तटीय भारत Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Sat, 21 Oct 2023 07:05:03 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.4 भारत के जलगत पुरातत्व – अवसरों का सागर https://inditales.com/hindi/jalgat-puratattva-bharat-itihasa-bhavishya/ https://inditales.com/hindi/jalgat-puratattva-bharat-itihasa-bhavishya/#respond Wed, 06 Sep 2023 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3174

अनुराधा : नमस्ते। इंडीटेल्स के अन्तर्गत, डीटुअर्स में चर्चा करने के लिए आज हमारे साथ है, डॉ. अनुरुद्ध सिंह गौर, जो एक समुद्री पुरातत्त्वविद् (marine archeologist) हैं। जलगत पुरातत्व से मेरा सर्वप्रथम सामना तब हुआ था जब मैं द्वारका गयी थी। मैंने उससे संबंधित एक पुस्तक भी पढ़ी थी जिसके लेखक डॉ. एस आर राव […]

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अनुराधा : नमस्ते। इंडीटेल्स के अन्तर्गत, डीटुअर्स में चर्चा करने के लिए आज हमारे साथ है, डॉ. अनुरुद्ध सिंह गौर, जो एक समुद्री पुरातत्त्वविद् (marine archeologist) हैं। जलगत पुरातत्व से मेरा सर्वप्रथम सामना तब हुआ था जब मैं द्वारका गयी थी। मैंने उससे संबंधित एक पुस्तक भी पढ़ी थी जिसके लेखक डॉ. एस आर राव थे, जिन्होंने द्वारका के पुरातत्व पर शोध किया था। तब मुझे ज्ञात हुआ कि यह शोध कार्य राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा (National Institute of Oceanography) द्वारा किया गया था जो मेरे घर के अत्यंत समीप स्थित है। तब मैंने डॉ. अनुरुद्ध सिंह गौर से अनुरोध किया कि वे हमें जलगत पुरातत्व के विषय में कुछ जानकारी दें। अनुरुद्ध जी, डीटुअर्स में आपका स्वागत है।

भारत का जलगत पुरातत्व

ए एस गौर : आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराधा जी। मुझे यह जानकार प्रसन्नता हुई कि जलगत पुरातत्व में आपकी रूचि है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान में हमारा यह अधिदेश होता है, हमारा ध्येय होता है कि हम समुद्र विज्ञान के प्रत्येक आयाम के विषय में जानकारी प्राप्त करें। इसके अंतर्गत समुद्र संबंधी भौतिकी, रसायन विज्ञान एवं जीव विज्ञान तीनों आते हैं। हम में से वैज्ञानिकों का एक छोटा समूह जलगत पुरातात्विक धरोहरों पर भी कार्य कर रहा है।

जलगत पुरातत्व क्या है?

समुद्र की सतह कभी स्थिर नहीं रहती। वह ऊपर-नीचे होती रहती है।

ऐसा कहा जाता है कि १०,००० वर्ष पूर्व समुद्र की सतह आज से लगभग १०० मीटर नीचे थी। इसका अर्थ है कि आज जो क्षेत्र जलगत है, वह उस काल में जल से बाहर था। उस समय तटीय क्षेत्र की अधिकाँश जनसँख्या उन स्थानों में निवास करती थी।

जलगत वसाहत

जलगत पुरातत्व का एक आयाम है, जलगत खँडहर। प्राचीन काल से समय के साथ लम्बे समय के लिए अनुपलब्ध जैसे जैसे समुद्र का स्तर बढ़ने लगा, वैसे वैसे अनेक वसाहती क्षेत्र जलगत हो गए। इससे हम जैसे पुरातत्ववेत्ताओं के लिए शोध के अवसर उत्पन्न हो गए हैं।

जब समुद्र का स्तर १-२ मीटर बढ़ा तब उन क्षेत्रों में, जहाँ भूमि की ढलान अधिक नहीं थी, इसका अधिक प्रभाव पड़ा, जैसे गुजरात एवं तमिल नाडू। इससे वहाँ की वसाहत भी प्रभावित हुई। प्राचीन काल में गुजरात के तटीय क्षेत्र में १ मीटर जल स्तर बढ़ने पर ही एक बड़ा क्षेत्र वसाहत के लिए उपलब्ध नहीं रहा। लोग उस स्थान को त्याग कर स्थानांतरित हो गए। वह स्थान जलगत खँडहर बन गया। अब उसकी पुनः खोज करने का सुअवसर हमें प्राप्त हुआ।

जहाजों के अवशेष

जलगत पुरातत्व का दूसरा आयाम है, जहाजों के अवशेष। सिन्धु घाटी सभ्यता से भी पूर्व से जल परिवहन मनुष्य जाति का अभिन्न अंग रहा है। उसने समकालीन संस्कृति एवं सभ्यता के साथ व्यापार एवं वाणिज्य को जन्म दिया। अनेक सूत्रों से यह सर्वविदित है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने मेसोपोटामिया एवं मिस्र सभ्यता के लोगों के साथ जल मार्ग द्वारा ही व्यापार किया था। ओमान एवं संयुक्त अरब अमीरात की पुरातनता के कारण व्यापार के लिए थल मार्ग उपलब्ध नहीं था। थल मार्ग होता भी तो अत्याधिक लंबा होता। वहीं जल मार्ग अपेक्षाकृत अत्यंत छोटा था।

भारत का जलगत पुरातत्व मानचित्र
भारत का जलगत पुरातत्व मानचित्र

यदि आप मेसोपोटामिया एवं मिस्र से तुलना करें तो सिन्धु घाटी सभ्यता का तटीय क्षेत्र सर्वाधिक लंबा था। इसी कारण अपने समकालीन सभ्यताओं की तुलना में सिन्धु घाटी सभ्यता की समुद्री गतिविधियाँ अपेक्षाकृत अत्यधिक उन्नत थी। जल मार्ग द्वारा परिवहन में मानवी त्रुटियों एवं अनपेक्षित प्रतिकूल हवामान की भी संभावना अत्यधित रहती है। इन सब का परिणाम होता है, बड़े बड़े पोतों का जलमग्न हो जाना। भारतीय तटीय क्षेत्रों के निकट हमें समुद्र तल पर अनेक पोतों के अवशेष मिले हैं।

व्यापार एवं वाणिज्य

तीसरा प्रमुख आयाम जिसे हम समझने का प्रयास करते हैं, वह है व्यापार एवं वाणिज्य। इनका अनेक अभिलेखों में उल्लेख किया गया है। जैसे एक विदेशी सूत्र, ‘पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रीयन सी’ में कहा गया है कि मध्य भारत के उज्जैन से अनेक वस्तुओं का जल मार्ग द्वारा व्यापार किया जाता था जिसके लिए उन वस्तुओं को सर्वप्रथम वर्यकाजा अथवा भरुकच्च  के तट पर लाया जाता था। इस प्रकार समुद्री विज्ञान के अंतर्गत अनेक विषयों पर शोध किया जा सकता है।

मानवी सभ्यता के विकास में समुद्री क्रियाकलापों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जल परिवहन द्वारा विचारों का आदान-प्रदान संभव हो पाया जो विकास का एक प्रमुख आयाम है। समुद्री क्रियाकलापों एवं व्यापार मार्गों ने एक दूसरे की आवश्यकताओं को समझने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अन्यथा यदि सभ्यताएँ संकुचित रह जातीं तो आज उनका इतना विकास नहीं हो पाता।

सिन्धु घाटी सभ्यता के समय सभ्यता की जो नींव रखी गयी थी, वह अनवरत चलती रही। न्यूटन के विज्ञान के पश्चात भी सभ्यता में परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं थी। ना नगर नियोजन में किसी परिवर्तन की आवश्यकता रही, ना ही धातु विज्ञान, माप प्रणाली, कृषि प्रणाली आदि में।

गुजरात का समुद्री पुरातत्व

हमने अपने शोध का आरंभ गुजरात से किया था जहाँ हमें सभी कालखंडों के अवशेष प्राप्त हुए थे। उनमें सिन्धु घाटी सभ्यता, विभिन्न ऐतिहासिक कालखंड, मध्यकालीन कालखंड आदि सम्मिलित हैं। गुजरात तट की लंबाई लगभग २००० किलोमीटर है। वहाँ अनेक बंदरगाह हैं। हमने हमारा प्रथम अन्वेषण द्वारका एवं बेट द्वारका से आरंभ किया था। यह एक ऐसा इकलौता स्थान है जो शेष सौराष्ट्र से ओखा रण नामक रण द्वारा पृथक है। इस क्षेत्र को ओखा मंडल भी कहते हैं। प्राचीन काल में इसे उषा मंडल भी कहते थे क्योंकि इसका संबंध महाभारत के एक पात्र अनिरुद्ध एवं उनकी पत्नी उषा से है।

बेट द्वारका से प्राप्त लंगर
बेट द्वारका से प्राप्त लंगर

ओखामंडल में अनेक पुरातात्विक स्थल हैं, जैसे द्वारका, बेट द्वारका एवं नागेश्वर। वहाँ एक दर्जन से भी अधिक ऐसे स्थल हैं जो ऐतिहासिक कालखंड तथा मध्यकालीन कालखंड के हैं। ये सभी स्थल किसी ना किसी वर्त्तमान कालीन धार्मिक सिद्धांतों से जुड़े हुए हैं। उनमें से प्राचीनतम सिद्धांत है, नागेश्वर, जो एक सिन्धु घाटी सभ्यता का स्थल है। द्वारका अथवा बेट द्वारका तथा अन्य स्थल आरंभिक ऐतिहासिक कालखंड एवं मध्यकालीन सभ्यता से संबंधित हैं। समुद्र के भीतर शोध के द्वारा हमने यही जानकारी एकत्र की है तथा देखा है।

द्वारका

द्वारका में जल के भीतर, लगभग ३ से १० मीटर की गहराई में हमें अनेक संरचनाओं के अवशेष प्राप्त हुए। उन शैल संरचनाओं में कुछ भित्तियाँ, गोलाकार शैल संरचनाएं आदि प्रमुख हैं। वहाँ हमें बड़ी संख्या में शैल लंगर भी प्राप्त हुए। यह इस ओर संकेत करता है कि यहाँ बंदरगाह था। बंदरगाहों में लंगरों की आवश्यकता होती है। उन अवशेषों से यह संकेत प्राप्त होता है कि वह प्राचीनतम बंदरगाहों में से एक था। वहाँ डॉ. राव एवं डेक्कन कॉलेज द्वारा किये गए भूमि उत्खनन के कार्य से यह जानकारी प्राप्त हुई कि द्वारका का लगभग पाँच से छः गुना क्षेत्र जलमग्न हो गया तथा बालू के नीचे दब गया।

हमने देखा है कि सुनामी तथा चक्रवाती तूफानों जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण पूर्वी तटों को भारी क्षति पहुँची है। जैसे सन् २००४ में आयी सुनामी का परिणाम हम सब ने देखा है। इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का सामना द्वारका ने भी किया होगा। अनेक ज्ञात सूत्रों में इनका उल्लेख किया गया है। महाभारत में भी कहा गया है कि द्वारका समुद्र में समा गयी थी। यह सत्य है कि नगरी का अधिकाँश भाग समुद्र द्वारा नष्ट हो गया था।

बेट द्वारका

बेट द्वारका में जब हम घाट के निकट अन्वेषण कर रहे थे, हमें एक पोत के अवशेष प्राप्त हुए। यदि हमारा अनुमान सही है तो यह प्राचीनतम पोत अवशेष हैं जो भारत-रोम काल का है। ये अवशेष अनुमानतः १८००-२००० वर्ष प्राचीन हो सकते हैं। ये अवशेष उस स्थान पर अब तक के प्राचीनतम अवशेष हैं जिन्हें हमने खोज निकाला था।

