हिमाचल प्रदेश Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/हिमाचल-प्रदेश/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Fri, 09 Aug 2024 05:48:48 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग- हिमाचल की अद्भुत बरोट घाटी https://inditales.com/hindi/beed-billng-himachal-ke-romanchak-anubhav/ https://inditales.com/hindi/beed-billng-himachal-ke-romanchak-anubhav/#respond Wed, 22 Jan 2025 02:30:06 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3753

हिमाचल प्रदेश पर्यटकों का स्वर्ग है। हिमाचल की झोली में पर्यटकों के लिए अनेक उपहार हैं। यह भारत के सर्वाधिक पर्यटन-अनुकूल राज्यों में से एक है। देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध इस राज्य में अनेक मंदिर एवं तीर्थस्थल हैं। इस राज्य को प्रकृति ने हिमालय की धौलाधार, हिमाचल व शिवालिक पर्वत मालाओं  से अलंकृत किया […]

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हिमाचल प्रदेश पर्यटकों का स्वर्ग है। हिमाचल की झोली में पर्यटकों के लिए अनेक उपहार हैं। यह भारत के सर्वाधिक पर्यटन-अनुकूल राज्यों में से एक है। देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध इस राज्य में अनेक मंदिर एवं तीर्थस्थल हैं। इस राज्य को प्रकृति ने हिमालय की धौलाधार, हिमाचल व शिवालिक पर्वत मालाओं  से अलंकृत किया है जिनके दर्शन करने तथा जिन पर अनेक रोमांचकारी खेल करने विश्व भर से अनेक पर्यटक आते हैं।

एक ओर हिमाचल प्रदेश पर्यटकों में अपने पर्वतीय मार्गों पर रोमांचकारी पदयात्राओं तथा मोटरसाइकिल की सवारी के लिए लोकप्रिय है तो दूसरी ओर पर्यटक यहाँ पैराग्लाइडिंग का अनुभव प्राप्त करने के लिए भी आते हैं। हिमाचल प्रदेश में स्थित बीर बिलिंग अथवा बीड बिलिंग या बीड़ बिलिंग विश्व के लोकप्रिय पैराग्लाइडिंग स्थलों में से एक है। यह विश्व का दूसरा सर्वोच्च पैराग्लाइडिंग स्थल है।

मैं एक लम्बे समय से पैराग्लाइडिंग का अनुभव प्राप्त करने के लिए बीड़ बिलिंग की यात्रा का नियोजन कर रहा था। किसी ना किसी कारणवश मेरी योजना साकार नहीं हो पा रही थी। अंततः, इस वर्ष २६ जनवरी के लम्बे सप्ताहांत में मैं एवं मेरे मित्र चार दिवसों की हिमाचल यात्रा पर निकल पड़े।

अपनी इस यात्रा संस्मरण द्वारा मैं अपनी उसी रोमांचक यात्रा के अनुभव आपसे साझा कर रहा हूँ। इस संस्मरण में वहाँ के दर्शनीय स्थलों, लोकप्रिय क्रियाकलापों एवं कुछ महत्वपूर्ण सूचनाओं का भी उल्लेख कर रहा हूँ जो आपको एक सफल यात्रा का नियोजन करने में सहायक होगी।

बीड़ बिलिंग लोकप्रिय क्यों है?

रोमांचक खेलों में पैराग्लाइडिंग सर्वाधिक लोकप्रिय क्रीड़ाओं में से एक है। सम्पूर्ण विश्व में तथा भारत में ऐसे अनेक स्थल हैं जो रोमांचक क्रियाकलापों के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं। अपनी ऊंचाई एवं उड़ान कालावधि के कारण उन सब में बीड़ बिलिंग का एक विशेष स्थान है। बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग के लिए उड़ान बिंदु की ऊँचाई समुद्रतल से लगभग ३२०० मीटर है जो अन्य स्थलों के उड़ान बिंदु की ऊँचाई से कहीं अधिक है।

यहाँ का दूसरा आकर्षण यह है कि उड़ान की औसत कालावधि लगभग २०-२५ मिनट हैं, जो अन्य स्थलों के औसत उड़ान कालावधियों से कहीं अधिक है। मैंने उत्तराखंड के भीमताल में भी पैराग्लाइडिंग की थी। किन्तु वह अनुभव बीड़ बिलिंग की पैराग्लाइडिंग में प्राप्त अनुभव के समक्ष न्यून है। अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि बीड़ बिलिंग की पैराग्लाइडिंग के समक्ष भारत के अन्य सभी स्थलों के पैराग्लाइडिंग अनुभव गौण हैं।

बीड़ बिलिंग कहाँ है?

बीड बिलिंग का बौद्ध मठ
बीड बिलिंग का बौद्ध मठ

बीड़ हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के अंतर्गत, भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय स्थलों में से एक, बैजनाथ नगर में स्थित एक सुन्दर गाँव है। यह भारत की राजधानी दिल्ली से लगभग ५३० किलोमीटर दूर है। यहाँ का पैराग्लाइडिंग स्थल दो भागों में बंटा है, बिलिंग का उड़ान स्थल तथा बीड़ का अवतरण स्थल।

बीड़ बिलिंग में मेरा अनुभव

मेरी बीड़-बिलिंग यात्रा में मेरे प्रथम दिवस का पड़ाव बरोट घाटी तथा दूसरे दिवस का पड़ाव बीड़ में नियोजित था।

इस यात्रा का आरम्भ हमने दिल्ली से सड़क मार्ग द्वारा किया था। दिल्ली की सड़कों पर उपस्थित गाड़ियों की प्रातःकालीन भीड़ से बचने के लिए हम प्रातः शीघ्र ही निकल पड़े। मुझे अपनी मोटरसाइकिल द्वारा साच दर्रे की यात्रा (bike trip to Sach Pass) का स्मरण हो आया जब हम भारत के सर्वाधिक जोखिम भरे मार्ग (toughest roads in India) पर जाने के लिए इसी प्रकार प्रातः शीघ्र ही निकल पड़े थे। दिल्ली से बरोट पहुँचने में हमें लगभग १४ घंटों का समय लगा। मार्ग में हम अम्बाला में जलपान करने के लिए कुछ समय रुके थे। तत्पश्चात पंजाब-हिमाचल प्रदेश की सीमा पर उना नगर में हमने दोपहर का भोजन किया।

हमारी सम्पूर्ण सड़क यात्रा, विशेषतः काँगड़ा से बीड़ तक की यात्रा मंत्र मुग्ध कर देने वाली थी। अप्रतिम सौंदर्य से युक्त बरोट घाटी को चारों ओर से अलंकृत करते धौलाधार पर्वत माला के शुभ्र श्वेत हिमाच्छादित शिखर मन मोह लेते हैं। बौद्ध नगरी धर्मशाला के समीप स्थित बीड़ के मार्ग में हमने अनेक बौद्ध भिक्षुकों को देखा। चित्रपट राजा हिन्दुस्तानी द्वारा अधिक लोकप्रिय हुआ पालमपुर नगर एवं तीर्थ नगरी बैजनाथ को पार कर हम अंततः बरोट घाटी पहुंचे। दिवस भर पर्वतीय मार्गों पर कार चलाते हुए हम थक गए थे। इसलिए वहाँ पहुंचकर हमने विश्राम करने का निश्चय किया तथा घाटी अवलोकन का कार्यक्रम अगले दिवस के लिए नियोजित किया।

हिमाचल एवं स्पीति घाटी – १५ दिवसीय रोमांचक सड़क यात्रा

बरोट घाटी

बरोट घाटी में मेरे प्रथम दिवस का आरंभ मेरे सामान्य दिवस की तुलना में पूर्णतः भिन्न था। प्रातः आँख खुलते ही कड़कड़ाती ठण्ड ने हमारा स्वागत किया। ऊबदार रजाइयों से बाहर निकलना किसी साहसपूर्ण कार्य से कम नहीं था। आपको स्मरण होगा, हम यहाँ २६ जनवरी के लम्बे सप्ताहांत में पहुंचे थे जो उत्तर भारत में शीत ऋतु के चरमकाल में पड़ता है।

बरोट घाटी
बरोट घाटी

पिछले दिवस हमने यात्रा के अंतिम घंटे लगभग अन्धकार में पूर्ण किये थे। इसलिए हम घाटी के परिदृश्य देख नहीं पाए थे। आज प्रातः हमने घाटी का जो दृश्य देखा, उसने मानो पिछले दिवस की क्षतिपूर्ति कर दी हो। या कहूँ, उससे भी कहीं अधिक! हमारे समक्ष सम्पूर्ण घाटी का दृश्य हमारे मन को मोह लेने के लिए तत्पर खड़ा था।

सम्पूर्ण दृश्य ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। सम्पूर्ण घाटी ने बर्फ की श्वेत चादर ओढ़ रखी थी। कड़ाके की ठण्ड हमें स्नान ना करने पर बाध्य कर रही थी।

ऊहल नदी

दूसरे दिवस प्रातः हलके जलपान के पश्चात हमें पर्वतीय गाँव की पैदल यात्रा एवं एक लघु पर्वतारोहण के लिए पोल्लिंग गाँव जाना था। पोल्लिंग गाँव बरोट से ९ किलोमीटर तथा हमारे विश्रामगृह से ५ किलोमीटर दूर है। कुछ समय पूर्व हुए हिमपात ने पोल्लिंग से बरोट के मध्य मुख्य मार्ग अवरुद्ध कर दिया था। हमने हमारी कार वहीं छोडी तथा स्थानीय जिप्सी गाड़ी की सेवायें लीं। लगभग ११ बजे हम निकले तथा ३० मिनट के पश्चात लोहार्डी गाँव पहुंचे।

उहल नदी बरोट घाटी
उहल नदी बरोट घाटी

लोहार्डी से आगे की यात्रा हमने पैदल पूर्ण की। यद्यपि हमारे साथ एक स्थानिक परिदर्शक था, तथापि बरोट घाट से बहती ऊहल नदी हमारी सर्वोत्तम परिदर्शक थी। वह हमें निरंतर मार्ग दिखा रही थी। ऊहल नदी इस क्षेत्र के निवासियों की जीवन रेखा है।

जैसे जैसे हम पोल्लिंग गाँव की ओर आगे बढ़ रहे थे, बर्फ की चादर की मोटाई भी बढ़ रही थी। जब हम लम्बदुग जलविद्युत उत्पादन प्रकल्प पहुंचे, मुख्य सड़क पर बर्फ की मोटाई अब एक फुट से अधिक हो गयी थी तथा सड़क के दोनों ओर उससे भी अधिक मोती परत थी। एक लटकते सेतु से हम ऊहल नदी के उस पार पहुंचे तथा गाँव की ओर आगे बढ़ने लगे।

सेतु पार करते ही हमारी पैदल यात्रा पर्वतारोहण में परिवर्तित हो गयी थी जिससे हमारी गति कम हो रही थी। गाँव तक पहुँचने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग भी था किन्तु उसे बर्फ ने अवरुद्ध कर रखा था। हमने गांववासियों द्वारा प्रयुक्त एक अन्य वैकल्पिक पथ का प्रयोग कर गाँव पहुँचने का निश्चय किया। पोल्लिंग पहुँच कर निकटतम पर्वत शिखर पर चढ़ने से पूर्व हमने दोपहर का भोजन किया। शीत ऋतु के चरम स्तर में ऊँचाई पर स्थित गाँवों में सीमित संसाधन ही उपलब्ध होते हैं। जलपानगृहों में भी भोजन के सीमित व्यंजन ही उपलब्ध होते हैं। यहाँ केवल राजमा व चावल ही उपलब्ध था। किन्तु हम उसमें ही आनंदित थे। भोजन के पश्चात हम रोहण के लिए आगे बढे। ४५ मिनट तक चढ़ने के पश्चात हम शिखर पर पहुंचे।

हिमपात

शिखर पर पहुंचे ही थे कि हिमपात आरम्भ हो गया। मेरे अधिकतर मित्रों के लिए हिमपात का यह प्रथम अनुभव था। शिखर से ३६० अंश का विहंगम दृश्य अत्यंत रोमांचकारी था। शिखर से नीचे देखने पर पोल्लिंग गाँव के घर अत्यंत गौण प्रतीत हो रहे थे। हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतने कम समय में हम इस ऊँचाई तक चढ़ गए थे। लगभग एक घंटे तक हम एवं हमारे कैमरे इन अप्रतिम दृश्यों का आनंद लेते रहे तथा उन स्मृतियों को अमर बनाते रहे। शनैः शनैः सूर्य का उजाला कम होने लगा था। हिमपात तापमान को नीचे नीचे ले जा रहा था। अब हमारे विश्रामगृह लौटने का समय हो गया था।

पोल्लिंग गाँव पहुंचते पहुँचते हमारा चलना दूभर होने लगा था। वातावरण अत्यंत शीतल हो गया था। इसके अतिरिक्त हमारे जूते भी भीतर से गीले हो गए थे। हमने जिप्सी गाड़ी को यहीं बुलवा लिया तथा लटकते सेतु से विश्रामगृह तक गाड़ी से ही पहुंचे। विश्रामगृह हम अकेले नहीं पहुंचे थे, अपितु हमारे साथ पर्वतारोहण एवं शिखर से दिखते विहंगम दृश्यों की स्मृतियाँ भी साथ लौटी थीं। वापिसी यात्रा के समय होते दर्दभरे अनुभव भी साथ लौटे थे।

बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग

अगला दिवस विशेष था क्योंकि हम रोमांचकारी क्रीड़ाओं के लिए जाने वाले थे। बरोट से जोगिंदरनगर होते हुए हम बीड़ गाँव पहुंचे। बरोट से बीड़ तक की ५० किलोमीटर की सड़क यात्रा अत्यंत लुभावनी थी जिसमें हमने अनेक छोटे छोटे सुन्दर हिमालयी गाँवों को पार किया। बीड़ गाँव पहुँचते ही हम आश्चर्यचकित रह गए। बीड़ किसी भी मापदंड से गाँव प्रतीत नहीं होता है। गाँव की पूर्ण जनसँख्या पर्यटन सम्बन्धी क्रियाकलापों के चारों ओर ही केन्द्रित है, विशेषतः पैराग्लाइडिंग। सम्पूर्ण गाँव मुख्यतः होमस्टे, होटलों, जलपानगृहों इत्यादि से भरा हुआ है तथा पर्यटकों की यात्रा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ती करता है। यहाँ के अनेक निवासी वाहनचालक, परिदर्शक, प्रशिक्षक आदि के रूप में कार्यरत हैं।

हमने हमारे मेनेजर से पैराग्लाइडिंग के लिए हमारे पूर्वनियोजित समयावधि की जानकारी ली। हमें दो घंटे वहीं प्रतीक्षा करनी थी। अतः हमने दोपहर का भोजन करने का निश्चय किया। भोजन के पश्चात परिदृश्यों के कुछ रचनात्मक चित्र भी लिए। हमारे पैराग्लाइडिंग का समय समीप आ रहा था। हम साझा सूमो गाड़ी से निकटतम पर्वत शिखर पहुंचे जो हमारा नियोजित पैराग्लाइडिंग उड़ान स्थल था।

हमारा नियोजित पैराग्लाइडर उड़ान स्थल बिलिंग हमारे पैराग्लाइडर अवतरण स्थल बीड़ से लगभग २० किलोमीटर दूर था। बीड़ से बिलिंग तक पहुँचने में हमें दो घंटे लगे। उस समय शीत ऋतु की चरम सीमा थी जो पर्यटकों की दृष्टी से मंदी का समय होता है, फिर भी वहां पर्यटकों की बड़ी भीड़ थी। हमने घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये तथा सुरक्षात्मक साधनों को धारण किया।

पैराग्लाइडिंग अनुभव

यह एक आसान कार्य है। आपको केवल बड़ी तेजी से दौड़ लगानी है तथा पहाड़ से कूद जाना है। जब आप दौड़ लगाते हो तब पैराग्लाइडर के पंखों में आवश्यक वायु एकत्रित हो जाती है तथा वह उड़ने के योग्य हो जाती है। एक ग्लाइडर में दो व्यक्ति सवार हो सकते हैं। पर्यटक सामने की कुर्सी पर बैठता है तथा उसके पीछे पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षक अथवा गाइड बैठता है जो पंखों से बंधी रस्सियों द्वारा पैराग्लाइडर को सही दिशा में उड़ाता है।

हम भी उसी प्रकार पहाड़ से कूद गए। सहज होने में तथा वायु की दिशा को जानने में हमें कुछ क्षण लगे। उड़ने के लिए सहज एवं अभ्यस्त होने के पश्चात मुझे आनंद आने लगा। मैं अपने गाइड से वार्तालाप करने लगा तथा मैंने उसे पैराग्लाइडिंग के अपने पिछले अनुभव के विषय में बताया। उसने मुझे आश्वासन दिया कि उड़ान के अंत में वह पैराग्लाइडर का घुमावदार अवतरण करवाएगा। मेरा गोप्रो कैमरा घाटी एवं धौलाधार पर्वतमाला के विहंगम दृश्यों को आत्मसात करने लगा। अत्यंत शीतल वायु मेरी उड़ान को असह्य बनाने में लगभग सफल हो रही थी क्योंकि मैंने दस्ताने नहीं पहने थे। ठण्ड इतनी थी कि खुले हाथों से कैमरा पकड़ना भी दूभर हो रहा था। दस्ताने ना लाना मेरी भारी भूल थी। किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि इतना कष्ट सहने के पश्चात भी मैंने उड़ान के प्रत्येक क्षण का आनंद उठाया। ऊँचाई से पहाड़ एवं गाँव अत्यंत सूक्ष्म प्रतीत हो रहे थे। मेरे साथ उड़ते अन्य पैराग्लाइडरों को देख उड़ने का अपरोक्ष आनंद भी आया। उन्हें देख यह आभास हुआ कि पंछी कितने भाग्यशाली होते हैं जो खुले आकाश में उड़ सकते हैं। मेरी उड़ान अगले १८ मिनटों तक जारी रही।

अवतरण

जब हम अवतरण स्थल के समीप पहुंचे, मेरे गाइड ने मुझे सिखाया कि घुमावदार अवतरण किस प्रकार की जानी चाहिए। घुमावदार अवतरण में ग्लाइडर एक छोटे गोलाकार में तेज गति से घूमता है। यह सामान्य अथवा सीघे अवतरण तकनीक से भिन्न तकनीक है। उस अवतरण अनुभव ने मुझे रोमांचित कर दिया था। मैंने सम्पूर्ण पैराग्लाइडिंग के उत्तम अनुभव के लिए अपने गाइड का धन्यवाद किया। हम सब की उड़ान समाप्त होते ही हमने निर्धारित शुल्क जमा किया, जो २००० रुपये प्रति व्यक्ति था। इसके अतिरिक्त, किराये का कैमरा ५०० रुपये में उपलब्ध था। चूँकि मैंने स्वयं का गोप्रो रखा था, मुझे केवल २००० रुपये देने पड़े।

इससे पूर्व मैंने भीमताल में पैराग्लाइडिंग की थी किन्तु यह अनुभव अद्वितीय था।

हम जैसे ही बीड़ में उतरे, मौसम अधिक बिगड़ने लगा था जिसके चलते आयोजकों को अंतिम २० उड़ानें रद्द करनी पड़ी। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि उन्होंने मेरी उड़ान बिना किसी व्यवधान के पूर्ण करने में सहायता की। यदि हमारा क्रमांक आते आते २० मिनटों का विलम्ब हो जाता तो कदाचित हमारी उड़ान भी रद्द हो जाती। इसके अतिरिक्त, दोपहर के ४ बजे तक हमारा पैराग्लाइडिंग उड़ान समाप्त हो जाने के कारण हमारे पास वापिसी की यात्रा आरम्भ करने के लिए पर्याप्त समय था। हमने तुरंत ही दिल्ली के लिए रवाना होने का निश्चय किया ताकि पर्वतों के दुर्गम मार्ग हम उजाले में पार  कर सकें। मैदानी क्षेत्रों में गाड़ी चलाना अपेक्षाकृत आसान होता है।

बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग करने के लिए कुछ सुझाव  

  • बीड़ बिलिंग एवं बरोट तक सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। आप यहाँ तक पहुँचने के लिए दिल्ली-मनाली मार्ग अथवा दिल्ली-कांगड़ा मार्ग का प्रयोग कर सकते हैं।
  • दोनों स्थानों पर उपयुक्त विश्रामगृह की सुविधाएं उपलब्ध हैं। यद्यपि बीड़ एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन चुका है, तथापि बरोट भी उससे अधिक पीछे नहीं है। यहाँ अनेक स्तर के होमस्टे, होटल एवं तम्बू सुविधाएं उपलब्ध हैं।
  • यदि पैराग्लाइडिंग में आपकी रूचि हो तो मेरा सुझाव है कि आप पैराग्लाइडिंग सुविधाओं का पूर्व में ही आरक्षण कर लें। अन्यथा संभव है कि पर्यटन कालावधि के चरम समय में आपके लिए उड़ान समयावधि शेष ना रहे।
  • यहाँ पर्यटन का चरम काल ग्रीष्म ऋतु में रहता है। यद्यपि शीत ऋतु में पर्यटकों की भीड़ कम रहती है तथा पैराग्लाइडिंग भी उपलब्ध रहती है, तथापि धुंध एवं विकट तापमान आपकी यात्रा योजना ध्वस्त कर दें, इसकी संभावना भी अत्यधिक रहती है।
  • पर्यटन के चरम काल में पैराग्लाइडिंग शुल्क २५०० से ३५०० रुपये प्रति व्यक्ति प्रति उड़ान के मध्य घटते-बढ़ते हैं। शीत ऋतु में इसका शुल्क इससे कम रहता है।
  • यदि आप पर्वतारोहण की योजना बना रहे हैं तो आप अपने साथ एक जानकार परिदर्शक अवश्य रखें क्योंकि पर्वतारोहण पगडंडियाँ सुपरिभाषित नहीं हैं। स्थानिक व जानकार परिदर्शक आवश्यक है।
  • बीड़ एवं बरोट दोनों स्थानों में मोबाइल फ़ोन के नेटवर्क सुचारू रूप से कार्य करते हैं। डाटा नेटवर्क में कुछ व्यवधान आ सकता है किन्तु किसी को फ़ोन करने में सामान्यतः बाधा नहीं होती है।

यह सुशांत पाण्डेय द्वारा लिखित तथा inditales द्वारा प्रकाशित अतिथि यात्रा संस्करण है।

सुशांत पाण्डेय व्यवसाय से दूरसंचार अभियंता हैं। साथ ही वे इतिहास एवं भूगोल प्रेमी भी हैं। रिक्त समय में यात्राएं करना उन्हें अत्यंत भाता है। विशेषतः दुपहिये पर सवार होकर भारत के विभिन्न क्षेत्रों की खोज करने में उनकी उत्कट इच्छा रहती है। उन्हें भारत के इतिहास एवं भूगोल संबंधी वृत्तचित्र देखना भी भाता है। अपने अतिरिक्त समय का सदुपयोग वे अपने ब्लॉग Knowledge of India को संभालने में करते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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देवी बूढ़ी नागिन सेरोलसर सरोवर की संरक्षक https://inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/ https://inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/#respond Wed, 11 Dec 2024 02:30:47 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3731

एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है […]

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एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जिसमें गाय को हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग माना जाता है।

जब जब हमारे परिवार में गौमाता का प्रसूतीकरण होता था, तब तब मैंने अपनी माता एवं दादीजी को इस परंपरा का पालन करते हुए देखा है। बछड़ा दूध पी ले, उसके पश्चात बचा हुआ दूध एकत्र कर उससे घी बनाया जाता था तथा उस घी को एक पृथक बर्नी में सुरक्षित रखा जाता था। उस बर्नी के घी को खाने की अनुमति किसी को नहीं होती थी। मैंने अपनी दादीजी से इसका कारण जानने का प्रयास किया। उन्होंने मुझे बताया कि गौमाता के प्रथम दूध से निर्मित घी को सेरोलसर सरोवर की संरक्षिका देवी बूढ़ी नागिन के लिए पृथक रखा जाता है।

