भारत Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Tue, 30 Jul 2024 13:54:25 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 रेलगाड़ी पर फिल्माए लोकप्रिय बॉलीवुड गीतों की यात्रा – एक झलक https://inditales.com/hindi/rail-gadi-par-filmaaye-geet/ https://inditales.com/hindi/rail-gadi-par-filmaaye-geet/#respond Wed, 18 Dec 2024 02:30:10 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3735

बॉलीवुड के चित्रपट सामान्यतः अपने निर्मिती कालखंड व उस समय की परिस्थिति के प्रतिबिम्ब होते हैं। उनमें कुछ काल्पनिक तथा कुछ वास्तविक कथानकों द्वारा समय के साथ परिवर्तित होते समाज एवं व्यवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया जाता रहा है। यात्रायें समाज का अभिन्न अंग हैं। तो स्वाभाविक ही है कि हमारे बॉलीवुड चित्रपटों के पटकथाओं […]

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बॉलीवुड के चित्रपट सामान्यतः अपने निर्मिती कालखंड व उस समय की परिस्थिति के प्रतिबिम्ब होते हैं। उनमें कुछ काल्पनिक तथा कुछ वास्तविक कथानकों द्वारा समय के साथ परिवर्तित होते समाज एवं व्यवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया जाता रहा है। यात्रायें समाज का अभिन्न अंग हैं। तो स्वाभाविक ही है कि हमारे बॉलीवुड चित्रपटों के पटकथाओं में भी यात्राओं एवं उससे जुडी यंत्रणाओं का कभी उद्देश्यपूर्ण रीति से तो कभी सौन्दर्यवृद्धि की दृष्टी से उल्लेख किया जाता रहा है।

इसी कारण आप बॉलीवुड चित्रपटों में अनेक गीत देखेंगे जिनका परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यात्राओं से सम्बन्ध रहा है। यात्रा चाहे तांगे से हो या, रिक्शा से, साइकिल से हो या बस से, विमान से हो या रेलगाड़ी से। समय से साथ टाँगे, रिक्शा आदि का स्थान दुपहिये वाहनों ने ले लिया है। बस स्थानकों के दृश्यों के स्थान पर अब विमानतल के दृश्य अधिक दिखाई देते हैं। किन्तु एक दृश्य ऐसा है जो अब तक वैसा कि वैसा ही है, तटस्थ। वह है रेलगाड़ी या ट्रेन का दृश्य।

रेलयात्रा में जो लुभावनापन है, आकर्षण है, प्रेमी-प्रेमिकाओं का प्रेम व्यक्त करना है, यहाँ तक कि अपरोक्ष रूप से कोई सन्देश देना है, उसे यात्रा का अन्य कोई भी माध्यम मात नहीं दे सकता। स्वाभाविक है कि अनेक दशकों से बॉलीवुड के कुछ अत्यंत लोकप्रिय, भावुक तथा कल्पनाशील गीत ट्रेन पर ही चित्रित हैं। भारतीय रेल पर। आप यदि ध्यान से सोचें तो बॉलीवुड के अनेक भावनाशील तथा दार्शनिक गीतों की पार्श्वभूमी में भी आप ट्रेन का सम्बन्ध अवश्य देखेंगे, विशेषतः आरंभिक दशकों के गीतों में।

रेल पर चित्रित बॉलीवुड के २० सर्वोत्तम गीत

दशकों से बॉलीवुड के चित्रपटों में जो गीत रेलगाड़ी पर फिल्माए जा रहे हैं, उनसे हमें भारतीय रेल की अब तक की यात्रा के विषय में भी जानकारी मिलती है। अंग्रेजों के लिए बने अतिविलासी डब्बों से दूसरे दर्जे के आम डब्बों तक, धरोहर रेलों से स्थानिक रेलों तक, यहाँ तक कि मालवाहक रेलों की भी यात्रा समझ में आती है। तो आईये मेरे साथ भारतीय रेलों पर फिल्माए बॉलीवुड संगीत की संगीतमय यात्रा पर जो आपको कल्पना के जग में ले जायेगी।

तूफान मेल – जवाब (१९४२)

१९४२, वह वर्ष जब भारत में “भारत छोडो” आन्दोलन चल रहा था। यह वही वर्ष था जब कमल दासगुप्ता के संगीत पर पंडित मधुर द्वारा लिखे इस अमर गीत को कानन देवी सिंह ने गया था।

तूफान मेल – उस काल में रेलों के नाम भी अनोखे होते थे। आजकल रेलों के कितने नीरस नाम होते हैं। कल्पना कीजिये कि आप तूफान मेल नाम के ट्रेन में यात्रा करने वाले हैं।

आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ – जागृति (१९५४)

इस अमर गीत में ट्रेन की यात्रा दिखाई गयी है जो वास्तव में आपको भारत के विभिन्न क्षेत्रों एवं विविधताओं की सैर कराती है। भारत में हम गर्व से कहते हैं कि भारतीय रेल भारत के कोने कोने में जाती है। देश के एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ती है। यह गीत ठीक उसी भावना का प्रदर्शन करता है। इस गीत से मुझे अपने शालेय दिवसों का स्मरण हो आता है। किसी ना किसी रूप में इस गीत ने मुझे यात्राएं करने के लिए प्रेरित किया है। आज मैं जितनी यात्राएं करती हूँ, यहाँ तक कि उसे मैंने अपना व्यवसाय ही बना लिया है, मेरे अनुमान से उसमें इस गीत की बड़ी भूमिका है। कवि प्रदीप द्वारा गाये गए इस गीत को हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध किया है।

देख तेरे संसार की हालत – नास्तिक (१९५४)

भारत विभाजन के समय भी रेलों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। एक ओर से दूसरी ओर लोगों को ले जाना। रेलें लोगों से खचाखच भरी होती थीं। खिडकियों, दरवाजों से लटकते लोग। छत पर बैठे लोगों की भीड़। ऐसा प्रतीत होता है कि इस गीत ने इस दृश्य व भावना को आत्मसात करने का प्रयास किया है। प्रदीप द्वारा गाया गया यह गीत आपको आपके आज की सुख-सुविधाओं भरे जीवन के विषय में अवश्य कृतज्ञ कर देगा।

बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत – रेलवे प्लेटफोर्म (१९५५)

इस दृश्य में पटरी को पीछे छोड़कर रेलगाड़ी आगे बढ़ रही है, सा

थ ही चित्रपट के कलाकारों एवं सहायकों के नाम पटल पर आते जा रहे हैं। यह एक यात्री की गाथा प्रतीत होती है।

इस गीत को साहिर लुधियानवी ने लिखा, मदन मोहन ने संगीतबद्ध किया तथा मोहम्मद रफ़ी ने अपने मधुर आवाज में गाया है।

है अपना दिल तो आवारा – सोलवां सावन (१९५८)

यह मेरा सदा-प्रिय, एक अल्हड़ गीत है जिसे देव आनंद एवं वहीदा रहमान की सुन्दर जोड़ी पर फिल्माया गया है। यह गीत रेलगाड़ी के भीतर फिल्माया गया है, इसे समझने में मुझे कुछ समय लगा था। क्योंकि मैंने तब तक ऐसी रेलगाड़ी नहीं देखी थी। मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों को एस. डी. बर्मन ने संगीतबद्ध किया है। इस मस्ती भरे गीत को हेमंत कुमार ने अपनी गायकी से अमर कर दिया है।

 मेरे अनुमान से यह गीत कोलकाता के स्थानीय इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट (EMU) में फिल्माया गया है।

औरतों के डब्बे में – मुड़ मुड़ के ना देख (१९६०)

यह एक मस्ती भरा गीत है जिसमें स्त्री-पुरुष के मध्य सदाबहार नोकझोंक को प्रदर्शित किया है। इस दृश्य में एक पुरुष महिलाओं के डिब्बे में प्रवेश कर जाता है।

इस दृश्य में भारत भूषण, जो बहुधा गंभीर भूमिका निभाते थे, चंचलता भरी भूमिका कर रहे हैं। इस गीत को मोहम्मद रफ़ी एवं सुमन कल्याणपुर ने गाया है, हंसराज बहल ने संगीतबद्ध किया है तथा इसके बोल प्रेम धवन ने लिखे हैं।

मैं हूँ झुम झुम झुमरू – झुमरू (१९६१)

दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे पर फिल्माया यह अमर गीत झुमरू चित्रपट का शीर्षक गीत भी है। इस गीत को गायक व नायक किशोर कुमार ने अत्यंत अल्हड़ शैली में गाया है। इस चित्रपट में मुख्य भूमिका में स्वयं किशोर कुमार तथा मधुबाला हैं। रेलगाड़ी से सम्बंधित मस्तीभरे गीत चुने जाएँ तो सूची में ये गीत सर्वोच्च स्थान पर हो सकता है। इस गीत को संगीतबद्ध भी किशोर कुमार ने ही किया है। इसके शब्द मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे हैं।

मुझे अपना यार बना लो – बॉय फ्रेंड (१९६१)

इस गीत में नायक शम्मी कपूर हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रंखला से जाती हुई शिमला-कालका रेलगाड़ी की छत पर कूदते-फांदते दिख रहे हैं। यह उनकी सर्वधिक लोकप्रिय शैली है। श्वेत-श्याम चित्रपट होते हुए भी हिमाच्छादित पर्वत शिखर अत्यंत सुन्दर दिख रहे हैं।

गायक – मोहम्मद रफ़ी, संगीत – शंकर जयकिशन, गीत – हसरत जयपुरी

मैं चली मैं चली – प्रोफेसर (१९६२)

यह गीत भी दार्जीलिंग हिमालयन रेल पर फिल्माया गया है जिसमें शम्मी कपूर व कल्पना आपस में प्रेम व्यक्त कर रहे हैं।

गायक – मोहम्मद रफ़ी व लता मंगेशकर, संगीत – शंकर जयकिशन, गीत – हसरत जयपुरी

रुख से जरा नकाब हटा दो – मेरे हजूर (१९६८)

रेलगाड़ी में बैठी नायिका पर फिल्माया गया एक सुन्दर गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी ने अपना मधुर स्वर प्रदान किया है। इस मधुर गीत को संगीतबद्ध किया शंकर जयकिशन ने।

मेरे सपनों की रानी – आराधना (१९६९)

इस गीत में दार्जीलिंग हिमालयन रेल का सुन्दर दृश्य दिखाया गया है। यह ऐसा गीत है जिसे छोटे बड़े सभी ने मस्ती में गया होगा।

इस गीत के इतने लोकप्रिय होने के पीछे किशोर कुमार की मदमस्त आवाज, आनंद बक्शी के बोल, सुप्रसिद्ध संगीतकार आर. डी. बर्मन का मस्ती भरा संगीत व लोकप्रिय नायक राजेश खन्ना, इस सब का मधुर संगम है।

हम दोनों दो प्रेमी – अजनबी (१९७४)

चित्रपट के नायक व नायिका, राजेश खन्ना व जीनत अमान एक मालगाड़ी के डिब्बे पर सवार दिखाए गए हैं। पहले दृश्य में ही रेल क्रमांक १९२२८ भी दिखाई देता है। उस काल में रेलगाड़ी में भाप का इंजिन लगता था। एक मालगाड़ी का इतना सुन्दर रूप किसी ने कभी नहीं देखा होगा। किशोर कुमार व लता मंगेशकर ने आर. डी. बर्मन के संगीत पर आनंद बक्शी के इस गीत को पूर्ण न्याय किया है।

गाड़ी बुला रही है – दोस्त (१९७४)

इस गीत में ट्रेन या रेलगाड़ी को एक रूपक के रूप में प्रयोग किया गया है। इस गीत में केवल दो ही तत्व दर्शाए गए हैं, नायक धर्मेन्द्र एवं रेलगाड़ी। गाड़ी के माध्यम से जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी गयी है। इस गीत में कालका-शिमला पर्वतीय रेल दिखाया गया है। इस स्फूर्तिदायक गीत को किशोर कुमार ने गया है, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने संगीत दिया है तथा गीतकार हैं आनंद बक्शी।

होगा तुमसे प्यारा कौन – जमाने को दिखाना है (१९७७)

एक बार फिर दार्जीलिंग हिमालयन रेल। केवल नायक व नायिका भिन्न हैं। यहाँ ऋषि कपूर पद्मिनी कोल्हापुरे के समक्ष अपना प्रेम व्यक्त कर रहे हैं। रेलगाड़ी का ऊपर से अप्रतिम दृश्य लिया गया है। संगीत की तान से मेल खाती रेलगाड़ी की आवाज एवं भाप इंजिन से निकलते धुंए का सुन्दर ढंग से प्रयोग किया गया है। आर. डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को शैलेन्द्र सिंग ने अपने स्वर प्रदान किये हैं जो ऋषि कपूर पर अच्छे लगते हैं।

पर दो पल का साथ हमारा – द बर्निंग ट्रेन (१९८०)

पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल का याराना है। ये शब्द रेल यात्रा को सुन्दर शैली में व्यक्त करते हैं। रेलयात्रा का यही सत्य है। रेलगाड़ी के भीतर फिल्माए गए इस गीत को मोहम्मद रफी एवं आशा भोंसले ने गाया है। आर.डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत के बोल साहिर लुधियानवी ने लिखे हैं।

हाथों की चंद लकीरों का – विधाता (१९८२)

यह एक दार्शनिक गीत है जिसमें दो वयस्क नायकों, दिलीप कुमार व शम्मी कपूर को दिखाया गया है। इस गीत के माध्यम से वे नियति एवं कर्म पर आपस में तर्क कर रहे हैं। इस गीत में दोनों रेल के डब्बे के भीतर नहीं, इंजिन के भीतर हैं तथा रेलगाड़ी चला रहे हैं। सुरेश वाडकर एवं अनवर हुसैन द्वारा गाये गए इस गीत को कल्याणजी आनंदजी ने संगीतबद्ध किया तथा इसके बोल लिखे हैं, आनंद बक्शी ने।

सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं – कुली (१९८३)

इस चित्रपट के नाम से ही यह समझ में आ जाता है कि यह एक कुली की कथा है। यह गीत बंगलुरु सिटी स्टेशन पर फिल्माया गया है जो इस गीत का वास्तविक नायक है।

गायक – शब्बीर कुमार, संगीतकार – लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, गीतकार – आनंद बक्शी

साजन मेरे उस पार – गंगा जमुना सरस्वती  (१९८८)

इस गीत में भारतीय रेल की विभिन्न श्रेणियां दिखाई गयी हैं जिनके माध्यम से उनके मध्य सामाजिक व आर्थिक विभाजन दर्शाया गया है।

गायिका – लता मंगेशकर, संगीतकार – अनु मालिक, गीतकार – इन्दीवर

कब से करे है तेरा इंतजार – कभी हाँ कभी ना (१९९४)

यह मधुर गीत कोंकण रेलवे का उत्सव मनाता है। भारत के सर्वाधिक हरियाली भरे क्षेत्रों से जाते हुए कोंकण क्षेत्र का अप्रतिम परिदृश्य दिखाया गया है। इसमें वास्को द गामा रेल स्टेशन भी दिखाया गया है।

अमित कुमार की मस्ती भरी गायकी को शाहरुख खान ने उतनी ही रोमांचक प्रस्तुति से अलंकृत किया है। जतिन-ललित के उत्कृष्ट संगीत व मजरूह सुल्तानपुरी के बोल, दोनों ने इस गीत को अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है।

