कला ग्राम Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 18 Oct 2023 05:55:28 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.3 मिथिला बिहार की मधुबनी चित्रकला शैली – एक संदर्शिका https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/ https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/#comments Wed, 01 Nov 2023 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3313

मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी […]

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मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी जाती है।

मिथिला का संक्षिप्त इतिहास

बिहार का मिथिला क्षेत्र मुख्यतः गंगा के उत्तरी घाटों एवं नेपाल स्थित हिमालय की तलहटी क्षेत्रों के मध्य स्थित है।

मिथिला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिचय माता सीता के पीहर के रूप में दिया जाता है। मिथिला क्षेत्र को माता सीता का जन्म स्थान माना जाता है। इसी कारण उन्हें मैथिली के नाम से भी संबोधित किया जाता है। उनके पिता राजा जनक के राज्य का नाम जनकपुरी था जो वर्तमान में नेपाल का भाग है। जनकपुरी भारत-नेपाल सीमा से केवल कुछ ही किलोमीटर भीतर स्थित है।

सीता जन्म, राम सीता मिलन, राम जानकी विवाह - मधुबनी चित्रकला के विषय
सीता जन्म, राम सीता मिलन, राम जानकी विवाह – मधुबनी चित्रकला के विषय

सीता माता जिस स्थान पर शिशु रूप में प्रकट हुई थीं, वह स्थान सीतामढ़ी में है, परन्तु जिस क्षेत्र में भगवान राम से उनकी सर्वप्रथम भेंट हुई, तत्पश्चात उनसे विवाह संपन्न हुआ, वह क्षेत्र जनकपुरी में है। मिथिला चित्रों में राम-जानकी विवाह का दृश्य एक लोकप्रिय विषयवस्तु है।

मिथिला क्षेत्र की अन्य विशेषताएं हैं, यहाँ स्थित असंख्य जलाशय, उनमें तैरती विविध प्रकार की मछलियाँ जिन्हें यहाँ रूचिपूर्वक ग्रहण किया जाता है, मखाने जिनकी यहाँ प्रचुर मात्रा में खेती की जाती है, यहाँ की मधुर भाषा तथा यहाँ के आनंदमय निवासी। यह मुख्यतः एक कृषि प्रधान क्षेत्र है।

मिथिला एवं मधुबनी चित्रकला की अनमोल  धरोहर

मिथिला चित्रकला पारंपरिक रूप से एक भित्तिचित्र कलाशैली थी जो स्त्रियाँ अपने घरों की भित्तियों पर चित्रित करती थीं। वे अनुष्ठानिक चित्र हुआ करते थे जिन्हें बहुधा विवाहोत्सवों, प्रसवोत्सवों तथा अन्य पावन उत्सवों पर चित्रित किया जाता था।

मिथिला के सामान्य जन जीवन का चित्रण
मिथिला के सामान्य जन जीवन का चित्रण

मिथिला चित्रों को स्थायी रूप से चित्रित करने का उद्देश्य नहीं होता था। जब भी घर में कोई नवीन उत्सव अथवा अनुष्ठान होता था तब उन्हें पुनः नवीन रूप से चित्रित किया जाता था।

किसी भी अन्य लोककला के अनुसार मिथिला चित्रों में भी विविध कथानकों एवं प्रस्तुतीकरण शैलियों का समावेश किया जाता था। इस परंपरा से संयुक्त प्रत्येक समुदाय के स्वयं के विशेष रूपांकन आकृतियाँ एवं चिन्ह होते थे जिन्हें वे अपने चित्रों में चित्रित करते थे।

वर्तमान में मिथिला चित्रकला शैली का इस स्तर तक व्यवसायीकरण हो गया है कि अब सामुदायिक वैशिष्ठ्य लुप्त होने लगा है। अब स्थिति यह है कि कलाकारों की स्वयं की व्यक्तिगत चित्रण शैलियाँ अवश्य हैं किन्तु चित्रों के विषय, उपभोक्ता माँग द्वारा ही निर्धारित होते हैं।

मधुबनी चित्रों का आधुनिक रूप

मधुबनी चित्रों ने सर्वप्रथम मिथिला के बाहर के प्रेक्षकों का ध्यान अपनी ओर तब आकर्षित किया जब सन् १९३० में आये भूकंप के पश्चात भूकंप में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए कुछ अंग्रेज सर्वेक्षकों ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी। किन्तु मिथिला के इन मधुबनी चित्रों को मिथिला का प्रतीक बनने के लिए एक अन्य भूकंप के आने तक की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

मधुबनी चित्रकला में आधुनिक विषय
मधुबनी चित्रकला में आधुनिक विषय

सन् १९६० में आये एक अन्य भूकंप के पश्चात सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक पुपुल जयकर ने छायाचित्रकार भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी क्षेत्र में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए वहाँ भेजा। उन्होंने विचार किया कि एक नवीन व्यवसाय के रूप में यदि इन भित्ति चित्रों को अन्य माध्यमों पर भी चित्रित किया जाए तो ये भूकंप से पीड़ित किसानों के लिए उनके दुष्काल में आजीविका का एक उत्तम स्त्रोत उत्पन्न कर सकते हैं।

तब से कलाकारों ने इन चित्रों को कागज जैसे अन्य माध्यमों पर चित्रित करना आरम्भ किया जिनकी वे आसानी से विक्री कर सकते थे। विश्व स्तर पर कई प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया ताकि इस अप्रतिम कला शैली को विश्व भर में पहुँच प्राप्त हो सके। तात्कालिक विदेश मंत्री ललित नारायण मिश्र, जो इसी क्षेत्र के निवासी थे, उनके अथक प्रयास से इस कलाशैली को अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध हुआ। Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाओं ने भी इस कार्य में अपना योगदान दिया।

अर्धनारीश्वर मिथिला चित्रण में
अर्धनारीश्वर मिथिला चित्रण में

शनैः शनैः मधुबनी चित्रों ने वैश्विक कला जगत में अपने लिए एक सुदृढ़ स्थान निर्मित कर लिया। अब सम्पूर्ण विश्व में भित्ति चित्रों पर मधुबनी चित्र का भी समावेश दृष्टिगोचर होता है। चूँकि अधिकाँश देशी-विदेशी कला प्रेमियों ने मधुबनी के माध्यम से ही इन चित्रों को जाना है, इसलिए इन्हें मधुबनी चित्रकला कहा जाता है। अन्यथा पारंपरिक रूप से देखें तो ये अनुष्ठानिक कला शैली थी जिसका प्रचलन सम्पूर्ण मिथिलांचल में था।

कदाचित उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिवस सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला उनकी सांकेतिक परिचय के रूप में प्रसिद्धी प्राप्त करेगी।

मधुबनी चित्रों के विविध प्रकार

मधुबनी चित्रों को दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है।

प्रथम आधार है, जाति अथवा समुदाय। प्रत्येक चित्रकार अपने समुदाय के ऐतिहासिक धरोहरों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने पर आधारित विषयवस्तुओं को अपने भित्तिचित्रों के माध्यम से साकार करता है। किन्तु उन सभी समुदायों अथवा जातियों की कलाशैली में एक तत्व सार्व है। वे चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हों, कायस्थ हों अथवा पासवान हों, वे सभी एक ही कलाशैली में भित्ति चित्रण करते हैं। वह है, मधुबनी चित्रकला शैली।

कछनी और भरनी से अर्धनारीश्वर
कछनी और भरनी से अर्धनारीश्वर

चित्रों के विभाजन का दूसरा आधार है, चित्रकला शैली। इस आधार के तीन अवयव हैं।

कछनी शैली – इस शैली में कलाकार मुक्त हाथों से रेखाचित्र बनाते हैं।

भरनी – भरनी का अर्थ है भरना। रेखाचित्र के भीतर विविध रंगों को भरा जाता है।

मधुबनी चित्रों की रचना कछनी एवं भरनी इन दोनों के संगम से ही होती है। मधुबनी चित्रकला शैली में अधिकाँश दृश्य इन दो तकनीकों द्वारा ही साकार किये जाते हैं।

गोदना –  गोदना एक पारंपरिक कला है जो सम्पूर्ण भारत में लगभग सभी समुदायों में प्रचलित थी। इस कला में शरीर के विभिन्न अंगों पर पारंपरिक आकृतियाँ गुदवायी जाती थीं। चूँकि ये आकृतियाँ शरीर के उन भागों पर गुदवायी जाती थीं जो बहुधा ढंके हुए नहीं होते थे, जैसे हाथ, गला, मुख आदि, ये आकृतियाँ आकार में लघु होती हैं।

गोदना मधुबनी चित्रण
गोदना मधुबनी चित्रण

जब इन गुदना आकृतियों को कागज पर चित्रित करने का क्रम आरम्भ हुआ तब अनेक आकृतियों को संयुक्त कर एक चित्र बनाने की परंपरा आरम्भ हुई। गुदना आकृतियों से निर्मित चित्र अधिक ज्यामितीय होते हैं तथा अधिक भरे हुए प्रतीत होते हैं।

तांत्रिक चित्र – ये चित्र वे कलाकार चित्रित करते हैं जो उपासना के अंतर्गत तंत्र पथ के अनुयायी हैं। ये अधिकांशतः शक्ति के उपासक होते हैं। उनके चित्रों में सामान्यतः दश महाविद्या जैसे देव एवं उनके यंत्र होते हैं। कभी कभी वे केवल यंत्रों को ही चित्रित करते हैं।

साधना एवं उपासना में इन चित्रों का प्रयोग किया जाता है।

कोहबर – विवाहोत्सवों के लिए अनुष्ठानिक चित्र

ये विवाहोत्सव अनुष्ठानिक चित्र वर-वधु के कक्ष की भित्तियों पर चित्रित किये जाते हैं। यह परंपरा मिथिला के सभी समुदायों में प्रचलित है। इन चित्रों में विभिन्न प्रजनन एवं समृद्धि चिन्ह होते हैं। इन्हें सामान्यतः कक्ष की पूर्वी भित्ति पर चित्रित किया जाता है।

पद्मश्री गोदावरी दत्त जी का रचा कोहबर
पद्मश्री गोदावरी दत्त जी का रचा कोहबर

इन चित्रों के प्रमुख अवयव हैं:-

  • चित्र के मध्य में कमल का पुष्प होता है जिसकी पंखुड़ियां बाहर की ओर खुलती हैं।
  • वनस्पतियों एवं प्राणियों के चित्र जैसे बांस, मोर आदि।
  • शिव एवं पार्वती
  • विवाह सम्बन्धी अनुष्ठान जैसे वर-वधु द्वारा पूजा आदि।
  • विवाह उत्सव का दर्शन करते तथा वर-वधु को आशीष देते सूर्य, चन्द्र तथा अन्य ग्रह।

भिन्न भिन्न समुदायों एवं परिवारों में प्रचलित चित्रों की सूक्ष्मताओं में भिन्नता हो सकती है किन्तु व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इन चित्रों का मुख्य उद्देश्य होता है, नव वर-वधु के लिए संरक्षण, सौभाग्य एवं आशीष की मांग करना।

पूर्व में कोहबर चित्रों को विवाह उत्सवों के उपलक्ष्य में भित्तियों पर नवीन रंगा जाता था। किन्तु अब अधिकतर लोग कागज में पूर्व में ही चित्रित चित्रों को क्रय कर लाते हैं तथा अपनी भित्तियों पर चिपकाते हैं। यहाँ तक कि दिग्गज चित्रकारों के घरों में भी हमने कागज पर चित्रित चित्र ही देखे।

व्यक्तिगत शैलियाँ

प्रत्येक कलाकार अथवा चित्रकार की एक व्यक्तिगत शैली होती है जिसमें आकृतियों एवं रंगों का उसका व्यक्तिगत चयन होता है। यद्यपि गंगा देवी जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकारों की शैलियों का रीतिसर अभ्यास हुआ है एवं प्रलेखन हुआ है, तथापि प्रत्येक चित्रकार की अपनी विशिष्ट शैली होती है जिनका रीतिसर अभ्यास एवं प्रलेखन अभी शेष है।

मधुबनी चित्रों में प्रयुक्त रंग

आप सबने कभी ना कभी कहीं ना कहीं मधुबनी चित्र अवश्य देखे होंगे। यदि मैं आपसे आग्रह करूँ कि आप अपने नेत्र बंद कर लें ,  तथा यह बताएं कि उन चित्रों में कौन से रंगों का प्रयोग किया गया था, तो आप अवश्य यह कहेंगे कि आपने मुख्यतः काले रंगों की रेखाएं देखी हैं जिनके मध्य कुछ रंग भरे गए हैं। आपको गहरे पीले अथवा मटमैले श्वेत रंग की पृष्ठभूमि पर श्याम एवं लाल रंग में कलाकृतियाँ दृश्यमान होंगी।

चटकीले होली के रंगों में मधुबनी चित्र
चटकीले होली के रंगों में मधुबनी चित्र

कागज पर गाय के गोबर का लेप लगाकर धूप में सुखाया जाता है जिससे गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि तैयार होती है।

अधिकाँश भारतीय चित्रण परम्पराओं के अनुरूप मिथिला चित्रों में भी प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है जो प्राकृतिक स्त्रोतों द्वारा प्राप्त होते हैं, जैसे वनस्पति, पुष्प, पत्तियाँ, फल तथा कालिख जैसी अन्य गृह वस्तुएं। यद्यपि कुछ चित्रकार अब भी गेरु का प्रयोग करते हैं, तथापि अधिकाँश चित्रकारों का रुझान आसान, सुलभ एवं चिरस्थायी कृत्रिम रंगों के प्रयोग की ओर होने लगा है।

भारत एक ऐसा देश है जहाँ लोगों को विविध रंग अत्यंत प्रिय हैं, वह भी चटक उजले रंग। इसलिए पारंपरिक चित्रों में चटक उजले रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे बैंगनी, उजला पीला, चटक हरा आदि।

श्वेत-श्याम मधुबनी चित्र

जैसे जैसे यह कला व्यावसायीकरण के चंगुल में फंसने लगी है, रंगों के चयन पर ग्राहकों का अधिपत्य बढ़ने लगा है। अब उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार रंगों का चयन किया जा रहा है। सन् १९६० के पश्चात के दशकों से हमें इन चित्रों में श्वेत एवं श्याम रंगों की प्राधान्यता दृष्टिगोचर होने लगी है। इनके साथ कुछ सौम्य रंगों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें देख यह अनुमान लगा सकते हैं कि इन रंगों का चयन पाश्चात्य देशों की मांग पर किया गया होगा क्योंकि वहाँ इन रंगों का प्रचलन अधिक है।

