भारत की चित्रकला Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Thu, 06 Jul 2023 05:23:43 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.4 मिथिला बिहार की मधुबनी चित्रकला शैली – एक संदर्शिका https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/ https://inditales.com/hindi/mithila-madhubani-chitrakala-bihar/#comments Wed, 01 Nov 2023 02:30:58 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3313

मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी […]

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मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी जाती है।

मिथिला का संक्षिप्त इतिहास

बिहार का मिथिला क्षेत्र मुख्यतः गंगा के उत्तरी घाटों एवं नेपाल स्थित हिमालय की तलहटी क्षेत्रों के मध्य स्थित है।

मिथिला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिचय माता सीता के पीहर के रूप में दिया जाता है। मिथिला क्षेत्र को माता सीता का जन्म स्थान माना जाता है। इसी कारण उन्हें मैथिली के नाम से भी संबोधित किया जाता है। उनके पिता राजा जनक के राज्य का नाम जनकपुरी था जो वर्तमान में नेपाल का भाग है। जनकपुरी भारत-नेपाल सीमा से केवल कुछ ही किलोमीटर भीतर स्थित है।

सीता जन्म, राम सीता मिलन, राम जानकी विवाह - मधुबनी चित्रकला के विषय
सीता जन्म, राम सीता मिलन, राम जानकी विवाह – मधुबनी चित्रकला के विषय

सीता माता जिस स्थान पर शिशु रूप में प्रकट हुई थीं, वह स्थान सीतामढ़ी में है, परन्तु जिस क्षेत्र में भगवान राम से उनकी सर्वप्रथम भेंट हुई, तत्पश्चात उनसे विवाह संपन्न हुआ, वह क्षेत्र जनकपुरी में है। मिथिला चित्रों में राम-जानकी विवाह का दृश्य एक लोकप्रिय विषयवस्तु है।

मिथिला क्षेत्र की अन्य विशेषताएं हैं, यहाँ स्थित असंख्य जलाशय, उनमें तैरती विविध प्रकार की मछलियाँ जिन्हें यहाँ रूचिपूर्वक ग्रहण किया जाता है, मखाने जिनकी यहाँ प्रचुर मात्रा में खेती की जाती है, यहाँ की मधुर भाषा तथा यहाँ के आनंदमय निवासी। यह मुख्यतः एक कृषि प्रधान क्षेत्र है।

मिथिला एवं मधुबनी चित्रकला की अनमोल  धरोहर

मिथिला चित्रकला पारंपरिक रूप से एक भित्तिचित्र कलाशैली थी जो स्त्रियाँ अपने घरों की भित्तियों पर चित्रित करती थीं। वे अनुष्ठानिक चित्र हुआ करते थे जिन्हें बहुधा विवाहोत्सवों, प्रसवोत्सवों तथा अन्य पावन उत्सवों पर चित्रित किया जाता था।

मिथिला के सामान्य जन जीवन का चित्रण
मिथिला के सामान्य जन जीवन का चित्रण

मिथिला चित्रों को स्थायी रूप से चित्रित करने का उद्देश्य नहीं होता था। जब भी घर में कोई नवीन उत्सव अथवा अनुष्ठान होता था तब उन्हें पुनः नवीन रूप से चित्रित किया जाता था।

किसी भी अन्य लोककला के अनुसार मिथिला चित्रों में भी विविध कथानकों एवं प्रस्तुतीकरण शैलियों का समावेश किया जाता था। इस परंपरा से संयुक्त प्रत्येक समुदाय के स्वयं के विशेष रूपांकन आकृतियाँ एवं चिन्ह होते थे जिन्हें वे अपने चित्रों में चित्रित करते थे।

वर्तमान में मिथिला चित्रकला शैली का इस स्तर तक व्यवसायीकरण हो गया है कि अब सामुदायिक वैशिष्ठ्य लुप्त होने लगा है। अब स्थिति यह है कि कलाकारों की स्वयं की व्यक्तिगत चित्रण शैलियाँ अवश्य हैं किन्तु चित्रों के विषय, उपभोक्ता माँग द्वारा ही निर्धारित होते हैं।

मधुबनी चित्रों का आधुनिक रूप

मधुबनी चित्रों ने सर्वप्रथम मिथिला के बाहर के प्रेक्षकों का ध्यान अपनी ओर तब आकर्षित किया जब सन् १९३० में आये भूकंप के पश्चात भूकंप में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए कुछ अंग्रेज सर्वेक्षकों ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी। किन्तु मिथिला के इन मधुबनी चित्रों को मिथिला का प्रतीक बनने के लिए एक अन्य भूकंप के आने तक की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

मधुबनी चित्रकला में आधुनिक विषय
मधुबनी चित्रकला में आधुनिक विषय

सन् १९६० में आये एक अन्य भूकंप के पश्चात सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक पुपुल जयकर ने छायाचित्रकार भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी क्षेत्र में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए वहाँ भेजा। उन्होंने विचार किया कि एक नवीन व्यवसाय के रूप में यदि इन भित्ति चित्रों को अन्य माध्यमों पर भी चित्रित किया जाए तो ये भूकंप से पीड़ित किसानों के लिए उनके दुष्काल में आजीविका का एक उत्तम स्त्रोत उत्पन्न कर सकते हैं।

तब से कलाकारों ने इन चित्रों को कागज जैसे अन्य माध्यमों पर चित्रित करना आरम्भ किया जिनकी वे आसानी से विक्री कर सकते थे। विश्व स्तर पर कई प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया ताकि इस अप्रतिम कला शैली को विश्व भर में पहुँच प्राप्त हो सके। तात्कालिक विदेश मंत्री ललित नारायण मिश्र, जो इसी क्षेत्र के निवासी थे, उनके अथक प्रयास से इस कलाशैली को अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध हुआ। Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाओं ने भी इस कार्य में अपना योगदान दिया।

अर्धनारीश्वर मिथिला चित्रण में
अर्धनारीश्वर मिथिला चित्रण में

शनैः शनैः मधुबनी चित्रों ने वैश्विक कला जगत में अपने लिए एक सुदृढ़ स्थान निर्मित कर लिया। अब सम्पूर्ण विश्व में भित्ति चित्रों पर मधुबनी चित्र का भी समावेश दृष्टिगोचर होता है। चूँकि अधिकाँश देशी-विदेशी कला प्रेमियों ने मधुबनी के माध्यम से ही इन चित्रों को जाना है, इसलिए इन्हें मधुबनी चित्रकला कहा जाता है। अन्यथा पारंपरिक रूप से देखें तो ये अनुष्ठानिक कला शैली थी जिसका प्रचलन सम्पूर्ण मिथिलांचल में था।

कदाचित उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिवस सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला उनकी सांकेतिक परिचय के रूप में प्रसिद्धी प्राप्त करेगी।

मधुबनी चित्रों के विविध प्रकार

मधुबनी चित्रों को दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है।

प्रथम आधार है, जाति अथवा समुदाय। प्रत्येक चित्रकार अपने समुदाय के ऐतिहासिक धरोहरों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने पर आधारित विषयवस्तुओं को अपने भित्तिचित्रों के माध्यम से साकार करता है। किन्तु उन सभी समुदायों अथवा जातियों की कलाशैली में एक तत्व सार्व है। वे चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हों, कायस्थ हों अथवा पासवान हों, वे सभी एक ही कलाशैली में भित्ति चित्रण करते हैं। वह है, मधुबनी चित्रकला शैली।

कछनी और भरनी से अर्धनारीश्वर
कछनी और भरनी से अर्धनारीश्वर

चित्रों के विभाजन का दूसरा आधार है, चित्रकला शैली। इस आधार के तीन अवयव हैं।

कछनी शैली – इस शैली में कलाकार मुक्त हाथों से रेखाचित्र बनाते हैं।

भरनी – भरनी का अर्थ है भरना। रेखाचित्र के भीतर विविध रंगों को भरा जाता है।

मधुबनी चित्रों की रचना कछनी एवं भरनी इन दोनों के संगम से ही होती है। मधुबनी चित्रकला शैली में अधिकाँश दृश्य इन दो तकनीकों द्वारा ही साकार किये जाते हैं।

गोदना –  गोदना एक पारंपरिक कला है जो सम्पूर्ण भारत में लगभग सभी समुदायों में प्रचलित थी। इस कला में शरीर के विभिन्न अंगों पर पारंपरिक आकृतियाँ गुदवायी जाती थीं। चूँकि ये आकृतियाँ शरीर के उन भागों पर गुदवायी जाती थीं जो बहुधा ढंके हुए नहीं होते थे, जैसे हाथ, गला, मुख आदि, ये आकृतियाँ आकार में लघु होती हैं।

गोदना मधुबनी चित्रण
गोदना मधुबनी चित्रण

जब इन गुदना आकृतियों को कागज पर चित्रित करने का क्रम आरम्भ हुआ तब अनेक आकृतियों को संयुक्त कर एक चित्र बनाने की परंपरा आरम्भ हुई। गुदना आकृतियों से निर्मित चित्र अधिक ज्यामितीय होते हैं तथा अधिक भरे हुए प्रतीत होते हैं।

तांत्रिक चित्र – ये चित्र वे कलाकार चित्रित करते हैं जो उपासना के अंतर्गत तंत्र पथ के अनुयायी हैं। ये अधिकांशतः शक्ति के उपासक होते हैं। उनके चित्रों में सामान्यतः दश महाविद्या जैसे देव एवं उनके यंत्र होते हैं। कभी कभी वे केवल यंत्रों को ही चित्रित करते हैं।

साधना एवं उपासना में इन चित्रों का प्रयोग किया जाता है।

कोहबर – विवाहोत्सवों के लिए अनुष्ठानिक चित्र

ये विवाहोत्सव अनुष्ठानिक चित्र वर-वधु के कक्ष की भित्तियों पर चित्रित किये जाते हैं। यह परंपरा मिथिला के सभी समुदायों में प्रचलित है। इन चित्रों में विभिन्न प्रजनन एवं समृद्धि चिन्ह होते हैं। इन्हें सामान्यतः कक्ष की पूर्वी भित्ति पर चित्रित किया जाता है।

पद्मश्री गोदावरी दत्त जी का रचा कोहबर
पद्मश्री गोदावरी दत्त जी का रचा कोहबर

इन चित्रों के प्रमुख अवयव हैं:-

  • चित्र के मध्य में कमल का पुष्प होता है जिसकी पंखुड़ियां बाहर की ओर खुलती हैं।
  • वनस्पतियों एवं प्राणियों के चित्र जैसे बांस, मोर आदि।
  • शिव एवं पार्वती
  • विवाह सम्बन्धी अनुष्ठान जैसे वर-वधु द्वारा पूजा आदि।
  • विवाह उत्सव का दर्शन करते तथा वर-वधु को आशीष देते सूर्य, चन्द्र तथा अन्य ग्रह।

भिन्न भिन्न समुदायों एवं परिवारों में प्रचलित चित्रों की सूक्ष्मताओं में भिन्नता हो सकती है किन्तु व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इन चित्रों का मुख्य उद्देश्य होता है, नव वर-वधु के लिए संरक्षण, सौभाग्य एवं आशीष की मांग करना।

पूर्व में कोहबर चित्रों को विवाह उत्सवों के उपलक्ष्य में भित्तियों पर नवीन रंगा जाता था। किन्तु अब अधिकतर लोग कागज में पूर्व में ही चित्रित चित्रों को क्रय कर लाते हैं तथा अपनी भित्तियों पर चिपकाते हैं। यहाँ तक कि दिग्गज चित्रकारों के घरों में भी हमने कागज पर चित्रित चित्र ही देखे।

व्यक्तिगत शैलियाँ

प्रत्येक कलाकार अथवा चित्रकार की एक व्यक्तिगत शैली होती है जिसमें आकृतियों एवं रंगों का उसका व्यक्तिगत चयन होता है। यद्यपि गंगा देवी जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकारों की शैलियों का रीतिसर अभ्यास हुआ है एवं प्रलेखन हुआ है, तथापि प्रत्येक चित्रकार की अपनी विशिष्ट शैली होती है जिनका रीतिसर अभ्यास एवं प्रलेखन अभी शेष है।

मधुबनी चित्रों में प्रयुक्त रंग

आप सबने कभी ना कभी कहीं ना कहीं मधुबनी चित्र अवश्य देखे होंगे। यदि मैं आपसे आग्रह करूँ कि आप अपने नेत्र बंद कर लें ,  तथा यह बताएं कि उन चित्रों में कौन से रंगों का प्रयोग किया गया था, तो आप अवश्य यह कहेंगे कि आपने मुख्यतः काले रंगों की रेखाएं देखी हैं जिनके मध्य कुछ रंग भरे गए हैं। आपको गहरे पीले अथवा मटमैले श्वेत रंग की पृष्ठभूमि पर श्याम एवं लाल रंग में कलाकृतियाँ दृश्यमान होंगी।

चटकीले होली के रंगों में मधुबनी चित्र
चटकीले होली के रंगों में मधुबनी चित्र

कागज पर गाय के गोबर का लेप लगाकर धूप में सुखाया जाता है जिससे गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि तैयार होती है।

अधिकाँश भारतीय चित्रण परम्पराओं के अनुरूप मिथिला चित्रों में भी प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है जो प्राकृतिक स्त्रोतों द्वारा प्राप्त होते हैं, जैसे वनस्पति, पुष्प, पत्तियाँ, फल तथा कालिख जैसी अन्य गृह वस्तुएं। यद्यपि कुछ चित्रकार अब भी गेरु का प्रयोग करते हैं, तथापि अधिकाँश चित्रकारों का रुझान आसान, सुलभ एवं चिरस्थायी कृत्रिम रंगों के प्रयोग की ओर होने लगा है।

भारत एक ऐसा देश है जहाँ लोगों को विविध रंग अत्यंत प्रिय हैं, वह भी चटक उजले रंग। इसलिए पारंपरिक चित्रों में चटक उजले रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे बैंगनी, उजला पीला, चटक हरा आदि।

श्वेत-श्याम मधुबनी चित्र

जैसे जैसे यह कला व्यावसायीकरण के चंगुल में फंसने लगी है, रंगों के चयन पर ग्राहकों का अधिपत्य बढ़ने लगा है। अब उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार रंगों का चयन किया जा रहा है। सन् १९६० के पश्चात के दशकों से हमें इन चित्रों में श्वेत एवं श्याम रंगों की प्राधान्यता दृष्टिगोचर होने लगी है। इनके साथ कुछ सौम्य रंगों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें देख यह अनुमान लगा सकते हैं कि इन रंगों का चयन पाश्चात्य देशों की मांग पर किया गया होगा क्योंकि वहाँ इन रंगों का प्रचलन अधिक है।

काली - बिहार संग्रहालय पटना में
काली – बिहार संग्रहालय पटना में

इन कलाकारों एवं वैश्विक बाजार के मध्य मध्यस्थता करने वाले बिचौलिये भी इन रंगों के चयन को प्रभावित करने लगे। यहाँ तक कि ये बिचौलिये विभिन्न समुदायों के कलाकारों से विशेष रंगों एवं आकृतियों का ही प्रयोग करने का आग्रह करने लगे हैं ताकि वे विभिन्न शैलियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर सकें।

जहाँ तक लोक कला शैलियों का प्रश्न है, वे कभी किसी सीमा में नहीं बंधे हैं। वे किसी सीमा के भीतर विकसित नहीं हुए हैं। ना ही उन्हें कभी किसी सीमा में बांधकर रखा जा सका है। किन्तु कला क्षेत्र से सम्बंधित बाजार में इन कलाकृतियों की मांग को उत्पन्न करने के लिए उनकी शैलियों को सीमाबद्ध करना आवश्यक हो जाता है। गत कुछ दशकों से मिथिला चित्रकला का विकास इसी सीमाबद्ध शैली के अंतर्गत हो रहा है।

मिथिला में मधुबनी चित्रकारों के गाँवों का भ्रमण

हमारी मिथिला यात्रा के समय हमारी तीव्र अभिलाषा थी कि हमें कुछ ऐसे गाँवों के भ्रमण का अवसर प्राप्त हो जहाँ से ऐसी महिला कलाकारों का उदय हुआ हो जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

