भारत Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 25 Dec 2024 05:57:28 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 कुमाऊँ के मनमोहक पक्षी – उत्तराखंड में प्रकृति का आनंद https://inditales.com/hindi/kumaon-ke-manmohak-pakshi/ https://inditales.com/hindi/kumaon-ke-manmohak-pakshi/#respond Wed, 12 Feb 2025 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3766

भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड को प्रकृति ने अनेक अद्भुत उपहारों से अलंकृत किया है। उनमें से एक है, इस प्रदेश के मनमोहक पक्षी। भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले पक्षियों की विविध प्रजातियों में से लगभग ७०० प्रजातियाँ उत्तराखंड में भी देखी गयी हैं। अब तक मैंने देवभूमि उत्तराखंड में जितने भी भ्रमण किये […]

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भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड को प्रकृति ने अनेक अद्भुत उपहारों से अलंकृत किया है। उनमें से एक है, इस प्रदेश के मनमोहक पक्षी। भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले पक्षियों की विविध प्रजातियों में से लगभग ७०० प्रजातियाँ उत्तराखंड में भी देखी गयी हैं।

चील
चील

अब तक मैंने देवभूमि उत्तराखंड में जितने भी भ्रमण किये हैं, मेरी भ्रमण सूची हिमालय, सूर्योदय के दृश्यों, वहाँ के परिदृश्यों आदि के चारों ओर ही केन्द्रित रही है। यद्यपि उत्तराखंड में पाए जाने वाले भिन्न भिन्न मनभावन पक्षियों के दर्शन करने की मेरी अभिलाषा सदा से थी, तथापि मैं वहाँ के पक्षियों के दर्शन के उद्देश्य से एक विशेष यात्रा का नियोजन अब तक नहीं कर पायी हूँ।

पूर्णरूपेण ना सही, कुमाऊँ के पक्षियों पर सरसरी दृष्टि डालने का अवसर मुझे अवश्य प्राप्त हुआ। कुमाऊँ के इन मनमोहक पक्षियों ने मुझे इस प्रकार मंत्रमुग्ध किया कि मैंने पक्षी दर्शन के उद्देश्य से भविष्य में एक पूर्वनियोजित भ्रमण करने का निश्चय अवश्य कर लिया है।

कुमाऊँ में विविध पक्षियों के दर्शन

जब तक कुमाऊँ में पक्षी दर्शन हेतु विशेष भ्रमण की मेरी योजना यथार्थ में परिवर्तित नहीं हो जाती, आईये मैं कुमाऊँ क्षेत्र के कुछ ऐसे पक्षियों से आपका परिचय कराती हूँ जिन्होंने मेरे पूर्व भ्रमण में मुझे अपने दर्शन देकर अनुग्रहीत किया था।

काठगोदाम

कुमाऊँ में हमारे सड़क भ्रमण का प्रथम पड़ाव था, काठगोदाम। हल्दवानी पार कर हम काठगोदाम पहुँचे। यहीं से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र आरम्भ होते हैं। दिल्ली से लम्बी यात्रा कर जब हम यहाँ पहुँचे, हमारी क्षुधा अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। दोपहर के भोजन के लिए हम नदी के तट पर स्थित एक जलपानगृह पर रुके। अकस्मात् ही सुग्गों की किलबिलाट ने हमारा ध्यान आकर्षित किया। नदी के दूसरे तट पर दर्रे के भीतर बैठे दर्जन भर लाल सर वाले टुइयाँ सुग्गे अथवा टुइयाँ तोते (Plum-Headed Parakeet) चहचहा रहे थे। कुछ क्षणों पश्चात हमने एक ओकाब (Steppe Eagle) को नदी के ऊपर उड़ते हुए देखा। वह हमारे जलपानगृह के छज्जे के अत्यंत निकट उड़ रहा था। इस प्रकार अनायास ही हमारा पक्षी दर्शन आरम्भ हो गया था।

भीमताल

काठगोदाम से कुछ दूरी पार कर हम भीमताल पहुँचे। कुमाऊँ मंडल विकास निगम के विश्राम गृह में ठहरने की सर्व औपचारिकताएं पूर्ण करने के पश्चात हम नौकुचिया सरोवर पहुँचे। वहाँ रामचिरैया (Kingfisher) से लेकर काले बगुलों (Heron) की विविध प्रजातियों तक अनेक पक्षी थे। जल क्रीड़ाओं एवं हंसों के एक विशाल समूह ने हमें मंत्रमुग्ध कर रखा था। कुछ नन्हे बालक-बालिकाएं सरोवर के जल में बिस्कुट के टुकड़े डाल रहे थे जिनसे आकर्षित होकर अनेक हंस वहाँ एकत्रित हो गए थे। टुकड़े समाप्त होने पर वे कलरव करते हुए उनसे अधिक भोजन की मांग कर रहे थे। उनका पीछा करते हुए वे सरोवर के सोपानों तक पहुँच गए थे।

अगले दिवस प्रातः काल हम अपने विश्राम गृह के उद्यान में बैठकर अपनी प्रातःकालीन चाय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि अकस्मात् ही हमें पक्षियों की किलबिलाट सुनाई पड़ी। वहाँ हमने अनेक पक्षियों को देखा। उनमें से कुछ ऐसे पक्षी थे जिन्हें हम सर्वप्रथम प्रत्यक्ष देख रहे थे। इससे पूर्व हमें उन पक्षियों को देखने एवं उनके चित्र लेने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। वहाँ लाल चोंचधारी नीली मैगपाई (Red- Billed Blue Magpie), हिमालयी बुलबुल, पहाड़ी बुललचष्म (Scarlet Minivet) तथा जंगली मैना जैसे अनेक पक्षी दृष्टिगोचर हुए।

भीमताल के निकट पदभ्रमण करने के पश्चात हम सातताल पहुँचे। यहाँ हमने कुछ जलक्रीड़ाओं का आनंद उठाया। सरोवर के सानिध्य में पदभ्रमण किया। वहाँ हमें कौए के समान श्याम वर्ण पक्षी अनवरत दिखाई पड़ रहे थे। किन्तु उनका आचरण कौओं के समान प्रतीत नहीं हो रहा था। साधारणतः कौए भोजन की अपेक्षा में मानवों के समीप मंडराते रहते हैं। किन्तु ये पक्षी हमसे लुका-छिपी खेल रहे थे। उनके चित्र लेने के हमारे सर्व प्रयास निष्फल हो रहे थे। अंततः उनके कुछ चित्र लेने में हम सफल हुए। उन चित्रों को देख विशषज्ञों ने हमें जानकारी दी कि वह पक्षी सीटी बजाने वाला नीलवर्ण कस्तुरा (blue-Whistling Thrush) था। मुक्तेश्वर

हमारा अगला पड़ाव था, मुक्तेश्वर। प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही हम विश्राम गृह से चल पड़े थे। हिमालय के पर्वत शिखरों के मध्य से उगते सूर्य को देखने की अभिलाषा थी। अप्रतिम सूर्योदय के दर्शन तो हुए ही, साथ ही भिन्न भिन्न पक्षियों को देख रोम रोम आनंदित हो गया। हमें वहाँ अनेक श्याम शीर्षा वनकाग (Black-Headed Jay), धूसर पिद्दा (Grey Bush Chat), बबूना (Oriental White-Eye), हिमालयी बुलबुल, मस्जिद अबाबील (Striated Swallow), गौरैया (Russet-Sparrow) आदि के दर्शन हुए। अप्रतिम सूर्योदय के दर्शन के पश्चात पदभ्रमण करते हुए हमें कठफोड़वा (Rufous-Bellied Woodpecker) के दर्शन का आनंद प्राप्त हुआ।

बिनसर

हिमालय पर्वत श्रंखलाओं का निकट से दर्शन करने के लिए हमने बिनसर में पड़ाव डाला। वहाँ अनेक अचम्भे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने वहाँ काला तीतर (Black Francolin) देखा जो हमें देखते ही तुरंत कहीं जाकर छुप गया। वहाँ अनेक कछुआ कबूतर (Oriental Turtle Dove) थे जो बिनसर में आये पर्यटकों का आनंदपूर्वक अभिनन्दन कर रहे थे।

कुमाऊँ में पक्षी दर्शन के लिए कुछ आवश्यक सूचनाएं

इस संस्करण में अब तक जो मैंने प्रस्तुत किया है, वह हिमशैल का केवल शीर्ष है। देवालय शिखर का कलश मात्र है। उत्तराखंड में अनेक असाधारण हिमालयी पक्षियों का वास है जो केवल इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं।

  • उत्तराखंड एक पर्वतीय क्षेत्र है जहाँ मार्ग अत्यंत जोखिम भरे तथा संकरे होते हैं। पक्षियों के अवलोकन तथा चित्रांकन हेतु अपने वाहनों को इन संकरे मार्गों पर जहाँ चाहें वहाँ खड़ा ना करें।
  • पक्षी दर्शन का सर्वोत्तम साधन है, पदभ्रमण। प्रातः, अरुणोदय काल में, अर्थात सूर्योदय से कुछ पूर्व ही नगरी वातावरण से दूर जाकर प्राकृतिक परिवेश में पदभ्रमण प्रारंभ करें। आप विविध पक्षियों के दर्शन उनके प्राकृतिक परिवेश में कर सकते हैं।
  • पक्षी दर्शन एक गहन उपक्रम है जिसके लिए धैर्य, सूक्ष्म दृष्टि एवं विविध पक्षियों के कलरव को ध्यान पूर्वक सुनने की आवश्यकता होती है।

हमने अपने उत्तराखंड भ्रमण में अनेक पक्षियों के दर्शन किये। किन्तु हमारी यह यात्रा पक्षी दर्शन विशेष नहीं थी। इन पक्षियों के अवलोकन के पश्चात हमारे भीतर यह तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो गयी है कि भारत के इस पर्वतीय राज्य में हम पुनः शीघ्र आयें तथा उत्तराखंड के वैशिष्ट्य पूर्ण पक्षियों के अवलोकन का आनंद उठायें। मेरे पंख-युक्त प्रिय सखाओं, मैं आपसे भेंट करने पुनः शीघ्र आऊंगी! इस संस्करण में पक्षियों के चित्रों की संख्या को सीमित करने के लिए मैंने उनके समुच्चित चित्र प्रकाशित किये हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मुद्रा की यात्रा – मुंबई का आर बी आई मुद्रा संग्रहालय https://inditales.com/hindi/mudra-sangrahalay-mumbai/ https://inditales.com/hindi/mudra-sangrahalay-mumbai/#respond Wed, 05 Feb 2025 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3762

मुंबई में भारतीय रिज़र्व बैंक का मौद्रिक संग्रहालय अपने  देश में एक  अलग प्रकार का संग्रहालय है| भारत के इतिहास के माध्यम से यह संग्रहालय आपको सिक्कों, रुपयों  और दूसरी मुद्राओं के इतिहास से अवगत कराता है| इस संग्रहालय के माध्यम से हम स्वतंत्र भारत तक विभिन्न ऐतिहासिक वंशजों, रियासतों और विदेशी साम्राज्यों के प्रारंभ […]

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मुंबई में भारतीय रिज़र्व बैंक का मौद्रिक संग्रहालय अपने  देश में एक  अलग प्रकार का संग्रहालय है| भारत के इतिहास के माध्यम से यह संग्रहालय आपको सिक्कों, रुपयों  और दूसरी मुद्राओं के इतिहास से अवगत कराता है| इस संग्रहालय के माध्यम से हम स्वतंत्र भारत तक विभिन्न ऐतिहासिक वंशजों, रियासतों और विदेशी साम्राज्यों के प्रारंभ काल तक की मुद्राओं से भी अवगत  होते हैं| यह आपको भारतीय रिज़र्व बैंक, उसके उद्देश्यों, इतिहास और उसके कार्यों का परिचय भी देता है|

आर बी आई मौद्रिक संग्रहालय, मुंबई

यहाँ आने वालों को यह संग्रहालय मुद्रा की अवधारणा से परिचित कराता है| इसके शरुआती अवतार जैसे वस्तु विनिमय प्रणाली और गाय प्रणाली  से  भी अवगत कराता है| वहाँ पर आप एक स्वर्ण बार भी देख सकते हैं जिसका उपयोग वित्तीय साधन के रूप में किया जाता है|

सिक्के

यह संग्रहालय आपको समय के माध्यम से सिक्कों के बारे में  अवगत कराता है| कौन सी प्रौधोगिकी सिक्कें बनाने में इस्तेमाल की जाती थी, किस धातु का प्रयोग होता था, उनकी मोहर व टकसाल आदि ये बातें भी वहाँ दर्शाई गयी हैं| मूलरूप से जो भी जानकारी आप सिक्कों के बारें में जानना चाहते हैं उन सभी का उत्तर आपको यहाँ मिल जायेगा| आप वहाँ रखे सिक्कों को देखकर उस अवधी की समृधि का भलीभांति अंदाजा लगा सकतें हैं| अच्छे आर्थिक समय के दौरान सिक्के अधिक कीमती धातु से निर्मित थे और उनकी कारीगरी भी उत्तम थी|

कागज़ी मुद्रा

संग्रहालय का कागज़ी मुद्रा का भाग भी बहुत रोचक है| सिक्कों की तुलना में कागज़ी मुद्रा का चलन अट्ठारवीं शताब्दी में हुआ था लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में ही उसको प्रमुखता मिली| आप वहाँ पर उन प्रारंभिक बैंकों के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जिन्होंने कागज़ी मुद्रा की पेशकश की थी| शुरुवाती समय में कागजी नोट एकतरफा थे| ऐसा लगता है कि बैंकरों ने प्रत्येक नोट व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर करने के लिये इस्तमाल किया और यह हस्ताक्षर करने की प्रथा आज भी विभिन्न रूपों में जारी है| जब आप सरल पुरानी शैली के विशाल नोट को देखेंगे तो आपके चेहरे पर अपने आप ही एक मुस्कान आ जायेगी|

मुद्रा की बारीकियां

आर बी आई मौद्रिक संग्रहालय का एक अन्य खंड आपको मुद्रा की बारीकियों को बताता है| जैसे कि कौन सा सिक्का किस टकसाल में बना, कैसे पता लगा सकते हैं कि नोट असली है या नकली| वहाँ छोटे

क्विज़ेज हैं जिनके माध्यम से आप मुद्रा के बारे में आपने ज्ञान को जाँच सकते हैं| कुछ ऐसी आंख खोलने वाली जानकारियां हमें वहां प्राप्त होती हैं जिनसे हम पहले अवगत नहीं होते| उन सभी आर बी आई गवर्नरके चित्र वहाँ लगे हैं जिनके हस्ताक्षर कागज़ी मुद्रा के पीछे अंकित हैं|

संग्रहालय विवरण

मुंबई में जैसे सब कुछ है उसी तरह संग्रहालय को भी एक संगठित स्थान पर बनाया गया है लेकिन वहाँ जो भी रक्खा गया है वह बड़े व्यवस्थित ढंग से दर्शया गया है| सही चन्हों के माध्यम से आप पूरे संग्रहालय को ठीक प्रकार से  बिना कुछ छोड़े देख सकते हैं| रोशनी की वहाँ उचित व्यवस्था है| कुछ स्थान पर सेंसर प्रकाश  है जैसे जब आप दर्शाई हुई चीज़ के निकट जायेंगे तो प्रकाश स्वतः हो जायेगा और दूर जाने पर पुनः बंद हो जायेगा| आपको संग्रहालय के अंदर कुछ भी ले जाने की अनुमति नही है| इसलिए आप वहाँ की फोटो भी नही ले सकते हैं| वहाँ से आप ५००० और १०००० के नोटों का प्रतिरूप ले सकते हैं एक विवरण पुस्तिका के साथ जिसके माध्यम से आपको उन जानकारियों का पता चलेगा जो असली और नकली मुद्रा को पहचानने में आपकी मदद करेगी| वहाँ बनी एक डेस्क से हम एक छोटी पुस्तिका खरीद सकते हैं जिसके द्वारा संग्रहालय के विभिन्न भागों की जानकारियां हम प्राप्त कर सकते हैं|

मैं चाहती हूँ कि आर बी आई उन लोगों को जो मुद्राशास्त्र में रूचि रखते हैं प्रचलन के सिक्के और स्मारक सिक्के जरूर उपलब्ध करवाये| मैं यह भी चाहती हूँ कि संग्रहालय को देखने वालों की संख्या में वृद्धि हो, और बहुत से लोगों को इस महत्वपूर्ण जगह के बारे में पता चले|

जब तक आप आर बी आई मुद्रिक संग्रहालय की यात्रा नहीं कर पाते तब तक आप उनकी वेबसाइट के माध्यम से मुद्राओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हाँसिल कर सकते हैं|

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बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग- हिमाचल की अद्भुत बरोट घाटी https://inditales.com/hindi/beed-billng-himachal-ke-romanchak-anubhav/ https://inditales.com/hindi/beed-billng-himachal-ke-romanchak-anubhav/#respond Wed, 22 Jan 2025 02:30:06 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3753

हिमाचल प्रदेश पर्यटकों का स्वर्ग है। हिमाचल की झोली में पर्यटकों के लिए अनेक उपहार हैं। यह भारत के सर्वाधिक पर्यटन-अनुकूल राज्यों में से एक है। देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध इस राज्य में अनेक मंदिर एवं तीर्थस्थल हैं। इस राज्य को प्रकृति ने हिमालय की धौलाधार, हिमाचल व शिवालिक पर्वत मालाओं  से अलंकृत किया […]

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हिमाचल प्रदेश पर्यटकों का स्वर्ग है। हिमाचल की झोली में पर्यटकों के लिए अनेक उपहार हैं। यह भारत के सर्वाधिक पर्यटन-अनुकूल राज्यों में से एक है। देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध इस राज्य में अनेक मंदिर एवं तीर्थस्थल हैं। इस राज्य को प्रकृति ने हिमालय की धौलाधार, हिमाचल व शिवालिक पर्वत मालाओं  से अलंकृत किया है जिनके दर्शन करने तथा जिन पर अनेक रोमांचकारी खेल करने विश्व भर से अनेक पर्यटक आते हैं।

एक ओर हिमाचल प्रदेश पर्यटकों में अपने पर्वतीय मार्गों पर रोमांचकारी पदयात्राओं तथा मोटरसाइकिल की सवारी के लिए लोकप्रिय है तो दूसरी ओर पर्यटक यहाँ पैराग्लाइडिंग का अनुभव प्राप्त करने के लिए भी आते हैं। हिमाचल प्रदेश में स्थित बीर बिलिंग अथवा बीड बिलिंग या बीड़ बिलिंग विश्व के लोकप्रिय पैराग्लाइडिंग स्थलों में से एक है। यह विश्व का दूसरा सर्वोच्च पैराग्लाइडिंग स्थल है।

मैं एक लम्बे समय से पैराग्लाइडिंग का अनुभव प्राप्त करने के लिए बीड़ बिलिंग की यात्रा का नियोजन कर रहा था। किसी ना किसी कारणवश मेरी योजना साकार नहीं हो पा रही थी। अंततः, इस वर्ष २६ जनवरी के लम्बे सप्ताहांत में मैं एवं मेरे मित्र चार दिवसों की हिमाचल यात्रा पर निकल पड़े।

अपनी इस यात्रा संस्मरण द्वारा मैं अपनी उसी रोमांचक यात्रा के अनुभव आपसे साझा कर रहा हूँ। इस संस्मरण में वहाँ के दर्शनीय स्थलों, लोकप्रिय क्रियाकलापों एवं कुछ महत्वपूर्ण सूचनाओं का भी उल्लेख कर रहा हूँ जो आपको एक सफल यात्रा का नियोजन करने में सहायक होगी।

बीड़ बिलिंग लोकप्रिय क्यों है?

