महाभारत कथा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Sat, 27 Jul 2024 14:08:37 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 महाभारत कथाओं में क्रोध एवं क्षमा के प्रसंग https://inditales.com/hindi/mahabharat-kab-krodh-karen-kab-kshama/ https://inditales.com/hindi/mahabharat-kab-krodh-karen-kab-kshama/#respond Wed, 04 Dec 2024 02:30:15 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3727

यदि आप मुझसे प्रश्न करें कि क्रोध एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है, मुझे विश्वास है कि आप भी अधिकांश प्रसंगों में क्षमा का ही चुनाव करेंगे। हमें शिक्षा भी ऐसी ही दी गयी है। चूक करना मानवी स्वभाव है लेकिन क्षमा कर पाना एक दैवी उपलब्धि है। क्रोध एवं क्षमा – श्रेष्ठ क्या है? […]

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यदि आप मुझसे प्रश्न करें कि क्रोध एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है, मुझे विश्वास है कि आप भी अधिकांश प्रसंगों में क्षमा का ही चुनाव करेंगे। हमें शिक्षा भी ऐसी ही दी गयी है। चूक करना मानवी स्वभाव है लेकिन क्षमा कर पाना एक दैवी उपलब्धि है।

क्रोध एवं क्षमा – श्रेष्ठ क्या है?

महाभारत के तीसरे भाग में, अर्थात वन पर्व में कौरवों ने पांडवों को द्यूत क्रीडा में परास्त किया था तथा उन्हे पूर्वनिश्चित नियमों के अनुसार १२ वर्षों तक वन गमन का दंड दिया गया था।

वन तक उनके साथ सहगमन करते तथा वन में उनसे भेंट के लिए आए कृष्ण व दृष्टद्युम्न जैसे परिजनों, मित्रों एवं नागरिकों को वापिस नगर में लौटने की विनती कर सभी पांडव भ्राता एक सरोवर के निकट स्थाई हो गए। द्वैतवन नामक इस सुंदर सरोवर के चारों ओर पुष्पों एवं फलों के वृक्ष थे।

सरोवर के निकट बसेरा स्थापित करने के पश्चात द्रौपदी के ध्यान में आया कि इतने दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग के पश्चात भी युधिष्ठिर अत्यंत शांत हैं। उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि युधिष्ठिर अपने साथ हुए अन्याय को विस्मृत कर चुके हैं तथा दोषियों को क्षमा कर दिए हैं।

द्रौपदी युधिष्ठिर के निकट बैठकर उन्हे अपने साथ हुए अन्यायपूर्ण व्यवहार का स्मरण कराती हैं। उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करती हैं कि किस प्रकार कौरवों ने उनका एवं उनके चारों भ्राताओं का अपमान किया था। उन्होंने एक सुंदर कविता की रचना की जिसमें वे प्रत्येक पांडव के निरादर का उल्लेख करती हैं तथा उनके वर्तमान परिस्थिति का वर्णन करती हुई युधिष्ठिर से प्रश्न करती हैं कि इस सम्पूर्ण परिस्थिति में उन्हे क्रोध क्यों नहीं आ रहा है?

अंत में वे युधिष्ठिर को कौरवों द्वारा उनके स्वयं के मानमर्दन का स्मरण करती हैं तथा पुनः उनसे प्रश्न करती हैं कि यह सब उन्हे क्रोधित क्यों नहीं कर रहा है?

द्रौपदी युधिष्ठिर का ध्यान इस ओर भी आकर्षित करती हैं कि हस्तिनापुर से उनके निष्कासन के समय सभी परिजनों, मित्रों एवं नागरिकों के नयन अश्रुपूर्ण थे, लेकिन दुर्योधन, कर्ण, शकुनि एवं दुशासन, इन चारों के नयन अश्रुरहित थे।

तत्पश्चात, अपना पक्ष स्पष्ट करने के लिए द्रौपदी प्रह्लाद एवं उनके पोते बलि के मध्य हुए संवाद का वर्णन करती हैं।

प्रह्लाद एवं बलि के मध्य क्रोध एवं क्षमा विषय पर संवाद

एक समय असुरों के राजा बलि ने अपने दादा प्रह्लाद से प्रश्न किया कि कठोरता एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है?

प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि इनमें से कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। एक ज्ञानी व्यक्ति ने काल एवं परिस्थिति के अनुसार उनका प्रयोग करना चाहिए।

यदि कोई दोषी सुगमता से क्षमा प्राप्त कर लेता है तो उसके सुधार की संभावना कम हो जाती है। यदि आपने किसी दोषी को आसानी से क्षमा कर दिया तो वह ना आपका, ना ही उस विषय का महत्व जान पाएगा। किसी को अतिशीघ्र क्षमा करने का स्वभाव होने पर एक भय यह भी होता है कि आपके अपने परिजन, आपके शत्रु एवं सामान्य जन आपका महत्व ना समझें तथा आपका यथोचित सम्मान ना करें।

जिन  व्यक्तियों का स्वभाव सदा ही क्षमाशील होता है, लोग उनके प्रति विनयी नहीं होते। अतः एक ज्ञानी व्यक्ति वही है जो सदा ही क्षमाशील नहीं होता। काल एवं परिस्थिति के अनुसार दोषी को दंड भी देना चाहिए।

आपका सेवक, कर्मचारी अथवा अधीनस्थ, प्रदत्त नियमों का पालन ना कर अपनी मनमानी कर सकता है क्योंकि वह जानता है कि आप अत्यंत क्षमाशील हैं। उसे तुरंत क्षमा कर देंगे। आगे जाकर वे अपराध कर सकते हैं। स्वयं के लाभ के लिए आपकी वस्तुओं का दुरुपयोग कर सकते हैं। आपकी अवमानना एवं अपमान कर सकते हैं।

अपने सेवक के द्वारा अपमानित होना मृत्यु से भी अधिक निकृष्ट माना जाता है।

आपकी क्षमाशीलता एवं मृदु स्वभाव देखकर आपके स्वयं के परिजन आपकी संपत्ति हथियाने का प्रयास कर सकते हैं। आपके सेवक, आपके पुत्र, आप पर निर्भर व्यक्ति, यहाँ तक कि असंबद्ध लोग भी कटु वचनों द्वारा आपकी आलोचना कर सकते हैं। आपकी अपनी ग्रहस्थी आपके नियंत्रण से बाहर जा सकती है।

दूसरी ओर, यदि आप प्रत्येक परिस्थिति का सामना क्रोध से करते हैं तो उसका प्रतिप्रभाव यह हो सकता है कि आप अविचारी होकर किसी निर्दोष व्यक्ति को दंड दे दें।

एक क्रोधी व्यक्ति के अनेक शत्रु होते हैं। उसका क्रोधपूर्ण स्वभाव उसके अपने भीतर तथा सामने वाले के भीतर शीघ्र ही शत्रुत्व उत्पन्न कर देता है। उसके अपने परिजनों के मन में तथा सर्व सामान्य लोग, जिनसे उसका निरंतर सामना होता है, उनके मन में भी उसके प्रति कुंठा अथवा कुढ़न उत्पन्न हो सकती है।

एक क्रोधी व्यक्ति, अपने स्वभाव के कारण, जाने-अनजाने दूसरों का अपमान कर बैठता है। इस प्रक्रिया में अपना सम्मान खो देता है। किसी अपमानित व्यक्ति की अवांछित प्रतिक्रिया के चलते उसकी संपत्ति भी नष्ट हो सकती है।

किसी पर अत्यधिक क्रोध करने तथा उसे अविचारपूर्ण दंडित करने के स्वभाव के कारण आपकी समृद्धि, आपका स्वास्थ्य तथा आपका परिवार आपसे रुष्ट हो सकते हैं।

और पढ़ें – रामचरितमानस के अनुसार राम राज्य की परिभाषा क्या है?

अतः एक संतुलित व्यवहार सदा ही उत्तम होता है। सदा क्रोध करना तथा सदा क्षमा कर देना, दोनों की अनुशंसा नहीं की जा सकती। दोनों ही आपको समान रूप से संकट में डाल सकते हैं। किसी भी प्रसंग में आप अपनी प्रतिक्रिया परिस्थिति, काल एवं स्थान के अनुसार विचारपूर्वक निश्चित करें। जो व्यक्ति माँग के अनुरूप अपना व्यवहार अतिमृदु से अतिकठोर के मध्य सुगमता से दोलित कर सकता है, वही विश्व विजेता होता है।

कब क्षमा करें?

  • यदि किसी व्यक्ति ने भूतकाल में आपके प्रति दयालुता से व्यवहार किया हो तो उसके दोष को क्षमा किया जा सकता है। यह उसकी भद्रता की ओर आपकी मृदु प्रतिक्रिया होगी।
  • यदि कोई व्यक्ति अनजाने में भूल करता है तो उसे क्षमा कर देना चाहिए। कोई भी व्यक्ति सभी परिस्थितियों में बुद्धि का सदुपयोग नहीं कर पाता है। भूल करना मानवी स्वभाव है। किन्तु उसने यह भूल अथवा अपराध अनजाने में की है, यह निश्चित हो जाना चाहिए। इसके लिए आप पर्याप्त संशोधन करें तथा विवेकपूर्ण निर्णय लें।
  • यदि कोई व्यक्ति अभिप्रायपूर्वक अपराध करता है तथा ढोंग करता है कि उससे अजनाने में अपराध हो गया है तो ऐसे व्यक्ति को दंड अवश्य देना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में छोटे से छोटा अपराध भी अक्षम्य है।
  • किसी भी व्यक्ति की प्रथम भूल को क्षमा करना उचित होगा। किन्तु, यदि वह अपनी भूल की पुनः पुनः पुनरावृत्ति करता है तो वह कदापि क्षमाप्रार्थी नहीं हो सकता।
  • मृदु व्यवहार साधारणतया शत्रुत्व पर विजय प्राप्त करता है। अतः जब तक संभव हो, मृदु व्यवहार करें।
  • दंड दें अथवा क्षमा करें, यह निर्णय लेने से पूर्व अवस्थिति, काल एवं पारस्परिक सापेक्ष शक्ति का स्पष्ट आकलन कर लें। यदा-कदा समक्ष स्थित व्यक्ति की शत्रुता को निमंत्रण ना देने के लिए तथा उसको प्रसन्न करने के लिए उसे क्षमा करना पड़ता है।

ऐसे अनेक अवसर होते हैं जहाँ क्षमा करना उत्तम सिद्ध होता है। अन्य सभी परिस्थितियों में कठोर व्यवहार उचित होता है।

अंत में द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती हैं कि कौरवों ने लालच एवं असम्मानजनक व्यवहार की सीमा पार कर दी है। अब समय आ गया है कि उन्हे उनके व्यवहार के लिए कठोर दंड दिया जाना चाहिए। उन्हे क्षमा करने का कोई भी कारण नहीं है।

इस विषय पर द्रौपदी एवं युधिष्ठिर के मध्य हुए संवादों में क्षमा के गुण-धर्म, कर्म की आवश्यकता आदि पर अनेक चर्चाएँ हुईं। उनके विषय में हम किसी अन्य अवसर पर चर्चा करेंगे।

स्रोत – अध्याय २८, वन पर्व, महाभारत। (गीत प्रेस द्वारा प्रकाशित)

यह वेबस्थल अमेजॉन का सहयोगी है। अतः आप जब भी इस लिंक से कुछ क्रय करेंगे, उसका एक लघु भाग यह वेबस्थल के खाते में निष्पन्न होगा। किन्तु इससे आपके व्यय में कोई अंतर नहीं आएगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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महाभारत काल में वित्त व वाणिज्य की कथा https://inditales.com/hindi/mahabharat-mein-vitt-aur-vanijya/ https://inditales.com/hindi/mahabharat-mein-vitt-aur-vanijya/#respond Wed, 07 Aug 2024 02:30:41 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3659

महाभारत काल में एक द्यूतक्रीडा में कौरवों के हाथों पराजित होने के पश्चात पांडवों को १३ वर्ष वनवास भोगना पड़ा था। उनके हाथों से सम्पूर्ण वैभव, धन-संपत्ति तथा राजपाट छिन गया था। इससे पांडव खिन्न थे। द्रौपदी एवं भीम अपनी इस दशा के लिए युधिष्ठिर को दोषी मान रहे थे। युधिष्ठिर को अपराध बोध अवश्य […]

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महाभारत काल में एक द्यूतक्रीडा में कौरवों के हाथों पराजित होने के पश्चात पांडवों को १३ वर्ष वनवास भोगना पड़ा था। उनके हाथों से सम्पूर्ण वैभव, धन-संपत्ति तथा राजपाट छिन गया था। इससे पांडव खिन्न थे। द्रौपदी एवं भीम अपनी इस दशा के लिए युधिष्ठिर को दोषी मान रहे थे। युधिष्ठिर को अपराध बोध अवश्य था लेकिन वे धर्मपालन के प्रति भी पूर्णतः समर्पित थे। इसीलिए उन्होंने वनवास का दंड सहर्ष स्वीकार कर लिया था।

मिथिला के राजा जनक द्वारा दिए गए जीवन ज्ञान के संदर्भ से, शौनक मुनि अरण्यकाल में युधिष्ठिर को जीवन के विविध आयामों पर ज्ञानोपदेश करते हैं। उसके अंतर्गत वे वित्त एवं वाणिज्य से संबंधित विषयों में भी उपदेश करते हैं। उस काल में प्रदान किया गया वित्त एवं वाणिज्य से संबंधित प्रज्ञान वर्तमान में भी उतना ही प्रासंगिक है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

जिस प्रकार मानव मृत्यु से भयभीत रहता है, एक समृद्ध व्यक्ति भी सदा राजा, जल, अग्नि, चोर-डाकुओं एवं अपने परिजनों से भयभीत रहता है।