मिथिला के मधुबनी कलाकार
मिथिला के मधुबनी कलाकार

मैं ऐसे एक गाँव की कल्पना करने लगी जहाँ प्रत्येक गृह की भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की गयी है। उस समय हम दरभंगा में ठहरे हुए थे। दरभंगा में तो मुझे कहीं भी ये चित्र दृष्टिगोचर नहीं हुए, अपवाद स्वरूप कुछ सरकारी संरचनाओं को छोड़कर। इन संरचनाओं पर पारंपरिक एवं आधुनिक दोनों दृश्यों को चित्रित किया गया था। मुझे कोई गाँव मेरी कल्पना के अनुरूप दिखाई नहीं दिया।

हमने मधुबनी नगरी का भ्रमण करने का निश्चय किया। मुझे यह जानकारी थी कि कम से कम मधुबनी रेल स्थानक की भित्तियों पर अत्यंत सूक्ष्मता एवं दक्षता से मधुबनी चित्रों का चित्रण किया गया है। मुझे अब भी महाराष्ट्र के रत्नागिरी रेल स्थानक का स्मरण है जहाँ की भित्तियों पर वारली चित्रों का प्रदर्शन किया गया है।

अंततः हमारे भाग्य ने हमारा साथ दिया जब हमारी भेंट इतिहासकार डॉ. नरेन्द्र नारायण सिंग ‘निराला’ जी से हुई जो मधुबनी चित्रकला शैली के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने मिथिला चित्रों के आधुनिक स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने हमें बताया कि किस प्रकार Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाएं इसके विकास में अपना योगदान दे रही हैं।

निराला जी ने हमें ऐसी कई संस्थाओं के विषय में बताया जिनकी स्थापना विशेष रूप से इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए ही की गयी है। उन्होंने बताया कि यूँ तो मिथिला चित्र मिथिला में सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु बाह्य विश्व में जिन चित्रों की विक्री होती है वे मधुबनी चित्र के नाम से जाने जाते हैं।

निराला जी हमें विभिन्न ग्रामों में ले गए जहाँ हमारी भेंट भिन्न भिन्न चित्रकारों से हुई। हमने प्रत्येक गाँव की विशेष शैलियों को भी देखा व समझा। इसके पश्चात उन्होंने हमें कुछ पुरातन मिथिला चित्र भी दिखाए जो उनके व्यक्तिगत संग्रह थे।

जितवारपुर ग्राम

जितवारपुर ग्राम मुख्यतः मधुबनी चित्रों के लिए जाना जाता है।

हमने सर्वप्रथम कृष्ण कान्त झा जी से उनके निवासस्थान पर ही भेंट की। वे एक महापात्रा ब्राह्मण हैं। वे मुख्यतः रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों के भव्य दृश्यों का चित्रण करते हैं। हम जब वहाँ गए थे तब वे हनुमान के चित्रों पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने हमें उनको इन चित्रों को रंगते हुए देखने की अनुमति भी दे दी थी।

उन्होंने सर्वप्रथम अनेक सीधी रेखाओं द्वारा चित्र के सीमावर्ती भागों को रेखांकित किया। तत्पश्चात उन्होंने उन सीधी रेखाओं के मध्य भागों को त्रिकोणीय आकृतियों से भर कर चित्र की किनारी तैयार की। उन्हें देख कर यह बोध हुआ कि सभी मिथिला चित्रों की यही किनारी होती है।

इसके पश्चात उन्होंने रेखांकन करते हुए पर्वत धारी हनुमान जी की छवि को चित्रपटल पर उतारा। मुक्त हाथों से रेखांकन करते उनके हाथ स्वच्छंदता से चित्रपटल पर हनुमान जी की छवि को साकार कर रहे थे। काली स्याही में डूबी कूची के अतिरिक्त वे किसी भी अन्य चित्रकारी सामग्री का प्रयोग नहीं कर रहे थे।

श्याम रंग द्वारा रेखांकन समाप्त होते ही वे अथवा उनके परिवार के सदस्य उन में रंगों को भरने का कार्य करते हैं जिसके पश्चात वह चित्र पूर्ण होगा। अधिकाँश चित्र सम्पूर्ण परिवार के संयुक्त प्रयासों का फल होते हैं। मुख्य चित्रकार दृश्य अथवा छवि को रेखांकित करता है। इसके पश्चात परिवार के अन्य सदस्य उनमें रंग भरते हैं।

कृष्ण कान्त झा जी हमें अत्यंत निर्मल व निश्छल व्यक्ति प्रतीत हुए। यदि आप उनके निवास के सामने से जायेंगे तो आपको यह अनुभव ही नहीं होगा कि यह एक सफल व्यावसायिक कलाकार का घर है। वे अपने घर से ही अपने चित्रों की विक्री करते हैं। इसके अतिरिक्त वे विद्यार्थियों को इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए भिन्न भिन्न स्थलों का भ्रमण भी करते हैं। अनेक सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत स्थानों की भित्तियों पर मधुबनी चित्र बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित भी किया जाता है।

शानू पासवान का गृह

कृष्ण कान्त झा जी से भेंट करने के पश्चात हमने एक गाँव के भीतर प्रवेश किया। हम पासवान समुदाय की चित्रकला शैली से अवगत होना चाहते थे। यहाँ अवश्य हमें कुछ घर ऐसे दिखे जिनकी भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की हुई थी। शानू पासवान जी के निवास में हमने गोदना शैली में चित्रित अनेक चित्र देखे। शीला देवी जी से भी हमारी भेंट हुई जिनका बाह्य कक्ष चित्रों से भरा हुआ था। उनमें कुछ पर अब भी कार्य शेष था।

पासवान समुदाय की राहू पूजा
पासवान समुदाय की राहू पूजा

हमने पासवान समुदाय के स्थानीय अनुष्ठान सम्बन्धी चित्र भी देखे, जैसे राहु पूजा आदि। पासवान समुदाय के लोक देवता राजा सलहेस अथवा सल्हेश से संबंधित कथाओं पर आधारित चित्र भी देखे। इस समुदाय के मधुबनी चित्रों में बाघों की छवि का प्रयोग बहुलता से किया जाता है।

उन चित्रों को देख मुझे तेलंगाना के चेरियल चित्रों का स्मरण हो आया।

कृष्णानंद झा के तांत्रिक चित्र

चित्रकार कृष्णानंद झा के निवास तक पहुँचने के लिए हमें खेतों के मध्य से होकर जाना पड़ा। इन खेतों के अंतिम छोर पर उनका निवासस्थान था। वहाँ स्व. कृष्णानंद झा की पत्नी ने हमारा अतिथी सत्कार किया। उन्होंने हमें अपने पति द्वारा चित्रित सभी चित्रों के छायाचित्र दिखाए।

यंत्रों के साथ बनाये हाय तांत्रिक चित्र
यंत्रों के साथ बनाये हाय तांत्रिक चित्र

इसके पश्चात उन्होंने हमारे समक्ष चित्रों की एक गड्डी खोली। उनमें दश महाविद्या एवं भगवान विष्णु के दशावतारों पर चित्रित अनेक चित्र थे। ये सभी चित्र भिन्न भिन्न अनुष्ठानों से संबंधित थे जो ग्राहकों की विशेष मांग पर बनाए गए थे।

पद्मश्री गोदावरी दत्त

अंत में हम पद्मश्री गोदावरी दत्त जी से भेंट करने रांटी गाँव पहुँचे। उनके आगंतुक कक्ष की भित्ति पर जो कोहबर चित्र चित्रित था, वो मेरे देखे अब तक के सर्वाधिक सुन्दर कोहबर चित्रों में से एक था। ९० वर्ष को पार कर चुकी गोदावरी जी की सक्रियता अब ढलान पर थी। फिर भी उन्होंने प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया एवं माता सुलभ प्रेम से हमारा अतिथि सत्कार किया।

उनकी पुत्रवधु अंजनी देवी जी ने हमें उनके निवासस्थान में प्रदर्शित सभी कोहबर चित्र दिखाए तथा उस शैली के विषय में जानकारी दी। वे कायस्थ समुदाय से संबंध रखती हैं। उनके चित्रों में श्वेत, श्याम एवं लाल रंगों की प्राधान्यता थी।

गोदावरी दत्त जी द्वारा चित्रित अनेक चित्रों को जापान के टोकामाची नगर में स्थित मिथिला संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। इस संग्रहालय के संग्रह को विकसित करने के लिए उन्होंने जापान की अनेक यात्राएं की हैं।

दरभंगा में मधुबनी साड़ी कलाकेन्द्र

दरभंगा में हमने राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मधुबनी कलाकार आशा झा जी के कला केंद्र का अवलोकन किया। चित्रों के साथ साथ उन्हें साड़ियों एवं दुपट्टों पर मधुबनी चित्रण का भी वैशिष्ठ्य प्राप्त है।

उनकी पुत्री ने मुझे एक पाग एवं एक दुपट्टा भेंट स्वरूप प्रदान किया। अतिथियों को मधुबनी चित्रों द्वारा सज्जित ये उपहार वस्तुएं प्रदान करने की उनकी विशेष परंपरा है। मैथिलि ब्राह्मण ये पाग तथा दुपट्टे औपचारिक अवसरों व उत्सवों पर धारण करते हैं। आप यदि इन्हें अपने सर पर धारण कर लें तो आप अपना सर अधिक हिला-डुला नहीं सकते।

आशा झा के कला केंद्र में निर्मित विशेष साड़ियों की अत्यधिक मांग है। उन साड़ियों पर उनके द्वारा चित्रित मधुबनी चित्र भी विशेष रूप से आग्रहीत होते हैं। इनके विषय में अधिक जानकारी के लिए आशा झा की मधुबनी पेंट्स इस वेबस्थल पर जाएँ अथवा उनके IG हैंडल से संपर्क करें।

मधुबनी यात्रा के लिए कुछ आवश्यक सुझाव

मधुबनी देश के अन्य भागों से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से जुड़ा हुआ है। निकटतम नगर तथा हवाई अड्डा दरभंगा है।

जितवारपुर का मुख्य परिचय है, मधुबनी कलाकारों का ग्राम।

स्वयं अपने बलबूते पर इन गाँवों तक पहुँचना आसान नहीं है। इन गाँवों तक आपको पहुँचाने के लिए किसी भी प्रकार के यात्रा नियोजक उपलब्ध नहीं है। इसके लिए सर्वोत्तम साधन है कि आप किसी स्थानीय व्यक्ति से संपर्क करें जो आपको इन कलाकारों से भेंट करवा सके।

यदि किसी चित्रकार से भेंट करने में आपकी रूचि नहीं है, आप केवल मधुबनी चित्रों को क्रय करना चाहते हैं तो दिल्ली का ‘दिल्ली हाट’ आपके लिए सर्वोत्तम गंतव्य होगा। मिथिला के अधिकाँश चित्रकार अपनी रचनाएँ नियमित रूप से उस हाट में प्रदर्शित करते हैं।

इन में से कई चित्रकार अपने चित्र ऑनलाइन भी विक्री करते हैं। इसके लिए अमेज़न सर्वोत्तम साधन है।

उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र पटना
उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र पटना

मधुबनी चित्रकला शैली में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए पटना के उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान से संपर्क करें जो मधुबनी चित्रकला में निशुल्क पाठ्यक्रम संचालित करते हैं।

मधुबनी चित्रकला अवलोकन एवं मिथिला के गाँवों का भ्रमण करने के लिए आप दरभंगा में ठहर सकते हैं जहाँ सुलभ विश्रामगृह उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चेरियल चित्रकारी – तेलंगाना के चेरियल गाँव की विशेष सौगात https://inditales.com/hindi/cherial-chitrakala-telangana/ https://inditales.com/hindi/cherial-chitrakala-telangana/#respond Wed, 08 Jun 2022 02:30:22 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2704

कलमकारी कला कौशल के पश्चात कदाचित चेरियल चित्रकारी ही आंध्र क्षेत्र की सर्वोत्तम कला देन है। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में, जो अब स्वयं एक राज्य है, चेरियल नामक एक गाँव है। हैदराबाद से इसकी दूरी १०० किलोमीटर से भी कम है। वारंगल से वापिस लौटते समय हमने चेरियल में एक लघु पड़ाव लिया […]

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कलमकारी कला कौशल के पश्चात कदाचित चेरियल चित्रकारी ही आंध्र क्षेत्र की सर्वोत्तम कला देन है। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में, जो अब स्वयं एक राज्य है, चेरियल नामक एक गाँव है। हैदराबाद से इसकी दूरी १०० किलोमीटर से भी कम है। वारंगल से वापिस लौटते समय हमने चेरियल में एक लघु पड़ाव लिया था। इस पड़ाव का मुख्य उद्देश्य था, इस प्रसिद्ध पट्टचित्र कलाकृति के विभिन्न कारीगरों से भेंट तथा कदाचित कुछ चित्रों का क्रय। हम राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कलाकार श्री डी. वैकुण्ठम से संपर्क साधने में सफल हो गए जो चित्रकारों के परिवार से हैं।

तेलंगाना की चेरियल पट्टचित्र कला
तेलंगाना की चेरियल पट्टचित्र कला

गूगल मानचित्र की सहायता से हम चेरियल भी पहुँच गए। वहां श्री डी. वैकुण्ठम के सुपुत्र ने हमसे भेंट की तथा गाँव की संकरी गलियों में हमारा मार्गदर्शन करते हुए हमें उनके कार्यशाला तक ले गए। यह कार्यशाला उनके निवास्थान के भीतर ही एक कक्ष में स्थापित की गयी थी।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता

श्री डी. वैकुण्ठम जी के निवास के बाहर लगे सूचना पटल पर लिखा था कि यह राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता का निवासस्थान है। मैंने अनुमान लगाया था कि इस गाँव के अनेक निवासी इस कला से जुड़े होंगे। किन्तु गाँव के कुछ परिवार ही इस कला शैली की चित्रकारी से जुड़े हैं। हम श्री डी. वैकुण्ठम जी के कार्यशाला के भीतर गए। कार्यशाला अत्यंत ही साधारण स्तर की प्रतीत हो रही थी। लकड़ी की एक तिरछी मेज थी जिस के ऊपर बिजली का बल्ब लटक रहा था। भित्ति से टिकी लकड़ी की कुछ अलमारियां थीं जिन के भीतर तैयार चित्र एवं चित्रकारी के लिए आवश्यक सामान रखे हुए थे। भित्तियों पर यहाँ-वहां कुछ पुरस्कार, प्रशस्ति पत्र, कैलेंडर एवं उनकी चित्रकला शैली को दर्शाते कुछ पर्यटन पर्चे लटक रहे थे। श्री डी. वैकुण्ठम का परिवार अत्यंत ही विनम्रता से हमें उनकी कलाकृतियाँ दिखा रहा था। उनका कहना था कि उस समय उनकी कुछ उत्तम कलाकृतियाँ किसी प्रदर्शनी में भेजी गयी थीं। अतः हम उन्हें नहीं देख पाए।

चेरियल चित्रकारी

चेरियल शैली में कृष्ण लीला
चेरियल शैली में कृष्ण लीला

चेरियल चित्रकारी एक प्रकार की पट्टचित्र कला है जो पुराणों की लोकप्रिय पौराणिक कथाओं को दर्शाती सूक्ष्म चित्रकारी जैसी प्रतीत होती है। इन चित्रों की पृष्ठभूमि अधिकतर लाल रंग की होती है। पट्टचित्र का आरम्भ सदा गणपति के चित्र से होता है। उनके पश्चात सरस्वती का चित्र होता है। किसी भी नवीन चित्र का आरम्भ करने से पूर्व चित्रकार इन दोनों देवताओं की आराधना करते हैं। उसके पश्चात कथानक के विभिन्न दृश्य चित्रित किये जाते हैं। पट्टचित्र के आकार के अनुसार एक पंक्ति में एक दृश्य अथवा अनेक दृश्य हो सकते हैं। इस प्रकार की लोक कला भारत के विभिन्न भागों में पायी जाती थी। मेरे विचार से पट्टचित्र की रचना का हेतु किसी संग्रहालय अथवा किसी धनाड्य के निवास की भित्तियों का अलंकरण नहीं होता था। भारत के अन्य प्राचीन लोककला शैलियों के समान यह शैली भी भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी।

