रेल यात्रा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Tue, 30 Jul 2024 13:54:25 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 रेलगाड़ी पर फिल्माए लोकप्रिय बॉलीवुड गीतों की यात्रा – एक झलक https://inditales.com/hindi/rail-gadi-par-filmaaye-geet/ https://inditales.com/hindi/rail-gadi-par-filmaaye-geet/#respond Wed, 18 Dec 2024 02:30:10 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3735

बॉलीवुड के चित्रपट सामान्यतः अपने निर्मिती कालखंड व उस समय की परिस्थिति के प्रतिबिम्ब होते हैं। उनमें कुछ काल्पनिक तथा कुछ वास्तविक कथानकों द्वारा समय के साथ परिवर्तित होते समाज एवं व्यवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया जाता रहा है। यात्रायें समाज का अभिन्न अंग हैं। तो स्वाभाविक ही है कि हमारे बॉलीवुड चित्रपटों के पटकथाओं […]

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बॉलीवुड के चित्रपट सामान्यतः अपने निर्मिती कालखंड व उस समय की परिस्थिति के प्रतिबिम्ब होते हैं। उनमें कुछ काल्पनिक तथा कुछ वास्तविक कथानकों द्वारा समय के साथ परिवर्तित होते समाज एवं व्यवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया जाता रहा है। यात्रायें समाज का अभिन्न अंग हैं। तो स्वाभाविक ही है कि हमारे बॉलीवुड चित्रपटों के पटकथाओं में भी यात्राओं एवं उससे जुडी यंत्रणाओं का कभी उद्देश्यपूर्ण रीति से तो कभी सौन्दर्यवृद्धि की दृष्टी से उल्लेख किया जाता रहा है।

इसी कारण आप बॉलीवुड चित्रपटों में अनेक गीत देखेंगे जिनका परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यात्राओं से सम्बन्ध रहा है। यात्रा चाहे तांगे से हो या, रिक्शा से, साइकिल से हो या बस से, विमान से हो या रेलगाड़ी से। समय से साथ टाँगे, रिक्शा आदि का स्थान दुपहिये वाहनों ने ले लिया है। बस स्थानकों के दृश्यों के स्थान पर अब विमानतल के दृश्य अधिक दिखाई देते हैं। किन्तु एक दृश्य ऐसा है जो अब तक वैसा कि वैसा ही है, तटस्थ। वह है रेलगाड़ी या ट्रेन का दृश्य।

रेलयात्रा में जो लुभावनापन है, आकर्षण है, प्रेमी-प्रेमिकाओं का प्रेम व्यक्त करना है, यहाँ तक कि अपरोक्ष रूप से कोई सन्देश देना है, उसे यात्रा का अन्य कोई भी माध्यम मात नहीं दे सकता। स्वाभाविक है कि अनेक दशकों से बॉलीवुड के कुछ अत्यंत लोकप्रिय, भावुक तथा कल्पनाशील गीत ट्रेन पर ही चित्रित हैं। भारतीय रेल पर। आप यदि ध्यान से सोचें तो बॉलीवुड के अनेक भावनाशील तथा दार्शनिक गीतों की पार्श्वभूमी में भी आप ट्रेन का सम्बन्ध अवश्य देखेंगे, विशेषतः आरंभिक दशकों के गीतों में।

रेल पर चित्रित बॉलीवुड के २० सर्वोत्तम गीत

दशकों से बॉलीवुड के चित्रपटों में जो गीत रेलगाड़ी पर फिल्माए जा रहे हैं, उनसे हमें भारतीय रेल की अब तक की यात्रा के विषय में भी जानकारी मिलती है। अंग्रेजों के लिए बने अतिविलासी डब्बों से दूसरे दर्जे के आम डब्बों तक, धरोहर रेलों से स्थानिक रेलों तक, यहाँ तक कि मालवाहक रेलों की भी यात्रा समझ में आती है। तो आईये मेरे साथ भारतीय रेलों पर फिल्माए बॉलीवुड संगीत की संगीतमय यात्रा पर जो आपको कल्पना के जग में ले जायेगी।

तूफान मेल – जवाब (१९४२)

१९४२, वह वर्ष जब भारत में “भारत छोडो” आन्दोलन चल रहा था। यह वही वर्ष था जब कमल दासगुप्ता के संगीत पर पंडित मधुर द्वारा लिखे इस अमर गीत को कानन देवी सिंह ने गया था।

तूफान मेल – उस काल में रेलों के नाम भी अनोखे होते थे। आजकल रेलों के कितने नीरस नाम होते हैं। कल्पना कीजिये कि आप तूफान मेल नाम के ट्रेन में यात्रा करने वाले हैं।

आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ – जागृति (१९५४)

इस अमर गीत में ट्रेन की यात्रा दिखाई गयी है जो वास्तव में आपको भारत के विभिन्न क्षेत्रों एवं विविधताओं की सैर कराती है। भारत में हम गर्व से कहते हैं कि भारतीय रेल भारत के कोने कोने में जाती है। देश के एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ती है। यह गीत ठीक उसी भावना का प्रदर्शन करता है। इस गीत से मुझे अपने शालेय दिवसों का स्मरण हो आता है। किसी ना किसी रूप में इस गीत ने मुझे यात्राएं करने के लिए प्रेरित किया है। आज मैं जितनी यात्राएं करती हूँ, यहाँ तक कि उसे मैंने अपना व्यवसाय ही बना लिया है, मेरे अनुमान से उसमें इस गीत की बड़ी भूमिका है। कवि प्रदीप द्वारा गाये गए इस गीत को हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध किया है।

देख तेरे संसार की हालत – नास्तिक (१९५४)

भारत विभाजन के समय भी रेलों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। एक ओर से दूसरी ओर लोगों को ले जाना। रेलें लोगों से खचाखच भरी होती थीं। खिडकियों, दरवाजों से लटकते लोग। छत पर बैठे लोगों की भीड़। ऐसा प्रतीत होता है कि इस गीत ने इस दृश्य व भावना को आत्मसात करने का प्रयास किया है। प्रदीप द्वारा गाया गया यह गीत आपको आपके आज की सुख-सुविधाओं भरे जीवन के विषय में अवश्य कृतज्ञ कर देगा।

बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत – रेलवे प्लेटफोर्म (१९५५)

इस दृश्य में पटरी को पीछे छोड़कर रेलगाड़ी आगे बढ़ रही है, सा

थ ही चित्रपट के कलाकारों एवं सहायकों के नाम पटल पर आते जा रहे हैं। यह एक यात्री की गाथा प्रतीत होती है।

इस गीत को साहिर लुधियानवी ने लिखा, मदन मोहन ने संगीतबद्ध किया तथा मोहम्मद रफ़ी ने अपने मधुर आवाज में गाया है।

है अपना दिल तो आवारा – सोलवां सावन (१९५८)

यह मेरा सदा-प्रिय, एक अल्हड़ गीत है जिसे देव आनंद एवं वहीदा रहमान की सुन्दर जोड़ी पर फिल्माया गया है। यह गीत रेलगाड़ी के भीतर फिल्माया गया है, इसे समझने में मुझे कुछ समय लगा था। क्योंकि मैंने तब तक ऐसी रेलगाड़ी नहीं देखी थी। मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों को एस. डी. बर्मन ने संगीतबद्ध किया है। इस मस्ती भरे गीत को हेमंत कुमार ने अपनी गायकी से अमर कर दिया है।

 मेरे अनुमान से यह गीत कोलकाता के स्थानीय इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट (EMU) में फिल्माया गया है।

औरतों के डब्बे में – मुड़ मुड़ के ना देख (१९६०)

यह एक मस्ती भरा गीत है जिसमें स्त्री-पुरुष के मध्य सदाबहार नोकझोंक को प्रदर्शित किया है। इस दृश्य में एक पुरुष महिलाओं के डिब्बे में प्रवेश कर जाता है।

इस दृश्य में भारत भूषण, जो बहुधा गंभीर भूमिका निभाते थे, चंचलता भरी भूमिका कर रहे हैं। इस गीत को मोहम्मद रफ़ी एवं सुमन कल्याणपुर ने गाया है, हंसराज बहल ने संगीतबद्ध किया है तथा इसके बोल प्रेम धवन ने लिखे हैं।

मैं हूँ झुम झुम झुमरू – झुमरू (१९६१)

दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे पर फिल्माया यह अमर गीत झुमरू चित्रपट का शीर्षक गीत भी है। इस गीत को गायक व नायक किशोर कुमार ने अत्यंत अल्हड़ शैली में गाया है। इस चित्रपट में मुख्य भूमिका में स्वयं किशोर कुमार तथा मधुबाला हैं। रेलगाड़ी से सम्बंधित मस्तीभरे गीत चुने जाएँ तो सूची में ये गीत सर्वोच्च स्थान पर हो सकता है। इस गीत को संगीतबद्ध भी किशोर कुमार ने ही किया है। इसके शब्द मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे हैं।

मुझे अपना यार बना लो – बॉय फ्रेंड (१९६१)

इस गीत में नायक शम्मी कपूर हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रंखला से जाती हुई शिमला-कालका रेलगाड़ी की छत पर कूदते-फांदते दिख रहे हैं। यह उनकी सर्वधिक लोकप्रिय शैली है। श्वेत-श्याम चित्रपट होते हुए भी हिमाच्छादित पर्वत शिखर अत्यंत सुन्दर दिख रहे हैं।

गायक – मोहम्मद रफ़ी, संगीत – शंकर जयकिशन, गीत – हसरत जयपुरी

मैं चली मैं चली – प्रोफेसर (१९६२)

यह गीत भी दार्जीलिंग हिमालयन रेल पर फिल्माया गया है जिसमें शम्मी कपूर व कल्पना आपस में प्रेम व्यक्त कर रहे हैं।

गायक – मोहम्मद रफ़ी व लता मंगेशकर, संगीत – शंकर जयकिशन, गीत – हसरत जयपुरी

रुख से जरा नकाब हटा दो – मेरे हजूर (१९६८)

रेलगाड़ी में बैठी नायिका पर फिल्माया गया एक सुन्दर गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी ने अपना मधुर स्वर प्रदान किया है। इस मधुर गीत को संगीतबद्ध किया शंकर जयकिशन ने।

मेरे सपनों की रानी – आराधना (१९६९)

इस गीत में दार्जीलिंग हिमालयन रेल का सुन्दर दृश्य दिखाया गया है। यह ऐसा गीत है जिसे छोटे बड़े सभी ने मस्ती में गया होगा।

इस गीत के इतने लोकप्रिय होने के पीछे किशोर कुमार की मदमस्त आवाज, आनंद बक्शी के बोल, सुप्रसिद्ध संगीतकार आर. डी. बर्मन का मस्ती भरा संगीत व लोकप्रिय नायक राजेश खन्ना, इस सब का मधुर संगम है।

हम दोनों दो प्रेमी – अजनबी (१९७४)

चित्रपट के नायक व नायिका, राजेश खन्ना व जीनत अमान एक मालगाड़ी के डिब्बे पर सवार दिखाए गए हैं। पहले दृश्य में ही रेल क्रमांक १९२२८ भी दिखाई देता है। उस काल में रेलगाड़ी में भाप का इंजिन लगता था। एक मालगाड़ी का इतना सुन्दर रूप किसी ने कभी नहीं देखा होगा। किशोर कुमार व लता मंगेशकर ने आर. डी. बर्मन के संगीत पर आनंद बक्शी के इस गीत को पूर्ण न्याय किया है।

गाड़ी बुला रही है – दोस्त (१९७४)

इस गीत में ट्रेन या रेलगाड़ी को एक रूपक के रूप में प्रयोग किया गया है। इस गीत में केवल दो ही तत्व दर्शाए गए हैं, नायक धर्मेन्द्र एवं रेलगाड़ी। गाड़ी के माध्यम से जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी गयी है। इस गीत में कालका-शिमला पर्वतीय रेल दिखाया गया है। इस स्फूर्तिदायक गीत को किशोर कुमार ने गया है, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने संगीत दिया है तथा गीतकार हैं आनंद बक्शी।

होगा तुमसे प्यारा कौन – जमाने को दिखाना है (१९७७)

एक बार फिर दार्जीलिंग हिमालयन रेल। केवल नायक व नायिका भिन्न हैं। यहाँ ऋषि कपूर पद्मिनी कोल्हापुरे के समक्ष अपना प्रेम व्यक्त कर रहे हैं। रेलगाड़ी का ऊपर से अप्रतिम दृश्य लिया गया है। संगीत की तान से मेल खाती रेलगाड़ी की आवाज एवं भाप इंजिन से निकलते धुंए का सुन्दर ढंग से प्रयोग किया गया है। आर. डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को शैलेन्द्र सिंग ने अपने स्वर प्रदान किये हैं जो ऋषि कपूर पर अच्छे लगते हैं।

पर दो पल का साथ हमारा – द बर्निंग ट्रेन (१९८०)

पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल का याराना है। ये शब्द रेल यात्रा को सुन्दर शैली में व्यक्त करते हैं। रेलयात्रा का यही सत्य है। रेलगाड़ी के भीतर फिल्माए गए इस गीत को मोहम्मद रफी एवं आशा भोंसले ने गाया है। आर.डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत के बोल साहिर लुधियानवी ने लिखे हैं।

हाथों की चंद लकीरों का – विधाता (१९८२)

यह एक दार्शनिक गीत है जिसमें दो वयस्क नायकों, दिलीप कुमार व शम्मी कपूर को दिखाया गया है। इस गीत के माध्यम से वे नियति एवं कर्म पर आपस में तर्क कर रहे हैं। इस गीत में दोनों रेल के डब्बे के भीतर नहीं, इंजिन के भीतर हैं तथा रेलगाड़ी चला रहे हैं। सुरेश वाडकर एवं अनवर हुसैन द्वारा गाये गए इस गीत को कल्याणजी आनंदजी ने संगीतबद्ध किया तथा इसके बोल लिखे हैं, आनंद बक्शी ने।

सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं – कुली (१९८३)

इस चित्रपट के नाम से ही यह समझ में आ जाता है कि यह एक कुली की कथा है। यह गीत बंगलुरु सिटी स्टेशन पर फिल्माया गया है जो इस गीत का वास्तविक नायक है।

गायक – शब्बीर कुमार, संगीतकार – लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, गीतकार – आनंद बक्शी

साजन मेरे उस पार – गंगा जमुना सरस्वती  (१९८८)

इस गीत में भारतीय रेल की विभिन्न श्रेणियां दिखाई गयी हैं जिनके माध्यम से उनके मध्य सामाजिक व आर्थिक विभाजन दर्शाया गया है।

गायिका – लता मंगेशकर, संगीतकार – अनु मालिक, गीतकार – इन्दीवर

कब से करे है तेरा इंतजार – कभी हाँ कभी ना (१९९४)

यह मधुर गीत कोंकण रेलवे का उत्सव मनाता है। भारत के सर्वाधिक हरियाली भरे क्षेत्रों से जाते हुए कोंकण क्षेत्र का अप्रतिम परिदृश्य दिखाया गया है। इसमें वास्को द गामा रेल स्टेशन भी दिखाया गया है।

