले सकते हैं। एक छोटी रेलगाड़ी आपको सम्पूर्ण पहाड़ी की सैर  कराती है। यहाँ बाघ सफारी का भी आनंद लिया जा सकता है। कुल मिलाकर आप एक सम्पूर्ण दिवस यहाँ व्यतीत कर सकते हैं। यह उद्यान अन्य घने राष्ट्रीय उद्यानों जैसा हरा-भरा नहीं है। फिर भी यह मुंबई जैसी भीड़भाड़ भरी महानगरी के फेफड़ों के समान है।

मंडपेश्वर गुफाएँ

यहाँ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर मंडपेश्वर गुफाएँ हैं जो गुफाओं का लघु समूह है। इन गुफाओं की भिन्नता यह है कि ये हिन्दू गुफाएं हैं। एक भित्ति पर भगवान शिव की नृत्य मुद्रा में एक विशाल प्रतिमा है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ एक विशाल शिवलिंग था। किन्तु वह शिवलिंग अब कहाँ है, इसकी जानकारी नहीं है। उसके स्थान पर अब एक नवीन लिंग की आराधना की जाती है। एक लंबे समय तक इन गुफाओं का प्रयोग एक गिरिजाघर के रूप में भी किया जाता था। अब यह हिंदुओं का पूजनीय स्थल है। हमने यहाँ स्त्रियों के एक विशाल समूह को पूजा-अर्चना करते देखा। किन्तु विडंबना यह है कि ये गुफाएं अत्यंत ही मलिन परिवेश में स्थित है।

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अब मेरा आगामी लक्ष्य है, मुंबई नगरी के अन्य ब्रिटिश-पूर्व ऐतिहासिक तत्वों की खोज, जैसे बाणगंगा कुण्ड। उन ऐतिहासिक स्थलों में से कुछ का उल्लेख इस पॉडकास्ट में किया गया है जिसमें हम हमारे मित्र भरत गोठोस्कर जी से मुंबई के विषय में चर्चा कर रहे हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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