पारंपरिक कथावाचक

रंगभरी पारंपरिक लोक कथाएं
रंगभरी पारंपरिक लोक कथाएं

प्राचीन काल में पारंपरिक कथावाचक अपनी कथा कहने के लिए गायन के साथ इन पट्टचित्रों का सहारा लेते थे। ऐसी ही परंपरा राजस्थान में भी देखने मिलती है जहां गायक स्थानीय देवता पाबूजी की कथाएं सुनाने के लिए फड़ चित्रों की सहायता लेते थे जो विशाल चित्र होते हैं। मैं सोच रही थी कि अंततः यह कला शैली किस स्थान से किस स्थान पर पहुँची होगी।

चेरियल चित्रकला – ७ जनजातियों की कथा

कला से सम्बंधित मेरे सीमित ज्ञान के आधार पर मैंने यह अनुमान लगाया था कि वे केवल पौराणिक कथाओं, विशेषतः रामायण तथा महाभारत की कथाओं का चित्रण करते हैं। किन्तु श्री डी. वैकुण्ठम जी ने मुझे बताया कि वे वास्तव में इस क्षेत्र की ७ जनजातियों के जीवन को इन चित्रों में सजीव करते हैं। उन जनजातियों में ताड़ी संग्राहक, धोबी, चमार, नाई, बुनकर, मछुआरे तथा किसान सम्मिलित हैं। इन में से कुछ जनजातियों की उपजातियां भी होती हैं जिनके स्वयं के देव, अनुष्ठानिक विधियां तथा कथाएं होती हैं। इन चित्रकारों के चित्रों में इन जनजातियों के दैनन्दिनी जीवन का चित्रण होता है जो उनके कार्य पर आधारित होता है।

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उदहारण के लिए, एक फल विक्रेता का दिवस विभिन्न वृक्षों से फल तोड़कर लाने से आरम्भ होता है। तत्पश्चात वह उन फलों की बिक्रि करता है। उसी प्रकार ताड़ी संग्राहक प्रातः ताड़ के वृक्षों पर चढ़कर उन पर खांचे करता है। उनसे रिसते स्त्राव का संग्रह करने के लिए घड़े लटकाता है। कुछ घंटों के पश्चात ताड़ के रस से भरे उन घड़ों को लाकर अपने आँगन में लटका देता है। कुछ समय पश्चात रस विक्री के लिए सज्ज हो जाता है। इन चित्रों में इन्ही जनजातियों की कथाओं का चित्रण होता है जो उनके दैनिक क्रियाकलापों, अनुष्ठानों, देवी-देवताओं, उनके नायकों इत्यादि पर आधारित होते हैं।

रंग

पारंपरिक रूप से इन चित्रों में प्रयुक्त रंग बहुधा विशेष पत्थरों से प्राप्त होते थे। उन पत्थरों को पीसकर रंग बनाए जाते थे। अब इनमें कृत्रिम रंगों का प्रयोग किया जाता है जो बाजार में आसानी से उपलब्ध होते हैं। उन्हें तैयार करने का कष्ट अब उन्हें नहीं उठाना पड़ता है। किन्तु कुछ अधिकृत कृतियाँ अब भी पारंपरिक रूप से तैयार रंगों द्वारा ही बनाई जाती हैं।

कथा वाचक व गायक

हमें बताया गया कि चेरियल में अब ऐसे गायक कम ही हैं जो अपने गायन द्वारा इन कथाओं को कहते हैं। जो कुछ गायक गाँव में शेष हैं, वे अपनी सेवा की एवज में भारी मेहनताने की अपेक्षा रखते हैं जिनका भुगतान करना गांव वासियों के लिए संभव नहीं होता है।

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हमने जिन कलाकृतियों को देखा, उनमें कला का स्तर अत्यंत प्राथमिक था। उनमें एक दक्ष कारीगर के हाथों की सूक्ष्मताओं का अभाव था। हमें बताया गया कि वे साधारण चित्र थे। उन्हें साधारण प्रदर्शनियों के लिए बनाया गया था। उत्कृष्ट कलाकृतियों के लिए विशेष निविदा की जाती है जिसमें कथानक, रंग इत्यादि का विशेष चुनाव किया जाता है। ऐसी निविदा अधिकतर संग्रहालयों एवं कलाघरों से प्राप्त होती हैं जहां विशेष कथानक पर आधारित चित्रों की मांग की जाती है। कुछ निजी संग्राहक भी ऐसी निविदा देते हैं।

चेरियल चित्रकारी का विडियो

चेरियल चित्रों में निहित कथाओं को दर्शाता यह विडियो अवश्य देखें।

मुझे जैसा चित्र चाहिए था, वैसा चित्र उस समय उपलब्ध नहीं था। आशा है, भविष्य में मैं पुनः इन कारीगरों से भेंट कर सकूं तथा ऐसे चित्र बनवा सकूँ अथवा ले सकूँ जिनके कथानक मेरे हृदय के समीप हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मंडावा एवं फतेहपुर – शेखावाटी पर्यटन केंद्र के आकर्षण https://inditales.com/hindi/shekhawati-mandava-haveli-fatehpur/ https://inditales.com/hindi/shekhawati-mandava-haveli-fatehpur/#respond Wed, 04 Aug 2021 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2377

राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नगर है, मंडावा। विश्व भर से आये पर्यटकों की चहल-पहल से भरा यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह उन विशेष स्थलों में से एक हैं जहां की अर्थ व्यवस्था पर्यटन व्यवसाय पर ही आधारित है तथा इसी कारण जहां स्थानीय निवासियों की अपेक्षा पर्यटक ही अधिक दिखाई […]

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राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नगर है, मंडावा। विश्व भर से आये पर्यटकों की चहल-पहल से भरा यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह उन विशेष स्थलों में से एक हैं जहां की अर्थ व्यवस्था पर्यटन व्यवसाय पर ही आधारित है तथा इसी कारण जहां स्थानीय निवासियों की अपेक्षा पर्यटक ही अधिक दिखाई देते हैं। यह स्थान चित्रपट निर्माताओं के मध्य भी अत्यधिक प्रसिद्ध है। इस नगर की रंगबिरंगी गलियों में अनेक चित्रपटों के चित्रीकरण किये गए हैं। इसका कारण विविध रंगों से परिपूर्ण यहाँ की हवेलियों के साथ साथ, आसानी से उपलब्ध होने वाले विश्राम गृह भी हैं।

१८वीं शताब्दी में स्थापित मंडावा, नवलगढ़ जैसे अन्य शेखावाटी नगरों का ही समकालीन नगर है। झुंझुनू जिले के अंतर्गत आते इन सभी शेखावाटी नगरों की विशेषताएं लगभग सामान ही हैं, किन्तु मंडावा उन सब से अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक एवं विविधतापूर्ण है। मैंने मंडावा की यात्रा उस समय की थी जब शेखावाटी की रंगबिरंगी हवेलियों के दर्शन करने के लिए मैंने झुंझुनू के निकट स्थित बागड़ में कुछ दिनों के लिए डेरा डाला हुआ था।

ऐसी ही रंगबिरंगी शेखावाटी हवेलियों से भरे मनमोहक मंडावा नगर में भ्रमण करने में मुझे अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई जो मैं आपके साथ बांटना चाहती हूँ। आईये मेरी दृष्टी से मैं आप सब को मंडावा का भ्रमण कराती हूँ।

मंडावा दुर्ग

मंडावा दुर्ग अब एक आलीशान विरासती होटल है। अतः यहाँ ठहरकर इसका अवलोकन करना सर्वोत्तम मार्ग है। अन्यथा, इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए भारी प्रवेश शुल्क देना पड़ता है।

मंडावा दुर्ग - राजस्थान
मंडावा दुर्ग – राजस्थान

राजस्थान के किसी भी राजमहल के समान यहाँ भी अनेक छायाचित्र हैं, अनेक प्राचीन रूपचित्र हैं तथा साज-सज्जा की अनेक पुरातन चल-सामग्रियां हैं। इस ऐतिहासिक धरोहर के मध्य में एक तरणताल भी है।

मंडावा दुर्ग का चौक
मंडावा दुर्ग का चौक

इस दुर्ग से सम्बंधित मेरी सर्वाधिक प्रगाढ़ स्मृति है, इसके विशाल प्रांगण की, जिसके मध्य में एक चौक है। यह एक मुक्तांगन है जिसकी भूमि पक्की नहीं है। इसके विपरीत, इसकी भूमि को शुभाकृतियों से चित्रित किया गया है। इस प्रकार के मुक्तान्गणों का प्रयोग बहुधा विवाह समारम्भों जैसे अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। मुझे स्मरण है कि मेरे पैतृक निवास में भी इसी प्रकार का एक प्रांगण है।

मंडावा दुर्ग की रंग भरी चित्रकारी
मंडावा दुर्ग की रंग भरी चित्रकारी

इस दुर्ग की एक अन्य प्रगाढ़ स्मृति एक लघु व संकरे कक्ष की है जिसके भीतर नील वर्ण की प्राधान्यता लिए कुछ अत्यंत उत्कृष्ट चित्र हैं। यहाँ भगवान विष्णु के दस अवतारों से चित्रित फलकों की एक श्रंखला है।

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यहाँ आपको समग्र कला की कुछ उत्कृष्ट कलाकृतियाँ देखने का अवसर प्राप्त होगा। एक प्राणी, बहुधा एक गज अथवा अश्व, की देह को अनेक अन्य प्राणियों के चित्रों द्वारा चित्रित किया गया है। यह कला अन्य शेखावटी हवेलियों में आम नहीं है।

मंडावा हवेली

मंडावा हवेली भी अब एक अतिथिगृह है जो अन्य अतिथिगृहों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। इसका निर्माण सन् १८९० किया गया था। कुछ समय पूर्व इसका नवीनीकरण भी किया गया। उस समय इसे एक अतिथिगृह में परिवर्तित किया गया। इसकी छत पर एक जलपानगृह भी है। यहाँ के प्रबंधक पर्यटकों को सहर्ष हवेली के दर्शन कराते हैं। यदि आप केवल हवेली के दो तलों में प्रदर्शित चित्रकारियों का ही अवलोकन करना चाहते हैं, तब भी वे उसी आत्मीयता से आपका स्वागत करते हैं।

मंडावा हवेली
मंडावा हवेली

हवेली की भित्तियों पर प्रदर्शित चित्रों में कृष्ण एवं उनकी लीलाओं की प्राधान्यता है। इनके अतिरिक्त, प्रदर्शित चित्रों में आप विमान, रेल, मानवी जीवन की झलक तथा राजसी शोभायात्राओं को भी देख सकते हैं। यह शेखावटी हवेली अब भी उपयोग में लाई जाती है, जिसके चिन्ह आप चारों ओर देख सकते हैं। चारों ओर हर प्रकार के साज-सज्जा की चल-सामग्रियां रखी हुई हैं। जिन कक्षों के झरोखों से सुन्दर बाह्य दृश्य प्राप्त होता है वहां अतिथियों को ठहराया जाता है। अन्य कक्षों का भी विभिन्न कार्यों हेतु प्रयोग किया जाता है। प्रवेश द्वार के ऊपर रखे गणेश जी के विग्रह पर ताजे पुष्पों का हार चढ़ाया जाता है। इन सब के कारण यह हवेली पर्यटकों को अत्यंत जीवंत प्रतीत होती है। इसके विपरीत शेखावटी क्षेत्र की कई हवेलियाँ या तो रिक्त पड़ी हैं अथवा उन्हें संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। इस प्राचीन हवेली के पुरातन कक्षों को किस प्रकार पुनर्जीवित एवं अलंकृत कर अतिथि कक्षों  में परिवर्तित किया है, यह अत्यंत रोचक एवं सराहनीय है। हवेली के लघु क्षेत्रों तथा मुक्तान्गणों को बैठकों में परिवर्तित किया है।

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हवेली के गच्ची से आप सम्पूर्ण मंडावा नगर देख सकते हैं। वहां से विभिन्न भवनों की छतों का अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है, जिनके मध्य से कलात्मक अभिव्यक्तियाँ झांकती सी प्रतीत होती हैं। ऊंची ऊंची भित्तियों वाला दुर्ग तथा सुन्दर शिखरों से आच्छादित मंदिरों को आप अनदेखा नहीं कर सकते।

रघुनाथ मंदिर

रघुनाथ मंदिर - मंडावा
रघुनाथ मंदिर – मंडावा

मंडावा हवेली के निकट रघुनाथ मंदिर है जहां आप कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर पहुँच सकते हैं। यह मंदिर हवेली के ही सामान प्रतीत होता है। किन्तु सूचना फलक एवं ऊपर फहराता ध्वज हमें यह सन्देश दे देता है कि यह हवेली नहीं, अपितु मंदिर है। नवलगढ़ के गोपीनाथ जी के मंदिर के ही सामान, इस मंदिर में भी मुखमंडप की भीतरी छत पर विविध रंगों में जीवंत चित्रकारी की गयी है। मुझे एक तथ्य ने अत्यंत सुखद आश्चार्य प्रदान किया, प्रत्येक चित्रित दृश्य पर सूक्ष्म सूचना पत्रक हैं जिन पर चित्रों की व्याख्या की गई है। किन्तु दृश्यों में चित्रित पात्रों के विषय में जानकारी की अनुपस्थिति में उन कथाओं को समझना कठिन है। उस समय मुझे एक जानकार परिदर्शक अथवा गाइड की अनुपस्थिति अत्यंत खली, जो हमें चित्रित कथाओं की जानकारी दे सकता था।

झुनझुनवाला हवेली का सुनहरा कक्ष

यूँ तो झुनझुनवाला हवेली आसपास की किसी भी अन्य हवेली के ही सामान है जिनकी भित्तियों के रंग अब फीके पड़ने लगे हैं, किन्तु इस हवेली का एक अपवाद है कि यह अपने एक सुनहरे कक्ष के सन्दर्भ में अंग्रेजी एवं फ्रेंच भाषा में बढ़चढ़ कर विज्ञापन करता है।

झुनझुनवाला हवेली के सुनहरी कक्ष में कृष्ण लीला
झुनझुनवाला हवेली के सुनहरी कक्ष में कृष्ण लीला

झुनझुनवाला हवेली में प्रवेश करते ही मैं एक मुक्तांगण में पहुँची जिसके बायीं ओर वसाहत थी तथा दाहिनी ओर रंगकारी किया हुआ एक द्वारमण्डप था। एक सहायक ने नाममात्र प्रवेश शुल्क लेकर मेरे लिए इस द्वारमण्डप का द्वार खोल दिया। उस द्वार से मैंने एक कक्ष में प्रवेश किया जिसे सुनहरा कक्ष कहते हैं क्योंकि यहाँ के चित्रों में सुनहरे रंग की प्राधान्यता है।

लगभग पूर्ण रूप से उपेक्षित इस हवेली के इस इकलौते सुनहरे कक्ष की एक संग्रहालय के रूप में विशेष रूप से देखरेख की जाती है। इस कक्ष में साज-सज्जा की पुरातन चल-वस्तुएं रखी हुई हैं, साथ ही शतरंज जैसे विशेष पट्टिकाओं पर खेले जाने वाले खेल रखे हुए हैं। सर्वोत्तम रूप से संरक्षित वे चित्र हैं जो कक्ष की भीतरी छत पर अथवा भित्तियों के ऊपरी भागों पर चित्रित हैं। अधिकतर चित्र कृष्ण लीला पर आधारित हैं। किन्तु मैंने कुछ स्थानों पर शिव-पार्वती, देवी तथा राम दरबार भी चित्रित देखे। झरोखों के किवाड़ों पर रंगबिरंगे काँच लगे हुए हैं जो कक्ष की आभा में अपने रंगों का अद्भुत मेल करते प्रतीत होते हैं।

