भारत के सरोवर Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Sun, 28 Jul 2024 11:24:05 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.4 देवी बूढ़ी नागिन सेरोलसर सरोवर की संरक्षक https://inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/ https://inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/#respond Wed, 11 Dec 2024 02:30:47 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3731

एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है […]

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एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जिसमें गाय को हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग माना जाता है।

जब जब हमारे परिवार में गौमाता का प्रसूतीकरण होता था, तब तब मैंने अपनी माता एवं दादीजी को इस परंपरा का पालन करते हुए देखा है। बछड़ा दूध पी ले, उसके पश्चात बचा हुआ दूध एकत्र कर उससे घी बनाया जाता था तथा उस घी को एक पृथक बर्नी में सुरक्षित रखा जाता था। उस बर्नी के घी को खाने की अनुमति किसी को नहीं होती थी। मैंने अपनी दादीजी से इसका कारण जानने का प्रयास किया। उन्होंने मुझे बताया कि गौमाता के प्रथम दूध से निर्मित घी को सेरोलसर सरोवर की संरक्षिका देवी बूढ़ी नागिन के लिए पृथक रखा जाता है।

बूढ़ी नागिन की कथा

बूढ़ी नागिन के नाम से प्रसिद्ध देवी को नवदुर्गा का अवतार माना जाता है। बूढ़ी नागिन हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में सेराज क्षेत्र में रहती थी। विवाह के पश्चात वे सुकेत क्षेत्र में चली गईं जो अब हिमाचल के करसोग जिले में है।

बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश
बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश

एक समय बूढ़ी नागिन उनके क्षेत्र से बहती सतलज नदी के तट पर गयी। अपने घर से चलने से पूर्व उन्होंने अपनी माता से कहा था कि उनके लौट आने से पूर्व वे उनकी संतानों को निद्रा से ना जगायें। उस समय उनकी संतानें रसोईघर में रखी एक टोकरी में भूसे के ऊपर निद्रामग्न थे। आपको यह पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा किन्तु उस काल में पालने का प्रचलन नहीं था। माता अपनी संतान को टोकरी में भूसे के ऊपर ही सुलाती थी।

जब दीर्घ काल तक भी बूढ़ी नागिन की संतानें निद्रा से जागी नहीं तो उनकी माता चिंतित हो गयी। बूढ़ी नागिन के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने उन संतानों के ऊपर से कंबल हटाया। कंबल हटाते ही वे भौंचकी रह गईं। टोकरी में ५-६ सर्प थे। सर्पों को देखते ही भयवश उन्होंने चूल्हे की राख उन पर बिखेर दी। सभी सर्प इधर-उधर भाग गये।

जब बूढ़ी नागिन वापिस आयी, उन्हे उनकी संतानें कहीं नहीं दिखीं। संतानों से बिछड़ जाने पर वो अत्यंत दुखी हो गयी और उन्होंने गाँव का त्याग कर दिया।

बूढ़ी नागिन की स्मृति में भुईरी गाँव स्थित उनके निवासगृह में उनका एक लघु शैल विग्रह रखा गया है तथा उसकी पूजा आराधना की जाती है। बूढ़ी नागिन के छोटे से गृह का ना तो पुनर्निर्माण किया जा सकता है, ना ही उसका पुनरुद्धार किया जा सकता है।

बूढ़ी नागिन अपने गृह का त्याग कर सेरोलसर सरोवर पहुँची जो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में बंजर घाटी में जालोरी दर्रे के समीप स्थित है।

नाग आराधना

ऐसी मान्यता है कि बूढ़ी नागिन नाग देवताओं की माता है। इस क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की मान्यताओं के अनुसार नाग का संबंध भगवान शिव से है। प्रत्येक नाग का स्वयं का क्षेत्र एवं गाँव है जिनका नाम उन्ही पर रखा गया है, जैसे चौवासी नाग, हुंगरू नाग तथा झाकड़ नाग।

इन गांवों में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है जिनकी वास्तुशैली हिमाचली है। इनमें काष्ठ का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। काष्ठ पर अप्रतिम उत्कीर्णन होते हैं। प्रत्येक वर्ष मंदिरों के पुरोहित तथा गाँववासी इन मंदिरों का भ्रमण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नाग देवता भी इन सभी मंदिरों में भ्रमण करते हैं। भक्तगण नागों को विविध वस्तुएं अर्पण करते हैं। स्थानीय कलाकार हिमाचली शैली में लोकनृत्य भी करते हैं जिसे नटी कहते हैं।

सेरोलसर सरोवर एक तृण आच्छादित सुंदर भूभाग के मध्य स्थित है। यहाँ से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है। आप यहाँ से चारों ओर दृष्टिगोचर पर्वत शिखरों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर की आभी चिड़िया

स्थानीय लोककथा के अनुसार बूढ़ी नागिन अपने गाँव का त्याग कर सेरोलसर आ गयी तथा एक विशाल शिला पर बैठ गयी। यहाँ ६० योगिनियाँ थीं जिन्हे इंद्रदेव की पौरी कहते हैं। कुछ योगिनियाँ मंडी में शिकारी देवी के पास जा रही थीं तो कुछ जालोरी जोत  जा रही थीं। उन्होंने बूढ़ी नागिन को वहाँ बैठे देखा। योगिनियाँ उनके पास गयीं तथा उन्हे खेल खेलने के लिए आमंत्रित किया।

उन्हे लगा कि नागिन बूढ़ी है इसलिए उन्हे आसानी से परास्त किया जा सकता है। खेल से पूर्व कुछ नियम निर्धारित किये गये। यदि खेल में बूढ़ी नागिन विजयी होती हैं तो वे इस स्थान को अपने पावन स्थल के रूप में स्वीकार करेंगी। यदि योगिनियाँ विजयी होती हैं तो बूढ़ी नागिन यह स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाएंगी।

क्रीडा के मध्य एक योगिनी ने छल किया। यह देख बूढ़ी नागिन क्रोधित हो उठी। उन्होंने उसे श्राप दिया कि वो सदा के लिए एक छोटा पक्षी बन जाए। बूढ़ी नागिन ने उस पक्षी को सेरोलसर की स्वच्छता करते रहने का कार्य सौंप दिया। उस पक्षी को आभी चिड़िया कहते हैं।

बूढ़ी नागिन उस खेल में विजयी हुई तथा सदा के लिए यहीं बस गयी। बूढ़ी नागिन ने जब अपने निवास एवं गाँव का त्याग किया था, वे अपने साथ एक कलश ले कर चली थीं। सेरोलसर में भ्रमण करते समय उनके हाथ से वह कलश छूट गया तथा उससे निकले जल से यहाँ एक सरोवर की उत्पत्ति हुई। वही सेरोलसर सरोवर बना।

जिस शिला पर बूढ़ी नागिन बैठे हुई थी, उस शिला को काला पत्थर कहते हैं।

पांडव कथा

पांडव अपने वनवास काल में जालोरी दर्रे पर पहुँचने के पश्चात सेरोलसर सरोवर आये थे। उन्होंने सरोवर के निकट धान की खेती आरंभ की। ऐसा कहा जाता है कि बूढ़ी नागिन ने सरोवर से प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिए तथा पुनः सरोवर में अन्तर्धान हो गयी।

सरोवर पांडवों ने सरोवर से बूढ़ी नागिन का विग्रह निकालकर उसे सरोवर के निकट स्थापित किया। सरोवर के तट पर उनके लिए एक मंदिर का निर्माण किया। कालांतर में इस मंदिर के नवीनीकरण के चार आवर्तन हुए। मंदिर की वर्तमान संरचना चौथे नवीनीकरण का परिणाम है।

बूढ़ी नागिन मंदिर में शुद्ध घी का अर्पण

मंडी एवं कुल्लू क्षेत्रों के सभी नाग देवताओं की माता, बूढ़ी नागिन को गायों से अत्यंत प्रेम था। इसलिए भक्तगण जब भी बूढ़ी नागिन के दर्शन के लिए उनके मंदिर जाते हैं तब अपने संग उनके लिए गाय के दूध का घी भी ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि आप इस मंदिर में घी का अर्पण करें तो वह घी सीधे सरोवर के मध्य पहुँच जाता है जहाँ बूढ़ी नागिन निवास करती हैं।

प्राचीन बूढी नागिन मंदिर
प्राचीन बूढी नागिन मंदिर

भक्तगण मंदिर में कई किलोग्राम घी का अर्पण करते हैं। प्रत्येक वर्ष, विशेष अवसरों पर इस क्षेत्र के सभी नाग बूढ़ी नागिन से भेंट करने यहाँ अवश्य आते हैं। इन विशेष अवसरों की घोषणा यहाँ के स्थानीय पुरोहित करते हैं।

शीत ऋतु में भीषण हिमपात के कारण यह मंदिर बंद रहता है।

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सेरोलसर सरोवर के गूढ़ रहस्य

सेरोलसर सरोवर की गहराई किसी को ज्ञात नहीं है।

सेरोलसर सरोवर से संबंधित एक अन्य रहस्यमयी कथा भी है। एक समय एक ब्राह्मण अपने परिवार के संग सरोवर के आसपास पदभ्रमण कर रहा था। अकस्मात ही वह फिसल कर सरोवर में गिर गया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे बचाने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे असफल रहे। उन्हे ब्राह्मण के बिना ही लौटना पड़ा। महद आश्चर्य कि तीन वर्षों पश्चात वह ब्राह्मण सरोवर से पुनः अपने निवास लौट आया। बूढ़ी नागिन ने उसे शपथबद्ध किया था कि वह उनके विषय में किसी से नहीं कहेगा।

ब्राह्मण के परिवारजन उनसे अनवरत प्रश्न करते रहे, ‘तुम कहाँ गये थे?’, ‘तुम बचे कैसे?’, ‘तुम्हें किसने बचाया?’ आदि। अंत में ब्राह्मण के धैर्य का बांध टूट गया तथा उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त का बखान कर दिया। उसने बताया कि जैसे ही वह सरोवर में गिरा, वह सीधे सरोवर के तल में जा पहुँचा। वहाँ बूढ़ी नागिन ने उसकी रक्षा की। उसने यह भी जानकारी दी कि सरोवर के तल पर बूढ़ी नागिन अपने स्वर्ण महल में निवास करती है। यह भी बताया कि उसने वहाँ दूध के अनेक पात्र देखे। बूढ़ी नागिन वहाँ दही भी बिलोती है।

जैसे ही ब्राह्मण के मुख से इस घटना का सत्य प्रकट हुआ, उसकी मृत्यु हो गयी। इसके पश्चात सरोवर पर गाँववासियों का ताँता लग गया। सभी गाँववासियों को कुछ ना कुछ रहस्यमयी एवं भीतिदायक अनुभव हुए। इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला गया कि कदाचित बूढ़ी नागिन इस सरोवर को मानवी क्रियाकलापों से अछूता रखना चाहती हैं। कदाचित वे इस सरोवर को अनवरत स्वच्छ रखना चाहती हैं। मैंने देखा कि वास्तव में यह सरोवर अत्यंत स्वच्छ है। मैंने एक पत्ता भी सरोवर के जल में नहीं देखा।

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जालोरी दर्रा

करसोग का सुकेत क्षेत्र कुल्लू जिले में बंजर घाटी के जालोरी दर्रे से लगा हुआ है। कुल्लू एवं शिमला जिलों को जोड़ते अनेक दर्रों में से जालोरी भी एक मुख्य दर्रा है। इस दर्रे की रचना शिमला से कुल्लू जाने के लिए अंग्रेजों ने की थी। यह दर्रा कुल्लू जिले में स्थित है।

जलोरी दर्रा समुद्र तल से लगभग २००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। भीषण हिमपात के कारण शीत ऋतु में यह दर्रा बंद रहता है। कुल्लू जिले में स्थित बंजर घाटी एक सुंदर पर्यटन स्थल भी है जो अपारंपरिक पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है।

कुल्लू जिला तीन प्रमुख घाटियों में विभाजित है, तीर्थन, बंजर एवं सैंज घाटी। जालोरी दर्रा एक सुंदर मार्ग है जो एक ओर जीभी गाँव की ओर जाता है तो दूसरी ओर अन्नी गाँव जाता है। यह देवदार के सघन मनमोहक वन से घिरा हुआ है।

जालोरी दर्रे के दूसरी ओर स्थित कुल्लू का अन्नी क्षेत्र भी लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह सेब के उद्यानों के लिए प्रसिद्ध है। सेबों की फसल आने पर यह क्षेत्र अत्यंत मनमोहक व आकर्षक हो जाता है। आप यहाँ सेबों को सीधे वृक्षों से तोड़कर खाने का भी आनंद ले सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा

क्या आप अपने दैनंदिनी नगरी दिनचर्या से उकता गये हैं? आपके लिए सर्वोत्तम आनंद होगा, प्रकृति से जुड़ना। इसीलिए मेरा आग्रह  है कि आप हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में पदभ्रमण करें तथा स्वच्छ पर्यावरण का आनंद उठायें। जालोरी दर्रे में स्थित सेरोलसर सरोवर तक ५ किलोमीटर की पदयात्रा एक नितांत रोमांचक तथा आनंददायी अनुभव है।

यह एक सरल पदयात्रा है। देवदार तथा वटवृक्षों से आच्छादित वनों के मध्य से प्रगत यह एक सीधा मार्ग है जिस पर चलकर आप सरोवर तक पहुँचते हैं। चारों ओर स्थित सुंदर पर्वत एवं उनके मध्य होते सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्य आपको आनंदविभोर कर देंगे।

प्रत्येक ऋतु में यह मार्ग भिन्न भिन्न आनंद प्रदान करता है। विशेषतः ग्रीष्म ऋतु में यह मार्ग विविध रंगों से परिपूर्ण होता है। वृक्षों के तने चटक रंगों के सेवार से ढँक जाते हैं। आप यहाँ दुर्लभ प्रजातियों के पुष्प, वनस्पतियाँ, औषधियों के पौधे व वृक्ष आदि देख सकते हैं। ऊँचे ऊँचे देवदार के वृक्ष मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

यात्रा सुझाव

  • जालोरी दर्रे के निकट आश्रय के लिए अनेक होमस्टे अथवा घर हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होते हैं। जलोरी दर्रे के मैदानी क्षेत्रों में तंबू-निवासों की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।
  • जालोरी दर्रा शिमला से कुल्लू जाते मार्ग पर स्थित है। यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँचा जा सकता है।
  • सेरोलसर सरोवर की यात्रा करने के लिए वसंत ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम हैं।
  • सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा कुल ५ किलोमीटर की है।
  • पदयात्रा का स्तर ‘सरल’ श्रेणी के अंतर्गत है।
  • शिमला से जलोरी दर्रे की दूरी लगभग १५८ किलोमीटर है जिसके लिए सड़क मार्ग द्वारा चौपहिया वाहन से सामान्यतः ५ घंटे लगते हैं।
  • जालोरी दर्रे से निकटतम गाँव जीभी है जो १२ किलोमीटर दूर स्थित है।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह यात्रा संस्करण पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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पांगोंग त्सो सरोवर – लद्दाख का प्रसिद्द पर्यटक स्थल https://inditales.com/hindi/pangong-tso-laddakh-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/pangong-tso-laddakh-paryatak-sthal/#respond Wed, 27 Sep 2023 02:30:00 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3179