बूढ़ी नागिन की कथा

बूढ़ी नागिन के नाम से प्रसिद्ध देवी को नवदुर्गा का अवतार माना जाता है। बूढ़ी नागिन हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में सेराज क्षेत्र में रहती थी। विवाह के पश्चात वे सुकेत क्षेत्र में चली गईं जो अब हिमाचल के करसोग जिले में है।

बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश
बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश

एक समय बूढ़ी नागिन उनके क्षेत्र से बहती सतलज नदी के तट पर गयी। अपने घर से चलने से पूर्व उन्होंने अपनी माता से कहा था कि उनके लौट आने से पूर्व वे उनकी संतानों को निद्रा से ना जगायें। उस समय उनकी संतानें रसोईघर में रखी एक टोकरी में भूसे के ऊपर निद्रामग्न थे। आपको यह पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा किन्तु उस काल में पालने का प्रचलन नहीं था। माता अपनी संतान को टोकरी में भूसे के ऊपर ही सुलाती थी।

जब दीर्घ काल तक भी बूढ़ी नागिन की संतानें निद्रा से जागी नहीं तो उनकी माता चिंतित हो गयी। बूढ़ी नागिन के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने उन संतानों के ऊपर से कंबल हटाया। कंबल हटाते ही वे भौंचकी रह गईं। टोकरी में ५-६ सर्प थे। सर्पों को देखते ही भयवश उन्होंने चूल्हे की राख उन पर बिखेर दी। सभी सर्प इधर-उधर भाग गये।

जब बूढ़ी नागिन वापिस आयी, उन्हे उनकी संतानें कहीं नहीं दिखीं। संतानों से बिछड़ जाने पर वो अत्यंत दुखी हो गयी और उन्होंने गाँव का त्याग कर दिया।

बूढ़ी नागिन की स्मृति में भुईरी गाँव स्थित उनके निवासगृह में उनका एक लघु शैल विग्रह रखा गया है तथा उसकी पूजा आराधना की जाती है। बूढ़ी नागिन के छोटे से गृह का ना तो पुनर्निर्माण किया जा सकता है, ना ही उसका पुनरुद्धार किया जा सकता है।

बूढ़ी नागिन अपने गृह का त्याग कर सेरोलसर सरोवर पहुँची जो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में बंजर घाटी में जालोरी दर्रे के समीप स्थित है।

नाग आराधना

ऐसी मान्यता है कि बूढ़ी नागिन नाग देवताओं की माता है। इस क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की मान्यताओं के अनुसार नाग का संबंध भगवान शिव से है। प्रत्येक नाग का स्वयं का क्षेत्र एवं गाँव है जिनका नाम उन्ही पर रखा गया है, जैसे चौवासी नाग, हुंगरू नाग तथा झाकड़ नाग।

इन गांवों में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है जिनकी वास्तुशैली हिमाचली है। इनमें काष्ठ का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। काष्ठ पर अप्रतिम उत्कीर्णन होते हैं। प्रत्येक वर्ष मंदिरों के पुरोहित तथा गाँववासी इन मंदिरों का भ्रमण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नाग देवता भी इन सभी मंदिरों में भ्रमण करते हैं। भक्तगण नागों को विविध वस्तुएं अर्पण करते हैं। स्थानीय कलाकार हिमाचली शैली में लोकनृत्य भी करते हैं जिसे नटी कहते हैं।

सेरोलसर सरोवर एक तृण आच्छादित सुंदर भूभाग के मध्य स्थित है। यहाँ से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है। आप यहाँ से चारों ओर दृष्टिगोचर पर्वत शिखरों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर की आभी चिड़िया

स्थानीय लोककथा के अनुसार बूढ़ी नागिन अपने गाँव का त्याग कर सेरोलसर आ गयी तथा एक विशाल शिला पर बैठ गयी। यहाँ ६० योगिनियाँ थीं जिन्हे इंद्रदेव की पौरी कहते हैं। कुछ योगिनियाँ मंडी में शिकारी देवी के पास जा रही थीं तो कुछ जालोरी जोत  जा रही थीं। उन्होंने बूढ़ी नागिन को वहाँ बैठे देखा। योगिनियाँ उनके पास गयीं तथा उन्हे खेल खेलने के लिए आमंत्रित किया।

उन्हे लगा कि नागिन बूढ़ी है इसलिए उन्हे आसानी से परास्त किया जा सकता है। खेल से पूर्व कुछ नियम निर्धारित किये गये। यदि खेल में बूढ़ी नागिन विजयी होती हैं तो वे इस स्थान को अपने पावन स्थल के रूप में स्वीकार करेंगी। यदि योगिनियाँ विजयी होती हैं तो बूढ़ी नागिन यह स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाएंगी।

क्रीडा के मध्य एक योगिनी ने छल किया। यह देख बूढ़ी नागिन क्रोधित हो उठी। उन्होंने उसे श्राप दिया कि वो सदा के लिए एक छोटा पक्षी बन जाए। बूढ़ी नागिन ने उस पक्षी को सेरोलसर की स्वच्छता करते रहने का कार्य सौंप दिया। उस पक्षी को आभी चिड़िया कहते हैं।

बूढ़ी नागिन उस खेल में विजयी हुई तथा सदा के लिए यहीं बस गयी। बूढ़ी नागिन ने जब अपने निवास एवं गाँव का त्याग किया था, वे अपने साथ एक कलश ले कर चली थीं। सेरोलसर में भ्रमण करते समय उनके हाथ से वह कलश छूट गया तथा उससे निकले जल से यहाँ एक सरोवर की उत्पत्ति हुई। वही सेरोलसर सरोवर बना।

जिस शिला पर बूढ़ी नागिन बैठे हुई थी, उस शिला को काला पत्थर कहते हैं।

पांडव कथा

पांडव अपने वनवास काल में जालोरी दर्रे पर पहुँचने के पश्चात सेरोलसर सरोवर आये थे। उन्होंने सरोवर के निकट धान की खेती आरंभ की। ऐसा कहा जाता है कि बूढ़ी नागिन ने सरोवर से प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिए तथा पुनः सरोवर में अन्तर्धान हो गयी।

सरोवर पांडवों ने सरोवर से बूढ़ी नागिन का विग्रह निकालकर उसे सरोवर के निकट स्थापित किया। सरोवर के तट पर उनके लिए एक मंदिर का निर्माण किया। कालांतर में इस मंदिर के नवीनीकरण के चार आवर्तन हुए। मंदिर की वर्तमान संरचना चौथे नवीनीकरण का परिणाम है।

बूढ़ी नागिन मंदिर में शुद्ध घी का अर्पण

मंडी एवं कुल्लू क्षेत्रों के सभी नाग देवताओं की माता, बूढ़ी नागिन को गायों से अत्यंत प्रेम था। इसलिए भक्तगण जब भी बूढ़ी नागिन के दर्शन के लिए उनके मंदिर जाते हैं तब अपने संग उनके लिए गाय के दूध का घी भी ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि आप इस मंदिर में घी का अर्पण करें तो वह घी सीधे सरोवर के मध्य पहुँच जाता है जहाँ बूढ़ी नागिन निवास करती हैं।

प्राचीन बूढी नागिन मंदिर
प्राचीन बूढी नागिन मंदिर

भक्तगण मंदिर में कई किलोग्राम घी का अर्पण करते हैं। प्रत्येक वर्ष, विशेष अवसरों पर इस क्षेत्र के सभी नाग बूढ़ी नागिन से भेंट करने यहाँ अवश्य आते हैं। इन विशेष अवसरों की घोषणा यहाँ के स्थानीय पुरोहित करते हैं।

शीत ऋतु में भीषण हिमपात के कारण यह मंदिर बंद रहता है।

और पढ़ें: महान हिमालय पर १० सर्वोत्तम पुस्तकें

सेरोलसर सरोवर के गूढ़ रहस्य

सेरोलसर सरोवर की गहराई किसी को ज्ञात नहीं है।

सेरोलसर सरोवर से संबंधित एक अन्य रहस्यमयी कथा भी है। एक समय एक ब्राह्मण अपने परिवार के संग सरोवर के आसपास पदभ्रमण कर रहा था। अकस्मात ही वह फिसल कर सरोवर में गिर गया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे बचाने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे असफल रहे। उन्हे ब्राह्मण के बिना ही लौटना पड़ा। महद आश्चर्य कि तीन वर्षों पश्चात वह ब्राह्मण सरोवर से पुनः अपने निवास लौट आया। बूढ़ी नागिन ने उसे शपथबद्ध किया था कि वह उनके विषय में किसी से नहीं कहेगा।

ब्राह्मण के परिवारजन उनसे अनवरत प्रश्न करते रहे, ‘तुम कहाँ गये थे?’, ‘तुम बचे कैसे?’, ‘तुम्हें किसने बचाया?’ आदि। अंत में ब्राह्मण के धैर्य का बांध टूट गया तथा उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त का बखान कर दिया। उसने बताया कि जैसे ही वह सरोवर में गिरा, वह सीधे सरोवर के तल में जा पहुँचा। वहाँ बूढ़ी नागिन ने उसकी रक्षा की। उसने यह भी जानकारी दी कि सरोवर के तल पर बूढ़ी नागिन अपने स्वर्ण महल में निवास करती है। यह भी बताया कि उसने वहाँ दूध के अनेक पात्र देखे। बूढ़ी नागिन वहाँ दही भी बिलोती है।

जैसे ही ब्राह्मण के मुख से इस घटना का सत्य प्रकट हुआ, उसकी मृत्यु हो गयी। इसके पश्चात सरोवर पर गाँववासियों का ताँता लग गया। सभी गाँववासियों को कुछ ना कुछ रहस्यमयी एवं भीतिदायक अनुभव हुए। इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला गया कि कदाचित बूढ़ी नागिन इस सरोवर को मानवी क्रियाकलापों से अछूता रखना चाहती हैं। कदाचित वे इस सरोवर को अनवरत स्वच्छ रखना चाहती हैं। मैंने देखा कि वास्तव में यह सरोवर अत्यंत स्वच्छ है। मैंने एक पत्ता भी सरोवर के जल में नहीं देखा।

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जालोरी दर्रा

करसोग का सुकेत क्षेत्र कुल्लू जिले में बंजर घाटी के जालोरी दर्रे से लगा हुआ है। कुल्लू एवं शिमला जिलों को जोड़ते अनेक दर्रों में से जालोरी भी एक मुख्य दर्रा है। इस दर्रे की रचना शिमला से कुल्लू जाने के लिए अंग्रेजों ने की थी। यह दर्रा कुल्लू जिले में स्थित है।

जलोरी दर्रा समुद्र तल से लगभग २००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। भीषण हिमपात के कारण शीत ऋतु में यह दर्रा बंद रहता है। कुल्लू जिले में स्थित बंजर घाटी एक सुंदर पर्यटन स्थल भी है जो अपारंपरिक पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है।

कुल्लू जिला तीन प्रमुख घाटियों में विभाजित है, तीर्थन, बंजर एवं सैंज घाटी। जालोरी दर्रा एक सुंदर मार्ग है जो एक ओर जीभी गाँव की ओर जाता है तो दूसरी ओर अन्नी गाँव जाता है। यह देवदार के सघन मनमोहक वन से घिरा हुआ है।

जालोरी दर्रे के दूसरी ओर स्थित कुल्लू का अन्नी क्षेत्र भी लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह सेब के उद्यानों के लिए प्रसिद्ध है। सेबों की फसल आने पर यह क्षेत्र अत्यंत मनमोहक व आकर्षक हो जाता है। आप यहाँ सेबों को सीधे वृक्षों से तोड़कर खाने का भी आनंद ले सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा

क्या आप अपने दैनंदिनी नगरी दिनचर्या से उकता गये हैं? आपके लिए सर्वोत्तम आनंद होगा, प्रकृति से जुड़ना। इसीलिए मेरा आग्रह  है कि आप हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में पदभ्रमण करें तथा स्वच्छ पर्यावरण का आनंद उठायें। जालोरी दर्रे में स्थित सेरोलसर सरोवर तक ५ किलोमीटर की पदयात्रा एक नितांत रोमांचक तथा आनंददायी अनुभव है।

यह एक सरल पदयात्रा है। देवदार तथा वटवृक्षों से आच्छादित वनों के मध्य से प्रगत यह एक सीधा मार्ग है जिस पर चलकर आप सरोवर तक पहुँचते हैं। चारों ओर स्थित सुंदर पर्वत एवं उनके मध्य होते सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्य आपको आनंदविभोर कर देंगे।

प्रत्येक ऋतु में यह मार्ग भिन्न भिन्न आनंद प्रदान करता है। विशेषतः ग्रीष्म ऋतु में यह मार्ग विविध रंगों से परिपूर्ण होता है। वृक्षों के तने चटक रंगों के सेवार से ढँक जाते हैं। आप यहाँ दुर्लभ प्रजातियों के पुष्प, वनस्पतियाँ, औषधियों के पौधे व वृक्ष आदि देख सकते हैं। ऊँचे ऊँचे देवदार के वृक्ष मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

यात्रा सुझाव

  • जालोरी दर्रे के निकट आश्रय के लिए अनेक होमस्टे अथवा घर हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होते हैं। जलोरी दर्रे के मैदानी क्षेत्रों में तंबू-निवासों की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।
  • जालोरी दर्रा शिमला से कुल्लू जाते मार्ग पर स्थित है। यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँचा जा सकता है।
  • सेरोलसर सरोवर की यात्रा करने के लिए वसंत ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम हैं।
  • सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा कुल ५ किलोमीटर की है।
  • पदयात्रा का स्तर ‘सरल’ श्रेणी के अंतर्गत है।
  • शिमला से जलोरी दर्रे की दूरी लगभग १५८ किलोमीटर है जिसके लिए सड़क मार्ग द्वारा चौपहिया वाहन से सामान्यतः ५ घंटे लगते हैं।
  • जालोरी दर्रे से निकटतम गाँव जीभी है जो १२ किलोमीटर दूर स्थित है।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह यात्रा संस्करण पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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हिमाचल की करसोग घाटी में पांडवकालीन मंदिर https://inditales.com/hindi/karsog-ghati-himachal-pradesh/ https://inditales.com/hindi/karsog-ghati-himachal-pradesh/#respond Wed, 14 Aug 2024 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3663

हिमालय की गोद में जीवन शांतिपूर्ण होता है। मनोरम पर्वतों एवं घाटियों के मध्य, प्रकृति का आनंद लेते हुए शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने की इच्छा किसे नहीं होती! मैं अत्यंत भाग्यशाली हूँ जो मेरा जन्म ही हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में स्थित करसोग गाँव में हुआ है। करसोग घाटी के गाँव की भौगोलिक स्थिति […]

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हिमालय की गोद में जीवन शांतिपूर्ण होता है। मनोरम पर्वतों एवं घाटियों के मध्य, प्रकृति का आनंद लेते हुए शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने की इच्छा किसे नहीं होती! मैं अत्यंत भाग्यशाली हूँ जो मेरा जन्म ही हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में स्थित करसोग गाँव में हुआ है। करसोग घाटी के गाँव की भौगोलिक स्थिति अत्यंत सुरम्य है। वहां से पीर पंजाल हिमगिरी श्रृंखला का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। चारों ओर से पर्वतों से अलंकृत करसोग एक ऐसा पर्यटन स्थल है जहां आप कुछ समय प्रकृति के सानिध्य में आनंद से व्यतीत करना चाहेंगे।

करसोग घाटी का मनोरम दृश्य
करसोग घाटी का मनोरम दृश्य

उत्कृष्ट संस्कृति, समृद्ध धरोहर एवं शुद्ध आध्यात्म से संपन्न करसोग एक विशिष्ट स्थल है। प्रकृति ने करसोग को उपजाऊ भूमि, सेबों के उद्यान तथा हिमाच्छादित पर्वत शिखर को छूते देवदार के घने वनों का वरदान दिया है। यह घाटी स्वतंत्रता पूर्व के सुकेत रियासत के अंतर्गत आता था जो भारत का एक छोटा सा स्वतन्त्र राज्य था। सन् १९४७ में स्वतंत्रता के पश्चात भी यहाँ के कुछ रियासतों के राजा स्वतंत्रता पूर्वक शासन चलाते रहे। सन् १९४८ में इन रियासतों को भारतीय गणतंत्र में विलय करने के उद्देश्य से सुकेत सत्याग्रह चलाया गया था। सुकेत सत्याग्रह का आरम्भ इसी घाटी से हुआ था।

करसोग के पास एक गिनीस विश्व कीर्तिमान भी है जो उसने एक ही पात्र में केवल पांच घंटों में ९९५ किलोग्राम खिचड़ी बनाकर प्राप्त किया था। यह महान कार्य करसोग गाँव से लगभग ५२ किलोमीटर दूर स्थित तत्तापानी में मकर संक्रांति के अवसर पर बनाया गया था।

सेब की वाटिका
सेब की वाटिका

करसोग की भूमि अत्यंत उपजाऊ है। यहाँ विभिन्न प्रकार की फसलें उपजाई जाती हैं, जैसे सेब, धान, गेहूं, राजमा, आदि। करसोग अपने रसभरे, कुरकुरे, स्वादिष्ट सेबों के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ के सेबों के उद्यान लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन चुके हैं। सेबों को इस घाटी की प्रमुख फसलों में गिना जाता है।

शीत ऋतु में यहाँ कड़ाके की ठण्ड पड़ती है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ का वातावरण अत्यंत सुखकर हो जाता है। साधारणतः, दिसंबर के अंत से लेकर सम्पूर्ण जनवरी तक करसोग हिमाच्छादित रहता है। उस समय इस घाटी की सुन्दरता अपनी चरम सीमा पर होती है। बर्फ का आनंद लेने वालों के लिए यह स्वर्ग समान हो जाता है।

करसोग का इतिहास

करसोग दो शब्दों के संयोग से बना है, कर एवं सोग। इसका शाब्दिक अर्थ है, दैनिक शोक। हमारे प्राचीन महाकाव्य महाभारत में करसोग नगरी की कथा भी है। द्वापर युग में जब पांडवों को वनवास भेजा गया था, तब उन्होंने कुछ समय करसोग में भी व्यतीत किया था। ऐसी मान्यता है कि यहीं से उत्तर की ओर जाते हुए पांडवों ने हिमालय को पार किया था तथा गंधमादन पर्वत पहुंचे थे। वहीं भीम की भेंट हनुमान से हुई थी।

करसोग के ममलेश्वर मंदिर में भीम का ढोल
करसोग के ममलेश्वर मंदिर में भीम का ढोल

किवदंतियों के अनुसार इस नगरी को एक असुर की उपस्थिति का श्राप था। वनवास के समय जब पांडव वन में भ्रमण कर रहे थे, तब वे मामेल नामक एक गाँव में कुछ काल ठहरे थे। उस समय गाँव के निकट एक गुफा में एक असुर ने भी आश्रय लिया हुआ था। असुर के बर्बर अत्याचारों से बचने के लिए सभी गांववासियों ने सहमति से यह निश्चय किया कि वे प्रतिदिन एक व्यक्ति को उसके भोजन के रूप में उसके पास भेजेंगे ताकि वह एक साथ सम्पूर्ण गाँव को ना नष्ट करे। पांडवों ने जिस घर में आश्रय लिया था, उस घर के बालक को भेजने का दिवस आ गया था। उस बालक की माता अत्यंत दुखी थी तथा दहाड़े मारकर रो रही थी। पांडवों के पूछने पर उस माता ने बताया कि उसे अपने नन्हे बालक को असुर के भोजन के रूप में भेजना पड़ रहा है। भीम ने उस बालक के स्थान पर स्वयं असुर के पास जाने का निश्चय किया। घमासान युद्ध के पश्चात भीम ने उस असुर का वध कर दिया तथा गाँव को प्रतिदिन होते शोक से मुक्त किया।

पारंपरिक रूप से हिन्दुओं के लिए करसोग का विशेष महत्त्व है क्योंकि यहाँ अनेक प्राचीन मंदिर हैं जिनकी स्थापना पांडवों ने की थी।

करसोग के मंदिर

देवभूमि हिमाचल के कण कण में देव बसते हैं। करसोग भक्तों के लिए वरदान स्वरूप है। यहाँ के मंदिरों में भारत का इतिहास एवं भक्तों की श्रद्धा समाई हुई है। यहाँ के मंदिर पैगोडा शैली के हैं। इनमें शिलाओं एवं लकड़ी से निर्मित आयताकार संरचनाओं के ऊपर ढलुआ छतों की अनेक परतें होती हैं जो उन्हें बहुतलीय संरचना का रूप देती हैं। करसोग घाटी के कुछ प्रमुख मंदिर हैं, ममलेश्वर मंदिर, कामाक्षा देवी मंदिर, महुनाग मंदिर आदि।

ममलेश्वर मंदिर

ममलेश्वर मंदिर पांडवों द्वारा बनाया गया एक शिव मंदिर है जो इस नगर का प्राचीनतम मंदिर है। यह मंदिर लगभग ५००० वर्ष प्राचीन है तथा महाभारत काल में हुई घटनाओं से इसका प्रगाड़ सम्बन्ध है। ममलेश्वर महादेव मंदिर में अनेक ऐसे चिन्ह हैं जो महाबली भीम से सम्बंधित हैं। उन्हें देखने दूर दूर से भक्तगण यहाँ आते हैं।

ममलेश्वर मंदिर करसोग घाटी हिमाचल प्रदेश
ममलेश्वर मंदिर करसोग घाटी हिमाचल प्रदेश

उन चिन्हों में प्रथम है, भीम का प्राचीन ढोल, जो लगभग ६ फीट लम्बा है। देश-विदेश से भक्तगण एवं पर्यटक इस विशालकाय प्राचीन ढोल के दर्शन करने आते हैं। इस मंदिर का पांडवों से सम्बन्ध होने का संकेत देता दूसरा चिंह है, इस मंदिर के पांच शिवलिंग। ऐसी मान्यता है कि इन पांच शिवलिंगों की स्थापना पांच पांडव भ्राताओं ने की थी। तीसरा चिन्ह है लगभग ५००० वर्ष प्राचीन गेहूं का दाना। इस एक दाने का भार लगभग २०० ग्राम है। भारतीय पुरातात्विक विभाग ने भी मंदिर में रखी हुई इन वस्तुओं की पुरातनता की पुष्टि की है।

विशाल अन्न का दाना
विशाल अन्न का दाना

अंतिम चिन्ह है मंदिर में उपस्थित वह धूनी, जो मान्यताओं के अनुसार पांडवकाल से अखंडित रूप से प्रज्ज्वलित है। आपको स्मरण होगा मैंने इस गाँव की कथा आपको सुनाई थी। पांडव पुत्र भीम ने असुर का वध कर इस गाँव को उसके श्राप से मुक्त किया था। ऐसा कहा जाता है कि भीम के असुर पर विजय प्राप्त करने की स्मृति में उस काल से यह धूनी अनवरत जल रही है।

ऐसी मान्यता है कि परशुराम एवं भृगु जैसे महर्षियों ने भी यहाँ तपस्या की थी।

कामाक्षा मंदिर

ऐसी मान्यता है कि देवी का यह शक्तिपीठ सतयुग के स्वर्णिम युग में निर्मित है। वहीं शोधकर्ताओं का मानना है कि यह मंदिर परशुराम तथा पांडवों के युग से सम्बंधित हो सकता है क्योंकि उनका निष्कर्ष है कि सतयुग में निर्मित मंदिर इतने लम्बे समय तक अखंडित नहीं रह सकता है। यह शोध का विषय हो सकता है। जहां तक भक्तों की आस्था का प्रश्न है, इस मंदिर को देखने का उनका दृष्टिकोण भिन्न है। इस मंदिर में अष्टधातु में निर्मित एक मूर्ति है जो पांडवकाल की मानी जाती है।