मंडावा का हरलालकर बावड़ी

मंडावा का हरलालकर बावड़ी
मंडावा का हरलालकर बावड़ी

झुनझुनवाला हवेली से आते मार्ग के दूसरे छोर पर यह बावडी है। कुछ सीढ़ियाँ उतरकर हम बावड़ी तक पहुंचते हैं। प्रवेश पर स्थित दो स्तंभ इस बावडी की रक्षा करते प्रतीत होते हैं। बावडी के चारों ओर अनेक छत्रियाँ भी हैं। कहते हैं कि यह बावड़ी अत्यंत गहरी है। संभव है, क्योंकि रेगिस्तानी मरुभूमि होने के कारण भूमिगत जल अत्यंत गहराई में प्राप्त होता है। हो सकता है कि प्राचीन काल में आसपास की हवेलियों की स्त्रियाँ जल लेने इसी बावड़ी पर आती रही होंगी।

बावड़ी की ओर जाते मार्गों पर चलते हुए मैं भवनों की बाह्य भित्तियों पर चित्रित सुन्दर चित्रों को देख स्तब्ध हो गई थी। वहां खेलते बालकों ने मुझे बताया कि बॉलीवुड के अनेक चित्रपटों का चित्रीकरण इन गलियों में किया गया है।

चोखानी दुहरी हवेली

चोखानी दुहरी हवेली
चोखानी दुहरी हवेली

मंडावा में अनेक दुहरी हवेलियाँ हैं। मैंने चोखानी दुहरी हवेली के अवलोकन का निश्चय किया क्योंकि एक सूचना पट्टिका में “डबल” अथवा दुहरी शब्द देख मेरे मस्तिष्क में सहज ही कौतूहल उत्पन्न हुआ। चोखानी दुहरी हवेली में प्रवेश करते ही मेरी भेंट हवेली के अभीक्षक से हुई जिसने नाममात्र का प्रवेश शुल्क लेकर मुझे हवेली के दर्शन कराये। एक छोटे से निर्देशित भ्रमण के द्वारा उन्होंने मुझे दुहरी हवेली का अर्थ समझाया। दुहरी हवेली का अर्थ है, दो संयुक्त समरूप हवेलियाँ। उन्होंने मुझे इस प्रकार की हवेलियों का प्रयोजन यह बताया कि ऐसी हवेलियाँ बहुधा कोई संपन्न व्यक्ति अपने दो पुत्रों के भावी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बनाता है। यदि दोनों पुत्रों में सामंजस्य है तो दोनों हवेलियों को एक संयुक्त हवेली के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, अन्यथा सामंजस्य के अभाव में दोनों हवेलियों के मध्य स्थित भित्ति पर लगे प्रवेश द्वार को बंद कर दोनों पुत्र स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

इन हवेलियों की विशालता एवं इसके विशाल प्रांगणों ने मुझे इतना अचंभित कर दिया था कि उन्होंने मेरे मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ दी है।

मुरमुरिया हवेली

मुरमुरिया हवेली को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो यह इटली की कोई हवेली है। इसका कारण इसकी भित्तियों पर लगे हलके रंग हैं, जैसे हल्का पिस्ता रंग इत्यादि। इसके विपरीत, आसपास की हवेलियों की भित्तियों पर चटक रंग रंगे गए हैं। इस हवेली के विशेष तत्व हैं, एक अश्व की सवारी करते व हाथ में तिरंगा लिए नेहरु का चित्र तथा जॉर्ज पंचम का रूपचित्र। हवेली के बाहर लगा फलक गर्व से इसकी सूचना देता है।

मुरमुरिया हवेली में भारत माता का चित्र
मुरमुरिया हवेली में भारत माता का चित्र

मुरमुरिया हवेली के भीतर मुझे शेखावटी हवेली एवं यूरोपीय भवन का अनोखा सम्मिश्रण दिखाई दिया। इसकी भीतरी भित्तियों पर बड़े बड़े चौकोर चौखटों के भीतर समकालीन चित्रों का मिश्रित संग्रह प्रदर्शित किया गया है। वहीं रामायण एवं महाभारत के दृश्यों के साथ भारत माता का एक विशाल चित्र भी चित्रित है। एक चौखट के भीतर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी अनेक नेताओं के रूप चित्र हैं, जैसे महात्मा गाँधी तथा बाल गंगाधर तिलक।

अनेक ठेठ शेखावटी हवेलियों से घिरी यह हवेली अपनी विशेष मिश्रित शैली के कारण दर्शकों की दृष्टी अकस्मात् अपनी ओर खींचती है।

मंडावा की गोयनका हवेली

मंडावा की गोयनका हवेली भी उत्तम रीति से संरक्षित सुन्दर हवेली है। यहाँ मैंने भित्ति पर यमराज का एक दुर्लभ चित्र भी देखा। इस हवेली का सम्बन्ध प्रसिद्ध गोयनका घराने से है। हवेली की चित्रकारी एवं उत्कीर्णन अत्यंत दर्शनीय है।

गोयनका हवेली पर यमराज का चित्र
गोयनका हवेली पर यमराज का चित्र

इस क्षेत्र के निवासियों के अनुसार बिड़ला, मित्तल, गोयनका, बजाज, डालमिया, पोद्दार, चोखानी जैसे भारत के संपन्न मारवाड़ी व्यापारी घरानों ने इस नगर को बसाया था। आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते इन सेठों ने अत्यंत आकर्षक हवेलियों का निर्माण कराया। कहा जाता है कि मंडावा प्राचीन सिल्क रूट पर पड़ने वाला प्रमुख व्यापारिक केंद्र था जिसके कारण यहाँ के व्यापारी अत्यंत संपन्न हुए। अतः उन्होंने हवेलियों के सौन्दर्यीकरण में कोई कमी नहीं होने दी। कालान्तर में उत्तम सुख-सुविधाओं की चाह में ये संपन्न घराने बड़े शहरों में स्थानांतरित हो गए। अब वे कुलदेवता की पूजा-अर्चना जैसे विशेष आयोजनों के लिए ही अपनी हवेलियों में आते हैं। अतः ये हवेलियाँ या तो वीरान पड़ी रहती हैं अथवा किसी अभीक्षक को सौंप कर उसे संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है।

फतेहपुर की हवेलियाँ

फतेहपुर भी एक शेखावटी नगर है जो मंडावा से अधिक दूर नहीं है। यह क्षेत्र फ्रांसीसी हवेलियों के लिए लोकप्रिय है।

नादिन ली प्रिंस सांस्कृतिक केंद्र

फतेहपुर की फ्रांसिसी हवेली पर गज चित्रण
फतेहपुर की फ्रांसिसी हवेली पर गज चित्रण

यह संरचना अन्य शेखावटी हवेलियों का ही सामान है किन्तु इसका निर्माण २०० वर्षों पूर्व नंदलाल देवरा ने करवाया था। सन् १९९८ में फ्रांसीसी कलाकार नादिन ने इसे खरीद लिया था। उन्होंने इस हवेली के संरक्षण का कार्यभार उठाया। इसी कारण अब इसका एक फ्रांसीसी नाम है तथा इसके भीतर प्रवेश करने के लिए भारी प्रवेश शुल्क भी वसूला जाता है। यहाँ मुझे नीले रंग की पृष्ठभूमि में चित्रित एक विशाल गज अत्यंत भाया।  मुझे यहाँ का वातावरण किंचित असुविधाजनक प्रतीत हुआ। यहाँ का अभीक्षक हमसे अशिष्टता से व्यवहार कर रहा था। कदाचित उसे केवल श्वेत पर्यटकों की ही प्रतीक्षा रहती है। मुझे जानकारी प्राप्त हुई कि यूरोपीय कला विद्यालयों के अनेक विद्यार्थी इन चित्रों के अध्ययन के लिए यहाँ आते रहते हैं। दुर्भाग्य से अधिकतर भारतीय अप्रतिम रूप से चित्रित इन हवेलियों से अवगत ही नहीं हैं।

फतेहपुर नगरी में पद-भ्रमण करते हुए आप यहाँ की गलियों में अनेक रंगबिरंगी हवेलियाँ देखेंगे। प्रत्येक हवेली स्वयं में एक अनूठी हवेली है।

फतेहपुर के भीतर एवं आसपास स्थित मंदिर

गोयनका शक्ति मंदिर – यह शेखावटी का वह प्रथम दादी सती मंदिर है जिसके मैंने सर्वप्रथम दर्शन किये थे। इस सुन्दर मंदिर में गोयनका वंश की पूर्वज बीरन एवं बरजी की वंदना की जाती है। इस मंदिर में इनकी त्रिशूल रूप में पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ एक अन्य मंदिर भी है जो शक्ति के १६ रूपों को समर्पित है। इस मंदिर ने मेरे समक्ष इस क्षेत्र के अध्ययन के लिए एक नवीन विषयवस्तु प्रस्तुत किया है।

गोयनका शक्ति स्थल फतेहपुर
गोयनका शक्ति स्थल फतेहपुर

गोयनका मंदिर के बाहर मुझे एक सूचना पट्टिका दिखी जो बिंदल घराने की कुलदेवी के मंदिर की ओर संकेत कर रही थी। मूलतः, अग्रवाल घराने के लगभग सभी गोत्रों की कुलदेवियों के मंदिर आपको इस क्षेत्र में दिख जायेंगे।

पंचमुखी बालाजी मंदिर – हनुमानजी को समर्पित यह एक सुन्दर मंदिर है। बालाजी नाम से आप भ्रमित ना होएं। इस क्षेत्र में हनुमानजी के लिए बालाजी नाम का प्रयोग किया जाता है। इस क्षेत्र में अनेक बालाजी मंदिर हैं।

श्री दो जाँटी बालाजी मंदिर – यह भी एक लोकप्रिय मंदिर है जहां अर्पण किये गए श्रीफलों को सभी स्थानों पर लटकाया गया है। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर इन श्रीफलों से भित्तियाँ तक बन गयी हैं।

मंडावा के कुँए
मंडावा के कुँए

मंडावा में अनेक स्थानों पर बावड़ियां दृष्टिगोचर हो जाती हैं। इन सभी बावडियों के विषय में आवश्यक जानकारी भी दी गयी हैं तथा इन बावडियों के संरक्षण पर भी कार्य किया गया है। यह इस सत्य का सूचक है कि ये बावड़ियां यहाँ के निवासियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। प्रत्येक बावडी, प्रत्येक जल संचयन प्रणाली के नाम भी अत्यंत अनूठे हैं। इनमें अधिकतर नाम उनके निर्माताओं के नाम से सम्बंधित हैं।

यह क्षेत्र लाख की चूड़ियों इत्यादि राजस्थानी वस्तुओं के लिए भी प्रसिद्ध है। आप यहाँ से इच्छित वस्तुएं क्रय कर सकते हैं।

यहाँ की गलियों में भ्रमण करना एक प्रकार से भूतकाल की उस समयावधि में प्रवेश करने जैसा है जब स्थापत्य शास्त्र पर सौंदर्य शास्त्र का राज था।

मंडावा एवं फतेहपुर नगरों में पर्यटकों के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं हैं। आपको यहाँ विश्रामगृह/होटल अथवा जलपान गृह जैसी सुविधाओं को प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नवलगढ़ की पोद्दार हवेली एवं अन्य दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/nawalgarh-rajasthan-ki-poddar-haveli-aur-mandir/ https://inditales.com/hindi/nawalgarh-rajasthan-ki-poddar-haveli-aur-mandir/#comments Wed, 12 May 2021 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2281

नवलगढ़ वह प्रथम शेखावटी नगरी है जिसके मैंने दर्शन किए थे। पुष्कर से झुंझुनू के निकट स्थित बागड़ जाते समय नवलगढ़ मेरा प्रथम पड़ाव था। आप यह कह सकते हैं कि अद्भुत शेखावटी हवेलियों से यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था। यद्यपि मंडवा की शेखावटी हवेलियाँ अधिक लोकप्रिय हैं, तथापि मैं यह विश्वास से कह सकती […]

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नवलगढ़ वह प्रथम शेखावटी नगरी है जिसके मैंने दर्शन किए थे। पुष्कर से झुंझुनू के निकट स्थित बागड़ जाते समय नवलगढ़ मेरा प्रथम पड़ाव था। आप यह कह सकते हैं कि अद्भुत शेखावटी हवेलियों से यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था। यद्यपि मंडवा की शेखावटी हवेलियाँ अधिक लोकप्रिय हैं, तथापि मैं यह विश्वास से कह सकती हूँ कि नवलगढ़ की पोद्दार हवेली सर्वोत्तम रूप से संरक्षित एवं प्रदर्शित हवेली है।

आईए मैं आपको इस अप्रतिम नगरी का दर्शन कराती हूँ जहां अनेक भारतीय व्यापारी परिवार बसते हैं।

नवलगढ़ का इतिहास

एक सरोवर के किनारे रोहिली नामक एक छोटा सा गाँव था। सन् १७३७ में झुंझुनू के संस्थापक शार्दूल सिंह के कनिष्ठ पुत्र नवल सिंह यहाँ आए थे तथा एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। उन्होंने एक मोर्चाबंद नगर की स्थापना की जिसके चार दिशाओं में चार द्वार थे। इन द्वारों के नाम थे, अंगूना, बावड़ी, मंडी तथा ननसा। चारों ओर भित्तियों से घिरा तथा इन चार लौहद्वारों द्वारा संरक्षित इस दुर्ग का नाम बाला किला था। फतेहगढ़ नामक एक अन्य दुर्ग भी है जो इन भित्तियों के बाह्य भाग में है। नगर का बाजार इन चार भित्तियों के भीतर अब भी सक्रिय है। यह राज्य अपने उत्तम नस्ल के शिष्ट घोड़ों एवं हाथियों के लिए जाना जाता था।

नवल सिंह ने अनेक व्यापारी समुदायों को यहाँ आकर अपने व्यवसायों को स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया था। इस प्रकार अनेक व्यापारी एवं व्यवसायी यहाँ पधारे तथा अपने व्यवसाय द्वारा संचित धन से इन अप्रतिम हवेलियों का निर्माण किया।

नवलगढ़ के दर्शनीय स्थल

मैं नवलगढ़ की यात्रा विशेषतः शेखावटी हवेलियों का अवलोकन करने के लिए ही कर रही थी। अतः मैंने जैसे ही नवलगढ़ में प्रवेश किया, मैं इन हवेलियों के दर्शन करने के लिए व्याकुल हो गई। बाजार के सँकरे मार्गों से होते हुए हमारी गाड़ी आगे बढ़ी। मार्ग में दुर्ग की भित्तियों एवं विशाल प्रवेश द्वारों को निहारा। अनेक सुंदर इमारतों को देखा। उनमें कुछ इमारत मंदिर प्रतीत हो रहे थे तथा अन्य को देख हवेलियों का आभास हो रहा था। नगर के भीतर से होते हुए हम ऐसे स्थान पर पहुंचे जो हवेलियों से भरा हुआ था। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं एक मुक्तांगन कलादीर्घा में पहुँच गई हूँ।

मोरार्का हवेली

नवलगढ़ नगरी में मैंने सर्वप्रथम इसी हवेली के दर्शन किए थे। एक अत्यंत अलंकृत काष्ठी द्वार, विपुलता से रंगी भित्तियों तथा ऊपर लटकते आलों व झरोखों के नीचे से हमने हवेली के भीतर प्रवेश किया। मेरे अनुमान से हवेली के स्वामी ने हाल ही में इसका नवीनीकरण किया था। भीतर पुस्तकों की एक छोटी दुकान है जहां हवेली की जानकारी एवं भव्य चित्रों से सजी सुंदर पुस्तक उपलब्ध है। पर्यटकों को हवेली से अवगत कराने के लिए अनेक छायाचित्रों एवं चलचित्रों का भी संग्रह है। मैंने तुरंत प्रवेश टिकट क्रय किया तथा हवेली के अभीक्षक से हवेली के दर्शन कराने के लिए अनुरोध किया।

