रेशम यात्रा Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 02 Nov 2022 12:27:23 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 बंगलुरु से मैसूर तक – कर्नाटक का रेशम पथ https://inditales.com/hindi/bengaluru-mysuru-resham-udyog/ https://inditales.com/hindi/bengaluru-mysuru-resham-udyog/#respond Wed, 22 Feb 2023 02:30:02 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2976

बंगलुरु के रेशम पथ अथवा सिल्क रूट का आरम्भ बंगलुरु के प्रसिद्ध सिल्क बोर्ड जंक्शन से होता है। जी हाँ, यह वही सिल्क बोर्ड जंक्शन है जिसे पार करने के लिए पथिकों को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह जंक्शन अब यातायात अवरोधों के लिए इतना कुप्रसिद्ध हो गया है कि इसका नाम यहाँ स्थित […]

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बंगलुरु के रेशम पथ अथवा सिल्क रूट का आरम्भ बंगलुरु के प्रसिद्ध सिल्क बोर्ड जंक्शन से होता है। जी हाँ, यह वही सिल्क बोर्ड जंक्शन है जिसे पार करने के लिए पथिकों को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह जंक्शन अब यातायात अवरोधों के लिए इतना कुप्रसिद्ध हो गया है कि इसका नाम यहाँ स्थित केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल के नाम पर सिल्क बोर्ड जंक्शन पड़ा है, यह तथ्य बहुधा लोग बिसार देते हैं।

रेशम के कोषों से बने गणपति
रेशम के कोषों से बने गणपति

अपने बंगलुरु निवास के समय, अवरुद्ध यातायात के कारण मैंने इस जंक्शन पर प्रचुर समय व्यतीत किया था किन्तु मार्ग के किनारे स्थित इस संकुल के कभी दर्शन नहीं कर पायी थी। कहावत ही है कि प्रत्येक घटना का एक निर्धारित समय होता है। अपनी इस बंगलुरु यात्रा में मैंने भारतीय सिल्क मार्क संगठन (Silk Mark Organization of India) के साथ केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल में पांच दिवस व्यतीत किये एवं उनकी गतिविधियों को समझा। बंगलुरु व कदाचित भारत के रेशम पथों को समझने के लिए सम्पूर्ण बंगलुरु नगर को खंगाला।

बंगलुरु का रेशम मार्ग

बंगलुरु नगर ने अनेक काल से अपने अप्रतिम बाग-बगीचों, सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगों एवं नवीन लघु उद्योगों के लिए अपार लोकप्रियता अर्जित की है। साथ ही यह भारत का रेशम नगर होने की भी पात्रता रखता है। सम्पूर्ण बंगलुरु-मैसूरू गलियारा रेशम उद्योग मूल्य शृंखला के प्रमुख व्यावसायिक इकाइयों से भरा हुआ है।

हथकरघे पर रेशम की बुनाई
हथकरघे पर रेशम की बुनाई

यह यात्रा बंगलुरु नगर के केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल के खेत में सावधानीपूर्वक पाले गए रेशम कीटों से आरम्भ होकर दक्षिण बंगलुरु के उच्च स्तरीय भव्य रेशम धरोहर वस्त्रालयों में समाप्त होती है। रेशम प्रेमियों से लेकर रेशम उद्यमियों तक, इस गलियारे में सभी की अभिरुचि एवं लाभ के तत्व उपस्थित हैं। आईये, बंगलुरु नगर के इस गुप्त चित्र यवनिका के शोध पर चलते हैं।

बंगलुरु का केंद्रीय सिल्क बोर्ड

केंद्रीय सिल्क बोर्ड वह सर्वोच्च सरकारी संस्था है जो भारत को विश्व स्तरीय रेशम बाजार में अग्रणी देश बनाने के ध्येय पर कार्यरत है। बंगलुरु में अपना मुख्यालय स्थापित करना अनायास ही नहीं है। कर्णाटक भारत का अग्रणी सिल्क उत्पादक राज्य है। इसके अतिरिक्त, अधिकतर रेशम समूह बंगलुरु एवं मैसूरू के मध्य स्थित हैं जबकि मैसूरू सिल्क की प्रसिद्धि के कारण हम बहुधा रेशम का सम्बन्ध केवल मैसूरू से जोड़ देते हैं।

रेशम से बने जूते, मोज़े और दुशाले
रेशम से बने जूते, मोज़े और दुशाले

केंद्रीय सिल्क बोर्ड के अनेक उपविभाग हैं जो इस क्षेत्र के अनुसंधान एवं विकास की ओर अग्रसर हैं। एक ओर वे रेशम कृषकों, सूतकारों एवं बुनकरों की उत्पादकता एवं उत्पादन में वृद्धि करने के लिए नवीन उपायों पर  शोध करते हैं तो दूसरी ओर रेशम के नवीन उत्पादनों पर भी अनुसंधान करते हैं, जैसे डेनिम रेशम अथवा रेशम मोजे इत्यादि।

