भारत के लघु उद्योग Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Thu, 24 Feb 2022 07:56:32 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार – एक परिचय https://inditales.com/hindi/bhartiya-resham-ke-prakar-parichay/ https://inditales.com/hindi/bhartiya-resham-ke-prakar-parichay/#respond Wed, 09 Feb 2022 02:30:46 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2581

भारत में रेशम को वैभव एवं समृद्धि के प्रमुख मापदंडों में से एक माना जाता है। पारिवारिक शुभ अवसरों एवं समारोहों में रेशमी वस्त्रों का प्रयोग आनंद को द्विगुणीत कर देता है। दमकते रेशमी वस्त्र धारणकर्ता को सुरुचिपूर्ण आभा प्रदान करता है जो अत्यंत राजसी प्रतीत होता है। हमारे विवाह समारोहों का तो क्या कहना! […]

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भारत में रेशम को वैभव एवं समृद्धि के प्रमुख मापदंडों में से एक माना जाता है। पारिवारिक शुभ अवसरों एवं समारोहों में रेशमी वस्त्रों का प्रयोग आनंद को द्विगुणीत कर देता है। दमकते रेशमी वस्त्र धारणकर्ता को सुरुचिपूर्ण आभा प्रदान करता है जो अत्यंत राजसी प्रतीत होता है। हमारे विवाह समारोहों का तो क्या कहना! वर-वधु एवं परिवारजन, यहाँ तक कि अतिथिगण भी विभिन्न प्रकार एवं रंगों के रेशमी वस्त्रों को धारण कर मानो प्रदर्शनी ही लगाते हैं। अन्य समारोहों में भी रेशम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यहाँ तक कि देवालयों में भगवान के विग्रह को रेशमी वस्त्रों में सजाने व रेशमी वस्त्र अर्पण करने की प्रथा भी अनेक छोटे-बड़े मंदिरों में देखी जा सकती है। यही कारण है कि भारत रेशमी वस्त्रों का बड़ा उत्पादक भी है तथा सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है। हमारे देश में रेशमी वस्त्रों का ७५% से भी अधिक उपभोग रेशमी साड़ियों के रूप में होता है। अतः रेशम उत्पादकों ने भारतीय स्त्रियों को उनके रेशम प्रेम एवं लालसा के लिए धन्यवाद देना चाहिए।

सुनहरी बुनाई वाली रेशमी साड़ियाँ
सुनहरी बुनाई वाली रेशमी साड़ियाँ

यद्यपि आकांक्षा की दृष्टि से रेशम का उच्च स्थान है, तथापि कुल कपड़ा उत्पादन में रेशम उद्योग का योगदान लघु है। उस पर, रेशम का प्रकार उसके उत्पादन क्षेत्र से प्रगाढ़ रूप से जुड़ा होता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के रेशमी वस्त्रों की विशेषताएं भिन्न हैं। उनमें रेशम के कीट, रेशम की बुनाई, छपाई व कढ़ाई की रूपरेखा, कढ़ाई के प्रकार इत्यादि अनेक विविधताये होती हैं। रेशम को सामान्यतः उनके उत्पादन क्षेत्र से जोड़कर देखा जाता है, जैसे बनारसी, कांचीपुरम अथवा कांजीवरम, धर्मावरम, पैठणी इत्यादि। ये सब भौगोलिक संकेत हैं। भारत के अधिकतर रेशम उत्पादों को ये भौगोलिक संकेत का प्रतीक प्राप्त है। किन्तु इस विषय में चर्चा किसी अन्य संस्करण में करेंगे। यहाँ मैं आपसे भारत में उपलब्ध रेशम के विभिन्न प्रकारों के विषय में चर्चा कर रही हूँ। भारत में रेशम के कौन कौन से प्रकार हैं, उनका उत्पादन कहाँ कहाँ होता है, उनके किस प्रकार के रेशम-कीट होते हैं इत्यादि।

रेशम क्या है?

रेशम एवं सूती, दोनों ही प्राकृतिक वस्त्र हैं जो प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। सूती वस्त्रों के लिए सूत कपास के झाड़ से प्राप्त होता है, वहीं रेशमी वस्त्रों के लिए रेशम के धागे रेशम कीट से प्राप्त होते हैं। आईये देखते हैं रेशम कीट हमें ये चमकते रेशमी वस्त्र कैसे देते हैं।

रेशम का धागा बुनते कीट
रेशम का धागा बुनते कीट

तकनीकी रूप से देखा जाए तो रेशम के तंतु एक प्रकार के प्रोटीन से बनते हैं जिसे  रेशम के कीट अपने जीवन चक्र की इल्ली अवस्था में द्रव रूप में स्त्रावित कर करते हैं। स्त्रवित होते ही यह प्रोटीन महीन, अत्यंत सुदृढ़ एवं अखंड तंतु का रूप ले लेते हैं। इसी तंतु का प्रयोग कर रेशमी वस्त्र तैयार किये जाते हैं। रेशम के विभिन्न प्रकार इस पर निर्भर करते हैं कि उन कीटों का भोजन क्या है। रेशम के कीटों का भोजन सामान्यतः विभिन्न प्रकार के पौधे एवं पत्ते हैं।

