भारत के कवि Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 02 Sep 2020 07:36:20 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 मेड़ता – संत एवं कवयित्री मीराबाई की जन्मभूमि https://inditales.com/hindi/merta-mirabai-janambhumi/ https://inditales.com/hindi/merta-mirabai-janambhumi/#comments Wed, 16 Dec 2020 02:30:31 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2094

मीराबाई हम में से कई पाठकों के लिए चिर परिचित नाम है। हम सब उन्हे मध्य-युगीन भारत में चितोड़गढ़ की रानी के रूप में तो जानते ही हैं, साथ ही यदि मैं उन्हे भारत में अब तक की सर्वोत्तम भक्ति कवयित्री तथा कृष्ण भक्त कहूँ तो यह अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी। उनके द्वारा रचित भक्ति […]

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मीराबाई हम में से कई पाठकों के लिए चिर परिचित नाम है। हम सब उन्हे मध्य-युगीन भारत में चितोड़गढ़ की रानी के रूप में तो जानते ही हैं, साथ ही यदि मैं उन्हे भारत में अब तक की सर्वोत्तम भक्ति कवयित्री तथा कृष्ण भक्त कहूँ तो यह अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी। उनके द्वारा रचित भक्ति गीत सम्पूर्ण भारत में गाए जाते हैं। किन्तु क्या आप जानते हैं कि वे जयपुर व जोधपुर के मध्य स्थित एक छोटे राज्य, मेड़ता की राजकुमारी थीं?

मेड़ता  में मीराबाई स्मारक में मीरा की मूर्ति
मेड़ता में मीराबाई स्मारक में मीरा की मूर्ति

कुछ दिनों पूर्व मैं पुष्कर का भ्रमण कर रही थी। एक दिवस मैंने मेड़ता का भी भ्रमण करने का निश्चय किया तथा एक छोटे विमार्ग द्वारा मेड़ता पहुंची। यूं तो मैंने इंटरनेट में मेड़ता एवं वहाँ के दर्शनीय स्थानों के विषय में कुछ जानकारी एकत्र की थी किन्तु जैसा कि भारत के अनेक दर्शनीय स्थलों में बहुधा होता है, मेड़ता ने भी मुझे कई अधिक अद्भुत अचंभों के दर्शन कराए।

पुष्कर से हम अरावली पर्वतशृंखलाओं के बीच से आगे बढ़े। अरावली पर्वत शृंखलाओं में उपलब्ध शिलाओं के खनन के लिए उन्हे कई स्थानों पर निर्दयता से काटा गया है। इनमें कुछ पर्वतों के शिखर पर मंदिर हैं जहां पहुँचने के लिए ऊंची ढलान की सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। मार्ग में अधिक भीड़ ना होने के कारण इस उजले प्रातःकाल में यह भ्रमण अत्यंत सुखद था।

मेड़ता का इतिहास

मेड़ता के दुर्ग के अवशेष
मेड़ता के दुर्ग के अवशेष

मेड़ता मेड़तिया राठोड़ राजपूतों का राज्य था। 16 वी. सदी में मीराबाई के दादाजी, मेड़ता राव दूदा, इस राज्य के सुप्रसिद्ध राजा थे। उनके दुर्ग तथा महल मेड़ता में अब भी विद्यमान हैं। राजपूत एवं शेर शाह सूरी के मध्य हुए कई युद्धों के कारण इस साम्राज्य में कई राजाओं ने शासन किया। जिस समय मीराबाई का विवाह मेवाड़ में चित्तोड़गढ़ के सीसोदिया परिवार में हुआ था, उस समय उनके भ्राता जयमल पर मेड़ता का राज्यभार था। मीराबाई के विवाहोपरांत, एक युद्ध में जयमल को वीरगति प्राप्त हुई तथा उनके राज्य का जोधपुर के राज्य में विलय हो गया था।

मेड़ता का राजपरिवार इस तथ्य पर अत्यंत गौरान्वित रहता है कि उन्होंने, अन्य कुछ राजपरिवारों के विपरीत, अपनी किसी भी कन्या का विवाह मुगलों के परिवार में नहीं किया। ऐसा ही एक अन्य परिवार मेवाड़ों का है जिसमें मीराबाई ब्याही गई थीं।

मेड़ता में मीराबाई से संबंधित दर्शनीय स्थल

मेड़ता जैसे अन्य छोटे नगरों से ठीक विपरीत, मेड़ता में कुछ सर्वोत्तम रखरखाव युक्त दर्शनीय स्थल हैं। उनमें एक प्रमुख मंदिर तथा एक दुर्ग, जिसे अब एक संग्रहालय में परिवर्तित किया गया है, विशेषतः अत्यंत दर्शनीय हैं। यदि आप मीराबाई की जीवनी से प्रेरित हैं तो यह अवसर सोने पर सुहागा है।

चारभुजा मंदिर

चारभुजा मंदिर
चारभुजा मंदिर

मीराबाई के दादाजी राव दूदा द्वारा निर्मित यह मंदिर मेड़ता के हृदयस्थल में स्थित है। यह मंदिर विष्णु के चारभुजा अवतार को समर्पित है। चारभुजा का अर्थ है चार हाथों वाला। मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के ठीक सामने, मीराबाई को समर्पित एक छोटा मंदिर है।

चारभुजा मंदिर में भजन करती महिलाएं
चारभुजा मंदिर में भजन करती महिलाएं

जब मैं मंदिर पहुंची, रंगबिरंगी वेशभूषा में सज्ज कई स्त्रियाँ भजन गा रही थीं। उनके समीप से जाते हुए मैं गर्भगृह की ओर बढ़ी। वहाँ पुजारीजी से मेरी विस्तृत चर्चा हुई। उन्होंने मुझे कई किवदंतियाँ कहीं जो हमारे चारों ओर की भित्तियों पर भी उत्कीर्णित थे।