वित्तीय विषयों की चर्चा करें तो क्या यह वक्तव्य आज भी उतना ही सटीक नहीं है? एक व्यापारी, चाहे वह उच्चतम स्तर का हो अथवा निम्नतम स्तर का हो, वह सदा सरकार से भयभीत रहता है। कौन जाने किस समय कौन सा अतिरिक्त कर लगा दे! अथवा कौन से नियम में परिवर्तन कर दे जिससे क्षण भर में उनका व्यापार धाराशायी हो जाए! इसके अतिरिक्त दो देशों के मध्य युद्ध अथवा दो राजनैतिक गुटों के मध्य नित परिवर्तित होते समीकरण का भी अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसका ज्वलंत उदाहरण है, रशिया-यूक्रेन युद्ध, जिसका अनेक अंतर्राष्ट्रीय व्यापारों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।

जब जल एवं अग्नि के प्रभाव का उल्लेख किया जाता है, तब इसका संकेत प्राकृतिक एवं मानव-निर्मित आपदाओं की ओर होता है। व्यापार के परिप्रेक्ष्य में भी दोनों जोखिम भरे संकट हैं। इनके कारण उत्पादों को भारी क्षति पहुँच सकती है। माल के सुगम आवागमन में बाधाएं उत्पन्न हो सकती हैं। प्रौद्योगिकी के विभिन्न स्तरों के कारण एक साधारण ग्राहक इन जटिलताओं से अनभिज्ञ रहता है। किन्तु सत्य यही है कि व्यवसाय एवं व्यापार सुदृढ़ धरातल पर किये जाते हैं जिनमें जन एवं माल की आवाजाही एक महत्वपूर्ण भाग है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में डिजिटल आधारभूत संरचनाओं पर भी असामाजिक तत्वों द्वारा आक्रमण का संकट मंडरा रहा है।

डिजिटल अथवा अंकीय प्रौद्योगिकी के उद्भव से पूर्व, हमें हमारी संपत्ति, मालमत्ते, नकद एवं परिजनों की भौतिक सुरक्षा की ही चिंता रहती थी। किन्तु अंकीय प्रोद्योगिकी के आगमन का प्रभाव सुरक्षा व्यवस्था पर भी पड़ा है। जहाँ एक ओर नितनवीन तकनीकों द्वारा हम हमारी संपत्ति की रक्षा का प्रबंध कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उसी अंकीय प्रौद्योगिकी में दक्ष कुछ असामाजिक तत्व उसी तकनीक का प्रयोग दुगुनी गति से कर रहे हैं। हम सब इसी भय में निमग्न रहते हैं कि कब कौन इस तकनीक का अभिनव प्रयोग कर हमारी संपत्ति को लूट ले। इसी कारण व्यवसायियों के लिए अपनी सुरक्षा व्यवस्था को अनवरत सुदृढ़ बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

ऐसा कहा जाता है कि ठग-लुटेरे नवीन तकनीकों के सर्वप्रथम एवं सर्वोत्तम उपभोक्ता होते हैं। यह एक प्रकार का चोर-पुलिस का खेल है जो ठगों एवं व्यापारियों के मध्य जारी रहता है। अथवा सरकारी इकाईयों एवं भ्रष्टाचारियों के मध्य जारी रहता है।

अनोखा तथ्य यह है कि समृद्ध व्यक्ति को अपने परिवारजनों से भी भय लगा रहता है। एक सफल व्यवसाय को स्थापित करने के लिए विश्वासपात्र सहयोगियों के समूह की आवश्यकता होती है। किन्तु कभी कभी इन्ही सहयोगियों में से कोई विश्वासघात कर बैठता है तथा परम शत्रु बन जाता है। आपको देवी माहात्म्य में समाधि वैश्य की कथा स्मरण होगी जिसके साथ उसके परिवारजनों ने ही विश्वासघात किया था। वहीं रामायण में विभीषण को रावण के पतन का कारण माना जाता है। इस प्रसंग से ही लोकप्रिय कहावत का जन्म हुआ था, घर का भेदी लंका ढाए।

जो परिवारजन अथवा मित्र हमारे अत्यंत समीप होते हैं, उन्हे हमारे अथवा हमारे व्यवसाय संबंधी सभी गोपनीय तथ्यों की जानकारी होती है। यह जानकारी उन्हे वह शक्ति प्रदान करती है जिसके द्वारा वे चाहें तो हमें सर्वाधिक आघात पहुँचा सकते हैं।

जिस प्रकार एक पक्षी आकाश में, एक पशु भूमि में तथा एक मछली जल में माँस के एक टुकड़े को झपटकर पकड़ लेती है, उसी प्रकार एक समृद्ध व्यक्ति की संपत्ति में से कुछ भाग हथियाने के लिए सभी तत्पर रहते हैं।

एक समृद्ध व्यक्ति के रूप में आप ना केवल लोगों की ईर्ष्या का पात्र बनते हैं, अपितु कई लोग आपकी संपत्ति में से कुछ भाग झपटने के लिए भी तत्पर रहते हैं। किसी को आपसे दान-दक्षिणा की अपेक्षा रहती है तो किसी को रोजगार की। वहीं कुछ लोग आपको अपने उत्पाद अथवा सेवाएं विक्री करने के लिए तत्पर रहते हैं। इन सब को प्राप्त करने के लिए वे मधुर वचनों का प्रयोग कर सकते हैं अथवा चापलूसी कर सकते हैं। अन्यथा आपसे दुष्टता भी कर सकते हैं। एक समृद्ध व्यक्ति के लिए ऐसे लोगों को जानना, पहचानना तथा उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है।

आपके जीवन में आपको आकाश, भूमि एवं जल जैसे सभी संभव वर्गीकरणों का अनुभव प्राप्त होगा, चाहे वे परिवारजन हों अथवा मित्र, चाहे वे कर्मचारी हों अथवा व्यावसायिक संबंधी, चाहे वह सरकार हो अथवा दान मांगने वाले। जहाँ भी वित्त अथवा धन संबंधी विषय हो, हमें इस सभी वर्गों से सावधान रहने की आवश्यकता है।

मेरे अनुमान से यही कारण होगा कि वैश्य समाज के अधिकांश परिवार अपनी समृद्धि का दिखावा करने से कतराते हैं क्योंकि ऐसा करके वे अवांछित तत्वों को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं। इसी कारण से वे सादगी पूर्ण जीवन उत्तम समझते हैं। ना कि क्षत्रिय समाज के परिवार के अनुरूप, जो अपना प्रभाव प्रदर्शित करने के लिए अपनी समृद्धि का दिखावा करते हैं। इस विषय में आपकी क्या राय है?

संपत्ति प्राप्त करने के ३ उपाय

महाभारत में आपने पढ़ा होगा कि अपनी सम्पूर्ण संपत्ति एवं राज्य को चौपड़ के दांव में हार जाने के पश्चात पांडवों ने वन की शरण ली थी। वे वन में कंदमूल एवं फल खा कर दिवस व्यतीत कर रहे थे। द्रौपदी को यह सब अत्यंत अरुचिकर प्रतीत हो रहा था। वो नहीं चाहती थी कि युधिष्ठिर एवं अन्य पांडव भ्राता ऐसे  जीवन से आत्मसंतुष्टि प्राप्त करते रहें। वो चाहती थी कि युधिष्ठिर एवं अन्य पांडव भ्राता अपने खोए हुए राज्य एवं संपत्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए तत्पर हों। इसलिए वे युधिष्ठिर को उकसाती हैं कि इस ओर प्रयत्न शीघ्र आरंभ करें। वे सतत उनसे कहती कि कर्म के बिना जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। द्रौपदी ने युधिष्ठिर को कर्म की बृहस्पति नीति से भी अवगत कराया था।

संपत्ति प्राप्त करने के तीन साधन हैं: कर्म, भाग्य एवं प्रकृति।

महाभारत में वित्त और वाणिज्य
महाभारत में वित्त और वाणिज्य

हम सब कर्म के विषय में जानते हैं, संपत्ति अर्जित करने के लिए कार्य करना। यह हमारे नियंत्रण में होता है।

भाग्य वह तत्व है जो जन्म से हमारे साथ जुड़ जाता है। वह हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों पर आधारित होता है। अतः यदि आपके भाग्य से आपका जन्म किसी संपन्न परिवार में होता है तो आप धनवान हो सकते हैं। आपके भाग्य से आप कोई लॉटरी जीत सकते हैं। उसे भगवान का आशीर्वाद अवश्य मानिए किन्तु संपत्ति प्राप्त करने के पश्चात निष्क्रिय होकर ना बैठें। यह संपत्ति आपको बिना किसी परिश्रम के प्राप्त हुई है लेकिन उसे बनाए रखने के लिए परिश्रम अवश्य करना पड़ेगा। यदि पूर्व सत्कर्मों की कृपा से यह धन आपको अनायास ही प्राप्त हुआ है तो पुनः इसी प्रकार से धन प्राप्त करने के लिए आपको वैसे ही सत्कर्म पुनः करने पड़ेंगे।

आप कैसे कर्म करते हैं, यह आपके जन्मजात स्वभाव पर निर्भर करता है। यदि आपके कर्म आपके स्वभाव से साम्य रखते हैं तो आपको आपके कर्म में आनंद प्राप्त होगा तथा वह कर्म तदनुसार फल देगा। सद्धर्म एवं सत्कर्म आपको आनंददायी फल प्रदान करेंगे। सम्पूर्ण समर्पण से सद्धर्म निभाएं तथा सत्कर्म करें अन्यथा वही कर्म एक बोझ प्रतीत होगा।

एक बुद्धिमान व्यक्ति सर्वप्रथम यह ज्ञान प्राप्त करता है कि बीज के भीतर वसा होती है, गौ के भीतर दूध होता है तथा लकड़ी के भीतर अग्नि होती है। तत्पश्चात वह उन्हे दुहने के साधनों की खोज करता है।

द्रौपदी मनु के कथन का उद्धरण देती हैं – संभव है कि कर्म करने के पश्चात भी आपको मनचाहा फल प्राप्त ना हो। ऐसी परिस्थिति में हमें अपने कर्मों का विश्लेषण करना चाहिए कि हमसे क्या चूक हो गई, कहाँ कमी रह गयी तथा उस चूक को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि आपको वारंवार वांछित फल प्राप्त ना हो तब भी निराश ना हों। कर्मों का फल प्राप्त होने में हमारे भाग्य एवं भगवान की कृपा की भी विशेष भूमिका होती है। अतः अपना अखंड प्रयास जारी रखें।

यदि आप कर्म ही नहीं करेंगे तो फल प्राप्त करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

वित्त एवं वाणिज्य संबंधी विषयों में आपके प्रयास की दिशा इस ओर होनी चाहिए – अर्जन, सुवर्धन एवं संरक्षण। यदि आप अर्जन से अधिक व्यय करेंगे तो हिमालय जैसी संपत्ति भी एक ना एक दिवस समाप्त हो जाएगी। जो केवल भाग्य के आश्रय में जीवन व्यतीत करता है वह उसी प्रकार समाप्त हो जाएगा जिस प्रकार कच्ची मिट्टी के घड़े में जल भरने से घड़ा नष्ट हो जाता है। अर्थात क्षण भर में उसका नाश हो जाएगा।

यह वेबस्थल अमेजॉन का सहयोगी है। अतः आप जब भी इस लिंक से कुछ क्रय करेंगे, उसका एक लघु भाग यह वेबस्थल के खाते में निष्पन्न होगा। किन्तु इससे आपके व्यय में कोई अंतर नहीं आएगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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द्रौपदी का जन्मस्थान – प्राचीन पांचाल देश की राजधानी कांपिल्य https://inditales.com/hindi/draupadi-janmsthan-kampilya-panchal/ https://inditales.com/hindi/draupadi-janmsthan-kampilya-panchal/#comments Wed, 28 Apr 2021 02:30:27 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2276

नीरा मिश्र ‘द्रौपदी ड्रीम ट्रस्ट’ की संस्थापक, अभिभावक एवं अध्यक्षा हैं। वे गत दो दशकों से सामाजिक व्यवसायी हैं तथा प्राचीन भारतीय धरोहरों को पुनर्जीवित करने के शुभकार्य में व्यस्त हैं। दिल्ली अर्थात्   इंद्रप्रस्थ एवं पांचाल की राजधानी कांपिल्य में उनकी विशेष रुचि है। नीरा मिश्र से डीटूर्स संवाद अनुराधा गोयल – नीरा जी, डीटूर्स […]

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नीरा मिश्र ‘द्रौपदी ड्रीम ट्रस्ट’ की संस्थापक, अभिभावक एवं अध्यक्षा हैं। वे गत दो दशकों से सामाजिक व्यवसायी हैं तथा प्राचीन भारतीय धरोहरों को पुनर्जीवित करने के शुभकार्य में व्यस्त हैं। दिल्ली अर्थात्   इंद्रप्रस्थ एवं पांचाल की राजधानी कांपिल्य में उनकी विशेष रुचि है।

नीरा मिश्र से डीटूर्स संवाद

अनुराधा गोयल – नीरा जी, डीटूर्स में आपका स्वागत है।

नीरा मिश्र – नमस्कार अनुराधाजी। मुझे आमंत्रित करने के लिए आपका धन्यवाद।

कांपिल्य – द्रौपदी का जन्मस्थान

अनुराधा गोयल – आज हम द्रौपदी के जन्मस्थान कांपिल्य के विषय में चर्चा करने जा रहे हैं। हम सब जानते हैं कि द्रौपदी महाभारत की एक अत्यंत महत्वपूर्ण पात्र थी। एक प्रकार से वह महाभारत की ‘इच्छाशक्ति’ थी। पांचाल एवं कांपिल्य के विषय में भी हम सबने सुना है। किन्तु वह भारत के मानचित्र पर कहाँ स्थित है, यह हम नहीं जानते। इसीलिए हम इसी विषय से हमारी चर्चा का आरंभ करते हैं कि कांपिल्य वास्तव में कहाँ है?

