भारत यात्रा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 28 Aug 2024 04:50:48 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.3 भारत – एक शाश्वत कविता https://inditales.com/hindi/bharat-ek-shashwat-kavita/ https://inditales.com/hindi/bharat-ek-shashwat-kavita/#respond Wed, 19 Feb 2025 02:30:13 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3769

भारत एक शाश्वत कविता है। एक जीवंत कविता, जो अपनी उच्छ्रंखल विविधता में श्वास लेती है, विभिन्न संस्कृतियों की ओढ़नियों में खिलती है, सदियों पूर्व सुनिश्चित भौगोलिक सीमाओं में स्फुरित होती है। इसकी राजनैतिक सीमाओं में अनेकों परिवर्तन आयें एवं भविष्य में आते रहेंगे। किन्तु इस देश की सीमाएं एवं इसकी चेतना को अनेकों शास्त्रों […]

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भारत एक शाश्वत कविता है। एक जीवंत कविता, जो अपनी उच्छ्रंखल विविधता में श्वास लेती है, विभिन्न संस्कृतियों की ओढ़नियों में खिलती है, सदियों पूर्व सुनिश्चित भौगोलिक सीमाओं में स्फुरित होती है। इसकी राजनैतिक सीमाओं में अनेकों परिवर्तन आयें एवं भविष्य में आते रहेंगे। किन्तु इस देश की सीमाएं एवं इसकी चेतना को अनेकों शास्त्रों में इस प्रकार परिभाषित किया है, उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में हिन्द महासागर तक। वह ना इन सीमाओं को लांघती है, ना ही इनसे सिकुड़ती हैं।

महेश्वर में नर्मदा घाट
महेश्वर में नर्मदा घाट

यह अपनी सीमाओं के भीतर सहस्त्रों ऋषि-मुनियों के अनंत वर्षों की साधना तथा ध्यान की ऊर्जा को समेटे हुए है जिन्होंने इसके पर्वतों, वनों एवं नदियों के तटों पर तपस्या की है।

भारत का नभस्थ दृष्टिकोण

एक पंछी बनकर भारत को निहारें। कवि कालिदास की उत्कृष्ट पद्मकविता मेघदूत के मेघ के दृष्टिकोण से भारत को सराहें। महाकाव्य मेघदूत में, मध्य भारत के रामटेक पर्वतों से एक प्रेमी यक्ष, वर्षा के आरम्भ में उमड़ते-घुमड़ते मेघों के द्वारा, दूर-सुदूर हिमालय की गोद में स्थित अलकापुरी में अपनी प्रियतमा पत्नी को सन्देश दे रहा है। प्रेम में विह्वल, वह मेघों से कह रहा है कि वे अपने प्रवास में प्रेम से ओतप्रोत प्रकृति के विभिन्न आयामों को निहारें। वह उन परिदृश्यों की कल्पना कर रहा है जिन्हें मेघ देखेंगे, पर्वत, नदियाँ, पुष्प, वनस्पति, जीव-जंतु इत्यादि। वह मेघों से उज्जैन जैसे नगरों की सुन्दरता का उल्लेख कर रहा है जिसकी परिभाषा ही समृद्धि है। वह उनसे उज्जैन के मार्ग में, वनों में निवास करते लोगों का उल्लेख कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है मानो यक्ष स्वयं ही अप्रतिम प्रकृति का दर्शन करते प्रवास कर रहा हो, अपनी कल्पना में ही सही।

प्रथम दर्शन

नभ से प्रथम दर्शन में भारत का स्वर्ग सदृश भूखंड बालू, हिम तथा हरियाली से आच्छादित दृष्टिगोचर होता है जहां पर्वतों के मध्य स्थित वनों में सिंह, बाघ, गज, गेंडे इत्यादि जैसे वनीय प्राणियों से आंखमिचौली खेलते व उछलते हिरणों के झुण्ड स्वच्छंद विचरण करते हैं। तीन ओर समुद्र से सीमित भारत प्रायद्वीप को बालू की संकरी किनारी घेरती है जिसका कुल समुद्र तट किसी भी अन्य देश के समुद्र तट से सर्वाधिक लंबा है। उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित थार मरुस्थल एवं उसके बालू के टीलों का रहस्यमयी परिदृश्य अत्यंत लुभावना प्रतीत होता  है। मध्य भाग में स्थित जीवाश्म उद्यान में उस काल की स्मृतियाँ संजोई हुई हैं जब यह स्थान गोंडवाना का भाग था तथा यहाँ के वनों की हरियाली अपने नीचे बालू को संजोये हुए है।

हिमालय

बर्फ से आच्छादित हिमालय भारत के शीश पर विराजमान एक मुकुट के समान है। यहाँ से निकलती हिमनदियाँ मैदानी भागों से होकर बहती हुई, गंगा, यमुना व सिन्धु जैसी अनेक पवित्र व प्रसिद्ध नदियों में परिवर्तित हो जाती हैं। यही अवस्था भारत की अन्य पर्वत श्रंखलाओं की है, जैसे मध्य भाग में विन्ध्य, दक्षिण में कोडगु अथवा पश्चिम में सह्याद्री इत्यादि।

लद्दाख की हिमालय श्रंखला
लद्दाख की हिमालय श्रंखला

जिस स्थान से नदियों का उद्गम होता है उस स्थान को तीर्थ का मान दिया जाता है। वहीं जिस स्थान पर दो अथवा अधिक नदियों का मिलन होता है वह संगम भी परम पावन तीर्थ स्थान माना जाता है। उसी प्रकार जिस स्थान पर एक नदी समुद्र में जाकर उससे एकाकार हो जाती है वह स्थान भी एक तीर्थ बन जाता है।

नदियाँ

भारत की नदियाँ उसकी शिराओं एवं धमनियों के समान हैं। हमारी देह की शिराओं से बहते जीवन द्रव्य के समान इन नदियों में बहते जल ने सदियों से अपने तट पर बसी सभ्यता का पोषण किया है। भारत की भूमि पर बिछी इन शिराओं से केवल एक ही वस्तु प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं, वह है भारत की भूमी पर किसी जाल के समान बिछी रेल की पटरियाँ जो नदियों को लांघती, पर्वतों को चीरती, सुरंगों के भीतर लुप्त सी हो जाती तथा लम्बे लम्बे मैदानी क्षेत्रों को पार करती भारत के एक छोर से दूसरी छोर तक जाती हैं।

भारत-नेपाल सीमा पर स्थित गण्डकी नदी के तीर एकल सींग के गेंडे स्वच्छंद विचरण करते हैं जिनका नाम भी नदी की ही देन है। आसाम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के ऊंचे ऊंचे घास के मैदानों में स्वतन्त्र विचरण करते ये गेंडे किसी पालतू पशु के समान प्रतीत होते हैं। वहीं यह उद्यान चाय के विस्तृत बागानों से घिरा हुआ है जहां की चाय की सुगंध हमें प्रत्येक प्रातः नींद से जगाती है।

गंगा एवं चम्बल नदियों में गोते लगाते सूंस अथवा डॉलफिन, घड़ियाल इत्यादि भारत के राष्ट्रीय जलचर हैं। नर्मदा के तीर अनेक तीर्थयात्री नर्मदा परिक्रमा करते दृष्टिगोचर होते हैं जो नर्मदा नदी को अपने दाहिनी ओर रखते हुए नदी की २८०० किलोमीटर लम्बे पथ पर पदयात्रा करते हुए परिक्रमा करते हैं।

देश के मध्य भाग में स्थित वनों से बहती देनवा तथा पेण नदी के तट बाघों के दर्शन के सर्वोत्तम स्थान हैं जहां वे अपनी तृष्णा संतुष्ट करने आते हैं। पेंच के वनों में मोगली एवं शेरा की रोचक कथाएँ जीवंत होने लग जाती हैं। ऋषिकेश के समीप गंगा का तट हाथियों के समूहों का प्रिय स्थान है, उसी प्रकार पूर्वी हिमालय पर्वत श्रंखलाओं की तलहटी पर बहती तीस्ता नदी भी उनका पोषण करती है।

कुम्भ मेला

सौरमंडल में नक्षत्रों की एक विशेष अवस्थिति के अनुसार प्रत्येक १२ वर्षों में कुम्भ मेला भरता है। प्रयागराज में गंगा एवं यमुना के संगम स्थल पर आयोजित यह कुम्भ मेला वास्तव में किसी एक स्थान पर मानव जाति का वैश्विक रूप से एक विशालतम संगम है। यह हरिद्वार में भी उस स्थान पर आयोजित किया जाता है जहां गंगा मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है। उज्जैन की क्षिप्रा नदी के तट पर भी इस मेले का आयोजन किया जाता है, जहाँ से कर्क रेखा जाती  है। अन्य स्थल है, नासिक के गोदावरी नदी का तट। यूँ तो भारत के पवित्र स्थलों से बहती नदियों के तटों पर वर्ष भर ही भक्तों का तांता लगा रहता है जो यहाँ आकर विभिन्न पूजा-अर्चना तथा अनुष्ठान करते हैं। उनमें मुख्य हैं, हरिद्वार व वाराणसी में गंगा नदी के तट, मथुरा में यमुना नदी का तट, ओम्कारेश्वर एवं महेश्वर में नर्मदा नदी के तट, नासिक में गोदावरी नदी का तट इत्यादि।

दीपावली से १५ दिवसों के पश्चात आने वाली कार्तिक पूर्णिमा की तिथि पर देश भर के आस्थावान पावन नदियों में पवित्र स्नान करते हैं। विश्व का सर्वाधिक विशाल ऊँट मेला ब्रह्मा की नगरी पुष्कर में पुष्कर झील के समीप आयोजित किया जाता है।

नभ से भूमि के किंचित समीप आकर देखें तो उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश में हिमालय व शिवालिक पर्वत श्रंखलाओं की तलहटी पर छोटे छोटे अनेक काठकुणी मंदिर दृष्टिगोचर होंगे जो लकड़ी व शिलाओं के वैकल्पित फलकों एवं स्लेट प्रस्तर की छत द्वारा निर्मित होते हैं। उन मंदिरों में विराजमान देव पर्वतों के ऊपर से अपने क्षेत्रों की निगरानी करते हैं। लाखों छोटी छोटी जलधाराएं मिलकर सतलज एवं व्यास जैसी नदियों को जन्म देती हैं। ऊंचाई पर स्थित लाहौल का चंद्रताल तथा स्पिति का नाको ताल ऐसे प्रतीत होते हैं मानो साक्षात् स्वर्ग से धरती पर उतरे हों। इनमें, इन तालों के किनारे तपस्या में लीन, इश्वर के साक्षात् दर्शन के अभिलाषी संतों की असंख्य कथाएं सन्निहित हैं। ये ताल उन सभी चरवाहों की गाथाएँ कहते हैं जो प्रत्येक ग्रीष्म ऋतु में अपने पशुओं को लेकर यहाँ आते हैं।

भारत का थार मरुस्थल

राजस्थान के थार मरुस्थल का सुनहरा रंग, उसमें विचरण करते सुनहरे ऊँट एक अद्भुत सुनहरी आभा बिखेरते हैं। यहाँ प्राकृतिक रूप से प्राप्त श्वेत संगमरमर तथा पीला जैसलमेर आधुनिक वास्तुकारों एवं स्थापत्य विदों की अत्यधिक प्रिय शिलाएं हैं जो वर्त्तमान के गृहनिर्माण उद्योग में लोकप्रिय तत्व हैं। राजस्थान के मरुभूमि के मध्य से उभरते अनेक अप्रतिम व मनमोहक दुर्ग इस राज्य की शान हैं।

जैसलमेर का गद्सिसार सरोवर
जैसलमेर का गद्सिसार सरोवर

चीन की दीर्घतम भित्ति के पश्चात, विश्व की दूसरी एवं तीसरी सर्वाधिक विस्तीर्ण भित्तियाँ राजस्थान के कुम्भलगढ़ एवं आमेर दुर्ग के प्राचीर हैं। दुर्ग के भीतर रंगबिरंगे भित्तिचित्र रंगों की होली खेलते प्रतीत होते हैं। दुर्ग के भीतर प्रवेश करते ही एक राजसी भावना मन में हिलोरे मारने लगती है। राजस्थान के ऐसे ही अनेक दुर्गों को अब पंच तारांकित विरासती अतिथि संस्थानों में परिवर्तित कर दिया गया है जहां कुछ दिवस ठहर कर इस राजस्थानी राजपरिवारों के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव लिया जा सकता है।

बावड़ियां

ये बावड़ियां राजस्थान एवं गुजरात की सतह पर, जल से भरे अलंकृत पात्र के सामान हैं। सममित एवं ज्यामितीय सीढ़ियों से निर्मित बावडियों पर किये गए भव्य उत्कीर्णन इन्हें अत्यंत देदीप्यमान रूप प्रदान करते हैं। इनकी भित्तियों पर पुराणों एवं महाकाव्यों की लोकप्रिय कथाएं उत्कीर्णित हैं। ये बावड़ियां अधिकांशतः उन स्थानों पर निर्मित की गयी हैं जो प्राकृतिक जल स्त्रोतों से दूर हैं तथा जहां वर्षा भी अत्यंत सीमित होती हैं। एक समय ये बावड़ियां वहां के नागरिकों की जीवनरेखा होती थीं। इन बावडियों में पाटन में रानी की वाव अत्यंत उल्लेखनीय बावडी है जो भूमि से नीचे जाते हुए कुल सात तलों में निर्मित है। इन सीढ़ियों को ऊपर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो ये हमें भूमि के नीचे के विश्व अथवा भूमि के गर्भ में ले जा रही हैं। किसी काल में यहाँ यात्रीगण बैठकर कुछ क्षण विश्राम करते रहे होंगे। रंगबिरंगी ओढ़नियाँ ओढ़ी स्त्रियाँ दिवस भर के कार्य पूर्ण कर जल लेने यहाँ आती रही होंगी एवं आपस में बतियाने कुछ क्षण यहाँ बैठती रही होंगी।

चाँद बावड़ी - आभानेरी - राजस्थान
चाँद बावड़ी – आभानेरी – राजस्थान

यहाँ से कुछ दक्षिण की ओर आकर हम अजंता की अद्भुत गुफाओं में पहुंचते हैं जहां २००० वर्षों पूर्व चित्रित भित्तिचित्र बुद्ध एवं बोधिसत्त्व की कथाएं कहती हैं। एलोरा की गुफाओं ने अपने भीतर भारत का सर्वाधिक अभूतपूर्व एवं विस्मयकारी अभियांत्रिक अचम्भा संजोया हुआ है। यहाँ एक अखंड चट्टान को ऊपर से नीचे की ओर काटकर एक सम्पूर्ण मंदिर उत्कीर्णित किया गया है, अर्थात चट्टान के सर्व अवांछित भागों को कुशलता से खुरचकर निकला गया है। इन्हें देख कर आश्चर्य होता है कि हमने कब, कहाँ एवं कैसे अपने पूर्वजों के उत्कृष्ट बुद्धिमत्ता एवं कौशल्या को यूँ ही खो दिया है।

खजुराहो

उत्तरी भारत के अधिकाँश मंदिर आक्रमणकारियों के हाथों उध्वस्त हो चुके हैं। किन्तु खजुराहो के मंदिर अब भी यथावत १००० वर्षों पूर्व के अपने गौरवपूर्ण इतिहास की गाथा सुना रहे हैं। उत्तर भारतीय नागर शैली में निर्मित मंदिरों में सोपानी अवसर्पण का प्रयोग कर कैलाश पर्वत का आभास देने का प्रयास किया गया है। यद्यपि मंदिरों में नागर शैली का प्रयोग सम्पूर्ण उत्तर भारत में दृष्टिगोचर होता है तथापि इस शैली की पराकाष्ठा ओडिशा के मंदिरों में दिखाई देती है। अनेक हिन्दू व जैन मंदिरों से भरा हुआ, शिलाओं का यह नगर खजुराहो, अनेक गाथाएँ सुनाता है। मंदिरों की बाह्य भित्तियों पर की गयी अप्रतिम शिल्पकारी ऐसी प्रतीत होती है मानो शिलाओं को उत्कीर्णित कर कवितायें रची गयी हों जिनकी परतों में उनका संगीत छुपा हो। यह विडम्बना है कि यह मंदिर अपनी कुछ कामुक शिल्पकारी के लिए अधिक जाना जाता है या यूँ कहें कुख्यात है।

किंचित पूर्व दिशा की ओर जाएँ तो दंडकारण्य के सघन वनों में पहुँच जाते हैं जिनका उल्लेख रामायण में भी किया गया मिलता है। आज भी आदिवासी जनजाति के लोग यहाँ के वनों के भीतर वृक्षों की आराधना करते दृष्टिगोचर होते हैं।

सीता एवं बुद्ध

बोध गया में बोधी वृक्ष के नीचे बुद्ध को प्राप्त परम ज्ञान की अनेक लोकप्रिय कथाएं जुडी हैं बिहार राज्य से जो देवी सीता एवं भगवान बुद्ध की जन्म भूमी है। बिहार के समीप, अपने सुनहरे काल की कथा कहते विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के चटक लाल रंग के अवशेष हैं। इस विश्वविद्यालय में विश्व भर से विद्यार्थी विद्या अर्जन करने आते थे। उन विद्यार्थियों में एक प्रसिद्ध विद्यार्थी ह्वेन त्सांग भी था जिसकी स्मृति में समीप ही एक स्मारिका भी स्थापित है। मधुबनी के निराले एवं अनूठे गाँव, घरों की भित्तियों पर किये गए अप्रतिम चित्रीकरण के कारण दूर से ही पहचाने जा सकते हैं। मधुबनी की विलक्षण चित्रकला ने निर्मल व शांत गाँवों की गलियों से विश्व भर के संग्रहालयों तक की यात्रा सफलता पूर्वक पूर्ण की है।

भारत का मानसून

भारत में मानसून इसके दक्षिणी छोर पर स्थित केरल से आरम्भ होता है। जून मास में, जब भारत के अधिकाँश प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु अपनी चरम सीमा पर रहती है, तब मानसून केरल की ओर से देश में प्रवेश करता है तथा शनैः शनैः उत्तर की ओर बढ़ते हुए वर्षा की बाट जोहती तपती धरती पर शीतलता का मलहम लगाता है। अपने मार्ग में सभी को शीतलता में सराबोर करता हुआ तृष्णा भरी धरती को पोषित करता जाता है। मानसून कृषि प्रधान भारत की आन, मान एवं शान है।

भारत का समुद्र तट
भारत का समुद्र तट

केरल में हरियाली के विभिन्न रंग हमारे नैनों को चुनौती देते प्रतीत होते हैं। केले के ताजे वृक्ष के हलके हरे रंग से नारियल के वृक्ष के तने पर लिपटी काली मिर्च की लताओं के सघन हरे रंग तक, रंगों के इतने प्रकार विस्मृत कर देते हैं। केरल मसालों की भूमि है। यहाँ की काली मिर्च एवं अन्य मसालों के लिए प्राचीन काल से अनेक देशों के व्यापारी जहाज यहाँ लंगर डालते आये हैं। मसालों में इलायची, दालचीनी, जायफल, लौंग इत्यादि प्रमुख हैं। केरल के हरियाली से ओतप्रोत वन हाथियों से भरे हुए हैं। केरल के मंदिरों के उत्सवों में भी हाथियों की महत्वपूर्ण भागीदारी होती है। अरब महासागर से आती अप्रवाही जल की अनेक नदियाँ केरल की धरती पर सघन जाल बुनती हैं।

सर्प नौकाएं

मानसून के मध्य में केरल में एक अद्भुत उत्सव का समय आता है जब केरल के स्त्री पुरुष अपनी लम्बी लम्बी सर्प नौकाओं को जल में उतारते हैं। यहाँ के अनेक मंदिरों में जलोत्सव मनाया जाता है जब इन नौकाओं की दौड़ प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यह मानसून का उत्सव मनाने की एक अप्रतिम रीत है। केरल में लकड़ी के मंदिरों की नारियल तेल में भीगी भित्तियाँ भी अनेक कथाएं कहती हैं।

शिलाओं की कथाएं

केरल से पूर्व दिशा में तमिल देशम है जहां की शिलाएं विशालतम एवं प्राचीनतम कथाएं कहती हैं। उन्हें शिलाओं द्वारा प्रस्तुत कविता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आप उहापोह के भंवर में फंस जायेंगे कि कहाँ-कहाँ जाएँ, कहाँ-कहाँ देखें अथवा महाबलीपुरम, कांचीपुरम, श्रीरंगम, चिदंबरम जैसे सुन्दर स्थलों में किस का चुनाव करें। तमिलनाडु के महाबलीपुरम का शोर मंदिर भारत के लगभग पूर्वोत्तर भाग में स्थित है। कोरोमंडल तट पर स्थित यह मंदिर बंगाल की खाड़ी का अवलोकन करता प्रतीत होता है। यह अखंड मंदिर है जिसकी रूपरेखा पांच रथों की भाँति है। मंदिर का कुछ भाग समुद्र में जलमग्न हो गया है। पाँच होने के कारण इन मंदिरों को पांच पांडवों के नाम से जाना जाता है, जैसा कि सम्पूर्ण भारत में प्रथा सी बन चुकी है।

प्राचीनतम हिन्दू मंदिर

महाबलीपुरम में अर्जुन तपस्या तथा कृष्ण का माखन गोला जैसी अद्भुत शिल्पकारी पर से दृष्टी हटाये नहीं हटती। किन्तु इनके अतिरिक्त श्रीरंगम के शिव एवं शक्ति मंदिरों के गगनभेदी गोपुरमों पर की गयी शिल्पकारी का भी अवलोकन अवश्य किया जाना चाहिए। यह विश्व का विशालतम जीवंत मंदिर परिसर है। किसी जीवंत नगरी के समान इस मंदिर परिसर में सात भित्तियों को घेरते २१ गोपुरम हैं। प्रत्येक मंदिर की भित्तियों पर विस्तृत व उत्कृष्ट उत्कीर्णन हैं जिनमें पुराणों एवं महाकाव्यों की कथाएं प्रदर्शित की गयी हैं। जो इन कथाओं को जानते हैं तथा शिल्पों को समझते हैं उनके लिए इन शिल्पों की सूक्ष्मताओं अध्ययन करना अत्यंत आनंददायी होता है। इन दृश्यों में दैवी एवं मानवी आकृतियों को अत्यंत उत्कृष्टता से उकेरा गया है। ऐसा प्रतीत होता है मानो इनके बोलते नैन अभी झपकने लगेंगे तथा उनके कंपकंपाते होंठ अभी बोलने लगेंगे। इन सब पर विश्वास करने के लिए यहाँ आकर प्रत्यक्ष इनके दर्शन करना आवश्यक है। यहाँ आकर ही आप इन मूर्तियों को बोलते एवं पुराणों की कथाएं कहते देख सकते हैं।

रामेश्वरम का पम्बन सेतु
रामेश्वरम का पम्बन सेतु

इन मूर्तियों पर उत्कीर्णित आकर्षक आभूषण, उत्तम वस्त्र, विभिन्न अद्भुत केश-सज्जा, पाँव में आधुनिक प्रतीत होते चप्पल इत्यादि देख आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। देवों को उनके वाहनों पर बैठे तथा अपने अस्त्र-शस्त्र व अन्य चिन्ह लिए दर्शाया गया है। ये प्रतिमाएं ऐसी प्रतीत होती हैं मानो उनके उठे हस्त तथा खुले अधरों से वरदान के शब्द निकलने लगेंगे। रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों के दृश्य भित्तियों पर उकेरे गए हैं, चाहे मंदिर उत्तर भारत के हों अथवा दक्षिण भारत के। दक्षिण भारतीय छोर पर रामसेतु है जो गर्भनाल के रूप में श्रीलंका द्वीप को भारत से जोड़ती है।

कॉफी के प्रदेश

कॉफी के प्रदेश कुर्ग में कावेरी नदी का उद्गम है। बंगाल की खाड़ी तक जाते जाते कावेरी नदी मार्ग में भारत के दक्षिणी भागों का पोषण करती जाती है। एक समय इस नदी के तट पर फलते-फूलते मैसूर राज्य की सम्पन्नता अपनी चरम सीमा पर थी।  यह राज्य अब भी अपने विशेष दशहरा उत्सव के लिए जगप्रसिद्ध है। उत्तर कर्णाटक के चालुक्य भूमि पर ऐहोल में ऐसी कार्यशालाएं हैं जहां मंदिर के उत्कीर्णन का प्रशिक्षण दिया जाता था। समीप ही बादामी के बदामी रंग की गुफाएं एवं पट्टडकल के विशेष वास्तुशिल्प युक्त मंदिर हैं। निकट ही विजयनगर साम्राज्य के भव्य एवं राजसी नगरी हम्पी के अवशेष भी हैं। विश्व के सर्वाधिक संपन्न राज्यों में से एक राज्य, हम्पी के अवशेष विश्व का सर्वाधिक सुन्दर अवशेष हैं।

गोदावरी

किंचित उत्तर दिशा में जाएँ तो गोदावरी नदी घुमते इठलाते आँध्रप्रदेश के खेतों में पहुँचती है। कृष्णा नदी गुंटूर की तीखी लाल मिर्चों को अपना स्वाद प्रदान करती है। गुंटूर वह नवीनतम नगरी है जो प्राचीन अमरावती नगरी के नवीन स्वरूप में प्रकट हुई है। किंचित उत्तर में, ओडिशा में भगवान विष्णु एक उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित मंदिर के भीतर जगन्नाथ के रूप में निवास करते हैं। इसके चारों ओर उत्कृष्टता से परिपूर्ण अनेक मंदिर एवं गुफाएं हैं जिनके मध्य अनेक ऐसे कलाकार रहते हैं जो अप्रतिम चित्रकारी द्वारा पौराणिक कथाओं को जीवंत करते हैं। कोणार्क का सूर्य मंदिर अपने खंडित रूप में भी अपनी उत्कृष्टता बनाए हुए है। रथ के आकार की उसकी भव्य संरचना तथा चारों ओर खड़े सुडौल चक्के आज भी कारीगरों की उत्कृष्टता का प्रमाण देते हैं।

टेराकोटा के मंदिर

बंगाल की ओर जाएँ तो शिलाओं की अनुपस्थिति में, कारीगरों ने टेराकोटा अथवा लाल-भूरी पकी मिट्टी की पट्टिकाओं पर पौराणिक कथाओं को गढ़ कर मंदिरों की भित्तियों पर लगाया है ताकि भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए ये कथाएं सुरक्षित हो जायें। इन्ही कथाओं को बुनकरों ने प्रसिद्ध बालुचेरी साड़ियों पर अप्रतिम रूप से जीवंत किया है। बंगाल का कभी ना भुला पाने वाला ठेठ देहाती एवं कर्णप्रिय बाउल संगीत बंगाल के छोटे छोटे नगरों एवं गाँवों की गलियों में गुंजायमान होता है। इसके अतिरिक्त विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय शान्ति निकेतन है जिसकी स्थापना रविन्द्र नाथ ठाकुर ने की थी।

ब्रह्मपुत्र

भारत का उत्तर-पूर्वी छोर अर्थात पवित्र ईशान कोण अनेकों जनजातियों का निवास स्थान है जो ब्रह्मपुत्र नदी के दोनों ओर रहते हैं। उन स्थानों में ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित मजूली द्वीप भी सम्मिलित है जो विश्व का विशालतम नदद्वीप  है। इस स्थान पर वैष्णव सत्र भी है जिन्होंने शंकर देव की विरासत को जीवंत रखा हुआ है। इस स्थान पर प्रकृति की दया अपनी चरम सीमा पर रहती है। पर्वतों पर सघन हरियाली, उपजाऊ भूमि, पर्वतों के मध्य बिखरे सरोवर एवं वनीय प्रदेश, ऊंचे व गहरे जलप्रपात इत्यादि इस स्थान को स्वर्ग सदृश बनाते हैं। इनके मध्य अनेक गुप्त गुफाएं, वनीय पुष्प, फल, जीव-जंतु इत्यादि प्रकृति को सम्पूर्ण बनाते प्रतीत होते हैं।

पश्चिम का मोढेरा सूर्य मंदिर, पूर्व का कोणार्क सूर्य मंदिर तथा उत्तरी पर्वतों के कुछ अन्य सूर्य मंदिर आपके कानों में सूर्य आराधना के गौरवपूर्ण इतिहास की कथा सुनाते हैं। उसी सूर्य की आराधना जो हमारे जीवन में दिवस- रात्र के चक्र का संगीत भरते हैं। भारत देश के हृदयस्थली नैमीषारन्य है, जो ऐसा वन है जिसके विषय में प्रत्येक ग्रंथ व पुराण में साधुओं के निवास के रूप में उल्लेख किया गया है। इसी स्थान पर अनेक ग्रंथों की रचना हुई, उनका आदान-प्रदान हुआ तथा उन पर अनवरत चर्चाएँ हुई हैं। उस काल की कथा सुनाते वृक्ष यहाँ गर्व से खड़े हैं जिन्होंने कदाचित उन चर्चाओं का श्रवण किया होगा। धर्म के मार्ग पर चलने वाले भक्तों का यह तीर्थस्थल है।

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि भारत की चेतना अब भी उसके ग्रामीण क्षेत्रों में स्फुरित होती है जो सम्पूर्ण भारत में बिखरे हुए हैं। कमलों से भरे तालाब, गाय के गोठे, विशाल वृक्षों की छाँव में बने चबूतरे, यही भारत के गाँवों की शान है तथा भारत का मान है, जहाँ प्रकृति के सानिध्य में जीवन अत्यंत सादा, सरल एवं पावन होता है।

मार्टिन लूथर किंग ने कहा था – मैं दूसरे देशों में भले ही एक पर्यटक की भाँती जाऊं, किन्तु भारत में मैं एक तीर्थयात्री बनकर गया था। भारत एक ऐसा देश है जहां प्रत्येक पर्वत, चट्टान, नदी तथा सरोवर दैवी हैं तथा प्रत्येक यात्री एक तीर्थयात्री है।

सर्वप्रथम Hinduism Today Magazine में प्रकाशित किया था।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भारत की सर्वाधिक रमणीय सड़क यात्राएं https://inditales.com/hindi/bharat-ki-sadak-yatrayen/ https://inditales.com/hindi/bharat-ki-sadak-yatrayen/#respond Wed, 21 Aug 2024 02:30:19 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3667