मीराबाई के बालपन से संबंधित किवदंतियाँ

चारभुजा भगवान को दूध अर्पित करती मीरा
चारभुजा भगवान को दूध अर्पित करती मीरा

ऐसा कहा जाता है कि किसी समय विष्णु की यह मूर्ति राव दूदा को स्वप्न में दिखी थी। उन्हे ज्ञात हुआ कि किसी मोची की गाय प्रत्येक दिवस एक विशेष स्थान पर जाती थी तथा वहाँ अपना सम्पूर्ण दूध समर्पित कर देती थी। राव दादू ने गाय का पीछा किया। उन्होंने अपने सेवकों से उस स्थान को खोदने कहा जहां प्रत्येक दिवस गाय  दूध छोड़ती थी। वहाँ उन्हे विष्णु की एक सुंदर मूर्ति मिली। दादू ने उस स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया तथा उसके भीतर विष्णु की उसी मूर्ति की स्थापना की। प्रत्येक दिवस राव दादू उस प्रतिमा की पूजा करते थे तथा उसे दूध अर्पित करते थे। चढ़ावे का दूध वे मोची समुदाय की गाय का ही लाते थे। आज भी इस मंदिर में विष्णु की मूर्ति को अर्पित दूध मोची समुदाय से ही लाया जाता है।

वो खिड़की जहाँ से मीरा चारभुजा को देखती थी
वो खिड़की जहाँ से मीरा चारभुजा को देखती थी

अपने बालपन में नन्ही मीरा सदैव अपने दादाजी को चारभुजा मूर्ति पर दूध चढ़ाते देखती थी। उसे लगता था कि भगवान विष्णु दूध पीते हैं। एक बार उसके दादाजी को कुछ समय के लिए कहीं जाना पड़ा। तब उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में विष्णु को दूध पिलाने का उत्तरदायित्व नन्ही मीरा को सौंपा था। दूध चढ़ाने के पश्चात मीरा वहीं खड़ी विष्णु को निहारने लगी। वह विष्णु को दूध पीते देखना चाहती थी। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अतः वह कक्ष से बाहर आ गई तथा खिड़की से भीतर झाँककर विष्णु को देखा। किन्तु विष्णु टस से मस नहीं हुए। तब नन्ही मीरा रोने लगी तथा विष्णु से दूध पीने का आग्रह करने लगी, अन्यथा उसके दादाजी क्रोधित हो जाएंगे। ऐसा कहा जाता है कि पात्र में रखा दूध लुप्त हो गया। यह स्थान आप मंदिर में आज भी देख सकते हैं।

मीराबाई से संबंधित कई कथाएं मंदिर की भित्तियों पर चित्रित हैं।

चारभुजा मूर्ति

मेड़ता के चारभुजा विष्णु
मेड़ता के चारभुजा विष्णु

चारभुजा मूर्ति लगभग 4 फुट ऊंची है। अपने निचले हाथ में उन्होंने चक्र धारण किया है। इसका अर्थ है, यह विष्णु का शांत अवतार है। जब विष्णु क्रोधित होकर किसी पर चक्र चलाने के लिए उद्दत हों तो वे चक्र को ऊपरी हाथ में धारण करते हैं। मुझे कथाएं सुनाते हुए ही पुजारीजी आनेवाले भक्तों को प्रसाद दे रहे थे। वहाँ उपस्थित भक्तगण ‘जय चारभुजा’ कहकर एक दूसरे का अभिनंदन कर रहे थे। इस अभिनंदन को मैं अपने संस्करण ‘भारत में अभिनंदन के 20 से अधिक प्रकार’ में अवश्य सम्मिलित करने वाली हूँ।

पुजारीजी ने मुझे कृष्ण की अष्टधातु में निर्मित एक छोटी प्रतिमा दिखाई। उन्होंने बताया कि मीरा इस प्रतिमा की पूजा करती थी। एक बार नन्ही मीरा के हठ को टालने के लिए उनकी माता ने उनसे यूं ही कह दिया था कि कृष्ण ही उनके वर हैं। तब से उन्होंने स्वयं को कृष्ण की वधू मान लिया था। यह नन्ही मीरा से संत कवि मीराबाई बनने का आरंभ था।

मीराबाई से भेंट

चारभुजा मंदिर प्रांगण में मीरा मंदिर
चारभुजा मंदिर प्रांगण में मीरा मंदिर

चारभुजा मंदिर अनेक भित्तिचित्रों एवं कांच पर की गई चित्रकारियों से भरा हुआ है। जब मैं वहाँ चारों ओर घूमते हुए मंदिर को निहार रही थी, तब केसरिया रंग की साड़ी पहने एक दुर्बल स्त्री मेरे पास आई तथा मुझसे पूछा कि क्या मैं अकेली यहाँ आई हूँ? मेरे हाँ कहने पर उन्होंने मुझ पर प्रश्नों की बौछार कर दी, जैसे मेरे पति कहाँ हैं, वो मेरे साथ क्यों नहीं आए इत्यादि। हम मीराबाई मंदिर के समक्ष खड़े थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या 400 वर्षों पूर्व मीराबाई भजन गाते देशभर में अकेले भ्रमण नहीं करती थी? हम उन्ही की तो संतानें हैं। उन्होंने कहा, सही है और हम दोनों जी भर कर हंसने लगे। कभी कभी हम जाने-अनजाने मूल संस्कारों को भूल कर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही भ्रमित परंपराओं में बंध जाते हैं।

 मीरा की वंशज
मीरा की वंशज

मैं कुछ क्षण मीराबाई के समक्ष खड़ी हो गई। मन मस्तिष्क में एक ही विचार था, ये अनेक प्रकार से मेरी पूर्वज हैं। उन्होंने ऐसी आयु में देशभर में अकेले भ्रमण किया जब यह अकल्पनीय था। मैं सोचने लगी कि ऐसा क्या है इस धरती की माटी में जो उसने मीराबाई को इतना साहस एवं भक्ति प्रदान की। मैं अपने चारों ओर देखने लगी। मुझे मंदिर में घूमती प्रत्येक स्त्री में मीराबाई दृष्टिगोचर होने लगी। वे सब तो उनसे अनुवांशिक रूप से संबंध रखती हैं।

मीराबाई के विषय में अधिक जानने के लिए उनकी कविताएं पढ़िये अथवा अमर चित्रकथा में उनकी कथा पढ़िये।