और पढ़ें: मानसून में कोंकण रेलवे की यात्रा

छैंया छैंया – दिल से ( १९९८)

शाहरुख खान एवं मलाइका अरोरा ने नीलगिरी धरोहर रेलगाड़ी की छत पर फिल्माए इस रोमांचक गीत से चित्रपट प्रेमियों में धूम मचा दी थी। मेरे लिए इस गीत की विशेषता है, सुखविंदर सिंग एवं सपना अवस्थी के सशक्त स्वर जिसे लोक शैली में संगीतबद्ध किया ए. आर. रहमान ने। गीत लिखा गुलजार ने। ट्रेन पर फिल्माये बॉलीवुड गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय गीत।

कस्तो मज्जा है रेलैमा – परिणीता (२००५)

नायिका विद्या बालन का स्मरण करते नायक सैफ अली खान एक बार फिर दार्जीलिंग हिमालयन रेल में सवार हो गए हैं। यह गीत आपको अतीत काल में ले जाता है तथा रेलों का स्वर्णिम युग आपके समक्ष प्रस्तुत करता है। यह एक सुन्दर गीत है जिसे उतनी ही सुन्दर शैली में चित्रित किया है। इस मधुर गीत को मधुर स्वर प्रदान किये हैं गायक सोनू निगम ने। शांतनु मोइत्रा ने स्वानंद किरकिरे द्वारा लिखित इस गीत को सुन्दर संगीत प्रदान किया है।

मनु भैय्या क्या करेंगे – तनु वेड्स मनु (२०११)

दूसरे दर्जे के रेल डिब्बे में यात्रा कर रहा एक भरा पूरा परिवार इस लोकगीत के द्वारा अचानक उर्जा से भर जाता है तथा आनंद मनाने लगता है। रेलगाड़ी जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, परिवार के सदस्य नाचते गाते हैं तथा डिब्बे में ही विवाह उत्सव की विभिन्न विधियां एवं संस्कार करते हैं। मोहित चौहान के संगीत पर सुनिधी चौहान, उज्जैनी मुखर्जी एवं निलाद्री देबनाथ ने इस लोकगीत की सुन्दर प्रस्तुति की है।

फूलिश्क – की एंड का (२०१६)

यह गीत रेवाड़ी धरोहर रेल पर फिल्माया गया है। यह धरोहर रेलगाड़ी दिल्ली व रेवाड़ी के मध्य चलती है। इन दिनों यह चित्रपटों में अधिक दिखाई देती है। इस गीत का कोई औचित्य नहीं है। मेरे लिए यह गीत रेल संग्रहालय का भ्रमण है।

इनमें से आपके प्रिय गीत कौन से हैं? यदि मुझसे रेल पर फिल्माया कोई बॉलीवुड गीत छूट गया हो, जो आपको प्रिय हो, टिप्पणी खंड द्वारा मुझे अवश्य सूचित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भारत के जलगत पुरातत्व – अवसरों का सागर https://inditales.com/hindi/jalgat-puratattva-bharat-itihasa-bhavishya/ https://inditales.com/hindi/jalgat-puratattva-bharat-itihasa-bhavishya/#respond Wed, 06 Sep 2023 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3174

अनुराधा : नमस्ते। इंडीटेल्स के अन्तर्गत, डीटुअर्स में चर्चा करने के लिए आज हमारे साथ है, डॉ. अनुरुद्ध सिंह गौर, जो एक समुद्री पुरातत्त्वविद् (marine archeologist) हैं। जलगत पुरातत्व से मेरा सर्वप्रथम सामना तब हुआ था जब मैं द्वारका गयी थी। मैंने उससे संबंधित एक पुस्तक भी पढ़ी थी जिसके लेखक डॉ. एस आर राव […]

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अनुराधा : नमस्ते। इंडीटेल्स के अन्तर्गत, डीटुअर्स में चर्चा करने के लिए आज हमारे साथ है, डॉ. अनुरुद्ध सिंह गौर, जो एक समुद्री पुरातत्त्वविद् (marine archeologist) हैं। जलगत पुरातत्व से मेरा सर्वप्रथम सामना तब हुआ था जब मैं द्वारका गयी थी। मैंने उससे संबंधित एक पुस्तक भी पढ़ी थी जिसके लेखक डॉ. एस आर राव थे, जिन्होंने द्वारका के पुरातत्व पर शोध किया था। तब मुझे ज्ञात हुआ कि यह शोध कार्य राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा (National Institute of Oceanography) द्वारा किया गया था जो मेरे घर के अत्यंत समीप स्थित है। तब मैंने डॉ. अनुरुद्ध सिंह गौर से अनुरोध किया कि वे हमें जलगत पुरातत्व के विषय में कुछ जानकारी दें। अनुरुद्ध जी, डीटुअर्स में आपका स्वागत है।

भारत का जलगत पुरातत्व

ए एस गौर : आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराधा जी। मुझे यह जानकार प्रसन्नता हुई कि जलगत पुरातत्व में आपकी रूचि है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान में हमारा यह अधिदेश होता है, हमारा ध्येय होता है कि हम समुद्र विज्ञान के प्रत्येक आयाम के विषय में जानकारी प्राप्त करें। इसके अंतर्गत समुद्र संबंधी भौतिकी, रसायन विज्ञान एवं जीव विज्ञान तीनों आते हैं। हम में से वैज्ञानिकों का एक छोटा समूह जलगत पुरातात्विक धरोहरों पर भी कार्य कर रहा है।

जलगत पुरातत्व क्या है?

समुद्र की सतह कभी स्थिर नहीं रहती। वह ऊपर-नीचे होती रहती है।

ऐसा कहा जाता है कि १०,००० वर्ष पूर्व समुद्र की सतह आज से लगभग १०० मीटर नीचे थी। इसका अर्थ है कि आज जो क्षेत्र जलगत है, वह उस काल में जल से बाहर था। उस समय तटीय क्षेत्र की अधिकाँश जनसँख्या उन स्थानों में निवास करती थी।

जलगत वसाहत

जलगत पुरातत्व का एक आयाम है, जलगत खँडहर। प्राचीन काल से समय के साथ लम्बे समय के लिए अनुपलब्ध जैसे जैसे समुद्र का स्तर बढ़ने लगा, वैसे वैसे अनेक वसाहती क्षेत्र जलगत हो गए। इससे हम जैसे पुरातत्ववेत्ताओं के लिए शोध के अवसर उत्पन्न हो गए हैं।

जब समुद्र का स्तर १-२ मीटर बढ़ा तब उन क्षेत्रों में, जहाँ भूमि की ढलान अधिक नहीं थी, इसका अधिक प्रभाव पड़ा, जैसे गुजरात एवं तमिल नाडू। इससे वहाँ की वसाहत भी प्रभावित हुई। प्राचीन काल में गुजरात के तटीय क्षेत्र में १ मीटर जल स्तर बढ़ने पर ही एक बड़ा क्षेत्र वसाहत के लिए उपलब्ध नहीं रहा। लोग उस स्थान को त्याग कर स्थानांतरित हो गए। वह स्थान जलगत खँडहर बन गया। अब उसकी पुनः खोज करने का सुअवसर हमें प्राप्त हुआ।

जहाजों के अवशेष

जलगत पुरातत्व का दूसरा आयाम है, जहाजों के अवशेष। सिन्धु घाटी सभ्यता से भी पूर्व से जल परिवहन मनुष्य जाति का अभिन्न अंग रहा है। उसने समकालीन संस्कृति एवं सभ्यता के साथ व्यापार एवं वाणिज्य को जन्म दिया। अनेक सूत्रों से यह सर्वविदित है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने मेसोपोटामिया एवं मिस्र सभ्यता के लोगों के साथ जल मार्ग द्वारा ही व्यापार किया था। ओमान एवं संयुक्त अरब अमीरात की पुरातनता के कारण व्यापार के लिए थल मार्ग उपलब्ध नहीं था। थल मार्ग होता भी तो अत्याधिक लंबा होता। वहीं जल मार्ग अपेक्षाकृत अत्यंत छोटा था।

भारत का जलगत पुरातत्व मानचित्र
भारत का जलगत पुरातत्व मानचित्र

यदि आप मेसोपोटामिया एवं मिस्र से तुलना करें तो सिन्धु घाटी सभ्यता का तटीय क्षेत्र सर्वाधिक लंबा था। इसी कारण अपने समकालीन सभ्यताओं की तुलना में सिन्धु घाटी सभ्यता की समुद्री गतिविधियाँ अपेक्षाकृत अत्यधिक उन्नत थी। जल मार्ग द्वारा परिवहन में मानवी त्रुटियों एवं अनपेक्षित प्रतिकूल हवामान की भी संभावना अत्यधित रहती है। इन सब का परिणाम होता है, बड़े बड़े पोतों का जलमग्न हो जाना। भारतीय तटीय क्षेत्रों के निकट हमें समुद्र तल पर अनेक पोतों के अवशेष मिले हैं।

व्यापार एवं वाणिज्य

तीसरा प्रमुख आयाम जिसे हम समझने का प्रयास करते हैं, वह है व्यापार एवं वाणिज्य। इनका अनेक अभिलेखों में उल्लेख किया गया है। जैसे एक विदेशी सूत्र, ‘पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रीयन सी’ में कहा गया है कि मध्य भारत के उज्जैन से अनेक वस्तुओं का जल मार्ग द्वारा व्यापार किया जाता था जिसके लिए उन वस्तुओं को सर्वप्रथम वर्यकाजा अथवा भरुकच्च  के तट पर लाया जाता था। इस प्रकार समुद्री विज्ञान के अंतर्गत अनेक विषयों पर शोध किया जा सकता है।

मानवी सभ्यता के विकास में समुद्री क्रियाकलापों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जल परिवहन द्वारा विचारों का आदान-प्रदान संभव हो पाया जो विकास का एक प्रमुख आयाम है। समुद्री क्रियाकलापों एवं व्यापार मार्गों ने एक दूसरे की आवश्यकताओं को समझने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अन्यथा यदि सभ्यताएँ संकुचित रह जातीं तो आज उनका इतना विकास नहीं हो पाता।

सिन्धु घाटी सभ्यता के समय सभ्यता की जो नींव रखी गयी थी, वह अनवरत चलती रही। न्यूटन के विज्ञान के पश्चात भी सभ्यता में परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं थी। ना नगर नियोजन में किसी परिवर्तन की आवश्यकता रही, ना ही धातु विज्ञान, माप प्रणाली, कृषि प्रणाली आदि में।

गुजरात का समुद्री पुरातत्व

हमने अपने शोध का आरंभ गुजरात से किया था जहाँ हमें सभी कालखंडों के अवशेष प्राप्त हुए थे। उनमें सिन्धु घाटी सभ्यता, विभिन्न ऐतिहासिक कालखंड, मध्यकालीन कालखंड आदि सम्मिलित हैं। गुजरात तट की लंबाई लगभग २००० किलोमीटर है। वहाँ अनेक बंदरगाह हैं। हमने हमारा प्रथम अन्वेषण द्वारका एवं बेट द्वारका से आरंभ किया था। यह एक ऐसा इकलौता स्थान है जो शेष सौराष्ट्र से ओखा रण नामक रण द्वारा पृथक है। इस क्षेत्र को ओखा मंडल भी कहते हैं। प्राचीन काल में इसे उषा मंडल भी कहते थे क्योंकि इसका संबंध महाभारत के एक पात्र अनिरुद्ध एवं उनकी पत्नी उषा से है।

बेट द्वारका से प्राप्त लंगर
बेट द्वारका से प्राप्त लंगर

ओखामंडल में अनेक पुरातात्विक स्थल हैं, जैसे द्वारका, बेट द्वारका एवं नागेश्वर। वहाँ एक दर्जन से भी अधिक ऐसे स्थल हैं जो ऐतिहासिक कालखंड तथा मध्यकालीन कालखंड के हैं। ये सभी स्थल किसी ना किसी वर्त्तमान कालीन धार्मिक सिद्धांतों से जुड़े हुए हैं। उनमें से प्राचीनतम सिद्धांत है, नागेश्वर, जो एक सिन्धु घाटी सभ्यता का स्थल है। द्वारका अथवा बेट द्वारका तथा अन्य स्थल आरंभिक ऐतिहासिक कालखंड एवं मध्यकालीन सभ्यता से संबंधित हैं। समुद्र के भीतर शोध के द्वारा हमने यही जानकारी एकत्र की है तथा देखा है।

द्वारका

द्वारका में जल के भीतर, लगभग ३ से १० मीटर की गहराई में हमें अनेक संरचनाओं के अवशेष प्राप्त हुए। उन शैल संरचनाओं में कुछ भित्तियाँ, गोलाकार शैल संरचनाएं आदि प्रमुख हैं। वहाँ हमें बड़ी संख्या में शैल लंगर भी प्राप्त हुए। यह इस ओर संकेत करता है कि यहाँ बंदरगाह था। बंदरगाहों में लंगरों की आवश्यकता होती है। उन अवशेषों से यह संकेत प्राप्त होता है कि वह प्राचीनतम बंदरगाहों में से एक था। वहाँ डॉ. राव एवं डेक्कन कॉलेज द्वारा किये गए भूमि उत्खनन के कार्य से यह जानकारी प्राप्त हुई कि द्वारका का लगभग पाँच से छः गुना क्षेत्र जलमग्न हो गया तथा बालू के नीचे दब गया।

हमने देखा है कि सुनामी तथा चक्रवाती तूफानों जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण पूर्वी तटों को भारी क्षति पहुँची है। जैसे सन् २००४ में आयी सुनामी का परिणाम हम सब ने देखा है। इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का सामना द्वारका ने भी किया होगा। अनेक ज्ञात सूत्रों में इनका उल्लेख किया गया है। महाभारत में भी कहा गया है कि द्वारका समुद्र में समा गयी थी। यह सत्य है कि नगरी का अधिकाँश भाग समुद्र द्वारा नष्ट हो गया था।

बेट द्वारका

बेट द्वारका में जब हम घाट के निकट अन्वेषण कर रहे थे, हमें एक पोत के अवशेष प्राप्त हुए। यदि हमारा अनुमान सही है तो यह प्राचीनतम पोत अवशेष हैं जो भारत-रोम काल का है। ये अवशेष अनुमानतः १८००-२००० वर्ष प्राचीन हो सकते हैं। ये अवशेष उस स्थान पर अब तक के प्राचीनतम अवशेष हैं जिन्हें हमने खोज निकाला था।

द्वारका जलगत पुरातत्त्व
द्वारका जलगत पुरातत्त्व

बेट द्वारका में हमें मछली पकड़ने का एक सुन्दर काँटा मिला जो वहाँ के भूभाग क्षेत्र से प्राप्त हुआ। यह काँटा सिन्धु घाटी सभ्यता के अंतिम भाग का प्रतीत होता है। कदाचित ४००० वर्ष प्राचीन है। उस मछली पकड़ने के कांटे में जिस तकनीक का प्रयोग किया गया था, वही तकनीक अब भी प्रयोग में लाई जाती है।

इस कांटे की लम्बाई लगभग ७ सेंटीमीटर है। जब हमने वहाँ के स्थानिकों से चर्चा की, उन्होंने हमें बताया कि इस कांटे से लगभग १०-१५ किलो की बड़ी मछली को पकड़ा जा सकता है। ऐसी मछलियाँ गहरे पानी में होती हैं जिनको पकड़ने के लिए उन्हें किसी नौका की आवश्यकता पड़ी होगी। इस प्रकार हमें एक कलाकृति से ही कई जानकारियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