मुरारका हवेली नवलगढ़
मुरारका हवेली नवलगढ़

मेरे परिदर्शक ने मुझे हवेली के विभिन्न अवयव दिखाए जो एक प्रकार से मेरे लिए पारंपरिक शेखावटी हवेलियों से प्रथम परिचय था। उन्होंने मुझे हवेली के मध्य में स्थित प्रांगण दिखाया जिसे चौक कहते हैं। हवेली में कितने चौक हैं, इस पर हवेली का आकार निर्भर होता है। यद्यपि छोटी हवेलियों में एक चौक होता है, तथापि अधिकतर हवेलियों में दो चौक की उपस्थिति सामान्य हैं। कुछ बड़ी हवेलियों में अधिक संख्या में चौक हो सकते हैं किन्तु ऐसी हवेलियाँ विरल हैं। वे मुझे हवेली की बैठक में ले गए जहां व्यावसायिक बैठकें की जाती थीं। उन्होंने मुझे हवेली का रसोईघर एवं ऊपरी तल पर स्थित अनेक विस्तृत शयनकक्ष भी दिखाए।

मुरारका हवेली के झरोखे
मुरारका हवेली के झरोखे

चारों ओर हिन्दू धर्मग्रंथों की कथाएं, विशेषतः कृष्ण की कथाएं दृष्टिगोचर हो रही थीं। मेरे चारों ओर स्थित प्रत्येक भित्ति पर रंगों की ऐसी छटा बिखरी हुई थी कि किसी एक चित्र पर नेत्र केंद्रित करना कठिन प्रतीत हो रहा था। हवेली के प्रांगण के मध्य स्थित तुलसी का पौधा यह संकेत दे रहा था कि अब भी इस हवेली में जीवन है। बैठक की भित्तियों पर मुझे अहोई माता के चिन्ह दृष्टिगोचर हुए। अनेक वैश्य परिवार नवरात्रि तथा अहोई अष्टमी के दिवस अहोई माता की आराधना करते हैं।

हवेली के ऊपर से मैं वह स्थान देख सकती थी जहां घोड़ों का अस्तबल था। उसकी भित्तियों पर घोड़ों की आकृतियाँ चित्रित हैं। हवेली के ठीक समक्ष एक विशाल मंदिर परिसर है जिसे ठेठ राजपूताना वास्तुशैली में निर्मित किया गया है। मंदिर पर शुद्ध श्वेत रंग चढ़ाया हुआ है जो उसके चारों ओर स्थित हवेलियों के चटक रंगों से पूर्णतः विपरीत है।

पोद्दार हवेली

पोद्दार हवेली नवलगढ़
पोद्दार हवेली नवलगढ़

यदि आपसे पूछा जाए कि नवलगढ़ में, यहाँ तक कि सम्पूर्ण शेखावटी में केवल एक स्थल के दर्शन का अवसर है तो आप अवश्य डॉ रामनाथ पोद्दार हवेली संग्रहालय का चुनाव करिए। सन् १९०२ ई. में निर्मित यह एक विशाल हवेली है। इसकी सफलतापूर्वक संरक्षित चित्रों को देख आप इस हवेली के समृद्ध काल की कल्पना कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, इस हवेली में उचित परिदर्शित भ्रमण की व्यवस्था है जो आपको इस हवेली एवं उत्तम रूप से संरक्षित संग्रहालय को जानने एवं उस की सराहना करने में सहायक है। किंचित प्रवेश शुल्क लेकर सुनील जी आपको प्रत्येक अवयव के विषय में जानकारी देते हैं। सुनील जी राजस्थानी संस्कृति को प्रदर्शित करने के लिए सदा भावुक एवं उत्साही रहते हैं।

इस हवेली का रखरखाव अति उत्तम है। इसमें ७५० से भी अधिक चित्रकलाएं हैं जो उत्तम रीति से संरक्षित एवं अभिलेखित हैं। हवेली के अभीक्षक हवेली से संबंधित कथाओं से भलीभाँति अवगत हैं तथा उन कहानियों को सुनाने में उन्हे अत्यंत आनंद भी आता है।

सांस्कृतिक संग्रहालय

हवेली के ऊपरी कक्षों को संग्रहालय में परिवर्तित किया है जहां राजस्थान के विभिन्न सांस्कृतिक आयामों को प्रदर्शित किया गया है। जैसे:

  • राजस्थान के विभिन्न समुदायों में प्रचलित वर-वधू परिधान
  • विभिन्न समुदायों में प्रचलित पगड़ियाँ
महाजन पगड़ी
महाजन पगड़ी
  • राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्गों के लघु प्रतिरूप
  • राजस्थान की विभिन्न सूक्ष्म चित्रकारी शैलियाँ
  • मरुराज्य की विभिन्न हस्तकलाएं
  • राज्य के विभिन्न संगीत वाद्य
  • विभिन्न राजस्थानी शैलियों के आभूषण एवं माणिक
  • राजस्थान के उत्सव
  • एक गांधी कक्ष है जहां भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन काल में इन हवेलियों की नींवों को प्रदर्शित किया गया है।
आनंदी लाल पोद्दार जी अपने पुत्रों के साथ
आनंदी लाल पोद्दार जी अपने पुत्रों के साथ

श्री. रामनाथ पोद्दार काँग्रेस के प्रमुख सदस्य थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। संग्रहालय के एक कक्ष में पोद्दार परिवार के छायाचित्र हैं। एक चित्र में परिवार के एक सदस्य को भारतीय संसद का भाग भी दर्शाया गया है। एक श्वेत-श्याम चित्र मुझे अत्यंत रोचक प्रतीत हुआ जिसमें श्री. आनंदी लाल पोद्दार की छवि को उनके चार पुत्रों की छवियों से इस प्रकार संयुक्त किया है कि भिन्न दिशा से अवलोकन करने पर भिन्न छवि नेत्रों के समक्ष उभरती है। इसे देख में अचंभे में पड़ गई कि इस प्रकार की रचनात्मकता अब क्यों दृष्टिगोचर नहीं होती?

चित्रकारी

पोद्दार हवेली में चित्रों का सुंदर संग्रह है। उनमें से कुछ चित्र ऐसे हैं जिन्हे देखना आप कदापि ना भूलें। वे हैं:

कृष्ण की कथाएं शेखावटी हवेली की भित्तियों पर
कृष्ण की कथाएं शेखावटी हवेली की भित्तियों पर
  • जयदेव का गीत गोविंद
  • बैठक के चारों ओर लघु कक्षों में चित्रित १० महाविद्याएं
  • बैठक के द्वार के ऊपर स्थित लक्ष्मी का चित्र
  • महाभारत में खेला गया चौपड़ का दृश्य
  • समरूपता प्रदर्शित करते कृत्रिम झरोखे, जिनमें बैठक की ओर झाँकते लोग ऐसे चित्रित हैं मानो वे जानने को उत्सुक हैं कि उनकी हवेली में आए भेंटकर्ता कौन हैं।
  • विस्तृत गणगौर उत्सव
  • भाप इंजन द्वारा चालित एक लंबी रेलगाड़ी जिसके साथ रेल लाइन बिछाने का भी दृश्य चित्रित है।
  • भारतीय एवं ब्रिटिश व्यापारियों के चित्र
  • बाह्य भित्तियों पर समकालीन संभ्रांतों के विशाल चित्र

यदि आप इन चित्रों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि हवेली की इन चित्रित भित्तियों में भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों का समावेश है।

महालक्ष्मी
महालक्ष्मी

पोद्दार हवेली का ऊपरी तल विक्टोरिया कालीन शैली में है। यद्यपि प्रथम तल पर भी उसी प्रकार के चित्र भित्तियों पर हैं किन्तु हल्के पिस्ता रंग में रंगे वहाँ के तोरण एवं स्तंभ विक्टोरिया कालीन अलंकरण का सटीक निरूपण हैं।

बैठक

नवलगढ़ की पोद्दार हवेली की बैठक
नवलगढ़ की पोद्दार हवेली की बैठक

इस हवेली का सर्वाधिक मनमोहक भाग बैठक है जहां सुंदर लाल रंग के गद्दे, तकिये एवं लाल रंग का हस्त पंखा लटका हुआ है। दोनों तलों एवं झरोखों के चित्र यह दर्शाते हैं कि दोनों तलों का मूल प्रारूप भिन्न होते हुए भी उनमें समरूपता है तथा दोनों एक ही हवेली के अभिन्न भाग हैं। तिजोरी कक्ष बैठक के अत्यंत भीतरी भाग में है जहां तक पहुँचने के लिए अनेक द्वार पार करने पड़ते हैं। हवेली का यह भाग अन्य भागों के विपरीत अत्यंत सादा है। हवेली का प्रांगण अत्यंत मनमोहक है। इसका लकड़ी का उत्कीर्णित द्वार अत्यंत शोभायमान है। हवेली का रसोईघर इतना छोटा है कि यह आपको अति विचित्र प्रतीत होगा। इससे विचित्र यह तथ्य है कि रसोईघर में सामग्री भंडारण के लिए आले एवं अलमारी भी नहीं हैं। सामग्री भंडारण के लिए बड़े बड़े सन्दूक अवश्य हैं किन्तु रसोईघर का लघु आकार अब भी मेरे लिए एक पहेली ही है।

विक्टोरियन एवं भारतीय शैली पोद्दार हवेली के दो तलों पर
विक्टोरियन एवं भारतीय शैली पोद्दार हवेली के दो तलों पर

हवेली में एक छोटा पुस्तकालय भी है किन्तु अत्यंत दुखी होकर मुझे कहना पड़ रहा है कि वहाँ मेरे समान आगंतुकों एवं भेंटकर्ताओं के प्रवेश पर पाबंदी है।

पोद्दार हवेली के चित्रों को निहारने, उन्हे समझने एवं उनकी सराहना करने में आपके घंटों व्यतीत हो जाएंगे। इसीलिए हवेली, उसकी संरचना, उसका लोकाचार एवं वहाँ की चित्रकला शैली को समझने के लिए आपको कम से कम एक घंटे का समय ले कर चलें। कोई विशेषज्ञ अथवा पारखी यहाँ एक से अधिक दिवस व्यतीत कर सकता है।

पोद्दार हवेली का विडिओ

हवेली में मेरी भेंट के समय मैंने इस अद्वितीय धरोहर का सुंदर छाया चलचित्र मैंने मेरे यूट्यूब चैनल में डाला है। इसका अवलोकन अवश्य कीजिए। आपको यह उत्तम रूप से संरक्षित कलाकृति अवश्य भायेगी। कदाचित आप अपनी आगामी भ्रमण योजना में नवलगढ़ का ही समावेश करें।

नवलगढ़ की अन्य हवेलियाँ

चूंकि नवलगढ़ की सभी हवेलियाँ एक ही क्षेत्र में स्थित हैं तथा एक ही काल में निर्मित हैं, अन्य हवेलियों का विस्तृत अवलोकन करना आवश्यक नहीं है। आप बाहर भ्रमण करते हुए इन्हे निहार सकते हैं। यदि कोई हवेली खुली हो तो आप भीतर जाकर उसे देख सकते हैं। कभी कभी वहाँ कोई रखवाला भी मिल जाता है जिससे निवेदन कर अथवा कुछ मेहनताना दे कर हवेली दिखाने का आग्रह कर सकते हैं। अधिकार हवेलियाँ बंद हैं। उन पर समय का प्रहार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

नवलगढ़ हवेली पर रेल का इंजन, सेनानी और लोक कथाएं
नवलगढ़ हवेली पर रेल का इंजन, सेनानी और लोक कथाएं

यदि आप जिज्ञासू हैं तो आप प्रत्येक हवेली की कुछ ना कुछ वैशिष्ट्य अथवा कुछ रोचक चित्र अवश्य ढूंढ निकालेंगे। एक हवेली में मैंने पर्याप्त मात्रा में बेल्जियम कांच का प्रयोग देखा तो एक अन्य हवेली में रेल सेतु के निर्माण का चित्र मुझे अत्यंत विशेष एवं रोचक प्रतीत हुआ। किन्तु हवेलियों का ऐसा सक्रिय अवलोकन करने के लिए पर्याप्त समय एवं धैर्य की आवश्यकता है।

नवलगढ़ की अधिकतर हवेलियाँ व्यवहार में नहीं हैं। न हवेलियों के स्वामी, न ही किरायेदार इत्यादि इन हवेलियों में वास करते हैं। नवलगढ़ के ठीक विपरीत, मंडावा, चुरू एवं बागड़ की कुछ हवेलियों को विरासती अतिथिगृहों में परिवर्तित किया गया है तथा उनका उत्तम प्रयोग किया जा रहा है।

मंदिर

नवलगढ़ के मंदिर
नवलगढ़ के मंदिर

मोरार्का हवेली के समक्ष शुद्ध श्वेत रंग में रंगा एक मंदिर परिसर है जिसमें अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं। मैं जब यहाँ आई थी तब दोपहर के भोजन का समय हो चुका था। मंदिर के पट बंद हो चुके थे। मेरी निराशा कदाचित मेरे मुखड़े पर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। किसी ने समीप स्थित एक दुकान में पुजारीजी को बुलावा भेजा। उन्होंने तुरंत एक मंदिर को खोलकर मुझे मंदिर में दर्शन करने का अवसर दिया।

११ लिंगों वाला शिवलिंग
११ लिंगों वाला शिवलिंग

मैंने यहाँ एक अद्भुत शिवलिंग देखा। पत्थर की एक योनि के ऊपर ११ लिंग विराजमान थे। मंदिर की भित्तियों पर भी हवेलियों के ही समान चित्र थे किन्तु उतनी संख्या में नहीं थे। राधा-कृष्ण का भी एक मंदिर देखा। तत्पश्चात मेरे लिए मंदिर के पट खोलने के लिए मैंने पुजारीजी का हृदय से आभार प्रकट किया। पुजारीजी ने आनंदित होकर कहा कि आप इतनी दूर से यहाँ दर्शन के लिए आई हैं तो मैं आपकी सहायता करने के लिए कुछ पग अवश्य चल सकता हूँ। पुजारीजी की ऐसी सादगी ने मेरा मन गदगद कर दिया था। ऐसे व्यवहार का अनुभव आपको भारत के शहरी केंद्रों से दूर जाकर ही प्राप्त हो सकता है।

गोपीनाथ जी का मंदिर

यह मंदिर भीड़भाड़ भरे बाजार के मध्य में स्थित है। पोद्दार द्वार से मैंने इस मंदिर में प्रवेश किया। दुर्भाग्य से इस मंदिर का गर्भगृह भी बंद था। किन्तु मुझे निराशा नहीं हुई क्योंकि मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हुए मैंने मंदिर पर की गई चित्रकारी का भरपूर आनंद उठाया। मंदिर में प्रवेश करते ही, कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर आप एक सभागृह में पहुंचते हैं। इस सभागृह की छत पर एक अप्रतिम राम दरबार उत्कीर्णित है। मुझे बताया गया कि इस मंदिर का निर्माण नवलगढ़ के संस्थापक नवल सिंह ने ही करवाया था। अतः यह मंदिर भी नवलगढ़ जितना ही प्राचीन है। गोपीनाथ जी अर्थात् गोपियों के नाथ। जी हाँ, यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है।

गोपीनाथ जी मंदिर में राम दरबार
गोपीनाथ जी मंदिर में राम दरबार

इस क्षेत्र के अन्य मंदिरों में कल्याण जी मंदिर एवं गणेश मंदिर उल्लेखनीय है। मैं इन्हे केवल बाहर से ही देख पायी। मुझे देखकर बाजार में लोगों अटकलें लगा रहे थे कि मैं केवल मंदिर की चित्रकारी एवं वास्तुकला में ही रुचि रखती हूँ। मैंने जब उन्हे बताया कि मैं वास्तव में भगवान के दर्शन करना चाहती हूँ तो उन्हे सुखद आश्चर्य भी हुआ।

रामदेव जी मंदिर – रामदेव शेखावटी क्षेत्र के एक स्थानिक लोक देव हैं। उनका मंदिर आप इस क्षेत्र के प्रत्येक नगरी में देख सकते हैं।