कामाक्षा मंदिर
कामाक्षा मंदिर

दुर्गा अष्टमी के अवसरों पर मंदिर में प्रति वर्ष दो उत्सवों का आयोजन किया जाता है। इन उत्सवों में मंदिर की सभी मूर्तियों को एक रथ पर आरूढ़ किया जाता है। उनके दर्शन करने के लिए सहस्त्रों की संख्या में भक्तगण यहाँ एकत्र होते हैं। कामाक्षा देवी के दर्शन करने के लिए दूर-सुदूर से श्रद्धालु यहाँ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि कामाक्षा मंदिर में आकर देवी के दर्शन करने से भक्तों की सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। ऐसा कहा जाता है सम्पूर्ण विश्व में कामाक्षा देवी के केवल तीन मंदिर हैं। प्रथम है, असम का प्रसिद्ध शक्तिपीठ, कामख्या देवी मंदिर। दूसरा है, तमिलनाडु का कांचीपुरम तथा तीसरा है, हिमाचल के मंडी जिले में करसोग में स्थित यह कामाक्षा मंदिर। करसोग के कामाक्षा मन्दिर में परशुराम के आगमन के विषय में पुराणों में उल्लेख है।

लकड़ी पर की गयी उत्कृष्ट उत्कीर्णन इस मंदिर की विशेषता है।

महुनाग मंदिर

महुनाग को सूर्यपुत्र कर्ण का अवतार माना जाता है। कर्ण सूर्यदेव एवं क्षत्रिय माता कुंती के पुत्र थे। शूरवीर योद्धा के रूप में उनका परिचय दिया जाता है। महाभारत युद्ध में अर्जुन ने कर्ण का वध किया था। नियमों के विरुद्ध जाकर कर्ण का वध करने के कारण अर्जुन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा था। ऐसा माना जाता है कि अपने नागमित्र की सहायता से अर्जुन कर्ण के मृत शरीर को तत्तापानी के निकट सतलज के तट पर लेकर आये तथा वहां उनका अंतिम संस्कार किया। उस समय जलती चिता में से एक नाग प्रकट हुआ जो उसी स्थान पर स्थाई हो गया। लोग आज भी उस नाग की महुनाग रूप में पूजा अर्चना करते हैं।

करसोग घाटी के दर्शनीय स्थल

पंगना दुर्ग

ऐतिहासिक पंगना दुर्ग का निर्माण सन् १२११ में भूतपूर्व सुकेत रियासत के शासक राजा वीरसेन ने करवाया था। यह सुकेत राज्य के सेन राजवंश की प्रथम राजधानी थी जो कालांतर में सुंदरनगर में स्थानांतरित की गयी थी।

पंगना दुर्ग
पंगना दुर्ग

पंगना दुर्ग अपने विशिष्ट वास्तुकला, संरचना एवं लकड़ी पर की गयी उत्कृष्ट नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। इस किले की संरचना एक दुर्ग के समान है जो पचास फीट के पत्थर के चबूतरे पर बना है। यहाँ से इसके दोनों ओर स्थित गाँव का दृश्य दिखाई देता है। यह सात तलीय दुर्ग अपने पुरातन भव्यता के लिए लोकप्रिय है जो इसकी वास्तुकला एवं संरचना में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यह पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है। पंगना दुर्ग ठेठ काठ-कुणी वास्तुशैली में निर्मित किला है जिसके सर्वोच्च तल में एक मंदिर है। यह मंदिर शक्तिशाली देवी माता महामाया को समर्पित है। इस दुर्ग के भीतर जाने की अनुमति केवल इस मंदिर के पुरोहित को है, अन्य किसी को नहीं है। पर्यटकों द्वारा दर्शन लिए केवल भूतल का क्षेत्र उपलब्ध है जिसे माता महामाया का मंदिर बना दिया गया है।

तत्तापानी

यह हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। जनवरी-फरवरी में आने वाले, हिन्दू पंचांग के माघ मास में यहाँ किया गया मंगल स्नान पवित्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह पावन स्नान भक्तों को पापों से मुक्त करता है। यहाँ सल्फर या गंधक युक्त उष्ण जल के सोते हैं जिसमें स्नान करने के लिए लोग दूर दूर से आते हैं। शीत ऋतु में यहाँ भक्तों का तांता लग जाता है। मकर संक्रांति में किये गए स्नान का विशेष महत्त्व है। गंधक युक्त जल में औषधिक गुण होते हैं। यह जल सभी प्रकार के चरम रोगों में अत्यंत लाभदायक होता है।

तत्तापानी राफ्टिंग जैसे रोमांचक क्रीड़ाओं के लिए भी लोकप्रिय है। चमचमाते नीले जल में राफ्टिंग करने का रोमांच एक भिन्न अनुभव होता है।

फलबाग में ठहरने का अनुभव

प्रकृति प्रेमियों के लिए यह एक प्रकार से आदर्श स्थान है। जो महानगरों की भीड़-भाड़ एवं कोलाहल युक्त वातावरण से दूर, किसी शांत व निर्मल स्थान पर कुछ दिवस विश्राम करना चाहते हैं, प्रकृति के सानिध्य में कुछ समय व्यतीत करना चाहते हैं, प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाना चाहते हैं तथा रसायन-मुक्त स्वास्थ्य वर्धक भोजन का आस्वाद लेना चाहते हैं, उनके लिए यह उत्तम स्थान है। सेबों के उद्यानों से सेब तोड़ना अपने आप में एक विशेष अनुभव होता है। हम सबने बाजारों से सेब खरीद कर खाए हैं। उन्हें पेड़ों पर लगे हुए देखना तथा उन्हें तोड़कर खाना एक अद्भुत अनुभव होता है। आप अपने सम्पूर्ण परिवार अथवा अपने प्रियकर के साथ इसका आनंद उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप यहाँ स्थानीय ग्रामीण वातावरण का आनंद ले सकते हैं। स्थानीय फलों, भाजियों एवं स्थानीय पाककला का भी स्वाद से परिपूर्ण अनुभव ले सकते हैं।

और पढ़ें: हिमाचली सेबों की कथा

संस्कृति एवं परम्पराएं

करसोग के निवासी अत्यंत शांतिप्रिय, सादे एवं निर्मल होते हैं। उनकी जीविका के मुख्य स्त्रोत खेती एवं सेबों के उद्यान हैं। करसोग घाटी में हिन्दी एवं पहाड़ी भाषा बोली जाती है। उनके परिधान यहाँ के कष्टकर शीत वातावरण के अनुकूल होते हैं। स्त्रियाँ भारतीय सलवार कुरता एवं कोटी पहनती हैं। इस कोटी को ‘सदरी’ कहते हैं। सर पर दुपट्टा बांधते हैं जिसे ‘धातु’ कहते हैं। पुरुष चूड़ीदार पजामा के ऊपर लम्बे कुरते धारण करते हैं। उसके ऊपर रेशम का लम्बा जैकेट पहनते हैं। सर पर प्रसिद्ध हिमाचली टोपी धारण करते हैं।

इस क्षेत्र के लोकनृत्य को सुकेती नाटी कहते हैं। यहाँ का कोई भी आयोजन अथवा उत्सव सुकेती नाटी के बिना अपूर्ण है। नाटी के साथ लोकगीत भी गाये जाते हैं जिनके साथ स्थानीय संगीत वाद्य बजाये जाते हैं।

करसोग घाटी तक कैसे पहुंचें?

करसोग की अनछुई सुन्दरता के दर्शन करने के लिए अधिक कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। सड़क मार्ग द्वारा यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है। करसोग पहुँचने के लिए सुदृढ़ सड़क मार्ग उपलब्ध है। करसोग की सुन्दरता का आनंद उठाने के लिए सर्वोत्तम समय है अप्रैल से जून तक, जब उसकी सुन्दरता अप्रतिम होती है तथा वातावरण भी सुखमय होता है। सेबों को तोड़ने के लिए भी यह सर्वोत्तम काल होता है जब सेबों की फसल पक कर तैयार हो जाती है। दिसंबर से फरवरी तक, शीत ऋतु में आसपास के हिमाच्छादित पर्वत क्षेत्र स्वर्ग के समान सुन्दर हो जाते हैं। यदि आप को शीतल वातावरण प्रिय है तथा हिमपात एवं बर्फ का आनंद लेना चाहते हैं तो इस काल में यहाँ अवश्य आईये।

वायु मार्ग – करसोग घाटी से निकटतम विमानतल शिमला है। यह विमानतल करसोग घाटी से लगभग ११५ किलोमीटर दूर है।

रेल मार्ग –  शिमला रेल स्थानक यहाँ से निकटतम रेल स्थानक है।

सड़क मार्ग – करसोग घाटी शिमला नगर से लगभग १०९ किलोमीटर दूर स्थित है। आप शिमला से नालदेहरा जाते हुए राज्य-महामार्ग १३ द्वारा यहाँ पहुँच सकते हैं। घाटी के भीतर पहुँचने का मार्ग भी सुगम है। दोनों के लिए आप सड़क परिवहन की बसों की सुविधाएं ले सकते हैं। सड़क मार्ग द्वारा करसोग घाटी पहुँचने का सर्वोत्तम साधन है आपकी अपनी कार अथवा दुपहिया।

करसोग घाटी में कहाँ ठहरें?

होटल ममलेश्वर – यह होटल सेबों के उद्यानों के निकट स्थित है जो इसकी सर्वोत्तम विशेषता है। शान्ति से छुट्टियों का आनंद उठाने एवं लीक से भिन्न दर्शनीय स्थलों के अवलोकन के लिए यह एक उत्तम सुविधा है।

अवस्थिति –  द ममलेश्वर, चिंदी, मंडी जिला, हिमाचल प्रदेश, भारत

करसोग घाटी से दूरी – १४ किलोमीटर

कलसन बाग (Kalasan Nursery Farm) – सेबों के उद्यान के मध्य ठहरने का यह एक सर्वोत्तम स्थान है। सेबों के उद्यान के मध्य, जैविक खेतों में, घर जैसे वातावरण में रहने का यह सर्वोत्तम साधन है। प्रकृति प्रेमियों के लिए प्रकृति का आनंद उठाने, सेबों के उद्यान के भीतर रहकर सेबों की खेती के विषय में जानने एवं सेबों को तोड़ने का आनंद उठाने में रूचि रखने वालों के लिए यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है।

अवस्थिति –  डाकघर ठंडापानी, उप-तहसील पंगना, जिला मंडी, हिमाचल प्रदेश, भारत, १७५०४६

घाटी से दूरी – २३ किलोमीटर

होटल हॉट स्प्रिंग – यह होटल आपको नदी का अप्रतिम दृश्य प्रदान करता है। यहाँ एक अच्छा जलपान गृह है एवं एक आयुर्वेदिक केंद्र भी है जहां उष्ण जल का कुण्ड है। इस होटल में ४ भिन्न भिन्न जलाशय है जो वास्तव में प्रथम हिमालयी भू-तापीय खनिज युक्त उष्ण जल के सोते(Himalayan Geo-Thermal mineral-rich hot springs) हैं।

अवस्थिति – होटल हॉट स्प्रिंग, तत्तापानी, शिमला, हिमाचल प्रदेश, भारत, १७५००९

करसोग घाटी से दूरी – ५३ किलोमीटर

यह संस्करण IndiTales Internship Program के लिए पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रमणीय सांगला घाटी में बस्पा नदी पोषित चित्ताकर्षक गाँव https://inditales.com/hindi/sangla-ghati-baspa-nadi-himachal-pradesh/ https://inditales.com/hindi/sangla-ghati-baspa-nadi-himachal-pradesh/#respond Wed, 10 Jan 2024 02:30:57 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3360

बस्पा घाटी भारत के हिमाचल प्रदेश में स्थित किन्नौर जिले की एक पर्वतीय घाटी है। इस पर्वत शृंखला से बहती बस्पा नदी के कारण इसका नाम बस्पा घाटी पड़ा। इस घाटी की सर्वाधिक विस्तृत बस्ती सांगला है जिसके कारण इसे सांगला घाटी भी कहा जाता है। सांगला घाटी बस्पा नदी के एक तट पर स्थित […]

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बस्पा घाटी भारत के हिमाचल प्रदेश में स्थित किन्नौर जिले की एक पर्वतीय घाटी है। इस पर्वत शृंखला से बहती बस्पा नदी के कारण इसका नाम बस्पा घाटी पड़ा। इस घाटी की सर्वाधिक विस्तृत बस्ती सांगला है जिसके कारण इसे सांगला घाटी भी कहा जाता है। सांगला घाटी बस्पा नदी के एक तट पर स्थित है। वहीं नदी के दूसरे तट पर बस्तेरी गाँव है।

बस्पा नदी के किनारे हमारा तम्बू
बस्पा नदी के किनारे हमारा तम्बू

बस्पा नदी इन दोनों कस्बों का प्रमुख जल स्त्रोत है तथा वहां के निवासियों को ट्राउट मछली की आपूर्ति भी करती है। हम बस्पा नदी के दोनों तटों पर, अर्थात् दोनों कस्बों में नदी के किनारे कुछ दिनों के लिए तम्बुओं में ठहरे थे। समीप से बहती उत्तेजित बस्पा नदी की जो गर्जना हमने उन कुछ रात्रियों में सुनी थीं,उसकी गूंज इतने महीनों पश्चात आज भी मेरे कानों में स्पष्ट सुनाई पड़ती है। वह दृश्य व वो गर्जना आज भी मेरे मस्तिष्क में वही रोमांच उत्पन्न कर देता है जो उन दिनों में मैंने अनुभव किया था।

सांगला घाटी में बस्पा नदी की गर्जना का विडियो

सांगला घाटी के मध्य से बहती, उर्जा से भरपूर, बस्पा नदी का रौद्र रूप एवं उसकी गर्जना का अनुभव लेना हो तो यह विडियो देखिये।

दूर से बस्पा नदी घाटियों के मध्य से बहती एक सुकोमल नदी प्रतीत होती है। किन्तु उसके समीप पहुँचते ही उसकी गर्जना कानों के भीतर तक गूँज उठती है। उसके समीप जाकर ही आपको उसके रौद्र रूप का आभास होता है तथा उसमें ओतप्रोत उर्जा का अनुभव होता है।

हिमाचल प्रदेश के सांगला घाटी के दर्शनीय स्थल

बस्तेरी – एक अनूठा गाँव

एक दिवस, संध्या के समय हम पैदल सैर करते हुए बस्तेरी गाँव की ओर चल पड़े। किंचित चढ़ाई के पश्चात बस्पा नदी के ऊपर निर्मित पुल पार किया। कुछ दूर पैदल चलने के पश्चात हम बस्तेरी गाँव के प्रवेशद्वार पर पहुंचे।

बद्री विशाल मंदिर का काष्ठ द्वार
बद्री विशाल मंदिर का काष्ठ द्वार

गाँव की सीमा को परिभाषित करते इस प्रवेशद्वार से हमने गाँव में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही मेरी दृष्टी यहाँ-वहां बिखरे पत्थरों पर पड़ी जिन पर शिल्पकारी की हुई थी। मेरे भीतर जिज्ञासा उत्पन्न होने लगी। मैंने निश्चय किया कि जो भी जानकार व्यक्ति मिले, उससे इनके विषय में पूछूंगी

बस्तेरी का बद्री विशाल मंदिर

हम वहां से आगे बढ़े। हमने समक्ष पत्थर एवं लकड़ी द्वारा निर्मित एक सुन्दर बद्री नारायण मंदिर देखा। यद्यपि  हमने इस मंदिर एवं यहाँ की आरती के समय के विषय में पूर्व जानकारी प्राप्त की थी तथा उस समय के अनुसार ही यहाँ पहुंचे थे, तथापि पर्वतीय गाँवों में पुजारीजी एवं भक्तों का आना बहुधा स्थानीय वातावरण एवं अनेक अन्य परिस्थितियों पर निर्भर रहता है।

बद्री विशाल मंदिर का काष्ठ शिल्प
बद्री विशाल मंदिर का काष्ठ शिल्प

हम पुजारीजी की प्रतीक्षा करने लगे कि वे आयें तथा मंदिर के पट खोलें। प्रतीक्षा काल का सदुपयोग करते हुए हमने मंदिर परिसर का अवलोकन आरम्भ किया। मंदिर की संरचना नवीन थी तथा लकड़ी पर सुन्दर नक्काशी की गयी थी। उन पर हिन्दू देवी-देवताओं के साथ साथ स्वामी विवेकानंद, बुद्ध तथा अन्य आदरणीय व्यक्तित्वों की छवियाँ भी उत्कीर्णित थीं। साथ ही अनेक शुभ चिन्ह, तांत्रिक विधियों से सम्बंधित चिन्ह तथा कुछ मादक प्रतिमाएं भी उत्कीर्णित थीं।

काष्ठ कलाकृतियों के रचयिता

संयोग से इन काष्ठ कलाकृतियों के सृजनकर्ता श्री रोशन लालजी भी वहीं उपस्थित थे। मैंने कुछ क्षण उनसे चर्चा की तथा उनकी कलाकृतियों के विषय में जानने की लालसा व्यक्त की। उन्होंने त्वरित मुझे अपनी कार्यशाला में आने का न्योता दिया जहां उसी प्रकार के अनेक अन्य काष्ठ फलकों पर शिल्पकारी की जा रही थी। उनकी कार्यशाला अत्यंत सरल थी। उन्होंने मुझे बताया कि यह मंदिर सन् १९९८ में अग्नि में भस्म हो गया था। अब गांववासी शनैः शनैः इस मंदिर का पुनर्निर्माण करा रहे थे जिसके लिए वे स्वयं के ही संसाधनों का उपयोग कर रहे थे। उनका समर्पण वास्तव में अचंभित कर देने वाला है।

श्री रोशन लाल जी - काष्ठ कलाकार
श्री रोशन लाल जी – काष्ठ कलाकार

कुछ समय पश्चात पुजारीजी आये तथा उन्होंने मंदिर के द्वार खोल दिए। लकड़ी के उत्कीर्णित द्वार के पीछे एक अन्य द्वार है जिस पर चाँदी एवं पीतल की नक्काशी की गयी थी। मंदिर की कथा कहते दो सूचना फलक थे जिस पर शिव-पार्वती के संग चेष्टा करते विष्णु की कथा प्रदर्शित है।

सांगला के बस्तेरी गाँव के बद्री विशाल
सांगला के बस्तेरी गाँव के बद्री विशाल

मंदिर में स्थापित प्रतिमाएं मेरे द्वारा अब तक देखी प्रतिमाओं से अत्यंत भिन्न थीं। वे चाँदी की तिब्बती प्रतिमाएं थीं जो पालकी जैसे आसनों पर विराजमान थीं तथा उन पर ऊनी वस्त्र उढ़ाए हुए थे। जब तक पुजारीजी पूजा अर्चना करते रहे, मैंने कथा पढ़ी तथा उन प्रतिमाओं को ध्यानपूर्वक निहारा। तत्पश्चात मैंने पुजारीजी से मंदिर की भित्तियों एवं द्वार पर अन्य महत्वपूर्ण शिल्पों के साथ कामुक शिल्पों की उपस्थिति का कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया,”ये तो मेला है”। कदाचित वे यह कहना चाह रहे थे कि यही जीवन चक्र है। उन्होंने यह इतने सहज ढंग से कहा कि उनके दो टूक उत्तर में मानो सम्पूर्ण जीवन का सार समाहित हो गया।

बद्री विशाल मंदिर का भीतरी द्वार
बद्री विशाल मंदिर का भीतरी द्वार

अन्धकार होने से पूर्व तम्बू में पहुँचने की मंशा से हम वहां से वापिस आने के लिए निकले। मार्ग में लकड़ी के सुन्दर घरों को निहारते रहे जो मनोहरता एवं लालित्य से समय का सामना कर रहे थे।

सांगला कस्बा

सांगला गाँव
सांगला गाँव

सांगला कस्बा इस घाटी का व्यापारिक केंद्र है। हम सांगला के मार्गों में पैदल सैर करने लगे। उतार-चढ़ाव भरे मार्गों पर चलते हमारी साँस फूल रही थी किन्तु स्थानिकों के मुख की निश्छल स्मित हमारी थकान मिटा देती थी। हम नदी के समीप स्थित बेरिंग नाग मंदिर ढूँढने लगे।

बेरिंग नाग मंदिर

बेरिंग नाग मन्दिर हिन्दू एवं बौद्ध मूर्ति विद्या का अनोखा संगम है। यदि आपने अब तक इन दोनों धर्मों की भिन्नता ना देखी होती तो आप अवश्य यह समझते कि दोनों एक ही धर्म हैं। मुख्य मंदिर के पट बंद थे। इस मंदिर की प्रबल उपस्थिति का अनुभव आपको सम्पूर्ण कस्बे में प्राप्त होगा।

बेरिंग नाग मंदिर
बेरिंग नाग मंदिर

एक परित्यक्त संरचना ने मुझे सर्वाधिक अचंभित किया। वह कदाचित मंदिर का ही एक भाग था। उस पर की गयी जटिल उत्कीर्णन अब भी ध्यान आकर्षित कर रहे थे। भूतल में छोटे छोटे द्वार थे तथा प्रथम तल पर सुन्दर छज्जे थे जिन पर अप्रतिम नक्काशी की गयी थी। द्वार पर एक अनोखा ताला लटक रहा था। परिसर में अखरोट के वृक्ष भी थे।

सांगला का एक पुरातन घर
सांगला का एक पुरातन घर

मैं अटकलें लगाने लगी कि क्या किसी काल में यहाँ धनाड्य परिवारों ने निवास किया होगा अथवा क्या यह मंदिर का ही भण्डार गृह था या यह पुजारीजी का निवासस्थान था? मेरे इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वहां कोई नहीं था। वह सुन्दर संरचना अपनी गौरव गाथा स्वयं ही सुनाने में पूर्ण सक्षम प्रतीत हो रही थी।

बौद्ध प्रार्थना शिलाएं

हम गाँव के भीतर सैर करने लगे। हमने देखा, अनेक स्थानों पर रंगबिरंगी बौद्ध प्रार्थना शिलाएं रखी हुई थीं जिन पर बौद्ध मंत्र उत्कीर्णित थे। ऐसी मान्यता है कि ये पवित्र शिलाएं भक्तों की प्रार्थनाओं को ब्रह्माण्ड में भेजती हैं। कुछ का यह भी मानना है कि ये शिलाएं बुरी आत्माओं को दूर रखती हैं। मेरे लिए तो ये शिलाएं मनुष्य एवं प्रकृति के मध्य एक आध्यात्मिक सम्बन्ध का द्योतक है।

सांगला की प्रार्थना शिलाएं
सांगला की प्रार्थना शिलाएं

शिमला से मनाली तक की हमारी यात्रा, Himachal Odyssey, में यहाँ से बौद्ध धर्म का प्रभाव आरम्भ हो रहा था। यहाँ से आगे अब हम कल्पा तथा स्पीति घाटी के नाकोताबो में हिन्दू एवं बौद्ध संस्कृतियों का सम्मिश्रण देखने वाले थे। इसके आगे काजा में पूर्णतः बौद्ध धर्म व संस्कृति की प्राथमिकता है। ये रंगबिरंगी बौद्ध प्रार्थना शिलाएं इसी संस्कृति का संकेत देती हैं कि समीप ही वसाहत है जहां बौद्ध संस्कृति का प्रभाव है।

काष्ठ और पत्थर के पहाड़ी घर
काष्ठ और पत्थर के पहाड़ी घर

हिमाचल प्रदेश के विरल जनसँख्या वाले क्षेत्रों में, प्रत्येक गाँव एक दर्शनीय स्थल होता है तथा वहां की संस्कृति का अनुभव लेना अत्यंत आनंददायक होता है। हिमाचल प्रदेश पर्यटन के अंतर्गत एक आदिवासी पर्यटन परिपथ है जो आपको इस घाटी का भ्रमण कराता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुल्लू की तीर्थन घाटी – हिमाचल प्रदेश का रमणीय पर्यटन गंतव्य https://inditales.com/hindi/tirthan-ghati-kullu-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/tirthan-ghati-kullu-paryatak-sthal/#respond Wed, 26 Jul 2023 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3122

हिमाचल प्रदेश भारत के सर्वाधिक रम्य, शांत, सौंदर्य से ओतप्रोत तथा पर्यटन के अनुकूल राज्यों में से एक है। हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध पर्वतीय क्षेत्रों में प्रायः बारह मास पर्यटकों का तांता लगा रहता है, जिन में प्रमुख हैं, मनाली, शिमला एवं धर्मशाला इत्यादि। पर्यटन में वृद्धि के फलस्वरूप इन प्रसिद्ध गंतव्यों में पर्यटकों की […]

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हिमाचल प्रदेश भारत के सर्वाधिक रम्य, शांत, सौंदर्य से ओतप्रोत तथा पर्यटन के अनुकूल राज्यों में से एक है। हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध पर्वतीय क्षेत्रों में प्रायः बारह मास पर्यटकों का तांता लगा रहता है, जिन में प्रमुख हैं, मनाली, शिमला एवं धर्मशाला इत्यादि। पर्यटन में वृद्धि के फलस्वरूप इन प्रसिद्ध गंतव्यों में पर्यटकों की भारी भीड़ होने लगी है। अतः पर्यटक अब अपारंपरिक गंतव्यों की खोज करने लगे हैं।

हिमाचल प्रदेश में ऐसे अनेक मनोरम स्थल हैं जो अब तक अछूते हैं। ये स्थल कम भीड़भाड़ भरे हैं। अधिक शांत एवं रम्य हैं। यहाँ हमें प्रकृति के सानिध्य में शांत वातावरण का आनंद उठाने का उत्तम अवसर प्राप्त हो सकता है। ऐसा ही एक स्थल है, तीर्थन घाटी। यह अत्यंत सुरम्य, शांत, एकाकी तथा प्रकृति के सौंदर्य से ओतप्रोत स्थल है। शांति की खोज में आये पर्यटकों के लिए तीर्थन घाटी हिमाचल प्रदेश के लोकप्रिय अपारंपरिक पर्यटन स्थल के रूप में उभर  रहा है।

तीर्थन घाटी में भ्रमण

तीर्थन घाटी पर्वतारोहण, पैदल यात्रा, चट्टानों की चढ़ाई, नदी पार करना, मछली पकड़ना जैसे रोमांचक क्रियाकलापों के लिए उत्तम स्थल है। यह कुल्लू जिले में स्थित है। हिमालयीन क्षेत्र के अनेक अन्य घाटियों के अनुरूप, इस स्थान का नाम यहाँ से बहती प्रमुख नदी तीर्थन से लिया गया है।

तीर्थन घाटी की अवस्थिति एवं यहाँ तक कैसे पहुंचे?