नीरा मिश्र – पुरातत्वविदों, प्राचीन भारत के शोधकर्ताओं तथा संस्कृत के विद्वानों के अतिरिक्त अधिक लोग नहीं जानते कि गंगा तट पर स्थित कांपिल्य वास्तव में उत्तर प्रदेश के  फर्रुखाबाद जिले में स्थित है। प्राचीन काल में कांपिल्य स्वयं एक जनपद था। इसकी अवस्थिति की चर्चा की जाए तो यह स्थान दिल्ली से लगभग ३०० किलोमीटर दूर है जहां हम आगरा महामार्ग द्वारा आगरा, टूंडला तथा एटा राज्यमार्ग होते हुए पहुँच सकते हैं। उसी प्रकार, कांपिल्य कानपुर से लगभग १५० किलोमीटर दूर है। कानपुर से फर्रुखाबाद होते हुए हम कांपिल्य पहुँच सकते हैं। कांपिल्य फर्रुखाबाद नगर से लगभग ४० किलोमीटर दूर स्थित है। लखनऊ से यह स्थान लगभग २०० किलोमीटर दूर है।

अनुराधा गोयल – द्रौपदी का जन्मस्थान कांपिल्य था। उन्हे पांचाली भी कहा जाता था। यह बताइए कि क्या कांपिल्य एवं पांचाली एक ही क्षेत्र के दो नाम थे या दो भिन्न क्षेत्र थे अथवा एक दूसरे के अंतर्गत आते थे? उनमें क्या संबंध था?

नीरा मिश्र – मैं सर्वप्रथम आपको पांचाल के विषय में बताती हूँ।

भारत के मानचित्र पर काम्पिल्य एवं पांचाल
भारत के मानचित्र पर काम्पिल्य एवं पांचाल

पांचाल प्राचीन भारत का प्रथम राजनीतिक जनपद था। एक समय कुरु एवं पांचाल एक सम्पूर्ण राज्य थे। पांचाल के नागरिक प्रगीतिशील एवं प्रबुद्ध थे तथा विद्या, वैदिक अध्ययन एवं शोधकार्य में उनकी विशेष रुचि थी। इस कारण कुरु के नागरिकों के संग निभाना उनके लिए कठिन हो रहा था। अतः पांचाल के पाँच कबीले पृथक हो गए तथा उन्होंने पाँच कबीलों का एक महाजनपद बनाया जिसे पाँच अंचल अथवा पांचाल कहा। इस महा संघ का एक भाग, कांपिल्य, उस क्षेत्र का सर्वाधिक प्राचीन व समृद्ध स्थान होने के कारण पांचाल महाजनपद की राजधानी बना।

आज का काम्पिल्य
आज का काम्पिल्य

अनुराधा गोयल – हम सब जानते हैं कि द्रौपदी पांचाल पुत्री तथा कांपिल्य पुत्री कहलाती थी। किन्तु यह क्षेत्र उससे पूर्व भी अस्तित्व में था। क्या महाभारत-पूर्व के इस क्षेत्र के अस्तित्व के विषय में कोई जानकारी है?

महाभारत से पूर्व का काल

नीरा मिश्र – अवश्य है। हमारे प्राचीन साहित्यों में कांपिल्य को हमारे भारत देश अथवा आर्यावर्त क्षेत्र के दस प्राचीनतम नगरों में से एक कहा गया है। इसे ‘प्रजापति की नाभि’ का एक भाग माना गया है। महाभारत-पूर्व से संबंधित क्षेत्रों के अनेक भौतिक अवशेष उपलब्ध हैं। मैं सतयुग से आरंभ करती हूँ जिसे मैं वैदिक काल कहना अधिक उत्तम मानती हूँ। किसी भी पूजा-हवन तथा गृहपूजन के समय एक श्लोक का उच्चारण किया जाता है जिसमें कांपिल्य का उल्लेख स्पष्ट है। वह श्लोक इस प्रकार है –

ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके नमा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पिल्यवासिनीम्‌॥    

(भगवती अम्बिका को प्रणाम)

द्रौपदी-पार्वती

कांपिल्य के प्राचीनतम मंदिरों में से एक का यजुर्वेद में उल्लेख किया गया है। महाभारत से पूर्व का यह मंदिर है, कांपिलवासिनी मंदिर। भगवान शिव के श्राप के उपरांत देवी पार्वती इसी स्थान पर तपस्या में लीन हुई थी। द्रौपदी को पार्वती का ही अवतार माना जाता है। महाभारत से पूर्व के कांपिल्य के अस्तित्व का एक अन्य प्रमाण है, कपिल मुनि की कुटिया जहां कपिल मुनि तपस्या करते थे। इसके समीप त्रेता युग का एक अन्य महत्वपूर्ण मंदिर है, रामेश्वर शिव मंदिर। इसका निर्माण अयोध्या नरेश राम के अनुज शत्रुघ्न ने करवाया था।

कांपिल्य वेदिक अध्ययन एवं धार्मिक अनुष्ठानों का क्षेत्र था। वहाँ साधु एवं ऋषिगण अनेक यज्ञों, हवनों एवं अन्य कर्मकांडों का आयोजन करते थे। वहाँ स्थित अनेक दानव एवं असुर उनकी साधना में सदा बाधा उत्पन्न करते तथा उन्हे नाना प्रकार से त्रास देते रहते थे। जब साधुओं एवं ऋषिगणों ने भगवान राम के समक्ष अपनी व्यथा कही तब श्रीराम ने शत्रुघ्न को उन दानवों का वध करने के लिए भेजा। वहाँ से अयोध्या वापिस आते समय वे कांपिल्य की पावन धरती पर पहुंचे थे। वे कांपिल्य से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने श्रीलंका के अशोक वाटिका से लाये हुए शिवलिंग की यहाँ स्थापना की। यह शिवलिंग प्राचीनतम शिवलिंगों में से एक है। इसका उल्लेख कांपिल्य माहात्म्य में भी है जो मूलतः वैशम्पायन एवं परीक्षित के मध्य हुए संवाद के रूप में है।

अतः महाभारत से पूर्व के तीन प्रमाण हैं, कपिल मुनि, कांपिलवासिनी मंदिर तथा त्रेतायुग का रामेश्वर मंदिर। इनके अतिरिक्त गंगा है जो कितनी प्राचीन है आप सभी जानते ही हैं।

अनुराधा गोयल –  आपने जिस असुर का उल्लेख किया, क्या वह लवणासुर है?

नीरा मिश्र – जी वह लवणासुर है।

महाभारत काल से पूर्व के अवशेष  

अनुराधा गोयल –  नीराजी, आपने महाभारत से पूर्व काल के कांपिल्य के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी दी। अतः कांपिल्य द्रौपदी से पूर्व भी था एवं पश्चात भी। एक उत्सुकता मन में उत्पन्न हो रही है कि यदि आज हम वहाँ जाएँ तो महाभारत काल, उससे पूर्व एवं पश्चात के कौन कौन से अवशेष देख पाएंगे?

नीरा मिश्र – यहाँ अनेक स्थान हैं जिनका त्रेतायुग, सतयुग एवं यहाँ के इतिहास से सीधा संबंध है। जैसा कि मैंने कहा है, यह वेदिक शिक्षा का केंद्र था। उपनिषद का आधार था। यहाँ आप उस ज्ञान के वातावरण को अनुभव कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, इसी स्थान पर आयुर्वेद के ज्ञान को पुस्तक के रूप में संकलित करने का निर्णय लिया गया था जो कालांतर में चरक संहिता के रूप में अस्तित्व में आई। इसीलिए यहाँ अनेक वैद्य अब भी आयुर्वेद का प्रयोग कर रोगों का इलाज करते हैं। ये हुए महाभारत से पूर्व के कुछ प्रमाण।

महाभारत काल के अवशेष

कालेश्वर मंदिर

द्रौपदी स्वयंवर
द्रौपदी स्वयंवर

महाभारत काल के कुछ रोचक तथ्य इस स्थान से जुड़े हुए हैं। इसका आरंभ करते हैं द्रौपदी के जन्म से। कांपिल्य द्रौपदी के जन्मस्थान के रूप में अधिक प्रसिद्ध है। यहाँ एक द्रौपदी कुंड है जहाँ हवन इत्यादि का आयोजन किया जाता था। इसके निकट द्रौपदी द्वारा स्थापित एक मंदिर है।

यहाँ एक कालेश्वर मंदिर है जिसका संबंध द्रौपदी के स्वयंवर से है। स्वयंवर में अर्जुन के विजयी होने के पश्चात भी एक भ्रामक स्थिति के कारण उसे पांचों पांडवों को पति स्वीकार करने के लिए कहा गया था जिसके लिए वह कदापि तत्पर नहीं थी। तब भगवान कृष्ण ने उन्हे स्मरण कराया कि वह स्वयं पार्वती का अवतार है तथा एक वरदान के कारण पांचों पांडव भी शिव स्वरूप हैं। तब पार्वती ने कहा था, ‘काल के समक्ष झुकती हूँ तथा शिव के पंच रूप को ग्रहण करती हूँ’। इसीलिए इस मंदिर को कालेश्वर मंदिर कहा जाता है।

शिवलिंग एवं अन्य मंदिर

कुछ लघु मंदिर हैं जो चौमुखी शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुख्य शिवलिंग युधिष्ठिर का है। उसके चार मुख अन्य पांडवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रह्म को समर्पित एक छोटा मंदिर भी है। कांपिल्य में मीनपुर नामक एक स्थान है जहाँ मत्स्यभेदन के पश्चात द्रौपदी का स्वयंवर हुआ था। उत्तर प्रदेश का राज्य चिन्ह भी इसी से संबंधित है, घूमती मीन, धनुष एवं बाण जो मत्स्यभेदन पर आधारित है तथा समर्पण, दिशा एवं संकल्प को दर्शाता है।

यद्यपि वर्तमान में कांपिल्य का भूगोल सिकुड़कर एक कस्बे में परिवर्तित हो गया है तथापि प्राचीन काल में यह एक विस्तृत जनपद था। आज के कांपिल्य से कुछ आगे, किन्तु प्राचीन कांपिल्य के भीतर ही मंडावर मंदिर है। फर्रुखाबाद में स्थित, पांडव बाग के भीतर यह पांडवों का मंदिर है।

शिव मंदिर

द्रौपदी कुंड
द्रौपदी कुंड

यहाँ एक शिव मंदिर भी है। गंगा का घाट है जिस पर ऋषि दुर्वासा का आश्रम है। यहाँ पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि का भी एक आश्रम था। रुदायन नामक एक गाँव है जहाँ पांडवों ने कुछ काल व्यतीत किया था तथा वहाँ से बहती गंगा में उन्होंने अपने पितरों का तर्पण भी किया था। द्रौपदी के जन्म से संबंधित एक रोचक कथा यहाँ प्रचलित है। द्रौपदी के पिता को एक योद्धा व वीर पुत्र की इच्छा थी। अतः उन्होंने अनेक प्रार्थनाएं की तथा योज एवं उपयोज नामक दो परम ज्ञानी पुरोहितों से यज्ञ करने का भी अनुरोध किया। यहाँ इन दोनों पुरोहितों के दो गाँव अब भी हैं। एक प्राचीन मंदिर के भीतर २४ अवतारी विष्णु की साढ़े चार फुट ऊंची प्रतिमा भी है।

एकचक्रपुर नामक स्थान में भीम ने एक रात्रि व्यतीत की थी। ये सभी स्थान कांपिल्य एवं उसके आसपास ही स्थित हैं तथा विशेषतः महाभारत से जुड़े हुए हैं।

महाभारत के पश्चात का काल  

उत्तर प्रदेश का चिन्ह
उत्तर प्रदेश का चिन्ह

अब हम महाभारत के उपरांत के कांपिल्य के विषय में चर्चा करेंगे। हम सब जानते हैं कि जब भी कोई स्थल शिक्षा एवं राजनैतिक कारणों से प्रसिद्धि पाता था तब आने वाली पीढ़ियों के सभी गणमान्य व्यक्ति उस स्थान का भ्रमण अवश्य करते थे। बुद्ध ने भी कांपिल्य का भ्रमण किया था।

बुद्ध कांपिल्य से अत्यंत प्रभावित थे। कांपिल्य के समीप संकिसा नामक स्थान है जो कांपिल्य के संकुचन से पूर्व उसके भीतर ही था। इसका प्राचीन नाम संकाश्य है। वहाँ एक अशोक स्तंभ है। कहते हैं बुद्ध भगवान स्वर्ग से उतर कर यहीं पर आये थे। ऐसी भी मान्यता है कि बुद्ध ने यहाँ स्वर्ग प्राप्त किया अर्थात् ऐसा ज्ञान प्राप्त किया जिसके द्वारा उन्हे जीवन के उस पार के सत्य का आभास हुआ। अब यह भारतीय पुरातत्व संरक्षण विभाग द्वारा संरक्षित क्षेत्र है।

कांपिल्य पर विदेशियों का प्रभाव

संकिसा बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है। यहाँ बौद्ध धर्म को मानने वाले अनेक देशों के अतिथिगृह हैं, जैसे बर्मा, जापान इत्यादि। आप सब को स्मरण होगा कि स्टीव जॉब्स नीम करौली बाबा से अत्यंत प्रभावित थे। क्या आप जानते हैं कि नीम करौली बाबा ने फर्रुखाबाद के समीप स्थित नीम करौली गाँव में भी कुछ समय व्यतीत किया था। तदनंतर बाबा को इसी नाम से जाना जाने लगा। जब मुगलों का आगमन हुआ तब द्रौपदी कुंड के समक्ष स्थित घाट को मुगल सम्राटों की मलिकाओं के लिए मुगल घाट में परिवर्तित किया गया।

बंटवारे से पूर्व गांधीजी ने दो बार कांपिल्य का भ्रमण किया था। छावनी क्षेत्र में एक अप्रतिम संग्रहालय भी है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित है। इस प्रकार इस क्षेत्र में आये प्रत्येक आगंतुक ने यहाँ अपनी छाप छोड़ी है।

अनुराधा गोयल –  तब तो गुरुनानकजी ने भी इस स्थान का भ्रमण अवश्य किया होगा क्योंकि उन्होंने भी भारत के लगभग सभी महत्वपूर्ण स्थानों का भ्रमण किया है?