रूप निवास कोठी

रूप निवास कोठी नवलगढ़
रूप निवास कोठी नवलगढ़

विशाल बगीचों से घिरा यह एक प्राचीन महल है। अब इसे एक विरासती अतिथिगृह में परिवर्तित कर दिया गया है जिसका संचालन राजपरिवार ही करता है। इस कोठी में औपनिवेशिक काल का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। आप यहाँ राजपरिवार के सदस्यों के छायाचित्रों में उन्हे अन्य साज-सामग्री सहित घोड़ों पर सवार देखेंगे। उनके वेबस्थल के अनुसार आप यहाँ घुड़सवारी का आनंद ले सकते हैं। वैसे भी, नवलगढ़ घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था।

पोद्दार कॉलेज – पोद्दार महाविद्यालय अपने विशाल घंटाघर के कारण विशेष है। पोद्दार कॉलेज तथा मोरार्का विद्यालय समेत अनेक अन्य शैक्षणिक संस्थान इस नगरी को यहाँ के व्यापारियों की देन है जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी निवेश किया है। इन्हे उस समय बनवाया गया था जब ‘कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोन्सिबिलिटी’ अर्थात् कंपनियों का सामाजिक उत्तरदायित्व, यह संकल्पना लोकप्रिय एवं आवश्यक नहीं हुई थी।

बाजार में मैंने लाख की चूड़ियों की, छोटे कुम्हारों की एवं चमड़े के जूतों की अनेक दुकानें देखीं।

कुल मिलाकर नवलगढ़ में प्राचीनता एवं नगरी परिवेश, दोनों के सभी अवयव दृष्टिगोचर होते हैं। मेरी तीव्र अभिलाषा है कि नवलगढ़ के सभी भव्य हवेलियों में सक्रिय वसाहत हो ताकि वे केवल संग्रहालय में संकुचित होकर न रह जाएँ।

यात्रा सुझाव

  • नवलगढ़ जयपुर से १६० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नवलगढ़ के लिए निकटतम विमानतल भी जयपुर ही है।
  • नवलगढ़ राजस्थान के सभी प्रमुख नगरों से सड़क मार्ग द्वारा भलीभाँति जुड़ा हुआ है।
  • अधिकतर पर्यटक नवलगढ़ की अपेक्षा मंडावा अथवा चुरू में ठहरना अधिक पसंद करते हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रघुराजपुर का पट्टचित्र शिल्पग्राम – पुरी, ओडिशा https://inditales.com/hindi/pattachitra-jagannath-ki-chitrakala/ https://inditales.com/hindi/pattachitra-jagannath-ki-chitrakala/#comments Wed, 02 Dec 2020 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2078

ओडिशा यात्रा के समय मेरी इच्छा-सूची में सर्वप्रथम स्थान था, रघुराजपुर के पट्टचित्र कारीगरों से भेंट करना।  पारंपरिक कला एवं  शिल्पग्राम के दर्शन करना मेरे लिए सदैव ही आनंद की अनुभूति होती है। मेरे लिए उनका अब भी वही महत्व है जितना अतीत में था, अर्थात वे मेरे लिए उत्कृष्टता का केंद्र बिन्दु हैं। रघुराजपुर […]

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ओडिशा यात्रा के समय मेरी इच्छा-सूची में सर्वप्रथम स्थान था, रघुराजपुर के पट्टचित्र कारीगरों से भेंट करना।  पारंपरिक कला एवं  शिल्पग्राम के दर्शन करना मेरे लिए सदैव ही आनंद की अनुभूति होती है। मेरे लिए उनका अब भी वही महत्व है जितना अतीत में था, अर्थात वे मेरे लिए उत्कृष्टता का केंद्र बिन्दु हैं। रघुराजपुर गाँव का प्रत्येक व्यक्ति एक ही कार्यक्षेत्र में रत है। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मध्य एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती होगी जो उन्हे अपने कार्य की गुणवत्ता उत्कृष्ट बनाने हेतु प्रेरित करती होगी। कच्चे माल की आवक स्त्रोत निर्धारित करना तथा ग्राहकों तक तैयार कलाकृतियां पहुंचना इस सम्पूर्ण आपूर्ति श्रंखला का अपेक्षाकृत सर्वाधिक सरल कार्य होगा।

ओडिशा के पट्टचित्र कलाकृतियाँ
ओडिशा के पट्टचित्र कलाकृतियाँ

एक यात्री के रूप में मेरे लिए यह एक ज्ञानवर्धक अनुभव था कि कलाकृतियों का केवल क्रय नहीं करना चाहिए अपितु इन पारंपरिक कलाकृतियों को गढ़ने में कितना समय, प्रयास, कौशल एवं ज्ञान का निवेश हुआ है, यह भी समझना चाहिए।

इससे पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा बंगाल के शिल्प ग्रामों का भ्रमण कर लिया था। अतः अपनी इस ओडिशा यात्रा में मैंने निश्चय किया कि रघुराजपुर शिल्पग्राम के कारीगरों की शिल्पकला को निकट से जानने के लिए उनके साथ कुछ समय व्यतीत करूँ।

रघुराजपुर गाँव

रघुराजपुर गाँव की चित्रित भित्तियां
रघुराजपुर गाँव की चित्रित भित्तियां

पुरी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित यह एक छोटा सा गाँव है। गाँव के मध्य में १२ मंदिर हैं जिनके दोनों ओर एक पंक्ति में लगभग १५० घर हैं। मंदिर भले ही छोटे हैं किन्तु घरों के अनुपात में मंदिरों की संख्या देख मुझे सुखद आनंद की अनुभूति हुई। एक प्रकार से ये मंदिर इस गाँव का मेरु दंड है जिसके चारों ओर गाँव की भौतिक देह कार्यरत है।

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रघुराजपुर गाँव के कलाकार
रघुराजपुर गाँव के कलाकार

रघुराजपुर गाँव में भ्रमण करना किसी मुक्तांगन संग्रहालय में भ्रमण करने के समान है। गांववासियों के गृह सुंदर रंग-बिरंगे चित्रों द्वारा इतने अप्रतिम रूप से अलंकृत हैं कि प्रत्येक गृह के समक्ष कुछ क्षण ठहर कर उन्हे निहारने के लिए आप बाध्य हो जाते हैं। रघुराजपुर के निवासियों ने यह सुनिश्चित किया है कि वे विभिन्न शैली की कलाकृतियाँ अपनी भित्तियों पर प्रदर्शित करें। भवनों के छज्जों पर बैठकर कारीगर इन कलाकृतियों को रचते हैं।  इस गाँव की एक छोटी सी सैर आपको ओडिशा की कला एवं शिल्प परंपरा के एक भिन्न विश्व में ले जाएगी।

काष्ठ कला से जगन्नाथ मंदिर
काष्ठ कला से जगन्नाथ मंदिर

ताड़ के पत्ते पर पारंपरिक चित्रकला

रघुराजपुर गाँव पट्टचित्र के चित्रीकरण में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। पट्टचित्र ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी करने की एक प्राचीन कला है। किन्तु वर्तमान में यहाँ के कलाकार ताड़ पत्तों के अतिरिक्त अन्य माध्यमों पर भी अपनी कलाकृतियाँ प्रदर्शित कर रहे हैं, जैसे सूती व रेशमी वस्त्र, नारियल की खोपड़ी, सुपारी, कांच की बोतल, पत्थर, लकड़ी इत्यादि। वे मुखौटे एवं खिलौने भी बनाते हैं।

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पट्टचित्र को समेट कर रखे हुए
पट्टचित्र को समेट कर रखे हुए

गाँव में साहू, स्वैन, महाराणा, सुनार इत्यादि प्रमुख समुदाय हैं जो इन कार्यकलापों में कार्यरत हैं। सम्पूर्ण गाँव में केवल एक ही व्यक्ति ब्राह्मण है।

जब हमने इस गाँव का भ्रमण किया था तब यहाँ के सभी वृक्षों के तने अनावृत थे। वृक्षों पर ना कोई शाखा थी ना ही पत्ते थे। हमें बताया गया कि चक्रवात ने जब यहाँ कहर ढाया था तब वृक्षों को इस प्रकार तहस-नहस कर दिया था। अतीत की स्मृति में लगभग खोते हुए सभी गांववासी मुझ से कह रहे थे कि यदि चक्रवात से पूर्व मैंने यहाँ भ्रमण किया होता तो मैं भी अनेक पुष्प एवं फलधारी वृक्षों से परिपूर्ण गाँव देख पाती।

रघुराजपुर की पट्टचित्र चित्रकला शैली

रघुराजपुर की पट्टचित्र चित्रकला शैली पुरी की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। जिस समय पुरी के जगन्नाथ मंदिर के त्रिमूर्ति का सिंहासन रिक्त रहता है उस समय सुनहरे रंग में रंगे उनके पट्टचित्रों को पूजा जाता है। यह उस समय होता है जब श्री जगन्नाथ १०८ घड़ों के स्नान के लिए स्नान मंडप जाते हैं तथा रुग्ण हो जाते हैं। इस गाँव के कलाकारों की अनेक पीढ़ियाँ इस अनुष्ठानिक चित्रकला शैली की चित्रकारी करती आ रही हैं।

पट्टचित्र चित्रकारी पारंपरिक रूप से ताड़ की पत्तियों की आपस में जुड़ी संकरी पट्टियों पर किया जाता है। साधारणतः यह चित्रकारी काले रंग में की जाती है जिसमें सर्वप्रथम ताड़ की पत्तियों की सतह को उकेर कर उसमें काला रंग भरा जाता है।

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पट्टचित्र के नवीन संस्करण वस्त्र पर किये जा रहे हैं। पट्टचित्र का यह संस्करण पर्यटकों में अधिक लोकप्रिय है क्योंकि उनमें चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा उनके विषय भी भिन्न भिन्न होते हैं। समकालीन संस्करण रेशमी वस्त्रों पर किये जा रहे हैं जो इस चित्रकला को एक कोमलता का आभास प्रदान करते हैं। इन कलाकृतियों को आप धारण भी कर सकते हैं तथा अपने निवासस्थान की भित्तियों को अलंकृत भी कर सकते हैं।

पट्टचित्र कारीगरों से भेंट

हमने आलोक नाथ साहूजी से उनके एकल-कक्ष कार्यशाला में भेंट की। वहाँ उनके कुछ युवा प्रशिक्षु चित्रकारी करने में व्यस्त थे। पट्टचित्र कला शैली एवं उनके विषयों व प्रसंगों की विविधता दर्शाने के लिए उन्होंने अपनी सर्वोत्तम कलाकृतियाँ हमारे समक्ष रखीं।

चित्रकारी के लिए चित्र-फलक किस प्रकार तैयार किया जाता है यह उन्होंने हमें बताया। पुरानी घिसी हुई साड़ियों के समान, प्रयोग किये गए कोमल वस्त्रों की अनेक परतों को इमली के बीजों से निर्मित गोंद की लुगदी द्वारा चिपकाया जाता है। तत्पश्चात उन्हे धूप में सुखाया जाता है। सूखने पर वे लगभग कागज की मोटी चादर के समान हो जाते हैं तथा उससे अधिक मजबूत हो जाते हैं। वस्त्र पर लगे रंगों के धब्बों को मिटाने तथा उसकी सतह को श्वेत करने के लिए खड़िया के चूर्ण का प्रयोग किया जाता है। इसके पश्चात वस्त्र की सतह को संगमरमर के टुकड़े द्वारा घिस कर चमकाया जाता है। दोनों में से जो भी सतह अधिक चमकदार व चिकनी होगी, उसे नीचे की ओर रखकर दूसरी सतह पर चित्रकारी की जाती है।

शिल्पग्राम का विडिओ

यह विडिओ मेरे शिल्पग्राम भ्रमण के समय बनाया गया था। इसे अवश्य देखें ताकि आपको इस कला शैली को समझने में आसानी होगी।

चित्रकारी में प्रयुक्त प्राकृतिक रंग

इन कलाकृतियों को चित्रित करने में वे मूलतः ५ प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करते हैं। अन्य रंग वे इन रंगों के मिश्रण से तैयार करते हैं। रंगों को बांधने के लिए प्राकृतिक गोंद का प्रयोग किया जाता है। ये ५ प्राकृतिक रंग इस प्रकार प्राप्त किये जाते हैं:

श्वेत रंग – सीपियों का चूर्ण

लाल रंग – लाल पत्थर

नीला रंग – खंडनील पत्थर

पीला रंग – हिंगुल पत्थर जिसे केवल शीत ऋतु में ही पीसा जा सकता है जब तापमान नीचे रहता है क्योंकि उच्च तापमान में यह ज्वलनशील है।

काला रंग – तेल के दीपक की कालिख

ये सभी रंग कारीगर स्वयं गाँव में ही बनाते हैं। रंगने की कूची में मृत मूषकों के केश का प्रयोग होता है। पूर्व में गांववासी कूची भी स्वयं ही बना लेते थे। किन्तु अब वे इन कूचियों को बाजार से क्रय करते हैं।

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पट्टचित्र अर्थात ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी

ताड़ के वृक्षों से पत्ते चुनने का कार्य भी गांववासी स्वयं ही करते हैं। इन पत्तों को हल्दी एवं नीम के पत्तों के संग उबालते हैं। इसके पश्चात उन्हे कम से कम २० दिनों तक धूप में सुखाते हैं। तत्पश्चात इन्हे घर में चूल्हे के निकट रखकर एक लंबी प्रक्रिया के तहत और सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा वे सुनिश्चित करते हैं कि ताड़ के इन पत्तों को दीमक इत्यादि कीट कभी नष्ट ना कर पाएं। यह सब जानने के पश्चात आप भी मुझसे सहमत होंगे कि ऐसी कलाकृतियों को देखते समय हम कभी उनके निर्माण में लगने वाले विचार, ज्ञान तथा श्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते।

ताड़पत्र पर जगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्र
ताड़पत्र पर जगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्र

ताड़ के पत्तों को कलाकार लोहे की नुकीली कलम द्वारा खुले हाथों से उकेरते हैं। उत्कीर्णन जितना गहरा होगा रेखाएं उतनी ही दृश्य होंगी। इन उत्कीर्णन को वे काले रंग से भरते हैं। एक बार यह रंग सूख जाए तो इन्हे मिटाना संभव नहीं।

रघुराज पट्टचित्र यहाँ से खरीदें – ऑनलाइन स्टोर

इन पट्टचित्रों में मुझे वे चित्र अत्यंत विशेष प्रतीत हुए जिन्हे तह लगा कर रखा जा सकता है। इन्हे पूर्णतः खोल दें तो आप एक लंबी कथा देखेंगे किन्तु जब इसके पल्लों की तह लगाएं तो दो स्तरों पर दो भिन्न कथाएं देख सकते हैं।

पट्टचित्रों के विषय

हिन्दू पौराणिक कथाएं इन चित्रों के सर्वाधिक लोकप्रित विषय हैं।

इनमें भी सर्वाधिक लोकप्रिय विषय हैं जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र। अनंत काल से तीर्थयात्री इन्हे अपने साथ ले जा रहे हैं, कुछ स्मारिका के रूप में तो कुछ अपने घरों के मंदिर में रखकर उन्हे पूजने के लिए। वर्ष की ४ पूर्णिमा रात्रि के समय देवों पर सुनहरा शृंगार किया जाता है। देव का यही सुनहरा शृंगार रघुराजपुर के कलाकारों को सर्वाधिक प्रिय है। इस मंदिर में देवों का यह सुनहरा शृंगार किया जाता है जब रथ यात्रा आरंभ होती है, पौष पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा तथा डोला पूर्णिमा के दिन।