पावन शंख

बेट द्वारका क्षेत्र का अन्वेषण इस ओर संकेत करता है कि इस क्षेत्र में शंखों की कार्यशालाएं थीं। हमें यहाँ अनेक पवित्र शंख प्राप्त हुए जो भगवान विष्णु का प्रतीक हैं। यहाँ अनेक प्रकार की मछलियाँ भी पायी जाती थीं। जब हम ओखामंडल क्षेत्र से दक्षिण की ओर आये तब हम मूल द्वारका एवं विश्वाड़ा पहुँचे। गुजरात में चार द्वारका हैं। यहाँ भी हमें उसी प्रकार की वस्तुएं प्राप्त हुईं। जल के भीतर हमें शैल लंगर मिले, वहीं जलमग्न भूभाग में आरंभिक ऐतिहासिक काल के अवशेष मिले। २० किलोमीटर उत्तर में हमें हड़प्पा काल के अवशेष प्राप्त हुए।

पोरबंदर में हमें अनेक साक्ष्य प्राप्त हुए जो मध्यकाल के साथ साथ ब्रिटिश काल की ओर संकेत करते हैं। पूर्व की ओर नवीबंदर है जहाँ तट पर एक दुर्ग है। यह दुर्ग डाकुओं से नाविकों का संरक्षण करता था। हमें अनेक ऐसे साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जो यह संकेत करते हैं कि वहाँ के निवासी विदेशों से व्यापार व वाणिज्य संबंध बनाए हुए थे। अब हम सोमनाथ आते हैं, जिसे प्रभास क्षेत्र भी कहते हैं। मंदिर के दक्षिणी ओर भी हमें वही शैल लंगर इत्यादि प्राप्त हुए जो द्वारका में प्राप्त हुए थे। प्रभास स्वयं की एक हड़प्पा स्थल है जहाँ से हमें हड़प्पा पूर्व के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

डेक्कन कॉलेज द्वारा किये गए उत्खनन से यह ज्ञात हुआ कि नदी के समीप एक गोदाम था। यह स्थान हिरण्य नदी के किनारे है जो आगे जाकर समुद्र में विलीन हो जाती है। वह स्थान उस काल में अवश्य एक बन्दरगाह रहा होगा। समुद्री क्रियाकलापों का एक प्रमाणिक साक्ष्य शैल लंगर को माना जा सकता है।

शैल लंगर

अनुराधा : इन शैल लंगरों की आयु कैसे अनुमानित की जाती है?

ए एस गौर : यह लंगरों की निर्मिती तकनीक पर निर्भर करता है। प्राचील काल के लंगर शिला द्वारा बनाए जाते थे जबकि अब लोहे का प्रयोग किया जाता है। प्राचीन लंगरों में स्थानीय शिलाओं का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार शिलाओं के प्रकार एवं तकनीक द्वारा हम उनकी आयु का अनुमान लगा सकते हैं।

सोमनाथ से कोडीनार आते हैं जो पुनः एक मूल द्वारका क्षेत्र है। वहाँ तट पर दो हड़प्पा स्थल हैं। उस क्षेत्र में लगभग आधा दर्जन प्रारंभिक ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल हैं। मूल द्वारका, जहाँ द्वारकाधीश मंदिर स्थित है, एक ४-५ मीटर ऊँची बेलनाकार संरचना है। स्थानिक इसे दिवा दांडी कहते हैं जिसका अर्थ है प्रकाश स्तंभ। सन् १९८० तक इसका उपयोग किया जाता था जिसके पश्चात एक चक्रवात ने इसके ऊपरी भाग को क्षतिग्रस्त कर दिया था। यदि हमारा अनुमान तथा स्थानिकों की मान्यता सही हैं तो मध्यकालीन, लगभग १२-१३वीं सदी का यह प्रकाश स्तंभ भारत का प्राचीनतम जीवित प्रकाश स्तंभ है।

हमें ऐसे प्रमाण मिले हैं जो यह संकेत करते हैं कि गुजराती व्यापारी सुकुत्रा द्वीप जाते थे जो यमन के दक्षिणी ओर स्थित है। वहाँ हक नामक एक गुफा है जहाँ से लगभग २०० अभिलेख प्राप्त हुए हैं। उनमें से लगभग १८० अभिलेख ब्राह्मी में लिखित हैं जो १-३री सदी से सम्बद्ध हैं। हक गुफा में कई मुहरें भी मिली हैं जिनकी रूपरेखा एवं उन पर किये गए चित्र अथवा अभिलेख भरूच में प्राप्त मुहरों जैसे हैं।

शिकोत्रा माता मंदिर

गुजरात में अनेक तटीय मंदिर हैं जो शिकोत्रा माता या सिकोतर माता को समर्पित हैं। डॉ. एस आर राव तथा मेरा भी मानना है कि शिकोत्रा माता नाम या सिकोतर माता नाम सुकुत्रा द्वीप से ही आया है क्योंकि लोग जब अपनी नौकाएं लेकर सुकुत्रा द्वीप तक जाकर वापिस आते थे तब अपनी सुरक्षित यात्रा के लिए माता का धन्यवाद करते थे। हमने भारत में देखा है, जो भी मानव का संरक्षण करता है, हम उसकी आराधना करते हैं।

अनुराधा : जैसे शक्ति माता यात्राओं में तथा अन्यथा भी हमारी सदैव रक्षा करती हैं।

ए एस गौर : सत्यनारायण की कथा में भी यही बताया गया है जहाँ व्यापारी व्यापार के लिए अपने बेड़े लेकर दूर-सुदूर देशों में जाते हैं तथा वापिस आकर भगवान की पूजा करते हैं। ये सभी कथाएं व्यापारी समाज से ही संबंधित होती हैं। इनके अतिरिक्त हड़प्पा स्थल लोथल एवं गोगा में भी अनेक प्रमाण मिले हैं। ये तटीय स्थल हैं। भारत सरकार अब इसे राष्ट्रीय समुद्री विरासत परिसर के रूप में विकसित कर रही है। इस प्रकार गुजरात प्राचीन समुद्री व्यापार एवं वाणिज्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयामों का साक्षी रहा है। सभ्यता के आरम्भ से व्यापार गुजरातियों के खून में बसा हुआ है। दक्षिण की ओर महाराष्ट्र में आयें तो सोपारा एक महत्वपूर्ण स्थल है जहाँ एलिफेंटा जैसे अनेक व्यापारिक केंद्र स्थल थे।

महाराष्ट्र का समुद्री पुरातत्व

अनुराधा : एलिफेंटा एक दुर्लभ गुफा प्रणाली है जो पूर्णतः भगवान शिव को समर्पित है। एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि इन गुफाओं में सम्पूर्ण शिव पुराण लिखा हुआ है। यह द्वीप एक व्यापारिक बन्दर के रूप में कैसा रहा होगा?

ए एस गौर : यह वास्तव में घारापुरी के नाम से जाना जाता था। यह भारत-रोम काल में एक बंदरगाह था जब समुद्र का स्तर अपेक्षाकृत नीचे था। कदाचित उस समय कल्याण या सोपारा जैसे बंदरगाह नहीं थे। रोम के सिक्के तथा उस काल से संबंधित अनेक वस्तुएं यहाँ प्राप्त हुए हैं।

दाभोल

दक्षिण की ओर जाते हुए हम दाभोल पहुँचते हैं। यहाँ तट पर एक अनोखा लोयलेश्वर मंदिर है। लंगर का अर्थ मराठी भाषा में लोयली होता है। इस मंदिर में वे एक लंगर को ही देवी के रूप में पूजते थे। दाभोल मुंबई से लगभग २०० किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है। उससे दक्षिण की ओर आयें तो वहाँ विजयदुर्ग किला एवं पोतगाह है जो मराठा कालीन है। इसके दक्षिण की ओर सिंधुदुर्ग है। यह दुर्ग एक छोटे द्वीप पर स्थित है। वहाँ भी हमें शैल लंगर प्राप्त हुए हैं।

गोवा से प्राप्त लंगर
गोवा से प्राप्त लंगर

गोवा में भी हमें ४-५ पोतों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पिलार क्षेत्र के निकट एक बन्दरगाह है जिसका नाम गोपकपट्टनम है। वहाँ हमें ऐसे प्रमाण मिले है जो यह संकेत करते हैं कि वह एक बंदरगाह था तथा यहाँ से व्यपारिक गतिविधियाँ की जाती थीं। केरल में हमने कोल्लम में भी गोताखोरी की है। वहाँ से हमें कई चीनी सिक्के प्राप्त हुए हैं। कदाचित वहाँ भी कोई पोत दुर्घटनाग्रस्त हुआ था क्योंकि खोज के समय वहाँ से बड़ी संख्या में सिक्के एवं कुम्हारी के अवशेष मिले हैं।

अनुराधा : केरल में अब भी मछली पकड़ने के लिए चीनी जाल का प्रयोग किया जाता है।

ए एस गौर : ऐसा लगता है कि चीन से लोग व्यापार के लिए कोल्लम तक आते थे। यहाँ से वे वस्तुएं अन्य पोतों द्वारा विभिन्न स्थानों तक पहुँचाते थे। कोल्लम में एक चाइना कॉलोनी भी है। गुजरात के हाथा में भी हमें एक लंगर मिला था जो चीनी लंगर के समान था।

लक्षद्वीप के दक्षिणतम द्वीप, मिनिकॉय में हमने तीन से चार दुर्घटनाग्रस्त पोतों का अन्वेषण किया था।

भारत के पूर्वी तट के पुरातत्व स्थल

भारत के पूर्वी तट पर एक प्रसिद्ध स्थल है, पूम्पुहार जहाँ पर हमने पुरातात्विक अन्वेषण किया था। हमें यह सुझाया गया था कि पश्चिमी तट पर बसे द्वारका के ही समान भारत के पूर्वी तट पर भी पूम्पुहार में संगम काल में एक नगरी बसी हुई थी। पाँच से छः मीटर गहरे अंतर्ज्वारीय क्षेत्र में हमें उस समय के कुम्हारी के अवशेष प्राप्त हुए थे। स्थानिक किवदंतियों के अनुसार वहाँ के राजा ने इंद्रदेव का उत्सव नहीं मनाया था जिसके कारण वह नगरी जलमग्न हो गयी थी। अब हम कह सकते हैं कि वह नगरी वास्तव में जलमग्न हो गयी थी।

द्वारका में मिले पाषाण लंगर
द्वारका में मिले पाषाण लंगर

कुछ उत्तर की ओर, महाबलीपुरम में कुछ रोचक परम्पराएं थीं। वहाँ ७ मंदिर अस्तित्व में थे जिनमें से छः जलमग्न हो गए। यद्यपि इसका भारतीय साहित्यों में कोई उल्लेख नहीं है। इसका प्रलेखन एक ब्रिटिश यात्री ने किया है। उसके आधार पर हमने यहाँ खोजबीन आरम्भ की। हमें ३-५ मीटर की गहराई में कुछ मानव निर्मित संरचनाएं अवश्य दिखीं किन्तु हम विश्वास के साथ यह नहीं कह सकते कि वे मंदिर ही हैं। कुछ अवशेष ९ मीटर की गहराई तक भी बिखरे हुए हैं। उन पर अधिक अन्वेषण शेष है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन कथाओं में कुछ सत्यता अवश्य होगी।

सुनामी

अनुराधा : लोग कहते हैं कि सन् २००४ में जब सुनामी आई थी तथा जब पानी पीछे हटा, तब ये संरचनाएं दृश्यमान होने लगीं थी। किसी ने उनका चित्र भी लिया था। इसमें कितनी सत्यता है?

ए एस गौर : उस स्थान का कोई भी मानचित्र अथवा उपग्रह चित्रण उपलब्ध नहीं है। यह सब अचानक ही हुआ था। उस समय किसी के पास आधुनिक कैमरे नहीं होते थे। इसी कारण उसका कोई प्रमाण नहीं है। अनेक लोगों ने हमें बताया कि जब ये मंदिर के अवशेष दृश्यमान हुए थे, तब उन लोगों ने उन्हें देखा था। पुरातत्व शास्त्र में एक वर्गीकरण है, वसाहती स्थल। जब हमें वहाँ कुम्हारी आदि के कोई अवशेष नहीं मिलते तो हम उस स्थल को वसाहती स्थल के वर्गीकरण में नहीं रखते। वहाँ से मिले अवशेषों के अनुसार हमने यह अनुमान लगाया है कि वे वसाहती स्थल थे। १९वीं सदी तक भी वहाँ स्तंभ आदि के कुछ अवशेष उपलब्ध थे। उनके चित्र भी लिए गए थे तथा प्रकाशित किये गए थे।

वैशाखेश्वर मंदिर

उत्तर की ओर जाते हुए हम वैशाखेश्वर मंदिर की चर्चा करते हैं जिस पर आंध्रा विश्विद्यालय ने कुछ अन्वेषण कार्य किया है। इस स्थान पर कुछ मध्यकालीन मंदिर जलगत अवस्था में उपस्थित हैं। किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा ने इन्हें नष्ट किया होगा।

अनुराधा : ऐसा कहा जाता है कि विशाखापटनम का नाम विशाखा देवी मंदिर के नाम पर रखा गया है। इससे यह अनुमान लगता है कि वहाँ विशाखेश्वर मंदिर भी रहा होगा। लोक कथाओं के अनुसार किसी कारण से यह मंदिर भी समुद्र के जल में समा गया था। क्या इस मंदिर के भी कोई अवशेष वहाँ मिले हैं?

ए एस गौर : हमने अभी तक उन स्थलों का अन्वेषण आरम्भ नहीं किया है। ओडिशा की ओर आयें तो वहाँ चिलिका सरोवर है जो जल परिवहन क्षेत्र में अत्यंत सक्रिय था। लोग वहाँ से दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्रों की यात्रा करते थे। वहाँ पर भी अनेक पुरातात्विक स्थल हैं जहाँ पर उत्खनन का कार्य किया गया है। वहाँ से उत्तर की ओर ताम्रलिप्ति बन्दरगाह था जो आरंभिक ऐतिहासिक काल में अत्यंत प्रसिद्ध था। यह बंदरगाह गंगा के मुहाने पर स्थित था। यहाँ से वाराणसी एवं कानपुर जैसे गंगा के मैदानी क्षेत्रों तक व्यापार मार्ग उपलब्ध था तथा यह मार्ग व्यापार के लिए लोकप्रिय था।

जलगत पुरातत्व – समुद्र या नदियाँ या सरोवर?

अनुराधा : मैंने १५-१६वीं सदी की कुछ बंगाली काव्य रचनाओं में इनके विषय में पढ़ा था। एक प्रश्न है, क्या आप पुरातात्विक उत्खनन केवल समुद्र में करते हैं कि नदियों तथा सरोवरों में भी करते हैं?