नीरा मिश्र – यहाँ एक गुरुद्वारा अवश्य है किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं कि गुरुनानकजी ने इस स्थान का भ्रमण किया है। इस विषय में मैं जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करूंगी।

कांपिल्य के उत्सव एवं मेले

अनुराधा गोयल –  मैं जानना चाहती थी कि कांपिल्य में कौन कौन से उत्सव आयोजित किये जाते हैं। क्या कोई ऐसा उत्सव है जो केवल कांपिल्य में ही मनाया जाता है?

नीरा मिश्र – कांपिल्य प्रत्येक धरातल पर इतना महत्वपूर्ण है कि स्वयं अलेक्जेंडर कनिंघम भी यहाँ आए थे।  अलेक्जेंडर कनिंघम को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पिता के रूप में जाना जाता है। इसके पश्चात कांपिल्य की धरोहर एवं उसकी महत्ता से संबंधित अनेक आलेख तैयार किये गए। सन् १९७८ में जिला मैजिस्ट्रैट श्री त्रिपाठी ने प्रथम कांपिल्य महोत्सव का आरंभ किया था। यह महोत्सव कांपिल्य की पुरातनता एवं संस्कृति का उत्सव मनाता है। ना जाने कैसे एवं कब यह महोत्सव फर्रुखाबाद उत्सव में परिवर्तित हो गया। इसके अतिरिक्त, गंगा के तट पर तथा द्रौपदी कुंड पर वर्ष में दो बार मेला भरता है।

जनवरी मास में यहाँ राम गंगा मेला अथवा माघ मेला लगता है जब अनेक ऋषिगण यहाँ आते हैं तथा गंगा के तट पर अपना डेरा डालते हैं। यह मेला महीने भर चलता है। इसके अतिरिक्त, गंगा सागर उत्सव मनाया जाता है जिसे गंगा दशहरा मेला भी कहते हैं। एक अन्य मेला है, कार्तिक मेला। ‘पूर्णिमा का स्नान’ एक अन्य अत्यंत पावन उत्सव है। इस दिन भक्तगण ना केवल गंगा में स्नान करते हैं, अपितु द्रौपदी कुंड में भी डुबकी लगाते हैं। द्रौपदी कुंड एक यज्ञ कुंड था। विडंबना यह है कि २५-३० वर्ष पूर्व किसी अति उत्सुक नेता ने इसके चारों ओर पक्की मेंड़ बनवा दी जिसके कारण उसमें जल एकत्र होने लगा। भक्तगण इसे अत्यंत पावन मानते हैं इसीलिए अब वे इसमें भी डुबकी लगाते हैं।

जैन एवं बौद्ध उत्सव

कांपिल्य को १३ वें. जैन तीर्थंकर विमलनाथ अथवा विमल कुमार का भी स्थल माना जाता है। विमल कुमार वास्तव में कांपिल्य के राजकुमार थे जिन्हे दीक्षा एवं कठोर तपस्या के उपरांत कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तत्पश्चात वे तीर्थंकर विमलनाथ बने। यहाँ एक श्वेताम्बर मंदिर तथा एक दिगम्बर मंदिर है। कांपिल्य में जैन धर्म के अनुयायी अनेक उत्सव मनाते हैं जिसके लिए भक्तगण दूर दूर से आते हैं। वे भी वैदिक पद्धति से ही पूजा अनुष्ठान करते हैं किन्तु उनके अनुष्ठान की पद्धति किंचित भिन्न होती है। अंततः उनकी संस्कृति की उत्पत्ति भी वैदिक संस्कृति से ही हुई है।

सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म इत्यादि अनेक समुदायों के भक्तगण यहाँ कई उत्सवों का आयोजन करते हैं। जो उत्सव प्रयागराज के लिए महत्वपूर्ण एवं पावन हैं, वे सभी कांपिल्य के लिए भी अत्यंत पावन हैं।

कांपिल्य दर्शनार्थियों के लिए सुविधाएं

अनुराधा गोयल – कांपिल्य के विषय में आपसे जानने के पश्चात कांपिल्य के दर्शन करने की मेरी अभिलाषा तीव्र हो गई है। क्या आप मुझे वहाँ यात्रियों के लिए उपलब्ध सुविधाओं के विषय में कुछ जानकारी दे सकती हैं? जैसे अतिथिगृह, किराये की गाड़ी, गाइड इत्यादि।

नीरा मिश्र – ठहरने के लिए २-३ विकल्प हैं। प्रथम विकल्प है कि आप फर्रुखाबाद में ठहरें तथा गाड़ी द्वारा विभिन्न दर्शनीय स्थलों तक जाएँ। फर्रुखाबाद में उचित दरों पर अनेक स्तरों के यात्री निवास उपलब्ध हैं। औसतन १००० से १५०० रुपयों में सभी मूलभूत सुविधाओं से युक्त अच्छे यात्री निवास आपको मिल जाएंगे। कई स्थानों पर आपको भोजन की पूर्वसूचना देनी पड़ सकती है।

कांपिल्य में ठहरने के लिए जैन धर्मशालाओं की सुविधाएं उपलब्ध हैं। यदि आप वहाँ उत्सवों के समय ना जाएँ तो पूर्वसूचना देकर इन धर्मशालाओं में उत्तम सुविधाओं से युक्त कक्ष भी आप प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा, हो सकता है कि आपको यहाँ कक्ष ही नहीं मिलें। तहसील कायमगंज में भी एक अतिथिगृह है। जहाँ से आप आसानी से कांपिल्य भ्रमण के लिए जा सकते हैं। कांपिल्य में भी मूलभूत सुविधाओं से युक्त औसत स्तर के कुछ अतिथिगृह हैं।

यह एक दोआब क्षेत्र है जहाँ भरपूर मात्र में जल उपलब्ध है। यहाँ की भूमि भी अत्यंत उपजाऊ है। भिन्न भिन्न प्रकार की भाजियाँ एवं फल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। यदि आप यहाँ नवंबर अथवा दिसंबर में आयें तो चारों ओर भरपूर हरियाली देखेंगे। इन्हे देख आप इतने मंत्रमुग्ध हो जाएंगे कि ठहरने की सुविधाओं में कुछ कमी  रह भी जाए तो आप निराश नहीं होंगे।

परिवहन सुविधाएं

नीरा मिश्र – आपको विश्वास नहीं होगा कि सन् २००३ में जब हमने यहाँ कार्य आरंभ किया था तब यहाँ पर ब्रॉड गेज रेलवे लाइन भी नहीं थी। प्राचीन मीटर गेज रेलवे लाइन ही थी। यहाँ तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग भी नहीं थे। कांपिल्य तक पहुँचने में हमें अत्यधिक समय लग जाता था। असुविधा भी होती थी। इसीलिए हमने सर्वप्रथम भारत पर्यटन विकास निगम से संपर्क किया। उसके निरीक्षण में कांपिल्य में सांस्कृतिक पर्यटन के विकास पर विस्तृत रूप से शोध किया। इस शोध का केंद्र बिन्दु बुनियादी ढांचे का विकास करना था। आज कांपिल्य पहुँचने के लिए उत्तम सड़क मार्ग हैं। ब्रॉड गेज रेलवे लाइनें बिछाई गई हैं जिन के ऊपर दौड़ती द्रुत गति की रेलें कम समय में हमें कांपिल्य पहुँच देती हैं।

बस सुविधाएं भी अत्यंत उत्तम हैं। अतः अब आप कांपिल्य अपनी गाड़ी, टैक्सी, बस अथवा रेल द्वारा आसानी से पहुँच सकते हैं।

इंद्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी

द्रौपदी महात्म्य अनुराधा गोयल – मैं द्रौपदी के विषय पर आपका ध्यान पुनः खींचना चाहती हूँ। हम जानते हैं कि द्रौपदी कांपिल्य की पुत्री थी, दिल्ली की प्रथम रानी थी एवं इंद्रप्रस्थ की महारानी थी। किन्तु उन्हे समर्पित किसी मंदिर के विषय में मैंने कभी नहीं सुना। केवल आपसे द्रौपदी कुंड के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। क्या आप द्रौपदी को समर्पित किसी मंदिर के विषय में जानती हैं?

नीरा मिश्र – द्रौपदी को पांचाली भी कहा जाता है किन्तु पाँच पतियों की पत्नी होने के कारण नहीं, अपितु पांचाल राज्य की पुत्री होने का कारण। उन्हे पंच कन्याओं में से एक होने का मान प्राप्त है। पंच कन्यायाएं हैं, सीता, अहिल्या, तारा, मंदोदरी तथा द्रौपदी।

दुर्भाग्य से गत सहस्त्र वर्षों में भारत ने अनेक आक्रमण एवं राजनैतिक उथल-पुथल सहन किये हैं। धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहरों का विनाश सहा है। सौभाग्य से दक्षिण भारत कुछ सीमा तक इस विनाश से अछूता रहा है। दक्षिण भारत में द्रौपदी अम्मा के कई मंदिर हैं। चेन्नई में ही ५ मंदिर हैं जिनमें से एक मंदिर मुझे १५०० वर्ष प्राचीन बताया गया, किन्तु मुझे वह अधिक प्राचीन प्रतीत हुआ था।

धर्मराज मंदिर

कर्नाटक में धर्मराज नामक एक मंदिर है। इस मंदिर में प्रत्येक वर्ष अप्रैल मास में १५ दिवसों का द्रौपदी उत्सव आयोजित किया जाता है। इस उत्सव को करगा उत्सव कहते हैं। भक्तगण द्रौपदी का वेश धरकर उनकी स्मृति में सम्पूर्ण रात्रि नृत्य करते हैं एवं पूजा अनुष्ठान करते हैं। द्रौपदी को धर्म का प्रतीक एवं कृष्ण की बौद्धिक संगिनी माना जाता है जिसने धर्मराज स्थापित करने में पांडवों की सहायता की थी।

दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं बाली में भी द्रौपदी अत्यंत श्रद्धेय हैं। दक्षिण भारत में, विशेषतः तमिल भाषी समाज उन्हे मरिअम्मा के रूप में पूजता है। भारत के सर्वाधिक दक्षिणतम छोर पर एक स्थान है जहाँ अनेक निवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया है किन्तु फिर भी वे वहाँ स्थित द्रौपदी मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं।

इंद्रप्रस्थ

इंद्रप्रस्थ की चर्चा की जाए तो यह कहते हुए मुझे अत्यंत खेद होता है कि पांडवों के गढ़ ‘पुराना किला’ में भी, जहाँ वे इंद्रप्रस्थ की प्रथम महारानी थी, उनका एक भी मंदिर नहीं है। पुराना किला के भीतर कुंती माता का एक मंदिर अवश्य है। महरौली जो इंद्रप्रस्थ का एक भाग है, वहां योगमाया का एक मंदिर है। महरौली शक्ति से भी संबंधित है। जैसे शक्ति को कृष्ण की भगिनी माना जाता है, वैसे ही द्रौपदी को भी कृष्ण की भगिनी कहा जाता है। अतः मेरे अनुमान से महरौली का शक्तिपीठ द्रौपदी को ही समर्पित होगा। राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के रहते इस स्थान का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विकास नहीं हो पाया है।

द्रौपदी – एक धर्मनिष्ठ स्त्री

द्रौपदी ने धर्म की स्थापना के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था। स्त्रियों को उचित सम्मान दिलाना उनका विशेष ध्येय था। आपको स्मरण होगा कि धृतराष्ट्र के दरबार में उन्होंने पांडवों सहित वहाँ उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों के व्यवहार पर प्रश्न चिन्ह खड़े किये थे तथा उन्हे अपना अपमान करने के लिए दोषी ठहराया था। द्रौपदी ऐसी धरती की पुत्री थी जहाँ वैदिक अध्ययन अपनी चरम सीमा पर था। वह स्वयं एक सुशिक्षित, चरित्रवान एवं अत्यंत धर्मनिष्ठ स्त्री थी। नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण थी। इसी कारण वह कृष्ण की बौद्धिक संगिनी बनी।

अब समय आ गया है कि इंद्रप्रस्थ उन्हे उनका यथोचित सम्मान प्रदान करे। हम पूर्ण प्रयास करेंगे कि इंद्रप्रस्थ के द्रौपदी मंदिरों को पुनर्जीवित करें।

कांपिल्य से मेरा संबंध

अनुराधा गोयल – यह विचार मुझे चौंका रहा है कि द्रौपदी के विषय में कितना कुछ जानना अभी शेष है। उनके लिए कितना कुछ करना भी शेष है। इस विषय में आपका प्रयास अत्यंत सराहनीय है। संवादों के इस सत्र का अंत करते हुए मैं कुछ व्यक्तिगत प्रश्न पूछना चाहती हूँ। द्रौपदी से आप किस प्रकार जुड़ी हुई हैं? उनके विषय में आपकी क्या भावनाएं हैं? आपने अपने ट्रस्ट का नाम ‘द्रौपदी ड्रीम ट्रस्ट’ क्यों रखा? इस विषय में कुछ बताएं। मैं जानने के लिए उत्सुक हूँ।