चूँकि रेशम का स्त्रोत प्राणी प्रोटीन है, रेशम एक प्राकृतिक प्रतिरोधक है जो हमें ग्रीष्म ऋतु में शीतलता प्रदान करती है तथा शीत ऋतु में उष्मा।

रेशम कीट का जीवन चक्र

रेशम कीट का ठेठ जीवन चक्र अण्डों से सूंडी अथवा इल्ली, इल्ली से  प्यूपा तथा प्यूपा से पतंगाकीट होता है। अण्डों से निकलते ही इल्लियाँ द्रुत गति से पत्तियों का भक्षण कर कुछ दिनों में बड़ा आकार प्राप्त कर लेती हैं। इल्ली परिपक्व होते ही अपनी लार ग्रंथियों से एक प्रकार के द्रव का स्त्राव करती है जिसके द्वारा वह अपने चारों ओर संरक्षण प्यूपा कोष अथवा कोकून बनाती है। इस कोष के भीतर विकसित होकर अंततः वह एक वयस्क कीट में परिवर्तित होता है तथा उस कोष को खोल बाहर निकल जाता है।

रेशम कीट का जीवन चक्र
रेशम कीट का जीवन चक्र

एक मादा रेशम कीट बसंत ऋतु के आसपास एक समय में ३००-५०० अंडे देती है। यह एक वार्षिक गतिविधि है। अंडे सूक्ष्म, चपटे, गोलाकर तथा हलके पीले रंग के होते हैं जो एक तरल पदार्थ द्वारा पत्तियों से चिपक जाते हैं। योग्य ऊष्मा पाकर इन अण्डों में से इल्लियाँ निकलती हैं जो पत्तियों का भोजन करती हैं। लगभग एक मास तक पत्तियों की बड़ी मात्रा खाकर ये इल्लियाँ कुछ दिनों में परिपक्व हो जाती हैं।

परिपक्व इल्ली अपने चारों ओर कोष बुनना आरम्भ करती है जिसके लिए वह अपने शरीर से निकलते प्रोटीन का प्रयोग करती है तथा शीघ्रता से शरीर को घुमाती है। वास्तव में, अपने जीवन चक्र के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर रेशम कीट अपनी स्वयं की सुरक्षा के लिए कोष का निर्माण करती है। पूर्ण रूप से निर्मित कोष एक मुलायम कोमल कपास के गोले के समान दिखाई देता है। यह सम्पूर्ण गोला एक लंबे अखंड धागे द्वारा बुना हुआ होता है। इस अथक परिश्रम के पश्चात इल्ली कोष के भीतर कई दिवसों तक अविचल पड़ी रहती है। इसे प्यूपा चरण कहते हैं। कुछ दिनों पश्चात इस कोष से परिपक्व कीट बाहर आता है तथा अपनी प्रजाति का विकास करता है। किन्तु रेशम उत्पादक इस प्यूपा चरण में कोष को उबलते पानी में डालकर उसमें से रेशम के धागे निकालते हैं।

शहतूत के पत्ते खाते कीट
शहतूत के पत्ते खाते कीट

कोष के निकला तंतु उसी रूप में उपयोगी नहीं होता है। उपयोगी रूप में पहुँचने से पूर्व उस पर अनेक क्रियाएं की जाती हैं। उसे जल में उबालकर धागों को चिपचिपे गोंद से प्रथक किया जाता है। एक कोष से एक धागा निकलता है जो सैकड़ों मीटर लम्बा होता है तथा सेरिसिन नामक एक प्राकृतिक गोंद से जुड़ा हुआ होता है।

रेशम की खेती अथवा रेशम कोष उत्पादन को सेरीकल्चर अथवा रेशम कीट पालन कहते हैं। रेशम कीट पालन करने वाले रेशम उत्पादकों की सबसे बड़ी चुनौती इन रेशम कीटों को बीमारी तथा संक्रमण से मुक्त रखना होता है। अन्यथा उनकी उत्पादन क्षमता एवं गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।

रेशम के प्राकृतिक रंग

रेशम के तंतुओं का प्राकृतिक रंग उन पत्तियों के रंग पर निर्भर करता है जिन्हें वे इल्ली चरण में खाते हैं। जी हाँ, कोष में जाने से पूर्व कीटों की इल्लियाँ जो खाती हैं, रेशम का रंग उसी पर निर्धारित होता है। ‘आप जो खायेंगे, वही पायेंगे’, ये कीट इस कहावत का उत्तम उदहारण हैं। यद्यपि रेशम के प्राकृतिक रंग चटक एवं विविध नहीं होते हैं, तथापि उनके प्राकृतिक रंग धूमिल श्वेत से लेकर हलके भूरे रंग के मध्य होते हैं। प्राकृतिक रंगों के इन तंतुओं को धोया जाता है, स्वच्छ किया जाता है, प्रक्षालित कर फीका किया जाता है, तत्पश्चात उन्हें आवश्यकतानुसार विविध रंगों में रंगा जाता है।