पांगोंग सरोवर अथवा पांगोंग झील को स्थानीय भाषा में पांगोंग त्सो कहते हैं। भारत के नवनिर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी लेह से लगभग १५० किलोमीटर दूर स्थित पांगोंग सरोवर एक मनोरम हिमालयी सरोवर है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई लगभग ४५०० मीटर है। यह एक अत्यंत सुन्दर सरोवर है। इस सरोवर के जल […]

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पांगोंग सरोवर अथवा पांगोंग झील को स्थानीय भाषा में पांगोंग त्सो कहते हैं। भारत के नवनिर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी लेह से लगभग १५० किलोमीटर दूर स्थित पांगोंग सरोवर एक मनोरम हिमालयी सरोवर है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई लगभग ४५०० मीटर है। यह एक अत्यंत सुन्दर सरोवर है। इस सरोवर के जल पर पड़ती सूर्य की किरणें जब दिन भर की यात्रा करती हैं, इसका आकाशी नीलवर्ण जल इन किरणों के साथ अठखेलियाँ करता विभिन्न आभा बिखेरता रहता है।

जमी हुई पांगोंग त्सो
जमी हुई पांगोंग त्सो

पांगोंग सरोवर बॉलीवुड चित्रपटों के छायाचित्रीकरण के लिए एक अतिविशेष स्वप्निल स्थल माना जाता है। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि सन् २०१८ में निर्मित हॉलीवुड चित्रपट गेम्स ऑफ थ्रोंस के कुछ भागों  का छायाचित्रीकरण भी यहीं हुआ था। पांगोंग सरोवर एक अछूते हिमालयीन परिदृश्य का सर्वोत्तम उदहारण है।

अपनी लद्दाख यात्रा में हम कुछ दिवस लेह में ठहरे थे। नारोपा उत्सव का अवलोकन करने व लद्दाख की संस्कृति को जानने व समझने के लेने वहीं से हमने हेमिस मठ तक की यात्रा की थी। यदि आपकी रूचि केवल पर्यटन भी हो तब भी लद्दाख की यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक आप पांगोंग सरोवर ना देख लें।

और पढ़ें: हेमिस मठ का नारोपा उत्सव

पांगोंग त्सो: लद्दाख का आकर्षक सरोवर

वर्ष के अधिकांश समय, लद्दाख के शीत ऋतु की कड़ाके की ठण्ड में खारे जल का यह विशाल सरोवर जमा हुआ ही रहता है। जब पांगोंग सरोवर जमा हुआ नहीं रहता है, आप उसमें नीले रंग की विभिन्न छटाएं देख सकते हैं। अप्रैल मास से सितम्बर के आरम्भ तक इस सरोवर की सुन्दरता अपनी चरम सीमा पर रहती है जब इस पर नीलवर्ण की विभिन्न छटाओं का मेला लगा रहता है।

पांगोंग सरोवर के रंग
पांगोंग सरोवर के रंग

इस सरोवर का दो-तिहाई भाग तिब्बत के पठार के अंतर्गत आता है जो अब चीनी अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा के भीतर स्थित है। शेष एक-तिहाई भाग भारतीय सीमा के अंतर्गत आता है। स्वाभाविक है कि अंतर्राष्ट्रीय विवादित सीमा रेखा के समीप होने के कारण आप सरोवर के आसपास कदाचित सेना के तम्बू एवं उनकी तोपें देखें। सन् १९६० में हुए भारत-चीन युद्ध के समय यह शांत एवं रम्य स्थान सेना की अनेक तोपों एवं उनके द्वारा हुए रक्तपात का साक्षी रहा है। वह सब क्यों हुआ? कौन जाने!!

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यदि आप हिमालय के इतिहास के पन्नों को पलटें तथा इस स्थान के भूगर्भ शास्त्र में डुबकी लगाएं तो आप हिन्द महासागर एवं इस सरोवर के मध्य सम्बन्ध अवश्य खोज निकालेंगे। तिब्बती शब्द पांगोंग त्सो का शाब्दिक अर्थ है, ऊँचे मैदानी क्षेत्र का सरोवर। ऐसी मान्यता है कि भूगर्भीय उथल-पुथल के पश्चात जब समुद्र की गहराई से हिमालय उभर कर आया तब आसपास का समुद्र सिमट कर केवल यह सरोवर ही शेष रहा। इसी कारण सरोवर का जल खारा है तथा इसमें मछलियाँ भी नहीं हैं।

समुद्र सतह से ४५०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित होने के कारण पांगोंग त्सो मछलियों के प्रजनन एवं जीवन के अनुकूल जलवायु नहीं प्रदान कर पाता है। इसी कारण इसके जल में मछलियों का अभाव है। इसके पश्चात भी यह सरोवर प्रवासी पक्षियों का प्रिय स्थल है। प्रत्येक वर्ष यहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं, काई अथवा मॉस खाते हैं तथा घोंसले बनाकर अंडे देते हैं।

सरोवर में रात्रि का पड़ाव डालें अथवा केवल दिवसीय यात्रा करें?

जब मानव प्रकृति से खिलवाड़ ना करे तब प्रकृति की सुन्दरता किस प्रकार आकाश को छू लेती है, यह सरोवर उसका जीवंत उदहारण है। स्वाभाविक ही है कि आप ऐसे सरोवर के तट पर कुछ रात्रि व्यतीत करते हुए माँ स्वरूप प्रकृति से अवश्य जुड़ना चाहेंगे।

पांगोंग त्सो का सूर्योदय
पांगोंग त्सो का सूर्योदय

किन्तु ध्यान रखें कि जिस अनछुई प्रकृति से आप जुड़ना चाहते हैं उसकी कान्ति को उतनी ही पवित्र बनाए रखना भी आपका ही उत्तरदायित्व है। साथ ही आपको अपने स्वास्थ्य एवं सुरक्षा का भी ध्यान रखना होगा। जैसे, रात्रि का तापमान अत्यंत शीतल हो जाता है। मौसम के अनुसार यह शुन्य तापमान से २०-३०अंश नीचे भी जा सकता है। साथ ही रहने की सुविधाएं भी मूलभूत हैं, जैसे तम्बू इत्यादि। अतः सम्पूर्ण वातावरण आपके स्वास्थ्य के लिए एक कठिन परीक्षा सिद्ध हो सकता है।

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सरोवर के तट पर रात्रि व्यतीत करने के आनंद का अर्थ है, तट पर बैठकर तारे देखते हुए गर्म गर्म मैगी खाना। यदि खगोलीय छायाचित्रीकरण में आपकी रूचि है तो इससे अधिक उपयुक्त स्थल सम्पूर्ण भारत में कहीं नहीं होगा!

अनेक पर्यटकों का मानना है कि पांगोंग त्सो में जो सूर्योदय उन्होंने देखा है, वह अविस्मरणीय एवं अतुलनीय है!

रात्रि के कड़ाके की ठण्ड एवं कठिन सड़क यात्रा से भयभीत होकर मैंने तो पांगोंग में रात्रि व्यतीत करना स्वयं के लिए उचित नहीं जाना तथा लेह से एक दिवसीय यात्रा करने का निश्चय किया।

प्रादेशिक संचार अनुज्ञा पत्र: इनर लाइन परमिट (आइ एल पी)

यह क्षेत्र संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा जांच के अंतर्गत आता है जिसके कारण हमें पांगोंग सरोवर तक जाने के लिए अनुज्ञा पत्र प्राप्त करना पड़ा। इस अनुज्ञा पत्र को प्रादेशिक संचार अनुज्ञा पत्र अथवा इनर लाइन परमिट (आइ एल पी) कहते हैं। इनर लाइन परमिट एक आधिकारिक यात्रा दस्तावेज है जिसे संबंधित राज्य सरकार जारी करती है।

पांगोंग त्सो लद्दाख
पांगोंग त्सो लद्दाख

इस तरह का परमिट भारतीय नागरिकों को देश के अंदर के किसी संरक्षित क्षेत्र में एक तय समय के लिए यात्रा की अनुमति देता है। इस परमिट के एवज में कुछ शुल्क भी लिया जाता है। हमें इसके लिए ६०० रुपये प्रतिव्यक्ति शुल्क देना पड़ा। इसे प्राप्त करने में हमारे अतिथिगृह के अधिकारी ने हमारी सहायता की थी।

यदि आप लेह से पांगोंग सरोवर तक एक दिवसीय यात्रा करना चाहते हैं तो मेरा सुझाव है कि आप प्रातः शीघ्रातिशीघ्र यात्रा आरम्भ करें। यह पांच घंटे की एक कठिन सड़क यात्रा है जो अत्यंत जोखिम भरी है। यहाँ तक कि मौसम की स्थिति बिगड़ने पर सड़क मार्ग अवरुद्ध भी हो सकता है। अवरुद्ध सड़क मार्ग के कारण यदि आप कहीं फंस जाएँ तो भयभीत ना होयें। वहां से सुरक्षित निकलने में भारतीय सेना आपकी अवश्य सहायता करेगी। इसीलिए यदि आप प्रातः शीघ्र यात्रा आरम्भ करें तो इन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में आसानी होती है।

हमने प्रातः पांच बजे यात्रा आरम्भ की तथा अनवरत ४० किलोमीटर गाड़ी चलाते हुए हेमिस मठ पहुंचे। मठ के समक्ष सिन्धु नदी के तट पर बैठकर जलपान किया तथा आगे की यात्रा के लिए निकल पड़े।

यात्रा एवं पड़ाव

यदि आप लेह से आ रहे हैं तो पांगोंग त्सो तक की यात्रा में आपको कुछ आवश्यक पड़ाव लेने पड़ते हैं।

आप जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जायेंगे, आपके समक्ष परिदृश्यों में तीव्र गति से परिवर्तन हो सकता है। कदाचित चारों ओर मानवीय उपस्थिति की किंचित मात्र भी झलक प्राप्त ना हो। चारों ओर केवल हिमाच्छादित बीहड़ पर्वत, अतिविरल हरियाली तथा स्वर्ग की ओर जाती प्रतीत होती सड़क।

आप समझ जाईये कि आप चांग ला दर्रे में प्रवेश कर रहे हैं!

चांग ला दर्रा: ऊँचा हिमालयी दर्रा

इस सड़क को विश्व का दूसरा सर्वोच्च वाहन योग्य मार्ग माना जाता है। ५३६० मीटर की ऊँचाई पर स्थित चांग ला सामान्यतः सरोवर तक की यात्रा का प्रथम पड़ाव होता है। दर्रे के शीर्ष पर चांग ला बाबा का मंदिर है। मंदिर की भित्तियों पर रंगबिरंगे ध्वज फहराए हुए हैं।

चांग ला दर्रा
चांग ला दर्रा

अत्यंत ऊँचाई पर स्थित होने के कारण चांग ला दर्रा आपके स्वास्थ्य की दृष्टी से महत्वपूर्ण है। यदि आपको तीव्र पर्वतीय अस्वस्थता (Acute mountain sickness, AMS) की आशंका है तो उसके लक्षण आपको यहाँ से दिखने आरम्भ हो जायेंगे।

परिदृश्य

चांग ला से तीव्र उतार आरम्भ हो जाता है। चांग ला से हमें आगे तीन घंटे की यात्रा करनी पड़ती है। घुमावदार सर्पिल मार्ग आपके समक्ष कुछ अद्वितीय एवं विलक्षण परिदृश्य प्रस्तुत करेंगे। दूर स्थित पर्वत सतह पर स्थानीय घुमंतू बंजारे अपने पालतू पशुओं को चराते हुए दिखने आरम्भ हो जायेंगे।

प्रकृति का आनंद लेते पर्यटक
प्रकृति का आनंद लेते पर्यटक

हिमनद से पिघलकर आती जलधाराएं धरती पर विरली हरियाली उत्पन्न करती दृष्टिगोचर होंगी जिन्हें चरने में व्यस्त याक पशु भी दिखाई देंगे। यहाँ के श्वान या कुत्ते भी भिन्न प्रतीत होते हैं। यहाँ की जलवायु के अनुकूल उनका शरीर बालों की मोती परत से ढंका होता है। ये हिमालयी कुत्ते भी आपको बर्फ की महीन सतह पर इधर-उधर विचरण करते व जल खोजते दिखाई पड़ेंगे।

और पढ़ें: शाकाहारियों के लिए लद्दाख यात्रा

सेना के कुछ कैम्पों में २४ घंटों की चाय की दुकानें हैं। वहां प्रसाधन गृह अथवा शौचालय भी उपलब्ध होते हैं। इस क्षेत्र में जल की उपलब्धि अत्यंत विरली होती है। अतः शौचालय का प्रयोग करते समय इसका स्मरण अवश्य रखें।

यह यात्रा लम्बी अवश्य है किन्तु ये हमारे नयनों के लिए अमृततुल्य है। हमारी कार के साथ दौड़ते जंगली गधे, घाटियों के मध्य से बहती एवं हमारे संग आँख-मिचौली का खेल खेलती कई छोटी छोटी नदियाँ हमें मंत्रमुग्ध कर रहे थे। एक ओर ग्रीष्म ऋतु में ये नदियाँ सूख जाती है तो वहीं शीत ऋतु के ठंडे वातावरण में इनकी उपरी सतह जम जाती है।

हिमालय वासी मर्मोट
हिमालय वासी मर्मोट – एक बड़ी गिलहरी 

कुछ क्षणों पश्चात हिमालयी मर्मोट आपका स्वागत करने के लिए आ जायेंगी। बड़े चूहे अथवा गिलहरी के समान दिखाई देते ये जीव इस क्षेत्र के मूल जीव हैं। अपनी आँखों में जिज्ञासा एवं भोलापन लिए इन जीवों को देख आपको अंटार्टिका का प्रथम सुप्रसिद्ध मानव-पेंगुइन भिडंत का स्मरण हो आएगा। ये जीव भूमि के भीतर निवास करते हैं। सम्पूर्ण क्षेत्र की भूमि के भीतर इन जीवों ने अनेक बिलों का परस्पर जुड़ा हुआ एक जाल बनाया हुआ है। अतः यहाँ चलते हुए अत्यंत सावधानी बरतें।

पांगोंग त्सो के तीन संकेत

अत्यंत सुन्दर पांगोंग सरोवर का प्रथम विहंगम दृश्य हमारे अस्तित्व को इस प्रकार झकझोर देता है कि उसे शब्दों में ढालना संभव नहीं है। सरोवर की नीलवर्ण जल सतह पर नीले आकाश का प्रतिबिम्ब अत्यंत मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करता है। सरोवर का नीला रंग इतना गहरा है कि वह आपके नयनों को सहज ही नहीं होने देता है!