राष्ट्रीय रेशमकीट बीज संस्था रेशम कीट प्रजनन केन्द्रों का नियंत्रण करती है एवं किसानों को उनकी सुविधाएं उपलब्ध करती है। उत्तम स्तर के रेशम कोषों के उत्पादन एवं संरक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने में मुझे दो घंटों से अधिक समय लग गया।

विभिन्न तकनीकियां

केंद्रीय सिल्क बोर्ड संकुल में मैंने अनेक सम्बंधित तकनीकों के विषय में जाना, जैसे रेशमी वस्त्रों को सुगंधित करना, तेल अथवा जल से वस्त्रों का रक्षण करना इत्यादि। यहाँ रेशमी वस्त्रों के डेनिम रेशम तथा वोयड रेशम जैसे विभिन्न नवीन प्रकारों पर शोध किये जा रहे हैं।

टसर रेशम से बने जूते, रेशमी वस्त्र पर जरदोजी द्वारा पारिवारिक चित्र बुनना, कोमल व मृदु एरी रेशम द्वारा हल्के वजन के उपवस्त्र (शाल) बनाना आदि तकनीकों को उन्होंने अपने उत्पाद विकास सुविधाओं के अंतर्गत प्रदर्शित किया है। टसर कोष की डंठल द्वारा बुना गया वस्त्र मुझे अत्यंत भाया जिसे पेडंकल कहते हैं। गहन भूरे रंग के इस वस्त्र पर अपनी पृथक चमक होती है। घरेलू साज-सज्जा हेतु एवं शिशुओं के लिए भी भिन्न भिन्न रेशमी वस्त्रों पर अनुसंधान किया जा रहा है।

क्या आप जानते हैं, International Sericulture Commission, एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय सरकारी संगठन है, जो रेशम उत्पादन एवं रेशम के विश्व स्तरीय विकास पर कार्य कर रहा है तथा इसका मुख्यालय भी बंगलुरु में है। ये एक निश्चित प्रमाण है कि रेशम जगत में भारत विश्व का नेतृत्व कर रहा है।

भारतीय सिल्क मार्क संगठन भी इस ओर सक्रियता से कार्य कर रहा है कि जो रेशम हम क्रय कर रहे हैं, वह पूर्णतः सत्यापित है। वे तकनीकी विकास की ओर अनवरत अग्रसर हैं ताकि हमें शुद्धतम रेशम उपलब्ध हो सके तथा मूल्य भी सीमित हो सके। सिल्क मार्क संगठन द्वारा हम उपभोक्ताओं के लिए क्या क्या सुनिश्चित किया जाता है, इसके विषय में किसी अन्य संस्करण में चर्चा करेंगे।

अवश्य पढ़ें: भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार

रामनगर रेशम-कोष बाजार

क्या आपको चित्रपट शोले का विशाल चट्टानों से भरा वह गाँव स्मरण है जहां गब्बर सिंह रहता था? जी हाँ, यह वही रामनगर गाँव है जहां एशिया का विशालतम रेशम-कोष बाजार है। रामनगर को भारत का रेशमनगर कहना अतिशयोक्ति नहीं है। बंगलुरु से मैसूरू की ओर जाते हुए, बंगलुरु से लगभग 50 किलोमीटर दूर यह गाँव स्थित है जो अब कर्णाटक का एक जिला भी है।

रामनगर की रेशम कोष मंडी
रामनगर की रेशम कोष मंडी

ना केवल राज्य भर के रेशम उद्यमी अपितु तमिलनाडू व महाराष्ट्र जैसे पड़ोसी राज्यों के किसान भी यहाँ आकर अपने रेशम-कोषों का विक्रय करते हैं। कर्णाटक राज्य सरकार द्वारा संचालित इस बाजार में ४०,००० से ५०,००० किलोग्राम रेशम-कोषों की नीलामी प्रतिदिन की जाती है। प्रतिदिन प्रातः बाजार के विशाल कक्षों के भीतर रेशम-कोषों से भरे धातुई थालों को रखा जाता है।

उनमें से श्वेत कोष द्विवर्षप्रज है अर्थात् प्रति वर्ष उनके दो प्रजनन चक्र होते हैं। उसी प्रकार किंचित पीतवर्ण कोष बहुवर्षप्रज हैं अर्थात् एक वर्ष में उनके अनेक प्रजनन चक्र होते हैं। वे दोनों मलबरी रेशम के ही प्रकार हैं। रेशम के विभिन्न प्रकारों में मलबरी रेशम का योगदान सर्वाधिक होता है। प्रत्येक थाल पर विक्रेता एवं उत्पादन सम्बन्धी जानकारी अंकित होती है। इनके क्रेता वो सूतकार होते हैं जो इन कोषों से रेशम के धागे बनाते हैं।