द्वारका जलगत पुरातत्त्व
द्वारका जलगत पुरातत्त्व

बेट द्वारका में हमें मछली पकड़ने का एक सुन्दर काँटा मिला जो वहाँ के भूभाग क्षेत्र से प्राप्त हुआ। यह काँटा सिन्धु घाटी सभ्यता के अंतिम भाग का प्रतीत होता है। कदाचित ४००० वर्ष प्राचीन है। उस मछली पकड़ने के कांटे में जिस तकनीक का प्रयोग किया गया था, वही तकनीक अब भी प्रयोग में लाई जाती है।

इस कांटे की लम्बाई लगभग ७ सेंटीमीटर है। जब हमने वहाँ के स्थानिकों से चर्चा की, उन्होंने हमें बताया कि इस कांटे से लगभग १०-१५ किलो की बड़ी मछली को पकड़ा जा सकता है। ऐसी मछलियाँ गहरे पानी में होती हैं जिनको पकड़ने के लिए उन्हें किसी नौका की आवश्यकता पड़ी होगी। इस प्रकार हमें एक कलाकृति से ही कई जानकारियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

पावन शंख

बेट द्वारका क्षेत्र का अन्वेषण इस ओर संकेत करता है कि इस क्षेत्र में शंखों की कार्यशालाएं थीं। हमें यहाँ अनेक पवित्र शंख प्राप्त हुए जो भगवान विष्णु का प्रतीक हैं। यहाँ अनेक प्रकार की मछलियाँ भी पायी जाती थीं। जब हम ओखामंडल क्षेत्र से दक्षिण की ओर आये तब हम मूल द्वारका एवं विश्वाड़ा पहुँचे। गुजरात में चार द्वारका हैं। यहाँ भी हमें उसी प्रकार की वस्तुएं प्राप्त हुईं। जल के भीतर हमें शैल लंगर मिले, वहीं जलमग्न भूभाग में आरंभिक ऐतिहासिक काल के अवशेष मिले। २० किलोमीटर उत्तर में हमें हड़प्पा काल के अवशेष प्राप्त हुए।

पोरबंदर में हमें अनेक साक्ष्य प्राप्त हुए जो मध्यकाल के साथ साथ ब्रिटिश काल की ओर संकेत करते हैं। पूर्व की ओर नवीबंदर है जहाँ तट पर एक दुर्ग है। यह दुर्ग डाकुओं से नाविकों का संरक्षण करता था। हमें अनेक ऐसे साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जो यह संकेत करते हैं कि वहाँ के निवासी विदेशों से व्यापार व वाणिज्य संबंध बनाए हुए थे। अब हम सोमनाथ आते हैं, जिसे प्रभास क्षेत्र भी कहते हैं। मंदिर के दक्षिणी ओर भी हमें वही शैल लंगर इत्यादि प्राप्त हुए जो द्वारका में प्राप्त हुए थे। प्रभास स्वयं की एक हड़प्पा स्थल है जहाँ से हमें हड़प्पा पूर्व के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

डेक्कन कॉलेज द्वारा किये गए उत्खनन से यह ज्ञात हुआ कि नदी के समीप एक गोदाम था। यह स्थान हिरण्य नदी के किनारे है जो आगे जाकर समुद्र में विलीन हो जाती है। वह स्थान उस काल में अवश्य एक बन्दरगाह रहा होगा। समुद्री क्रियाकलापों का एक प्रमाणिक साक्ष्य शैल लंगर को माना जा सकता है।

शैल लंगर

अनुराधा : इन शैल लंगरों की आयु कैसे अनुमानित की जाती है?

ए एस गौर : यह लंगरों की निर्मिती तकनीक पर निर्भर करता है। प्राचील काल के लंगर शिला द्वारा बनाए जाते थे जबकि अब लोहे का प्रयोग किया जाता है। प्राचीन लंगरों में स्थानीय शिलाओं का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार शिलाओं के प्रकार एवं तकनीक द्वारा हम उनकी आयु का अनुमान लगा सकते हैं।

सोमनाथ से कोडीनार आते हैं जो पुनः एक मूल द्वारका क्षेत्र है। वहाँ तट पर दो हड़प्पा स्थल हैं। उस क्षेत्र में लगभग आधा दर्जन प्रारंभिक ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल हैं। मूल द्वारका, जहाँ द्वारकाधीश मंदिर स्थित है, एक ४-५ मीटर ऊँची बेलनाकार संरचना है। स्थानिक इसे दिवा दांडी कहते हैं जिसका अर्थ है प्रकाश स्तंभ। सन् १९८० तक इसका उपयोग किया जाता था जिसके पश्चात एक चक्रवात ने इसके ऊपरी भाग को क्षतिग्रस्त कर दिया था। यदि हमारा अनुमान तथा स्थानिकों की मान्यता सही हैं तो मध्यकालीन, लगभग १२-१३वीं सदी का यह प्रकाश स्तंभ भारत का प्राचीनतम जीवित प्रकाश स्तंभ है।

हमें ऐसे प्रमाण मिले हैं जो यह संकेत करते हैं कि गुजराती व्यापारी सुकुत्रा द्वीप जाते थे जो यमन के दक्षिणी ओर स्थित है। वहाँ हक नामक एक गुफा है जहाँ से लगभग २०० अभिलेख प्राप्त हुए हैं। उनमें से लगभग १८० अभिलेख ब्राह्मी में लिखित हैं जो १-३री सदी से सम्बद्ध हैं। हक गुफा में कई मुहरें भी मिली हैं जिनकी रूपरेखा एवं उन पर किये गए चित्र अथवा अभिलेख भरूच में प्राप्त मुहरों जैसे हैं।

शिकोत्रा माता मंदिर

गुजरात में अनेक तटीय मंदिर हैं जो शिकोत्रा माता या सिकोतर माता को समर्पित हैं। डॉ. एस आर राव तथा मेरा भी मानना है कि शिकोत्रा माता नाम या सिकोतर माता नाम सुकुत्रा द्वीप से ही आया है क्योंकि लोग जब अपनी नौकाएं लेकर सुकुत्रा द्वीप तक जाकर वापिस आते थे तब अपनी सुरक्षित यात्रा के लिए माता का धन्यवाद करते थे। हमने भारत में देखा है, जो भी मानव का संरक्षण करता है, हम उसकी आराधना करते हैं।

अनुराधा : जैसे शक्ति माता यात्राओं में तथा अन्यथा भी हमारी सदैव रक्षा करती हैं।

ए एस गौर : सत्यनारायण की कथा में भी यही बताया गया है जहाँ व्यापारी व्यापार के लिए अपने बेड़े लेकर दूर-सुदूर देशों में जाते हैं तथा वापिस आकर भगवान की पूजा करते हैं। ये सभी कथाएं व्यापारी समाज से ही संबंधित होती हैं। इनके अतिरिक्त हड़प्पा स्थल लोथल एवं गोगा में भी अनेक प्रमाण मिले हैं। ये तटीय स्थल हैं। भारत सरकार अब इसे राष्ट्रीय समुद्री विरासत परिसर के रूप में विकसित कर रही है। इस प्रकार गुजरात प्राचीन समुद्री व्यापार एवं वाणिज्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयामों का साक्षी रहा है। सभ्यता के आरम्भ से व्यापार गुजरातियों के खून में बसा हुआ है। दक्षिण की ओर महाराष्ट्र में आयें तो सोपारा एक महत्वपूर्ण स्थल है जहाँ एलिफेंटा जैसे अनेक व्यापारिक केंद्र स्थल थे।

महाराष्ट्र का समुद्री पुरातत्व

अनुराधा : एलिफेंटा एक दुर्लभ गुफा प्रणाली है जो पूर्णतः भगवान शिव को समर्पित है। एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि इन गुफाओं में सम्पूर्ण शिव पुराण लिखा हुआ है। यह द्वीप एक व्यापारिक बन्दर के रूप में कैसा रहा होगा?

ए एस गौर : यह वास्तव में घारापुरी के नाम से जाना जाता था। यह भारत-रोम काल में एक बंदरगाह था जब समुद्र का स्तर अपेक्षाकृत नीचे था। कदाचित उस समय कल्याण या सोपारा जैसे बंदरगाह नहीं थे। रोम के सिक्के तथा उस काल से संबंधित अनेक वस्तुएं यहाँ प्राप्त हुए हैं।

दाभोल

दक्षिण की ओर जाते हुए हम दाभोल पहुँचते हैं। यहाँ तट पर एक अनोखा लोयलेश्वर मंदिर है। लंगर का अर्थ मराठी भाषा में लोयली होता है। इस मंदिर में वे एक लंगर को ही देवी के रूप में पूजते थे। दाभोल मुंबई से लगभग २०० किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है। उससे दक्षिण की ओर आयें तो वहाँ विजयदुर्ग किला एवं पोतगाह है जो मराठा कालीन है। इसके दक्षिण की ओर सिंधुदुर्ग है। यह दुर्ग एक छोटे द्वीप पर स्थित है। वहाँ भी हमें शैल लंगर प्राप्त हुए हैं।

गोवा से प्राप्त लंगर
गोवा से प्राप्त लंगर

गोवा में भी हमें ४-५ पोतों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पिलार क्षेत्र के निकट एक बन्दरगाह है जिसका नाम गोपकपट्टनम है। वहाँ हमें ऐसे प्रमाण मिले है जो यह संकेत करते हैं कि वह एक बंदरगाह था तथा यहाँ से व्यपारिक गतिविधियाँ की जाती थीं। केरल में हमने कोल्लम में भी गोताखोरी की है। वहाँ से हमें कई चीनी सिक्के प्राप्त हुए हैं। कदाचित वहाँ भी कोई पोत दुर्घटनाग्रस्त हुआ था क्योंकि खोज के समय वहाँ से बड़ी संख्या में सिक्के एवं कुम्हारी के अवशेष मिले हैं।

अनुराधा : केरल में अब भी मछली पकड़ने के लिए चीनी जाल का प्रयोग किया जाता है।

ए एस गौर : ऐसा लगता है कि चीन से लोग व्यापार के लिए कोल्लम तक आते थे। यहाँ से वे वस्तुएं अन्य पोतों द्वारा विभिन्न स्थानों तक पहुँचाते थे। कोल्लम में एक चाइना कॉलोनी भी है। गुजरात के हाथा में भी हमें एक लंगर मिला था जो चीनी लंगर के समान था।

लक्षद्वीप के दक्षिणतम द्वीप, मिनिकॉय में हमने तीन से चार दुर्घटनाग्रस्त पोतों का अन्वेषण किया था।

भारत के पूर्वी तट के पुरातत्व स्थल

भारत के पूर्वी तट पर एक प्रसिद्ध स्थल है, पूम्पुहार जहाँ पर हमने पुरातात्विक अन्वेषण किया था। हमें यह सुझाया गया था कि पश्चिमी तट पर बसे द्वारका के ही समान भारत के पूर्वी तट पर भी पूम्पुहार में संगम काल में एक नगरी बसी हुई थी। पाँच से छः मीटर गहरे अंतर्ज्वारीय क्षेत्र में हमें उस समय के कुम्हारी के अवशेष प्राप्त हुए थे। स्थानिक किवदंतियों के अनुसार वहाँ के राजा ने इंद्रदेव का उत्सव नहीं मनाया था जिसके कारण वह नगरी जलमग्न हो गयी थी। अब हम कह सकते हैं कि वह नगरी वास्तव में जलमग्न हो गयी थी।

द्वारका में मिले पाषाण लंगर
द्वारका में मिले पाषाण लंगर

कुछ उत्तर की ओर, महाबलीपुरम में कुछ रोचक परम्पराएं थीं। वहाँ ७ मंदिर अस्तित्व में थे जिनमें से छः जलमग्न हो गए। यद्यपि इसका भारतीय साहित्यों में कोई उल्लेख नहीं है। इसका प्रलेखन एक ब्रिटिश यात्री ने किया है। उसके आधार पर हमने यहाँ खोजबीन आरम्भ की। हमें ३-५ मीटर की गहराई में कुछ मानव निर्मित संरचनाएं अवश्य दिखीं किन्तु हम विश्वास के साथ यह नहीं कह सकते कि वे मंदिर ही हैं। कुछ अवशेष ९ मीटर की गहराई तक भी बिखरे हुए हैं। उन पर अधिक अन्वेषण शेष है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन कथाओं में कुछ सत्यता अवश्य होगी।

सुनामी

अनुराधा : लोग कहते हैं कि सन् २००४ में जब सुनामी आई थी तथा जब पानी पीछे हटा, तब ये संरचनाएं दृश्यमान होने लगीं थी। किसी ने उनका चित्र भी लिया था। इसमें कितनी सत्यता है?