नीरा मिश्र – द्रौपदी का जन्मस्थान कई शताब्दियों से मेरा पैतृक स्थान रहा है। कितनी शताब्दियाँ, कह नहीं सकती। जीविका की खोज में सर्वप्रथम मेरे पिता ने सन् १९४७ में कांपिल्य छोड़ा तथा कोलकाता में बस गए। मैं भले ही कोलकाता में पली-बढ़ी किन्तु मेरी सांस्कृतिक डोर मेरे पैतृक स्थान से ही जुड़ी रही। सन् १९९४ में मैं दिल्ली आ गई। किन्तु जब भी परिवार में कोई शुभकार्य या विवाहोत्सव अथवा किसी शिशु का आगमन होता होता है तो अब भी हम पूजा के लिए अपनी कुलदेवी के मंदिर जाते हैं जो कोई अन्य नहीं अपितु कांपिलवासिनी अर्थात् द्रौपदी ही हैं। इसीलिए हम अब भी कांपिल्य की धरती से जुड़े हुए हैं।

द्रौपदी से मेरा असाधारण संबंध

यूँ तो शाहजहाँ ने हमें कांपिल्य में भूमि प्रदान की थी, शाहजहाँ के दरबार में मेरे पूर्वजों के ज्ञान का भरपूर सम्मान किया जाता था। मेरे एक पूर्वज शाहजहाँ के दरबार में राज कवि भी थे। किन्तु कांपिल्य से मेरा व्यक्तिगत संबंध एक असाधारण घटना से आरंभ हुआ। जयपुर महामार्ग पर विराटनगर के निकट मेरे साथ बहुत बड़ा अपघात हुआ था। उस अपघात में मुझे भारी क्षति पहुंची थी। दो स्थानीय व्यक्तियों ने मेरे प्राण बचाए थे। ३ मास तक मैं शैय्या से उठ नहीं पायी थे। आपको स्मरण होगा कि विराटनगर वही स्थान है जहाँ अज्ञातवास में द्रौपदी वहाँ की रानी की सेविका बनी थी।

स्वस्थ होने के पश्चात मेरे माता-पिता ने सर्वप्रथम मुझे पूर्वजों की भूमि में जाकर पूजा अर्चना करने का परामर्श दिया। उनका विश्वास था कि द्रौपदी ही मुझे मृत्यु के मुंह से खींच लायी थी। कांपिल्य में द्रौपदी कुंड पहुंचते ही ना जाने मुझे क्या हुआ। मैं वहाँ से आगे जाने के लिए उठ नहीं पा रही थी। मानो जड़ सी हो गई थी। उसी समय से तथा उसी स्थान से मैंने द्रौपदी के विषय में लिखना आरंभ कर दिया।

मुझे यह आभास होने लगा था कि कोई अज्ञात ऊर्जा मुझे पुनः पुनः कांपिल्य जाने के लिए बाध्य कर रही है। आप तो जानती ही हैं अनुराधा जी कि मैं शहरी परिवेश में पली–बढ़ी हूँ। गाँव जाकर रहना मेरे कल्पना से भी परे था। अपने माता-पिता की इकलौती पुत्री होने के कारण मुझे सुख-सुविधा से परिपूर्ण जीवन प्राप्त हुआ है। इसके विपरीत, अब मैं प्रत्येक महीने कांपिल्य जाने लगी हूँ। सुख-सुविधाओं से कोसों दूर, वहाँ के ग्रामीण वातावरण में रहते हुए उसे जानने का प्रयास करने लगी हूँ। नहीं जानती अकस्मात ही यह क्या हो गया। मेरे जोश को देख मेरी दादी तो मुझे थानेश्वरी बुलाने लगी है। आप जानती होंगी कि कुरुक्षेत्र को थानेश्वर कहते हैं।

अतः द्रौपदी से मेरे संबंधों का आरंभ एक विचित्र परिस्थिति में हुआ था। उनसे मैं कुछ इस प्रकार जुड़ गई कि मैंने अपना व्यवसाय बंद कर दिया तथा पूर्ण रूप से द्रौपदी की सेवा में जुट गई। अब मेरा ध्येय है, देश में द्रौपदी के सम्मान को पुनः स्थापित करना, कांपिल्य के इतिहास से सबको अवगत कराना एवं उसकी संस्कृति को पुनर्जीवित करना।

वेदों में लिखा है कि अपनी पुत्रियों को सुखी व आनंदित देखना चाहते हो तो विवाह से पूर्ण उन्हे शिक्षित करो। शिक्षा ना केवल जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए उनके व्यक्तित्व का विकास करती है, अपितु वह जिस परिवार में ब्याही जाएगी उस परिवार के जीवन मूल्यों में भी वृद्धि करती है। अतः प्राचीन काल में भी शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण थी। कन्याओं को शिक्षित कर उन्हे सक्षम बनाया जाता था। उन्हे स्वयंवर का अधिकार प्राप्त था। द्रौपदी इसी शिक्षित, सक्षम तथा आत्मनिर्भर स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है।

देश में द्रौपदी के सम्मान को पुनः स्थापित करना, कांपिल्य के इतिहास से सबको अवगत कराना एवं उसकी संस्कृति को पुनर्जीवित करना आज की आवश्यकता है क्योंकि हमारी संस्कृतिक धरोहरों, ऐतिहासिक तथ्यों एवं धर्म के विषय में अत्यंत भ्रामक, मिथ्यापूर्ण एवं दोषयुक्त जानकारियाँ फैलायी जा रही हैं। इस विषय में ठोस कदम उठाना आवश्यक है। द्रौपदी मेरी आदर्श हैं। उनसे मैं एक प्रगाढ़ संबंध का अनुभव करती हूँ। मुझे आभास होता है कि द्रौपदी के विषय में जो दृश्य है, उसके परे भी कुछ है जो मैं नहीं जानती। उनके विषय में अधिक जानने के लिए मुझे मेरा हृदय अत्यंत प्रेरित करता है।

अनुराधा गोयल – आपके भीतर द्रौपदी की ऊर्जा के अंश मैं स्पष्ट अनुभव कर सकती हूँ। आपके भीतर अनुवांशिक जुड़ाव तथा स्थल ऊर्जा स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। मेरा विश्वास है कि इस ऊर्जा ने आपको किसी उद्देश्य के लिए चुना है। आज के इस फलदायक संवादों के लिए मैं आपका धन्यवाद करती हूँ। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे अनेक विषय हैं जिनके संबंध में आपसे चर्चा आवश्यक है। मैं आशा करती हूँ कि उन विषयों पर भी मुझसे चर्चा कर आप मुझे एवं हमारे पाठकों को अवश्य अनुगृहीत करेंगी। द्रौपदी के विषय में आप जो नेक कार्य कर रही हैं उसके लिए आपको अनेक शुभकामनाएं। द्रौपदी की धरती पर उन्हे पुनर्जीवित करने के आपके ध्येय में हम सब आपके साथ हैं।

नीरा मिश्र – अनुराधाजी, प्राचीन भारत की महानता को बढ़ावा देने के आपके महान कार्य में योगदान देने का अवसर प्रदान करने के लिए आपका धन्यवाद। आपके ध्येय में मैं सहायता कर सकूं तो यह मेरा सौभाग्य एवं कृष्ण का आशीष होगा।

श्रव्य से मूलग्रंथ में प्रतिलेखन हर्शिल गुप्ता द्वारा किया गया है जो के IndiTales अंतर्गत  Internship Program में प्रशिक्षु हैं।

प्रतिलेखन का आवश्यकतानुसार संपादन किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुरुक्षेत्र – जहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया https://inditales.com/hindi/kurukshetra-things-to-do/ https://inditales.com/hindi/kurukshetra-things-to-do/#comments Wed, 25 Jul 2018 02:30:35 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=891

सबसे लोकप्रिय भारतीय धर्मग्रन्थ भागवत गीता तथा सबसे चर्चित महाभारत युद्ध की बात आते ही, कुरुक्षेत्र का नाम स्वयं ही चर्चा में आ जाता है। कुरुक्षेत्र, जहां कौरवों तथा पांडवों के बीच धर्मयुद्ध हुआ था। कदाचित ही कोई भारतीय होगा जो कुरुक्षेत्र के विषय में नहीं जानता हो। मुझे आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं […]

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सबसे लोकप्रिय भारतीय धर्मग्रन्थ भागवत गीता तथा सबसे चर्चित महाभारत युद्ध की बात आते ही, कुरुक्षेत्र का नाम स्वयं ही चर्चा में आ जाता है। कुरुक्षेत्र, जहां कौरवों तथा पांडवों के बीच धर्मयुद्ध हुआ था। कदाचित ही कोई भारतीय होगा जो कुरुक्षेत्र के विषय में नहीं जानता हो। मुझे आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं कि कौरवों तथा पांडवों के बीच हुए धर्मयुद्ध के आरम्भ में यहीं भगवान् कृष्ण ने पांडुपुत्र अर्जुन को भग्वदगीता का ज्ञान दिया था जो हिन्दुओ के लिए परमग्रन्थ है। इसलिए इसे धर्मक्षेत्र या धर्म की भूमि भी कहा जाता है। धर्मक्षेत्र यह शब्द भागवत गीता का पहला शब्द भी है।

मैंने कुरुक्षेत्र की पहली यात्रा अपने बालपन में की थी जिसकी स्मृति मेरे मन में कुछ विशेष नहीं है। इसलिए कुछ दिनों पहले मैंने एक बार फिर कुरुक्षेत्र के दर्शन किये। कुरुक्षेत्र पर मेरा यह संस्मरण इसी यात्रा का परिणाम है।

कुरुक्षेत्र कहाँ है?

कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का ज्ञान देते श्री कृष्ण
कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का ज्ञान देते श्री कृष्ण

कुरुक्षेत्र का शाब्दिक अर्थ है कुरु का क्षेत्र। कुरु भरत वंश के सम्राट थे। कालान्तर में कौरव तथा पांडव उनके वंशज हुए। क्षेत्र का अर्थ है भूभाग, ना कि नगर या कस्बा। वर्तमान में जिस कुरुक्षेत्र नगर को हम जानते हैं, वह सन १९४७ के पश्चात की संरचना है। कुरुक्षेत्र वास्तव में सन १९४७ के पश्चात स्थापित एक शरणार्थी शिविर था जो कालान्तर में एक नगर में परिवर्तित हो गया।

यह प्राचीन स्थल जो महाभारत युद्ध से सम्बंधित है, उसे थानेसर भी कहा जाता है। यह स्थानेश्वर शब्द का अपभ्रंशित रूप है जो एक प्राचीन शिव मंदिर का नाम है।

उपलब्ध सूत्रों के अनुसार कुरुक्षेत्र इन स्थलों से घिरा हुआ है-
दक्षिण – तुरघन (कदाचित शत्रुघन शब्द का अपभ्रंश रूप) या पंजाब में स्थित आज का सिरहिंद
उत्तर – खांडव या आधुनिक दिल्ली
पूर्व – मरू या मरुस्थल जो वर्तमान का राजस्थान है
पश्चिम – परीन ( इसका अर्थ मुझे ज्ञात नहीं हो पाया)

जैसा कि आप जानते ही होंगे, पौराणिक सरस्वती नदी कुरुक्षेत्र से भी होकर जाती थी। वास्तव में कुछ सूत्रों के अनुसार यह क्षेत्र सरस्वती नदी तथा दृशाद्वती नदी के बीच स्थित है।

चीनी यात्री हुआन त्सांग ने राजा हर्ष के राजकाल में थानेसर की यात्रा की थी। उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण में यहाँ उपस्थित विभिन्न मंदिरों तथा कई बौध मठों व स्तूपों की व्याख्या की थी। आईये पता लगाते हैं कि उनमें से कितने मंदिर तथा बौध मठ व स्तूप आज भी उपलब्ध हैं।

प्राचीन काल में कुरुक्षेत्र अन्य कई नामों द्वारा भी पहचाना जाता था, जैसे उत्तरवेदी, ब्रह्मवेदी तथा समस्त पंचाक।

मेरी कुरुक्षेत्र यात्रा के समय मैंने पाया कि कुरुक्षेत्र का ४८ कोस का क्षेत्र कई तीर्थों द्वारा चिन्हित है। इनके दर्शन के लिए एक ४८ कोस की यात्रा भी आयोजित की जाती है, यद्यपि इस यात्रा में भाग लिए हुए किसी यात्री की मुझे जानकारी नहीं है।

और पढ़ें:- काशी की पंचक्रोशी यात्रा

२१ वीं. सदी का कुरुक्षेत्र

मैं कई वर्षों के उपरांत कुरुक्षेत्र की यात्रा कर रही थी। अन्य नगरों की भान्ति कुरुक्षेत्र के प्रत्येक क्षेत्र ने भी दिन दूना रात चौगुना परिवर्तन झेला है। मेरी बालपन की स्मृति से विपरीत यह अत्यधिक भीड़भाड़ भरा तथा अव्यवस्थित स्थल में परिवर्तित हो चुका है। इस यात्रा के समय मेरी इच्छा थी कि मैं कुरुक्षेत्र के सब महत्वपूर्ण स्थलों के दर्शन करूं। उन स्थलों के दर्शनोपरांत अब मैं उन संस्मरणों को आपके संग बांटना चाहती हूँ।