प्राचीन काल में पारंपरिक रूप से प्राकृतिक वनस्पति स्त्रोतों से प्राप्त रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे पुष्प, लकड़ी, बीज, रसीले फल, तने की छाल, जड़ें आदि। नीला रंग नील के पौधों की पत्तियों से प्राप्त होता था। मंजिष्ठा के रसीले फलों से लाल रंग के विविध रूप प्राप्त होते थे। पीला रंग हल्दी, गेंदे के पुष्प, गौमूत्र इत्यादि से मिलते थे तो केसर से नारंगी के विविध रूप प्राप्त किये जाते थे। नीले एवं पीले रंगों के सम्मिश्रण से हरा रंग उत्पन्न किया जाता था। यद्यपि प्राकृतिक रंगों की विविधता सीमित होती हैं, तथापि प्राकृतिक स्त्रोतों से प्राप्त होने के कारण वे हमारे त्वचा के लिए हानिकारक नहीं होते हैं, ना ही वे पर्यावरण के लिए क्षतिकारक होते हैं। रासायनिक रंगों के आने से रंगों की विविधता में कई गुना वृद्धि हुई है किन्तु इसके विपरीत परिणाम भी होते हैं। रासायनिक रंगों के आने से रंगाई का कार्य आसान हो गया है तथा विविध रंगों की उत्पत्ति भी संभव हो गयी है क्योंकि रासायनिक रंगों का सम्मिश्रण आसान है।

बंगलुरु के येल्हंका में बुनकर
बंगलुरु के येल्हंका में बुनकर

रंगे हुए धागों को पारंपरिक तथा आधुनिक दोनों तकनीकों से कात कर लच्छे बनाए जाते हैं। तत्पश्चात विभिन्न बुनाई तकनीकों के प्रयोग से वस्त्र बुने जाते हैं। रेशम के धागों के जादू से विश्व प्रसिद्ध रेशमी वस्त्र तैयार किये जाते हैं।

और पढ़ें: भारत की रेशमी साड़ियाँ – कला एवं धरोहर का अद्भुत संगम

भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार

रेशम के प्रकार दो कारकों पर निर्भर करते हैं, रेशम कीटों की प्रजाति एवं कोष बुनने से पूर्व उनके द्वारा खाए गए पत्तों का प्रकार। मोटे तौर पर उन्हें दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, मलबेरी रेशम तथा अन्य।

मलबरी रेशम

मलबरी रेशम एक सर्व-सामान्य रेशम का प्रकार है जो वैश्विक रेशम उत्पादन का लगभग ९०% है। भारत विश्व में मलबरी रेशम का दूसरा विशालतम उत्पादक है। यह बॉम्बिक्स मोरी नामक कीटों द्वारा निर्मित किया जाता है जो मलबरी अर्थात् शहतूत के पत्ते खाते हैं।

इस रेशम में एक प्राकृतिक चमक, चिकनापन व कोमलता होती है जो रेशमी वस्त्रों एवं साड़ियों की विशेषता होती है। इन कीटों के पालन के लिए शहतूत अथवा मलबरी की खेती की जाती है जिसमें बड़ी मात्रा में पत्तियाँ उपलब्ध होती हैं। इस तकनीक को मोरीकल्चर कहते हैं। एक इल्ली अपने जीवनकाल में ५०० ग्राम तक पत्तियाँ खा जाती है। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि ये इल्लियाँ कितनी पत्तियाँ खाती है, तो यह भी स्मरण रखें कि वे जो रेशम का उत्पादन करती हैं, वे भी सौ से अधिक वर्ष तक अक्षय रहती हैं।

मलबरी रेशम अत्यंत हल्की, कोमल एवं सशक्त होती है तथा उस पर एक प्राकृतिक चमक होती है।

वन्य रेशम – रेशम का एक वनीय प्रकार

भारत में मलबरी रेशम के अतिरिक्त जो रेशम है, उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है, टसर, मुगा तथा एरी। इन तीनों को वन्य रेशम कहा जाता है क्योंकि इसका सम्बन्ध वनों से है। यहाँ रेशम के कीट वन्य वृक्षों एवं पौधों पर जीवित रहते हैं। इसी कारण उनसे प्राप्त रेशम के रंग एवं गठन भिन्न होते हैं। इनकी बुनाई एवं गठन समरूप नहीं होते हैं जो रेशम वस्त्रों को एक भिन्न श्रेणी में ले आते हैं तथा अत्यंत असाधारण रूप प्रदान करते हैं। इसी कारण ये अत्यंत आकर्षक दिखते हैं। इस प्रकार के रेशम का उत्पादन मध्य एवं पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी जनजाति के लोग करते हैं। वे जंगली कोकूनों को वनों से एकत्र करते हैं तथा हथकरघे द्वारा उनसे रेशम का उत्पादन करते हैं।