किन्तु सरोवर क्षेत्र का प्रवेश स्थल आपको धरातल पर ले आता है। चित्रपट चित्रीकरण के लिए लोकप्रिय इस स्थान पर असंख्य पर्यटकों की उपस्थिति आँखों को खटकने लगती है। आपको ज्ञात ही होगा कि थ्री इडियट्स नामक लोकप्रिय चित्रपट के कुछ भागों का चित्रीकरण भी यहीं हुआ था। चित्रपट में दिखाए गए तीन रंगबिरंगे चौकियों की विशेष बैठक की स्मृति में यहाँ पर्यटकों के लिए उसका प्रतिरूप भी रखा हुआ है। इस अनछुए स्थल पर इतनी बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने का कारण भी वही चित्रपट है। यदि आपको यह दृश्य विचलित नहीं करता है तो आप सहर्ष यहाँ कुछ समय व्यतीत कर सकते हैं।

किन्तु हमें यहाँ एक क्षण भी ठहरना स्वीकार्य नहीं था। हम यहाँ से कुछ किलोमीटर आगे जाकर रुके। वहां का दृश्य अत्यंत मनोरम था। शांत, मनमोहक एवं पर्यटकों के कोलाहल से अछूता!

एक समय यह सरोवर प्रदूषण रहित माना जाता था। यह अपने स्वच्छ निर्मल जल के लिए जाना जाता था। किन्तु बड़ी संख्या में आते संवेदनहीन व दायित्वहीन पर्यटकों के कारण अब आप यहाँ-वहां प्लास्टिक कचरा देख सकते हैं।

यदि आप पर्यावरण प्रेमी हैं तथा आपको अपनी धरती माता की चिंता है तो आप यहाँ प्लास्टिक जैसा किसी भी प्रकार का अजैवनिघ्नीकरणीय कचरा ना डालें। उन्हें अपनी गाड़ी में ही एकत्र करें तथा लेह जाकर उपयुक्त स्थान में ही डालें। आपकी श्रद्धा हो तो आप यहाँ के कुछ प्लास्टिक कचरे को कम करने में भी सहायता कर सकते हैं।

पांगोंग त्सो दर्शन के लिए कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं:

  • पांगोंग सरोवर सड़क मार्ग द्वारा चांग ला दर्रा होते हुए पहुंचा जा सकता है जिसकी ऊँचाई ५३६० मीटर है। पांगोंग सरोवर भ्रमण ले लिए यहाँ तक पहुँचने का सर्वोत्तम उपाय है कि आप साझा टैक्सी करें ताकि अन्य यात्रियों के साथ व्यय भी साझा हो जाए तथा पर्यावरण पर भी अधिक दबाव ना पड़े। अनेक लेह-लद्दाख भ्रमण सेवायें उपलब्ध हैं जिनके द्वारा आप ऐसी साझा टैक्सी सेवा पूर्वनियोजित कर सकते हैं।
  • अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें। यहाँ तीव्र पर्वतीय अस्वस्थता (Acute mountain sickness, AMS) होना सामान्य है। इससे आपके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है जो तीव्र भी हो सकता है। हो सकता है दुर्गम मार्गों में आपको औषधिक सेवायें भी शीघ्र उपलब्ध ना हो पाए। यदि आपका स्वास्थ्य तीव्र गति से घटे तो मेरा सुझाव यही है कि आप वापिस लौट जाएँ। अपने साथ अपनी सभी औषधियां लेकर जाएँ।
  • आवश्यकनुसार ऊनी वस्त्र एवं परिधान ले जाएँ। जल एवं सूखे खाद्य पदार्थ साथ रखें। तीव्र पर्वतीय अस्वस्थता से बचाना है तो भ्रमण आरम्भ करने से पूर्व लेह में कम से कम दो दिवस केवल विश्राम करें तथा स्वयं को ऊँचाई की जलवायु से अभ्यस्त करें।
  • लद्दाख एक शीत मरुस्थल है। दिन के समय सूर्य की तीखी किरणें आपकी त्वचा को झुलसा सकती हैं। आप देखेंगे कि यहाँ की लद्दाखी स्त्रियों के मुखड़े लालवर्ण के हो जाते हैं। उसका कारण ये तीव्र सूर्य की किरणें ही हैं। निचले अथवा मैदानी क्षेत्रों में रहने के कारण हमारी त्वचा ऐसे तीखे वातावरण को सहन करने के लिए अभ्यस्त नहीं होती है तथा उस पर गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। अतः अपनी त्वचा की रक्षा करने के लिए आवश्यक सूर्य प्रतिरोधक प्रसाधनों का प्रयोग करें तथा स्वयं को ढँक कर रखें।
  • वापिस लौटते समय अपने भ्रमण के किसी भी प्रकार के चिन्ह वहाँ ना छोड़ें। अपना सभी प्रकार का प्लास्टिक का कचरा अपने साथ वापिस लायें। अन्यथा यहाँ की सुकोमल भौगोलिक अवस्थिति अतिसंवेदनशील होकर पारिस्थितिक असुंतलन की भेंट चढ़ जायेगी।
  • सरोवर के जल में जाने अथवा तैरने की अनुमति नहीं है।

यह संस्करण मधुरिमा चक्रवर्ती ने लिखा है जिन्होंने लद्दाख के नरोपा उत्सव में इंडीटेल्स का प्रतिनिधित्व किया था।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कश्मीर के हाउसबोट- सरोवर में तैरते घर का एक अनुभव https://inditales.com/hindi/kashmir-sarovar-houseboat-anubhav/ https://inditales.com/hindi/kashmir-sarovar-houseboat-anubhav/#respond Wed, 17 Aug 2022 02:30:08 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2763

श्रीनगर के हाउसबोट अर्थात् सरोवर पर तैरते घर! क्या इनका अनुभव प्राप्त किये बिना कश्मीर अथवा श्रीनगर की यात्रा पूर्ण मानी जा सकती है? कदाचित नहीं! वस्तुतः, कश्मीर यात्रा के लिए आये पर्यटकों का सम्पूर्ण पर्यटन हाउसबोट के इस अनोखे अनुभव के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है। हमने गुलमर्ग में तीन दिवस अप्रतिम परिदृश्यों […]

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श्रीनगर के हाउसबोट अर्थात् सरोवर पर तैरते घर! क्या इनका अनुभव प्राप्त किये बिना कश्मीर अथवा श्रीनगर की यात्रा पूर्ण मानी जा सकती है? कदाचित नहीं! वस्तुतः, कश्मीर यात्रा के लिए आये पर्यटकों का सम्पूर्ण पर्यटन हाउसबोट के इस अनोखे अनुभव के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है।

काश्मीर के नागिन सरोवर पर तैरते हाउसबोट
काश्मीर के नागिन सरोवर पर तैरते हाउसबोट

हमने गुलमर्ग में तीन दिवस अप्रतिम परिदृश्यों का आनंद उठाते व्यतीत किये जिसमें गुलमर्ग का प्रसिद्ध गोंडोला केबल कार भ्रमण भी सम्मिलित था। वहां से हम हाउसबोट में रहने का आनंद लेने श्रीनगर पहुंचे। आरम्भ में मुझे किंचित निराशा हुई क्योंकि हम प्रसिद्ध डल सरोवर पर नहीं, अपितु निगीन या नागिन सरोवर पर हाउसबोट में ठहरने जा रहे थे। मैंने कश्मीर में किसी नागिन सरोवर के विषय में कभी सुना नहीं था। श्रीनगर के नाम से सदा डल सरोवर का नाम ही जुड़ा होता है।

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श्रीनगर के आसपास, विशेषतः डल सरोवर के आसपास विचरण करने के पश्चात् मुझे प्रसन्नता हुई कि हम नागिन सरोवर पर ठहरे थे। नागिन सरोवर पर डल सरोवर जैसी भीड़भाड़ नहीं थी जिसके कारण हम अपने चारों ओर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्रकृति का मनःपूर्वक आनंद उठा सके। हाउसबोट में एक सम्पूर्ण दिवस व्यतीत करना स्वयं में एक अद्वितीय अनुभव था। उसके द्वारा हम श्रीनगर के जीवन एवं वाणिज्य को तथा इसके चारों ओर केन्द्रित कश्मीर पर्यटन की मनोवृत्ति को जानने का प्रयास कर सके।

श्रीनगर के शिकारों का अनुभव

शिकारे और हाउसबोट
शिकारे और हाउसबोट

एक रंगबिरंगा शिकारा मुझे व मेरे सामान को हाउसबोट तक लेकर गया। हाउसबोट में प्रवेश करते ही मेरा चाय के साथ स्वागत किया गया। तभी मेरी दृष्टी मेरे सभी मित्रों पर पड़ी जो हाउसबोट के भीतर एक विक्रेता को घेरकर बैठे थे। वह विक्रेता उन्हें कागज की लीद से निर्मित रंगबिरंगी कलाकृतियाँ दिखा रहा था तथा उनसे क्रय करने का प्रलोभन दे रहा था। उसने रंगबिरंगे संदूक जिन पर हाथों से चित्रकारी की गयी थी, घंटियाँ, कंगन, चौकोर थाल तथा ऐसी ही अनेक छोटी छोटी वस्तुओं की लगभग प्रदर्शनी सजा रखी थी। हम उससे सही भाव के लिए तोल-मोल कर ही रहे थे कि वहां कश्मीरी आभूषणों की विक्री करने एक अन्य विक्रेता भी पहुँच गया। उसने भी अपनी पेटी खोलकर हमें चाँदी के आभूषण दिखाना आरम्भ कर दिया। एक प्रकार से संदूकों से बाजार बाहर आ गया था।

शिकारे की सवारी

डल सरोवर के मध्य शिकारा
डल सरोवर के मध्य शिकारा

समय हो चुका था कि हम एक शिकारे पर शांति से बैठकर नौका विहार करें तथा सरोवर में सूर्यास्त का आनंद लें। हम पुनः एक रंगबिरंगे शिकारे पर बैठ गए तथा हमारा नाविक शनैः शनैः उसे जल के भीतर ले जाने लगा। शिकारा अत्यंत संकरी नौका होती है। हम में से अधिकाँश लोग सरोवर की गहराई से भयभीत थे तथा इस संकरी नौका के उलटने के भय से आशंकित थे। वहीं मुझे सरोवर के शीत जल की चिंता अधिक थी। हमारा नाविक शिकारे को खेते हुए सरोवर के किनारे खड़ी हाउसबोटों को पार कर आगे ले गया। सभी हाउसबोटों के नाम अत्यंत निराले थे। उनमें से कई हाउसबोट ऐसे थे जिन पर आधुनिक होटल श्रंखलाओं के नाम थे। कुछ हाउसबोट धरोहर-होटलों की श्रंखला का स्वामित्व दर्शा रहे थे तो कुछ पर अंकित नामों से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे कश्मीर के स्थानीय होटलों के हाउसबोट हैं। सभी हाउसबोटों में एक समानता थी कि वे सभी काष्ठ की बनी थीं तथा उन पर काष्ठ का प्राकृतिक रंग था। बाह्य गलियारे अत्यंत उत्कीर्णित काष्ठ फलकों से निर्मित थे।

हमें एक दृश्य ने अत्यंत अचंभित किया कि प्रत्येक हाउसबोट का एक छोर भूमि से भलीभांति सम्बद्ध था। किन्तु बोट संचालक सभी पर्यटकों को शिकारे द्वारा बोट तक ऐसे ले जाते हैं मानो ये हाउसबोट सरोवर के मध्य खड़े हों।

शिकारों पर व्यापारी
शिकारों पर व्यापारी

बॉलीवुड के हिन्दी चित्रपटों ने शिकारों को अमर कर दिया है। अनेक चित्रपटों में नायक व नायिका को प्रेम में सराबोर शिकारे की सवारी करते दर्शाया गया है मानो प्रेम दर्शाने के लिए शिकारे सर्वोत्तम स्थान हैं। सरोवर में इतनी बड़ी संख्या में हाउसबोट हैं तथा उससे भी बड़ी संख्या में शिकारों में पर्यटक यहाँ से वहां सैर करते रहते हैं कि मुझे नहीं लगता प्रेमी जोड़े अथवा मधुचंद्र मनाते नवीन वर-वधु इन शिकारों में बैठकर एक दूसरे के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर पाते होंगे। कुछ क्षणों के लिए आप यह अनुभव भी कर लें कि आप प्रकृति के मध्य उसकी सुन्दरता का आनंद ले रहे हैं कि अचानक एक अन्य शिकारा आपके समीप आकर रुक जाता है तथा उसमें बैठा नाविक अपनी विक्री क्षमता आप पर जांचने लगता है। सम्पूर्ण नौकाविहार में यह अनुभव अनवरत जारी रहता है। जैसे ही एक विक्रेता-शिकारा किसी पर्यटक तक पहुंचता है, अन्य विक्रेता भी अपने अपने शिकारे लेकर वहां आ जाते हैं। यह सरोवर पूर्णतः एक बाजार प्रतीत होता है। इन सब के पश्चात भी इन शिकारों में बैठकर जल में नौकाविहार करना एक स्वप्निल व भावना से ओतप्रोत करने वाला अनुभव है।

खरीददारी

आपकी स्मृतियाँ समेटते छाया चित्रकार
आपकी स्मृतियाँ समेटते छाया चित्रकार

आप इन शिकारे-विक्रेताओं से चाँदी के आभूषण, कागज की लीद से निर्मित वस्तुएं, कश्मीरी केसर, फिरन इत्यादि के साथ काहवा चाय का भी आनंद ले सकते हैं। यदि आप खरीददारी की इच्छा नहीं रखते हैं अथवा आप अपना बटुआ हाउसबोट में रख आये हैं तो कैमरे व कश्मीरी वेशभूषा लेकर छायाचित्र खींचने वाले आपको घेर लेंगे। आप अपने परिधान पर ही कश्मीरी वेशभूषा धारण कर सकते हैं तथा एक कश्मीरी के समान अपना छायाचित्र खिंचवा सकते हैं। जी हां, शीतल जल पर तैरती इस संकरी सी नौका पर ही आप सज्ज हो सकते हैं। आप ‘कश्मीर की कली’ अथवा ‘कश्मीर का पुष्प’ बनकर अपना छायाचित्र खिंचवा सकते हैं। यदि आप इतना परिश्रम ना करना चाहे तो आप जैसे हैं, वैसे ही वे आपके कैमरे से ही आपका छायाचित्र ले सकते हैं जिसके लिए वे छोटी रकम लेते हैं। यह एक उत्तम अवसर होता है क्योंकि जल के मध्य तैरते शिकारे में बैठकर आप स्वयं का छायाचित्र तो नहीं ले सकते हैं ना!