रथ यात्रा

रथ यात्रा - पट्टचित्र पर चित्रित
रथ यात्रा – पट्टचित्र पर चित्रित

पुरी मंदिर से संबंधित एक अन्य विषय जो इन पट्टचित्र कलाकारों में अत्यंत लोकप्रिय है, वह है पुरी की रथ यात्रा। क्यों ना हो? अंततः यह विश्व का सर्वविख्यात उत्सव जो है। लगभग आदमकद आकार की प्रतिकृति में तीनों रथों की प्रत्येक विशेषता को सूक्ष्मता से प्रदर्शित किया गया है। जैसे तीन रथों में तीन प्रकार के ध्वज इत्यादि। प्रत्येक आयोजन में उपस्थित भीड़ भी इन चित्रों का अभिन्न भाग होते हैं । कुछ दर्शन करते दर्शाये गए हैं  तो कुछ भजन-कीर्तन कर रहे हैं तो कुछ रथ को खींच रहे हैं। राजाओं को पालकी पर बैठकर रथ यात्रा में भाग लेते दर्शाया गया है।

जात्री -पति

जात्री पति - जगन्नाथ यात्रा का चित्रण
जात्री पति – जगन्नाथ यात्रा का चित्रण

पट्टचित्र कला शैली में मेरा प्रिय विषय जात्री–पति है। इस पारंपरिक चित्र में एक तीर्थयात्री की जगन्नाथ पुरी तक की यात्रा का वर्णन किया जाता है। इसमें तीर्थयात्री द्वारा चले गए तीर्थमार्ग का चित्रण किया जाता है, जैसे प्राचीन अठारनाला पुल अथवा मंदिर की २२ सीढ़ियाँ या सिंह द्वार जैसे द्वार इत्यादि। एक विस्तृत चित्र में इसे एक शंख के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जहां मंदिर की प्रमुख मूर्तियाँ भी चित्रित होती हैं । इस प्रकार के चित्रण को शंख नाभि पट्टचित्र कहते हैं। इस प्रकार का चित्रण अब दुर्लभ है। अनलाइन स्टोर में मुझे बहुत कम विकल्प दिखाई दिए। रघुराजपुर में आपको इसका साधारण रूप दृष्टिगोचर होगा किन्तु वह भी सुंदरता में कम नहीं है।

भगवान कृष्ण की जीवनी

समग्र कला से बना हाथी
समग्र कला से बना हाथी

श्री कृष्ण की जीवनी, यह भी एक प्रिय विषय है। मैंने अनेक चित्र देखे जिनमें कृष्ण की जीवनी प्रस्तुत की गई है। उनमें अनंत नारायण अवतार से लेकर ब्रज में उनके बालपन तक तथा द्वाराका में उनके राज तक की कथाएं प्रदर्शित किये गए हैं। रामायण तथा बौद्ध धर्म की कथाएं भी चित्रित हैं किन्तु वे अधिक लोकप्रिय नहीं हैं। दशवातार अर्थात विष्णु के १० अवतार भिन्न भिन्न मण्डल संरचनाओं में चित्रित किये गए हैं। पट्टचित्रों में रासलीला भी एक लोकप्रिय विषय है। ओडिशा देवी की भूमि भी है। अतः आप यहाँ अनेक चित्र ऐसे भी देखेंगे जिनमें देवी के विभिन्न स्वरूपों को प्रदर्शित किया गया है। महिषासुरमर्दिनी उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय है।

वर्तमान काल में धर्मनिरपेक्ष विषय भी अपना स्थान बनाते दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें सर्वाधिक प्रिय विषय है जीवन वृक्ष अर्थात ‘ट्री ऑफ लाइफ’। ज्यामितीय आकृतियों में आदिवासी चित्रकारी शैली भी प्रसिद्धि अर्जित कर रही है।

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कभी कभी रचनात्मक चित्रकार विभिन्न चित्र शैलियों का सम्मिश्रण भी करते हैं। जैसे मैंने एक चित्र देखा जिसमें जगन्नाथजी के मुखड़े पर दशावतार चित्रित किया हुआ था।

जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बालभद्र के कुछ चित्र हैं जो सूखे नारियल की खोपड़ी पर चित्रित हैं। ये कलाकृतियाँ पुरी की स्मृति के रूप में पर्यटकों में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि इनके मूल्य सर्व सामान्य के लिए वहन करने योग्य है। इन्ही के लघु रूप में ऐसी ही चित्रकारी सुपारी पर भी की गई हैं। मुझे बताया गया कि सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लोग इसे अपने द्वार के समक्ष लटकाते हैं।

इस गाँव में विभिन्न देव-देवियों के मुखौटे भी बनाए जाते हैं। मैं यह नहीं कहूँगी कि यह शैली इस गाँव की वैशिष्ठता है।

केलूचरण महापात्रा की जन्मस्थली

ओडिशी गुरु केलुचरण महापात्रा की जन्मस्थली - रघुराजपुर
ओडिशी गुरु केलुचरण महापात्रा की जन्मस्थली – रघुराजपुर

यदि आप भारत के ८ शास्त्रीय नृत्यों के विषय में जानते हैं तो आपको ओडिसी नृत्य शैली के विषय में अवश्य ज्ञात होगा। गुरु केलूचरण महापात्रा ओडिसी नृत्य में प्रविण्यता प्राप्त सर्वप्रसिद्ध नर्तकों में से एक हैं। रघुराजपुर उनकी जन्मस्थली है। कालांतर में वे भुवनेश्वर में स्थानांतरित हो गए थे। उन्होंने अपनी जन्मस्थली अर्थात रघुराजपुर में एक मंदिर का भी निर्माण कराया था। किन्तु इस गाँव में उनका स्वयं का निवासस्थान अब खंडहर में परिवर्तित हो गया है। उस स्थान पर गांववासी उनकी स्मृति में एक स्मारक बनवाना चाहते हैं किन्तु इस उपक्रम में उनके परिवार द्वारा नेत्रत्व स्वीकारने की आवश्यकता है। गाँव के बाहर एक छोटे से संकुल में उनकी प्रतिमा अवश्य स्थापित की गई है।

गोटीपुआ गुरुकुल

गोटीपुआ एक प्रकार का ओडिसी नृत्य प्रदर्शन है जो नवयुवक स्त्रियों का भेष धर कर करते हैं। इस शैली में नृत्य में निपुणता तो अपेक्षित ही है, साथ ही देह में अत्यधिक लचीलापन भी आवश्यक है। गोवा में प्रत्येक वर्ष आयोजित लोकोत्सव में मैंने ओडिशा से आए नर्तकों द्वारा प्रदर्शित यह नृत्य अनेक बार देखा है। पुरी के जिस अतिथिगृह में हम ठहरे हुए थे वहाँ भी मैंने इस नृत्य का प्रदर्शन देखा। इतनी सुगमता से वे अपनी देह को घुमाते तथा लहराते हैं कि देखते ही बनता है।

इस छोटे से गाँव ने तीन पद्म पुरस्कृत प्रतिष्ठित व्यक्ति प्रदान किये हैं।

डॉ. जगन्नाथ महापात्रा – पट्टचित्र चित्रकला शैली के गुरु, जिन्होंने ताड़पत्र चित्रकला के लिए १९६५ में रघुराजपुर शिल्प ग्राम की स्थापना की थी। मैं इस तथ्य का सत्यापन नहीं कर पायी। यह जानकारी मुझे गांववासियों ने प्रदान की।

गुरु केलूचरन महापात्रा – इन्हे ओडिसी नृत्यकला में पद्म विभूषण की उपाधि से पुरस्कृत किया गया है।

गुरु मगुनी चरण दास – इन्हे गोटीपुआ गुरुकुल की स्थापना करने के लिए पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया गया है।

यात्रा सुझाव

सुपारी एवं रीठा पर जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा
सुपारी एवं रीठा पर जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा
  • यह गाँव चंदनपुर नामक नगर के समीप स्थित है। आप चंदनपुर नगर के बाजार से ही चित्रों से अलंकृत भित्तियाँ देखना आरंभ कर देंगे। इन्हे देखने के लिए रुकना चाहें तो अवश्य रुकें, किन्तु रघुराजपुर शिल्पग्राम का अवलोकन किये बिना यहाँ से ना जाएँ।
  • टसर रेशमी वस्त्रों पर की गई चित्रकारी पारंपरिक ताड़पत्र चित्रकारी से अपेक्षाकृत कम दामों में उपलब्ध हैं क्योंकि इनमें एक्रिलिक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा इनकी परिकल्पनाएं कम जटिल होती हैं।
  • गाँव के प्रत्येक घर में आपको पट्टचित्र प्राप्त हो जाएंगे। आप कहीं भी रुककर इनमें से किसी भी घर में भेंट कर सकते हैं। अधिकतर कलाकार अपनी कार्यशाला में पर्यटकों का स्वागत अत्यंत आत्मीयता से करते हैं।
  • आप स्वयं गाँव में ताड़पत्र पर चित्रकारी करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा आप अपने गृहनगर में कार्यशाला आयोजित करने के लिए इन्हे आमंत्रित भी कर सकते हैं।
  • आप अपनी रुचि के अनुसार यहाँ जितना चाहें उतना समय व्यतीत कर सकते हैं।
  • गाँव में खाद्य पदार्थ एवं अन्य किसी भी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। यदि किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कारीगरों से कहें। वे आपकी सहायता अवश्य करेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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तांबेकर वाड़ा – जहाँ पर दीवारें कहानियाँ सुनाती हैं, वडोदरा   https://inditales.com/hindi/tambekar-wada-vadodara-wall-murals/ https://inditales.com/hindi/tambekar-wada-vadodara-wall-murals/#respond Wed, 01 Aug 2018 02:30:23 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=813

तांबेकर वाड़ा – भित्तिचित्र   एक जमाने में हमारे घर की दीवारें हमारी चित्रकारी की कार्यशालाएं हुआ करती थीं, जो हमारी बेशकीमती संपत्ति थी। जो कुछ हमे अच्छा लगता था या जो हमारे मन में आता था उसे हम अपनी दीवारों पर चित्र के रूप में उतार देते थे। हमे हमेशा प्रसन्नता प्रदान करनेवाले या […]

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तांबेकर वाड़ा – भित्तिचित्र  

तांबेकर वाडा – एक चित्रशाला
तांबेकर वाडा – एक चित्रशाला

एक जमाने में हमारे घर की दीवारें हमारी चित्रकारी की कार्यशालाएं हुआ करती थीं, जो हमारी बेशकीमती संपत्ति थी। जो कुछ हमे अच्छा लगता था या जो हमारे मन में आता था उसे हम अपनी दीवारों पर चित्र के रूप में उतार देते थे। हमे हमेशा प्रसन्नता प्रदान करनेवाले या फिर किसी विशेष व्यक्ति या घटना की याद दिलाने वाले इन चित्रों के बीच हम रहा करते थ। लेकिन दुख की बात तो यह है कि, इन में से अधिकतर जगहें गुजरते समय के साथ क्षीण होती चली गयी हैं।

तांबेकर वाड़ा - वड़ोदरा. गुजरात
तांबेकर वाड़ा – वड़ोदरा. गुजरात

जब हमने तांबेकर वाड़ा के बारे में सुना, जो बरोड़ा के भूतपूर्व दीवान श्री विट्ठल खंडेराव तांबेकर या भाऊ तांबेकर जी की हवेली है और जिसमें आज भी ऐसे भित्तिचित्र देखने को मिलते हैं, तो हम तुरंत ही उनके दर्शन लेने हेतु पुराने शहर चले गए। हम इतनी जल्दबाज़ी में वहाँ गए जैसे कि अगर हम समय से वहाँ नहीं पहुंचे तो वे चित्र कहीं गायब हो जाएंगे। अनेक मोड़ों से गुजरते हुए आखिरकार हम एक साधारण सी दिखने वाली ऊंची सी इमारत के सामने पहुंचे जिसके बाहर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का तख़्ता लगा हुआ था।

हम उनके कार्यालय में गए जहाँ पर जमना बेन नामक एक सुंदर सी महिला ने बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ हमारा स्वागत किया। बाद में उन्होंने ही हमे वहाँ के भित्ति चित्रों के दर्शन करवाए। हमे इस छोटी सी यात्रा पर ले जाने से पहले उन्होंने एक बार हमारी ओर देखकर यह सुनिश्चित किया कि हम वहाँ की ऊंची खड़ी सीढ़ियाँ चढ़ पाएंगे या नहीं और फिर प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने हमारा मार्गदर्शन किया। वे सीढ़ियाँ सच में बहुत सीधी खड़ी थीं और बहुत ऊंची भी थीं।

रंगों का कोलाहल – दीवारों पर बनी चित्रकारी 
वड़ोदरा के तांबेकर वाडा के भित्तिचित्र
वड़ोदरा के तांबेकर वाडा के भित्तिचित्र

जैसे ही उन्होंने तीसरी मंजिल पर स्थित चित्रकारी से भरे उस कमरे का पाट खोला तो ऐसा लगा जैसे किसी ने हमे रंगों के कोलाहल में धकेल दिया हो। इस नए वातावरण में स्वयं को ढालने में मुझे थोड़ा समय लगा, लेकिन जैसे-जैसे मैं इन चित्रों को देखती गयी, मैं पूर्ण रूप से उनमें खो गयी। मैं इतनी उत्साहित थी कि समझ नहीं पा रही थी कि उन चित्रों की तस्वीरें खींचूँ या बस उन चित्रों को निहारती रहूँ या फिर उनमें चित्रित आकृतियों का निरीक्षण करूँ।

तांबेकर वाड़ा की दीवारों पे युद्ध के दृश्य
तांबेकर वाड़ा की दीवारों पे युद्ध के दृश्य

उस कमरे की छत पारंपरिक रूप से हरे और पीले रंगों से रंगवाई गयी थी तथा वहाँ की दीवारों का प्रत्येक भाग चित्रकारी से ढका हुआ था। यहाँ तक कि दरवाजे के चौखटे पर भी जीवन से जुड़े विविध पहलुओं जैसे संगीत, प्रेम, कुश्ती आदि से संबंधित प्रकरण चित्रित किए गए थे और उन्हें गंजीफ़ा पत्तों के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इन चित्रों के चारों ओर उज्जवलित रंगों के पुष्पों की किनारी बनी हुई थी जो उनकी सीमा को निर्धारित कर रही थी। तो कभी-कभी दरवाजों के चौखटों के किनारों पर भी इसी ढांचे का प्रयोग किया गया था।

महाभारत के दृश्य 
संगीत और वाद्य दर्शाते दृश्य – तांबेकर वाड़ा – वड़ोदरा
संगीत और वाद्य दर्शाते दृश्य – तांबेकर वाड़ा – वड़ोदरा

तांबेकर वाड़ा की दीवारों पर महाभारत के कुछ पारंपरिक दृश्य भी चित्रित किए गए थे जिनमें कृष्ण के जीवन से जुड़े उपाख्यान भी शामिल थे। इसके अलावा वहाँ पर 19वी शताब्दी के आंग्ल-मराठा युद्ध के भी बहुत सारे समकालीन दृश्य चित्रित किए गए थे। दरवाजों के ऊपर वाली दीवारों पर भी बड़े-बड़े चित्र थे जिन में आम तौर पर युद्ध से जुड़े दृश्य दर्शाए गए थे।

दरवाजों और चित्रों के बीच नज़र आती दीवार की पतली सी पट्टी पर संगीत और नृत्य के दृश्य दर्शाए गए थे। और जैसा कि मैंने बताया था, दरवाजों के चौखटों पर किसी एक विषय से संबंधित सूक्ष्म आकार के चित्र बनाए गए थे। यहाँ पर कुछ बड़े-बड़े चित्र सूचीपत्र के स्वरूप में बनाए गए थे, जिन में छोटे-छोटे दृश्यों द्वारा पूरी कहानी बतायी गयी थी।

तांबेकर वाड़ा – एक धरोहर
चित्रकारी और काष्ठ के काम उत्तर संगम – तांबेकर वाड़ा
चित्रकारी और काष्ठ के काम उत्तर संगम – तांबेकर वाड़ा

ये चित्र 1870 के दौरान बनवाए गए थे, जिन्हें बनाने के लिए स्टक्को तकनीक का प्रयोग किया गया था। ये चित्र शायद उच्च कोटी के न हों, लेकिन ये चित्र हमे यह जरूर बताते हैं कि किस प्रकार से ये लोग अपनी दीवारों को बड़े ही आकर्षक ढंग से चित्रों से सजाते थे। मैंने ऐसे ही भित्तिचित्र झाँसी में रानी के महल में भी देखे थे, जिन में मुख्यतः लाल रंग का प्रयोग किया गया था।