भारत में सड़क मार्ग द्वारा भ्रमण करना मेरा सर्वाधिक प्रिय यात्रा माध्यम है। सड़क मार्ग पर यात्राएं करते हुए आप भौगोलिक स्थानांतरण में निरंतर होते प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों को निकट से अनुभव कर सकते हैं। क्षेत्र परिवर्तित होते ही वहाँ की भौगोलिक अवस्थिति, जल सम्पदा, संस्कृति आदि में सूक्ष्म ही सही, परिवर्तन अवश्य […]

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भारत में सड़क मार्ग द्वारा भ्रमण करना मेरा सर्वाधिक प्रिय यात्रा माध्यम है। सड़क मार्ग पर यात्राएं करते हुए आप भौगोलिक स्थानांतरण में निरंतर होते प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों को निकट से अनुभव कर सकते हैं। क्षेत्र परिवर्तित होते ही वहाँ की भौगोलिक अवस्थिति, जल सम्पदा, संस्कृति आदि में सूक्ष्म ही सही, परिवर्तन अवश्य होते हैं।

भारत की सड़क यात्रायें
भारत की सड़क यात्रायें

निजी वाहन हो अथवा किराए की टैक्सी, सड़क यात्रायें आपको अपनी गति से भ्रमण करने की स्वतंत्रता प्रदान करती हैं। आप थक जाएँ अथवा परिदृश्यों को कुछ क्षण अधिक निहारने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाए या चाय-पकोड़ा, इडली-वडा, पोहा-जलेबी, लाल चा अथवा कुछ अन्य खाद्य पदार्थ खाने पीने की इच्छा हो जाए तो आप स्वेच्छा से अल्पविराम ले सकते हैं।

यद्यपि मेरे लिये सभी सड़क यात्राएं आनंददायी होती हैं, तथापि कुछ सड़क यात्राएं इतनी नयनाभिराम होती हैं कि गंतव्य पहुँचने के आनंद की तुलना में यात्रा का आनंद सर्वोपरि हो जाता है।

भारत की सर्वाधिक रमणीय सड़क यात्राएं

भारत की कुछ रमणीय सड़क यात्राएं जिनका आनंद मैंने प्राप्त किया है तथा वो जो भविष्य में प्राप्त करने के लिए मेरी इच्छा सूची में सम्मिलित हैं, आईये उनकी कुछ छटा आपको दिखाती हूँ।

शिमला से किन्नौर, स्पीति व लाहौल होते हुए मनाली तक

भारत के हिमाचल प्रदेश में विरली जनसँख्या के इस क्षेत्र में भ्रमण करना मेरी सर्वाधिक प्रिय यात्रा रही है। यात्रा का आरम्भ होता है, हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से। राजधानी होने के कारण यह अनेक गतिविधियों से परिपूर्ण नगर है। सेबों के क्षेत्रों से होते हुए हम किन्नौर पहुँचते हैं जहाँ की विशेषता है, हरे रंग की हिमाचली टोपी। चारों ओर आपको हरे रंग की विशेष टोपियों से सजे हिमाचली पुरुष दृष्टिगोचर होंगे।

रमणीय स्पिति घाटी
रमणीय स्पिति घाटी

वहाँ से आगे बढ़ते हुए स्पीति घाटी में पहुँचते हैं जहाँ की शीतलतम मरुभूमि अपनी नीरवता एवं चित्ताकर्षक परिदृश्यों से आपको स्तब्ध कर देगी। लाहौल से जाते हुए कुंजुम दर्रे एवं रोहतांग दर्रे के मध्य स्थित चंद्रताल सरोवर की लुभावनी सुन्दरता को अपने नैनो द्वारा अपने स्मृति में अमर कर लीजिये। अंततः मनाली में अपनी यात्रा का अंत करते हुए इस अनुभूति से प्रसन्न होईये कि आप पुनः अपनी चिरपरिचित सभ्यता में वापस आ गए हैं।

इस सड़क यात्रा के लिए जुलाई-अगस्त की कालावधि सर्वोत्तम है। इस कालावधि में कुंजुम दर्रा खुला रहता है।

मानसून में कोंकण क्षेत्र में सड़क यात्रा

कोंकण एवं मानसून एक प्रकार से एक दूसरे के पूरक कहलाते हैं। कोंकण क्षेत्रों में लगभग ६ मास वर्षा होती रहती है जिससे सम्पूर्ण क्षेत्र हरियाली के आवरण से ढँक जाता है। गोवा से सड़क मार्ग द्वारा रत्नागिरी एवं आसपास के क्षेत्रों तक की यात्रा आपको इस हरियाली का प्रत्यक्ष दर्शन करायेगी।

कोंकण का सावदाव जल प्रपात
कोंकण का सावदाव जल प्रपात

चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर धूसर रंग की संकरी सड़क के अतिरिक्त सम्पूर्ण परिदृश्य हरे रंग की भिन्न भिन्न छटाओं से आवरित दृष्टिगोचर होता है। क्षण क्षण में मार्ग के दोनों ओर झरने दिखाई पड़ जाते हैं। इस मार्ग पर स्थित अम्बोली घाट तो दूर-सुदूर से बड़ी संख्या में पर्यटकों, पर्वतारोहकों व रोमांचक पदभ्रमणकारियों को आकर्षित करता है। सावडाव एवं मार्लेश्वर झरने भी अत्यंत लोकप्रिय हैं।

कोंकण क्षेत्रों के चित्ताकर्षक परिदृश्यों का आनंद आप रेल मार्ग द्वारा भी उठा सकते हैं। कोंकण रेलवे भी कोंकण क्षेत्रों के हरेभरे परिदृश्यों, घाटों एवं झरनों के अवलोकन का उत्तम अवसर प्रदान करती है।

अप्रतिम सौंदर्य से परिपूर्ण कोंकण क्षेत्र में सड़क यात्रा का आनंद उठाने का सर्वोत्तम समय मानसून काल है।

श्रीनगर से लेह तक सड़क यात्रा

डल सरोवर के चारों ओर बसा एक सुन्दर नगर, श्रीनगर। तैरती नौकाओं से भरा मनमोहक डल सरोवर इस सुन्दर पर्वतीय पर्यटन नगर को अद्वितीय आयाम प्रदान करता है। अनेक हिन्दी चलचित्रपटों में इन परिदृश्यों की पृष्ठभूमि में अविस्मरणीय प्रणय दृश्यों को चित्रित किया है। उस काल में प्रणय एवं श्रीनगर का एक अटूट सम्बन्ध सा बन गया था। श्रीनगर के राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेशों में सकारात्मक परिवर्तन के साथ यह पुनः एक लोकप्रिय पर्यटन क्षेत्र बन रहा है।

अमरनाथ यात्रियों का बालताल शिविर
अमरनाथ यात्रियों का बालताल शिविर

सड़क मार्ग द्वारा लेह की ओर जाते हुए आप पहलगाम के मनोरम दृश्यों को देखेंगे। आकर्षक पर्वतीय परिवेश में घोड़ों पर भ्रमण करते अनगिनत प्रसन्न पर्यटक, यह एक सामान्य दृश्य होता है। यदि अमरनाथ तीर्थयात्रा का समय हो तो आप बालताल में अनेक विशाल शिविर देख सकते हैं जहाँ तीर्थयात्रियों की सुविधा के सभी प्रबन्ध किये जाते हैं। आकाश में उड़ान भरते कई हेलीकॉप्टर भी दिखेंगे जो तीर्थयात्रियों को पर्वतशिखर तक पहुँचते हैं।

जोजिला दर्रा एक नवीन परिदृश्य प्रस्तुत करता है। हरियाली एवं विविध रंगों से परिपूर्ण परिदृश्य अब लद्दाख के बीहड़ पर्वतों में परिवर्तित होने लगते हैं। मार्ग में द्रास युद्ध स्मारक एवं कारगिल में अवश्य भ्रमण करें। लामायुरू मठ के चन्द्रमा सदृश परिवेशों को अपनी स्मृति में अमर करें। अलची मठ में प्राचीन चित्रों का अवलोकन भी अवश्य करें।

लेह पहुँचते ही कुछ काल विश्राम अवश्य करें। ऊँचाई परिवर्तन एवं वायु की विरलता के लिए स्वयं को अभ्यस्त करना आवश्यक होता है।

इस सड़क यात्रा के लिए सर्वोत्तम अवधि ग्रीष्म काल है। मैंने ग्रीष्मकाल में इन क्षेत्रों का भ्रमण अवश्य किया है किन्तु मैंने शीत ऋतु के असहनीय वातावरण में भी लेह का भ्रमण किया है। वह भ्रमण भी अत्यंत रोमांचक था।

अरुणाचल के बोमडिला से होते हुए तवांग तक की सड़क यात्रा  

यह सड़क यात्रा असम-अरुणांचल सीमा पर स्थित तेजपुर से आरम्भ की जा सकती है। यदि रोमांचक यात्रा का विचार हो तो अरुणांचल के भालुकपोंग से यात्रा आरम्भ की जा सकती है। आर्किड अभयारण्य में अवश्य विचरण करें किन्तु सड़क यात्रा करते हुए भी सड़क के दोनों ओर निहारना ना भूलें। चारों ओर आपको वनीय आर्किड दृष्टिगोचर होंगे। वृक्षों के तनों-शाखाओं पर चढ़े आर्किड बेलों से लटकते हुए अथवा झाड़ियों से झांकते हुए ये आपके रोम रोम को प्रफुल्लित कर देंगे।

तेंगा घाटी में हिमालय की लहरें
तेंगा घाटी में हिमालय की लहरें

अरुणांचल में हरियाली के आवरण से ढंके अनेक पर्वत एवं घाटियाँ हैं। टेंगा घाटी उन सब में सर्वाधिक आकर्षक घाटी है। यहाँ किवी के अनेक उद्यान हैं। अरुणांचल की सड़क यात्रा में बोमडिला का पड़ाव आवश्यक है।

प्रतिकूल जलवायु के कारण मैं तवांग तक नहीं जा पायी थी। मुझे बताया गया कि तवांग तक की सड़क यात्रा अत्यंत चित्ताकर्षक है।

यद्यपि इन पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु सदा ही अतिशीतल रहता है, तथापि इस सड़क यात्रा के लिए ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम समयावधि है।

जोधपुर से जैसलमेर की सड़क यात्रा

राजस्थान भारत का सर्वाधिक पर्यटन-अनुकूल राज्य है। राजस्थान में आप अनेक सुन्दर सड़क भ्रमण कर सकते हैं। मैंने ‘जयपुर के आसपास के स्थल- १० सर्वोत्कृष्ट एक-दिवसीय भ्रमण’, इस संस्करण में उनके विषय में विस्तार से उल्लेख किया है। उन सब में मेरी सर्वाधिक प्रिय यात्रा है, जोधपुर से जैसलमेर तक सड़क यात्रा। विस्तृत विशाल थार मरुस्थल को चीरती सीधी सड़क पर यात्रा करना स्वयं में एक अविस्मरणीय अनुभव है। चारों ओर स्वर्णिम बालू, यदा-कदा बालू के टापू, सूखे खेजड़ी के वृक्ष व अन्य झाड़ियाँ एक विलक्षण परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं।

विशाल थार मरुस्थल
विशाल थार मरुस्थल

बालू के विस्तृत क्षेत्रों में रंगबिरंगे आवरणों एवं आभूषणों से अलंकृत ऊंट परिदृश्यों में रंग भर देते हैं। इस मार्ग पर परिवहन विरल रहता है। सम्पूर्ण परिवेश ऐसा प्रतीत होता है मानो आप अनंत की ओर यात्रा कर रहे हैं। महानगरों एवं नगरों में हमारी दृष्टि सदा बाधित होती रहती है। किन्तु इस परिदृश्य में हमारी अबाधित दृष्टि दूर दूर तक देख सकती है। जैसलमेर की मंत्रमुग्ध कर देने वाली सुन्दरता में ओतप्रोत हो जाईये। अथवा कुलधरा के रहस्यमयी गाँव में रोमांचित होईये। लोद्रवा के जैन मंदिरों की सुन्दरता को निहारिये।

इस सड़क यात्रा के लिए सर्वोत्तम समयावधि शीत ऋतु है।

तमिलनाडु के चोल मंदिरों के दर्शन – एक सड़क यात्रा

तमिलनाडु में स्थित पूर्वी तटीय मार्ग आपको चेन्नई से पोंडिचेरी ले जाती है। यह एक अप्रतिम सड़क यात्रा है। आप प्राचीन नगरी महाबलीपुरम में रूककर प्राचीन भव्य मंदिरों के दर्शन कर सकते हैं। महाबलीपुरम अप्रतिम स्थापत्य शैली के मंदिरों एवं मनमोहक समुद्रतटों के लिए प्रसिद्ध है। आगे जाकर आप चिदंबरम का वैभवशाली नटराज मंदिर देख सकते हैं।

गंगैकोंदाचोलापुराम का चोल मंदिर
चोल मंदिर

कुम्भकोणम की ओर एक लघु विमार्ग ले सकते हैं। आगे तमिलनाडु की सांस्कृतिक राजधानी तंजावुर जा सकते हैं। तंजावुर का बड़ा बृहदीश्वर मंदिर, गंगईकोंड चोलपुरम का बृहदीश्वर मंदिर, दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर जैसे वैभवशाली विशाल प्राचीन मंदिरों के दर्शन अवश्य करें।

कुछ दूर आगे आप तिरुचिरापल्ली जा सकते हैं। श्रीरंगम नामक द्वीप नगरी के दर्शन कर सकते हैं जो धार्मिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण व पवित्र स्थल है।

यह सम्पूर्ण सड़क मार्ग हमें ऐतिहासिक चोल मंदिरों से अवगत कराता है।

यद्यपि यह यात्रा वर्ष भर में कभी भी की जा सकती है, तथापि ग्रीष्म ऋतु किंचित कष्टकारक हो सकती है। यहाँ शीत ऋतु अत्यंत सुखकारक है।

सड़क यात्रा द्वारा मध्यप्रदेश की प्रसिद्ध रानियों से भेंट 

भ्रमण की दृष्टि से मध्य प्रदेश मेरे सर्वाधिक प्रिय राज्यों में से एक है। इस राज्य में अनेक सड़क यात्राएं आयोजित की जाती हैं। उनमें से एक प्रसिद्ध यात्रा है, नर्मदा परिक्रमा। मैं आपको जिस सड़क यात्रा के विषय में बताना चाहती हूँ, वह अपेक्षाकृत छोटी यात्रा है किन्तु अत्यंत अनोखी है। यह सड़क यात्रा उन नगरों में ले जाती है जो अपनी रानियों की कीर्ति से जाने जाते हैं। आप इंदौर से अपनी सड़क यात्रा आरम्भ कर मांडू तक जा सकते हैं।

नर्मदा के तट पर महेश्वर
नर्मदा के तट पर महेश्वर

मांडू का नाम लेते ही रानी रूपमती एवं उनकी लोकप्रिय कथाएं स्मृति पटल पर उभर कर आ जाती हैं। पहाड़ी पर बसे मांडू नगर में आप कहीं भी जाएँ, आपको रानी रूपमती की कथाएं सुनाई जायेंगी। मुझे रानी रूपमती के महल अत्यंत भाया जहाँ से वो नर्मदा नदी के दर्शन करती थीं। मांडू के प्राचीन महलों का अवलोकन करते समय आप उस काल के उत्कृष्ट जल प्रबंधन प्रणाली की प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पायेंगे।

यहाँ से आगे जाते हुए आप महेश्वर पहुंचेंगे। महेश्वर की रचना मेरी सर्वप्रिय रानी अहिल्या बाई होलकर ने की थी। महेश्वर उनकी राजधानी भी थी। आज भारत में हम अनेक मंदिर देखते हैं जो अहिल्या बाई की ही देन हैं। महेश्वर में नर्मदा नदी के तट पर उनका सुन्दर महल है। इस तट पर एक सुन्दर घाट है। नर्मदा के तट पर स्थित यह सर्वाधिक सुन्दर घाट है। यहाँ आयोजित की गयी लिंगार्चना मेरी स्मृतियों में अब भी स्पष्ट है। इस अर्चना में एक लाख से भी अधिक शिवलिंगों की अर्चना की जाती है। आज भी यह अनुष्ठान अनवरत रूप से किया जाता है। महेश्वर में सुप्रसिद्ध माहेश्वरी साड़ियाँ क्रय करें। नर्मदा नदी में नौकायन का भी आनंद उठायें।

वाहन चलाते हुए यहाँ से आगे आप बुरहानपुर जाएँ। आपने मुमताज महल का नाम सुना होगा, जिनकी स्मृति में शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण कराया था। मुमताज महल का देहांत बुरहानपुर में हुआ था। कुछ काल के लिए उन्हें बुरहानपुर में ही दफनाया गया था। यह एक प्राचीन नगर है जो उससे भी प्राचीन ताप्ति नदी के तट पर बसा है। मार्ग में आप ओंकारेश्वर रुक कर मंदिर में शिवलिंग के दर्शन कर सकते हैं जो एक ज्योतिर्लिंग है। महान संन्यासी आदि शंकराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट ओंकारेश्वर में ही हुई थी। यहीं पर उन्होंने अध्ययन व साधना की थी।

पटना-नालंदा-गया – बिहार की लोकप्रिय सड़क यात्रा

बिहार राज्य की यह लोकप्रिय सड़क यात्रा वैश्विक धरोहर नालंदा तथा नालंदा जिले में स्थित राजगीर से होकर जाती है। यह आपको गया, बोधगया तथा बराबर गुफाओं का भी भ्रमण कराती है। सड़क मार्ग द्वारा बिहार का भ्रमण करते हुए आप बिहार के स्वादिष्ट व्यंजनों का भी आस्वाद ले सकते हैं, जैसे खाजा तथा लाइ।

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय

यदि आप चाहें तो आप इस चक्र में वैशाली को भी सम्मिलित कर सकते हैं। मैंने इस सड़क यात्रा का सुझाव आपके समक्ष इसलिए रखा क्योंकि इस सड़क यात्रा के माध्यम से आप यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों के सादगी पूर्ण जीवन को निकट से अनुभव कर सकते हैं। आप प्राचीन कालीन बिहार के परिवेश को जान व समझ सकते हैं। मैंने यहाँ के स्वच्छ गाँव एवं सरल निवासियों से परिपूर्ण कुछ अप्रतिम परिदृश्य देखे जो अति-औद्योगीकरण की मलिनता से अछूते हैं।

गुवाहाटी से शिलांग

मेघालय भ्रमण के लिए आये लगभग सभी यात्रियों का यही मार्ग होता है जब वे इसकी राजधानी शिलांग तक जाना चाहते हैं। सम्पूर्ण मार्ग मनोरम परिदृश्यों से परिपूर्ण है। विशेषतः उमियम सरोवर की स्मृतियाँ मेरे मन को अब भी आनंदित कर देती हैं। पहाड़ियों एवं पर्वतों से घिरे इस सरोवर पर जब मेघों की परछाई पड़ती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो इस सरोवर ने मेघों को अपने अंक में समाहित कर लिया है।

चाय के उद्यानों से जाती सड़कों पर भ्रमण

भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक अनेक चाय के उद्यान हैं। उनमें मेरे सर्वाधिक प्रिय दो उद्यान भारत के दो छोरों पर हैं। एक है टेमी चाय उद्यान में भ्रमण जिसे आप सिक्किम में गंगटोक यात्रा के समय कर सकते हैं। हिमालय पर्वत श्रंखलाओं में भ्रमण करते हुए आप पहाड़ियों की ढलानों पर चाय के हरे-भरे उद्यान देख सकते हैं।

टेमी चाय बागन - सिक्किम
टेमी चाय बागन – सिक्किम

दूसरा है, मुन्नार सड़क भ्रमण। मुन्नार में भ्रमण करते हुए आप अक्षरशः चाय के उद्यानों के मध्य से जाते हैं। टाटा चाय संग्रहालय ने मेरे मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ी है। उस अनुभव को मैं भूल नहीं सकती।

असम के चाय उद्यान भी सुन्दर हैं किन्तु अधिकाँश उद्यान समतल क्षेत्रों पर हैं।

भारत में मेरी भावी सड़क यात्राएं – एक इच्छा सूची

इस इच्छा सूची में प्रथम नाम है, कश्मीर से कन्याकुमारी तक सड़क यात्रा। इस सड़क यात्रा के लिए शक्ति, अभ्यास एवं धीरज की आवश्यकता होती है। मेरी अभिलाषा है कि मैं एक ना एक दिवस यह यात्रा अवश्य करूँ।

दूसरी इच्छा है, नर्मदा परिक्रमा। सड़क मार्ग द्वारा इस परिक्रमा को पूर्ण करने के लिए लगभग १५ दिवस आवश्यक हैं। वस्तुतः, यह यात्रा मेरे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भावी यात्रा है।

मैं प्राचीन व्यापार मार्गों पर भी जाना चाहती हूँ। इनमें एक है, उत्तरपथ जिसके कुछ भाग भारत में हैं। दूसरा है, दक्षिणपथ जो पूर्णतः भारत में है।

मैंने अभी तक भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों की सड़कें भी नापी नहीं हैं। यह कार्य भी मैं शीघ्र पूर्ण करना चाहती हूँ।

सड़क यात्राओं के लिए कुछ सुझाव

  • सड़क यात्रा की अवधि आपकी समय सारिणी, आपकी रूचि तथा अवलोकन की गहराई पर निर्भर करती है। अतः सड़क यात्राओं का नियोजन करते समय इन बिन्दुओं को ध्यान में रख कर यात्रा का नियोजन करें।
  • यद्यपि खाने-पीने की सामग्री सदा साथ रखने का सुझाव दे रही हूँ, तथापि यह भी आग्रह कर रही हूँ कि जहाँ जहाँ भी संभव हो, स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद अवश्य लें। विशेषतः महामार्गों पर स्थित ढाबों एवं जलपानगृहों में अवश्य भेंट दें।
  • मार्ग में जहाँ जहाँ से भी उत्तम परिदृश्यों का अवलोकन संभव हो, आप वहाँ अवश्य रुकें। अंततः, सड़क मार्ग द्वारा भ्रमण का यही तो सर्वाधिक लाभदायक तत्व है। मार्ग में स्थित स्थानीय हाटों में भी जाएँ। स्थानीय लोगों से भेंट करें। स्मृति चिन्ह क्रय करें।
  • अपने वाहन के रखरखाव पर विशेष ध्यान दें। स्थानीय वाहन चालकों की सहायता लें जिन्हें उस स्थान एवं वहाँ उपलब्ध सुविधाओं की पूर्ण जानकारी होती है।
  • जहाँ तक संभव हो, सूर्यास्त तक ही वाहन चलायें। प्रातःकालीन शीतल वातावरण सड़क मार्ग द्वारा भ्रमण के लिए सर्वोपयुक्त होता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भारत के दो से अधिक नदियों के तट एवं संगम वाले अद्भुत नगर https://inditales.com/hindi/do-nadiyon-ke-tat-par-bhartiya-nagar/ https://inditales.com/hindi/do-nadiyon-ke-tat-par-bhartiya-nagar/#comments Wed, 19 Jul 2023 02:30:19 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3117

इंडीटेल यात्रा प्रश्नावली – नदियाँ एवं नगर कुछ समय पूर्व हमने आपसे एक प्रश्न किया था, भारत में ऐसे कौन कौन से नगर हैं जिनमें एक से अधिक नदियाँ हैं। हमें इस प्रश्न के उत्तर में उत्तम प्रतिसाद मिला है। हमने आप सभी के उत्तरों को संकलित किया है तथा इस संस्करण की रचना की […]

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इंडीटेल यात्रा प्रश्नावली – नदियाँ एवं नगर

कुछ समय पूर्व हमने आपसे एक प्रश्न किया था, भारत में ऐसे कौन कौन से नगर हैं जिनमें एक से अधिक नदियाँ हैं। हमें इस प्रश्न के उत्तर में उत्तम प्रतिसाद मिला है। हमने आप सभी के उत्तरों को संकलित किया है तथा इस संस्करण की रचना की है। यह संस्करण उन भारतीय तटीय नगरों के विषय में है जो एक से अधिक नदियों द्वारा पोषित होते हैं।

अन्य प्रश्नावलियों के लिए हमारा फेसबुक, ट्विटर एवं इन्स्टाग्राम देखें।

भारत के  नगर जन्हें एक से अधिक नदियों का वरदान प्राप्त है:

सदियों पूर्व अपनी बस्ती बसाने के लिए लोग नदी के तट का चयन करते थे क्योंकि जल हमारी मूलभूत आवश्यकता है। प्राचीन काल में जल के प्राकृतिक स्त्रोत ही उपलब्ध होते थे। इसी कारण भारत की लगभग सभी नदियों के तट पर बस्तियां बसी थीं जो अब फलफूल कर बड़े नगर बन गए हैं।

उन्ही के विषय में हमने आप से एक प्रश्न पूछा था कि भारत में ऐसे कौन कौन से नगर हैं जिनमें एक से अधिक नदियाँ हैं। आपके उत्तर के आधार पर हमने यह सूची बनाई है। इन्हें पढ़ने के पश्चात यदि आपको ऐसा लगे कि इसमें कुछ अन्य नगर भी सम्मिलित किये जाने चाहिए तो हमें अवश्य बताएं।

११. वाराणसी – वरुणा, असी एवं गंगा नदियाँ

वाराणसी में गंगा
वाराणसी में गंगा

भारत का ऐतिहासिक नगर, वाराणसी वास्तव में तीन-तटीय नगर है। अर्थात् यह तीन नदियों के तटों को छूता है। यूँ तो लोग वाराणसी को गंगा नदी के तट पर बसे नगर के रूप में ही अधिक जानते हैं। किन्तु हम में से अनेक इस ओर ध्यान नहीं देते कि वाराणसी नाम ही दो अन्य नदियों के नामों के संगम से बना है। वाराणसी के उत्तर की ओर स्थित वरुणा नदी जो आदिकेशव घाट पर गंगा नदी से मिलती है। वहीं दक्षिणी ओर असी नदी है जिसके नाम पर ही प्रसिद्ध असी घाट का नाम पड़ा है।

ये तीन नदियाँ एवं उनके घाट वाराणसी को वह अद्भुत नगर बनाते हैं जो तीन नदियों से घिरा हुआ है।

१०. पटना – गंगा, सोन एवं पुनपुन नदियाँ

पटना में गंगा
पटना में गंगा

मुझे केवल इतना ही ज्ञात था कि पटना नगरी गंगा के तट पर बसी है। प्रश्नावली के उत्तर में कुछ ने सोन नदी भी कहा। इस संस्करण को लिखते समय मैंने कुछ शोध किये तथा यह जानकारी प्राप्त की कि पटना की सीमा से लग कर दो नहीं, अपितु तीन नदियाँ बहती हैं। तीसरी नदी है, पुनपुन। ये तीन नदियाँ पटना को भी तीन नदियों से घिरा नगर बनाते हैं।

सोन नदी एवं पुनपुन नदी पटना आकर गंगा से मिल जाती हैं।

इस तथ्य को सम्मुख लाने के लिए आदिवर्हा का अनेक धन्यवाद।

९. हैदराबाद – मुसी एवं एसी नदियाँ

मैं हैदराबाद में रह चुकी हूँ। हैदराबाद में घूम चुकी हूँ। मुसी नदी को तो मैंने सैकड़ों बार पार किया होगा। किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं था कि मुसी नदी की एक सहायक नदी भी है जिसका नाम एसी नदी है तथा जो हैदराबाद नगरी में ही मुसी नदी से मिलती है।

हैदराबाद में मूसी और ऐसी
हैदराबाद में मूसी और ऐसी

वृजिलेश का मैं धन्यवाद करती हूँ जिसने हमें हैदराबाद के विषय में यह जानकारी दी। उन्होंने यह भी बताया कि एसी नदी हिमायत सागर से आती है तथा मुसी नदी गंडिपेट से। लंगर हाउस के समीप बाबूघाट संगम पर मुसी नदी एवं एसी नदी एक दूसरे से मिलती हैं।

मेरी अगली हैदराबाद यात्रा में मैं इस घाट के दर्शन अवश्य करूँगी।

मुसी के विषय में मुझे एक अन्य तथ्य भी ज्ञात हुआ कि यह नदी अनंतगिरी पहाड़ों से निकलती है तथा इसका प्राचीन नाम मुचिकुंडा था। किवदंतियों के अनुसार मुचुकुंडा इक्ष्वाकु वंश का वंशज था अथवा यह कहा जाए कि सूर्यवंशी भगवान राम के ही वंश का था। ऐसा माना जाता है कि वह अनंतगिरी पहाड़ों में निद्रामग्न है। उसी के नाम पर नदी का नाम मुचिकुंडा पड़ा।

८. पुणे – मुला, मुठा एवं पवना नदियाँ

पुणे में दो नदियाँ हैं, मुला एवं मुठा। जो भी पुणे गया है उसे यह ज्ञात ही होगा। इसीलिए मैंने पुणे को दो नदियों वाले नगरों की सूची में डाला था।

पुणे में मुला-मूठा
पुणे में मुला-मूठा

किन्तु जब मैं इस संस्करण को लिखने के लिए शोध कर रही थी तथा विभिन्न साहित्य पढ़ रही थी तब मुझे ज्ञात हुआ कि पुणे में तीसरी नदी भी है जिसका नाम है, पवना। मुला नदी पवना नदी से उसके बाएं तट पर मिलती है तथा मुठा नदी उसके दाहिने तट पर, जो आगे जाकर मुला-मुठा नदी बन जाती है। तीनों नदियाँ पश्चिमी घाटों से निकलती हैं।

मुला-मुठा नदी सहायक नदियों की उस श्रंखला का एक भाग हैं जो आगे जाकर कृष्णा नदी में समा जाती हैं। तत्पश्चात सभी बंगाल की खाड़ी से जा मिलती हैं।

७. प्रयागराज – गंगा, यमुना एवं सरस्वती नदियाँ

मेरी प्रश्नावली के प्रत्युत्तर में अधिकाँश लोगों ने प्रयाग का नाम सुझाया था। सभी जानते हैं कि प्रयाग में गंगा एवं यमुना का संगम है। कुम्भ मेले ने भी इस तथ्य को अधिकतम लोगों तक पहुँचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। यहाँ संगम का भी अपना स्वयं का नाम है, त्रिवेणी संगम। इसका अर्थ है तीन नदियों का संगम।

प्रयाग में गंगा, यमुना, सरस्वती
प्रयाग में गंगा, यमुना, सरस्वती

गंगा एवं यमुना दोनों दृश्य नदियाँ हैं तथा तीसरी नदी, सरस्वती नदी अदृश्य है। सरस्वती नदी के अस्तित्व पर अनेक वैज्ञानिकों ने प्रश्न उठाये हैं किन्तु आस्था रखने वालों के भीतर ये सदा जीवित रहेगी।

६. कटक – महानदी एवं उसकी अनेक वितरिकाएं

कटक की स्थिति अनोखी है। एक ओर जहां अन्य नगरों में नदियों का संगम होता है, कटक ऐसा नगर है जहां महानदी अनेक भागों में विभक्त होकर शाखा नदियाँ या वितरिकाएं बनाती है। उन वितरिकाओं में अधिकतर नदियाँ कटक नगर से होकर जाती हैं। इन वितरिकाओं के नाम हैं, महानदी, काठजोड़ी, कुआखाई तथा बिरुपा। काठजोड़ी आगे जाकर देवी एवं बिलुआखाई नदियों में विभक्त होती है।

कट्टक में महानदी
कट्टक में महानदी

काठजोड़ी का अर्थ है, काठ के फलक से जोड़ा हुआ। हो सकता है कि किसी काल में इस नदी के ऊपर लकड़ी का सेतु रहा होगा या इस नदी को एक लकड़ी के फलक की सहायता से पार किया जाता होगा।

५. देवप्रयाग – भागीरथी, अलकनंदा एवं गंगा नदियाँ

देवप्रयाग के विषय में हम सब ने सुना है किन्तु हम में से अनेक की इस हिमालयी नगर में पहुँचने की अभिलाषा कदाचित अब तक पूर्ण ना हुई हो।

देवप्रयाग में अलकनंदा एवं भागीरथी
देवप्रयाग में अलकनंदा एवं भागीरथी

गंगोत्री में गंगा को भागीरथी कहते हैं। देवप्रयाग में अलकनंदा नदी एवं भागीरथी नदी का संगम होता है जो गंगा नदी बनकर आगे जाती है।

इससे पूर्व ४ अन्य नदियाँ गंगा में समाहित होती हैं, धौलीगंगा, नंदाकिनी, पिंडार एवं मन्दाकिनी। इन्हें मिलाकर कुल पांच नदियों का संगम अलकनंदा में होता है जिसे पंच प्रयाग कहते हैं।

४. चेन्नई – अड्यार एवं कूउम नदियाँ

मुझे केवल अड्यार नदी के विषय में ही जानकारी थी। कूउम नदी के विषय में मुझे इस प्रश्नावली पर संस्करण बनाते समय ही प्राप्त हुई थी। ये दोनों छोटी नदियाँ हैं जिनका उद्गम चेन्नई से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर है।

चेन्नई में अड़यार नदी
चेन्नई में अड़यार नदी

कूउम नदी को ट्रिप्लिकेन नदी भी कहते हैं। कूउम शब्द का सम्बन्ध कूपं शब्द से है जिसका अर्थ कुआं होता है।

चेन्नई की नदियों के विषय में यहाँ पढ़ें।

चेन्नई की नदियों के विषय में यह जानकारी अनंत रुपनगुडी से प्राप्त हुई है। चित्र – श्रीनिधि हंडे।

३. नासिक – गोदावरी एवं दाराणा नदियाँ

हम सब यह जानते हैं कि कुम्भ मेले का एक आयोजन स्थल नासिक भी है जहां इसे गोदावरी नदी के तट पर आयोजित किया जाता है। पर क्या आप जानते हैं कि वहां दाराणा नाम की भी एक नदी है जो नासिक नगर को छूती हुई जाती है?