मैं कुछ समय और मंदिर में घूमते हुए, उसे निहारते हुए मीराबाई से संबंधित तथ्य आत्मसात करने लगी। कल्पना करने लगी कि यहीं मीराबाई कृष्ण संग खेलते व उनकी आराधना करते पली-बढ़ी थीं।

मंदिर परिसर कई अन्य छोटे मंदिरों से भर हुआ है। उनमें एक शिवलिंग एवं हिंगलज माता को समर्पित एक मंदिर सम्मिलित हैं।

मीरा स्मारक

मीराबाई स्मारक - मेड़ता
मीराबाई स्मारक – मेड़ता

यह मीराबाई के परिवार का दुर्ग था जिसे अब एक संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। यह संग्रहालय मीराबाई को समर्पित है। यह एक अत्यंत मनभावन संग्रहालय है जहां उनकी जीवनी एवं कथाओं का प्रलेखीकरण किया गया है। मध्य में उनकी एक आदमकद प्रतिमा स्थापित है। पांडुलिपियों के बड़े बड़े पन्नों पर उनके जीवन की कथाएं अंकित हैं।

मीरा स्मारक में चित्रकला
मीरा स्मारक में चित्रकला

एक कक्ष में विभिन्न साहित्य एवं कलाशैलियों में मीरा का प्रस्तुतीकरण किया गया है। एक अन्य कक्ष में द्वारका एवं वृंदावन जैसे उन नगरों का चित्रण हैं जहां मीराबाई ने भ्रमण किया था। प्रत्येक स्थान से संबंधित मीरा की एक ना एक कथा अवश्य है।  इन नगरों के निवासियों से उनके व्यवहार का भी यहाँ चित्रण है।

मीरा के गीत जहाँ उसे मेडतानी कहा गया है
मीरा के गीत जहाँ उसे मेडतानी कहा गया है

मुझे यहाँ ज्ञात हुआ कि कुछ वर्षों पूर्व मीराबाई पर एक डाकटिकट भी जारी किया गया था।

संग्रहालय की एक दीर्घा में मीराबाई की कविताओं का चित्रण किया है जिन पर कुछ दोहे भी लिखे हुए हैं। मिट्टी की कई पट्टिकाओं पर मीराबाई की जीवनी उत्कीर्णित है।

एक पुस्तकालय भी है जहां मीराबाई से संबंधित पुस्तकें हैं। इस पुस्तकालय का एक ही भाग मैं देख पाई क्योंकि इसका दूसरा भाग आम जनता के लिए खुला नहीं है। इसी प्रांगण में मीरा अनुसंधान संस्थान भी है। मुझे तो कल्पना भी नहीं थी कि इस प्रकार की कोई संस्थान अस्तित्व में भी है।

नागणेची माता का मंदिर – यह राठोर घराने की कुलदेवी हैं। उनका मंदिर मीरा स्मारक अर्थात मीरा दुर्ग के भीतर स्थित है। नागणेची माता चक्रेश्वरी माता की ही एक अवतार है जिन्हे सारस्वत ब्राह्मण कन्नौज से यहाँ लाये थे।

नागणेची माता का मंदिर
नागणेची माता का मंदिर

वीर कालिया की भी एक मूर्ति मंदिर के भीतर स्थित है। एक समय वह अकबर की सेना से युद्ध करने वाला  वीर सेनाध्यक्ष था किन्तु अब उन्हे देव मानकर पूजा जाता है।

मीरा स्मारक एक मनमोहक स्मारक एवं अनुसंधान केंद्र है जो इस धरती की पुत्री मीराबाई को समर्पित है।

मेड़ता के अन्य दर्शनीय स्थल

कृष्ण और मीरा मेड़ता के उपवनों में
कृष्ण और मीरा मेड़ता के उपवनों में

दुर्ग के प्रवेशद्वार से ठीक बाहर श्वेत संगमरमर में निर्मित एक सुंदर घंटाघर है।

आसपास की दुकानों में स्त्रियाँ रंगबिरंगी लाख की चूड़ियाँ बिक्री कर रही थीं। उनमें पीले एवं लाल रंगों की प्राधान्यता थी। पीले एवं लाल रंगों को राजस्थान में अत्यंत पावन माना जाता है।

कुंड के एक ओर मुझे एक महल का खंडहर दृष्टिगोचर हुआ। एक गूंगे दर्शक की भांति यह स्तब्ध खड़ा सम्पूर्ण नगरी को आगे बढ़ते देख रहा है।

मेड़ता के दर्शन आप एक दिवसीय भ्रमण के रूप में अजमेर, पुष्कर अथवा जोधपुर में ठहरकर कर सकते हैं।

मेड़ता के सभी प्रमुख दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए 1-2 घंटों का समय पर्याप्त है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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संत कबीर का काव्य, भक्ति, दर्शन और जीवन परिचय https://inditales.com/hindi/sant-kabir-ek-parichay/ https://inditales.com/hindi/sant-kabir-ek-parichay/#comments Wed, 19 Aug 2020 02:30:46 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1972

संत कबीर १५ वीं. शताब्दी के अंत से १६ वीं. शताब्दी के आरंभ तक की समयावधि में एक जुलाहा होने के साथ साथ एक प्रसिद्ध संत कवि थे। यह भारत में भक्ति आंदोलन का काल था। राजनैतिक दृष्टि से इस काल अवधि में इस्लामी शासक सम्पूर्ण भारत में अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयत्न कर […]

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संत कबीर १५ वीं. शताब्दी के अंत से १६ वीं. शताब्दी के आरंभ तक की समयावधि में एक जुलाहा होने के साथ साथ एक प्रसिद्ध संत कवि थे। यह भारत में भक्ति आंदोलन का काल था। राजनैतिक दृष्टि से इस काल अवधि में इस्लामी शासक सम्पूर्ण भारत में अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे। वे हिंदुओं को नाना प्रकार से प्रताड़ित कर रहे थे। उस समय सभी हिन्दूओं ने भक्ति मार्ग का आसरा लिया । उन्होंने देवी-देवताओं की शरण ली, उनकी स्तुति गाने लगे तथा उनमें आसरा ढूंढने लगे।