अमित कुमार की मस्ती भरी गायकी को शाहरुख खान ने उतनी ही रोमांचक प्रस्तुति से अलंकृत किया है। जतिन-ललित के उत्कृष्ट संगीत व मजरूह सुल्तानपुरी के बोल, दोनों ने इस गीत को अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है।

और पढ़ें: मानसून में कोंकण रेलवे की यात्रा

छैंया छैंया – दिल से ( १९९८)

शाहरुख खान एवं मलाइका अरोरा ने नीलगिरी धरोहर रेलगाड़ी की छत पर फिल्माए इस रोमांचक गीत से चित्रपट प्रेमियों में धूम मचा दी थी। मेरे लिए इस गीत की विशेषता है, सुखविंदर सिंग एवं सपना अवस्थी के सशक्त स्वर जिसे लोक शैली में संगीतबद्ध किया ए. आर. रहमान ने। गीत लिखा गुलजार ने। ट्रेन पर फिल्माये बॉलीवुड गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय गीत।

कस्तो मज्जा है रेलैमा – परिणीता (२००५)

नायिका विद्या बालन का स्मरण करते नायक सैफ अली खान एक बार फिर दार्जीलिंग हिमालयन रेल में सवार हो गए हैं। यह गीत आपको अतीत काल में ले जाता है तथा रेलों का स्वर्णिम युग आपके समक्ष प्रस्तुत करता है। यह एक सुन्दर गीत है जिसे उतनी ही सुन्दर शैली में चित्रित किया है। इस मधुर गीत को मधुर स्वर प्रदान किये हैं गायक सोनू निगम ने। शांतनु मोइत्रा ने स्वानंद किरकिरे द्वारा लिखित इस गीत को सुन्दर संगीत प्रदान किया है।

मनु भैय्या क्या करेंगे – तनु वेड्स मनु (२०११)

दूसरे दर्जे के रेल डिब्बे में यात्रा कर रहा एक भरा पूरा परिवार इस लोकगीत के द्वारा अचानक उर्जा से भर जाता है तथा आनंद मनाने लगता है। रेलगाड़ी जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, परिवार के सदस्य नाचते गाते हैं तथा डिब्बे में ही विवाह उत्सव की विभिन्न विधियां एवं संस्कार करते हैं। मोहित चौहान के संगीत पर सुनिधी चौहान, उज्जैनी मुखर्जी एवं निलाद्री देबनाथ ने इस लोकगीत की सुन्दर प्रस्तुति की है।

फूलिश्क – की एंड का (२०१६)

यह गीत रेवाड़ी धरोहर रेल पर फिल्माया गया है। यह धरोहर रेलगाड़ी दिल्ली व रेवाड़ी के मध्य चलती है। इन दिनों यह चित्रपटों में अधिक दिखाई देती है। इस गीत का कोई औचित्य नहीं है। मेरे लिए यह गीत रेल संग्रहालय का भ्रमण है।

इनमें से आपके प्रिय गीत कौन से हैं? यदि मुझसे रेल पर फिल्माया कोई बॉलीवुड गीत छूट गया हो, जो आपको प्रिय हो, टिप्पणी खंड द्वारा मुझे अवश्य सूचित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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माथेरान – महाराष्ट्र का एक विलक्षण पर्यटन स्थल https://inditales.com/hindi/matheran-mumbai-ke-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/matheran-mumbai-ke-paryatan-sthal/#respond Wed, 16 Nov 2022 02:30:50 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2867

माथेरान, महाराष्ट्र का एक लोकप्रिय सप्ताहांत गंतव्य। समुद्र तल से लगभग ८०० मीटर ऊँचाई पर पश्चिमी घाटों की गोद में बसा माथेरान मुंबई से ९० किलोमीटर तथा पुणे से १२० किलोमीटर दूर है। मुंबई एवं पुणे जैसे भीड़भाड़ भरे नगरों के दौड़ते जीवन से कुछ काल पलायन करने के लिए माथेरान एक उत्तम गंतव्य है। […]

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माथेरान, महाराष्ट्र का एक लोकप्रिय सप्ताहांत गंतव्य। समुद्र तल से लगभग ८०० मीटर ऊँचाई पर पश्चिमी घाटों की गोद में बसा माथेरान मुंबई से ९० किलोमीटर तथा पुणे से १२० किलोमीटर दूर है। मुंबई एवं पुणे जैसे भीड़भाड़ भरे नगरों के दौड़ते जीवन से कुछ काल पलायन करने के लिए माथेरान एक उत्तम गंतव्य है।

माथेरान एक छोटा सा किन्तु विलक्षण पर्वतीय कस्बा है जो प्रदूषण रहित स्वच्छ वातावरण में, नीले अम्बर के तले, हरियाली भरे परिदृश्यों के मध्य, कुछ सुन्दर क्षण शांति से व्यतीत करने के लिए उपयुक्त स्थान है। ऐसा माना जाता है कि यह सम्पूर्ण एशिया का इकलौता वाहन-मुक्त पर्वतीय पर्यटन स्थल है। माथेरान आपको उस काल का स्मरण करा देता है जब मिट्टी के पथों पर चलते घोड़े गाड़ियों के साथ हम एक सादगी भरा शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।

माथेरान का इतिहास

माथेरान का मराठी भाषा में अर्थ होता है, माथे पर स्थित वन। प्राप्त सूत्रों के अनुसार माथेरान का सर्वप्रथम उल्लेख १५वीं सदी में किया गया था। बहमनी सल्तनत ने उत्तर कोंकण प्रान्तों पर दृष्टि रखने के लिए मुरंजन दुर्ग का निर्माण कराया था। यह दुर्ग अब प्रबलगढ़ दुर्ग के नाम से जाना जाता है। बहमनी सल्तनत के पतन के पश्चात यह दुर्ग मुगलों के हाथों में चला गया। सन् १६५७ में छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर तथा इसके आसपास के क्षेत्रों पर अपना अधिपत्य जमाया। उस समय इस पर्वतीय स्थान पर धनगर (चरवाहा) जनजाति का निवास था।

छत्रपति शिवाजी महाराज मार्ग - माथेरान
छत्रपति शिवाजी महाराज मार्ग – माथेरान

कालांतर में, सन् १८५० में अंग्रेज ह्यू मालेट (Hugh Malet) ने इस स्थान की पुनः खोज की थी। Hugh Malet उस समय रायगढ़ के जिलाध्यक्ष थे। मुंबई के गवर्नर लॉर्ड एल्फिन्स्टन (Lord Elphinstone) ने पुनः इसकी नींव रखी थी। सन् १९०७ में श्री आदमजी पीरभाई ने माथेरान से नेरुल के मध्य मीटर गेज रेल मार्ग का निर्माण किया था।

माथेरान भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल

माथेरान भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल शिशिर ऋतु के नवम्बर मास से ग्रीष्म ऋतु के मई मास तक होता है। मिटटी के कच्चे मार्गों के कारण वर्षा ऋतु में माथेरान में भ्रमण कठिन होता है। साथ ही वर्षा में पैदा हुए जोंक की उपस्थिति निश्चित कष्टकर  होती है। यदि आप वर्षा ऋतु में माथेरान जाना ही चाहते हैं तो जोंक से निपटने की तैयारी रखें।

माथेरान की खिलौना रेल
माथेरान की खिलौना रेल

अधिकतर पर्यटक पर्वतीय पर्यटन स्थलों का भ्रमण सप्ताहांत में ही करते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में ऐसे स्थलों पर सप्ताहांत के अतिरिक्त ही जाना चाहिए। आप जिस पर्यटन स्थल में शांति की खोज में आये हैं, सप्ताहांत की भीड़ में वही स्थान आपको शांति के अतिरिक्त सब कुछ प्रदान करेगा। माथेरान की ओर जाते मार्ग पर, घाटों पर तथा दस्तूरी नाका, जहाँ वाहन खड़े किये जाते हैं, वाहनों का जमावड़ा आपकी असुविधा कई गुना बढ़ा देता है। अनेक अवसरों पर घाटों में वाहनों का जाम इतना अधिक होता है कि मार्ग खुलने में कई घंटे लग जाते हैं।

माथेरान कैसे पहुंचें?

मैंने मुंबई से टैक्सी ली थी। मेरा सुझाव है कि आप प्रातः शीघ्र ही, लगभग ६ बजे से पहले ही मुंबई से निकलें क्योंकि मुंबई के मार्ग प्रातः शीघ्र ही वाहनों से भर जाते हैं। मुंबई नगरी से बाहर होते ही कर्जत से नेरुल की ओर जाने वाले मार्ग पर जाएँ। नेरुल के पश्चात घाटों के मार्ग अत्यंत ढलुआ, लगभग ७० अंश, हो जाते हैं तथा अत्यंत सर्पिल भी हो जाते हैं। अतः आप अपनी टैक्सी वहीं छोड़कर वहाँ की ओम्नी गाड़ी किराये पर ले लें।

माथेरान का मानचित्र
माथेरान का मानचित्र

यदि आप स्वयं की गाड़ी से यहाँ आये हैं तब भी या तो आप अपनी गाड़ी वहाँ छोड़कर वहाँ की ओम्नी गाड़ी किराये पर ले लें अथवा अपनी गाड़ी के लिए किसी स्थानिक वाहन चालक की सेवा लें। दस्तूरी नाके तक चढ़ने के लिए पर्वतीय मार्गों में वाहन चलाने में अभ्यस्त चालकों पर ही निर्भर रहने में भलाई है।

छोटी लाइन की रेल/टॉय ट्रेन

एक विकल्प है कि आप वाहन द्वारा मुंबई से नेरुल पहुंचें तथा नेरुल से माथेरान टॉय ट्रेन या छोटी लाइन की रेल गाड़ी से जाएँ। अधिक भीड़ ना हो तो यह एक अत्यंत आनंददायक व मनोरंजक यात्रा होती है। किन्तु आप उसकी समयसारिणी पूर्व में ज्ञात कर लें तथा उसके अनुसार ही स्थानक पर पहुंचें। यह टॉय ट्रेन नेरुल से माथेरान के मध्य दोनों ओर चलती है। यह यात्रा लगभग ३० मिनटों की होती है। इसकी टिकिटें आप ऑनलाइन नहीं ले सकते। इसकी टिकिटें आप ट्रेन छूटने से पूर्व वहीं कतार में लग कर ही क्रय कर सकते हैं।

दूसरा विकल्प है कि आप नेरुल ना रुकते हुए वाहन द्वारा सीधे अमन लॉज तक जाएँ तथा वहाँ से टॉय ट्रेन या छोटी लाइन की रेल गाड़ी से माथेरान जाएँ। दस्तूरी नाके पर पहुंचकर आप पार्किग स्थल पर अपना वाहन खड़ा कर दें। यह पार्किंग स्थल बंदरों के उत्पात के लिए कुख्यात है। आप अपने सामान का ध्यान रखें अन्यथा वे उन्हें खींच कर ले जा सकते हैं। अपना जलपान व्यवस्थित रूप से बैग में छुपा कर रखें। वे मेरा बैग भी खींचना चाहते थे। किसी प्रकार से मैंने उन्हें भगाकर अपना बैग बचाया था। मुझे सावधान रहना चाहिए था।

दस्तूरी नाके से लगभग ४०० मीटर चलकर आप अमन लॉज पहुंचते हैं। वहाँ महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम का विश्राम गृह है। वहाँ के जलपान गृह में आप चाय पी सकते हैं। माथेरान से नेरुल के मध्य चलती टॉय ट्रेन के लिए एक स्थानक अमन लॉज भी है। माथेरान पहुँचने के लिए आप यहाँ से घोड़ा ले सकते हैं, हाथगाड़ी ले सकते हैं अथवा टॉय ट्रेन में चढ़ सकते हैं। अमन लॉज से माथेरान तक की यात्रा के लिए टॉय ट्रेन में लगभग १५ मिनट लगते हैं। जिस दिन मैं वहाँ पहुँची थी, टॉय ट्रेन के लिए टिकिट समाप्त हो गए थे। अतः मैंने घोड़ा किराये पर लेने का निश्चय किया। घोड़े एवं हाथगाड़ी के लिए भिन्न भिन्न शुल्क हैं। आपके विश्राम गृह में भी यह शुल्कसूची उपलब्ध होगी।

ट्रेक/पदयात्रा

यदि आप माथेरान तक पदयात्रा करना चाहते हैं तथा आपके पास सामान अधिक है तो आप एक कुली ले लें। आपकी गति के अनुसार यह पदयात्रा ४५ मिनट से एक घंटे का समय ले सकती है। मार्ग अधिक ढलुआ नहीं है। चढ़ाई अत्यंत सौम्य है। केवल एक समस्या है कि यह पूर्ण रूप से पक्की सड़क नहीं है। कहीं पक्की सड़क है तो कहीं पर लाल लेटराइट शिलाएं बिठाई हुई हैं। अतः पदयात्रा करने की योजना हो तो पदयात्रा के लिए उपयुक्त जूते पहनें। इन सब बाधाओं से सफलता पूर्वक निपट लें तो यह पदयात्रा अत्यंत आनंददायक एवं सन्तुष्टिप्रदायक होती है। घने वन की छाया व शीतल वायु की औषधी, घंटे भर की पदयात्रा में होनी वाली थकान को हमारे मन मस्तिष्क पर अभिभूत नहीं होने देते। केवल पत्थरों एवं घोड़ों की लीद से बचकर चलें।

माथेरान में कहाँ ठहरें?