तैरता भाजी उद्यान

नागिन सरोवर में तैरते जल उद्यान
नागिन सरोवर में तैरते जल उद्यान

आपका शिकारा खिवैय्या आपको तैरते हुए भाजी उद्यान की ओर अवश्य संकेत करेगा। कश्मीरी लोग बड़ी मात्रा में कमल ककड़ी खाते हैं जो कमल के पौधे का तना होता है। वह जल में ही उगता है। इसके अतिरिक्त भी वे अनेक ऐसी भाजियां खाते हैं जो जल में ही उगते हैं। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है? क्या आपने इससे पूर्व कहीं जल में तैरते भाजी के उद्यान देखे हैं? यदि हाँ, तो टिप्पणी खंड द्वारा मुझे अवश्य बताएं।

प्रातः का परिदृश्य - हाउसबोट से
प्रातः का परिदृश्य – हाउसबोट से

आप चाहे तट पर बैठे हों, हाउसबोट पर बैठे हों अथवा किसी शिकारे की सवारी कर रहे हों, आप जल पर तैरते अन्य शिकारों पर कहीं से भी दृष्टी डालें, वे अत्यंत ही मनभावन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। वे ऐसे दृश्य होते हैं जिन्हें देखने तथा जिन्हें अपने कैमरे द्वारा अमर बनाने की इच्छा सभी पर्यटन छायाचित्रकारों में होती ही है।

श्रीनगर में हाउसबोटों का इतिहास

सदा से ऐसा माना जाता रहा है कि कश्मीर घाटी में हाउसबोटों की संकल्पना को अंग्रेज लेकर आये थे। किन्तु मुझे हमारे पर्यटन संयोजक Mascot Houseboats के आयोजक यासीन तुमन से ज्ञात हुआ कि १३वीं सदी के प्राचीन कश्मीरी साहित्यों में कश्मीर घाटियों के सरोवरों में तैरती नौकाओं का उल्लेख किया गया है। अतः कश्मीर के लिए नौकाओं का निर्माण नवीन कृति नहीं है। किन्तु उस काल में नौकाओं का प्रयोग पर्यटकों अथवा यात्रियों के लिए कम, स्थानीय लोगों की सुविधा के लिए अधिक किया जाता था।

हाउसबोट अथवा सरोवर पर तैरते घर
हाउसबोट अथवा सरोवर पर तैरते घर

यदि इन्टरनेट की मानें तो जब अंग्रेज कश्मीर घाटी में आये थे, उन्हें भूमि क्रय करने की अनुमति नहीं थी। इसके विकल्प के रूप में उन्होंने नौकाओं का निर्माण किया। उन नौकाओं को उन्होंने विस्तृत सरोवरों में उतारा तथा उनके भीतर ही निवास करने लगे। कालांतर में श्रीनगर के सरोवरों के तट पर खडीं ये भव्य नौकाएं कश्मीर पर्यटन का मुख्य आकर्षण बन गयीं।

आज यदि आप शंकराचार्य मंदिर से डल झील या सरोवर को देखें तो वह आपको नौकाओं से भरी एक नगरी के समान दिखाई देगी। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि किस प्रकार कश्मीर का वाणिज्य इन्ही नौकाओं के चारों ओर केन्द्रित रहता है तथा किस प्रकार इन्ही नौकाओं के चारों ओर अनंत स्मृतियों की रचना होती है।

हाउसबोट क्या है?

रात्रिकाल में हाउसबोट
रात्रिकाल में हाउसबोट

डल सरोवर तथा नागिन सरोवर जैसे जलस्त्रोतों के तट पर एक पंक्ति में खडीं श्रीनगर की हाउसबोटें सरोवरों के चारों ओर स्थित किसी गाँव के समान प्रतीत होती हैं। साधारणतः प्रत्येक हाउसबोट के भीतर कुछ कक्ष होते हैं जिनमें प्रत्येक कक्ष के भीतर एक प्रसाधन गृह भी होता है। साथ ही एक भोजन कक्ष होता है तथा एक आमकक्ष होता है जहां सभी अतिथि साथ बैठकर वार्तालाप कर सकते हैं। सभी कक्षों में तापमान सुखद बनाने के लिए साधन होते हैं। झरोखों से आप सरोवर के शीतल जल को देख सकते हैं। नौका के बाहरी ओर खुला गलियारा होता है जहां बैठकर आप दृश्यों का आनंद ले सकते हैं। यह गलियारा नौका का सर्वोत्तम भाग होता है।

हाउसबोट के भीतर का ऐश्वर्य
हाउसबोट के भीतर का ऐश्वर्य

मेरे मानसपटल पर अब भी उस समय की सुखदाई स्मृतियाँ स्पष्ट हैं जब प्रातः शीघ्र उठकर मैं उस गलियारे में बैठ गयी थी। मेरे एक हाथ में गर्म चाय थी तथा दूसरे हाथ में किन्डल। मेरे समक्ष नागिन सरोवर में छाई धुंद की परतें छंटने लगी थीं तथा प्रातःकालीन दृश्य शनैः शनैः स्पष्ट होने लगा था। उगते हुए सूर्य की किरणें सरोवर के जल को सहलाते हुए उसे निद्रा से जगाने लगी थीं। कुछ ही समय में जल पर सुन्दर पुष्पों से लदे शिकारे दिखने लगे जो उन की विक्री करने के लिए जल में चक्कर काटने लगे थे। बाहरी दृश्यों का आनंद लेते हुए मैं गर्म चाय पी रही थी तथा साथ ही किंडल में पढ़ भी रही थी।

हाउसबोट का शयनकक्ष
हाउसबोट का शयनकक्ष

उत्कृष्ट उत्कीर्णित काष्ठ नौकाएं

हमारे हाउसबोट पास एक अतिभव्य नौका थी जिस पर उत्कृष्ट रूप से नक्काशी की हुई थी। हम उसे देखने उसके भीतर गए। नौका के भीतर की गयी नक्काशियों द्वारा कश्मीर का जीवन तथा उसकी संस्कृति को प्रदर्शित किया गया था। श्रीनगर के हाउसबोटों की लकड़ियों पर की गयी नक्काशी में प्रमुख रूप से चिनार के वृक्ष अवश्य होते हैं। कश्मीर के लिए चिनार केवल एक वृक्ष नहीं है, अपितु वह स्वयं में कश्मीर का इतिहास समेटे हुए है। वह कश्मीर के जीवन का अभिन्न अंग है।

इस भव्य नौका के भीतर स्थित सभी प्रसाधन गृह अतिआधुनिक थे। सभी कक्षों के भीतर वातानुकूलन सुविधाएं थीं जबकि वहां केवल जुलाई मास में वातावरण किंचित उष्ण होता है। कक्षों में रखीं सभी काष्ठ साज-सज्जा की वस्तुएं, मेज, बैठक आदि कश्मीरी कारीगरों की उत्कृष्ट कला प्रदर्शित कर रही थीं। मुझे यह जानकार अत्यंत दुःख हुआ कि अब ऐसे कारीगर कश्मीर में कम ही होते हैं। कश्मीर में लकड़ी पर उत्तम उत्कीर्णन करने वाले उत्कृष्ट कारीगर अब गिने-चुने ही रह गए हैं। कदाचित अब उन्हें इस क्षेत्र में पर्याप्त कार्य एवं पारिश्रमिक उपलब्ध नहीं हो पाता है। इस भव्य नौका के भीतर प्रत्येक सजावट उत्कीर्णित लकड़ी द्वारा की गयी थी।

कश्मीर की काष्ठ कला
कश्मीर की काष्ठ कला

हमने कुछ अन्य नौकाएं भी देखीं। हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि उत्कीर्णन व सजावट की मात्रा एवं गुणवत्ता नौकाओं के स्तर पर निर्भर करती हैं। कुछ नौकाओं के भीतर लकड़ी के पटलों पर की गयी नक्काशी एक प्रकार से कश्मीर एवं उसके वनस्पति व जीवों पर की गयी विस्तृत वृत्तचित्र के समान थी।

हाउसबोट का निर्माण

मैं यात्रा संस्करण लिखने वाली एक ट्रेवल ब्लॉगर हूँ। कश्मीर के हाउसबोट में भी मैं एक ट्रेवल ब्लॉगर के रूप में ही आयी थी। इसका एक लाभ यह हुआ कि हाउसबोट के मालिक ने ना केवल हमें उसकी अन्य नौकाएं दिखाईं, अपितु उसने हमें हाउसबोट के निर्माण पर आधारित एक चलचित्र भी दिखाया। मुझे वह विडियो अत्यंत भाया। अन्यथा हम जैसे लोग, जिनका सामान्य जीवन में कभी नौकाओं से सामना नहीं होता है, नहीं समझ सकते कि कम से कम ५० से ६० वर्षों तक अखंड रूप से साथ निभाने वाली तथा असंख्य पर्यटकों को आनंदित करने वाली इन विशाल नौकाओं का निर्माण कितना कठिन कार्य है। कैसे लकड़ी के लम्बे फलकों से नौकाओं के ऐसे खोल बनाए जाते हैं जो आसानी से जल पर तैर सकें, कैसे प्रत्येक पट्टिका को हाथों से आकार दिया जाता है, कैसे उन्हें आपस में जोड़कर एक विशाल नौका बनाई जाती है तथा कैसे उन्हें अंतर्बाह्य सज्ज किया जाता है आदि।

शिकारे पे फूल की दूकान
शिकारे पे फूल की दूकान

गत कुछ वर्षों में कश्मीर में अस्थिरता व अशांति पूर्ण वातावरण के कारण वहां पर्यटकों की संख्या लगभग नगण्य हो गयी थी जिससे हाउसबोट मालिकों का व्यवसाय चौपट हो गया था। अब कश्मीर की स्थिति में कुछ सुधार आते ही सभी हाउसबोट मालिकों ने एकत्र आकर इस व्यवसाय को पुनर्जीवित करने का निश्चय किया है। उन्होंने इसमें ठहरने के लिए निर्धारित शुल्कों में भरी कमी की है तथा अब इन नौकाओं को आम पर्यटकों के लिए भी खोल दिया है। अन्यथा इससे पूर्व वे केवल संपन्न तथा धनाड्य पर्यटकों को ही हाउसबोट की सेवायें मुहैय्या कराते थे।

श्रीनगर में हम जहां भी गए, सब पिछले वर्ष आई विनाशकारी बाढ़ की ही चर्चा कर रहे थे। किन्तु उससे इन हाउसबोटों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। क्योंकि जलस्तर बढ़ने के पश्चात भी नौकाएं उन पर तैरती रहीं।

हाउसबोट के लिए व्यवहारिक सुझाव

  • जम्मू कश्मीर पर्यटन के वेबस्थल पर श्रीनगर के सभी सरोवरों पर तैरती हाउसबोटों का उनकी श्रेणियों के अनुसार सूचीबद्ध उल्लेख किया गया है। साथ ही उनके मालिकों के नाम तथा उन नौकाओं के स्थापना वर्षों का भी उल्लेख है। आप जब भी कश्मीर की यात्रा का नियोजन करें तथा हाउसबोट में ठहरना चाहें तो आप अपनी नौका के विषय में सभी आवश्यक जानकारी यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।
  • आप वहां कम से कम एक सूर्योदय एवं एक सूर्यास्त का दृश्य अवश्य देखें एवं उनका आनंद उठायें।
  • कम से कम एक बार शिकारे की सवारी अवश्य करें।
  • शिकारे पर विक्रेताओं से कुछ भी क्रय करने से पूर्व आवश्यक मोल-भाव अवश्य कर लें।

कश्मीर के हाउसबोट में ठहरना स्वयं में एक अनोखा अनुभव है जिसे आप जीवन भर विस्मृत नहीं कर सकते।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चंद्रताल – लाहौल स्पीति की मनमोहक नीली झील https://inditales.com/hindi/chandratal-neel-sarovar-lahaul-spiti-himachal/ https://inditales.com/hindi/chandratal-neel-sarovar-lahaul-spiti-himachal/#respond Wed, 24 Nov 2021 02:30:10 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2481

चंद्रताल! हिमाचल की हमारी लम्बी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, भीड़ भरे मनाली नगर लौटने से पूर्व हमारा अंतिम गंतव्य था, यह सुन्दर नीलवर्ण चंद्रताल। ऊंचे-नीचे पहाड़ी क्षेत्रों से परिपूर्ण हिमाचल की लम्बी यात्रा के इस पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते हमारा शरीर थकान के चिन्ह अवश्य दिखाने लगा था। किन्तु चित्ताकर्षक पहाड़ी परिदृश्य अब भी […]

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चंद्रताल! हिमाचल की हमारी लम्बी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, भीड़ भरे मनाली नगर लौटने से पूर्व हमारा अंतिम गंतव्य था, यह सुन्दर नीलवर्ण चंद्रताल। ऊंचे-नीचे पहाड़ी क्षेत्रों से परिपूर्ण हिमाचल की लम्बी यात्रा के इस पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते हमारा शरीर थकान के चिन्ह अवश्य दिखाने लगा था। किन्तु चित्ताकर्षक पहाड़ी परिदृश्य अब भी हमारा मन मोह लेने को तत्पर थे तथा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे। वैसे भी इतने दिवसों से पहाड़ी क्षेत्रों में भ्रमण करते करते हम यहाँ के जन जीवन से अभ्यस्त होने लगे थे। यहाँ के ऊँचे-नीचे घुमावदार मार्गों की कठिनाइयों को समझकर उन्हें स्वीकार करना सीख चुके थे। पहाड़ी घाटियों के मध्य से होती हुई शांत सडकों पर गाडी की यात्रा का आनंद लेना अब भी थमा नहीं था। हरे-भरे एवं बंजर परिदृश्यों की आंखमिचौली के मध्य पहाड़ी नदियों का कलरव हमें आनंदविभोर कर रहा था। मार्ग में यदा-कदा मिलते अन्य पर्यटकों से अभिवादन करते एवं अपने अनुभव बाँटते हम आगे बढ़ रहे थे।

चंद्रताल की और जाते ऊंचे नीचे पथ
चंद्रताल की और जाते ऊंचे नीचे पथ

यात्रा के आरम्भ में मैंने चंद्रताल के कुछ चित्र देखे थे। उन्हें देखने के पश्चात चंद्रताल के प्रत्यक्ष दर्शन करने की तीव्र अभिलाषा मन में हिलोरे मार रही थी। हमारी इस हिमाचल यात्रा के सर्वाधिक ऊंचाई वाले स्थान पर अपना पड़ाव डालने का रोमांच भी हो रहा था। वैसे भी मुझे चन्द्रमा से विशेष लगाव है। उसी के नाम पर आधारित इस झील के दर्शन करने का मैं उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी।

चंद्रताल तक की यात्रा

चंद्रताल तक पहुँचने के लिए हम अपने पिछले पड़ाव, काजा से आगे बढ़ते हुए, कुंजुम दर्रे को पार कर इस ताल तक पहुंचे। पहाड़ों की विस्तृत ढलानें हरित तृणों से ढँकी हुई थीं जिन पर यहाँ वहाँ भेड़-बकरियां चर रही थीं। अनेक स्थानों पर सतहें पीले एवं गुलाबी पुष्पों की चादरों से ढँकी हुई थीं। यात्रा के अंतिम १२ किलोमीटर की यात्रा में हम लगभग पत्थरों पर ही गाडी चला रहे थे। अति संकरे मार्गों को देख ऐसा आभास हो रहा था मानो उनकी चौड़ाई केवल हमारी गाड़ी की चौड़ाई के अनुकूल ही बनाई गयी थी। उस पर, अनेक स्थानों पर सड़क पार करती जलधाराएं भी इतनी तीव्र गति से बह रही थीं मानों हमें बहा ले जायेंगी। दूर दूर तक कोई जनमानस दृष्टिगोचर नहीं था। केवल कुछ स्थानों पर मार्ग दर्शाते सूचना फलक थे जो हमारा मार्गदर्शन कर रहे थे।