रोमांचक खेलों में पैराग्लाइडिंग सर्वाधिक लोकप्रिय क्रीड़ाओं में से एक है। सम्पूर्ण विश्व में तथा भारत में ऐसे अनेक स्थल हैं जो रोमांचक क्रियाकलापों के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं। अपनी ऊंचाई एवं उड़ान कालावधि के कारण उन सब में बीड़ बिलिंग का एक विशेष स्थान है। बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग के लिए उड़ान बिंदु की ऊँचाई समुद्रतल से लगभग ३२०० मीटर है जो अन्य स्थलों के उड़ान बिंदु की ऊँचाई से कहीं अधिक है।

यहाँ का दूसरा आकर्षण यह है कि उड़ान की औसत कालावधि लगभग २०-२५ मिनट हैं, जो अन्य स्थलों के औसत उड़ान कालावधियों से कहीं अधिक है। मैंने उत्तराखंड के भीमताल में भी पैराग्लाइडिंग की थी। किन्तु वह अनुभव बीड़ बिलिंग की पैराग्लाइडिंग में प्राप्त अनुभव के समक्ष न्यून है। अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि बीड़ बिलिंग की पैराग्लाइडिंग के समक्ष भारत के अन्य सभी स्थलों के पैराग्लाइडिंग अनुभव गौण हैं।

बीड़ बिलिंग कहाँ है?

बीड बिलिंग का बौद्ध मठ
बीड बिलिंग का बौद्ध मठ

बीड़ हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के अंतर्गत, भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय स्थलों में से एक, बैजनाथ नगर में स्थित एक सुन्दर गाँव है। यह भारत की राजधानी दिल्ली से लगभग ५३० किलोमीटर दूर है। यहाँ का पैराग्लाइडिंग स्थल दो भागों में बंटा है, बिलिंग का उड़ान स्थल तथा बीड़ का अवतरण स्थल।

बीड़ बिलिंग में मेरा अनुभव

मेरी बीड़-बिलिंग यात्रा में मेरे प्रथम दिवस का पड़ाव बरोट घाटी तथा दूसरे दिवस का पड़ाव बीड़ में नियोजित था।

इस यात्रा का आरम्भ हमने दिल्ली से सड़क मार्ग द्वारा किया था। दिल्ली की सड़कों पर उपस्थित गाड़ियों की प्रातःकालीन भीड़ से बचने के लिए हम प्रातः शीघ्र ही निकल पड़े। मुझे अपनी मोटरसाइकिल द्वारा साच दर्रे की यात्रा (bike trip to Sach Pass) का स्मरण हो आया जब हम भारत के सर्वाधिक जोखिम भरे मार्ग (toughest roads in India) पर जाने के लिए इसी प्रकार प्रातः शीघ्र ही निकल पड़े थे। दिल्ली से बरोट पहुँचने में हमें लगभग १४ घंटों का समय लगा। मार्ग में हम अम्बाला में जलपान करने के लिए कुछ समय रुके थे। तत्पश्चात पंजाब-हिमाचल प्रदेश की सीमा पर उना नगर में हमने दोपहर का भोजन किया।

हमारी सम्पूर्ण सड़क यात्रा, विशेषतः काँगड़ा से बीड़ तक की यात्रा मंत्र मुग्ध कर देने वाली थी। अप्रतिम सौंदर्य से युक्त बरोट घाटी को चारों ओर से अलंकृत करते धौलाधार पर्वत माला के शुभ्र श्वेत हिमाच्छादित शिखर मन मोह लेते हैं। बौद्ध नगरी धर्मशाला के समीप स्थित बीड़ के मार्ग में हमने अनेक बौद्ध भिक्षुकों को देखा। चित्रपट राजा हिन्दुस्तानी द्वारा अधिक लोकप्रिय हुआ पालमपुर नगर एवं तीर्थ नगरी बैजनाथ को पार कर हम अंततः बरोट घाटी पहुंचे। दिवस भर पर्वतीय मार्गों पर कार चलाते हुए हम थक गए थे। इसलिए वहाँ पहुंचकर हमने विश्राम करने का निश्चय किया तथा घाटी अवलोकन का कार्यक्रम अगले दिवस के लिए नियोजित किया।

हिमाचल एवं स्पीति घाटी – १५ दिवसीय रोमांचक सड़क यात्रा

बरोट घाटी

बरोट घाटी में मेरे प्रथम दिवस का आरंभ मेरे सामान्य दिवस की तुलना में पूर्णतः भिन्न था। प्रातः आँख खुलते ही कड़कड़ाती ठण्ड ने हमारा स्वागत किया। ऊबदार रजाइयों से बाहर निकलना किसी साहसपूर्ण कार्य से कम नहीं था। आपको स्मरण होगा, हम यहाँ २६ जनवरी के लम्बे सप्ताहांत में पहुंचे थे जो उत्तर भारत में शीत ऋतु के चरमकाल में पड़ता है।

बरोट घाटी
बरोट घाटी

पिछले दिवस हमने यात्रा के अंतिम घंटे लगभग अन्धकार में पूर्ण किये थे। इसलिए हम घाटी के परिदृश्य देख नहीं पाए थे। आज प्रातः हमने घाटी का जो दृश्य देखा, उसने मानो पिछले दिवस की क्षतिपूर्ति कर दी हो। या कहूँ, उससे भी कहीं अधिक! हमारे समक्ष सम्पूर्ण घाटी का दृश्य हमारे मन को मोह लेने के लिए तत्पर खड़ा था।

सम्पूर्ण दृश्य ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। सम्पूर्ण घाटी ने बर्फ की श्वेत चादर ओढ़ रखी थी। कड़ाके की ठण्ड हमें स्नान ना करने पर बाध्य कर रही थी।

ऊहल नदी

दूसरे दिवस प्रातः हलके जलपान के पश्चात हमें पर्वतीय गाँव की पैदल यात्रा एवं एक लघु पर्वतारोहण के लिए पोल्लिंग गाँव जाना था। पोल्लिंग गाँव बरोट से ९ किलोमीटर तथा हमारे विश्रामगृह से ५ किलोमीटर दूर है। कुछ समय पूर्व हुए हिमपात ने पोल्लिंग से बरोट के मध्य मुख्य मार्ग अवरुद्ध कर दिया था। हमने हमारी कार वहीं छोडी तथा स्थानीय जिप्सी गाड़ी की सेवायें लीं। लगभग ११ बजे हम निकले तथा ३० मिनट के पश्चात लोहार्डी गाँव पहुंचे।

उहल नदी बरोट घाटी
उहल नदी बरोट घाटी

लोहार्डी से आगे की यात्रा हमने पैदल पूर्ण की। यद्यपि हमारे साथ एक स्थानिक परिदर्शक था, तथापि बरोट घाट से बहती ऊहल नदी हमारी सर्वोत्तम परिदर्शक थी। वह हमें निरंतर मार्ग दिखा रही थी। ऊहल नदी इस क्षेत्र के निवासियों की जीवन रेखा है।

जैसे जैसे हम पोल्लिंग गाँव की ओर आगे बढ़ रहे थे, बर्फ की चादर की मोटाई भी बढ़ रही थी। जब हम लम्बदुग जलविद्युत उत्पादन प्रकल्प पहुंचे, मुख्य सड़क पर बर्फ की मोटाई अब एक फुट से अधिक हो गयी थी तथा सड़क के दोनों ओर उससे भी अधिक मोती परत थी। एक लटकते सेतु से हम ऊहल नदी के उस पार पहुंचे तथा गाँव की ओर आगे बढ़ने लगे।

सेतु पार करते ही हमारी पैदल यात्रा पर्वतारोहण में परिवर्तित हो गयी थी जिससे हमारी गति कम हो रही थी। गाँव तक पहुँचने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग भी था किन्तु उसे बर्फ ने अवरुद्ध कर रखा था। हमने गांववासियों द्वारा प्रयुक्त एक अन्य वैकल्पिक पथ का प्रयोग कर गाँव पहुँचने का निश्चय किया। पोल्लिंग पहुँच कर निकटतम पर्वत शिखर पर चढ़ने से पूर्व हमने दोपहर का भोजन किया। शीत ऋतु के चरम स्तर में ऊँचाई पर स्थित गाँवों में सीमित संसाधन ही उपलब्ध होते हैं। जलपानगृहों में भी भोजन के सीमित व्यंजन ही उपलब्ध होते हैं। यहाँ केवल राजमा व चावल ही उपलब्ध था। किन्तु हम उसमें ही आनंदित थे। भोजन के पश्चात हम रोहण के लिए आगे बढे। ४५ मिनट तक चढ़ने के पश्चात हम शिखर पर पहुंचे।

हिमपात

शिखर पर पहुंचे ही थे कि हिमपात आरम्भ हो गया। मेरे अधिकतर मित्रों के लिए हिमपात का यह प्रथम अनुभव था। शिखर से ३६० अंश का विहंगम दृश्य अत्यंत रोमांचकारी था। शिखर से नीचे देखने पर पोल्लिंग गाँव के घर अत्यंत गौण प्रतीत हो रहे थे। हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतने कम समय में हम इस ऊँचाई तक चढ़ गए थे। लगभग एक घंटे तक हम एवं हमारे कैमरे इन अप्रतिम दृश्यों का आनंद लेते रहे तथा उन स्मृतियों को अमर बनाते रहे। शनैः शनैः सूर्य का उजाला कम होने लगा था। हिमपात तापमान को नीचे नीचे ले जा रहा था। अब हमारे विश्रामगृह लौटने का समय हो गया था।

पोल्लिंग गाँव पहुंचते पहुँचते हमारा चलना दूभर होने लगा था। वातावरण अत्यंत शीतल हो गया था। इसके अतिरिक्त हमारे जूते भी भीतर से गीले हो गए थे। हमने जिप्सी गाड़ी को यहीं बुलवा लिया तथा लटकते सेतु से विश्रामगृह तक गाड़ी से ही पहुंचे। विश्रामगृह हम अकेले नहीं पहुंचे थे, अपितु हमारे साथ पर्वतारोहण एवं शिखर से दिखते विहंगम दृश्यों की स्मृतियाँ भी साथ लौटी थीं। वापिसी यात्रा के समय होते दर्दभरे अनुभव भी साथ लौटे थे।

बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग

अगला दिवस विशेष था क्योंकि हम रोमांचकारी क्रीड़ाओं के लिए जाने वाले थे। बरोट से जोगिंदरनगर होते हुए हम बीड़ गाँव पहुंचे। बरोट से बीड़ तक की ५० किलोमीटर की सड़क यात्रा अत्यंत लुभावनी थी जिसमें हमने अनेक छोटे छोटे सुन्दर हिमालयी गाँवों को पार किया। बीड़ गाँव पहुँचते ही हम आश्चर्यचकित रह गए। बीड़ किसी भी मापदंड से गाँव प्रतीत नहीं होता है। गाँव की पूर्ण जनसँख्या पर्यटन सम्बन्धी क्रियाकलापों के चारों ओर ही केन्द्रित है, विशेषतः पैराग्लाइडिंग। सम्पूर्ण गाँव मुख्यतः होमस्टे, होटलों, जलपानगृहों इत्यादि से भरा हुआ है तथा पर्यटकों की यात्रा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ती करता है। यहाँ के अनेक निवासी वाहनचालक, परिदर्शक, प्रशिक्षक आदि के रूप में कार्यरत हैं।

हमने हमारे मेनेजर से पैराग्लाइडिंग के लिए हमारे पूर्वनियोजित समयावधि की जानकारी ली। हमें दो घंटे वहीं प्रतीक्षा करनी थी। अतः हमने दोपहर का भोजन करने का निश्चय किया। भोजन के पश्चात परिदृश्यों के कुछ रचनात्मक चित्र भी लिए। हमारे पैराग्लाइडिंग का समय समीप आ रहा था। हम साझा सूमो गाड़ी से निकटतम पर्वत शिखर पहुंचे जो हमारा नियोजित पैराग्लाइडिंग उड़ान स्थल था।

हमारा नियोजित पैराग्लाइडर उड़ान स्थल बिलिंग हमारे पैराग्लाइडर अवतरण स्थल बीड़ से लगभग २० किलोमीटर दूर था। बीड़ से बिलिंग तक पहुँचने में हमें दो घंटे लगे। उस समय शीत ऋतु की चरम सीमा थी जो पर्यटकों की दृष्टी से मंदी का समय होता है, फिर भी वहां पर्यटकों की बड़ी भीड़ थी। हमने घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये तथा सुरक्षात्मक साधनों को धारण किया।

पैराग्लाइडिंग अनुभव

यह एक आसान कार्य है। आपको केवल बड़ी तेजी से दौड़ लगानी है तथा पहाड़ से कूद जाना है। जब आप दौड़ लगाते हो तब पैराग्लाइडर के पंखों में आवश्यक वायु एकत्रित हो जाती है तथा वह उड़ने के योग्य हो जाती है। एक ग्लाइडर में दो व्यक्ति सवार हो सकते हैं। पर्यटक सामने की कुर्सी पर बैठता है तथा उसके पीछे पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षक अथवा गाइड बैठता है जो पंखों से बंधी रस्सियों द्वारा पैराग्लाइडर को सही दिशा में उड़ाता है।

हम भी उसी प्रकार पहाड़ से कूद गए। सहज होने में तथा वायु की दिशा को जानने में हमें कुछ क्षण लगे। उड़ने के लिए सहज एवं अभ्यस्त होने के पश्चात मुझे आनंद आने लगा। मैं अपने गाइड से वार्तालाप करने लगा तथा मैंने उसे पैराग्लाइडिंग के अपने पिछले अनुभव के विषय में बताया। उसने मुझे आश्वासन दिया कि उड़ान के अंत में वह पैराग्लाइडर का घुमावदार अवतरण करवाएगा। मेरा गोप्रो कैमरा घाटी एवं धौलाधार पर्वतमाला के विहंगम दृश्यों को आत्मसात करने लगा। अत्यंत शीतल वायु मेरी उड़ान को असह्य बनाने में लगभग सफल हो रही थी क्योंकि मैंने दस्ताने नहीं पहने थे। ठण्ड इतनी थी कि खुले हाथों से कैमरा पकड़ना भी दूभर हो रहा था। दस्ताने ना लाना मेरी भारी भूल थी। किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि इतना कष्ट सहने के पश्चात भी मैंने उड़ान के प्रत्येक क्षण का आनंद उठाया। ऊँचाई से पहाड़ एवं गाँव अत्यंत सूक्ष्म प्रतीत हो रहे थे। मेरे साथ उड़ते अन्य पैराग्लाइडरों को देख उड़ने का अपरोक्ष आनंद भी आया। उन्हें देख यह आभास हुआ कि पंछी कितने भाग्यशाली होते हैं जो खुले आकाश में उड़ सकते हैं। मेरी उड़ान अगले १८ मिनटों तक जारी रही।

अवतरण

जब हम अवतरण स्थल के समीप पहुंचे, मेरे गाइड ने मुझे सिखाया कि घुमावदार अवतरण किस प्रकार की जानी चाहिए। घुमावदार अवतरण में ग्लाइडर एक छोटे गोलाकार में तेज गति से घूमता है। यह सामान्य अथवा सीघे अवतरण तकनीक से भिन्न तकनीक है। उस अवतरण अनुभव ने मुझे रोमांचित कर दिया था। मैंने सम्पूर्ण पैराग्लाइडिंग के उत्तम अनुभव के लिए अपने गाइड का धन्यवाद किया। हम सब की उड़ान समाप्त होते ही हमने निर्धारित शुल्क जमा किया, जो २००० रुपये प्रति व्यक्ति था। इसके अतिरिक्त, किराये का कैमरा ५०० रुपये में उपलब्ध था। चूँकि मैंने स्वयं का गोप्रो रखा था, मुझे केवल २००० रुपये देने पड़े।