तीर्थन घाटी कुल्लू से लगभग ५० किलोमीटर तथा मंडी से लगभग ७० किलोमीटर दूर स्थित है। दिल्ली/चंडीगढ़ की ओर से यहाँ तक पहुँचने के लिए दो प्रमुख मार्ग हैं। एक है, चंडीगढ़-मनाली महामार्ग से होते हुए औट गाँव तक। वहां से कुल्लू व मनाली की ओर जाती औट सुरंग में प्रवेश ना करते हुए, आप सीधे राष्ट्रीय महामार्ग ३०३ पर जाएँ जो आपको तीर्थन घाटी ले जायेगी। यह मार्ग वर्ष भर खुला रहता है।

तीर्थन घाटी - हिमाचल प्रदेश
तीर्थान घाटी का परिदृश्य

दूसरा मार्ग है, भारत-तिब्बत महामार्ग अथवा राष्ट्रीय महामार्ग ५, जो शिमला से किन्नौर की ओर जाती है। नरकंडा पहुँचते ही महामार्ग छोड़कर जलोड़ी दर्रे की ओर जाएँ। इस दर्रे को पार करते ही आप तीर्थन घाटी पहुँच जायेंगे। जलोड़ी दर्रे में भारी हिमपात के चलते यह मार्ग दिसंबर से मार्च मास के मध्य तक बंद रहता है।

आप अपने निजी वाहनों द्वारा भी यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं। सड़कें सुगम एवं उत्तम हैं। विकास कार्यों से संबंधित कुछ बाधाओं को छोड़ शेष यात्रा सुखद व सुगम्य है।

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तीर्थन घाटी पहुँचने के लिए आप सार्वजनिक परिवहन का भी प्रयोग कर सकते हैं। हिमाचल राज्य परिवहन निगम की बसें घाटी के सभी मुख्य मार्गों पर गतिशील हैं। घाटी का मुख्य नगर, बंजार, राज्य के सभी प्रमुख नगरों से बस सेवा द्वारा जुड़ा हुआ है। आप कुल्लू बस स्थानक से भी बस सेवा ले सकते हैं। कुल्लू से बसों की संख्या उत्तम है जो नियमित अंतराल पर उपलब्ध हैं। दिल्ली अथवा चंडीगढ़ से आने वाले पर्यटक अधिकतर कुल्लू/मनाली की ओर जाने वाली बस सेवा लेकर औट सुरंग तक पहुँचते हैं। सुरंग से पूर्व वे दूसरी बस लेकर तीर्थन घाटी पहुँचते हैं। आप कुल्लू बस स्थानक से टैक्सी भी किराये पर ले सकते हैं। टैक्सी शुल्क साधारणतः वातावरण के अनुसार परिवर्तित होता रहता है।

तीर्थन घाटी में भ्रमण का सर्वोत्तम समय

आप तीर्थन घाटी का भ्रमण वर्ष में किसी भी समय कर सकते हैं। मैदानी क्षेत्रों एवं देश के अन्य भागों की उष्ण लहर से बचने के लिए ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम है। यदि आपको हिमाच्छादित परिवेश में आनंद आता हो तो आप दिसंबर से मार्च के मध्य अपनी यात्रा नियोजित कर सकते हैं।

संभव हो तो जुलाई से सितम्बर तक का समय टालें। भारी वर्षा एवं कीचड के कारण आपके भ्रमण में बाधा उत्पन्न हो सकती है। मार्ग फिसलन भरे हो जाते हैं। पहाड़ियों की सतहें असुरक्षित हो जाती हैं। भूस्खलन की संभावना बनी रहती है। इसके कारण पैदल यात्रा एवं पर्वतारोहण में बाधा व संकट उत्पन्न हो सकते हैं।

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तीर्थन घाटी के दर्शनीय स्थल

ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क

ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क की स्थापना सन् १९८४ में हुई थी। यह राष्ट्रीय उद्यान सम्पूर्ण कुल्लू जिले में फैला हुआ है। इसकी ऊँचाई समुद्र तट से २००० से ६५०० मीटर के मध्य परिवर्तित होती रहती है। यह राष्ट्रीय उद्यान तीर्थन घाटी से पार्वती घाटी तक के समूचे क्षेत्र को अपने आँचल में समेटे हुए है। तीर्थन घाटी की ओर से आयें तो गुशैनी एवं बंजार होते हुए यहाँ पहुँच सकते हैं।

इस उद्यान में हिमालयी भालू, हिम तेंदुआ तथा भरल अथवा नीली भेड़ जैसे अनेक लुप्तप्राय प्रजातियों का बसेरा है। इन दुर्लभ प्रजातियों के दर्शन करने के लिए आपको मनमोहक वनों में पैदल चलते हुए इन्हें खोजना होगा। इनकी खोज व दर्शन के लिए वनों में अनेक पगडंडियाँ नियत की गयी हैं, विशेषतः गुशैनी से अनेक मार्ग हैं। किन्तु किसी गाइड को अवश्य साथ ले जाएँ ताकि घने वनों में आप मार्ग से ना भटकें, वनीय पशु से कोई संकट उत्पन्न ना हो, साथ ही वृक्षों एवं प्राणियों के विषय में वह आपको आवश्यक जानकारी भी दे सके।

छोई झरना

छोई झरना इस घाटी का सर्वाधिक लोकप्रिय जलप्रपात है। यहाँ तक पहुँचने के लिए गुशैनी से लगभग ३० मिनट की छोटी सी चढ़ाई है। इस झरने में शीतकाल की अपेक्षा, ग्रीष्म ऋतु एवं वर्षा ऋतु में अधिक जल रहता है।

चैहणी कोठी

चैहणी गाँव बंजार के ऊपरी क्षेत्रों में बसा एक गाँव है। वहां तक पहुँचने के लिए बंजार को पार कर जीभी घाटी की ओर जाना पड़ता है। यह गाँव अटारी जैसी ऊंची संरचनाओं के लिए लोकप्रिय है। यह किन्नौर के कामरू एवं कल्पा दुर्ग जैसे गढ़ों के अनुरूप हैं। किन्तु चैहणी की कोठी उससे भी ऊंची है। एक प्रकार से यह हिमाचल प्रदेश की सर्वाधिक ऊंची पारंपरिक संरचना है। एक काल में यह वर्तमान संरचना से भी ऊंची थी किन्तु २०वीं सदी के आरम्भ में आये भूकंप में इसका कुछ भाग भंगित हो गया था। जिसके कारण नौ तलों की संरचना के ऊपरी दो तलों को सुरक्षा की दृष्टी से निकाल दिया था।

चैहणी कोठी
चैहणी कोठी

इसके परिसर में एक कृष्ण मंदिर है जिसकी वास्तु शैली भी मूल संरचना के पारंपरिक वास्तु शैली के अनुरूप है। चैहणी कोठी तक केवल पैदल ही पहुंचा जा सकता है। यह चढ़ाई ऊंची एवं कठिन है। कोठी तक पहुँचने में एक घंटे का समय लग जाता है। वर्षा के उपरान्त यह चढ़ाई अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाती है। यह चढ़ाई बंजार के श्रृंगी ऋषि मंदिर से आरम्भ होती है।

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श्रृंगी ऋषि मंदिर

यह बंजार के अधिष्ठात्र देव का मंदिर है। यह मंदिर लकड़ी से निर्मित है। यह मंदिर बंजार से ३ किलोमीटर दूर, जीभी मार्ग पर स्थित है। जहां मंदिर का सूचना फलक है, वहां से १५ मिनट पैदल चलकर यहाँ पहुंचा जा सकता है।

ऋषि श्रृंगी मंदिर
ऋषि श्रृंगी मंदिर

इस मंदिर में भगवान श्रीराम की बहन शांता की पूजा होती है। इस मंदिर में देवी शांता के साथ उनके पति शृंग ऋषि भी विराजमान हैं।

जीभी झरना

जीभी जैव विविधता से परिपूर्ण, हरेभरे वनों एवं पहाड़ों से घिरा एक लोकप्रिय पर्यटन क्षेत्र है। जीभी का झरना पर्यटकों में विशेष आकर्षण का स्थल है। यह झरना तीर्थन नदी की एक सहायक नदी द्वारा पोषित है।

जीभी झरना
जीभी झरना

यहाँ तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग है। झरने के आसपास के क्षेत्र को स्थानीय शासन ने सुन्दरता से सज्जित किया है। लकड़ी के अनेक पुल बनाए गए हैं जो परिदृश्यों की रम्यता को द्विगुणीत करते हैं। चारों ओर शिलाखंडों का प्रयोग कर पक्की पगडंडियाँ बनाई गयी हैं।

जलोड़ी दर्रा

जलोड़ी दर्रा ऊंचाई पर स्थित एक दर्रा है जो कुल्लू को शिमला से जोड़ता है। यह जीभी से लगभग १६ किलोमीटर दूर स्थित है। दर्रे पर पहुँचते ही आप एक मंदिर देखेंगे जो जलोड़ी माता मंदिर है। इसे जलोड़ी जोत भी कहते हैं। इस दर्रे को इसी मंदिर के नाम पर जलोड़ी दर्रा कहते हैं। यह दर्रा समुद्र सतह से लगभग ३१२० मीटर ऊँचाई पर स्थित है।

हिमाच्छादित जालोरी माता मंदिर
हिमाच्छादित जालोरी माता मंदिर

ग्रीष्म ऋतु में जलोड़ी दर्रे से रघुपुर दुर्ग तथा सिरोलसर झील के लिए चढ़ाई आरम्भ की जाती है। किन्तु शीत ऋतु में ये चढ़ाई भारी हिमपात के कारण बंद कर दी जाती है। ग्रीष्म ऋतु में गाड़ियां दर्रे तक आसानी से पहुँचती हैं किन्तु शीत ऋतु में गाड़ियां केवल शोजा तक ही जा सकती हैं, जो जलोड़ी दर्रे से ५ किलोमीटर पूर्व स्थित एक छोटा सा कस्बा है। यहाँ से बर्फ पर पैदल चलकर जलोड़ी दर्रे तक पहुँच सकते हैं।

जालोरी दर्रे की हिमाच्छादित ढलानें
जालोरी दर्रे की हिमाच्छादित ढलानें

जलोड़ी दर्रा स्कीइंग में रूचि रखने वाले पर्यटकों के लिए उत्तम गंतव्य है। इसकी हिमाच्छादित ढलानें प्रारंभिक एवं मध्यम स्तरीय खिलाडियों के लिए सुगम्य हैं।

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रघुपुर दुर्ग एवं सिरोलसर झील

जलोड़ी दर्रे से ३ किलोमीटर दूर स्थित रघुपुर दुर्ग समुद्र सतह से लगभग ३४५० मीटर ऊँचाई पर स्थित है तथा शोज नगर का एकमात्र ऐतिहासिक स्थान है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ पहुँचने के लिए जलोड़ी दर्रे से लगभग डेढ़ घंटे की चढ़ाई करनी पड़ती है। अब दुर्ग के कुछ अवशेष मात्र शेष रह गए हैं। यहाँ से चारों दिशाओं में हिमाच्छादित हिमालय का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है।

सिरोलसर झील ऊंचाई पर स्थित एक सुन्दर झील है। ग्रीष्म ऋतु में आप जलोड़ी दर्रे से वनमार्ग द्वारा चढ़ाई करते हुए यहाँ पहुँच सकते हैं। समीप ही स्थानीय देवी बूढ़ी नागिन को समर्पित एक मंदिर है। इस झील को भी पवित्र माना जाता है। सर्पों की देवी बूढ़ी नागिन को इस क्षेत्र की संरक्षक कहा जाता है।

तीर्थन घाटी में ठहरने की व्यवस्था

गुशैनी

गुशैनी तीर्थन नदी के तट पर स्थित एक छोटा व सुन्दर गाँव है। यदि आप औट की ओर से तीर्थन घाटी आ रहे हैं तो गुशैनी प्रथम प्रमुख स्थान है जहां आप ठहर सकते हैं। मुख्य महामार्ग से ५ किलोमीटर का विमार्ग लेते हुए यहाँ पहुंचा जा सकता है। गाँव में लकड़ी के सुन्दर आवास हैं। सम्पूर्ण परिसर अत्यंत मनमोहक है। ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क जाने के लिए पैदल यात्रा यहीं से आरम्भ की जाती है। यहाँ तीर्थन नदी एवं फ्लाचन नदी का संगम है।

बंजार

बंजार तीर्थन घाटी का सबसे बड़ा नगर है। हिमाचल के इस क्षेत्र में आये अधिकाँश पर्यटक यहीं ठहरते हैं। तीर्थन घाटी के मध्य में स्थित होने के कारण यहाँ से तीर्थन घाटी के सभी पर्यटन स्थलों तक पहुंचा जा सकता है। यहाँ होटल, तम्बू स्थल तथा होमस्टे के अनेक विकल्प उपलब्ध हैं।

जीभी

तीर्थन घाटी का सर्वाधिक सुन्दर नगर जीभी है। तीर्थन नदी के तट पर बसा यह नगर पारंपरिक वृक्षगृह आवास के लिए जाना जाता है। लकड़ी के पारंपरिक आवासों का स्थान अब अनेक आधुनिक आवासों ने ले लिया है। उनके मध्य आप कुछ प्राचीन घर अब भी देख सकते हैं तथा नाममात्र मूल्य देकर उनमें रह भी सकते हैं।

जीभी तम्बू स्थल तथा साहसिक क्रियाकलापों के लिए भी प्रसिद्ध है। उनमें नदी पार करना, चट्टानों की चढ़ाई करना इत्यादि प्रमुख हैं। आप नदी के तट पर शान्ति से बैठकर प्रकृति का आनंद उठा सकते हैं अथवा नदी के बर्फीले जल में अपने पैर डुबोने का रोमांच भी ले सकते हैं। जलोड़ी दर्रा जीभी से केवल १५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

जीभी में ठहरने के लिए तीन प्रमुख विकल्प हैं। इनके अतिरिक्त शोजा तथा सई रोपा गाँवों में भी आश्रय लिया जा सकता है। सई रोपा एवं शोजा के वन-विश्राम गृहों की अवस्थिति प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद उठाने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। यहाँ से आसपास के परिदृश्यों का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है। यहाँ ठहरने के लिए पूर्व सूचना देकर आरक्षण करना आवश्यक है क्योंकि प्रायः यह पूर्व आरक्षित होने के कारण उपलब्ध नहीं रहते हैं। तीर्थन घाटी के विश्राम गृहों में आवास शुल्क अधिक नहीं है। १५०० रुपये प्रतिदिन से कम लागत में आपको अच्छे आवास-कक्ष मिल जायेंगे। विभिन्न इन्टरनेट संकेत स्थलों द्वारा भी आप इन स्थानों पर पूर्व आरक्षण प्राप्त कर सकते हैं।

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उपयोगी यात्रा सुझाव

  • लम्बी दूरी तक पैदल चलने की पूर्ण रूप से तैयारी आवश्यक है। तीर्थन घाटी के अधिकतर पर्यटन स्थलों तक जाने के लिए छोटी चढ़ाई करनी ही पड़ती है। अतः मूलभूत स्वास्थ्य अपरिहार्य है।
  • उपलब्ध भोजन सादा तथा स्वादिष्ट है। सिड्डू जैसे स्थानीय व्यंजन चखना चाहे तो कुछ चुने भोजनालयों में पूर्व सूचना देने पर वे उपलब्ध किये जाते हैं।
  • पैदल यात्रा अथवा चढ़ाई करते समय अच्छी पकड़ वाले जूते पहनें। कुछ चढ़ाई कठिन व फिसलन भरी हो सकती हैं।
  • नदी के तट पर पूर्ण सतर्कता का पालन करें। तट पर विशाल शिलाएं प्रायः फिसलन भरी हो सकती हैं। बिना सोचे-समझे जोखिम उठाना किसी भी समय घातक व प्राणांतिक सिद्ध हो सकता है।
  • धूप के चश्मे तथा टोपियाँ साथ रखें। बर्फ की उपस्थिति में ये अधिक आवश्यक हो जाते हैं क्योकि बर्फ में सूर्य की परावर्तित किरणों से आँखें चुंधिया जाती हैं तथा चेहरे की त्वचा जल जाती है।
  • दोपहर के समय आप पक्षी दर्शन के लिए जा सकते हैं।
  • वनीय क्षेत्र में पैदल यात्रा अथवा चढ़ाई के लिए स्थानीय गाइड साथ रखना आपकी अपनी सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है। यहाँ के वनों में भटक जाने की घटनाएँ कई पर्यटकों के साथ घट चुकी हैं।
  • सूर्योदय से पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात किसी भी प्रकार की यात्रा को टालें। उस समय घातक वन्य प्राणियों से साक्षात्कार का संकट रहता है। तेंदुए, हिमालयीन भालू इत्यादि बस्तियों के निकट आ जाते हैं। मवेशियों एवं लोगों पर हमले की घटनाएँ भी हो चुकी हैं।
  • यदि आप यहाँ शीत ऋतु में आते हैं तो अपने साथ बर्फ में उपयोगी बूट अवश्य रखें। अन्यथा बर्फ में चलना कठिन होगा।

यह IndiTales Internship Program के अंतर्गत, तेजस कपूर द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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शिमला, मनाली से क्या लायें? सर्वोत्तम हिमाचली स्मारिकाएं https://inditales.com/hindi/himachal-shimla-manali-uphaar/ https://inditales.com/hindi/himachal-shimla-manali-uphaar/#respond Wed, 03 May 2023 02:30:13 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3047

हिमाचल का नाम सुनते ही हमारे समक्ष मनमोहक प्राकृतिक परिदृश्य, बर्फ से आच्छादित पर्वत श्रंखलायें, लाल चटक सेब, लकड़ी एवं शिलाओं से निर्मित भवन उभर कर आ जाते हैं। अनेक पर्यटक स्वच्छ वायु, शीत वातावरण तथा रोमांचक क्रीड़ाओं के लिए भी हिमाचल का भ्रमण करते हैं। यही सर्वश्रेष्ठ हिमाचली स्मारिकाएं हैं। हिमाचल को देव भूमि […]

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हिमाचल का नाम सुनते ही हमारे समक्ष मनमोहक प्राकृतिक परिदृश्य, बर्फ से आच्छादित पर्वत श्रंखलायें, लाल चटक सेब, लकड़ी एवं शिलाओं से निर्मित भवन उभर कर आ जाते हैं। अनेक पर्यटक स्वच्छ वायु, शीत वातावरण तथा रोमांचक क्रीड़ाओं के लिए भी हिमाचल का भ्रमण करते हैं। यही सर्वश्रेष्ठ हिमाचली स्मारिकाएं हैं। हिमाचल को देव भूमि भी कहा जाता है।

यूँ तो हिमाचल के पर्यटक तन व मन की प्रफुल्लता, स्वास्थ्य तथा सकारात्मकता का भण्डार तो साथ लाते ही हैं, साथ ही हिमाचल की अनेक ऐसी वस्तुएं भी साथ लाते हैं जो वहां की पहचान हैं, लोकप्रिय हैं तथा साथ लाने में आसान भी हैं। यहाँ मैं हिमाचल के प्रसिद्ध वस्तुओं का उल्लेख करने का प्रयास कर रही हूँ जिन्हें आप अपनी आगामी हिमाचल यात्रा से स्मारिका के रूप में ला सकते हैं।

शिमला मनाली की हिमाचली स्मारिकायें

हिमाचली टोपी

यदि आप किसी व्यक्ति को देखें जिसने अपने सर पर ऐसी टोपी पहनी हुई है जिसके सामने एक चमकीली पट्टी हो, तो वह व्यक्ति अवश्य हिमाचली होगा। हिमाचली टोपियों की विशेषता है कि उसे स्त्री तथा पुरुष, दोनों धारण कर सकते हैं।

किन्नौरी टोपी - हिमाचल के उपहार
किन्नौरी टोपी – हिमाचल के उपहार

यह हिमाचली टोपी हिमाचल यात्रा से अपने साथ लाने के लिए एक सुन्दर वस्तु है। यह आपको हिमाचल के किसी भी पर्यटन बिंदु अथवा बाजार में प्राप्त हो जायेगी। इनका मूल्य भी अधिक नहीं है। आप अपने परिजन व मित्रों के लिए कई टोपियाँ क्रय कर सकते हैं।

हिमाचल के विभिन्न क्षेत्रों की टोपियों में किंचित स्थानीय विशेषताओं के साथ भिन्नता आ जाती है। प्रत्येक क्षेत्र की टोपियों की मूल रूपरेखा समान ही होती है, किन्तु सूक्ष्म भिन्नताओं के साथ इनके नामों में भी परिवर्तन आ जाते हैं, जैसे किन्नौरी, कुल्लूवी, बुशहरी तथा लाहौली टोपियाँ।

मेरे यात्रा संस्करण, Shimla Manali Road trip से आप इन टोपियों के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