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तम्बू शिविर

हिमालय की गोद में हमारा शिविर
हिमालय की गोद में हमारा शिविर

कुछ दूर से जब हमारी दृष्टी छोटे छोटे तम्बुओं पर पड़ी, हमें मानवी उपस्थिति का आभास हुआ। वे वही पैरासोल तंबू थे जहां हम ठहरने वाले थे। वहां पहुंचते पहुँचते दोपहर हो चुकी थी। ऊपर सूर्यदेव अपनी पूर्ण आभा से दमक रहे थे जिसके कारण ये तम्बू अत्यंत उष्ण हो गए थे। अपने समक्ष बर्फ से आच्छादित पहाड़ियों को देखने के पश्चात भी मुझे उस उष्णता में वातानुकूलन की आवश्यकता प्रतीत हुई। वहां हमें सादा व स्वादिष्ट भाजी-भात का भोजन प्राप्त हुआ। ऐसे जटिल क्षेत्र में ऐसा सादा एवं मूल भोजन भी मिल जाए तो उसे सम्पन्नता ही कहेंगे। वहां बंगलुरु से युवा यात्रियों का एक बड़ा समूह भी पहुंचा हुआ था। वे सभी दुपहिया वाहन चलाकर वहाँ तक पहुंचे थे। अचानक ही वह तम्बू-आवास आगंतुकों के क्रियाकलापों व गतिविधियों से चहक उठा था।

हम दोपहर के भोजन के पश्चात किंचित विश्राम करना चाहते थे किन्तु हमारे गाइड ने हमें तुरंत ही ताल के अवलोकन हेतु चलने का परामर्श दिया। उसके अनुसार संध्या के समय ठण्ड बढ़ जाने पर बाहर निकलना कष्टदायक होता है। इससे अधिक उत्तम कारण यह था कि आकाश में सूर्य की उपस्थिति में ताल के जल पर विविध रंगों की छटा अद्वितीय होती है। उन रंगों को देखना तथा उसके चित्र लेना, इस प्रलोभन ने हमें तुरंत ही हमारे पैरों पर खड़ा कर दिया। हम भागकर कार में बैठ गए। हमारे गाइड के मुख पर उपहास मिश्रित हास्य उमड़ पड़ा। उसने हमें हमारे ऊनी मोजे, कान-टोपियाँ, दस्ताने, जैकेट आदि लाने के लिए कहा। उस समय वहां इतनी उष्णता थी कि उन वस्तुओं को साथ रखना तो दूर, उनके नाम सुनना भी दूभर था। किन्तु किसी पाठशाला के शिक्षक के समान वह अड़ा रहा, मानो कह रहा हो कि उन ऊनी वस्त्रों की अनुपस्थिति में वह हमें ताल तक लेकर नहीं जाएगा। मेरी छठी इन्द्रि मुझे कहने लगी कि किसी भी स्थल की स्थानीय जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उसे स्वीकार करने में ही विवेक है।

चंद्रताल तक पदयात्रा

चंद्रताल - लाहौल स्पीति हिमाचल प्रदेश
चंद्रताल – लाहौल स्पीति हिमाचल प्रदेश

गाड़ी द्वारा एक छोटे किन्तु तीव्र चढ़ाई युक्त यात्रा के पश्चात हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंचे जहां से हमें ताल तक, लगभग एक किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी थी। अब तक मैं ताल के अप्रतिम दर्शन के लिए अत्यंत अधीर हो चुकी थी। यद्यपि पैदल यात्रा का मार्ग सरल था, तथापि ऊंचाई के कारण श्वास लेने में कठिनाई अवश्य हो रही थी। ऐसी स्थिति में दीर्घ श्वास लेते हुए धीमी गति से अनवरत चलना ही सर्वोत्तम उपाय है। यही उपाय अपनाते हुए हमने यह यात्रा बिना कष्ट के पूर्ण कर ली।

चंद्रताल के मार्ग पर स्थित घाटियाँ विविध पुष्पों से भरी हुई थीं। एक गड़रिया उनके बीच बैठकर उनकी सुन्दरता का आनंद ले रहा था। उसकी कुछ भेड़ें नीचे जल के समीप विचरण कर रही थीं तथा कुछ पहाड़ी पर घास चर रही थीं।

चंद्रताल – स्पीति घाटी की अद्वितीय नीली झील

चांदी के कटोरे सा नील सरोवर - चंद्रताल
चांदी के कटोरे सा नील सरोवर – चंद्रताल

प्रथम दर्शन में चंद्रताल ऐसा प्रतीत हुआ जैसे नीले जल से भरा एक विशाल पात्र हो, जिसमें एक किनारे से जल भर रहा हो। फिरोजी नीले रंग का जल अत्यंत शांत था। इससे पूर्व फिरोजी नीले रंग के जल को देखना तो दूर, मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। झील के समीप पहुँचते हुए हमें तट के समीप का जल अधिक पारदर्शी प्रतीत होने लगा था तथा उसमें कुछ विप्लव भी दृष्टिगोचर हो रहा था। झील तक जाना अब एक सरल कार्य प्रतीत हो रहा था। मैं मंत्रमुग्ध सी झील की ओर खिंची चली जा रही थी। आज सोचूँ तो मुझे अपने पैरो की गति की रत्ती भर भी स्मृति नहीं है। मेरा हृदय एवं मन अपने समक्ष स्थित झील के परिदृश्यों से एकाकार हो रहा था। आप हिमालय की झीलों के जितने चाहे चित्र देख लें, किन्तु ऐसे अप्रतिम झील के समीप जाना तथा उन्हें प्रत्यक्ष निहारना एक अद्वितीय अनुभव है। कोई भी यंत्र-तंत्र हमें यह जादू नहीं दिखा सकता। इसका अनुभव इसके समक्ष प्रत्यक्ष रूप से जाने पर ही हो सकता है।

हम जिस पहाड़ी पर चल रहे थे, उस पर ही किंचित चढ़ाई कर हमने वायु के प्रवाह का अनुमान लिया। एक समतल धरती पर वायु में फड़फड़ाती रंगबिरंगी पताकाएं वायु प्रवाह की दिशा बता रही थीं। अन्यथा परिदृश्य के अन्य भागों में वायु शांत एवं स्थिर थी। ताल के तट पर कुछ विदेशी पर्यटकों ने तम्बू लगाया हुआ था। वे ताल के जल में प्रवेश करने का प्रयत्न कर रहे थे। जल अत्यंत शीतल होने के कारण वे जल में अधिक भीतर तक प्रवेश नहीं कर पाए। यह देख मुझे प्रसन्नता हुई। मेरी भावना तर्कसंगत नहीं थी किन्तु मैं नहीं चाहती थी कि वे जल में प्रवेश करें। मुझे यह कृति चंद्रताल के पावन जल के अपवित्रीकरण जैसा प्रतीत हो रहा था। मैं नहीं जानती कि मेरी ये भावना मेरे धार्मिक संस्कारों के कारण उत्पन्न हुई थी अथवा ताल का निर्मल जल दूषित के होने के भय का परिणाम था।

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झील के समीप पहुंचकर हम उसके किनारे चलने लगे। झील के अर्धचन्द्राकार का अनुमान लगाने लगे। आसपास से हिमनद की अनेक जलधाराओं का जल चंद्रताल में समाहित हो रहा था। हम झील के किनारे एक शैलमंच पर बैठकर परिदृश्यों का आनंद लेने लगे। वायु शीतल हो चली थी। मेघ पहाड़ियों की एक चोटी से दूसरी चोटी पर भ्रमण कर रहे थे जिनकी छाया जल के रंगों में विविधता उत्पन्न कर रही थी। ताल का जल इतना पारदर्शी था कि हम उसके तल पर स्थित चिकने पत्थरों की प्रत्येक परत स्पष्ट देख पा रहे थे। सम्पूर्ण ताल चिकने पत्थरों की परतों ने निर्मित विशाल पात्र सा प्रतीत हो रहा था।

चंद्रताल का विस्तार

हमारे परिदर्शक अर्थात् गाइड ने हमें बताया कि ताल की परिधी लगभग ४ किलोमीटर है। अनेक भ्रमणकर्ता, विशेषतः बौद्ध भिक्षुक ताल के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। मेरे हृदय में भी चंद्रताल की परिक्रमा करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई। किन्तु मुझे अपने शारीरिक स्वास्थ्य स्तर पर पूर्ण विश्वास नहीं हो पा रहा था। इतनी ऊँचाई पर ४ किलोमीटर चलना, वह भी उतार-चढ़ाव युक्त पथ पर। क्या मैं यह कर पाऊँगी? अचानक ही मेरे भीतर चमत्कार सा हुआ। मैंने निश्चय किया कि मैं यह परिक्रमा करूंगी।

चंद्रताल की परिक्रमा करते हुए
चंद्रताल की परिक्रमा करते हुए

कदाचित मुझे इस सत्य ने झकझोरा कि इस पावन चंद्रताल की परिक्रमा का उत्तम अवसर पुनः प्राप्त ना हो सकेगा। कदाचित हिमाचल के इस भाग में पुनः आने का अवसर मुझे कभी प्राप्त नहीं होगा। या मेरे भीतर के संस्कारों ने मुझे इस पवन ताल की परिक्रमा करने हेतु मुझे प्रेरित किया होगा। जो भी कारण रहा हो। यद्यपि मेरा निर्णय विवेकपूर्ण नहीं था, तथापि मैंने घोषणा की कि मैं यह परिक्रमा कर रही हूँ। मेरी सहयात्री अलका भी सहर्ष मुझसे सहमत हो गयी। हमें बताया गया कि इस परिक्रमा को पूर्ण करने में लगभग ९० से १२० मिनटों का समय लग जाता है। पहले ही संध्या के ४ बज चुके थे। फिर भी कोई शक्ति मुझे यह परिक्रमा करने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी।

चंद्रताल की परिक्रमा

हिमाच्छादित चोटियों से घिरा नील सरोवर
हिमाच्छादित चोटियों से घिरा नील सरोवर

एक संकरी पगडंडी पर दक्षिणावर्त चलते हुए हमने ताल की परिक्रमा आरम्भ की। कई स्थानों पर छोटे छोटे पत्थरों के ढेर बनाए हुए थे जिनके द्वारा बौद्ध आस्तिक अपने अनुयायियों के लिए पथ चिन्हित करते हैं। प्रत्येक परिक्रमाकर्ता अपनी ओर से उस ढेर में एक पत्थर का योगदान करता जाता है। मानो अपने अच्छे कर्मों का एक भाग प्रदान कर रहा हो। पत्थरों के इन ढेरों के समीप से जाते हुए यह आभास होता रहता है कि हम एक ज्ञात मार्ग पर चल रहे हैं। अपनी परिक्रमा के संज्ञान को चिन्हित करने के लिए एक पत्थर अपनी ओर से जोड़ना, यात्राओं के प्रलेखन की यह हिमालय पद्धति निःसंदेह अद्भुत है। मुझे बताया गया कि पत्थरों के ऐसे ढेर को ‘उवूस’ कहते हैं।

पत्थरों का संतुलन
पत्थरों का संतुलन

बलखाती पगडंडियों पर चलते हुए हमने ताल के उन भागों के भी दर्शन किये जो हमारे प्रारंभिक बिंदु से दृश्यमान नहीं थे। अनेक स्थानों पर रूक कर हमने कई चित्र भी लिए। किन्तु जो हमने प्रत्यक्ष अपने नेत्रों से देखा तथा अनुभव किया, उसकी तुलना किसी भी चित्र से नहीं की जा सकती। मैं अपने नेत्रों में सम्पूर्ण परिदृश्य को समाहित करने का प्रयत्न कर रही थी। मुझे पूर्ण आभास था कि यह दृश्य जन्म भर के लिए मेरे मन-मस्तिष्क में चिन्हित हो गया है। मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग हो गया है। जीवन में कुछ अनुभव ऐसे ही होते हैं। ताल के उस पार विस्तृत मैदानी क्षेत्र था जिसकी भूमि गत रात्रि की वर्षा के कारण नम थी।

गड़रिये एवं भेड़ों के प्रति उनका समर्पण

यहाँ पुनः मेरी भेंट उस गड़रिये से हुई। उसकी भेड़ें ताल के तट पर सावधानी से चर रही थीं। उसने हमें बताया कि अपनी भेड़ों को चराने के लिए वह कांगड़ा घाटी आया है। २०० भेड़ों को साथ लेकर हिमालय क्षेत्रों में सैकड़ों किलोमीटर चलकर यहाँ आना, वह भी केवल अपनी भेड़ों को चराने के लिए, यह आसान कार्य नहीं है। यही दिनचर्या यहाँ के साधारणतः सभी गड़रियों की होती होगी। इसके अतिरिक्त, वर्षा के महीनों में लाहौल एवं स्पीति घाटियों में भेड़ों के साथ भ्रमण करना! यह हमारी सोच से भी परे है। इसके लिए भेड़ों के प्रति उनका समर्पण ही उन्हें प्रेरित करता होगा। उस गड़रिये से चर्चा करने से पूर्व मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि ये इतनी लम्बी दूरी पार कर यहाँ आते हैं।

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अपने तम्बू में पहुँच कर मैंने इस पर विचार किया। गड़रियों से सम्बंधित, विश्व भर में प्रसिद्ध, अनेक लोककथाएँ मेरे मस्तिष्क में उभर गयीं। अपने समक्ष चलते भेड़ का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ते भेड़ों को देखते ही मुझे ‘भेड़ चाल’ इस कहावत का स्मरण हो आया। आज मैंने इसे प्रत्यक्ष अनुभव किया। एक के पीछे एक सैकड़ों भेड़ें, अपनी बुद्धि का प्रयोग किये बिना, अपने नेता का अनुसरण करती शांत चल रही थीं। ना कोई प्रश्न ना शंका। इस भेड़ चाल को देखना मेरे लिए एक रोचक अनुभव था।

चंद्रताल तक पैदल यात्रा के लिए उर्जा

सम्पूर्ण स्पीति घाटी में भ्रमण करते समय मेरा श्वास सहज नहीं था। किन्तु चंद्रताल की परिक्रमा करते समय मुझे श्वास लेने में तनिक भी कष्ट नहीं हो रहा था। चंद्रताल के चारों ओर परिक्रमा करते समय ना जाने कहाँ से मेरे पैरों में ऊर्जा आ गई थी। मेरे पैर स्वयं ही परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ रहे थे। उनमें किंचित भी तनाव नहीं था। शरीर के भार का आभास लुप्त हो गया था। मैं वायु के झोंके के समान बह रही थी, सहज, भारहीन तथा चारों ओर के विश्व से असम्बद्ध। अंततः मुझे यह उर्जा कहाँ से प्राप्त हो रही थी? कदाचित चंद्रताल ही मेरी इस उर्जा का स्त्रोत था।