इससे पूर्व मैंने भीमताल में पैराग्लाइडिंग की थी किन्तु यह अनुभव अद्वितीय था।

हम जैसे ही बीड़ में उतरे, मौसम अधिक बिगड़ने लगा था जिसके चलते आयोजकों को अंतिम २० उड़ानें रद्द करनी पड़ी। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि उन्होंने मेरी उड़ान बिना किसी व्यवधान के पूर्ण करने में सहायता की। यदि हमारा क्रमांक आते आते २० मिनटों का विलम्ब हो जाता तो कदाचित हमारी उड़ान भी रद्द हो जाती। इसके अतिरिक्त, दोपहर के ४ बजे तक हमारा पैराग्लाइडिंग उड़ान समाप्त हो जाने के कारण हमारे पास वापिसी की यात्रा आरम्भ करने के लिए पर्याप्त समय था। हमने तुरंत ही दिल्ली के लिए रवाना होने का निश्चय किया ताकि पर्वतों के दुर्गम मार्ग हम उजाले में पार  कर सकें। मैदानी क्षेत्रों में गाड़ी चलाना अपेक्षाकृत आसान होता है।

बीड़ बिलिंग में पैराग्लाइडिंग करने के लिए कुछ सुझाव  

  • बीड़ बिलिंग एवं बरोट तक सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। आप यहाँ तक पहुँचने के लिए दिल्ली-मनाली मार्ग अथवा दिल्ली-कांगड़ा मार्ग का प्रयोग कर सकते हैं।
  • दोनों स्थानों पर उपयुक्त विश्रामगृह की सुविधाएं उपलब्ध हैं। यद्यपि बीड़ एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन चुका है, तथापि बरोट भी उससे अधिक पीछे नहीं है। यहाँ अनेक स्तर के होमस्टे, होटल एवं तम्बू सुविधाएं उपलब्ध हैं।
  • यदि पैराग्लाइडिंग में आपकी रूचि हो तो मेरा सुझाव है कि आप पैराग्लाइडिंग सुविधाओं का पूर्व में ही आरक्षण कर लें। अन्यथा संभव है कि पर्यटन कालावधि के चरम समय में आपके लिए उड़ान समयावधि शेष ना रहे।
  • यहाँ पर्यटन का चरम काल ग्रीष्म ऋतु में रहता है। यद्यपि शीत ऋतु में पर्यटकों की भीड़ कम रहती है तथा पैराग्लाइडिंग भी उपलब्ध रहती है, तथापि धुंध एवं विकट तापमान आपकी यात्रा योजना ध्वस्त कर दें, इसकी संभावना भी अत्यधिक रहती है।
  • पर्यटन के चरम काल में पैराग्लाइडिंग शुल्क २५०० से ३५०० रुपये प्रति व्यक्ति प्रति उड़ान के मध्य घटते-बढ़ते हैं। शीत ऋतु में इसका शुल्क इससे कम रहता है।
  • यदि आप पर्वतारोहण की योजना बना रहे हैं तो आप अपने साथ एक जानकार परिदर्शक अवश्य रखें क्योंकि पर्वतारोहण पगडंडियाँ सुपरिभाषित नहीं हैं। स्थानिक व जानकार परिदर्शक आवश्यक है।
  • बीड़ एवं बरोट दोनों स्थानों में मोबाइल फ़ोन के नेटवर्क सुचारू रूप से कार्य करते हैं। डाटा नेटवर्क में कुछ व्यवधान आ सकता है किन्तु किसी को फ़ोन करने में सामान्यतः बाधा नहीं होती है।

यह सुशांत पाण्डेय द्वारा लिखित तथा inditales द्वारा प्रकाशित अतिथि यात्रा संस्करण है।

सुशांत पाण्डेय व्यवसाय से दूरसंचार अभियंता हैं। साथ ही वे इतिहास एवं भूगोल प्रेमी भी हैं। रिक्त समय में यात्राएं करना उन्हें अत्यंत भाता है। विशेषतः दुपहिये पर सवार होकर भारत के विभिन्न क्षेत्रों की खोज करने में उनकी उत्कट इच्छा रहती है। उन्हें भारत के इतिहास एवं भूगोल संबंधी वृत्तचित्र देखना भी भाता है। अपने अतिरिक्त समय का सदुपयोग वे अपने ब्लॉग Knowledge of India को संभालने में करते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुर्ग – तलकावेरी, भागमण्डल एवं त्रिवेणी संगम https://inditales.com/hindi/talakaveri-kaveri-udgam-coorg-karnataka/ https://inditales.com/hindi/talakaveri-kaveri-udgam-coorg-karnataka/#respond Wed, 15 Jan 2025 02:30:37 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3749

कावेरी दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों को पोषित करती एक जीवनदायिनी नदी है। ये दो राज्य हैं, कर्नाटक एवं तमिलनाडु। इन दोनों राज्यों का जीवन कावेरी नदी पर निर्भर है। कदाचित यही कारण है कि उसके जल की वितरण व्यवस्था के संबंध में इन दोनों राज्यों ने एक दूसरे के मध्य विवाद उत्पन्न कर […]

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कावेरी दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों को पोषित करती एक जीवनदायिनी नदी है। ये दो राज्य हैं, कर्नाटक एवं तमिलनाडु। इन दोनों राज्यों का जीवन कावेरी नदी पर निर्भर है। कदाचित यही कारण है कि उसके जल की वितरण व्यवस्था के संबंध में इन दोनों राज्यों ने एक दूसरे के मध्य विवाद उत्पन्न कर लिया है। यह वर्तमान काल की विडंबना है कि अब कावेरी नदी का उल्लेख इस विवाद के संबंध में अधिक किया जाता है। इसके चलते हम कावेरी नदी एवं उसके उद्गम की महत्ता, उसके पावित्र्य को विस्मृत करते जा रहे हैं।

कावेरी अम्मा प्रतिमा
कावेरी अम्मा प्रतिमा

कावेरी नदी का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत की गोद में स्थित तलकावेरी है। इसके पश्चिमी दिशा में १०० किलोमीटर से भी निकट अरब महासागर है।

भूल-भुलैया मार्गों से बलखाती हुई कावेरी पूर्व दिशा की ओर बढ़ती है तथा बंगाल की खाड़ी में सागर से जा मिलती है। अपने मार्ग में आगे बढ़ते हुए कावेरी नदी अनेक प्राकृतिक सौन्दर्यों को जन्म देती जाती है, जैसे शिवना समुद्र जलप्रपात, होगेनक्कल जलप्रपात आदि। नदी पर अनेक बांधों का निर्माण किया गया है। उसमें मैसूर स्थित श्री कृष्णा राजा सागर बांध भी सम्मिलित है।

तलकावेरी के गिर्द पहाड़ियां
तलकावेरी के गिर्द पहाड़ियां

मन में प्रश्न यह उठता है कि कावेरी ने अंततः इतना घुमावयुक्त मार्ग क्यों चुना? उसके मन में कैसा मंथन चल रहा था? समुद्र से मिलने के लिए पश्चिम दिशा की ओर सीधे भी जा सकती थी। इस प्रकार उसे केवल १०० किलोमीटर की ही दूरी तय करनी पड़ती। किन्तु उसने भूल-भुलैया मार्ग पर इठलाते-बलखाते हुए पूर्व दिशा में ७६० किलोमीटर की दूरी तय की। कदाचित कावेरी को दक्षिण भारत के निवासियों की भविष्य में उद्भव होने वाली जल समस्या का आभास हो गया था। इसी कारण उनकी जल समस्या का निराकरण करने के उद्देश्य से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचते हुए उन्होंने स्वयं के लिए ऐसे मार्ग की रचना की।

कावेरी के विषय में एक अद्भुत तथ्य यह भी है कि उसका उद्गम तलकावेरी से हुआ है, जो ब्रह्मगिरी पर्वत के शिखर पर स्थित है। धरती माँ के गर्भ से निकलने से पूर्व वो भीतर ही भीतर पर्वत के शिखर तक जाती है, तत्पश्चात उसका जन्म अथवा उगम होता है।

तुला संक्रमण

तलकावेरी में कावेरी नदी के उद्गम का उत्सव आयोजित किया जाता है। यह उत्सव अक्टूबर मास के मध्य में, लगभग १७/१८ अक्टूबर को मनाया जाता है। इस दिवस सूर्य का तुला राशि में प्रवेश होता है। इसीलिए इस तिथि को तुला संक्रांति अथवा तुला संक्रमण कहते हैं। इस काल में कावेरी कुंड से जल अपनी पूर्ण भव्यता एवं शक्ति के साथ बाहर आता है। वह दृश्य कितना दर्शनीय होता होगा! बड़ी संख्या में तीर्थयात्री इस दृश्य का आनंद उठाने दूर दूर से आते हैं। पवित्र जलकुंड में स्नान करते हैं। इसका जल अपने साथ भी ले जाते हैं जिससे वे अपने घरों की शुद्धि करते हैं।

इस दिवस कावेरी के तट पर मेलों का आयोजन किया जाता है। तुला संक्राति के दिवस कावेरी नदी के जल में स्नान एवं दान-पुण्य की मान्यता है।

तलकावेरी उद्गम – कावेरी नदी की दंतकथा

तलकावेरी की लोककथा

ऐसी कथा है कि जब भगवान शिव एवं पार्वती का कैलाश पर्वत पर विवाह हो रहा था, तब उनके विवाह उत्सव का दर्शन करने सभी वहाँ चले गए जिसके कारण असंतुलित होकर पृथ्वी एक ओर को झुक गई थी। तब अगस्त्य ऋषि को दक्षिण दिशा की ओर जाने का आदेश दिया गया ताकि पृथ्वी का संतुलन पुनः सामान्य हो सके। अगस्त्य ऋषि जाने के लिए अनिच्छुक थे। उन्होंने असंतोष प्रकट किया कि उन्हे नित्य कर्मों के लिए पवित्र जल कहाँ से प्राप्त होगा! तब भगवान शिव ने उनके कमंडल में पवित्र जल भर दिया तथा उन्हे जाने की आज्ञा दी। तब अगस्त्य मुनि दक्षिण भारत आए। वे अपना कमंडल लेकर ब्रह्मगिरी पर्वत पर गए तथा तपस्या करने लगे।

तलकावेरी का प्रवेश द्वार
तलकावेरी का प्रवेश द्वार

समानांतर ब्रह्मांड में एक अपराध बोध के चलते इन्द्र कमल की डंठल में छुपा हुआ था। उसे अपना राज्य एवं अपना स्वरूप पुनः प्राप्त करने के लिए पवित्र जल की आवश्यकता थी। वह जहाँ था, वहाँ से पवित्र जल का निकटतम स्रोत था, अगस्त्य मुनि का कमंडल। इन्द्र ने सहायता के लिए गणेश की आराधना की। गणेश एक गौ का रूप धर कर अगस्त्य मुनि के कमंडल पर बैठ गए। जब अगस्त्य मुनि ने कमंडल पर से गाय को परे करने का प्रयास किया तब कमंडल लुड़क गया तथा उसमें से जल बाहर आ गया। अगस्त्य मुनि ने गाय को तब तक दौड़ाया जब तक उसने एक बालक गणेश का रूप ना ले लिया।

स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, कावेरी वास्तव में ऋषि कावेर की दत्तक पुत्री लोपमुद्रा का नदी अवतार है। अगस्त्य ऋषि से उनका विवाह हुआ था।

मडिकेरी से तलकावेरी का अर्ध दिवसीय भ्रमण

तलकावेरी मडिकेरी से पूर्वी दिशा में लगभग ४५ किलोमीटर दूर स्थित है। कुर्ग से अर्ध दिवसीय भ्रमण के रूप में आप तलकावेरी का दर्शन कर सकते हैं। कुर्ग में हम कॉफी उद्यान के भीतर ठहरे थे। वहाँ से प्रातः काल सड़कमार्ग द्वारा हम तलकावेरी की ओर निकल पड़े। कुर्ग के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित अनूठे आकर्षक गाँवों से जाते हुए हम प्रकृति का भरपूर आनंद उठा रहे थे।

मार्ग में हमने भागमण्डल जैसे अनेक सुंदर मंदिर देखे।

तलकावेरी के प्रवेश स्थल पर एक विशाल तोरण है जिसके आगे सोपान हैं जो आपको तलकावेरी जलकुंड तक ले जाएंगे। यदि आप इस तोरण के नीचे, घाटी की दिशा में खड़े होते हैं तो आप अपने समक्ष हरियाली से ओतप्रोत विस्तृत घाटी देखेंगे। घाटी की परतों में हरियाली के विविध रंग देख आप मंत्रमुग्ध हो जाएंगे। जब हम वहाँ पहुँचे, सूर्य हमारे ऊपर दमकने लग गया था। हमारे लिए वहाँ खड़े होकर परिदृश्यों का अवलोकन करना किंचित दूभर हो रहा था। समक्ष स्थित हरियाली हमारे नयनों को सुख अवश्य पहुँचा रही थी किन्तु सूर्य की तपती किरणें असह्य हो रहीं थी। हमें खेद हो रहा था कि हम प्रातः शीघ्र क्यों नहीं निकले। यहाँ का सुखद आनंद प्राप्त करने के लिए आप यहाँ सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय पहुँचें।

हम सबने तोरण के नीचे, बहते जल में अपने चरण धोए तथा सोपान चढ़ना आरंभ किया। सोपान नवीन प्रतीत हो रहे थे। किन्तु शैल निर्मित होने के कारण धूप में सोपान तप रहे थे। चरणों को जलन से सुरक्षित रखने के लिए हम सोपानों पर लगभग दौड़ रहे थे। जी हाँ, पैरों में जूते-चप्पल नहीं थे। उन्हे तोरण से पूर्व ही उतारने पड़ते हैं। मोजे धारण करने की भी अनुमति नहीं होती है।

जलकुंड

मंदिर के जलकुंड पर पहुँचते ही हमारे समक्ष मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य था। जलकुंड चौकोर था जिसका आकार एक लघु तरण-ताल के अनुरूप था। हमें जो बताया गया था, उसके विपरीत मार्च मास में भी जलकुंड में जल था। जलकुंड के एक किनारे पर कावेरीअम्मा का एक लघु मंदिर स्थित है। कावेरीअम्मा मंदिर के भीतर देवी कावेरी की खड़ी मुद्रा में प्रतिमा है जहाँ वे अपने मटके से जल उड़ेल रही हैं। एक पुजारी मंदिर में उनकी पूजा-अर्चना कर रहे थे। कुछ भक्तगण जलकुंड के भीतर खड़े थे जिससे मुझे जलकुंड की गहराई का अनुमान प्राप्त हुआ।

कावेरी उद्गम का कुंड
कावेरी उद्गम का कुंड

पुजारी जी ने हमसे अपने चरणों को जलकुंड में ना डालने के लिए कहा क्योंकि जलकुंड के जल को पवित्र माना जाता है। आप जल के भीतर जाकर पवित्र स्नान कर सकते हैं, डुबकी लगा सकते हैं लेकिन उसके जल को अकारण पाँव से छू नहीं सकते। इसे कुर्ग क्षेत्र का पावनतम स्थान माना जाता है। अतः इसका आदर होना चाहिए। हमने वहाँ खड़े होकर प्रार्थना की। इसके पश्चात जलकुंड के पृष्ठभाग में पहाड़ी के ऊपरी भागों पर स्थित मंदिरों के दर्शन करने चल दिए।

अगस्तीश्वर मंदिर एवं गणेश मंदिर

पहाड़ी के ऊपरी भाग पर लघु किन्तु आकर्षण मंदिर स्थित हैं। उनमें से एक मंदिर को अगस्तीश्वर मंदिर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगस्त्य मुनि ने इसका निर्माण किया था। दूसरा मंदिर गणेश जी का है। गणेश भगवान का इस स्थान से गहन संबंध है। मैंने पूर्व में ही लिखा है कि गणेश ने कावेरी नदी को यहाँ लाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हमने कुछ क्षण वहाँ शांति के साथ व्यतीत किये। मन में एक सुखद शांति की अनुभूति थी जो साधारणतः उन स्थानों से प्राप्त होती है जहाँ दीर्घ काल से अनवरत पूजा-अर्चना की जा रही हो।

ब्रह्मगिरी पर्वत

तलकावेरी के निकट ही ब्रह्मगिरी पर्वत का शिखर है। शिखर तक पहुँचने के लिए लगभग ३५० सोपान चढ़ने पड़ते हैं। मुझे विश्वास है, शिखर से चारों ओर स्थित घाटियों का अप्रतिम दृश्य प्राप्त होता होगा। हम जब तक तलकावेरी पहुँचे तथा वहाँ के मनोरम दृश्यों का आनंद उठाकर दर्शन एवं पूजा-अर्चना आदि से निवृत्त हुए, सूर्य अपनी चरम ऊष्मा पर पहुँच चुका था। उस वातावरण में तपते सोपानों पर चरण रखकर पर्वत शिखर तक जाने के विषय में विचार करना भी हमारे लिए असह्य था।

कावेरी अम्मा

कुर्ग में कुछ दिवस व्यतीत करने के पश्चात मुझे यह आभास हुआ कि कुर्ग में आपकी दृष्टि जहाँ भी जाएगी, आपको कावेरी अम्मा की प्रतिमा अवश्य दृष्टिगोचर होगी। वे इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। साधारणतः खड़ी मुद्रा में उनकी प्रतिमा होती है। उनके हाथों में जल का एक कलश होता है मानो वे लोगों को जल का वरदान दे रही हों। हमने तलकावेरी में उनकी ऐसी प्रतिमा देखी थी। तलकावेरी उनका निवासस्थान है। इसके अतिरिक्त सभी परिदृश्य अवलोकन केंद्रों पर, निसर्गधाम के बांस वन में, सभी संग्रहालयों में, कुल मिलाकर देखें तो सभी स्थलों पर उनकी प्रतिमाएँ स्थापित हैं।