काली - बिहार संग्रहालय पटना में
काली – बिहार संग्रहालय पटना में

इन कलाकारों एवं वैश्विक बाजार के मध्य मध्यस्थता करने वाले बिचौलिये भी इन रंगों के चयन को प्रभावित करने लगे। यहाँ तक कि ये बिचौलिये विभिन्न समुदायों के कलाकारों से विशेष रंगों एवं आकृतियों का ही प्रयोग करने का आग्रह करने लगे हैं ताकि वे विभिन्न शैलियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर सकें।

जहाँ तक लोक कला शैलियों का प्रश्न है, वे कभी किसी सीमा में नहीं बंधे हैं। वे किसी सीमा के भीतर विकसित नहीं हुए हैं। ना ही उन्हें कभी किसी सीमा में बांधकर रखा जा सका है। किन्तु कला क्षेत्र से सम्बंधित बाजार में इन कलाकृतियों की मांग को उत्पन्न करने के लिए उनकी शैलियों को सीमाबद्ध करना आवश्यक हो जाता है। गत कुछ दशकों से मिथिला चित्रकला का विकास इसी सीमाबद्ध शैली के अंतर्गत हो रहा है।

मिथिला में मधुबनी चित्रकारों के गाँवों का भ्रमण

हमारी मिथिला यात्रा के समय हमारी तीव्र अभिलाषा थी कि हमें कुछ ऐसे गाँवों के भ्रमण का अवसर प्राप्त हो जहाँ से ऐसी महिला कलाकारों का उदय हुआ हो जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

मिथिला के मधुबनी कलाकार
मिथिला के मधुबनी कलाकार

मैं ऐसे एक गाँव की कल्पना करने लगी जहाँ प्रत्येक गृह की भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की गयी है। उस समय हम दरभंगा में ठहरे हुए थे। दरभंगा में तो मुझे कहीं भी ये चित्र दृष्टिगोचर नहीं हुए, अपवाद स्वरूप कुछ सरकारी संरचनाओं को छोड़कर। इन संरचनाओं पर पारंपरिक एवं आधुनिक दोनों दृश्यों को चित्रित किया गया था। मुझे कोई गाँव मेरी कल्पना के अनुरूप दिखाई नहीं दिया।

हमने मधुबनी नगरी का भ्रमण करने का निश्चय किया। मुझे यह जानकारी थी कि कम से कम मधुबनी रेल स्थानक की भित्तियों पर अत्यंत सूक्ष्मता एवं दक्षता से मधुबनी चित्रों का चित्रण किया गया है। मुझे अब भी महाराष्ट्र के रत्नागिरी रेल स्थानक का स्मरण है जहाँ की भित्तियों पर वारली चित्रों का प्रदर्शन किया गया है।

अंततः हमारे भाग्य ने हमारा साथ दिया जब हमारी भेंट इतिहासकार डॉ. नरेन्द्र नारायण सिंग ‘निराला’ जी से हुई जो मधुबनी चित्रकला शैली के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने मिथिला चित्रों के आधुनिक स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने हमें बताया कि किस प्रकार Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाएं इसके विकास में अपना योगदान दे रही हैं।

निराला जी ने हमें ऐसी कई संस्थाओं के विषय में बताया जिनकी स्थापना विशेष रूप से इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए ही की गयी है। उन्होंने बताया कि यूँ तो मिथिला चित्र मिथिला में सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु बाह्य विश्व में जिन चित्रों की विक्री होती है वे मधुबनी चित्र के नाम से जाने जाते हैं।

निराला जी हमें विभिन्न ग्रामों में ले गए जहाँ हमारी भेंट भिन्न भिन्न चित्रकारों से हुई। हमने प्रत्येक गाँव की विशेष शैलियों को भी देखा व समझा। इसके पश्चात उन्होंने हमें कुछ पुरातन मिथिला चित्र भी दिखाए जो उनके व्यक्तिगत संग्रह थे।

जितवारपुर ग्राम

जितवारपुर ग्राम मुख्यतः मधुबनी चित्रों के लिए जाना जाता है।

हमने सर्वप्रथम कृष्ण कान्त झा जी से उनके निवासस्थान पर ही भेंट की। वे एक महापात्रा ब्राह्मण हैं। वे मुख्यतः रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों के भव्य दृश्यों का चित्रण करते हैं। हम जब वहाँ गए थे तब वे हनुमान के चित्रों पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने हमें उनको इन चित्रों को रंगते हुए देखने की अनुमति भी दे दी थी।

उन्होंने सर्वप्रथम अनेक सीधी रेखाओं द्वारा चित्र के सीमावर्ती भागों को रेखांकित किया। तत्पश्चात उन्होंने उन सीधी रेखाओं के मध्य भागों को त्रिकोणीय आकृतियों से भर कर चित्र की किनारी तैयार की। उन्हें देख कर यह बोध हुआ कि सभी मिथिला चित्रों की यही किनारी होती है।

इसके पश्चात उन्होंने रेखांकन करते हुए पर्वत धारी हनुमान जी की छवि को चित्रपटल पर उतारा। मुक्त हाथों से रेखांकन करते उनके हाथ स्वच्छंदता से चित्रपटल पर हनुमान जी की छवि को साकार कर रहे थे। काली स्याही में डूबी कूची के अतिरिक्त वे किसी भी अन्य चित्रकारी सामग्री का प्रयोग नहीं कर रहे थे।

श्याम रंग द्वारा रेखांकन समाप्त होते ही वे अथवा उनके परिवार के सदस्य उन में रंगों को भरने का कार्य करते हैं जिसके पश्चात वह चित्र पूर्ण होगा। अधिकाँश चित्र सम्पूर्ण परिवार के संयुक्त प्रयासों का फल होते हैं। मुख्य चित्रकार दृश्य अथवा छवि को रेखांकित करता है। इसके पश्चात परिवार के अन्य सदस्य उनमें रंग भरते हैं।

कृष्ण कान्त झा जी हमें अत्यंत निर्मल व निश्छल व्यक्ति प्रतीत हुए। यदि आप उनके निवास के सामने से जायेंगे तो आपको यह अनुभव ही नहीं होगा कि यह एक सफल व्यावसायिक कलाकार का घर है। वे अपने घर से ही अपने चित्रों की विक्री करते हैं। इसके अतिरिक्त वे विद्यार्थियों को इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए भिन्न भिन्न स्थलों का भ्रमण भी करते हैं। अनेक सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत स्थानों की भित्तियों पर मधुबनी चित्र बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित भी किया जाता है।

शानू पासवान का गृह

कृष्ण कान्त झा जी से भेंट करने के पश्चात हमने एक गाँव के भीतर प्रवेश किया। हम पासवान समुदाय की चित्रकला शैली से अवगत होना चाहते थे। यहाँ अवश्य हमें कुछ घर ऐसे दिखे जिनकी भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की हुई थी। शानू पासवान जी के निवास में हमने गोदना शैली में चित्रित अनेक चित्र देखे। शीला देवी जी से भी हमारी भेंट हुई जिनका बाह्य कक्ष चित्रों से भरा हुआ था। उनमें कुछ पर अब भी कार्य शेष था।

पासवान समुदाय की राहू पूजा
पासवान समुदाय की राहू पूजा

हमने पासवान समुदाय के स्थानीय अनुष्ठान सम्बन्धी चित्र भी देखे, जैसे राहु पूजा आदि। पासवान समुदाय के लोक देवता राजा सलहेस अथवा सल्हेश से संबंधित कथाओं पर आधारित चित्र भी देखे। इस समुदाय के मधुबनी चित्रों में बाघों की छवि का प्रयोग बहुलता से किया जाता है।

उन चित्रों को देख मुझे तेलंगाना के चेरियल चित्रों का स्मरण हो आया।

कृष्णानंद झा के तांत्रिक चित्र

चित्रकार कृष्णानंद झा के निवास तक पहुँचने के लिए हमें खेतों के मध्य से होकर जाना पड़ा। इन खेतों के अंतिम छोर पर उनका निवासस्थान था। वहाँ स्व. कृष्णानंद झा की पत्नी ने हमारा अतिथी सत्कार किया। उन्होंने हमें अपने पति द्वारा चित्रित सभी चित्रों के छायाचित्र दिखाए।

यंत्रों के साथ बनाये हाय तांत्रिक चित्र
यंत्रों के साथ बनाये हाय तांत्रिक चित्र

इसके पश्चात उन्होंने हमारे समक्ष चित्रों की एक गड्डी खोली। उनमें दश महाविद्या एवं भगवान विष्णु के दशावतारों पर चित्रित अनेक चित्र थे। ये सभी चित्र भिन्न भिन्न अनुष्ठानों से संबंधित थे जो ग्राहकों की विशेष मांग पर बनाए गए थे।

पद्मश्री गोदावरी दत्त

अंत में हम पद्मश्री गोदावरी दत्त जी से भेंट करने रांटी गाँव पहुँचे। उनके आगंतुक कक्ष की भित्ति पर जो कोहबर चित्र चित्रित था, वो मेरे देखे अब तक के सर्वाधिक सुन्दर कोहबर चित्रों में से एक था। ९० वर्ष को पार कर चुकी गोदावरी जी की सक्रियता अब ढलान पर थी। फिर भी उन्होंने प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया एवं माता सुलभ प्रेम से हमारा अतिथि सत्कार किया।

उनकी पुत्रवधु अंजनी देवी जी ने हमें उनके निवासस्थान में प्रदर्शित सभी कोहबर चित्र दिखाए तथा उस शैली के विषय में जानकारी दी। वे कायस्थ समुदाय से संबंध रखती हैं। उनके चित्रों में श्वेत, श्याम एवं लाल रंगों की प्राधान्यता थी।

गोदावरी दत्त जी द्वारा चित्रित अनेक चित्रों को जापान के टोकामाची नगर में स्थित मिथिला संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। इस संग्रहालय के संग्रह को विकसित करने के लिए उन्होंने जापान की अनेक यात्राएं की हैं।

दरभंगा में मधुबनी साड़ी कलाकेन्द्र

दरभंगा में हमने राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मधुबनी कलाकार आशा झा जी के कला केंद्र का अवलोकन किया। चित्रों के साथ साथ उन्हें साड़ियों एवं दुपट्टों पर मधुबनी चित्रण का भी वैशिष्ठ्य प्राप्त है।

उनकी पुत्री ने मुझे एक पाग एवं एक दुपट्टा भेंट स्वरूप प्रदान किया। अतिथियों को मधुबनी चित्रों द्वारा सज्जित ये उपहार वस्तुएं प्रदान करने की उनकी विशेष परंपरा है। मैथिलि ब्राह्मण ये पाग तथा दुपट्टे औपचारिक अवसरों व उत्सवों पर धारण करते हैं। आप यदि इन्हें अपने सर पर धारण कर लें तो आप अपना सर अधिक हिला-डुला नहीं सकते।

आशा झा के कला केंद्र में निर्मित विशेष साड़ियों की अत्यधिक मांग है। उन साड़ियों पर उनके द्वारा चित्रित मधुबनी चित्र भी विशेष रूप से आग्रहीत होते हैं। इनके विषय में अधिक जानकारी के लिए आशा झा की मधुबनी पेंट्स इस वेबस्थल पर जाएँ अथवा उनके IG हैंडल से संपर्क करें।

मधुबनी यात्रा के लिए कुछ आवश्यक सुझाव

मधुबनी देश के अन्य भागों से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से जुड़ा हुआ है। निकटतम नगर तथा हवाई अड्डा दरभंगा है।

जितवारपुर का मुख्य परिचय है, मधुबनी कलाकारों का ग्राम।

स्वयं अपने बलबूते पर इन गाँवों तक पहुँचना आसान नहीं है। इन गाँवों तक आपको पहुँचाने के लिए किसी भी प्रकार के यात्रा नियोजक उपलब्ध नहीं है। इसके लिए सर्वोत्तम साधन है कि आप किसी स्थानीय व्यक्ति से संपर्क करें जो आपको इन कलाकारों से भेंट करवा सके।

यदि किसी चित्रकार से भेंट करने में आपकी रूचि नहीं है, आप केवल मधुबनी चित्रों को क्रय करना चाहते हैं तो दिल्ली का ‘दिल्ली हाट’ आपके लिए सर्वोत्तम गंतव्य होगा। मिथिला के अधिकाँश चित्रकार अपनी रचनाएँ नियमित रूप से उस हाट में प्रदर्शित करते हैं।

इन में से कई चित्रकार अपने चित्र ऑनलाइन भी विक्री करते हैं। इसके लिए अमेज़न सर्वोत्तम साधन है।

उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र पटना
उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र पटना

मधुबनी चित्रकला शैली में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए पटना के उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान से संपर्क करें जो मधुबनी चित्रकला में निशुल्क पाठ्यक्रम संचालित करते हैं।

मधुबनी चित्रकला अवलोकन एवं मिथिला के गाँवों का भ्रमण करने के लिए आप दरभंगा में ठहर सकते हैं जहाँ सुलभ विश्रामगृह उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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आन्ध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से कुछ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा गाँव – कोंडापल्ली। कृष्णा नदी के तट पर बसा यह ऐतिहासिक स्थल एक ओर अपने प्राचीन कोंडापल्ली दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है तो दूसरी ओर लकड़ी के रंगबिरंगे पारंपरिक खिलौनों, गुड्डे-गुड़ियों एवं देवी-देवताओं की काष्ठ प्रतिमाओं के लिए जाना जाता है। एक पहाड़ी […]

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आन्ध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से कुछ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा गाँव – कोंडापल्ली। कृष्णा नदी के तट पर बसा यह ऐतिहासिक स्थल एक ओर अपने प्राचीन कोंडापल्ली दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है तो दूसरी ओर लकड़ी के रंगबिरंगे पारंपरिक खिलौनों, गुड्डे-गुड़ियों एवं देवी-देवताओं की काष्ठ प्रतिमाओं के लिए जाना जाता है।

एक पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित विशाल कोंडापल्ली दुर्ग इस क्षेत्र का संरक्षण करता प्रतीत होता है। अपने चरम काल में यह एक विशाल भव्य दुर्ग रहा होगा। काल के साथ कोंडापल्ली क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए। यद्यपि यह दुर्ग अब भी भव्यता से परिपूर्ण है, तथापि गाँव पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है। किन्तु कोंडापल्ली की एक परम्परा अब भी अखंड अनवरत रूप से जीवंत है। वह है, पारंपरिक कारीगरों द्वारा निर्मित कोंडापल्ली खिलौने।

कोंडापल्ली खिलौने

आपने अपने जीवन में कभी ना कभी लकड़ी की वह गुड़िया अवश्य देखी होगी जो अपना सर, वक्ष एवं कमर हिलाते हुए नृत्य करती है। जी हाँ, वह गुड़िया आंध्र प्रदेश के इस छोटे से गाँव, कोंडापल्ली की विशेष कलाशैली की एक अद्भुत देन है। जब आप कोंडापल्ली भ्रमण के लिए आयेंगे तो आप यहाँ के सभी कारीगरों को अपने घरों के भीतर अनेक प्रकार के काष्ठ खिलौने बनाते देखेंगे। मैंने इसलिए ऐसा कहा क्योंकि वे सभी साधारणतः अपने द्वार खुले रखकर अपने कार्य में तल्लीन हो जाते हैं।