४ किलोमीटर लम्बी परिक्रमा करने के पश्चात भी मुझे रत्ती भर भी थकान प्रतीत नहीं हो रही थी। मैं अपने शरीर एवं मन में उत्पन्न उर्जा से स्वयं ही आश्चर्यचकित थी। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी दैवी शक्ति ने मुझ पर ऊर्जा की वर्षा की हो। मुझे उस समय जो अनुभव हुआ, उसे मैं शब्दों में नहीं पिरो सकती हूँ। किन्तु उस अनुभव का आभास अब भी मेरी स्मृति में स्पष्ट है। अचंभित करने वाला तथ्य यह है कि जैसे ही हम परिक्रमा पूर्ण कर अपनी गाड़ी की ओर बढे, मुझे पुनः स्वयं पर गुरुत्वाकर्षण व भार का आभास होने लगा। गाड़ी तक पहुँचने के लिए मुझे शक्ति की आवश्यकता प्रतीत होने लगी थी। मुझे लगा मैं अपनी जादू की छड़ी पीछे चंद्रताल पर ही छोड़ आयी हूँ।

चंद्रताल की ऊँचाई समुद्र तल से लगभग ४३०० फीट है। यह हिमालय के मौल्किला एवं चंद्रभागा पर्वत श्रंखलाओं से घिरा हुआ है।

मेरे दर्शन का विडियो

अपने चंद्रताल भ्रमण का एक विडियो मैं आपके लिए लेकर आयी हूँ। इसे अवश्य देखिये।

महाकाव्यों से सम्बन्ध

भारतीय प्रायद्वीप के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों का रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों से सम्बन्ध होता है। अतः हिमालय की गोद में स्थित इस अद्भुत ताल का किसी महाकाव्य से सम्बन्ध ना हो, यह कैसे हो सकता है? ऐसी मान्यता है कि यह ताल उस स्थान पर स्थित है जहाँ इन्द्रदेव अपना रथ लेकर युधिष्ठिर को लेने आये थे। यह उस काल की कथा है जब पांडव ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर ने महाभारत की समाप्ति के पश्चात अपने भ्राताओं समेत स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया था। हिमालय की अनेक पर्वत श्रंखलायें ऐसी हैं जिनके विषय में वहां के निवासियों के दावे हैं कि उन पर चढ़कर ही पांडव भ्राता स्वर्ग पहुंचे थे। उनमें से कौन से दावे सत्य हैं तथा कौन से निराधार, इसके लिए पुराणों को पढ़ना होगा क्योंकि वहां उसका उल्लेख है। यद्यपि यह स्थान किसी भी दृष्टिकोण से स्वयं ही किसी स्वर्ग से न्यून नहीं था।

किवदंतियां

चंद्रताल के दर्शन उपरान्त हम तम्बुओं में वापिस आ गए। शीतल संध्या के समय, लहसुन का गर्म शोरबा पीते हुए हम पैरासोल तम्बुओं के स्वामी, श्री बिशन ठाकुर जी से चर्चा करने लगे। उन्होंने हमें हिम तेंदुओं के विषय में बताया जो इस स्थान में पाए जाते हैं। किन्तु इन दिनों वे कदाचित ही दृष्टिगोचर होते हैं। मैंने उनसे प्रश्न किया कि चंद्रताल का महाभारत से सम्बन्ध होने के अतिरिक्त, इस स्थान की अन्य स्थानिक किवदंतियाँ कौन सी हैं? स्मित हास्य मुख पर लेकर उन्होंने हमें चंद्रताल से सम्बंधित स्थानिक कथा सुनाई।

परियों की कथा

गड़रिया अपनी भेड़ों को निहारते हुए
गड़रिया अपनी भेड़ों को निहारते हुए

उन्होंने इस प्रकार कथा का आरम्भ किया, प्राचीन काल में एक गड़रिया था जो अपनी भेड़ें चराने के लिए उन्हें लेकर यहाँ आया था। यह सुनते ही कुछ क्षण पूर्व भेंट हुई गड़रिये की छवि मेरे नैनों के समक्ष तैरने लगी। उसकी छवि को समक्ष रखकर मैंने आगे की कथा सुनना आरम्भ किया। श्री बिशन ठाकुर जी ने आगे कहा कि उस गड़रिये की छड़ी इस ताल में गिर गयी। वह ताल के जल में अपनी छड़ी ढूँढ रहा था कि अचानक उसमें से वही छड़ी हाथ में लिए एक परी प्रकट हुई। उस गड़रिये ने ऐसी सुन्दर कन्या इससे पूर्व कभी देखी नहीं थी।

गड़रिये एवं परी को एक दूसरे से प्रेम हो गया। प्रत्येक वर्ष वह गड़रिया वहां आता था तथा ताल के समीप परी के संग प्रेम के कुछ क्षण व्यतीत करता था। गड़रिये के घर पर उसकी पत्नी एवं बच्चे थे। इसके पश्चात भी वह उस परी से विवाह करने के लिए इच्छुक था। परी ने भी विवाह के लिए स्वीकृति दे दी। किन्तु इसके लिए गड़रिये के समक्ष एक शर्त रखी कि वह उसके एवं उनके प्रेम सम्बन्ध के विषय में किसी भी अन्य से उल्लेख नहीं करेगा। यदि उसने परी एवं उनके प्रेम के विषय में किसी अन्य से कहा तो वह उससे हाथ धो बैठेगा। परी के प्रेम में आसक्त उस गड़रिये ने वह नियम मान लिया तथा परी से विवाह कर लिया। कुछ वर्ष उन्होंने अत्यंत प्रेम से व्यतीत किये।

चंद्रताल की परिक्रमा करता भेड़ों का झुण्ड
चंद्रताल की परिक्रमा करता भेड़ों का झुण्ड

एक दिवस उस गड़रिये का उसके घर में उसकी पत्नी से झगड़ा हो गया। क्रोध से वशीभूत गड़रिये ने अपनी पत्नी के समक्ष परी एवं उससे प्रेम के विषय में सब उगल दिया। गड़रिये को तुरंत ही अपनी भूल का आभास हुआ किन्तु उसके मुख से शब्द निकल चुके थे। अब वे वापिस नहीं लिए जा सकते थे। इसके फलस्वरूप, जब चंद्रताल जाने का समय आया तो गड़रिया वहां पहुंचा, किन्तु तब तक परी वहां से जा चुकी थी।

चंद्रताल के समक्ष जाकर गड़रिये ने अनेक मिन्नतें की किन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुईं। उसने हार नहीं मानी तथा वह अनवरत अपनी करनी के लिए क्षमा याचना करने लगा। अंततः वह जल से बाहर आयी। उसके हाथ में एक मृत शिशु था। किन्तु अब वह परी नहीं थी, अपितु एक सामान्य स्त्री थी। उसकी सुन्दरता लुप्त हो चुकी थी तथा उसके वस्त्र जीर्ण हो गए थे। वह एक प्रेतात्मा के सामान प्रतीत हो रही थी। गड़रिये ने उसे उसकी इस स्थिति का कारण पूछा तथा शिशु के विषय में भी जिज्ञासा व्यक्त की। परी ने कहा कि गड़रिये द्वारा सौगंध का पालन ना करने के कारण उसकी यह स्थिति हुई है। वह मृत शिशु भी गड़रिये का ही पुत्र था। गड़रिया दहाड़ मार कर रोने लगा। परी शिशु को उसके हाथों में सौंप कर ताल के जल में पुनः लुप्त हो गयी। ऐसा कहा जाता है कि उसी गड़रिये के वंशज अब भी उस परी से भेंट करने की आस में प्रत्येक वर्ष यहाँ आते हैं।

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मैं कल्पना करने लगी कि कुछ क्षण पूर्व जिस गड़रिये से भेंट हुई थी, वह भी कदाचित परी से मिलने की आस में वहां आया होगा।

रात्रि में तारामंडल के दर्शन

चंद्रताल का निर्मल जल
चंद्रताल का निर्मल जल

जो तम्बू दोपहर के समय जलती भट्टियों के समान उष्ण थे, वे ही तम्बू अब संध्या के पश्चात बर्फ से भरे संदूक के समान शीतल हो गए थे। हमने दाल, चावल एवं भाजी का सादा भोजन किया तथा अपने अपने तम्बुओं में दुबक गए। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उन तम्बुओं से बाहर निकलने की हमारी कोई मंशा शेष नहीं थी। किन्तु नैसर्गिक आवश्यकताओं पर कोई बंधन नहीं होता है। आज मैं भगवान का धन्यवाद करती हूँ कि उन आवश्यकताओं के चलते मुझे रात्रि में अपने तम्बू से बाहर निकलना पड़ा। उसी के कारण मुझे अपने जीवन का एक अभूतपूर्व अनुभव प्राप्त हुआ। मेरे समक्ष एक अप्रतिम दृश्य उपस्थित था। सम्पूर्ण आकाश एक चमचमाते शामियाने के समान प्रकाशमान था। दमकते तारे आकाश से नीचे तक लटकते हुए प्रतीत हो रहे थे। हमारे चारों ओर केवल वही दृश्य था। सभी तारे इतने चमचमाते हुए टिमटिमा रहे थे कि चंद्रमा की अनुपस्थिति का तनिक भी आभास नहीं था। नीचे धरती ठण्ड से जम रही थी किन्तु आकाश में सभी तारे उत्सव मना रहे थे तथा हमें भी उसमें सम्मिलित होने का न्योता दे रहे थे।

शहरों एवं मैदानी क्षेत्रों में ‘तारों की शोभायात्रा’ का यह विहंगम एवं अप्रतिम दृश्य असंभव है। तारों का वह उत्सव इतने समीप प्रतीत हो रहा था मानो उछलकर हम उन्हें छू लें। सम्पूर्ण आकाश में इतनी अधिक संख्या में, इतने समीप एवं इतने सघन तारे देखना तो दूर, कल्पना से भी परे था, मानो अन्य आकाशगंगा से भी तारों का समूह यहाँ आ गया हो। मेरी इस यात्रा का वह भी एक दृश्य है जिसने मेरे मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ दी है। मैं उस अद्भुत दृश्य में खो गयी। मैंने उसके चित्र लेना सही नहीं जाना। वह दृश्य इतना विशेष था कि उसे चित्र में समेटने की चेष्टा करना भी मुझे स्वीकार नहीं था। ऐसे दृश्यों को कोई भी चित्रों द्वारा न्याय नहीं कर सकता है।

विदाई

अगले दिन प्रातः अल्पाहार करने के पश्चात हमारी विदाई का समय हो गया। अब इस मंत्रमुग्ध करते स्थल को तथा स्पीति की अप्रतिम घाटियों को अंतिम अभिवादन करने का समय आ गया था। अब हमें रोहतांग दर्रे की ओर से वापिस मनाली के लिए प्रस्थान करना था। चंद्रताल की यात्रा ने मेरे जीवन में ऐसे अप्रतिम क्षणों का योगदान किया है जिन्हें मैं आजन्म भूल नहीं सकती। रात्रि के आकाश में तारों की हुड़दंग मेरे लिए एक अविस्मरणीय स्वप्न के समान हैं। वे क्षण किसी जादुई अनुभूति से कम नहीं हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुमाऊँ घाटी की रहस्यमयी झीलें- भीमताल, सातताल, नौकुचिया ताल https://inditales.com/hindi/kumaon-lakes-bhimtal-sattal-naukuchiatal/ https://inditales.com/hindi/kumaon-lakes-bhimtal-sattal-naukuchiatal/#comments Wed, 29 Nov 2017 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=553

उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में बसा नैनीताल, यात्रियों का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। हिमालय पर चमचमाते माणिक की तरह चमकता यह शहर देशी व विदेशी पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है। हरे भरे पहाड़ों एवं झीलों से आच्छादित नैनीताल, प्राकृतिक सुन्दरता का उत्कृष्ट नमूना है। पर क्या आप जानते हैं, नैनीताल स्थित नैनी झील […]

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भीमताल झील - कुमाऊँ उत्तराखण्ड
भीमताल झील – कुमाऊँ उत्तराखण्ड

उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में बसा नैनीताल, यात्रियों का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। हिमालय पर चमचमाते माणिक की तरह चमकता यह शहर देशी व विदेशी पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है। हरे भरे पहाड़ों एवं झीलों से आच्छादित नैनीताल, प्राकृतिक सुन्दरता का उत्कृष्ट नमूना है। पर क्या आप जानते हैं, नैनीताल स्थित नैनी झील कुमाऊँ घाटी की केवल एक ताल या झील है। हल्द्वानी अथवा काठगोदाम के मैदानी क्षेत्रों से कुमाऊँ की ओर जाते मार्ग पर जब पहाड़ियों की शुरुआत होती है, एक के बाद एक दिखाई देती छोटी बड़ी झीलें मन्त्रमुग्ध कर देती हैं। भीमताल, सातताल, नौकुचिया ताल जैसे झीलों के पास बिताया समय हमें प्रकृति से एकाकार कर देता है।

इन झीलों के सानिध्य में बिताये कुछ दिनों में हमने हर सुबह झीलों के किनारे रमणीय वातावरण में भरपूर भ्रमण किया। सांझ होते ही हम अन्य पर्यटकों को झीलों में नौका सवारी का आनंद उठाते, बतखों से खेलते व अन्य पानी के खेल खेलते देख, घंटों बिता देते। हमने एक एक झील का भरपूर आनंद उठाया और प्रत्येक झील ने हमें एक नया अनुभव दिया। हर झील ने एक नयी कहानी सुनाई।

यही अनुभव व कहानियां मैं आपके साथ बांटना चाहती हूँ। आईये मेरे अनुभव एवं दृष्टि से होते हुवे इन झीलों से आपका परिचय कराती हूँ।

भीमताल

भीमताल - अपनी जल छवि के साथ
भीमताल – अपनी जल छवि के साथ

इस ताल का नाम ही एक कथा कहता है। महाभारत के पांडव पुत्रों में दूसरे पुत्र भीम के नाम पर इस झील का नामकरण किया गया है। ऐसी मान्यता है की पांडव अपने वनवास काल में यहाँ आये थे।

भीमेश्वर महादेव मंदिर

भीमताल पर स्थित भीमेश्वर महादेव मंदिर अर्थात् भीम के इष्ट देव को समर्पित मंदिर, एक छोटा और प्राचीन मंदिर है। मंदिर के उज्जवल रंगों को देख इसके प्राचीन होने पर सहसा विश्वास नहीं होता। परन्तु मंदिर परिसर में स्थित बरगद के वृक्ष पर एक दृष्टी आपकी सारी शंकाएं दूर कर देंगी।