रेशम-कोषों की नीलामी –  जीवंत ई-विक्री

प्रतिदिन नीलामी के कम से कम तीन चक्र होते हैं। मुझे नीलामी के नवीन तकनीकों ने आकर्षित एवं अत्यंत प्रभावित किया। वहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर कंप्यूटर द्वारा ई-नीलामी की जा रही थी। प्रत्येक क्रेता के मोबाइल अथवा टेबलेट पर ई-नीलामी का ऐप होता है। वह प्रत्येक थाल में रखे कोषों की गुणवत्ता का अपने वर्षों के अनुभव द्वारा परिक्षण करता है। अपनी मांग के अनुसार वह थाल क्रमांक पर बोली लगाता है।

रेशम कोषों की इ-नीलामी
रेशम कोषों की इ-नीलामी

विभिन्न उत्पाद क्रमांकों के जीवंत मूल्य बड़े बड़े कंप्यूटर पटलों पर प्रदर्शित किये जाते हैं जो रेशम मंडी में अनेक स्थानों पर लगे हैं। ये मूल्य विक्रय मांग के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। क्रेता अपने ऐप पर देख सकता है कि उसकी बोली सर्वोच्च है अथवा किसी ने उससे अधिक बोली लगाई है। यह बोली एवं नीलामी ३०- ६० मिनटों तक चलती है जिसके अंत में कोषों को तौलकर क्रेता को भेजा जाता है।

मुझे यहाँ एक अनोखी परंपरा देखने मिली। कुछ किसान अपने प्रिय थालों में कुछ कोष पीछे छोड़ देते हैं अथवा कुछ कोषों को एक छोटी थैली में बांधकर अपने पैर पर बांधते हैं। वे उन थालों को अपने व्यापार के लिए शुभकारी तथा अच्छा मूल्य प्राप्त कराने में सहायक मानते हैं। कुछ लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे थालों को पूर्णतः रिक्त करना अशुभ मानते हैं। परम्पराएं हमारे जीवन के सभी आयामों को प्रभावित करती हैं।

रामनगर के रेशम-कोष बाजार के बाहर अनेक दुकानें हैं जहां रेशम-कीट कृषकों एवं सूतकारों की आवश्यकता अनुसार सभी वस्तुएं एवं सुविधाएं उपलब्ध हैं। वे रेशम उद्योग के परितंत्र को पूर्ण करते हैं।

रामनगर में सूतकारी

रामगर की गलियों में आप सूत कातने के स्वचलित यंत्रों से प्रस्फुटित ध्वनि सुन सकते हैं। रेशम-कीट रेशों को चिपचिपे पदार्थ द्वारा बांधकर कोष बनाते हैं। इन कोषों को इस चिपचिपे पदार्थ से छुड़ाने के लिए उन्हें जल में उबाला जाता है। तत्पश्चात इन स्वचलित यंत्रों द्वारा एक अखंड सूत काता जाता है। इस सूत को अनेक शीत एवं उष्ण प्रक्रियाओं को पार करना पड़ता है। तत्पश्चात उन्हें अटेरन अथवा चरखियों पर लपेटा जाता है। तत्पश्चात उन्हें श्वेतीकरण कर एवं विभिन्न रंगों में रंग कर बुनाई के लिए बुनकरों के पास भेजा जाता है।

रेशम की सूतकारी
रेशम की सूतकारी

रेशम कोषों से सूत निकालने के पश्चात मृत रेशम-कीटों से तेल निकला जाता है। तत्पश्चात उनके अवशेषों को मवेशियों तथा मछलियों को खिलाया जाता है क्योंकि इनमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन होते हैं।

मैं जहां भी गयी, मुझे यही कहा गया कि रेशम एक शून्य-अपशिष्ट उद्योग है जहां कुछ भी व्यर्थ नहीं होता है। इस पर किसी अन्य दिवस चर्चा करेंगे।

गोटिगेरे/येलहंका – बंगलुरु में रेशम बुनकरों के समूह

कुछ वर्ष पूर्व अनायास ही मेरी भेंट येलहंका के रेशम बुनकरों से हुई थी। उन पर लिखा मेरा संस्करण मेरे पाठकों में अब तक लोकप्रिय है। उस समय तक मेरा यह अनुमान था कि रेशम बुनकरों का समूह केवल यहीं है। यह मेरी अनभिज्ञता थी। मेरी इस यात्रा में मैंने जाना कि बंगलुरु नगर में छोटे बुनकरों के अनेक ऐसे समूह हैं। उनमें से अनेक अब गोटिगेरे नामक स्थान पर स्थानांतरित हो गए हैं जो बन्नेरघट्टा राष्ट्रीय उद्यान के निकट है।