कोंडापल्ली गुडिया खिलौने
कोंडापल्ली गुडिया खिलौने

किसी भी कारीगर के घर को ढूँढना अत्यंत आसान है। वे अपने घरों की भित्तियों पर सुन्दर आकृतियाँ चित्रित करते हैं। साधारणतः लाल रंग की भित्तियों पर श्वेत कोलम अथवा रंगोली द्वारा सुन्दर आकृतियाँ बनाते हैं। द्वारों एवं झरोखों की सीमाओं को विशेष बनाते हुए सुन्दर किनारियाँ चित्रित करते हैं। घरों एवं दुकानों के समक्ष लकड़ी की बैलगाड़ी जैसे पारंपरिक खिलौने प्रदर्शित करते हैं। कुछ बैलगाड़ियों पर अनाज के बोरे रखकर उन्हें परिवहन के साधन के रूप में भी प्रदर्शित करते हैं। उन्हें देख मुझे दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित सिन्धु घाटी सभ्यता स्थलों से प्राप्त मिट्टी की बैलगाड़ियों का स्मरण हो आया।

कोंडापल्ली गाँव के दृश्य
कोंडापल्ली गाँव के दृश्य

जब हम कोंडापल्ली गाँव में भ्रमण कर रहे थे तब हमने शुभ्र श्वेत रंग के कई उत्कीर्णित चौखट देखे जिन्हें सूर्य की धूप में सुखाने के लिए फैलाया हुआ था। यह उन्हें विविध चटक रंगों में रंगने से पूर्व की प्रक्रिया थी।

घरों के समक्ष स्थित आँगन में बैठकर घर के स्त्री एवं पुरुष पूर्ण एकाग्रता एवं धैर्यता से एक एक खिलौनों को विविध रंगों से रंगते हैं। मार्ग पर चलते लोगों से अनभिज्ञ, यहाँ तक कि ठहर कर उनके कार्यकौशल को निहारते लोगों से भी अबाधित, वे अपने कार्य में मग्न रहते हैं। उनकी एकाग्रता एवं तन्मयता देख हृदय उनके प्रति आदर भाव से भर जाता है।

नवरात्रि के लिए विशेष खिलौने

कोंडापल्ली गाँव के कारीगर नवरात्रि पर्व के लिए विशेष खिलौनों की रचना करते हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित प्रथा के अनुसार नवरात्रि के नौ दिवस घर घर में एक संकल्पना के अंतर्गत विविध प्रकार के खिलौने रीतसर प्रदर्शित किये जाते हैं। बहुधा विशेष रूप से निर्मित बहुतलीय आलों पर ये खिलौने रखे जाते हैं। इस प्रदर्शनी को गोलू अथवा बोम्माला कोलुवु कहते हैं। आन्ध्र प्रदेश में ये खिलौने मकर संक्रांति के पर्व का भी महत्वपूर्ण भाग होते हैं। मेरे अनुमान से, इन कारीगरों द्वारा निर्मित कलाकृतियों का प्रयोग किसी ना किसी रूप में भारत के लगभग सभी उत्सवों में किया जाता है।

रंग बिरंगे खिलौने
रंग बिरंगे खिलौने

हमने इन कारीगरों द्वारा गढ़ी गयी गणेश, कृष्ण, दशावतार तथा कई अन्य देवी-देवताओं की कलाकृतियाँ देखीं। यहाँ निर्मित नर्तनशीला गुड़िया कोंडापल्ली की विशेष देन है। इन गुड़ियों को तंजावुर गुड़ियाँ भी कहते हैं। ये कारीगर विविध पक्षियों एवं पशुओं के आकार के खिलौने भी बनाते हैं। हमने एक ग्रामीण जनजीवन में प्रयुक्त लगभग सभी वस्तुओं की प्रतिकृतियाँ यहाँ खिलौनों के रूप में देखीं। ग्रामीण व्यवसायों से सम्बंधित खिलौने देखे, जैसे कुंभार, लुहार, किसान, भाजी विक्रेता आदि। कार, जीप जैसे आधुनिक खिलौने भी देखे। हमने भारत के राष्ट्रीय चिन्ह की प्रतिकृति भी देखी जिसे काष्ठ को उत्कीर्णित कर बनाया गया था। आपने इस कलाकृति को किसी ना किसी सरकारी कार्यालय में अवश्य देखा होगा। यदि आपको कोई विशेष खिलौना अथवा लकड़ी की भेंट वस्तु बनवानी हो तो आप उनसे निवेदन कर सकते हैं।

कोंडापल्ली ग्राम एवं कोंडापल्ली खिलौनों को सन् २००६ में भौगोलिक संकेत (GI अथवा Geographical Indicator Tag) प्रदान किया गया है। इसका अर्थ है कि ये कोंडापल्ली विशेष खिलौने केवल इसी गाँव में निर्मित किये जा सकते हैं। भौगोलिक संकेत एक प्रतीक है जो किसी उत्पाद को मुख्य रूप से उसके मूल स्थान से जोड़ता है। यह संकेत उत्पाद की विशेषता भी दर्शाता है।

कोंडापल्ली खिलौनों का इतिहास

ऐसा माना जाता है कि ये कारीगर कुछ सदियों पूर्व राजस्थान से यहाँ आये तथा यहीं बस गए। आपको स्मरण होगा, मैंने राजस्थान की सैकड़ों वर्ष प्राचीन कावड़ कलाकृतियों पर एक संस्करण लिखा था। विभिन्न धार्मिक एवं ऐतिहासिक लोककथाओं का चित्रण करते ये कावड़ भी लकड़ी द्वारा निर्मित किये जाते हैं तथा इन पर भी विविध चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है।

काष्ठ में बने गणपति
काष्ठ में बने गणपति

कोंडापल्ली के ये दक्ष कारीगर स्वयं को ऋषि मुक्तर्षी के वंशज मानते हैं। मुक्तर्षी को भगवान शिव ने कला एवं शिल्प कौशल प्रदान किया था। इस प्रकार मुक्तर्षी कारीगर समुदायों के मार्गदर्शक ऋषि माने जाते हैं। स्थानीय भाषा में इन कारीगरों को नाकरशालु कहते हैं। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार इन्हें आर्यक्षत्रिय कहा जाता है। इनका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण में किया गया है। ये कुशल कारीगर खिलौने के अतिरिक्त मंदिरों एवं देवी-देवताओं के लिए रथों एवं वाहनों की भी रचना करते हैं।

तंजौर गुडिया
तंजौर गुडिया

मैं कारीगरों के निकट बैठकर उन्हें खिलौने गढ़ते देखने लगी। उन्होंने मुझे बताया कि इन खिलौने में प्रयुक्त मृदु लकड़ी अथवा काष्ठ स्थानीय पहाड़ी क्षेत्रों से ही उपलब्ध हो जाती हैं। इस काष्ठ को तेल्ला पोनिकी अथवा पोनुकू कहते हैं। ये कम भार के काष्ठ होते हैं जिसके कारण उनसे निर्मित खिलौने चाहे जितने भी बड़े हों, उनका भार भी कम ही रहता है।

इन काष्ठ के लट्ठों को सर्वप्रथम सुखाया जाता है। इसके पश्चात उनसे खिलौनों के भिन्न भिन्न अंश गढ़े जाते हैं। तत्पश्चात इन अंशों को पारंपरिक गोंद का प्रयोग कर एक दूसरे से जोड़ा जाता है। यह गोंद इमली के बीजों का चूरा एवं लकड़ी का बुरादा मिलाकर तैयार किया जाता है। इन खिलौनों को रंगने से पूर्व उन पर श्वेत चूने की परत चढ़ाई जाती है। पुरातन काल में इन खिलौनों को रंगने के लिए वनस्पति जन्य रंगों का प्रयोग किया जाता था। किन्तु अब बाजारों में व्यवसायिक रूप से उपलब्ध जल-रंगों (Water Colour), तैल-रंगों अथवा एनामेल रंगों का प्रयोग किया जा रहा है।

इस समुदाय का पुरुष वर्ग सामान्यतः लकड़ी काटने, उन्हें आकार देने तथा उन्हें उत्कीर्णित करने का कार्य करते हैं, वहीं स्त्रियाँ उन्हें रंगने का दायित्व बड़ी सुन्दरता से निभाती हैं। इसी प्रकार का कार्य विभाजन इससे पूर्व मैंने छत्तीसगढ़ के कला एवं शिल्प ग्राम एकताल में भी देखा था जो धातु शिल्प कला के कारीगरों का गाँव है।

यदि आप इन खिलौनों को क्रय करना चाहे तो आप इन्हें लेपाक्षी जैसे राज्य हस्तकला विक्रय भण्डार से ले सकते हैं। आप इन्हें इन्टरनेट द्वारा भी ले सकते हैं।

कोंडापल्ली दुर्ग

कोंडापल्ली अपने वैभवशाली दुर्ग के लिये भी लोकप्रिय है। कोंडापल्ली खिलौनों एवं कारीगरों के हस्तकौशल के अवलोकन के साथ आप इस दुर्ग का भी दर्शन कर सकते हैं जो समीप ही स्थित है। पूर्व में यह क्षेत्र पश्चिमी चालुक्य वंश एवं वारंगल के काकतिया वंश के आधीन था।

कोंडापल्ली दुर्ग
कोंडापल्ली दुर्ग

१४वीं शताब्दी के इस दुर्ग का निर्माण मसुनुरी नायक ने करवाया था। मसुनुरी नायक के पतन के पश्चात रेड्डी राजाओं, अनवेमा रेड्डी एवं पेद्दा कोमाटी वेमा रेड्डी ने दुर्ग पर अधिपत्य स्थापित किया। कालांतर में यह दुर्ग क्रमशः ओडिशा के गजपति राजाओं, विजयनगर के कृष्णदेवराय, तत्पश्चात गोलकोंडा के कुतुब शाही के अधिकार क्षेत्र में आया।

कोंडापल्ली दुर्ग का मानचित्र
कोंडापल्ली दुर्ग का मानचित्र

फ्रांसीसियों ने भी क्षणिक काल के लिए इस पर अधिपत्य स्थापित किया था जिसके पश्चात यह दुर्ग अंततः अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में आया। अंग्रेजों ने इस दुर्ग में अपने सैनिकों के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की।

यह दुर्ग अब खंडित स्थिति में है। किन्तु यह अब भी अपने वैभवशाली भूतकाल की गौरव गाथा कहने में पूर्णतः सक्षम है। यह दुर्ग युक्तिपूर्ण रूप से, विशेषतः गोलकोंडा से आते एवं पूर्वी समुद्र तट की ओर जाते प्राचीन व्यापार मार्ग पर स्थित था। इसी कारण इसमें कदापि अचरज नहीं है कि इस क्षेत्र के आसपास कारीगरों के अनेक गाँव बसे एवं फले-फूले हैं। इस मार्ग द्वारा वे आसानी से अपनी कलाकृतियों का व्यापार करते थे।

आमसभा की दीवारों पर पुराने चित्र
आमसभा की दीवारों पर पुराने चित्र

इस दुर्ग के भीतर एक आमसभा कक्ष, गजशाला, हाट क्षेत्र, अस्त्र-शस्त्र शाला, कारागृह तथा कुछ धार्मिक स्थल हैं। इस दुर्ग का तोरण युक्त कक्ष पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है। इस कक्ष की भित्तियों पर पुरातन छायाचित्रों को प्रदर्शित किया गया है।

जहाँ तक उत्कीर्णन का प्रश्न है, मैंने केवल कुछ ही स्थानों पर उत्तम उत्कीर्णनों के अवशेष देखे। कोंडापल्ली दुर्ग की खंडित होती भित्तियों पर अब पौधे एवं वृक्ष उगने लग गए हैं।

अपनी कोंडापल्ली यात्रा के समय आप कनकदुर्गा मंदिर, उन्दावल्ली की अखंडित शैल गुफाओं, नृत्य में तल्लीन नर्तकों का कुचिपुड़ी ग्राम आदि के भी दर्शन कर सकते हैं। अथवा कृष्ण नदी के तट पर पदभ्रमण कर सकते हैं।

कोंडापल्ली ग्राम के भ्रमण के लिए कुछ यात्रा सुझाव

कोंडापल्ली ग्राम विजयवाड़ा से उत्तर-पश्चिमी दिशा में लगभग २० किलोमीटर दूर स्थित है। आप यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँच सकते हैं। विजयवाड़ा देश के सभी क्षेत्रों से वायुमार्ग, रेलमार्ग तथा सड़कमार्ग द्वारा सुचारू रूप से संलग्न है।

मैंने कोंडापल्ली ग्राम तथा कोंडापल्ली दुर्ग, दोनों स्थलों पर किसी भी प्रकार का जलपानगृह अथवा भोजनालय नहीं देखा। अतः आप अपने साथ आवश्यक खाद्य पदार्थ एवं पेय सामग्री अवश्य रखें।

दुर्ग के अवलोकन के लिए लगभग ४५ मिनट का समय पर्याप्त है।

जहाँ तक कोंडापल्ली ग्राम का प्रश्न है, अवलोकन समयावधि आपकी रूचि पर निर्भर करती है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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संखेड़ा के रंगीन गृह सज्जा सामग्री बनाने वाला कला ग्राम https://inditales.com/hindi/sankheda-kala-gram-gujarat/ https://inditales.com/hindi/sankheda-kala-gram-gujarat/#respond Wed, 21 Dec 2022 02:30:35 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=766

संखेड़ा, वडोदरा से दक्षिण-पूर्वीय दिशा में लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ एक छोटा सा गाँव है। यह भारत का एक सामान्य सा गुजराती गाँव है, जहाँ पर रहनेवाले अधिकतर परिवार लकड़ी की कारीगरी का व्यवसाय करते हैं। ये लोग लकड़ी के बड़े ही सुंदर फर्नीचर बनाते हैं, जो सिर्फ यहीं पर बनाए […]

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संखेड़ा, वडोदरा से दक्षिण-पूर्वीय दिशा में लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ एक छोटा सा गाँव है। यह भारत का एक सामान्य सा गुजराती गाँव है, जहाँ पर रहनेवाले अधिकतर परिवार लकड़ी की कारीगरी का व्यवसाय करते हैं। ये लोग लकड़ी के बड़े ही सुंदर फर्नीचर बनाते हैं, जो सिर्फ यहीं पर बनाए जाते हैं। यहाँ पर उत्पादित इन वस्तुओं को संखेड़ा के फर्नीचर के नाम से जाना जाता है।

संखेडा गुजरात में बनी रंग बुरंगी चौकियां
संखेडा गुजरात में बनी रंग बुरंगी चौकियां