माथेरान में ठहरने के लिए अनेक उत्तम विकल्प हैं। आपकी व्ययसीमा एवं भ्रमण योजना के अनुसार आप उनमें से योग्य विश्रामगृह का चयन कर सकते हैं। माथेरान पर्यटन स्थल की यह विशेषता है कि यहाँ के लगभग सभी रिसोर्ट व होटल लगभग सभी पर्यटकों की व्ययसीमा के भीतर हैं। कुछ रिसोर्ट ऐसे हैं जहां ठहरने एवं सभी भोजन के साथ साथ मनोरंजन भी शुल्क में सम्मिलित होते हैं।

रिसोर्ट या होटल निश्चित करने से पूर्व उसकी मुख्य माथेरान बाजार से दूरी देख लें। अन्यथा आप जब जब मुख्य नगरी जाएँ तो आपको व्यर्थ ही लम्बी दूरी पैदल पार करनी पड़ेगी । मेरा रिसोर्ट मुख्य नगरी से दूर था। हरे भरे परिवेश में मुख्य बाजार तक पैदल चलना सुखद प्रतीत होता है किन्तु इसकी अति भी असहनीय हो जाती है।

माथेरान के दर्शनीय स्थल

माथेरान में एवं उसके आसपास अनेक दर्शनीय स्थल हैं। यहाँ तीन प्रमुख भ्रमण मार्ग हैं। पहला मार्ग दक्षिण में एलेग्जेंडर पॉइंट से रामबाग पॉइंट, वन ट्री हिल एवं ओलिम्पिया रेस कोर्स होते हुए बेल्वेडेर पॉइंट पर समाप्त होता है।

दूसरा मार्ग पश्चिम में लॉर्ड्स पॉइंट से आरम्भ होकर लुईसा पॉइंट पर समाप्त होता है।

तीसरा मार्ग सबसे अधिक लम्बा है। वह पश्चिम में मलंग पॉइंट से आरम्भ होकर उत्तर में पोर्क्युपाईन पॉइंट पर समाप्त होता है। यदि आप ट्रेकिंग में रूचि रखते हैं तथा उससे अभ्यस्त हैं तो आप पैनोरमा पॉइंट तक ट्रेक करके जा सकते हैं।

माथेरान में लगभग ३८ अवलोकन बिंदु हैं। उनमें पैनोरमा पॉइंट, लुईसा पॉइंट, वन ट्री हिल, हार्ट पॉइंट, मंकी पॉइंट, पोर्क्युपाईन पॉइंट तथा रामबाग पॉइंट सम्मिलित हैं। ये अवलोकन बिंदु सम्पूर्ण माथेरान में पसरे हुए हैं। यद्यपि सभी स्थानों में घोड़े उपलब्ध हैं, तथापि मेरा सुझाव है कि आप पैदल जाएँ। कुछ कुछ अंतराल पर जलपान गृह उपलब्ध हैं। इन्टरनेट, संचार सुविधाओं में कमतरता के कारण, लगभग सभी स्थानों में नगद भुगतान करना पड़ता है। इन अवलोकन बिन्दुओं तक जाने में असुविधा ना हो, इसके लिए इस क्षेत्र का मानचित्र साथ रखें।

माथेरान रेल स्थानक

आपको आश्चर्य होगा लेकिन यह सत्य है कि माथेरान के दर्शनीय स्थलों में प्रथम नाम माथेरान रेल स्थानक का है। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। माथेरान रेल स्थानक मुख्य बाजार में स्थित है। यह एक निराला रेल स्थानक है जिसकी पुरातनता आकर्षित करती है। इसमें केवल दो मीटर गेज की लाइनें हैं। यदि आपको रेलों में रूचि है तो आप रेल के इंजन भी देखिये। सन् २००५ की बाढ़ में इन लाइनों को भारी क्षति पहुँची थी। अनवरत सुधार एवं नवीनीकरण के पश्चात इन लाइनों को २००७ में पुनः कार्यान्वित किया गया। शिमला, दार्जीलिंग एवं ऊटी के टॉय ट्रेनों के विपरीत माथेरान रेल अब तक यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में अपना नाम अंकित नहीं कर पाया है।

हाट की गलियाँ

रेल स्थानक के चारों ओर माथेरान का हृदय बसता है, जी हाँ, यह माथेरान का हाट या बाजार है। आप जब यहाँ भ्रमण करेंगे, आपको अनेक दुकानें, क्रीड़ा स्थल, जलपानगृह, कैफे, होटल आदि दिखाई देंगे। कई पर्यटक ऐसे हैं जिन्हें हाट के आसपास ठहरना रुचिकर लगता है। वे यहाँ संध्या के पश्चात भी आसानी से भ्रमण कर सकते हैं। सांयकालीन बाजार की दुकानें ६ बजे से रात ११ बजे तक खुली रहती हैं। यहाँ की चहल-पहल देखने एवं अनुभव करने योग्य है।

माथेरान की हाट गली
माथेरान की हाट गली

सप्ताह के दिवसों में सभी दुकानें नहीं खुलती हैं। क्योंकि माथेरान में अधिकतर पर्यटक सप्ताहांत में ही आते हैं। यदि आप सप्ताह के दिनों में यहाँ आते हैं, तब भी आप यहाँ की वैशिष्ठ्य पूर्ण स्मारिकाएं क्रय कर सकते हैं तथा स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद ले सकते हैं। मैंने सप्ताह के दिनों में माथेरान आना अधिक योग्य जाना था तथा मैंने भी स्थानीय व्यंजनों का भरपूर आस्वाद लिया था।

एक विशेष वस्तु है जो केवल माथेरान में ही उपलब्ध है। नन्हा सा जूता जिसे आप भित्ति पर चिपका सकते हैं। बचे-खुचे चमड़े से बनाए गए ये रंगबिरंगे जूते अंगुली के आकार के होते हैं  तथा अत्यंत सुन्दर दिखते हैं। आपके उपयोग के लिए यहाँ उत्तम गुणवत्ता के चमड़े के जूते भी बिकते हैं। चमड़े द्वारा निर्मित अन्य वस्तुएं भी उत्तम दरों में उपलब्ध हैं, जैसे बेल्ट आदि। मुझे मीठा खाना भाता है। इसलिए मैंने यहाँ से चॉकलेट एवं भिन्न भिन्न स्वादों की चिक्की क्रय की। यहाँ चिक्की, फज, जुजुब्स तथा अंजीर मिठाई आदि की अनेक दुकानें हैं।

शार्लोट झील

मैं जब भी उत्कृष्ट परिदृश्यों के चित्र देखती थी तो सोचती थी कि क्या वास्तव में ऐसे मनोरम स्थल कहीं होते हैं! शार्लोट झील ऐसा ही एक अप्रतिम मनोरम स्थान है। मैं यहाँ तक कहना चाहूंगी कि उन चित्रों में से कोई भी परिदृश्य शार्लोट झील के परिदृश्य को मात नहीं दे सकता। इसका निर्मल स्वच्छ जल, नीला आकाश तथा चारों ओर से इसको घेरते वृक्षों की हरियाली अप्रतिम दृश्य प्रस्तुत करते हैं।

शार्लट झील
शार्लट झील

स्थानीय जनता के पेयजल की आपूर्ति के लिए शार्लोट झील का जल प्रमुख स्त्रोत है। इसलिए इसमें उतरना, तैरना अथवा इस प्रकार का कोई भी क्रियाकलाप निषिद्ध है। शार्लोट झील के लिए जल का स्त्रोत एक बाँध है। झील तक पहुँचने का मार्ग घने वन से होकर जाता है। यह उन पर्यटकों के लिये आदर्श स्थल है जो प्रकृति के सानिध्य में कुछ क्षण शान्ति से व्यतीत करना चाहते हैं। घने वन में आपको अनेक पक्षियों के भी दर्शन होंगे।

पिशरनाथ महादेव मंदिर

पिशरनाथ मंदिर
पिशरनाथ मंदिर

शार्लोट झील से कुछ आगे बढ़ते ही एक पुरातन मंदिर है, पिशरनाथ महादेव मंदिर। वे माथेरान के अधिष्ठात्र देवता है। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग को स्वयंभू लिंग माना जाता है। अन्य मंदिरों के विपरीत इस मंदिर में शिवलिंग पर सिन्दूर का लेपन किया जाता है।

श्री पिशरनाथ महादेव मंदिर
श्री पिशरनाथ महादेव मंदिर

ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर यहाँ पर अनादि काल से है। पर्यटन बिन्दुओं के मध्य स्थित होने के पश्चात भी जब मैंने मंदिर के भीतर प्रवेश किया, मुझे निस्तब्धता का, पूर्ण शान्ति का अनुभव हुआ। वह अनुभव ऐसा था मानो यह धरती कुछ क्षणों के लिए गतिविहीन हो गयी हो।

ओलिम्पिया रेस कोर्स

माथेरान में सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन बिन्दुओं में एक है, ओलिम्पिया रेस कोर्स। यह एक धरोहर संरचना है जहां आज भी घोड़ों की दौड़ का आयोजन किया जाता है। मैंने फरवरी के अंत में माथेरान का भ्रमण किया था। तब वहां घुड़दौड़ के अनेक आयोजन हो रहे थे। किन्तु मेरे पास समय की कमी होने के कारण मैं वहां नहीं जा पायी।

होली क्रॉस गिरिजाघर

जब अंग्रेजों ने माथेरान की पुनः खोज की थी, तब सन् १८५३ में इस होली क्रॉस गिरिजाघर की स्थापना की गयी थी। सन् १९०६ में इसका नवीनीकरण भी किया गया था। सन् १९४७ तक यहाँ एक रहवासी पादरी थे। इसके पश्चात भायखला, मुंबई के आवर लेडी ऑफ ग्लोरी गिरिजाघर के पादरियों ने इस गिरिजाघर में सेवायें प्रदान करना आरंभ किया।

माथेरान में ट्रैकिंग/ पदभ्रमण

यदि आप एक अनुभवी ट्रेकर हैं तो आप प्रबलगढ़ एवं विकटगढ़ तक की पदयात्रा या ट्रैकिंग कर सकते हैं। इन दोनों दुर्गों का मराठा शासन काल में महत्वपूर्ण स्थान था। प्रबलगढ़ दुर्ग का प्रयोग कूटनीतिक सैन्य अभियानों में किया जाता था। वहीं, विकटगढ़ का प्रयोग अनाज संग्रहण के लिए किया जाता था।

प्रबल्गढ़ दुर्ग
प्रबल्गढ़ दुर्ग

ट्रेकिंग करने के लिए गाइड उपलब्ध हैं जो आपका मार्गदर्शन करते हुए आपको इच्छित दुर्ग तक ले जाकर वापिस ले आयेंगे। माथेरान की तलहटी पर कुछ आदिवासी गाँव हैं। आप चाहें तो इन गाँवों के दर्शन कर सकते हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्पराओं को जानने व समझने का प्रयत्न कर सकते हैं तथा स्थानीय हस्तशिल्प की वस्तुओं का क्रय कर सकते हैं।

माथेरान पर्वतीय क्षेत्र के मूल निवासी

मैंने जब से यात्राएं आरम्भ की हैं, मैंने इससे पूर्व कभी इतने विनम्र एवं सादे-सरल लोग नहीं देखे, जो मैंने यहाँ देखे। हाथगाड़ी हांकने वाले से लेकर दुकानदार तक, सभी इतने समंजक व मिलनसार प्रतीत हुए। वे सभी पर्यटकों की सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे। अधिकतर निवासी वारली, ठाकर एवं कातकरी जनजाति के लोग हैं जो माथेरान के पर्वतों की तलहटी में स्थित, पास के गाँवों में रहते हैं। वे प्रतिदिन दो घंटे पहाड़ी रास्तों से चढ़ते हुए माथेरान पहुँचते हैं तथा अपना दैनिक व्यावसायिक क्रियाकलाप करते हैं।

माथेरान में इकलौता वाहन जो मैंने देखा, वह एक रुग्णवाहिका थी। यहाँ एक सर्व सुविधा संपन्न अस्पताल भी है। अब तक शहरी वातावरण की चकाचौंध में मैं धुंधले आकाश को देखने में अभ्यस्त थी। माथेरान के स्वच्छ वातावरण में तारों से भरे आकाश को देखना मेरे लिए एक अद्भुत अविस्मरणीय अनुभव था। यह एक ऐसी नगरी है जहां पुरातनता का आधुनिकता से मेल होता है। यहाँ आकर आप अपने ऊपरी आडंबरों से मुक्त होकर भीतरी शान्ति को अनुभव कर सकते हैं।

यह संस्करण IndiTales Internship Program के लिए अक्षया विजय ने लिखा है तथा इंडीटेल ने प्रकाशित किया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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भारतीय रेल का इतिहास – भारतीय रेल के अनंत रुपनगुडी से एक चर्चा https://inditales.com/hindi/bhartiya-rail-ka-itihasa/ https://inditales.com/hindi/bhartiya-rail-ka-itihasa/#respond Wed, 06 Apr 2022 02:30:30 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2637

अनुराधा गोयल: आज हम भारतीय रेल की यात्रा पर निकल रहे हैं। यह वास्तव में भारतीय रेलों की यात्रा है जिनके द्वारा मेरे जैसे असंख्य यात्रियों की अनेक यात्राएं पूर्ण हुई हैं। भारतीय रेलों की स्थापना से आज तक की यात्रा पर हमें ले चलने के लिए आज हमारे साथ हैं श्री अनंत जी, जो […]

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अनुराधा गोयल: आज हम भारतीय रेल की यात्रा पर निकल रहे हैं। यह वास्तव में भारतीय रेलों की यात्रा है जिनके द्वारा मेरे जैसे असंख्य यात्रियों की अनेक यात्राएं पूर्ण हुई हैं। भारतीय रेलों की स्थापना से आज तक की यात्रा पर हमें ले चलने के लिए आज हमारे साथ हैं श्री अनंत जी, जो भारतीय रेलवे में वरिष्ठ मंडल वित्त प्रबंधक हैं। उनसे मेरा परिचय ट्विट्टर के माध्यम से हुआ था जहाँ वे भारतीय रेलों की मनमोहन चित्र साझा करते हैं। साथ ही वे भारतीय रेलों के इतिहास एवं धरोहर से सम्बंधित रोचक जानकारियाँ भी साझा करते हैं। इसी से प्रभावित होकर मैंने उन्हें डीटूर्स में आमंत्रित किया है ताकि भारतीय रेलों के विषय में उनके रोचक एवं महत्वपूर्ण ज्ञान के भण्डार का आनंद आप भी उठा सकें।

श्री आर अनंत: डीटूर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद।

प्राचीनतम भारतीय रेल मार्ग

अनुराधा: अनंत जी, डीटूर्स में आज की इस चर्चा का आरम्भ भारतीय रेलवे के इतिहास से करते हैं। आज भारतीय रेलों का संजाल अत्यंत सुदृढ़ एवं विशाल है किन्तु भारत में प्रारंभिक रेल सेवायें छोटे छोटे टुकड़ों में अस्तित्व में आयी थीं जिनका श्रेय उस काल के राजाओं एवं देशभक्तों को जाता है। मुझे भारत के प्राचीनतम रेल मार्गों के विषय में जानने की उत्सुकता है। कृपया इस विषय में हमें कुछ जानकारी दें।

अनंत: भारत में सर्वाधिक प्राचीन रेल मार्ग ‘ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे’ द्वारा निर्मित है जो भारत में रेल मार्गों का निर्माण करने वाली प्रथम संस्था थी। इसने सर्वप्रथम बोरी बन्दर (जो आज छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस कहलाता है) से ठाणे तक, लगभग ३२ किलोमीटर लम्बे रेल मार्ग का निर्माण किया था। इस रेल मार्ग पर प्रथम सेवा १६ अप्रैल, १८५३ के दिन आरम्भ हुई थी। दूसरा रेल मार्ग ईस्ट इंडिया हावड़ा तथा हुगली के मध्य बनाया गया था जिस पर १५ अगस्त, १८५४ के दिन प्रथम सेवा आरम्भ हुई थी। पूर्वी भारतीय रेलवे के द्रुतगामी प्रसार का एक प्रमुख कारण यह भी था कि भारत के ये भाग विस्तृत मैदानी क्षेत्र थे जिन पर वे आसानी से रेल पटरियां बिछाते गए। वे हर संभव नदियों के एक ओर पर ही पटरियां बिछाते थे ताकि नदियों को पार करने के लिए सेतु ना बनाना पड़े तथा पटरियां शीध्र ही बिछ जाएँ। किन्तु भारत के पश्चिमी भागों में घाटों एवं पर्वत श्रृंखलाओं को पार करना आवश्यक था। इसी कारण इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे मार्ग लगभग १८६० में पुणे पहुँच सकी।

पूर्वी भारतीय रेलवे का आरम्भ इससे पूर्व ही हो सकता था किन्तु दो घटनाएँ ऐसी घटीं जिनसे इसकी स्थापना में बाधाएं आयीं। एक घटना थी, रेलगाड़ी के इंजनों को लाने वाला जहाज पथभ्रष्ट होकर ऑस्ट्रेलिया चला गया था। दूसरी घटना यह थी कि रेलगाड़ी के डब्बों को लाने वाला एक अन्य जहाज कलकत्ता बंदरगाह के निकट स्थित सैंडहेड्स के समीप डूब गया था। इंजनों को ऑस्ट्रेलिया से वापिस भारत लाने में कई मास लग गए। वहीं रेल के डब्बों को भारत में ही बनाया गया। इसी कारण हावड़ा से रेल का आरम्भ करने में एक वर्ष का विलम्ब हो गया था।

अनुराधा: जी हाँ, यदि ये दुर्घटनाएं ना हुई होतीं तो प्रथम रेल मार्ग कदाचित कलकत्ता में होता।

अनंत: संभव है। प्रारंभ में इन दोनों रेल मार्गों की स्थापना के मध्य अधिक समयावधि नहीं थी। कुछ दिवसों का ही अंतर था। कदाचित दोनों सेवायें एक साथ ही आरम्भ हो सकती थीं। वास्तव में, दोनों रेल मार्गों के निर्माता भिन्न थे तथा उनके मध्य प्रतिस्पर्धा की भावना थी कि कौन सर्वप्रथम भारत में रेल मार्ग की स्थापना करेगा।

भारतीय रेल सेवा का प्रथम निर्मित स्थानक

छोटी पटरी की भारतीय रेल
छोटी पटरी की भारतीय रेल

अनुराधा: इन दोनों के पश्चात अन्य मुख्य रेल मार्ग कहाँ निर्मित किये गए थे?