किन्नौरी टोपियाँ – इस टोपी के अग्र भाग पर चटक हरे रंग की पट्टी होती है जिसकी किनारी लाल होती है।

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बुशहरी टोपियाँ – ये टोपियाँ किन्नौरी टोपियों के सामान ही होती हैं किन्तु अग्र भाग में सुनहरे रंग की पट्टी होती है।

कुल्लुवी टोपियाँ – इन टोपियों के अग्र भाग की पट्टी पर रंगबिरंगी ज्यामितीय आकृतियाँ होती है।

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लाहौली टोपियाँ – ये टोपियाँ कुल्लुवी टोपियों के सामान होती हैं किन्तु अपेक्षाकृत कम अलंकृत होती हैं।

सादे श्वेत रंग की भी एक टोपी होती है जिसे मलाणा टोपी कहते हैं। एक अन्य प्रकार की टोपी चटक लाल रंग की होती है जो अत्यंत उजली एवं प्रफुल्लित प्रतीत होती है।

कुल्लू एवं किन्नौरी टोपी - हिमाचली स्मारिकाएं
कुल्लू एवं किन्नौरी टोपी – हिमाचली स्मारिकाएं

स्थानिक हिमाचली इन टोपियों  को उत्सवों एवं विशेष आयोजनों में अवश्य धारण करते हैं। यह एक ऐसी हिमाचली परंपरा है जिसका आनंद आप हिमाचल के बाहर, अपने निवास स्थलों में भी ले सकते हैं।

कुल्लू शाल

हिमाचल की जलवायु अत्यंत शीत प्रकृति की है। अतः यहाँ ऊनी वस्त्रों की अधिक आवश्यकता होती है। हिमाचल में ऐसे पशु भी बहुतायत में उपलब्ध हैं जिनसे हमें ऊन प्राप्त होता है। अतः इसमें अचरज नहीं कि हिमाचल में ऊन की बुनाई का कार्य एक कलात्मक व्यवसाय के रूप में विकसित हुआ है।

कुल्लू की प्रसिद्द शाल
कुल्लू की प्रसिद्द शाल

यहाँ की ऊनी शाल पर सादी किन्तु अत्यंत सुरुचिपूर्ण आकृतियाँ होती हैं। स्त्री एवं पुरुष दोनों ही शाल का उपयोग करते हैं। किन्तु उन में किंचित भिन्नता होती है। पुरुषों की शाल को लोई अथवा पट्टू कहते हैं जो लम्बाई में किंचित अधिक होती है तथा उसकी रूपरेखा भी साधारण होती है।

वहीं, स्त्री की शाल पर रंगबिरंगी ज्यामितीय आकृतियाँ होती हैं। साधारणतया शाल के मूल रंग हलके होते हैं किन्तु उनकी किनारों पर की गयी रंगबिरंगी बुनाई उन्हें उजला एवं चटक बनाती हैं। कभी कभी शाल पर पुष्पाकृतियों की भी बुनाई की जाती है।

ऊन के प्रकार तथा आकृतियों की सूक्ष्मता व रंगों के आधार पर विभिन्न मूल्यों की शालें उपलब्ध हैं।

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आप धोरू शाल भी अवश्य देखें। यह भी एक ऊनी शाल है जिस की किनारियों पर सघन कढ़ाई की जाती है। यह शाल लम्बी होती है जो कन्धों से एड़ियों तक पहुँचती है।

चंबा रुमाल

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, चंबा रुमालों का मूल स्थान हिमाचल का चंबा क्षेत्र है। रेशमी अथवा महीन सूती वस्त्र के टुकड़े पर हाथों से अप्रतिम कढ़ाई की जाती है। इन रुमालों पर कढ़ी आकृतियाँ सामान्यतः किसी पौराणिक कथा पर आधारित होती है। आप इन पर रामायण तथा महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्यों के दृश्य देख सकते हैं। हिमाचल में प्रचलित सूक्ष्म कारीगरी का यह उत्तम प्रतिबिम्ब है।

ऐसा माना जाता है कि कढ़ाई किया हुआ प्राचीनतम ज्ञात रुमाल गुरु नानकजी जी के लिए उनकी बहिन बेबे नानकी ने बनाया था। इसका प्रयोग प्रायः उपहार स्वरूप देने के लिए अथवा उत्सवों एवं विवाह इत्यादि समारोहों में भेंट वस्तुओं को ढंकने के लिए किया जाता है।

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चंबा रुमाल को भौगोलिक संकेत का मान प्राप्त है जो इसे दृढ़ता से इसके मूल स्थान से बांधता है।

चित्रकारी – हिमाचली स्मारिकाएं

हिमाचल अपने पहाड़ी सूक्ष्म-चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। भारत के सभी प्रमुख संग्रहालयों में आप इन उत्कृष्ट चित्रकारियों का संग्रह देख सकते हैं। कांगड़ा, चंबा, गुलेर तथा बसोली की सूक्ष्म-चित्रकारी अपनी उत्कृष्टता के लिए लोकप्रिय हैं। प्राचीन काल में सम्पूर्ण रामायण अथवा महाभारत को इस सूक्ष्म चित्रकला द्वारा चित्रफलकों पर चित्रित किया जाता रहा है।

पहाड़ी चित्र शैली में सप्तमात्रिका का चित्रण
पहाड़ी चित्र शैली में सप्तमात्रिका का चित्रण

वास्तविक चित्रकृति को ढूंढना जितना कठिन है, उसे क्रय करना उससे भी अधिक कष्टकर है। इन वास्तविक अप्रतिम चित्रों के मूल्य अत्यधिक होते हैं। अतः वर्तमान में अनेक नवोदित कलाकार इन चित्रों की पुनर्रचना कर रहे हैं। अनेक कलाकार प्राचीन शैली का प्रयोग कर नवीन विषयों पर भी ऐसी चित्रकारी कर रहे हैं। आप मनाली एवं शिमला के बाजारों में इन चित्रकारियों को देख सकते हैं।

थांका बौद्ध चित्र हैं जिनकी अपनी एक विशेष शैली होती है। आप इन्हें लद्दाख से लेकर नेपाल, सिक्किम तथा भूटान तक देख सकते हैं जहां बौद्ध धर्म का प्रमुखता से पालम किया जाता है। हिमाचल में भी लाहौल एवं  स्पिति जैसे क्षेत्र हैं जो विशेष रूप से बौद्ध धर्म बहुल क्षेत्र हैं। अतः इन क्षेत्रों में भी थांका चित्रीकरण किया जाता है।

बौद्ध थांका चित्रकारी
बौद्ध थांका चित्रकारी

इन चित्रों में बौद्ध देवों, बुद्ध की जीवनी तथा मंडल जैसे अनेक बौद्ध चिन्हों को चित्रित किया जाता है। ये अधिकतर अनुष्ठानिक चित्र हैं जिनका प्रयोग अनेक बौद्ध उत्सवों में किया जाता है। बौद्ध मठों में विशाल थांका चित्रों को विशेष रूप से उत्सवों के समय बाहर निकालकर उनका प्रदर्शन व अर्चना की जाती है जिसके पश्चात इन्हें लपेटकर सुरक्षित रख दिया जाता है। लेह के बौद्ध मठ में आप इन विशाल चित्रों के लपेटने की विशेष प्रक्रिया भी देख सकते हैं।

आप हिमाचल के सभी लोकप्रिय पर्यटन स्थलों से इन चित्रों को क्रय कर सकते हैं।

थांका चित्रों को Amazon।in से क्रय करें।

दोरजे

दोरजे का उपयोग मुख्यतः ध्यान प्रक्रिया में किया जाता है। यह उस संगम का प्रतीक है जो हमारे दैनन्दिनी अनुभवों एवं उस अनुभव के मध्य होता है, जो हमें प्रकृति एवं अपने चारों ओर उपस्थित सभी जड़ व चेतन से एकाकार होकर जीवन व्यतीत करने से प्राप्त होता है। यह तांत्रिक बौद्ध परम्पराओं का प्रमुख यन्त्र है।

ध्यान में प्रयोग आने वाले दोरजे
ध्यान में प्रयोग आने वाले दोरजे

जहां तक हिमाचली स्मारिकाओं का प्रश्न है, आप इन्हें स्वयं के लिए ले सकते हैं तथा परिजनों को उपहार स्वरूप भी दे सकते हैं। पुरानी मनाली में खरीददारी करते समय आप इन्हें ले सकते हैं।

ध्यान प्रक्रिया के लिए दोरजे Amazon।in से लें।

हिमाचली आभूषण

भारत के प्रत्येक क्षेत्र के आभूषणों की अपनी अनूठी विशेषताएँ होती हैं। हिमाचल में आप चाँदी के बने अनेक प्रकार के आभूषण देखेंगे।

चांदी के आभूषण - हिमाचली स्मारिकाएं
चांदी के आभूषण – हिमाचली स्मारिकाएं

हिमाचल के कुछ विशेष आभूषण इस प्रकार हैं:

छाक – यह चाँदी का एक आभूषण है जिसे वे अपने सिर पर धारण करते हैं।

छीरी – यह माँगटीका के सामान दिखने वाला एक आभूषण होता है।

झुमका – कानों में धारण करने वाले इस विशेष प्रकार के आभूषण को आप सम्पूर्ण हिमाचल में देख सकते हैं।

चंदरहार – गले का हार, जिसमें लटकन भी होता है तथा जिसे विशेष आयोजनों में पहना जाता है।

टोके – कलाइयों में पहने जाने वाला आभूषण जिसे कभी नहीं उतारा जाता है।

पारी – यह पाँव के पायल का एक प्रकार है।

खाने में रूचि रखने वालों के लिये हिमाचली स्मारिकाएं

सेब – यदि आपको ताजे सेबों का आनंद उठाना हो तो आप अगस्त-सितम्बर के आसपास हिमाचल की यात्रा नियोजित करें। आप वृक्षों से लटकते सेबों को अपने हाथों से तोड़कर खा सकते हैं। हिमाचली सेब की गाथा पर लिखा हमारा संस्करण अवश्य पढ़ें।

हिमाचली फलों की टोकरी
हिमाचली फलों की टोकरी

सेबों के अतिरिक्त आप सेब की कैंडी, जैम, रस तथा गूदा भी क्रय कर सकते हैं।

नाशपाती – हिमाचल का यह दूसरा प्रसिद्ध फल है। यदि आप अगस्त-सितम्बर के आसपास हिमाचल की यात्रा करेंगे तब सेबों के साथ नाशपाती का भी आनंद उठा सकेंगे।

चिलगोजा – यह एक सूखा मेवा है जिसे हिमाचल के कुछ भागों में उगाया जाता है।

यह सूखा मेवा चीड़ के वृक्ष का फल है। पोषक तत्वों से भरपूर यह मेवा कुरकुरा तथा स्वाद में अखरोट के सामान होता है। चिलगोजों की ३० से अधिक विभिन्न प्रजातियाँ उपलब्ध हैं किन्तु उनमें से केवल ३ प्रकार के चिलगोजे ही मानव के लिए सुरक्षित हैं। चिलगोजा के दानों के ऊपर कड़ा छिलका होता है जिसे खोलकर ही दानों को खाया जाता है।

इन्हें क्रय करने के लिए सर्वोत्तम स्थान है, रिकांग पिओ का स्थानीय बाजार।

आलूबुखारे, खुरमा तथा काफल इत्यादि जैसे विशेष मौसमी फल भी इस क्षेत्र में उगते हैं जो अन्य स्थानों में कदापि उपलब्ध नहीं होते। अतः इनका स्वाद अवश्य चखें।

हिमाचली सिद्दू

सिद्दू एक विशेष हिमाचली व्यंजन है जो खाने की थाली को चार चाँद लगा देता है। इसे अत्यंत परिश्रम से बनाया जाता है। आटा में नमक, घी एवं यीस्ट मिलकर उसे खमीर उत्पन्न होने तक रखा जाता है। तत्पश्चात उनके गोले बनाकर भाप में पकाया जाता है। कई बार इन गोलों के भीतर भरावन भी भरी जाती है।

देसी घी डालकर इन्हें परोसा जाता है। यह एक प्रकार का भाप में पकाया हुआ डबल रोटी है। हिमाचल में आये पर्यटकों को हिमाचली खाने का स्वाद देने के लिए यह स्थानिक भोजनालयों में बहुधा उपलब्ध होता है।

काष्ठ कलाकृतियाँ – हिमाचली स्मारिकाएं

पहाड़ों का भ्रमण तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक आप वहां के कलाकारों द्वारा उत्कीर्णित काष्ठ कलाकृतियाँ ना देखें। शिमला में तो एक सम्पूर्ण बाजार है, लक्कड़ बाजार, जिसका अर्थ है, लकड़ी की वस्तुओं का बाजार।

यहाँ लकड़ी के खिलौने, चलने की छड़ी, शिमला के परिदृश्य, चाबी का गुच्छा, कलम दानी, रसोईघर की वस्तुएं, परोसने की थाली तथा अनेक अन्य प्रदर्शन की वस्तुएं उपलब्ध हैं। छड़ियाँ बनाने के लिए रौंस वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जो ऊपरी शिमला के बागी एवं खाद्रला क्षेत्र में पाया जाता है।

शिमला में हिमाचली स्मारिकाएं कहाँ से लें?

हिमाचल एम्पोरियम

शिमला में माल रोड पर हिमाचल एम्पोरियम स्थित है। यहाँ आप कांगड़ा रेशमी वस्त्र एवं किन्नौरी शाल के अनेक प्रकार देख सकते हैं। इस एम्पोरियम में स्थानिक रूप से निर्मित ऊनी वस्त्र, मिटटी के पात्र तथा आभूषण भी उपलब्ध हैं। इस भण्डार का संचालन हिमाचल प्रदेश की सरकार करती है। अतः यहाँ उपलब्ध कलाकृतियों की गुणवत्ता सत्यापित होती हैं। इसके अतिरिक्त इन वस्तुओं के मूल्य भी सब प्रकार के ग्राहकों के लिए वहन करने योग्य हैं।

लक्कड़ बाजार

यह एक सुन्दर बाजार है जहां अनेक प्रकार की काष्ठ कलाकृतियाँ उपलब्ध हैं। यहाँ से आप लकड़ी के खिलौने, कलम, चाबी के गुच्छे तथा अन्य स्मारिका वस्तुएं ले सकते हैं। इन दुकानों में आप भारी मोल-भाव कर सकते हैं। यह बाजार क्राइस्ट चर्च के बाईं ओर स्थित है। यह शिमला के पर्यटकों का प्रिय बाजार है।

लवी मेला में हिमाचली स्मारिकाएं

हिमाचल का प्रसिद्ध लवी मेला रामपुर में प्रत्येक वर्ष, कार्तिक मास में भरता है जो अंग्रेजी नवम्बर मास के आसपास पड़ता है। सदियों से यह मेला बुशहर रियासत एवं तिब्बत के मध्य व्यापार में सहायता करता रहा है।

मैदानी क्षेत्रों के लोग एवं व्यापारी गण इस मेले में तिब्बत से आयातित काष्ठ वस्तुएं, सूखे मेवे तथा जडी-बूटियाँ क्रय करते थे। उसकी एवज में उन्हें धान, वस्त्र तथा बर्तन इत्यादि विक्रय किये जाते थे। अतः यह एक प्राचीन मेला है जिसका सम्बन्ध वस्तुओं के क्रय-विक्रय से है। ‘नाटी नृत्य’ तथा अन्य अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम इस मेले के प्रमुख आकर्षण हैं।

महासू यात्रा

शिमला-कोटखाई मार्ग से ६ किलोमीटर दूर महासू गाँव है। इस गाँव के समीप, प्रत्येक बैशाख मास के तीसरे मंगलवार के दिन से यह दो-दिवसीय मेला लगता है। यह भी एक प्राचीन मेला है। यह मेला दुर्गा देवी मंदिर के समक्ष लगता है जहां बड़ी संख्या में लोग आते है। यहाँ भी ‘नाटी नृत्य’ तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। धनुर्विद्या सम्बंधित क्रीड़ाएं इस मेले के प्रमुख आकर्षण व मनोरंजन हैं। पूर्णतः हिमाचली स्मारिकाएं खरीदने के लिए यह एक उत्तम स्थान है।

आपकी प्रिय हिमाचली स्मारिकाएं कौन सी है? क्या आपने उन्हें हिमाचल के किसी स्थान से क्रय किया है? टिप्पणी खंड में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।

अमेजोन के सहयोगी के रूप में इस संस्करण में उल्लेखित वस्तुओं की अमेजोन द्वारा क्रय पर IndiTales को उसका अंश दिया जाता है।  

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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५०० वर्ष पुराना गियु ममी के रहस्य की खोज यात्रा https://inditales.com/hindi/giu-mummy-spiti-ghati-himachal/ https://inditales.com/hindi/giu-mummy-spiti-ghati-himachal/#respond Wed, 15 Feb 2023 02:30:37 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2971

गियु ममी अर्थात् गियु का परिरक्षित शव! इसके विषय में मैंने सर्वप्रथम तब पढ़ा था जब मैं अपनी हिमाचल भ्रमण की विस्तृत यात्रा सूची पढ़ रही थी। मुझमें जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न हुई थी किन्तु दर्शनीय स्थलों की लम्बी सूची में मेरी यह जिज्ञासा कुछ काल के लिए लुप्त हो गयी। इससे पूर्व ममी से मेरा […]

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गियु ममी अर्थात् गियु का परिरक्षित शव! इसके विषय में मैंने सर्वप्रथम तब पढ़ा था जब मैं अपनी हिमाचल भ्रमण की विस्तृत यात्रा सूची पढ़ रही थी। मुझमें जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न हुई थी किन्तु दर्शनीय स्थलों की लम्बी सूची में मेरी यह जिज्ञासा कुछ काल के लिए लुप्त हो गयी। इससे पूर्व ममी से मेरा साक्षात्कार हैदराबाद के आन्ध्र प्रदेश राज्य संग्रहालय में हुआ था जहां मिस्र की एक नवयुवती के परिरक्षित शव के साथ हैदराबाद के निजाम का उपाख्यान था कि कैसे निजाम उस ममी को यहाँ ले कर आया था। मुझे तो वह ममी लकड़ी की एक गुड़िया प्रतीत हो रही थी जिसे उत्तम रीति से सुगंधित लेप लगाकर संरक्षित किया हुआ था।

गियु ममीइसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन छवियाँ स्मृति में थीं जिनमें मिस्र की विशेषता के रूप में उनके परिरक्षित शव दर्शाए गए थे। उन चित्रों में शव को श्वेत वस्त्र की पट्टियों से लपेटा गया था। अधिकांशतः उन्हें खड़ी अथवा शयनावस्था में प्रदर्शित किया गया था।

वो तो शिमला में मेरी दो हिमाचली विशेषज्ञों से भेंट हुई जिन्होंने मुझे ममी की आसनस्थ मुद्रा के विषय में जानकारी दी। मुझे गियु ममी के विषय में बताया। गियु ममी के विषय में एक महत्वपूर्ण व विशेष जानकारी दी कि उस शव के ऊपर किसी भी प्रकार का कृत्रिम परिरक्षक द्रव नहीं लगाया गया है। इसका अर्थ है कि उस ममी के परिरक्षण के लिए किसी भी प्रकार के रसायन का प्रयोग नहीं किया गया है।

गियु गाँव की यात्रा

नाको एवं ताबो के मध्य, स्पीति के सेतु को पार करते ही हमने एक विमार्ग लिया तथा उस पर लगभग ७ से ८ किलोमीटर तक यात्रा करने के पश्चात एक छोटे से गियु गाँव पहुंचे। आसपास का सम्पूर्ण भूभाग छोटे छोटे पत्थरों से भरा हुआ था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी दलन यंत्र की सहायता से चट्टानों के टुकड़े कर टेनिस की गेंद के आकार के छोटे छोटे गोल टुकड़ों को चारों ओर बिखेर दिया गया हो।

गियु ममी के लिए निर्माणाधीन मंदिर
गियु ममी के लिए निर्माणाधीन मंदिर

गाँव पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही एक छोटी पहाड़ी पर हमें एक निर्माणाधीन मठ दृष्टिगोचर हुआ। मेरी अभिलाषा थी कि मैं इस मनमोहक शांत से गाँव के भीतर भ्रमण करूँ, किन्तु इंद्र देव की कृपा कुछ अधिक थी। अतः हमें मठ तक वाहन द्वारा ही पहुँचना पड़ा। वाहन से उतर कर हम उस धार्मिक स्थल की ओर बढे। मार्ग में ही मुझे एक छोर पर स्थित एक लघु कक्ष की ओर जाने का संकेत किया गया तथा भय विहीन होकर कक्ष का द्वार खोलने के लिए कहा गया। वहीं पर वह ममी रखी हुई थी, या यह कहूँ, जीवंत थी।

गियु ममी

उस कक्ष के भीतर एक लघु आकार की देह आसीन मुद्रा में स्थित थी। उसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसकी देह सिकुड़कर लघु आकार की हो गई हो, जैसे उसकी देह के सभी तरल पदार्थ सूख गए हों। उसकी देह का रंग गहरे भूरा था जो कदाचित जीवन के अंत से अब तक के दीर्घ काल का परिणाम था। एक हाथ ध्यान मुद्रा में घुटने पर रखा हुआ था किन्तु दूसरा हाथ मुझे भ्रमित कर रहा था। वह हाथ ठुड्डी के नीचे था या वक्र मुद्रा में रखा था अथवा कुछ अन्य भाग देह से सटाकर रखा था, मैं निश्चित नहीं कर पायी।

कांच के बक्से में गियु ममी
कांच के बक्से में गियु ममी

ऐसा कहा जाता है कि उसके केश एवं नख अब भी बढ़ते हैं। उसके दांत अब भी अक्षत थे।

गियु मठ
गियु मठ

ममी की देह पर श्वेत एवं पीत रंग के पारंपरिक भिक्षुक वस्त्र थे। उसे काँच के लघु कक्ष में रखा हुआ था। कक्ष के बाहर दीप एवं पूजा-अर्चना की अन्य वस्तुएं रखी थीं। वह ममी अब भी अपना एकाकी जीवन जी रही थी किन्तु उसके दर्शन करने अनेक पर्यटक स्पीति घाटी के इस भाग में आते हैं।

गियु ममी की खोज

कुछ वर्ष पूर्व, मार्ग का सुधार कार्य करते समय भारत तिब्बत सीमा पुलिस के एक अधिकारी को यह ममी प्राप्त हुई थी। यह ममी गियु गाँव में प्राप्त नहीं हुई थी। वहां से उसे गियु गाँव लाया गया था। कदाचित यह गाँव खोज स्थल से निकटतम रहा होगा। ममी के खोजस्थल की सटीक अवस्थिति की जानकारी किसी को नहीं है।

गियु ममी
गियु ममी

विएना स्थित रेडियो कार्बन डेटिंग के विशेषज्ञों के एक समूह ने इस ममी की आयु ५५० वर्ष के आसपास बताया है। ऐसी मान्यता है कि यह शव एक बौद्ध भिक्षुक का है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि मृत्यु के समय उसकी आयु चालीस वर्ष के आसपास थी। उन्हें भिक्षुक के शरीर पर किसी भी रसायन के अंश मात्र भी प्राप्त नहीं हुए। उनका निष्कर्ष था कि इस शव का संरक्षण किसी भी रसायन के बिना, पूर्णतः प्राकृतिक रूप से हुआ है। ऐसा माना जाता है कि बौद्ध भिक्षुक गहन ध्यान मुद्रा में बैठे हुए हैं।

स्पीती घाटी में गियु गाँव
स्पीती घाटी में गियु गाँव

इस भिक्षुक के शव के संरक्षण के विषय में सर्व सामान्य व्याख्या जो मैंने सुनी, वह यह है कि यह भिक्षुक कदाचित हिमस्खलन के भीतर दब गया होगा। भारत तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा इसकी खोज होने के पूर्व तक, वह एक दीर्घ काल तक बर्फ की अनेक परतों के नीचे दबा रहा। अत्यंत शीत वातावरण के कारण शव का संरक्षण स्वयं ही हो गया। मौखिक परम्पराएं कहती हैं कि इस भिक्षुक का नाम संघा तेनजिन था तथा वह बौद्ध धर्म के गेलुग्पा पंथ का अनुयायी था।