इनकी विशेष बात यह है कि इन वस्तुओं को लाख के प्रयोग से चमकदार परिष्करण दिया जाता है। हालांकि अब इस कार्य के लिए लाख के स्थान पर तामचीनी का उपयोग किया जाता है। यह न केवल प्रयोग करने में ही आसान है, बल्कि इससे यहाँ के कारीगरों को रंगों की व्यापक विविधता भी प्राप्त हुई है, जिससे कि वे अपनी कलाकृतों को और भी सुंदर बना सकते हैं।

संखेड़ा के फर्नीचर अथवा गृह सज्जा का सामान

वडोदरा से संखेड़ा जाते वक्त हम दभोई से होते हुए गुजरे थे। संखेड़ा की इन संकरी गलियों में घूमते हुए हमे चाँदी की वस्तुएं बेचनेवाली बहुत सारी दुकाने दिखी, जिनमें चाँदी के बने ठेठ आदिवासी गहने बेचे जा रहे थे। जब हमने इन लोगों से लकड़ी की कलाकृतियों के बारे में पूछा तो उन्होंने हमे एक और गली की ओर मार्गदर्शित किया, जहाँ पर फर्नीचर की बहुत सी दुकानें और कार्यशालाएं थीं।

संखेडा में बना झूला
संखेडा में बना झूला

जिस दिन हम वहाँ गए थे वह दशहरे का दिन था जिसके कारण वहाँ की अधिकतर दुकानें बंद थीं। लेकिन जो भी दुकानें खुली थीं उनमें भी हमे एक से बढ़कर एक काष्ठ की वस्तुएं देखने को मिली। इन में से एक दुकान पर हमे दो महिलाएं दिखीं जो उस दुकान की कर्ता-धर्ता थीं। उन्होंने हमे लकड़ी की विविध वस्तुएं दिखाई, जो यहाँ पर बनायी जाती हैं; जैसे कि छोटी-छोटी चौकियाँ, डांडिया में प्रयुक्त छड़ियाँ, मंदिर और पालने आदि। यहाँ पर झूले भी थे जो गुजराती घरों की साज-सज्जा से बहुत मेल खा रहे थे।

कार्यशाला

संखेडा की कार्यशाला
संखेडा की कार्यशाला

थोड़ा-बहुत निवेदन करने के पश्चात उन में से एक महिला ने मुझे उनकी कार्यशाला के दर्शन करवाए। वहाँ पर मैंने सागौन लकड़ी के छोटे-बड़े टुकड़े देखे जिन्हें बाद में यंत्रों के द्वारा विविध आकार दिये जाते थे। आकार देने के बाद इन कलाकृतियों पर प्राइमर पोता जाता था और फिर आखिर में उनपर मेलामाइन रंगों की परत चढ़ाई जाती थी। यह रंग सूखने के बाद उस पर हाथ से विविध चित्र बनाए जाते थे, जो अधिकतर फूलों से संबंधित होते थे या फिर किसी प्रकार के ज्यामितीय आकार होते थे।

बाजोड़
बाजोड़

पुराने समय में इन वस्तुओं पर परिष्करण के तौर पर लाख की परत चढ़ाई जाती थी, जिसके कारण ये वस्तुएं भूरे से रंग की नज़र आती थीं; लेकिन अब इसके स्थान पर पोलिश का इस्तेमाल किया जाता है जो हूबहू वैसे ही परिणाम देती है। हमे बताया गया कि पुरानी प्रक्रिया बहुत ही थकाऊ थी और उसमें बहुत समय भी लगता था जिसका अनुसरण अब कोई नहीं करता। बाद में जब हम यहाँ की कारीगरों की गली में घूम रहे थे, तो हमने देखा कि यहाँ के अधिकतर घरों के बरामदों में लकड़ी के अध-उत्कीर्णित टुकड़े रखे गए थे।

संखेड़ा की प्रसिद्ध काष्ठ की वस्तुएं

काष्ठ का बना एक मनमोहक मंदिर
काष्ठ का बना एक मनमोहक मंदिर

संखेड़ा में उत्पादित प्रसिद्ध लकड़ी की वस्तुएँ हैं, बाजोड़ या चौकी – जो पूजा के समय बैठने के लिए इस्तेमाल की जाती है, कंगन रखने के स्टैंड, डांडिया की छड़ियाँ, मंदिर, सोफा, झूला आदि। इस छोटे से गाँव में उत्पादित इन वस्तुओं का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी संख्या में निर्यात भी किया जाता है। अगर आप कभी भी गुजराती घरों में गए हैं, तो आपने उनके घरों में संखेड़ा की कोई न कोइन लकड़ी की वस्तु जरूर देखी होगी।

यह भारत में स्थित अनेक छोटे-छोटे कला केन्द्रों में से एक है, जिनके अस्तित्व के बारे में बहुत से लोगों को जरा भी ज्ञान नहीं है।

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कांचीपुरम की प्रसिद्ध कांजीवरम साड़ियाँ कहाँ से खरीदें? https://inditales.com/hindi/kanchipuram-kanjivaram-sari-kahan-khariden/ https://inditales.com/hindi/kanchipuram-kanjivaram-sari-kahan-khariden/#respond Wed, 15 Sep 2021 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2416

कांचीपुरम, यह नाम लेते ही विविध रंगों में चित्तरंजक कांजीवरम साड़ियों का स्मरण हो आता है। कांजीवरम साड़ियों का नाम लेते ही मेरी सभी सखियों की आँखें चमक गयी होंगीं। कांचीपुरम भले ही सुन्दर प्राचीन मंदिरों का स्थल हो, परन्तु यह कांजीवरम की रेशमी शान में आपको सराबोर होने से रोक नहीं पाते। जब मैं […]

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कांचीपुरम, यह नाम लेते ही विविध रंगों में चित्तरंजक कांजीवरम साड़ियों का स्मरण हो आता है। कांजीवरम साड़ियों का नाम लेते ही मेरी सभी सखियों की आँखें चमक गयी होंगीं। कांचीपुरम भले ही सुन्दर प्राचीन मंदिरों का स्थल हो, परन्तु यह कांजीवरम की रेशमी शान में आपको सराबोर होने से रोक नहीं पाते। जब मैं कांचीपुरम की यात्रा पर थी, मैंने लगभग सभी से यह जानने का प्रयत्न किया कि कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ कहाँ के खरीदूं? सबने मुझे एक ही उत्तर दिया, कांचीपुरम में कहीं भी!

कांचीपुरम की प्रसिद्द रेशमी साड़ियाँ
कांचीपुरम की प्रसिद्द रेशमी साड़ियाँ

चेन्नई में कुछ लोगों ने मुझे सावधान करने का प्रयत्न किया था कि मैं कांचीपुरम से ये साड़ियों ना खरीदूं।  उनका कहना था कि वहां अधिकतर विक्रेता मुझसे छल कर सकते हैं। परन्तु यहाँ आकर मैंने अपने अतिथिगृह के कुछ कर्मचारियों से इस विषय में चर्चा की। तब मुझे अनुमान लगा कि कई यात्री परिवार यहाँ  विवाह हेतु कांजीवरम रेशमी साड़ियाँ खरीदने ही आते हैं।

कांचीपुरम में आप कहीं भी खड़े हो जाएँ, आपको हर ओर बड़े बड़े विज्ञापन दिखाई देंगे। ये विज्ञापन आपको जानकारी देते हैं कि कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ कहाँ कहाँ से खरीद सकते हैं। परन्तु कभी कभी अधिक उपलब्धता भी समस्या बन जाती है। कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियों की इतनी सारी दुकानें हैं कि कहाँ जाएँ, कहाँ ना जाएँ, यह बड़ा प्रश्न उत्पन्न हो जाता है। प्रत्येक दुकान के अग्रभाग में कांच की खिड़कियों के भीतर सजाकर रखी गयीं ये रंगबिरंगी रेशमी साड़ियाँ आपको रिझाती हैं, लुभाती हैं, कि आप दुकान में प्रवेश करे व लुभावनी रेशमी साड़ियों के विश्व में खो जाएँ।

कांचीपुरम की प्रसिद्ध कांजीवरम साड़ियों की खरीदी

कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ खरीदने के लिए दो प्रकार की दुकानें हैं, एक है बुनकर सहकार तथा दूसरा प्रकार है विशाल शोरूम अर्थात् बड़ी बड़ी दुकानें।

बुनकर सहकारी संगठन

कांजीवरम साड़ियाँ खरीदने के लिए पहला विकल्प है बुनकर सहकार जो छोटी छोटी दुकानों से इन साड़ियाँ को बेचते हैं। यहाँ की साड़ियाँ रेशम चिन्हित होती हैं। रेशम चिन्हित होने का अर्थ है कि इन्हें शुद्ध रेशम से बने होने का प्रमाण प्राप्त है। गाँधी मार्ग पर ऐसी अनेक दुकानें हैं जहां बुनकर सहकार द्वारा शुद्ध रेशम से बनी साड़ियाँ आप खरीद सकते हैं।

बड़े बड़े शोरूम

मनमोहक कांजीवरम साड़ियाँ
मनमोहक कांजीवरम साड़ियाँ

कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ खरीदने के लिए दूसरा विकल्प हैं, बड़े बड़े शोरूम अर्थात् विशाल दुकानें जहां साड़ियों के प्रकार एवं मूल्य की कोई सीमा नहीं। इस प्रकार की दुकानों में प्रवेश से पूर्व जूते-चप्पल दुकान के बाहर उतारना अनिवार्य है। दुकान के भीतर जाते ही दुकानदार द्वारा सर्वप्रथम आपसे साड़ियों की इच्छित मूल्य-सीमा पूछी जायेगी। मूल्य-सीमा के आधार पर आपको उस विशाल बहुमंजिली दुकान के नियत मंजिल पर भेजा जाएगा। आपके लिए एक विक्रेता सहायक निर्धारित कर दिया जाएगा। वह विक्रेता सहायक आपको उस विशाल तल में नियत स्थान पर ले जाएगा। वह अपने तीनों ओर समुद्री हरे रंग की तीन सूती चादरें बिछाकर उस पर कांजीवरम साड़ियाँ आपके समक्ष प्रस्तुत करेगा। यूँ तो आपसे भूमि पर बिछे गद्दों पर बैठने की आशा की जायेगी, किन्तु ना बैठने की स्थिति में आपके लिए तुरंत प्लास्टिक की कुर्सी की भी सुविधा उपलब्ध करा दी जायेगी।

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विक्रेता सहायक

इन दुकानों के विक्रेता सहायक साड़ियों के साथ साथ खरीददारों को पहचानने में भी भलीभांति प्रशिक्षित होते हैं। वे आपके परिधानों, आभूषणों एवं शरीर के हावभाव से आपको आँकते हुए तदनुसार आपको साड़ियाँ दिखाना आरम्भ करते हैं। आप अपनी रूचि के अनुसार मूल्य-सीमा, रंग, कपड़ा इत्यादि उन्हें बता सकते हैं जिससे उन्हें आपके पसंद की साड़ियाँ प्रस्तुत करने में आसानी होगी। आप जितनी अधिक निश्चित आवश्यकताएं स्पष्ट रूप से उल्लेख करेंगे उतनी शीघ्रता से आपको मनपसंद साड़ियाँ प्राप्त हो सकती हैं। अन्यथा साड़ियों के इस अथाह सागर में आप स्वयं तो अवश्य खो जायेंगे, आपका समय भी व्यर्थ होगा। मेरे समान यदि आप निश्चित आवश्यकता के बजाय खुले मन से जायेंगे कि ‘जो भा जाये वो खरीद लेंगे’ तो भरपूर समय हाथों में लेकर ही आपको इन दुकानों में प्रवेश करना पडेगा। साथ ही यह आशा करनी पड़ेगी कि विक्रेता सहायक संयम खोकर दूसरे ग्राहकों की ओर ध्यान देना आरम्भ ना कर दे।

शुद्ध रेशमी साड़ियाँ

मेरे स्थानीय परिचितों के अनुसार, सभी कांजीवरम साड़ियाँ सदैव शुद्ध रेशमी साड़ियाँ नहीं होतीं। शुद्ध रेशमी साड़ियों पर रेशम चिन्ह (silk mark) अंकित होता है। अतः आप इस रेशम चिन्ह को अपना मापदंड बना सकते हैं। रेशमी कांजीवरम साड़ियों के अलावा आप रेशमी सूती तथा शुद्ध सूती साड़ियाँ भी खरीद सकते हैं। इनके अलावा एक और प्रकार की साड़ियाँ भी उपलब्ध हैं जिन्हें वे बचे-खुचे रेशमी धागों से बुनते हैं।

सोने के तार और रेशम की जुगलबंदी
सोने के तार और रेशम की जुगलबंदी

चूंकि मैं कांचीपुरम की यात्रा अकेले ही कर रही थी, मेरे साथ इन दुकानों में एक मनोरंजन घटना बार बार होती थी। इन दुकानों में साड़ियाँ खरीदने बहुधा बड़े परिवार अथवा स्त्रियों के समूह आते हैं। यहाँ के अधिकतर सहायक ऐसे ग्राहकों से ही अभ्यस्त होते हैं। मैं तो अकेले ही दुकानों में प्रवेश करती थी, वह भी साड़ी पहनने के बजाय अन्य परिधान धारण किये हुए होती थी। दुकानदार मेरी उपेक्षा कर मेरे आसपास मेरे साथ आये लोगों को खोजने लगते थे। अकेले खरीददारी करते देख उनकी साड़ियाँ दिखाने की रूचि में कमी आने लगती थी। एक स्थान पर तो मैं यह कहने को विवश हो गयी कि मैं अपना क्रेडिट कार्ड लेकर आयी हूँ, अतः वे मुझे साड़ियाँ दिखा सकते हैं! इसे आप सांस्कृतिक भेदभाव ही कहेंगे ना?

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कांजीवरम रेशमी साड़ियों के पर्यायवाची शब्द

कांजीवरम रेशमी साड़ियों को तमिल नाडू में पट्टू कहा जाता है। इन्हें कांचीपुरम या कोंजिवरम जैसे नामों से भी जाना जाता है। जी हाँ! कांजीवरम साड़ियों तथा कांचीपुरम साड़ियों में कोई अंतर नहीं है।

बुनकर सहकार तथा विशाल शोरूम के अलावा तीसरे प्रकार की भी दुकानें हैं जहां आप अपनी पुरानी कांजीवरम साड़ियाँ बेच सकती हैं। उन साड़ियों में कितनी सुनहरी जरी बुनी हुई है, इसके अनुसार वे आपको उन साड़ियों का मूल्य देते हैं। तत्पश्चात दुकानदार उन साड़ियों को जलाकर उससे सोना निकालते हैं तथा उसे पुनः प्रयोग में लाते हैं। है ना अनोखी बात!