मार्कंडेश्वर महादेव मंदिर – शाहबाद मरकंडा

पटियाला से हम गाड़ी द्वारा कुरुक्षेत्र के लिए निकले। कुरुक्षेत्र पहुँचने से पहले हम मरकंडा नदी के तट पर स्थित शाहबाद मरकंडा नामक नगरी पहुंचे। इस नगरी का नामकरण प्रख्यात महर्षी मार्कंडेय के नाम पर किया गया है।

मार्कंडेय मंदिर - शाहबाद मारकंडा
मार्कंडेय मंदिर – शाहबाद मारकंडा

आईए आपको मार्कंडेय से सम्बंधित एक कथा सुनाती हूँ। दंतकथाओं के अनुसार निःसंतान ऋषि मृकंदु ने संतानप्राप्ति के लिए भगवान् शिव की घोर तपस्या की थी। उनके समक्ष एक दीर्घायुषी किन्तु मंदबुद्धि पुत्र अथवा एक गुणी बुद्धिमान किन्तु अल्पायु पुत्र के चुनाव का विकल्प था। उन्होंने एक गुणी बुद्धिमान किन्तु अल्पायु पुत्र का चुनाव किया। १६ वें वर्ष में जब मार्कंडेय को सत्य का ज्ञान हुआ तो वह भगवान् शिव की तपस्या में लीन हो गए। अप्रतिम तेज प्राप्त किया और भगवान् शिव से अपनी आयु दीर्घ करने की प्रार्थना की। भगवान् शिव ने कहा, मैं तुम्हारी आयु तो नहीं बढ़ा सकता किन्तु तुम्हारा हर दिन एक युग के सामान होगा. इस तरह ऋषि मार्कंडेय चिरायु हुए।

आपने जब भी मार्कंडेय का चित्र देखा होगा, उसे शिवलिंग का आलिंगन करते हुए ही देखा होगा। इसी मुद्रा में तप करने के कारण मार्कंडेय को सदैव इसी रूप में दर्शाया जाता है।

बालक को मरकंडा नदी के तीर भगवान् शिव की तपस्या करने के कारण मार्कंडेय नाम दिया गया। इसी प्रसंग के कारण यहाँ एक शिव मंदिर स्थापित है जिसे मारकंडेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर के पास, सूखी मारकंडा नदी के ऊपर वर्तमान में एक रेल पटरी का पुल है।

मार्कंडेय महादेव मंदिर के साथ साथ मैंने यहाँ मार्कंडेय ऋषि को समर्पित एक मंदिर देखा। दोनों नए मंदिर कदाचित प्राचीन मंदिरों का जीर्णोधार कर बनाए गए हैं। सिरेमिक टाईलों के प्रयोग के कारण यह अस्पताल का सा आभास दे रहा था। चारों ओर सुन्दर बागीचों से घिरा यह मंदिर अच्छा लग रहा था। मंदिर के सामने स्थित दुकानों से मैंने अनुमान लगाया कि कई श्रद्धालू दर्शनार्थ इस मंदिर में आते होंगे।

कुरुक्षेत्र के दर्शनीय स्थल

कुरुक्षेत्र में कई दर्शनीय स्थल हैं किन्तु इनके दर्शनों के लिए अधिक समय की आवश्यकता नहीं है। एक दिन में आप कई स्थलों के दर्शन कर सकते हैं।

कुरुक्षेत्र के मंदिर

कुरुक्षेत्र एक ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थल होने के कारण स्वाभाविक ही है कि यह मंदिरों से परिपूर्ण होगा। कुरुक्षेत्र में इतने मंदिर है कि सबका उल्लेख यहाँ करना असंभव है। इसलिए कुछ प्रमुख मंदिरों के विषय में अवश्य लिखना चाहूंगी।

स्थानेश्वर महादेव मंदिर

प्राचीन स्थानेश्वर महादेव मंदिर - कुरुक्षेत्र
प्राचीन स्थानेश्वर महादेव मंदिर – कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र के इस प्राचीनतम मंदिर, स्थानेश्वर महादेव मंदिर, पर ही इस नगर को थानेसर कहा जाता है। थानेसर या स्थानेश्वर को यहाँ का ग्रामदेवता भी माना जाता है।

अभिलेखों की मानें तो इसे स्थानु भी कहा जाता था। उनके अनुसार ब्रम्हाजी ने स्वयं यहाँ शिवलिंग की स्थापना की थी। स्थानु तीर्थ के नाम से पहचाना जाने वाला यह मंदिर उत्तर दिशा में शुक्र तीर्थ, पूर्व में सोम तीर्थ, दक्षिण में दक्ष तीर्थ तथा पश्चिम में स्कन्द तीर्थ से घिरा हुआ है। मान्यता है कि किसी काल में स्थानेश्वर का मुख्य शिवलिंग कई सहस्त्र लिंगों द्वारा घिरा हुआ था।

कहा जाता है कि महाभारत युद्ध से पहले भगवान् कृष्ण तथा पांडवों ने इसी शिवलिंग की आराधना की थी। बाणभट्ट हर्षचरित बाणभट्ट द्वारा लिखित भारत सम्राट हर्ष का चरित्र दर्शन है। इसके अनुसार स्थानेश्वर के घर घर में शिव की पूजा आराधना की जाती है। पानीपत के तृतीय युद्ध के पश्चात मराठाओं ने मंदिर के जीर्णोद्धार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। सिख गुरु, गुरु तेग बहादुर ने भी इस स्थल की यात्रा की थी। इस यात्रा की स्मृति में पास ही एक गुरुद्वारा भी निर्मित है।

इस मंदिर में एक प्राचीन शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के सामने एक छोटा जलकुंड भी है। हमारे सौभाग्य से पुजारी द्वारा शिवलिंग के संध्या श्रृंगार के समय ही हमें दर्शन का अवसर प्राप्त हुआ था। यह और बात है कि ऐतिहासिक तथा धार्मिक दृष्टी से अत्यंत महत्वपूर्ण यह मंदिर मुझे छोटा तथा सादा प्रतीत हुआ।

भद्रकाली मंदिर या देवीकूप

श्री भद्रकाली मंदिर अथवा देविकूप - कुरुक्षेत्र
श्री भद्रकाली मंदिर अथवा देविकूप – कुरुक्षेत्र

भद्रकाली मंदिर भी एक प्राचीन मंदिर है जिसका संकरा ऊंचा शिखर हमें दूर से ही दिखाई दे रहा था। देवी के भद्रकाली अवतार को समर्पित यह मंदिर ५१ शक्तिपीठों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि इस स्थल पर देवी सती का दायाँ टखना गिरा था।

महाकाव्य महाभारत में उल्लेख है कि पांडवों ने महाभारत युद्ध से पहले इस मंदिर में देवी की आराधना की थी। मंदिर के अभिलेखों के अनुसार कृष्ण तथा बलराम का मुंडन संस्कार इसी मंदिर में किया गया था।

कुरुक्षेत्र में सब मंदिरों में मुझे यह अपेक्षाकृत बेहतर रखरखाव युक्त मंदिर प्रतीत हुआ। एक पीले रंग के चक्रव्यूह के चित्र से एक मंजिल ऊपर चढ़ कर हमने मंदिर में प्रवेश किया।

कुरुक्षेत्र के सरोवर

कुरुक्षेत्र कई प्राचीन सरोवरों का स्थल था। अधिकतर सरोवर तीर्थस्थल भी हैं। सूर्य ग्रहण तथा अमावस जैसे महत्वपूर्ण दिनों में इन सरोवरों में पवित्र स्नान किया जाता है। विशेष रूप से सोमवार को पड़ने वाला अमावस अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसे सोमवती अमावस्या भी कहा जाता है। आईये आपको कुरुक्षेत्र के कुछ महत्वपूर्ण सरोवरों का भ्रमण कराती हूँ।

ब्रह्म सरोवर

ब्रह्म सरोवर - कुरुक्षेत्र
ब्रह्म सरोवर – कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र का ब्रह्म सरोवर एक विशाल मानव-निर्मित जलाशय है। कहा जाता है कि कुरु राजा द्वारा निर्मित यह पहला मानव-निर्मित जलाशय है। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्म देव ने सर्वप्रथम इसी स्थान पर यज्ञ पूर्ण कर सृष्टि की रचना की था। इसी कारण जलाशय का नाम ब्रह्म जलाशय पड़ा। ब्रह्म जलाशय कुरुक्षेत्र का अभिन्न अंग है। इसलिए इसे कुरुक्षेत्र जलाशय भी कहा जाता है।

ब्रह्म सरोवर का हिन्दू धर्म में विशेष महत्त्व है। आतंरिक एवं बाह्य पावित्र्य प्राप्ति के लिए भक्तगण इसमें स्नान करते हैं। विशेषतः सूर्यग्रहण के समय यहाँ भक्तों का तांता लग जाता है। अनंत काल से सूर्य ग्रहण के उपलक्ष में पवित्र स्नान के लिए करोड़ों की संख्या में भक्त यहाँ आते रहे हैं।

ब्रह्म सरोवर का मानचित्र
ब्रह्म सरोवर का मानचित्र

जलाशय के चारों ओर अनेक घाट हैं। जिस दिन मैं यहाँ पहुँची, यहाँ अन्य कोई उपस्थित नहीं था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जलाशय कल ही निर्मित किया गया हो। जलाशय के किनारे चलते हुए हम सर्वेश्वर महादेव मंदिर पहुंचे। हमें ज्ञात हुआ कि मंदिर का स्वामित्व निर्वाणी अखाड़ा को प्राप्त है।

मंदिर पर प्रदर्शित सूचना पट्टिका तथा शिलालेख कुछ पुराने थे। वहीं गुलाबी बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित वर्तमान मंदिर संरचना अपेक्षाकृत नयी प्रतीत हुई। मंदिर के भीतर रंगीन सिरामिक पट्टियों से घिरा एक शिवलिंग था।

सर्वेश्वर मंदिर के शिलालेख
सर्वेश्वर मंदिर के शिलालेख

ब्रह्म सरोवर तथा सर्वेश्वर मंदिर दोनों की स्वच्छता देख हम अत्यंत प्रभावित हो गए। किन्तु सर्वस्व छाई वीरानता मुझे खल रही थी। यूँ तो मुझे प्राचीन ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थलों से अत्यंत प्रेम है क्योंकि ऐसे स्थलों में मुझे सदैव ऐसा प्रतीत होता है मानो अतीत का कुछ भाग अब भी वहां जीवंत हो। इसका सम्पूर्ण श्रेय वहां उपस्थित आत्मिक अनुभूति को जाता है। किन्तु यहाँ पर मैंने ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं किया। ब्रह्म सरोवर तथा मंदिर, दोनों स्थलों पर ऐसी कोई भी सिहरन अनुभव नहीं हुई जो आत्मा को झकझोर दे। सूचना पट्टिका पर अंकित अभिलेखों पर ही विश्वास कर हम आगे बढ़ गए।

महाभारत में भी ब्रह्म सरोवर का उल्लेख है जो इस प्रकार है। महाभारत युद्ध के अंतिम दिवस, पराजय के उपरांत, दुर्योधन यहीं आकर छुप गया था।

ज्योतिसर

ज्योतिसर - जहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया
ज्योतिसर – जहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया

मेरे अनुमान से कुरुक्षेत्र का सबसे विशिष्ट सरोवर ज्योतिसर ही है। यह वही स्थल है जहां महाभारत युद्ध से पहले कृष्ण ने अर्जुन को भगवत गीता का ज्ञान प्रदान किया था। ज्योतिसर सरोवर के समीप ही देवी सरस्वती को समर्पित एक मंदिर है।
ज्योतिसर सरोवर दर्शन का अनुभव किंचित विचित्र सा था। ज्योतिसर सरोवर पर नियमित आयोजित किये जाने वाले प्रकाश तथा ध्वनी प्रदर्शन का अनुभव लेते के लिए हम यहाँ सांझ बेला के समय पहुंचे थे, किन्तु यहाँ कोई भी उपस्थित नहीं था। कोई सूचना पट्टिका भी उपलब्ध नहीं थी जो हमें इस विषय में कोई जानकारी दे सके। अन्यथा कुरुक्षेत्र के अन्य अनेक पर्यटन स्थलों पर सूचना पट्टिकायें उपलब्ध थीं।

चारों ओर कहीं भी पर्यटक दृष्टिगोचर नहीं था, ना ही पर्यटकों के लिए कोई सुविधा उपलब्ध थी। पर्यटन अधिकारी या सूचना खिड़की भी नहीं थी। यह सब अत्यंत निराशाजनक व एक दृष्टी से असुरक्षित था। वहां उपस्थित इकलौता सुरक्षा कर्मचारी भी हमें कुछ जानकारी प्रदान करने से कतरा रहा था। उल्टे वह हमें यहाँ वहां भटका रहा था। चूंकि अन्धकार छाने लगा था, हमें उस वीरान स्थल में अधिक रुकना उचित नहीं लगा तथा हमने वहां से जल्द निकल जाना ही ठीक समझा।

भीष्म कुण्ड

भीष्म कुंड पे पास बाणों की शैय्या पर भीष्म
भीष्म कुंड पे पास बाणों की शैय्या पर भीष्म

यह लघु जलाशय अपने भीतर विशाल किवदंतियां समेटे हुए है। यह वही कथाएं हैं जिनके विषय में आपने अनेक बार देखा व पढ़ा होगा। महाभारत युद्ध के समय भीष्म अर्जुन के बाणों द्वारा घायल होकर पृथ्वी की ओर गिरे थे तथा वेधित बाणों की सेज पर लेट गए थे। प्यास से व्याकुल भीष्म की तृष्णा शांत करने के लिए अर्जुन ने यहीं पृथ्वी पर बाण छोड़कर जल स्त्रोत उत्पन्न किया था। महाभारत युद्ध के समापन के पश्चात युधिष्ठिर ने यहाँ वापिस आकर शर-शैया पर लेटे भीष्म पितामह से राज धर्म की शिक्षा प्राप्त की थी।