संत कबीरकबीर हिन्दू थे अथवा मुसलमान, इस विवाद का समाधान कदाचित हमें कभी प्राप्त नहीं हो पाएगा। नीरू व नीमा, इस मुसलमान जोड़े ने कबीर का पालन-पोषण किया तथा स्वामी रामानन्द उनके गुरु थे। नीरू एवं नीमा की समाधियाँ बनारस के कबीर मठ में स्थित हैं। कबीर की रचनाएं विभिन्न भारतीय शास्त्रों में उनके ज्ञान एवं पकड़ का प्रमाण हैं। उनकी रचनाओं में वैदिक साहित्य, शरीर-रचना, प्राणी व वनस्पति शास्त्र, दर्शन-शास्त्र तथा बुनाई सम्मिलित है।

कबीर की रचनाओं के अनेक रूप मिलते हैं, जैसे साखी, शबद, रमैनी, उलटभाषी तथा वसंत। साखी का मूल शब्द है, साक्षी अर्थात देखा हुआ। कबीर की रचनाओं में कई दोहे हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि उनकी रचना उन्होंने तब की जब उन्होंने ऐसा कुछ देखा जिसने उनके मन-मस्तिष्क में अनेक विचार उत्पन्न किये। उनके अधिकतर साखी हमारे समक्ष एक सम्पूर्ण दृश्य एक विचार लिए हुए ज्ञान के मोती का बोध कराते हैं।

और पढ़ें – देख कबीर रोया, भगवतीशरण मिश्र

कबीर की अधिकतर रचनाएं मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुई हैं। यही कारण है कि इनके विभिन्न संस्करणों में हम शब्दों का हेर-फेर पाते हैं। उदाहर के लिए उनकी एक रचना है, ‘पानी में मीन प्यासी’। इसकी दूसरी पंक्ति कुछ लोग ‘मोहे सुन सुन आवे हासी’ गाते हैं तो कुछ इसे ‘मोहे देखत आवे हासी’ गाते हैं। यद्यपि दो संस्करणों का अर्थ तथा ध्येय एक ही होता है, किन्तु शब्द कभी कभी परिवर्तित हो जाते हैं। कबीर अपनी रचनाओं में स्वयं को दास कबीर के नाम से संबोधित करते हैं। किन्तु वर्तमान में उनकी रचनाओं को गाते समय उन्हे कभी कभी दास कबीर के स्थान पर संत कबीर कहकर भी संबोधित किया जाता है।

यदि आप मालवा अथवा राजस्थानी गायकों के मुख से कबीर के दोहे सुनेंगे तब आप पाएंगे कि वे कई आम शब्दों को स्थानीय भाषा में परिवर्तित कर देते हैं। उसी प्रकार आधुनिक गायक शब्दों को संस्कृत युक्त हिन्दी में परिवर्तित कर देते हैं।

और पढ़ें – कबीर बीजक 

कबीर एक व्यक्तिमत्व ना होते हुए बहती नदी की धारा थे। उन्होंने एक विचारधारा आरंभ की थी। तत्पश्चात अनेक विचारधाराएं आकर उनसे जुड़ने लगीं। आज हम निश्चित रूप से यह नहीं बता सकते कि उन्होंने क्या रचा तथा कालांतर में उनकी रचना में क्या जुड़ा। यद्यपि उनकी रचनाएं गहन हैं तथापि वे पारंपरिक ना होते हुए लोकशैली में है।

बूंद जो पड़ी समुद्र में, सो जाने सब कोई, समुद्र समाना बूंद में, बूझै बिरला कोई।।

कबीर- एक फकीर

मेरे लिए कबीर सर्वप्रथम एक फकीर थे। बोलचाल की भाषा में फकीर का अर्थ भिखारी हो जाता है। किन्तु फकीर का सही अर्थ है, वह व्यक्ति जो सभी सांसारिक मोह व बंधनों से मुक्त है। फकीर वह है जो सभी सुख-संपत्ति प्राप्त करने में सक्षम है किन्तु स्वेच्छा से न्यूनतम सुविधाओं में जीवन यापन करता है। वह किसी भी प्रकार के सामाजिक दबाव से प्रभावित नहीं होता तथा इसी कारण वह विचारों से स्वच्छंद होता है।

चाह गई चिंता मिटी, मानुवा बे-परवाह,

जिनको कुछ ना चाहिए, वो शाहन के शाह।।  

मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में

कबीर निर्गुण भक्ति में विश्वास करते थे। उनकी यही विशेषता उन्हे अन्य समकालीन कवियों से भिन्न बनाती है। अन्य समकालीन कवि सगुण भक्ति में विश्वास रखते थे। सगुण भक्ति का अर्थ है भगवान को किसी ना किसी रूप में देखना। मीरा बाई तथा सूरदास भगवान को कृष्ण के रूप में कल्पना करते थे वहीं तुलसीदास के लिए भगवान का अर्थ श्री रामचन्द्र था। संभवतः कबीर इकलौते कवि थे जिनके लिए भगवान का कोई रूप नहीं था। उनकी पुकार उस भगवान के लिए थी जिनका कोई रूप नहीं है, अपितु जो प्रत्येक मनुष्य में सर्वविद्यमान है।

कबीर सदैव लोगों से स्वयं के भीतर झाँकने के लिए कहते थे। वे कहते थे कि ईश्वर को कहीं बाहर ना ढूँढे, अपितु वे नित्य लोगों का उनके भीतर विद्यमान ईश्वरीय तत्व  से परिचय कराते थे। यह कुछ अन्य नहीं, अपितु अद्वैत दर्शन ही है जिसके अनुसार ब्रह्म आपके भीतर है तथा आप स्वयं ही ब्रह्म हैं। वे सदा लोगों को आगाह कराते थे कि परम सत्य की खोज में बाहर ना भटकें। उसे अपने भीतर ही खोजें।