ए एस गौर : जब हम जलगत अथवा जलगत पुरातत्व कहते हैं तब उसमें सभी सम्मिलित होते हैं। अब तक हमने मीठे जल के स्त्रोतों के भीतर कोई उत्खनन कार्य आरम्भ नहीं किया है। अब तक हमने पुरातत्व अन्वेषण कार्य को समुद्र तक ही सीमित किया हुआ था। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि जल मार्ग थल मार्ग की तुलना में अधिक सुगम तथा सस्ता होता है। उस काल में ही उन्होंने इसका अनुमान लगा लिया था। वे जान गए थे कि मगध से गंगा नदी द्वारा परिवहन व्यापार के लिए अधिक लाभकारी होगा। किन्तु नदियों के तल इसकी ठोस जानकारी नहीं दे पाते क्योंकि नदियाँ बहुधा अपना मार्ग परिवर्तित करती रहती हैं। नदियों के घाटों पर भी नवीनीकरण का कार्य समय समय पर किया जाता रहा है।

व्यवसाय के रूप में जलगत पुरातत्व

अनुराधा : प्रिय पाठकों, मैं आपको अनुरुद्ध जी के विषय में बताना चाहूंगी कि भारत में आज केवल तीन ही  समुद्री पुरातत्वविद् हैं तथा अनुरुद्ध जी उनमें से एक हैं। सर, क्या आप हमें बता सकते हैं कि यदि किसी को जलगत पुरातत्व को व्यवसाय के रूप में अपनाना हो तो उसे क्या करना चाहिए? उनके लिए कैसे अवसर उपलब्ध हैं?

ए एस गौर : एक योग्य पुरातत्वविद् के पास पुरातत्व शास्त्र तथा प्राचीन इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि होनी आवश्यक है। उसे गोताखोरी भी सीखनी पड़ती है। भारत में अब इसके अनेक अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। यह एक अनछुआ क्षेत्र है। पुरातत्व स्थलों को पर्यटन स्थलों के रूप में भी विकसित किया जा सकता है। जैसे द्वारका, बेट द्वारका तथा महाबलीपुरम में यह किया जा सकता है क्योंकि वहाँ का जल पारदर्शी है। हम जलगत धरोहर स्थलों का विकास कर सकते हैं। सामान्य जनता को इनकी अधिक जानकारी नहीं है।

एक दक्ष पुरातत्वशास्त्री ही ऐसा कर सकता है तथा इस कार्य को आगे ले जा सकता है। जैसे पर्यटक ताज महल, कुतुब मीनार आदि देखने जाते हैं, उसी प्रकार उन्हें इस ओर भी आकर्षित किया जा सकता है। यह देशी एवं विदेशी दोनों पर्यटनों के लिए उत्तम अवसर प्रदान कर सकता है।

अवसर

अनुराधा : पुरातत्व शास्त्र में आवश्यक ज्ञान अर्जित करने के पश्चात हमारे लिए कैसे अवसर उपलब्ध हैं? हमें व्यवसाय के अवसर कौन प्रदान कर सकता है? भारत में समुद्री अथवा जलगत पुरातत्व का क्या भविष्य है?

ए एस गौर : वास्तव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत जलगत पुरातत्व भी एक छोटा सा भाग है। किन्तु अभी सक्रिय नहीं है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के अंतर्गत हम इस पर कार्य कर रहे हैं। भारत में इसके असीमित अवसर उपलब्ध हैं। भारत का लम्बा तटीय क्षेत्र है। उसके प्रत्येक भाग में जलगत उत्खनन अनुसंधान एवं व्यावसायीकरण के असीमित अवसर उपलब्ध हैं। लोग गोताखोरी सीख रहे हैं। लोग इस प्रकार के पर्यटन में भी रूचि दिखा रहे हैं।

पुरापाषण युगीन तटरेखा

वैज्ञानिक अनुसन्धान प्रयोजनों के लिए हम जलगत पुरातत्व को एक यंत्र के रूप में प्रयोग कर रहे हैं ताकि हम भारत के पुरापाषाणयुगीन तटरेखा को समझ सकें। समुद्री वैज्ञानिकों के समान हम भी वहाँ से नमूने एकत्र करते हैं तथा उन पर शोध कार्य करते हैं। उससे हमें यह जानकारी प्राप्त हो सकती है कि उस स्थान पर पुरातात्विक स्थल उपस्थित हैं अथवा नहीं हैं। समुद्र स्तर में परिवर्तन के साथ तटीय रेखाएं किस प्रकार परिवर्तित हुई हैं, यह जानकारी भी प्राप्त होती हैं। तटीय क्षेत्रों के विकास कार्यों में इन शोध परिणामों का उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार जलगत पुरातत्व का पर्यटन, औद्योगीकरण, तटीय विकास कार्य आदि में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

अनुराधा : इसका अर्थ है कि जलगत पुरातत्व के अंतर्गत अनुसंधान कार्य, पर्यटन, सांस्कृतिक धरोहर तथा जलगत धरोहर आदि में अनेक अवसर उपलब्ध हैं। यदि लोगों को इनकी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो जाए तथा उन्हें इनमें रूचि उत्पन्न हो जाए तो अवसरों की कमी नहीं है। यह एक सकारात्मक संकेत है।

सर, जलगत पुरातत्व में आपने हमें आज अत्यंत रोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की है। इसके लिए मैं आपका हृदय से धन्यवाद करना चाहती हूँ।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत इस वार्तालाप का प्रलेखन पल्लवी ठाकुर ने किया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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मुंह में पानी लाने वाले २५ स्वादिष्ट भारतीय गलियों के व्यंजन (स्ट्रीट फूड) https://inditales.com/hindi/bharat-ki-galiyon-ka-khana/ https://inditales.com/hindi/bharat-ki-galiyon-ka-khana/#comments Wed, 12 Jan 2022 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2533

स्ट्रीट फूड वो स्वादिष्ट व्यंजन होते हैं जो चहल-पहल भरे मार्गों के किनारे लगे ठेलों, गुमटियों व छोटी दुकानों में ताजे-ताजे मिलते हैं। आप भले ही एक अच्छे रसोइया हों या व्यंजन बनाने में निपुण हों, किन्तु अपने व्यंजनों में वही स्वाद उत्पन्न करना लगभग असंभव होता है जो इन गलियों के व्यंजन देते हैं। […]

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स्ट्रीट फूड वो स्वादिष्ट व्यंजन होते हैं जो चहल-पहल भरे मार्गों के किनारे लगे ठेलों, गुमटियों व छोटी दुकानों में ताजे-ताजे मिलते हैं। आप भले ही एक अच्छे रसोइया हों या व्यंजन बनाने में निपुण हों, किन्तु अपने व्यंजनों में वही स्वाद उत्पन्न करना लगभग असंभव होता है जो इन गलियों के व्यंजन देते हैं। कदाचित यह स्वाद के साथ वहाँ के चहल-पहल भरे वातावरण का प्रभाव हो। या उन फेरीवालों से बने आत्मीय संबंधों का प्रभाव हो, जिसके कारण वे बड़े ही प्रेम से हमें अपने व्यंजन खिलाते हैं। या कदाचित उसी अनुभव की पुनरावृत्ति की चाह हमें वहाँ खींच कर ले जाती है। मेरे अनुमान से इसका उत्तर किसी के पास नहीं होगा। सत्य कहूँ तो जब तक सड़क के किनारे हमें हमारे प्रिय व्यंजनों का आस्वाद लेने का अवसर प्राप्त हो रहा है, किसी को इस प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं होगी।

चटपटे भारतीय गलियों के व्यंजन
चटपटे भारतीय गलियों के व्यंजन

सड़क किनारे बिकते भारतीय स्वादिष्ट गलियों के व्यंजन उतने ही विविधतापूर्ण हैं जितना हमारा भारत देश। इन व्यंजनों के एक प्रकार वो होते हैं जो देश भर में उपलब्ध होते हैं। दूसरे वो जो एक क्षेत्र की विशेष पहचान होते हैं। प्रत्येक गाँव, नगर व शहर से संबंधित कुछ विशेष व्यंजन होते हैं जो केवल उसी क्षेत्र में उपलब्ध होते हैं। अन्यत्र नहीं। कुछ ऐसे विक्रेता होते हैं जो अनेक वर्षों से अपने ग्राहकों की चटोरी जिव्हा को संतुष्ट करते आ रहे हैं। उनके अनेक निष्ठावान प्रशंसक होते हैं जिन्हे वे विक्रेता अपने स्वादिष्ट व्यंजनों की सहायता से जोड़ते हैं। ऐसे विक्रेता एक प्रकार से उस नगरी की अप्रत्यक्ष धरोहर होते हैं। लखनऊ जाएँ एवं वहाँ की टोकरी चाट का आस्वाद ना लें अथवा मुंबई जाएँ तथा वहाँ का वड़ा-पाव चखे बिना ही लौट आयें, क्या आप ऐसी कल्पना भी कर सकते हैं?

भारत की मार्गों के किनारे हर दिन सैकड़ों प्रकार के विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजनों का आस्वाद लिया जाता है। क्या आप जानना चाहते हैं कि इन व्यंजनों में कौन कौन से सर्वाधिक लोकप्रिय व्यंजन हैं? आईए मैं आपको भारत की इन्ही चटोरे मार्गों की सैर कराती हूँ।

वैधानिक चेतावनी – सावधान! आपके मुँह में पानी आ सकता है।

लोकप्रिय भारतीय चटोरी गलियों के व्यंजन

गोल गप्पे या पानी पूरी

सड़क किनारे बिकते लोकप्रिय भारतीय गलियों के व्यंजन की सूची में सर्वोच्च स्थान गोल गप्पे या पानी पूरी का है, इसमें कोई शंका नहीं है। आकार में २ इंच की छोटी सी पूरी या गोलगप्पा जिसमें मसाले वाले उबले आलू तथा चने का मिश्रण भरकर उसमें चटपटा मसालेदार पानी लबालब भरा जाता है। इसे ऐसे ही सम्पूर्ण खाना पड़ता है जिसके लिए मुंह बड़ा खोलना पड़ता है। जैसे ही हम मुंह बंद करते है, यह कुरकुरी पूरी टूट जाती है तथा मुंह में विभिन्न स्वादों की आंधी आ जाती है। हमारी सभी इंद्रियों पर विस्फोट हो जाता है। कानों में कुरकुरी पूरी के टूटने की ध्वनि, जिव्हा पर भिन्न भिन्न स्वाद, मुख पर हंसी, आँखों में कदाचित पानी, त्वचा पर तृप्ति के रोंगटे  तथा हृदय में ऐसे ही एक और उपद्रव का लोभ।

गोल गप्पे, पानी पूरी, पुच्के, पानी बताशे, गुपचुप - हर नाम से स्वादिष्ट
गोल गप्पे, पानी पूरी, पुच्के, पानी बताशे, गुपचुप – हर नाम से स्वादिष्ट

पानी पूरी कभी भी पर्याप्त नहीं होती। खाते खाते भले ही पेट भर जाए लेकिन मन नहीं भरता।

इसे उत्तर भारत में गोल गप्पे, पश्चिम भारत में पानी पूरी, पूर्वी भारत में पुचका तथा मध्य भारत में पानी बताशे, बताशे अथवा गुपचुप कहते हैं।

तकनीकी रूप से भी इनमें किंचित भिन्नता होती है। जैसे गोल गप्पों में सदा ठंडा मसाला-पानी डाला जाता है। वहीं, पानी पूरी में गुनगुना तथा पुचका में कुछ डाले के बिना केवल मसाला-पानी डाला जाता है। इन सब में समान तत्व चटपटा खट्टा स्वाद होता है जो आपके जीभ पर कुछ समय तक रहता है।

आप भारत के किसी भी कोने में जाएँ, आपको गोल गप्पे का कोई ना कोई प्रकार अवश्य चखने मिलेगा।

समोसा/कचौरी

कढ़ाई से निकले समोसे
कढ़ाई से निकले समोसे

तिकोना समोसा अपनी गोल गोल मौसेरी बहिन कचौरी के संग उत्तर भारतीयों को विशेष रूप से प्रिय हैं। ये लोकप्रिय संध्याकालीन नाश्ते हैं। राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में तो अनेक लोग अपने दिन का आरंभ ही इन्ही से करते हैं। मेरे शालेय एवं विद्यार्थी दिवसों में गर्म गर्म समोसे के साथ एक गर्म चाय की प्याली हमें प्रसन्न कर देती थी। मेरे महाविद्यालय के जलपान गृह में केवल समोसे एवं चाय उपलब्ध थे। इनके अतिरिक्त हमें किसी अन्य व्यंजन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी।

स्वाद के सामान्य हेरफेर के साथ समोसा भारत के सभी क्षेत्रों में लगभग सार्वभौमिक हैं। गोवा में इसका एक अन्य प्रकार, मशरूम समोसा भी बिकता है।

कचौरी अनेक प्रकार की होती है, जैसे दाल कचौरी, प्याज की कचौरी, पिट्ठी कचौरी इत्यादि।

सुझाव – आप दुकान में उसी समय पहुंचे जब समोसे/कचौरियाँ गर्म गर्म तली जा रही हों। सर्वोत्तम खस्ता स्वाद के लिए कढ़ाई से सीधे अपनी थाली में लें।

वड़ा पाव, पाव भाजी एवं बन मस्का

पाव अथवा पाओ का शाब्दिक अर्थ है, रोटी का एक चौथाई भाग। इसका प्रचलन तब आरंभ हुआ जब मुंबई के मिल कामगारों को जलपान के लिए बहुत कम समय की छुट्टी दी जाती थी। उस समय वे चाय के साथ एक पाव खाकर तुरंत कार्य पर लग जाते थे। मिल के जलपानगृह में यही पाव रस्से वाली भाजी के साथ उपलब्ध होती थी। शनैः शनैः मुंबई के अन्य जलपानगृहों एवं सड़क के किनारे गुमटियों व ठेलों में भी पाव-भाजी की बिक्री होने लगी।

बन चाय
बन चाय

मुंबनी के ईरानी कैफै ने पाव को भरपूर मक्खन के साथ परोसना आरंभ किया जो आज भी बन-मस्का के नाम से लोकप्रिय है।

सन् १९७० में वड़ा पाव का स्वरूप किंचित परिवर्तित हो गया जब दो पाव के बीच में आलू का बोंडा व चटनी भरकर एक नवीन प्रकार तैयार हुआ। यह प्रकार सर्वप्रथम दादर रेलस्थानक के आसपास अत्यंत लोकप्रिय हुआ। आज यह मुंबई की दौड़ती हुई जनता का प्रिय नाश्ता है। एक वड़ा-पाव उठाइए तथा खाते खाते अपने गंतव्य की ओर जाईए।

ये तीनों नाश्ते सम्पूर्ण महाराष्ट्र, विशेषतः मुंबई में अत्यंत प्रसिद्ध है। इन तीन पाव के व्यंजनों में मुझे पाव-भाजी सर्वाधिक प्रिय है। आप इन तीनों का आस्वाद लीजिए तथा बताईए आपको कौन सा सर्वाधिक प्रिय प्रतीत हुआ।

पाव के इन व्यंजनों का एक रूप मिसल-पाव भी है। इसमें पाव मिसल नामक रसे के साथ परोसी जाती है। मिसल की प्रमुख सामग्री अंकुरित मटकी के दानों की उसल  होती है।

पकोड़ा या भजिया

कोई भी भाजी लीजिए, उसे बेसन के घोल में डुबोइए, तत्पश्चात गर्म तेल में तल लीजिए। आपके भजिए तैयार! अपनी प्रिय चटनी के साथ खाइए। पकोड़ों के साथ टमाटर, पुदीना तथा इमली की चटनियाँ अधिक लोकप्रिय हैं। दक्षिण भारत में तो पकोड़ों के साथ सर्वव्यापी नारियल की चटनी परोसी जाती है।