अभिलेखों के अनुसार भीष्म कुण्ड, वर्तमान में लुप्त सरस्वती नदी के बाएं तट पर स्थित है। अनर्क तीर्थ के नाम से भी पहचाने जाने वाला यह भीष्म कुण्ड पूर्व में ब्रह्मा, दक्षिण में शिव, उत्तर में विष्णु तथा पश्चिम में रूद्र की अर्धांगिनी द्वारा घिरा हुआ है।

कुण्ड के समीप एक छोटा सा मंदिर है जहां शर शैया पर लेटे भीष्म की प्रतिकृति चटक पीले रंग में प्रदर्शित है।

सन्निहित सरोवर

सन्निहित सरोवर - कुरुक्षेत्र
सन्निहित सरोवर – कुरुक्षेत्र

संस्कृत में सन्निहित का अर्थ है, वह स्थान जहां सब एकत्रित होकर मिलते हैं। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक अमावस तथा विशेषतः सूर्यग्रहण के दिन सम्पूर्ण भारत का पवित्र जल यहाँ इस सरोवर में एकत्र होता है। इसलिए इस सरोवर के जल को अत्यंत पवित्र मानते हुए इसमें स्नान के पश्चात भक्त मोक्ष प्राप्त करते हैं।

सन्नहित सरोवर को ७ नदियों का संगम स्थल भी माना जाता है। मुझे बताया गया कि ऋषि दधिची ने यहीं इंद्र को अपनी अस्थियाँ दान में दी थी। उन्ही अस्थियों के उपयोग से इंद्र ने वृतासुर के वध के लिए वज्र का निर्माण किया था।

सन्निहित सरोवर के समीप सन १९२१ के ब्रिटिश काल के अभिलेख प्राप्त हुए थे। उनसे कुरुक्षेत्र के समीप निर्मित पुस्तकालय के नींव सम्बंधित जानकारी प्राप्त हुई थी। इसमें २५०० रुपयों के दान का भी उल्लेख है। इस अभिलेख में सन १८५१ में भी दिए गए दान के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र के ब्राम्हणों ने पंजाब के गवर्नर जनरल से प्रार्थना की थी कि वे पवित्र सरोवर के मछलियों को ना मारें तथा सरोवर के चारों ओर स्थित वृक्षों को भी ना काटें। दुर्भाग्य से वर्तमान में सरोवर के समीप नाममात्र ही वृक्ष शेष हैं।

यहाँ सूर्य नारायण , ध्रुव नारायण तथा लक्ष्मी नारायण को समर्पित तीन उत्कृष्ट लघु मंदिर हैं। समीप ही देवी दुर्गा को समर्पित भी एक छोटा सा मंदिर है जिसके विषय में कहा जाता है कि यही महाभारत युद्ध में रचे चक्रव्यूह का स्थल था।

कुरुक्षेत्र के भित्तिचित्र

मेरी कुरुक्षेत्र यात्रा के सबसे रोचक भाग थे वे चित्ताकर्षक भित्ति चित्र जो श्री कृष्ण संग्रहालय के सामने स्थित गीता भवन नामक भवन की बाहरी भित्तियों पर चित्रित थे।

पहाड़ी गुलेर शैली में श्री कृष्ण
पहाड़ी गुलेर शैली में श्री कृष्ण

चित्रकारों ने इन भित्ति चित्रों में महाभारत के दृश्यों को अत्यंत मनमोहक प्रकार से उड़ेल दिए हैं जिनमें मुख्यतः कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता ज्ञान के दृश्यों का विशेष समावेश है। चित्रकारों ने इन भित्तिचित्रों की रचना के लिए भारत की सर्व प्रमुख पारंपरिक चित्रकारी शैलियों का सदुपयोग किया है। मुझे यहाँ मधुबनी, पहाडी, गुलेर तथा पट्टचित्रों के साथ साथ समकालीन शैलियों के चित्रों का भी आनंद उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गंजिफा पत्तों पर की जाने वाली चित्रकारियों की तरह भी एक भित्तिचित्र यहाँ है जिसमें आकृतियों को वृत्ताकार में रखा गया है।

कुरुक्षेत्र के संग्रहालय

कुरुक्षेत्र के संग्रहालय निश्चित रूप से इस नगर के नूतन संकलन है।

श्री कृष्ण संग्रहालय

उड़िया शैली में देवकी कृष्ण की पाषाण प्रतिमा
उड़िया शैली में देवकी कृष्ण की पाषाण प्रतिमा

कुरुक्षेत्र का यदि सर्वश्रेष्ठ संग्रहालय का चुनाव करूं तो वह निश्चय ही श्री कृष्ण संग्रहालय होगा। इस संग्रहालय में बड़े ही जतन से भिन्न भिन्न प्रकार की कलाकृतियाँ एकत्र की गयी थीं, चाहे वह मौलिक कलाकृति हो या किसी मौलिक कलाकृति की प्रतिकृति। मुझे इन सर्व कलाकृतियों में एक समानता दिखी। वे सर्व कलाकृतियाँ किसी न किसी रूप में भगवान् कृष्ण से सम्बन्ध रखती थीं। यहाँ प्रदर्शित प्रतिमाओं, चित्रों, कांस्य मूर्तियों जैसे कई कलाकृतियों द्वारा कृष्ण की गाथाएँ कही गयी थीं। इस बहुमंजिली इमारत में प्रदर्शित इन सर्व कलाकृतियों के दर्शन को यहाँ बजता कृष्ण भजनों का मधुर संगीत और अधिक आनंदित बना रहा था। संग्रहालय दर्शन के अंतिम चरण में एक विशाल बहुमाध्यम प्रदर्शन द्वारा महाभारत तथा महाभारत युद्ध के दृश्यों को सजीव किया जा रहा था।

संग्रहालय से जैसे ही बाहर निकले, हमारी दृष्टी बाग़ में स्थापित उड़िया पद्धति में बनी प्रतिमाओं पर पड़ी। बाग़ में खड़ी यह आदमकद प्रतिमाएं अत्यंत आकर्षक लग रही थीं। यद्यपि ये देवकी-कृष्ण थे या यशोदा-कृष्ण, यह पहचान नहीं पायी। कृष्ण के विराट रूप की भी एक अद्भुत प्रतिमा थी।

इस संग्रहालय को देखने के लिए कम से कम एक घंटे का समय आवश्यक है।

विज्ञान केंद्र तथा कुरुक्षेत्र चित्रावली

कुरुक्षेत्र का विज्ञान केंद्र श्री कृष्ण संग्रहालय के पास में ही है। यहाँ भी कुरुक्षेत्र में घटे प्रसंगों पर आधारित महाभारत चित्रावली प्रदर्शित की जाती है। समयाभाव के चलते मैं इस केंद्र के दर्शन नहीं कर सकी।

धरोहर संग्रहालय

धरोहर संग्रहालय कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय परिसर के भीतर ही स्थित है। हरियाणा की मूल संस्कृति को जानने तथा पहचानने के लिए यह सर्वोत्तन संग्रहालय है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग संग्रहालय

यह संग्रहालय शेख चिल्ली के मकबरे के भीतर स्थित है। हमें बताया गया कि यहाँ हर्ष के टीले से प्राप्त पुरातत्व खोजों का प्रदर्शन किया गया है।

कुरुक्षेत्र के अन्य दर्शनीय स्थल

ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक युग अपनी समाप्ति के पश्चात एक छाप अवश्य छोड़ जाता है। प्रस्तुत है कुरुक्षेत्र के कुछ ऐसे स्थल जो कुरुक्षेत्र के अनवरत धरोहर के प्रतीक हैं।

शेख चिल्ली का मकबरा

शेख चिल्ली का मकबरा
शेख चिल्ली का मकबरा

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि भागवत गीता तथा महाभारत युद्ध के नगर, कुरुक्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ संरक्षित स्मारक है यह मकबरा जो किसी शेख चिल्ली नामक व्यक्तित्व की है। इस शेख चिल्ली के सम्बन्ध में मुझे जानकारी नहीं है किन्तु इस स्मारक की सुन्दरता तथा त्रुटिहीन रखरखाव पर मैं मोहित हो गयी। इसके चारों ओर आकर्षक चार बाग़ बगीचा बनाया गया था। इसी इमारत के भीतर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का संग्रहालय स्थापित है जो मेरी भेंट के समय बंद था।

हर्ष का टीला

हर्ष का टीला - कुरुक्षेत्र
हर्ष का टीला – कुरुक्षेत्र

हर्ष का टीला कुरुक्षेत्र का प्राचीनतम जीवित खँडहर है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा स्थापित सूचना पट्टिका के अनुसार यह स्थान ७ वीं सदी के आरंभ में पुष्यभूति कुल के राजा हर्षवर्धन की राजधानी थी। जैसा कि आप जानते हैं, कवी बाणभट्ट के अपनी रचना हर्षचरित में राजा हर्षवर्धन तथा उनकी राजधानी का बखान किया है। उनकी रचना के अनुसार यहाँ एक दुर्ग तथा श्वेत दुमंजिला महल था जिसका वर्तमान में कोई अस्तित्व शेष नहीं है। केवल हर्ष का टीला अब भी विद्यमान है।

इस पुरातात्विक स्थल की खुदाई सर्वप्रथम कन्निन्घम ने की थी। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कई अधिकारियों के इस कार्य को गति प्रदान की। खुदाई के समय प्राप्त जानकारी के अनुसार यह स्थान १००० ई.पू. से निरंतर बसा हुआ रहा है। कुशन, गुप्त, राजपूत जैसे कई वंश कुरुक्षेत्र में राज करते थे। यहाँ से खुदाई में प्राप्त कई अनमोल वस्तुएं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संग्रहालय में देखी जा सकती हैं।

हर्ष के टीले का चित्र देखते ही आप भी मेरा समर्थन करेंगे कि इस टीले पर चढ़ना उतरना अत्यंत रोमांचक था। चारों ओर हरी भरी घास उगी हुई थी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मनोरम बगीचे में कई झरोखे हैं जिनके द्वारा मैं अतीत में झाँक रही थी।

कुरुक्षेत्र यात्रा के लिए कुछ सुझाव

• कुरुक्षेत्र के १५ पर्यटन स्थलों के दर्शन के लिए सरकारी बस सुविधाएं उपलब्ध हैं जो मात्र ५० रुपयों के शुल्क पर आपको कुरुक्षेत्र दर्शन कराती हैं। इस विषय में जानकारी देती सूचना पट्टिकाएं कुरुक्षेत्र के सब महत्वपूर्ण स्थलों पर हैं। चूंकि मैंने इस सुविधा का उपयोग नहीं किया था, मैं बसों की गुणवत्ता तथा उपलब्धता पर टिप्पणी नहीं करना चाहूंगी।
• कुरुक्षेत्र के सब दर्शनीय स्थल कुछ दूरी पर स्थित हैं। इसलिए आपको इन पर्यटन स्थलों के दर्शन के लिए परिवहन साधन की आवश्यकता होगी। साइकिल रिक्शा तथा ऑटो रिक्शा की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।

कुरुक्षेत्र के विश्रामगृह

• कुरुक्षेत्र में हरियाणा पर्यटन विभाग के दो विश्रामगृह हैं। इनमें एक नगर के बीच तथा दूसरा राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप है। मैंने दूसरे विश्रामगृह में अपना डेरा डाला था जो मेरे मत से ठीकठाक था।
• कुरुक्षेत्र में दो उच्च श्रेणी के भी विश्रामगृह हैं। यह तीन तारा स्तर के होटल हैं। कुरुक्षेत्र में रहना ना चाहें तो चंडीगढ़ में रहते हुए आप कुरुक्षेत्र की दिवसीय यात्रा कर सकते हैं। चंडीगढ़ में रहने के लिए बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं।

भारतीय इतिहास तथा हिन्दू धर्म में कुरुक्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए मेरी इच्छा है कि हरियाणा पर्यटन विभाग कुरुक्षेत्र को पर्यटकों के लिए अधिक सुविधाजनक बनाए। सुविधाओं को सस्ता बनाने की होड़ में गुणवत्ता को अनदेखा करना समझदारी नहीं होगी। वर्तमान का पर्यटन प्रेमी उच्च स्तर की सुविधाएं चाहता है।

कुरुक्षेत्र यात्रा के समय हमें अच्छे भोजनालय भी नहीं मिले। सड़क किनारे ढाबों में अवश्य भोजन ठीकठाक था, किन्तु भोजनकाल के समय भोजन के साथ साथ थकान मिटाने व कुछ क्षण विश्राम पाने की भी इच्छा होती है।

पर्यटन अनुभव को भी उत्तम बनाने की आवश्यकता है। परिदर्शकों की संख्या में वृधि की जानी चाहिए ताकि वे पर्यटकों को नगर दर्शन कराने के साथ साथ उन्हें कुरुक्षेत्र से सम्बंधित आवश्यक जानकारी तथा प्रचलित किवदंतियों द्वारा संतुष्ट कर सकें। वर्तमान में यह कार्य केवल सूचना पट्टिकाएं ही कर रही हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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खाटू श्याम पराजितों के आश्रयदाता देव https://inditales.com/hindi/barbarik-khatu-shyam-mandir-rajasthan/ https://inditales.com/hindi/barbarik-khatu-shyam-mandir-rajasthan/#comments Wed, 27 Jun 2018 02:30:21 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=857