वन्य रेशम के विभिन्न प्रकार
वन्य रेशम के विभिन्न प्रकार

टसर रेशम

यह रेशम मध्य भारत के टसर क्षेत्रों में उत्पादित किये जाते हैं। उनमें झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल तथा बिहार प्रमुख हैं। वन्य श्रेणी के रेशम में टसर रेशम का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। रेशम बुनकरों का यह सर्वाधिक प्रिय रेशम है। जीनस एंथेरिया नामक कीट वनों के पौधों तथा वृक्षों की पत्तियाँ खाते हैं तथा अपने कोष पर इस प्रकार के रेशम के धागे बुनते हैं।

एरी रेशम

एरी रेशम का उत्पादन सामिया रिसिनी तथा फिलोसामिया रिसिन प्रजातियों के कीटों द्वारा किया जाता है। एरी शब्द की व्युत्पत्ति एरा शब्द से हुई है। यह असमी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ अरण्डी होता है। इस रेशम का सम्बन्ध अरंडी के पौधे से है। इन प्रजातियों के कीट अरंडी के पत्ते खाते हैं तथा खुले कोष बनाते हैं। ये कीट असमान एवं अनियमित कोष बुनते हैं। इन कोकूनों को कीटों के उड़ जाने के पश्चात प्रयोग में लिया जाता है। इसीलिए इस प्रकार के रेशम को प्राकृतिक अहिंसा रेशम कहा जाता है। इसे एरंड अथवा अरण्डी रेशम भी कहा जाता है। एरी रेशम ऊबदार होता है तथा शीत ऋतु के लिए सर्वोत्तम वस्त्र होता है।

टसर के कीट
टसर के कीट

मुगा रेशम

यह रेशम अर्ध-पालतू multivoltine silkworm अर्थात् जो वर्ष में एक से अधिक बार प्रजनन करती है, द्वारा बुना जाता है जिसका नाम है, एन्थेरे आसामेंसिस (Antheraea assamensis)। ये कीट असम के सुगंधी सोम एवं सुआलू की पत्तियाँ खाते हैं। इस रेशम का रंग पीला-हरा होता है तथा चादोर एवं मेखला बुनने के लिए प्रथम चुनाव है। इस रेशम का उल्लेख रामायण जैसे अनेक प्राचीन ग्रंथो एवं महाकाव्यों में किया गया है। इस रेशम उद्योग को इस क्षेत्र के अहोम साम्राज्य से संरक्षण प्रदान किया था।

वन्य रेशम के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए केंद्रीय रेशम बोर्ड के वेबस्थल पर संपर्क करें।

अहिंसा रेशम

अहिंसा रेशम वह प्रकार है जिसमें इल्ली अथवा कीट को हानि नहीं पहुंचाई जाती है। इसमें कोष को जल में उबाला नहीं जाता है। इसके विपरीत, कोष में बंद इल्ली को परिपक्व होने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता है जिससे वह वयस्क कीट के रूप में बाहर आ जाता है। किन्तु वह कीट कोष को तोड़कर बाहर आता है जिससे एक एकल रेशम का लम्बा तंतु अनेक भागों में विभक्त हो जाता है। तदनंतर इन्हें करघे में कातकर लम्बा धागा तैयार किया जाता है। अतिरिक्त कार्य होने के कारण इस रेशम के मूल्य में भी वृद्धि हो जाती है। अंतिम उत्पाद वही होता है किन्तु इसमें कीट को परिपक्व होकर उड़ने दिया जाता है। इसीलिए इसे अहिंसा रेशम कहा जाता है।

भारत में रेशम का उत्पादन कहाँ होता है?

विश्व में रेशम की ९५% से भी अधिक मात्रा का उत्पादन एशिया में होता है। उसका अधिकतम भाग चीन एवं भारत में बनाया जाता है। वर्ष २०२०-२१ में भारत ने ३३७७१ मीट्रिक टन रेशम के धागों का उत्पादन किया था। इसमें दक्षिण एवं उत्तर-पूर्वी भारत का सर्वाधिक योगदान था। भारत में कर्णाटक, आन्ध्र प्रदेश, झारखंड तथा आसाम इस दौड़ में सबसे आगे हैं।

महेश्वर के बुनकर
महेश्वर के बुनकर

विभिन्न प्रकार के रेशम उत्पादन के लिए भारत को कुल पांच रेशम विभागों में बाँटा जा सकता है जिनमें निम्न राज्य सम्मिलित हैं:

  • कर्णाटक, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडू, महाराष्ट्र, तेलंगाना, केरल – ६०%
  • उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात
  • झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार – १०%
  • जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा
  • आसाम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, अरुणांचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम – २२%

रेशम के प्रमुख प्रकार एक क्षेत्र में केन्द्रित होते हैं जिनकी अपनी बुनाई तकनीक, रंग एवं आकृतियाँ होती हैं। जैसे, बनारस के तन्छोई एवं जम्दानी, दक्खन का पैठणी, बंगाल का बालुचरी इत्यादि।