ए एस गौर : उस स्थान का कोई भी मानचित्र अथवा उपग्रह चित्रण उपलब्ध नहीं है। यह सब अचानक ही हुआ था। उस समय किसी के पास आधुनिक कैमरे नहीं होते थे। इसी कारण उसका कोई प्रमाण नहीं है। अनेक लोगों ने हमें बताया कि जब ये मंदिर के अवशेष दृश्यमान हुए थे, तब उन लोगों ने उन्हें देखा था। पुरातत्व शास्त्र में एक वर्गीकरण है, वसाहती स्थल। जब हमें वहाँ कुम्हारी आदि के कोई अवशेष नहीं मिलते तो हम उस स्थल को वसाहती स्थल के वर्गीकरण में नहीं रखते। वहाँ से मिले अवशेषों के अनुसार हमने यह अनुमान लगाया है कि वे वसाहती स्थल थे। १९वीं सदी तक भी वहाँ स्तंभ आदि के कुछ अवशेष उपलब्ध थे। उनके चित्र भी लिए गए थे तथा प्रकाशित किये गए थे।

वैशाखेश्वर मंदिर

उत्तर की ओर जाते हुए हम वैशाखेश्वर मंदिर की चर्चा करते हैं जिस पर आंध्रा विश्विद्यालय ने कुछ अन्वेषण कार्य किया है। इस स्थान पर कुछ मध्यकालीन मंदिर जलगत अवस्था में उपस्थित हैं। किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा ने इन्हें नष्ट किया होगा।

अनुराधा : ऐसा कहा जाता है कि विशाखापटनम का नाम विशाखा देवी मंदिर के नाम पर रखा गया है। इससे यह अनुमान लगता है कि वहाँ विशाखेश्वर मंदिर भी रहा होगा। लोक कथाओं के अनुसार किसी कारण से यह मंदिर भी समुद्र के जल में समा गया था। क्या इस मंदिर के भी कोई अवशेष वहाँ मिले हैं?

ए एस गौर : हमने अभी तक उन स्थलों का अन्वेषण आरम्भ नहीं किया है। ओडिशा की ओर आयें तो वहाँ चिलिका सरोवर है जो जल परिवहन क्षेत्र में अत्यंत सक्रिय था। लोग वहाँ से दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्रों की यात्रा करते थे। वहाँ पर भी अनेक पुरातात्विक स्थल हैं जहाँ पर उत्खनन का कार्य किया गया है। वहाँ से उत्तर की ओर ताम्रलिप्ति बन्दरगाह था जो आरंभिक ऐतिहासिक काल में अत्यंत प्रसिद्ध था। यह बंदरगाह गंगा के मुहाने पर स्थित था। यहाँ से वाराणसी एवं कानपुर जैसे गंगा के मैदानी क्षेत्रों तक व्यापार मार्ग उपलब्ध था तथा यह मार्ग व्यापार के लिए लोकप्रिय था।

जलगत पुरातत्व – समुद्र या नदियाँ या सरोवर?

अनुराधा : मैंने १५-१६वीं सदी की कुछ बंगाली काव्य रचनाओं में इनके विषय में पढ़ा था। एक प्रश्न है, क्या आप पुरातात्विक उत्खनन केवल समुद्र में करते हैं कि नदियों तथा सरोवरों में भी करते हैं?

ए एस गौर : जब हम जलगत अथवा जलगत पुरातत्व कहते हैं तब उसमें सभी सम्मिलित होते हैं। अब तक हमने मीठे जल के स्त्रोतों के भीतर कोई उत्खनन कार्य आरम्भ नहीं किया है। अब तक हमने पुरातत्व अन्वेषण कार्य को समुद्र तक ही सीमित किया हुआ था। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि जल मार्ग थल मार्ग की तुलना में अधिक सुगम तथा सस्ता होता है। उस काल में ही उन्होंने इसका अनुमान लगा लिया था। वे जान गए थे कि मगध से गंगा नदी द्वारा परिवहन व्यापार के लिए अधिक लाभकारी होगा। किन्तु नदियों के तल इसकी ठोस जानकारी नहीं दे पाते क्योंकि नदियाँ बहुधा अपना मार्ग परिवर्तित करती रहती हैं। नदियों के घाटों पर भी नवीनीकरण का कार्य समय समय पर किया जाता रहा है।

व्यवसाय के रूप में जलगत पुरातत्व

अनुराधा : प्रिय पाठकों, मैं आपको अनुरुद्ध जी के विषय में बताना चाहूंगी कि भारत में आज केवल तीन ही  समुद्री पुरातत्वविद् हैं तथा अनुरुद्ध जी उनमें से एक हैं। सर, क्या आप हमें बता सकते हैं कि यदि किसी को जलगत पुरातत्व को व्यवसाय के रूप में अपनाना हो तो उसे क्या करना चाहिए? उनके लिए कैसे अवसर उपलब्ध हैं?

ए एस गौर : एक योग्य पुरातत्वविद् के पास पुरातत्व शास्त्र तथा प्राचीन इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि होनी आवश्यक है। उसे गोताखोरी भी सीखनी पड़ती है। भारत में अब इसके अनेक अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। यह एक अनछुआ क्षेत्र है। पुरातत्व स्थलों को पर्यटन स्थलों के रूप में भी विकसित किया जा सकता है। जैसे द्वारका, बेट द्वारका तथा महाबलीपुरम में यह किया जा सकता है क्योंकि वहाँ का जल पारदर्शी है। हम जलगत धरोहर स्थलों का विकास कर सकते हैं। सामान्य जनता को इनकी अधिक जानकारी नहीं है।

एक दक्ष पुरातत्वशास्त्री ही ऐसा कर सकता है तथा इस कार्य को आगे ले जा सकता है। जैसे पर्यटक ताज महल, कुतुब मीनार आदि देखने जाते हैं, उसी प्रकार उन्हें इस ओर भी आकर्षित किया जा सकता है। यह देशी एवं विदेशी दोनों पर्यटनों के लिए उत्तम अवसर प्रदान कर सकता है।

अवसर

अनुराधा : पुरातत्व शास्त्र में आवश्यक ज्ञान अर्जित करने के पश्चात हमारे लिए कैसे अवसर उपलब्ध हैं? हमें व्यवसाय के अवसर कौन प्रदान कर सकता है? भारत में समुद्री अथवा जलगत पुरातत्व का क्या भविष्य है?

ए एस गौर : वास्तव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत जलगत पुरातत्व भी एक छोटा सा भाग है। किन्तु अभी सक्रिय नहीं है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के अंतर्गत हम इस पर कार्य कर रहे हैं। भारत में इसके असीमित अवसर उपलब्ध हैं। भारत का लम्बा तटीय क्षेत्र है। उसके प्रत्येक भाग में जलगत उत्खनन अनुसंधान एवं व्यावसायीकरण के असीमित अवसर उपलब्ध हैं। लोग गोताखोरी सीख रहे हैं। लोग इस प्रकार के पर्यटन में भी रूचि दिखा रहे हैं।

पुरापाषण युगीन तटरेखा

वैज्ञानिक अनुसन्धान प्रयोजनों के लिए हम जलगत पुरातत्व को एक यंत्र के रूप में प्रयोग कर रहे हैं ताकि हम भारत के पुरापाषाणयुगीन तटरेखा को समझ सकें। समुद्री वैज्ञानिकों के समान हम भी वहाँ से नमूने एकत्र करते हैं तथा उन पर शोध कार्य करते हैं। उससे हमें यह जानकारी प्राप्त हो सकती है कि उस स्थान पर पुरातात्विक स्थल उपस्थित हैं अथवा नहीं हैं। समुद्र स्तर में परिवर्तन के साथ तटीय रेखाएं किस प्रकार परिवर्तित हुई हैं, यह जानकारी भी प्राप्त होती हैं। तटीय क्षेत्रों के विकास कार्यों में इन शोध परिणामों का उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार जलगत पुरातत्व का पर्यटन, औद्योगीकरण, तटीय विकास कार्य आदि में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

अनुराधा : इसका अर्थ है कि जलगत पुरातत्व के अंतर्गत अनुसंधान कार्य, पर्यटन, सांस्कृतिक धरोहर तथा जलगत धरोहर आदि में अनेक अवसर उपलब्ध हैं। यदि लोगों को इनकी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो जाए तथा उन्हें इनमें रूचि उत्पन्न हो जाए तो अवसरों की कमी नहीं है। यह एक सकारात्मक संकेत है।

सर, जलगत पुरातत्व में आपने हमें आज अत्यंत रोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की है। इसके लिए मैं आपका हृदय से धन्यवाद करना चाहती हूँ।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत इस वार्तालाप का प्रलेखन पल्लवी ठाकुर ने किया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बाणगंगा सरोवर – मुंबई शहर की प्राचीन धरोहर https://inditales.com/hindi/ancient-banganga-tank-walkeshwar-mumbai/ https://inditales.com/hindi/ancient-banganga-tank-walkeshwar-mumbai/#comments Wed, 11 Apr 2018 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=699

बाणगंगा सरोवर संभवतः वर्तमान मुंबई शहर के सबसे प्राचीन निवासित क्षेत्रों में से एक है। सामान्य तौर पर जो स्थान काफी लंबे समय से निवासित हैं उनके प्रति मेरे मन में एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। ऐसी जगहों पर जाकर ऐसा महसूस होता है जैसे उनमें भी कहीं जान बसती हो – जैसे कि […]

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बाणगंगा मुंबई
बाणगंगा मुंबई

बाणगंगा सरोवर संभवतः वर्तमान मुंबई शहर के सबसे प्राचीन निवासित क्षेत्रों में से एक है। सामान्य तौर पर जो स्थान काफी लंबे समय से निवासित हैं उनके प्रति मेरे मन में एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। ऐसी जगहों पर जाकर ऐसा महसूस होता है जैसे उनमें भी कहीं जान बसती हो – जैसे कि शताब्दियों से इन स्थानों के निवासी अपनी आत्मा का एक छोटा सा अंश पीछे छोड़कर चले जाते हो। ऐसी जगहों पर आप गुजरे हुए काल और समय की वे सारी निशानियाँ देख सकते हैं जिनके साक्षीदार वे स्वयं रहे हैं। विद्यमान परिस्थितियों में भी उन्होंने हमेशा समय के साथ आगे बढ़ना सीखा है। इन जगहों पर अगर आप शांति से बैठे तो आपको उस खामोशी में ये सारी चीजें अपनी कहानियाँ कहती हुई प्रतीत होती हैं।

मैं जितने भी शहरों में रही हूँ उन सभी के पुरातन भागों में मैंने यह सबकुछ स्वयं अनुभव किया है – चाहे वह दिल्ली में महरौली हो या हैदराबाद में चारमीनार का इलाका। यद्यपि मुंबई की कन्हेरी गुफाएँ या एलेफंटा गुफाएँ यहाँ का सबसे प्राचीन और निर्जन स्थान हैं, लेकिन लोकबस्तियों की दृष्टि से देखे तो बाणगंगा का क्षेत्र बहुत लंबे समय से निवासित है। यहाँ के वातावरण में आप बीते हुए कल की वह अदृश्य शक्ति महसूस कर सकते हैं।