भागमण्डल  मंदिर

तलकावेरी से विश्रामगृह की ओर आते हुए हम भागमण्डल नगर में स्थित एक आकर्षक मंदिर में रुके। यह नगर भगंदेश्वर अथवा भागंदेश्वर मंदिर के लिए लोकप्रिय है। दुहरी तिरछी छतों से युक्त यह मंदिर ठेठ केरल शैली में निर्मित है।

मंदिर के बाह्य क्षेत्र में लगे सूचना पटल के अनुसार इस मंदिर का नामकरण भगन्द ऋषि के नाम पर किया गया है जिन्होंने यहाँ शिवलिंग की स्थापना कर तपस्या की थी। वे स्कन्द के आराधक थे। उन्होंने इस क्षेत्र का नाम स्कन्द क्षेत्र रखा था। लोग इस क्षेत्र को भगन्द क्षेत्र भी कहते हैं।

भागमंडल मंदिर - तलकावेरी
भागमंडल मंदिर – तलकावेरी

इस मंदिर को इस क्षेत्र के सभी शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ था। वर्तमान में मंदिर की जो संरचना है, उसका निर्माण १८ वीं शताब्दी के अंतिम काल में राजा डोड्डा वीरा राजेन्द्र ने करवाया था। मंदिर में सूक्ष्म व जटिल उत्कीर्णन किये गए हैं। शैल स्तंभों पर पौराणिक कथाएँ प्रदर्शित की गयी हैं।

मंदिर परिसर के चारों ओर परिधीय भित्तियाँ हैं जिनके साथ साथ स्तंभ युक्त गलियारे हैं। इनके मध्य चार छोटे मंदिर हैं जो शिव, शक्ति, स्कन्द एवं विष्णु को समर्पित हैं। कुछ भित्तियों पर प्राचीन भित्तिचित्र भी हैं।

इनके अतिरिक्त मंदिर की छत को देखना ना भूलें। मंदिर की छत पर पौराणिक कथाओं के दृश्य उत्कीर्णित हैं।

भागमण्डल त्रिवेणी संगम

भागमण्डल त्रिवेणी संगम कावेरी, कन्निके एवं सुज्योति, इन तीन नदियों का त्रिवेणी संगम है। यह संगम भागमण्डल मंदिर के ठीक सामने है। इनमें से सुज्योति नदी को पौराणिक नदी माना जाता है, जैसे प्रयाग संगम में सरस्वती नदी को एक पौराणिक नदी माना जाता है।

कावेरी संगम
कावेरी संगम

यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल एवं आकर्षक पर्यटन स्थल है। शांतिपूर्ण रीति से बहती दो नदियाँ मिलकर एकरूप हो जाती हैं, इसे देखने का आनंद अवर्णनीय है। इन दोनों नदियों के ऊपर छोटे छोटे सेतु बांधे गए हैं जिन के ऊपर जाकर आप भिन्न भिन्न कोणों से त्रिवेणी संगम का अवलोकन कर सकते हैं। ये नदियां कछुओं एवं मछलियों से भरी हुई हैं।

संगम के आसपास कई लघु मंदिर हैं। नदी के तट पर हमने शिवलिंग एवं नंदी के विग्रह को देखा था। लगभग सभी वृक्षों के नीचे नाग प्रतिमाएं थीं।

यात्रा सुझाव

  • तलकावेरी, भागमण्डल एवं ब्रह्मगिरी पर्वत के दर्शन-अवलोकन के लिए आप अपने विश्रामगृह से ऐसे समय निकलें कि आप तलकावेरी में प्रातः शीघ्र पहुँचें जब वातावरण शीतल रहता है। आपको मंदिर के सोपान चढ़ने, वहाँ विचरण करने तथा ब्रह्मगिरी पर्वत शिखर तक चढ़ने में आसानी होगी।
  • मडिकेरी से तलकावेरी तक नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। हमने टैक्सी किराये पर ली थी क्योंकि हम तलकावेरी के साथ साथ कुछ अन्य पर्यटन स्थलों के भी दर्शन करना चाहते थे।
  • तलकावेरी, भागमण्डल मंदिर, ब्रह्मगिरी पर्वत शिखर तथा त्रिवेणी संगम, इन सब के दर्शन करने के लिए आपको एक सम्पूर्ण दिवस की आवश्यकता होगी।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लद्दाख में शाकाहारी भोजन के विकल्प https://inditales.com/hindi/ladhak-ka-shakahari-bhojan/ https://inditales.com/hindi/ladhak-ka-shakahari-bhojan/#respond Wed, 01 Jan 2025 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3741

यात्राएं एवं भ्रमण करने वालों के लिए आहार एक महत्वपूर्ण आयाम होता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ व सुरक्षित आहार तो आवश्यक है ही, अनेक यात्रियों एवं पर्यटकों को भिन्न भिन्न पर्यटन स्थलों के विशेष व्यंजनों का आनंद लेना भी अत्यंत भाता है। सामान्यतः शाकाहारी भोजन सभी करते हैं। कुछ को सामिष भोजन भी […]

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यात्राएं एवं भ्रमण करने वालों के लिए आहार एक महत्वपूर्ण आयाम होता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ व सुरक्षित आहार तो आवश्यक है ही, अनेक यात्रियों एवं पर्यटकों को भिन्न भिन्न पर्यटन स्थलों के विशेष व्यंजनों का आनंद लेना भी अत्यंत भाता है। सामान्यतः शाकाहारी भोजन सभी करते हैं। कुछ को सामिष भोजन भी प्रिय होता है। किन्तु मेरे जैसे अनेक ऐसे यात्री हैं जो केवल शाकाहारी भोजन ही खाते हैं।

लद्दाख में शाकाहारी भोजन
लद्दाख में शाकाहारी भोजन

कुछ पर्यटन गंतव्यों में हमारे जैसों के समक्ष एक प्रश्न सदैव खड़ा रहता है कि क्या खाएं। ऐसे कुछ पर्यटन गंतव्य हैं, थाईलैण्ड, मलेशिया तथा हमारा अपना लद्दाख।

क्या लद्दाख में मेरे जैसे शाकाहरियों के लिए पर्याप्त भोजन विकल्प उपलब्ध हैं? आईए देखते हैं-

शाकाहारियों के लिए लद्दाख –  यात्रा का एक मुख्य आयाम

मनभावन छायाचित्रों से अलंकृत यह संस्करण आपको भोजन की उस श्रंखला से परिचित कराएगा जिसे थामकर मैंने अपनी लद्दाख यात्रा पूर्ण की थी। यहाँ मैं केवल लद्दाख के विशेष व्यंजनों का ही उल्लेख कर रही हूँ। यह संस्करण उन शाकाहारियों के लिए है जो लद्दाख भ्रमण पर वहाँ के विशेष व्यंजनों का आस्वाद लेना चाहते हैं। अन्यथा उच्च-स्तरीय भोजनालयों में अन्य राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भोजन विकल्प उपलब्ध हैं जिनका उल्लेख यहाँ मैं नहीं कर रही हूँ।

गुड़ गुड़ चाय

यदि आपके दिवस का आरंभ किसी मठ में हो रहा है, जैसा कि एक दिवस मेरे साथ हुआ, आप वहाँ के बौद्ध भिक्षुओं को गुड़ गुड़ चाय पीते देखेंगे। वे प्रातःकाल की सम्पूर्ण अवधि में यह चाय पीते रहते हैं। यदि वे इससे अवकाश लेते हैं तो केवल दलिया का नाश्ता खाने के लिए।

ठिकसे मठ में गुड गुड चाय
ठिकसे मठ में गुड गुड चाय

बाल भिक्षुक कुछ कुछ मिनटों में उठते रहते हैं तथा अन्य भिक्षुओं के पात्र चाय एवं कुछ खाद्य से भरते रहते हैं। वे अपना यह कार्य इतनी तल्लीनता से करते रहते हैं कि यह उनकी ध्यान-साधना का ही एक अभिन्न अंग बन जाता है।

गुड गुड चाय
गुड गुड चाय

आप इस चित्र में गुड़ गुड़ चाय देख सकते हैं। इसे पोचा तथा बटर टी भी कहते हैं। इसमें चाय की पत्ती, गुड़ तथा दूध के साथ साथ नमक एवं मक्खन भी डाल जाता है। इसे नून चाय भी कहते हैं। पंजाबी में नमक को नून कहते हैं। किन्तु यह बटर टी के नाम से अधिक लोकप्रिय है। लद्दाख की शीतल जलवायु में यह शरीर को आंतरिक ऊष्मा पहुँचाती है।

और पढ़ें: भारत में चाय के भिन्न भिन्न प्रकार

सिकी रोटी

प्रातः अल्पाहार के लिए गुड़ गुड़ चाय के साथ सिकी हुई मोटी रोटी का आनंद लीजिए। यह रोटी जैसे ही भट्टी से बाहर आती है, लद्दाख के शीत वातावरण में त्वरित ठंडी हो जाती है। इसलिए इसका आनंद भाप निकलती गुड़ गुड़ चाय के साथ उठायिए।

लद्दाखी सिकी रोटी
लद्दाखी सिकी रोटी

हमें वहाँ इन रोटियों के साथ अंडे का ऑमलेट भी दिया गया था किन्तु चूंकि मैं अंडे भी नहीं खाती, मैंने इन्हे मक्खन के साथ खाया। लद्दाख की जलवायु में मक्खन भी जमा हुआ था। किन्तु लद्दाख में शीत ऋतु में जब बाहर -२३ अंश का तापमान हो तो गर्म गर्म बटर टी के साथ यही मक्खन-रोटी भी स्वर्ग का आनंद देती है।

पर्वतों के साथ भोजन
पर्वतों के साथ भोजन

हमने लद्दाख के एक सामान्य निवासस्थान में बैठकर, पर्वतों का मनमोहक दृश्य निहारते हुए रोटी एवं भाप निकलते गुड़ गुड़ चाय का अल्पाहार किया।

और पढ़ें: भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भोजन थालियाँ

छांग एवं अन्य स्थानीय पेय 

छांग – भारत के प्रत्येक क्षेत्र के अपने स्वयं के स्थानीय पेय होते हैं। इसमें लद्दाख पीछे कैसे रह सकता है? छांग एक स्थानीय पेय है जिसे बाहरी वातावरण के अनुसार शीतल अथवा गर्म परोसा जाता है।

छांग
छांग

इसे पीतल के कटोरे में अथवा लकड़ी के पात्र में परोसा जाता है जिसे कोरे भी कहते हैं। मठों में यही लकड़ी के पात्र चाय तथा दलिये  के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। यह एक खमीरी अथवा किण्वित पेय है जिसे जौ, बाजरा अथवा चावल से बनाया जाता है।

छोटे चने डले हुए घर में बना नूडल सूप – इस सूप में मुख्यतः नूडल, काले चने तथा नमक व कुछ मसाले डले होते हैं।

सूप
सूप

थुपका या नूडल सूप – यह लद्दाख का सर्वाधिक लोकप्रिय मूल भोजन है। इस सूप में विभिन्न शाक भाजियों का सम्मिश्रण होता है। इसके सामिष रूप में भिन्न भिन्न प्रकार के माँस का भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु मैंने इसके शाकाहारी रूप का अत्यधिक आनंद उठाया। लद्दाख में यह एक सम्पूर्ण भोजन माना जाता है। भाप निकलता गरमागरम थुपका सूप का एक बड़ा पात्र! उदर को शांति तो प्राप्त होती ही है, साथ ही देह को प्राप्त ऊष्मा भी सुख प्रदान करती है।

लहसुन का सूप – यह भी लद्दाख का एक लोकप्रिय मूल आहार है। जब भी लोग कम ऊंचाई से पहाड़ों के ऊपरी भागों में पहुँचते हैं तब उन्हे यह सूप दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह लहसुन का सूप उन्हे Acute Mountain Sickness अर्थात स्वास्थ्य संबंधी तीव्र पर्वतीय जटिलताओं से जूझने में सहायता करता है।

अखरोट चटनी के साथ मोमो

मेरे लद्दाख यात्रा का नायक यही मोमो था जिसे अखरोट की चटनी के साथ परोसा गया था। मोमो सम्पूर्ण विश्व में हिमालयीन व्यंजन के रूप में लोकप्रिय है।

अखरोट की चटनी के साथ मोमो
अखरोट की चटनी के साथ मोमो

हिमालयी क्षेत्रों के निवासी उन क्षेत्रों में उगते सभी उत्पादनों से चटनी, जैम आदि बना लेते हैं। जैसे आड़ू, आड़ू के बीज, सेब, अखरोट आदि। इनकी एक विशेषता है कि इनमें शक्कर का न्यूनतम प्रयोग किया जाता है। इसीलिए जब मैंने इन्हे चखा तब ये मुझे मीठे कम, खट्टे अधिक प्रतीत हुए। इससे मुझे यह आभास हुआ कि जब तक संसाधित खाद्य पदार्थ हमारे जीवन का अभिन्न अंग नहीं बने थे, हम स्वास्थ्य वर्धक खाद्य पदार्थों के अभ्यस्त थे।

आड़ू का मिष्ठान्न

आड़ू से चटनी एवं जैम के अतिरिक्त मीठा भी बनाया जाता है। यह मिष्ठान्न अत्यधिक स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य वर्धक होता है।

आडू का मीठा
आडू का मीठा

लद्दाख का वातावरण अत्यधिक शीतल होता है। इसीलिए यहाँ पनीर एवं चीज़ का चलन है। यहाँ सामान्य गाय-भैंस के दूध से निर्मित चीज़ के अतिरिक्त याक के दूध से निर्मित चीज़ भी उपलब्ध होते हैं। यहाँ के याक चीज़ का एक अन्य रूप भी बहुत लोकप्रिय है, सुखाये हुए चीज़ के टुकड़े।

यद्यपि लद्दाख में शाकाहारी व्यंजनों के पर्याप्त विकल्प उपलब्ध है, तथापि किसी विपरीत परिस्थिति में आप फलों का सेवन कर सकते हैं। यहाँ बड़ी मात्रा में विविध फल उपलब्ध होते हैं। हिमालयीन क्षेत्रों में उत्पादित फलों का सेवन अवश्य करें। ये आपको अन्यत्र उपलब्ध नहीं होंगे।

सूखे मेवे

यदि आप फल खाने में कम रुचि रखते हैं अथवा शीतल वातावरण में फल की ओर कम रुझान हो तो आप लेह के हाट से प्रसिद्ध सूखे मेवे अवश्य खाएं। सूखे मेवे हमारे शरीर को भीतर से ऊष्मा प्रदान करते हैं।

लद्दाख के सूखे मेवे
लद्दाख के सूखे मेवे

शरीर को भीतर से ऊष्मा प्रदान करने के लिए तथा शीत मरुभूमि में स्वयं को आर्द्र रखने के लिए काहवा तो है ही। काहवा एक लदाखी चाय है।

लद्दाखी चाय का पात्र
लद्दाखी चाय का पात्र

अंत में, उन पात्रों को भी ध्यान से देखें जिनमें चाय, काहवा, छांग आदि परोसा जाता है। ये सुंदर अलंकृत धातुई पात्र होते हैं। उन पात्रों पर मोहित हो जाएँ तो स्थानीय हाट से उन्हे क्रय कर सकते हैं।

अब किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! त्वरित लद्दाख यात्रा का नियोजन कर लें। आप शाकाहारी हैं? चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस संस्करण से आपको अवश्य यह आभास हो गया होगा कि लद्दाख में शाकाहारियों के लिए भी भोजन विकल्पों की कोई कमी नहीं है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नामेरी राष्ट्रीय उद्यान और बाघ अभयारण्य, असम – भारत के राष्ट्रीय उद्यान https://inditales.com/hindi/nameri-rashtriya-udyan-assam/ https://inditales.com/hindi/nameri-rashtriya-udyan-assam/#respond Wed, 25 Dec 2024 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=650

अरुणाचल प्रदेश जाते समय हमने नामेरी राष्ट्रीय उद्यान की पहली झलक देखी थी, लेकिन उस समय हम उसके दर्शन नहीं कर पाए थे। बाद में अरुणाचल से वापस आते समय जब हम रास्ते में स्थित पर्यावरण शिविर में रुके थे, तब कई बार हमे इस उद्यान की अनेक झलकियाँ देखने को मिली। नामेरी राष्ट्रीय उद्यान   […]

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अरुणाचल प्रदेश जाते समय हमने नामेरी राष्ट्रीय उद्यान की पहली झलक देखी थी, लेकिन उस समय हम उसके दर्शन नहीं कर पाए थे। बाद में अरुणाचल से वापस आते समय जब हम रास्ते में स्थित पर्यावरण शिविर में रुके थे, तब कई बार हमे इस उद्यान की अनेक झलकियाँ देखने को मिली।

नामेरी राष्ट्रीय उद्यान  

अरुणाचल जाते वक्त हमे रास्ते में एक खोदे हुए मार्ग से गुजरना पड़ा था, जिस पर से जाते समय मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे हम किसी रोलर कोस्टर की सवारी पर बैठे हो। अरुणाचल से जुड़ा यह मेरा पहला यादगार पल था। इसी बीच अचानक से एक हाथी ने आकर हमारा रास्ता रोक दिया और अपनी सूंढ से गाड़ी-चालक की खिड़की खटखटाने लगा। मैं उत्सुकतापूर्वक यह सब देखती रही।