भीमेश्वर महादेव मंदिर - भीमताल
भीमेश्वर महादेव मंदिर – भीमताल

भीमेश्वर महादेव मंदिर के भीतर व आसपास मैंने पत्थर में बनी अनोखी शिल्पकलाएं देखीं। प्राचीन मंदिर के चित्र को देख अनुमान लगाया जा सकता है कि मूलतः इस मंदिर की संरचना जागेश्वर के मंदिरों की तरह पाषाणी थी। भीमताल पर लगे सूचना पट्टिका के अनुसार वर्तमान मंदिर १७ वीं. शताब्दी में चाँद वंशी राजा बाज बहादुर ने बनवाया था।

इस मंदिर के समीप स्थित पहाड़ी को हिडिम्बा पहाड़ी कहा जाता है। भीम ने अपने वनवास के समय राक्षस कन्या हिडिम्बा से विवाह किया था। उससे उन्हें घटोत्कच नामक पुत्र की भी प्राप्ति हुई थी।

भीमताल झील के आसपास भ्रमण

मछलियाँ पकड़ने के नए प्रयोग - भीमताल
मछलियाँ पकड़ने के नए प्रयोग – भीमताल

भीमताल से सम्बंधित मेरे सबसे अविस्मरणीय क्षण थे सूर्योदय के समय भीमताल की परिक्रमा! हालांकि कुमाऊँ विकास मंडल निगम के आवास गृह में हमारे कक्ष से भीमताल का सुन्दर दृश्य दिखाई दे रहा था। तथापि सूर्योदय के समय भीमताल का पग भ्रमण एक अलौकिक अनुभव था। उस समय वहां होते थे, केवल हम, कुछ पक्षी और आलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य। यहाँ तक कि मंदिर में भी अभी जागरण व पूजा अर्चना आरम्भ नहीं हुई होती थी।

भीमताल, कुमाऊँ की सर्वाधिक प्रसिद्ध, नैनीताल अथवा नैनी झील से भी अधिक प्राचीन है।

भीमताल भ्रमण के आरम्भ में हमें पीपों से बनी पुल सदृश संरचना पानी में तैरती दिखाई दी। उस पर तार की जालियां लटकी हुई थीं। मैं अनुमान लगा ही रही थी कि मेरे अनुमान की पुष्टि हुई एक सूचना फलक द्वारा, जिस पर लिखा था- मीठा-जल मछली अनुसन्धान विभाग द्वारा प्रायोगिक पिंजरा मछली पालन उद्योग। उस दिन मुझे पिंजरा मछली पालन उद्योग की तकनीक की जानकारी मिली।

भीमताल कुमाऊँ की सर्वाधिक बड़ी झील है।

भीमताल का एक मनोरम दृश्य
भीमताल का एक मनोरम दृश्य

झील के चारों ओर भ्रमण हेतु पक्की पगडण्डी बनायी गयी थी जिस पर हम चलने लगे। यह मार्ग झील से अपेक्षाकृत बहुत ऊंचा था। चलते समय ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम किसी ऊंचे टीले पर चल रहे हों। थोड़े थोड़े अंतराल पर झील के ऊपर छोटे छोटे मंच बने हुए थे जिन पर चढ़ कर हम झील का विहंगम दृश्य देख सकते थे। हमारी बायीं ओर ऊंची सपाट चट्टान थी जिसकी परछाई झील के जल के साथ आखेट कर रही थी। झील का जल आईने की तरह स्वच्छ था। उस पर पड़ती परछाई हमें असली और परछाई में भेद करने की चुनौती दे रही थी।

पक्षी

भीमताल के पगभ्रमण के समय नीले, पीले व लाल रंगों के अनेक पक्षी हमारे चारों तरफ फुदक रहे थे। इन चंचल पक्षियों की स्वच्छंदता देख हम अपने आप को रोक ना सके व रूक कर इनके चित्र खींचने में व्यस्त हो गए।

भीमताल के बीचोंबीच एक उपद्वीप है जिस पर पहले एक जलपान गृह हुआ करता था। कुछ असुविधाओं के कारण इस जलपानगृह को बंद कर दिया गया है। अब उस पर नैनीताल झील विकास प्राधिकरण ने एक मछलीघर की स्थापना की है। आप उस उपद्वीप तक नौकासवारी का आनंद उठाते पहुँच सकते हैं व मछलीघर में मक्सिको, दक्षिण आफ्रिका, चीन इत्यादि देशों से लायी गयी रंगबिरंगी मछलियों को आकर्षक पृष्ठभूमि में देख सकते हैं।

भीमताल से निकलता एक जल प्रवाह
भीमताल से निकलता एक जल प्रवाह

भीमेश्वर महादेव मंदिर के एक तरफ हमने एक नहर देखी जो भीमताल के जल को गोला नदी से जोड़ती है। इसका जल सिंचाई व शहरी जल आपूर्ति हेतु उपयोग में लाया जाता है।

झील के दूसरी ओर एक नौका केंद्र है। सूर्योदय के समय वहां अनेक रंगबिरंगी नौकाएं एवं डोंगियाँ कतार में खड़ी रहती हैं। संध्या आते ही पर्यटक झील में नौकाविहार का आनंद उठाते हैं। साथ ही झील किनारे चाट, पकौड़ी, भुट्टे, चाय, इत्यादि का आस्वाद लेकर चटकारे लेते नहीं थकते।

कैंचुलीदेवी मंदिर

रंगारंग नौकाएं - भीमताल झील
रंगारंग नौकाएं – भीमताल झील

भीमताल पदभ्रमण के अंतिम चरण में हमें कैंचुलीदेवी को समर्पित मंदिर के दर्शन हुए। स्कन्द पुराण के मानसखंड के अनुसार इस मंदिर के समीप भीमताल का जल अत्यंत पवित्र है। ऐसा माना जाता है की इस पवित्र जल में स्नान करने से शरीर के सर्व रोगों का अंत होता है। झील के इस भाग में फलतः मछली पकड़ने की मनाही है। कैंचुली देवी का मूल मंदिर जल में समाधिस्त है। उसका केवल शीष ध्वज ही जलस्तर के ऊपर दृष्ट है। सड़क के समीप स्थित कैंचुली देवी मंदिर अपेक्षाकृत नवीन संरचना है।

नौकुचिया ताल

नौ कोनों वाली नौकुचिया झील
नौ कोनों वाली नौकुचिया झील

जैसा की इसका नाम है, नौकुचिया ताल नौ कोनों का एक छोटा ताल है। भीमताल से ४ की.मी. दूर इस ताल के पगभ्रमण हेतु हम एक संध्या यहाँ पहुंचे। सूर्यास्त के पहले के सांध्य प्रकाश में हमने इस ताल का एक चक्कर लगाया।

इस झील का पर्यटन वातावरण किंचित शांत होते हुए केवल दोनों तरफ कुछ साधारण व्यापारिक गतिविधियाँ दृष्टिगोचर हुईं। मेरी अभिलाषा थी इस ताल का सम्पूर्ण चक्कर लगाकर इसके नौ कोनों की गणना करना। परन्तु एक स्थान पर मार्ग बंद होने के कारण यह संभव नहीं हो सका। तथापि हमारे आनंद में कोई कटौती नहीं आई। हमारे भ्रमण के समय हमने इस ताल की सुन्दरता के कई आयाम देखे। अनियमित आकार होने के कारण थोड़ी थोड़ी दूरी पर इसका रूप परिवर्तित हो रहा था। कहीं पहाड़ी, कहीं पहाड़ी के पीछे से झांकता झील का जल, कभी पहाड़ी के पीछे से निकलती सूर्य की किरणें तो कभी रंगबिरंगी नौकाओं से सज्ज झील की अग्रभूमी। कहीं कहीं तिकोनी पहाड़ियां झील के शांत जल में ज्यामितीय आकार में प्रतिबिंबित होकर आकर्षक चित्र बना रही थीं।

नौकुचिया ताल का कमल तालाब

नौकुचिया ताल के समीप एक छोटा तालाब था को कमल के पौधों से भरा पड़ा था। जैसा कि हम जानते है, कमल के पुष्प दिन के समय खिलते हैं एवं संध्या समय तक इसकी सारी पंखुड़ियां झड़ जाती हैं। चूंकि हम यहाँ संध्या भ्रमण पर थे, हम इन पुष्पों की सुन्दरता का आनंद नहीं ले सके। श्वेत एवं गुलाबी कमल पुष्पों से भरे इस तालाब का काल्पनिक दृश्य अपने मानसपटल पर अंकित किया और आनंदित हो उठी। मेरे काल्पनिक चित्र में रंगबिरंगे वास्तविक रामचिरैया अर्थात् किंगफिशर पक्षी चार चाँद लगा रहे थे। तालाब की सुन्दरता एवं रखरखाव हेतु प्रशासन की चेतावनी “फूल तोड़ना मना है” के फलक से स्पष्ट व्यक्त हो रही थी।

चूंकि हम सांझ बेला में नौकुचिया ताल पर उपस्थित थे, हमें कई पर्यटक नौकाविहार करते दिखाई दिए। कुछ पर्यटक अश्वारोहण तो कुछ गरमागरम नुडल्स का आनंद उठाते दिखाई दिए। कुछ पर्यटक ज़ोर्बिंग नामक अनोखे खेल में व्यस्त थे जिसमें एक विशाल पारदर्शक गोले के भीतर एक सहभागी को बिठाकर गोले को ढलान पर लुड़काया जाता है। तथापि, अँधेरा होते ही परिचालकों को गोले से वायु निकालकर सावधानी से उसकी घड़ी करते देखने में मुझे अधिक आनंद आ रहा था।

किवदंतियों के अनुसार नौकुचिया ताल को भगवान् ब्रम्हा से जोड़ा जाता है। यहाँ तक की नौकुचिया ताल पर ब्रम्हा का एक मंदिर भी स्थित है।

नौकुचिया ताल को घेरते मार्ग अधिकांशतः मोटरगाड़ियों के यातायात से मुक्त हैं। अतः आप यहाँ बिना किसी चिंता या डर के घने वृक्षों की छाँव में ताल के चारों ओर भ्रमण कर सकते हैं।

नौकुचिया ताल के भक्तिधाम की हनुमान प्रतिमा

नौकुचिया ताल के पास विशाल हनुमान प्रतिमा
नौकुचिया ताल के पास विशाल हनुमान प्रतिमा

नौकुचिया ताल के समीप स्थापित हनुमान की विशाल प्रतिमा दूर से ही दृष्टिगोचर हो जाती है। समीप पहुँच कर हमने देखा कि यह प्रतिमा वास्तविकता में भक्तिधाम मंदिर परिसर का एक हिस्सा था। इस परिसर में दुर्गा, नीम करोली बाबा व अन्य कई देवी देवताओं को समर्पित कई छोटे छोटे मंदिर थे।

सातताल

सात ताल के पास नौका विहार का सामान - उत्तराखण्ड
सात ताल के पास नौका विहार का सामान

सातताल ७ तालों का एक समूह है। ये हैं-
1. नल दमयंती ताल
2. गरुड़ ताल
3. राम ताल
4. लक्ष्मण ताल
5. सीता ताल
6. भरत ताल
7. हनुमान ताल

जैसा की उपरोक्त कुछ नामों से विदित है, लोगों की मान्यता है कि राम, लक्ष्मण एवं सीता ने अपने वनवास के समय इन तालों के समीप कुछ काल बिताया था।

सातताल की विशेषता है कि आपस में जुड़ी ये सर्व तालें मीठे जल की हैं। इन तालों के नाम एक साथ लिए जाते हैं मानो इन का एक ही स्त्रोत हो। बलूत एवं देवदार जैसे ऊंचे वृक्षों से घिरे इन तालों को देख अछूते व निर्मल प्रकृति का आभास होता है। इस ताल के आसपास नानाप्रकार के पुष्प व लताएँ लगाई हैं। बैठने हेतु सुन्दर व्यवस्था एवं सुन्दर पुलों के निर्माण द्वारा सातताल, स्वर्ग सुदृश, सौंदर्य की दृष्टी से सर्वोपरि है।

नल दमयंती ताल

अति पावन नल दमयंती ताल
अति पावन नल दमयंती ताल

भीमताल से करीब २ की.मी. दूर स्थित नल दमयंती ताल एक पवित्र ताल है। पंचकोणी आकार के इस ताल से सम्बंधित पौराणिक कथा कहती है कि राजा नल व उनकी पत्नी ने अपने वनवास का समय इस ताल के समीप बिताया था। यहीं राजा नल अपनी पत्नी को छोड़ कर चले गए थे। कालान्तर में इस ताल में ही उनकी समाधि बनायी गयी। इसी प्राचीन मान्यता के तहत अभी भी इस ताल में मछली पकड़ने की मनाही है। इसीलिए इस ताल में हमें तरह तरह की बड़ी बड़ी मछलियाँ दिखाई पड़ीं।

इस झील तक पहुँचने हेतु पहाड़ी से नीचे उतरने की आवश्यकता होती है, जिसके लिए पक्की ढलान बनायी गयी है। इस छोटे ताल के चारों तरफ सीड़ियाँ बनायी हुई हैं। यहाँ मछली पकड़ने के अलावा स्नान, धुलाई इत्यादि व कचरा डालना भी मना है।

इस ताल के चारों ओर पैदल भ्रमण करते हुए मैं नल दमयंती की कल्पना में खो गयी। चिरकाल से ताल में तैरती बड़ी बड़ी मछलियों को देख लगा कि उन्होंने अपने पूर्वजों से उनकी कथा अवश्य सुनी होगी। काश, ये मछलियाँ बोल पाती!

सातताल के अन्य ताल

सात ताल के पास पैदल पथ - कुमाऊँ उत्तराखण्ड
सात ताल के पास पैदल पथ – कुमाऊँ उत्तराखण्ड

हम राम ताल और हनुमान ताल के पास पहुंचे – जो की सबसे आसानी से पहुँचने वाले ताल हैं। इन दोनों तालों के गिर्द एक पैदल पथ है जिस पर चलना एक आनंददायी अनुभव है।

भ्रमण के समय ताल के किनारे पर्यटकों व दुकानदारों की अच्छी चहल पहल थी। नींबू पानी से लेकर भोजन तक की व्यवस्था थी। यहाँ आपको उत्तर भारतीय भोजन का आस्वाद लेने का अवसर मिलेगा। यहाँ उपलब्ध ठंडी खीर आप अवश्य चखिए। यह एक अतिस्वादिष्ट व पहाड़ों की छुट्टियों का आनंद लेने हेतु सर्वोत्तम मिष्टान्न है।

कुमाऊँ की प्रसिद्द ठंडी खीर
कुमाऊँ की प्रसिद्द ठंडी खीर

भ्रमण के समय हमने देखा, कुछ परिचालक पर्यटकों को एक और अनोखे खेल का आनंद दे रहे थे, जहां वे पर्यटकों को रस्सी से लटका कर तेज गति से ताल की ओर नीचे धकेलते थे। पर्यटकों को उल्ल्हास से चीखते चिल्लाते, ताल के जल में डुबकी लगते हुए, ताल के पार पहुंचते देख मुझे बेहद आनंद आ रहा था।

गरुड़ ताल

गरुड़ ताल - कुमाऊँ, उत्तराखण्ड
गरुड़ ताल – कुमाऊँ, उत्तराखण्ड

नल दमयंती ताल के पश्चात छोटा गरुड़ ताल पड़ता है। गरुड़ ताल हमें सड़क से ही दिखाई पड़ रहा था। कुमाऊँ की घाटियों के बीच, ऊंचे ऊंचे वृक्षों से घिरा, यह नीले हरे रंग का ताल बहुत सुन्दर दिखाई पड़ रहा था। लोगों का मानना है कि वनवास के समय, भोजन बनाने हेतु द्रौपदी द्वारा इस्तेमाल किया गया सिलबट्टा अभी भी यही पत्थरों में कहीं उपस्थित है। गरुड़ ताल के पश्चात, आपस में जुड़ीं राम, सीता एवं लक्ष्मण ताल पड़ते हैं। इन तालों तक सड़क मार्ग उपलब्ध ना होने के कारण, इन तक नौकाओं द्वारा ही पहुंचा जा सकता है|

इन सारे तालों के चारों ओर भ्रमण का मेरा अनुभव मेरे लिए उपचारात्मक एवं बहुत शान्तिदायक था। हमारे पूर्वजों ने जिस तरह प्रकृति के सानिध्य में जीवन बिताया, मैंने भी उस जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव इन झीलों के भ्रमण द्वारा प्राप्त किया। मुझे आभास हुआ कि क्यों ऋषि मुनि इन पहाड़ों व झीलों के सानिध्य में ध्यान करते थे। एक ओर हरियाली भरे मैदान तो दूसरी ओर शांत हिमालय! यह स्वर्ग नहीं तो और क्या है!