रेशम की खेती

रेशम की खेती एवं उत्पादन भारत का प्रमुख लघु उद्योग एवं कुटीर उद्योग है जिसमें २५ राज्यों के ५९,००० गाँवों के ७० लाख से भी अधिक कारीगर कार्यरत हैं। उनमें से ६०% से अधिक कारीगर स्त्रियाँ हैं। औद्योगीकरण एवं आधुनिकरण की लहर के मध्य भी यह उद्योग अनवरत व अखंडित है। भारत जिस आत्मनिर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की ओर अग्रसर है, यह उद्योग उसका अग्रदूत सिद्ध होगा। साथ ही, रेशम की सांस्कृतिक एवं पारंपरिक महत्ता उपभोक्ताओं द्वारा इसकी नियमित माँग को भी सुनिश्चित करती रहेगी। हमारे रेशम के किसान, बुनकर तथा फैशन डिज़ाइनर यह सुनिश्चित करते हैं कि वे अपने हाथों से रचे व बुने रेशमी उत्पादों से उपभोक्ताओं की माँगों को पूर्ण करने में कोई कमी नहीं रहने देंगे।

वर्तमान में हमारी खपत हमारी उत्पादन क्षमता से कहीं अधिक है। इस कारण हमें रेशम का आयात करना पड़ता है। इसका यह अर्थ है कि भारत में नव-युगीन उद्यमियों के लिए असीमित संभावनाएं उपलब्ध हैं कि वे रेशम के कच्चे माल का उत्पादन बढ़ाएं, रेशम के नवीन उपयोगों की खोज करें तथा उन्हें विकसित करें, हमारी पुरातन संस्कृति एवं परम्पराओं को भविष्य की जीवन शैली से जोड़ने के विभिन्न साधन ढूंढें।


रेशम उत्पादन एवं उसके प्रकार पर प्रकाशित यह संस्करण भारत के सिल्क मार्क ऑर्गेनाइजेशन के सहयोग से लिखा गया है।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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फिरोजाबाद – रंगबिरंगी कांच की चूड़ियों की सुहाग नगरी https://inditales.com/hindi/firozabad-kaanch-ki-choodiyan/ https://inditales.com/hindi/firozabad-kaanch-ki-choodiyan/#respond Wed, 18 Sep 2019 02:30:20 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1510

फिरोजाबाद, इस नगरी के नाम का स्मरण सदैव से मेरे कानों में कांच की चूड़ियों की खनक उत्पन्न करता रहा है। सम्पूर्ण भारत में मैं किसी भी मेले अथवा बाजार में रंगबिरंगी चमचमाती कांच की चूड़ियों के भण्डार देखती, तब फिरोजाबाद जाकर वहां इन चूड़ियों को बनते देखने की इच्छा तीव्र हो जाती। अतः, इस […]

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फिरोजाबाद, इस नगरी के नाम का स्मरण सदैव से मेरे कानों में कांच की चूड़ियों की खनक उत्पन्न करता रहा है। सम्पूर्ण भारत में मैं किसी भी मेले अथवा बाजार में रंगबिरंगी चमचमाती कांच की चूड़ियों के भण्डार देखती, तब फिरोजाबाद जाकर वहां इन चूड़ियों को बनते देखने की इच्छा तीव्र हो जाती। अतः, इस समय जब मैं मथुरा वृन्दावन में होली देखने गयी, मैंने फिरोजाबाद होते हुए वहां जाने का निश्चय किया।

firozabad banglesमार्ग में आगरा नगरी के मध्य से जाते हुए मुझे ताज महल की भी एक झलक प्राप्त हुई। मष्तिष्क में पिछली आगरा यात्राओं की स्मृतियाँ उभरने लगीं। ताजमहल मुझे पुनः आकर्षित करने का प्रयास करने लगा किन्तु कानों में सतत गूँजती कांच की चूड़ियों की खनक ने मुझे मेरे मार्ग से भटकने नहीं दिया।

फिरोजाबाद प्रवेश करते ही मुझे एक सुन्दर जैन मंदिर दिखाई दिया। यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था। इस मंदिर के विषय में आपको अवश्य अवगत कराऊँगी, किन्तु जैसा की मैंने पहले कहा, सर्वप्रथम चूड़ियों के सन्दर्भ में चर्चा करना चाहती हूँ।

फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग

कांच की वस्तुओं का निर्माण

कांच का जग बनता हुआ
कांच का जग बनता हुआ

फिरोजाबाद में हमारा प्रथम पड़ाव था लेज़र कांच का कारखाना जहां विभिन्न प्रकार के कांच निर्मित किये जा रहे थे। उनसे कई कांच की वस्तुएं जैसे प्याले, कलश, बोतलें, यहाँ तक कि गाड़ियों के हेडलाइट बनाए जा रहे थे। ना जाने क्यों, मुझे ऐसा आभास था कि फिरोजाबाद में कांच से केवल चूड़ियाँ ही निर्मित की जाती हैं। मैं सही नहीं थी। फिरोजाबाद में कई प्रकार के कांच एवं कांच की वस्तुएँ निर्मित की जाती हैं।