अपने कांजीवरम साड़ियों के रेशम की शुद्धता कैसे पहचानें?

सैद्धांतिक रूप से देखा जाये तो रेशम की शुद्धता उसके एक धागे को जलाकर देखा जा सकता है। यदि जलने पर वह राख में परिवर्तित होता है तो वह शुद्ध रेशम है। अन्यथा वह रेशम का धागा नहीं है। जरी जांचने के लिए जरी धागे के एक छोर पर भीतर का धागा देखा जाता है। यदि भीतरी धागा लाल है तो वह जरी धागा है। परन्तु यह पक्की एवं विश्वसनीय जांच नहीं है। व्यवहारिक रूप से आपको अपने सहज ज्ञान एवं दुकानदार के शब्दों पर विश्वास रखना होगा। प्राप्त उपायों में से रेशम चिन्ह जांचना ही सर्वाधिक उत्तम समाधान है। अंततः यह विश्वास का खेल ही तो है।

कांचीपुरम में साड़ियों की दुकानें

यूं तो मैं कांचीपुरम आयी थी यहाँ के प्राचीन मंदिरों के दर्शन करने तथा उनके विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए। कांची कामाक्षी मंदिर में मेरी विशेष रूचि थी। परन्तु यहाँ प्रचलित प्रथा के अनुसार सब मंदिरों के कपाट मध्यान्ह भोजन से पूर्व बंद हो जाते हैं। ये कपाट संध्या ४.३० बजे के पश्चात ही पुनः खोले जाते हैं। यह प्रथा मेरे लिए विडम्बना कम, वरदान अधिक सिद्ध हुआ। मैंने इस समय का भी भरपूर सदुपयोग किया। यह समय मैंने कांचीपुरम के साड़ियों की दुकानों में व्यतीत किया। कांचीपुरम में मेरा आश्रय गाँधी मार्ग पर था। इसलिए इस मार्ग की सब दुकानों को छानने का मुझे भरपूर अवसर प्राप्त हुआ।

कांचीपुरम में मेरे द्वारा खंगाली गयी कुछ साड़ी की दुकानें:

  • एएस बाबु साह – यह कांचीपुरम का सबसे बड़ा ब्रांड है। आपको इस ब्रांड के बड़े बड़े विज्ञापन कांचीपुरम के कोने कोने में दिख जायेंगे। इन विज्ञापनों के देखकर मन में एक हूक उठती है कि यदि जगह जगह पर इसी प्रकार के फलक यहाँ के मंदिरों के विषय में भी लगाए जाते तो उन्हें ढूँढते हुए हर बार मैं राह नहीं भटकती। जाने दीजिये। इन फलकों को देख आप आसानी से इस दुकान तक पहुँच सकते हैं। इस दुकान के भीतर पहुंचकर मुझे खरीददारों की प्रचंड भीड़ दिखाई दी। अधिकतर लोग विवाह समारोह के लिए खरीददारी करते दिखाई दिए। इस दुकान में साड़ियों का संग्रह भी अधिकांशतः विवाहोपयोगी ही प्रतीत हुआ। अतः यदि आप सामान्य खरीददारी के लिए यहाँ आयें हैं तो इस दुकान को छोड़ सकते हैं।
  • एसएसके हैंडलूम सिल्क – मुझे इस दुकान की कीमतें सर्वोत्तम लगीं। यहाँ साड़ियों के दाम इतने संगत प्रतीत हुए कि यहाँ मोलभाव करना भी मुझे उचित नहीं लगा। यहाँ का संग्रह भी मुझे बहुत भाया। यह और बात है कि यहाँ से मैंने मुख्यतः सूती साड़ियाँ ही खरीदी थीं।
  • प्रकाश सिल्क्स – यहाँ भी साड़ियों का अच्छा संग्रह है। एक सम्पूर्ण तल केवल विवाह साड़ियों के लिए ही निश्चित किया गया है।
  • पचैयाप्पास सिल्क – मुझे इस दुकान का संग्रह भी भाया। यहाँ साड़ियों के मूल्य भी सामान्य थे।
  • कोमथी सिल्क्स – यद्यपि इस दुकान की साड़ियाँ अधिक मूल्यवान थीं, तथापि यहाँ आधुनिक व समकालीन रूपरेखाओं युक्त कुछ साड़ियाँ अत्यंत मनमोहक प्रतीत हुईं।
  • टेम्पल –एएस बाबु साह दुकान के समीप स्थित यह आधुनिक डिज़ाइनर साड़ियों की अच्छी सी दुकान है। यहाँ सीमित, तथापि आकर्षक समकालीन साड़ियों का संग्रह है।

यदि निकट भविष्य में आपकी कांचीपुरम यात्रा की कोई योजना नहीं है तो आप वेबस्थल अमेज़न से भी साड़ियाँ मंगवा सकते हैं।

कांचीपुरम का बुनकर सहकारी संगठन

कांचीपुरम के कुछ बुनकर सहकारी संगठन इस प्रकार हैं:

  • कांचीपुरम कामाक्षी अम्मा रेशम बुनकर सहकारी संस्था
  • कांचीपुरम मुरुगन रेशम सहकारी संस्था
  • वेंकटेश्वरा बुनकर सहकारी संस्था
  • अन्ना हथकरघा रेशम बुनकर संस्था

को-औपटेक्स वेबस्थल से भी आप इस संस्थाओं की साड़ियाँ खरीद सकते हैं।

कांचीपुरम नगरी की स्मारिका स्वरूप कांजीवरम रेशमी साड़ियाँ ही सर्वोत्तम खरीदी है।

कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियों का इतिहास

मौखिक इतिहास के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ये रेशम बुनकर ऋषि मार्कंडेय के वंशज हैं जो स्वयं एक कुशल बुनकर थे। वहीं अभिलिखित इतिहास के अनुसार लगभग ४०० वर्षों पूर्व, विजयनगर राज्य के राजा कृष्णदेवराय के शासन में, देवंगर एवं सलीगर समुदाय के बुनकर आंध्र प्रदेश से कांचीपुरम आकर बस गए थे।

खड्डी पर हाथ से बुनी कांजीवरम साड़ियाँ
खड्डी पर हाथ से बुनी कांजीवरम साड़ियाँ

इन बुनकरों की विशेषता है कि ये पत्थरों पर उत्कीर्णित नक्काशियों को रेशम व जरी द्वारा साड़ियों पर बुनते हैं।

इन साड़ियों में प्रयुक्त मलबरी रेशम तमिल नाडू का ही उत्पाद है। वहीं जरी के लिए सोने के धागे गुजरात जैसे स्थानों से लाये जाते हैं।

सर्वोत्कृष्ट कांजीवरम साड़ी

एक सर्वोत्कृष्ट कांजीवरम साड़ी में किनार एवं पल्लू पृथक पृथक बुने जाते हैं। तत्पश्चात इन्हें मुख्य साड़ी में जोड़ा जाता है। इस जोड़ को पिटनी कहा जाता है। साड़ी के पीछे की ओर पर आप इस जोड़ को देख सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह जोड़ अत्यंत मजबूत होता है। समय के साथ आपकी साड़ी कट-फट सकती है पर यह जोड़ टस से मस नहीं होगा।

कांचीपुरम अथवा कांजीवरम साड़ियाँ दो लम्बाईयों में उपलब्ध हैं – सामान्य ६ गज साड़ियाँ तथा पारंपरिक ९ गज साड़ियाँ।

कांजीवरम साड़ियों को भौगोलिक संकेत प्राप्त है। अर्थात् यह एक धरोहर बुनाई है। इसका अर्थ है कि कांजीवरम साड़ियाँ केवल कांचीपुरम में ही बनकर बाहर आयेंगी।

कांजीवरम साड़ियों पर बने नमूने

कांचीपुरम साड़ियों की रंगीन छटा
कांचीपुरम साड़ियों की रंगीन छटा

कांजीवरम साड़ियों पर बना सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सर्वाधिक पसंदीदा नमूना है, मंदिर। इन साड़ियों पर मंदिर के नमूने किनार पर बने होते हैं। रेशम एवं जरी का प्रयोग कर मंदिरों के शिखर ज्यों का त्यों इन किनारों पर बुने जाते हैं। कुछ अन्य नमूने हैं पुष्प, पत्तियाँ, गज, हंस, तोते, रुद्राक्ष इत्यादि। भारतीय संस्कृति के इन पवित्र चिन्हों को आप भिन्न भिन्न संयोजनों में इन साड़ियों पर देख सकते हैं।

कुछ भारी एवं महंगी कांजीवरम साड़ियों की बुनाई में आप देवी-देवताओं एवं इनकी कथाओं को भी देख सकते हैं।

और पढ़ें:- कांचीपुरम का कांची कामाक्षी मंदिर

कांजीवरम साड़ियों के पिटारे में एक और विशेषता है। यदि आप अपने लिए विशेष साड़ी बनवाना चाहें जिसमें आप अपनी चुनी कहानी एवं नमूने अपने इच्छित रंग में बुनाई करवाना चाहें तो यह संभव है। परन्तु सावधान! इसके लिए मुँह माँगा दाम चुकाने के लिए भी तत्पर रहें।

तो बताईये क्या आपने अपने विवाह में कांजीवरम साड़ी पहनी थी, या पहनने वाली हैं? मैंने अपने विवाह में कांजीवरम साड़ी ही पहनी थी।

 अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रघुराजपुर का पट्टचित्र शिल्पग्राम – पुरी, ओडिशा https://inditales.com/hindi/pattachitra-jagannath-ki-chitrakala/ https://inditales.com/hindi/pattachitra-jagannath-ki-chitrakala/#comments Wed, 02 Dec 2020 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2078

ओडिशा यात्रा के समय मेरी इच्छा-सूची में सर्वप्रथम स्थान था, रघुराजपुर के पट्टचित्र कारीगरों से भेंट करना।  पारंपरिक कला एवं  शिल्पग्राम के दर्शन करना मेरे लिए सदैव ही आनंद की अनुभूति होती है। मेरे लिए उनका अब भी वही महत्व है जितना अतीत में था, अर्थात वे मेरे लिए उत्कृष्टता का केंद्र बिन्दु हैं। रघुराजपुर […]

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ओडिशा यात्रा के समय मेरी इच्छा-सूची में सर्वप्रथम स्थान था, रघुराजपुर के पट्टचित्र कारीगरों से भेंट करना।  पारंपरिक कला एवं  शिल्पग्राम के दर्शन करना मेरे लिए सदैव ही आनंद की अनुभूति होती है। मेरे लिए उनका अब भी वही महत्व है जितना अतीत में था, अर्थात वे मेरे लिए उत्कृष्टता का केंद्र बिन्दु हैं। रघुराजपुर गाँव का प्रत्येक व्यक्ति एक ही कार्यक्षेत्र में रत है। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मध्य एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती होगी जो उन्हे अपने कार्य की गुणवत्ता उत्कृष्ट बनाने हेतु प्रेरित करती होगी। कच्चे माल की आवक स्त्रोत निर्धारित करना तथा ग्राहकों तक तैयार कलाकृतियां पहुंचना इस सम्पूर्ण आपूर्ति श्रंखला का अपेक्षाकृत सर्वाधिक सरल कार्य होगा।

ओडिशा के पट्टचित्र कलाकृतियाँ
ओडिशा के पट्टचित्र कलाकृतियाँ

एक यात्री के रूप में मेरे लिए यह एक ज्ञानवर्धक अनुभव था कि कलाकृतियों का केवल क्रय नहीं करना चाहिए अपितु इन पारंपरिक कलाकृतियों को गढ़ने में कितना समय, प्रयास, कौशल एवं ज्ञान का निवेश हुआ है, यह भी समझना चाहिए।

इससे पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा बंगाल के शिल्प ग्रामों का भ्रमण कर लिया था। अतः अपनी इस ओडिशा यात्रा में मैंने निश्चय किया कि रघुराजपुर शिल्पग्राम के कारीगरों की शिल्पकला को निकट से जानने के लिए उनके साथ कुछ समय व्यतीत करूँ।

रघुराजपुर गाँव

रघुराजपुर गाँव की चित्रित भित्तियां
रघुराजपुर गाँव की चित्रित भित्तियां

पुरी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित यह एक छोटा सा गाँव है। गाँव के मध्य में १२ मंदिर हैं जिनके दोनों ओर एक पंक्ति में लगभग १५० घर हैं। मंदिर भले ही छोटे हैं किन्तु घरों के अनुपात में मंदिरों की संख्या देख मुझे सुखद आनंद की अनुभूति हुई। एक प्रकार से ये मंदिर इस गाँव का मेरु दंड है जिसके चारों ओर गाँव की भौतिक देह कार्यरत है।

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रघुराजपुर गाँव के कलाकार
रघुराजपुर गाँव के कलाकार

रघुराजपुर गाँव में भ्रमण करना किसी मुक्तांगन संग्रहालय में भ्रमण करने के समान है। गांववासियों के गृह सुंदर रंग-बिरंगे चित्रों द्वारा इतने अप्रतिम रूप से अलंकृत हैं कि प्रत्येक गृह के समक्ष कुछ क्षण ठहर कर उन्हे निहारने के लिए आप बाध्य हो जाते हैं। रघुराजपुर के निवासियों ने यह सुनिश्चित किया है कि वे विभिन्न शैली की कलाकृतियाँ अपनी भित्तियों पर प्रदर्शित करें। भवनों के छज्जों पर बैठकर कारीगर इन कलाकृतियों को रचते हैं।  इस गाँव की एक छोटी सी सैर आपको ओडिशा की कला एवं शिल्प परंपरा के एक भिन्न विश्व में ले जाएगी।

काष्ठ कला से जगन्नाथ मंदिर
काष्ठ कला से जगन्नाथ मंदिर

ताड़ के पत्ते पर पारंपरिक चित्रकला

रघुराजपुर गाँव पट्टचित्र के चित्रीकरण में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। पट्टचित्र ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी करने की एक प्राचीन कला है। किन्तु वर्तमान में यहाँ के कलाकार ताड़ पत्तों के अतिरिक्त अन्य माध्यमों पर भी अपनी कलाकृतियाँ प्रदर्शित कर रहे हैं, जैसे सूती व रेशमी वस्त्र, नारियल की खोपड़ी, सुपारी, कांच की बोतल, पत्थर, लकड़ी इत्यादि। वे मुखौटे एवं खिलौने भी बनाते हैं।

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पट्टचित्र को समेट कर रखे हुए
पट्टचित्र को समेट कर रखे हुए

गाँव में साहू, स्वैन, महाराणा, सुनार इत्यादि प्रमुख समुदाय हैं जो इन कार्यकलापों में कार्यरत हैं। सम्पूर्ण गाँव में केवल एक ही व्यक्ति ब्राह्मण है।