अनंत: इनके पश्चात, मद्रास में सन् १८५६ में, रोयापुरम से वलाजह मार्ग के मध्य रेल मार्ग बिछाया गया था जो ७०-८० किलोमीटर की दूरी तय करता था। इस मार्ग की एक विशेषता यह थी कि रोयापुरम से रेल सेवा आरम्भ होने से पूर्व ही रेल स्थानक की सम्पूर्ण इमारत का निर्माण कर दिया गया था। अतः रोयापुरम भारतीय प्रायद्वीप का प्रथम रेल स्थानक बना। यहाँ तक कि, यह सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप में स्थित प्राचीनतम रेल स्थानकों में से एक है।

और पढ़ें: मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस – एक विश्व धरोहर

भारत का प्रथम स्थाई रेलवे स्थानक रोयापुरम में बनाया गया था जबकि बोरीबंदर एवं हावड़ा में शेड के रूप में अस्थाई स्थानक थे। रोयापुरम के प्राचीन स्थानक की इमारत अब भी खड़ी है। संरक्षण के कुछ सफल प्रयासों के पश्चात यह इमारत अब अपेक्षाकृत उत्तम स्थिति में है। मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का निर्माण सन् १८८८ में किया गया जबकि हावड़ा स्थानक १९वीं शताब्दी के अंत में बना था। हावड़ा स्थानक छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से अपेक्षाकृत अधिक विशाल है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का निर्माण एक प्रशासनिक कार्यालय के रूप में किया था जिसके भीतर ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे का मुख्यालय था। रेल स्थानक इस इमारत का केवल एक अतिरिक्त भाग था।

भारत में रेलवे का विस्तार

अनुराधा: कलकत्ता, मद्रास एवं मुंबई तीन ऐसे नगर थे जिन पर अंग्रेजों का विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित था। अतः, वहां रेल मार्ग तथा स्थानकों का निर्माण स्वाभाविक था। किन्तु भारत के अन्य क्षेत्रों में रेल सेवायें कैसे आरम्भ हुईं?

अनंत: इन तीन नगरों के पश्चात भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में निर्माण कार्य आरम्भ हो गया था। पूर्वी भारतीय रेलवे का विस्तार अत्यंत शीघ्रता से होने लगा। १८५० के दशक में लाहोर के आसपास पंजाब-सिंध रेलवे का आगमन हुआ। सन् १८६६ में कलकत्ता से आने वाले रेल मार्ग को दिल्ली तक लाया गया। यहाँ तीन प्राचीनतम रेलवे सेतु हैं जिनके द्वारा रेलगाड़ियां नदियों को पार करती हैं। पहली आर्रा के निकट है जो सोन नदी के ऊपर निर्मित है। अन्य दो सेतु प्रयागराज एवं दिल्ली में यमुना नदी के ऊपर स्थित हैं। कलकत्ता एवं दिल्ली के मध्य स्थित तीनों प्रमुख सेतु हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक लगभग आधा किलोमीटर लंबा है।

अनुराधा: इस जानकारी से मेरे मस्तिष्क में एक प्रश्न उभर रहा है। रेलवे के विस्तार के लिए अनेक रियासतें भी निधि का योगदान कर रही थीं। क्या आप उनके विषय में कुछ बताएँगे?

रेलवे प्रकल्प हेतु निधि का योगदान करती रियासतें

अनंत: प्रथम रियासत जिसने इस प्रकल्प में रूचि दर्शाई थी, वह है वड़ोदरा के गायकवाड़। उन्होंने रेल मार्ग का निर्माण इसलिए करवाया था क्योंकि सन् १८६१ में अमेरिकी गृह युद्ध छिड़ गया था जिसके कारण अमेरिका से ब्रिटेन के लिए कपास की आपूर्ति बाधित हो रही थी। बड़ोदा क्षेत्र में कपास की भरपूर खेती होती थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए वहां के किसान बड़ोदा से इंग्लॅण्ड तक कपास का निर्यात कर धनार्जन करना चाहते थे। किन्तु बड़ोदा से सूरत बंदरगाह तक कपास पहुँचाने के लिए उनके पास त्वरित परिवहन सेवा का अभाव था। इसी कारण उन्होंने रेल सेवा आरम्भ करने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उन्होंने छोटे गेज की रेल पटरियां बिछवाईं क्योंकि चौड़े गेज की सेवा लागत अधिक थी। वैसे भी कपास भार में अत्यंत हल्का होने के कारण छोटे गेज की रेल पटरियों द्वारा आसानी से ढोया जा सकता था।

मुंबई के चर्चगेट स्टेशन में पश्चिमी रेलवे धरोहर संग्रहालय है। यहाँ एक रोचक चित्र है जिसमें बैल कपास से भरे रेल के दो डिब्बों को रेल की पटरी पर खींच रहे हैं। इस चित्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गायकवाड़ वंश इस रेल सेवा को शीघ्र से शीघ्र आरम्भ करने के लिए आतुर थे क्योंकि वे सन् १८६३ में प्रवेश कर चुके थे। इंग्लॅण्ड से मंगाया इंजिन तब तक पहुंचा नहीं था। पटरियों की चौड़ाई एवं इंजिन के मापदंडों में भिन्नता थी जिसके चलते उनके निर्माण में विलम्ब हो रहा था। रेल के डिब्बों का निर्माण गायकवाड़ों ने स्वयं ही कर लिया। उन डिब्बों को हांकने के लिये इंजन के स्थान पर उन्होंने बैलों का प्रयोग किया. वे उसे बैल रेल गाड़ी कहते थे.

परिवहन – व्यापार का महत्वपूर्ण अंग

अनुराधा: जुगाड़ आविष्कार का यह एक रोचक उदहारण है। गुजरात के दाभोई में मैंने रेलवे संग्रहालय देखा था जहां इस रेल सेवा पर विशेष आलेख उपलब्ध हैं।

अनंत: गुजरातियों की व्यावसायिक समझ अत्यंत गूढ़ है। गायकवाड़ों के पश्चात, १८७० के दशक में निजाम ने तथा १८८० के दशक में मैसूर के महाराजा ने भी उनकी रेल सेवायें आरम्भ कीं।

अनुराधा: मुझे स्मरण है, हैदराबाद से अजमेर तक का रेल मार्ग दीर्घ काल तक सबसे लम्बा रेल यात्रा मार्ग था।

अनंत: जी हाँ। हैदराबाद के निजाम ने मीटर गेज की रेल पटरियां बिछवाई थीं। यह रेल मार्ग हैदराबाद से आरम्भ होकर मध्यप्रदेश के खंडवा तक था। वहां से यह होलकरों के रेल मार्ग से जुड़ जाता था जो इंदौर के मऊ से होकर जाता था। वहां से उत्तर प्रदेश के महोबा होते हुए राजस्थान में अजमेर के मीटर गेज मार्ग से जुड़ जाता था।

रेलवे गेज

अनुराधा: विभिन्न समूहों ने अपने निजी आवश्यकताओं के अनुसार भिन्न भिन्न रेल सेवायें आरम्भ की थीं। उनके मापदंड भी उन्होंने स्वयं निर्धारित किये थे, जैसे छोटे गेज व मीटर गेज आदि। इन्ही विसंगतियों को दूर कर उन्हें एक मापदंड पर लाने का विशाल कार्य अब भारतीय रेलवे कर रहा है ताकि भारतीय रेलों का सम्पूर्ण संजाल एकसार हो सके।

अनंत: जी हाँ। हम जैसे जैसे प्रगति करते हैं, हमारे दूरसंचार, परिवहन, मनोरंजन, पर्यटन इत्यादि आवश्यकताओं में भी तेजी से वृद्धि होने लगती है। भिन्न भिन्न गेजों की पटरियों का संजाल जन व माल दोनों के सुगम परिवहन में बाधा उत्पन्न कर रहा था। भारतीय रेल सेवा मुख्यतः मालवाहक भाड़े पर ही निर्वाह करती है। भारतीय रेलों का लगभग ६३-६४% राजस्व मालभाड़े से तथा लगभग ३०% राजस्व जनमानस परिवहन से प्राप्त होता है। विभिन्न गेजों की एक रेलगाड़ी से दूसरी रेलगाड़ी में माल उतारने व चढ़ाने में परिवहन लागत व समय दोनों की हानि होती है।

मधुर स्मृतियाँ

भारतीय रेल का आनंद लेते हुए
भारतीय रेल का आनंद लेते हुए

अनुराधा: मैं जब विद्यार्थी थी, तब मैंने चंडीगढ़ से औरंगाबाद तक अनेक यात्राएं की थीं। उस समय इस गेज भिन्नता के कारण मुझे मनमाड़ में ट्रेन बदलनी पड़ती थी। मनमाड़ में मुझे कई घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

अनंत: जी। मुझे भी स्मरण है, जब मेरे पिता आसाम में दीमापुर के निकट कार्यरत थे, तब दक्षिण भारत में आने के लिए हमें इसी कारणवश बुगनेगाँव में ट्रेन बदलनी पड़ती थी। उस काल में भारत में चौड़े, मीटर तथा छोटे, तीनों प्रकार के गेज चलन में थे।

दाभोई, वड़ोदरा में स्थित गायकवाड़ों के छोटे गेज संग्रहालय के समान नागपुर में भी छोटे गेज का संग्रहालय है क्योंकि नागपुर-छत्तीसगढ़ रेलवे भी १८७० के दशक में निर्मित एक छोटी गेज की रेलवे थी। १८६० तथा १८७० के दशकों में मध्य भारत में अकाल की स्थिति थी जिसके कारण जीवन व आजीविका के साधनों को भीषण क्षति पहुंची थी। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार के मध्य प्रांत ने एक रेलवे संस्था की स्थापना की ताकि अकाल पीड़ित क्षेत्रों में तत्काल अनाज पहुँचाया जा सके। कठोर वित्तीय प्रतिबंधों के चलते उन्होंने भी छोटे गेज की रेल सेवा का चुनाव किया था।

रेलवे गेज का मूल्य

अनुराधा: क्या छोटी गेज की पटरियों का मूल्य कम होता है?

अनंत: जी। उसका मूल्य बड़ी गेज की पटरियों से लगभग एक तिहाई होता है। लागत, भूमि तथा कई अन्य घटक होते हैं जिन पर यह निर्भर करता है। इसके निर्माण में समय भी कम लगता है। यदि माल-परिवहन का भार कम हो तो यह अधिक लाभकारी होता था।

नागपुर से जबलपुर तक छोटी गेज का लम्बा रेल मार्ग था जो छिंदवाड़ा तथा सिवनी होकर जाता था। आज सड़कें इतनी सुगम हो गयी हैं कि गाड़ी चलाकर चार घंटों में ही नागपुर से जबलपुर तक पहुँच जाते हैं, जबकि उन दिनों छोटी गेज की रेलगाड़ी से सम्पूर्ण रात्रि यात्रा करनी पड़ती थी।

पर्वतीय रेल सेवा का आरम्भ

अनुराधा: भारत के पर्वतीय क्षेत्रों, जैसे दार्जिलिंग, कालका-शिमला तथा नीलगिरी में अप्रतिम हिमालयीन एवं पर्वतीय रेलवे सेवायें भी हैं। वे यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर भी हैं। क्या आप उनके विषय में कुछ बताएँगे?