नामेरी राष्ट्रीय उद्यान में जिया भोरोली नदी
नामेरी राष्ट्रीय उद्यान में जिया भोरोली नदी

हमारे चालक ने अपनी खिड़की का काँच नीचे किया और उस हाथी को 10 रूपय का नोट दे दिया और पैसे लेकर वह हाथी दूसरी गाड़ी की ओर बढ़ गया। उसके जाने के बाद हमारे चालक ने हमे बताया कि जब तक आप इन हाथियों को पैसे नहीं देते तब तक वे आपको आगे बढ़ने नहीं देते। वैसे कहा जाए तो यह एक प्रकार का हाथी कर ही है। जाहीर है कि उनके मालिकों ने उन्हें इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया होगा।

जो भी यहाँ पर पहली बार आता है, उसके लिए यह सबकुछ बहुत ही मनोरंजक होता है। क्योंकि अचानक से किसी हाथी का इस प्रकार से गाड़ी के पास आकर शहरों की सड़कों पर मिलनेवाले भिखारियों की तरह या फिर शायद पुलिस वालों की तरह व्यवहार करना कुछ अजीब सा है।

नामेरी पर्यावरण शिविर   

वापस आते समय जब तक हम भालुकपोंग पार कर चुके थे हम सब एक लंबी यात्रा के कारण काफी थक चुके थे और रात भी अपनी काली चादर ओढ़ते हुए दस्तक देने लगी थी। ऐसे में यहाँ की सुनसान सड़कों पर सफर करना थोड़ा खतरनाक हो सकता था। थोड़ा आगे जाने के बाद हमे रास्ते में नामेरी पर्यावरण शिविर का एक तख़्ता दिखा और हमने वहाँ पर जाने का निश्चय कर लिया। शुक्र है कि यह पर्यटन का मौसम नहीं था, जिसकी वजह से हमे यहाँ पर रहने की जगह मिल गयी और हम सब रात को यहीं पर रुक गए।

पर्यावरण शिविर एक ऐसी जगह है जहां पर कोई भी निसर्ग प्रेमी जरूर रहना पसंद करेगा। लेकिन एक बात है कि यहाँ पर भिनभिनानेवाले मच्छरों से आपको अपनी रक्षा स्वयं ही करनी पड़ती है। यहाँ पर बहुत ही सुंदर झोपड़ियाँ और तम्बू हैं और उन्हीं से जुड़कर उनके स्नानकक्ष बनवाए गए हैं। इनके पास ही एक खुला मैदान है जहाँ पर लकड़ी के लट्ठों से बनी बैठकें और रंगबिरंगी झूले हैं। यहाँ पर एक भोजनालय भी है जहाँ पर साधारण लेकिन पौष्टिक भोजन परोसा जाता है। इस भोजनालय में यहाँ-वहाँ उद्यान से जुड़ी जानकारी प्रदर्शित की गयी है। यह संपत्ति किसी पुरानी मछली पकड़ने वाली समिति की है जो आज भी यहाँ से संचालित होती है।

जंगलों की सैर

दूसरे दिन सुबह-सुबह हम सब चलते हुए जिया–भोरोली नदी (और उसकी उप-नदियां यानी डीजी, दिनाई, डोईगुरुंग, नामेरी, डिकोराइ, खारी आदि) के किनारे चले गए जो नामेरी राष्ट्रीय उद्यान से आड़े-तिरछे तरीके से होते हुए गुजरती है। यहाँ पर एक कीचड़वाला मार्ग है, जिसमें बने हुए पैरों के निशान ये साफ बता रहे थे कि अभी कुछ घंटों पहले ही यहाँ से एक हाथी गुजरा था।

हमे इसी मार्ग के आधार पर आगे बढ़ने के लिए कहा गया था और जंगल में जाने से मना किया गया था। हमने हमारे गाइड की इस सलाह का पूरी तरह से पालन किया। इतनी सुबह-सुबह नदी का यह पूरा नज़ारा सचमुच बहुत ही सुखदायक था। कलकल बहता हुआ नदी का साफ नीला पानी, किनारे पर पड़े हुए पत्थर, नदी पार करती हुई एक नाव और वहाँ पर मौजूद कुछ लोग। यह सबकुछ जैसे किसी खूबसूरत सपने की भांति लग रहा था।

ऐसे वातावरण में नदी के किनारे किसी बड़े से पत्थर पर बैठकर पानी में पाँव डुबोना और बालों के साथ खेलती ठंडी हवा का आनंद लेना, ये सारे पल जैसे इस पूरी यात्रा को और भी खूबसूरत बना रहे थे। यहाँ पर आकर आप जैसे अपनी सारी मुश्किलें भूल जाते हैं और सिर्फ इस मंत्रमुग्ध कर देनेवाले वातावरण में खो जाना चाहते हैं और इस पल को पूरी तरह से जीना चाहते हैं। अगर आपकी किस्मत अच्छी हुई तो आपको नदी के उस पार कुछ जंगली जानवर भी दिखाई दे सकते हैं। इस वक्त मुझे अपनी दूरबीन की बहुत ज्यादा याद आ रही थी। ये पल मेरी पूरी उत्तर पूर्वीय भारत की यात्रा के सबसे शांतिपूर्ण और यादगार पल थे।

उद्यान और आस-पास के जगहों की सैर   

आपको इस उद्यान के आस-पास की जगहें जरूर देखनी चाहिए। वहाँ पर एक छोटा सा मंदिर है जो एक सुंदर से पेड़ की छाया में खड़ा है। उज्वलित लाल रंग का यह पेड़ यहाँ के पूरे हरे-भरे परिदृश्य को और भी आकर्षक बनाता है। यहाँ पर एक मत्स्य पालन केंद्र भी है जहाँ पर मछलियों की नयी-नयी जातियों को लाकर उनका पोषण किया जाता है। इसी के साथ उन मछलियों पर संशोधन भी किया जाता है और फिर उसका दस्तावेजीकरण किया जाता है। बाद में संशोधन पूर्ण होने के पश्चात इन मछलियों को नदी में छोड़ दिया जाता है।

यहाँ पर रंगबिरंगी तितलियाँ और पक्षी भी हैं जो आपको उन्हें अपने कैमरे में कैद करने के लिए लुभाते हैं, लेकिन वे इतनी आसानी से आपकी पकड़ में नहीं आते। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक आवासशाला भी है जो 12-15 लोगों एक साथ अपनी छत्रछाया में ले सकता है, ताकि लोगों को कोई असुविधा ना हो। पर्यटन के मौसम में आप चाहे तो यहाँ पर रिवर राफ्टिंग के लिए जा सकते हैं, मछली भी पकड़ सकते हैं और वहाँ के जंगली प्राणियों को देखने के लिए आरक्षित क्षेत्रों में भी जा सकते हैं।

मुझे तो लगता है कि वन्यजीवन के सरगर्मों को एक बार तो नामेरी राष्ट्रीय उद्यान जरूर जाना चाहिए।

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देवी बूढ़ी नागिन सेरोलसर सरोवर की संरक्षक https://inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/ https://inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/#respond Wed, 11 Dec 2024 02:30:47 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3731

एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है […]

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एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जिसमें गाय को हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग माना जाता है।

जब जब हमारे परिवार में गौमाता का प्रसूतीकरण होता था, तब तब मैंने अपनी माता एवं दादीजी को इस परंपरा का पालन करते हुए देखा है। बछड़ा दूध पी ले, उसके पश्चात बचा हुआ दूध एकत्र कर उससे घी बनाया जाता था तथा उस घी को एक पृथक बर्नी में सुरक्षित रखा जाता था। उस बर्नी के घी को खाने की अनुमति किसी को नहीं होती थी। मैंने अपनी दादीजी से इसका कारण जानने का प्रयास किया। उन्होंने मुझे बताया कि गौमाता के प्रथम दूध से निर्मित घी को सेरोलसर सरोवर की संरक्षिका देवी बूढ़ी नागिन के लिए पृथक रखा जाता है।

बूढ़ी नागिन की कथा

बूढ़ी नागिन के नाम से प्रसिद्ध देवी को नवदुर्गा का अवतार माना जाता है। बूढ़ी नागिन हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में सेराज क्षेत्र में रहती थी। विवाह के पश्चात वे सुकेत क्षेत्र में चली गईं जो अब हिमाचल के करसोग जिले में है।

बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश
बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश

एक समय बूढ़ी नागिन उनके क्षेत्र से बहती सतलज नदी के तट पर गयी। अपने घर से चलने से पूर्व उन्होंने अपनी माता से कहा था कि उनके लौट आने से पूर्व वे उनकी संतानों को निद्रा से ना जगायें। उस समय उनकी संतानें रसोईघर में रखी एक टोकरी में भूसे के ऊपर निद्रामग्न थे। आपको यह पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा किन्तु उस काल में पालने का प्रचलन नहीं था। माता अपनी संतान को टोकरी में भूसे के ऊपर ही सुलाती थी।

जब दीर्घ काल तक भी बूढ़ी नागिन की संतानें निद्रा से जागी नहीं तो उनकी माता चिंतित हो गयी। बूढ़ी नागिन के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने उन संतानों के ऊपर से कंबल हटाया। कंबल हटाते ही वे भौंचकी रह गईं। टोकरी में ५-६ सर्प थे। सर्पों को देखते ही भयवश उन्होंने चूल्हे की राख उन पर बिखेर दी। सभी सर्प इधर-उधर भाग गये।

जब बूढ़ी नागिन वापिस आयी, उन्हे उनकी संतानें कहीं नहीं दिखीं। संतानों से बिछड़ जाने पर वो अत्यंत दुखी हो गयी और उन्होंने गाँव का त्याग कर दिया।

बूढ़ी नागिन की स्मृति में भुईरी गाँव स्थित उनके निवासगृह में उनका एक लघु शैल विग्रह रखा गया है तथा उसकी पूजा आराधना की जाती है। बूढ़ी नागिन के छोटे से गृह का ना तो पुनर्निर्माण किया जा सकता है, ना ही उसका पुनरुद्धार किया जा सकता है।

बूढ़ी नागिन अपने गृह का त्याग कर सेरोलसर सरोवर पहुँची जो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में बंजर घाटी में जालोरी दर्रे के समीप स्थित है।

नाग आराधना

ऐसी मान्यता है कि बूढ़ी नागिन नाग देवताओं की माता है। इस क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की मान्यताओं के अनुसार नाग का संबंध भगवान शिव से है। प्रत्येक नाग का स्वयं का क्षेत्र एवं गाँव है जिनका नाम उन्ही पर रखा गया है, जैसे चौवासी नाग, हुंगरू नाग तथा झाकड़ नाग।

इन गांवों में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है जिनकी वास्तुशैली हिमाचली है। इनमें काष्ठ का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। काष्ठ पर अप्रतिम उत्कीर्णन होते हैं। प्रत्येक वर्ष मंदिरों के पुरोहित तथा गाँववासी इन मंदिरों का भ्रमण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नाग देवता भी इन सभी मंदिरों में भ्रमण करते हैं। भक्तगण नागों को विविध वस्तुएं अर्पण करते हैं। स्थानीय कलाकार हिमाचली शैली में लोकनृत्य भी करते हैं जिसे नटी कहते हैं।

सेरोलसर सरोवर एक तृण आच्छादित सुंदर भूभाग के मध्य स्थित है। यहाँ से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है। आप यहाँ से चारों ओर दृष्टिगोचर पर्वत शिखरों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर की आभी चिड़िया

स्थानीय लोककथा के अनुसार बूढ़ी नागिन अपने गाँव का त्याग कर सेरोलसर आ गयी तथा एक विशाल शिला पर बैठ गयी। यहाँ ६० योगिनियाँ थीं जिन्हे इंद्रदेव की पौरी कहते हैं। कुछ योगिनियाँ मंडी में शिकारी देवी के पास जा रही थीं तो कुछ जालोरी जोत  जा रही थीं। उन्होंने बूढ़ी नागिन को वहाँ बैठे देखा। योगिनियाँ उनके पास गयीं तथा उन्हे खेल खेलने के लिए आमंत्रित किया।

उन्हे लगा कि नागिन बूढ़ी है इसलिए उन्हे आसानी से परास्त किया जा सकता है। खेल से पूर्व कुछ नियम निर्धारित किये गये। यदि खेल में बूढ़ी नागिन विजयी होती हैं तो वे इस स्थान को अपने पावन स्थल के रूप में स्वीकार करेंगी। यदि योगिनियाँ विजयी होती हैं तो बूढ़ी नागिन यह स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाएंगी।

क्रीडा के मध्य एक योगिनी ने छल किया। यह देख बूढ़ी नागिन क्रोधित हो उठी। उन्होंने उसे श्राप दिया कि वो सदा के लिए एक छोटा पक्षी बन जाए। बूढ़ी नागिन ने उस पक्षी को सेरोलसर की स्वच्छता करते रहने का कार्य सौंप दिया। उस पक्षी को आभी चिड़िया कहते हैं।

बूढ़ी नागिन उस खेल में विजयी हुई तथा सदा के लिए यहीं बस गयी। बूढ़ी नागिन ने जब अपने निवास एवं गाँव का त्याग किया था, वे अपने साथ एक कलश ले कर चली थीं। सेरोलसर में भ्रमण करते समय उनके हाथ से वह कलश छूट गया तथा उससे निकले जल से यहाँ एक सरोवर की उत्पत्ति हुई। वही सेरोलसर सरोवर बना।

जिस शिला पर बूढ़ी नागिन बैठे हुई थी, उस शिला को काला पत्थर कहते हैं।

पांडव कथा

पांडव अपने वनवास काल में जालोरी दर्रे पर पहुँचने के पश्चात सेरोलसर सरोवर आये थे। उन्होंने सरोवर के निकट धान की खेती आरंभ की। ऐसा कहा जाता है कि बूढ़ी नागिन ने सरोवर से प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिए तथा पुनः सरोवर में अन्तर्धान हो गयी।

सरोवर पांडवों ने सरोवर से बूढ़ी नागिन का विग्रह निकालकर उसे सरोवर के निकट स्थापित किया। सरोवर के तट पर उनके लिए एक मंदिर का निर्माण किया। कालांतर में इस मंदिर के नवीनीकरण के चार आवर्तन हुए। मंदिर की वर्तमान संरचना चौथे नवीनीकरण का परिणाम है।

बूढ़ी नागिन मंदिर में शुद्ध घी का अर्पण

मंडी एवं कुल्लू क्षेत्रों के सभी नाग देवताओं की माता, बूढ़ी नागिन को गायों से अत्यंत प्रेम था। इसलिए भक्तगण जब भी बूढ़ी नागिन के दर्शन के लिए उनके मंदिर जाते हैं तब अपने संग उनके लिए गाय के दूध का घी भी ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि आप इस मंदिर में घी का अर्पण करें तो वह घी सीधे सरोवर के मध्य पहुँच जाता है जहाँ बूढ़ी नागिन निवास करती हैं।

प्राचीन बूढी नागिन मंदिर
प्राचीन बूढी नागिन मंदिर

भक्तगण मंदिर में कई किलोग्राम घी का अर्पण करते हैं। प्रत्येक वर्ष, विशेष अवसरों पर इस क्षेत्र के सभी नाग बूढ़ी नागिन से भेंट करने यहाँ अवश्य आते हैं। इन विशेष अवसरों की घोषणा यहाँ के स्थानीय पुरोहित करते हैं।

शीत ऋतु में भीषण हिमपात के कारण यह मंदिर बंद रहता है।

और पढ़ें: महान हिमालय पर १० सर्वोत्तम पुस्तकें

सेरोलसर सरोवर के गूढ़ रहस्य

सेरोलसर सरोवर की गहराई किसी को ज्ञात नहीं है।

सेरोलसर सरोवर से संबंधित एक अन्य रहस्यमयी कथा भी है। एक समय एक ब्राह्मण अपने परिवार के संग सरोवर के आसपास पदभ्रमण कर रहा था। अकस्मात ही वह फिसल कर सरोवर में गिर गया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे बचाने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे असफल रहे। उन्हे ब्राह्मण के बिना ही लौटना पड़ा। महद आश्चर्य कि तीन वर्षों पश्चात वह ब्राह्मण सरोवर से पुनः अपने निवास लौट आया। बूढ़ी नागिन ने उसे शपथबद्ध किया था कि वह उनके विषय में किसी से नहीं कहेगा।

ब्राह्मण के परिवारजन उनसे अनवरत प्रश्न करते रहे, ‘तुम कहाँ गये थे?’, ‘तुम बचे कैसे?’, ‘तुम्हें किसने बचाया?’ आदि। अंत में ब्राह्मण के धैर्य का बांध टूट गया तथा उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त का बखान कर दिया। उसने बताया कि जैसे ही वह सरोवर में गिरा, वह सीधे सरोवर के तल में जा पहुँचा। वहाँ बूढ़ी नागिन ने उसकी रक्षा की। उसने यह भी जानकारी दी कि सरोवर के तल पर बूढ़ी नागिन अपने स्वर्ण महल में निवास करती है। यह भी बताया कि उसने वहाँ दूध के अनेक पात्र देखे। बूढ़ी नागिन वहाँ दही भी बिलोती है।

जैसे ही ब्राह्मण के मुख से इस घटना का सत्य प्रकट हुआ, उसकी मृत्यु हो गयी। इसके पश्चात सरोवर पर गाँववासियों का ताँता लग गया। सभी गाँववासियों को कुछ ना कुछ रहस्यमयी एवं भीतिदायक अनुभव हुए। इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला गया कि कदाचित बूढ़ी नागिन इस सरोवर को मानवी क्रियाकलापों से अछूता रखना चाहती हैं। कदाचित वे इस सरोवर को अनवरत स्वच्छ रखना चाहती हैं। मैंने देखा कि वास्तव में यह सरोवर अत्यंत स्वच्छ है। मैंने एक पत्ता भी सरोवर के जल में नहीं देखा।