ममी का संरक्षण

इस ममी के दर्शनोपरांत मेरे भीतर एक जिज्ञासा उमड़ रही थी जिसके कारण मैं शरीर के स्वसंरक्षण की जानकारी देते इस संकेतस्थल पर पहुँची। मैंने जाना कि बौद्ध धर्म के कुछ पंथों में बौद्ध भिक्षुओं के शरीर संरक्षण की यह नियोजित परंपरा थी। इस परंपरा के अनुसार बौद्ध भिक्षुक स्वेच्छा से भोजन का त्याग करते थे तथा अपने शरीर को समाधिस्थ कर ममी रूप की ओर प्रस्थान कराते थे। कदाचित उन्हें देह संरक्षण के विज्ञान का भलीभांति ज्ञान था।

सीमित आहार एवं ध्यान के संतुलन से वे देह संरक्षण करते थे। स्वाभाविक रूप से, संरक्षण की सफलता भिक्षुक की आध्यात्मिक योग्यता पर भी निर्भर करती होगी। इससे मुझे जैनियों की संथारा प्रथा का स्मरण हो आया जहां वे स्वेच्छा से भोजन का त्याग कर एवं ध्यान मग्न होकर समाधि ग्रहण कर लेते थे। गियु ममी ने विज्ञान एवं अनुसंधान की एक नवीन शाखा को जन्म दिया है जहां शरीर का संरक्षण बिना किसी रसायन के प्राकृतिक रूप से कैसे किया गया है, इस पर शोध किया जाए।

पर्यटन मानचित्र

गियु ममी ने गियु गाँव को हिमाचल प्रदेश पर्यटन के मानचित्र पर ला कर रख दिया है। यह विशेष रूप से स्पीति घाटी पर्यटक का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इस ममी की जानकारी ना होती तो कदाचित गिने-चुने पर्यटक ही विमार्ग लेकर गियु गाँव पहुँचने का कष्ट उठाते। अब यह गाँव एक ठेठ हिमाचली गाँव है जहां कुछ आवास एवं एक मठ है।

गियु का एक मनमोहक द्वार
गियु का एक मनमोहक द्वार

गाँव में भ्रमण करते समय मेरा ध्यान भूमिगत जल नलिका प्रणाली ने खींचा, जो मेरी दृष्टि से अद्भुत है। गाँव में एक मंदिर की संरचना की जा रही है जो कदाचित इस ममी के लिए है। कुछ वर्षों के पश्चात इस मंदिर से भी अनेक अनुष्ठान एवं किवदंतियां जुड़ जायेंगी।

आप सब पर्यटकों से मेरा आग्रह है कि इस ममी के अवलोकन से पूर्व, शरीर संरक्षण के विज्ञान की कुछ जानकारी अवश्य ले कर आयें। सम्पूर्ण विश्व में इस प्राचीन परम्परा एवं इसकी प्रणाली की तुलना करें। हिमाचल प्रदेश पर्यटन से भी मेरा आग्रह है कि वे भी इस विषय में कार्य करें तथा आवश्यक ज्ञान उपलब्ध कराएं।

इस बौद्ध भिक्षुक के जीवन एवं उसके ध्येय के विषय में विचार करूँ तो इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बाध्य हो जाती हूँ कि मरणोपरांत ५०० वर्ष पश्चात भी, स्पीति घाटी के अपने छोटे से गाँव की वह अब भी सहायता कर रहा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कल्पा का किन्नर कैलाश – यहां सृष्टि भी स्तब्ध हो जाए https://inditales.com/hindi/kinner-kailash-parvat-kalpa-himachal/ https://inditales.com/hindi/kinner-kailash-parvat-kalpa-himachal/#comments Wed, 09 Nov 2022 02:30:07 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2857

हिमाचल में सेबों की घाटी में रहते हुए अब हमें कुछ दिन हो चुके थे। अपने चारों ओर सेबों से लदे वृक्षों को देखने में हम अभ्यस्त हो गए थे। हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से घिरे रहने में आनंद आने लगा था। घाटियों के बीच ये पर्वत मालाएं मानो हमें कम्बल ओढाकर हमें बाहरी वातावरण से […]

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हिमाचल में सेबों की घाटी में रहते हुए अब हमें कुछ दिन हो चुके थे। अपने चारों ओर सेबों से लदे वृक्षों को देखने में हम अभ्यस्त हो गए थे। हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से घिरे रहने में आनंद आने लगा था। घाटियों के बीच ये पर्वत मालाएं मानो हमें कम्बल ओढाकर हमें बाहरी वातावरण से बचा रही हों।

किन्नर कैलाश पर्वत इन सब ने मेरे हृदय एवं मन मस्तिष्क में ऐसी छाप छोड़ी कि मैं जब भी पर्वतों को देखती हूँ, अपने ही अंतर्मन में खोने लग जाती हूँ। इन पर्वतों ने मुझसे मेरा परिचय कुछ इस प्रकार कराया जिस प्रकार अब तक किसी स्थान अथवा वस्तु ने नहीं कराया था। वैसे भी, हिमालयों को सदा से ही आध्यात्मिकता से जोड़ा जाता रहा है। मेरे अद्वितीय अनुभव से एकरूप होने के लिए आप भी अपनी आगामी यात्रा शीघ्रातिशीघ्र नियोजित कीजिये एवं कल्पा के किन्नर कैलाश में आ जाइए।

हिमाचल प्रदेश में कल्पा के दर्शनीय स्थल

अनेक लोगों का यह स्वप्न होता है कि अपने जीवन के कुछ दिन यहाँ अवश्य बिताएं। मेरा यह संस्मरण पढ़कर आप भी उन में सम्मिलित हुए बिना नहीं रह पायेंगे। मैं जब भी यहाँ की सर्वव्यापी हरी टोपियाँ धारण किये किन्नौर वासियों को देखती हूँ तो मेरे मस्तिष्क में एक ही विचार कौंधता है। ‘ये किन्नौरी कितने भाग्यशाली हैं!’ इसमें तनिक भी अचरज नहीं कि इस भूमि को देव भूमि कहा जाता है। किन्नौर वासियों को देखकर भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि वे साधारण मानवों से कुछ अधिक हैं तथा दैवी अस्तित्व के निकट हैं। उनके सादे मुखड़े पर उपस्थित अबोध निश्छल हंसी इसी का प्रमाण है। यही देखने के लिए आईये किन्नर कैलाश चलते हैं।

कल्पा से किन्नर कैलाश पर्वत श्रंखला का परिदृश्य
कल्पा से किन्नर कैलाश पर्वत श्रंखला का परिदृश्य

कल्पा पहुँचने के लिए हमारा वाहन सतलज नदी के किनारे से आगे बढ़ रहा था। मुझे स्मरण नहीं कि मैंने इससे पूर्व किसी नदी का इतना रौद्र रूप देखा होगा जो मैंने इस घाटी में सतलज का देखा। सतलज नदी के इसी शक्तिशाली बहाव को देखते हुए इस पर अनेक प्रमुख बिजली उत्पादन संयंत्र नियोजित किये गए हैं। सतलज नदी के कोलाहल के समक्ष आसपास के सभी ध्वनि एवं शोरगुल लगभग शांत प्रतीत हो रहे थे। कल्पा तक पहुँचने के लिए आपको रेकोंग पेओ को पार करना पड़ता है जो किन्नौर का जिला मुख्यालय तो है ही, साथ ही एक छोटा किन्तु जीवंत गाँव है। हमें बताया गया कि यह सूखे मेवों एवं किन्नौरी शाल क्रय का सर्वोत्तम स्थान है।

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किन्नर कैलाश

१३ किलोमीटर की तीव्र चढ़ाई चढ़ने के पश्चात् हमारी गाड़ी हिमाचल के एक ठेठ गाँव, कल्पा पहुंची। कल्पा हिमालय के किन्नर कैलाश पर्वतमाला के अप्रतिम परिदृश्यों के लिए प्रसिद्ध है, विशेषतः शिवलिंग के समान दिखाई देने वाले किन्नर कैलाश के लिए, जिसका रंग सूर्य की किरणों के कारण दिवस भर परिवर्तित होता रहता है। आरम्भ में कल्पा को चीनी कहा जाता था। यदि आप स्थानीय वार्तालापों को ध्यान से सुनेंगे तो आप जानेंगे कि स्थानिक इसे अब भी चीनी कहते हैं।

किन्नर कैलाश की त्रिकोणीय शिखाएं
किन्नर कैलाश की त्रिकोणीय शिखाएं

१९६२ के भारत-चीन युद्ध के पश्चात इसका नाम परिवर्तित कर कल्पा रखा गया था क्योंकि इस नाम से चीन के निवासियों को भी पुकारा जाता था। कल्पा हिन्दू एवं बौद्ध संस्कृतियों का विशिष्ठ सम्मिश्रण है। शिमला की ओर के क्षेत्रों में हिन्दू धर्म की प्रधानता है, वहीं स्पीति की ओर बौद्ध धर्म का प्राधान्यता से पालन किया जाता है। मध्य में होने के कारण कल्पा में दोनों धर्मों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है।

हिमालय का किन्नर कैलाश पर्वतमाला

कल्पा में हम शाम्बा ला होटल में ठहरे थे। होटल में हमारे कक्ष के छज्जे से सम्पूर्ण किन्नर कैलाश पर्वतमाला के हमें सीधे दर्शन हो रहे थे। हम वहां जिस दिन थे, मेघों ने भी उसी दिन कल्पा के दर्शन की योजना बनाई थी। मेघों एवं पर्वत शिखरों के मध्य अठखेलियों के हम प्रत्यक्षदर्शी थे। जब भी कुछ क्षणों के लिए मेघों के झुण्ड विरले होकर हमें सूर्य की किरणों अथवा पर्वत शिखरों का दर्शन करा देते, हम आनंद से झूम उठते थे। संध्या का अधिकतम समय हमने मेघों एवं पर्वतों के मध्य आंखमिचौली के खेल का आनंद लेने में व्यतीत कर दिया। साथ में गर्म चाय भी थी जो प्रथम चुस्की तक भी गर्म नहीं रह पा रही थी।

मेघों से घिरी पर्वत शिखाएं
मेघों से घिरी पर्वत शिखाएं

यहाँ के पर्वत शिखरों की एक अनूठी विशेषता ने मेरा ध्यान खींचा। सभी पर्वत शिखरों की चोटियां तीखी त्रिकोणीय थीं। ठीक उसी प्रकार जैसे पाठशालाओं में विद्यार्थी अपनी पेंसिल को छीलकर नुकीला करते हैं। एक अथवा दो नहीं, अपितु सभी शिखरों की चोटियाँ मानो समभुज त्रिकोण थीं। उन पर्वत मालाओं से बहती हिमनदियां गहरे धूसर रंग के पर्वतों पर श्वेत शिराओं सी प्रतीत हो रही थीं।

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सूर्य प्रकाश विलुप्त होते तक हम उन शिखरों को निहारते रहे। जब कुछ भी देख पाना दूभर हो गया, हम मन मसोसकर विश्रामगृह के पुस्तकालय में चले गए। गर्म गर्म सूप की चुस्कियां लेते लेते हम विश्रामगृह के युवा स्वामी, पृथ्वी नेगी से बतियाने लगे। वहां के पुस्तकालय ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया। हमारे चारों ओर पुस्तकों की भरमार, पृष्ठभूमि में बजता भक्ति संगीत तथा समक्ष बैठे नेगीजी के मुख से निकलती इस कस्बे की कथाएं। उन्होंने हमें लार्ड डलहौसी के बंगले के विषय में बताया जहां उनकी रोगग्रस्त पत्नी ने स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया था। हमने उन तिब्बती प्रवासियों के विषय में जाना जो दलाई लामा के साथ भारत आये तथा यहीं बस गए। उन्ही तिब्बतियों ने यहाँ बौद्ध प्रार्थनास्थलों का निर्माण किया, स्थानिकों से विवाह किया तथा लगभग दो जीवन चक्रों में यहाँ की मुख्य धारा से एकरूप हो गए।

‘सुईसाइड’ स्थल

प्रातः पृथ्वी जी मुझे कल्पा के दर्शन के लिए ले गए। सर्वप्रथम वे मुझे एक लोकप्रिय अवलोकन स्थल ले गए जिसे ‘सुईसाइड’ स्थल भी कहते हैं। मेरे समक्ष ९० अंश तीव्र गहरी खाई थी जो किसी को भी तुरंत मुक्ति दिला सकती थी। सौभाग्य से अब तक उस स्थान ने किसी के भी प्राण नहीं लिए हैं। ना ही किसी ने यहाँ आत्महत्या करने का प्रयास किया है। कदाचित खाई की तीव्र गहराई के कारण उसका यह नामकरण हुआ है। अथवा किसी भी अन्य पर्वतीय पर्यटन स्थल की परिपाटी का यहाँ भी पालन किया जा रहा है जिसके अंतर्गत साधारणतः प्रत्येक पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र पर एक आत्महत्या स्थल, एक सूर्यास्त दर्शन स्थल तथा एक प्रेमी-प्रेमिका स्थल होते हैं। कुछ भी हो, वह स्थान अत्यंत भयावह था। जब पृथ्वीजी ने मुझे उसके समीप जाकर खड़े होने के लिए कहा ताकि वह मेरा चित्र ले सके, मेरा कलेजा मुंह को आ गया तथा हृदय धौंकनी के समान धड़कने लगा। ऐसे चित्र की मुझे तनिक भी आस नहीं रहेगी।

सुसाइड पॉइंट का परिदृश्य
सुसाइड पॉइंट का परिदृश्य

यह स्थान कितना भी भयावह क्यों ना हो, किन्तु यहाँ से चारों ओर का परिदृश्य अप्रतिम प्रतीत होता है। सम्पूर्ण घाटी में खड़ी चट्टानों के किनारों पर अकस्मात् ही गाँव दृष्टिगोचर हो जाते हैं। परिदृश्यों को भेदते वे अचानक ही किसी कुकुरमुत्ते के समान प्रकट होते हैं जो इस परिदृश्य का भाग होते हुए भी मुख्य धारा से कटे हुए प्रतीत होते हैं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि उन तक पहुँचने का कोई मार्ग होगा भी? मुझे बताया गया कि यहाँ के अधिकाँश गाँव किसी ना किसी जल स्त्रोत के समीप बसे हुए हैं जो उन्हें लगभग आत्मनिर्भर बनाते हैं। फिर भी, मेरा अनुमान है कि मार्ग तो अवश्य ही होगा।

बौद्ध प्रार्थना स्थल

कल्पा का बौद्ध मंदिर
कल्पा का बौद्ध मंदिर

इसके पश्चात पृथ्विजी मुझे उनके पिता द्वारा निर्मित एक बौद्ध मंदिर में ले गए जो कल्पा कस्बे के मध्य स्थित है। इस मंदिर से व्यक्तिगत रूप से जुड़े होने के कारण मुझे उनके मध्य एक भावनात्मक उर्जा का आभास हुआ। प्रांगण में स्थित बौद्ध स्मारक अथवा चोरटेन को अनदेखा करें तो यह बौद्ध मंदिर हिमाचल के किसी भी अन्य मंदिर के समान प्रतीत होता है। मंदिर के समीप ही एक प्राथमिक पाठशाला है जिसकी विशेषता यह है कि यह पाठशाला भारत का सर्वप्रथम मतदान केंद्र है। इसी स्थान पर भारत के सर्वप्रथम मतदाता श्री श्याम सरन नेगी ने मतदान किया था। उस समय से पिछले चुनावों तक, प्रत्येक चुनाव में उनके अनवरत मतदान को चुनाव कार्यालय चाय व समोसे बाँटते हुए एक उत्सव के रूप में मनाती है।

नाग नागिन मंदिर

कल्पा कस्बे में एक नाग-नागिन मंदिर है जो इस नगरी के हृदयस्थल पर विराजमान है। पाषाण व काष्ठ में निर्मित इस मंदिर में अनेक प्रकार के सर्प उत्कीर्णित हैं जिनमें अधिकतर सर्प स्तंभों पर कुण्डली मारे हुए हैं। मंदिर का उत्कीर्णित स्वर्णिम द्वार अत्यंत भव्य है जो उसके पाषाणी संरचना में सूर्य के समान दमकता है। यद्यपि मंदिर से चारों ओर का सुन्दर दृश्य दिखाई पड़ता है तथापि, जैसा कि मैंने पूर्व में भी कहा है, जिस दिन मैं यहाँ थी, उसी दिन मेघों को भी इस स्थान के दर्शन की सूझी थी।

नाग नागिनी मंदिर का प्रवेश द्वार
नाग नागिनी मंदिर का प्रवेश द्वार

मंदिर के चारों ओर पदचाप करते समय मेरी दृष्टी पत्थर एवं लकड़ी से निर्मित कुछ प्राचीन घरों पर पड़ी। लकड़ी का प्रत्येक भाग उत्कीर्णित था। उन घरों की पुरातनता में ही उनकी सुन्दरता सन्निहित थी। समय के प्रत्येक कालखंड ने मानो उस पर रहस्य की परते चढ़ाई थी। अब इस प्रकार के घरों का रखरखाव जितना कठिन होता जा रहा है, उतना ही कठिन उनमें निवास करना होता है। चारों ओर घरों के प्रकार में निरंतर परिवर्तन मेरा ध्यान खींच रही थी।

पारंपरिक पहाड़ी घर
पारंपरिक पहाड़ी घर

मेरे शहरी रूचि के अनुसार यहाँ के कंक्रीट घरों में रत्ती भर भी सुन्दरता नहीं है किन्तु फिर भी ये तेजी से यहाँ के ठेठ पत्थर-काष्ठ के तिरछी छत वाले वैशिष्ठ्य पूर्ण घरों का स्थान ले रहे हैं। यहाँ के गाँववासियों का ऐसा मानना है कि यह आधुनिकता में प्रवेश करने का संकेत है।

रोघी का चंडिका देवी मंदिर

कुछ दूर स्थित रोघी गाँव में चंडिका देवी का प्रसिद्ध मंदिर है जो इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी है। यह मंदिर भी लकड़ी एवं पत्थरों से निर्मित है। देवी पार्वती के चंडिका अवतार को समर्पित यह मंदिर भक्तों से भरा रहता है।

रोघी का श्री चंडिका देवी मंदिर
रोघी का श्री चंडिका देवी मंदिर

हरे किन्नौरी टोपी के बिना इस मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। आप प्रवेश द्वार पर यह टोपी किराये से ले सकते हैं। मंदिर की सूचना पट्टिका के अनुसार, ऐसी मान्यता है कि पूर्वकाल में यह क्षेत्र ‘तपोभूमि’ थी जहां महिषासुर तथा बाणासुर जैसे अनेक राक्षसों ने भी तपस्या की थी। देवी ने चंडिका अवतार धारण कर इन असुरों का संहार किया था तथा इस भूमि को उनके अत्याचार से मुक्त किया था। तब से चंडिका देवी इस क्षेत्र की संरक्षिका देवी हैं। वास्तव में, इस मंदिर को चंडिका का गढ़ भी कहा जाता है।

चंडिका देवी मंदिर का स्थापत्य एवं वास्तुकला

इस मंदिर की वास्तुकला विशेष है। स्लेट पत्थर में निर्मित इसका शिखर अथवा अधिसंरचना उलटे शंकु के आकार का है। यहाँ दो मंदिर हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सराहन में भीमकाली मन्दिर में हैं, एक नवीन तथा एक प्राचीन।

कल्पा के मंदिरों का दृश्य
कल्पा के मंदिरों का दृश्य

यहाँ नवीन एवं प्राचीन मंदिर प्रत्यक्ष रूप से अपनी आयु दर्शाते हैं। ध्यान से देखने पर आपको मंदिर की छत एवं भित्तियों पर पशुओं के अनेक सींग लटकते दृष्टिगोचर होंगे। मेरे अनुमान से ये उन पशुओं के सींग हैं जिन्हें कदाचित यहाँ बलि स्वरूप अर्पित किया गया होगा क्योंकि देवी मंदिरों में बहुधा यह प्रथा प्रचलित थी। आँगन में लकड़ी का एक सिंहासन है जिस पर हिम तेंदुए के शीष सहित उसका चर्म बिछाया हुआ है। किसी हिम तेंदुए को इतने समीप से देखने का अवसर सर्वप्रथम प्राप्त हुआ था, भले ही वह अब निर्जीव हो।

चंडिका देवी मंदिर के निकट एक और प्राचीन मंदिर
चंडिका देवी मंदिर के निकट एक और प्राचीन मंदिर

चंडिका देवी मंदिर के समक्ष एक अन्य मंदिर था जिसके जलकुंड में व्यालमुख प्रणाली से आता जल भर रहा था। मैं इस मंदिर के भीतर नहीं गयी किन्तु दूर से यह मंदिर अपने सुन्दर जलकुंड समेत अत्यंत मनमोहक प्रतीत हो रहा था। इस मंदिर से महाभारत की एक दन्तकथा जुड़ी हुई है।

किन्नर कैलाश की पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, किन्नर कैलाश पर्वतमाला भगवान शिव का शीतकालीन निवास था। जब शीत ऋतु अत्यंत तीव्र हो जाती थी तब भगवान शिव मानसरोवर के समीप, कैलाश पर्वत पर स्थित अपने निवास से नीचे उतरकर यहाँ आ जाते थे। वास्तव में, पुरातन काल से, हिन्दू परंपरा के अनुसार पर्वतों को भगवान शिव का ही एक स्वरूप मानकर पूजा जाता रहा है। दक्षिण भारत में भी आपको इस प्रथा का अनुभव प्राप्त होगा। तिरुपति के चारों ओर के पर्वतों को भी भगवान शिव का रूप माना जाता है।

कल्पा का डाक घर
कल्पा का डाक घर

प्रत्येक वर्ष जुलाई-अगस्त मास में किन्नर कैलाश यात्रा का आयोजन किया जाता है। अनेक भक्तगण एवं अब निरंतर बढ़ते पर्वतारोही इस पर्वत शिखर की परिक्रमा करते हैं। इस पर्वत के शीर्ष तक पहुँचने वाला भी एक मार्ग है जिस पर अग्रसर होकर पर्वतारोही शीर्ष तक पहुँचते हैं। शीर्ष पर फहराता ध्वज इस रोहण का जीवंत प्रमाण है।

किन्नर कैलाश के चित्ताकर्षक सौंदर्य में स्वयं को सराबोर करने के पश्चात तथा यहाँ के सेबों एवं अन्य फलों का जी भर के आस्वाद लेने के पश्चात कल्पा से विदाई का समय आ गया था। मानो हमारी यात्रा के एक कल्प का भी अंत होने लगा था। यहाँ से आगे की यात्रा में, कुछ दिवसों तक, हमें हरियाली एवं सभ्यता दोनों की ही न्यूनता का आभास होने वाला था।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रामपुर बुशहर एवं उसका पदम् प्रासाद हिमाचल प्रदेश https://inditales.com/hindi/rampur-bushahar-padam-mahal-himachal/ https://inditales.com/hindi/rampur-bushahar-padam-mahal-himachal/#respond Wed, 14 Sep 2022 02:30:20 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2796

शिमला एवं किन्नौर क्षेत्र में दीर्घ काल तक शासन करते बुशहर राजवंश की राजधानी थी, रामपुर बुशहर। यदि किवदंतियों एवं लोककथाओं की मानें तो बुशहर नगर की वंशावली भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न तक जाती है। आप बुशहर क्षेत्र में अनेक विष्णु मंदिर देखेंगे जो इस मान्यता के आधार को दृढ़ करते हैं। प्रलेखित ऐतिहासिक […]