इस कांच उत्पादन इकाई के स्वामी श्री सुबोध जैन ने मुझे कांच की सामान्य वस्तुओं के निर्माण की सभी प्रक्रियाएं विस्तार पूर्वक समझाई। सम्पूर्ण प्रक्रिया में हाथों द्वारा ढलाई तथा सांचे का प्रयोग कर स्वचालित प्रक्रिया दोनों सम्मिलित है। कोलाहल भरे कारखाने में मैंने देखा, किस प्रकार रेत एवं पुनर्चक्रित कांच के ढेर कुछ ही घंटों में सुन्दर एवं उपयोगी वस्तुओं का रूप ले रहे थे।

मैंने कारीगर को निपुणता से पिघले कांच को कलश की मूठ में परिवर्तित करते देखा। एक कारीगर नवनिर्मित कांच के अवांछित भागों को सटीकता से काटकर उसे निर्बाध रूप प्रदान कर रहा था। एक बड़े कक्ष के भीतर, एक धीमी गति की वाहक पट्टी सर्व उत्पादों को, कक्ष के एक ओर स्थित, उत्पादन के प्रथम चरण से, कक्ष के दूसरी ओर स्थित, अंतिम चरण तक ले जा रही थी।

कांच को ढालने के लिए सांचे
कांच को ढालने के लिए सांचे

कक्ष के अंतिम छोर पर एक यांत्रिक सांचा निर्मिती इकाई सांचे बनाने में व्यस्त थी। यहाँ से कुछ ही दूरी पर स्वच्छ बक्सों में तैयार माल भर कर रखे हुए थे। अपने जीवन में कांच के बने कितने ही प्याले, गिलास, बोतल इत्यादि का प्रयोग किया किन्तु यह प्रथम अवसर था जब उन्हें अपना रूप ग्रहण करते प्रत्यक्ष देखा।

इनके साथ साथ यहाँ कांच के झूमर, हर प्रकार की बोतलें तथा कांच की कलाकृतियों का भी निर्माण किया जाता है।

कांच के कारखाने की इस छोटी सी यात्रा से मुझे कांच निर्माण की बारीकियों के सन्दर्भ में अनमोल अनुभव प्राप्त हुआ।
यहाँ से आगे हम अगले द्वार की ओर गए जहां कांच की चूड़ियाँ बनती हैं।

विडियो: फिरोजाबाद के कांच कारखाने में एक दिन

कांच उत्पादन की एक झलक देखें।

कांच की चूड़ियों का निर्माण

यहाँ पहुंचते ही हमारा स्वागत किया चमकीले लाल रंग की चूड़ियों के अम्बार ने। आसपास के नीरस वातावरण को यह चमकीला लाल रंग अनोखी आभा प्रदान कर रहा था। कक्ष के भीतर चूड़ियों के लम्बे बण्डल को काटकर एक एक चूड़ी बनायी जा रही थी। वस्तुतः मैं इस चूड़ी निर्माण प्रक्रिया के अंतिम चरण को निहार रही थी।

फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग
फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग

इंडिया इलेक्ट्रिक ग्लास वर्क्स, इस चूड़ी निर्माण इकाई के युवा मालिक निखिल बंसल ने हमारा स्वागत किया। हम यहाँ बिना पूर्व सूचना दिए ही आ गए थे। फिर भी निखिल ने अपने कारखाने में चूड़ी बनाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया दिखाने के लिए अपना महत्वपूर्ण समय हमें प्रदान किया। छोटे नगरों की यही विशेषता है। लोग अतिथियों एवं उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण प्राथमिकता देते हुए अपने कार्य को समायोजित कर लेते हैं। वह भी मेरे जैसा अपरिचित अतिथि जिसने पूर्व सूचना भी नहीं दी थी।

फिरोजाबाद के कुछ रोचक तथ्य

• कांच की चूड़ियों के उद्योग के कारण फिरोजाबाद को सुहाग नगरी भी कहा जाता है।
• फिरोजाबाद कांच उद्योग में २४ चूड़ियों को एक दर्जन माना जाता है, अर्थात एक दर्जन चूड़ियाँ प्रत्येक हाथ में! थोक बाजार में भी चूड़ियों की गिनती इसी प्रकार की जाती है। खुदरा अथवा फुटकर बिक्री की कथा भिन्न है।
• यहाँ निर्मित चूड़ियों में एक जोड़ होता है। इसे हाथों द्वारा ही जोड़ा जाता है। जोड़ रहित चूड़ियाँ केवल सांचों द्वारा बनाए जाते हैं। निखिल के अनुसार केवल पाकिस्तान में ही जोड़ रहित चूड़ियाँ बनती हैं।
• फिरोजबाद एक नगर बनने से पूर्व डाकुओं का अड्डा था।
• फिरोजाबाद में ४०० से भी अधिक कांच उत्पादन इकाइयां हैं। इनमें से अधिकतर लघु उद्योग इकाई के अंतर्गत आते हैं।चूड़ी उत्पादन यहाँ का प्रमुख उद्योग है।