बाणगंगा सरोवर, मुंबई  

बाणगंगा सरोवर - वालकेश्वर मुंबई
बाणगंगा सरोवर – वालकेश्वर मुंबई

यह एक आयताकार सरोवर है, जैसे कि आम तौर पर भारत के मंदिर सरोवर होते हैं। देखा जाए तो उनकी तुलना में बाणगंगा सरोवर आकार में काफी बड़ा है और उसके चारों ओर मंदिर हैं। शायद यहाँ पर इस सरोवर को ही मंदिर की तरह पूजा जाता होगा जो कि प्रवेश द्वारों पर खड़े दीपस्तंभों से अभिव्यक्त होता है। इस सरोवर के चारों ओर सीढ़ियाँ हैं जो पानी में उतरने हेतु बनाई गयी हैं।

इस सरोवर में आप विविध प्रकार के रंगबिरंगी बतख भी देख सकते हैं। यहाँ की छोटी-बड़ी इमारतों का – जैसे कि यहाँ पर स्थित घर और उनके बीच खड़ी ऊंची-ऊंची इमारतें तथा यहाँ के मंदिर और उनकी शिखरों का पानी में पड़ता प्रतिबिंब आपके लिए एक अलग ही दृश्य प्रदान करता है। जब इन सभी संरचनाओं का प्रतिबिंब सरोवर के पानी में पड़ता है तो उसमें जैसे अनेक बातों का – जैसे बीते हुए काल, अनेक पीढ़ियाँ, विविध शैलियाँ और समाज के विभिन्न स्तरों का एक सम्मिश्रित विन्यास बन जाता है, जैसे कि वे इसी सरोवर के पानी से एक-दूसरे से बंधे हो।

पानी पर बने इस परिदृश्य पर आसमान में बिखरे हुए बादल भी अपना एक अलग ही प्रभाव छोड़ जाते हैं। बाणगंगा सरोवर की सबसे अनोखी बात यह है कि वह समुद्र के ठीक बगल में बसा हुआ होने के बावजूद भी उसका पानी एकदम स्वच्छ और मीठा है। मेरा मानना है इस क्षेत्र में प्रारंभिक लोकबस्तियों के निर्माण का प्रमुख कारण भी यही स्वच्छ और मीठा पानी ही रहा होगा।

बाणगंगा में संगीत कार्यक्रम

बहुत सालों पहले मैं बाणगंगा में आयोजित मुरली विशेषज्ञ पंडित हरी प्रसाद चौरसिया जी का संगीत कार्यक्रम देखने गयी थी। पंडितजी की मुरली से निकले हुए वे सुर जो उस समय यहाँ के वातावरण में गूंज रहे थे, वे आज भी मेरे दिल और दिमाग में समाये हुए हैं। यह कार्यक्रम देर रात तक चलता रहा जिसके कारण हम बाद में आस-पास कहीं भी घूमने नहीं जा सके। इसलिए इस बार जब मुझे फिर से बाणगंगा की यात्रा करने का मौका मिला तो मैंने उसका पूरा फायदा उठाया। इस यात्रा के दौरान मेरे साथ मेरे चाचाजी थे जो इस क्षेत्र को चलानेवाली संस्था के सदस्य थे। उनके मार्गदर्शन में मुझे इस क्षेत्र से संबंधित बहुत सी बातें जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

बाणगंगा सरोवर से जुडे उपाख्यान  
बाणगंगा पे नए पुराने, छोटे बड़े मंदिर
बाणगंगा पे नए पुराने, छोटे बड़े मंदिर

एक प्राचीन स्थान अक्सर अपने साथ कोई न कोई कथा, मिथक या फिर कोई उपाख्यान जरूर लेकर चलता है। तो इनमें बाणगंगा बिना किसी कथा के कैसे पीछे रह सकता है? बाणगंगा के अस्तित्व से जुड़ी यह कथा बहुत ही रोचक है। इस उपाख्यान के अनुसार जब भगवान् राम और लक्ष्मण सीता जी को ढूँढने जा रहे थे, तब रास्ते में वे इसी स्थान पर गौतम ऋषि के आश्रम में ठहरे हुए थे। उस समय राम ने अपनी प्यास बुझाने के लिए वहीं जमीन पर एक बाण चलाया था जहाँ से भोगवती या पाताल गंगा प्रकट हुई थी। शायद इसी कारण से इस सरोवर को बाणगंगा कहा जाता होगा।

लक्ष्मण प्रतिदिन अपनी पूजा करने हेतु काशी जाते थे और फिर अपने भाई राम के लिए वहाँ का शिवलिंग लेकर आते थे ताकि वे बिना किसी बाधा के रोज की तरह अपनी पूजा कर सके। एक दिन किसी कारणवश लक्ष्मण समय से नहीं लौट पाये जिसके कारण राम ने यहीं पर उपलब्ध रेत से एक लिंग बनाया और उसकी पुजा की। इस प्रकार यह शिवलिंग ‘वाऴू-का-ईश्वर’ अर्थात रेत का बना हुआ ईश्वर के नाम से प्रचलित हुआ और फिर गुजरते समय के साथ विकृत होते-होते वह वालकेश्वर में परिवर्तित हुआ। यह मंदिर आज भी बाणगंगा सरोवर के पूर्वीय तट पर बसा हुआ है और बड़े गर्व से इस क्षेत्र को अपना नाम प्रदान करता है। समय के साथ यहाँ पर और भी मंदिरों का निर्माण हुआ जिसके कारण इस स्थान को तीर्थक्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा।

बाणगंगा सरोवर और आस-पास के स्थानों का इतिहास 
बाणगंगा सरोवर के दीपस्तंभ
बाणगंगा सरोवर के दीपस्तंभ

कहा जाता है कि इस क्षेत्र में प्रारंभिक मंदिरों का निर्माण 8वी और 13वी शताब्दी के बीच में हुआ था, जो बाद में पुर्तुगालियों ने अपने शासन काल के दौरान उद्ध्वस्त कर दिये थे। बाद में 18वी शताब्दी के दौरान इन मंदिरों का पुनः निर्माण किया गया जिन्हें आज आप यहाँ देख सकते हैं। इन मंदिरों के पुनः निर्माण के लिए उन्हें समाज सेवी श्री राम कामत द्वारा बहुत बड़ी आर्थिक सहायता प्राप्त हुई थी। राम कामत गौड़ सारस्वत ब्राह्मण समुदाय से थे जो बाणगंगा परिसर के शुरुवाती निवासितों में से एक थे। यह समुदाय आज भी बाणगंगा सरोवर और उसके आस-पास के मंदिरों पर अपना प्रभुत्व बनाए हुए है और अच्छे से उनकी देखरेख भी करता है।

इस क्षेत्र में काशी मठ, कैवल्य मठ और कवले मठ जैसे अनेक मठ स्थित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ पर भगवान परशुराम का भी एक मंदिर है, जो यहाँ के अन्य अकर्षणों में से एक है। यद्यपि यहाँ के सभी मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से साधारण हैं, लेकिन यह मंदिर एक सच्चे कलाप्रेमी को अपनी ओर जरूर आकर्षित करता है। इस मंदिर की सीधी खड़ी पत्थर की सीढ़ियों पर बिखरी सुंदर मूर्तियाँ यहाँ का प्रमुख आकर्षण है।

बाणगंगा सरोवर के आस-पास की सैर   
बाणगंगा सरोवर की सीढियां - मुंबई
बाणगंगा सरोवर की सीढियां – मुंबई

मैं वालकेश्वर की सड़क से होते हुए बाणगंगा गयी थी, जो कि दक्षिण मुंबई में बसे मलाबार पहाड़ी क्षेत्र के किनारे के समानांतर दौड़ती है। यह रास्ता आगे जाकर किसी स्थान पर सीढ़ियों में परिवर्तित होता है जहाँ से आपको अपनी गाड़ी से उतरकर पैदल ही आगे बढ़ना पड़ता है। इन सीढ़ियों के दोनों तरफ खड़ी इमारतें अनेक पीढ़ियों से जुडी कहानियाँ कहती हैं, जो कभी इस इलाके में रही होंगी। यहाँ पर कुछ छोटे-छोटे ढाबे भी हैं, जो पाव-भाजी, भेल-पूरी और कभी-कभी इडली जैसे स्वादिष्ट व्यंजन बेचते हैं। यहाँ की असमान सीढ़ियाँ उस बीते हुए कल की तरह है जिसका जीता-जागता गवाह यह जगह है।

नीचे पहुँचते ही आप सामने स्थित सरोवर को चाह कर भी अनदेखा नहीं कर सकते। इस सरोवर के आस-पास घूमिए, तो आपको यहाँ-वहाँ छोटी-छोटी कलाकृतियाँ नज़र आएँगी, जो कभी किसी पेड़ के नीचे, सरोवर की सीढ़ियों पर और कभी सड़क के किनारे पड़ी हुई होती हैं। इससे भी अधिक प्रशंसनीय यहाँ के दीपस्तंभ हैं जिन्हें बहुत अच्छी तरह से अनुरक्षित किया गया है। कल्पना कीजिये कि यह सरोवर रात के समय दीपों से प्रज्वलित इन स्तंभों और सरोवर की परिधि पर चारों ओर जलते दियों की रोशनी में कितना सुंदर दिखता होगा। यहाँ पर घूमते हुए जो भी मंदिर आपकी आँखों को भाए उसके दर्शन जरूर कीजिये। जैसा कि मैं पहले भी बता चुकी हूँ, वास्तुकला की दृष्टि से ये सभी मंदिर बहुत साधारण हैं, यद्यपि इन में से अधिकतर मंदिरों की शिखर विशेष रूप से नागर या उत्तर भारतीय शैली में बनी हुई है।

बाणगंगा का परिसर 
बाणगंगा सरोवर के आस पास के घर
बाणगंगा सरोवर के आस पास के घर

बाणगंगा सरोवर के परिसर की सैर करते हुए आपको वहाँ पर नए-पुराने और अमीर-गरीब में एक प्रकार का सान्निध्य नज़र आता है। यह क्षेत्र अपने आप में जैसे मुंबई शहर का सूक्ष्म प्रतिरूप है। यहाँ पर मुझे खिड़कियों के कुछ चित्ताकर्षक प्रकार भी दिखे।

बाणगंगा परिसर की सैर करने के लिए आपको लगभग 1 घंटे का समय चाहिए जिसके दौरान आप वहाँ पर स्थित एक-दो मंदिरों के दर्शन भी कर सकते हैं। मौसम के अनुसार आप चाहें तो सुबह या फिर शाम को भी बाणगंगा की सैर के लिए जा सकते हैं। महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम द्वरा फरवरी के महीने में यहाँ पर बाणगंगा संगीत उत्सव का आयोजन किया जाता है और शायद बाणगंगा की यात्रा करने का यह सबसे उत्तम समय हो सकता है।

बाणगंगा सरोवर के पास ही मणि भवन भी है।

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अष्टमुडी झील – केरल के विशाल जल सरोवर का भ्रमण https://inditales.com/hindi/kerala-backwaters-ashtmudi-lake/ https://inditales.com/hindi/kerala-backwaters-ashtmudi-lake/#respond Wed, 12 Jul 2017 02:30:21 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=320

कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम से वापस घर लौटते समय केरला के कोल्लम शहर के पास स्थित अष्टमुडी झील के किनारे बिताए गए पूरे दो दिन सच में बहुत यादगार रहे। गूगल पर दिखाये गए नक्शे के अनुसार यह सरोवर काफी बड़ा है। मुझे उसकी व्यापकता को समझने और जानने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन, […]

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अष्टमुडी झील - केरल
अष्टमुडी झील – केरल

कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम से वापस घर लौटते समय केरला के कोल्लम शहर के पास स्थित अष्टमुडी झील के किनारे बिताए गए पूरे दो दिन सच में बहुत यादगार रहे। गूगल पर दिखाये गए नक्शे के अनुसार यह सरोवर काफी बड़ा है। मुझे उसकी व्यापकता को समझने और जानने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन, इससे भी अधिक मुझे उसके जीवन और उसकी आत्मा को समझना था। अष्टमुडी झील केरल के पर्यटकों के बीच उतना मशहूर नहीं है, क्योंकि, केरल में आने वाले अधिकतम पर्यटक या तो कोल्लम में या फिर दक्षिण में कोवलम में रहना ज्यादा पसंद करते हैं। तो कुछ पर्यटक उत्तरी भागों में जैसे कि अलेप्पी और कोचीन में रहना पसंद करते हैं।