ब्रेड पकोड़ा और कचौरी
ब्रेड पकोड़ा और कचौरी

सम्पूर्ण भारत देश में सर्वाधिक लोकप्रिय पकोड़े प्याज के हैं। स्वाद व आकार में किंचित परिवर्तन हो सकता है। कुछ प्रदेशों में बेसन में अन्य आटे मिलाए जाते हैं, जैसे चावल का आटा। किन्तु मूल स्वाद एवं बनाने की रीत लगभग समान ही होती है। पकोड़ों में दूसरा प्रिय चयन है आलू। आलू भी भारत में सर्वत्र उपलब्ध है। इसके पश्चात फूल गोभी का स्थान है जो बहुधा उत्तर भारत में अधिक पसंद किया जाता है।

दक्षिण भारत में मिर्ची की भज्जी अत्यंत लोकप्रिय है। इसके लिए बड़ी मिर्चों का प्रयोग किया जाता है जो अधिक तेज नहीं होती।

सम्पूर्ण भारत में विद्यार्थीगणों में ब्रेड पकोड़ा अत्यंत लोकप्रिय है क्योंकि यह क्षुधा शांत करने में अत्यंत कारगर होता है।

कुछ सम्पन्न स्थानों में पनीर के पकोड़े भी खाए जाते हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो आप पत्तीदार शाकभाजी समेत लगभग किसी भी भाजी से भजिए बना सकते हैं। भजियों के संसार मे मुंगोडे अथवा मूंग बड़े एक अहम अध्याय है। अधछिली मूंग दाल से बने छोटे छोटे मुंगोडे वर्षा ऋतु मे खाते ही बनते  है।

आलू टिक्की

गोल चपटी आलू की टिकिया जो आपके समक्ष तेल में सेंककर आपके चुने मसाले, दही, हरी चटनी, कटे प्याज, धनिया, सेव इत्यादि के साथ सजाकर जब परोसी जाती है, तो उसे देखकर ही मुंह में पानी आ जाता है। यह आलू टिक्की भी देश के चहल-पहल भरे मार्गों के किनारे स्थित ठेलों पर बहुतायत में उपलब्ध होती है।

वृन्दावन की आलू टिक्की
वृन्दावन की आलू टिक्की

जब आलू टिक्की बनाने वाला आपसे पूछकर आपके पसंद के मसाले, दही तथा चटनी इत्यादि डालता है तथा गर्म गर्म परोसता है तो स्वाद के साथ आत्मीयता का भी आभास होता है। आपके मुंह को मानो वरदान प्राप्त हो जाता है।

आलू टिक्की का एक दूर का भाई है, आलू बोंडा। उबले आलुओं में मसाले डालकर उसके गोलों को बेसन के घोल में डुबोकर तेल में तला जाता है। लोग इसे हरी चटनी तथा तली मिर्च के साथ खाते हैं। जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं आलू टिक्की से ही अत्यंत प्रसन्न रहती हूँ।

पापड़ी चाट/सेव पूरी/मसाला पूरी

चपटे गोल गप्पों को पापड़ी कहा जाता है। मेरे अनुमान से जो गोलगप्पे फूलते नहीं उन्हे पापड़ी के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। ये किसी भी व्यंजन को कुरकुरापन प्रदान करते हैं। इस पापड़ी से आप विभिन्न प्रकार के चाट बना सकते हैं। इन पर दही, आलू, मसाले, चटनी इत्यादि डालें तो यह पापड़ी चाट बन जाती है। इन पर मसले हुए उबले मटर भी डाल दें तो यह मसाला पूरी बन जाती है। उसी प्रकार इन पर यदि बहुत सारा बारीक सेव छिड़क दें तो यह सेव पूरी बन जाती है। आप अपनी पसंद से जो चाहे, जितना चाहे डालकर अपनी पसंद की चाट बना सकते हैं।

भेल पूरी/ झाल मूरी

भेल पूरी
भेल पूरी

इस व्यंजन की प्रमुख सामग्री है मुरमुरा। करारे ताजे मुरमुरे में अपनी पसंद की खट्टी-मीठी चटनियाँ, सेव, प्याज, पापड़ी के टुकड़े तथा चटपटे मसाले डालिए, आपकी भेलपूरी तैयार! मुझे यह प्रायः खिली खिली प्रिय लगती है। यदि आपको भीगी भीगी भेल प्रिय हो तो चटनी का प्रमाण बढ़ाना पड़ेगा। आरंभ में यह मुंबई वासियों का प्रिय नाश्ता होता था। अब यह भारत के सभी क्षेत्रों में मिलने लगा है।

बंगाल में इसमें आम का आचार एवं सरसों का तेल भी डाला जाता है। ये सामग्रियाँ भेल को एक ठेठ बंगाली स्वाद प्रदान करते हैं। बंगाल में इसे झाल मूरी कहते हैं।

दोसा/इडली/वड़ा

कर्नाटक की एक छोटी सी नगरी में प्रातःकालीन सैर के पश्चात भाप छोड़ती गर्म गर्म इडली खाना मेरे अनुभव से इसके लिए सर्वोत्तम समय एवं स्थान है। ऐसे नगरों में प्रातः लोगों के नींद की गोद से उठने से पूर्व ही ये विक्रेता अपने ठेलों, गाड़ियों, साइकलों एवं सड़क किनारे स्थित गुमटियों में इडली बिक्री करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त आप इडली, दोसा, उत्तप्पा तथा मेरा प्रिय मेदु वड़ा किसी भी उडुपी जलपानगृह में खा सकते हैं। उडुपी जलपानगृह यूँ तो सम्पूर्ण भारत में उपलब्ध हैं, किन्तु ये दक्षिण भारत में बहुतायत में हैं तथा आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

इडली वडा खाइए और काम पे चलिए
इडली वडा खाइए और काम पे चलिए

आजकल दोसा के अनेक प्रकार भी प्रचलन में हैं, जैसे सेट दोसा जो एक मोटा व छोटा दोसा होता है। नीर दोसा जो अत्यंत महीन एवं जाली युक्त दोसा है। मूंगदाल दोसा तथा रवा दोसा भी लोग चाव से खाते हैं। यहाँ तक कि हैदराबाद में एम एल ए (विधायक) दोसा भी बिकता है। डोसे की भरावन भी क्षेत्र के अनुसार परिवर्तित हो जाती है। सामान्यतः आलू की भाजी दोसा के भीतर भरी जाती है। मुंबई में आपको चीनी दोसा भी मिलेगा जिसके भीतर नूडल भरा जाता है। कुछ उच्च स्तर के जलपानगृहों में पनीर अथवा चीस दोसा भी मिलता है। किन्तु मुझे इनमें से ठेठ आलू की भरावन ही भाती है।

इडली लगभग सार्वभौमिक है। रवा इडली भी एक लोकप्रिय प्रकार है। इनके अतिरिक्त, जब भी आपको अवसर प्राप्त हो, आप घी में भीगी गुन्टूर इडली तथा बहु-अनाज कांचीपुरम इडली का स्वाद भी अवश्य चखें।

मेदु वड़ा भी यूँ तो अपने मूल स्वरूप में सर्वाधिक स्वादिष्ट होता है, किन्तु इसके कुछ भिन्न प्रकार भी मिलते हैं, जैसे मैसूर वड़ा, दाल वड़ा, मंगलुरु भज्जी इत्यादि।

जलेबी

लुभावनी जलेबी
लुभावनी जलेबी

जलेबी उन कुछ मिठाइयों में से एक है जो उत्तर एवं मध्य भारत में किसी भी चटपटे नाश्ते के समान चाव से खायी जाती है। इसके अंदर एवं बाहर शक्कर की मिठास लबालब भरी होती है। कुछ स्थानों में यह शक्कर की चाशनी से भरी तथा नर्म होती हैं तो कुछ स्थानों में किंचित कम मीठी व कुरकुरी होती हैं। कहीं कहीं इसमें मावा मिलाकर बनाया जाता है जिसे मावा जलेबी कहते हैं। चटक नारंगी रंग की ये जलेबियाँ दूर से ही आकर्षित करती हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे कुरकुरी भूरे रंग की जलेबियाँ प्रिय है जो मुंह मे भीतर जाकर चरमराते हुए मिठास घोलती हैं।

मेरी प्रिय इमरती
मेरी प्रिय इमरती

जलेबी का ही एक परिवर्तित रूप है, इमरती। इसे बनाने में मैदा के स्थान पर उड़द दाल अथवा चना दाल का प्रयोग किया जाता है। यह मुझे इतना भाता है कि यदि कोई मुझसे मेरी अंतिम इच्छा पूछे तो मैं इमरती का नाम लूँगी।

मूँगफलियाँ

ताज़ी भुनी मूंगफली
ताज़ी भुनी मूंगफली

मूँगफलियाँ भी सम्पूर्ण भारत की प्रिय खाद्य वस्तु है जिसे लोग चलते-फिरते एक एक कर मुंह में डालकर चाव से खाना पसंद करते हैं। उत्तर भारत में ये सामान्यतः भूनकर बिकते हैं, वहीं दक्षिण भारत में इन्हे उबालकर खाया जाता है। स्वाद के लिए इसमें नमक डाला जाता है। कुछ स्थानों में इसमें कटे प्याज व टमाटर डालकर, चटपटा बनाकर खाया जाता है। मूगफलियाँ अन्य अनेक व्यंजनों का भी अभिन्न अंग होती हैं।

दाना –  यह भट्टी में भुना हुआ बहु-अनाज नाश्ता है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय है। आपको इससे अधिक पौष्टिक नाश्ता नहीं मिलेगा। इसमें अनेक प्रकार के भुने हुए अनाज के दाने होते हैं जिन्हे आपके चुने हुए मसाले डालकर स्वादिष्ट बनाया जाता है। इसका आस्वाद लेने के सर्वोत्तम स्थान वाराणसी के घाटों के किनारे हैं।

चना जोर गरम
चना जोर गरम

चना – भट्टी में भुने काले चने पर मसाले छिड़ककर खाते समय मुझे सदा मेरे बालपन की रेलयात्राओं का स्मरण हो आता है। हम चना बेचने वाले की आतुरता से प्रतीक्षा करते थे। चना जोर गर्म तो सबका प्रिय होता है जिसमें चपटे किये हुए चने के मसालेदार दाने होते हैं।

भारत के खाऊ गलियों के लोकप्रिय क्षेत्रीय व्यंजन

पोहा

पोहा
पोहा

मध्य भारत में, विशेषतः मध्य प्रदेश में जलेबी के साथ पोहा खाना लोगों को अत्यंत भाता है। मध्य भारत की सड़क यात्रा करते समय आप वास्तव में पोहे पर जी सकते हैं। अत्यंत कम खर्चे पर आपका भरपेट नाश्ता हो जाता है। कुछ छोटे नगरों में पोहे समाचार पत्र के कागज पर भी दिए जाते हैं।

भारत के अनेक स्थानों में सुबह के नाश्ते में पोहे के साथ जलेबी खाने का चलन है।

ढोकला

हमारे बालपन में हम ढोकले को गुजराती नाश्ते के रूप में जानते थे। अनेक अवसरों पर हम हमारे गुजराती परिचितों के घर जाकर ढोकला खाते थे। गुजरात जाकर भी हमने मन भर कर ढोकला खाया था। आज यही ढोकला सर्वत्र उपलब्ध है। ढोकला उपरोक्त तले हुए गरिष्ठ नाश्तों को नापसंद करने वाले लोगों का प्रिय नाश्ता है। बेसल के घोल में मसाले इत्यादि मिलाकर उसे भाप में पकाया जाता है। ऊपर से उसमें थोड़ा सा तड़का दिया जाता है।

साबूदाना वड़ा

यह उपवास का सर्वोत्कृष्ट मराठी नाश्ता है जो अत्यंत स्वादिष्ट होता है। मेरी स्मृति में साबूदाना वड़ा का सर्वाधिक आनंद मुझे अंबोली घाट के बड़े जलप्रपात के समीप बैठकर खाने में आया था।

भारत के खाऊ गलियों के भारतीय शैली में चीनी नाश्ते

मंचूरियन – दक्षिण भारत के निवासी मंचूरियन को उत्तर भारतीय नाश्ता समझते हैं। वहीं उत्तर भारत के निवासी मंचूरियन को वह व्यंजन मानते हैं जो चीनी भोजनालय व जलपानगृह में मिलती है। यही व्यंजन यदि किसी चीनी व्यक्ति को परोसा जाए तो वह कदाचित इस व्यंजन को पहचान भी नहीं पाएगा। भारत की ‘खाऊ गलियों के नाश्ते’ की मेरी कल्पना में यह एक कर्नाटकी नाश्ता है जो खाने के पश्चात जिव्हा पर नारंगी छोड़ता है। इसे सामान्यतः फूलगोभी से बनाया जाता है किन्तु अब इसके अनेक प्रकार भी उपलब्ध हैं।

मोमो – मोमो भारत का एक नव-युगीन व्यंजन है जो भारत के खाऊ मार्गों में नवीन अनुवृद्धि है। जब मैं उत्तर-पूर्वी भारत में भ्रमण कर रही थी तब मैंने सर्वत्र मोमो को बिकते देखने की कल्पना की थी। किन्तु कालांतर में मुझे आभास हुआ कि उत्तर-पूर्वी भारत की मार्गों की अपेक्षा मोमो दिल्ली की मार्गों में अधिक बिकते हैं। ये एक प्रकार के भाप में पकाये पकोड़े हैं जो युवा पीढ़ी में अधिक लोकप्रिय हैं। किन्तु मुझे इसका तला हुआ कुरकुरा प्रकार पसंद है।

नूडल – भारत की खाऊ मार्गों में आप अनेक प्रकार एवं आकार के नूडल देख सकते हैं। विक्रेता इन्हे आपकी रुचि एवं स्वाद के अनुसार तैयार करता है। आप जैसा चाहे इन्हे खा सकते हैं।

भारत के खाऊ गलियों के मौसमी चटखारे

भुट्टा

भुट्टा जिसे हमारे पंजाब में छल्ली कहते हैं
भुट्टा जिसे हमारे पंजाब में छल्ली कहते हैं

भुट्टा मक्के का एक विनम्र फल है। भारत में यह एक मौसमी नाश्ता है। यह सामान्यतः वर्षा ऋतु में आता है। आप में से अनेक लोगों की स्मृतियाँ भुट्टे से जुड़ी हुई होंगी जब आपने रिमझिम वर्षा में भीगते हुए गर्म ताजा भुना हुआ भुट्टा खाया होगा अथवा किसी जलप्रपात के किनारे बैठकर उसकी फुहारों में भीगते हुए इसका आनंद उठाया होगा।

भुट्टा प्रायः आग में सेंककर अथवा गर्म रेत में भूनकर, उस पर नमक, मिर्च  तथा नींबू चुपड़कर खाया जाता है। दक्षिण भारत के अनेक स्थानों पर इन्हे उबालकर भी खाया जाता है

पॉप-कॉर्न – यह लंबे समय से भारत वासियों का लोकप्रिय नाश्ता रहा है। मकई के सूखे दानों को भट्टी इत्यादि में फुलाकर पॉप-कॉर्न बनाया जाता है। पारंपरिक रूप से इन्हे गर्म रेत अथवा नमक में रखकर, बिना तेल लगाए फुलाया जाता था।

आजकल इसके लिए बिजली के अनेक उपकरण बाजार में उपलब्ध हैं। आप घर पर भी इन्हे आसानी से तैयार कर सकते हैं। नमकीन मक्खन के साथ यह अत्यंत स्वादिष्ट होता है। आप इन्हे अधिक चटपटा अथवा मीठा भी बना सकते हैं।

भुना शकरकंद

भुनी शकरकंदी
भुनी शकरकंदी

भुना हुआ शकरकंद अत्यंत स्वादिष्ट होता है। इसके ऊपर चाट मसाला एवं नींबू का रस छिड़ककर आप उन्हे और अधिक स्वादिष्ट बना सकते हैं।

भारत के औपनिवेशिक गलियों के व्यंजन

सैंडविच – भारत में भी अनेक प्रकार के सैंडविच मिलते हैं। सादे, ग्रिल किये हुए, पनीर-चीस के साथ, चटनी वाले, इत्यादि। इनके भरावन भी अनेक प्रकार के होते हैं। डबलरोटी के दो कतलों के बीच अपनी पसंद की भरावन भरकर, चटनी इत्यादि से और अधिक स्वादिष्ट कर इन्हे ऐसे ही खा सकते हैं अथवा सेंक कर खा सकते हैं। यह ऐसा नाश्ता है जो किसी भी समय खाया जा सकता है तथा यह होटल में किसी भी समय उपलब्ध हो जाता है।

फिंगर चिप्स – आलू के लंबे टुकड़ों को तेल में तलकर नमक इत्यादि से स्वादिष्ट बनाकर खाया जाता है। बाहर से कुरकुरे तथा भीतर से नर्म इस नाश्ते को कोई भी ना नहीं कहेगा।

भारत की सर्वोत्तम गलियों के व्यंजन का आनंद लेने कहाँ जाएँ?