जब हमने इस गाँव का भ्रमण किया था तब यहाँ के सभी वृक्षों के तने अनावृत थे। वृक्षों पर ना कोई शाखा थी ना ही पत्ते थे। हमें बताया गया कि चक्रवात ने जब यहाँ कहर ढाया था तब वृक्षों को इस प्रकार तहस-नहस कर दिया था। अतीत की स्मृति में लगभग खोते हुए सभी गांववासी मुझ से कह रहे थे कि यदि चक्रवात से पूर्व मैंने यहाँ भ्रमण किया होता तो मैं भी अनेक पुष्प एवं फलधारी वृक्षों से परिपूर्ण गाँव देख पाती।

रघुराजपुर की पट्टचित्र चित्रकला शैली

रघुराजपुर की पट्टचित्र चित्रकला शैली पुरी की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। जिस समय पुरी के जगन्नाथ मंदिर के त्रिमूर्ति का सिंहासन रिक्त रहता है उस समय सुनहरे रंग में रंगे उनके पट्टचित्रों को पूजा जाता है। यह उस समय होता है जब श्री जगन्नाथ १०८ घड़ों के स्नान के लिए स्नान मंडप जाते हैं तथा रुग्ण हो जाते हैं। इस गाँव के कलाकारों की अनेक पीढ़ियाँ इस अनुष्ठानिक चित्रकला शैली की चित्रकारी करती आ रही हैं।

पट्टचित्र चित्रकारी पारंपरिक रूप से ताड़ की पत्तियों की आपस में जुड़ी संकरी पट्टियों पर किया जाता है। साधारणतः यह चित्रकारी काले रंग में की जाती है जिसमें सर्वप्रथम ताड़ की पत्तियों की सतह को उकेर कर उसमें काला रंग भरा जाता है।

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पट्टचित्र के नवीन संस्करण वस्त्र पर किये जा रहे हैं। पट्टचित्र का यह संस्करण पर्यटकों में अधिक लोकप्रिय है क्योंकि उनमें चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा उनके विषय भी भिन्न भिन्न होते हैं। समकालीन संस्करण रेशमी वस्त्रों पर किये जा रहे हैं जो इस चित्रकला को एक कोमलता का आभास प्रदान करते हैं। इन कलाकृतियों को आप धारण भी कर सकते हैं तथा अपने निवासस्थान की भित्तियों को अलंकृत भी कर सकते हैं।

पट्टचित्र कारीगरों से भेंट

हमने आलोक नाथ साहूजी से उनके एकल-कक्ष कार्यशाला में भेंट की। वहाँ उनके कुछ युवा प्रशिक्षु चित्रकारी करने में व्यस्त थे। पट्टचित्र कला शैली एवं उनके विषयों व प्रसंगों की विविधता दर्शाने के लिए उन्होंने अपनी सर्वोत्तम कलाकृतियाँ हमारे समक्ष रखीं।

चित्रकारी के लिए चित्र-फलक किस प्रकार तैयार किया जाता है यह उन्होंने हमें बताया। पुरानी घिसी हुई साड़ियों के समान, प्रयोग किये गए कोमल वस्त्रों की अनेक परतों को इमली के बीजों से निर्मित गोंद की लुगदी द्वारा चिपकाया जाता है। तत्पश्चात उन्हे धूप में सुखाया जाता है। सूखने पर वे लगभग कागज की मोटी चादर के समान हो जाते हैं तथा उससे अधिक मजबूत हो जाते हैं। वस्त्र पर लगे रंगों के धब्बों को मिटाने तथा उसकी सतह को श्वेत करने के लिए खड़िया के चूर्ण का प्रयोग किया जाता है। इसके पश्चात वस्त्र की सतह को संगमरमर के टुकड़े द्वारा घिस कर चमकाया जाता है। दोनों में से जो भी सतह अधिक चमकदार व चिकनी होगी, उसे नीचे की ओर रखकर दूसरी सतह पर चित्रकारी की जाती है।

शिल्पग्राम का विडिओ

यह विडिओ मेरे शिल्पग्राम भ्रमण के समय बनाया गया था। इसे अवश्य देखें ताकि आपको इस कला शैली को समझने में आसानी होगी।

चित्रकारी में प्रयुक्त प्राकृतिक रंग

इन कलाकृतियों को चित्रित करने में वे मूलतः ५ प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करते हैं। अन्य रंग वे इन रंगों के मिश्रण से तैयार करते हैं। रंगों को बांधने के लिए प्राकृतिक गोंद का प्रयोग किया जाता है। ये ५ प्राकृतिक रंग इस प्रकार प्राप्त किये जाते हैं:

श्वेत रंग – सीपियों का चूर्ण

लाल रंग – लाल पत्थर

नीला रंग – खंडनील पत्थर

पीला रंग – हिंगुल पत्थर जिसे केवल शीत ऋतु में ही पीसा जा सकता है जब तापमान नीचे रहता है क्योंकि उच्च तापमान में यह ज्वलनशील है।

काला रंग – तेल के दीपक की कालिख

ये सभी रंग कारीगर स्वयं गाँव में ही बनाते हैं। रंगने की कूची में मृत मूषकों के केश का प्रयोग होता है। पूर्व में गांववासी कूची भी स्वयं ही बना लेते थे। किन्तु अब वे इन कूचियों को बाजार से क्रय करते हैं।

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पट्टचित्र अर्थात ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी

ताड़ के वृक्षों से पत्ते चुनने का कार्य भी गांववासी स्वयं ही करते हैं। इन पत्तों को हल्दी एवं नीम के पत्तों के संग उबालते हैं। इसके पश्चात उन्हे कम से कम २० दिनों तक धूप में सुखाते हैं। तत्पश्चात इन्हे घर में चूल्हे के निकट रखकर एक लंबी प्रक्रिया के तहत और सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा वे सुनिश्चित करते हैं कि ताड़ के इन पत्तों को दीमक इत्यादि कीट कभी नष्ट ना कर पाएं। यह सब जानने के पश्चात आप भी मुझसे सहमत होंगे कि ऐसी कलाकृतियों को देखते समय हम कभी उनके निर्माण में लगने वाले विचार, ज्ञान तथा श्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते।

ताड़पत्र पर जगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्र
ताड़पत्र पर जगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्र

ताड़ के पत्तों को कलाकार लोहे की नुकीली कलम द्वारा खुले हाथों से उकेरते हैं। उत्कीर्णन जितना गहरा होगा रेखाएं उतनी ही दृश्य होंगी। इन उत्कीर्णन को वे काले रंग से भरते हैं। एक बार यह रंग सूख जाए तो इन्हे मिटाना संभव नहीं।

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इन पट्टचित्रों में मुझे वे चित्र अत्यंत विशेष प्रतीत हुए जिन्हे तह लगा कर रखा जा सकता है। इन्हे पूर्णतः खोल दें तो आप एक लंबी कथा देखेंगे किन्तु जब इसके पल्लों की तह लगाएं तो दो स्तरों पर दो भिन्न कथाएं देख सकते हैं।

पट्टचित्रों के विषय

हिन्दू पौराणिक कथाएं इन चित्रों के सर्वाधिक लोकप्रित विषय हैं।

इनमें भी सर्वाधिक लोकप्रिय विषय हैं जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र। अनंत काल से तीर्थयात्री इन्हे अपने साथ ले जा रहे हैं, कुछ स्मारिका के रूप में तो कुछ अपने घरों के मंदिर में रखकर उन्हे पूजने के लिए। वर्ष की ४ पूर्णिमा रात्रि के समय देवों पर सुनहरा शृंगार किया जाता है। देव का यही सुनहरा शृंगार रघुराजपुर के कलाकारों को सर्वाधिक प्रिय है। इस मंदिर में देवों का यह सुनहरा शृंगार किया जाता है जब रथ यात्रा आरंभ होती है, पौष पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा तथा डोला पूर्णिमा के दिन।

रथ यात्रा

रथ यात्रा - पट्टचित्र पर चित्रित
रथ यात्रा – पट्टचित्र पर चित्रित

पुरी मंदिर से संबंधित एक अन्य विषय जो इन पट्टचित्र कलाकारों में अत्यंत लोकप्रिय है, वह है पुरी की रथ यात्रा। क्यों ना हो? अंततः यह विश्व का सर्वविख्यात उत्सव जो है। लगभग आदमकद आकार की प्रतिकृति में तीनों रथों की प्रत्येक विशेषता को सूक्ष्मता से प्रदर्शित किया गया है। जैसे तीन रथों में तीन प्रकार के ध्वज इत्यादि। प्रत्येक आयोजन में उपस्थित भीड़ भी इन चित्रों का अभिन्न भाग होते हैं । कुछ दर्शन करते दर्शाये गए हैं  तो कुछ भजन-कीर्तन कर रहे हैं तो कुछ रथ को खींच रहे हैं। राजाओं को पालकी पर बैठकर रथ यात्रा में भाग लेते दर्शाया गया है।

जात्री -पति

जात्री पति - जगन्नाथ यात्रा का चित्रण
जात्री पति – जगन्नाथ यात्रा का चित्रण

पट्टचित्र कला शैली में मेरा प्रिय विषय जात्री–पति है। इस पारंपरिक चित्र में एक तीर्थयात्री की जगन्नाथ पुरी तक की यात्रा का वर्णन किया जाता है। इसमें तीर्थयात्री द्वारा चले गए तीर्थमार्ग का चित्रण किया जाता है, जैसे प्राचीन अठारनाला पुल अथवा मंदिर की २२ सीढ़ियाँ या सिंह द्वार जैसे द्वार इत्यादि। एक विस्तृत चित्र में इसे एक शंख के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जहां मंदिर की प्रमुख मूर्तियाँ भी चित्रित होती हैं । इस प्रकार के चित्रण को शंख नाभि पट्टचित्र कहते हैं। इस प्रकार का चित्रण अब दुर्लभ है। अनलाइन स्टोर में मुझे बहुत कम विकल्प दिखाई दिए। रघुराजपुर में आपको इसका साधारण रूप दृष्टिगोचर होगा किन्तु वह भी सुंदरता में कम नहीं है।

भगवान कृष्ण की जीवनी

समग्र कला से बना हाथी
समग्र कला से बना हाथी

श्री कृष्ण की जीवनी, यह भी एक प्रिय विषय है। मैंने अनेक चित्र देखे जिनमें कृष्ण की जीवनी प्रस्तुत की गई है। उनमें अनंत नारायण अवतार से लेकर ब्रज में उनके बालपन तक तथा द्वाराका में उनके राज तक की कथाएं प्रदर्शित किये गए हैं। रामायण तथा बौद्ध धर्म की कथाएं भी चित्रित हैं किन्तु वे अधिक लोकप्रिय नहीं हैं। दशवातार अर्थात विष्णु के १० अवतार भिन्न भिन्न मण्डल संरचनाओं में चित्रित किये गए हैं। पट्टचित्रों में रासलीला भी एक लोकप्रिय विषय है। ओडिशा देवी की भूमि भी है। अतः आप यहाँ अनेक चित्र ऐसे भी देखेंगे जिनमें देवी के विभिन्न स्वरूपों को प्रदर्शित किया गया है। महिषासुरमर्दिनी उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय है।

वर्तमान काल में धर्मनिरपेक्ष विषय भी अपना स्थान बनाते दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें सर्वाधिक प्रिय विषय है जीवन वृक्ष अर्थात ‘ट्री ऑफ लाइफ’। ज्यामितीय आकृतियों में आदिवासी चित्रकारी शैली भी प्रसिद्धि अर्जित कर रही है।

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कभी कभी रचनात्मक चित्रकार विभिन्न चित्र शैलियों का सम्मिश्रण भी करते हैं। जैसे मैंने एक चित्र देखा जिसमें जगन्नाथजी के मुखड़े पर दशावतार चित्रित किया हुआ था।

जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बालभद्र के कुछ चित्र हैं जो सूखे नारियल की खोपड़ी पर चित्रित हैं। ये कलाकृतियाँ पुरी की स्मृति के रूप में पर्यटकों में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि इनके मूल्य सर्व सामान्य के लिए वहन करने योग्य है। इन्ही के लघु रूप में ऐसी ही चित्रकारी सुपारी पर भी की गई हैं। मुझे बताया गया कि सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लोग इसे अपने द्वार के समक्ष लटकाते हैं।

इस गाँव में विभिन्न देव-देवियों के मुखौटे भी बनाए जाते हैं। मैं यह नहीं कहूँगी कि यह शैली इस गाँव की वैशिष्ठता है।

केलूचरण महापात्रा की जन्मस्थली

ओडिशी गुरु केलुचरण महापात्रा की जन्मस्थली - रघुराजपुर
ओडिशी गुरु केलुचरण महापात्रा की जन्मस्थली – रघुराजपुर

यदि आप भारत के ८ शास्त्रीय नृत्यों के विषय में जानते हैं तो आपको ओडिसी नृत्य शैली के विषय में अवश्य ज्ञात होगा। गुरु केलूचरण महापात्रा ओडिसी नृत्य में प्रविण्यता प्राप्त सर्वप्रसिद्ध नर्तकों में से एक हैं। रघुराजपुर उनकी जन्मस्थली है। कालांतर में वे भुवनेश्वर में स्थानांतरित हो गए थे। उन्होंने अपनी जन्मस्थली अर्थात रघुराजपुर में एक मंदिर का भी निर्माण कराया था। किन्तु इस गाँव में उनका स्वयं का निवासस्थान अब खंडहर में परिवर्तित हो गया है। उस स्थान पर गांववासी उनकी स्मृति में एक स्मारक बनवाना चाहते हैं किन्तु इस उपक्रम में उनके परिवार द्वारा नेत्रत्व स्वीकारने की आवश्यकता है। गाँव के बाहर एक छोटे से संकुल में उनकी प्रतिमा अवश्य स्थापित की गई है।

गोटीपुआ गुरुकुल

गोटीपुआ एक प्रकार का ओडिसी नृत्य प्रदर्शन है जो नवयुवक स्त्रियों का भेष धर कर करते हैं। इस शैली में नृत्य में निपुणता तो अपेक्षित ही है, साथ ही देह में अत्यधिक लचीलापन भी आवश्यक है। गोवा में प्रत्येक वर्ष आयोजित लोकोत्सव में मैंने ओडिशा से आए नर्तकों द्वारा प्रदर्शित यह नृत्य अनेक बार देखा है। पुरी के जिस अतिथिगृह में हम ठहरे हुए थे वहाँ भी मैंने इस नृत्य का प्रदर्शन देखा। इतनी सुगमता से वे अपनी देह को घुमाते तथा लहराते हैं कि देखते ही बनता है।

इस छोटे से गाँव ने तीन पद्म पुरस्कृत प्रतिष्ठित व्यक्ति प्रदान किये हैं।

डॉ. जगन्नाथ महापात्रा – पट्टचित्र चित्रकला शैली के गुरु, जिन्होंने ताड़पत्र चित्रकला के लिए १९६५ में रघुराजपुर शिल्प ग्राम की स्थापना की थी। मैं इस तथ्य का सत्यापन नहीं कर पायी। यह जानकारी मुझे गांववासियों ने प्रदान की।