और पढ़ें  – हज़ारी प्रसाद द्विवेदी रचित कबीर

अपनी सम्पूर्ण रचनाओं में कबीर लोगों को सीधे संबोधित करते थे। वे अन्य कवियों के समान नहीं थे जो लोगों से भगवान के माध्यम से संबोधित होते थे। कबीर मनुष्यों से प्रत्यक्ष एवं अपरोक्ष रूप से संवाद करते थे। अपनी कविताओं में वे स्वयं को साधो अर्थात सद्पुरुष कहते थे। वहीं मानवी संबंधों के विषय में कहते समय वे उन्हे बंदे अर्थात मनुष्य, एक मित्र तथा भाई, इन शब्दों से संबोधित करते थे। उन्होंने लोगों को ना तो अपने से निम्न समझा ना ही उच्च। उन्होंने केवल अपने गुरु को ही उच्च स्थान दिया था। इसका अर्थ है कि वे सब को समान मानते थे। उनकी रचनाओं में सदैव समानता का संदेश निहित होता था।

वे गौण वस्तुओं पर भी पूर्ण ध्यान केंद्रित करते थे। उनसे भी समानता का संबंध स्थापित करते थे। उदाहरणतः अपनी कविता, ‘माटी कहे कुम्हार से’ के द्वारा वे कहते हैं कि जीवन एक चक्र है। आज आप माटी को रौंदेंगे, कल माटी आपको रौंदेगी तथा जीवन चक्र यूं ही चलता रहेगा। कदाचित आज आप स्वयं को शक्तिशाली समझ रहे होंगे। सब समय का फेर है। कल हमारी स्थिति पूर्णतः विपरीत हो सकती है। वस्तुस्थिति परिवर्तित होने में समय नहीं लगता। ब्रह्मांड के सर्व जीवों एवं वस्तुओं में समतुल्यता कबीर की रचनाओं के अभिन्न अंग होते हैं। वे संबंधों के चक्रीय प्रवृत्ति पर विश्वास करते थे। जो कल था, वह आज ना हो तथा जो आज है वो कदाचित कल ना रहे। मानव सदैव इस चक्र से अनभिज्ञ रहता है तथा जीवन चक्र में उलझ कर रह जाता है।

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे;

इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूँगी तोहे।।

कबीर गर्व ना कीजिए, ऊंचा देख निवास;

काल परों भुईं लेटना, ऊपर जमेगी घास।।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय;

 कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय। ।

देव हमारे भीतर ही विराजमान हैं

उनकी रचनाओं द्वारा जो परम ज्ञान हमें प्राप्त होता है वह यह है कि देव हम सब के भीतर ही विद्यमान हैं तथा प्रत्येक समस्या का समाधान भी हमारे भीतर ही उपस्थित रहता है। वे सतत हमें हमारे भीतर झाँकने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। भगवान तक पहुँचने के लिए आपके द्वारा किये गए सर्व प्रयत्नों का वे खंडन करते हैं। वे कहते हैं कि यदि आपको परमात्मा में विश्वास है तो वह आपके भीतर ही विद्यमान है।

जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग;

तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय;

जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

कस्तुरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहि;

ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि।

मोको कहाँ ढूंढें रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।

पानी में मीन प्यासी…।

वे सदा कहते थे कि जिस प्रकार गंगा स्वयं को निर्मल करती है, उसी प्रकार हम मानवों को भी स्वयं को स्वच्छ करना चाहिए।

कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर;

पाछे पाछे हर फिरे, कहत कबीर कबीर।

कबीर की रचनाएं उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थीं। यद्यपि वे वेद एवं पुराण, इनका प्रयोग करते थे, तथापि वे अपने अनुभवों पर आधारित दृष्टांत ही देते थे। वे अपने समय के दैनंदिनी जीवन से ही दृष्टांत प्रस्तुत करते थे। उन्होंने सदैव एक सांसारिक पुरुष के रूप में जीवन व्यतीत किया, कर्म किया तथा परिवार के लिए जीविका उत्पन्न की। इन सब के साथ साथ वे एक साधक भी थे। उन्होंने कभी दूसरों द्वारा दी गई भिक्षा पर जीवन यापन नहीं किया। अतः उन्हे अपनी जीविका स्वयं अर्जित करने के आनंद एवं कष्टों का पूर्ण आभास था। यही उन्हे अपने मन के विचार स्वच्छंदता से व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी प्रदान करती थी। वे सदा समाज में रहे ताकि वे उस समाज को भीतर से देख सकें तथा समझ सकें। साथ ही वे समाज से विरक्त भी थे ताकि वे एक प्रेक्षक बन सकें।

मैं कहता हूँ आखिन देखी,

तू कहता कागद की लेखी।

कबीरा खड़ा बजार  में, मांगे सबकी खैर;

ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।

साई इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय;

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु ना भूखा जाय।

चलती चाकी देख कर, दिया कबीरा रोय;

दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोय।

कबीरा तेरी झोंपड़ी, गलकटियन के पास;

जो करेगा सो भरेगा, तू क्यों भया उदास।

कबीरा खड़ा बजार में, लिए लकुटिया हाथ;

जे घर फूँकिया आपनों, चले हमारे साथ।

गुरु पर आधारित कबीर की रचनाएं

अपनी अनेक साखियों एवं शब्दों द्वारा कबीर हमसे कहते हैं कि अपने स्वयं के अनुभवों के आधार पर अपनी राय निर्मित करें, दूसरों की कथनी को सजगता से जाँचें तथा सुने हुए तथ्यों पर आँख बंद कर विश्वास ना करें, भले ही गुरु ने कहा हो। यद्यपि वे कहते हैं कि गुरु ज्ञान प्राप्ति का एक आवश्यक साधन हैं।

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूँ  पाय;

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो दिखाए।

सतगुरु मिला तो सब मिले, ना तो मिला न कोय;

मात पिता सूत बान्धवा, यह तो घर घर होय।

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और;

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर।

भेस देख ना पूजिये, पूछ लीजिए ज्ञान;

बिना कसौटी होत नाही, कंचन की पहचान।

जात ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान;