तो इन नाश्तों में आपका प्रिय नाश्ता कौन सा है?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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“चैती” एक ऋतु की लोक गायन शैली से परिचय https://inditales.com/hindi/chaiti-lok-gayan-shaili/ https://inditales.com/hindi/chaiti-lok-gayan-shaili/#respond Wed, 03 Mar 2021 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2222

हिन्दुस्तानी संगीत के तीन मुख्य स्वरूप है –लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत और उपशास्त्रीय संगीत। ‘लोक’ शब्द संस्कृत के ‘लोकदर्शने’ धातु में ‘घञ् प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है – देखने वाला। साधारण जनता के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर हुआ है। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में, “लोक […]

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हिन्दुस्तानी संगीत के तीन मुख्य स्वरूप है –लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत और उपशास्त्रीय संगीत।

‘लोक’ शब्द संस्कृत के ‘लोकदर्शने’ धातु में ‘घञ् प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है – देखने वाला। साधारण जनता के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर हुआ है।

डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में, “लोक हमारे जीवन का महासमुद्र हैं, जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान संचित हैं। अर्वाचीन मानव के लिये लोक सर्वोच्च प्रजापति है।

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम से न लेकर नगरों व गाँवों में फैली उस समूची जनता से लिया है जो परिष्कृत, रुचिसंपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन की अभ्यस्त होती है।

डॉ० कुंजबिहारी दास ने लोकगीतों की परिभाषा देते हुए कहा है, “लोकसंगीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहात्मक अभिव्यक्ति है, जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर कम या अधिक आदिम अवस्था में निवास करते हैं। यह साहित्य प्रायः मौखिक होता है और परम्परागत रूप से चला आ रहा है।”

यह मान्यता है की प्रकृतिजनित, नैसर्गिक रूप से लोक कलाएँ पहले उपजीं, परम्परागत रूप में उनका क्रमिक विकास हुआ और अपनी उच्चतम गुणबत्ता के कारण शास्त्रीय रूप में ढल गईं।

लोकगीत काव्य रस से ओत-प्रोत, स्वर-सने, लय-लसे, हृदय तल से उभरे, सर्वथा मनोहारी। विविधता में एकता के साक्षात् प्रतीक। भाषाएँ भिन्न, बोलियाँ विभिन्न, किन्तु विषयवस्तु, स्वर-संयोजन तथा लय-प्रवाह में लगभग समानता। इनकी लघुकाय धुनों को सुनकर ‘बिहारी सतसई विषयक यह उक्ति सहज ही मानस में गूंज उठती है

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।”

सच पूछा जाय तो ये लोकगीत हमारे साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनके भीतर से हमारा इतिहास झाँकता है। वे सही अर्थों में हमारे सामाजिक जीवन के दर्पण हैं। इतिहास शोधक, यदि इन लोकगीतों में निहित सामग्री की छान-बीनकर, समुचित विश्लेषण चयन कर उनका अपेक्षित उपयोग करें तो हमारा इतिहास कहीं अधिक सजीव, संतुलित और सर्वांगीण बन जाएगा।

पंडित छन्नूलाल मिश्र जी
पंडित छन्नूलाल मिश्र जी – विकिपीडिया

भारतीय संस्कृति की अनूठी धरोहर-लोकगीत। काव्य रस वसंत का अवसान काल चैत की रातों के साथ होता है, इसलिए शृंगार का सम्मोहन बढ़ जाता है। यही कारण है कि चैत मास को ‘मधुमास’ की सार्थक संज्ञा दी गई है। संयोगियों के लिए चैत मास जितना सुखद है उतना ही दुखद है विरह-व्याकुल प्राणियों के लिए।

चैत की सुहानी संध्या, शुभ्र चाँदनी और कोकिला के मादक स्वर का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ‘ऋतुसंहार’ में कहते हैं, ‘चैत्र मास की वासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी शामें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन, मतवाले भौरों का गुंजार और रात में आसवपान- ये शृंगार भाव को जगाए रखनेवाले रसायन ही हैं।’

चैत माह का महत्व देखते हुए ही इस माह के लिए भारतीय लोक में एक विशेष संगीत रचना हुई है जिसे चैती कहते हैं। चैती में शृंगारिक रचनाओं को गाया जाता है। चैती के गीतों में संयोग एवं विप्रलंभ दोनों भावों की सुंदर योजना मिलती हैं।

यह तो स्पष्ट है कि वसंत में शृंगार भाव का प्राबल्य होने के कारण चैत का महीना विरहिणियों के लिए बड़ा कठिन होता है। ऐसे में अगर प्रिय की पाती भी आ जाए तो उसे थोड़ा चैन मिले, क्योंकि चैत ऐसा उत्पाती महीना है जो प्रिय-वियोग की पीड़ा को और भी बढ़ा देता है-” आयल चैत उतपतिया हो रामा, ना भेजे पतिया।”

कोई किशोरी वधू देखते-देखते युवावस्था में प्रवेश कर जाती है, किंतु चैत के महीने में उसका प्रिय नहीं लौटता, यह उसे बड़ा क्लेश देता है-” चइत मास जोवना फुलायल हो रामा, कि सैंयाँ नहिं आयल।” प्रेमी जनों के लिए उपद्रवी चैत के मादक महीने में प्रियतम नहीं आए तो बाद में आना किस काम का? वस्तुतः यह मधुमास ही तो मिलन का महीना है- “चैत बीति जयतइ हो रामा, तब पिया की करे अयतई।” विरहिणी अपने प्रियतम को संदेश भेजती है- चैत मास में वन में टेसू फूल गए हैं। भौंरें उसका रस ले रहे हैं। तुम मुझे यह दुःख क्यों दे रहे हो. क्योंकि तुम्हारी प्रतीक्षा करते-करते वियोगजनित दुःख से रोते हुए मैंने अपनी आँखें गँवा दी हैं।

भारतीय शास्त्रीय गायिका-गिरिजा देवी चैती गाते हुए
भारतीय शास्त्रीय गायिका-गिरिजा देवी

चैती गीतों में प्रेम के विविध रूपों की व्यंजना हुई है। इनमें संयोग शृंगार की कहानी भी रागों में लिखी हुई है। कहीं सिर पर मटका रखकर दही बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। कहीं कृष्ण-राधा के प्रेम-प्रसंग हैं तो कहीं राम-सीता का आदर्श दांपत्य प्रेम है। कहीं दशरथनंदन के जन्म का आनंदोत्सव है तो कही इन गीतों में दैनिक जीवन के शाश्वत क्रियाकलापों का चित्रण है। साथ ही इनमें चित्र-विचित्र कथा-प्रसंगों एवं भावों के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की कुरीतियाँ भी चित्रित हुई हैं। एक चैती गीत में बाल-विवाह की विडंबना चित्रित है-

राम छोटका बलमुआ बड़ा नीक लागे हो रामा

अँचरा ओढ़ाई सुलाइबि भरि कोरवा हो रामा

अँचरा ओढ़ाई।

रामा करवा फेरत पछुअवा गड़ि गइले हो रामा

सुसुकि-सुसुकि रोवे सिरहनवा हो रामा।”

तो कही चैत की चाँदनी का जो उल्लेख अनेक कवियों ने किया है। चैती गीत भी इसके अपवाद नहीं हैं-

चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा, चैत के रतिया

मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोलै, मधुर पवन अलसावे हो रामा, चैत के रतिया।”

एक चैती गीत में भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप चित्रित हुआ है- कान्हा चरावे धेनु गइया हो रामा, जमुना किनरवा

तात्पर्य यह कि चैती गीतों में विभिन्न कथानकों का समावेश पाया जाता है। इन गीतों में वसंत की मस्ती एवं इंद्रधनुषी भावनाओं का अनोखा सौंदर्य है। इनके भावों से छलकती रसमयता लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

चैती : लोक संगीत की एक ऐसी विधा जो लोक और शास्त्रीय दोनों शैलियों में अत्यन्त लोकप्रिय है।

लोक के अपने अलग रंग हैं और इन्हें पसन्द करने वालों के भी अपने अलग वर्ग हैं लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है यह बात तो आंख मूंद के मान लेने वाली है। लोक संगीत की एक ऐसी ही विधा है ये ‘चैती’ जिसे उत्तर भारत के पूरे अवधी-भोजपुरी क्षेत्र तथा बिहार के भोजपुरी-मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त है। भारतीय या हिन्दू कैलेण्डर के चैत्र मास से गाँव के चौपाल में महफिल सजती है और एक विशेष परम्परागत धुन में श्रृंगार और भक्ति रस में पगे ‘चैती’ गीतों का देर रात तक गायन जारी रहता है ।

जब महिला या पुरुष इसे एकल रूप में गाते हैं तो इसे ‘चैती‘ कहा जाता है परन्तु जब समूह या दल बना कर गाया जाता है तो इसे ‘चैता‘ कहा जाता है । इस गायकी का एक और प्रकार है जिसे ‘घाटो‘ कहते हैं । ‘घाटो’ की धुन ‘चैती’ से थोड़ी बदल जाती है । इसकी उठान बहुत ऊँची होती है और केवल पुरुष वर्ग ही समूह में गाते हैं । कभी-कभी इसे दो दलों में बँट कर सवाल-जवाब कर या प्रतियोगिता के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है । इसे ‘चैता दंगल‘ कहा जाता है।

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ग्रीष्म ऋतु में गाये जाने वाले ‘चैती’ गीतों का विषय मुख्यतः भक्ति और श्रृंगार प्रधान होता है ।

भारतीय पञ्चांग के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नया वर्ष शुरू होता है। नई फसल के घर आने का भी यही समय होता है जिसका उल्लास ‘चैती’ में प्रकट होता है। चैत्र नवरात्र प्रतिपदा के दिन से शुरू होता है और नौमी के दिन राम-जन्मोत्सव का पर्व मनाया जाता है । ‘चैती’ में राम-जन्म का प्रसंग लौकिक रूप में होता है ।

इसके आलावा जिस नायिका का पति इस मधुमास में परदेस में है, उस नायिका की विरह व्यथा का चित्रण भी इन गीतों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

कुछ चैती गीतों का साहित्य पक्ष इतना सबल होता है कि श्रोता संगीत और साहित्य के सम्मोहन में बँध कर रह जाता है ।

लोक संगीत विदुषी विंध्यवासिनी देवी की एक चैती में अलंकारों का प्रयोग देखें – ‘चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा, चईत के रतिया ….‘ इस गीत की अगली पंक्ति का श्रृंगार पक्ष तो अनूठा है, – ‘मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोले, मधुर पवन अलसावे हो रामा……‘। चैती गीतों की रसमयता ने संत कवियों को भी लुभाया है। इसीलिए कबीरदास जैसे संतों ने भी चैती शैली में निर्गुण पदों की रचना की- “पिया से मिलन हम जाएब हो रामा, अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।”

कबीर की एक और ऐसी ही निर्गुण चैती कुछ इस प्रकार है -‘कैसे सजन घर जैबे हो रामा….‘ (कबीर)

प्रदर्शनकारी कलाओं पर भरतमुनि का ग्रन्थ- ‘नाट्यशास्त्र’ पंचम वेद माना जाता है । नाट्यशास्त्र प्रथम भाग, पंचम अध्याय के श्लोक 57 में ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि लोक जीवन में उपस्थित तत्वों को नियमों में बाँध कर ही शास्त्र प्रवर्तित होता है । श्लोक का अर्थ है- ‘इस चर-अचर और दृश्य-अदृश्य जगत की जो विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र रचना के मूल तत्त्व हैं ।’

चैती गीत के लोक स्वरुप में ताल पक्ष के चुम्बकीय गुण के कारण ही उप शास्त्रीय संगीत में यह स्थान पा सका । लोक परम्परा में चैती 14 मात्र के चाँचर ताल में गायी जाती है, जिसके बीच-बीच में कहरवा का प्रयोग होता है। पूरब अंग की बोल बनाव की ठुमरी भी 14 मात्रा के दीपचन्दी ताल में निबद्ध होती है और गीत के अन्तिम हिस्से में कहरवा की लग्गी का प्रयोग होता है । सम्भवतः चैती के इस गुण ने ही उपशास्त्रीय गायकों को आकर्षित किया होगा ।

अब रही इन लोकगीतों के संगीत पक्ष की बात। वह भी कम रोचक नहीं। लोकगीतों की धुनों की, उनकी स्वर संरचना की तथा उनके लयप्रवाह की अपनी विशिष्टताएँ हैं। प्रथम, इनकी बंदिश प्रायः मध्यसप्तक में ही सीमित होती है, वह भी पूर्वार्ध में ही, उत्तरार्ध का स्पर्श यदा-कदा ही होता है। तार एवं मन्द्रसप्तक इनकी परिधि से बाहर ही रहते हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर। इसलिये इनका गायन श्रमसाध्य भी नहीं होता। यों तो इन बंदिशों से सभी बारह स्वरों का प्रयोग होता है, किन्तु बहुलता शुद्ध स्वरों की ही होती है।

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लोक जब शास्त्रीय स्वरुप ग्रहण करता है तो उसमें गुणात्मक वृद्धि होती है | चैती गीत इसका एक ग्राह्य उदाहरण है | चैती के लोक और उपशास्त्रीय स्वरुप का समग्र अनुभव करने के लिए आप उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के शहनाई वादन का को रिकार्ड मेरी सलाह मान कर अवश्य सुनें |

ऐसा अनुमान है कि राग रचना की प्रेरणा भी इन्हीं रंजक लोकगीतों के स्वरगुच्छों से मिली होगी। मतंग मुनि ने राग की जो व्याख्या की है, उससे इस अनुमान की पुष्टि होती है