और पढ़ें – अजंता की गुफा १ के भित्ति चित्र

वहाँ पर एक छोटी सी जाली की विभाजिका थी, जो बड़े ही सुंदर तरीके से उत्कीर्णित की गयी थी। उन चित्रों के बीच वह उत्कीर्णित जाली बहुत ही आकर्षक लग रही थी। वहाँ पर कुछ लकड़ी के चौखटे भी थे, जो इन भित्तिचित्रों को तीन आयामी प्रभाव प्रदान कर रहे थे और उन्हें लकड़ी की सी तासीर भी दे रहे थे।

खँडहर होता तांबेकर वाड़ा
खँडहर होता तांबेकर वाड़ा

इन दो कमरों को छोड़कर, जो आज भी सही-सलामत हैं और जिनका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित किया जा रहा है, बाकी की पूरी हवेली किसी खंडहर के समान लग रही थी। हमने हवेली की तरफ खुलते दरवाजों से वहाँ की कुछ झलकियाँ देखी, जिससे हमे वहाँ की बस गिरती दीवारें और बिखरे हुए अवशेष ही दिखे।

तांबेकर वाड़ा में कोई प्रवेश शुल्क नहीं है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कार्यालय से अनुमति लिए बिना वहाँ पर तस्वीरें खींचना मना है। हर कला प्रेमी को वड़ोदरा की इस धरोहर के दर्शन जरूर करने चाहिए।

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गंगा देवी – मिथिला की मधुबनी चित्रकार और उनकी चित्रकारी https://inditales.com/hindi/ganga-devi-mithila-madhubani-artist/ https://inditales.com/hindi/ganga-devi-mithila-madhubani-artist/#comments Wed, 17 Jan 2018 02:30:27 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=498

मिथिला की प्रसिद्ध चित्रकार गंगा देवी की मधुबनी चित्रकारी   आज मधुबनी और वार्ली चित्रकारी भारत की आदिवासी चित्रकला या लोक कला का प्रतीक बन चुकी है। यह चित्रकारी दिल्ली हाट की गलियों में, सूरजकुंड मेले में और अन्य कला उत्सवों में भी देखी जा सकती है। ये कला उत्सव भारत भर के विविध प्रकार […]

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मिथिला की प्रसिद्ध चित्रकार गंगा देवी की मधुबनी चित्रकारी  

गंगा देवी द्वारा अमरीका यात्रा का चित्रण
गंगा देवी द्वारा अमरीका यात्रा का चित्रण

आज मधुबनी और वार्ली चित्रकारी भारत की आदिवासी चित्रकला या लोक कला का प्रतीक बन चुकी है। यह चित्रकारी दिल्ली हाट की गलियों में, सूरजकुंड मेले में और अन्य कला उत्सवों में भी देखी जा सकती है। ये कला उत्सव भारत भर के विविध प्रकार के कलाकारों को एकत्र लाने का सबसे अच्छा माध्यम है। भारत के ग्रामीण घरों की दीवारों पर सजी इस चित्रकारी को जब कागज का सहारा मिला, तो चित्रकारों ने भी इस नए माध्यम के जरिये अपनी कला को पंख देने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार पिछले 2-3 दशकों से आदिवासी चित्रकला व्यापक स्तर पर अपनी विशेष पहचान बनाने में सफल रही है।

एक बार मुझे गोवा विश्वविद्यालय में आदिवासी चित्रकला के संबंध में हुई संगोष्ठी में भाग लेने का मौका मिला था, जो नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक श्री ज्योतीन्द्र जैन द्वारा आयोजित की गयी थी। इस संगोष्ठी में उन्होंने कुछ आदिवासी चित्रकारों की जीवनकथाएं सुनाई थी, जिन्होंने ग्रामीण चित्रकला के क्षेत्र में आए परिवर्तनों को लाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इन्हीं में से एक थी मिथिला की गंगा देवी, जिन्होंने मधुबनी चित्रकारी के आंदोलन का मार्गदर्शन किया।

तो अब मैं इस महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध चित्रकार की जीवन कथा को आपके साथ साझा करने जा रही हूँ।

गंगा देवी और मधुबनी चित्रकारी   

गंगा देवी द्वारा रामायण में रावण वध का चित्रण
गंगा देवी द्वारा रामायण में रावण वध का चित्रण

गंगा देवी बिहार के मिथिला क्षेत्र में बसे एक छोटे से गाँव में रहती थी। बच्चा न हो पाने के कारण उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया और दूसरा विवाह कर लिया। और इतना ही नहीं, उनके पास जो कुछ बचा था वह घरेलू मतभेदों के चलते उन्हें अपनी सौतन को सौपना पड़ा। समय के जिस दौर और वातावरण में गंगा देवी रह रही थी, उसमें उनकी किस्मत कुछ खास अलग नहीं थी। यद्यपि उनका भाग्य दूसरों से अलग जरूर था। इसी भाग्य ने एक दिन एक फ़्रांसिसी कला संग्राहक को उनके दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया। इस कला संग्राहक ने गंगा देवी को कागज देकर उसपर उनके लिए कुछ चित्र बनाने को कहा। उनकी चित्रकारी देखकर वे इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने गंगा देवी को इनाम के तौर पर बहुत बड़ी रकम दे दी। उनके लिए शायद उन पैसों का कोई मोल नहीं था, लेकिन गंगा देवी के लिए ये पैसे ज़िंदगी काटने के लिए काफी थे।

इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी कला चित्रकारी के क्षेत्र में उभरने लगी और उनके चित्रों की मांग बढ़ती गयी। वे दिल्ली के संग्रहालयों के अध्यक्षों की नजरों पर छाने लगी, जिन्होंने उन्हें शिल्प संग्रहालय जैसी जगहों पर आमंत्रित करना शुरू किया। इसी के साथ उन्होंने साधिकार चित्रों पर काम करना आरंभ किया। इसके बाद जैसे प्रसिद्धि ने उनके कदम चूम लिए।

मधुबनी चित्रकारी 

अनंतता का प्रतीक - मधुबनी, गंगा देवी
अनंतता का प्रतीक – मधुबनी, गंगा देवी

मधुबनी चित्रकारी पारंपरिक रूप से मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित घरों की दीवारों पर की जाती थी। ये चित्र धार्मिक क्रियाकर्मों पर आधारित हुआ करते थे, जिन्हें कोहबर कहा जाता था। इन चित्रों में वर्णनात्मक प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है जिन्हें विशिष्ट रंगों में दर्शाया जाता है। ये चित्र ज्यादातर शादी-ब्याह जैसे समारोहों पर बनाए जाते थे। उदाहरण के लिए, दूल्हे का कमरा जिसमें नव-विवाहित दूल्हा-दुल्हन रहते थे, उसे प्रजनन के प्रतीकों से चित्र रूप में सजाया जाता था, जैसे बांस का पेड़ या पूर्ण रूप से खिला हुआ कमल का फूल।

इन भित्तिचित्रों से एक प्रकार की पवित्रता की भावना जुड़ी होती थी। ये चित्र घर की औरतों से संबंधित हुआ करते थे, जो स्वयं ये चित्र बनाती थीं। यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि यह कला उन्होंने अपने परिवार की बुजुर्ग औरतों के अनुसरण द्वारा सीखी है क्योंकि, उस समय चित्रकारी सीखने के लिए कोई खास प्रशिक्षण केंद्र नहीं होते थे और महिलाओं के लिए तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। इसके पीछे या तो इन महिलाओं की व्यक्तिगत रुचि रही होगी या फिर हालात कारणीभूत रहे होंगे। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन इनके चलते इनमें से कुछ महिलाओं ने शायद अपनी सखियों से कई अधिक चित्र बनाए होंगे।

मधुबनी चित्रकारी का कागजी सफर  

1960 के दौरान भारत सरकार ने इस गाँव में मुफ्त के कागज वितरित करने का निश्चय किया, जिसने महिलाओं को दीवारों के बदले कागजों पर अपनी कलाकारी को आकार देने के लिए प्रोत्साहित किया। चित्रकारी के बदलते माध्यम के साथ-साथ उसके विषयवस्तु की व्यापकता भी बढ़ती गयी। अब तक अनभिज्ञता के आवरण में ढके इस नए और प्रभावपूर्ण माध्यम की अचानक उपलब्धि ने गंगा देवी जैसी अनेकों महिलाओं की रचनात्मकता को अनावृत किया।

आगे जाकर इनमें से बहुत सी महिलाएं अपनी अनोखी चित्रण शैली के कारण सुविख्यात चित्रकार बन गईं। तथापि, विरासत के रूप में इन महिलाओं ने अपने क्षेत्र के लोगों के लिए कलाकेंद्र बनवाया। मधुबनी चित्रकारों की वृद्धि देखने के लिए आपको दिल्ली हाट जैसी जगहों की सैर करनी चाहिए या फिर किसी कला उत्सव में जाना चाहिए। इन कलाकारों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने का यही सबसे प्रभावी माध्यम है। इससे भी अधिक यह ग्रामीण समुदायों के लिए रोजगार का प्रमुख स्त्रोत है।

गंगा देवी द्वारा निर्मित रामायण की चित्रकथा  

राम लक्ष्मण सीता का केवट के नाव पे जाना - मधुबनी चित्र गंगा देवी
राम लक्ष्मण सीता का केवट के नाव पे जाना – मधुबनी चित्र गंगा देवी

धार्मिक क्रिया-कर्मों पर आधारित भित्तिचित्र बनाने वाली गंगा देवी ने रामायण जैसे विषय पर किस प्रकार की चित्रकारी की होगी? वैसे तो बचपन से हम सभी रामायण जैसे महाकाव्यों की गाथाएँ सुनते आए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी से गुजरती रामायण की इन्हीं कथाओं को गंगा देवी ने अपनी चित्र श्रृंखला में अनुवादित किया। इसके अलावा उन्होंने बचपन से सुनती आयी अन्य लोक कथाओं को भी अपने चित्रों में ढाल दिया।

उनकी चित्रकारी में हाथ की संयमता, चित्रों की स्पष्टता और रंगों की प्रयोगात्मकता साफ झलकती है, जो चित्रकारी के इस व्यापक क्षेत्र में अन्यत्र दुर्लभ है। कागज के चौखटे में उपलब्ध सीमित जगह को चित्रकारी में इस्तेमाल करने की उनकी कला अप्रतिम है। चाहे उन्हें एक ही चित्र में अनेक दृश्य दिखाने हो या फिर गुजरते समय को दिखाना हो, उस छोटी सी जगह का प्रयोग वे उत्तम रूप से करती हैं।

गंगा देवी द्वारा बनाई गयी मानव जीवन की चित्र श्रृंखला  

गंगा देवी की मानव जीवन श्रृंखला
गंगा देवी की मानव जीवन श्रृंखला

मानव जीवन की चित्र श्रृंखला गंगा देवी की चित्रकारी का उत्कृष्ट नमूना है। इसमें उन्होंने एक ग्रामीण स्त्री का जीवन-चक्र चित्रित किया है। उस स्त्री के जन्म से लेकर यौनावस्था में उसका प्रवेश, उसकी शादी, उसका गर्भवती होना और विविध संस्कारों से गुजरना, बच्चे को जन्म देना, उसका पालन-पोषण करना, ताकि वह बच्चा आगे जाकर अपना एक नया जीवन चक्र आरंभ करने में सक्षम बन सके।

गर्भवती स्त्री का चित्रण - गंगा देवी
गर्भवती स्त्री का चित्रण – गंगा देवी

इस चित्र श्रृंखला में उन्होंने एक स्त्री के जीवन पड़ावों का चित्रण बहुत ही सादगी और सरलता के साथ किया है। इस में चित्रित दृश्यों को दर्शाने के लिए उन्होंने विशिष्ट प्रतीकों का उपयोग किया है और इन प्रतीकों के साथ भी उनकी प्रयोगात्मकता साफ दिखाई देती है। उनकी चित्रकारी जैसे समकालीन समाज की सांस्कृतिक बुनावट का दस्तावेजीकरण बन गयी है। जिसमें बच्चे को बुरी नज़र से बचाना या बच्चे के जन्म पर क्लीवों का नाच-गाना या कुलदेवता की पूजा करना जैसी छोटी-छोटी बातों को कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है।

गंगा देवी और अमरीका    

गंगा देवी की अमरीका यात्रा के दृश्य - मधुबनी चित्र शैली में
गंगा देवी की अमरीका यात्रा के दृश्य – मधुबनी चित्र शैली में

अमरीका जैसे पाश्चात्य देशों की यात्रा करने के पश्चात गंगा देवी के चित्रों में एक परिवर्तनात्मक मोड आया। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने जो भी देखा या अनुभव किया वह उनके लिए बिलकुल नया था। इन अनुभवित नज़ारों को उन्होंने अपनी चित्र श्रृंखला के जरिए अभिव्यक्त किया। उनकी इस चित्र श्रृंखला के कुछ चित्र मुझे सच में बहुत पसंद आए। उनके ये चित्र प्राच्य लोक कला और पश्चिमी समाज के अद्भुत सम्मिश्रण की उत्तम कलकारी है।

इन चित्रों को देखकर लगता है, जैसे गंगा देवी ने अपने अनुभवों को पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया हो। मुझे याद है कि जब गोंड चित्रकार लंदन से वापस आए थे तब उन्होंने भी तारा बुक्स द्वारा प्रकाशित एक किताब के लिए कुछ इसी प्रकार की चित्रकारी की थी। इसके अलावा गंगा देवी ने अपनी अन्य यात्राओं, जैसे बद्रीनाथ और उत्तराखंड की यात्रा से अर्जित अनुभवों के आधार पर ऐसे ही चित्र बनाए थे।

बद्रीनाथ यात्रा - गंगा देवी की मधुबनी शैली में
बद्रीनाथ यात्रा – गंगा देवी की मधुबनी शैली में

अपने अनुभवों को चित्रानुवाद द्वार अभिव्यक्त करने की गंगा देवी की कला अद्वितीय है। चित्रकला के प्रति उनके इस योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

जीवन की इतनी सारी उपलब्धियों के दौरान गंगा देवी कैंसर जैसी भयानक बीमारी से जूझ रही थी। लेकिन उन्होंने इसे अपनी कमजोरी न बनाकर, अपने संघर्षों को कलात्मकता का रूप देकर उन्हें अपने चित्रों में ढाल दिया। तथापि कैंसर से उनकी इस लड़ाई में आखिर जीत उन्हीं की हुई और वे वापस अपने गाँव में रहने चली गयी। लेकिन नियति को शायद कुछ और मंजूर था। उनके सौतेले बेटे, जो शायद उनकी नयी-नयी अधिग्रहीत संपत्ति को हड़पना चाहता था, के हाथों गंगा देवी को बहुत ही हिंसक मृत्यु प्राप्त हुई।

चित्रकार और चित्रकारी  

गंगा देवी ने जिन परिस्थितियों में चित्रकारी का यह सफर शुरू किया था, उससे स्पष्ट होता है कि इस सफर में उन्होंने बहुत कुछ अर्जित किया है। लेकिन इससे अधिक वे अपने गाँव में अपने लिए एक पक्का घर बनवाना चाहती थी। आज उनकी इस कला के माध्यम से बहुत से लोग उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। उनके द्वारा बनाए गए चित्र, कला के बाज़ारों में लाखों–करोड़ों में बिक रहे हैं। इसके अलावा उनके कुछ भित्तिचित्र आप आज भी दिल्ली के शिल्प संग्रहालय में देख सकते हैं।

किसी भी चित्रकार की चित्रकारी की महत्ता और उसका मूल्य गुजरते समय के साथ बढ़ता जाता है। जो चित्रकारी जितनी पुरानी होती है, उसका मोल भी उतना ही अधिक होता है। ये कलाकृति जिसके भी पास जाती है उसकी झोली खुशियों और संपत्ति से भर देती है।

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