अनंत: पर्वतीय रेलवे सेवाओं में सर्वप्रथम रेल सेवा दार्जिलिंग में १८८० के दशक में आरम्भ की गयी थी। दार्जिलिंग के पर्वतीय क्षेत्रों में तीव्र ढलान पर चढ़ने के लिए गोलाकार मार्ग के स्थान पर अत्यंत वक्रीय मार्ग का प्रयोग किया गया है। ढलान पर चढ़ने के लिए यह एक अद्वितीय उपाय सिद्ध हुआ था।

अनुराधा: घूम गोलमार्ग भी एक प्रमुख आविष्कार है।

घूम/ बतासिया लूप का आविष्कार

घूम संग्रहालय में पुराना इंजन
घूम संग्रहालय में पुराना इंजन

अनंत:  घूम गोलमार्ग अथवा बतासिया लूप/गोलमार्ग एक आविष्कार ही है क्योंकि उस स्थान पर रेल को वापिस मुड़ना था। कुछ समय पूर्व तक वहां पर बाजार भरता था। अब उसे एक सुन्दर पर्यटन स्थल में परिवर्तित कर दिया गया है।

अनुराधा: मैं कुछ ३-४ वर्षों पूर्व दार्जिलिंग गयी थी। मैंने तब भी देखा था कि रेलगाड़ी के जाने के पश्चात लोग रेल की पटरियों पर ही अपनी दुकानें सजा लेते थे तथा रेलगाड़ी के आने का समय होते ही वहां से हट जाते थे । वह दृश्य मेरे लिए अत्यंत रोचक था।

अनंत: मैं गत वर्ष ही वहां गया था। घूम गोलमार्ग पर अब एक युद्ध स्मारक स्थापित किया गया है जिसके चारों ओर सुन्दर बाग बनाये गए हैं। वहां अब पटरियों पर कोई बाजार नहीं भरता है। उनके लिए व्यवस्थित दुकानें उपलब्ध कराई गयी हैं। घूम में एक सुन्दर रेल संग्रहालय भी है। उसमें दार्जिलिंग पर्वतीय रेलवे के अवशेषों को संरक्षित कर प्रदर्शित किया गया है, जैसे संकेत कंदील तथा अन्य यंत्र, जिनका प्रयोग उनमें किया जाता था। घूम संग्रहालय केवल कक्ष के भीतर ही नहीं है, अपितु बाहर भी छोटे गेज की रेलगाड़ी के कुछ पूर्वकालीन डिब्बे हैं जो अब उपयोगी नहीं हैं। कुछ पुराने इंजन भी हैं जिन्हें कक्ष के बाहर, शेड के नीचे रखा गया है।

रेलगाड़ी की पूर्वकालीन स्मृतियाँ

अनुराधा: दार्जिलिंग हिमालयन रेल में यात्रा करते हुए मैं प्राचीन काल में पहुँच गयी थी तथा कल्पना के विश्व में खो गयी थी। मैं अनुमान लगा सकती कि प्राचीन काल में रेल सेवा कैसी रही होगी। मैं प्राचीनकाल का सम्पूर्ण दृश्य अपने नैनों के समक्ष चित्रित कर रही थी। यह सत्य मुझे आज भी अचरज में डाल देता है कि १५० वर्षों पूर्व हमारे देश में रेलों का तंत्र विकसित हो गया था।

अनंत: सत्य कहा आपने। घूम रेलवे संग्रहालय में मार्क ट्वेन का एक रोचक आलेख है, “A journey of Darjeeling” जिनमें दार्जिलिंग हिमालयन रेल के सन्दर्भ में उनके द्वारा व्यक्त किये विचार हैं।

दार्जिलिंग हिमालयन रेल के पश्चात शिमला एवं ऊटी में क्रमशः सन् १९०३ तथा १९०८ में रेलवे सेवा आरम्भ हुई। शिमला को रेलवे सेवा द्वारा मुख्य धारा से जोड़ने का प्रमुख कारण था, प्रशासनिक तंत्र को शिमला तक सुगमता से पहुँचाना। इस ट्रेन का नाम रखा, कालका मेल। उस समय कलकत्ता देश की राजधानी थी। यह रेल सेवा हावड़ा को कालका से जोड़ती थी। यह पूर्वी भारतीय रेलवे के अंतर्गत प्राचीनतम रेल सेवाओं में से एक थी। वाईसराय अपने विशेष डिब्बे में बैठकर इस ट्रेन के द्वारा हावड़ा से कालका पहुँचते थे। वहां से अपने विशेष कक्ष में बैठकर शिमला तक जाते थे।

रैक एवं पिनियन का आविष्कार

रैक एवं पिनियन का प्रयोग वृत्तीय गति को रैखिक गति में या रैखिक गति को वृत्तीय गति में बदलने के लिए किया जाता है। ऊटी में रैक एवं पिनियन का आविष्कार अत्यंत कारगर सिद्ध हुआ। इस तकनीक से पर्वतीय क्षेत्र में चढ़ते समय, ट्रेन को उल्टी ढलान पर पीछे की ओर सरकने के रोकने में महत्वपूर्ण सफलता मिली थी। इसके प्रयोग से मेट्टूपलायम से निलगिरी तक की मनोरम यात्रा अत्यंत सुगम हो पायी। चौथी पर्वतीय रेल सेवा मुंबई के निकट माथेरान में स्थापित की गयी। सन् १९०७ में स्थापित यह छोटी दूरी की रेल सेवा लगभग १६-१८ किलोमीटर लम्बी थी जो नेरल एवं माथेरान के मध्य आरम्भ की गयी थी। यह एक पारसी व्यापारी द्वारा आरम्भ की गयी एक निजी रेल सेवा थी। अब यह ट्रेन अमन लॉज से माथेरान के मध्य चलती है।

इस सूची की अंतिम पर्वतीय रेल सेवा स्वतंत्रता के पश्चात अस्तित्व में आयी, जो है कांगड़ा घाटी रेलवे। इसकी आधार शिला लाल बहादुर शास्त्रीजी तथा उस समय के रेल मंत्री ने रखी थी। १९५० के दशक में यह सेवा आरम्भ हुई। यह पठानकोट से पालमपुर होते हुए जोगिंदरनगर जाती है। यह सर्वाधिक मनोरम दृश्यों से युक्त रेलवे में से एक है क्योंकि यह कांगड़ा घाटी से होकर जाती है।

इस प्रकार आरंभिक काल में भारत में स्थापित रेलवे सेवा को हम इन खण्डों में बाँट सकते हैं, निजी कंपनियों द्वारा स्थापित रेल सेवा, सरकारी तंत्रों द्वारा संचालित रेल सेवा, रियासतों द्वारा  हयोंकियुक्त रेलवे में से एक है स्थापित रेल सेवा तथा पर्वतीय रेल सेवा। प्रत्येक खण्डों के अंतर्गत आती रेल सेवाओं की अपनी विशेषताएं थीं। ये सभी रेल सेवायें भारत की धरोहर हैं।

भारत की अखंडता का प्रतीक, भारतीय रेल

अनुराधा: सम्पूर्ण भारत में भिन्न भिन्न अंकुरों के समान स्फुरित विभिन्न रेल सेवाएँ अब सम्पूर्ण देश को एक व अखंड बनाती एकल, विशाल व सशक्त रेल सेवा में परिवर्तित हो गयी हैं। इसे देख आनंद मिश्रित अचरज होता है।

अनंत: सही कहा। इस महत्वपूर्ण धरोहर का आरम्भ मूलतः सैन्य प्रयोजनों में प्रयुक्त वस्त्रों के परिवहन तथा विदेशों में निर्यात होते कच्चे माल को बंदरगाह तक पहुँचाने के लिए किया गया था।

अनुराधा: अंततः व्यापार ही इस सेवा के आरम्भ का मूल संचालक था।

अनंत: सत्य तो यह है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा इसका आरम्भ मूलतः भारत की संपत्ति को ब्रिटेन ले जाने के लिए किया गया था। डॉक्टर शशी थरूर ने भी अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख किया है। यह एक भिन्न सत्य है कि इसका लाभ भारतीयों को भी प्राप्त हुआ है।

अनुराधा: जी हाँ। यह एक ऐसा विवाद है जो जारी रहेगा। किन्तु आज यह सत्य है कि भारतीय रेल हम भारतीयों के जीवन का एक अभिन्न अंग है। यह हम भारतीयों की जीवन रेखा है। ८०-९० के दशकों में पले -बढ़े हम भारतीयों के लिए यह किसी स्वप्निल यात्रा से कम नहीं है। लम्बी दूरी की यात्रा की कुछ अप्रतिम स्मृतियाँ हम सब के पास होंगी। भारतीय रेलवे के बिना भारत एवं हम भारतीयों के जीवन की कल्पना असंभव है।

रेल पर्यटन एवं रेलवे संजाल की स्थापना

अनंत: सत्य है। रेल की पटरियां कैसे बिछाई जाती हैं, उनका संजाल कैसे रेखांकित किया जाता है, उन्हें कैसे संचालित किया जाता है, ये सब भी एक अत्यंत रोचक है। इसके अतिरिक्त भारतीय रेलवे का इतिहास दर्शाते अनेक रेलवे संग्रहालय हैं जिनकी अपनी अपनी विशेषताएं हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, भारत में पर्यटन के अंतर्गत रेलवे पर्यटन का विशेष अस्तित्व एवं महत्त्व। एक स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में रेलवे पर्यटन को कैसे विकसित किया जा सकता है, यह भी एक आवश्यक व महत्वपूर्ण विषय है।

अनुराधा: मेरे पास भी इनसे सम्बंधित अनेक प्रश्न अब भी शेष है। मुझे अनुमति दीजिये कि उन प्रश्नों को आपके समक्ष रखने के लिए मैं आपको पुनः आमंत्रित कर सकूं ताकि आप हमें पुनः भारतीय रेलवे के इतिहास एवं धरोहरों के अद्भुत विश्व का भ्रमण कराएँ। भारतीय रेलवे एवं इसकी धरोहर के विषय में अवगत कराते हुए इतिहास की इतनी अप्रतिम यात्रा के लिए आपका हृदयपूर्वक आभार तथा धन्यवाद।

श्री अनंत जी से सफल संवाद के पश्चात मैं अपने पाठकों से कहना चाहती हूँ कि यदि वे अनंत जी से कुछ जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं अथवा प्रश्न करना चाहते हैं या रेलवे से सम्बंधित कुछ सुझाव देना चाहते हैं तो टिप्पणी खंड के द्वारा हमें सूचित करें। वे रेलवे प्रशासन में ऐसे पद पर कार्यरत है जो सम्बंधित व्यक्तियों के समक्ष आपकी आवश्यकताएं रख सकते हैं।

लिखित प्रतिलिपि: IndiTales Internship Program के अंतर्गत निकिता चंदोला ने तैयार की है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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दार्जिलिंग हिमालय रेलवे – एक जीता जागता स्वप्न https://inditales.com/hindi/darjeeling-himalaya-rail-world-heritage/ https://inditales.com/hindi/darjeeling-himalaya-rail-world-heritage/#comments Wed, 03 May 2017 02:30:11 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=232

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे, भारत की उन ३ पर्वतीय रेल सेवाओं में से एक है जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित किया है। दार्जिलिंग हिमालय रेल की दार्जिलिंग से घूम की यात्रा, भारत के इस पर्वतीय रेल की प्रारम्भिक दिनों की हमारी कल्पना साकार करती है। इस रेल का पुराना कोयले वाला इंजन अभी भी इस […]

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दार्जीलिंग हिमालय रेल - वाष्प इंजन
दार्जीलिंग हिमालय रेल – वाष्प इंजन

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे, भारत की उन ३ पर्वतीय रेल सेवाओं में से एक है जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित किया है। दार्जिलिंग हिमालय रेल की दार्जिलिंग से घूम की यात्रा, भारत के इस पर्वतीय रेल की प्रारम्भिक दिनों की हमारी कल्पना साकार करती है। इस रेल का पुराना कोयले वाला इंजन अभी भी इस रेल को खींचने में बहुत हद तक सक्षम है। दुर्गम मार्ग पर सहायता के लिए एक डीजल इंजन भी इसके पीछे लगाया जाता है। घूम स्टेशन पर स्थित संग्रहालय अपने विभिन्न रेलवे कलाकृतियों द्वारा पर्यटकों का अपने इतिहास से परिचय कराता है।

कई दिनों से दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का रोमांचक अनुभव प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी। दरअसल रेल यात्राएं मुझे हमेशा से रोमांचित करतीं हैं। बचपन में मैंने अपने माता पिता के साथ भारत भ्रमण हेतु अनेक रेल यात्राएं की थीं। हालांकि समय की कमी के रहते मेरी रेल यात्रा अब पहले से बहुत कम हो गयी हैं। फिर भी रेल यात्रायें मेरी यादों का एक अहम् हिस्सा जरूर बन गईं हैं। भारत में रेल, परिवहन का एक महत्वपूर्ण साधन है। साथ ही साथ भारत में ऐसी रेलें भी हैं जो राजसी ठाटबाट से भरपूर यात्रा का आनंद देतीं है और कुछ ऐसी जो आपको अतीत के वाष्प इंजन की दुनिया में ले जाती हैं। कुछ वर्षों पूर्व मुझे डेक्कन ओडिसी रेल में ७ दिनों तक राजसी ठाटबाट से यात्रा का आनंद उठाने का सुअवसर मिला था। इस बार मुझे दार्जिलिंग हिमालय रेलवे में मजा व मस्तीभरी सवारी का अवसर मिला।

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे- यूनेस्को विश्व विरासत

दार्जीलिंग हिमालय रेल - यूनेस्को विश्व धरोहर
दार्जीलिंग हिमालय रेल – यूनेस्को विश्व धरोहर

इस बार मेरी दार्जिलिंग यात्रा का मुख्य उद्देश्य दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का अनुभव प्राप्त करना था। भारत की अन्य २ पर्वतीय रेल सेवाओं, शिमला-कालका रेल व नीलगिरी पर्वतीय रेल की तरह, दार्जिलिंग हिमालय रेल भी यूनेस्को विश्व विरासत स्षित हुआ है। इनकी दिलचस्प विशेषतायें यह है कि तीनों विश्व विरासत रेलवे सेवायें अभी भी सुचारू रूप से कार्यान्वत है और देश के ३ कोनों में स्थित हैं। जहाँ दार्जिलिंग हिमालय रेल और शिमला-कालका रेल दोनों हिमालय पर्वतों से होकर गुजरती है वहीं ऊटी रेल नीलगिरी पर्वतों से गुजरती है। मैं, नीलगिरी रेल व शिमला-कालका रेल, दोनों की यात्रा का आनंद उठा चुकी हूँ। हालांकि मैंने उन दिनों अपने यात्रा संस्मरण लिखना आरम्भ नहीं किया था। परन्तु दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा का अवसर मेरे हाथों से बच कर निकल जाता था। पिछली बार मेरी भूटान व सिक्किम यात्रा के दौरान मैंने यह अवसर गंवाया था। बेहद अफसोस हुआ कि मै इसके बगल से होकर निकल गयी थी।

गाँधी जी - दार्जीलिंग हिमालय रेल पर
गाँधी जी – दार्जीलिंग हिमालय रेल पर

कुछ समय पूर्व मैं भारतीय पर्वतीय रेल के बारे में यूनेस्को वेबसाइट से जानकारी हासिल कर रही थी। यह, भारत के तीनों पर्वतीय रेल सेवाओं के विश्व विरासत स्थल चुने जाने के कारण भी बताती है। इनमें से दो मुख्य कारण हैं-

अभियांत्रिकी उत्कृष्टता

दार्जिलिंग से घूम तक की रेल यात्रा में बतासिया का मोड़ देख कर इस पर्वतीय दार्जीलिंग हिमालय रेल सुविधा की अभियांत्रिकी उत्कृष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस मार्ग में रेल पहाड़ों पर भी चढ़ती है। कहीं कहीं चढ़ाव इतना अधिक है कि इंजन रेल को ऊपर खींचने में असमर्थ होती है। इसलिए इस रेल सेवा के निर्माण में रत अभियंताओं ने एक अनोखे तकनीक के तहत, घुमावदार व टेढ़ी मेढ़ी रेल की पटरियों का इस्तेमाल कर पटरियों की लम्बाई बढ़ाई ताकि चढ़ाई धीरे धीरे बढ़े| इससे रेल यात्रा भी आरामदायी व सुखद होती है। इसे देख हमारे पूर्वजों की तकनीकी प्रतिभा को सलाम कहने को जी चाहता है।