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शिमला एवं किन्नौर क्षेत्र में दीर्घ काल तक शासन करते बुशहर राजवंश की राजधानी थी, रामपुर बुशहर। यदि किवदंतियों एवं लोककथाओं की मानें तो बुशहर नगर की वंशावली भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न तक जाती है। आप बुशहर क्षेत्र में अनेक विष्णु मंदिर देखेंगे जो इस मान्यता के आधार को दृढ़ करते हैं। प्रलेखित ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार बुशहर राजवंश ने सांगला के निकट स्थित कामरू दुर्ग से शासन का कार्यभार संभाला था। तत्पश्चात वे वहां से सराहन स्थानांतरित हो गए थे। अंततः, लगभग १०० वर्ष पूर्व वे सतलुज नदी के तट पर स्थित रामपुर में बस गए थे।

रामपुर बुशहर का पद्म महल
रामपुर बुशहर का पद्म महल

जब मैं रामपुर से सराहन तथा उसके पश्चात कामरू के भ्रमण पर जा रही हूँ, मेरी यह यात्रा मुझे इतिहास में विपरीत दिशा की ओर ले जाने वाली है। यात्रा आरम्भ करने से पूर्व आईये मैं रामपुर एवं उसके पदम् पैलेस से आपका परिचय करा दूं।

हिमाचल प्रदेश का रामपुर बुशहर नगर

शिमला से जब आप रामपुर में प्रवेश करेंगे, तब दो अद्भुत दृश्य आपका स्वागत करेंगे। एक है, गर्जना करती सतलुज नदी तथा दूसरा है, हनुमान जी की एक विशाल मूर्ति। तत्पश्चात आपकी दृष्टि नदी के ऊपर निर्मित एक छोटे से सेतु पर पड़ती है। इस उर्जावान नदी की तुलना में यह सेतु अत्यंत गौण प्रतीत होता है किन्तु वह अब भी लोगों को नदी के उस पार ले जाने में सक्षम है। रामपुर नगर नदी के दोनों तटों पर समान रूप से विभाजित प्रतीत होता है।

रामपुर बुशहर में सतलुज नदी
रामपुर बुशहर में सतलुज नदी

नदी के समान्तर जाती सड़क कार्यालय भवनों के भीतर-बाहर जाते लोगों के क्रियाकलापों  में व्यस्त था। ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए भाजी के दुकानदारों ने सुन्दर रीति से अपनी दुकानें सजा रखी थीं। बस स्थानक के आसपास की गतिविधियाँ इस ओर संकेत कर रही थीं कि यह इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण नगर है।

प्राचीन हिंदुस्तान – तिब्बत मार्ग पर स्थित रामपुर सदैव ही भारत एवं तिब्बत के मध्य स्थित एक महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र रहा है। यह दो पारंपरिक व्यापार मेलों का भी स्थल है, नवम्बर माह में लवी मेला तथा मार्च मास में फाग मेला। इन मेलों में आसपास से अनेक व्यापारी अपने उत्पाद विक्री करने आते हैं। रामपुर के निवासियों द्वारा धारण की जाने वाली सुविख्यात एवं हिमाचल में सर्वव्यापी किन्नौरी टोपियाँ भी यहाँ के परिदृश्यों का अभिन्न अंग हैं। यहाँ मुझे लगभग सभी पुरुषों के शीष पर यह हरी टोपियाँ दृष्टिगोचर हुईं जैसी आपने वीरभद्र सिंह के शीष पर देखी होंगी। इन टोपियों से सम्बंधित कथाएं मुझे कुछ समय पश्चात ज्ञात हुईं।

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रामपुर के स्नेहपूर्ण निवासी

रामपुर के सादगीपूर्ण जीवन में स्वयं को सराबोर करने के उद्देश्य से हम नदी के तट पर पैदल चलने लगे। हम चाय की एक दुकान पर बैठ गए तथा तेल से ताजे निकले हुए कुरकुरे समोसों का आनंद लिया। सादगी से भरपूर व स्नेह से परिपूर्ण हिमाचली स्थानिकों से वार्तालाप किया।  चाय की दुकान पर बैठे एक वयस्क दंपत्ति ने हमसे अत्यंत स्नेह से चर्चा की। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि हम हिमाचल प्रदेश के अछूते अद्भुत दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करने निकलें हैं तो उन्होंने हमसे उनके साथ कुछ दिवस व्यतीत करने का आग्रह किया। उनके स्नेह ने हमारे हृदय को भीतर तक पिघलाकर रख दिया।

वे रामपुर से लगभग २० किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव के निवासी थे। पर्वतीय परिवेश में २० किलोमीटर एक लम्बी दूरी होती है। वे हमसे उनके अतिथि बनने का आग्रह कर रहे थे ताकि वे हमें राज्य के उन भागों का दर्शन करा सकें जहां वे रहते हैं। ऐसा स्नेह एवं आतिथ्य का आग्रह आपने कब और कहाँ अनुभव किया था, क्या आपको स्मरण है? उन्हें ना कहना हमारे लिए कठिन हो रहा था। सादगी भरे उन लोगों को कदाचित यह कभी विश्वास नहीं होगा कि वास्तव में वे इस विश्व में इतनी सकारात्मकता फैला रहे हैं।

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रामपुर बुशहर का पदम् पैलेस

रामपुर के मुख्य मार्ग के एक ओर रामपुर का भव्य गौरव स्थित है, इसका अप्रतिम, आकर्षक एवं उत्तम रखरखाव युक्त पदम् पैलेस। पैलेस शब्द से हमारी स्मृतियों में अनेक मनमोहक एवं सुन्दर भवनों की छवियाँ उभर कर आ जाती हैं क्योंकि हम पैलेस अथवा महल का सम्बन्ध सदा प्राचीन काल के उच्चकुलीन रजवाड़ों एवं राजघरानों से जोड़ते हैं। महलों एवं दुर्गों की यह विशेषता होती है कि वे अपने समयकाल के जीवंत प्रलेखन होते हैं। उन राजा-महाराजाओं का व्यक्तित्व कैसा था, उस काल में कैसी जीवनशैली होती थी, किस प्रकार के पहवावे एवं वस्त्र होते थे, उनके जीवनकाल की उपलब्धियां क्या थीं इत्यादि अनेक प्रश्नों के उत्तर हमें इन महलों से प्राप्त होते हैं।

रामपुर बुशहर का पद्म महल
रामपुर बुशहर का पद्म महल

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम पदम् पैलेस के प्रांगण में पहुंचे। मेरे समक्ष लकड़ी में निर्मित दो भवन थे जिन पर फिरोजी नीले एवं भूरे रंगों का अद्वितीय सम्मिश्रण था। लकड़ी पर की गयी अप्रतिम नक्काशी ने मेरा मन मोह लिया था। वहां से आगे जाकर एक छोटा प्रांगण था। उस प्रांगण की भित्ति के उस पार स्थित एक ऊंची उत्कीर्णित संरचना मेरा लक्ष वेध रही थी।

विशाल परिसर

उस भव्य एवं लम्बे भवन के अवलोकन के लिए मैंने मुख्य प्रांगण के भीतर प्रवेश किया। भवन के चारों ओर विस्तृत उद्यान थे। उसके अग्रभाग में एक रंगबिरंगा फुहारा था तथा उसके पृष्ठभाग में पहाड़ियां थीं। सम्पूर्ण दृश्य ने मुझे विस्मित कर दिया था। इस लम्बवत भवन में धूसर रंग के शिलास्तंभ थे। प्रथम तल भूरे रंग का था जो काष्ठ से निर्मित था। इसकी ढलुआ छत लाल रंग की थी। ऊँचे शिलास्तंभ सम्पूर्ण भवन को रम्यता प्रदान कर रहे थे। उनके ऊपर विपुलता से उत्कीर्णित काष्ठ के पटल किसी मुकुट के समान प्रतीत हो रहे थे। हरे भरे पहाड़ों की पृष्ठभूमि में स्थानीय कलाशैली की उत्कृष्टता तथा लाल रंग के ढलुआ छत सम्पूर्ण भवन की सुन्दरता को कई गुना बढ़ा रहे थे।

पद्म महल की काष्ठ कला
पद्म महल की काष्ठ कला

भवन के निचले तल पर नीलवर्ण द्वार तथा उन पर लगे रंगबिरंगे कांच भवन को समृद्ध कर रहे थे। कांच से भीतर झांकने पर हमने अनेक विशाल कक्ष देखे जिनके भीतर साज-सज्जा की वस्तुएं अधिक नहीं थीं तथा दूसरी ओर भी इसी प्रकार के द्वार थे। इन रंगबिरंगे कांच से भीतर प्रवेश करती सूर्य की किरणें कक्ष के भीतर अनेक रंग बिखेर रही थीं। गलियारों की छत पर श्वेत, हरे एवं लाल रंगों में अनेक ज्यामितीय आकृतियाँ चित्रित थीं जिन्हें कांच के टुकड़ों से अलंकृत किया गया था।

पदम् पैलेस का इतिहास

पद्म महल का ऊपरी भाग
पद्म महल का ऊपरी भाग

पदम् पैलेस बुशहर के राजपरिवार की निजी संपत्ति है। यदि आज राजशाही जीवित होती तो आज यहाँ के राजा श्री वीरभद्र सिंह होते जो संयोग से हिमाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री थे। उन्हें आज भी यहाँ राजा साहेब के नाम से संबोधित किया जाता है। उनके पिता पदम् सिंह ने इस महल का निर्माण कराया था। वे इसका वंश की वंशावली के १२२वें राजा थे। मैंने वहां उपस्थित कुछ लोगों से वार्तालाप किया एवं महल के विषय में जानकारी प्राप्त की। उनके अनुसार यह महल लगभग ३००-४०० वर्ष प्राचीन है। कुछ तो इसे उससे भी प्राचीन बता रहे थे। ये जानकारी भ्रमित कर रही थी।

मनोहारी नील द्वार
मनोहारी नील द्वार

मुझे इस महल की स्थापत्य कला पूर्णतः औपनिवेशिक प्रतीत हो रही थी। अतः मेरे अनुमान से यह १९-२०वीं सदी का  न निर्माण प्रतीत होता है। भित्ति पर लगे एक अभिलेख ने यह गुत्थी सुलझाई, जिस पर लिखा था कि राजा पदम् सिंह ने सन् १९१९ में इस महल की आधारशिला रखी थी। इस अभिलेख के अनुसार यह महल अपेक्षाकृत नवीन है। महल के प्रवेश द्वार के निकट बालाजी की उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित लकड़ी की प्रतिमा रखी हुई थी। दक्षिण भारतीय कलाशैली में गढ़ी इस प्रतिमा के निकट उत्तर भारतीय कलाशैली में उत्कीर्णित गणेश जी की प्रतिमा रखी थी।

उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित काष्ठ संरचनाएं

खुले आंगन में राज दरबार
खुले आंगन में राज दरबार

उद्यान के एक छोर पर नीले रंग का एक सुन्दर भवन था । उस बहुरंगी भवन पर उत्कृष्ट नक्काशी की गयी थी। रंगों एवं उत्कृष्ट नक्काशी के इस अद्वितीय व अद्भुत संगम ने मुझे एवं मेरे कैमरे को स्तंभित कर दिया था। उसकी सुन्दरता से हम दोनों अभिभूत हो गए थे। यह गोलाकार भवन उत्कीर्णित संकरे स्तंभों पर खड़ा था जिस पर धूसर रंग की ढलुआ दुहरी छत थी। हरी भरी पृष्ठभूमि में नीले व धूसर रंग का यह भवन मनमोहक प्रतीत हो रहा था। मुझे बताया गया कि महल के इस भाग में राजा अपनी प्रजा से भेंट करते थे। इसे मछकंदी कहते हैं।

रंगों से सुसज्जित राज दरबार
रंगों से सुसज्जित राज दरबार

मैंने एक रानी के समान भवन के भीतर प्रवेश किया। लकड़ी के मंच पर खड़े होकर चारों ओर एवं ऊपर दृष्टि दौड़ाई। इसकी छत एक मंदिर की छत प्रतीत हो रही थी। उस पर राम नाम एवं शुभ चिन्ह अंकित थे। उनके साथ बुशहर महाराजा पदम् सिंह का नाम भी चिन्हित था। स्वाभाविक ही है, प्राचीन काल में महाराजाओं को धरती पर भगवान का अवतार ही माना जाता था। वहां व्यतीत किये कुछ क्षणों में मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं भी एक रानी हूँ तथा प्रजा के दुखों को दूर करने में सक्षम हूँ। मैं भी ऐसी स्थिति में हूँ कि लोगों को ‘दे’ सकूं। क्या यह ऐसे महलों की महिमा है जो वहां बैठकर निर्णय लेने वालों की मनःस्थिति पर ऐसा सद्प्रभाव डालती है?

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एक छोर पर नीले रंग का लघु शीश महल है जो कदाचित पदम् पैलेस से प्राचीन है। पदम् पैलेस के एक भाग को अब होटल में परिवर्तित किया गया है जहां आप ठहर सकते हैं तथा राजसी ठाठबाट का आनंद उठा सकते हैं।

रामपुर बुशहर के मंदिर

नरसिंह मंदिर

रामपुर बुशहर का नरसिंह मंदिर
रामपुर बुशहर का नरसिंह मंदिर

रामपुर के मुख्य मार्ग पर चलते हुए हम पत्थर के छोटे से भवन के निकट पहुंचे। वह भवन एक प्राचीन मंदिर प्रतीत हो रहा था। एक श्वेत द्वार से हमने भीतर प्रवेश किया। उस द्वार पर सिंह मुख की धातुई घुन्डियाँ थीं। शैल चबूतरे पर स्थित वह एक अत्यंत छोटा सा पत्थर का मंदिर था। उसके चारों ओर एवं ऊपर लकड़ी के स्तम्भ एवं छत थी। मंदिर की शिलाओं पर स्थित जीर्ण उत्कीर्णन यह संकेत कर रहे थे कि मंदिर की शिलाएं अत्यंत पुरातन हैं। हमने मंदिर को चारों ओर से देखा तथा जाना कि यह विष्णु के नरसिम्ह अवतार को समर्पित एक पुरातन मंदिर है। हिमाचल प्रदेश में नरसिंह मंदिर देख मुझे अत्यंत विस्मय हुआ क्योंकि इससे पूर्व मैंने भारत के दक्षिणी भागों में ही नरसिंह के मंदिर देखे थे। पुरोहित जी ने मुझे बताया कि इस क्षेत्र में विष्णु के नरसिंह अवतार की आराधना की जाती है। यहाँ नरसिंह के अनेक मंदिर हैं।

नरसिंह मंदिर की कला
नरसिंह मंदिर की कला

मंदिर के ऊपर लकड़ी की छत, खजुराहो के मंदिरों की छतों के समान उत्कीर्णित थी। वर्ष के ६ मास हिमाच्छादित रहने के कारण मंदिर एवं लकड़ी को क्षति पहुँचती है जिसके कारण ये असंरक्षित प्रतीत होते हैं। लकड़ी के भागों का नियमित रखरखाव आवश्यक हो जाता है तथा अनेक भागों को नियमित अंतराल में प्रतिस्थापित किया जाता है। वहीं, शैल संरचना पुरातन है। मंदिर का आधार शैल में उत्कीर्णित कमल का पुष्प है। ऐसा प्रतीत होता है मानो कमल के पुष्प से मंदिर का उद्भव हो रहा है। हमारे नेत्रों के स्तर पर, भित्तियों पर, अति लघु मंदिर के रूप में अनेक आले हैं जिनके भीतर विभिन्न देवताओं की प्रतिमाएं हैं। मंदिर का प्रत्येक अवयव मंदिर स्थापत्य की नागर शैली का आभास करता है।

यह एक लघु मंदिर है किन्तु सतलुज नदी के तट पर स्थित इस मंदिर में आध्यात्मिक उर्जा का आभास होता है। यह मंदिर युगों युगों से अर्पित करोड़ों प्रार्थनाओं की उर्जा से ओतप्रोत है। आपको भी इसका अनुभव अवश्य होगा।

रघुनाथ मंदिर

मार्ग के दूसरी ओर एक अन्य शैल मंदिर है जो अपेक्षाकृत अधिक जाना-पहचाना रघुनाथ मंदिर है। अब इसके चारों ओर धर्मशाला है। मुख्य मंदिर के बाहर हनुमान की शैल प्रतिमा है। मंदिर की भित्तियों पर भी हनुमान की प्रतिमाएं हैं। यह विष्णु के राम अवतार का मंदिर है।

दुन्ग्युर मंदिर

बस स्थानक के समीप एक ऊँची रंगबिरंगी संरचना है जो दुन्ग्युर मंदिर नामक बौद्ध मंदिर है। इसका उद्घाटन सन् २००६ में दलाई लामा ने किया था। इसका मुख्य द्वार अत्यंत मनमोहक एवं दर्शनीय है।

रामपुर बुशहर का बौद्ध मंदिर
रामपुर बुशहर का बौद्ध मंदिर

रामपुर के सार्वजनिक स्थलों के विषय में एक विशेषता का उल्लेख करना चाहूंगी। वे सभी सामान्य जनमानस के लिए दुर्लभ, दर्शनीय स्थल मात्र नहीं हैं, अपितु वहां के लोग उनका पूर्णतः उपयोग करते हैं। लोग पदम् पैलेस के उद्यान में एवं बाहर स्थित मंडप के नीचे बैठते हैं। मंदिर के बाहर एवं भीतर स्थित चबूतरों पर बैठते हैं। चर्चा वार्तालाप करते हैं। अंततः ऐसे स्थलों की रचना ही इसलिए की जाती थी कि लोग वहां बैठें, एक दूसरे से भेंट करें, एक दूसरे के सुख-दुःख बांटे, एक दूसरे की सहायता करें व उन्हें सुझाव दें। मुझे प्रसन्नता है कि रामपुर अपनी धरोहर का उपभोग ठीक उसी प्रकार कर रहा है जैसा कि होना चाहिए।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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हिमाचल एवं स्पीति घाटी – १५ दिवसीय रोमांचक सड़क यात्रा https://inditales.com/hindi/himachal-shimla-spiti-ghati-manali-yatra/ https://inditales.com/hindi/himachal-shimla-spiti-ghati-manali-yatra/#comments Wed, 13 Jul 2022 02:30:53 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2734

भारत के इस हिमालयी राज्य की घाटियों की अद्भुत सुन्दरता को निहारने के लिए हिमाचल एवं स्पीति घाटी की एक लम्बी सड़क यात्रा से बेहतर उपाय अन्य नहीं हो सकता। धरती के सर्वाधिक जोखिम भरे मार्गों के अतिरिक्त, यहाँ तक पहुँचने के लिए परिवहन का कोई अन्य साधन भी नहीं है। आपको संकरी, ऊबड़-खाबड़ व […]

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भारत के इस हिमालयी राज्य की घाटियों की अद्भुत सुन्दरता को निहारने के लिए हिमाचल एवं स्पीति घाटी की एक लम्बी सड़क यात्रा से बेहतर उपाय अन्य नहीं हो सकता। धरती के सर्वाधिक जोखिम भरे मार्गों के अतिरिक्त, यहाँ तक पहुँचने के लिए परिवहन का कोई अन्य साधन भी नहीं है। आपको संकरी, ऊबड़-खाबड़ व बलखाती सडकों से होकर ही जाना पड़ता है जिन्हें कहीं दृढ़ तो कहीं भुरभुरे पर्वतों को काटकर बनाया गया है। कहीं आप सतलुज जैसी शक्तिशाली नदी के साथ साथ चलते हैं तो कहीं आपको स्पीति जैसी कोमल नदी का साथ प्राप्त होता रहता है। हिमाचल एवं स्पीति घाटी की इस सड़क यात्रा में तो कभी कभी कई किलोमीटर दूर तक आप के अतिरिक्त आपको कोई अन्य जीव भी दृष्टिगोचर नहीं होगा।

हिमाचल की १५ दिवसीय सड़क यात्रा

हिमाचल स्पिति घाटी सड़क यात्रा
हिमाचल स्पिति घाटी सड़क यात्रा

हिमाचल की सड़क यात्रा के विषय में अधिकतर यात्रा विवरण रोमांच से परिपूर्ण होते हैं किन्तु हमारी यात्रा अपेक्षाकृत सुगम थी। जुलाई मास होने के कारण हम भू-स्खलन की कुछ घटनाओं के लिए मानसिक रूप से तैयार थे। भू-स्खलन की परिस्थिति में, शान्ति से सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर, मार्ग सुगम होने की प्रतीक्षा करने के लिए, हम दाना-पानी समेत पूर्ण रूप से सज्ज थे। सौभाग्य से यात्रा के देव हम पर प्रसन्न थे। उनकी कृपा से, सम्पूर्ण १७ दिवस, हमें मार्ग में किसी भी प्रकार के कष्ट अथवा   संकट का सामना नहीं करना पड़ा।

पहाड़ काट कर बनाई सड़कें
पहाड़ काट कर बनाई सड़कें

हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी प्रदेश होने के कारण इसके अधिकाँश क्षेत्रों में सड़क यात्रा एक धीमी गति की यात्रा होती है। ऊंचे पर्वतों की ढलानों पर बनी इसकी बल खाती संकरी सड़कें आपको बाध्य कर देती हैं कि आप पूर्णतः सचेत रहें। एक ओर गहरी खाई तथा दूसरी ओर ऊंचे पर्वतों के मध्य से जाती वक्रीय मार्गों को देख आप कभी अचंभित हो जायेंगे तो कभी उनकी प्रशंसा करेंगे, कभी रोमांचित होंगे तो कभी उनसे भयभीत होंगे। निरंतर परिवर्तित होते अप्रतिम परिदृश्य आपको भावविभोर कर देंगे। एक ओर किन्नौर जैसे, सेबों एवं अन्य हिमाचली फलों से लदे वृक्षों से भरा हराभरा क्षेत्र है तो दूसरी ओर सांगला घाटी के ऊबड़-खाबड़ पहाड़ तथा स्पीति के वीरान बीहड़ पर्वत। धर्म की चर्चा करें तो जैसे जैसे हम पर्वतों पर ऊंचे चढ़ते जाते हैं, आस्था भी हिन्दू धर्म से बौद्ध धर्म की ओर झुकती चली जाती है। घाटियों की हरीभरी हरियाली भी पर्वतों पर ऊंचे चढ़ते चढ़ते वीरान बीहड़ पर्वतों पर लटकते रंगबिरंगे बौद्ध पताकाओं में परिवर्तित होने लगते हैं। हिमाचल सड़क यात्रा में जल एक ऐसा तत्व है जो सदा आपके साथ रहता है, वह चाहे नदी हो अथवा झील। जल की प्रत्येक अभिव्यक्ति यहाँ अत्यंत पावन मानी जाती है।

स्पीति घाटी की सड़क यात्रा

हमने हिमाचल एवं स्पीति घाटी की १५ दिवसों की सड़क यात्रा की थी। यहाँ मैं आपको हमारे दिन-प्रतिदिन के अप्रतिम यात्रा अनुभवों एवं नियोजनों के विषय में बताने जा रही हूँ। प्रत्येक स्थान पर दर्शन किये गए विभिन्न दर्शनीय स्थलों के विषय में मैं पृथक पृथक संस्करण भी विस्तृत रूप से प्रकाशित करूंगी।