और पढ़ें: भारत के १२ सर्वाधिक सुंदर सरोवर

जालोरी दर्रा

करसोग का सुकेत क्षेत्र कुल्लू जिले में बंजर घाटी के जालोरी दर्रे से लगा हुआ है। कुल्लू एवं शिमला जिलों को जोड़ते अनेक दर्रों में से जालोरी भी एक मुख्य दर्रा है। इस दर्रे की रचना शिमला से कुल्लू जाने के लिए अंग्रेजों ने की थी। यह दर्रा कुल्लू जिले में स्थित है।

जलोरी दर्रा समुद्र तल से लगभग २००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। भीषण हिमपात के कारण शीत ऋतु में यह दर्रा बंद रहता है। कुल्लू जिले में स्थित बंजर घाटी एक सुंदर पर्यटन स्थल भी है जो अपारंपरिक पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है।

कुल्लू जिला तीन प्रमुख घाटियों में विभाजित है, तीर्थन, बंजर एवं सैंज घाटी। जालोरी दर्रा एक सुंदर मार्ग है जो एक ओर जीभी गाँव की ओर जाता है तो दूसरी ओर अन्नी गाँव जाता है। यह देवदार के सघन मनमोहक वन से घिरा हुआ है।

जालोरी दर्रे के दूसरी ओर स्थित कुल्लू का अन्नी क्षेत्र भी लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह सेब के उद्यानों के लिए प्रसिद्ध है। सेबों की फसल आने पर यह क्षेत्र अत्यंत मनमोहक व आकर्षक हो जाता है। आप यहाँ सेबों को सीधे वृक्षों से तोड़कर खाने का भी आनंद ले सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा

क्या आप अपने दैनंदिनी नगरी दिनचर्या से उकता गये हैं? आपके लिए सर्वोत्तम आनंद होगा, प्रकृति से जुड़ना। इसीलिए मेरा आग्रह  है कि आप हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में पदभ्रमण करें तथा स्वच्छ पर्यावरण का आनंद उठायें। जालोरी दर्रे में स्थित सेरोलसर सरोवर तक ५ किलोमीटर की पदयात्रा एक नितांत रोमांचक तथा आनंददायी अनुभव है।

यह एक सरल पदयात्रा है। देवदार तथा वटवृक्षों से आच्छादित वनों के मध्य से प्रगत यह एक सीधा मार्ग है जिस पर चलकर आप सरोवर तक पहुँचते हैं। चारों ओर स्थित सुंदर पर्वत एवं उनके मध्य होते सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्य आपको आनंदविभोर कर देंगे।

प्रत्येक ऋतु में यह मार्ग भिन्न भिन्न आनंद प्रदान करता है। विशेषतः ग्रीष्म ऋतु में यह मार्ग विविध रंगों से परिपूर्ण होता है। वृक्षों के तने चटक रंगों के सेवार से ढँक जाते हैं। आप यहाँ दुर्लभ प्रजातियों के पुष्प, वनस्पतियाँ, औषधियों के पौधे व वृक्ष आदि देख सकते हैं। ऊँचे ऊँचे देवदार के वृक्ष मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

यात्रा सुझाव

  • जालोरी दर्रे के निकट आश्रय के लिए अनेक होमस्टे अथवा घर हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होते हैं। जलोरी दर्रे के मैदानी क्षेत्रों में तंबू-निवासों की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।
  • जालोरी दर्रा शिमला से कुल्लू जाते मार्ग पर स्थित है। यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँचा जा सकता है।
  • सेरोलसर सरोवर की यात्रा करने के लिए वसंत ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम हैं।
  • सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा कुल ५ किलोमीटर की है।
  • पदयात्रा का स्तर ‘सरल’ श्रेणी के अंतर्गत है।
  • शिमला से जलोरी दर्रे की दूरी लगभग १५८ किलोमीटर है जिसके लिए सड़क मार्ग द्वारा चौपहिया वाहन से सामान्यतः ५ घंटे लगते हैं।
  • जालोरी दर्रे से निकटतम गाँव जीभी है जो १२ किलोमीटर दूर स्थित है।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह यात्रा संस्करण पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कॉलरवाली बाघिन – पेंच राष्ट्रीय उद्यान की रानी https://inditales.com/hindi/collarwali-baghin-pench-rashtriya-udyan/ https://inditales.com/hindi/collarwali-baghin-pench-rashtriya-udyan/#comments Wed, 27 Nov 2024 02:30:29 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3723

मध्य भारत के सघन वनों में बाघों का साम्राज्य है। वे अपने मनोहारी रूप द्वारा पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। यूँ तो पर्यटकों को उनके साम्राज्य में उन्मुक्त विचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है, किन्तु वे पर्यटकों के लिए निर्दिष्ट मार्गों पर स्वयं आकर उन्हें अनुग्रहित करते हैं। उनका चित्ताकर्षक मनमोहक रूप हमें इस […]

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मध्य भारत के सघन वनों में बाघों का साम्राज्य है। वे अपने मनोहारी रूप द्वारा पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। यूँ तो पर्यटकों को उनके साम्राज्य में उन्मुक्त विचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है, किन्तु वे पर्यटकों के लिए निर्दिष्ट मार्गों पर स्वयं आकर उन्हें अनुग्रहित करते हैं। उनका चित्ताकर्षक मनमोहक रूप हमें इस प्रकार सम्मोहित कर देता है कि हम उनके पुनः पुनः दर्शन करने के लिए आतुर हो जाते हैं। जैसे कान्हा का लोकप्रिय मुन्ना बाघ। बांधवगढ़ में भी बाघों के दर्शन की पक्की संभावना रहती है।

बाघ एक स्वच्छंद वन्यप्राणी है। वह हमें दर्शन दे अथवा नहीं, यह पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। कुछ सफारी भ्रमणों में हमें इनके दर्शन नहीं हो पाते हैं। बांधवगढ़ में मेरा ऐसा ही अनुभव रहा था। बाघ मुझसे लुका-छिपी का खेल खेलते रहे। किन्तु निराश होने के स्थान पर मैंने जंगल को निहारने का निश्चय किया तथा उसके अन्य आयामों को अनुभव किया। विविध प्रकार के वृक्षों एवं वन्य प्राणियों के दर्शनों का आनंद उठाया। जंगल के भीतर स्थित बांधवगढ़ का दुर्ग भी मेरे लिए एक आश्चर्यजनक खोज थी। मेरा सुझाव है कि आप जंगल में एक से अधिक सफारी भ्रमण करने का प्रयास करें जिससे बाघों के दर्शन की संभावना बढ़ जाती है तथा आप जंगल के अन्य आकर्षणों का भी अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में बाघ दर्शन की तीव्र अभिलाषा होते हुए भी मैंने अपने मन की पूर्व तैयारी कर रखी थी कि कदाचित यहाँ भी बाघ मुझ से लुका-छिपी खेलें। किन्तु संभवतः वे मेरी व्याकुलता को भांप गए तथा उन्होंने मुझे मन भर कर दर्शन देने का निश्चय किया। सोने पर सुहागा! मेरे समक्ष पेंच राष्ट्रीय उद्यान की सर्वाधिक लोकप्रिय कॉलरवाली बाघिन अपने शावकों के साथ गर्व से विचरण कर रही थी।

कॉलरवाली बाघिन - पेंच राष्ट्रीय उद्यान
कॉलरवाली बाघिन – पेंच राष्ट्रीय उद्यान

कॉलरवाली बाघिन एवं उसके शावकों ने हमारे सफारी भ्रमण मार्ग को अनेक बार पार किया। प्रचुर दर्शनों से उन्होंने मुझे अभिभूत कर दिया था। मुझमें साहस होता व उसकी अनुमति होती तो मैं उनके समीप जाकर उन्हें गले से लगा लेती तथा अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती। किन्तु उन्हें दूर से ही धन्यवाद कहना उचित है तथा मैंने वही किया।

कॉलरवाली बाघिन की वंशावली

कॉलरवाली बाघिन का नाम ऐसा इसलिए पड़ा क्योंकि सन् २००८ में उसके गले में रेडियो कॉलर या अनुवर्तन पट्टा डाला हुआ है। बाघिन के गले में यह पट्टा तब डाला गया था जब वह स्वयं एक शावक थी। इस पट्टे के द्वारा उसके अनुगमन पर दृष्टि रखी जाती थी। अब यह पट्टा दीर्घकाल से निर्जीव हो चुका है किन्तु वह अब भी बाघिन के गले में लटका हुआ है। यहाँ तक कि यह पट्टा उसकी पहचान बन चुका है।

कालरवाली बाघिन अपने शिशुओं के साथ
कालरवाली बाघिन अपने शिशुओं के साथ

कॉलरवाली बाघिन जन्म सन् २००५ में हुआ था। वह एक काल में लोकप्रिय बाघिन, ‘बड़ी माता’ की पुत्री है। उसके पिता को टी-१ तथा पेंच का चार्जर कहा जाता था। कॉलरवाली बाघिन ने अपनी माता के क्षेत्र के एक बड़े भाग पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। बी बी सी के प्रसिद्ध वृत्तचित्र “Spy in the Jungle’ में इसी बाघिन की जीवनी को प्रदर्शित किया गया है। यह वृत्तचित्र सम्पूर्ण विश्व में अत्यंत लोकप्रिय भी हुआ था।

कॉलरवाली बाघिन को माताराम के नाम से भी जाना जाता है। वनीय नामकरण पद्धति के अनुसार उसे टी-१५ कहते हैं।

मैं कॉलरवाली बाघिन को पेंच के जंगलों की रानी माँ कहती हूँ क्योंकि उसने अब तक २९ बाघ शावकों को सफलतापूर्वक जन्म दिया है। सन् २००८ में उसके प्रथम शावक का जन्म हुआ था। इस संस्करण के विडियो में प्रदर्शित शावकों का जन्म सन् २०१५ में हुआ था जिसके एक वर्ष पश्चात मैंने पेंच राष्ट्रीय उद्यान में उनके दर्शन किये थे। ये उसके छठें प्रसव की संतानें हैं। तब तक उसकी २२ संतानें हो चुकी थीं।

भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि करने के लिए अनेक संस्थाएं एवं स्वयंसेवक अनवरत कार्य कर रहे हैं। उनके लिए कॉलरवाली बाघिन एक वरदान सिद्ध हुई है। वन संरक्षक अधिकारियों के अनुसार २९ शावकों को जन्म देना स्वयं में एक कीर्तिमान है। शीघ्र ही पेंच के जंगलों में उसके शावकों का राज होगा। तो अब आप बताइये, क्या कॉलरवाली बाघिन को पेंच राष्ट्रीय उद्यान की ‘रानी माँ’ कहना अतिशयोक्ति है?

पेंच की कॉलरवाली बाघिन से भेंट

पेंच का सर्वोत्तम आकर्षण कॉलरवाली बाघिन का दर्शन है। वो अपने शावकों के साथ आनंद से पर्यटकों को अपने दर्शन देती है। राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते ही वहाँ के अधिकृत गाइड अथवा परिदर्शक हमें उस समय की उसकी गतिविधियों की जानकारी देने लगते हैं। मैंने अनेक राष्ट्रीय उद्यानों में भ्रमण किया है तथा वहाँ अनेक सफारी भी की है। सामान्यतः सभी परिदर्शकों की यही शैली होती है। कदाचित वे पर्यटकों की उत्सुकता व अपेक्षाओं को चरम सीमा तक ले जाना चाहते हैं ताकि बाघिन दर्शन ना दे, तब भी हमें उसकी उपस्थिति का रोमांचक अनुभव प्राप्त होता रहे।

हमारे लॉज से आये सभी पर्यटक आश्वस्त थे कि कॉलरवाली बाघिन के दर्शन की संभावना अत्यधिक है। जून का मास चल रहा था। तपती गर्मी में तृष्णा उन्हें जल स्त्रोत तक खींच ही लायेगी, इसलिए हमने सर्वप्रथम उसे जल स्त्रोतों के समीप ही ढूँढना आरम्भ किया।

प्रसिद्ध बाघिन माँ की पुत्री के दर्शन

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में उस दिन हमारा भाग्य उन्नत था। हमारी सभी आकांक्षाएँ पूर्ण होने को थीं। कुछ ही क्षणों में हमने देखा कि एक बाघिन एक छोटे से जलाशय की ओर चली जा रही थी। झाड़ियों के झुरमुट के पीछे से पीली पट्टियाँ आगे बढ़ती हुई हमसे आँख मिचौली खेलने लगी। ऊँची-नीची भूमि पर मार्ग खोजती हुई वह जलाशय तक पहुँची। उसने जल में प्रवेश किया तथा वहीं बैठ गयी। वह जल की शीतलता का आनंद उठा रही थी।

जून की तपती सूखी उष्णता में मुझे भी उसके साथ शीतल जल का आनंद उठाने की इच्छा होने लगी थी। वह बाघिन माँ नहीं थी, अपितु उसकी एक वर्ष की आयु की पुत्री थी। जल में कुछ क्षण शीतल होने के पश्चात उसने वन में भ्रमण करने का निश्चय किया। जाते हुए उसने हम पर्यटकों की जीपों के सामने से हमारे मार्ग को पार किया। श्वास रोक कर, स्तब्ध होकर हम उसे देखते रहे। मार्ग के एक ओर से वन से बाहर आकर उसने हमारा मार्ग पार किया तथा मार्ग के दूसरी ओर वन के भीतर प्रवेश कर गयी।

कॉलरवाली बाघिन माँ के प्रथम दर्शन

कुछ क्षणों पश्चात बाघिन माँ हमारे समक्ष प्रकट हो गयी। वह भी उसी मार्ग पर चल रही थी जिस पर कुछ क्षणों पूर्ण उसकी बिटिया गयी थी। ठीक उसी प्रकार जैसे अपने बच्चों के पीछे माँएं दौड़ती हैं। वह भी जलाशय की ओर गयी, जल पिया तथा जल के समीप कुछ क्षण बैठ गयी मानो जल में स्वयं को निहारते कुछ क्षण व्यतीत करना चाहती हो। मैं जल में उसका प्रतिबिम्ब देखना चाहती थी तथा उसके प्रतिबिम्ब के साथ उसका चित्र लेना चाहती थी। किन्तु उसके व हमारे बीच की दूरी तथा प्रतिकूल दिशा होने के कारण वह संभव नहीं हो पाया। कुछ क्षण शान्ति से बैठी माँ को निहारना अत्यंत सुखद था। अचानक जैसे उस माँ को अपनी बिटिया का ध्यान आ गया हो, वह उठी तथा बिटिया की दिशा में आगे बढ़ गयी। कुछ समय के उपरांत माँ व बेटी दोनों साथ साथ चलने लगे।

बाघिन माँ का आकार उस मुन्ना बाघ की तुलना में छोटा था जिसे मैंने गत वर्ष कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में देखा था। मेरे परिदर्शक ने बताया कि बाघ व बाघिन के आकारों में भिन्नता अत्यंत सामान्य है।

हम सब के मुखड़ों पर प्रसन्नता व संतोष का भाव स्पष्ट उमड़ रहा था, मानो पेंच यात्रा का समूचा उद्देश्य पूर्ण हो गया हो।

दूसरी भेंट

दूसरे दिवस प्रातः शीघ्र ही हमने राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश किया। हमने वन के अन्य विभिन्न आकर्षणों का अवलोकन करने का निश्चय किया। मुझे विशेषतः विविध पक्षियों को देखने की अभिलाषा थी। वन में सफारी भ्रमण करते समय मार्ग में हमने हिरणों को अठखेलियाँ करते देखा। सांभर के झुण्ड को घास चरते देखा। विभिन्न पक्षियों के दर्शन एवं उनकी चहचहाहट के स्वरों ने हमें आनंद से भर दिया। उन पक्षियों की कथा किसी अन्य दिवस सुनाऊँगी।

हम जैसे ही एक चौरस्ते पर पहुंचे, हमने देखा कि पर्यटकों की ५-६ जीपें एक पंक्ति में शांत खड़ी हैं। एक दिशा में मुड़े उन सबके कैमरों ने हमें भी उस दिशा में देखने के लिए बाध्य कर दिया। बाघिन माँ अपने दो शावकों के साथ शान से जा रही थी। शावकों में एक वही बिटिया थी जिसे हमने गत संध्या को देखा था। दूसरा शावक उसी आयु का उसका पुत्र था।

लजीला पुत्र

हमारे सफारी गाइड ने हमें बताया कि कॉलरवाली बाघिन का पुत्र किंचित संकोची है। वह मानवों से दूर ही रहना चाहता है। वहीं माँ एवं पुत्री वन में पर्यटकों की उपस्थिति से सहज हैं। वे पर्यटकों एवं उनके सफारी वाहनों को देखकर अपना मार्ग परिवर्तित नहीं करतीं। उनकी यह सहजता राष्ट्रीय उद्यान पर्यटन अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है। मानो वे इस तथ्य को समझती हैं तथा हमारी सहायता कर रही हैं। वे अत्यंत सहजता से मार्ग पर प्रकट हो जाती हैं, आपस में क्रीड़ा करती हैं ताकि उनके प्रकट होने पर जितने लोग भी निर्भर हैं, उनकी जीविका चलती रहे। जी हाँ, एक ओर जहाँ बाघ पुत्र सफारी जीपों से दूर रहकर लंबा मार्ग अपना रहा था, वहीं बाघिन माँ एवं उसकी पुत्री निडर होकर जीपों के मध्य से शान से जा रही थीं।