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।

स्वयं की सहज खोज

वे हमें सहजता से जीने की प्रेरणा देते हैं। चूंकि वे इस तथ्य पर विश्वास करते हैं कि सब हमारे भीतर ही है, प्रत्येक बल व प्रत्येक संभव ऊर्जा स्त्रोत को बाहर खोजने का कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। उनकी रचनाओं में सहजता, यह विषय बारंबार प्रकट होता है। इससे यह विदित होता है कि उनके काल में भी लोग इस प्रकार का अनावश्यक कष्ट उठाते थे। यह सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है। हम कष्ट उठाने में सदा मग्न रहते हैं किन्तु यह नहीं समझते कि वह कष्ट हम क्यों उठा रहे हैं। एक ही स्थान पर खड़े होने के लिए भी दौड़ते रहते हैं। हमें अपनी प्रवृत्ति में सहजता की आवश्यकता है। यह हमारे मन को स्वच्छ तथा जीवन को आसान बनाती है।

पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुवा, पंडित भया ना कोय;

ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय।

माला कहे काठ की, तू क्यों फेरे मोहे;

मन का मनका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं तो मैं नाहिं;

प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।

संयोजित धर्म को चुनौती

कबीर ने सदैव किसी भी प्रकार के संयोजित धर्म का त्याग किया था। वे इतने साहसी थे कि उन्होंने इस्लाम शासित क्षेत्रों में इस्लाम के विरुद्ध तथा हिंदुओं के अपने गढ़ वाराणसी में हिन्दू कुरीतियों के विरुद्ध अपने विचार व्यक्त किये तथा उनसे प्रश्न किये। कभी वे एक स्नेहमय पिता के समान आसान दृष्टांत द्वारा लोगों को समझाते थे तो कभी अपने प्रश्नों की मार द्वारा अंध-भक्तों को सही मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते थे। उन्होंने सदैव पंडितों, मौलवियों तथा स्वघोषित ज्ञानियों की आलोचना की थी। उनकी रचनाओं में उनके स्वर सदा अक्खड़ होते थे मानो वे प्रेक्षकों को चुनौती दे रहे हों कि वे आयें एवं उनके विचारों को अनुचित सिद्ध करें।

काशी काबा एक हैं, एक हैं राम रहीम;

मैदा इक पकवान बहुत बैठ कबीरा जीम।

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं;

धन का जो भूखा फिरै, सो तो साधू नाहिं।

पनि पियावे क्या फिरो, घर घर में है व्यारी;

तृष्णावंत तो होयेगा, आएगा झक मारी।

पत्थर पूजे हरी मिले, तो मैं पूजूं पहाड़;

इससे तो चाकी भली, पीस खाये संसार।

कंकर पत्थर जोड़ि के, मस्जिद लयी बनाय;

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।

कबीर बारंबार मानवी देह को घट अर्थात घड़ा कहकर संबोधित करते थे। इसकी हम अनेक स्तरों पर विवेचना कर सकते हैं। भौतिक रूप से यह माटी से निर्मित है तथा अंततः माटी में ही जाकर विलीन हो जाती है। लाक्षणिक रूप से यह एक रिक्त घट है तथा यह मनुष्य पर निर्भर है कि वह इस घट में क्या भरता है। मनुष्य क्या है यह इस तथ्य पर आधारित है कि हम इस घट रूपी देह में किसे समाते हैं। वे कहते हैं कि मानवी देह में ही सब कुछ समाया हुआ है, अच्छा, बुरा, कुरूप, यहाँ तक कि ईश्वर भी।

जोगी गोरख गोरख करें,

हिन्दू नाम उचारें;

मुसलमान कहें एक खुदाई,

कबीर को स्वामी घट घट बसई।

कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीड़;

जो पर पीड़ ना जाने, सो काफिर बेपीर।

चन्दा झलके यही घट माही..

कबीर एवं माया

कबीर सांसारिक माया को सभी बुराइयों की जड़ मानते हैं। उनके अनुसार माया वह डाकिनी है जो ऐसा मायाजाल बुनती है जिसमें मानव तो क्या, भगवान भी खो सकते हैं। वे कहते हैं कि यह संसार माया द्वारा निर्मित एक मायाजाल है तथा सत्य का अनुभव पाने के लिए हमें इसी मायाजाल की शिकंजे से मुक्त होना पड़ेगा। माया के साथ साथ वे यह भी कहते हैं, हमें यह भली-भांति समझना होगा कि हम में से प्रत्येक मनुष्य पूर्णतः अकेला है।

अवधू, माया तजी ना जाये..

उड़ जाएगा हंस अकेला.. 

मृत्यु और कबीर

अंत में, मृत्यु भी उनकी रचनाओं का एक अभिन्न अंग है। वे मृत्यु को अंत नहीं, अपितु मानव जीवन का एकमात्र सत्य मानते हैं। वस्तुतः, वाराणसी तो मृत्यु की नगरी मानी जाती है जहां मृत्यु का उत्सव मनाया जाता है। यही भाव कबीर की रचनाओं में भी प्रकट होता है। वे बारंबार मानवजीवन की क्षण-भंगुरता के विषय में कहते हैं जैसे उलटी मटकी पर जल। अतः मानव को अपने जीवन से मोह नहीं करना चाहिए। मृत्यु के परिप्रेक्ष्य में वे मानव प्रकृति के विषय में चर्चा करते हैं कि मनुष्य अनेक बार ऐसे निरर्थक कार्य करता है मानो वह अनंत काल तक जीवित रहने वाला हो। वे चाहते हैं कि हम यह स्मरण रखें, अंततः वह मृत्यु ही है जिसका हमें आलिंगन करना है, हमारी इच्छा हो या ना हो। मृत्यु को ध्यान में रखकर ही हमें जीवन यापन करना चाहिए।

माली आवत देख कर, कलियाँ कहे पुकार;

फुले फुले चुन लिए, काल हमारी बार।

साधो ये मुर्दों का गाँव..।    

आईए मेरे साथ, कबीर को ढूंढें – यह विचार एक ओर जितना आसान है, दूसरी ओर यह उतना ही गहन भी है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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रसिकप्रिया- कवि केशवदास कृत बुंदेली गीत गोविन्द https://inditales.com/hindi/rasikpriya-keshavdas-bundelkhand/ https://inditales.com/hindi/rasikpriya-keshavdas-bundelkhand/#comments Wed, 25 Mar 2020 02:30:07 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1867