नासिक में गोदावरी
नासिक में गोदावरी

विकिपीडिया के अनुसार नासिक में इनके अतिरिक्त भी अनेक नदियाँ हैं जो नासिक से होकर बहती हैं, जैसे वैतरणा, भीमा, गिरणा एवं काश्यपी नदियाँ। किन्तु मैं इनकी पुष्टि नहीं कर पायी हूँ। आशा है आप में से नासिक में रहने वाले किसी पाठक से मुझे इस विषय में अधिक जानकारी मिले।

नासिक की नदियों के विषय में जानकारी देने के लिए सचिन पाटिल का धन्यवाद।

२. पणजी – मांडवी एवं जुआरी नदियाँ

पणजी में मांडवी
पणजी में मांडवी

गोवा की राजधानी पणजी दो नदियों के मध्य बसी हुई है, मांडवी नदी एवं जुआरी नदी। पणजी के दोनों ओर से आते हुए, ये दोनों नदियाँ आगे जाकर अरब महासागर में मिल जाती हैं। मांडवी नदी पर्यटकों की नौकाओं एवं कैसिनो नौकाओं से भरी एक उल्लासपूर्ण नदी है। वहीं जुआरी नदी कोलाहल से दूर, अत्यंत शांत नदी है तथा अपेक्षाकृत अधिक चौड़ी है।

भारत में नदियों के तट पर एवं संगम पर अनेक प्राचीन नगर बसे हैं। इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं है कि इसी कारण हम संगम को अत्यंत पवित्र मानते हैं तथा उसकी आराधना करते हैं। उन्होंने ही सदियों से हमारा पालन-पोषण किया है।

. भारत के अन्य नगर जहां एक से अधिक नदियों के तट हैं

ये सूची भारत के उन छोटे नगरों की है जहां एक से अधिक नदियों के तट हैं।

  • तमिल नाडू में श्रीरंगम – कावेरी एवं कोल्लिदम नदियों के मध्य स्थित है।
  • तमिल नाडू में करुर – कावेरी एवं अमरावती नदियों के तटों पर बसा हुआ है।
  • आन्ध्र प्रदेश में कुरनूल – तुंगभद्र, नीव एवं हुन्द्री नदियों के तट
  • महाराष्ट्र में कराड – कृष्णा एवं कोयना नदियाँ
  • कर्नाटक में मंगलुरु – नेत्रवती एवं गुरुपुरा की अप्रवाही नदियाँ

यदि आप ऐसे भारतीय नगरों के विषय में जानते हैं जो एक से अधिक नदियों के तट पर या संगम पर बसे हैं तथा जिन्हें इन सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है तो उनके विषय में टिप्पणी खंड में अवश्य लिखें। मैं संस्करण में उनका भी उल्लेख करना चाहूंगी।

लद्धाख में सिन्धु जांसकर का संगम
लद्धाख में सिन्धु जांसकर का संगम

इस संस्करण की रचना करते समय मेरे लिए सबसे बड़ी सीख यह थी कि गूगल मानचित्र केवल बड़ी नदियाँ दर्शाता है। उसमें छोटी नदियों का उल्लेख बहुधा नहीं मिलता है। अब मुझे A History of World in 12 Maps इस पुस्तक में लिखे जेरी ब्रोट्टन के कथन का अर्थ समझ में आता है।

आप सब ने इस प्रश्नावली में जिस उत्साह से भाग लिया, उसके लिए मैं आप सब का धन्यवाद करना चाहती हूँ। संस्करण के अंत में पुनः इस तथ्य को दुहराना चाहती हूँ कि सभी बड़ी नदियाँ अनेक सहायक नदियों के संगम से ही बनती हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भारत के राष्ट्रीय चिन्ह – भारत के खोज की यात्रा https://inditales.com/hindi/bharat-ke-rashtriya-chinh/ https://inditales.com/hindi/bharat-ke-rashtriya-chinh/#respond Wed, 25 Jan 2023 02:30:39 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2935

१५ अगस्त, १९४७ को भारत स्वतन्त्र हुआ तथा २६ जनवरी, १९५० को वह एक गणतंत्र राष्ट्र घोषित हुआ। इस काल में भारत को एक नवीन परिचय प्राप्त हुआ। इस नवीन परिचय को एक नवीन चिन्ह की आवश्यकता थी जो भारत का चिन्ह बने,  भारत का प्रतिनिधित्व करे तथा भारत के विभिन्न आयामों को सामूहिक रूप […]

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१५ अगस्त, १९४७ को भारत स्वतन्त्र हुआ तथा २६ जनवरी, १९५० को वह एक गणतंत्र राष्ट्र घोषित हुआ। इस काल में भारत को एक नवीन परिचय प्राप्त हुआ। इस नवीन परिचय को एक नवीन चिन्ह की आवश्यकता थी जो भारत का चिन्ह बने,  भारत का प्रतिनिधित्व करे तथा भारत के विभिन्न आयामों को सामूहिक रूप से प्रदर्शित करे।

भारत के राष्ट्रीय चिन्ह
भारत के राष्ट्रीय चिन्ह

इस २६ जनवरी, गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में मैं आपको एक विशेष उद्देश्य से भारत भ्रमण पर ले जाना चाहती हूँ। मैं आज आपको भारत के राष्ट्रीय चिन्ह की यात्रा पर ले चलती हूँ।

सम्राट अशोक का सिंहचतुर्भुज स्तम्भशीर्ष – राष्ट्रीय राजचिन्ह के लिए सारनाथ भ्रमण

वाराणसी के निकट, सारनाथ से खोजे गए सम्राट अशोक के स्तम्भ पर स्थित सिंहचतुर्भुज स्तम्भशीर्ष को अब सारनाथ के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संग्रहालय में देखा जा सकता है। आप जैसे ही संग्रहालय में प्रवेश करते हैं, चार एशियाई सिंहों की एक विशाल मूर्ति आपका स्वागत करती है। ये चारों सिंह चार दिशाओं में मुख किये हुए हैं। चारों सिंह एक वृत्ताकार मंच पर विराजमान हैं। इसी वृत्त की खड़ी बेलनाकार सतह पर सुन्दर उभरे हुए चार चक्र, एक अश्व, एक सिंह, एक बैल एवं एक हाथी उत्कीर्णित हैं। यह मंच एक उलटे कमल के पुष्प पर स्थित है।

भारत के राष्ट्रीय चिन्ह - अशोक स्तम्भ एवं चक्र
अशोक स्तम्भ एवं चक्र हमारी मुद्राओं पर

मैंने इस प्रकार के सिंहचतुर्भुज स्तम्भशीर्ष बिहार के वैशाली जैसे अनेक स्थानों पर देखे हैं किन्तु सारनाथ का यह स्तम्भशीर्ष आपके समक्ष व समीप होने के कारण आप इसके विशाल आकार का अनुभव ले सकते हैं। लोग कहते हैं कि इस सिंहचतुर्भुज स्तम्भशीर्ष के ऊपर २४ तीलियों का एक विशाल चक्र भी था। आपको स्मरण होगा कि सारनाथ वह स्थान है जिसका सम्बन्ध धर्म चक्र प्रवर्तन से है। यहीं पर भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम पांच अनुयायियों को अपना प्रथम उपदेश दिया था।

स्तम्भ के निचले भाग में भारतीय परंपरा का आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ लिखा है जिसका अर्थ है सत्य की ही सदा विजय। यह सुभाषित मुण्डक उपनिषद से लिया गया है। सिंहचतुर्भुज स्तम्भशीर्ष एवं वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ साथ मिलकर राजचिन्ह सम्पूर्ण करते हैं। चूँकि यह राजचिन्ह एक-आयामी आकृति है, इस प्रतीक में केवल तीन सिंह दृश्यमान हैं। चार चक्रों में से केवल तीन तथा चार पशुओं में से भी केवल दो ही दृश्यमान हैं। मध्य-चक्र के दायीं ओर बैल एवं बायीं ओर अश्व है। इस राजचिन्ह का प्रयोग सभी सरकारी संस्थाओं द्वारा किया जाता है। यह राजचिन्ह आप सभी सरकारी पत्रों पर एवं सरकारी अधिकारियों के परिचय पत्रों पर छपे देख सकते हैं।

यह राजचिन्ह सभी वाणिज्य मुद्राओं – सिक्के व कागज के नोटों पर भी गर्व से विद्यमान हैं।

राष्ट्रीय पुष्प कमल – नगरों, गाँवों, कस्बों के जलाशयों का भ्रमण

भारत के कोने कोने में कमल का पुष्प पाया जाता है। सम्पूर्ण भारत भ्रमण के पश्चात यदि कोई आप से जानना चाहे कि आपके मत से राष्ट्रीय पुष्प कौन सा होना चाहिए, आप भी सहज सहमत होंगे कि कमल का पुष्प निश्चित ही भारत राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ है।

कमल - भारत के राष्ट्रीय पुष्प
कमल – भारत के राष्ट्रीय पुष्प

कमल पुष्प को देखने के लिए मेरे प्रिय स्थान हैं, सम्पूर्ण भारत में पसरे छोटे छोटे जलाशय। हम जब आसाम गए थे तब मैंने सिबसागर के जलाशय में नीले कमल देखे थे। वहीं गोवा के ग्रामीण भागों में हमें कमल के बड़े एवं छोटे दोनों आकार के पुष्प दिखाई देते हैं। जब कमल के पुष्प एवं पर्ण पर जल की बूँदें गिरती हैं, वे यहाँ से वहां लुड़कती रहती हैं किन्तु पंखुड़ियों एवं पर्ण को भिगोती नहीं हैं। ना ही उन पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डालती हैं। आप समझ सकते हैं कि क्यों हम कमल को इतना पवित्र पुष्प मानते हैं।

कमल का पुष्प सम्पूर्ण भारत की सभी प्राचीन कलाशैलियों में एक आवश्यक अंग होता है। इन्हें हिन्दू एवं बौद्ध दोनों प्रकार के मूर्ति शास्त्र में देखा जा सकता है। यह पवित्रता एवं शुभता का प्रतीत है।

भारत की ग्रामीण पर्यटन कंपनियों की सूची यहाँ देखें।

रॉयल बंगाल टाइगर या बाघ – राष्ट्रीय पशु के दर्शन हेतु विभिन्न अभयारण्यों का भ्रमण

बाघ की आठ प्रजातियों में से भारत में पायी जाने वाली बाघ की प्रजाति को रॉयल बंगाल टाइगर कहते हैं। इस प्रजाति के बाघ केवल भारतीय उपमहाद्वीप में ही पाए जाते हैं। बाघ को १९७३ में भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया था। शालीनता, दृढ़ता, चपलता एवं अपार शक्ति के कारण उसे राष्ट्रीय पशु के रूप में चुना गया था। एक काल था जब ये भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में पाए जाते थे। यदि विश्वास ना हो तो आप किसी भी क्षेत्र के ग्राम देवता मंदिर में देखें। वहां आपको किसी ना किसी रूप में बाघ की छवि अवश्य दिखाई देगी।

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में बाघिन
पेंच राष्ट्रीय उद्यान में बाघिन

दुर्भाग्य से, अमर्यादित शिकार व उनके नैसर्गिक निवास पर मानव अतिक्रमण के चलते आज बाघों की संख्या इतनी कम हो गयी है कि उन्हें देखने के लिए आपको विशेष रूप से यात्रा करनी पड़ती है। सौभाग्य से पर्यावरण एवं पशु प्रेमियों के कड़े परिश्रम के पश्चात अब उनकी संख्या में वृद्धि होने लगी है।

मुझे कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के मुन्ना बाघ एवं पेंच राष्ट्रीय उद्यान की कॉलरवाली बाघिन को समीप से देखने का सौभाग्य मिला था।

बाघों के दर्शन के अन्य स्थल हैं, बंगाल का सुंदरबन, राजस्थान का रणथम्बोर, मध्यप्रदेश का बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान आदि। यूँ तो सम्पूर्ण भारत में अनेक बाघ संरक्षण अभयारण्य हैं, किन्तु उनमें से अनेक अभयारण्यों में बाघों की संख्या पर्याप्त नहीं है जिसके कारण उन्हें देख पाने की संभावना कम हो जाती है।

मीठे जल की सूंस (डॉलफिन) – राष्ट्रीय जलीय प्राणी के दर्शन के लिए चम्बल जाएँ

नदी की डॉलफिन अथवा सूंस मीठे जल में पायी जाने वाली सूंस है जो गंगा नदी में बड़ी संख्या में पायी जाती थी। गंगा नदी में पायी जाने वाली डॉलफिन की इस प्रजाति को २००९ में भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया था। ब्रह्मपुत्र एवं सिन्धु नदियों में भी मीठे जल की सूंस बड़ी संख्या में पाई जाती थी।

सूंस
सूंस पर निकला डाक टिकट

वर्तमान में मीठे जल की डॉलफिन को उनके प्राकृतिक परिवेश में देखना हो तो सर्वोत्तम नदी है, चम्बल नदी। इस नदी में अब भी नदी पारिस्थितिकी तंत्र शेष है। अन्यथा गंगा एवं अन्य नदियों में प्रदूषण, बाँध एवं शिकार के कारण उनकी संख्या निरंतर घट रही थी। चम्बल नदी में भी घटता जल स्तर उनके अस्तित्व के लिए संकट बनता जा रहा है।

क्या आप जानते हैं कि बिहार के भागलपुर में एक विक्रमशिला गंगा डॉलफिन अभयारण्य है?

बरगद का वृक्ष (वटवृक्ष) – राष्ट्रीय वृक्ष के दर्शन के लिए बोध गया जाएँ

बरगद का वृक्ष भारत का राष्ट्रीय वृक्ष है जो एक शुद्ध देशी भारतीय वृक्ष है। लगभग सभी प्राचीन भारतीय साहित्यों व ग्रंथों में इस वृक्ष का उल्लेख किया गया है। यह भारत के इतिहास एवं लोककथाओं का अभिन्न अंग होता है। इसकी जटाओं से नवीन तना एवं शाखाएं बन सकती हैं। इसकी इस विशेषता एवं लंबे जीवन के कारण इसे अनश्वर माना जाता है।

बेंगलुरु के पास स्तिथ विशाल बरगद का पेड़
बेंगलुरु के पास स्तिथ विशाल बरगद का पेड़

नाशिक के निकट पंचवटी को पंचवटी बनाने वाले पांच वटवृक्षों को जब मैंने देखा, मेरे आनंद की सीमा नहीं थी। बोधगया में एक वटवृक्ष के नीचे ही गौतम बुद्ध को निर्वाण प्राप्ति हुई थी। आप बोधगया में महाबोधि मंदिर जाएँ तो आप वहां इसी वटवृक्ष का वंशज देख सकते हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायी वृक्ष से झड़कर नीचे गिरे पत्तों को घर ले जाते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं।

क्या आपको विक्रम व वेताल की कथा स्मरण है? उस कथा के मूल में भी तो एक वटवृक्ष है।

चक्रीय प्रकृति एवं स्वयं को चिरस्थाई बनाए रखने के गुणों के कारण बरगद के वृक्ष को पवित्र माना जाता है। कैसे भारत के कुछ प्रतीक चिन्ह भारत माता की धरती के दर्शन का प्रदर्शन करते हैं, यह अत्यंत रोचक है।

भारत में अनेक ऐसे स्थान हैं जो विशालतम वटवृक्ष होने का दावा करते हैं। किन्तु यह जानना कठिन हो जाता है कि मूल वृक्ष कौन सा है। वटवृक्ष की शाखाओं से लटकती जटाएं नवीन वृक्षों को जन्म देने का सामर्थ्य रखती हैं। एक वृक्ष की लटकती जटाओं द्वारा दूसरे स्थान पर नवीन वृक्ष को पुनर्जीवित करने का चक्र इस प्रकार अनवरत जारी है कि यह कहना कठिन हो जाता है कि कौन सा वृक्ष मूल वृक्ष है। बालक वृक्ष भी पालक वृक्षों जैसे विशाल बन गए हैं। मैंने जो अब तक का विशालतम वटवृक्ष देखा है वह बंगलुरु के निकर, मैसूरू मार्ग पर है। वटवृक्ष के पास भ्रमण करना एक अनूठा अनुभव होता है मानो वह एक महल हो। इसकी शाखाएं एवं जटाएं किसी भूलभुलैया से कम नहीं होती हैं।

भारतीय मोर – राष्ट्रीय पक्षी के दर्शन के लिए राजस्थान जाएँ

भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर है। मोर एक अत्यंत रंगबिरंगा व मनमोहक पक्षी होता है। जब मोर आनंदित हो कर नृत्य करने लगता है तो उसकी छटा आकाश छूने लगती है। वह एक अत्यंत आकर्षक दृश्य होता है। वह दृश्य सभी का मन मोह लेता है। वास्तव में वह यह नृत्य अपनी मोरनी को आकर्षित करने के लिए करता है।

मोर
मोर – भारत का राष्ट्रीय पक्षी

मोर को राष्ट्रीय पक्षी का सम्मान १९६३ में प्राप्त हुआ था। यह सम्मान उसे उसके आकर्षक रूप तथा उसके ऐतिहासिक व धार्मिक मूल्यों के कारण प्राप्त हुआ था। इसका एक कारण यह भी है कि यह सम्पूर्ण प्रायद्वीप में पाया जाता है तथा अपने अनूठे रूप के कारण इसे पहचानना भी अत्यंत आसान है।

यूँ तो मोर भारत में सभी स्थानों पर पाए जाते हैं किन्तु मैंने अधिकतर मोर राजस्थान में देखे हैं। मैंने उन्हें पेंच में भी देखा था जहां वह अपने पंखों के सभी रंग प्रदर्शित करते हुए गर्व से एक वृक्ष की शाखा पर विराजमान था।

गंगा – राष्ट्रीय नदी के दर्शन के लिए वाराणसी जाएँ

गंगा के विषय में कौन नहीं जनता?

उत्तराखंड के हिमालयों में स्थित गंगोत्री हिमनद से इसका उद्गम होता है। तत्पश्चात वह उत्तर प्रदेश, बिहार एवं बंगाल से बहते हुए अंततः बंगाल की खाड़ी तक जाती है जहां वह हिन्द महासागर में समा जाती है। २५०० किलोमीटर से भी अधिक लंबी गंगा से आप कहीं भी भेंट कर सकते हैं।

भारत की राष्ट्रीय नदी - गंगा
गंगा – हमारी संस्कृति का प्रतीक चिन्ह

गंगा से भेंट करने एवं उसकी आराधना करने के लिए मेरा सर्वप्रिय स्थान है, वाराणसी। पूर्व में यहाँ की स्वच्छता पर प्रश्न चिन्ह लगते थे। किन्तु स्वच्छता के प्रति राष्ट्रीय जनजागृति के पश्चात अब एक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा तट पर बसे नगरों में वाराणसी को सर्वाधिक स्वच्छ गंगा नगरी की श्रेणी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वाराणसी के गंगा घाटों को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। उन भावनाओं का अनुभव आप स्वयं लीजिये।

मुझे ऋषिकेश में भी गंगा दर्शन अत्यंत भाता है। विशेषतः नवनिर्मित आस्था पथ, जो नदी के किनारे शान्ति से चलने में अत्यंत सहायक है। प्रयागराज में भी गंगा दर्शन की अनुभूति अप्रतिम है। यहाँ तीन नदियों का संगम जो है।

गंगा भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रतीक चिन्हों में से एक है। २००९ में इसे राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया था।

तिरंगा – भारत के राष्ट्रीय ध्वज के लिए दिल्ली

तिरंगा झंडा
तिरंगा झंडा

भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को आप किसी भी सरकारी इमारत के ऊपर देख सकते हैं। भारत के स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस के उत्सवों पर तो तिरंगा देशव्यापी हो जाता है। देश में सभी भारतीय इसे गर्व से फहराते हैं। १५ अगस्त के दिन हमारा तिरंगा ऐतिहासिक लालकिले का सम्मान बढाता है। आप अपनी दिल्ली की यात्रा में भारतीय संसद भवन के ऊपर इसे अवश्य देखिये।

और पढ़ें: भारतीय संसद भवन के दर्शन कैसे करें?

आम – भारत के राष्ट्रीय फल के लिए अपने पास के फल उद्यान अवश्य जाएँ

मुझे नहीं लगता कि कोई भी भारतीय ऐसा होगा जो यह नहीं मानता होगा कि आम फलों का राजा है। भारत का राष्ट्रीय फल आम देश की समृद्धि को व्यक्त करता है। पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में आम की खेती की जाती है। पौराणिक कथाओं एवं इतिहास में भी आमों की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। १९५० में आम को भारत के राष्ट्रीय फल के रूप में अपनाया गया था।

आम - भारत का राष्ट्रोय फल
फलों का रजा आम

आम के अनेक प्रकार होते हैं। आपको कौन सा आम प्रिय है, बहुधा यह इस तथ्य पर निर्भर करता है कि आप किस आम को खाते हुए बड़े हुए हैं। मुझे खट्टा-मीठा बनारसी लंगडा या चौसा आम सर्वाधिक प्रिय है। भारत के पश्चिमी भागों में लोग अल्फांसो अथवा हापूस को सर्वोत्तम आम मानते हैं। किन्तु मैं उसके स्वाद से आदी नहीं हो पायी। हैदराबाद में बैगनपल्ली प्रसिद्ध है जिसका एक बड़ा टुकडा लगभग भोजन के समान हो जाता है।

हम चाहे जिस भी प्रकार का आम खाना चाहते हों, हम सब को एक आनंद अवश्य उठाना चाहिए। जीवन में कम से कम एक बार हमें आम के वृक्ष से सीधे आम तोड़कर खाना चाहिए।

आशा है भारत के प्रतीक चिन्हों की इस यात्रा का आप भरपूर आनंद उठाएंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बॉलीवुड से २० सर्वोत्तम वर्षा गीत https://inditales.com/hindi/varsha-geet-bollywood/ https://inditales.com/hindi/varsha-geet-bollywood/#respond Wed, 31 Aug 2022 02:30:04 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2778

गोवा में मानसून के मौसम में जब वर्षा होती है, तब वर्षा के गीत सहज ही अधरों पर आ जाते हैं। गोवा में वर्षा ऋतू में रिमझिम वर्षा नहीं, अपितु झमाझम वर्षा होती है, वह भी चार मास से अधिक समयावधि के लिए। तात्पर्य यह है कि मानसून के मौसम में गोवा में देश के […]

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गोवा में मानसून के मौसम में जब वर्षा होती है, तब वर्षा के गीत सहज ही अधरों पर आ जाते हैं। गोवा में वर्षा ऋतू में रिमझिम वर्षा नहीं, अपितु झमाझम वर्षा होती है, वह भी चार मास से अधिक समयावधि के लिए। तात्पर्य यह है कि मानसून के मौसम में गोवा में देश के अधिकतर राज्यों से अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होती है। गोवा के चौमासी वर्षा को देख मुझे अनायास ही संतों का चातुर्मास स्मरण हो आता है, जब भ्रमण करते साधु-संत वर्षा ऋतु में चार मास की अवधि के लिए किसी एक स्थान पर ठहर जाते थे तथा सत्संग करते थे। अनेक अवसरों पर कदाचित उन्हें गुफाओं में भी विश्राम करना पड़ा होगा, जैसे अजंता तथा बराबर गुफाएं। गोवा में कभी कभी वर्षा का उन्माद इतना अधिक होता है कि उसके अतिरिक्त अन्य कुछ सुनाई नहीं पड़ता है। हम बाहरी विश्व से लगभग पृथक से होने लगते हैं। उस समय केवल हम होते हैं तथा हमारे हृदय से उमड़कर अधरों पर आते वर्षा के गीत होते हैं। हृदय उल्साह से भर जाता है तथा हम अनायास ही वर्षा के गीत गुनगुनाने लगते हैं।

वर्षा गीत ऐसे ही वर्षा के मनभावन गीतों एवं उसके उल्हास व उन्माद को कुछ हिन्दी चित्रपटों ने सुन्दर शैली में प्रदर्शित किया है। उनमें प्रदर्शित भावनाएं हमारे हृदय को छूने में सफल हो जाती हैं। बालपन में वर्षा के जल में छप-छप कूदने से लेकर प्रेम से ओतप्रोत प्रेमी-प्रेमिकाओं की एक दूसरे से मिलने की तड़प तक, अथवा वर्षा की प्रतीक्षा करते किसानों की व्यथा का वर्षा की बूंदे देखते ही उल्हास में परिवर्तित होना, इन सभी भावनाओं का बॉलीवुड के गीतों में सुदर चित्रण किया गया है।

बॉलीवुड के विश्व से चुने हुए कुछ वर्षा गीत

वर्षों से जिन वर्षा गीतों का मैंने आनंद लिया, उन्हें आपके साथ बाँटना चाहती हूँ। आशा है आपको भी ये गीत आनंद विभोर कर देंगे।

इक लड़की भीगी भागी – चलती का नाम गाडी (१९५८)

किशोर कुमार द्वारा गाये गए इस गीत में उच्छृंखलता भरी हुई है। यद्यपि इस गीत में वर्षा का दृश्य नहीं है, तथापि मधुबाला, जो इस गीत की प्रेरणा है, वो वर्षा के जल में भीगी हुई है तथा सुनसान रात में अकेली अपनी गाड़ी की मरम्मत कराने वहां पहुँचती है। इस गीत में नायक, नायिका मधुबाला की परिस्थिति का अत्यंत मस्ती भरी शैली में उल्लेख कर रहा है। अप्रतिम सौंदर्य से युक्त मधुबाला के भीगे मुखड़े की झलकों के मध्य किशोर कुमार के चंचल हाव-भाव इस गीत को अधिक मनोहर बना देते हैं। किशोर कुमार, जो एक गाड़ी मरम्मत करने वाले मिस्त्री हैं, वे औजारों द्वारा संगीत उत्पन्न करते हैं। इस गीत को दिग्गज पार्श्वगायक किशोर कुमार ने गाया है तथा इसे उन्ही पर फिल्माया भी गया है। आप आधुनिक पार्श्वसंगीत के महान संगीतकार आर. डी. बर्मन के संगीत को सराहे बिना नहीं रह पायेंगे।

डम डम डिगा डिगा – छलिया (१९६०)