दिवस १- शिमला

भारतीय अद्यतन शिक्षा संस्थान शिमलाहमारी हिमाचल एवं स्पीति घाटी सड़क यात्रा का आरम्भ हमने शिमला से किया। मैं एवं मेरी सहयात्री अलका ने दिल्ली से हिमाचल प्रदेश परिवहन विकास निगम की बस की रात्रि सेवा ली। अलका से यह मेरी प्रथम भेंट थी। शिमला पहुंचकर हमारी भेंट हमारे गाड़ी चालक रवि से हुई जो हमारे हिमाचल व स्पीति घाटी सड़क यात्रा में हमारा सर्वाधिक मूल्यवान साथी होने जा रहा था। यहाँ मैं यह कहना चाहूंगी कि एक कुशल गाड़ी चालक का साथ होना स्वयं में एक वरदान के समान है। हमने सोच-समझकर, शिमला से गाड़ी भाड़े पर ली क्योंकि पहाड़ों के गाड़ी चालकों को पर्वतीय मार्गों पर कुशलता के गाड़ी चलाने का अनुभव होता है। साथ ही, स्थानीय टैक्सी चालक संघ से सामंजस्य भी रहता है।

शिमला में हमने भूतपूर्व वाइसरीगल लॉज (Viceregal Lodge) अर्थात राष्ट्रपति निवास का अवलोकन किया जो कभी ब्रिटिश वाइसराय का सरकारी ग्रीष्मकालीन आवास हुआ करता था। इसी निवास से ब्रिटिश वाइसराय द्वारा अनेक दशकों तक भारत पर शासन किया गया था। हमने इस वाइसरीगल लॉज के मार्गदर्शित पर्यटन का भरपूर आनंद उठाया तथा भवन के सुन्दर बगीचे में सैर भी की। हमने प्रा. चन्द्रमोहन परशीरा से भेंट की जिन्होंने हमें इस यात्रा में संभव अनेक अपारंपरिक दर्शनीय स्थलों के विषय में अवगत कराया। उनका मार्गदर्शन अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हुआ।

दिवस २ – थानेदार

हाटू माता मंदिर
हाटू माता मंदिर

शिमला से थानेदार लगभग ७० किलोमीटर दूर स्थित है। सेबों के बागों से होते हुए, अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाते हुए हम थानेदार पहुंचे। यहाँ हमने हिमाचली सेबों के विषय में जाना। बागों में सेबों को पकने में एवं भक्षण योग्य होने में किंचित समय शेष था। हमारा आगामी रात्रि का पड़ाव थानेदार में ही था।

थानेदार से हमने हाटु चोटी एवं नरकंडा की एक-दिवसीय यात्रा की। इस एक-दिवसीय यात्रा की मेरी सर्वोत्तम स्मृतियाँ हैं, प्रातः एवं संध्या के समय की गयी पैदल सैर, स्थानीय महिलाओं से भेंट, वृक्षों से गिरे फलों को चुनना, नदी किनारे बैठकर उसके कलरव का आनंद उठाना एवं लोक कथाएं सुनना। यहाँ हमने अपने आगामी यात्रा के विषय में जानकारी भी एकत्र की।

दिवस ३ – रामपुर बुशहर एवं सराहन

रामपुर बुशहर का पद्म महल
रामपुर बुशहर का पद्म महल

थानेदार से सांगला केवल १५० किलोमीटर दूर स्थित होते हुए भी समयानुसार यह एक लम्बी यात्रा थी। हमने प्रातः शीघ्र ही यात्रा आरम्भ की तथा सीधे रामपुर बुशहर में रुके। वहां हमें पदम महल अत्यंत भा गया। उग्र सतलज नदी के तट पर हमने एक नरसिम्हा मंदिर भी ढूँढा।

वहां से एक लघु उपमार्ग लेते हुए हम भीमाकाली मंदिर के दर्शन हेतु सराहन गए। शिला एवं काष्ठ का प्रयोग कर बनाया गया भीमाकाली का मंदिर अत्यंत सुन्दर है।

सड़क के किनारे एक ढाबे में खाए राजमा-चावल मुझे अब भी स्मरण है। साथ ही यहाँ के लोगों द्वारा उनके घर में ठहराने की व्यवस्था करने की तत्परता एवं उनके निमंत्रण की स्मृति अब भी हृदय में मिठास उत्पन्न कर देती है।

सांगला में बासपा नदी के तट पर बने बंजारा कैंप में हमारा रात्रि का पड़ाव था। वहां पहुंचते पहुंचते अन्धकार हो चुका था। रात्र भर हमें बासपा नदी की गर्जना सुनाई देती रही। उसे प्रत्यक्ष देखने की अभिलाषा तीव्र हो रही थी। प्रातः की प्रथम किरण के साथ मैं भी उठी तथा पूर्ण वेग से बहती बासपा नदी के दर्शन किये।

दिवस ४ – सांगला

हमने सम्पूर्ण दिवस चिटकुल, रक्छाम, सांगला एवं बस्तेरी गाँवों के दर्शन करते हुए व्यतीत किया। चितकुल से सांगला घाटी का अप्रतिम दृश्य दृष्टिगोचर होता है। बस्तेरी में हमने बद्री नारायण को समर्पित एक काष्ठ मंदिर का निर्माण कार्य भी देखा।

बासपा नदी के तट पर व्यतीत किये दो रात्रों के अनुभव मेरे हृदय में सदा के लिए बस गए हैं।

दिवस ५ – रिकांग पिओ एवं कल्पा

सांगला से ४० किलोमीटर दूर स्थित कल्पा तक की यात्रा अधिक लम्बी नहीं थी। सांगला घाटी से २ किलोमीटर दूर, मार्ग में रूककर हमने कमरू दुर्ग तक की छोटी सी चढ़ाई भी की। सांगला घाटी में, कमरू गाँव में स्थित, लकड़ी का यह एक प्राचीन दुर्ग है। इस दुर्ग में कामाख्या देवी का मंदिर है।

किन्नर कैलाश पर्वत
किन्नर कैलाश पर्वत

सड़क के एक ओर, पूर्ण वेग से बहती सतलुज नदी मुझे अब भी स्मरण है। हमने रिकांग पिओ गाँव का अवलोकन करते कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ अधिकाँश लोगों ने सर पर ठेठ हरी टोपी पहनी हुई थी। इसके कारण चारों ओर हरी छटा बिखरी हुई थी। उस दिन सूर्य देवता अपनी पूरी आभा से दमक थे। बाजार विभिन्न क्रियाकलापों में पूर्णतः व्यस्त था। हमने भी बाजार में चिलगोजे खोजे किन्तु वह चिल्गोजों का मौसम नहीं था।

वहां से हम आगे कल्पा पहुंचे। किन्नर कैलाश पर्वत श्रंखला के समक्ष ही हमारा पड़ाव था। क्षितिज में मेघ पर्वत की चोटी से आँख-मिचौली का खेल खेल रहे थे। उनके इस खेल के मध्य हम पर्वत की चोटियों को पहचानने की चेष्टा कर रहे थे। उस दिन अलका का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। इसलिए मैं अकेले ही कल्पा की बस्तियों में सैर करने तथा लकड़ी के घर व मंदिरों निहारने चली गयी। वहां से चारों ओर का परिदृश्य अप्रतिम था। सीधी चढ़ाई की पहाड़ियों के ऊपर बसे छोटे छोटे गाँव अत्यंत मनमोहक प्रतीत होते हैं।

दिवस ६ – नाको

कल्पा से नाको लगभग १०० किलोमीटर दूर स्थित है। यात्रा के इस भाग में मैंने सर्वप्रथम शीत मरुभूमि की प्रथम झलक पायी। जब हम नाको पहुँच रहे थे, हमारी दृष्टि बंजर पहाड़ों के समूह पर पड़ी। बालू के विशाल टीलों के समान प्रतीत होते उन पहाड़ों ने हमें सम्मोहित सा कर दिया था। उन्हें देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उंगली के कोमल स्पर्श से भी वे सभी भुरभुरा कर गिर पड़ेंगे। आकाश इतना स्वच्छ, निर्मल व नीला था जो इससे पूर्व मैंने कभी नहीं देखा था।

नाको गाँव - स्पीती घाटी
नाको गाँव – स्पीती घाटी

नाको में मैंने ग्रामीण स्तर का सर्वोत्तम पर्यटन प्रबंधन संगठन, नाको यूथ क्लब को ढूंढा। उनका कार्य अत्यंत प्रेरणादायी था। नाको यूथ क्लब के उत्साही नवयुवकों ने मात्र ५० रुपयों के अल्प शुल्क पर हमें नाको का दर्शन कराया। उनकी सहायता से हमने गाँव में तथा पावन झील के किनारे पैदल सैर की। एक प्राचीन बौद्ध मठ में भित्तिचित्रों का अवलोकन किया। क्लब के सदस्य गाँव को स्वच्छ रखने में सहायता करते हैं। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर सौर उर्जा की पट्टिकाएं लगाई हैं तथा गाँव की सुन्दरता की ओर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया है। उस समय से आज तक यह गाँव मेरे लिए एक आदर्श गाँव रहा है।

अगले दिवस, ताबो की ओर यात्रा करते हुए, मार्ग में हम गिउ गाँव जहां एक लामा का, बैठी अवस्थिति में परिरक्षित शव रखा हुआ है।

दिवस ७ – ताबो मठ स्पीति घाटी

ताबो तक की हमारी ६० किलोमीटर की यात्रा अत्यंत मनमोहक परिदृश्यों से परिपूर्ण थी। स्पीति नदी के तट पर बसा ताबो एक छोटा सा गाँव है जो मिट्टी से निर्मित प्राचीन बौद्ध मठ के लिए प्रसिद्ध है। हम इस मठ के दर्शन करने के पश्चात आगामी पड़ाव काजा निकल जाना चाहते थे किन्तु ताबो की सुन्दरता ने हमें रोक लिया। हमने वहीं ताबो में ही रात्र व्यतीत की।

ताबो मठ
ताबो मठ

मठ में एक लामा ने हमें अप्रतिम भित्तिचित्रों के दर्शन कराये। हमने वहां प्राचीन गुफाएं भी देखीं। वहां स्थित प्राचीन शैलचित्र हमारे लिए आश्चर्यजनक खोज थे।

दिवस ८ – धनकर, स्पीति घाटी

धनकर मठ से दिखती पिन नदी
धनकर मठ से दिखती पिन नदी

लगभग ५० किलोमीटर की सड़क यात्रा कर हम काज़ा पहुंचे। मेरे लिए काज़ा दर्शन इस यात्रा के आनंद की चरमसीमा होने वाली थी। एक छोटा सा उपमार्ग लेते हुए हम धनकर पहुंचे जहां हमने अत्यंत भंगुर धनकर मठ देखा। इस मठ में एक समय में अधिक लोगों को प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती क्योंकि किसी भी समय इसके भुरभुरा कर ढहने की आशंका रहती है। सीधी चट्टान के किनारे, ऊँचाई पर बने इन मठों में भिक्षुक कैसे रहते थे, यह तथ्य हमारी सोच से भी परे है। धनकर की मेरी सर्वोत्तम स्मृति है, मठ के झरोखे से नीचे बहती पिन नदी का अप्रतिम दृश्य। धनकर मठ की ओर आती वीरान, संकरी, नुकीले मोड़ युक्त सड़कें ऐसे प्रतीत हो रही थीं मानो उन्हें केवल हमारे लिए ही बिछाया गया हो।

दिवस ९, १० – काज़ा, स्पीति घाटी

लांग्ज़ा गाँव
लांग्ज़ा गाँव

हमारी हिमाचल सड़क यात्रा में काज़ा एक प्रमुख पड़ाव था। इस क्षेत्र का सर्वाधिक विशाल नगर काज़ा , पर्यावरणीय पर्यटन एवं विश्व के सर्वोच्च खुदरा पट्रोल पम्प के लिए जाना जाता है। यहाँ हम २ से ३ दिवस व्यतीत करने वाले थे जिसमें हम काजा के आसपास अनेक छोटे गाँवों को देखना चाहते थे। हमने अनेक बौद्ध मठ देखे जिनमें की मठ भी एक है, जहां से घाटी का अप्रतिम दृश्य दृष्टिगोचर होता है। हमने लान्ग्जा व रंग्रिक जैसे गाँवों का अवलोकन किया। हम कोमिक एवं हिक्किम गाँवों तक नहीं जा पाए क्योंकि अकस्मात् ही वर्षा होने लगी जो इस क्षेत्र में अत्यंत असामान्य है। पहाड़ों में वर्षा होने पर सड़कें अत्यंत संकटमय हो जाती हैं। प्रसन्नता यह हुई कि इस क्षेत्र में क्वचित होती वर्षा का भी हम आनंद उठा पाए।

काज़ा की मेरी अमिट स्मृति है, किंचित हरियाली की छटा लिये इसके वीरान विस्तृत परिदृश्य।

दिवस १० – कुंजुम दर्रा अथवा कुंजुम ला

हिमाच्छादित चोटियाँ और कोमल फूल - कुंजुम दर्रा
हिमाच्छादित चोटियाँ और कोमल फूल – कुंजुम दर्रा

कुंजुम दर्रा ही वह कारण है जिसके लिए हमने जुलाई में यह यात्रा करने का नियोजन किया। यह दर्रा अत्यंत कम समयावधि के लिए ही खुलता है। यह दर्रा कुल्लू घाटी और लाहौल स्पीति घाटी को जोड़ता है। जब हम उस दर्रे पर, कुंजुम के मील के पत्थर के समीप खड़े थे तथा अपने संग ले जाने का तीव्रता से प्रयास करती वायु से जूझ रहे थे, हमारे मुख पर सफलता की चमक थी। कुंजुम के रंगबिरंगे परिदृश्य, हरेभरे मैदानों में भेड़ों को चराते चरवाहे, इत्यादि दृश्य मेरी स्मृति में अनंतकाल के लिए बस गए हैं।

आप कुंजुम दर्रे पर अधिक समय व्यतीत नहीं कर सकते। हम चंद्रताल झील की ओर जाते समय यहाँ कुछ क्षण ही रुके थे।

दिवस ११ – चंद्रताल सरोवर

नीलाम्बरा चंद्रताल सरोवर
नीलाम्बरा चंद्रताल सरोवर

स्पीति घाटी यात्रा में चंद्रताल मेरे लिए सर्वाधिक रोमांचकारी स्थान था। हम चंद्रताल तम्बू में लगभग दोपहर के भोजन के समय पहुंचे थे। पहुंचते ही हम चंद्रताल की ओर निकल पड़े। यहाँ पहुँचने से पूर्व हम यह चर्चा कर रहे थे कि १५००० फीट से भी अधिक ऊँचाई पर स्थित इस चंद्रताल झील की ५ किलोमीटर लम्बी परिक्रमा करना हमारे लिए कठिन होगा। किन्तु जैसे ही हम यहाँ पहुंचे, हमने चंद्रताल की परिक्रमा करने का निश्चय किया। यह परिक्रमा हमने, बिना किसी कष्ट के, इतनी सहजता से पूर्ण की कि आज भी हमारे लिए यह किसी जादुई घटना से कम नहीं है।

चंद्रताल सरोवर के समीप हम तंबू में रुके थे। चारों ओर बर्फ से आच्छादित पर्वत श्रंखलायें, गिर पड़ने को तत्पर तारों से भरा आकाश, इनके मध्य हमारा तम्बुओं में रहना, अत्यंत स्वप्निल एवं अवास्तविक था।

दिवस १२ – रोहतांग दर्रा

पिघलता हुआ हिमनद
पिघलता हुआ हिमनद

चंद्रताल से मनाली तक की सड़क यात्रा लम्बी तथा कठिनाई भरी थी। हमें अनेक छोटी-बड़ी नदियों को पार करना पड़ा जो बड़ी बड़ी चट्टानों से भरी हुई थीं। हमारी गाड़ी एक स्थान पर अटक भी गयी थी। सड़क से जाते अन्य गाड़ी चालकों की सहायता से उसे बाहर निकला गया। मनाली पहुंचते पहुंचते चारों ओर के परिदृश्य पुनः हरेभरे होने लगे जिन्होंने हमें मनोवांछित दिलासा प्रदान की। गत कुछ दिवसों में जिन वीरान बीहड़ पर्वतीय परिदृश्यों में हमें एक अद्भुत शान्ति का अनुभव हो रहा था, उसके ठीक विपरीत इस हरियाली भरे दृश्यों ने हमें पुनः जीवित होने का आभास प्रदान किया।

रोहतांग में सिका हुआ भुट्टा खाते समय हमें आभास हुआ कि हम पुनः सभ्यता में वापिस आ गए हैं। हमने निश्चय किया कि अंततः अपनी दैनन्दिनी जीवन में आने से पूर्व मनाली में मनचाहा भोजन करेंगे, आसपास आसान सैर करेंगे तथा थकान मिटाने के लिए अपने अंग शिथिल करेंगे। एक स्वप्निल यात्रा को सफलता पूर्वक पूर्ण करने के उपलक्ष्य में उत्सव मनाना पूर्णतः न्यायोचित भी है।

दिवस १३ – नग्गर

काष्ठ का बना नग्गर दुर्ग
काष्ठ का बना नग्गर दुर्ग

हमने नग्गर में एक पूर्ण दिवस व्यतीत किया जिसमें हमने कुल्लू राजाओं की काष्ठ वास्तुशैली, उनकी स्मारक शिलाओं, कला दीर्घाओं तथा हिमाचल की अन्य विरासतों के विषय में जाना। साथ ही अनेक सुन्दर मंदिरों के दर्शन भी किये।

दिवस १४ – मनाली

हमने मनाली की सड़कों पर पैदल सैर की। हिडिम्बा देवी एवं वशिष्ठ के मंदिरों के दर्शन किये। माल रोड में सैर करते अन्य पर्यटकों में घुलमिलकर चहल-पहल का आनंद उठाया। शान्ति से बैठकर कॉफ़ी का सेवन किया। संध्या के समय जल से परिपूर्ण ब्यास नदी के किनारे बैठकर प्रकृति का आनंद उठाया।

वापिस आते समय हमने एक सपेरे को बीन पर एक सुन्दर तान बजाते देखा। एक लम्बे अंतराल के पश्चात मैंने बीन पर एक सुमधुर संगीत सुना।

दिवस १५ – मणिकरण

मणिकरण के गरम झरने
मणिकरण के गरम झरने

मणिकरण में हमने उष्ण जल के स्त्रोत देखे जो आश्चर्यजनक रूप से बर्फीले जल से भरी पार्वती नदी से सटे हुए थे। यह स्थान प्रसिद्ध मणिकरण साहिब गुरुद्वारा के समीप है।

कुल्लू पहुंचते ही हमने हमारे गाड़ी चालक रवि से विदा ली तथा दिल्ली आने के लिए बस में सवार हो गए।

इस संस्करण में नीले रंग में दर्शाए गए सक्रिय वेबलिंक पर क्लिक करने पर आप हमारी यात्रा के उस भाग के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

हिमाचल एवं स्पीति घाटी की हमारी १५ दिवसीय सड़क यात्रा को तीन वर्ष बीत चुके हैं किन्तु उसकी मधुर स्मृतियाँ हृदय में अब भी नूतन हैं। यह घाटी भारत का सर्वाधिक सुन्दर भाग है।

स्पीति घाटी सड़क यात्रा नियोजित करने से पूर्व आवश्यक सूचनाएं:

स्पीती घाटी के नग्न वीरान पहाड़
स्पीती घाटी के नग्न वीरान पहाड़
  • हमने स्पीति घाटी सड़क यात्रा जुलाई मास के प्रथम अर्द्धांश में नियोजित की थी क्योंकि हम कुंजुम एवं रोहतांग दर्रा, दोनों स्थानों पर जाना चाहते थे। स्पीति एक ग्रीष्मकालीन पर्यटन स्थल है। शीत ऋतु में यह स्थान सामान्य जनजीवन से लगभग कट जाता है।
  • हिमाचल एवं विशेषतः स्पीति घाटी ऊँचाई पर स्थित है तथा वहां जाने के मार्ग संकरे, उबड़-खाबड़ एवं जोखिम भरे होते हैं। धीमी गति से जाएँ ताकि सुरक्षित रहते हुए आप अपनी देह को ऊँचाई के वातावरण से अभ्यस्त होने के लिए भरपूर समय दे सकें।
  • शिमला अथवा मनाली से स्थानीय टैक्सी की सेवायें ही लें क्योंकि पहाड़ों के गाड़ी चालकों को वहां के मार्गों की पूर्ण जानकारी होती है, वे पहाड़ों के जोखिमभरे मार्गों पर गाड़ी चलने में अभ्यस्त होते हैं तथा उनकी अन्य चालकों से घनिष्टता होती है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि मार्ग में आपकी गाड़ी कहीं अटक गयी अथवा मार्ग में अन्य कोई बाधा आ गयी तो संकट के समय शीघ्र सहायता प्राप्त करने में आसानी हो सकती है।
  • सभी मार्गों पर हिमाचल प्रदेश परिवहन विकास निगम की बसें चलती हैं किन्तु वे अत्यंत अल्प संख्या में हैं।

शाकाहारी भोजन

  • अलका व मैं, हम दोनों ही शाकाहारी हैं। इसलिए हमने काज़ा पहुँचने तक, प्रतिदिन शब्दशः राजमा-चावल अथवा दाल-चावल ही खाया। काजा में हमने शाकाहारी थुपका का आनंद उठाया। इस क्षेत्र में अत्यंत साधारण किन्तु ताजा भोजन प्राप्त हो जाता है। लम्बी दूरी की यात्रा में स्वतः के भरण-पोषण के लिए हमने साथ में सूखे मेवे रखे थे। जहां भी स्थानीय फल उपलब्ध होते थे, हम उन्हें खरीद लेते थे।
  • ट्रैकिंग के लिए स्पीति एकोस्फीयर जैसे स्थानिक क्लबों एवं संस्थाओं की सेवायें लें। वे अपने कार्य में निपुण तो होते ही हैं, साथ ही आपके द्वारा उनके स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र की सहायता भी हो जायेगी। वे पारिस्थितिकी संबंधिक अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
  • हमारी गाड़ी प्रतिदिन औसतन ५० किलोमीटर की दूरी तय कर रही थी। इसका अर्थ है कि आपको संलग्न ३ से ४ घंटे गाड़ी में व्यतीत करने पड़ेंगे। इस क्षेत्र में धीमी गति अत्यावश्यक है।

औषधियां

कितने शक्तिशाली या कितने कोमल हैं यह स्पीति घाटी के पहाड़?
कितने शक्तिशाली या कितने कोमल हैं यह स्पीति घाटी के पहाड़?
  • आप आवश्यकता के अनुसार सभी संभव औषधियां साथ रखें। आप भले ही स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ठ हों, अपने साथ सर्व सामान्य औषधियां अवश्य रखे क्योंकि सम्पूर्ण मार्ग में आपको विभिन्न तापमानों, वातावरणों एवं ऊँचाई सम्बंधित कष्टों का सामना करना पड़ेगा।
  • शीत जलवायु से स्वयं की रक्षा हेतु अपने साथ आवश्यक ऊनी वस्त्र एवं जैकेट रखें। अन्यथा भी आप स्वयं को पूर्णतः ढँक कर रखे क्योंकि स्वच्छ निर्मल वातावरण में सूर्य की किरणें कष्टकर होती हैं।
  • मार्ग के अधिकतर भाग में भारत संचार निगम के सिम कार्ड ही कार्य करते हैं। अन्य फोन केवल कैमरे का ही कार्य कर सकते हैं!!!
  • ATM की सुविधाएं केवल सीमित स्थानों पर ही उपलब्ध हैं, जिनमें नकद भी सीमित होता है। अतः अपने साथ पर्याप्त नकद रखें। पेट्रोल पम्प की सुविधाएं भी सीमित स्थानों पर ही उपलब्ध हैं। हमें केवल रिकांग पिओ एवं काजा में ही पेट्रोल उपलब्ध हुआ। तत्पश्चात मनाली में हमने पेट्रोल भरवाया।

बंजारा कैंप

इस मार्ग के अधिकतर स्थानों पर बंजारा कैंप में ठहरने की सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं। अधिकांशतः, इस क्षेत्र में ठहरने के लिए इससे उत्तम सुविधाएं उपलब्ध भी नहीं हैं। इनके अतिरिक्त सम्पूर्ण हिमाचल में अनेक होमस्टे भी उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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