गीत गोविन्द के नाम से परिचित न हो ऐसा कोई मनुष्य विरले ही होगा। बारहवीं शती में जयदेव कवि द्वारा रचित यह ग्रन्थ श्रृंगार रस स्वरुप का परिचायक है। एक एक अष्टपदी में जिस प्रकार जयदेव ने नायक नायिका स्वरुप में श्री राधा-कृष्ण का काव्य चित्रण किया है वैसा आपको उस काल में या उसके आगे आने […]

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गीत गोविन्द के नाम से परिचित न हो ऐसा कोई मनुष्य विरले ही होगा। बारहवीं शती में जयदेव कवि द्वारा रचित यह ग्रन्थ श्रृंगार रस स्वरुप का परिचायक है। एक एक अष्टपदी में जिस प्रकार जयदेव ने नायक नायिका स्वरुप में श्री राधा-कृष्ण का काव्य चित्रण किया है वैसा आपको उस काल में या उसके आगे आने वाली कई  शताब्दियों में सहज देखने को नहीं मिलता। परन्तु ऐसा ही एक काव्य ग्रन्थ सोलहवीं शती में एक कवि द्वारा बुंदेलखंड की धरती पर लिखा गया। बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति ने भारतीय सांस्कृतिक निर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया है। बुंदेली कला के साथ साथ यहां की काव्य  परम्परा भी उतनी ही अद्भुत रही है। बिहारी, मतिराम, पद्माकर आदि जैसे कवियों ने बुंदेली धरा को अपने काव्य धारा से ओतप्रोत रखा। उसी में से एक हुए थे कवि केशवदास ।

Kavi Keshavdas Bundelkhand
कवि केशवदास (स्रोत – अज्ञात )

केशवदास का जन्म ओरछा के एक सनाढ्य ब्राम्हण श्री काशीनाथ मिश्रा जी के घर सम्वत 1618 (ई 1555) में हुआ था। इनके पितामह, पिताजी और बड़े भाई स्वयं साहित्य सेवा में रत थे तथा समकालीन राजपरिवार द्वारा उनके परिवारी जनों का सम्मान होता रहा। इसी श्रेणी में केशवदास को ओरछा नरेश रामसिंह के दरबार में नवरत्न की उपाधि मिली। रामसिंह के छोटे भाई ने तो केशव को अपना गुरु मान 22 गाँव भेट स्वरुप प्रदान कर दिए थे।

गीत गोविन्द में राधा और कृष्ण को नायक नायिका रूप देकर जहां जयदेव अभिनव कवि कहलाये वही मैथिलि में लिखते हुए विद्यापति ने सौंदर्य चित्रण एवं रसनिरूपण द्वारा इस रस को आगे बढ़ाया। सूरदास ने बाल रूप का चित्रण किया है उसके पार तो अभी तक कोई कवि पहुँच ही नहीं पाया है। परन्तु श्री राधा एवं कृष्ण आंतरिक सूक्ष्म मनोभावों को जिस तरह से केशवदास ने अपने ग्रन्थ रसिकप्रिया में परिणित किया है वैसा और कही देखने को नहीं मिलता।

पहाड़ी शैली में राधा कृष्ण
पहाड़ी शैली में राधा कृष्ण (स्रोत्र – काँगड़ा आर्ट्स)

रसिकप्रिया ग्रन्थ का प्रणयन राजा इंद्रजीत से सम्वत 1648  शुक्ल सप्तमी, सोमवार के दिन हुआ था। इस ग्रन्थ में सोलह प्रभाव/ अध्याय है। रसिकप्रिया में  कवि केशव ने राधा कृष्ण द्वारा  श्रृंगार रस का अत्यंत सूक्ष्मता से शब्द चित्र प्रस्तुत किया है। प्रथम अध्याय में राजधानी ओरछा, राजवंश तथा इस ग्रन्थ को लिखने का कारण दिया गया है। दूसरे में नायक का सविस्तार वर्णन, तीसरे में नायिका का सविस्तार वर्णन, चौथे में विभिन्न रूप से नायक-नायिका के मिलन का वर्णन, पांचवे में नायिका किस-किस प्रकार से नायक से मिलने का प्रयास करती है उसका वर्णन, छठे में विभिन्न श्रृंगार भाव निरूपण,सातवें में नायिकाओं के विभिन्न प्रकार का वर्णन, आठवें में दस विरह अवस्थाओं का वर्णन, नौंवे में नायक की मानलीला का वर्णन, दसवे में नायक द्वारा नायिका को मानाने के लिए किये गए उपायों का वर्णन, ग्यारवे में वियोग का वर्णन, बारवे में विभिन्न प्रकार की सखियों का वर्णन, तेरहवें में सखियों द्वारा नायक-नायिका का मिलन कराने के उपाय का वर्णन, चौदहवें और पन्द्रहवें में विविध रसो में नायक-नायिका का निरूपण हुआ है तथा अंतिम अध्याय में अनरस का वर्णन किया गया है।

रसिकप्रिया में उल्लेखित कुछ भाव इस प्रकार है :-

प्रथम मिलन

राधा-कृष्ण कुञ्ज में, कांगड़ा शैली
राधा-कृष्ण कुञ्ज में, कांगड़ा शैली, ई 1780 (स्रोत – वी एन्ड अ म्यूजियम, लन्दन )

हसत खेलत खेल मंद भई चंददुति,
कहत कहानी और बुझत पहेली जाल।
केसोदास नींदबस अपने अपने घर,
हरें हरें उठि गए बालिका सकल बाल।
घोरि उठे गगन सघन घन चंहु दिसि,
उठि चले कान्ह धाईं बोलि उठी तिन्ही काल।
आधी रात अधिक अँध्यारे माँझ जै हो कहाँ,
राधिका की आधी सेज सोई रहौ प्यारे लाल।