वर्षा ऋतु के आनंद का उत्सव मनाते इस गीत को कल्याणजी आनंदजी से सुरों में पिरोया है तथा इसे स्वर प्रदान किया है मुकेश ने। वर्षा के आते ही स्त्रियाँ सूखे वस्त्रों को रस्सी पर से उतार रही है, लोग वर्षा से बचने के लिए यहाँ-वहां भाग रहे हैं तथा छतरियां खोल रहे हैं, वहीं चित्रपट के नायक राज कपूर अपनी लोकप्रिय शैली में कूदते-फांदते गीत गा रहे हैं। इस श्वेत-श्याम चित्रपट में वर्षा की प्रथम फुहार का उल्हास दर्शाया गया है।

ओ सजना बरखा बहार आयी – परख (१९६०)

यह गीत आपको वास्तव में वर्षा ऋतु के दिवसों का स्मरण करा देगा। इस गीत में नायिका साधना छज्जे पर खड़े होकर वर्षा की फुहारों को निहार रही है एवं अपने प्रियतम की स्मृतियों में खो गयी है। वो उससे कह रही है कि वर्षा ऋतु आ गयी है तथा उसके हृदय में प्रेम का संचार कर रही है। गीत के इस चित्रीकरण में पत्तों, धरती, छत आदि पर बरसती फुहारों द्वारा वर्षा का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत किया है।

सलिल चौधरी के संगीत पर लता मंगेशकर ने इस गीत को अपने अद्भुत स्वर से सजाया है।

जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात – (१९६०)

इस चित्रीकरण में केवल दो दृश्य हैं तथा वर्षा का एक भी दृश्य नहीं है। इसके पश्चात भी इस काव्य के प्रत्येक शब्द को इतनी सुन्दरता से रचा गया है कि नेत्रों के समक्ष सम्पूर्ण दृश्य सजीव हो उठता है। वर्षा की एक रात्रि के समय नायक का नायिका से भेंट होना, वर्षा की बूंदों का नायिका के मुखड़े पर सरकना, बिजली गिरते ही नायिका का नायक से टकराना तथा लजाना, ऐसे अनेक सुंदर क्षणों का इस गीत में उल्लेख है। नायक एवं नायिका के मध्य केवल रेडियो के माध्यम से भावनाओं का प्रवाह हो रहा है। मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाये गए गीत को भारत भूषण पर फिल्माया गया है। इस गीत को पूर्ण न्याय किया है नायिका मधुबाला की अप्रतिम भाव भंगिमाओं एवं अभिव्यक्तियों ने, जो वर्षा की उस रात्रि का दृश्य हमारे समक्ष अक्षरशः सजीव कर देते हैं।

लाखों का सावन जाए  – रोटी, कपड़ा और मकान (१९७४)

इस गीत में युगल जोड़ों का मर्म प्रस्तुत किया है जिन्हें वर्षा ऋतु के आनंदित वातावरण में विरह की स्थिति का सामना करना पड़ता है। इस गीत में विरह का मर्म दर्शाया गया है। यूँ तो लता मंगेशकर द्वारा सुमधुर स्वर में गाये गए इस गीत को नायिका जीनत अमान ने ठेठ देहाती शैली में प्रस्तुत किया है, किन्तु मुझे इसका ‘अम्बर पे रचा स्वयंवर’, यह भाग अत्यंत प्रिय है।

रिम झिम गिरे सावन – मंजिल (१९७९)

इस गीत में अमिताभ बच्चन एवं मौसमी चटर्जी मुंबई की सडकों एवं समुद्र तटों पर वर्षा का आनंद लेते दिख रहे हैं। इसमें मुंबई के लगभग ४० वर्षों पूर्व का दृश्य दर्शाया गया है जब मुंबई के लोग वर्षा का आनंद उठा सकते थे। चित्रपट में इस गीत के दो संस्करण हैं। एक संस्करण केवल किशोर कुमार के स्वर में है जिसे घर के भीतर फिल्माया गया है जबकि दूसरा संस्करण लता मंगेशकर के स्वर में है जिसमें मुंबई, वहां की वर्षा एवं वर्षा की फुहारों में भीगते प्रेमी जोड़े को दिखाया गया है।

रिम झिम गिरे सावन, यह गीत मुझे ऐसा आभास करता है मानों वर्षा की फुहारों में मेरा तन-मन भीग गया है। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वर्षा से एकाकार हो गया है। आर. डी. बर्मन का संगीत इस उल्हास को अनेक गुना बढ़ा देता है।

मेघा रे मेघा रे – प्यासा सावन (१९८१)

इस गीत में मेघों से कहा जा रहा है कि वे परदेश ना जाएँ, अपितु वहीं बरसें तथा उन्हें प्रेम की फुहारों में भिगो दे। उनके अनुनय को स्वीकारते हुए मेघ वहीं बरस जाते हैं। याचना की भावना उल्हास में परिवर्तित हो जाती है। वर्षा होते ही हृदय मोर के समान नाचने लगता है। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत पर लता मंगेशकर एवं सुरेश वाडकर के सुमधुर स्वरों ने इस गीत को नई ऊँचाइयों तक पहुंचा दिया है।

आज रपट जाएँ तो – नमक हलाल (१९८२)

यह सम्पूर्ण गीत अमिताभ बच्चन एवं स्मिता पाटिल पर फिल्माया गया है जो झमझम वर्षा में भीगते हुए नाच रहे हैं। यद्यपि गीत के मुखड़े में वर्षा उल्लेख नहीं है, तथापि इसके अंतरे में वर्षा का वर्णन किया है।

लगी आज सावन की फिर वो झड़ी – चांदनी (१९८९)

यह एक ऐसा वर्षा गीत है जो उदासी से भरा हुआ है। इसमें वर्षा से सम्बंधित कुछ भावुक स्मृतियों को झकझोरा गया है। ऐसी मधुर स्मृतियाँ जिन्हें चाह कर भी पुनः जिया नहीं जा सकता। इस गीत में नायक के जीवन के अतीत एवं वर्तमान की तुलना की गयी है। यह गीत नायक का अतीत से वर्तमान की ओर यात्रा का संकेत देता है। मैं जब भी यह गीत सुनती हूँ, किंचित उदास हो जाती हूँ। किन्तु मैं यह नहीं जान पाती कि इस गीत का कौन सा तत्व मुझे उदास करता है।

इस गीत को संगीतबद्ध किया है शिव-हरी ने तथा इसे स्वर प्रदान किया है, सुरेश वाडकर ने।

सुन सुन सुन बरसात की धुन – सर (१९९३)

इस गीत में नायक नसीरुद्दीन शाह एक शिक्षक हैं जो अपने विद्यार्थियों से वर्षा के संगीत को सुनने के लिए कह रहे हैं। मुझे यह गीत अत्यंत भाता है तथा प्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि हम सब ने आज के व्यस्त दिनचर्या में वर्षा एवं उसके संगीत को सुनना तथा उसका आनंद लेना लगभग समाप्त कर दिया है।

रिम झिम रुन झुम –  १९४२ अ लव स्टोरी (१९९४)

१९४२ के काल को प्रदर्शित करते, ‘१९४२ अ लव स्टोरी’ चित्रपट का यह गीत एक सादा तथा अत्यंत मधुर गीत है जो पावन प्रेम को दर्शाता है। ऐसा प्रेम जो अब के चित्रपटों में क्वचित ही दृष्टिगोचर होता है। इसे अत्यंत मधुर बनाने का पूर्ण श्रेय कुमार सानु एवं कविता कृष्णमूर्ति को जाता है जिन्होंने बर्मन दा के संगीत को पूर्ण न्याय किया है।

टिप टिप बरसा पानी – मोहरा (१९९४)

यद्यपि मुझे स्वयं यह गीत अधिक प्रिय नहीं है तथापि वर्षा गीत का उल्लेख करते ही अधिकाँश लोगों को इसी गीत का स्मरण होता है। अतः उन सभी के लिए अलका याग्निक एवं उदित नारायण द्वारा गाया गया यह गीत प्रस्तुत है।

कोई लड़की है – दिल तो पागल है (१९९७)

इस गीत को सुनते ही हम सब के भीतर की बालसुलभ चंचलता हिलोरे मारने लगती है जो वर्षा के जल में क्रीड़ा करने को लालायित है। हम सब में एक नन्हा बालक रहता है जो वर्षा में भीगने को सदा उत्सुक रहता है। जल से भरे पोखरों में नाचना, कूदना तथा खेलना चाहता है। इससे मुझे गोवा में वर्षा ऋतु में मनाये जाने वाले उत्सव, चिखल कालो का स्मरण होता है। इस गीत के बोलों में बालपन के उसी उल्हास का उल्लेख मिलता है। इसका चित्रण भी एक बालगीत के समान उतना ही सादगी एवं चंचलता से भरा हुआ है। यहाँ तक कि इस नृत्य में पार्श्व नर्तक भी बच्चें ही हैं। उत्तम सिंग के संगीत पर इस गीत को लता मंगेशकर एवं उदित नारायण ने गाया है।

अब के सावन – शुभा मुद्गल (१९९९)

यह गीत किसी चित्रपट का नहीं है। किन्तु इस गीत में वर्षा का उत्सव मनाया गया है। इस उत्सव की भव्यता को चार चाँद लगाने का सम्पूर्ण श्रेय शुभा मुद्गल के सशक्त स्वर एवं अप्रतिम गायन शैली को जाता है।

घनन घनन – लगान (२००१)

वर्षा की प्रतीक्षा करते जनसमुदाय, विशेषतः किसान के मन के भाव को यदि किसी गीत ने पूर्ण न्याय किया है तो वह चित्रपट लगान का यही गीत है। कदाचित यह इकलौता गीत है जो वर्षा से हमारे जीवन के सांस्कृतिक एवं सामाजिक-आर्थिक संबंधों को पूर्ण सत्यता से परदे पर उतरता है। विशेष रूप से ग्रामीण भागों के किसानों, एवं अन्य गांववासियों के जीवन में वर्षा के महत्त्व को दर्शाता है। यदि आप गीत के बोल पर ध्यान केन्द्रित करें तो आप अपने समक्ष वे सभी खुशियों की कल्पना कर सकते हैं जिन्हें वर्षा अपने संग ले कर आती है। गीत के अंत में उदासी है जो मेघों के बिना बरसे ही चले जाने के कारण उत्पन्न हुई है। मुझे लोकगीतों से लगाव होने के कारण लगान का यह गीत अत्यंत भाता है।

बरसों रे मेघा – गुरु (२००७)

बरसो रे मेघा, इस गीत में दक्षिण भारतीय परिवेश में वर्षा के आनंद को सुन्दरता से चित्रित किया है। वर्षा के जल में धुले-भीगे शैल मंदिर, जल से लबालब भरे झरने तथा हरियाली से परिपूर्ण परिदृश्य मन को मोह लेते हैं। गुजरात के परिवेश में बने चित्रपट गुरु के लिए यह गीत किंचित अनुपयुक्त प्रतीत होता है। इसके पश्चात भी यह गीत मन मोह लेता है। भावनात्मक स्तर पर देखा जाए तो इस गीत में वर्षा के आते ही प्रथम प्रेम के उन्माद में सराबोर नायिका के पैर थिरकने लगते हैं। वह बेसुध नृत्य कर रही है। वह प्रेम के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर है।

ए. आर. रहमान के जादुई संगीत के आनंद को श्रेया घोषाल के मधुर स्वर द्विगुण कर रहे हैं।

गिव मी सम सनशाइन – ३ इडियट्स (२००९)

मुझे इस गीत के भाव अत्यंत प्रिय हैं। हमारे जीवन में सर्वाधिक आवश्यक तत्व हैं, सूर्य की किरणें एवं वर्षा। अन्य सब महत्वहीन हैं। यह गीत इस सूची के लिए भले ही उपयुक्त ना हो, किन्तु यह गीत इन सभी से कम प्रेरणादायक भी नहीं है।

अन्य लोकप्रिय वर्षा गीत कुछ इस प्रकार हैं:

रिम झिम के गीत सावन गाये – अंजाना १९६९

भीगी भीगी रातों में – अजनबी  १९७४

देखो जरा देखो बरखा की लड़ी – ये दिल्लगी १९९४

सावन बरसे तरसे दिल – दहक १९९९

मैंने इन वर्षा गीतों का चयन किस आधार पर किया?

यूँ तो बॉलीवुड के चित्रपटों में वर्षा पर आधारित ढेरों गीत हैं। उनमें अनेक ऐसे गीत हैं जिनमें वर्षा का उल्लेख है तथा दूसरी ओर कई ऐसे हैं जिन्हें वर्षा के परिवेश में तो फिल्माया गया है, किन्तु उनमें वर्षा का कहीं उल्लेख नहीं है। मैंने विशेष रूप से उन गीतों का चयन किया है जिनमें वर्षा का भावनात्मक उल्लेख किया गया है, भले ही वह एक प्रेमी की प्रेम से सराबोर भावनाएं हों अथवा वर्षा की प्रतीक्षा करते एक किसान की तरसती आँखों की भावनाएं। मैंने उन गीतों को अधिक महत्त्व दिया है जहां गीत के बोलों द्वारा दर्शाए गए भाव में वर्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें मेरी निजी रूचि भी सम्मिलित है।

और पढ़ें: बॉलीवुड के प्रसिद्ध हिन्दी गीतों में भारतीय स्मारकों का उल्लेख

बॉलीवुड में अनेक लोकप्रिय गीत ऐसे हैं जो वर्षा के परिवेश में चित्रित हैं तथा बॉलीवुड के इतिहास में अमर हो गए हैं। जैसे श्री ४२० का ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’, तथा चालबाज का ‘ना जाने कहाँ से आई है’ इत्यादि। किन्तु उनमें वर्षा का उल्लेख नहीं है। अतः मैंने उन्हें इस सूची में सम्मिलित नहीं किया है।

इंडीटेल के पाठकों द्वारा प्रस्तावित

लपक झपक तु आ रे बदरवा – बूट पॉलिश (१९५३)

इनके अतिरिक्त यदि आपका कोई प्रिय बॉलीवुड गीत है, जिसमें वर्षा का सुन्दर उल्लेख किया गया है, तो टिप्पणी खंड में लिखकर हमें अवश्य सूचित करें।

अमेज़न के सहयोगी होने के कारण इंडीटेल उनके चयनित क्रय से अर्जित मूल्य में भागीदार है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भारतीय रेल का इतिहास – भारतीय रेल के अनंत रुपनगुडी से एक चर्चा https://inditales.com/hindi/bhartiya-rail-ka-itihasa/ https://inditales.com/hindi/bhartiya-rail-ka-itihasa/#respond Wed, 06 Apr 2022 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2637

अनुराधा गोयल: आज हम भारतीय रेल की यात्रा पर निकल रहे हैं। यह वास्तव में भारतीय रेलों की यात्रा है जिनके द्वारा मेरे जैसे असंख्य यात्रियों की अनेक यात्राएं पूर्ण हुई हैं। भारतीय रेलों की स्थापना से आज तक की यात्रा पर हमें ले चलने के लिए आज हमारे साथ हैं श्री अनंत जी, जो […]

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अनुराधा गोयल: आज हम भारतीय रेल की यात्रा पर निकल रहे हैं। यह वास्तव में भारतीय रेलों की यात्रा है जिनके द्वारा मेरे जैसे असंख्य यात्रियों की अनेक यात्राएं पूर्ण हुई हैं। भारतीय रेलों की स्थापना से आज तक की यात्रा पर हमें ले चलने के लिए आज हमारे साथ हैं श्री अनंत जी, जो भारतीय रेलवे में वरिष्ठ मंडल वित्त प्रबंधक हैं। उनसे मेरा परिचय ट्विट्टर के माध्यम से हुआ था जहाँ वे भारतीय रेलों की मनमोहन चित्र साझा करते हैं। साथ ही वे भारतीय रेलों के इतिहास एवं धरोहर से सम्बंधित रोचक जानकारियाँ भी साझा करते हैं। इसी से प्रभावित होकर मैंने उन्हें डीटूर्स में आमंत्रित किया है ताकि भारतीय रेलों के विषय में उनके रोचक एवं महत्वपूर्ण ज्ञान के भण्डार का आनंद आप भी उठा सकें।

श्री आर अनंत: डीटूर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद।

प्राचीनतम भारतीय रेल मार्ग

अनुराधा: अनंत जी, डीटूर्स में आज की इस चर्चा का आरम्भ भारतीय रेलवे के इतिहास से करते हैं। आज भारतीय रेलों का संजाल अत्यंत सुदृढ़ एवं विशाल है किन्तु भारत में प्रारंभिक रेल सेवायें छोटे छोटे टुकड़ों में अस्तित्व में आयी थीं जिनका श्रेय उस काल के राजाओं एवं देशभक्तों को जाता है। मुझे भारत के प्राचीनतम रेल मार्गों के विषय में जानने की उत्सुकता है। कृपया इस विषय में हमें कुछ जानकारी दें।

अनंत: भारत में सर्वाधिक प्राचीन रेल मार्ग ‘ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे’ द्वारा निर्मित है जो भारत में रेल मार्गों का निर्माण करने वाली प्रथम संस्था थी। इसने सर्वप्रथम बोरी बन्दर (जो आज छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस कहलाता है) से ठाणे तक, लगभग ३२ किलोमीटर लम्बे रेल मार्ग का निर्माण किया था। इस रेल मार्ग पर प्रथम सेवा १६ अप्रैल, १८५३ के दिन आरम्भ हुई थी। दूसरा रेल मार्ग ईस्ट इंडिया हावड़ा तथा हुगली के मध्य बनाया गया था जिस पर १५ अगस्त, १८५४ के दिन प्रथम सेवा आरम्भ हुई थी। पूर्वी भारतीय रेलवे के द्रुतगामी प्रसार का एक प्रमुख कारण यह भी था कि भारत के ये भाग विस्तृत मैदानी क्षेत्र थे जिन पर वे आसानी से रेल पटरियां बिछाते गए। वे हर संभव नदियों के एक ओर पर ही पटरियां बिछाते थे ताकि नदियों को पार करने के लिए सेतु ना बनाना पड़े तथा पटरियां शीध्र ही बिछ जाएँ। किन्तु भारत के पश्चिमी भागों में घाटों एवं पर्वत श्रृंखलाओं को पार करना आवश्यक था। इसी कारण इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे मार्ग लगभग १८६० में पुणे पहुँच सकी।

पूर्वी भारतीय रेलवे का आरम्भ इससे पूर्व ही हो सकता था किन्तु दो घटनाएँ ऐसी घटीं जिनसे इसकी स्थापना में बाधाएं आयीं। एक घटना थी, रेलगाड़ी के इंजनों को लाने वाला जहाज पथभ्रष्ट होकर ऑस्ट्रेलिया चला गया था। दूसरी घटना यह थी कि रेलगाड़ी के डब्बों को लाने वाला एक अन्य जहाज कलकत्ता बंदरगाह के निकट स्थित सैंडहेड्स के समीप डूब गया था। इंजनों को ऑस्ट्रेलिया से वापिस भारत लाने में कई मास लग गए। वहीं रेल के डब्बों को भारत में ही बनाया गया। इसी कारण हावड़ा से रेल का आरम्भ करने में एक वर्ष का विलम्ब हो गया था।

अनुराधा: जी हाँ, यदि ये दुर्घटनाएं ना हुई होतीं तो प्रथम रेल मार्ग कदाचित कलकत्ता में होता।

अनंत: संभव है। प्रारंभ में इन दोनों रेल मार्गों की स्थापना के मध्य अधिक समयावधि नहीं थी। कुछ दिवसों का ही अंतर था। कदाचित दोनों सेवायें एक साथ ही आरम्भ हो सकती थीं। वास्तव में, दोनों रेल मार्गों के निर्माता भिन्न थे तथा उनके मध्य प्रतिस्पर्धा की भावना थी कि कौन सर्वप्रथम भारत में रेल मार्ग की स्थापना करेगा।

भारतीय रेल सेवा का प्रथम निर्मित स्थानक

छोटी पटरी की भारतीय रेल
छोटी पटरी की भारतीय रेल

अनुराधा: इन दोनों के पश्चात अन्य मुख्य रेल मार्ग कहाँ निर्मित किये गए थे?

अनंत: इनके पश्चात, मद्रास में सन् १८५६ में, रोयापुरम से वलाजह मार्ग के मध्य रेल मार्ग बिछाया गया था जो ७०-८० किलोमीटर की दूरी तय करता था। इस मार्ग की एक विशेषता यह थी कि रोयापुरम से रेल सेवा आरम्भ होने से पूर्व ही रेल स्थानक की सम्पूर्ण इमारत का निर्माण कर दिया गया था। अतः रोयापुरम भारतीय प्रायद्वीप का प्रथम रेल स्थानक बना। यहाँ तक कि, यह सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप में स्थित प्राचीनतम रेल स्थानकों में से एक है।

और पढ़ें: मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस – एक विश्व धरोहर

भारत का प्रथम स्थाई रेलवे स्थानक रोयापुरम में बनाया गया था जबकि बोरीबंदर एवं हावड़ा में शेड के रूप में अस्थाई स्थानक थे। रोयापुरम के प्राचीन स्थानक की इमारत अब भी खड़ी है। संरक्षण के कुछ सफल प्रयासों के पश्चात यह इमारत अब अपेक्षाकृत उत्तम स्थिति में है। मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का निर्माण सन् १८८८ में किया गया जबकि हावड़ा स्थानक १९वीं शताब्दी के अंत में बना था। हावड़ा स्थानक छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से अपेक्षाकृत अधिक विशाल है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का निर्माण एक प्रशासनिक कार्यालय के रूप में किया था जिसके भीतर ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे का मुख्यालय था। रेल स्थानक इस इमारत का केवल एक अतिरिक्त भाग था।

भारत में रेलवे का विस्तार

अनुराधा: कलकत्ता, मद्रास एवं मुंबई तीन ऐसे नगर थे जिन पर अंग्रेजों का विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित था। अतः, वहां रेल मार्ग तथा स्थानकों का निर्माण स्वाभाविक था। किन्तु भारत के अन्य क्षेत्रों में रेल सेवायें कैसे आरम्भ हुईं?

अनंत: इन तीन नगरों के पश्चात भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में निर्माण कार्य आरम्भ हो गया था। पूर्वी भारतीय रेलवे का विस्तार अत्यंत शीघ्रता से होने लगा। १८५० के दशक में लाहोर के आसपास पंजाब-सिंध रेलवे का आगमन हुआ। सन् १८६६ में कलकत्ता से आने वाले रेल मार्ग को दिल्ली तक लाया गया। यहाँ तीन प्राचीनतम रेलवे सेतु हैं जिनके द्वारा रेलगाड़ियां नदियों को पार करती हैं। पहली आर्रा के निकट है जो सोन नदी के ऊपर निर्मित है। अन्य दो सेतु प्रयागराज एवं दिल्ली में यमुना नदी के ऊपर स्थित हैं। कलकत्ता एवं दिल्ली के मध्य स्थित तीनों प्रमुख सेतु हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक लगभग आधा किलोमीटर लंबा है।

अनुराधा: इस जानकारी से मेरे मस्तिष्क में एक प्रश्न उभर रहा है। रेलवे के विस्तार के लिए अनेक रियासतें भी निधि का योगदान कर रही थीं। क्या आप उनके विषय में कुछ बताएँगे?

रेलवे प्रकल्प हेतु निधि का योगदान करती रियासतें

अनंत: प्रथम रियासत जिसने इस प्रकल्प में रूचि दर्शाई थी, वह है वड़ोदरा के गायकवाड़। उन्होंने रेल मार्ग का निर्माण इसलिए करवाया था क्योंकि सन् १८६१ में अमेरिकी गृह युद्ध छिड़ गया था जिसके कारण अमेरिका से ब्रिटेन के लिए कपास की आपूर्ति बाधित हो रही थी। बड़ोदा क्षेत्र में कपास की भरपूर खेती होती थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए वहां के किसान बड़ोदा से इंग्लॅण्ड तक कपास का निर्यात कर धनार्जन करना चाहते थे। किन्तु बड़ोदा से सूरत बंदरगाह तक कपास पहुँचाने के लिए उनके पास त्वरित परिवहन सेवा का अभाव था। इसी कारण उन्होंने रेल सेवा आरम्भ करने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उन्होंने छोटे गेज की रेल पटरियां बिछवाईं क्योंकि चौड़े गेज की सेवा लागत अधिक थी। वैसे भी कपास भार में अत्यंत हल्का होने के कारण छोटे गेज की रेल पटरियों द्वारा आसानी से ढोया जा सकता था।

मुंबई के चर्चगेट स्टेशन में पश्चिमी रेलवे धरोहर संग्रहालय है। यहाँ एक रोचक चित्र है जिसमें बैल कपास से भरे रेल के दो डिब्बों को रेल की पटरी पर खींच रहे हैं। इस चित्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गायकवाड़ वंश इस रेल सेवा को शीघ्र से शीघ्र आरम्भ करने के लिए आतुर थे क्योंकि वे सन् १८६३ में प्रवेश कर चुके थे। इंग्लॅण्ड से मंगाया इंजिन तब तक पहुंचा नहीं था। पटरियों की चौड़ाई एवं इंजिन के मापदंडों में भिन्नता थी जिसके चलते उनके निर्माण में विलम्ब हो रहा था। रेल के डिब्बों का निर्माण गायकवाड़ों ने स्वयं ही कर लिया। उन डिब्बों को हांकने के लिये इंजन के स्थान पर उन्होंने बैलों का प्रयोग किया. वे उसे बैल रेल गाड़ी कहते थे.

परिवहन – व्यापार का महत्वपूर्ण अंग

अनुराधा: जुगाड़ आविष्कार का यह एक रोचक उदहारण है। गुजरात के दाभोई में मैंने रेलवे संग्रहालय देखा था जहां इस रेल सेवा पर विशेष आलेख उपलब्ध हैं।

अनंत: गुजरातियों की व्यावसायिक समझ अत्यंत गूढ़ है। गायकवाड़ों के पश्चात, १८७० के दशक में निजाम ने तथा १८८० के दशक में मैसूर के महाराजा ने भी उनकी रेल सेवायें आरम्भ कीं।

अनुराधा: मुझे स्मरण है, हैदराबाद से अजमेर तक का रेल मार्ग दीर्घ काल तक सबसे लम्बा रेल यात्रा मार्ग था।

अनंत: जी हाँ। हैदराबाद के निजाम ने मीटर गेज की रेल पटरियां बिछवाई थीं। यह रेल मार्ग हैदराबाद से आरम्भ होकर मध्यप्रदेश के खंडवा तक था। वहां से यह होलकरों के रेल मार्ग से जुड़ जाता था जो इंदौर के मऊ से होकर जाता था। वहां से उत्तर प्रदेश के महोबा होते हुए राजस्थान में अजमेर के मीटर गेज मार्ग से जुड़ जाता था।

रेलवे गेज

अनुराधा: विभिन्न समूहों ने अपने निजी आवश्यकताओं के अनुसार भिन्न भिन्न रेल सेवायें आरम्भ की थीं। उनके मापदंड भी उन्होंने स्वयं निर्धारित किये थे, जैसे छोटे गेज व मीटर गेज आदि। इन्ही विसंगतियों को दूर कर उन्हें एक मापदंड पर लाने का विशाल कार्य अब भारतीय रेलवे कर रहा है ताकि भारतीय रेलों का सम्पूर्ण संजाल एकसार हो सके।

अनंत: जी हाँ। हम जैसे जैसे प्रगति करते हैं, हमारे दूरसंचार, परिवहन, मनोरंजन, पर्यटन इत्यादि आवश्यकताओं में भी तेजी से वृद्धि होने लगती है। भिन्न भिन्न गेजों की पटरियों का संजाल जन व माल दोनों के सुगम परिवहन में बाधा उत्पन्न कर रहा था। भारतीय रेल सेवा मुख्यतः मालवाहक भाड़े पर ही निर्वाह करती है। भारतीय रेलों का लगभग ६३-६४% राजस्व मालभाड़े से तथा लगभग ३०% राजस्व जनमानस परिवहन से प्राप्त होता है। विभिन्न गेजों की एक रेलगाड़ी से दूसरी रेलगाड़ी में माल उतारने व चढ़ाने में परिवहन लागत व समय दोनों की हानि होती है।

मधुर स्मृतियाँ

भारतीय रेल का आनंद लेते हुए
भारतीय रेल का आनंद लेते हुए

अनुराधा: मैं जब विद्यार्थी थी, तब मैंने चंडीगढ़ से औरंगाबाद तक अनेक यात्राएं की थीं। उस समय इस गेज भिन्नता के कारण मुझे मनमाड़ में ट्रेन बदलनी पड़ती थी। मनमाड़ में मुझे कई घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

अनंत: जी। मुझे भी स्मरण है, जब मेरे पिता आसाम में दीमापुर के निकट कार्यरत थे, तब दक्षिण भारत में आने के लिए हमें इसी कारणवश बुगनेगाँव में ट्रेन बदलनी पड़ती थी। उस काल में भारत में चौड़े, मीटर तथा छोटे, तीनों प्रकार के गेज चलन में थे।

दाभोई, वड़ोदरा में स्थित गायकवाड़ों के छोटे गेज संग्रहालय के समान नागपुर में भी छोटे गेज का संग्रहालय है क्योंकि नागपुर-छत्तीसगढ़ रेलवे भी १८७० के दशक में निर्मित एक छोटी गेज की रेलवे थी। १८६० तथा १८७० के दशकों में मध्य भारत में अकाल की स्थिति थी जिसके कारण जीवन व आजीविका के साधनों को भीषण क्षति पहुंची थी। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार के मध्य प्रांत ने एक रेलवे संस्था की स्थापना की ताकि अकाल पीड़ित क्षेत्रों में तत्काल अनाज पहुँचाया जा सके। कठोर वित्तीय प्रतिबंधों के चलते उन्होंने भी छोटे गेज की रेल सेवा का चुनाव किया था।

रेलवे गेज का मूल्य

अनुराधा: क्या छोटी गेज की पटरियों का मूल्य कम होता है?