कुमाऊँ के तालों के भ्रमण हेतु सुझाव

• भीमताल, नौकुचिया ताल एवं सातताल के समीप ठहरने हेतु अनेक आवासगृह उपलब्ध है। अवस्थिति की दृष्टी से कुमाऊँ विकास मंडल निगम के आवासगृह सर्वोत्तम हैं। परन्तु उनके रखरखाव एवं सुविघाओं के सम्बन्ध में मैं कोई टिपण्णी नहीं करना चाहती। आशा करती हूँ कि भविष्य में कुमाऊँ पर्यटन इसके रखरखाव एवं सुविधाओं की बढ़ोतरी हेतु आवश्यक कदम उठाएगा।
• इसके अलावा यहाँ हर क्षेणी के अशासकीय आवासगृह भी उपलब्ध हैं।
• भोजनालय की सीमित व्यवस्था होते हुए भी, ताजा स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध है।
• प्रसिद्ध पर्यटन स्थल होने के कारण, यहाँ अनेक प्रकार की पर्यटन गतिविधियाँ एवं सुविधाएं उपलब्ध हैं।
• निकटतम रेल स्थानक ३५ की.मी. की दूरी पर स्थित, काठगोदाम है जहां दिल्ली से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
• दिल्ली से कुमाऊँ तक के सड़क मार्ग की स्थिति भी बहुत अच्छी है।

और पढ़ें- भारत की १२ सर्वोत्तम झीलें

उत्तराखंड के विभिन्न स्थलों के भ्रमण हेतु निम्नलिखित संस्मरण पढ़ें-

  1. मुक्तेश्वर- अवाक् दृश्यों से परिपूर्ण एक कुमाऊँ घाटी
  2. उत्तराखंड के लान्डोर एवं मसूरी के आसपास का पगभ्रमण
  3. जागेश्वर धाम – कुमाऊँ में शिव का धाम

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अष्टमुडी झील – केरल के विशाल जल सरोवर का भ्रमण https://inditales.com/hindi/kerala-backwaters-ashtmudi-lake/ https://inditales.com/hindi/kerala-backwaters-ashtmudi-lake/#respond Wed, 12 Jul 2017 02:30:21 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=320

कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम से वापस घर लौटते समय केरला के कोल्लम शहर के पास स्थित अष्टमुडी झील के किनारे बिताए गए पूरे दो दिन सच में बहुत यादगार रहे। गूगल पर दिखाये गए नक्शे के अनुसार यह सरोवर काफी बड़ा है। मुझे उसकी व्यापकता को समझने और जानने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन, […]

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अष्टमुडी झील - केरल
अष्टमुडी झील – केरल

कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम से वापस घर लौटते समय केरला के कोल्लम शहर के पास स्थित अष्टमुडी झील के किनारे बिताए गए पूरे दो दिन सच में बहुत यादगार रहे। गूगल पर दिखाये गए नक्शे के अनुसार यह सरोवर काफी बड़ा है। मुझे उसकी व्यापकता को समझने और जानने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। लेकिन, इससे भी अधिक मुझे उसके जीवन और उसकी आत्मा को समझना था। अष्टमुडी झील केरल के पर्यटकों के बीच उतना मशहूर नहीं है, क्योंकि, केरल में आने वाले अधिकतम पर्यटक या तो कोल्लम में या फिर दक्षिण में कोवलम में रहना ज्यादा पसंद करते हैं। तो कुछ पर्यटक उत्तरी भागों में जैसे कि अलेप्पी और कोचीन में रहना पसंद करते हैं।

अष्टमुडी झील – केरल के स्थिर जल स्रोत

अष्टमुडी झील
अष्टमुडी झील – सूर्यास्त के समय

अष्टमुंडी का शब्दशः अर्थ है 8 शंकु। उसके इस विचित्र से आकार को कुछ लोग तारे की उपमा देते हैं, तो कुछ इसे ऑक्टोपस के आकार का बताते हैं। लेकिन अगर आप इंटरनेट पर जाकर अष्टमुंडी सरोवर का नक्शा देखे तो वह कुछ अजीब सा लगता है। इसे देखने के बाद आप खुद तय कर सकते हैं कि, उसे कौन सी उपमा देना उचित होगा।

कोल्लम पहुँचते ही हम अपने होटल में गए और हाथ मुह धोकर, तैयार होकर दोपहर के खाने के लिए उपस्थित हुए। हमरा खाना होटल की खास नाव पर आयोजित किया गया था। इस बड़ी सी नाव पर सिर्फ हम दोनों के लिए ही भोजन का प्रबंध किया गया था। जैसे ही हमारी नाव अष्टमुडी झील के शांत, स्थिर पानी पर धीरे-धीरे चलने लगी तो नाव पर मौजूद कर्मचारी वर्ग ने हमे खाना परोसना शुरू किया। यह सब कुछ एक सपने जैसा था। जब हम खाना खा रहे थे तो अपने आस-पास देखकर मुझे लगा कि, प्रकृति के सारे नज़ारे जैसे हमारे लिए खास चलचित्र पेश कर रहे हो। यह दृश्य सच में बहुत खूबसूरत था। जैसे-जैसे हमारी नाव सरोवर की सीमाओं के पास से गुजरते हुए, एक कोने से दूसरे कोने तक जा रही थी वैसे-वैसे मुझे सरोवर का आकार कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।

रोशनी की देवी

रौशनी की देवी - अष्टमुडी झील
रौशनी की देवी – अष्टमुडी झील

सरोवर की सैर करते हुए हमे एक स्थान पर हाथ में मशाल पकड़े एक स्त्री की विशाल मूर्ति दिखी जिसे रोशनी की देवी कहा जाता है। यहां के लोग उसे ‘स्टेचू ऑफ लिबर्टी’ का स्थानीय रूप मानते हैं। वास्तव में शायद यह सरोवर में घूमनेवाली नावों के लिए प्रकाशस्तंभ का कार्य करती होगी, ताकि वे अपना रास्ता ना भटक जाए। अपने विशिष्ट रूपाकार से यूरोपीय लगने वाली इस स्थूलकाय महिला की मूर्ति काफी दूर से भी देखी जा सकती है। कुछ नाविकों का कहना है कि यह मूर्ति मल्लाहों को उनके घर-परिवार और पत्नी की याद दिलाने का तरीका है जिन्हें वे अपने व्यापार के लिए पीछे छोड़ आए हैं। इस मूर्ति के नीचे ही एक छोटा सा सूचना पट्ट है जिस पर ‘रोशनी की देवी’ लिखा गया है। मेरे खयाल से शायद यहां पर अनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार उसकी व्याख्या करता है। लेकिन इन सभी भिन्न विचारों के अलावा एक बात तो तय है कि यह मूर्ति जल, हरियाली और आकाश की नीरसता को भंग करते हुए दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। इस सुंदर सी मूर्ति को अनदेखा करना थोड़ा कठिन है।

मछली पकड़ने का चीनी जाल

मछली पकड़ने के चीनी जाल - अष्टमुडी झील - केरल
मछली पकड़ने के चीनी जाल – अष्टमुडी झील – केरल

अष्टमुडी झील की सैर करते हुए जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, हमे धीरे-धीरे मछली पकड़ने के चीनी जाल नज़र आने लगे जो अब हर जगह पर पाये जाते हैं। सरोवर के किनारे से पानी के ऊपर लटकते हुए ये जाल बहुत ही आकर्षक लग रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने हाथ में विशालकाय चाय की छलनी पकड़ी हो। इन जालों को अक्सर एक साथ एक कतार में लगाया जाता है। यह नज़ारा सच में अद्वितीय है जो अनेकों फोटोग्राफरों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह प्रसन्नता भरा दृश्य इन फोटोग्राफरों का दिन बना देता है। और आप विभिन्न दृष्टिकोणों से उनकी तस्वीरें लेने में खो जाते हैं। अगर केरल के तटीय क्षेत्र की बात करते समय इन चित्रों से आपका सामना हो जाए तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी। कुछ ही जगहों पर इन जालों को सरोवर के बीचोबीच लगाया जाता है। लेकिन अधिकतर जगहों पे ये जाल आपको सरोवर के किनारे पर ही लगे हुई दिखाई देती हैं। दूर से देखने पर ये जाल बहुत ही साधारण से दिखते हैं, पर पास जाकर देखने से पता चलता है कि इनकी बुनावट कितनी जटिल है।

रंगीन नावें

अष्टमुडी झील - रंगीन नाव
अष्टमुडी झील – रंगीन नाव

अष्टमुडी झील के किनारे पर स्थित खूबसूरत से मकानों के पास ही मछली पकड़नेवाली रंगीन नावें रखी गयी थी। और मछली पकड़ने की सभी जालें किनारे पर लेटे हुए आराम करती हुई नज़र आ रही थी, जो पुनः नए उत्साह के साथ सूर्यास्त के बाद पानी में खड़े होने का इंतजार कर रही थी।

इस सरोवर के आस-पास का निर्मल पर्यावरण बहुत सारे पक्षियों का घर है। इन पक्षियों को सरोवर के एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़ते हुए जाते देखना बहुत ही आमोदजनक बात थी।

पर्यटकों के लिए खास हाउसबोट

पर्यटक हाउसबोट - अष्टमुडी झील
पर्यटक हाउसबोट – अष्टमुडी झील

यहां पर पर्यटकों के लिए खास हाउसबोट होते हैं जो उन्हें पूरे सरोवर की सैर कराते हैं। कुछ ऐसी ही नावें हमारे सामने से गुजरती हुई जा रही थी, जिनमें कुछ ही लोग नज़र आते थे। ये नावें कभी भी लोगों से भरी हुई नहीं होती थीं। यह देखकर मेरे मन में खयाल आया कि, या तो हम सरोवर के कम भीड़ वाले भाग में होंगे या तो यह सरोवर ही इतना बड़ा होगा कि आप यहां पर कहीं भी आराम से एकांत में समय बिता सकते हैं।

सूर्य और बादल भी अपनी ओर से हमारे लिए अद्वितीय परिदृश्य निर्माण कर रहे थे। नारियल और ताड़ के पेड़ भी अपने हरे रंग से पानी और आकाश के क्षेत्र की सीमाओं को निर्धारित कर रहे थे। इस सरोवर में उपस्थित द्वीप हरे बिन्दुओं के समान पानी पर तैरते हुए नज़र आ रहे थे।

अष्टमुडी झील से जुड़े कुछ तथ्य

चीनी जाल - अष्टमुडी झील - केरल
चीनी जाल – अष्टमुडी झील – केरल

अष्टमुडी झील क्लैम मत्स्य पालन का प्रमुख केंद्र है। यहां पर वार्षिक रूप से 10,000 टन क्लैम मछली का उत्पादन होता है। जिस में से अधिकतर निर्यात की  जाती हैं। रामसर सम्मेलन के अनुसार यह महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय आर्द्रभूमि की सूची में गिना जाता है। मत्स्य पालन पर लिखा गया ‘हिन्दू लेख’ आपको जरूर पढ़ना चाहिए जो यहां के विकासशील और टिकाऊ मत्स्य पालन के बारे में विस्तार से बताता है। इस सरोवर के पर्यावरण की सबसे अच्छी बात यह है कि, वह दिन में अपने पर्यटकों और पर्यटन अर्थशास्त्र का पूरा-पूरा खयाल रखता है, और रात को वह मछुआरों का इलाका बन जाता है। ये मछुआरे रात के समय ही अपना जाल बिछा देते हैं ताकि अगली सुबह उनकी पकड़ में अच्छी और ताजी मछली आ सके। इस वक्त अष्टमुडी झील में पर्यटकों की नावों को घूमने की अनुमति नहीं दी जाती।

अष्टमुडी झील का पानी कल्लाडा नदी से आता है, जिसका उद्गम पोंन्मुड़ी पर्वतों में होता है। यह केरल का दूसरा विशालतम एस्चुरिन एकोसिस्टम है।

केरल में स्थिर जल पर्यटन का सबसे लंबा किनारा अष्टमुडी झील और अलपुझा के बीच है। इस पूरे किनारे की यात्रा करने के लिए लगभग 8 घंटे लगते हैं। और अब इस किनारे की यात्रा करना मेरी इच्छा सूची में अव्वल क्रमांक पर होगा।

मैं सही-सही तो नहीं बता सकती लेकिन शायद अष्टमुडी झील ने केरल के बंदरों पर हो रहे व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका जरूर निभाई होगी।

स्थानीय यातायात की नावें

स्थानीय नाव - अष्टमुडी झील
स्थानीय नाव – अष्टमुडी झील

दूसरे दिन शाम के समय हम आराम से अपने कमरे में बैठे सरोवर में घूम रही नावों को देख रहे थे। इनमें जो लंबी और बड़ी नावें थी उन्हें दोनों छोरों से खेया जा रहा था। ये नावें इसी सरोवर के आस-पास रहने वाले परिवारों को एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जा रही थीं। इनके अतिरिक्त यहां पर उत्कृष्ट हाउसबोट भी थे जो केरल पर्यटन का प्रमुख आकर्षण है। जिस नाव में पिछले दिन हम सैर कर रहे थे वह अब सूर्यास्त के खूबसूरत से दृश्य को अपने चौखटे में समेटने की कोशिश कर रही थी।

अष्टमुंडी सरोवर की यात्रा किए कई साल बीत गए हैं, लेकिन आज भी मेरे दिमाग में उससे जुडी यादें उतनी ही ताजा हैं जितनी उसे अलविदा कहते समय थी।

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