गुरु केलूचरन महापात्रा – इन्हे ओडिसी नृत्यकला में पद्म विभूषण की उपाधि से पुरस्कृत किया गया है।

गुरु मगुनी चरण दास – इन्हे गोटीपुआ गुरुकुल की स्थापना करने के लिए पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया गया है।

यात्रा सुझाव

सुपारी एवं रीठा पर जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा
सुपारी एवं रीठा पर जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा
  • यह गाँव चंदनपुर नामक नगर के समीप स्थित है। आप चंदनपुर नगर के बाजार से ही चित्रों से अलंकृत भित्तियाँ देखना आरंभ कर देंगे। इन्हे देखने के लिए रुकना चाहें तो अवश्य रुकें, किन्तु रघुराजपुर शिल्पग्राम का अवलोकन किये बिना यहाँ से ना जाएँ।
  • टसर रेशमी वस्त्रों पर की गई चित्रकारी पारंपरिक ताड़पत्र चित्रकारी से अपेक्षाकृत कम दामों में उपलब्ध हैं क्योंकि इनमें एक्रिलिक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा इनकी परिकल्पनाएं कम जटिल होती हैं।
  • गाँव के प्रत्येक घर में आपको पट्टचित्र प्राप्त हो जाएंगे। आप कहीं भी रुककर इनमें से किसी भी घर में भेंट कर सकते हैं। अधिकतर कलाकार अपनी कार्यशाला में पर्यटकों का स्वागत अत्यंत आत्मीयता से करते हैं।
  • आप स्वयं गाँव में ताड़पत्र पर चित्रकारी करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा आप अपने गृहनगर में कार्यशाला आयोजित करने के लिए इन्हे आमंत्रित भी कर सकते हैं।
  • आप अपनी रुचि के अनुसार यहाँ जितना चाहें उतना समय व्यतीत कर सकते हैं।
  • गाँव में खाद्य पदार्थ एवं अन्य किसी भी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। यदि किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कारीगरों से कहें। वे आपकी सहायता अवश्य करेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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एकताल – शिल्प और कला का गाँव, छत्तीसगढ़ https://inditales.com/hindi/ektaal-dhatu-kala-shilpgram-chhattisgarh/ https://inditales.com/hindi/ektaal-dhatu-kala-shilpgram-chhattisgarh/#comments Wed, 17 Apr 2019 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=889

एकताल – छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिले के पास बसा यह छोटा सा साधारण गाँव शिल्प और कला का प्रमुख केंद्र माना जाता है। इस गाँव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह अनेकों राज्य और राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार विजेता कलाकारों का घर है। ढोकरा की कारीगरी – एकताल, शिल्प और कला का गाँव, छत्तीसगढ़  […]

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एकताल ढोकरा धातु शिल्प ग्राम छत्तीसगढ़
एकताल ढोकरा धातु शिल्प ग्राम छत्तीसगढ़

एकताल – छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिले के पास बसा यह छोटा सा साधारण गाँव शिल्प और कला का प्रमुख केंद्र माना जाता है। इस गाँव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह अनेकों राज्य और राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार विजेता कलाकारों का घर है।

ढोकरा की कारीगरी – एकताल, शिल्प और कला का गाँव, छत्तीसगढ़ 

एकताल का पूरा गाँव हस्तनिर्मित धातु की शिल्पकारी में कार्यरत है। इस शिल्पकारी को ढोकरा की कारीगरी के नाम से जाना जाता है। ये दस्तकार आज भी मोम क्षय विधि जैसी प्राचीन कार्य पद्धति का इस्तेमाल करते हैं, जिसका प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता की कालावधि के दौरान भी होता था। इस पद्धति के अनुसार सबसे पहले मधुमक्खी के मोम से बनी पट्टियों से चिकनी मिट्टी की बनी सिल्ली पर तरह-तरह के ढांचे बनाए जाते हैं। यह मोम की पट्टियाँ एक छोटी सी लकड़ी की मशीन की सहायता से बनाई जाती हैं, जिसमें सामान्य सी दबाव प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। फिर यह मोम पूर्ण रूप से स्थिर होने के पश्चात उस पर चिकनी मिट्टी की और एक परत चढ़ाई जाती है, जिसे ठोस बनाने के लिए बाद में पकाया जाता है।

ढोकरा कलाकृतियों को गढ़ने के लिए मिटटी के सांचे
ढोकरा कलाकृतियों को गढ़ने के लिए मिटटी के सांचे

जैसे-जैसे मिट्टी मोम का आकार लेने लगती है, वैसे- वैसे धीरे-धीरे मोम भी पिघलने लगता है। और फिर मोम के पिघलने से निर्मित उस खाली जगह में द्रव्य धातु भर दिया जाता है जो मोम का आकार ले लेता है। उसके बाद यह धातु पूर्ण रूप से स्थायी होने के पश्चात मिट्टी के आवरण को तोड़ दिया जाता है, जिससे चमचमाती हुई धातु की अंतिम कलाकृति अपने पूर्ण स्वरूप में प्रस्तुत होती है।

मोम की पट्टियाँ बनती हुई
मोम की पट्टियाँ बनती हुई

हमने देखा कि इस प्रक्रिया में महिलाएं चिकनी मिट्टी की सिल्लियों पर विविध ढांचे रखने का कार्य कर रही थीं। जबकि पुरुष मोम की पट्टियाँ बनाना, मिट्टी के ढांचे पकाना, फिर उन्हें तोड़ना, तथा अंतिम उत्पाद को व्यवस्थि रखना और उन्हें बेचना जैसे अन्य कार्यों में व्यस्त होते थे। इन कलाकारों की अधिकतर कृतियाँ आदिवासी देवी-देवताओं और लोक-कथाओं या उनसे जुड़े पात्रों से संबंधित हुआ करती थीं। लेकिन अब धीरे-धीरे ये लोग उपयोगी वस्तुएं जैसे कि बर्तन आदि की आकृतियाँ बनाने का प्रयास भी करने लगे हैं। मुझे लगता है कि यह कलाकार इस विश्व की बदलती आवश्यकताओं के अनुसार कुछ भी बना सकते है।

श्रीमति बुधियारिन देवी – राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्रीमति बुधियारिन देवी के साथ बातचीत करके मुझे बहुत प्रस्सनता हुई। उन्होंने बड़े गर्व से हमे अपनी नवीनतम कृति दिखाई जिसके लिए उन्हें राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उन से उनके यात्रा अनुभवों तथा उनके द्वारा देखी गयी अनेक जगहों का उन पर पड़े प्रभावों के बारे में सुनना बहुत ही दिलचस्प था।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्रीमती बुधियारिन  देवी अपनी कृति गज लक्ष्मी के साथ
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्रीमती बुधियारिन देवी अपनी कृति गज लक्ष्मी के साथ

ये कुशल कारीगर पूरे देश में घूमकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। उन्हें देश के अन्य राज्यों में भी समय-समय पर अपनी कलाकृतियों पर कार्यशालाएं आयोजित करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। एक प्रकार से उनकी कलाकृतियाँ उनके लिए दुनिया देखने का साधन बन गयी हैं, तो दूसरी तरफ उनकी कृतियाँ विश्व को उनकी संकृति के बारे में जानने का अवसर भी प्रदान करती हैं। देखा जाए तो कला का एक मुख्य प्रयोजन यह भी है कि वह मानव-निर्मित सीमाओं के पार संबंध स्थापित करे।

एकताल - छत्तीसगढ़ का छोटा सा शिल्पग्राम
एकताल – छत्तीसगढ़ का छोटा सा शिल्पग्राम

इस यात्रा के दौरान हमने रायपुर में स्थित छत्तीसगढ़ के राज्य विक्रय केंद्र के दर्शन भी किए, जो एक विचित्र से नाम वाली समिति द्वारा संचालित होता है। इस समिति का नाम है झिटकू मिटकी। जब मैंने अपने गाइड से इस नाम के पीछे छिपे रहस्य के बारे में पूछा, तो उन्होंने मुझसे कहा कि वह बस लोक-कथा का एक भाग है, परंतु उससे जुड़ी कहानी के बारे में वे मुझे कुछ नहीं बता पाए। इसके बावजूद भी इस नाम में कुछ तो ऐसी बात जरूर थी जो मुझे बार-बार उसके पीछे छिपी कहानी को जानने के लिए उकसा रही थी। वहाँ से लौटने के तुरंत बाद मैंने इंटरनेट पर झिटकू मिटकी के बारे में ढूंढना शुरू किया जिसके चलते मुझे यह कहानी प्राप्त हुई।

झिटकू मिटकी की कथा 

मिटकी बस्तर क्षेत्र में रहने वाले सात भाइयों की एकलौती बहन थी। जब मिटकी बड़ी हुई तो उसके भाई उसकी शादी करवाने के लिए झिटकू नाम के एक युवक को घर लेकर आए। धीरे-धीरे झिटकू और मिटकी दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे। लेकिन शायद नियति को उनका यह साथ मंजूर नहीं था। एक दिन ऐसा हुआ कि मिटकी के परिवार को किसी धार्मिक कार्य के लिए बलि चढ़ाने हेतु किसी मनुष्य की आवश्यकता थी और क्योंकि उन्हें बलि चढ़ाने के लिए कोई नहीं मिला तो उन्होंने आखिर में झिटकू की ही बलि चढ़ा दी।

आप ढोकरा कलाकृतियाँ ऑनलाइन भी मंगवा सकते हैं ।

इस घटना से मिटकी बहुत क्रोधित हुई और आवेश में आकार उसने आत्महत्या कर ली। तब से बस्तर का आदिवासी समाज उन्हें प्रेमी युगल के रूप में पूजने लगा। यहाँ के लोगों का मानना है कि झिटकू-मिटकी की पूजा करने से आपकी सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। झिटकू मिटकी को गप्पा देई और लक्कड़ देई, या डोकरा-डोकरी जैसे अन्य कई नामों से भी जाना जाता है। वे इस क्षेत्र में निर्मित शिल्प कृतियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं।

और पढ़ें – पुरखौती मुक्तांगन – पूर्वजों को समर्पित भावपूर्ण श्रद्धांजलि, नया रायपुर 

एकताल के अधिकतर निवासी झारा जनजाति के हैं, जो गोंड आदिवासी समाज की एक उप-जाति है। वे कई वर्ष पूर्व ओड़ीशा से यहाँ स्थानांतरित हुए थे। ये लोग पत्रकारों और आगंतुकों से बातचीत करने में इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि, जैसे ही उन्हें कैमरा और किताब लेकर आते लोगों का समूह नज़र आता है तो वे तुरंत ही अपनी मुश्किलों का पिटारा उनके सामने खोल देते हैं; इसी उम्मीद में कि इन पत्रकारों के द्वारा उनकी मुश्किलें लोगों तक पहुंचेगी और आशापूर्वक उनके कुछ समाधान भी मिलेंगे। लेकिन अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ की मेरे पों में भी वही जूते हैं, जो उनके पों में हैं।

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कुचिपुड़ी गाँव – आंध्र प्रदेश का प्राचीन नृत्य ग्राम https://inditales.com/hindi/kuchipudi-nritya-gram-andhra-pradesh/ https://inditales.com/hindi/kuchipudi-nritya-gram-andhra-pradesh/#comments Wed, 19 Apr 2017 02:30:37 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=214

कुचिपुड़ी गाँव – आँध्रप्रदेश का एक ऐसा गाँव जिसने भारत के ७ प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य शैलियों में से एक प्रसिद्ध नृत्य शैली को अपना नाम प्रदान किया। कुछ वर्ष पूर्व एक पत्रिका पढ़ने के दौरान मुझे यह ज्ञात हुआ कि यह आँध्रप्रदेश के कृष्णा जिले में स्थित एक गाँव का नाम है। हालांकि, मेरी हैदराबाद […]

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कुचिपुड़ी नृत्य ग्राम - आन्ध्र प्रदेशकुचिपुड़ी गाँव – आँध्रप्रदेश का एक ऐसा गाँव जिसने भारत के ७ प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य शैलियों में से एक प्रसिद्ध नृत्य शैली को अपना नाम प्रदान किया। कुछ वर्ष पूर्व एक पत्रिका पढ़ने के दौरान मुझे यह ज्ञात हुआ कि यह आँध्रप्रदेश के कृष्णा जिले में स्थित एक गाँव का नाम है। हालांकि, मेरी हैदराबाद यात्रा के दौरान मुझे कई कुचिपुड़ी नृत्य प्रदर्शन देखने का अवसर मिला था। खासकर हलीम खान द्वारा प्रदर्शित नृत्य प्रदर्शन ने मेरा मन मोह लिया था। कुचिपुड़ी गाँव के बारे में पढ़ते समय मुझे इन यादगार प्रदर्शनों का ध्यान हो आया और तभी से मुझे कुचिपुड़ी गाँव की यात्रा करने की तीव्र इच्छा जागृत हुई।

मुझे इस गाँव के दर्शन करने का अवसर जल्द ही प्राप्त हुआ। हुआ ऐसा कि मुझे आँध्रप्रदेश पर्यटन द्वारा अमरावती विश्व संगीत व नृत्य महोत्सव में भाग लेने का आमंत्रण प्राप्त हुआ। ज्ञात हुआ कि कुचिपुड़ी गाँव विजयवाडा से मात्र ६० की.मी. पर है। समारोह के उपरांत ही हम अपनी अनोखी नृत्य ग्राम यात्रा के लिए निकल पड़े।

श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम, कुचिपुड़ी

कुचिपुड़ी नृत्य के दिग्गज
कुचिपुड़ी नृत्य के दिग्गज

कुचिपुड़ी गाँव में हम श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम के द्वार पर उतरे। यह नृत्य संस्थान हैदराबाद के तेलुगु विश्वविद्यालय के अंतर्गत है। जैसे ही हम गाडी से उतरे, हमारे समक्ष, बगीचे के बीचोंबीच, काले पत्थर से बनी एक सुरुचिपूर्ण महिला की सुन्दर प्रतिमा पर हमारी दृष्टि पड़ी। इस प्रतिमा ने एक हाथ में कमल व दूसरे हाथ में चावडी, अर्थात् चामर धारण किया हुआ है। मुझे इस प्रतिमा व इन चिन्हों के पीछे के शास्त्र का ज्ञान नहीं था और उस पर मैंने यह निष्कर्ष निकालने की चेष्टा की, कि यह प्रतिमा भारत माता का स्वरुप है। तुरंत मेरे निष्कर्ष को सुधार कर मुझे यह बताया गया कि यह तेलुगु तल्ली अर्थात् तेलुगु माता की मूर्ति है। मैंने मन ही मन सोचा, कि भारत विस्मयकारी तथ्यों का खजाना है।