खाटू श्याम – यह मेरी इस जयपुर यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण एवं रोचक खोज थी। खाटू श्याम मंदिर, यह नाम मैंने सुना अवश्य था पर इस पर कभी अधिक ध्यान नहीं दिया। अधिकतर लोगों की तरह मैंने भी इसे श्याम अर्थात् भगवान् कृष्ण को समर्पित मंदिर समझ लिया था। मैंने सोचा खाटू नामक किसी स्थानीय […]

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खाटू श्याम – यह मेरी इस जयपुर यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण एवं रोचक खोज थी। खाटू श्याम मंदिर, यह नाम मैंने सुना अवश्य था पर इस पर कभी अधिक ध्यान नहीं दिया। अधिकतर लोगों की तरह मैंने भी इसे श्याम अर्थात् भगवान् कृष्ण को समर्पित मंदिर समझ लिया था। मैंने सोचा खाटू नामक किसी स्थानीय चरित्र के नाम पर इस मंदिर का नामकरण खाटू श्याम मंदिर किया गया हो। किन्तु इस मंदिर की पृष्ठभागीय किवदंती सुनने के उपरांत मेरी आँखें खुली रह गयी। भगवान् कृष्ण इस किवदंती का एक भाग अवश्य हैं, किन्तु वे खाटू श्याम नहीं हैं।

यदि आप हिन्दू धर्म के विषय में थोडा भी जानते हैं तो आप अवश्य मुझसे सहमत होंगे कि प्रत्येक छोटे बड़े तथ्य को हम किसी ना किसी देवी देवता से जोड़ ही देते हैं। हिन्दू धर्म में प्रत्येक प्राकृतिक देन, संयोग एवं प्रयोजन से सम्बंधित देवी देवताओं के अनेक नामों की जानकारी मुझे भी थी, किन्तु, खाटू श्याम, यह शब्द मैंने पहले कभी नहीं सुना था। पराजितों के आश्रयदाता देव माने जाने वाले खाटू श्याम के विषय में जानकारी मुझे यहीं आकर प्राप्त हुई। प्राप्त जानकारी के अनुसार बर्बरीक नाम से भी पुकारे जाने वाले खाटू श्याम सदैव पराजितों की सहायता करते हैं। अतः उन्हें ‘हारे का सहारा’ भी कहा जाता है।

बर्बरीक अथवा खाटू श्याम कौन है?

खाटू श्याम दर्शन
खाटू श्याम दर्शन

बर्बरीक, महाभारत काल के द्वितीय पांडवपुत्र, अतिबलशाली भीम के पौत्र थे। वे हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच तथा नागकन्या मौरवी के पुत्र थे। आपको याद होगा की महाबली भीम ने अपने वनवास काल में भील राजकुमारी हिडिम्बा से विवाह किया था। घटोत्कच उन्ही का पुत्र था।

किवदंतियों के अनुसार बर्बरीक बाल्यकाल से ही वीर एवं महान योद्धा थे। उन्होंने भगवान् शिव की घोर तपस्या कर उनसे तीन अमोघ बाण वरदान स्वरुप प्राप्त किये थे। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया था जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था। ऐसा मानना है कि एक बाण निस्सहाय एवं निर्बलों की रक्षा करता है, दूसरा शत्रु पक्ष को घेरता है तो तीसरा उनका विनाश करता है।

बर्बरीक ने युद्ध कला अपनी माँ से प्राप्त की थी। चूंकि बर्बरीक का पालन पोषण उनकी माता ने किया था, वे सदैव उनके द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलते थे। बर्बरीक की माँ ने उन्हें सदैव पराजितों तथा बेसहारों की सहायता करने की प्रेरणा दी थी।

महाभारत में बर्बरीक का योगदान

हारे का सहारा, खाटू श्याम हमारा
हारे का सहारा, खाटू श्याम हमारा

कौरवों एवं पांडवों के मध्य घोषित महाभारत युद्ध का समाचार प्राप्त होते ही बर्बरीक की भी युद्ध में भाग लेने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। माँ से आशीर्वाद प्राप्त कर उन्हें पराजितों का साथ देने का वचन दिया तथा कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े। राह में ब्राम्हण वेष धर कर श्रीकृष्ण ने उनके बाणों के विषय में जानकारी प्राप्त करनी चाही। उत्तर में बर्बरीक ने कहा कि मात्र एक बाण सम्पूर्ण शत्रु सेना को परास्त कर उनके तक्षक में लौटने में समर्थ है। श्रीकृष्ण द्वारा ली गयी परीक्षा में खरा उतरने के पश्चात बर्बरीक ने माँ को दिया वचन भी दोहराया।

श्रीकृष्ण जानते थे कि यदि बर्बरीक ने तीनों बाणों का प्रयोग किया तो उनके अलावा सम्पूर्ण ब्रम्हांड का सर्वनाश हो जाएगा। उन्हें यह भी ज्ञात हो गया था कि पराजितों का साथ देने का अर्थ है वे प्रत्येक दिवस विपरीत सेना का चुनाव करेंगे जिससे युद्ध अनंत काल तक चलेगा। अतः बर्बरीक का इस युद्ध में सम्मिलित होना नियती के विपरीत सिद्ध होता। नियती के अनुसार युद्ध में कौरवों का विनाश तथा पांडवों की सजीव विजय निश्चित थी।

अतः ब्राम्हण रुपी श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से दान में उनके शीश की अभिलाषा की और कहा कि युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन हेतु तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति आवश्यक है। बर्बरीक ब्राम्हण को शीशदान देने पर विवश थे। श्रीकृष्ण के वास्तविक रूप को पहचान कर, अंतिम इच्छा स्वरुप उन्होंने अंत तक महाभारत युद्ध देखने की इच्छा व्यक्त की। बर्बरीक के बलिदान से प्रसन्न होकर कृष्ण ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया तथा उनके शीश को युद्धभूमि के समीप एक पहाडी की चोटी पर सुशोभित किया। यहीं से बर्बरीक के शीश ने सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध को देखा।

युद्ध के अंत में बर्बरीक के शीश से पूछा गया कि विजय का श्रेय किसे जाता है। उनका उत्तर था, श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण की युद्धनीति ही निर्णायक थी। अन्य सर्व योद्धा केवल उनकी आज्ञा का पालन कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के महान बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया कि वे कलियुग में उनके, अर्थात् श्याम नाम से जाने जायेंगे।

खाटू श्याम की खोज

बाबा खाटू श्याम जी
बाबा खाटू श्याम जी

कहा जाता है कि स्वयं भगवान् कृष्ण ने बर्बरीक के शीश को रूपवती नदी को अर्पित किया था। कालान्तर में उनका शीश राजस्थान के सीकर जिले में स्थित खाटू गाँव की धरती में दबा पाया गया। इसीलिए उनका नाम खाटू श्याम पड़ा।

कहा जाता है कि एक गाय एक नियत स्थल पर स्वयं अपने दुग्ध की धारा बहाने लगी। उस स्थान पर खुदाई के पश्चात बर्बरीक का शीश प्रकट हुआ जिसे एक ब्राम्हण को सौंपा गया। ब्राम्हण ने इस शीश की पूजा अर्चना की तथा इसके इतिहास को जानने के लिए ध्यान एवं चिंतन किया।

खाटू गाँव के तात्कालीन राजा रूपसिंह चौहान को स्वप्न में मंदिर निर्माण तथा बर्बरीक के शीश को मंदिर में सुशोभित करने की आज्ञा प्राप्त हुई थी। तत्पश्चात राजा रूपसिंह चौहान एवं उनकी पत्नी नर्मदा कंवर ने १०२७ ई. में मंदिर का निर्माण कराया तथा कार्तिक मॉस की एकादशी को मंदिर में शीश सुशोभित किया। यह दिवस खाटू श्याम के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है।

कुछ किवदंतियों के अनुसार रानी नर्मदा कंवर ने खाटू श्याम को स्वप्न में देखा था। तत्पश्चात निर्धारित स्थल पर काले पत्थर में उनकी प्रतिमा प्राप्त हुई थी। वर्तमान में मूल मंदिर के भीतर इसी प्रतिमा की पूजा की जाती है।

मंदिर में खाटू श्याम की प्रतिमा एक क्षत्रीय योद्धा के रूप में है। उनकी बड़ी बड़ी मूंछें हैं तथा मुख पर वीर रस के भाव हैं। उनके चक्षु खुले हुए तथा चौकस प्रतीत होते हैं। उनके कानों में मछली के आकार की बालियाँ हैं। खाटू श्याम खाटू गाँव के ग्रामदेवता ही नहीं अपितु सीकर एवं आसपास के कई राजपूत चौहान कुटुम्बों के कुलदेवता भी हैं।

खाटू श्यामजी के दर्शन

खाटू गाँव का प्रवेश द्वार
खाटू गाँव का प्रवेश द्वार

मेरी जयपुर यात्रा के समय एक दिन हम खाटू श्यामजी के दर्शनार्थ प्रातःकाल निकल पड़े। अगस्त का महीना था। सूर्यमुखी के लहलहाते खेत अपने यौवन की चरम सीमा पर थे। खाटू गाँव पहुंचते ही एक मुक्त तोरण-द्वार हमारे स्वागतार्थ खडा था। उस पर ‘श्री श्याम शरणम’ खुदा हुआ था। इस द्वार के भीतर प्रवेश करने के पश्चात हमने गाड़ी द्वारा कुछ और दूरी पार की। मैं एक विशाल मंदिर के प्रकट होने का तीव्र आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी। किन्तु जब हमने मंदिर परिसर के पृष्ठभागीय द्वार से भीतर प्रवेश किया, हमारे समक्ष एक छोटा सा मंदिर खड़ा था।

उपयुक्त समय पहुँचने के फलस्वरूप हमें खाटू श्यामजी की मूर्ति के दर्शन प्राप्त हुए।

मंदिर परिसर के बाहर एक और मंदिर था। सिंह पोल हनुमान के रूप में हनुमानजी का यह मंदिर था।

खाटू श्याम मंदिर - सीकर राजस्थान
खाटू श्याम मंदिर – सीकर राजस्थान

इस मंदिर की एक विशेषता मेरे ध्यान में आयी, वह थे लटकते श्रीफल अर्थात् नारियल। मौली अथवा पवित्र लाल धागे से बंधे नारियल चारों ओर लटके हुए थे। यह इच्छापूर्ति के नारियल थे। भगवान् द्वारा विशेष इच्छापूर्ति की आकांशा हो तो भक्तगण यहाँ ऐसे नारियल लटकाते हैं। इच्छापूर्ति के पश्चात भक्त यहाँ आकर नारियल खोलकर निकाल देते हैं।

मंदिर के बाहर लगे सूचना फलक के अनुसार इस मंदिर में कोई भी पुजारी अथवा मंदिर प्रमुख नहीं है। चौहान राजपूत घराने के वंशज ही इस मंदिर की देखरेख करते हैं।

श्याम कुण्ड

खाटू का श्याम कुंड
खाटू का श्याम कुंड

जिस स्थल से बर्बरीक का शीश प्राप्त हुआ था, उसे श्याम कुण्ड कहा जाता है। यह दो आकर्षक कुण्डों का युग्म है। ऊपर छायाचित्र में दर्शाया गया कुण्ड पुरुषों के लिए है एवं ऐसा ही एक कुण्ड स्त्रियों के लिए भी निर्मित है। इस परिसर में गायत्री देवी का मंदिर भी है। यहाँ भी चारों ओर लटकते नारियल देखे जा सकते हैं।

यहाँ कृष्ण भगवान् की एक प्रतिमा है जिसके चरणों में रखा बर्बरीक का शीश इस स्थल की गाथा बखान करता है।

इस सुन्दर परिसर का एक खटकता कांटा है इसकी अस्वच्छता। आशा करती हूँ कि परिसर की स्वच्छता की ओर भी भक्तों का ध्यान जाए तथा परिसर स्वच्छ रखा जाए। अन्यथा असीम भक्ति ही आपको परिसर के भीतर ले जा सकती है।

खाटू श्याम की जीती जागती संस्कृति

खाटू श्याम के तीन बाण
खाटू श्याम के तीन बाण

खाटू गाँव में आप कहीं भी जाएँ, आप अपने चारों ओर किसी ना किसी रूप में खाटू श्याम अर्थात् बर्बरीक का धनुष तथा त्रिबाण पायेंगे। भक्तगण इन्हें अपनी गाड़ियों में प्रमुख रूप से लटकाते हैं। उस पर लिखा होता है, ‘हारे का सहारा, खाटू श्याम हमारा’। इसका अर्थ है, हमारा श्याम पराजितों का सहारा है।

खाटू गाँव के छोटे से बाजार में भी कई प्रकार की स्मारिकाएं उपलब्ध हैं जो मुख्यतः खाटू श्याम के धनुष तथा बाण पर आधारित होते हैं।

खाटू श्यामजी – यात्रा सुझाव

श्रीफल है या हमारी इच्छाएं!
श्रीफल है या हमारी इच्छाएं!

यूँ तो खाटू गाँव में भी ठहराने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, तथापि आप जयपुर से प्रातः आकर दर्शनोपरांत वापिस जा सकते है।

आरती समयसूची हेतु मंदिर के वेबस्थल पर संपर्क करें।

मंदिर के भीतर छायाचित्रिकरण वर्जित है।

किसी भी साधारण दिवस में, जब मंदिर के भीतर श्रद्धालुओं की संख्या कम रहती है, मंदिर दर्शन हेतु १ से २ घंटों का समय पर्याप्त होता है। इसमें आप खाटू गाँव भी भ्रमण कर सकते हैं।

राजस्थान यात्रा में क्या क्या देखे, यह जानने हेतु इन संस्मरणों को पढ़े:

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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