अष्टमुडी झील – केरल के स्थिर जल स्रोत

अष्टमुडी झील
अष्टमुडी झील – सूर्यास्त के समय

अष्टमुंडी का शब्दशः अर्थ है 8 शंकु। उसके इस विचित्र से आकार को कुछ लोग तारे की उपमा देते हैं, तो कुछ इसे ऑक्टोपस के आकार का बताते हैं। लेकिन अगर आप इंटरनेट पर जाकर अष्टमुंडी सरोवर का नक्शा देखे तो वह कुछ अजीब सा लगता है। इसे देखने के बाद आप खुद तय कर सकते हैं कि, उसे कौन सी उपमा देना उचित होगा।

कोल्लम पहुँचते ही हम अपने होटल में गए और हाथ मुह धोकर, तैयार होकर दोपहर के खाने के लिए उपस्थित हुए। हमरा खाना होटल की खास नाव पर आयोजित किया गया था। इस बड़ी सी नाव पर सिर्फ हम दोनों के लिए ही भोजन का प्रबंध किया गया था। जैसे ही हमारी नाव अष्टमुडी झील के शांत, स्थिर पानी पर धीरे-धीरे चलने लगी तो नाव पर मौजूद कर्मचारी वर्ग ने हमे खाना परोसना शुरू किया। यह सब कुछ एक सपने जैसा था। जब हम खाना खा रहे थे तो अपने आस-पास देखकर मुझे लगा कि, प्रकृति के सारे नज़ारे जैसे हमारे लिए खास चलचित्र पेश कर रहे हो। यह दृश्य सच में बहुत खूबसूरत था। जैसे-जैसे हमारी नाव सरोवर की सीमाओं के पास से गुजरते हुए, एक कोने से दूसरे कोने तक जा रही थी वैसे-वैसे मुझे सरोवर का आकार कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।

रोशनी की देवी

रौशनी की देवी - अष्टमुडी झील
रौशनी की देवी – अष्टमुडी झील

सरोवर की सैर करते हुए हमे एक स्थान पर हाथ में मशाल पकड़े एक स्त्री की विशाल मूर्ति दिखी जिसे रोशनी की देवी कहा जाता है। यहां के लोग उसे ‘स्टेचू ऑफ लिबर्टी’ का स्थानीय रूप मानते हैं। वास्तव में शायद यह सरोवर में घूमनेवाली नावों के लिए प्रकाशस्तंभ का कार्य करती होगी, ताकि वे अपना रास्ता ना भटक जाए। अपने विशिष्ट रूपाकार से यूरोपीय लगने वाली इस स्थूलकाय महिला की मूर्ति काफी दूर से भी देखी जा सकती है। कुछ नाविकों का कहना है कि यह मूर्ति मल्लाहों को उनके घर-परिवार और पत्नी की याद दिलाने का तरीका है जिन्हें वे अपने व्यापार के लिए पीछे छोड़ आए हैं। इस मूर्ति के नीचे ही एक छोटा सा सूचना पट्ट है जिस पर ‘रोशनी की देवी’ लिखा गया है। मेरे खयाल से शायद यहां पर अनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार उसकी व्याख्या करता है। लेकिन इन सभी भिन्न विचारों के अलावा एक बात तो तय है कि यह मूर्ति जल, हरियाली और आकाश की नीरसता को भंग करते हुए दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। इस सुंदर सी मूर्ति को अनदेखा करना थोड़ा कठिन है।

मछली पकड़ने का चीनी जाल

मछली पकड़ने के चीनी जाल - अष्टमुडी झील - केरल
मछली पकड़ने के चीनी जाल – अष्टमुडी झील – केरल

अष्टमुडी झील की सैर करते हुए जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, हमे धीरे-धीरे मछली पकड़ने के चीनी जाल नज़र आने लगे जो अब हर जगह पर पाये जाते हैं। सरोवर के किनारे से पानी के ऊपर लटकते हुए ये जाल बहुत ही आकर्षक लग रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने हाथ में विशालकाय चाय की छलनी पकड़ी हो। इन जालों को अक्सर एक साथ एक कतार में लगाया जाता है। यह नज़ारा सच में अद्वितीय है जो अनेकों फोटोग्राफरों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह प्रसन्नता भरा दृश्य इन फोटोग्राफरों का दिन बना देता है। और आप विभिन्न दृष्टिकोणों से उनकी तस्वीरें लेने में खो जाते हैं। अगर केरल के तटीय क्षेत्र की बात करते समय इन चित्रों से आपका सामना हो जाए तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी। कुछ ही जगहों पर इन जालों को सरोवर के बीचोबीच लगाया जाता है। लेकिन अधिकतर जगहों पे ये जाल आपको सरोवर के किनारे पर ही लगे हुई दिखाई देती हैं। दूर से देखने पर ये जाल बहुत ही साधारण से दिखते हैं, पर पास जाकर देखने से पता चलता है कि इनकी बुनावट कितनी जटिल है।

रंगीन नावें

अष्टमुडी झील - रंगीन नाव
अष्टमुडी झील – रंगीन नाव

अष्टमुडी झील के किनारे पर स्थित खूबसूरत से मकानों के पास ही मछली पकड़नेवाली रंगीन नावें रखी गयी थी। और मछली पकड़ने की सभी जालें किनारे पर लेटे हुए आराम करती हुई नज़र आ रही थी, जो पुनः नए उत्साह के साथ सूर्यास्त के बाद पानी में खड़े होने का इंतजार कर रही थी।

इस सरोवर के आस-पास का निर्मल पर्यावरण बहुत सारे पक्षियों का घर है। इन पक्षियों को सरोवर के एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़ते हुए जाते देखना बहुत ही आमोदजनक बात थी।

पर्यटकों के लिए खास हाउसबोट

पर्यटक हाउसबोट - अष्टमुडी झील
पर्यटक हाउसबोट – अष्टमुडी झील

यहां पर पर्यटकों के लिए खास हाउसबोट होते हैं जो उन्हें पूरे सरोवर की सैर कराते हैं। कुछ ऐसी ही नावें हमारे सामने से गुजरती हुई जा रही थी, जिनमें कुछ ही लोग नज़र आते थे। ये नावें कभी भी लोगों से भरी हुई नहीं होती थीं। यह देखकर मेरे मन में खयाल आया कि, या तो हम सरोवर के कम भीड़ वाले भाग में होंगे या तो यह सरोवर ही इतना बड़ा होगा कि आप यहां पर कहीं भी आराम से एकांत में समय बिता सकते हैं।

सूर्य और बादल भी अपनी ओर से हमारे लिए अद्वितीय परिदृश्य निर्माण कर रहे थे। नारियल और ताड़ के पेड़ भी अपने हरे रंग से पानी और आकाश के क्षेत्र की सीमाओं को निर्धारित कर रहे थे। इस सरोवर में उपस्थित द्वीप हरे बिन्दुओं के समान पानी पर तैरते हुए नज़र आ रहे थे।

अष्टमुडी झील से जुड़े कुछ तथ्य

चीनी जाल - अष्टमुडी झील - केरल
चीनी जाल – अष्टमुडी झील – केरल

अष्टमुडी झील क्लैम मत्स्य पालन का प्रमुख केंद्र है। यहां पर वार्षिक रूप से 10,000 टन क्लैम मछली का उत्पादन होता है। जिस में से अधिकतर निर्यात की  जाती हैं। रामसर सम्मेलन के अनुसार यह महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय आर्द्रभूमि की सूची में गिना जाता है। मत्स्य पालन पर लिखा गया ‘हिन्दू लेख’ आपको जरूर पढ़ना चाहिए जो यहां के विकासशील और टिकाऊ मत्स्य पालन के बारे में विस्तार से बताता है। इस सरोवर के पर्यावरण की सबसे अच्छी बात यह है कि, वह दिन में अपने पर्यटकों और पर्यटन अर्थशास्त्र का पूरा-पूरा खयाल रखता है, और रात को वह मछुआरों का इलाका बन जाता है। ये मछुआरे रात के समय ही अपना जाल बिछा देते हैं ताकि अगली सुबह उनकी पकड़ में अच्छी और ताजी मछली आ सके। इस वक्त अष्टमुडी झील में पर्यटकों की नावों को घूमने की अनुमति नहीं दी जाती।

अष्टमुडी झील का पानी कल्लाडा नदी से आता है, जिसका उद्गम पोंन्मुड़ी पर्वतों में होता है। यह केरल का दूसरा विशालतम एस्चुरिन एकोसिस्टम है।

केरल में स्थिर जल पर्यटन का सबसे लंबा किनारा अष्टमुडी झील और अलपुझा के बीच है। इस पूरे किनारे की यात्रा करने के लिए लगभग 8 घंटे लगते हैं। और अब इस किनारे की यात्रा करना मेरी इच्छा सूची में अव्वल क्रमांक पर होगा।

मैं सही-सही तो नहीं बता सकती लेकिन शायद अष्टमुडी झील ने केरल के बंदरों पर हो रहे व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका जरूर निभाई होगी।

स्थानीय यातायात की नावें

स्थानीय नाव - अष्टमुडी झील
स्थानीय नाव – अष्टमुडी झील

दूसरे दिन शाम के समय हम आराम से अपने कमरे में बैठे सरोवर में घूम रही नावों को देख रहे थे। इनमें जो लंबी और बड़ी नावें थी उन्हें दोनों छोरों से खेया जा रहा था। ये नावें इसी सरोवर के आस-पास रहने वाले परिवारों को एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जा रही थीं। इनके अतिरिक्त यहां पर उत्कृष्ट हाउसबोट भी थे जो केरल पर्यटन का प्रमुख आकर्षण है। जिस नाव में पिछले दिन हम सैर कर रहे थे वह अब सूर्यास्त के खूबसूरत से दृश्य को अपने चौखटे में समेटने की कोशिश कर रही थी।

अष्टमुंडी सरोवर की यात्रा किए कई साल बीत गए हैं, लेकिन आज भी मेरे दिमाग में उससे जुडी यादें उतनी ही ताजा हैं जितनी उसे अलविदा कहते समय थी।

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गोवा के प्राचीन सारस्वत मंदिर – अपनी विशिष्ट वास्तुकला के साथ https://inditales.com/hindi/ancient-saraswat-temples-goa/ https://inditales.com/hindi/ancient-saraswat-temples-goa/#respond Wed, 24 May 2017 02:30:14 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=255

पर्यटन स्तर पर गोवा की जो छवि प्रस्तुत की जाती है वह बहुत ही सीमित है। इसी गोवा में मंदिरों के अस्तित्व की बात सुनकर लोगों को हैरानी होती है। लेकिन ये मंदिर ही गोवा की सादगी, सुंदरता और संस्कृति का प्रतीक है और इन्ही में गोवा का इतिहास भी रचा बसा हुआ है। अगर […]

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महलासा नारायणी मंदिर, गोवापर्यटन स्तर पर गोवा की जो छवि प्रस्तुत की जाती है वह बहुत ही सीमित है। इसी गोवा में मंदिरों के अस्तित्व की बात सुनकर लोगों को हैरानी होती है। लेकिन ये मंदिर ही गोवा की सादगी, सुंदरता और संस्कृति का प्रतीक है और इन्ही में गोवा का इतिहास भी रचा बसा हुआ है। अगर आप गोवा के समुद्र तटों और वहां के वातावरण से अपनी नज़रें हटाकर उसकी ऐतिहासिक विरासत की ओर ध्यान देंगे तो शायद आपको यह एहसास होगा कि, गोवा का इतिहास बहुत ही समृद्ध है। वास्तव में यह विश्व के सबसे प्राचीन निवासित क्षेत्रों में से एक है।