केशवदास कहते है कि ‘हँसते हँसते तथा कहानी पहेली बुझाते बुझाते अँधेरा हो गया है। मेघो के उमड़ने से चन्द्रमा की कांति फीकी पड़ गई है। नींद के कारण ग्वाल और गोपी भी अपने-अपने घर चले गए है। उधर आकाश में घनघोर घटा गरजते ही कृष्ण उठकर चलने लगे। उसी समय कृष्ण की सखी ने कहा कि अर्धरात्रि में इस अंधकार में आप कहां जा पाओगे? अतः आज आप राधिका जी के संग उनकी आधी शैय्या पर ही शयन कर लो।”

राधा कृष्ण का रमण

राधा कृष्ण रमण करते हुए , कांगड़ा शैली, ई 1820
राधा कृष्ण रमण करते हुए , कांगड़ा शैली, ई 1820 (स्रोत – वी एन्ड अ म्यूजियम, लन्दन )

घननि की घोर सुनि, मोरनि को सोर सुनि,
सुनि सुनि केसव अलाप अलीजन को।
दामिनी दमक देखि देह की दिपति देखि,
देखि सुभ सेज देखि सदन सुबन को।
कुंकुम की बास घनसार की सुबास भयो,
फुलनि की बास मन फूलिकै मिलन को।
हँसि हँसि बोले दोउ अनहि मनाएँ मान,
छूटी गयो एकै बार राधिका रमन को।

केशवदास कहते है कि ” घनघोर घटा और बिजली की गड़गड़ाहट के साथ मंद-मंद हल्के झोकें, मयूर की कूक तथा सखियों के गान ने राधा को इतना आनन्दोन्मत्त कर दिया है कि वह बिन मनाये ही केसर कपूर से सुगन्धित शैय्या पर श्री कृष्ण से रमण हेतु जा पहुंची है।

श्रावण मास वर्णन

राधा-कृष्ण वर्षा ऋतु का आनंद लेते हुए, कांगड़ा शैली,
राधा-कृष्ण वर्षा ऋतु का आनंद लेते हुए, कांगड़ा शैली, (स्रोत – वी एन्ड अ म्यूजियम, लन्दन )

केसव सरिता सकल मिलत सागर मन मोहै।
ललिता लता लपटाति तरुन तन तरुबर सोहै।।
रूचि चपला मिलि मेघ चपल चमकत चंहु औरन।
मन भावन कँह भेंट भूमि कूजत मिसि मोरन।।
इहि गमन की को कहै गमन न सुनियत सावनै।।

केशव कवि कहते है कि श्रावण मास में वर्षा से नदियों में बाढ़ आने से समुद्र में मिलते दृश्य को देख कितना सुखद आनंद होता है। छोटे छोटे जीव जंतु वर्षा से प्रसन्न हो वृक्षों पर विहार कर रहे है। बिजली कड़क कर बादलो से झांकती प्रतीत होती है। मयूर वर्षा से प्रसन्न हो धरती और आकाश के मिलान की मधुर स्वर से पुकार कर रहे है। इसी प्रकार प्रेमी-प्रेमिका के मिलन का यह मास कब किसे घर से बाहर जाने को कहेगा?

रसिकप्रिया के अतिरिक्त कवि केशवदास जी ने अन्य अनेक रचनाएँ और भी की है। कविप्रिया, रामचंद्रिका, रतन बावनी, जहांगीर जस चन्द्रिका, वीरसिंह देव चरित, विज्ञान गीता, नख शिख वर्णन इत्यादि उनकी प्रमुख रचनाओं में सम्मिलित है। उनके बढ़ते वैभव को देख स्वयं मुग़ल शासक अकबर ने उनको आगरा में अपने दरबार में बुलाया था। दरबार में उनके काव्य कौशल को देख वह आश्चर्य चकित हो गए थे।उसके बाद मुग़ल दरबार में बढ़ी लोकप्रियता के कारण रसिकप्रिया पर चित्र निर्माण करने के लिए विभिन्न हिन्दू राजाओं ने अपने चित्रकारों को प्रेरित किया। साथ ही ईस्वी 1634 तक रसिकप्रिया मालवा के चित्रकारों के लिए एक महत्वपूर्ण विषय बन गया। मेवाड़ राज्य में राणा जगतसिंह प्रथम (ई 1628-1652) में उनके राज्य में आश्रित चित्रकार साहिबिददीन ने रसिकप्रिया का चित्रण किया। साथ ही बीकानेर राज्य में महाराजा अनूपसिंह ई (1669-1698) के राज्य में आश्रितस चित्रकारों ने रसिकप्रिया का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया।

रसिकप्रिया का आधार वात्सायन का कामसूत्र तथा रूद्रभट्ट का श्रृंगार तिलक है। केशवदास ने नवरस के माध्यम से कृष्ण को केंद्र कर रसिको को मुग्ध कर दिया है। वो लिखते है की रसिको के लिए रसिकप्रिया बनी है। अतः आशा है रसिकजन इस छोटे से लेख को पढ़ने के बाद रसिकप्रिया का आनंद स्वयं ले।

आप रसिकप्रिया की प्रति यहाँ से निशुल्क प्राप्त कर सकते हैं – Keshav Granthavali 

यह है हमारी यात्रा काव्य श्रंखला में एक अतिथि लेख है जिसे श्री सुशांत भारती जी ने भेजा है।


सुशांत भारती योजना तथा वास्तुकला विद्यालय, नई दिल्ली से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त संरक्षण स्थापति है। उन्होंने अपनी स्नातक उपाधि वास्तुकला अकादमी कॉलेज ऑफ़ आर्किटेक्टर, नयी दिल्ली से की है। भारतीय परिपेक्ष्य में कला एवं संस्कृति को समझने एवं अध्ययन हेतु उनकी विशेष रूचि रही है। ब्रजस्थ परम्परा के अंतर्गत मूर्त एवं अमूर्त संस्कृति तथा मंदिर स्थापत्य उनके शोध के मुख्य विषय है। वर्तमान में वह राष्ट्रिय संग्रहालय संस्थान, नई दिल्ली में शोध सहायक के रूप में कार्यरत है।


 

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