कांच की चूड़ियों का उत्पादन

तपते कांच के भिन्न भिन्न रंग - फिरोजाबाद चूड़ी उद्योग
तपते कांच के भिन्न भिन्न रंग

इसका आरम्भ होता है रेत के ढेर से जो जयपुर से आता है तथा चमकीले अभ्रक से परिपूर्ण होता है। इसे कुछ रसायन मिलाकर भट्टी में पिघलाया जाता है। भट्टी का तापमान १५०० डिग्री तक पहुँच जाता है। भट्टी पर मिट्टी की मोटी परत होने के बाद भी इसके पास से जाते समय इसके तापमान का अनुमान लग जाता है।

इसके पश्चात कच्चे कांच में रंग मिलाया जाता है तथा इसे एक बार फिर बड़े पात्रों में भट्टी के भीतर गर्म किया जाता है। इस रंग मिश्रित पिघले कांच को एक लम्बे धातुई डंडे के छोर से उठाया जाता है। भट्टी से बाहर आते ही कांच क्षण भर में जमने लगता है। कारीगर इस जमते कांच को आकार देता है। आवश्यकता के अनुसार वह इसमें और पिघला कांच मिलाता रहता है।

फिरोजाबाद के कांच की चूड़ी उद्योग की एक झलक: विडियो

छड़ी पर पर्याप्त पिघला कांच ले कर यह जलता हुआ लाल रंग का कांच एक कारीगर के समक्ष रखा जाता है जो इसे शुण्डाकार में ढालता है। गर्म जलते कांच को आप गहरे लाल रंग, तत्पश्चात लाल रंग में परिवर्तित होते देखेंगे जो यहाँ निर्मित चूड़ियों का वास्तविक रंग है।

लाल कांच की चुदियाँ - फ़िरोज़ाबाद
कांच की चूड़ियों का पहला स्वरुप

लम्बी धातुई छड़ी के एक छोर पर रंगीन कांच के ठूंठ को एक बार पुनः भट्टी में डाला जाता है। यहाँ गर्म तथा नर्म कांच को रस्सी के रूप में खींच कर एक अन्य छड़ी के ऊपर लपेटा जाता है। इस छड़ी पर कांच का सर्पिल बेलन तैयार हो जाता है। इस बेलन का व्यास चूड़ी के आवश्यक व्यास के अनुसार होता है। भट्टी से बाहर आते समय इस बेलन का रंग लगभग काला होता है जो शनैः शनैः लाल रंग का हो जाता है। इस सर्पिल बेलनों को शीतल होने तक एक ओर रखा जाता है।

मैंने देखा, चारों ओर टूटी चूड़ियों के टुकड़े बिखरे हुए थे। किसी को भी उनकी चिंता नहीं थी क्योंकि ये टुकड़े पुनः भट्टी में जाकर चूड़ी में परिवर्तित होने वाले थे।

फिरोजाबाद की कांच की चूड़ियाँ
हीरे से काट एक एक चूड़ी को अलग करते हुए

इन सर्पिल बेलनों को उस कक्ष में ले जाया जाता है जिसे मैंने सर्वप्रथम देखा था। प्रत्येक बेलन पर हीरे के औजार द्वारा एक सीधा चीरा लगाया जाता है। सर्पिल बेलन इस चीरे के कारण पृथक खुली चूड़ी के रूप में छड़ी से बाहर आ जाती है। छोटे अथवा कुटीर उद्योग इस खुली चूड़ियों को ले जाते हैं तथा अपने कार्यशाला में एक एक खुली चूड़ी को सटीकता से जोड़ते हैं।

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चूड़ियों को जोड़ने के पश्चात उन पर गड़ाई अथवा कटाई का कार्य कर उनके रूप को बढ़ाया भी जा सकता है। इन सबके पश्चात ये चूड़ियाँ फिरोजाबाद की रंगबिरंगी बोहरा गली में पहुँचती हैं जहां उनकी थोक बिक्री होती है।

फिरोजाबाद का चूड़ी बाजार

यहाँ आते ही आपको लोगों की भीड़ के बीच चूड़ियों के कई ठेले दृष्टिगोचर होंगे। अधिकतर समय एक ठेले पर एक ही रंग की चूड़ियाँ होती हैं।

फ़िरोज़ाबाद का चूड़ी बाज़ार
फ़िरोज़ाबाद का चूड़ी बाज़ार

फिरोजाबाद के मुख्य बाजार में रंगबिरंगी गलियों से जाते हुए अपने दोनों ओर देख आपका मन भी रंगीन हो जाएगा। दोनों ओर चटक पीले रंग की भित्तियों पर रंगीन चमकीली चूड़ियाँ लटकी हुई थीं। रंगों का यह मेल देख ह्रदय प्रसन्न हो गया था। साइकलों पर भूरे रंग के कागज़ में लपेटी चूड़ियों के अम्बार लगे हुए थे। चारों ओर चूड़ियों का ही व्यापार दृष्टिगोचर हो रहा था।