आज मैं आपको गोवा के दक्षिण पूर्वीय क्षेत्रों की यात्रा करवाना चाहती हूँ जो गोवा के बहुत से प्राचीन मदिरों का आश्रय है।

गोवा में स्थित प्राचीन सारस्वत मंदिर

गोवा के मंदिरों को अगर उनके मौजूदा स्थान के हिसाब से देखा जाए तो शायद वे कुछ ही सदियों पुराने नज़र आएंगे। लेकिन सच तो यह है कि ये मंदिर बहुत ही प्राचीन हैं। गोवा के अधिकतर मंदिर स्थानांतरित हैं। अर्थात ये मंदिर अपने मूल निर्मित स्थान पर न होकर अपने पुनः निर्माण के स्थान पर स्थापित हैं। यानि जिस स्थान पर ये मंदिर बनवाए गए थे उन्हें वहां से अपने वर्तमान स्थान पर पुनः स्थापित किया गया है।

अगर आप गोवा के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे तो आपको इन सारस्वत मंदिरों के इतिहास की थोड़ी बहुत जानकारी जरूर मिलेगी। ये मंदिर पहले गोवा राज्य या गोवापुरी, जैसा कि उसे पहले कहा जाता था, के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए थे। लेकिन पुर्तुगाली शासन काल के दौरान जब पुर्तुगालियों द्वारा इन मंदिरों का विध्वंस होने लगा, तब ब्राह्मण परिवारों ने अपने देवी-देवताओं की रक्षा करने हेतु उन मंदिरों में स्थापित मूर्तियों को अपनी मूल जगह से विस्थापित कर, उन्हें फोंडा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पुनः स्थापित किया। और बाद में धीरे-धीरे यहां पर मंदिरों का निर्माण होने लगा। इन नवनिर्मित मंदिरों में पुर्तुगाली वास्तुकला की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

गोवा के देवस्थान

गोवा में मंदिरों को देवस्थान कहा जाता है।  यह आम तौर पर गाँव के बीचों-बीच बसे होते हैं और पूरे गाँव का जीवन इन्हीं देवस्थानों के इर्द-गिर्द घूमता है। यहां पर न सिर्फ धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, बल्कि सामाजिक कार्यक्रम भी होते रहते हैं। इन देवस्थानों की देख-रेख खास परिवारों द्वारा की जाती है, जिन्हें महाजन कहा जाता है। गोवा के अधिकतर देवस्थान यहां के सारस्वत ब्राह्मण परिवारों के कुलदेवताओं के मंदिर हैं। ये वे ब्राह्मण परिवार हैं जो पुर्तुगालियों के आने से पहले भी इस क्षेत्र पर राज्य करते थे।

गोवा के शिव-पार्वती मंदिर

गोवा के अधिकतम सारस्वत मंदिर भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी पार्वती को समर्पित किए गए हैं। इन मंदिरों में आप भगवान शिव और देवी पार्वती के विविध स्वरूप देख सकते हैं। लेकिन इन मंदिरों की विशेष बात यह है कि, इनमें से किसी भी मंदिर में भगवान शिव और देवी पार्वती एक साथ निवास नहीं करते। अर्थात भगवान शिव के मंदिरों में आपको देवी पार्वती की कोई निशानी नहीं मिलती, उसी प्रकार देवी पार्वती के मंदिरों में भगवान शिव का कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन भक्तों में यह भिन्नता नहीं दिखती है, वे दोनों को समान रूप से पूजते हैं।

गोवा के मंदिरों की यह बात कुछ असामान्य सी है, क्योंकि, शिव और पार्वती को समर्पित भारत के अन्य मंदिरों में अगर किसी एक को प्रमुख देवी/देवता के रूप से पुजा जाता है तो दूसरे को परिवार देवता के रूप में पूजा जाता है। तथा भारत के अधिकतर शिव मंदिरों में पार्वती के साथ, कार्तिकेय और गणेश को भी पूजा जाता है।

लेकिन गोवा के मंदिरों की बात थोड़ी अलग है। यहां पर सारस्वत manमंदिर मंदिर के प्रमुख देवता के साथ उस क्षेत्र के ग्रामपुरुष को पूजा जाता है। जैसे मंगेशी के मंदिर में भगवान शिव के साथ मूलकेश्वर, जो वहां का ग्रामपुरुष या स्थानीय पुरुष है, को मान्यता दी जाती है। आम तौर पर ग्रामपुरुष वह व्यक्ति होता है, जिसने मंदिर बनवाने में लोगों की बहुत सहायता की हो।

गोवा के मंदिरों की वास्तुकला

पुर्तुगालियों ने गोवा पर 400 सालों से भी अधिक काल के लिए शासन किया था । इस काल के दौरान उनके द्वारा गोवा के अधिकांश मंदिरों का विध्वंस किया गया था। इसी से त्रस्त होकर लोगों ने इन मंदिरों की मूर्तियों को दूसरी जगहों पर ले जाकर उन्हें वहीं पर स्थापित कर नए मंदिरों का निर्माण किया। जिसके कारण आज उनका मूल स्वरूप या फिर उनकी मूल वास्तुकला का अंदाजा लगाना या उसकी जानकारी मिलना बहुत कठिन है।

लेकिन गोवा में एक मंदिर ऐसा है जो पुर्तुगालियों के विध्वंस से अछूता, आज भी सुरक्षित है। वह है ‘तांबड़ी सुर्ला का महादेव मंदिर’ जो पत्थरों से बनवाया गया था। आज यह मंदिर गोवा के खोये हुए इतिहास के प्रमाण के रूप में हमारे सामने खड़ा है। इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि, उस काल के अन्य मंदिर भी इसी प्रकार पत्थरों से बनवाए गए होंगे और देखा जाए तो पूरे भारत में भी उस समय मंदिरों के निर्माण की यही परंपरा प्रचलन में थी।

17-18 वी शताब्दी के दौरान गोवा के आस-पास के क्षेत्रों के अनेकों राजाओं के प्रश्रय में बनवाए गए नवीन मंदिरों की वास्तुकला अप्रतिम है। इन मंदिरों की संरचना में आप इस्लामी वास्तुकला और पुर्तुगाली वास्तुकला की स्पष्ट झलक देख सकते हैं, जिसके साथ ही ये हिन्दू मंदिरों की सूक्ष्मताओं को बरकरार रखे हुए हैं।

गोवा के मंदिरों की विशेषताएँ

गोवा के प्रत्येक मंदिरों के उपर शिखर होती है, जो कभी गुबंद या फिर एक लंबे से गुबंद की तरह होती है। यह शिखर कभी ईंटों और गारे से बनी होती है, तो कभी पीतल की होती है। कुछ मंदोरों में यह शिखर पिरामिड की तरह होती है जो त्रिकोणीय आकार की होती है।

गोवा के मंदिरों को अक्सर उज्जवलित रंगों से रंगवाया जाता है, जैसे कि नीला, पीला, लाल आदि, जो उन्हें और भी आकर्षित बनाते हैं।

इन मंदिरों में प्रमुख प्रवेश द्वार के अलावा और भी द्वार होते हैं जो आपको सीधे मंदिर के गर्भ गृह तक ले जाते हैं। इन दरवाजों की चौखट चाँदी से उत्कीर्णित होती है, जो मंदिर की सुंदरता को और भी बढ़ाते हैं।

गोवा के मंदिरों में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अक्सर काले ग्रेनाइट पत्थर की होती हैं। इन मूर्तियों को आभूषणों से इस प्रकार सुशोभित किया जाता है कि, उनके उत्कीर्णन की सूक्ष्मताओं को देख पाना मुश्किल है। इन मूर्तियों के सिर्फ मुख और मुकुट ही दृष्टिगोचर होते हैं, जिसके साथ उनकी थोड़ी-बहुत बारीकियाँ और विशेषताएँ भी झलकती हैं।

गोवा के कुछ मंदिरों में आप लकड़ी की कारीगरी भी देख सकते हैं, जो यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही है। मुझे बताया गया कि लगभग एक शताब्दी पहले तक गोवा के सारे मंदिरों में ऐसी ही लकड़ी की कारीगरी हुआ करती थी, जो धीरे-धीरे ईंटों और गारे का स्वरूप लेने लगी है।

यहां के प्रत्येक मंदिरों के पास मंदिर का एक सरोवर होता है, जो चौकोर या आयताकार आकार का होता है, इसे स्थानीय भाषा में ‘तळी’ कहते हैं।

गोवा के हर सारस्वत मंदिर में वार्षिक उत्सव या मेला होता है, जिसे ‘जात्रा’ कहा जाता है। इस उत्सव के कुछ ही दिन पहले पूरे मंदिर को रंगवाकर उसे सजाया जाता है, तथा टिमटिमानेवाली बत्तियों से मंदिर को प्रकाशमय किया जाता है। इस समय मंदिर के प्रमुख देवी/देवता की यात्रा निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए बहुत सारे भक्त आते हैं। इस यात्रा में मंदिर के देवता को उनकी सवारी या वाहन, जिसे ‘पालकी’ कहते हैं, में बिठाकर उन्हें पूरे मंदिर के गोल प्रदक्षिणा के रूप में ले जया जाता है। भगवान की यह पालकी लकड़ी की बनायी जाती है जिस पर बारीक और अप्रतिम नक्काशी का काम होता है। इस पालकी  को एक खास कक्ष में रखा जाता है, जिसे पालकी  घर या वाहनशाला कहते हैं।

यहां के मंदिरों में छतों के आंतरिक भाग से लंबे-लंबे झूमर लटकते हुए नज़र आते हैं, जो लगभग 18-19 वी शताब्दी के होंगे, क्योंकि, इसी काल के दौरान इन मंदिरों का निर्माण हुआ था और उस समय इस प्रकार के झूमर काफी प्रचलित थे।

इन मंदिरों के दर्शन लेने हेतु आए हुए भक्त यात्रियों को यहां पर ठहरने के लिए खास कमरों और भोजनालयों की भी व्यवस्था की गयी है।

तो आइए मैं आपको गोवा के कुछ प्रसिद्ध सारस्वत मंदिरों की सैर करवाती हूँ।

श्री शांतादुर्गा मंदिर, कवले (कवळे)

श्री शांतादुर्गा मंदिर - गोवा
श्री शांतादुर्गा मंदिर – गोवा

शांतादुर्गा एक विरोधालंकार शब्द है। शांता का अर्थ होता है शांत और नीरव, वहीं दुर्गा बहुत ही आक्रामक और उग्र स्वभाव की देवी मानी जाती है। इस संबंध में गोवा के लोगों का मानना है कि गोवा इतना अमनप्रिय स्थल है कि दुर्गा भी यहां आकर नीरवता का रूप धारण करती है।

शांतादुर्गा देवी से जुड़े कुछ उपाख्यान बताते हैं कि, एक बार जब भगवान शिव और विष्णु के बीच भयंकर युद्ध हुआ था तब इस युद्ध को रोकने के लिए माँ दुर्गा संधाता के रूप में आयी थी। कहते हैं कि, ब्रह्मा जी की प्रथना सुनकर माँ पार्वती ने दुर्गा का रूप धारण कर युद्ध में हस्तक्षेप किया और विष्णु को अपने दाईने हाथ और शिव जी को अपने बाएं हाथ पर ग्रहण किया था। उनके इसी स्वरूप को शांतादुर्गा देवी के नाम से जाना जाता है। अर्थात माँ दुर्गा जो शांति दूत बनी। उन्हें स्थानीय लोगों द्वारा श्री शांतेरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। उनके मंदिर पूरे गोवा में फैले हुए हैं।