अनंत: जी। उसका मूल्य बड़ी गेज की पटरियों से लगभग एक तिहाई होता है। लागत, भूमि तथा कई अन्य घटक होते हैं जिन पर यह निर्भर करता है। इसके निर्माण में समय भी कम लगता है। यदि माल-परिवहन का भार कम हो तो यह अधिक लाभकारी होता था।

नागपुर से जबलपुर तक छोटी गेज का लम्बा रेल मार्ग था जो छिंदवाड़ा तथा सिवनी होकर जाता था। आज सड़कें इतनी सुगम हो गयी हैं कि गाड़ी चलाकर चार घंटों में ही नागपुर से जबलपुर तक पहुँच जाते हैं, जबकि उन दिनों छोटी गेज की रेलगाड़ी से सम्पूर्ण रात्रि यात्रा करनी पड़ती थी।

पर्वतीय रेल सेवा का आरम्भ

अनुराधा: भारत के पर्वतीय क्षेत्रों, जैसे दार्जिलिंग, कालका-शिमला तथा नीलगिरी में अप्रतिम हिमालयीन एवं पर्वतीय रेलवे सेवायें भी हैं। वे यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर भी हैं। क्या आप उनके विषय में कुछ बताएँगे?

अनंत: पर्वतीय रेलवे सेवाओं में सर्वप्रथम रेल सेवा दार्जिलिंग में १८८० के दशक में आरम्भ की गयी थी। दार्जिलिंग के पर्वतीय क्षेत्रों में तीव्र ढलान पर चढ़ने के लिए गोलाकार मार्ग के स्थान पर अत्यंत वक्रीय मार्ग का प्रयोग किया गया है। ढलान पर चढ़ने के लिए यह एक अद्वितीय उपाय सिद्ध हुआ था।

अनुराधा: घूम गोलमार्ग भी एक प्रमुख आविष्कार है।

घूम/ बतासिया लूप का आविष्कार

घूम संग्रहालय में पुराना इंजन
घूम संग्रहालय में पुराना इंजन

अनंत:  घूम गोलमार्ग अथवा बतासिया लूप/गोलमार्ग एक आविष्कार ही है क्योंकि उस स्थान पर रेल को वापिस मुड़ना था। कुछ समय पूर्व तक वहां पर बाजार भरता था। अब उसे एक सुन्दर पर्यटन स्थल में परिवर्तित कर दिया गया है।

अनुराधा: मैं कुछ ३-४ वर्षों पूर्व दार्जिलिंग गयी थी। मैंने तब भी देखा था कि रेलगाड़ी के जाने के पश्चात लोग रेल की पटरियों पर ही अपनी दुकानें सजा लेते थे तथा रेलगाड़ी के आने का समय होते ही वहां से हट जाते थे । वह दृश्य मेरे लिए अत्यंत रोचक था।

अनंत: मैं गत वर्ष ही वहां गया था। घूम गोलमार्ग पर अब एक युद्ध स्मारक स्थापित किया गया है जिसके चारों ओर सुन्दर बाग बनाये गए हैं। वहां अब पटरियों पर कोई बाजार नहीं भरता है। उनके लिए व्यवस्थित दुकानें उपलब्ध कराई गयी हैं। घूम में एक सुन्दर रेल संग्रहालय भी है। उसमें दार्जिलिंग पर्वतीय रेलवे के अवशेषों को संरक्षित कर प्रदर्शित किया गया है, जैसे संकेत कंदील तथा अन्य यंत्र, जिनका प्रयोग उनमें किया जाता था। घूम संग्रहालय केवल कक्ष के भीतर ही नहीं है, अपितु बाहर भी छोटे गेज की रेलगाड़ी के कुछ पूर्वकालीन डिब्बे हैं जो अब उपयोगी नहीं हैं। कुछ पुराने इंजन भी हैं जिन्हें कक्ष के बाहर, शेड के नीचे रखा गया है।

रेलगाड़ी की पूर्वकालीन स्मृतियाँ

अनुराधा: दार्जिलिंग हिमालयन रेल में यात्रा करते हुए मैं प्राचीन काल में पहुँच गयी थी तथा कल्पना के विश्व में खो गयी थी। मैं अनुमान लगा सकती कि प्राचीन काल में रेल सेवा कैसी रही होगी। मैं प्राचीनकाल का सम्पूर्ण दृश्य अपने नैनों के समक्ष चित्रित कर रही थी। यह सत्य मुझे आज भी अचरज में डाल देता है कि १५० वर्षों पूर्व हमारे देश में रेलों का तंत्र विकसित हो गया था।

अनंत: सत्य कहा आपने। घूम रेलवे संग्रहालय में मार्क ट्वेन का एक रोचक आलेख है, “A journey of Darjeeling” जिनमें दार्जिलिंग हिमालयन रेल के सन्दर्भ में उनके द्वारा व्यक्त किये विचार हैं।

दार्जिलिंग हिमालयन रेल के पश्चात शिमला एवं ऊटी में क्रमशः सन् १९०३ तथा १९०८ में रेलवे सेवा आरम्भ हुई। शिमला को रेलवे सेवा द्वारा मुख्य धारा से जोड़ने का प्रमुख कारण था, प्रशासनिक तंत्र को शिमला तक सुगमता से पहुँचाना। इस ट्रेन का नाम रखा, कालका मेल। उस समय कलकत्ता देश की राजधानी थी। यह रेल सेवा हावड़ा को कालका से जोड़ती थी। यह पूर्वी भारतीय रेलवे के अंतर्गत प्राचीनतम रेल सेवाओं में से एक थी। वाईसराय अपने विशेष डिब्बे में बैठकर इस ट्रेन के द्वारा हावड़ा से कालका पहुँचते थे। वहां से अपने विशेष कक्ष में बैठकर शिमला तक जाते थे।

रैक एवं पिनियन का आविष्कार

रैक एवं पिनियन का प्रयोग वृत्तीय गति को रैखिक गति में या रैखिक गति को वृत्तीय गति में बदलने के लिए किया जाता है। ऊटी में रैक एवं पिनियन का आविष्कार अत्यंत कारगर सिद्ध हुआ। इस तकनीक से पर्वतीय क्षेत्र में चढ़ते समय, ट्रेन को उल्टी ढलान पर पीछे की ओर सरकने के रोकने में महत्वपूर्ण सफलता मिली थी। इसके प्रयोग से मेट्टूपलायम से निलगिरी तक की मनोरम यात्रा अत्यंत सुगम हो पायी। चौथी पर्वतीय रेल सेवा मुंबई के निकट माथेरान में स्थापित की गयी। सन् १९०७ में स्थापित यह छोटी दूरी की रेल सेवा लगभग १६-१८ किलोमीटर लम्बी थी जो नेरल एवं माथेरान के मध्य आरम्भ की गयी थी। यह एक पारसी व्यापारी द्वारा आरम्भ की गयी एक निजी रेल सेवा थी। अब यह ट्रेन अमन लॉज से माथेरान के मध्य चलती है।

इस सूची की अंतिम पर्वतीय रेल सेवा स्वतंत्रता के पश्चात अस्तित्व में आयी, जो है कांगड़ा घाटी रेलवे। इसकी आधार शिला लाल बहादुर शास्त्रीजी तथा उस समय के रेल मंत्री ने रखी थी। १९५० के दशक में यह सेवा आरम्भ हुई। यह पठानकोट से पालमपुर होते हुए जोगिंदरनगर जाती है। यह सर्वाधिक मनोरम दृश्यों से युक्त रेलवे में से एक है क्योंकि यह कांगड़ा घाटी से होकर जाती है।

इस प्रकार आरंभिक काल में भारत में स्थापित रेलवे सेवा को हम इन खण्डों में बाँट सकते हैं, निजी कंपनियों द्वारा स्थापित रेल सेवा, सरकारी तंत्रों द्वारा संचालित रेल सेवा, रियासतों द्वारा  हयोंकियुक्त रेलवे में से एक है स्थापित रेल सेवा तथा पर्वतीय रेल सेवा। प्रत्येक खण्डों के अंतर्गत आती रेल सेवाओं की अपनी विशेषताएं थीं। ये सभी रेल सेवायें भारत की धरोहर हैं।

भारत की अखंडता का प्रतीक, भारतीय रेल

अनुराधा: सम्पूर्ण भारत में भिन्न भिन्न अंकुरों के समान स्फुरित विभिन्न रेल सेवाएँ अब सम्पूर्ण देश को एक व अखंड बनाती एकल, विशाल व सशक्त रेल सेवा में परिवर्तित हो गयी हैं। इसे देख आनंद मिश्रित अचरज होता है।

अनंत: सही कहा। इस महत्वपूर्ण धरोहर का आरम्भ मूलतः सैन्य प्रयोजनों में प्रयुक्त वस्त्रों के परिवहन तथा विदेशों में निर्यात होते कच्चे माल को बंदरगाह तक पहुँचाने के लिए किया गया था।

अनुराधा: अंततः व्यापार ही इस सेवा के आरम्भ का मूल संचालक था।

अनंत: सत्य तो यह है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा इसका आरम्भ मूलतः भारत की संपत्ति को ब्रिटेन ले जाने के लिए किया गया था। डॉक्टर शशी थरूर ने भी अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख किया है। यह एक भिन्न सत्य है कि इसका लाभ भारतीयों को भी प्राप्त हुआ है।

अनुराधा: जी हाँ। यह एक ऐसा विवाद है जो जारी रहेगा। किन्तु आज यह सत्य है कि भारतीय रेल हम भारतीयों के जीवन का एक अभिन्न अंग है। यह हम भारतीयों की जीवन रेखा है। ८०-९० के दशकों में पले -बढ़े हम भारतीयों के लिए यह किसी स्वप्निल यात्रा से कम नहीं है। लम्बी दूरी की यात्रा की कुछ अप्रतिम स्मृतियाँ हम सब के पास होंगी। भारतीय रेलवे के बिना भारत एवं हम भारतीयों के जीवन की कल्पना असंभव है।

रेल पर्यटन एवं रेलवे संजाल की स्थापना

अनंत: सत्य है। रेल की पटरियां कैसे बिछाई जाती हैं, उनका संजाल कैसे रेखांकित किया जाता है, उन्हें कैसे संचालित किया जाता है, ये सब भी एक अत्यंत रोचक है। इसके अतिरिक्त भारतीय रेलवे का इतिहास दर्शाते अनेक रेलवे संग्रहालय हैं जिनकी अपनी अपनी विशेषताएं हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, भारत में पर्यटन के अंतर्गत रेलवे पर्यटन का विशेष अस्तित्व एवं महत्त्व। एक स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में रेलवे पर्यटन को कैसे विकसित किया जा सकता है, यह भी एक आवश्यक व महत्वपूर्ण विषय है।

अनुराधा: मेरे पास भी इनसे सम्बंधित अनेक प्रश्न अब भी शेष है। मुझे अनुमति दीजिये कि उन प्रश्नों को आपके समक्ष रखने के लिए मैं आपको पुनः आमंत्रित कर सकूं ताकि आप हमें पुनः भारतीय रेलवे के इतिहास एवं धरोहरों के अद्भुत विश्व का भ्रमण कराएँ। भारतीय रेलवे एवं इसकी धरोहर के विषय में अवगत कराते हुए इतिहास की इतनी अप्रतिम यात्रा के लिए आपका हृदयपूर्वक आभार तथा धन्यवाद।

श्री अनंत जी से सफल संवाद के पश्चात मैं अपने पाठकों से कहना चाहती हूँ कि यदि वे अनंत जी से कुछ जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं अथवा प्रश्न करना चाहते हैं या रेलवे से सम्बंधित कुछ सुझाव देना चाहते हैं तो टिप्पणी खंड के द्वारा हमें सूचित करें। वे रेलवे प्रशासन में ऐसे पद पर कार्यरत है जो सम्बंधित व्यक्तियों के समक्ष आपकी आवश्यकताएं रख सकते हैं।

लिखित प्रतिलिपि: IndiTales Internship Program के अंतर्गत निकिता चंदोला ने तैयार की है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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सप्तमातृका – दंत कथाएं, इतिहास एवं प्रतिमा विज्ञान https://inditales.com/hindi/saptamatrika-katha-itihasa-vaastu-mandir/ https://inditales.com/hindi/saptamatrika-katha-itihasa-vaastu-mandir/#comments Wed, 08 Sep 2021 02:30:14 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2410

सप्तमातृका, अर्थात् सात माताएं! आपने अनेक मंदिरों में सप्तमातृकाओं के दर्शन किए होंगे। किन्तु केवल सप्तमातृकाओं को समर्पित मंदिर क्वचित ही देखे होंगे। अधिकतर वे मंदिरों का एक भाग होती हैं। सात माताओं को अधिकांशतः एक साथ, एक ही पटल पर उत्कीर्णित देखा गया है। यदा-कदा गणेश एवं कार्तिकेय भी उनके साथ विराजमान होते हैं। […]

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सप्तमातृका, अर्थात् सात माताएं! आपने अनेक मंदिरों में सप्तमातृकाओं के दर्शन किए होंगे। किन्तु केवल सप्तमातृकाओं को समर्पित मंदिर क्वचित ही देखे होंगे। अधिकतर वे मंदिरों का एक भाग होती हैं। सात माताओं को अधिकांशतः एक साथ, एक ही पटल पर उत्कीर्णित देखा गया है। यदा-कदा गणेश एवं कार्तिकेय भी उनके साथ विराजमान होते हैं। सन् २०११ में, राष्ट्रीय संग्रहालय द्वारा संचालित पाठ्यक्रम ‘भारतीय कला’ के अंतर्गत, मैंने सप्तमातृकाओं के विषय में प्रारम्भिक अध्ययन किया था। तभी से मेरी यह प्रबल इच्छा थी कि मैं इस विषय में एक संस्करण प्रकाशित करूं। अतः मैंने उनके विषय में विस्तृत अध्ययन आरंभ किया।

सप्तमातृका - पहाड़ी शैली का लघुचित्र
सप्तमातृका – पहाड़ी शैली का लघुचित्र

अनेक पुस्तकों में सप्तमातृकाओं के विषय में अध्ययन करने के उपरांत भी, उनके विषय में लिखने के लिए स्वयं को परिपक्व अनुभव नहीं कर पा रही थी। तब मैंने देवी माहात्मय/दुर्गा सप्तशती पढ़ा जिसमें उनके प्रकट होने की सम्पूर्ण कथा का उल्लेख किया गया है। दुर्गा की सम्पूर्ण कथा में सप्तमातृकाओं के प्रकट होने की प्रासंगिकता को समझा। तदुपरांत ऐसा प्रतीत हुआ कि अब इस  विषय में लिखने का समय आ गया है। किन्तु तब भी मैं इस ओर आगे नहीं बढ़ सकी। इस वर्ष के आरंभ में मैंने ओडिशा की यात्रा की थी। वहाँ मैंने सप्तमातृकाओं को समर्पित विशाल व प्राचीन मंदिरों के दर्शन किए। उन मंदिरों में सप्तमातृकाओं के साथ समय व्यतीत किया। अब ऐसा प्रतीत होता है कि अंततः उन्होंने मुझे उनके विषय में लिखने के लिए आशीष व आज्ञा दोनों दे दी है।

सप्तमातृकाएँ कौन हैं?

सप्त अर्थात् सात तथा मातृका का अर्थ है माता। अतः सप्तमातृका का अर्थ है सात माताएं। वे विभिन्न देवताओं की शक्तियाँ हैं जो आवश्यकतानुसार उनके भीतर से उदित होती हैं। बहुधा ऐसे असुरों के संहार हेतु आती हैं जिन्हे नियंत्रित करने में अन्य सभी असफल हो गए हैं।

कांची कैलाशनाथ मंदिर में सप्तमातृकाएँ
कांची कैलाशनाथ मंदिर में सप्तमातृकाएँ

लोक परंपराओं में सप्तमातृकाओं को शुभकारी एवं अशुभकारी, दोनों रूपों में दर्शाया गया है। उनकी वंदना करने पर वे बहुधा शुभकारी रूप में प्रकट होती हैं। शुभकारी रूप में वे दयालु व कृपालु होती हैं तथा भ्रूण व नवजात शिशुओं की रक्षा करती हैं। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, वे भक्तों की प्रार्थना अवश्य सुनती हैं। लोक परंपराओं के अनुसार, अशुभकारी रूप में वे रोगों के रूप में प्रकट होती हैं।

मातृकाओं को देवी माँ भी कहा जाता है, जो भारत एवं विश्व के अनेक भागों में वंदना का प्राचीनतम रूप है।

सामान्यतः इन्हे सप्तमातृकाएँ कहा जाता है, किन्तु यदा-कदा ये आठ अथवा अधिक भी होती हैं।

ये चौंसठ योगिनियों का भाग हैं जो देवी के चारों ओर होती हैं।

तंत्र विद्या में इन्हे देवनागरी लिपि के ५१ अक्षर/वर्ण माना जाता है।

सप्तमातृकाओं की लोककथाएं

अष्टमातृकाएँ
अष्टमातृकाएँ

देवी महात्मय, मार्कन्डेय पुराण का भाग है। मार्कन्डेय पुराण के ८वें अध्याय में, शुंभ-निशुंभ असुरों से हुए युद्ध के समय, देवी एवं रक्तबीज नामक असुर सेनापति के मध्य हुए युद्ध का उल्लेख है। रक्तबीज को यह वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की प्रत्येक बूंद धरती का स्पर्श पाकर उसी के समान शक्तिशाली असुर को जन्म देगी। देवी से युद्ध के समय, जैसे जैसे रक्तबीज का रक्त धरती पर गिर रहा था, वहाँ लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो रहे थे। देवी की सहायता करने के लिए ब्रह्म, विष्णु, शिव, कार्तिकेय एवं इन्द्र ने अपनी अपनी स्त्री शक्तियों को अपने अपने रूप, वाहनों एवं आयुधों सहित वहाँ भेजा। इन स्त्री शक्तियों ने रक्तबीज एवं अन्य असुरों का वध करने में देवी की सहायता की। तत्पश्चात वे अपने मूल रूपों से एकाकार हो गयीं।

शिशु धारण किये हुए सप्तमातृका पट्ट
शिशु धारण किये हुए सप्तमातृका पट्ट

महाभारत एवं अन्य कुछ पुराणों में अंधकासुर नामक एक असुर के वध की कथा है जो रक्तबीज की कथा के समान है। उसे भी रक्तबीज के समान वरदान प्राप्त था। इस कथा में भगवान शिव अंधकासुर से युद्ध कर रहे थे। अंधकासुर के रक्त की बूंदें धरती का स्पर्श पाते ही अनेक अंधकासुरों को जन्म दे रही थी। तब भगवान शिव ने अपने मुख की अग्नि से योगेश्वरी को उत्पन्न किया तथा उन्हे अंधकासुर के रक्त को धरती पर गिरने से पूर्व ग्रहण करने के लिए कहा। यहाँ भी योगेश्वरी की सहायता करने के लिए सप्तमातृकाएँ प्रकट हुई थीं। कुछ प्रतिमाओं में योगेश्वरी को भी सात माताओं के साथ दर्शाया गया है। कदाचित वे प्रतिमाएं इसी प्रसंग की ओर संकेत करती हैं।

सुप्रभेदगम में यह उल्लेख है कि ब्रह्म ने नृत्ती को पराजय करने के लिए मातृकाओं का सृजन किया था।

सप्तमातृकाओं का अखिल भारतीय अस्तित्व

सप्तमातृकाओं की पाषण पट्टिका आप सम्पूर्ण भारत के विभिन्न मंदिरों में देख सकते हैं। प्राचीनतम महत्वपूर्ण तात्विक साक्ष्य हमें सिंधु सरस्वती सभ्यता तक पीछे ले जाते हैं। उस काल की एक मुद्रा में सात मातृकाओं को एक वृक्ष के साथ दर्शाया गया है।

सिन्धु सरस्वती सभ्यता की मुद्रा पर अंकित सप्तमातृका
सिन्धु सरस्वती सभ्यता की मुद्रा पर अंकित सप्तमातृका

यदि शैल शिल्पों की चर्चा की जाए तो कुषाण काल का एक प्राचीनतम शिल्प मथुरा संग्रहालय में देखा जा सकता है। भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग के जितने भी संग्रहालयों का मैंने अब तक अवलोकन किया है, लगभग उन सभी संग्रहालयों में मैंने सप्तमातृकाओं को समर्पित पट्टिकाएं देखी हैं। शैलीगत रूप से देखा जाए तो वे उस क्षेत्र व काल की ओर संकेत करती हैं जिस क्षेत्र व काल में उन्हे उत्कीर्णित किया गया था। दृष्टांत के लिए, मध्यकालीन युग की पट्टिकाओं में प्रत्येक मातृका की विस्तृत एवं व्यक्तिगत प्रतिमा शैली को सूक्ष्मता से उत्कीर्णित किया है। सप्तमातृकाओं से संबंधित प्रतिमा विज्ञान का सार-संग्रह आप ओडिशा के सप्तमातृका मंदिरों में अनुभव कर सकते हैं।

आधुनिक काल में हम सप्तमातृकाओं की अनेक रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ देख सकते हैं।

सप्तमातृका

सात मातृकाएँ सात देवों की शक्तियों से उत्पन्न हुई हैं। उनके वाहन व आयुध भी वही हैं जो उनके स्त्रोत के हैं। इनमें से दो मातृकाएँ शिव के परिवार से उत्पन्न हुई हैं, तीन विष्णु के विभिन्न अवतारों से उत्पन्न हुई हैं तथा ब्रह्मा एवं इन्द्र से एक एक मातृका उत्पन्न हुई है। उनके पुरुष-समकक्षों के सभी लक्षण एवं गुण-विशेष उनमें सन्निहित होते हैं।

बैठी हुई मुद्रा में सप्तमातृका
बैठी हुई मुद्रा में सप्तमातृका

सामान्यतः सप्तमातृकाओं की पट्टिका में, गणेश, कार्तिक, वीरभद्र, वीणाधर, सरस्वती अथवा योगेश्वरी में से एक या दो सहभागी उनके एक अथवा दोनों ओर अवश्य होते हैं।

आईए इन सप्तमातृकाओं के विषय में अधिक जानने का प्रयास करें।

ब्राह्मी

पीतवस्त्र धारिणी ब्राह्मी ब्रह्मा की पीतवर्ण शक्ति हैं। वे हंस पर आरूढ़ रहती हैं जो ब्रह्माजी का भी वाहन है। यदाकदा उन्हे तीनमुखी रूप में भी दर्शाया गया है। यदि उनके पृष्ठभाग में एक अतिरिक्त मुख की कल्पना की जाए तो वे चार मुखी ब्रम्हा का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे अपने दो हाथों में अक्षमाला एवं जल का कलश धारण करती हैं। जहां उनके चार हाथ दर्शाये जाते हैं वहाँ उनके अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में होते हैं।

माहेश्वरी

माहेश्वरी शिव की शक्ति हैं। उजला वर्ण व देदीप्यमान रूप लिए वे ऋषभ की सवारी करती हैं। शीश पर जटा मुकुट, कलाइयों में सर्प रूपी कंगन, माथे पर चंद्र तथा हाथों में त्रिशूल लिए वे भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करती हैं।

कौमारी

कौमारी कार्तिकेय की शक्ति हैं। कार्तिकेय को कुमार के नाम से भी जाना जाता है। कौमारी कार्तिकेय के वाहन, मयूर पर आरूढ़ होती हैं। कुछ शैलियों में उन्हे एकमुखी तो कुछ शैलियों में उन्हे छः मुखों वाली प्रदर्शित किया गया है। उसी प्रकार, कहीं उन्हे द्विभुज तो कहीं चतुर्भुज दर्शाया गया है। वे लाल पुष्पों का हार धारण करती हैं।

ऐन्द्री अथवा इंद्राणी

ऐन्द्री इन्द्र की शक्ति हैं। इन्द्र के समान ही उनका वाहन गज है। उनके हाथ में सदा उनका आयुध वज्र रहता है।  कभी कभी उनके दूसरे हाथ में अंकुश भी दिखाया जाता है। उनके चतुर्भुज रूप में उनके अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में रहते हैं। उन्हे लाल व सुनहरे वस्त्र धारण करना भाता है। उन्हे उत्कृष्ट आभूषण धारण करना भी अत्यंत प्रिय हैं। इन्द्र के ही समान उनकी देह पर भी सहस्त्र नेत्र हैं जिनके द्वारा वे चहुंओर दृष्टि रख सकती हैं।

वैष्णवी

विष्णु की शक्ति वैष्णवी श्यामवर्ण हैं जिन्हे कृष्ण के ही समान पीतवस्त्र धारण करना अत्यंत प्रिय है। वैष्णवी के दो ऊर्ध्व करों में चक्र एवं गदा हैं तथा अन्य दो हस्त अभय एवं वरद मुद्रा में होते हैं। यदाकदा उनके हाथों में शंख, शारंग तथा एक तलवार भी होते हैं। उनके व्यक्तित्व का विशेष लक्षण है उनकी वनमाला जो उनकी सम्पूर्ण देह पर प्रेम से लटकती रहती है। उनके संग उनकी पीठिका पर उनका वाहन गरुड़ भी विराजमान रहता है। कभी कभी उन्हे गरुड़ पर आरूढ़ भी दर्शाया जाता है।

वाराही

यज्ञ वराह की शक्ति, वाराही का स्वरूप भी वराह का है। उन्हे सामान्यतः मानवी देह पर वराह शीश के रूप में दर्शाया जाता है। उनका यह विशेष लक्षण उन्हे अन्य सप्तमातृकाओं में से सर्वाधिक अभिज्ञेय बनाता है। वाराही भी श्यामवर्ण हैं। वे अपने शीश पर करण्डमुकुट धारण करती हैं। ओडिशा में उन्हे समर्पित अनेक मंदिर हैं।

नारसिंही

नारसिंही विष्णु के नरसिंह अवतार की शक्ति हैं जिनकी आधी देह मानवी एवं आधी सिंह की है। उनके इस विशेष स्वरूप के कारण उन्हे सप्तमातृकाओं की पट्टिका में पहचानने में कठिनाई नहीं होती।

चामुंडा

कभी कभी सप्तमातृकाओं की पट्टिका में नारसिंही के स्थान पर चामुंडा को दर्शाया जाता है जो यम की शक्ति हैं। उनका स्वरूप अन्य सप्तमातृकाओं से भिन्न है। कंकाल सदृश देह पर लटकते वक्ष, धँसे नेत्र, धंसा उदर, ग्रीवा पर नरमुंड की माला तथा हाथों में नरमुंड का पात्र इत्यादि उनके स्वरूप की विशेषताएं हैं। बाघचर्म धारण किए उनका यह रूप अत्यंत रौद्र एवं उद्दंड प्रतीत होता है।

सप्तमातृका पट्टिका

जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है, ७ अथवा ८ सप्तमातृकाओं को सदैव एक साथ एक शैल-पट्टिका पर उत्कीर्णित किया गया है। उन सभी को सामान्यतः एक ही मुद्रा में बैठे दर्शाया गया है, जिसे ललितासन कहते हैं। ललितासन मुद्रा में एक चरण धरती पर तथा दूसरा चरण दूसरी जंघा पर रखा जाता है। अनेक पट्टिकाओं में उन्हे खड़ी मुद्रा में तथा यदाकदा नृत्य मुद्रा में भी उत्कीर्णित किया गया है।

अनेक पट्टिकाओं में प्रत्येक मातृका के संग एक शिशु भी दर्शाया गया है जो उनके माँ होने की ओर विशेष संकेत करता है।

ओडिशा के कुछ मंदिरों में मैंने सप्तमातृकाओं की काले रंग की विशाल शैल प्रतिमाएं देखी थीं। वे प्रतिमाएं अत्यंत विशाल थीं। उनकी विशाल व मर्मज्ञ नेत्र उनकी उपस्थिति को अत्यंत प्रभावी बना रहे थे। उन्हे देख श्रद्धा एवं भय दोनों भाव एक साथ उत्पन्न हो रहे थे। किन्तु अधिकतर प्रतिमाएं अपने मूल मंदिरों में नहीं थीं। अतः उनका मूल स्थान कहाँ था, कैसा था तथा मूलतः उनकी आराधना किस प्रकार की जाती थी, इस सब का उत्तर पाना आसान नहीं है।

यदि आप सप्तमातृकाओं के विषय में अधिक जानना चाहते हैं अथवा खोज करना चाहते हैं तो श्री श्रीनिवास राव द्वारा प्रकाशित यह संस्करण अवश्य पढ़ें।

सप्तमातृकाओं के मंदिर

जाजपुर - ओडिशा का सप्तमातृका मंदिर
जाजपुर – ओडिशा का सप्तमातृका मंदिर

सप्तमातृकाओं को समर्पित शैलपट्टिकाएं आप लगभग सभी प्राचीन मंदिरों में देख सकते हैं। इन पट्टिकाओं का आकार विशाल नहीं होता है। अतः इन्हे खोजने के लिए शिल्पों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करना आवश्यक है। केवल ओडिशा में ही मैंने उन्हे समर्पित पृथक मंदिर देखे हैं। उन मंदिरों में सप्तमातृकाओं का आकार भी अतिविशाल होता है।

उनमें से कुछ मंदिर हैं-

  • ओडिशा में वैतरणी नदी के तट पर स्थित जाजपुर का मंदिर
  • पुरी में मार्कण्डेश्वर सरोवर के निकट स्थित मंदिर

प्रदीप चक्रवर्ती ने मुझे जानकारी दी कि सप्तमातृका मंदिर चेन्नई के प्राचीनतम जीवंत क्षेत्रों में से एक है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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चिरकालीन उर्जा से ओतप्रोत भारत के देशभक्ति गीत https://inditales.com/hindi/bharat-ke-deshbhakti-geet/ https://inditales.com/hindi/bharat-ke-deshbhakti-geet/#comments Wed, 11 Aug 2021 02:30:56 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2391

१५ अगस्त का स्वतंत्रता दिवस हो अथवा २६ जनवरी का गणतंत्र दिवस, हमारा देश देशभक्ति गीतों से गूंजने लगता है। सार्वजनिक सभा हो या निजी उत्सव, घर हो या बस्ती, रेडियो हो या दूरदर्शन, भारत के कोने कोने में देशभक्ति गीत बजने लगते हैं। यहाँ तक कि मोबाईल फोन पर भी वही गीत सुनाई देते […]