योऽयं ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्ण विभूषितः रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः

इसका अभिप्राय है कि लोकगीतों की विशिष्ट धुनों ने कलाकार की कल्पना को कुरेदा होगा और उसने ‘स्वर’ (आरोह-अवरोह), तथा वर्ण (रोचक गायन प्रक्रिया) से विभूषित कर उन्हें जनचित्तरंजक बनाकर ‘राग’ का जामा पहना दिया होगा। कुछ रागों के नाम जैसे भूपाली, जौनपुरी, पहाड़ी आदि इस तथ्य के स्पष्ट परिचायक हैं कि ये राग उन स्थानों की लोकप्रिय लोकधुनों से ही निर्मित और विकसित हुए होंगे।

चैती की एक और विशेषता भी उल्लेखनीय है | यदि चैती गीत में प्रयोग किये गए स्वरों और राग ‘यमनी बिलावल’ के स्वरों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आपको अद्भुत समानता मिलेगी | अनेक प्राचीन चैती में ‘बिलावल’ के स्वर मिलते हैं किन्तु आजकल अधिकतर चैती में ‘तीव्र मध्यम’ का प्रयोग होने से राग ‘यमनी बिलावल’ का अनुभव होता है | यह उदाहरण भरतमुनि के इस कथन की पुष्टि करता है कि लोक कलाओं कि बुनियाद पर शास्त्रीय कलाओं का भव्य महल खड़ा है | सुप्रसिद्ध गायिका निर्मला देवी के स्वरों में कभी आप खोते हैं तो उनकी गायकी में इस चैती ( ‘एही ठैयां मोतिया हेराय….’ : निर्मला देवी) से

परिचित होंगे यहां ठुमरी अंग में एक श्रृंगार प्रधान चैती है | इसमें चैती का लोक स्वरुप, राग ‘यमनी बिलावल’ के मादक स्वर, दीपचन्दी और कहरवा ताल का जादू तथा निर्मला देवी की भावपूर्ण आवाज़ आपको परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में समर्थ होंगे |

अब अन्त में चर्चा- ‘फिल्म संगीत में चैती’ की | कुछ फिल्मों में चैती का प्रयोग किया गया है | 1964 में बनी फिल्म ‘गोदान’ में पण्डित रविशंकर के संगीत निर्देशन में मुकेश ने चैती- ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा….’ गाया है | यह लोक शैली में गाया गीत है |

ठुमरी अंग में आशा भोसले ने फिल्म ‘नमकीन’ में चैती गाया है जिसके बोल हैं- ‘बड़ी देर से मेघा…’ | इस गीत में आपको राग तिलक कामोद का आनन्द भी मिलेगा |’हीया जरत रहत दिन रैन…’ फिल्म : गोदान – गायक : मुकेश ‘बड़ी देर से मेघा बरसे हो रामा…’ फिल्म : नमकीन – गायिका : आशा जी

श्री देवेन्द्र सत्यार्थी का कहना है कि लोकगीत का मूल जातीय संगीत में है। लोकगीत हमारे जीवन विकास की गाथा हैं। उनमें जीवन के सुख-दुःख मिलन-विरह, उतार-चढ़ाव की भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। सामाजिक रीति एवं कुरीतियों के भाव इन लोकगीतों में निहित हैं। इनमें जीवन की सरल अनुभूतियों एवं भावों की गहराई है इनका विस्तार कहाँ तक है, इसे कोई नहीं बता सकता। किन्तु इनमें सदियों से चले आ रहे धार्मिक विश्वास एवं परम्पराएँ जीवित हैं। ये हृदय की गहराइयों से जन्मे हैं और श्रुति परम्परा से ये अपने विकास का मार्ग बनाते रहे हैं। अतः इनमें तर्क कम, भावना अधिक है। न इनमें छन्दशास्त्र की लौहश्रृंखला है, न अलंकारों की बोझिलता। इनमें तो लोकमानस का स्वच्छ और पावन गंगा-यमुना जैसा प्रवाह है। लोकगीतों का सबसे बड़ा गुण यह है कि इनमें सहज स्वाभाविकता एवं सरलता है।

शेरिल शर्मा लेखिका -शैरिल शर्मा भारतीय लोक इतिहास एवं साहित्य की छात्रा।  ब्रज भाषा साहित्य की ओर विषेश रूप से प्रयासरत।

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महात्मा गाँधी स्मारक – भारत भर में फैले उनके घर, आश्रम, कारावास https://inditales.com/hindi/mahatma-gandhi-samarak-across-india/ https://inditales.com/hindi/mahatma-gandhi-samarak-across-india/#respond Wed, 29 Jan 2020 02:30:33 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1685

कल्पना कीजिए यदि महात्मा गाँधी स्वयं आपको अपने जीवन के महत्वपूर्ण स्थानों पर ले जाना चाहें तो वे आपको कहाँ कहाँ ले जाएंगे? महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में अनेक यात्राएं की थी। आज के समान यदि उस समय भी हर ओर सोशल मीडिया का बोलबाला होता तो उन्होंने ‘सर्वाधिक भ्रमण किया हुआ व्यक्ति’ की […]

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कल्पना कीजिए यदि महात्मा गाँधी स्वयं आपको अपने जीवन के महत्वपूर्ण स्थानों पर ले जाना चाहें तो वे आपको कहाँ कहाँ ले जाएंगे? महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में अनेक यात्राएं की थी। आज के समान यदि उस समय भी हर ओर सोशल मीडिया का बोलबाला होता तो उन्होंने ‘सर्वाधिक भ्रमण किया हुआ व्यक्ति’ की उपाधि अवश्य अर्जित कर ली होती।

महात्मा गाँधी आप भारत के किसी भी कोने में पहुँच जाएँ, आपको गाँधीजी के अस्तित्व का आभास अवश्य  होगा। उनकी यात्रा के स्मारक, उनके भाषण के अंश, किसी बैठक की स्मृति, शहर के किसी मार्ग का नामकरण, उनकी स्मृति में निर्मित कोई इमारत, कोई योजना। उनके द्वारा भ्रमण किए सभी स्थानों की यात्रा करना हम जैसे साधारण व्यक्तियों के लिए असाधारण चुनौती के समान है।

भारत में महात्मा गाँधी के सर्वशक्तिमान उपस्थिति का सर्वाधिक विशाल प्रमाण है महात्मा गांधी मार्ग । मेरे अनुमान से कदाचित भारत का कोई ऐसा नगर नहीं होगा जहां महात्मा गाँधी मार्ग नहीं हो। हो सकता है किसी नगरी में कोई मार्ग किसी अन्य के नाम से लोकप्रिय हो, तथापि उसका सरकारी नाम महात्मा गाँधी मार्ग हो।

गाँधी जयंती एवं ३० जनवरी उनकी स्मृति में सम्पूर्ण भारत में मनाया जाने वाला पर्व हैं।

महात्मा गाँधी समारक भारत भर में

गाँधी जी रेल से यात्रा करते थे तो आईए भारत के उन सभी स्थलों का भ्रमण करें जिनका किसी ना किसी प्रकार से गांधीजी से संबंध रहा हो।

गुजरात

गुजरात महात्मा गाँधी का जन्म प्रदेश है। उन्होंने अपना सम्पूर्ण बालपन यहीं व्यतीत किया था। उन्होंने अपने आश्रम की भी स्थापना यहाँ की थी। स्वाभाविक है, गुजरात में उनसे संबंधित अनेक स्थान होंगे।

पोरबंदर – महात्मा गाँधी का जन्मस्थान

पोरबंदर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र का एक बंदरगाह नगर है। वर्तमान में यह मोहनदास करमचंद गाँधी के जन्मस्थान के रूप में अधिक लोकप्रिय है। उनका पैतृक निवास जनता के दर्शनों हेतु खुला है। श्वेत एवं हरित रंग में रंगे उनके विशाल निवास के आप दर्शन कर सकते हैं। आप न केवल उनके जन्म का कक्ष देखेंगे, अपितु अतीतकाल के निवास कितने वैभवशाली होते थे, इसका भी अनुभव प्राप्त करेंगे।

पोरबंदर का कीर्ति मंदिर - गाँधी जी का जन्म स्थान
पोरबंदर का कीर्ति मंदिर – गाँधी जी का जन्म स्थान

निवास स्थान के समीप एक विशाल कीर्ति मंदिर है जो गाँधीजी एवं कस्तूरबाजी को समर्पित है। यहाँ एक प्रदर्शन दीर्घा है जहां चित्रों के रोचक मिश्रण द्वारा गाँधीजी के बालपन से लेकर धोती धारण किए महात्मा तक के उनकी यात्रा का प्रदर्शन किया गया है। ये चित्र गाँधीजी के जीवन काल के समय आम जीवन शैली की भी कथाएं कहती हैं।

अवश्य पढ़ें: पोरबंदर – गांधी एवं सुदामा की नगरी

कस्तूरबा का पैतृक निवास गांधी-निवास के ठीक पीछे है।

अधिक लोगों को यह जानकारी नहीं है कि पोरबंदर श्री कृष्ण के परम मित्र सुदामा का भी गाँव था।

राजकोट

गाँधी जी के बचपन का चित्र
गाँधी जी के बचपन का चित्र

गाँधी ने अपना बालपन राजकोट में बिताया जहां उनके पिता दीवान थे। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा राजकोट में पूर्ण की थी।

वकालत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए यहाँ से वे लंदन चले गए। वहाँ से दक्षिण अफ्रीका जाने से पूर्व वे कुछ समय के लिए वापिस आए थे। दक्षिण अफ्रीका में २१ वर्ष बिताकर अंततः वे १९१५ में भारत वापिस लौटे।

मेरी राजकोट यात्रा अब तक शेष है। अतः वहाँ का भ्रमण करने के पश्चात इस खंड को और समृद्ध करूंगी।

अहमदाबाद

सत्याग्रह आश्रम कोचरब

सत्याग्रह आश्रम कोचरब - अहमदाबाद
सत्याग्रह आश्रम कोचरब – अहमदाबाद

१९१५ में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापिस लौटने के पश्चात गाँधीजी जहां सर्वप्रथम निवास करने आए, वह था अहमदाबाद के कोचरब में  बेरिस्टर जीवनलाल देसाई का बंगला। यह एक विशाल दुमंजिला बंगला था जिससे जुड़ा हुआ एक विशाल प्रांगण था। इसे अब सत्याग्रह आश्रम कहा जाता है। किन्तु यह एक संग्रहालय अधिक है। यहाँ गांधी जी से संबंधित साहित्यों से परिपूर्ण एक पुस्तकालय भी है।

अवश्य पढ़ें: कोचरब का सत्याग्रह आश्रम

साबरमती आश्रम

साबरमती आश्रम अहमदाबाद
साबरमती आश्रम अहमदाबाद

साबरमती आश्रम गांधीजी से जुड़ा कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय तथा सर्वाधिक भ्रमण किया गया स्थल है। यह आश्रम साबरमती नदी के तट पर स्थित है। उस समय यह स्थान अहमदाबाद के बाहरी क्षेत्र में स्थित था, किन्तु आज यह अहमदाबाद नगर के लगभग मध्य आ गया है। इस निर्मल आश्रम का प्रत्येक भाग गांधीजी का स्मरण करता है जहां उन्होंने १९१७ से १९३० तक निवास किया था। भित्तियों पर उनके व्यक्तव्य उल्लेखित हैं।

अवश्य पढ़ें: अहमदाबाद का साबरमती आश्रम

१९३० में गांधीजी का प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह एवं दांडी यात्रा यहीं  से आरंभ हुई थी। यहाँ स्थित संग्रहालय १९६० में वास्तुविद चार्ल्स कोरिया ने बनाया था। प्रातः एवं संध्या के समय यहाँ भजन गाए जाते हैं जिनका निर्मल आनंद आप अवश्य उठायें।

गुजरात विद्यापीठ

इस विद्यापीठ की स्थापना गांधीजी ने १९२० में राष्ट्रीय विद्यापीठ के रूप में की थी। उन्होंने जीवन के अंत तक यहाँ कुलाधिपति के रूप में सेवाएं प्रदान कीं। यह विद्यापीठ कोचरब में सत्याग्रह आश्रम के समीप स्थित है। मुझे यहाँ स्थित पुस्तक की दुकान अत्यन्त भा गई थी। भारतीय पुस्तकों का यहाँ अद्भुत भंडार है।

महाराष्ट्र में गांधी जी से संबंधित स्थल

वर्धा का मगनवाड़ी आश्रम

वकील मोहनदास करमचंद गाँधी
वकील मोहनदास करमचंद गाँधी

१९३० की घटनाओं के पश्चात गांधीजी ने वर्धा में एक आश्रम की स्थापना की थी। उसका नामकरण उन्होंने एक ग्रामीण वैज्ञानिक एवं परम मित्र मगन गांधी पर किया था। ग्रामीण उद्योगों एवं लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए यहाँ अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की भी स्थापना की गई।

इस संकुल में स्थित मगन संग्रहालय में खादी एवं अन्य ग्रामीण उद्योगों के उत्पादों का भी एक खंड है। एक प्रकार से आप इसे आधुनिक भारत की प्रथम उद्यमिता कह सकते हैं।

मुंबई का मणि भवन

मुंबई का मणि भवन संग्रहालय
मुंबई का मणि भवन संग्रहालय

गांधीजी ने जितना भ्रमण किया है, कदाचित हममें से कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। उन्होंने मुंबई में भी व्यापक भ्रमण किया था। मुंबई में रेवाशङ्कर जगजीवन झवेरी का बंगला उनका निवास स्थान बना। १९४२ में यहाँ उन्होंने अगस्त क्रांति मैदान से भारत छोड़ो आंदोलन एवं रोलेट ऐक्ट के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा था। हम यही वास्तु ‘मणि भवन’ के नाम से जानते हैं।

अवश्य पढ़ें: मुंबई का मणि भवन

आज मणि भवन एक सुंदर संग्रहालय बन गया है। यहाँ गांधीजी से संबंधित साहित्यों, चित्रों एवं कलाकृतियों का अनमोल संग्रह है। चित्रावली की एक दीर्घा उनकी जीवनी को पुनर्जीवित करती है।

पुणे का आगा खान महल

पुणे स्थित आगा खान महल - गाँधी जी का कारवास
पुणे स्थित आगा खान महल – गाँधी जी का कारवास

आगा खान पैलिस अर्थात महल गांधीजी का कारागृह था। वे यहाँ कस्तूरबा, अपने सचिव एवं सहयोगी सुश्री सरोजिनी नायडू के संग बंदी थे। कस्तूरबा एवं सचिव का निधन भी यहीं हुआ था। इसी संकुल में उनकी समाधियां हैं।

और पढ़ें: पुणे का आगा खान महल

एक समय यह आगा खान द्वारा निर्मित महल था जो अब महात्मा को समर्पित संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। यह एक विशाल महल है जो आधुनिक भी है। यहाँ के बगीचे में टहलते हुए मैं सोच रही थी कि क्या कारागृह ऐसे होते थे?