तेलुगु तेल्ली प्रतिमा
तेलुगु तेल्ली प्रतिमा

कला पीठम संसथान में प्रवेश करते ही हमारी दृष्टि, इस स्थल के लिए सर्वोपयुक्त, चोल पीतल में बनी नटराज की विशाल प्रतिमा पर पड़ी। साथ ही वर्तमान कुचिपुड़ी के जनक श्री सिद्धेन्द्र योगीजी की भी प्रतिमा थी। इस कला पीठम की स्थापना हेतु भूमि, कुली क़ुतुब शाह ने इस संस्थान को दान स्वरुप प्रदान की थी। कहा जाता है कि वह इस कुचिपुड़ी नृत्य शैली पर मोहित थे। इस संस्थान की वर्तमान इमारत अपेक्षाकृत नवीन है जिसमें विद्धार्थियों के लिए छात्रावास की भी सुविधा उपलब्ध है। १०० से भी ज्यादा वर्ष प्राचीन इमारत के स्थान पर इस नवीन इमारत की संरचना की है।

श्री सिद्धेन्द्र योगीजी व उनकी कुचिपुड़ी शैली

इस संस्थान के कार्यकर्ता व विद्यार्थियों से भेंट के पश्चात्, प्रदर्शन कला में स्नातकोत्तर छात्रा सुश्री अनुपमा ने हमें कुचिपुड़ी गाँव व इस नृत्यशैली के इतिहास की जानकारी दी।

भामा कलापम

कुचिपुड़ी नृत्य - श्री सिद्देन्द्र योगी कला पीठम के छात्रों द्वारा
कुचिपुड़ी नृत्य – श्री सिद्देन्द्र योगी कला पीठम के छात्रों द्वारा

अनुपमा ने हमें श्री सिद्धेन्द्र योगी द्वारा रचित नृत्य नाटिका भामा कलापम के बारे में बताया। भामा अर्थात् सत्यभामा, जो भगवान् कृष्ण की ८ पत्नियों में से एक है। यह नृत्य नाटिका सत्यभामा के कृष्ण में विलीन होने की कामना पर आधारित है। सत्यभामा के हृदय में आसक्ति, मोह, इच्छाओं आदि वासनाओं का वास था। इस कारण भगवान् कृष्ण में विलीन होना उनके लिए असंभव था। इन अवगुणों का परित्याग करने के पश्चात् ही वह कृष्ण में समाहित हो सकती थी। यह कथा लाक्षणिक रूप से आत्मा व परमात्मा पर आधारित है। यह, मानव की भगवान् में विलीन होने की अभिलाषा व इसके लिए आनेवाली बाधाओं पर विजय प्राप्त करने की कथा है।

भामा कलापम, कुचिपुड़ी नृत्य नाटिका की सबसे ज्यादा प्रदर्शित नृत्य नाटिका है। हमें बताया गया कि भामा कलापम कथा अत्यंत विस्तार से रची गयी है। इसका अंदाजा इस उदाहरण से लगाया जा सकता है कि एक पूर्ण रात्रि मात्र सत्यभामा की केशसज्जा बखान करती है। दरअसल पूर्ण कुचिपुड़ी नृत्य शैली, वैष्णव संस्कृति से सराबोर है। विष्णु के अवतारों में से कृष्ण भगवान्, भक्ति मार्ग के अनुगामियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँ तक की इस जिले को ‘कृष्णा’ नाम दिया है। कृष्णा नदी भी यहीं से बहती हुई समुद्र में विलीन होती है।

श्री योगीजी का यहाँ १७ वीं शताब्दी में वास था जब भक्ति आन्दोलन व कृष्ण भक्ति भाव अपनी चरम सीमा पर था।

कुचिपुड़ी गाँव का इतिहास

श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम के अध्यापकगण
श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम के अध्यापकगण

कुचिपुड़ी गाँव, कुचेलापुरम या कुचिलापुरी के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्राचीन संस्कृत नाम कुशिलावापुरम अर्थात् बंजारे संगीतज्ञ व नर्तकों का गाँव है। कुचिपुड़ी की शब्द व्युत्पत्ती भी इस प्राचीन नृत्य शैली की कथा कहती है।

कुचिपुड़ी के वर्तमान इतिहास के सर्व साहित्य मध्य कालीन युग से उपलब्ध हैं। परन्तु हमें बताया गया कि पुरातत्ववेत्ताओं ने कई प्राचीन बुद्ध प्रतिमाएं खोज निकालीं जिन पर नृत्य मुद्राएं प्रत्यक्ष दिखाई देतीं हैं। हालांकि, नृत्य मुद्राएं दर्शाती बुद्ध की प्रतिमाएं सामान्यतः दिखती नहीं है, पर शायद इस भूमि की महिमा इतनी अपरंपार है कि बौद्ध भिक्षु भी यहां नृत्य करने में सक्षम थे।

कुचिपुड़ी के भावी नर्तक - श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम में अध्ययनरत
कुचिपुड़ी के भावी नर्तक – श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम में अध्ययनरत

ऐसा कहा जाता है कि इस गाँव के हर एक परिवार में कुचिपुड़ी नृत्य कलाकार हैं। हर एक गांववासी इस नृत्य शैली में निपुण है। ज्यादातर नर्तकों ने अपने पिता से इस नृत्य की शिक्षा हासिल की। जी हाँ! कुचिपुड़ी नृत्य का प्रसार पितृप्रधान वंशानुगत रीति द्वारा हुआ था। परन्तु वर्तमान काल में इस रीत में बदलाव देखा गया है। अनुपमा ने हमें बताया कि कुचिपुड़ी गाँव कुल १३ ब्राम्हण परिवारों से बना है जिसका प्रत्येक सदस्य इस नृत्य शैली की दीक्षा हासिल करता है।

पारंपरिक रीति अनुसार केवल पुरुष नर्तक ही इस नृत्य शैली का अभ्यास करते थे। वे अकसर स्त्री वेष धर कर स्फूर्ति और उत्साह से नृत्य करते थे। ऐसे ही अनेक वरिष्ठ कुचिपुड़ी पुरुष नर्तकों के चित्र यहाँ श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम में देखे जा सकते हैं, जिन्होंने स्त्री वेष धर कर नृत्य का प्रदर्शन किया था।

श्री वेदांत लक्ष्मी नारायण शास्त्रीजी २० वीं सदी में पारंपरिक कुचिपुड़ी नृत्य शैली में हुए कई बदलाव के उत्तरदायी हैं।उन्होंने ही स्त्रियों में इस नृत्य शैली को प्रवर्तित किया। साथ ही उन्होंने इस नृत्य शैली को ब्राम्हणों के दायरे से बाहर निकला और इसे हर उस व्यक्ति को उपलब्ध कराया जो इसमें प्रशिक्षित होना चाहता था।

कुचिपुड़ी नृत्य

कुचिपुड़ी नृत्य के ४ प्रमुख अंग इस प्रकार हैं –
• वाचिका अर्थात् मौखिक
• आहार्या अर्थात् वेशभूषा
• अंगिका अर्थात् मुद्राएँ व भंगिमाएं
• सात्विका अर्थात् अभिनय व अभिव्यक्ति

कुचिपुड़ी नृत्य शैली के अंतर्गत, नर्तक गाते हैं व दर्शकों से संवाद करते हैं। यह पूर्ण नृत्य शैली कथाकथन पर आधारित है जिसमें कुछ भाग संवाद रूप में, कुछ भाग नाटक रूप में व कुछ मुख मुद्राओं से अभिव्यक्त किया जाता है। इसमें सूत्रधार का भी समावेश रहता है जो नृत्य नाटिका के दौरान समय समय पर कथाकथन प्रस्तुत करता है। अन्य नृत्य शैलियों की तुलना में, इस कुचिपुड़ी नृत्य में अभिनय व मुख मुद्राओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

नर्तकों का साथ देते संगीतवादक मृदंग, वायोलिन, हारमोनियम इत्यादि बजाते हैं व एक गायक और एक गायिका उनके लिए गायन प्रस्तुत करते हैं। मौलिक रूप से कुचिपुड़ी एक सामूहिक नृत्य प्रदर्शन है जिसमें भिन्न भिन्न कलाकार विभिन्न भाग प्रस्तुत करते हैं।

वेशभूषा इस नृत्य का एक अहम् अंग है। कुचिपुड़ी कलाकार लकड़ी से बने हल्के वजन के आभूषण धारण करते हैं। ज्यादातर कलाकार व उनका परिवार अपने गहने स्वयं गढ़तें हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कुचिपुड़ी का उनकी जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान में कई कुचिपुड़ी नर्तक, पारंपरिक जौहरियों द्वारा निर्मित धातु के आभूषण धारण करने लगे हैं।

विद्यार्थियों द्वारा प्रदर्शित कुचिपुड़ी नृत्य दर्शन

श्री सिद्धेन्द्र योगी को समर्पित मंदिर - कुचिपुड़ी गाँव
श्री सिद्धेन्द्र योगी को समर्पित मंदिर – कुचिपुड़ी गाँव

श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम के प्रधानाचार्य श्री वेदांतम रामलिंग शास्त्रीजी ने हमारे लिए विद्यार्थियों द्वारा २ नृत्य प्रदर्शनों का आयोजन कराया। पहले प्रदर्शन में २ छात्रों ने प्रधानाचार्य व उनकी धर्मपत्नी द्वारा गाये गए गीत पर नृत्य किया।दूसरे प्रदर्शन में नर्तक ने शिव अष्टकम पर नृत्य प्रस्तुत किया। हम नर्तकों के स्फूर्तिपूर्ण व फुर्तीले नृत्य में खो से गए। चूंकि यह विद्यार्थी अल्प अवधि सूचना के तहत नृत्य प्रदर्शन कर रहे थे, वे दैनंदिक वस्त्रों में थे। इसलिए इनकी भव्य वेशभूषा के दर्शन का अवसर हमें नहीं मिला। मैं सिर्फ इन नर्तकों को, उनकी वेशभूषा धारण किये, उचित प्रकाश में नृत्य करते, अपनी कल्पना में ही देख सकती थी।

यह अत्यंत दुःख की बात है कि हमारे देश में बहुत कम लोग इस कला समृद्ध, कुचिपुड़ी गाँव के बारे में जानते हैं। जबकि हमें गर्व के साथ हमारी इस धरोहर को विश्व सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए। ऐसी कितनी जगहें होंगी जिन्हें इतने लम्बे अरसे से पूर्ण नृत्य ग्राम होने का गर्व होगा? आशा करती हूँ कि इस नृत्य ग्राम से पूर्ण प्रशिक्षित छात्र अपने इस गाँव की जानकारी अपनी कला द्वारा सम्पूर्ण विश्व को प्रदान करेंगे।

श्री सिद्धेन्द्र योगी कुचिपुड़ी कला पीठम के सभी शिक्षकगण व विद्यार्थी अत्यंत विनम्र और सरल स्वभाव के थे। उन्होंने हमें केले के पत्तों पर सादा दक्षिण भारतीय भोजन कराया। आप विश्वास नहीं करेंगे पर कई दिनों बाद मैंने इतना स्वादिष्ट भोजन का आस्वाद लिया था।

कुचिपुड़ी गाँव

कुचिपुड़ी की ग्राम देवी - बाल त्रिपुर सुंदरी
कुचिपुड़ी की ग्राम देवी – बाल त्रिपुर सुंदरी

श्री सिद्धेन्द्र योगी कला पीठम के दर्शन उपरांत हम कुचिपुड़ी की ग्राम देवी, बाला त्रिपुरा सुंदरी मंदिर के दर्शन हेतु निकल पड़े। रास्ते में श्री सिद्धेन्द्र योगीजी को समर्पित एक छोटे से मंदिर के भी दर्शन किये। इस मंदिर के मुख्य द्वार के ऊपर एक वीणा की प्रतिकृति रखी हुई है।

बाल त्रिपुरा सुंदरी मंदिर भी एक छोटा पीले रंग का मंदिर है जिसमें गोपुरम व शिखर का आकार समान है। यह शिव व पार्वती के बाल सुंदरी रूप को अर्पित है। शिखर के एक तरफ नटराज की सुन्दर प्रतिमा विभूषित है। मंदिर के पिस्ता हरे रंग के स्तंभों पर विभिन्न नृत्य मुद्राएँ धारण की हुईं छोटी छोटी प्रतिमाएं गड़ी हुई हैं। कुचिपुड़ी गाँव के सभी कलाकार नृत्य से पूर्व यहाँ आकर भगवान् के चरणों में प्रार्थना अर्पित करते हैं।

बाल त्रिपुर सुंदरी मंदिर के शिखर पर नटराज का वास
बाल त्रिपुर सुंदरी मंदिर के शिखर पर नटराज का वास

मंदिर के एक ओर नाट्य पुष्करणी नामक नवीन चेरुवु अर्थात् झील निर्माणाधीन है। इस झील के मध्य श्री सिद्धेन्द्र योगीजी की प्रतिमा स्थापित करने की भी योजना है।

नाटय पुष्करणी - कुचिपुड़ी ग्राम
नाटय पुष्करणी – कुचिपुड़ी ग्राम

मुझे ज्ञात हुआ कि कुचिपुड़ी गाँव के आसपास कई दूसरे मंदिर भी हैं। आशा है इनके दर्शन हेतु पुनः आने का अवसर मुझे जल्द ही मिलेगा।

कुचिपुड़ी दर्शन हेतु कुछ सुझाव

• कुचिपुड़ी गाँव में रहने के लिए धर्मशाला इत्यादि की कोई व्यवस्था नहीं है। निकटतम स्थान विजयवाड़ा है जहाँ यात्रियों के लिए हर स्तर की आवास सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
• निकटतम विमानतल व रेल सुविधाएँ भी विजयवाड़ा में उपलब्ध हैं।
• हमने संस्थान में सादा शाकाहारी भोजन ग्रहण किया था। पूर्व सूचना देने पर वे आपके भोजन की भी व्यवस्था कर सकते हैं।
• इस गाँव व इसकी संस्कृति का अहसास करने हेतु, इस गाँव का दर्शन पैदल चल कर ही किया जा सकता है।

आँध्रप्रदेश के अन्य पर्यटन स्थलों के दर्शन पूर्व आपके लिए मेरी कुछ यात्रा संस्मरण प्रस्तुत है-
1. विशाखा पट्टनम का प्रसिद्ध रामकृष्ण समुद्रतट
2. अरकू आदिवासी संग्रहालय
3. अरकू घाटी की छिद्रयुक्त अरकू गुफाएं
4. रामकृष्ण समुद्रतट पर स्थित आईएनएस कुर्सुरा पनडुब्बी संग्रहालय
5. अरकू घाटी तक रेल यात्रा

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

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