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१५ अगस्त का स्वतंत्रता दिवस हो अथवा २६ जनवरी का गणतंत्र दिवस, हमारा देश देशभक्ति गीतों से गूंजने लगता है। सार्वजनिक सभा हो या निजी उत्सव, घर हो या बस्ती, रेडियो हो या दूरदर्शन, भारत के कोने कोने में देशभक्ति गीत बजने लगते हैं। यहाँ तक कि मोबाईल फोन पर भी वही गीत सुनाई देते हैं। भारत ही नहीं, अपितु विश्व भर के अप्रवासी भारतीय नागरिकों में भी वही स्फूर्ति एवं उर्जा दृष्टिगोचर होती है।

भारत के देशभक्ति गीत
भारत का तिरंगा झंडा

भारत की प्राचीन व पावन भूमि का उत्सव मनाते ये भारत के देशभक्ति गीत हमारे भीतर आनंद भर देते हैं। ये गीत सांझेपन एवं अपनत्व द्वारा हम सब को जोड़कर रखते हैं। ये गीत हमारे भीतर देश व देशवासियों के प्रति हमारे उत्तरदायित्व को भी जगाते हैं।

भारत के देशभक्ति गीत

हम सब उन भारतीयों का अत्यंत सम्मान करते हैं जिन्होंने प्रत्येक विपरीत परिस्थिति में देश की अस्मिता की रक्षा की है, वे चाहे सम्माननीय जनसेवक हों अथवा सशस्त्र बल के आदरणीय व प्रशंसनीय जवान, जिन्होंने हमारे एवं हमारे देश के उज्जवल भविष्य के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनकी अविस्मरणीय स्मृतियाँ सदा हमारे हृदय में श्रद्धा एवं हमारे मन मस्तिष्क में सुरक्षा का अनुभव कराती रहेंगीं। देशभक्ति से ओतप्रोत ये गीत हमें हमारे सुनहरे अतीत, हमारी समृद्ध विरासत एवं हमारे पूर्वजों के सर्वोच्च बलिदान का स्मरण कराते हैं। यहाँ देशभक्ति से परिपूर्ण कुछ सर्वोत्तम गीतों का संकलन आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ। सूची के अंतिम भाग में सर्वोत्तम गीत हैं। प्रत्येक गीत को सुनकर आनंद उठाइये तथा हमें बताइये इनमें आपके सर्वाधिक प्रिय गीत कौन से हैं।

बॉलीवुड से कुछ देशभक्ति के गीत

भारतीय हिन्दी चित्रपट उद्योग अथवा बॉलीवुड ने देशभक्ति से ओतप्रोत अनेक चित्रपटों का निर्माण किया है, अनेक देशभक्ति के गीत रचे एवं चित्रित किये हैं। देशभक्ति के गीतों की निम्न सूची किसी विशेष नियम के अनुसार नहीं हैं। अतः आप इन सभी को सुनकर आनंद लीजिये तथा अपनी स्मृतियों को पुनः जीवंत करिये।

१. ये देश है वीर जवानों का – नया दौर

भांगड़ा के जोश से भरा यह गीत मेरा सर्वाधिक प्रिय देशभक्ति गीत है जिसे सुनकर अंग अंग नृत्य करने के लिए आतुर हो जाता है। यह गीत सुनकर हमें भारतीय होने का गर्व होने लगता है। रोम रोम अपने देश के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित होने लगता है। यह एक अत्यंत सकारात्मक व प्रेरणादायी गीत है।

इस गीत में मुख्य भूमिका निभायी है दिलीप कुमार व वैजयंतीमाला ने। इस गीत के संगीत निर्देशक हैं ओ. पी. नैय्यर, गीतकार हैं साहिर लुधियानवी तथा इस गीत को गाया है मोहम्मद रफ़ी एवं बलबीर ने।

२. जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया – सिकंदर ए आज़म (१९६५)

यह गीत भारत के स्वर्णिम काल का उल्लेख करती है जिसके विषय में हमने केवल सुना व पढ़ा ही है। मैं अपने यात्रा संस्करणों के लिए जब इन प्राचीन स्थलों की यात्रा करती हूँ तब उसी स्वर्णिम युग के खंडित अवशेषों को बिखरे पड़े देखती हूँ। यह गीत मुझे भारत के उसी स्वर्णिम युग को पुनः जीवित करने के कार्य के लिए प्रेरित करती है।

इस गीत के संगीत निर्देशक हैं हंसराज बहल, गीतकार हैं राजेंद्र कृष्ण तथा इस गीत को स्वर प्रदान किया है मोहम्मद रफ़ी ने। इस गीत में मुख्य भूमिका निभायी है, दारा सिंग, मुमताज, पृथ्वीराज कपूर, वीना, प्रेम चोप्रा, विजयलक्ष्मी, हेलेन तथा प्रेम नाथ ने। इस चित्रपट के निर्देशक केदार कपूर थे।

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३. भारत का रहने वाला हूँ – पूरब और पश्चिम (१९७०)

मुझे स्मरण है, मैंने यह गीत दूरदर्शन के चित्रहार कार्यक्रम में लगभग प्रत्येक राष्ट्रीय अवकाशों पर सुना है। मेरे लिए यह गीत सम्पूर्ण भारत का निचोड़ है। यह उन दुर्मिल गीतों में से एक है जो भारत के सभी आयामों का उल्लेख करता है। एक ओर भारत के वैज्ञानिकों एवं गणितज्ञों की विलक्षण बुद्धि का बखान करता है तो दूसरी ओर नदियों की आराधना जैसे संस्कारों की गाथा कहता है। जहां सभ्यता एवं कला ने सर्वप्रथम जन्म लिया, ऐसा भारत सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शक है, भारत के मार्गदर्शन में सम्पूर्ण विश्व ने प्रगति की है तथा सम्पन्नता अर्जित की है, इस देश की धरती पर जन्म लेकर मैं गौरान्वित हुआ हूँ, कुछ इस प्रकार के भाव हैं इस गीत में।

इस गीत के संगीत निर्देशक हैं कल्याणजी-आनंदजी, गीतकार हैं इन्दीवर तथा स्वर प्रदान किया है महेंद्र कपूर ने। ७० के दशक में निर्मित चलचित्र पूरब-पश्चिम के इस गीत में मुख्य भूमिका निभायी है, मनोज कुमार, सायरा बानो, अशोक कुमार, प्राण, प्रेम चोप्रा, निरूपा रॉय, विनोद खन्ना, भारती, मनमोहन तथा कामिनी कौशल ने। इस चित्रपट का निर्देशन किया स्वयं मनोज कुमार ने।

४. आइ लव माय इंडिया – परदेस (१९९७)

यह एक ऐसा गीत है जो प्रत्येक भारत प्रेमी प्रसन्नता से गुनगुनाता है। हम में से अधिकाँश लोग किसी भी गीत के शब्दों पर अधिक ध्यान नहीं देते हैं। किन्तु इस गीत के शब्द अत्यंत अर्थपूर्ण हैं। उन्हें जानकार आप भी आनंदित हो जायेंगे।

इस चित्रपट में मुख्य भूमिका निभायी है शाहरुख़ खान, अमरीश पुरी, महिमा चौधरी, अपूर्व अग्निहोत्री, अलोक नाथ, हिमानी शिवपुरी तथा आदित्य नारायण ने। इस गीत को मधुर स्वर प्रदान किया है कविता कृष्णमूर्ति ने। इस गीत के संगीत निर्देशक हैं नदीम-श्रवण। सुभाष घई इस चित्रपट के निर्माता/निर्देशक हैं।

५. फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी (२०००)  

मुझे यह गीत इसलिए प्रिय है क्योंकि यह हम भारतीयों की दुहरी क्षमता को दर्शाता है। एक ओर हम भलाई एवं भलों के साथ गर्व से चलते हैं, वहीं बुराई एवं बुरों को भी उठाने में उतने ही सक्षम हैं। जहां अन्य देशभक्ति के गीत अत्यंत गंभीर हैं, वहीं यह गीत उल्हास एवं व्यंग से भरा है। इसे सुनकर हम विचार करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

इस गीत को उदित नारायण ने गाया है, इसके बोल जावेद अख्तर ने लिखे हैं तथा इसे संगीतबद्ध किया है जतिन-ललित ने। इस चित्रपट में जूही चावला एवं शाहरुख़ खान ने मुख्य भूमिका निभाई है।

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६. मेरे देश की धरती – उपकार (१९६७)  

भारत एक कृषी प्रधान देश रहा है। इसका सामाजिक ताना-बाना भी कृषि उद्योग के चारों ओर ही केन्द्रित रहा है। यह गीत इसी भावना से ओतप्रोत है। इसमें किसानों एवं सैनिकों की गौरवगाथा गाई गयी है जो उस काल में देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक थे।

इस गीत को गुलशन बावरा ने लिखा है, महेंद्र कपूर ने सुर प्रदान किये हैं तथा कल्यानजी-आनंदजी ने संगीतबद्ध किया। इस चित्रपट में आशा पारेख एवं मनोज कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई है। इस चित्रपट के निर्माता एवं निर्देशक स्वयं मनोज कुमार हैं।

७. आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ – जागृति (१९५४)

यह नन्हे-मुन्हे बालक-बालिकाओं का गीत है जिसके संगीत पर हम में से अनेकों ने विद्यालयों के उत्सवों में नृत्य किया होगा तथा इस गीत को गया होगा। अतः यह एक अत्यंत विशेष गीत है। यह एक प्रकार से यात्रा गीत भी है। एक यात्री होने के कारण मेरी भी अभिलाषा है कि किसी दिन मैं भी अपने भारत देश के गौरव का उल्लेख करता एक गीत लिखूं।

१९५४ में निर्मित चित्रपट, जागृति में अभि भट्टाचार्य, प्रणोती घोष, बिपिन गुप्ता एवं रतन कुमार ने मुख्य भूमिका निभायी है तथा इसका निर्देशन सत्येन बोसे ने किया है। इस गीत के बोल लिखे हैं, कवि प्रदीप ने, संगीतबद्ध किया है हेमंत कुमार ने तथा गाया है स्वयं कवि प्रदीप ने।

८. नन्हा मुन्ना राही हूँ – सन ऑफ़ इंडिया (१९६२)

यह भी बालपन का एक गीत है जिसे हम सब ने शालाओं व विद्यालयों में गाया होगा तथा गाते समय स्वयं एक सैनिक बनकर देशसेवा करने के स्वप्न भी देखे होंगे। समय के साथ हम बड़े हुए तथा हमारी प्राथमिकताएँ भी परिवर्तित होती गयीं। किन्तु यह गीत हमें सदा उसी निष्कपट बालपन के स्वप्न का स्मरण कराता रहता है।

इस गीत की गायिका शान्ति माथुर है।

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९. ऐ वतन तेरे लिए – कर्मा (१९८६)

मेरे बालपन का एक अन्य गीत जो अब भी रोंगटे खड़े कर देता है।

चित्रपट कर्मा के लोकप्रिय गीतों में से एक, इस गीत को स्वर प्रदान किया है मोहम्मद अजीज एवं कविता कृष्णमूर्ति ने। इस गीत को स्वरबद्ध किया है लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने। इस चित्रपट के निर्माता-निर्देशक सुभाष घई हैं।

१०. तेरी मिट्टी – केसरी (२०१९)

यह भावपूर्ण गीत देशभक्ति गीतों की सूची में नवीन अनुवृद्धि है। इस गीत के शब्द अत्यंत भावपूर्ण हैं। इसका सादरीकरण भी अत्यंत सुन्दर है। इसमें निहित पंजाबी भावना मुझे उस धरती का स्मरण करती है जिसने हमारे देश को अनेकों पराक्रमी एवं साहसी सुपुत्र प्रदान किये हैं।

बी प्राक द्वारा गाये इस गीत को संगीत बद्ध किया आर्को ने तथा इसके बोल मुन्तशिर ने लिखे हैं। अक्षय कुमार एवं परिणिति चोप्रा द्वारा अभिनीत इस चित्रपट को अनुराग सिंग ने निर्देशित किया है।

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११. संदेसे आते हैं – बॉर्डर (१९९७)

हमारे देश की सीमाओं में सेवारत हमारे बहादुर सैनिक देश की सीमाओं के रक्षण को सर्वोपरि ध्येय मानते हैं। अपने परिवारजनों एवं बंधू-बांधवों से दूर रहते हुए वे देश की सेवा करते हैं। हृदय के एक कोने में अपने घर एवं गाँव की स्मृति संजोये वे आतुरता से उनके लिखे पत्रों की प्रतीक्षा करते हैं जो एक समय उन्हें अपने परिवारजनों से जोड़ने का एकमात्र साधन हुआ करता था। यह गीत हमें उनके सर्वोच्च बलिदान की अनुभूति कराता है तथा उन्हें सम्मान देने व उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के हमारे कर्त्तव्य का आभास कराता है।

सोनू निगम एवं रूप कुमार राठोर द्वारा गाये तथा जावेद अख्तर द्वारा रचित इस गीत को स्वरबद्ध किया है अनु मालिक ने। इस चित्रपट का निर्देशन ज्योति प्रकाश दत्ता ने किया है।

१२. मेरा रंग दे बसंती चोला–द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह (२००२)

यह गीत हमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम के युग में ले जाता है जब भगत सिंह जैसे अनेक साहसी स्वतंत्रता सेनानियों ने हमारे देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। अपने देश को स्वतन्त्र देखने की इन युवकों की तीव्र इच्छा, लगन एवं दृड़ निश्चय इस गीत में स्पष्ट झलकते हैं। यह गीत हमें यह चिंतन करने के लिए बाध्य कर देता है कि क्या हम हमारे इन साहसी वीरों के बलिदानों के साथ न्याय कर रहे हैं? विशेषतः स्वतंत्रता के पश्चात जन्मे हम भारतवासियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सूचना प्रस्तुत करता है कि जिस स्वतन्त्र भारत में हम स्वच्छंद विचरण करते हैं वह स्वतंत्रता अनमोल है।

समीर द्वारा रचित एवं ए. आर. रहमान द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को सोनू निगम एवं मनमोहन वारिस ने सुमधुर स्वर प्रदान किया है। इस चित्रपट को निर्देशित किया है, राजकुमार संतोषी ने।

१३. देस मेरे देस – द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह (२००२)

स्वतन्त्रतापूर्व युग का, देशप्रेम से ओतप्रोत एक अन्य गीत।

इसे सुखविंदर सिंह एवं ए. आर. रहमान ने गाया है।

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१४. ऐ मेरे प्यारे वतन – काबुलीवाला (१९६१)

महान गायक मन्ना डे द्वारा गाये गए इस गीत को प्रेम धवन ने लिखे है।

चिरकालिक देशभक्ति गीत

१. मिले सुर मेरा तुम्हारा – भीमसेन जोशी

यह संगीत की एक ऐसी पराकाष्ठा है जो भारत के सभी क्षेत्रों तथा भाषाओं को एक गीत में पिरो देता है। यह मेरे युग का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है। कदाचित अब भी है।

यह दर्शाता है कि कैसे अनेक धाराएं एक होकर भारत का निर्माण करती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे संगीत के अनेक स्वर मिलकर एक गीत की रचना करते हैं। इस गीत में संगीत, खेलजगत तथा चित्रपटों से सम्बंधित महान दिग्गजों ने भाग लिया है। कुछ दशक पश्चात इसी गीत की नकल करते हुए इसकी पुनर्रचना की गयी किन्तु वह मूल गीत की तुलना में स्वयं को सिद्ध नहीं कर पायी।

२. ऐ मेरे वतन के लोगों – लता मंगेशकर

इस गीत ने हम में से अनेकों को रुलाया है। यह हमें उन सभी वीरों का स्मरण कराता है जिन्होंने हमारे देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए,  हमारी एवं हमारे परिवाजनों की सुरक्षा करने के लिए अपने परिवारजनों को छोड़ दिया। यह एक अत्यंत ही भावुक देशभक्ति गीत है।

एक सामान्य ज्ञान – प्रारंभ में यह गीत आशा भोंसले गाने वाली थीं। किन्तु अंतिम समय में इसमें परिवर्तन करते हुए इस गीत को लता मंगेशकर ने गाया। यह एक अमर व चिरस्थाई गीत है।

कवि प्रदीप द्वारा रचित तथा सी. रामचंद्र द्वारा संगीतबद्ध यह गीत उन भारतीय सैनिकों को एक श्रद्धांजलि है जिन्होंने १९६२ के भारत-चीन युद्ध में अपने प्राण गँवाए थे।

इस गीत को सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रख्यात देशभक्ति गीतों में से एक माना जाता है जिसे हमारे राष्ट्रगान “जन गण मन” , राष्ट्रगीत “वन्दे मातरम” तथा “सारे जहां से अच्छा” के समान मान प्राप्त है।

इस गीत की निम्न प्रस्तुति में सेक्सोफोन नामक संगीत वाद्य सेना का एक जवान बजा रहा है। गीत के इस रूप को सुनकर आप का आनंद दुगुना हो जाएगा।

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३. माँ तुझे सलाम –  ए. आर. रहमान

हम अपने भारत देश को माँ का मान देते हैं। इसे भारत माता कहते हैं। यह गीत उसी भारत माता के सम्मान में झुकता है।

४. कदम कदम बढाए जा

‘कदम कदम बढाए जा, कदम कदम बढाए जा, खुशी के गीत गाये जा’। यह प्रेरणादायी गीत वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस के भारतीय राष्ट्रीय सेना का सैन्य-दल कदम-ताल (regimental quick march) गीत है। इस गीत की रचना पंडित वंशीधर शुक्ल ने की थी तथा इसे राम सिंह ठकुरी ने सुरबद्ध किया था।

द्वितीय युद्ध के पश्चात ‘राजद्रोह’ के आरोप में यह गीत भारत में निषिद्ध कर दिया गया था। अगस्त १९४७ में इस पर लगे निषेधाज्ञा को उठा लिया गया। तब से यह भारत में एक देशभक्ति का गीत बन गया है। वर्त्तमान में यह भारतीय सेना का सैन्य कदम-ताल गीत बन गया है।

५. वन्दे मातरम – संगीता कट्टी कुलकर्णी द्वारा गाया सम्पूर्ण संस्करण

मातृभूमि को समर्पित, वन्दे मातरम का सम्पूर्ण संस्करण सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका संगीता कट्टी कुलकर्णी ने गाया है। इस गीत की रचना बंकिम चन्द्र चटर्जी ने की है।

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६. सारे जहां से अच्छा

लता मंगेशकर द्वारा गाया गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा’ कवि मोहम्मद इकबाल द्वारा रचा तथा पंडित रवि शंकर द्वारा संगीतबद्ध किया गया है।

७. जन गण मन (सम्पूर्ण गीत)

हमारे राष्ट्रगान के विषय में सभी जानते हैं। इसके विषय में मैं कुछ कहूं, यह ‘छोटा मुंह बड़ी बात’ होगी।

भारतीयता का उत्सव मनाता यह एक संगीतमय विडियो है। इसका संगीत सुखदा भावे-दबके ने दिया है। भक्ति आठवले-भावे, अनुराधा गंगल-केलकर, सुधांशु घारपुरे तथा निखिल निजसुरे ने इस गीत को गाया है।

८. बंगाली भाषा में जन गण मन – रविन्द्र नाथ ठाकुर का सम्पूर्ण गीत

रविन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित जन गण मन के सम्पूर्ण गीत में पांच अंतरे हैं। यहाँ इस गान को स्वागतलक्ष्मी दासगुप्ता ने अपने स्वर से चार चाँद लगाए हैं। बंगाली भाषा में लिखा गया यह गान वास्तव में इस गीत का मूल स्वरूप है। इसे सुनकर आपको अवश्य आनंद आएगा।

यहाँ मैंने अपनी स्मृति से व व्यक्तिगत चुनाव के आधार पर २२ उत्कृष्ट भारत के देशभक्ति गीत आपके लिए चुने हैं। यदि आप इस सूची में कुछ अन्य देशभक्ति के गीत सम्मिलित करना चाहते हैं तो टिपण्णी खंड में उनका उल्लेख अवश्य करें। यहाँ मैंने अधिकांशतः हिन्दी भाषा में लिखे गीत चुने हैं। आप अन्य भारतीय भाषाओं में रचित देशभक्ति के गीतों का भी सुझाव दे सकते हैं।

कारगिल के समीप द्रास में लहराता भारत का ध्वज
कारगिल के समीप द्रास में लहराता भारत का ध्वज

इनमें से आपका सर्वाधिक प्रिय कौन भारत के देशभक्ति गीत है?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्राचीन भारत में यात्राएं कैसे करते थे लोग? -सुमेधा वर्मा ओझा https://inditales.com/hindi/prachin-bharat-mein-yatrayen-varta/ https://inditales.com/hindi/prachin-bharat-mein-yatrayen-varta/#comments Wed, 14 Jul 2021 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2348

अनुराधा: नमस्ते। आज हमसे चर्चा करने के लिए हमारे साथ है, सुश्री सुमेधा वर्मा ओझा जी । सुमेधा जी एक भूतपूर्व भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी हैं। अतः उन्हें अर्थव्यवस्था, कर इत्यादि में तो निपुणता प्राप्त है ही, साथ ही भारतीय साहित्य में भी उनकी विशेष रूचि है। उन्होंने वाल्मीकि रामायण का अनुवाद किया है। ‘उर्नभी’ […]

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अनुराधा: नमस्ते। आज हमसे चर्चा करने के लिए हमारे साथ है, सुश्री सुमेधा वर्मा ओझा जी । सुमेधा जी एक भूतपूर्व भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी हैं। अतः उन्हें अर्थव्यवस्था, कर इत्यादि में तो निपुणता प्राप्त है ही, साथ ही भारतीय साहित्य में भी उनकी विशेष रूचि है। उन्होंने वाल्मीकि रामायण का अनुवाद किया है। ‘उर्नभी’ नामक एक रोमांचकारी जासूसी उपस्यास भी लिखा है जो मौर्य काल पर आधारित है। यह उपन्यास हमें उस काल का स्मरण करता है जब आचार्य चाणक्य मौर्य साम्राज्य की स्थापना कर रहे थे। मुझे यह उपन्यास इतना भाया है कि मैं इसके आगामी संस्करण की आतुरता से प्रतीक्षा कर रही हूँ। हमारी आज की चर्चा भी कुछ इसी विषय से जुड़ी हुई है। हमारी चर्चा का विषय है- प्राचीन भारत में यात्राएं। आज हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि प्राचीन काल में भारत में यात्राएं किस प्रकार से की जाती थीं।

प्राचीन भारत में यात्राएं

अनुराधा: सुमेधाजी, प्राचीन इतिहास में आपकी विशेष रूचि है, वहीं मेरी रूचि भ्रमण करने में है। स्पष्ट है कि हमारे मार्गों का संगम वहां होता है जहां इन दोनों विषयों का संगम होता है। अर्थात् जब हम प्राचीन भारत में भ्रमण के विषय में चर्चा करते हैं। प्राचीन भारत में लोग किस प्रकार यात्राएं करते थे? वर्तमान में हमारे पास एक सम्पूर्ण पर्यटन एवं आतिथ्य उद्योग है जो अवकाश एवं आनंद यात्राओं पर आधारित है। अनेक यात्री अपने व्यवसाय एवं व्यापार संबंधी कारणों से भी यात्राएं करते हैं। कुछ अन्य कारणों से यात्राएं करते हैं। किन्तु सम्पूर्ण पर्यटन एवं आतिथ्य उद्योग अंततः अवकाश एवं आनंद यात्राओं पर ही फलता-फूलता है।

मैं यह जानना चाहती हूँ कि प्राचीन भारत में लोग किन प्रमुख कारणों से यात्राएं करते थे?

सुमेधा: अनुराधाजी, मुझे चर्चा के इस सत्र में आमंत्रित करने के लिए आपको ह्रदय पूर्वक धन्यवाद। मैं विश्वास दिलाती हूँ कि यह चर्चा अत्यंत रोचक रहेगी। आपने पूछा है कि प्राचीन भारत में लोग किन प्रमुख कारणों से यात्राएं करते थे?  मानवों ने यात्राएं आरम्भ की क्योंकि अस्तित्व के लिए यात्रा को सहचरी बनाना आवश्यक था। स्थानान्तर्गमन प्राचीन काल में यात्रा करने का प्रथम कारण था। लोग भिन्न भिन्न स्थानों में स्थानांतरण करते थे ताकि उन्हें वास करने के लिए श्रेष्ठतर स्थान प्राप्त हो सके अथवा श्रेष्ठतर संसाधनों की प्राप्ति हो सके। प्रश्न यह उठता है कि जब मानवजाति ने स्वयं को स्थापित कर लिया, तब उन्हें यात्रा करने की क्या आवश्यकता प्रतीत हुई? इसका प्रथम कारण था, व्यापार। आरम्भ में व्यापार केवल आसपास के लोगों से किया जाता था। कालान्तर में वही व्यापार दूर-सुदूर स्थित लोगों के साथ भी किया जाने लगा। समय के साथ परिवहन के साधनों, सड़क तंत्र तथा आश्रय स्थलों इत्यादि के आगमन से सम्पूर्ण प्रणाली अत्यंत जटिल होती गयी।

यात्रा करने का एक अन्य कारण था, अतिक्रमण, युद्ध, प्रभुता स्थापित करने जैसी मूल मानवी प्रकृति। प्राचीन काल में यह भावना अधिक प्रबल होती थी। अतः नवीन मार्गों के तंत्र स्थापित किया जाते थे ताकि सेना के मार्ग में कोई रूकावट ना आये, अन्य प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने जा रहे सैनिकों का मार्ग प्रशस्त हो अथवा नवीन संसाधनों को प्राप्त करने के मार्ग खुल सकें। कभी उनके प्रयोजन हितकारी होते थे तो कभी उसके विपरीत। किन्तु सत्य यही है कि इसी प्रकार विशाल देश एवं राष्ट्रीय प्रणालियाँ अस्तित्व में आयीं।

तीर्थ यात्राएं

प्राचीन काल में यात्राएं करने का एक अन्य कारण था, तीर्थ यात्राएं। लोग भिन्न भिन्न तीर्थ स्थलों के दर्शन करने हेतु यात्राएं करते थे। तीर्थ यात्राओं की पृष्ठभूमि में अत्यंत जटिल तथा बहुआयामी मान्यताएं होती हैं। एक ओर तीर्थस्थल धार्मिक मान्यताओं के धरातल पर अत्यंत महत्वपूर्ण होते थे। दूसरी ओर लोग ज्ञान अर्जित करने की आकांशा से भी इस स्थलों की यात्राएं करते थे। लोग एक आश्रम से दूसरे आश्रम तक, एक ऋषि से दूसरे ऋषि तक भ्रमण करते रहते थे ताकि ज्ञान अर्जित कर सकें, साथ ही अपने ज्ञान की पुष्टि कर सकें अथवा स्वयं द्वारा रचित ग्रंथों पर समकक्षों के विचार जान सकें। ये आश्रम अधिकांशतः अत्यंत दुर्गम स्थानों पर होते थे। नगरों की चहल-पहल से दूर, आश्रम बहुधा वनों में अथवा किसी नदी के तट पर स्थित होते थे।

मेरे उपरोक्त उल्लेख का यह तात्पर्य नहीं है कि प्राचीन भारत एक अत्यंत गंभीर स्थान था। प्राचीन भारत में आनंद एवं मनोरंजन का भी भरपूर समावेश था। अतः लोग इस उद्देश्य से भी यात्राएं करते थे, जैसे नाट्य मंडली इत्यादि। नाट्य मंडलियों पर अनेक रोचक कथाएं प्रचलित हैं, जैसे, किस प्रकार लोग उनके द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सन्देश पहुँचाया करते थे  अथवा खोये हुए व्यक्तियों को ढूँढने का प्रयास करते थे। उस समय अवकाश एवं आनंद पर आधारित यात्राओं की संख्या नगण्य होती थी किन्तु अभिलेखों में ऐसी यात्राओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है। यदि आप समुद्री यात्राओं को आनंद यात्राओं के अंतर्गत मानेंगे तो अर्थशास्त्र में उनका प्राधान्यता से उल्लेख किया गया है।

अनुराधा: एक आश्रम से दूसरे आश्रम तक, इस उक्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो वे सामान्य जीवन से मुक्ति पाने के लिए यात्राएं करते थे।

सुमेधा: मेरा अभिप्राय अध्ययन सम्मेलनों एवं परिसंवादों से है। उस काल में प्रभावशाली व गणमान्य व्यक्ति इन विद्वानों एवं सिद्धपुरुषों को संरक्षण देते थे। दृष्टांत के लिए, राजा जनक एक अत्यंत प्रभावशाली व विद्वान राजा थे। उनके द्वारा आयोजित शास्त्रार्थ अत्यंत प्रसिद्ध थे। प्राचीन काल में विद्यार्थी गुरुकुलों एवं विश्वविद्यालयों में जाने के लिए भी यात्राएं करते थे। अतः ज्ञान अर्जन हेतु अनेक यात्राएं की जाती थीं। किन्तु, व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यात्राओं का सबसे प्रमुख कारण व्यापार ही था। प्राचीन काल में व्यापार एवं व्यापार मार्ग एक प्रकार से राज-निकाय के धमनी एवं शिराएँ थे।

नाट्य मंडलियाँ

अनुराधा: आपने अभी नाट्य मंडलियों द्वारा की जाने वाली यात्राओं का उल्लेख किया। इसे संयोग ही कहिये कि मैंने अपने संस्करण ‘१० सर्वोत्तम व्यवसाय जो देश विदेश घुमाएं’ में प्रदर्शन कला को भी एक यात्रा संबंधी व्यवसाय के रूप में सम्मिलित किया है। प्रदर्शन कलाकारों को विश्व के दूर-सुदूर भागों में यात्रा करने का संयोग प्राप्त होता है। वे विश्व भर में यात्राएं कर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तथा अपनी संस्कृति के संवाहक बनते हैं। इस कल्पना मात्र से रोमांच होता है कि हम २००० वर्षों प्राचीन विरासत को आगे ले जा रहे हैं।

सुमेधा: नाट्य कलाकार, कलाबाज एवं सभी प्रकार के प्रदर्शन कलाकार ना केवल शहरी क्षेत्रों में यात्राएं करते थे, अपितु लघु अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में भी जाते थे।

अनुराधा: प्राचीन भारत में लोग कैसे यात्राएं करते थे, यह जानकारी आपको कहाँ से प्राप्त हुई? ऐसे कौन कौन से साहित्य हैं जिनमें ऐसी जानकारी उपलब्ध है?