दिल्ली में महात्मा गाँधी से जुड़े स्थान

गांधी स्मृति अर्थात बिड़ला हाउस दिल्ली

पारंपरिक वेशभूषा में गाँधी जी
पारंपरिक वेशभूषा में गाँधी जी

नई दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग पर स्थित बिड़ला हाउस में गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम १४४ दिवस बिताए थे। ‘हे राम’ कहते हुए यहीं उन्होंने अपना अंतिम श्वास लिया था। यह इमारत बिड़ला परिवार की थी जिसे घनश्यामदास बिड़ला ने १९२८ में बनवाया था। संग्रहालय के लिए प्रारंभ में बिड़ला परिवार इस इमारत पर से अपना स्वामित्व त्यागने का इच्छुक नहीं था। कालांतर में १९७३ में उन्होंने इस इमारत का त्याग किया। तत्पश्चात यहाँ गांधीजी को समर्पित एक बहुमाध्यम संग्रहालय निर्मित किया गया।

राज घाट

गांधीजी से संबंधित अंतिम स्थान है उनका समाधि स्थल। यह एक सादा स्मारक है जो घास के बड़े मैदानों से घिरा हुआ है। हम सभी ने इस स्थान को प्रत्यक्ष रूप से भले ही ना देखा हो, किन्तु दूरदर्शन पर इसे अवश्य देखा है जब गणमान्य व्यक्ति यहाँ आकर गांधीजी की समाधि पर पुष्प-हार चढ़ाते हैं। यह दिल्ली का एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन गया है।

भारत के अन्य स्थानों में स्थित महात्मा गांधी स्मारक

मोतीहारी, बिहार में गांधी संग्रहालय

१९१७ में किया गया चंपारण सत्याग्रह गांधीजी के जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा बलपूर्वक उगायी गई नील की खेती के विरुद्ध उन्होंने प्रथम आंदोलन का प्रतिनिधित्व किया था। गांधी संग्रहालय में १९१७ की इसी घटना का चित्रों द्वारा उत्सव मनाया गया है। जिस स्थान पर गांधीजी की न्यायालय में प्रस्तुति हुई थी, उस स्थान पर अब गांधी स्मारक स्तंभ खड़ा है।

सामान्य ज्ञान – ‘Animal farm and 1984’ द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त जॉर्ज ऑरवेल का जन्म मोतीहारी में हुआ था।

कन्याकुमारी का गांधी स्मारक मंडपम

गाँधी समरक कन्याकुमारी
गाँधी समरक कन्याकुमारी

समुद्र किनारे स्थित कन्याकुमारी मंदिर के एक ओर गांधीजी का स्मारक है। गांधीजी १९२५ एवं १९३७ में, दो बार कन्याकुमारी आए थे। यह स्मारक उनकी इन्ही यात्राओं की स्मृति में है। उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी अस्थि अवशेष का एक भाग यहाँ जनता के दर्शनार्थ रखा गया था। तत्पश्चात समुद्र में उसका विसर्जन किया गया था।

१९५६ में निर्मित इस स्मारक के वास्तुशिल्प की विशेषता यह है कि २ ऑक्टोबर के दिन सूर्य की किरणें ठीक उस स्थान पर पड़ती हैं जहां गांधीजी के अस्थि अवशेष रखे गए थे। छत पर बने एक छिद्र द्वारा सूर्य की किरणें भीतर पहुँचती हैं। इस स्मारक की ७९ फुट की ऊंचाई गांधीजी के ७९ वर्षों की आयु दर्शाती है।

मदुरै का गांधी संग्रहालय

गांधीजी के जीवन में मदुरै का विशेष महत्व है। यह वही स्थान है जहां उन्होंने अपने सदैव के वस्त्रों का त्याग कर शेष जीवन इकलौती धोती धारक का अवतार ग्रहण किया था। गांधीजी की मृत्यु के समय जो रक्त रंजित वस्त्र उन्होंने धारण किए थे, उनकी स्मृति में उनके वे वस्त्र यहाँ सहेज कर रखे गए हैं। इस संग्रहालय में महात्मा की जीवनी पर आधारित एक दृश्य-श्रव्य पुस्तकालय भी है।

महात्मा गाँधी साबरमती आश्रम, मणि भवन, सत्याग्रह आश्रम, बिड़ला भवन इत्यादि उनसे संबंधित सभी स्थानों में उनका कक्ष एक समान ही प्रदर्शित किया गया है। एक सर्वसाधारण कक्ष जहां उनका करघा, उनकी खड़ाऊ, उनका  गोलाकार चश्मा एवं कुछ पुस्तकें रखी हुई हैं। मैं सोचने पर बाध्य हो जाती हूँ कि क्या वास्तव में उनका कक्ष ऐसा ही होता था अथवा निर्माता प्रत्येक संग्रहालय में एक ही ढांचे का पालन करते थे?

मैंने अब तक दक्षिण अफ्रीका का भ्रमण नहीं किया है। आशा है वहाँ स्थित गांधीजी की धरोहरों के भी शीघ्र दर्शन कर सकूँ।

क्या आप भारत में स्थित व गांधीजी से  संबंधित अन्य स्थानों के विषय में जानते हैं जिनका उल्लेख करने से मैं चूक गई हूँ तो मुझे अवश्य बताएं। प्रतीक्षारत।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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पाप एवं पुण्य – एक गणितीय आंकलन स्कन्द पुराण से https://inditales.com/hindi/paap-punya-kartik-mahatmay-skand-puran/ https://inditales.com/hindi/paap-punya-kartik-mahatmay-skand-puran/#respond Wed, 30 Oct 2019 02:30:26 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1640

स्कन्द पुराण के अनुसार सुसंगति एवं दुसंगति के प्रभावों का लेखा जोखा इस लेख के साथ पढ़िए – स्कन्द पुराण वर्णित कार्तिक मास महात्मय प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए अन्य मनुष्यों का संग ढूंढता है। सज्जनों की संगति जीवन सुखमय करती है, वहीं दुर्जनों की संगति से जीवन दुखदाई हो जाता […]

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स्कन्द पुराण के अनुसार सुसंगति एवं दुसंगति के प्रभावों का लेखा जोखा

इस लेख के साथ पढ़िए – स्कन्द पुराण वर्णित कार्तिक मास महात्मय

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए अन्य मनुष्यों का संग ढूंढता है। सज्जनों की संगति जीवन सुखमय करती है, वहीं दुर्जनों की संगति से जीवन दुखदाई हो जाता है। मनुष्य जैसी संगति में रहता है, उस पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। जैसे एक ही स्वाति बूंद केले के गर्भ में पड़कर कपूर बन जाती है, सीप में पड़कर मोती बन जाती है और अगर सांप के मुंह में पड़ जाए तो विष बन जाती है। पारस के छूने से लोहा सोना बन जाता है, पुष्प की संगति में रहने से कीड़ा भी देवताओं के मस्तक पर चढ़ जाता है।

एक ओर जीजाबाई की संगति मे शिवाजी ‘छत्रपति शिवाजी’ बने, डाकू रत्नाकर, महर्षि नारद की सुसंगति के प्रभाव से महागुनि महर्षी वाल्मीकि बनें तथा अमर काव्य ‘रामायण’ लिखा । डाकू अंगुलिमाल, महात्मा बुद्ध के संगति में आकर उनका शिष्य बन गया।

वहीं दूसरी ओर कुसंगति में पड़कर भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन आदि पतन की गर्त में गिरे। ये सभी अपने आप में विद्वान और वीर थे । लेकिन कुसंगति का प्रभाव इन्हें विनाश की ओर ले गया। किसी कवि ने ठीक ही कहा है – जैसी संगति बैठिए तैसी ही फल दीन

सुसंगति – सुसंगति या सत्संगति का अर्थ है अच्छे मनुष्यों की संगति में रहना, उनके विचारों को अपने जीवन में ढालना तथा उनके सुकर्मों का अनुसरण करना। सज्जनों की सुसंगति मार्ग से भटके मनुष्य को सही राह दिखाती है। व्यक्ति की अच्छी संगति से उसके स्वयं का परिवार तो अच्छा होता ही है, साथ ही उसका समाज व राष्ट्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।

कुसंगति – कुसंगति का अर्थ होता है बुरी संगत। यह कभी नहीं हो सकता कि परिस्थितियों का प्रभाव हम पर न पड़े। दुष्ट और दुराचारी व्यक्ति के साथ रहने से सज्जन व्यक्ति का चित्त भी दूषित हो जाता है। एक कहावत है – अच्छाई चले एक कोस, बुराई चले दस कोस । अच्छी बातें सीखने में समय लगता है। जो जैसे व्यक्तियों के साथ बैठेगा, वह वैसा ही बन जाएगा।

कहते हैं कि व्यक्ति योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी बन जाता है। जहां अच्छी संगति व्यक्ति को कुछ नया करते रहने की समय-समय पर प्रेरणा देती है, वहीं बुरी संगति से व्यक्ति गहरे अंधकूप में गिर जाता है।

स्कन्द पुराण कार्तिक महात्मय - पाप पुण्य का लेखा जोखा
स्कन्द पुराण कार्तिक महात्मय – पाप पुण्य का लेखा जोखा

उन्नति करने वाले व्यक्ति को अपने आसपास के समाज के साथ बड़े सोच-विचारकर संपर्क स्थापित करना चाहिए, क्योंकि मानव मन तथा जल का स्वभाव एक जैसा होता है। यह दोनों जब गिरते हैं, तो तेजी से गिरते हैं, परंतु इन्हें ऊपर उठाने में बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। कुसंगति काम, क्रोध, मोह और मद पैदा करने वाली होती है। अतः प्रत्येक मानव को कुसंगति से दूर रहना चाहिए क्योंकि उन्नति की एकमात्र सीढ़ी सत्संगति है।

स्कन्द पुराण के अनुसार पाप-पुण्य का गणितीय आंकलन

संक्षिप्त स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड-कार्तिकमास-माहात्म्य के अनुसार ब्रम्हाजी ने कहा है कि काम, क्रोध व लोभ के वशीभूत मनुष्य धर्मकृत्य नहीं कर पाते। जो इनसे मुक्त हैं वे ही धर्मकार्य करते हैं। इस पृथ्वी पर श्रद्धा एवं मेधा ये दो वस्तुएं ऐसी हैं जो काम, क्रोध आदि का नाश करती हैं।

ब्रम्हाजी आगे कहते हैं कि-

  • दूसरों को पढ़ाने से, यज्ञ कराने से तथा दूसरों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने से मनुष्य को दूसरों के किये पुण्य व पाप का चौथाई भाग प्राप्त होता है ।
  • एक आसन पर बैठने, एक सवारी पर यात्रा करने तथा श्वास से शरीर का स्पर्श होने से मनुष्य निश्चय ही दूसरे के पुण्य व पाप के छठे अंश के फल का भागी होता है।
  • दूसरे के स्पर्श से, भाषण से तथा उसकी प्रशंसा करने से भी मानव सदा उसके पुण्य व पाप के दसवें अंश को प्राप्त करता है।
  • दर्शन एवं श्रवण के अथवा मन के द्वारा उसका चिंतन करने से, वह दूसरे के पुण्य एवं पाप का शतांश प्राप्त करता है।
  • जो दूसरे की निंदा करता, चुगली खाता तथा उसे धिक्कार देता है, वह उसके किया हुए पातक को स्वयं लेकर बदले में उसे अपना पुण्य देता है।
  • जो मनुष्य किसी पुण्यकर्म करने वाले मनुष्य की सेवा करता है, वह यदि उसकी पत्नी, भृत्य तथा शिष्य नहीं है तथा उसे उसकी सेवा के अनुरूप कुछ धन नहीं दिया जा रहा है, तो वह भी सेवा के अनुसार उस पुण्यात्मा के पुण्यफल का भागी हो जाता है।
  • जो एक पंक्ति में बैठे हुए किसी मनुष्य को रसोई परोसते समय छोड़कर आगे बढ़ जाता है, उसके पुण्य का छटा अंश वह छूटा हुआ व्यक्ति पा लेता है।
  • स्नान एवं संध्या आदि करते समय जो दूसरे का स्पर्श अथवा दूसरे से भाषण करता है, वह अपने कर्मजनित पुण्य का छठा अंश उसे निश्चय ही दे डालता है।
  • जो धर्म के उद्देश्य से दूसरों के पास जाकर धन की याचना करता है उसके उस पुण्यकर्मजनित फल का भागी वह धन देने वाला भी होता है।
  • जो दूसरों का धन चुराकर उसके द्वारा पुण्य कर्म करता है, वहां कर्म करने वाला तो पापी होता है तथा जिसका धन चुराकर उस कर्म में लगाया गया है वही उसके पुण्यफलों को प्राप्त करता है।
  • जो दूसरों का ऋण चुकाए बिना मर जाता है, उसके पुण्य में से वह धनी अपने धन के अनुरूप हिस्सा पा लेता है।
  • जो बुद्धि(सलाह) देने वाला, अनुमोदन करने वाला, साधन सामग्री देनेवाला तथा बल लगाने वाला है, वह भी पुण्य व पाप में से छठे अंश को ग्रहण करता है।
  • प्रजा के पुण्य एवं पाप में से छठा अंश शासक लेता है।
  • इसी प्रकार शिष्य से गुरु, स्त्री से उसका पति, पुत्र से उसका पिता पुण्य-पाप का छठा अंश ग्रहण करता है।

अगर आप स्कन्द पुराण पढना चाहें तो यहाँ उपलब्ध है

सुसंगति-कुसंगति पर कुछ महान संतों के विचार

दोष और गुण सभी संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य में जितना दुराचार, पापाचार, दुश्चरित्रता और दुव्यसन होते हैं, वे सभी कुसंगति के फलस्वरूप होते हैं। कुसंगति के कारण बड़े-बड़े घराने नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। बुद्धिमान्-से-बुद्धिमान् व्यक्ति पर भी कुसंगति का प्रभाव पड़ता है। श्रेष्ठ विद्यार्थियों नीच लोगों की संगति पाकर बरबाद हो जाते हैं।

कवि रहीम कहते हैं-

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोच।

महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्यौ पड़ोस ॥

अर्थात् सज्जन और दुर्जन का संग हमेशा अनुचित है बल्कि यह विषमता को ही जन्म देता है। जैसे रावण के पड़ोस में रहने का कारण समुद्र की भी महिमा घट गयी। बुरा व्यक्ति तो बुराई छोड़ नहीं सकता, अच्छा व्यक्ति ज़रूर बुराई ग्रहण कर लेता है।

रहीम यह भी लिखते हैं-

कह रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥

अर्थात् बेरी और केले की संगति कैसे निभ सकती है ? बेरी तो अपनी मस्ती में झूमती है लेकिन केले के पौधे के अंग कट जाते हैं। बेरी में काँटे होते हैं और केले के पौधे में कोमलता। अत: दुर्जन व्यक्ति का साथ सज्जन के लिए हानिकारक ही होता है।

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।

चंदन विषा व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग ॥

अर्थात् यदि आदमी उत्तम स्वभाव का हो तो कुसंगति उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती। यद्यपि चंदन के पेड़ के चारों ओर साँप लिपटे रहते हैं तथापि उसमें विष व्याप्त नहीं होता।

हम अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं तो हमें दुर्जनों की संगति छोड़कर सत्संगति करनी होगी। सत्संगति का अर्थ है-श्रेष्ठ पुरुषों की संगति। मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमानू, विद्वान् और गुणवान लोगों के संपर्क में आता है तो उसमें अच्छे गुणों का उदय होता है। उसके दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं। सत्संगति से मनुष्य की बुराइयाँ दूर होती हैं और मन पावन हो जाता है। कबीरदास ने भी लिखा है-

कबीरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि।

संगति बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि।

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