इसी प्रकार कुछ अन्य उपाख्यान के अनुसार माना जाता है कि, उन्होंने कलांतक राक्षस का वध किया था, जिसके कारण उन्हें विजयदुर्गा भी कहा जाता है। और देखा जाए तो अब यह मंदिर भी शांतादुर्गा विजयते के नाम से जाना जाता है। इसमें भी विरोधलंकार दिखाई देता है, यानि शांति से विजय प्राप्त करने वाली दुर्गा देवी। कुछ उपाख्यानों के अनुसार शांतादुर्गा देवी को जगदंबा देवी का अवतार भी माना जात है।

शांतादुर्गा देवी का मूल मंदिर

श्री शांतादुर्गा मंदिर गोवा की पुष्करणी या तल्ली
श्री शांतादुर्गा मंदिर गोवा की पुष्करणी या तल्ली

शांतादुर्गा देवी का मूल मंदिर केलोशी (केळोशी) गाँव में बसा हुआ था जिसे 1564 ई में पुर्तुगालियों से संरक्षण के लिए वहां से स्थानांतरित किया गया था। बाद में 1730 ई में कवले (कवळे) गाँव में उनके नवीन मंदिर का निर्माण किया गया। कवले उस समय हरिजनों का गाँव हुआ करता था। इन्हीं हरिजनों ने मंदिर के निर्माण कार्य में बहुत सहायता की थी, ताकि उनकी जमीन पर देवी माँ का नया मंदिर खड़ा हो सके। उनके इस परोपकारी स्वभाव से खुश होकर देवी माँ के भक्तों द्वारा उन्हें देवी के चढ़ावे की वस्तुओं से सम्मानित किया गया था, जो प्रथा आज भी चलती आ रही है। बाद में यह मंदिर सरदेसाई नामक व्यक्ति के संरक्षण में चला गया, जो गोवा में अदिल शाह के प्रतिनिधि हुआ करते थे। मंदिर से जुड़े सारे विधि-कार्य उन्हीं की निगरानी में होते थे। चाहे वह मंदिर का वार्षिक उत्सव हो या फिर देवी की पालकी यात्रा। इस प्रकार से धीरे-धीरे समय के साथ यह सरदेसाई परिवार की परंपरा बन गयी, जिसे आज तक उस परिवार के व्यक्तियों द्वारा पूरी निष्ठा से निभाया जाता है।

इस मंदिर की छत पिरामिड के आकार की है जिसे लाल रंग से रंगवाया गया है। इसके उपर मंदिर की शिखर है जो थोड़ी सी लंबी और कुछ गोलाकार सी है जिसके उपर एक छोटा सा गुबंद है। इस मंदिर की खिड़कियाँ थोड़ी लंबी और रोमानी मेहराबों की तरह हैं जिन्हें रंगीन काँच से सुशोभित किया गाय है। अगर इस मंदिर को सम्पूर्ण तौर पर देखा जाए तो इसकी वास्तुकला अप्रतिम है।

सूर्य की रोशनी का प्रतिबिंब

जब मैं इस मंदिर में गयी थी तो वहां पर सुबह की आरती चल रही थी। सुबह की इस आरती के समय मंदिर में स्थापित देवी की मूर्ति को सूर्य प्रकाश से ज्योतिर्मय किया जाता है। इसके लिए एक बड़े से आईने का प्रयोग किया जाता है, जिससे सूर्य के प्रकाश को देवी के चेहरे पर प्रतिबिंबित किया जाता है। यही इस मंदिर की प्रमुख विशेषता है। मैंने यह प्रकार इससे पहले किसी भी अन्य मंदिर में नहीं देखा था। यह सबकुछ सच में बहुत ही सुंदर और देखने लायक है। यह मंदिर बहुत ही लंबा है और उसके गर्भगृह में स्थापित देवी की मूर्ति और प्रवेश द्वार के बीच लगभग 100 मिटर का अंतर है। इतनी दूरी से सूर्य की रोशनी को आईने के द्वारा देवी के मुख पर केन्द्रित करना बहुत ही अनोखी बात थी। सूर्य की रोशनी पड़ते ही देवी की मूर्ति जैसे प्रफुल्लित सी हो उठती है, जो उसकी सुंदरता को और भी बढ़ाती है। मूर्ति की इस सुंदरता से आप इतने मोहित होते हैं कि, आपकी नज़रें मूर्ति से हट ही नहीं पाती।

जैसा कि उपर बताया गया था, गोवा के मंदिरों में प्रमुख देवी/देवता के साथ मूलपुरुष को भी समान महत्व दिया जाता है। यह मूलपुरुष वह व्यक्ति होता है जो मूर्ति कि स्थापना में या मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस मूलपुरुष के नाम से मुख्य मंदिर के पास ही एक छोटा सा मंदिर बनवाया जाता है। शांतादुर्गा मंदिर के संदर्भ में यह कार्य लोमशर्मा, जो कौशिक गोत्र के हैं, द्वारा किया गया था और उनके नाम से यहां पर एक छोटा सा मंदिर भी है।

शांतादुर्गा मंदिर की अधिक जानकारी के लिए आप मंदिर से संबंधित वैबसाइट देख सकते हैं।

श्री रामनाथ प्रसन्न देवस्थान, रामनाथी

श्री रामनाथ प्रसन्न या रामनाथी मंदिर - गोवा
श्री रामनाथ प्रसन्न या रामनाथी मंदिर – गोवा

रामनाथ मंदिर अक्सर रामनाथी मंदिर के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह मंदिर भगवान शिव का है, लेकिन इसका नामकरण राम के नाम से किया गया है। कहा जाता है कि, लंका से वापसी के दौरान जब राम, सीता और लक्ष्मण रामेश्वरम में ठहरे थे तब भगवान राम ने वहां पर शिवलिंग की स्थापना करके शिव भगवान की आराधना की थी। इसी घटना के स्मरणोत्सव स्वरूप यह मंदिर बनवाया गया था।

यह मंदिर लगभग 450 साल पुराना है। यहां के परिसर को देखकर मंदिर की प्राचीनता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यहां की प्रत्येक वस्तु अपनी प्राचीनता को बयां करती हुई नज़र आती है। इस मंदिर को देखकर ऐसा लगता है जैसे कि, उसके रख रखाव और नवीकरण पर ध्यान ही नहीं दिया गया हो।

श्री रामनाथ प्रसन्न मूर्ति
श्री रामनाथ प्रसन्न मूर्ति

भगवान रामनाथ के साथ ही यहां पर उनकी दोनों जीवन संगिनियों यानि देवी कामाक्षी और देवी शांतेरी के मंदिर भी स्थापित हैं।

रामनाथी मंदिर मूलतः लोटली गाँव में स्थित था, जहां पर आज बिगफूट संग्रहालय बसा हुआ है। वहां से इस मंदिर को पुर्तुगालियों से संरक्षित करने हेतु अपने वर्तमान स्थान यानि रामनाथी में स्थानांतरित किया गया था। शायद इसीलिए इस मंदिर को रामनाथी के नाम से भी जाना जाता है।

इस मंदिर की वैबसाइट के अनुसार श्री रामनाथ विष्णु और शिव जी की एकता का प्रतीक है। अर्थात हरी यानि विष्णु और हरा यानि शिव की एकरूपता से निर्मित हरी-हरा यानि रामनाथ जिसका अर्थ है राम के नाथ। अब रामनाथ मंदिर की वैबसाइट द्वारा अपने अनुयायियों के लिए ऑनलाइन दर्शन की भी व्यवस्था भी की गयी है।

श्री महालक्ष्मी मंदिर, बांदोड़ा

श्री महालक्ष्मी देवस्थान - बंदोड़ा, गोवा
गोवा श्री महालक्ष्मी देवस्थान

श्री महालक्ष्मी मंदिर दक्षिण गोवा में फोंडा तालुका के पास ही बसे बांदोड़ा गाँव में स्थित है। यह मंदिर उज्जवलित पीले रंग का है, जो कि गोवा के अधिकतम घरों से मिलता जुलता है। यह मंदिर अपनी बड़ी-बड़ी खिड़कियों और अपने विशाल आकार के कारण किसी राजसी भवन की भांति लगता है। लेकिन मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही यह भ्रम दूर होता है और आपको मंदिर में होने का एहसास होता है।

इस मंदिर में स्थापित देवी महालक्ष्मी आदि-शक्ति, जो बहुत ही शक्तिशाली देवी है, का ही अवतार मानी जाती है। गोवा में स्थापित श्री महालक्ष्मी की विशिष्ट और अनोखी बात यह है कि उनके माथे पर लिंग बना हुआ है। इसके अलावा उनके हाथों में हँसुआ, गदा, कटार और प्रदास से भरा बर्तन भी है। कहा जाता है कि गोवा की देवी महालक्ष्मी की मूर्ति कोल्हापुर की महालक्ष्मी की मूर्ति के समरूप है।

गोवा के अनेक मंदिरों में से श्री महालक्ष्मी का यह मंदिर अपने सुंदर परिसर के कारण बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर का परिसर सुंदर बाग-बगीचों से सुशोभित है। यहां पर आपको विविध प्रकार के फूलों के पेड़ देखने को मिलते हैं।

श्री महालक्ष्मी मंदिर की सुसज्जित पालकियां
श्री महालक्ष्मी मंदिर की सुसज्जित पालकियां

यहां पर देवी महालक्ष्मी की सुंदर सी पालकी मंदिर के पीछे स्थित कक्ष में रखी गयी है। जब आप मंदिर की परिक्रमा करने के लिए मंदिर के गोल घूमते हैं तो उस समय आप इस कमरे में रखी गयी देवी की पालखी देख सकते हैं।

श्री महालक्ष्मी मंदिर की वैबसाइट के अनुसार यह मंदिर प्राचीन काल से बांदोड़ा गाँव में ही स्थित है। और यही इस मंदिर का मूल स्थान है। कहा जाता है कि, यह मंदिर पुर्तुगालियों के अत्याचारों से अछूता ही रहा था जिसके कारण उसका स्थानांतरण न होकर वह अपनी मूल जगह पर ही स्थित है। लेकिन कोलवा में स्थित श्री महालक्ष्मी का मंदिर जिसे अक्सर मूल मंदिर समझा जाता है, वास्तव में बांदोड़ा के मूल मंदिर का ही सहायक भाग है। यह मंदिर कोलवा के लोगों द्वारा ही बनवाया गया था, क्योंकि, कोलवा से नदी पार करके बांदोड़ा आना वहां के लोगों के लिए काफी मुश्किल था।

श्री नागेशी महारूद्र देवस्थान, बांदोड़ा

श्री नागेश महारुद्र देवस्थान या नागेशी मंदिर - गोवा
श्री नागेश महारुद्र देवस्थान या नागेशी मंदिर – गोवा

बांदोड़ा गाँव में स्थित नागेशी महारूद्र मंदिर जिसे अक्सर नागेशी मंदिर के नाम से जाना जाता है, श्री महालक्ष्मी मंदिर के नजदीक ही स्थित है।

इस मंदिर के ठीक सामने ही देवस्थान का सुंदर सा सरोवर है, जिसमें आप मंदिर का खूबसूरत सा अप्रतिम प्रतिबिंब देख सकते हैं। यही इस मंदिर की प्रमुख विशेषता है, वरना इसकी सादगी ही इसका मुख्य आकर्षण है। इस मंदिर की एक और विशेष बात यह है कि यहां पर लकड़ी का एक बड़ा सा तख़्ता है, जिस पर हिन्दू महाकाव्यों की महत्वपूर्ण कथाएँ दर्शायी गयी हैं और उन्हें उज्जवलित रंगों से उत्कीर्णित किया गया है।

अष्ट दिगपाल - नागेशी मंदिर के दीपस्तंभ पर अंकित
अष्ट दिगपाल – नागेशी मंदिर के दीपस्तंभ पर अंकित

मंदिर के सामने ही एक दीपस्तंभ है, जिस पर 8 दिशाओं के 8 संरक्षक देवताओं को उत्कीर्णित किया गया है। जैसा कि आप मोधेरा के सूर्य मंदिर में भी देख सकते हैं।