सुमेधा: अच्छा प्रश्न है। इस जानकारी के प्रमुख स्त्रोतों में से एक है पुरातात्विक अवशेष। प्राचीन भारत के व्यापार मार्गों पर अनेक लोगों ने गहन शोधकार्य किया है। जिन वस्तुओं का व्यापार किया जाता था, उनके अवशेषों का उन्होंने अध्ययन किया है। जिन मार्गों को व्यापार मार्ग में परिवर्तित किया था, उनका विश्लेषण किया है। अपने शोधकार्यों के आधार पर उन्होंने प्राचीन व्यापार मार्गों के जाल की एक संकल्पना प्रस्तुत की है। उसमें उन्होंने उस काल के नगरों एवं बस्तियों को दर्शाया है तथा वस्तु-विनिमय अर्थात् आदान-प्रदान की गयी वस्तुओं का भी उल्लेख किया है।

जानकारी का एक प्रमुख स्त्रोत मुद्रा शास्त्र भी है। विभिन्न पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त मुद्राओं का शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन किया है। उनसे भी प्राचीन काल में प्रचलित यात्राओं एवं व्यापारों से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं।

अभिलेख/शिलालेख

जानकारी का तीसरा महत्वपूर्ण स्त्रोत है, अभिलेख अथवा शिलालेख। इसका एक उदहारण देना चाहती हूँ। एक समय मकरध्वज योगी नामक एक प्रसिद्ध धार्मिक एवं अध्यात्मिक गुरु थे। उनका जीवन-काल प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में था। उनके साथ यात्रियों एवं अनुयायियों का एक विशाल समूह था जो यात्राओं में उनके साथ चलता था। वे जहां जहां जाते, अपने एवं अपनी यात्रा के विषय में अभिलेख अवश्य छोड़ जाते थे। आज वही अभिलेख हमें भारत के कोने कोने एवं सीमावर्ती देशों के संग्रहालयों में देखने मिलते हैं। उनके अनुयायियों में अनेक स्त्रियाँ भी थीं जो उनके साथ आध्यात्मिक यात्राओं में भाग लेती थीं।

रामगढ गुफाओं से प्राप्त एक शिलालेख अत्यंत रोचक है क्योंकि लोगों ने दो प्रकार से इसकी व्याख्या की है। कुछ लोगों का मानना है कि वह विश्व का सर्वप्रथम प्रेम शिलालेख है। वहीं अन्य कुछ शोधकर्ताओं ने उसका विवेचन स्त्री यात्रियों के लिए विश्रामगृह के रूप में किया है। छत्तीसगढ़ के जोगीमारा गुफाओं से प्राप्त शिलालेख भी ऐसे ही हैं। प्रारंभ में इनका विवेचन एक नाटकशाला के रूप में किया गया था किन्तु नवयुगीन विवेचनकर्ता इसे यात्रियों का विश्रामगृह मानते हैं। इन अभिलेखों से प्राप्त सूक्ष्मतम जानकारी भी हमें प्राचीन काल के जनजीवन में झांकने का अवसर प्रदान करती है। हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हम प्राचीन काल के जनमानस को जानते हैं। एक इतिहासकार के लिए यह एक अत्यंत आनंद की भावना है।

हमें इस विषय में जानकारियाँ मुख्यतः संस्कृत, प्राकृत, तमिल इत्यादि भाषाओं में रचित रचनाओं से प्राप्त होती हैं। हमारे तीन प्रमुख महाकाव्य एवं महारचनाएं रामायण, महाभारत एवं बड़कहा या बडकथा हैं। राजा सातवाहन के मंत्री ‘गुणाढ्य’ द्वारा रचित ‘बड़कहा’ को संस्कृत में बृहत्कथा कहा जाता है। ईसा पूर्व ४९५ में   रची गयी बड़कहा में उस काल के समाज पर आधारित कथाएं हैं। बड़कहा से ही अधिकतर जातक कथाएं भी ली गयी हैं। अनेक जातक कथाएं जैन मुनियों एवं बौद्ध भिक्षुओं ने भी लिखी हैं। अतः जातक कथाएं भी हमारे लिए जानकारियों का महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं।

परिवहन के साधन

अनुराधा:  मेरी दूसरी जिज्ञासा परिवहन के साधनों के विषय में है। आधुनिक काल के द्रुतमार्गों एवं महामार्गों के समान क्या प्राचीन काल में भी परिवहन के लिए उत्तम मार्ग थे? वे किस प्रकार के वाहनों का प्रयोग करते थे? वे किस प्रकार यात्राएं करते थे? मुझे उस काल में उपलब्ध, यात्रा के मूलभूत ढाँचे के विषय में जानने की उत्सुकता है।

सुमेधा: परिवहन का आरम्भ सडकों से नहीं हुआ था। सड़कें कालांतर में अस्तित्व में आयीं। हमारे पास जल सदैव से था। अतः परिवहन के साधन के रूप में सर्वप्रथम जलमार्गों का आरम्भ हुआ क्योंकि मानव ने नौकाओं का आविष्कार अत्यंत आरम्भ में कर लिया था। सिन्धु घाटी सभ्यता के कुछ अभिलेखों में नौकाओं के प्रकार एवं उनके निर्माण कार्य के विषय में बताया गया है। जहाज़ों, नौका संचालकों, संचालन उपकरणों इत्यादि जैसे मूलभूत आवश्यक तत्वों से लैस जल परिवहन प्रणाली के विषय में ना केवल ऋग्वेद में लिखा है, अपितु जातक कथाओं में भी इनका उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद में ना केवल १०० पतवारों से युक्त पोतों के विषय में लिखा गया है, अपितु इसके विभिन्न तत्वों के सटीक तकनीकी नामों का भी उल्लेख है। जैसे, पतवार को अर्त, नाविक को अरित्री तथा छोटे जहाज़ों के बेड़े को अद्युम्न कहा गया है। अतः जल मार्गों पर नौचालन से सम्बंधित अनेक तकनीकी शब्दों का उल्लेख प्राप्त होता है। यहाँ तक कि अंग्रेजी के ‘navigation’ शब्द की व्यत्पत्ति संस्कृत शब्द, नाविक से ही हुई है।

जल मार्ग  

अनुराधा: मैं सदैव यह जानने के लिए उत्सुक रहती थी कि आदि शंकराचार्य ने २४ वर्षों में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किस प्रकार किया था। मेरे अनुमान से केरल के कलदी से लेकर मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर तक, भारत के कोने कोने में उन्होंने जल मार्गों द्वारा ही यात्रा की होगी।

सुमेधा: जी हाँ। मैं आपको थोलकपियार के विषय में बताना चाहती हूँ जो आज से २३०० वर्ष पूर्व कांचीपुरम में रहते थे। महान संतों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होंने सालाटुरा तक की यात्रा की थी जो महान संस्कृत व्याकरण-विद् पाणिनि की जन्मस्थली भी है। सर्वप्रथम उन्होंने जलमार्गों का प्रयोग किया। तत्पश्चात उन्होंने सड़क मार्गों से यात्रा की। उन्होंने सर्वप्रथम दक्षिण पथ का अनुगमन किया, तत्पश्चात उत्तर पथ का पालन करते हुए उत्तरागमन किया।

इस मानचित्र में अनेक नदियाँ देख सकते हैं। ये सभी नदियाँ नौगम्य हैं, अर्थात इन सभी नदियों पर जल परिवहन किया जा सकता है। सभी सड़क मार्गों पर जोड़-मार्ग हैं जो इन सड़क मार्गों को पूर्वी व पश्चिमी तट पर स्थित बंदरगाहों से जोड़ती हैं।

प्राचीन काल में वे उत्तम विहार नौकाओं का भी निर्माण करते थे। अर्थशास्त्र में भी उनके नौका विहारों के आनंद के विषय में उल्लेख है। बहुधा यह राजाओं द्वारा उपहार स्वरूप उन्हें दिया जाता था जो सौंपे गए कार्य उत्तम रीति से पूर्ण करते थे।

प्राचीन भारत में यात्रायें
प्राचीन भारत में यात्रायें

यात्रा के साधन

अनुराधा: वे सड़क मार्गों पर किस प्रकार के वाहनों का प्रयोग करते थे?

सुमेधा: निसंदेह, अपने दो पैर। इनके अतिरिक्त वे अश्वों, बैलों, ऊंटों जैसे पशुओं का भी प्रयोग करते थे। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि अत्यधिक कठिन एवं पथरीले मार्गों पर हलके बोझे ढोने के लिए वे बकरियों का भी प्रयोग करते थे। यद्यपि उनका प्रयोग मार्गों के छोटे भागों पर ही किया जाता था। सिन्धु घाटी सभ्यता में बैलगाड़ियां का प्रयोग सामान्य रूप से किया जाता था। इनके अतिरिक्त, राजसी सवारियों के लिए तथा युद्ध इत्यादि में रथों का प्रयोग किया जाता था। किन्तु व्यापारिक गतिविधियों के लिए पशुओं एवं बैलगाड़ियों का प्रयोग ही प्रचलित था।

हमें भव्य पालकियों एवं डोलियों को नहीं भूलना चाहिए। रेशमी वस्त्रों एवं अन्य अलंकरणों से सज्ज पालकियों को कहार अपने कन्धों पर उठाकर चलते थे। इनका प्रयोग संपन्न घराने के पुरुष एवं स्त्रियाँ ही करती थीं। वह एक प्रकार से सम्पन्नता का प्रदर्शन करने का एक मार्ग था। किन्तु लम्बी दूरी के लिए वे भी बैलगाड़ियों का ही प्रयोग करते थे तथा बड़े काफिलों के रूप में सहयात्रा करते थे।

विश्राम गृह

अनुराधा: आज हम जहां भी यात्रा करते हैं, वहां विविध सुविधाओं से लैस विश्राम गृहों, होटलों, रिसॉर्ट्स इत्यादि की भरमार है। प्राचीन काल में एक यात्रा संपन्न करने में अनेक दिवस व्यतीत हो जाते थे। वे मार्ग में तथा अपने गंतव्य में कहाँ विश्राम करते थे?

सुमेधा: प्राचीन काल में भूतल पर सड़क मार्गों द्वारा यात्राएं की जाती थीं। सिन्धु घाटी सभ्यता, वैदिक सभ्यता तथा अन्य ऐतिहासिक समयावधियाँ अपने विशेष सड़क मार्गों के लिए प्रसिद्ध थीं। ऋग्वेद के विभिन्न सन्दर्भों से यह ज्ञात होता है कि बैलगाड़ियों के लिए विशेष रूप से उठे हुए मार्ग बनाए जाते थे। उनके दोनों ओर वृक्ष लगाए जाते थे। महान व्याकरण विद् पाणिनि ने भी लोगों के सामाजिक जीवन पर अनेक टिप्पणियाँ की हैं।  जैसे, विशेष प्रयोग के लिए निर्मित मार्गों के विशेष नाम भी रखे जाते थे। बकरियों के मार्ग को अजपथिका कहा जाता था। उसी प्रकार उन्होंने देवपथिका, हंसपथिका, करिपथ, राजपथ, संखपथ इत्यादि के विषय में भी उल्लेख किया है। अतः, उस काल में सड़क मार्गों का निर्माण एवं मरम्मत का कार्य उत्तम रीति से तथा सजगता से किया जाता था। मार्गों के निर्माण एवं दुरुस्ती के लिए विशेष रूप से अधिकारियों एवं कामगारों के संगठनों की तैनाती की जाती थी।

रामायण – एक उदहारण

मैं रामायण के एक प्रसंग की ओर आपका ध्यान खींचना चाहती हूँ। श्री राम के १४ वर्षों के लिए वनवास प्रस्थान के पश्चात भरत ननिहाल से अयोध्या वापिस लौटे। राम के वनवास की सूचना प्राप्त होते ही वे अत्यंत विचलित हो गए तथा उन्हें वापिस अयोध्या लेकर आने के लिए सम्पूर्ण सेना साथ वन की ओर चले पड़े। अयोध्या से वन तक सम्पूर्ण सेना को लेकर जाने के लिए उन्होंने उत्तम सड़कों का निर्माण करवाया। उन्होंने कामगारों के विशाल समूह को इस कार्य में नियुक्त किया था। वाल्मीकि रामायण में इन सडकों एवं उनके निर्माण का विस्तृत वर्णन किया गया है।

इन सडकों के निर्माण में उनकी सहायता करने के लिए विशेषज्ञों की टोली भी थी, जैसे स्थल निरीक्षक, सर्वेक्षक, वास्तुविद, अभियंता, मिस्त्री, बढ़ई, पौधे लगाने के लिए माली इत्यादि।

प्राचीन भारत में यात्रा सहायक – पथप्रदर्शक

उनके साथ एक पथप्रदर्शक अथवा मार्गदर्शक भी सदैव रहता था। उसे सम्पूर्ण क्षेत्र की पूर्व जानकारी होती थी तथा वह अज्ञात क्षेत्रों में यात्रियों का मार्गदर्शन करता था। अन्यथा सघन वनीय प्रदेशों में अज्ञात परिस्थितियाँ संकट में डाल सकती थीं। मार्गदर्शक का कार्य बहुधा यात्रा समूह का मुखिया करता था जिसे सात्वाहक कहा जाता था। सात्वाहक अपने कार्य में अत्यंत निपुण होता था। आप जब भी वाल्मीकि रामायण पढ़ें तो इस प्रसंग को ध्यानपूर्वक पढ़ें। प्राचीन काल में कैसे सडकों का निर्माण किया जाता था तथा कैसे विशाल सेनायें इन मार्गों पर चलती थीं, इनके विषय में आपको विस्तृत जानकारी प्राप्त होगी।

अतिथिगृह

मार्गों के किनारे सराय एवं अतिथिगृह होते थे। इन अतिथिगृहों के विषय में ऋग्वेद, अर्थशास्त्र एवं जातक कथाओं में भी उल्लेख प्राप्त होता है। पाणिनि ने भी इनके विषय में उल्लेख किया है। वेदों में भी इन अतिथिगृहों के विषय में लिखा गया है। अथर्व वेद में अतिथिगृहों को अवसत कहा गया है तो ऋग्वेद में उन्हें प्रपत अथवा प्रथमा कहा गया है। इतिहास में मौर्यवंशियों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है जिन्होंने प्रवासियों की यात्राओं को सुखकर बनाने के लिए बड़ी संख्या में अतिथिगृहों का निर्माण करवाया था। अतिथिगृहों में खाद्य एवं पेय पदार्थों की उत्तम सुविधाएं होती थीं। इन सब के रखरखाव का उत्तरदायित्व राज्य पर ही होता था।

इनके अतिरिक्त आश्रम होते थे जो यात्रियों का स्वागत सत्कार करने के लिए तत्पर रहते थे। पौराणिक कथाओं में हमने ऋषि-मुनियों के विषय में पढ़ा है जो यात्राएं करते थे तथा मार्ग में अन्य ऋषियों के आश्रम में विश्राम करते थे। आप सब को शकुंतला की कथा तो स्मरण ही होगी। यात्रा करते दुर्वासा ऋषि विश्राम की इच्छा से ऋषि कणव के आश्रम में पहुंचे तथा शकुंतला द्वारा उपेक्षित होने पर उसे श्राप दे दिया था।

अतिथि देवो भवः, इस मूलमंत्र का पालन करने वाले प्राचीन भारत के प्रत्येक व्यक्ति का निवासस्थान किसी भी यात्री के लिए अतिथिगृह ही होता था। किसी विश्रामगृह की अनुपस्थिति में गांववासी ही परिवार के सदस्य की भांति यात्रियों की सेवा करते थे। अतिथि सत्कार के चलते किसी भी यात्री को रात्रि में आसरा पाने में कठिनाई नहीं होती थी।

सहप्रवास

प्राचीन काल में लोग अनेक बैलगाड़ियों के समूह में एक साथ सहप्रवास करते थे। अतिथिगृह के अभाव में खुले में डेरा डाल देते थे। वे अपने बैलगाड़ियों में अथवा वृक्षों के नीचे ही सो जाते थे। किन्तु यह सुरक्षित व्यवस्था नहीं थी। चोर-डाकुओं अथवा जंगली पशुओं का संकट सदैव बना रहता था।

अनुराधा: मेरा अगला प्रश्न है कि क्या प्राचीन काल में स्त्रियाँ भी यात्राएं करती थीं?

सुमेधा: जी हाँ। प्राचीन काल में स्त्रियाँ विभिन्न परिस्थितियों में यात्राएं करती थीं। अनेक व्यापारी अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ व्यापार-यात्रायें करते थे क्योंकि उनकी यात्राएं एक अथवा दो दिवसों की नहीं होती थीं। एक व्यापार संबंधी यात्रा सम्पूर्ण करने में अनेक दिवस व्यतीत हो जाते थे। इनके अतिरिक्त, प्राचीन काल में भी अनेक विदुषी स्त्रियाँ होती थीं जो ज्ञान अर्जन हेतु यात्राएं करती थीं। नाट्य मंडलियों में भी स्त्रियों का समावेश होता था जो नाट्य प्रदर्शन के लिए अपनी मंडलियों के साथ यात्राएं करती थीं।

प्राचीन भारत में एकल स्त्री यात्री

प्राचीन काल में स्त्रियों का एक ऐसा भी समूह था जो ज्ञान अर्जन के लिए एकल यात्राएं करता था। वे पूर्णतः स्वतन्त्र यात्रिक होती थीं। ऐसी ही एक यात्री थी, सुलभा। महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को प्राचीन काल की एक सन्यासिनी सुलभा के विषय में जानकारी दी थी जो योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेली ही पृथ्वी पर विचरण करती थी। मोक्षतत्व के जानकार, मिथिलापुरी के राजा जनक एवं सिद्धि प्राप्त सन्यासिनी सुलभा के मध्य हुए संवादों के रूप में भीष्म इस प्रसंग का सुन्दर वर्णन करते हैं। एक अन्य उदहारण है, ययाति पुत्री माधवी का, जिसने लम्बे समय के शोषित जीवनकाल के पश्चात स्वतन्त्र यात्री के रूप में तपोवन का मार्ग ग्रहण किया था। अतः प्राचीन काल में ऐसे अनेक उदहारण हैं जहां स्त्रियों ने आत्मबोध एवं ज्ञान अर्जन के लिए अकेले ही भूलोक की यात्राएं की थीं। तपोवन को आत्मसात किया था।

एकल स्त्री यात्रियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत गंभीर था। वे किसी स्थान विशेष से सम्बन्ध नहीं जोड़ती थीं तथा किसी स्थान पर एक रात्रि से अधिक ठहरती भी नहीं थीं। सर्व सामाजिक बंधनों से सम्बन्ध विच्छेद कर केवल ज्ञान एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए अग्रसर रहती थीं।

प्राचीन भारत की यात्रा पुस्तकें

अनुराधा: हमारे शास्त्रों में भी तीर्थ यात्राओं एवं तीर्थस्थलों के विषय में विस्तृत जानकारी दी गयी है। तीर्थ यात्राएं किस प्रकार की जानी चाहिए, इस विषय में भी लिखा गया है। इसी लिए यह देखा गया है कि हमारे अधिकतर तीर्थस्थल दूर-सुदूर के दुर्गम स्थानों  में होते हैं जहां तक पहुँचने के लिए साधक को विशेष जतन करने पड़ते हैं।

मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ कि प्राचीन भारत में की जाने वाले यात्राओं के विषय में जानने के लिए कौन कौन सी पुस्तकें पढ़नी चाहिए?

सुमेधा: मेरा सुझाव है कि आप Moti Chandras’s Trade and Trade Routes पढ़ें। इस पुस्तक में सटीक तिथियों सहित आर्य प्रवास सिद्धांत पर विस्तृत रूप से विश्लेषण एवं प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं। यद्यपि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह किंचित नकारात्मक प्रतीत हो सकता है तथापि इसमें प्राचीन भारत में यात्राएं अवन उनसे सम्बंधित  सर्व आयामों पर उत्तम जानकारी दी गयी है।

Upinder Singh की भी पुस्तक पढ़ें। प्राचीन भारत पर लिखित उनके इस पुस्तक में उन्होंने यात्राओं का भी उल्लेख किया है। Nayanjot Lahiri द्वारा व्यापार मार्गों पर लिखित पुस्तक मेरे अनुमान से भारत की सर्वोत्तम पुस्तक है।

अनुराधा:  सुमेधा जी, आज की चर्चा में भाग लेने एवं हमें ज्ञानवर्धक जानकारी प्रदान करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।

सुमेधा: मुझे इस चर्चा में आमंत्रित करने के लिए आपका भी धन्यवाद। हमारी चर्चा अत्यंत रोचक रही।

प्राचीन भारत में यात्राएं पर सुमेधाजी से हुई चर्चा की लिखित प्रतिलिपि IndiTales Internship Program के अंतर्गत हर्षिल गुप्ता ने तैयार की।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मंदिरों क्यों जाएँ और कैसे जाएँ – श्री रामकृष्ण कोंगल्ला से जानें https://inditales.com/hindi/mandir-kyun-aur-kaise-jayen/ https://inditales.com/hindi/mandir-kyun-aur-kaise-jayen/#respond Wed, 19 May 2021 02:30:54 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2291

अनुराधा गोयल: जैसा कि आप जानते हैं, मैंने अनेक मंदिरों के विषय में लिखा है। मुझे मंदिरों का भ्रमण करना  अत्यंत भाता है। ना केवल आध्यात्मिक दृष्टि से, अपितु मंदिरों की वास्तुकला एवं शिल्पकला में भी मेरी अत्यधिक रुचि है। इसीलिए आज मैंने एक ऐसे अतिथि को यहाँ आमंत्रित किया है जो मंदिरों की वास्तु, […]

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अनुराधा गोयल: जैसा कि आप जानते हैं, मैंने अनेक मंदिरों के विषय में लिखा है। मुझे मंदिरों का भ्रमण करना  अत्यंत भाता है। ना केवल आध्यात्मिक दृष्टि से, अपितु मंदिरों की वास्तुकला एवं शिल्पकला में भी मेरी अत्यधिक रुचि है। इसीलिए आज मैंने एक ऐसे अतिथि को यहाँ आमंत्रित किया है जो मंदिरों की वास्तु, शिल्पकला एवं उनके महत्व की विवेचना करने में दक्ष है। वे हमें मंदिरों की सूक्ष्म से सूक्ष्म विशेषताओं एवं विभिन्न आयामों के विषय में जानकारी देंगे जिन्हे हम मंदिर में दर्शन करते समय सामान्यतः अनदेखा कर देते हैं अथवा उपेक्षा कर देते हैं। आईए, आपका परिचय हमारे आज के अतिथि श्री रामकृष्ण कोंगल्ला से कराती हूँ, जो व्यवसाय से पर्यटक क्षेत्र के एक विद्याविद हैं। किन्तु, उनके ट्विटर, इंस्टाग्राम इत्यादि देखने के पश्चात आप मंदिरों से उनके अंतरग नाते को समझ पाएंगे। यदि उन्हे भारतीय मंदिरों का अध्ययन करते विद्वानों व शोधकर्ताओं के जग तथा उन मंदिरों में प्रार्थना करने के लिए जाने वाले जनसामान्य के विश्व के मध्य एक अद्भुत सेतु की संज्ञा दी जाए तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

रामकृष्ण कोंगल्ला जी, आपका डीटूर्स में स्वागत है।

रामकृष्ण कोंगल्ला: नमस्ते। मेरा परिचय देने के लिए आपका धन्यवाद।

यूट्यूब में डीटूर्स का विडिओ : भारतीय मंदिरों के दर्शन कैसे करें? रामकृष्ण कोंगल्ला के साथ

इंडिटेल्स के यूट्यूब चैनल पर, उपरोक्त विषय पर, निम्न लिखित वार्तालाप सुनें।

भारतीय मंदिरों के दर्शन कैसे करें – रामकृष्ण कोंगल्ला के विचार

अनुराधा: रामकृष्ण जी, आज हम एक ऐसे विषय पर चर्चा करेंगे जो हम दोनों को अत्यंत प्रिय है। मंदिर! हम में से अधिकतर लोग मंदिर जाकर, भगवान के समक्ष खड़े होकर कुछ क्षण प्रार्थना करते हैं, प्रसाद ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात मंदिर से बाहर आ जाते हैं। यदि मंदिर प्राचीन हो व अत्यंत आकर्षक हो तो कुछ क्षण उसकी वास्तुकला एवं सुंदरता को निहारते हैं। हम में से अधिकतर लोगों के लिए मंदिर के दर्शन का यही अर्थ है। किन्तु जितना मैंने सुना एवं पढ़ा है, मंदिरों को विशेष वास्तुकला एवं रूपरेखा के अंतर्गत बनाया गया है, विशेषतः प्राचीन मंदिरों को। उनकी संरचना में एक सम्पूर्ण शास्त्र समाहित है। मंदिरों के दर्शन कैसे करना चाहिए, दर्शन के समय किन किन महत्वपूर्ण तत्वों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्या आप हमें बताएंगे?

रामकृष्ण: जी। यदि आपकी आज्ञा हो तो इस चर्चा का आरंभ करने से पूर्व, मैं जबाला उपनिषद से एक अप्रतिम श्लोक का उल्लेख करना चाहता हूँ। इस चर्चा में यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।

शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिनः।

अज्ञानां भावनार्थाय प्रतिमा परिकल्पिता।।

भगवान शिव तो योगी एवं साधुओं के हृदय में बसते हैं। उन्हे मंदिरों में जाकर शिव की प्रतिमा के दर्शन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह तो हम साधारण एवं अज्ञानी लोग हैं जिन्हे मंदिर जाकर शिव की प्रतिमा के दर्शन की आवश्यकता पड़ती है। हिन्दू धर्म में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। सनातन धर्म के साहित्य में भी इसका उल्लेख किया गया है। कालांतर में मूर्ति पूजा की संकल्पना उदित हुई जिसे पाश्चिमात्य उल्लेखों में नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया।

हमें इस सत्य को समझने की आवश्यकता है कि हम मूलतः अज्ञानी हैं। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता में हमें मंदिरों में जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। जबाला उपनिषद में इसका स्पष्ट उल्लेख है। मंदिर में हमें दो महत्वपूर्ण तत्वों पर लक्ष्य केंद्रित करने की आवश्यकता है, गर्भगृह एवं मंडप।

गर्भगृह

मंदिर में जिस कक्ष में मूल मूर्ति, मूल नायक अथवा प्रमुख देव स्थापित होते हैं, उसे गर्भगृह कहते हैं। यह चारों ओर भित्तियों से घिरा एक छोटा सा कक्ष ऊर्जा से परिपूर्ण होता है। गर्भगृह में उपस्थित ऊर्जा एक अन्य विस्तृत चर्चा का विषय है।

दक्षिण भारतीय मंदिर का गर्भगृह
दक्षिण भारतीय मंदिर का गर्भगृह

आपने मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भक्तों को पंक्तियों में खड़े देखा होगा। वे इस प्रकार इसीलिए खड़े रहते हैं ताकि गर्भगृह से निकलती ऊर्जा को वे अवशोषित कर सकें। किन्तु अधिकांश लोगों को गर्भगृह तथा भगवान की मूर्ति से उत्सर्जित ऊर्जा के विषय में जानकारी नहीं होती। अनेक लोगों को यह रूढ़िवादी परंपरा प्रतीत होती है तो कुछ लोगों को यह आधुनिकता के विपरीत जान पड़ती है। अतः वे गर्भगृह के इस तत्व की उपेक्षा करते हैं।

मंडप

जब हम गर्भगृह के समक्ष खड़े होकर मूल मूर्ति या प्रमुख विग्रह  के दर्शन करते हैं, तब हम वास्तव में मंडप के भीतर खड़े होते हैं। मंडप गर्भगृह के समक्ष स्थित होता है। हमें मंडप में बैठकर कम से कम ५-१० मिनट व्यतीत करना चाहिए। वर्तमान में प्रायः हम देखते हैं कि लोग मंडप की भूमि को हाथ से स्पर्श कर बाहर आ जाते हैं। कुछ लोग इस परंपरा की खानापूर्ति करते हुए बैठते तो हैं किन्तु उसी क्षण उठकर बाहर आ जाते हैं। किन्तु ऐसा करने से मंदिर के दर्शन के मूल सिद्धांत की उपेक्षा होती है।

हिन्दू मंदिर का मंडप
हिन्दू मंदिर का मंडप

हमें मंडप में क्यों बैठना चाहिए? मंदिर में अनवरत होते मंत्रों के जप, पूजा-अर्चना, आरती एवं अन्य अनुष्ठानों के कारण मंदिर का स्थल सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है। वहाँ बैठने से हमारे भीतर इस सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है तथा हमारे मन में सकारात्मक भावनाएं उत्पन्न होती हैं।

घरों में अगरबत्ती जलाना इसका उत्तम उदाहरण है। घर के मंदिर से उमड़ती अगरबत्ती की गंध हममें एक आध्यात्मिक भाव एवं सकारात्मक ऊर्जा भर देती है। अतः हमें मंडप में कम से कम ५-१० मिनट बैठकर इस सकारात्मकता का अनुभव लेना चाहिए तथा गर्भगृह व मंडप में स्थित ऊर्जा को आत्मसात करना चाहिए। मंदिर के इन दो तत्वों पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिए।

अनुराधा:  जब हम मंदिर जाकर प्रार्थना करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं तथा ध्यान करते हैं तब क्या हम भी इस ऊर्जा में वृद्धि करते हैं?