सामाजिक आर्थिक जीवन पर प्रभाव

पर्वतीय रेल सेवाएं, पर्वतीय क्षेत्रों को मुख्य धारा से जोड़ने में अहम् भूमिका निभातीं हैं। यह, पहाड़ी व मैदानी इलाकों के बीच की यात्रा को सुविधाजनक और सुखदायी बनातीं हैं, साथ ही वहाँ के वासिओं के संस्कृति आदान प्रदान में भी सहायक होतीं हैं। दोनों तरफ भौतिक वस्तुओं का आदान प्रदान कर आर्थिक लेन देन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं हैं। नतीजतन, कुछ समय पश्चात दोनों इलाके एक दूसरे पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं और धीरे धीरे एक दूसरे का अभिन्न अंग बन जातें हैं।

दार्जिलिंग हिमालय रेल यात्रा

दार्जिलिंग हिमालय रेलवेदार्जिलिंग में प्रवेश करते ही मुझे दार्जिलिंग स्टेशन व वहां खड़ी वाष्प इंजन की पहली झलक मिली। अगले दिन, कोई और भ्रमण योजना न बनाते हुए, सिर्फ इस विरासती पर्वतीय रेल व इसके साथी, दार्जिलिंग और घूम स्टेशनों के दर्शन का निश्चय किया। चूंकि हमने इस रेल यात्रा की टिकट पहले से आरक्षित नहीं करायी थे, हम पर्याप्त समय हाथों में ले कर स्टेशन पहुंचे क्योंकि हम किसी भी शर्त पर रेल छूटने का खतरा मोल नहीं ले सकते थे। हालांकि हमारा होटल प्रतिनिधि हमें निरंतर धाडस बंधा रहा था कि हमें टिकट आसानी से मिल जायेगी क्योंकि ज्यादा पर्यटक नहीं आयें हैं। हमें टिकट तो मिल गयी परन्तु साथ ही हमें यह भी ज्ञात हुआ कि मजेदार यात्रा प्रदान करती यह छोटी रेल हमेशा ही भरी हुई चलती है। कई सालों बाद मैंने रेलवे आरक्षण फार्म भरा। मुझे मिली पुट्ठे की छोटी सी टिकट ने मेरी बचपन की यादें ताज़ा कर दीं। मेरे रोमांच और आनंद की शुरुआत यहीं से हो गयी थी।

“दार्जिलिंग हिमालय रेलवे में, १८८१ में हुए स्थापना के पश्चात, बहुत कम बदलाव किया गया है।”

पहाड़ों को छू कर जाती दार्जीलिंग हिमालय रेल
पहाड़ों को छू कर जाती दार्जीलिंग हिमालय रेल

मुझे वाष्प इंजन चलित रेल की सवारी का बहुत इंतज़ार था। परन्तु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि वाष्प इंजन के पीछे पीछे ही डीजल इंजन वाली गाडी भी चलती है। इस रेल यात्रा के दौरान, घुमावदार मोड़ों पर मैं अपनी ही रेल के इंजन को पटरी पर दौड़ते देख सकती थी। इस छोटी सी वाष्प इंजन को पटरी पर दौड़ते देखने का आनंद मैं शब्दों में नहीं बांध सकती इसलिए इन अविस्मरणीय व खूबसूरत दृश्यों को छोटी छोटी चलचित्रों में कैद कर लिया। यह और बात है कि वाष्प इंजन से निकला हुआ धुआं और कालिख इस अविस्मरणीय यात्रा पर अपनी छाप छोड़ने से नहीं चूक रहा था।

“इस रेल की यात्रा का आनंद उठाने वाले जानी मानी हस्तियों में महात्मा गांधी और मार्क ट्वेन का भी समावेश है।”

वाष्प इंजन - आयरन शेरपा
वाष्प इंजन – आयरन शेरपा

जब हम इस रेल का, पिछली यात्रा से वापिस लौटने का इंतजार कर रहे थे, लोकोशेड में तैयार होते वाष्प इंजन पर मेरी नजर पड़ी और उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह पायी। पर्यटक, जिनमें ज्यादातर विदेशी नागरिक सम्मलित थे, धीरे धीरे स्टेशन पर इकट्ठे होने लगे। स्टेशन स्वयं भी एक विरासत इमारत है। उस पर लगे “पर्चे ना चिपकाएँ” चिन्ह भी इस बात का संकेत है। चूंकि रेल अभी पहुंची नही थी, मैंने स्टेशन के बारे में और जानने की चेष्टा की व कई तस्वीरें भी खींचीं। यहाँ कुछ ऐसी तस्वीरें भी लगीं हुईं हैं जो १८८१ में स्थापित इस स्टेशन व रेल का, उस समय का, नजारा दिखा रहीं हैं। मैंने उस वक्त की रेल व स्टेशन की कल्पना करने की असफल चेष्टा की। आज के इस भीड़ भरे स्टेशन में खड़े होकर ऐसा करना मेरे लिए असंभव हो रहा था।

सड़कों पे दार्जीलिंग हिमालय रेल
सड़कों पे दार्जीलिंग हिमालय रेल

इस रेल की पटरियां बहुधा सड़क पर से गुजरतीं हैं और कई बार घरों, दुकानों व इमारतों के बहुत करीब आतीं हैं। रेल के अन्दर प्रवेश करने से पहले तक मुझे शंका थी कि इन घरों व इमारतों को छुए बिना, यह रेल यात्रा कैसे संभव है। तथापि रेल के अन्दर प्रवेश करते से ही इसके संकरेपन का अहसास सबसे पहले आप को झकझोर देता है।

“ यह एक आश्चर्यजनक घटना है कि १३५ साल पुराना यह दार्जिलिंग हिमालय रेल अभी भी कार्य सक्षम है और लोगों की सेवा में रत है।”

वाष्प इंजन

घूम स्टेशन पर वाष्प इंजन
घूम स्टेशन पर वाष्प इंजन

जैसे ही वाष्प इंजन ने स्टेशन में प्रवेश किया, सबकी आँखें फटी की फटी रह गईं। जैसे जैसे इंजन अन्दर प्रवेश कर रहा था, आस पास की सारी कायनात हमारे जहन से अस्तित्वहीन होने लगी। ऐसा अहसास हुआ जैसे आने वाले २-३ घंटे में हम एक युग जीने वाले हों। नीले रंग के इंजन के ऊपर “आयरन शेरपा” अर्थात लोह शेरपा गुदा हुआ था। एक छोटा लाल रंग का फलक रेल का क्रमांक ८०५ दर्शा रहा था। जैसे ही वाष्प इंजन चालित छोटी रेल आगे सरकी, हम अपने डीजल इंजन चलित डिब्बे में प्रवेश किये। डिब्बा अन्दर से बहुत छोटा व खचाखच भरा हुआ था। रेल के कुल ३ डिब्बे थे और प्रत्येक में २८ यात्री सवारी कर सकते थे। २ फीट की पटरी के ऊपर चलती रेल के अन्दर इससे ज्यादा जगह की उम्मीद कैसे की जा सकती है? धीरे धीरे रेल स्टेशन से बाहर सरकी और हमारी उन्मादपूर्ण व रोमांचक यात्रा की शुरुआत हुई। चूंकि यह रेल की पटरी सड़क पर चलती, कई बार सड़क पार करती है, हमने कई बार सड़क यातायात को अपने खातिर रोका।

दार्जीलिंग हिमालयन रेल के अन्दर
दार्जीलिंग हिमालयन रेल के अन्दर

कई बार घरों व दुकानों के सामने खड़े लोगों को हमने पीछे धकेला व रेल गुजरने की जगह बनायी। एक तरफ रस्ते भर बच्चे हाथ हिला हिला कर हमारा अभिनन्दन कर रहे थे तो दूसरी तरफ दुकानदार, खरीददार व अन्य लोग हमारे जाने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि वे अपने अपने कार्य पर जल्द वापिस लौट सकें।

शहर को धकेलती हुई गुज़रती दार्जिलिंग हिमालय रेल
शहर को धकेलती हुई गुज़रती दार्जिलिंग हिमालय रेल

रेल पटरी के एक बाजू घाटी थी तो दूसरी तरफ सम्पूर्ण दार्जिलिंग शहर। कभी कभी शहर हमारे अत्यंत करीब आ कर हमें बैचैन कर देता था तब हम दूसरी तरफ घाटी का सुन्दर नजारा देख सुकून पाते।

बतासिया लूप अर्थात् बतासिया का घेरा

दार्जीलिंग एवं घूम के बीच - बतासिया लूप
दार्जीलिंग एवं घूम के बीच – बतासिया लूप

बतासिया घेरे पर रेल करीब १० से १५ मिनट तक रुकती है। यह घेरा रेलवे अभियंताओं ने इसलिए बनाया ताकि यह रेल पहाड़ की तीव्र चढ़ाई को सरलता से पार कर सके। पहले रेल रेलवे पुल के नीचे से होकर गुजरती है और फिर घूम कर उसी पुल के ऊपर से जाती है। यह एक मजेदार दृश्य होता है। इस घेरे के भीतर एक शहीद स्मारक है जो विभिन्न युद्धों में शहादत पाने वाले गोरखा सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। इस शहीद स्मारक के चारों ओर सुन्दर बगीचा बना है।

दार्जिलिंग में फिल्माई हिंदी फ़िल्में
दार्जिलिंग में फिल्माई हिंदी फ़िल्में

बतासिया घेरा हिमालय की कंचनजंगा पर्वतमाला के अवलोकन हेतु सर्वोत्तम स्थान है, बशर्ते आसमान साफ़ हो।

यहाँ लगे एक सूचना फलक पर उन सभी भारतीय व विदेशी चलचित्रों की तस्वीरें लगीं हैं जिनके कई दृश्य दार्जिलिंग पर्वतीय रेल पर चित्रित किये गए हैं।

दार्जिलिंग स्टेशन

दार्जीलिंग स्टेशन के पुरानी तस्वीर
दार्जीलिंग स्टेशन के पुरानी तस्वीर

दार्जिलिंग स्टेशन भी उतना ही पुराना है जितना यह दार्जिलिंग पर्वतीय रेल परन्तु स्टेशन के मौलिक स्वरुप में समय के साथ बहुत बदलाव आया है। एक सूचना फलक पर इस रेल स्टेशन की अनेक तस्वीरें लगीं हैं जो समय के साथ इसमें आये बदलाव की कहानी कहतीं हैं।

दार्जिलिंग हिमालय रेल का नक्शा
दार्जिलिंग हिमालय रेल का नक्शा

श्वेत श्याम तस्वीरों में दिखता पुराने जमाने का स्टेशन वर्त्तमान स्वरुप से अपेक्षाकृत अधिक खूबसूरत है।

आज का दार्जिलिंग स्टेशन
आज का दार्जिलिंग स्टेशन

एक और फलक पर दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का दार्जिलिंग से न्यू जलपाईगुड़ी तक का विस्तृत मार्ग बनाया है जो सभी स्टेशनों के नाम, ऊंचाई व सिलीगुड़ी से दूरी दर्शाता है। संयोग से दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का मुख्यालय, दार्जिलिंग या सिलीगुड़ी में ना होकर, कर्सियांग में है।

घूम स्टेशन

घूम स्टेशन
घूम स्टेशन

घूम स्टेशन, दार्जिलिंग छोटी रेल का एक गंतव्य स्टेशन है। यहाँ रेल ३० मिनट रूकती है ताकि यात्री घूम स्टेशन व यहाँ स्थित एक संग्रहालय भी देख सकें। यह स्टेशन भी एक विरासती इमारत है। इसके पहिले मंजिल पर डी एच आर अर्थात् दार्जिलिंग हिमालय रेलवे संग्रहालय है। चटक पीले व लाल रंग में रंगे इस स्टेशन पर भी हिंदी चलचित्रों के कई दृश्य चित्रित किये गए हैं। इस स्टेशन को देख आपको उन सभी चलचित्रों की यादें ताज़ा हो आएगी। स्टेशन पर घूमते हुए, वाष्प इंजन की रेल को निहारते हमें ऐसा एहसास हो रहा था मानो हम स्वप्नलोक पहुँच गएँ हों। हमारे चारों ओर पहाड़, घाटियाँ, व्यस्त बाज़ार और इन्हें निहारते पर्यटक हमें किसी दूसरी दुनिया में ले गए।

“घूम स्टेशन भारत का सर्वाधिक ऊंचा रेलवे स्टेशन है।”

घूम स्टेशन की डाक पेटी
घूम स्टेशन की डाक पेटी

घूम स्टेशन पर टहलते मैं इस स्टेशन जितने पुराने डाकपेटी तक पहुंची जिसके दोनों तरफ युनेस्को द्वारा घोषित विरासत स्थल की फलक पट्टियां रखीं हुईं थीं।

अपनी सारी जिज्ञासाएं शांत कर मैं जैसे ही घूम स्टेशन की तरफ वापिस मुड़ी, मैंने देखा कि स्टेशन दो रेलगाड़ियों के बीच गर्व से खड़ा था। उस पर लिखा स्थापना दिवस “१८९१” शान से चमक रहा था।

घूम संग्रहालय

घूम सग्रहालय
घूम सग्रहालय

स्टेशन के एक कमरे में यह संग्रहालय बनाया है जो दार्जिलिंग हिमालय रेलवे की कहानी कहता है। जैसे मैदानी इलाकों से दार्जिलिंग तक पहुँचने हेतु लोगों को कैसी कैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता था और समय बर्बाद होता था। समय की बचत करने व लोगों की यात्रा सुविधाजनक बनाने हेतु कैसे इस रेलवे की संकल्पना की गयी। चूंकि इसकी पटरियां “हिल कार्ट” रस्ते के समान्तर चलती है, धीमी गति की रेल सुविधा कालांतर में कैसे द्रुत गति बसों से अपेक्षाकृत पिछड़ने लगी। कुछ फलकों पर इस रेल की तकनीकी बारीकियां भी दिखायीं गईं हैं। स्टेशन, पटरियां, घेरों व दृश्यों की सुन्दर चित्रकारियां दार्जिलिंग हिमालय रेलवे के प्रारंभिक दिवसों को सजीव करतीं हैं। अखबार के पन्ने भी रखे हैं जिन पर इस रेल व इसकी यात्रा करते प्रतिष्ठित नागरिकों पर लेख छपे थे।

रेलवे के पुराने टिकट
रेलवे के पुराने टिकट

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे के कई प्रतीकचिन्ह भी यहाँ रखे हैं। उनमें से एक सन १८७९ का था। इसका अर्थ यह है कि इस प्रतीकचिन्ह की कल्पना, १८८१ में हुए इस रेलवे की स्थापना के कई वर्ष पूर्व करी गयी थी।

“हिल कार्ट शेड अर्थात् पर्वतीय गाड़ी सड़क उन घोड़ागाड़ियों के लिए थी जो सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग के मध्य दौड़तीं थीं। अब यह सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग ५५ है।”

इस संग्रहालय में जिसने मेरा अधिकाँश ध्यान आकर्षित किया वह था, पुराने अंदाज़ का रेलवे टिकट जो गत्ते का बना और माचिस की डिबिया के आकार का था। काश इस विरासती धरोहर रेल को शोभायमान, इन्हीं टिकटों को आज भी इस्तेमाल किया जाता तो सोने पर सुहागा हो जाता।