बाघिन एवं उसके दोनों शावक मार्ग के एक ओर वन में विचरण करते रहे तथा हमारी दृष्टि व हमारी जीपें वन की शान्ति भंग किये बिना उनका पीछा करती रहीं। वन में शांतता पालना अत्यावश्यक होता है तथा हम उसका पालन भी कर रहे थे। वन के भीतर हमें सदा वन्य प्राणियों एवं उनकी आवश्यकताओं का आदर करना चाहिए। मार्ग में अनेक स्थानों पर हमारा उनसे सामना हुआ। अंततः वे पेंच नदी को पार कर एक शिला पर बैठ गए। जून मास की गर्मी में नदी में जल की मात्रा कम थी। नदी के तल पर स्थित शिलाखंडों के मध्य से मार्ग निकालते हुए वे अपने प्रिय शिलाखंड पर पहुंचे तथा उस पर चढ़कर बैठ गए। अब उनसे विदा लेने का भी समय आ गया था।

बाघिन माँ एवं उसके दोनों शावकों ने हमें उदार दर्शन दिए थे जिसने हमें अभिभूत कर दिया था। लॉज पहुँचने तक रोमांच से हम सब स्तब्ध थे।

पेंच में किया गया रानी बाघिन एवं उसके दोनों शावकों के अद्भुत रूप का दर्शन मेरे स्मृतियों में सदा के लिए रच-बस गया है। मैं जानती हूँ कि पेंच का यह बाघ सफारी मेरे लिए दीर्घ काल तक एक सर्वोत्तम सफारी रहेगा।

कॉलरवाली बाघिन का विडियो देखें

प्रसिद्ध बाघिन माँ को अपने शावकों के साथ स्वच्छंद विचरण करते हुए इस विडियो में देखें।

कॉलरवाली बाघिन का दूसरा विडियो

कॉलरवाली बाघिन की मृत्यु

मैं अत्यंत दुःख के साथ आपको यह जानकारी दे रही हूँ कि पेंच की रानी, माताराम, कॉलरवाली बाघिन आदि नामों से सुप्रसिद्ध टी-१५ बाघिन ने १५ जनवरी २०२२ को संध्या ६.१५ बजे अपना अंतिम श्वास लिया। लगभग साढ़े सोलह वर्ष की आयु पूर्ण कर चुकी बाघिन माँ की मृत्यु वृद्धावस्था के कारण हुई। २९ शावकों को जन्म देने का कीर्तिमान स्थापित करने वाली बाघिन माँ की मृत्यु वन विभाग एवं वन्य प्राणी प्रेमियों के लिए अपूर्णीय क्षति है। सुपर टाईग्रेस मॉम के नाम से भी लोकप्रिय कॉलरवाली बाघिन ने पेंच राष्ट्रीय उद्यान का नाम सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध कर दिया है।

रविवार १६ जनवरी को पेंच राष्ट्रीय उद्यान में ही उसका अंतिम संस्कार किया गया. पेंच की रानी को हम सब की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि!

भारत के विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव अभयारण्यों में भ्रमण पर मेरे ये यात्रा संस्मरण अवश्य पढ़ें

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुमाऊँ उत्तराखंड के लोकप्रिय स्वादिष्ट व्यंजन https://inditales.com/hindi/kumaoon-uttarakhand-ke-lokpriya-vyanjan/ https://inditales.com/hindi/kumaoon-uttarakhand-ke-lokpriya-vyanjan/#respond Wed, 20 Nov 2024 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3719

उत्तराखंड राज्य अनेक प्रसिद्ध देवालयों से विभूषित होने के कारण गर्व से देवभूमि भी कहलाता है। उत्तराखंड की भूमि एवं उसके मंदिरों का समृद्ध इतिहास है। साथ ही मनोरम चित्ताकर्षक प्रकृति के कारण यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड के दो प्रमुख विभाग हैं, कुमाऊँ तथा गढ़वाल। राज्य के पूर्व में पसरे भूभाग […]

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उत्तराखंड राज्य अनेक प्रसिद्ध देवालयों से विभूषित होने के कारण गर्व से देवभूमि भी कहलाता है। उत्तराखंड की भूमि एवं उसके मंदिरों का समृद्ध इतिहास है। साथ ही मनोरम चित्ताकर्षक प्रकृति के कारण यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड के दो प्रमुख विभाग हैं, कुमाऊँ तथा गढ़वाल। राज्य के पूर्व में पसरे भूभाग को कुमाऊँ कहा जाता है जिसके अंतर्गत अनेक नयनाभिराम क्षेत्र हैं। उनमें कुछ लोकप्रिय क्षेत्र हैं, नैनीताल, रानीखेत, अल्मोढ़ा, पिथोरागढ़, जागेश्वर, मुक्तेश्वर, मुन्सियारी आदि। वहीं उत्तराखंड के पश्चिमी क्षेत्र को गढ़वाल कहते हैं। इसके अंतर्गत देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, चार धाम, चमोली जैसे लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण क्षेत्र आते हैं।

उत्तराखंड के दोनों भागों में अनेक आयामों में भिन्नता है। उनके इतिहास, परिदृश्य, परम्पराएं, संस्कृति, सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियाँ आदि भिन्न हैं। उत्तराखंड के दोनों

दोनों विभागों में अनेक प्रकार के घरेलु स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं जिनमें प्रमुखता से स्थानीय खाद्य-वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। ऐसे भी अनेक व्यंजन हैं जो मूलतः केवल कुमाऊँ अथवा केवल गढ़वाल से सम्बंधित हैं।

इंडीटेल के इस संस्करण में हम आपको कुमाऊँ के एक अत्यंत स्वादिष्ट आयाम से अवगत करायेंगे। जी हाँ, कुमाऊँ के स्थानीय स्वादिष्ट व्यंजन!

कुमाऊँ के स्वादिष्ट खाद्य

कुमाऊँ के व्यंजन बनाने में आसान हैं। ये खाद्य पदार्थ अनेक पोषक तत्वों के साथ साथ भरपूर उर्जा से परिपूर्ण होते हैं जो पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते एवं जलवायु की कठोर परिस्थितियों का सामना करते कुमाऊँनी जनमानस के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस संस्करण का ध्येय है, आप को वहां के व्यंजनों से अवगत करना ताकि आप जब भी वहां जाएँ, उनका आस्वाद अवश्य लें। यह संस्करण उनके लिए भी है जिन्हें नित-नवीन व्यंजन बनाना प्रिय है। वे इन व्यंजनों को अपने घर पर ही बनाकर उनका आनंद ले सकते हैं। निम्न दर्शित खाद्यों में अनेक ऐसे व्यंजन हैं जिन्हें उत्तराखंड के दोनों भागों में बनाया जाता है। अपने उत्तराखंड पर्यटन में इन व्यंजनों का आस्वाद लेना ना भूलें।

आलू के गुटके

आप जब भी गुजरात के दशहरे का स्मरण करें, आपके समक्ष अवश्य जलेबी व फाफडा का दृश्य उभर कर आ जाता होगा। महाराष्ट्र की होली की स्मृतियाँ आपकी जिव्हा पर पूरण-पोली का स्वाद ले आती होंगी। उसी प्रकार उत्तराखंड में हम जब भी आलू के गुटके खाएं अथवा केवल स्मरण करें, हमारे नैनों के समक्ष होली का दृश्य उभर कर आ जाता है। जी नहीं! इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप यह स्वादिष्ट व्यंजन वर्ष में केवल एक ही दिवस खा सकते हैं। आप इसे किसी भी ऋतु में तथा किसी भी समय खा सकते हैं।

कुमाऊँ का भोजन - आलू के गुटके
कुमाऊँ का भोजन – आलू के गुटके

होली के उत्सव काल में इसका स्वाद विशेष होता है। यहाँ के पहाड़ी स्थानिक इसे अत्यंत ही स्वादिष्ट, खट्टी व विभिन्न मसालों से परिपूर्ण भांग की चटनी के साथ खाते हैं। भांग की चटनी भी कुमाऊँ का एक प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ है। विभिन्न रंगों एवं स्वाद से परिपूर्ण कुमाऊँ के सुप्रसिद्ध आलू के गुटके बनाने के लिए उबले आलू के टुकड़ों को विभिन्न मसालों के साथ भूना जाता है। हिमालयीन क्षेत्रों में उपलब्ध आलुओं को ‘पहाड़ी आलू’ कहा जाता है जो आकार में बड़े होते हैं तथा मैदानी क्षेत्रों में उपलब्ध आलुओं की तुलना में अधिक स्वादिष्ट होते हैं।

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भट्ट की चुड़कानी

जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट होता है, यह भट्ट अर्थात् एक प्रकार के  काले राजमा के दानों से बनता है। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस की उत्तम उपज होती है। यह कुमाऊँ की एक महत्वपूर्ण फसल है। काले राजमा के दानों से बनी भट्ट की चुड़कानी पोषण तत्वों की धनी होते हुए भी बनाने में अत्यंत आसान है।

भट्ट के दानों को जीरे व हींग का तड़का लगाकर दाने फटने तक भूना जाता है। तत्पश्चात गेहूं या चावल का आटा, पिसा अदरक-लहसुन एवं नमक, हल्दी व लाल मिर्च जैसे अन्य मसाले डालकर भूना जाता है। इसके पश्चात पानी डालकर पकाया जाता है। धनिया की पत्ती से सजाकर चावल के साथ परोसा जाता है। यह एक आसान कृति है। आप इसे अवश्य बनाकर देखिये। यह स्वादिष्ट होने के साथ साथ पौष्टिक भी होता है। कुमाऊँवासियों को भट्ट से विशेष प्रेम है। वे इससे अनेक व्यंजन बनाते हैं।

चैंसू – उत्तराखंड का एक स्वादिष्ट व्यंजन

यह कुमाऊँ के सर्वोत्तम व्यंजनों में से एक है। इसे बनाने के लिए मूल सामग्री उड़द की डाल है। सर्वप्रथम उड़द डाल को सूखी कढ़ाई में सुगंध आने तक भूनते हैं। ठंडा होने पर दाल को दरदरा पीस लेते हैं। घी गर्म कर अदरक-लहसुन के टुकड़े, जीरा, कढ़ी पत्ते, प्याज, टमाटर एवं अन्य सूखे मसालों से छोंक लगाकर उसमें पीसी डाल डालकर भूनते हैं। पानी डालकर पकाते हैं। हरी धनिया से सजाकर गर्म चावल के साथ खाते हैं।

यह मूलतः एक गढ़वाली व्यंजन है किन्तु इसे कुमाऊँ में भी चाव से बनाया व खाया जाता है। इसमें प्रोटीन की भरपूर मात्रा होती है। इस दाल को बनाने के लिए सर्वोत्तम पात्र लोहे का होता है। इससे चैंसू अधिक स्वादिष्ट व पौष्टिक हो जाता है। यद्यपि यह शीत ऋतु में खाया जाने वाला व्यंजन है, तथापि पर्वतीय क्षेत्रों के सर्वसामान्य शीतल वातावरण के कारण वहां इसे खाने के लिए मौसम का बंधन नहीं होता है। आप जब भी उत्तराखंड जाएँ, इसका आस्वाद अवश्य लें।

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सना हुआ नींबू मूली/ नींबू सान

शीत ऋतु में प्रत्येक पर्वतीय निवासी की यह हृदयपूर्वक अभिलाषा रहती है कि वह कड़ाके की ठण्ड में बाहर बैठकर धूप सेंके तथा यह सना हुआ नींबू खाए। शीत ऋतु में खाने योग्य यह एक ऐसा नाश्ता है जिसका स्मरण मात्र भी मुंह में पानी ले आता है। इसे बनाने के लिए बड़े आकार के नींबू का प्रयोग किया जाता है जो उत्तराखंड में ही उगाया जाता है। इसमें मूली, दही, भांग का चूर्ण एवं नमक मिलाया जाता है। खट्टे व नमकीन स्वाद से युक्त यह व्यंजन सभी उत्तराखंडियों को अत्यंत प्रिय है। पोषक तत्वों से भरपूर इस व्यंजन का आस्वाद आप शीत ऋतु में अवश्य लें।

भटिया/भट्ट का जौला

आप मुझसे पूर्णतः सहमत होंगे कि कोई भी भारतीय नमकीन व्यंजन मसालों के बिना अधूरा होता है। किन्तु आज में आपको एक ऐसे व्यंजन के विषय में बताने जा रही हूँ जिसे मसालों के बिना बनाया जाता है। जी हाँ, भटिया।

इसे बनाने के लिए केवल दो वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, भट्ट अथवा काला राजमा तथा चावल। जौला में नमक व मसाले नहीं डाले जाते हैं। इसे अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए इसे कढ़ी, जीरा-नमक अथवा ‘हरा धनिया नमक’ के साथ परोसा जाता है। यह मेरा सर्वप्रिय व्यंजन है। इसे मैं कभी भी व कहीं भी खा सकती हूँ।

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पालक का कापा

पालक का कापा अथवा कापा एक अत्यंत पौष्टिक पालक की तरी अथवा रस्सा है जिसे बनाना भी आसान है। सामान्यतः जब हम हरी सब्जियां पकाते हैं, उसकी पौष्टिकता एवं रंग कुछ मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। किन्तु कापा में पालक को अधिक नहीं पकाया जाता है। अतः उसमें पोषकता नष्ट नहीं होती है। साथ ही उसका हरा रंग भी बना रहता है जो परोसते समय अत्यंत लुभावना प्रतीत होता है। इसे बनाने के लिए तेल गर्म कर जीरा, अदरक, हरी मिर्च व अन्य मसाले का बघार लगा कर उसमें चावल का आटा भूनते हैं। बारीक कटी पालक व पानी डालकर रस्से को पकाते हैं। इसे भी गर्म चावल के साथ खाया जाता है। पालक का कापा सामान्यतः शीत ऋतु में बनाया जाता है क्योंकि पहाड़ी पालक उन्ही दिवसों में उगता है। किन्तु आपको जब भी पालक उपलब्ध हो, आप इसे पकाकर खा सकते हैं। इसी प्रकार का एक अन्य पदार्थ है, कौफुली।

बाल मिठाई तथा सिंगोड़ी – कुमाऊँ के लोकप्रिय व्यंजन

आप सोच रहे होंगे कि मैं अनवरत आपसे कुमाऊँ के मसाले युक्त नमकीन व्यंजनों के विषय में ही चर्चा कर रही हूँ। क्या कुमाऊँ में मिष्ठान्न नहीं बनते? अवश्य बनते हैं। किसी भी स्थान के विशेष व्यंजनों की सूची तब तक सम्पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक उसमें वहां की मिठाई तथा अन्य मीठे व्यंजनों का समावेश ना हो। उसी सूची में मैं बाल मिठाई एवं सिंगोड़ी के नाम सम्मिलित करना चाहती हूँ जो पहाड़ी मिष्टान्न हैं। आप इन्हें विशेष अवसरों पर अवश्य बनाएं, खाएं एवं खिलाएं।

बाल मिठाई
बाल मिठाई

सिंगोड़ी को खोया, शक्कर एवं कसे हुए नारियल से बनाया जाता है। तीनों सामग्रियों को पकाकर एवं इलायची से सुगन्धित कर इस मिठाई को बनाया जता है। मालू के पत्ते को तिकोन आकार में मोड़कर उसमें यह मिठाई भरी जाती है। इससे पत्तों की सुगंध मिठाई में समा जाती है।

बाल मिठाई भीतर से भूरे चोकलेट जैसी दिखाई देती है जिस पर शक्कर के गोल दाने लपेटे जाते हैं। खोये को चीनी के साथ तब तक पकाया जाता है जब तक वह भुनकर भूरे रंग का ना हो जाए। तत्पश्चात चौकोर टुकड़ों में काटकर उस पर शक्कर के छोटे गोलाकार दानों को लपेटते हैं।

उत्तराखंड के इन दोनों मिष्टान्नों का आस्वाद लेना चाहें तो अल्मोड़ा सर्वोत्तम स्थान है जो कुमाऊँ क्षेत्र के अंतर्गत एक जिला है। बच्चे एवं बड़े, दोनों इन्हें चाव से खाते हैं। यदि आप घर पर बैठे बैठे ही उत्तराखंड का आनंद लेना चाहते हैं तो इन्हें घर पर ही बनाएं। इन्हें बनाने की विधियां आसान हैं।

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डुबुक/ डुबके

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की गोद से उभरा यह व्यंजन डुबुक प्रमाणिक रूप से एक पारंपरिक व्यंजन है जिसे डुबके भी कहा जाता है। यह एक पतली दाल होती है जिसे गहत/कुल्थी की दाल अथवा भट्ट से बनाया जाता है। इसे अन्य दालों से भी बना सकते हैं, जैसे अरहर, चना, मूंग आदि। इनके अतिरिक्त इसमें जीरा, मेथी के दाने, हिंग, प्याज, लहसुन तथा नमक, हल्दी व लाल मिर्च जैसे अन्य मसाले डाले जाते हैं। यह पर्वतों के तराई क्षेत्र के लोगों द्वारा शीत ऋतु में खाया जाने वाला व्यंजन है जिसे वे गर्म चपाती अथवा गर्म चावल के साथ खाते हैं।

डुबुक पकाने के लिए डुबुक की दाल को रात्र भर पानी में भिगोकर प्रातः उसे मोटा मोटा पीसते हैं। तेल गर्म कर प्याज व अन्य मसालों का छोंक लगाकर दाल को लोहे के पात्र में पकाते हैं। आवश्यकतानुसार पतला रखते हुए हरी धनिया से सजाकर परोसते हैं। देखने में यह एक साधारण दाल प्रतीत होती है। किन्तु इसका स्वाद चखते ही आपकी धारणा परिवर्तित हो जायेगी, यह मेरा विश्वास है।