रामकृष्ण: जी, अवश्य करते हैं।

आप यह वार्तालाप इस पॉडकास्ट पर भी सुन सकते हैं।

घंटा

रामकृष्ण: मंदिर का एक अन्य महत्वपूर्ण भाग है घंटा। मंदिर में प्रवेश करते ही घंटे के नीचे खड़े होकर घंटानाद करना चाहिए। अनेक लोग, दूसरों को कष्ट ना हो अथवा किसी भी अन्य कारण से घंटा नहीं बजाते। मंदिर का घंटा पंचधातु से बना होता है। जब इस घंटे को बजाया जाता है तब उससे एक विशेष कंपन उत्पन्न होता जो हमारी कुंडलिनी को प्रभावित करने में सक्षम होता है। अतः मंदिर में प्रवेश करते ही घंटे के ठीक नीचे खड़े होकर ८, १६, ३२ अथवा ६४ घंटानाद करने का नियम बताया गया है। यदि संख्या चूक जाए, तब भी लंबे समय तक किया गया घंटानाद हमारा ध्यान केवल गर्भगृह एवं उसके भीतर स्थित मूर्ति पर ही केंद्रित रखता है। हमें लक्ष्य से भटकने नहीं देता।

घंटा नाद
घंटा नाद

प्रसाद

अनुराधा: गर्भगृह में प्रार्थना करने के पश्चात हम चरणामृत ग्रहण करते हैं, जिसे दक्षिण भारत में तीर्थ कहा जाता है। उसका क्या महत्व है?

रामकृष्ण: गर्भगृह में प्रार्थना करने के पश्चात हम प्रसाद तथा चरणामृत या पंचामृत ग्रहण करते हैं। पंचामृत एवं चरणामृत के विषय में चर्चा करने से पूर्व प्रसाद के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। आपको स्मरण होगा कि सत्यनारायण पूजा के समय पाँच कथाएं पढ़ी जाती हैं। उन कथाओं में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि प्रसाद ग्रहण किए बिना मंदिर से बाहर आना अशुभ माना जाता है।

अनुराधा: तो प्रसाद ग्रहण ना करने पर मंदिर दर्शन पूर्ण नहीं माना जाता?

रामकृष्ण: नहीं, दर्शन पूर्ण नहीं माना जाता। प्रसाद की विशेषता है कि वह विभिन्न पौष्टिक तत्वों से बनाया जाता है जो हमें अतिरिक्त पोषण प्रदान करता है। अतः उसे ग्रहण करने का नियम बनाया गया है।

चरणामृत/पंचामृत

रामकृष्ण: पंचामृत में कुल पाँच तत्व होते हैं, गाय का दूध, दही, घी, शहद एवं शक्कर। जब गर्भगृह के बाहर इससे मूर्ति को स्नान कराया जाता है तब इसे चरणामृत कहते हैं।

मंदिर में मूलतः दो मूर्तियाँ होती हैं। एक, गर्भगृह के भीतर स्थापित मूल मूर्ति होती है जो अचल होती है। दूसरी, मूल मूर्ति की प्रतिकृति होती है जो गर्भगृह के बाहर रखी जाती है। यह भी पंचधातु से बनी होती है। इसे उत्सव मूर्ति कहा जाता है। मंडप में किए गए सभी अनुष्ठान इस मूर्ति पर किए जाते हैं जिसे भक्तगण छू भी सकते हैं। उत्सवों के समय इसी मूर्ति की शोभायात्रा निकाली जाती है। अनुष्ठानों के समय इस उत्सव मूर्ति को पंचामृत स्नान कराया जाता है। हमें यह अमृत भगवान के चरणों से प्राप्त होता है, इसीलिए इसे चरणामृत कहते हैं। इस प्रसाद रूपी चरमामृत में पंचधातु के खनिज घटक मिल जाते हैं जो हमें अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करते हैं।

अनुराधा: गर्भगृह के दर्शन व मंडप में कुछ क्षण व्यतीत करने के उपरांत, हमने घंटी बजाकर चरणामृत ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात क्या किया जाता है?

रामकृष्ण: इसके उपरांत दो प्रदक्षिणाएं करना आवश्यक है, भीतरी प्रदक्षिणा व बाहरी प्रदक्षिणा। तभी मंदिर का दर्शन पूर्ण माना जाता है। भीतरी प्रदक्षिणा में हम गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। मंदिर की सम्पूर्ण ऊर्जा में अभिभूत होते हैं। बाहरी परिक्रमा में मंदिर के अन्य अवयव भी समाहित किए जाते हैं, जैसे भगवान के वाहन एवं उनका परिवार।

वाहन

भारत में अनेक प्रकार के मंदिर हैं किन्तु उनमें दो प्रकार प्रमुख माने जाते हैं, शिव मंदिर तथा विष्णु मंदिर। इन मंदिरों में, गर्भगृह के समक्ष, इन देवों के वाहन मंडप होते हैं जिसके भीतर उनके वाहन स्थापित होते हैं, शिव का वाहन नंदी तथा विष्णु का वाहन गरुड़। बाहरी परिक्रमा में उन्हे परिक्रमा पथ के भीतर रखा जाता है।

परिवार देवता 

मुख्य मंदिर के समीप अनेक छोटे मंदिर होते हैं जो प्रमुख देव के परिवार के सदस्यों को समर्पित होते हैं। जैसे, विष्णु मंदिर में भुदेवी, श्रीदेवी, विश्वकर्मा इत्यादि को समर्पित मंदिर होते हैं। वहीं, शिव मंदिर में गणेश, पार्वती अथवा कार्तिकेय को समर्पित मंदिर होते हैं। बाहरी परिक्रमा पथ में इन मंदिरों को भी भीतर रखना आवश्यक है।

प्रदक्षिणा

हम प्रदक्षिणा क्यों करें? हमें प्रदक्षिणा इसीलिए करनी चाहिए क्योंकि यह स्वयं में एक अध्ययन है। गर्भगृह की प्रदक्षिणा के उपरांत जब आप बाहरी प्रदक्षिणा करते हैं तब आपकी दृष्टि भित्तियों पर उत्कीर्णित विभिन्न प्रतिमाओं एवं शिल्पों पर पड़ती है। उन प्रतिमाओं एवं उत्कीर्णित दृश्यों से हमें इतिहास एवं पुराणों के संदर्भ में कई जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। अनेक नवीन संदर्भों एवं परंपराओं से हमारा परिचय होता है। परिवारजन के साथ परिक्रमा करते समय बड़े छोटों को उनके विषय में जानकारी प्रदान करते हैं। उनसे हमारे इतिहास एवं पुराणों के विषय में चर्चा होती है। हम उनके विषय में अधिक जानने का प्रयास करते हैं। छोटों को भी चिंतन के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्राप्त होता है।

अनुराधा: मैं उन प्रतिमाओं एवं शिल्पों को इतिहास की मुक्तांगन कक्षा मानती हूँ। मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्णित प्रतिमाएँ एवं शिल्प स्वयं में ज्ञान का भंडार हैं।

रामकृष्ण: निःसंदेह! मेरा गाँव इसका उत्तम उदाहरण हैं। अनेक गांववासी अनपढ़ हैं। उन्होंने इतिहास एवं पुराणों की पुस्तकें नहीं पढ़ी हैं। फिर भी उनके पास इतिहास एवं पुराणों की कथाओं का भंडार है। वे रामायण व महाभारत की कथाएं मुझसे अधिक उत्तम प्रकार से सुना सकते हैं। उन्होंने जीवन भर इन मंदिरों के दर्शन किए हैं, इन भित्तियों पर उत्कीर्णित शिल्पों को देखा व समझा है।

तत्वज्ञान

अनुराधा: इतना ही नहीं, वे उन शिल्पों के पृष्ठभागीय तत्वज्ञान को भी समझते हैं। हमें यह बिसराना नहीं चाहिए कि अंततः ये लोग ही हैं जिन्होंने इन भित्तियों की कथाओं को समझकर, पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से आगे प्रसारित की है।

रामकृष्ण: इसमें संदेह नहीं है अनुराधाजी। सामान्यतः, मंदिर की भित्तियों पर उत्कीर्णित कथाओं का मुख्य सार ‘अच्छाई की बुराई पर विजय’ होती है। दृष्टांत के लिए, चोल शिव मंदिरों में आप शिव के त्रिपुरांतक तथा कालांतक रूपों के शिल्प देखेंगे।

अनुराधा: ये कथाएं यह भी स्मरण कराती हैं कि प्रत्येक विपरीत परिस्थिति में भगवान हमारी रक्षा अवश्य करेंगे।

रामकृष्ण: जी हाँ! इसी से भगवान में हमारी आस्था जीवित रहती है।

अनुराधा: भगवान पर हमारा विश्वास दृढ़ होता है कि हमारा कितना भी कुसमय हो, भगवान कभी ना कभी तो सहायता करेंगे।

रामकृष्ण: जी। इसीलिए जीवन के प्रत्येक आयाम के लिए मंदिर की बाहरी प्रदक्षिणा अत्यंत आवश्यक है, वह चाहे सामान्य ज्ञान अर्जन हो अथवा आध्यामिक आस्था का विकास, कथाओं द्वारा इतिहास व पुराणों की व्याख्या हो अथवा भगवान में श्रद्धा व विश्वास की दृढ़ता का प्रश्न हो।

मंदिर की वास्तुकला

भित्तियों पे चित्रित कथाएं
भित्तियों पे चित्रित कथाएं

अनुराधा: आपने एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाला है कि मंदिरों से हमारे बालक-बालिकाओं को सीखने का अवसर मिलता है। वे अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के साथ मंदिर जाते हैं। भित्तियों पर उत्कीर्णित दृश्यों को देख, कौतूहलवश वे बड़ों से उनके विषय में प्रश्न करते हैं। इस प्रकार, उन दृश्यों से संबंधित कथाओं द्वारा उन्हे हमारी प्राचीन सभ्यता एवं उनके तत्वज्ञान के विषय में जानने का अवसर प्राप्त होता है।

रामकृष्ण: जी हाँ। इसका एक सुंदर उदाहरण देना चाहता हूँ। आप यदि हम्पी के हजारा राम मंदिर अथवा ऐसे ही किसी मंदिर में जाएंगे तो आप मंदिर के आधार पर सिंह, अश्व, गज एवं मकर के शिल्प उत्कीर्णित देखेंगे। ये प्राणी विभिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे, मकर जल का, गज शक्ति का, सिंह अधिकार व सत्ता का तथा अश्व राज्य के व्यापार एवं समृद्धि का। बच्चे मंदिर की भित्तियों पर इन प्राणियों की उपस्थिति के विषय में प्रश्न करते हैं। बालपन से बच्चों को इनके विषय में जानकारी प्राप्त होती है। उन्हे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष जैसे जीवन मूल्यों से परिचित होने का अवसर प्राप्त होता है।

मुख्य विग्रह

रामकृष्ण: मैं एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। मुख्य विग्रह का ध्यानपूर्वक अवलोकन। जैसे महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति पर दस हाथ होते हैं जिनमें वे दस आयुध धारण करती हैं। प्रत्येक आयुध का अपना महत्व होता है। महिषासुर का वध करती देवी बुराई के नाश का संदेश देती हैं।

महिषासुरमर्दिनी देवी के हाथों में परशु, कटार तथा एक पात्र है। इन सभी वस्तुओं के क्या अभिप्राय हैं, यह समझने की आवश्यकता है। परशु यह दर्शाता है कि हमें सांसारिक आसक्तियों को काटना है। तेज कटार यह दर्शाती है कि हमारे लक्ष पर हमारा ध्यान कटार की धार के समान तेज होना आवश्यक है। इसी प्रकार देवी महिषासुरमर्दिनी के अन्य आयुधों के भी विशेष अभिप्राय हैं। यदि आप देवी के बीसियों दर्शन भी कर लें किन्तु उनके विग्रह के विविध अवयवों के अभिप्राय ज्ञात ना हो तो मात्र दर्शन कर लेने से हमारे जीवन में कोई भी सकारात्मक परिवर्तन संभव नही है। कम से कम परशु एवं छुरी के अर्थ हमें सदा स्मरण रहना चाहिए।

मंदिर दर्शन द्वारा ज्ञान वर्धन

जीवन के दो मूल मंत्र हैं। प्रथम, सांसारिक बंधनों के प्रति भावुक ना होना, दूसरा, तेज कटार के समान अपने लक्ष्य की ओर ध्यान होना। महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा हमें इन दोनों मूल्यों की प्रेरणा देती है। जब जब हम मूर्ति के दर्शन करते हैं, हमारे जीवनमूल्य अधिक दृढ़ होते जाते हैं। उनकी प्रतिमा हमें सम्मोहित सा कर देती है।

अनुराधा: मूर्ति दर्शन स्व-अध्ययन पुस्तक को पुनः पुनः पढ़ने के समान है जो हमें हमारे जीवनमूल्यों का सदा स्मरण कराती रहती है। रामकृष्णजी, आपने अभी परशु तथा कटार का महत्व बताया। हम में से अधिकांश लोगों को इन आयुधों के अभिप्राय ज्ञात नहीं है। विशेषतः मेरे जैसे उत्तर भारत में पले-बढ़े लोग इनसे अनभिज्ञ हैं।

मुझे स्मरण है, एक संग्रहालय में छायाचित्रीकरण विषय के कुछ विद्यार्थी विष्णु एवं शिव की प्रतिमाओं को भी पहचान नहीं पा रहे थे, जबकि उनकी प्रतिमाओं में अनेक स्पष्ट चिन्ह होते हैं। अन्य कम-ज्ञात देवों की क्या चर्चा करें! अतः, हम जैसे लोग प्रतिमाविद्या एवं इन कथाओं की विवेचना किस प्रकार करें? उनके संदर्भ में अधिक साहित्य भी उपलब्ध नहीं हैं। क्या आप हमें कुछ ऐसे स्त्रोतों की जानकारी दे सकते हैं, जहां हमें इन विषयों पर प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हो सके?

रामकृष्ण: हमारे दादा-दादी हमारे बालपन में हमें पंचतंत्र, शिव पुराण अथवा विष्णु पुराण से अनेक सुंदर कथाएं सुनाते थे। आपने भी बालपन में विष्णु पुराण, शिव पुराण इत्यादि पर आधारित प्रदर्शन देखे होंगे। किन्तु आज के बच्चे इन कथाओं की ओर ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि उन्हे इन घटनाओं, कथाओं, मंदिर के विभिन्न अवयवों, मूर्तिविद्या के विभिन्न आयामों इत्यादि के विषय में जानकारी नहीं है।

मंदिर में उपस्थित अर्चक अथवा पुजारी का यह कर्तव्य है कि वह मंदिर में उपस्थित लोगों को मंदिर, मूर्ति, मंदिर से संबंधित कथाओं इत्यादि के विषय में व्याख्यान दें। भले ही व्याख्यान संक्षिप्त हो। किन्तु आज पुजारी की भूमिका केवल वैदिक मंत्रों को जपने तक ही सीमित रह गई है।

अर्चक की भूमिका

अनुराधा: आपका कथन अत्यंत सटीक है। मैंने आज तक अनेक मंदिरों के दर्शन किए हैं किन्तु अर्चक का व्याख्यान केवल एक ही मंदिर में देखा है। बेट द्वारका के मुख्य मंदिर में यह नियमित रूप से किया जाता है। उपस्थित भक्तों की संख्या के आधार पर, प्रत्येक आधे घंटे अथवा १०-२० मिनट के अंतराल में, पुजारीजी सभी को बैठाकर उनके हाथों में चावल के कुछ दाने रखते हैं, क्योंकि सुदामा ने कृष्ण को चावल के दाने ही दिए थे। तत्पश्चात वे सब को कृष्ण-सुदामा की कथा सुनाते हैं। कथा के पश्चात वे सब से कहते हैं कि कृष्ण को चावल का एक दाना अर्पित करें, भगवान कृष्ण आपका घर भी सुदामा के समान धन-धान्य से भर देंगे।

सम्पूर्ण घटना मेरे लिए अत्यंत आनंददायी थी। मंदिर में आए सभी भक्त व्याख्यान को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। भक्तगण संतुष्टि एवं सम्पन्नता का भाव लिए मंदिर से बाहर आते हैं। मंदिर में केवल दर्शन कर, मंदिर के विषय में जाने बिना बाहर आना उचित नहीं है। किन्तु मैंने इसके अतिरिक्त यह प्रथा अन्य कहीं नहीं देखी है।

रामकृष्ण: कितनी अद्भुत प्रथा है! ऐसा कर वे अनगिनत भक्तों को श्रेष्ठ जीवन मूल्यों से अवगत करा रहे हैं। यहाँ से प्राप्त अनुभव भक्तगणों को जीवन भर स्मरण रहेगा तथा उनके जीवन को समृद्ध करता रहेगा।

अनुराधा: आपका सुझाव अत्यंत उत्तम है। आशा करती हूँ कि अधिक से अधिक मंदिरों के अधिकारीगण इस ओर प्रयास करेंगे तथा कम से कम प्रातः व संध्या के समय, जब भक्तों की संख्या अधिक होती है, मंदिर में एक पौराणिक कथा कथन का सत्र अवश्य आयोजित करेंगे।

मंदिर दर्शन कैसे करें, कौन बताए?

रामकृष्ण: अर्चक का उत्तरदायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। अर्चक अथवा पुजारी भगवान की सेवा करता है, उनकी पूजा-अर्चना करता है तथा भक्ति के आवश्यक तत्वों का ज्ञान रखता है। एक अर्चक को भगवान के अत्यंत समीप माना जाता है। यह उसका कर्तव्य है कि वह मंदिर के सभी आयामों की जानकारी अर्जित करे तथा उस ज्ञान को भक्तों तक प्रसारित भी करे। इसीलिए मंदिर में अर्चक अत्यंत आदरणीय होता है।

अनुराधा: मैं तो मंदिर में जाकर उनके समीप बैठ जाती हूँ तथा उनसे मंदिर से संबंधित जानकारियाँ एवं उससे जुड़ी कथाओं के विषय में जानने के लिए सतत प्रश्न करती रहती हूँ। कुछ हिचक के पश्चात वे मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर देने लगते हैं। मैंने देखा, अनेक दर्शनार्थी अर्चक से वार्तालाप करने में भय का अनुभव करते हैं। वे अर्चक से कोई प्रश्न नहीं करते, ना ही मंदिर के विषय में उनसे जानने की चेष्टा करते हैं। मैं आप सब से कहना चाहती हूँ कि आप अर्चक से मंदिर के विषय में प्रश्न करें। वे अवश्य आपको पूर्ण जानकारी प्रदान करेंगे। यह उनका कर्तव्य भी है।

रामकृष्ण: मैं आपके पिछले प्रश्न का उत्तर पूर्ण करना चाहता हूँ। तत्पश्चात आगे बढ़ेंगे। भारत में अनेक मंदिर हैं जो शिव अथवा विष्णु को समर्पित हैं। शिव मंदिर में उपस्थित अवयव एवं चिन्ह भगवान शिव से संबंधित होते हैं। उसी प्रकार विष्णु मंदिर में उपस्थित अवयव एवं चिन्ह विष्णु भगवान से संबंधित होते हैं। उन्हे कैसे पहचानें?

मंदिर में देवों के चिन्हों को पहचानने के लिए उनके विषय में जानना आवश्यक है। उसके लिए पुस्तकों से उत्तम कोई साधन नहीं है। किन्तु आपको आगम शास्त्र जैसे क्लिष्ट पुस्तकें पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बच्चों की पंचतंत्र अथवा चित्रकथा जैसी आसान पुस्तकें भी पर्याप्त हैं। शिव पुराण तथा विष्णु पुराण क्रय करें तथा उनमें दी गई कथाएं पढ़ें व उन्हे समझें। मैंने भी आरंभ में यही किया था। मैंने ड्रीम्लैन्ड प्रकाशन की रंगबिरंगी पुस्तकें पढ़ी थीं।

पुस्तकें पढ़ने के उपरांत मुझे ज्ञात हुआ, त्रिपुरांतक क्या है। विष्णु के कौन कौन से अवतार हैं, वे कैसे दिखते हैं, इन्होंने क्या कार्य किया हैं, वराह ने भुदेवी को हिरण्याक्ष के चंगुल से कैसे छुड़ाया इत्यादि। इसके पश्चात आपको मूर्तियों एवं दृश्यों को पहचानने में कोई दुविधा नहीं होगी।

अनुराधा: मुझे तथा आपको यह ज्ञात हो गया है कि ऐसी कथाएं अस्तित्व में हैं तथा मंदिरों के शिल्प उन्ही कथाओं पर आधारित होते हैं। किन्तु अनेक लोगों को यह भी ज्ञात नहीं होता कि ऐसी कथाएं हैं। मंदिर में यदि उन्हे कोई यह जानकारी प्रदान करे कि ये दृश्य पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं तो वे पुस्तक अथवा इंटरनेट द्वारा जानकारी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

जगती व सोफान मार्ग

जगती जिस पर मंदिर स्थापित किया जाता है
जगती जिस पर मंदिर स्थापित किया जाता है

क्या आप जगती के विषय में चर्चा कर सकते हैं? न्याधार, जिस पर मंदिर खड़ा किया जाता है, सोपान, सोपान मार्ग इत्यादि।

रामकृष्ण: जी। ये शब्द अत्यंत चित्तरंजक हैं। जैसे जगती, जो जगत शब्द से व्युत्पन्न है। जगत का अर्थ है विश्व। जगती का अर्थ है, जगत के ऊपर। अर्थात् इस जगत के ऊपर एक मंदिर है जहां भगवान का वास है। अतः जगती हमें यह संदेश देता है कि वे सम्पूर्ण विश्व से ऊपर हैं। मंदिरों में जगती एक ऊंचे मंच के रूप में होता है जिसके ऊपर हम सीढ़ियों द्वारा पहुंचते हैं। इन सीढ़ियों को स्वर्ग का मार्ग अथवा सोपान मार्ग कहते हैं।

ये स्वर्ग का मार्ग कैसे हैं? क्योंकि आप जगत के ऊपर जाकर देख रहे हैं कि इस ‘जगत’ के ऊपर कौन है, भगवान कौन है, क्या भगवान का वास ही स्वर्ग है इत्यादि। आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं? क्योंकि इसके ऊपर जाकर आपको शांति प्राप्त होती है, आनंद प्राप्त होता है तथा आपको सभी नकारात्मक व अनुचित विचारों से मुक्ति मिलती है।

अनुराधा: साथ ही हमें हमारे सांसारिक मोहपाशों से पृथक होकर परमात्मा के साथ शांतिपूर्ण समय व्यतीत करने का अवसर मिलता है।

रामकृष्ण: सत्य कहा आपने। ये थे जगती व सोपान मार्ग। जगती के ऊपर, मंदिर की संरचना भी अत्यंत विलक्षण होती है। प्रवेश द्वार पर एक लघु मंडप होता है जो किंचित संकरा होता है। इसके आगे किंचित बड़ा मंडप, जिसके पश्चात उससे भी विशाल मंडप होता है। गर्भगृह एवं शिखर इनसे भी विशाल होते हैं।

जैसे जैसे हम मंदिर की ओर जाते हैं, हमारी मनःस्थिति भी ऊर्ध्वगामी होती जाती है। सोपान मार्ग पार कर जब हम मंदिर में प्रवेश करते हैं तब हमारे चित्त में देव दर्शन की इच्छा शनैः शनैः बढ़ती जाती है। गर्भगृह की ओर जाते समय यह इच्छा तीव्र हो जाती है तथा वह अपने चरम सीमा पर होती है जब हम गर्भगृह के समक्ष पहुँच जाते हैं। प्रवेशद्वार से गर्भगृह की ओर जैसे जैसे हम चढ़ते हैं, वैसे वैसे भगवान के प्रति हमारी उत्सुकता में भी वृद्धि होती जाती है। अतः हमारी मनःस्थिति में मंदिर की रूपरेखा एवं संरचना का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

मंदिर के दर्शन कब करें?

अनुराधा: आपने हमें सरलता से समझाया कि मंदिर के दर्शन कैसे करें। अब आपसे जानना चाहती हूँ कि मंदिर के दर्शन कब करें। प्रतिदिन, यदा-कदा अथवा केवल उत्सवों के समय। क्या मंदिर दर्शन के लिए किसी नियम का पालन आवश्यक है?

रामकृष्ण: आपने उत्तम प्रश्न पूछा है। बहुधा यह देखा गया है कि लोग प्रातःकाल में मंदिर में देव-दर्शन करने आते हैं। साधारणतः वे अपने निवास से २००-५०० मीटर के अंतराल पर स्थित मंदिर में जाते हैं। मंदिर दर्शन के लिए हमें प्रातःकाल शीघ्र उठना चाहिए। उस समय को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। नित्य कर्म से निवृत्त होकर, स्नानादि कर मंदिर के लिए प्रस्थान करना चाहिए।

मंदिर में वेदिक मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए, कुछ आध्यात्मिक अध्ययन एवं ध्यान करना चाहिए। ये सब क्रियाएं तन एवं मन दोनों को पवित्र करती हैं। यह आपको स्वस्थ एवं सक्रिय रखती है क्योंकि आप प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठ रहे हैं।

अनुराधा: जिन्हे ब्रह्म मुहूर्त के विषय में जानकारी नहीं है, उन्हे बताना चाहती हूँ कि ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटे पूर्व का समय होता है।

रामकृष्ण: ब्रह्म मुहूर्त में उठकर मंदिर के दर्शन करना सर्वोत्तम माना जाता है।

अनुराधा: जी। मैंने अपने जीवन में अनेक देवी मंदिर देखे हैं। उनमें से कई पहाड़ी की चोटी पर स्थित थे। इसका अर्थ है, प्रातः शीघ्र उठकर वहाँ पहुँचने में हमारा प्रातःकालीन सैर एवं व्यायाम हो जाता है। मंदिर पहुंचकर ध्यान भी हो जाता है। सूर्य की प्रथम किरणों में सराबोर हो कर हमारी देह की विटामिन डी कमतरता भी दूर हो जाती है, जो वर्तमान में हमारे लिए एक बड़ी समस्या बन गई है। केवल इन नियमों का पालन कर हम हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संभाल सकते हैं।

रामकृष्ण: जी हाँ। प्रातःकाल शीघ्र उठकर मंदिर जाना ही उत्तम स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं लंबी आयु का रहस्य है।

अनुराधा: यह तो हुआ दैनिक दर्शन। इसके अतिरिक्त, मंदिर दर्शन कब करना चाहिए?

रामकृष्ण: इसका उत्तर मैं एक उदाहरण द्वारा देना चाहता हूँ। मेरे पिता एक किसान हैं। गाँव में, हमारे घर में एक उत्सव मनाया जाता है मृगसिरा कार्थी या मृगशीर्ष कार्ते। इसे मृगसिरा उत्सव भी कहते हैं।

अनुराधा: क्या आप मृगशिरा नक्षत्र के विषय में कह रहे हैं?

रामकृष्ण: जी, मृगशिरा नक्षत्र। मृगसिरा कार्थी सूर्य के मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश एवं निकास का सूचक है। मृगम नाम से भी लोकप्रिय यह उत्सव सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु के पश्चात तथा वर्षा ऋतु से पूर्व, जून/जुलाई में मनाया जाता है। ७ फुट की भूमि को शीतल कर, वहां भगवान की मूर्ति रखी जाती है। पुष्प से उनकी अर्चना की जाती है। प्रसाद भी बनाकर भगवान को अर्पित किया जाता है। समीप के मंदिर जाकर पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात मेरे पिता खेतों को जोतना आरंभ करते हैं जिससे वर्षा ऋतु के आरंभ होते ही खेतों की बुवाई हो सके।

मेरा तात्पर्य यह है कि उत्सवों में मंदिर के दर्शन करना, एक प्रकार से प्राकृतिक पंचांग का पालन करने जैसा है। हम यदि प्रकृति के नियमों का पालन करेंगे तो मंदिर दर्शन स्वतः ही हो जाएँगे। एक अन्य उदाहरण है, तुली एकादशी। इसे देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। यह उत्सव वर्षा ऋतु के आगमन के पश्चात आता है। इस समय तक खेतों की बुवाई सम्पन्न हो जाती है। किसान निश्चिंत होकर भगवान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए पूजा-अनुष्ठान करते हैं।

अनुराधा: यह अत्यंत रोचक है। यही कारण है कि सम्पूर्ण भारत में स्थानीय पंचांग में किंचित भिन्नता होती है। क्योंकि वे प्राकृतिक चक्र का पालन करते हैं।

मंदिर दर्शन के लिए प्राकृतिक पंचांग

रामकृष्ण: जी। प्रकृति पर आधारित जीवन चक्र की यही विशेषता है। केरल अथवा कर्नाटक में वर्षा ऋतु का समय उत्तर-पूर्वी राज्यों, ओडिशा अथवा पश्चिम बंगाल से पृथक है। इसी कारण उनके उत्सव भी भिन्न होते हैं। उनके उत्सव, मंदिर दर्शन का समय, प्रसाद इत्यादि भी प्राकृतिक चक्र का पालन करते हैं। यह प्रथा वंशानुगत चली आ रही है। प्राकृतिक चक्र पर आधारित उत्सव मनाने का उत्तम उदाहरण किसान वर्ग है। हमें उनसे बहुत कुछ सीखना चाहिए।

अनुराधा: अद्भुत रामकृष्णजी। यह एक अत्यंत रोचक एवं ज्ञानवर्धक चर्चा थी। मेरे अनेक प्रश्नों का मुझे समाधान प्राप्त हुआ है। किन्तु अब भी अनेक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कौंध रहे हैं। मेरा आपसे अनुरोध है कि भविष्य में पुनः इसी प्रकार चर्चा के लिए आईए तथा दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत के मंदिरों के विषय में बताईए। आपने मंदिरों के विषय में अपना ज्ञान हमसे बांटा, अपना बहुमूल्य समय हमें दिया इसके लिये आपका आभार प्रकट करती हूँ। आशा है,  इस चर्चा को सुनने के पश्चात अधिक से अधिक लोग इन नियमों का पालन करेंगे तथा मंदिर के दर्शन करेंगे। मंदिर की विशेषताओं को जानने एवं समझने का प्रयास करेंगे। आपका हृदयपूर्वक धन्यवाद।

रामकृष्ण: आशा करता हूँ कि सभी इसका पालन करें क्योंकि हमारी विरासत का संरक्षण करने का यही एक मार्ग है। मुझे यह अद्भुत सुअवसर प्रदान करने तथा मेरे विचार सुनने के लिये आपका भी धन्यवाद एवं आभार। नमस्ते।

अनुराधा: नमस्ते। धन्यवाद।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत, इंडिटेल की प्रशिक्षु, हर्षिल गुप्ता ने विडिओ से यह प्रतिलिपि तैयार की है।

अनलाइन प्रकाशन हेतु संपादित।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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