दार्जिलिंग हिमालय रेल का विडियो

दार्जिलिंग हिमालय रेल की यात्रा के दौरान मेरे द्वारा लिया गया ३ मिनट का यह विडियो आपके लिए प्रस्तुत है-

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे से मेरी अपेक्षाएं

एक ही सड़क - रेल, पैदल और गाडी के लिए
एक ही सड़क – रेल, पैदल और गाडी के लिए

घूम स्टेशन पर लगा एक सूचना पट्ट भारत के २ अनोखे रेल अनुभव का जिक्र करता है- एक हिमालय रेल और दूसरा डेक्कन ओडिसी। मुझे ख़ुशी है कि इस यात्रा के उपरांत मेरे दोनों अनुभव संपन्न हुए। तथापि मेरी यह इच्छा है कि रेल मंत्रालय इस दार्जिलिंग हिमालय रेलवे पर और ध्यान दे ताकि सवारी के उपरांत पर्यटकों का अनुभव अविस्मरणीय हो सके।इससे सरकार द्वारा अर्जित राजस्व में भी बढ़ोतरी होगी। इसके लिए मेरे कुछ सुझाव हैं-

जैसा कि मैंने पहले कहा था, इसकी टिकटें ठीक वैसी ही हों जैसी इसके स्थापना के दौरान हुआ करतीं थीं, गत्ते की बनी माचिस की डिबिया के आकार की। इसे पर्यटक यादगार स्वरुप रख सकते हैं।

एक परिदर्शक अर्थात् गाइड जो पर्यटकों को इस हिमालय रेलवे के इतिहास की जानकारी प्रदान कर सके। एक अनुभवी कथाकार जो इस अनुभव को अपने निराले अंदाज़ में अभूतपूर्व व स्वप्निल बना सके।

दार्जिलिंग स्टेशन की स्वछता पर खास ध्यान दिया जाय। रेल यात्रा के दौरान पर्यटकों को बाहर का दृश्य स्वच्छ व सुन्दर दिखे तो उनका आनंद दुगुना हो जाएगा। यह आसान कार्य नहीं है परन्तु कहते हैं ना! जहाँ चाह वहां राह।

रेल यात्रा के दौरान यदि जलपान की व्यवस्था हो तो पर्यटकों को सहूलियत होगी। साथ ही लोगों को रोजगार भी उपलब्ध होगा। पुराने तरीके से परोसी चाय का आनंद भी कुछ और ही होगा।

दार्जिलिंग व घूम स्टेशन पर लगी दुकानें भी यदि पुराने शैली की हों तो माहौल एकसार होगा।

दार्जिलिंग हिमालय रेलवे हेतु विशेष चिन्ह व स्मारिकाएं तैयार किये जाएँ जिन्हें पर्यटक यादगार स्वरुप खरीदकर ले जा सकें| स्मारिका पुस्तिका भी प्रकाशित की जा सकती है जो इस रेलवे की सारी जानकारी दर्शाती हो।

इन्टरनेट द्वारा इस रेल में स्थान निश्चित करने सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए ताकि स्टेशन पर समय बर्बाद ना हो और पर्यटकों को निश्चिन्तता रहे।

आप लोगों के लिए इस तरह के कुछ और विश्व धरिहरों के यात्रा संस्मरण-

अजंता गुफाएं और उनकी चित्रकारी

चित्तोरगढ़ दुर्ग – राजस्थान 

तंजौर का विरत ब्रिह्दीश्वर मंदिर 

इंडोनेशिया का प्रमबनन मंदिर समूह 

लुम्बिनी का मायादेवी मंदिर 

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

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मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस – अनजानी बारीकियां https://inditales.com/hindi/chhatrapati-shivaji-terminal-mumbai/ https://inditales.com/hindi/chhatrapati-shivaji-terminal-mumbai/#respond Wed, 08 Mar 2017 02:30:55 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=167

यदि आप कभी मुंबई शहर गएँ हैं या आप मुंबई निवासी हैं तो आपने सी. एस. टी. मुंबई रलवे स्टेशन अर्थात छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई तो देखा ही होगा। कदाचित् आपने इसकी सुविधाएँ भी लीं होंगी या इस सुन्दर स्टेशन के सामने से अवश्य गुजरें होंगे। मैं यहाँ आप लोगों को इस ऐतिहासिक धरोहर की […]

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छत्रपति शिवाजी टर्मिनस
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस

यदि आप कभी मुंबई शहर गएँ हैं या आप मुंबई निवासी हैं तो आपने सी. एस. टी. मुंबई रलवे स्टेशन अर्थात छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई तो देखा ही होगा। कदाचित् आपने इसकी सुविधाएँ भी लीं होंगी या इस सुन्दर स्टेशन के सामने से अवश्य गुजरें होंगे। मैं यहाँ आप लोगों को इस ऐतिहासिक धरोहर की विशेषताओं और दिलचस्प बारीकियों से अवगत कराना चाहती हूँ। हालांकि इस रेल मार्ग के इस खूबसूरत अंतिम स्टेशन के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। अतः मैं यहाँ केवल इसकी विचित्र विशेषताओं और बारीकियों की और आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी। छोटी से छोटी जानकारी जो आप हासिल करना चाहते हैं इस स्टेशन को देखने से पूर्व!

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस भारत का प्राचीनतम व सर्वाधिक खूबसूरत रेलवे स्टेशन है। मौलिक रूप से “विक्टोरिया टर्मिनस” या वी. टी. के नाम से प्रचलित इस स्टेशन को वर्ष २००४ में युनेस्को ने विश्व विरासत स्थल घोषित किया।

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई - सड़क पार से
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई – सड़क पार से

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई की नींव तब डली जब वर्ष १८५३ में भारतीय रेल की शुरुआत हुई। इस देश की पहली रेलगाड़ी मुंबई के बोरी बंदर स्टेशन (अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) और ठाणे के बीच दौड़ी। इस स्टेशन का निर्माण १० वर्षों (व.१८७८ – १८८८) में पूर्ण हुआ।

क्या आप जानते हैं कि छत्रपति शिवाजी टर्मिनस युनेस्को की उन दो विश्व विरासत स्थलों में से एक है जो अभी भी सक्रिय उपयोग में है। इस प्रकार का दूसरा स्थल भी भारतीय रेल सेवा से सम्बंधित है। वह है भारत की पर्वतीय रेलसेवा – दार्जिलिंग हिमालय रेल।

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस संग्रहालय

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के शिल्प चित्र
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के शिल्प चित्र

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई के मुख्य द्वार पर दो विशालकाय शेर बनें हैं, जैसे वे इसके रक्षक हों। इस द्वार के दाहिनी ओर एक दालान है जहां यह संग्रहालय बनाया गया है। इसका उद्देश्य भारतीय रेल के उस इतिहास को प्रदर्शित करना है जब उसे “ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे” कहा जाता था।

रूपरेखा और बन कर कड़ी हुई ईमारत - हुबहु
रूपरेखा और बन कर कड़ी हुई ईमारत – हुबहु

यहाँ मुंबई में रेलसेवा के विकास का सफ़र एक मानचित्र द्वारा सुन्दर ढंग से दर्शाया गया है। ना केवल मुंबई रेलसेवा, अपितु मुंबई शहर की विकास यात्रा भी इस मानचित्र में देखी जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे दोनों साथ साथ विकसित हुए हैं।

मुंबई नगरी और मुंबई रेल का सफ़र - १८९३-२००९
मुंबई नगरी और मुंबई रेल का सफ़र – १८९३-२००९

इस इमारत की रूपरेखा व इसका वर्त्तमान चित्र पासपास रखे हुए हैं। ईमारत की नक्काशियों की बारीकियां इस रूपरेखा में स्पष्ट देखी जा सकतीं हैं। इन नक्काशियों व बारीकियों को हू-ब-हू ईमारत में उतारा गया है। इस इमारत के वास्तु सलाहकार फ्रेडरिक विलियम स्टीवन्स की अभिकल्पना सराहनीय है। इसके लिए उन्होंने १६.१४ लाख रुपये शुल्क रूप लिए थे। वहां मेरी नजर एक दिलचस्प पत्र पर पड़ी जहाँ स्टीवन्स ने रेल विभाग से ५ हज़ार रुपयों की अतिरिक्त शुल्क की मांग की। ध्यान दीजिये यह वर्ष १८८८ की दास्ताँ है!

GIPR के दौर के छुरी कांटे
GIPR के दौर के छुरी कांटे

यहाँ इमारत सम्बन्धित कई पत्राचार, नक्शे, रूपरेखायें, प्रतीक चिन्ह और पुरानी चाँदी के छुरी-कांटे संग्रहित किये हुए हैं।

समय-सारिणी

छात्रिपति शिवाजी टर्मिनस की समय सारिणी
छात्रिपति शिवाजी टर्मिनस की समय सारिणी

समय-सारिणी पर एक नज़र आपको उस इंसान की प्रशंसा करने पर मजबूर कर देती है जिसने इसकी रचना की। रेल समय, किराया, दूरी, स्टेशन के नाम इत्यादि रेल सम्बन्धी संपूर्ण जानकारी इस छोटे से चौकोर कागज़ के टुकड़े पर उपलब्ध है।

मुंबई पुणे के बीच दौड़ाने वाली डेक्कन क्वीन का विज्ञापन
मुंबई पुणे के बीच दौड़ाने वाली डेक्कन क्वीन का विज्ञापन

यदि आपका अनुमान है कि लोगों ने रेलसेवा को सहज ही अपनाया होगा और उन्हें किसी भी प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी तो आप अवश्य ‘डेक्कन क्वीन’ के इस विज्ञापन पर गौर फरमाईये, जो अब भी मुंबई पुणे के बीच दौड़ती है। लोगों को यह रेलसेवा लेने हेतु प्रेरित करने के लिए इसका विज्ञापन ‘बॉम्बे टाइम्स’ के पहले पृष्ठ पर छापा गया था। यहाँ तक की नियमित रूप से यात्रा करने वाले यात्रियों के पत्रव्यवहार भी ‘डेक्कन क्वीन’ तक पहुंचाए जाते थे।

भारतीय रेल को समर्पित डाक टिकट
भारतीय रेल को समर्पित डाक टिकट

तीन इंजन जिन्होंने भारत की पहली रेलगाड़ी को खींचा था, उनके नाम हैं साहिब, सिंध और सुल्तान। इंजन साहिब की प्रतिकृति इस संग्रहालय में देखने हेतु उपलब्ध है।

मुंबई और कलकत्ता के बीच चलने वाली रेल की समय सारिणी
मुंबई और कलकत्ता के बीच चलने वाली रेल की समय सारिणी

“ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे” (जी.आई.पी.आर.) के १० प्रारंभिक निदेशकों में दो भारतीयों का समावेश है-
• जगन्नाथ नाना शंकर शेट
• कर्सेटजी जमसेटजी जीजीभॉय

भारतीय रेलसेवा की स्थापना के उपलक्ष्य में कई डाक टिकटों को भी जारी किया गया था। यह सारे डाक टिकट इस संग्रहालय में प्रदर्शनार्थ रखे हुए हैं। काश लोग इन टिकटों को खरीद पाते या उनकी प्रतिलिपि उपलब्ध होती! इनका संग्रह मेरे लिए गौरव की बात होती!

बोरी-बंदर और ठाणे के बीच पहली रेलगाड़ी की गाथा

GIPR का चिन्ह
GIPR का चिन्ह

कहा जाता है कि बोरी बंदर अर्थात् छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और ठाणे के बीच दौड़ी इस पहली भारतीय रेलगाड़ी में ४०० आमंत्रित अथितियों ने सफ़र किया था। १६ अप्रैल १८५३ के दिन शुरुआत हुई इस रेल ने ३५ की. मी. की दूरी तय की थी।
१४ डब्बों वाली इस रेलगाड़ी को तीन इंजन साहिब, सिंध और सुल्तान ने खींचा था। २१ तोपों की सलामी दे कर इसे रवाना किया गया था।

आमंत्रित अथितियों का इस रेलगाड़ी के ऐतिहासिक सफ़र में भव्य स्वागत किया गया था। उनके चाय नाश्ते का खास इंतजाम भी रेलगाड़ी में ही किया गया था। हम अंदाजा लगा सकतें हैं कि इस यात्रा के लिए चुने गए अतिथी कितनी जानी मानी हस्तियाँ रहीं होंगी।

जगह की कमी के चलते इस रेलसेवा के टिकट कार्यालय की व्यवस्था कुछ समय हेतु श्री शंकर शेट के घर पर की गयी थी।

इस ऐतिहासिक यात्रा के बारे में और अधिक जानकारी इस “हिन्दू” के लेख से प्राप्त की जा सकती है।

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का सर्वश्रेष्ठ आकर्षण – सितारा कक्ष (‘स्टार चैम्बर’)

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई का सितारा कक्ष या स्टार चैम्बर
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई का सितारा कक्ष या स्टार चैम्बर

जब से मैंने ‘स्टार चैम्बर’ अर्थात् सितारा कक्ष का नाम सुना था, मैंने मन ही मन एक सितारे के आकर के कक्ष की कल्पना कर ली थी। मैंने राहत की सांस ली कि मैंने इस विषय में किसी से चर्चा नहीं की और समय रहते मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया। क्योंकि इस कक्ष की बनावट का सितारे के आकर से कोई सम्बन्ध नहीं है। अपितु इस कक्ष में रेल टिकट जारी करने हेतु कार्यालय व खिड़कियाँ हैं। यदि आपने इस स्टेशन से कभी रेल पकड़ी हो तो आपने यह कक्ष अवश्य देखा होगा। तथापि सितारे देखने हेतु अपनी गर्दन खींच कर छत निहारने की आवश्यकता है। पिस्ते हरे रंग की छत पर सुनहरे चमकते सितारे अत्यंत खूबसूरत लगते हैं। पहली मंजिल से यह मेहराबदार कक्ष बड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है। ये मेहराब इसे एक बहुत बड़े दरबार खाने का आभास करतें हैं।

पर क्या वे सब, जो यहाँ टिकट खरीदने आतें हैं, ऊपर देख इन मेहराबों की सुन्दरता को सराहतें है? या टिकट की हड़बड़ी में मस्त रहतें है!