भांग की चटनी

आप सब ने भांग के विषय में यह सुना ही होगा तथा चित्रपटों में देखा होगा कि कुछ लोग इसे ठंडाई में डालते हैं। आपने यह नहीं सुना होगा कि भांग की चटनी भी बनती है। भांग की चटनी उत्तराखंड में लोकप्रिय है। इसे भांग के गुणकारी बीजों द्वारा बनाया जाता है। इसे बनाने की विधि आसान है। भांग के बीजों को सूखी कढ़ाई में भूना जाता है। तत्पश्चात उन्हें हरी मिर्च, नींबू का रस, पुदीने की पत्तियाँ, हरी धनिया, साबुत लाल मिर्च एवं जीरे के साथ पीसा जाता है। नमक मिलाकर चाट-पकोड़ी के साथ परोसा जाता है।

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मडुआ की रोटी

मडुआ की रोटी उत्तराखंड में खाई जाने वाली एक पौष्टिक व स्वादिष्ट रोटी है। इसका नाम जितना क्लिष्ट है, इसे बनाना उतना ही आसान है। उत्तराखंड के कुमाऊँ में रागी को मडुआ कहा जाता है। विभिन्न पोषक तत्वों से परिपूर्ण रागी की प्रकृति उष्ण होती है। इसीलिए इसे शीत ऋतु में खाया जाता है। मडुआ की रोटी को बाजरे की रोटी के समान बनाया जाता है। इसमें गाजर, हरी मिर्च, हरे प्याज, दही, नमक आदि डालकर भी रोटी बनाई जाती है। मडुआ की रोटी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होती है।

रास/थटवानी अथवा ठठ्वानी

रास-भात अनेक प्रकार की खड़ी दालों से बनाया जाता है, जैसे चना, भट्ट, राजमा, लोबिया तथा गहत। नाम से ही आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह एक गाढ़ा तरल व्यंजन है। इसे बनाने के लिए इन दालों को रात्र भर पानी में भिगोकर रखते हैं जिससे ये भीगकर फूल जाती हैं तथा शीघ्र पकती हैं। अब इन्हें खड़े मसाले डालकर उबालते हैं। ठंडा होने पर छानकर पानी एवं दानों को पृथक किया जाता है। लोहे की कढ़ाई में तेल गर्म कर जीरा, खड़े मसाले, प्याज, किसा अदरक, किसा लहसुन, नमक, हल्दी आदि का बघार लगाकर दालों का पानी डाला जाता है तथा एक उबाल आने तक पकाया जाता है। चावल के आटे का घोल डालकर इसे किंचित गाढा किया जाता है। ऊपर से घी एवं हरी धनिया डालकर भात के साथ परोसा जाता है।

पृथक किये गए दालों के दानों को भी जीरा, प्याज व मसालों का छोंक लगाकर रास-भात के साथ परोसा जाता है। इसमें नींबू, चाट मसाला आदि डालकर चाट के समान भी खा सकते हैं। रास थटवानी भी शीत ऋतु में खाया जाने वाला पदार्थ है। आप जब कुमाऊँ जाएँ तो इसका स्वाद अवश्य चखें। चाहें तो इसे घर पर भी बनाकर इसका आनंद उठायें।

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थेचौनी/थेचवानी

इसके नाम से ही अपने अनुमान लगा लिया होगा कि इसे ठेच कर अथवा पीसकर बनाया जाता है। थेच अर्थात् पीसना तथा वानी का अर्थ है रस्सा। इसमें मूली एवं आलुओं को सिलबट्टे अथवा खलबत्ते में कूटकर छोटे छोटे टुकड़ों में कचूमर कर लेते हैं। अदरक, लहसुन व हरी मिर्च का भी कचूमर कर लेते हैं। तेल गर्म कर उसमें पहाड़ी राई अथवा जखिया, जीरा, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन व हरी मिर्च का कचूमर व अन्य सूखे मसालों का छोंक लगाते हैं। आलू-मूली डालकर भूनते हैं। तत्पश्चात इसमें आवश्यकतानुसार पानी डालकर पकाया जाता है। बेसन अथवा चावल के आटे से गाढ़ा किया जाता है। हरी धनिया से सजाकर चपाती अथवा गर्म भात के साथ खाया जाता है।

ये हैं उत्तराखंड, विशेषतः कुमाऊँ में प्रचलित कुछ पारंपरिक व्यंजन जो पहाड़ी शीतल वातावरण में शरीर को उर्जा प्रदान करते हैं तथा आवश्यक पोषक तत्व भी देते हैं। आप जब भी कुमाऊँ जाएँ, इन व्यंजनों का स्वाद अवश्य चखें। यदि आप पहाड़ों पर नहीं रहते हैं तब भी आप स्वयं इन्हें पकाकर इनका आस्वाद ले सकते हैं।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह संस्करण निकिता चंदोला द्वारा लिखा तथा इंडीटेल द्वारा प्रकाशित किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्रसिद्ध कुमारतुली कोलकाता के दक्ष मूर्तिकार https://inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/ https://inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/#respond Wed, 06 Nov 2024 02:30:18 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3712

बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत […]

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बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत में उनकी प्रतिमा का नदी में विसर्जन, ये सभी दृश्य उभर कर आ जाते हैं। हम में से अधिकाँश लोग दुर्गा पूजा के आनंद में रम जाते हैं, नवीन वस्त्र, नवीन आभूषण, स्वादिष्ट व्यंजन तथा अनेक रंगारंग कार्यक्रमों में खो जाते हैं।

दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता
दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता

यहाँ तक कि प्रतिमा की जीवंत सुन्दरता भी हमें भावविभो कर देती है। किन्तु हम में से कितने होंगे जो इन प्रतिमाओं को निहारते हुए उन मूर्तिकारों के विषय में सोचते हैं जिन्होंने ये प्रतिमाएं गढ़ी हैं। कितने लोग होंगे जो इन प्रतिमाओं के दर्शन करते समय उन मूर्तिकारों की कला की सराहना करते होंगे!

ये कोलकाता के कुमारटुली (कुम्हार टोली) क्षेत्र के कुशल मूर्तिकार हैं जिनके अनेक मास के परिश्रम के फलस्वरूप ऐसी सजीव प्रतिमाएं अस्तित्व में आती हैं।

कोलकाता कुमारटुली के मूर्तिकार

जब हम पश्चिम बंगाल में बिश्नुपुर भ्रमण पर जा रहे थे, मार्ग में हमने कोलकाता में एक पड़ाव लिया था। भ्रमण करते करते हम कुमारटुली की गलियों में भी पहुँच गए। यह क्षेत्र मूर्ति गढ़न के लिए विश्व विख्यात है, विशेषतः दुर्गा देवी की मूर्तियों के लिए । आप जैसे ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, आपको पुरातन काल का आभास होने लगेगा। मार्ग के दोनों ओर पुष्प व पुष्पहार विक्री करते विक्रेता। धीमी गति से आती-जाती ट्राम रेलगाड़ी जो इतनी धीमी गति से चलती है कि ऐसा आभास होता है मानो हम पैदल चलकर उससे आगे निकल जायेंगे। जहाँ देखें वहाँ प्रतिमा गढ़ने में मग्न मूर्तिकार। उन पुष्पों में मेरा ध्यान गहरे नीले रंग के अपराजिता पुष्पों ने खींचा। ये पुष्प देश के अन्य भागों में क्वचित ही दृष्टिगोचर होते हैं।

गणेश प्रतिमा का निर्माण
गणेश प्रतिमा का निर्माण

आश्चर्यजनक रूप से, यह सम्पूर्ण क्षेत्र सभी प्रकार की आधुनिकता एवं आधुनिक विश्व के सभी प्रकार के चिन्हों से स्पष्ट रूप से मुक्त प्रतीत हुआ। कहीं कोई आधुनिक पेय की बिक्री नहीं, कहीं कोई ऐसी ठेला गाड़ी नहीं जो अपने चमचमाते नाम पटल से ग्राहकों को आकर्षित कर रहा हो। कहीं कोई जगमगाती रोशनाई नहीं। सम्पूर्ण क्षेत्र अपने मूल रंग में ही लिप्त था।

दुकानें अत्यंत संकरी व लम्बी हैं जो दुकान के साथ साथ कार्यशाला की भूमिका भी निभाती हैं। कारीगर वहीं बैठकर मूर्तियाँ गढ़ते हैं। दुकानों की सम्पूर्ण लम्बाई में मूर्तियाँ भरी हुई रहती हैं। मूर्तिकार एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति पर जाते हुए उन पर अपने सधे हाथ चलाता है।

इन गलियों में मूर्तियों के अतिरिक्त विवाह समारोहों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की भी दुकानें हैं।

दुर्गा की प्रतिमाएं

कुमारटुली के दक्ष मूर्तिकार, जिन्हें कुमोर कहते हैं, इनके हाथों जो सर्वोत्तम मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं, वो हैं, दुर्गा देवी तथा उनके साथ दुर्गा पूजा पंडाल में विराजमान उनका सम्पूर्ण जत्था। इनके अतिरिक्त वे विश्वकर्मा, गणेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती पूजा के लिए भी मूर्तियाँ बनाते हैं।

दुर्गा प्रतिमा - कुमारतुली
दुर्गा प्रतिमा – कुमारतुली

उस समय मैंने भगवान गणेश की अनेक प्रतिमायें देखीं क्योंकि कुछ दिवसों पश्चात गणेश उत्सव मनाया जाने वाला था। कुछ कारीगर जो मुख्य मार्ग पर बैठकर कार्य कर रहे थे, वे मानव आकृतियों पर भी कार्य कर रहे थे। वे पारंपरिक मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ साथ फाइबरग्लास की मूर्तियाँ भी बना रहे थे। आप वहाँ की लगभग सभी दुकानों में रविन्द्र नाथ टैगोर की वक्षप्रतिमा सर्वव्यापी रूप से देखेंगे। उनके साथ कुछ अन्य राष्ट्रीय नेताओं की भी प्रतिमाएं हैं, जैसे इंदिरा गांधी एवं उनका परिवार।

प्रतिमाएं कैसे क्रय करें?

हमें बताया गया कि आप यहाँ आपकी रूचि के अनुसार प्रतिमाएं बनवा सकते हैं। आपको जिस व्यक्ति की प्रतिमा बनवानी है, उसका एक स्पष्ट चित्र मात्र उन्हें देना होगा । मुझे यह जानकार अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि कई लोग यहाँ से अपने माता-पिता अथवा अपने पूर्वजों की प्रतिमाएं बनवाते हैं। उन मूर्तियों की कीमत भी सामान्य ही होती है। सामान्य से सामान्य आय पाने वाले व्यक्ति भी उनका आसानी से निर्वाह कर सकते हैं। मुझे बताया गया कि यहाँ से अनेक मूर्तियाँ विदेश भी भेजी जाती हैं जिससे उन्हें उत्तम निर्यात मूल्य प्राप्त हो जाता है।

कुमारटुली की गणेश प्रतिमाएं

एक क्षेत्र में भगवान गणेश की एक समान प्रतिमाएं रखी हुई थीं जिन पर कुछ भागों पर ही रंग किया था। अधूरी रंगी हुई प्रतिमाएं भी एक समान थीं। ये प्रतिमाएं मुझे अत्यंत रोचक लगीं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कारीगर भगवान को किसी उत्सव के लिए वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत कर रहे हों। इन प्रतिमाओं पर की गयी कुछ कारीगरी इतनी सूक्ष्म एवं जटिल थीं कि यह विश्वास करना कठिन हो रहा था कि ये हाथों द्वारा मिट्टी से बनाई गयी हैं।

कुमारतुली के मूर्तिकार
कुमारतुली के मूर्तिकार

वहाँ खड़े हो कर कारीगरों के दक्ष हाथों को उन प्रतिमाओं पर चलते, उन्हें आकार देते, उन्हें रंगते व उन पर सजीव भाव उभारते हुए प्रत्यक्ष देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था। उनके आभूषण ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो असली आभूषण हों। जो प्रतिमाएं अभी रंगी नहीं गयी थीं उन पर भी मिट्टी से बने पुष्प अलंकरण एवं स्वर्ण अलंकरण में भिन्नता स्पष्ट देखी जा सकती थी। कारीगरों की यह दक्षता अचंभित कर देती है। सम्पूर्ण गली में इसी प्रकार की अर्ध-निर्मित प्रतिमाएं थीं तो आपको ही देखती हुई प्रतीत होती हैं।

इन गलियों में सभी प्रतिमाएं तब अपूर्ण थीं। किसी का शरीर मिट्टी से पूर्णतः निर्मित हो चुका था तो रंगा नहीं गया था, किसी का निचला भाग पूर्ण हो चुका था तो शीष नहीं लगा था, कुछ प्रतिमाएं पूर्ण रूप से निर्मित होकर रंगी जा चुकी थीं तो उनको वस्त्रों से सज्ज करना शेष था, वहीं कुछ प्रतिमाएं लगभग पूर्ण हो चुकी थीं, केवल उन पर आभूषण गढ़ना शेष था। गणेश प्रतिमा के साथ जाने के लिए दहाड़ मारते शेर थे तो नन्हे मूषक भी थे। अनेक अन्य प्राणी भी निर्मित किये गए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे कारीगर सम्पूर्ण सृष्टि की निर्मिती कर रहे हों।

मूल निवासियों का गाँव

इस क्षेत्र को मूल निवासियों का गाँव भी कहते हैं। यह क्षेत्र कोलकाता के दक्षिण में कालीघाट जाते हुए प्राचीन तीर्थ मार्ग का भाग है। नदी के समीप होने के कारण उन्हें मूर्तियाँ गढ़ने के लिए उत्तम स्तर की मिट्टी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अधिकतर मूर्तिकार ऐसे परिवारों से संबंध रखते हैं जो अनेक पीढ़ियों से मूर्तियाँ बनाते आ रहे हैं। मुझे यह ज्ञात नहीं कि इस कला के लिए उन सब ने पूर्व प्रशिक्षण प्राप्त किया है। मेरा अनुमान है कि वे सब अपने परिवार के अन्य सदस्यों को मूर्तियाँ बनाते देखते होंगे व उनसे ही सीखते होंगे।

गणेश प्रतिमाएं
गणेश प्रतिमाएं

सभी मूर्तियों के मध्य भाग में भूसा भरा जाता है जिसके ऊपर मिट्टी से आकार दिया जाता है। तत्पश्चात मूर्तियों को तपाया जाता है। इसके पश्चात प्रतिमाओं पर गीली मिट्टी द्वारा सूक्ष्म भाव भंगिमाएं प्रदान की जाती हैं। वस्त्र एवं आभूषण उकेरे जाते हैं। तत्पश्चात उन पर रंगाई एवं अन्य साज-सज्जा की जाती है।

सोचा जाए तो इन सभी प्रतिमाओं का निर्मिती एवं विसर्जन का एक वर्षीय चक्र चलता है। वर्ष प्रति वर्ष इन्हें जिस मिट्टी से बनाया जाता है, तत्पश्चात वे उसी मिट्टी में जाकर विलीन हो जाती हैं। वर्तमान समय में जब बंगाल की मिट्टी से बंगाल में बनी देवी की मूर्तियाँ विश्व भर के बंगाली परिवारों को भेजी जाती हैं तथा विश्व भर में विसर्जित की जाती हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि बंगाल की मिट्टी विश्व भर में जा रही है।

मुझे बताया गया कि यहाँ से मूर्ति बनवाने के लिए बहुत समय पूर्व ही बताना पड़ता है। बनी बनाई मूर्तियाँ सीधे क्रय करना क्वचित ही संभव हो पाता है।

परम्पराएं

परंपरा के अनुसार पुरातन काल में समृद्ध परिवार इन कारीगरों को अपने निवास पर आमंत्रित करते थे तथा इन कारीगरों से अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार प्रतिमाएं बनवाते थे। ऐसा कहा जाता है कि प्रतिमा बनाने से पूर्व तथा देवी की प्रतिमा पर तीसरा नेत्र बनाने से पूर्व ध्यान-अनुष्ठान किया जाता था। देवी का तीसरा नेत्र बनना मूर्ति के पूर्णत्व का संकेत होता है। देवी की शक्ति का संकेत होता है।

दुर्गा मूर्ति
दुर्गा मूर्ति

वहीं इस क्षेत्र की सादगी ने मेरा मन मोह लिया था। सभी कारीगर मूर्तियाँ बनाने में व्यस्त थे। विभिन्न चरणों में आगामी कलाकारी की प्रतीक्षा में खड़ी उन प्रतिमाओं के छायाचित्र लेने से किसी ने भी हमें रोका नहीं। इसके फल के रूप में उनकी हमसे कोई आशा भी नहीं दिखाई दे रही थी। हमने जो जो भी जिज्ञासाएं व्यक्त कीं, जो जो भी प्रश्न पूछे, उन्होंने बड़ी ही सादगी से उन सबके उत्तर दिए। हमें कहीं भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि हमारे वहाँ रहने से उन्हें किसी भी प्रकार की असुविधा हो रही हो।

कुमारतुली के पुष्प
कुमारतुली के पुष्प

मेरी अभिलाषा है कि अधिक से अधिक लोग इस स्थानीय कला के विषय में जानें, उसे देखें, इन कारीगरों के विषय में जाने व उन्हें प्रोत्साहित करें। विश्व प्रसिद्ध दुर्गा पूजा के पृष्ठभाग में की गयी इन मूर्तिकारों के परिश्रम को देखें व समझें। वहीं, मैं यह भी नहीं चाहती कि यह स्थान पर्यटकों की भीड़ से भरे। इससे इस क्षेत्र का मूल उद्धेश्य भंग हो सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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