फिरोजाबाद की कांच की चूड़ियाँ डब्बों में कांच की नाजुक चूड़ियों की भराई भी एक कला ही है। इस चूड़ियों को टूटने से बचाने के लिए टेढ़ा रखकर आपस में जोड़ दिया जाता है। यह देखना मेरे लिए प्रथम अवसर था। कारीगरों द्वारा इतनी चपलता तथा तेजी से चूड़ियों को उठाना देखने योग्य दृश्य होता है। इस विडियो के अंत में आप इस दृश्य का अनुभव ले सकते हैं।

यद्यपि फिरोजाबाद नगरी अपेक्षाकृत नवीन है, तथापि इस क्षेत्र में, पुनर्चक्रित कांच से कांच की चूड़ियों तथा बोतलों के उत्पादन की परंपरा दशकों से चली आ रही है।

फिरोजाबाद के दर्शनीय स्थल

यूँ तो फिरोजाबाद का मुख्य आकर्षण कांच की चूड़ियाँ हैं।

फिरोजाबाद का इतिहास

फिरोजाबाद का इतिहास हमें उस काल में ले जाता है जब यह चंद्रवर क्षेत्र का भाग था जो चौहान राजाओं के अधीन था। उस समय तक भारत में आक्रमण आरम्भ नहीं हुए थे। यह नगर से ५ की.मी. दूर स्थित एक छोटा सा गाँव था। यहाँ जैन परिवार बसे हुए थे। इसीलिए यहाँ कई जैन मंदिर हैं।

वर्तमान की नगरी, १६वी. शताब्दी में अकबर के मनसबदार फिरोज शाह द्वारा बसाई गयी है। भौगोलिक विवरणिका गजेट के अनुसार इस पर कई शासकों ने शासन किया जिनमें बाजीराव पेशवा, जाट, मराठा तथा अंग्रेज सम्मिलित हैं।

दिगंबर जैन मंदिर

फिरोजाबाद का दिगंबर जैन मंदिर
फिरोजाबाद का दिगंबर जैन मंदिर

जैसा कि मैंने इस संस्मरण के आरम्भ में उल्लेख किया था, मेरा प्रथम पड़ाव जैन मंदिर ही था। २४ वें. तीर्थंकर महावीर जैन को समर्पित यह एक बड़ा मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण जैन सेठ छाद्मिलाल के परिवार द्वारा किया गया है।

फ़िरोज़ाबाद जैन मंदिर बाहुबली प्रतिमा
जैन मंदिर बाहुबली प्रतिमा

इस मंदिर की विशेषता है, सम्पूर्ण उत्तर भारत की सर्वाधिक विशाल बाहुबली की प्रतिमा। मंदिर के अधिकारियों ने मुझे बताया कि यह प्रतिमा कुछ वर्षों पूर्व कर्नाटक से लाई गयी थी। कर्नाटक स्थित बाहुबली प्रतिमा के सामान यह प्रतिमा भी अखंड शिला द्वारा निर्मित है।

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मंदिर के शांतिपूर्ण परिसर में घूमते हुए मैंने कुछ क्षण बिताते। तत्पश्चात उद्योग नगरी की भीड़भाड़ में प्रवेश किया।

बाजार के मध्य में भी एक जैन मंदिर है। यहाँ की प्रतिमा अनोखी मानी जाती है। समय के अभाव में मैंने यह मंदिर बाहर से ही देखा था।

फिरोजाबाद कैसे पहुंचे?

फिरोजाबाद आगरा से लगभग ४० की.मी. दूर है। अतः इसे आगरा से आधे दिन की यात्रा का अद्भुत अवसर कहा जा सकता है।

फिरोजाबाद दिल्ली से लगभग २५० की.मी. की दूरी पर स्थित है। दिल्ली से इसे एक दिवसीय यात्रा के रूप में देख जा सकता है किन्तु यह कष्टकर हो सकता है।

२० की.मी. की दूरी पर स्थित टूंडला मुख्य रेल स्टेशन है। फिरोजाबाद में भी रेल स्टेशन है।

नगर दर्शन के लिए सामान्यतः २ घंटे का समय लग सकता है। इसमें आप नगर, इसके मंदिर तथा चूड़ी बाजार देख सकते हैं।

चूंकि यहाँ चूड़ियाँ थोक भाव में उपलब्ध हैं, यह चूड़ी खरीदी का एक उत्तम स्थान है। किन्तु इसका उपयोग उठाने के लिए एक प्रकार की कई चूड़ियाँ खरीदना आवश्यक है।

उद्योग नगरी होने के कारण यहाँ अतिथिगृह तो हैं किन्तु वे कदाचित उच्च श्रेणी के विलासी अतिथिगृह ना हों। अतः मेरा सुझाव है कि आप आगरा अथवा मथुरा में ठहर कर वहां से एक दिवसीय यात्रा कर सकते हैं, जैसा कि मैंने किया था।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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