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का प्रसिद्ध गुंबद

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का प्रसिद्द गुम्बद
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का प्रसिद्द गुम्बद

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस की ईमारत के बीचोंबीच यह ऊंचा गुंबद खड़ा हुआ है।  यहाँ मैं इस वास्तुशिल्प की महान रचना से आपका परिचय कराती हूँ।

लकड़ी का मढ़ा हुआ मौलिक द्वार
लकड़ी का मढ़ा हुआ मौलिक द्वार

गुंबद की तरफ जाती सीड़ियों के लिए जिन दरवाज़ों से हो कर गुजरना पड़ता है वह सुन्दरता का एक अप्रतिम नमूना है। खांचेदार मेहराब में फंसाया हुआ यह दरवाज़ा इतना चमकता है जैसे उसे अभी अभी चमकाया गया हो। उस पर लगी पीतल की सजावट उस दरवाज़े को एक शाही आभा प्रदान करती है। आपको यह अहसास होने लगता है जैसे आप किसी शाही दरबार में दाखिल हो रहें हों। आपका यह अहसास और मजबूत हो जाता है जब वहां राज-चिन्ह युक्त एक भव्य शेर की ऊँची मूर्ती आपका स्वागत करती है।

गुम्बद के नीचे शेर की प्रतिमा
गुम्बद के नीचे शेर की प्रतिमा

घुमावदार सीड़ियाँ

जैसे ही मैंने अपनी नज़र शेर पर से हटाई, मेरा ध्यान आकर्षित किया गुंबद के समीप स्थित घुमावदार सीड़ियों ने। ईमारत की दीवार से जुड़ी इस घुमावदार चौड़ी सीड़ियों को किसी प्रकार का अतिरिक्त आधार नहीं है। करीब ८ – १० फीट मोटी ईमारत की दीवार ने ही सीड़ियों का भार उठाया है। इतनी खूबसूरती से बनाई गयी सीड़ियाँ और उतनी ही खूबसूरत उसकी पृष्ठभूमि अर्थात् ईमारत की दीवार देखकर मैं अत्यंत प्रभावित थी। तय नहीं कर पा रही थी कि दीवार की शिल्पकारी ज्यादा खूबसूरत है या सीड़ियों की।

घुमावदार सीढियां और नक्काशीदार दीवारें
घुमावदार सीढियां और नक्काशीदार दीवारें

ईमारत की दोनों मंजिलों के बीच, दीवार पर एक झरोखा है जिस पर जालीदार नक्काशी की गयी है। ईमारत की पहली मंजिल से ऊपर की मंजिलों तक नज़र पड़ती है। गुंबद तक पहुँचने के लिए संकरी धातु की सीड़ियाँ चढ़नी पड़ती है।

घुमावदार सीढियां - छत्रपति शिवाजी टर्मिनस - मुंबई
घुमावदार सीढियां – छत्रपति शिवाजी टर्मिनस – मुंबई

उसके उपरांत एक और संकरी सीड़ी जहाँ पकड़ने के लिए कोई आधार उपलब्ध नहीं है। ऊपर पहुँच कर रंगीन कांच की कलाकारी देख आपकी सारी मेहनत वसूल हो जाती है। दुहरी परत में लगे रंगीन कांच “ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे” की कहानी कहती है। इनमें हाथी की सवारी से ले कर रेलगाड़ी के बीच का सफ़र मुख्य आकर्षण है। गुंबद के इतने समीप जा कर ही इसकी विशालता का सही अनुमान लगाया जा सकता है।

रंगीन कांच पर चित्रकारी से GIPR की कहानी
रंगीन कांच पर चित्रकारी से GIPR की कहानी

यहाँ से पिछवाड़े खड़ी ईमारत, जहाँ मध्य रेल का कार्यालय स्थित है, खूबसूरत नज़ारा पेश करता है। इतनी ऊँचाई से छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के आसपास का नज़ारा एक अलग ही परिप्रेक्ष्य में दिखाई पड़ता है।

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस रेलवे स्टेशन – बाहरी परिप्रेक्ष्य

तीन युगों का अंकन तीन मंज़िलों पर
तीन युगों का अंकन तीन मंज़िलों पर

इस ईमारत की बाहरी संरचना आलिशान और अत्यंत प्रभावशाली है। इनकी कुछ बारीकियां जो मेरे ध्यान में आईं, गौरतलब हैं।
• तीन अलग अलग स्तरों पर बनाईं गईं मेहराबें तीन अलग अलग युगों में प्रचलित वास्तुशिल्प का प्रतिनिधित्व करतीं दिखाई पड़तीं हैं।
• “ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे” के १० निदेशकों को समर्पित १० मूर्तियाँ भी इस पर बनाई गईं हैं।

जीव जंतु
जीव जंतु

• मध्यवर्ती रिक्त स्थान पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की प्रतिमा थी। इनको समर्पित ही इस ईमारत का नामकरण “विक्टोरिया टर्मिनस” किया गया था। आज़ादी के उपरांत इस मूर्ति को यहाँ से हटा दिया गया।
• व्याल्मुख प्रणाली छत्रपति शिवाजी टर्मिनस की जल प्रबंधन प्रणाली है जिसमें मूर्तिरूप जानवरों के मुख से पानी का निकास होता है। ईमारत के चारों ओर इस प्रकार अलग अलग जानवरों के मुख से पानी निकास होता देखा जा सकता है।

१६ तरह की भारतीय पगढ़ियाँ
१६ तरह की भारतीय पगढ़ियाँ

• बारीकी से देखने पर झरोखे के आधार पर एक विचित्र शिल्पकारी दिखाई पड़ी। वह है १६ अलग अलग शैलियों में बाँधी जाने वाली पगड़ियाँ दर्शाती शिल्पकारी। मेरे अनुमान से यह भारत की जनसँख्या की विविधताओं को दर्शाती है।

शौचालय की नालियाँ
शौचालय की नालियाँ

• ईमारत के कोने में स्थित शौचालय भी एक भव्य कक्ष में स्थित है। पानी की नालियों को देखने के उपरांत ही मुझे इसके अस्तित्व पर विश्वास हुआ।

भारतीय वनस्पति व जीव दर्शन

खिड़की पर नाचता मोर
खिड़की पर नाचता मोर

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई के इलाके में बहुतायत में पाए जाने वाले भारतीय वनस्पतियों व जीवों का भी दर्शन कराती है यह ईमारत! शिल्पकारी से भरपूर प्रत्येक खम्बे का बारीकी से निरिक्षण करने पर इस इलाके की जैव विविधता की जानकारी मिलती है। एक झरोखे पर मढ़ा नाचता मोर मेरा सबसे पसंदीदा शिल्प था।

स्टेशन की मुख्य ईमारत के गुंबद के ऊपर एक सफ़ेद रंग की महिला की मूर्ती है। करीब १६ फीट ऊंची इस मूर्ती को “दि लेडी ऑफ़ प्रोग्रेस” कहा जाता है। इसके बाएं हाथ में पहिया है जो प्रतीक है प्रगति का अथवा प्रगति की ओर गतिशीलता का। इसके दाहिने हाथ में जलती हुई मशाल है, ठीक “स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी” की तरह। मेरे परिदर्शक के अनुसार यह मशाल दर्शाता है कि मुंबई शहर कभी सोता नहीं। अब यह तो हम सब जानते है की रात भर जागना मुंबई की रग रग में बसा है।

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुंबई विरासत दर्शन- कुछ सुझाव

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के गुम्बद से दृश्य
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के गुम्बद से दृश्य

• छत्रपति शिवाजी टर्मिनस रेलवे स्टेशन के दर्शन हेतु परिदर्शक की सेवा लेना उपयोगी है। वह आपको इस ईमारत की ऐतिहासिक विरासत के साथ साथ संग्रहालय के बारे में भी विस्तृत जानकारी प्रदान कर सकता है।
• संग्रहालय, सप्ताहांत के आलावा, हर दिन दोपहर २ बजे से ५ बजे तक खुला रहता है। हालांकि मेरा मानना है कि सप्ताहांत में भी इसे खुला रखने पर ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसे देखने का अवसर मिलेगा। आशा है यह बदलाव जल्द ही आये।
• ऐतिहासिक विरासत दर्शन के लिए पूरा १ घंटे का समय लगता है। हालांकि गुंबद और उसके आसपास का क्षेत्र इस दर्शन के अंतर्गत नहीं आता।
• यह संस्मरण लिखते समय तक दर्शन शुल्क २०० रूपए थी। विद्यार्थियों के लिए विशेष शुल्क केवल १०० रूपए थी।

मुंबई के कुछ और विशेष दर्शनीय स्थल

हिंदी अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे

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कोंकण रेल्वे को हमेशा से आधुनिक भारत की अभियांत्रिकी की उत्कृष्ट कृति के रूप में देखा जाता है। ऐसे तटीय क्षेत्र , जो कस्बों और शहरों से आबाद है , ऐसे भू-भागों में रेल्वे लाइन बनाना कोई आसान काम नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि , कोंकण रेल्वे के ज़्यादातर स्टेशन शहरों से थोड़े […]

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कोंकण रेल्वे को हमेशा से आधुनिक भारत की अभियांत्रिकी की उत्कृष्ट कृति के रूप में देखा जाता है। ऐसे तटीय क्षेत्र , जो कस्बों और शहरों से आबाद है , ऐसे भू-भागों में रेल्वे लाइन बनाना कोई आसान काम नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि , कोंकण रेल्वे के ज़्यादातर स्टेशन शहरों से थोड़े दूर ही हैं, जिनकी तुलना में पुराने समय के स्टेशन्स आमतौर पर शहरों में ही स्थित हैं ।

कोंकण रेलवे

कोंकण रेल्वे नाज़ुक पर्वतमालाओं से तथा कम ठोस और रेतीले रास्तों से गुजरती हुई जाती है। इसके अलावा यहाँ पर विभिन्न नदियां बहती हैं जिन्हें पार करते हुए गुजरना पड़ता है।

रत्नागिरी रेलवे स्टेशन
रत्नागिरी रेलवे स्टेशन

कोंकण रेल्वे

इससे पहले भी मैं कोंकण रेल्वे में सफर कर चुकी हूँ। दरअसल , अब जब मैं गोवा में रहती हूँ तो मेरा रेल्वे का हर सफर कोंकण रेल्वे से ही होता है कम से कम इस भाग में तो। केरल की यात्रा के समय मैंने दक्षिण गोवा की यात्रा की और अहमदाबाद की यात्रा के समय उत्तर गोवा की। इस बार बरसात के दिनों में हम गणपती पूले गए और वहाँ से वापस लौटते समय कोंकण रेल्वे का मजा लूटने के लिए हम ट्रेन से लौटे। कोंकण रेल्वे की सवारी हमेशा सुंदर होती है। लेकिन बरसात के मौसम में पश्चिमी घाटी से बहने वाले झरनों का नज़ारा देखते ही आपकी सांसे थम सी जाती हैं , आँखें खुली की खुली रह जाती हैं।

रत्नागिरी रेलवे स्टेशन पे वारली चित्रांकन
रत्नागिरी रेलवे स्टेशन पे वारली चित्रांकन

हम रत्नागिरी के स्टेशन पर दोपहर के खाने के बाद पहुंचे , जहां से हमे गोवा के लिए ट्रेन पकडनी थी। वहाँ के दीवारों पे वार्ली चित्रकला की सुंदर कलाकृतियों को देखकर मेरा मन मुग्ध हो गया। वहाँ के रैम्प की जो  तिरछी दीवार है उसे गेरुआ रंग से रंग दिया गया था और उसपर सफ़ेद रंग के रूपांकनों के चित्र बनाए गए थे। थोड़ा नजदीक से देखने पर पता चला कि वहाँ के पानी वाले कूलर और खिड़कियों के चौखटों को भी सुंदर ढंग से सजाया गया था। इन कलाकृतियों पर चित्रकारों के नाम और पता भी दृष्टिगोचर होता है । कितनी अच्छी तरकीब है। स्थानीय कलाकृतियों का सार्वजनिक जगहों पर प्रयोग कर स्थानीय कारीगरों के लिए रोजगार निर्माण करना।

कोंकण रेल्वे पर जब मैं गलत ट्रेन में चढ़ी

अपनी पूरी जिंदगी में मैंने अपनी ज़्यादातर यात्राएं ट्रेन से ही की हैं। अपने छात्र दिनों में मुझे चंडीगढ़ से औरंगाबाद अपने परिवार से मिलने जाते समय विभिन्न ट्रेने बदलनी पड़ती थी लेकिन , कभी भी मैं गलत ट्रेन में नहीं चढ़ी। पर रत्नागिरी स्टेशन पर यह हुआ । मांडवी एक्सप्रेस , जो एक तरफ से उत्तर की ओर मुंबई जाती है और दूसरी तरफ से दक्षिण की ओर मडगांव जाती है। दोनों ट्रेने एक ही समय पर स्टेशन पहुंची और मैं गलती से मुंबई जानेवाली ट्रेन में चढ़ गयी।

कोंकण रेल्वे से मनोरम दृश्य
कोंकण रेल से मनोरम दृश्य

शुक्र है कोंकण रेल्वे के कर्मचारियों के मित्रता भरे व्यवहार का कि , उन्होंने हमे चिपलून स्टेशन पर उतर कर गोवा जाने वाली अगली ट्रेन पकड़ने की सलाह दी। इसका अर्थ यही हुआ कि अब 2-3 घंटे चिपलून में ही गुजारने पड़ेंगे। इसका यह भी अर्थ हुआ की हमे अपने एसी कम्पार्टमेंट के बजाय सेकंड क्लास के साधारण कम्पार्टमेंट से सफर करना होगा। लेकिन इसका एक फायदा यह हुआ कि हमे असापास के सारे नजारों का अबाधित लुत्फ उठाने का मौका मिला।

मिलने वाले झरनों की बहार

कोंकण रेल्वे की यात्रा के समय आपको अनेक झरनों की झलक मिलती है। ये झरने ज़्यादातर मौसमी होते हैं और बरसात के मौसम में बारिश पर निर्भर होते हैं। जैसे जैसे ट्रेन सुरंगों से गुजरती हुई जा रही थी , नदियों को पार करती हुई संकीर्ण पटरियों से जा रही थी , वहाँ के सारे नज़ारे देखने लायक थे। ऐसा लगा जैसे मैं सारी जिंदगी इसी ट्रेन में गुज़ार सकती हूँ।

कोंकण के मन मोहक झरने
कोंकण के मन मोहक झरने

रास्तों के दोनों तरफ की शोभा बढ़ा रहे इन झरनों ने किसी एक तरफ देखते रहना मुश्किल कर दिया था । समझ में नहीं आ रहा था कि किस तरफ देखूँ और किस तरफ नहीं। वहाँ पर व्यापक भागों में हरियाली ही हरियाली फैली हुई थी और बीच-बीच में ही पानी छितराया हुआ था। सुरंगों के भीतर जाने और सुरंगों से बाहर निकलने में बहुत मजा आ रहा था। मेरे लिए तो आश्चर्य कि बात यह थी कि सुरंगों के भीतर भी पानी टपक रहा था। एक पल के लिए मुझे लगा कि क्या इन सुरंगों से गुजरना सुरक्षित है? लेकिन इससे पहले कि में कुछ और सोच पाती , दूसरे ही पल एक और झरना मेरी आँखों के सामने था।

कोंकण क्षेत्र के सावन के झरने
कोंकण क्षेत्र के सावन के झरने

छः घंटे के विलंबित प्रवास के कारण हम आधी रात को घर पहुंचे। जैसा कि कहा जात है , हर विपत्ति में एक अवसर छिपा होता है।

 कोंकण तट का पूरा मजा लूट लेने की आपकी खुशी को दुगुना कर देती है। और झरने तो जैसे सोने पे सुहागा।

अनुवादक – रूनिता नायक

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