इस मंदिर की छत के कोनों पर मयूर (मोर) की प्रतिमाएँ बनाई गयी हैं। तथा यहां के भोजनालय को भी मयूरशाला कहा जाता है। इस संदर्भ में एक बात तो मैं नहीं जान पायी कि, शिव भगवान के महारूद्र अवतार से मयूर का क्या संबंध है, क्योंकि, मयूर समान्य तौर पर उनके पुत्र कार्तिकेय या फिर विष्णु के कृष्ण अवतार जुड़ा हुआ है।

नागेशी मंदिर की एक और विशिष्ट बात यह है कि, वह पश्चिम की ओर मुख किए हुए है जो कुछ असामान्य सा लगता है। जबकि मंदिर आम तौर पर पूर्व की ओर मुख किए होते हैं और कुछ शिव मंदिर तो दक्षिण की ओर भी मुख किए हुए हैं।

नागनाथ

इस मंदिर में 1300 इसवी सदी का एक ताम्रलेख है, जो बताता है कि, यह नागों का मंदिर है। अगर इस बात को ध्यान में रखते हुए मंदिर के आस-पास के वातावरण को देखा जाए तो यह जगह वास्तव में बहुत सारे सापों का घर हो सकता है। लोककथाओं के अनुसार भी कहा जाता है कि, नागेशी मंदिर के सरोवर में भी साँप निवास करते हैं। लेकिन जहां तक मुझे याद है, उस सरोवर में छोटी-बड़ी मछलियों के अलावा मुझे कोई भी साँप नहीं दिखा था।

माना जाता है कि यह मंदिर स्वयंभू है, अर्थात वह जो अपने-आप ही निर्मित हुआ है, ना कि मनुष्यों द्वारा निर्मित किया गया है।

श्री महालक्ष्मी मंदिर की तरह यह मंदिर भी अपने मूलस्थान पर ही बसा हुआ है। यानि यह मंदिर भी स्थानांतरित नहीं है। इसका अर्थ यह है कि, फोंडा क्षेत्र पुर्तुगालियों के अत्याचारों से सर्वथा अछूता ही रहा, क्योंकि, यह क्षेत्र उनके शासन के अधीन कभी नहीं आया था।

श्री महालसा नारायणी मंदिर, मारदोल

श्री महालसा नारायणी देवस्थान - मर्दोल, गोवा
श्री महालसा नारायणी देवस्थान – मर्दोल, गोवा

महालसा मंदिर फोंडा क्षेत्र या गोवा का सबसे सुंदर और मंत्रमुग्ध कर देनेवाला मंदिर है। नीले रंग से सुशोभित इस मंदिर का आकार-प्रकार अद्वितीय है और उसके शिखर पर पीतल का चमचमाता हुआ गुबंद है। इस मंदिर का आंतरिक भाग लकड़ी का बनाया हुआ है, जिसे बहुत अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है। मंदिर में प्रवेश करते ही आपको चारों ओर बड़े-बड़े उत्कीर्णित स्तंभ नज़र आते हैं। इस मंदिर के महाकक्ष में भक्तों को बैठने के लिए लकड़ी का तख़्ता बनवाया गया है। मंदिर की छत के आंतरिक भाग पर नाजुक नक्काशी काम देखा जा सकता है, जो विविध प्राणियों और पक्षियों को दर्शाता है। मंदिर के बाहरी दीवारों पर लकड़ी की सुंदर कारीगरी देखि जा सकती है।

अगर आप गोवा के प्राचीन मंदिरों की वास्तुकला को देखना चाहते हैं तो आपको महालसा मंदिर जरूर देखना चाहिए, जो गोवा की प्राचीन वास्तुकला का जीवंत उदाहरण है।

महालसा

श्री महालसा नारायणी मंदिर में काष्ठ का काम
श्री महालसा नारायणी मंदिर में काष्ठ का काम

महालसा भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार का नाम है। मोहिनी यानि अपने रूप से सामनेवाले को मोहित करनेवाली नारी। उनका यह अवतार समुद्र मंथन की कथा से संबंधित है, जब विष्णु ने असुरों का ध्यान विकेंद्रित करने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया था। तो कुछ लोककथाओं के अनुसार यह भी माना जाता है कि, देवी पार्वती ने मोहिनी का रूप धारण किया था, अर्थात महालसा भी देवी पार्वती का ही अवतार है। लेकिन मारदोल में महालसा देवी को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ही पूजा जाता है। और शायद इसीलिए महालसा के साथ नारायणी शब्द भी जोड़ा जाता है।

मारदोल मंदिर की महालसा देवी की अनोखी बात यह है कि, उन्होंने यज्ञोपवित्र धागा यानि पवित्र धागा पहना हुआ है जो सामान्य तौर पर पुरुषों द्वारा ही पहना जाता है।

महालसा मंदिर मूलतः आज के वेर्णा गाँव में स्थित था, जो उस समय वरुणापुर के नाम से जाना जाता था। यह मंदिर 16 वी शताब्दी में मारदोल में स्थानांतरित किया गया था, यानि यह मंदिर भी लगभग 450 साल पुराना है।

इस मंदिर की वैबसाइट आपको मोहिनी या महालसा से जुड़े सारे मंदिरों की जानकारी देती है। जैसे कि नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर के पास बसा हुआ मंदिर या फिर महाराष्ट्र का मंदिर।

श्री मंगेशी मंदिर, प्रियोल (प्रियोळ)

श्री मंगेशी देवस्थान - गोवा
श्री मंगेशी देवस्थान – गोवा

शांतादुर्गा मंदिर के साथ ही मंगेशी मंदिर भी गोवा का महत्वपूर्ण और बहुत ही प्रसिद्ध मंदिर है। गोवा पर्यटन के द्वारा यह मंदिर गोवा के सभी मंदिरों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मंगेशी का यह नीले रंग का मंदिर गोवा पर्यटन के सभी पत्रकों पर देखा जा सकता है।

मंगेशी भगवान शिव का मंदिर है। यह मूलतः कोरताली में जुआरी नदी के किनारे पर स्थित था। उस समय कोरताली को खुशास्थली और जुआरी नदी को अगाशी के नाम से जाना जाता था। पुर्तुगाली काल के दौरान पुर्तुगालियों द्वारा हो रहे नाश से त्रस्त होकर यह मंदिर कोरताली से प्रियोल गाँव में स्थानांतरित किया गया। मंगेशी मंदिर के मूल स्थान पर अब एक नया मंदिर बनवाया गया है। लेकिन इसके सभी विधि-कार्य आज भी प्रियोल गाँव के मंदिर (स्थानांतरित मंदिर) में ही किए जाते हैं, जो फोंडा के पास है। यहां पर यह मंदिर पिछले 400 सालों से भी अधिक काल से बसा हुआ है।

श्री देवकी कृष्ण मंदिर, मार्सेल

श्री देवकी कृष्णा मंदिर - गोवा
श्री देवकी कृष्णा मंदिर – गोवा

मार्सेल या मार्शेल, जिसे पहले महाशैला के नाम से भी जाना जाता था, गाँव में बसा हुआ देवकी कृष्ण मंदिर बहुत ही अप्रतिम और सुंदर है। यह मंदिर मातृत्व की भावना का प्रतीक है, जहां देवकी माँ अपने पुत्र कृष्ण को अपनी बाहों में लिए हुए है।

यह मंदिर मूलतः शराव द्वीप पर बसा हुआ था, जिसे पहले चूडामणी के नाम से जाना जाता था। उपाख्यान के अनुसार कहा जाता है कि, जब वास्को द गामा पहली बार इस मंदिर में आए थे, तब देवकी माँ और कृष्ण की प्रतिमा को मदर मेरी समझकर उन्होंने उनके सामने घुटने टेक दिये थे। लेकिन जब उन्हें सच्चाई का पता चला तो वे बहुत गुस्सा हुए।

इस मंदिर की वैबसाइट के अनुसार देवकीकृष्ण शराव द्वीप के प्रमुख देवता थे। इस देवता का आह्वान करने के पश्चात ही यहां पर शिग्मोत्सव का प्रारंभ होता था।

यह मंदिर पहले शराव से मये, जो बीचोली के पास ही स्थित है, में स्थानांतरित किया गया था। इसके बाद वह मंदिर अपने वर्तमान स्थान यानि मार्शेल में स्थानांतरित किया गया। मार्शेल में यह मंदिर 1842 में स्थापित किया गया था।

श्री रावल्नाथ मंदिर - गोवा
श्री रावल्नाथ मंदिर – गोवा

श्री देवकीकृष्ण मंदिर की बाईं ओर ही रवलनाथ मंदिर है और इन दोनों मंदिरों को देवकीकृष्ण रवलनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। रवलनाथ शिव जी का ही मंदिर है। और मेरे शोध के अनुसार रवलनाथ भैरव का रूप है और भैरव यानि शिव जी का उग्र स्वरूप।

गोवा के अधिकतम मंदिर शिव-शाक्त संप्रदाय के हैं, इसलिए देवकीकृष्ण मंदिर के इतिहास के बारे में जानने के लिए मैं काफी उत्सुक थी। मुझे लगता है कि यह मंदिर भक्ति काल के समय ही स्थापित किया गया था, जो मध्यकाल के दौरान अपने चरमोत्कर्ष पर था। इस काल के कवियों ने भक्ति काव्यों के द्वारा हिन्दू धर्म को जीवंत रखने का प्रयास किया था।

देवकीकृष्ण मंदिर से जुड़े उपाख्यान

देवकीकृष्ण मंदिर की कथा आपको महाभारत काल में ले जाती है। कहा जाता है कि जब कृष्ण और बलराम गोमांचल पर्वत पर जरासंध के साथ युद्ध कर रहे थे, तब व्याकुल देवकी माँ अपने पुत्र को देखने के लिए गोमांचल पर्वत तक चली गयी थी। लेकिन क्योंकि देवकी माँ कृष्ण को एक बच्चे के रूप में जानती थी तो वे कृष्ण को नहीं पहचान पायी। इसी कारण कृष्ण ने उनके लिए फिर से बच्चे का रूप धारण किया और देवकी माँ ने उन्हें अपनी गोद में उठा लिया। तब से यहां पर उनकी आराधना इसी रूप में की जाती है।

इस मंदिर की वैबसाइट पर उसका पूरा इतिहास उपलब्ध है तथा गोवा के सारस्वत ब्राह्मणों की भी जानकारी मिलती है।गोवा के इन मंदिरों के भीतर तस्वीरें खिचने की अनुमति नहीं है। यद्यपि कुछ मंदिरों में मुझे अपने ब्लॉग के लिए तस्वीरें खींचने की अनुमति अवश्य दी। तो कुछ मंदिरों में मुझे बाहर से ही तस्वीरें लेने के लिए कहा।

गोवा के मंदिरों की किसी वैबसाइट पर पढ़ी गयी यह पंक्ति गोवा के सारस्वत मंदिरों की संक्षिप्त जानकारी देती है –

“श्री मंगेश का स्तम्भ”, “श्री शांतादुर्गा का गुबन्द”, “श्री नागेश का सरोवर”, “श्री महालक्ष्मी का चौक”, “श्री महालसा का स्थल”, और “श्री कामाक्षी के गण”, जो गोवा के कुछ महत्वपूर्ण मंदिरों की विशेषताओं को स्पष्ट करती है।

गोवा के मंदिर-दर्शन लेने के लिए कुछ सुझाव

• अपने पहनावे पर ध्यान दीजिये।
• मंदिर में प्रवेश करने से पहले अपनी चप्पल उतारना मत भूलिए।
• इस ब्लॉग में उल्लिखित मंदिरों की यात्रा करने के लिए आपको लगभाग 4-5 घंटे लगते हैं। लेकिन अगर इन मंदिरों में कोई उत्सव हो तो थोड़ा और समय लग सकता है।
• गोवा के अधिकतम मंदिरों में भोजनालय होते हैं, जहां पर आप सादा शुद्ध शाकाहारी खाना खा सकते हैं और उनका मूल्य भी वाजिब होता है।

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