रेशमी बुनाई की रूपरेखा संगणक पर
रेशमी बुनाई की रूपरेखा संगणक पर

गोटिगेरे में प्रवेश करते ही चारों ओर से हथकरघों की लयबद्ध ध्वनी सुनाई देने लगती है। विद्युत्-चलित करघों की स्थाई ध्वनि होती है जबकि हथकरघों का स्वयं का मंद-गति संगीत होता है। मैंने कांचीपुरम, वाराणसी, पोचमपल्ली, पाटन तथा बिश्नुपुर जैसे अनेक स्थानों पर विद्युत्-चलित करघे एवं हथकरघे दोनों देखे थे। किन्तु गोटिगेरे में ही मैंने हस्त-चलित एवं विद्युत्-चलित बुनकर यंत्रों द्वारा बुनी गयी आकृतियों (Jacquard) के मध्य का अंतर समझा था।

सामान्य ज्ञान – जमशेटजी टाटा ने १८९६ में बंगलोर में टाटा रेशम उद्योग की स्थापना की थी।

पंच कार्ड
पंच कार्ड

जैकार्ड (Jacquard) वे आकृतियाँ होती हैं जिन्हें रेशमी वस्त्रों में बुना जाता है, जैसे सुन्दर किनारियाँ, बूटियाँ एवं पल्लू। पारंपरिक रूप से इन आकृतियों के अनुसार गत्ते के पत्रकों पर छिद्र बनाए जाते हैं जिन्हें पंच कार्ड अथवा छिद्र पत्रक कहते हैं। वर्त्तमान के तकनीकी जीवन शैली के चलते अब यह कार्य संगणकों द्वारा किया जाता है। संगणकों पर आकृतियाँ बनाना आसान हो गया है तथा उनमें विभिन्न परिवर्तन करना भी कठिन नहीं होता है। आकृतियों के अनुसार स्वचलित यन्त्र गत्ते के पत्रकों पर छिद्र बनाते हैं। इन पत्रकों का प्रयोग दीर्घ काल तक किया जा सकता है।

इलेक्ट्रोनिक जैकार्ड

इलेक्ट्रोनिक जैकार्ड स्वचालित यंत्रणा को एक उच्च आयाम प्रदान करते हैं। इस यंत्रणा में छिद्रक पत्रकों की आवश्यकता नहीं होती है। जैकार्ड यंत्र उपभोक्ता के आवश्यकतानुसार आकृतियाँ बनाने में सक्षम होता है। यह उन आकृतियों के लिए सर्वोत्तम है जो विशिष्ट होते हैं तथा उन्हें पुनः पुनः नहीं बनाया जाता। इसकी लागत हस्त जैकार्ड की तुलना में किंचित अधिक होती है। किन्तु मेरा विश्वास है कि जैसे जैसे मात्रा में वृद्धि होगी, इसकी लागत भी घटती जायेगी।

बेंगलुरु के गोटिगेरे में हथकरघे बन रेशम बुनाई
बेंगलुरु के गोटिगेरे में हथकरघे बन रेशम बुनाई

यद्यपि अनेक रेशम बुनकरों ने स्वचलित करघों को अपना लिया है तथापि आप अब भी अनेक हथकरघे बुनकरों को करघों के भीतर पैर डालकर रेशम के वस्त्र बुनते देख सकते हैं। बुनाई के समय लम्बाई की दिशा में फैलाये हुए सूत को ताना कहते हैं तथा चौड़ाई लम्बाई की दिशा में बुने जाने वाले सूत को बाना कहते हैं। बाने के सूत को आकृतियों के अनुसार ताने के मध्य से पिरोया जाता है। इस प्रकार इन दोनों के समागम द्वारा वस्त्र की बुनाई की जाती है।

हमारे जीवन में भी इसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों एवं संयोगों के संगम से हमारा जीवन पूर्ण होता है। हमारे जीवन में बुनकर की भूमिका उस सर्वोच्च शक्तिमान तत्व की है जिसे हम अनेक नामों से पुकारते हैं। इसमें आश्चर्य नहीं है कि कबीर जैसे कवियों ने करघे के माध्यम से हमें जीवन का बहुमूल्य पाठ पढ़ाया है।

अवश्य पढ़ें: भारत की रेशमी साड़ियाँ – कला एवं धरोहर का अद्भुत संगम

गोटिगेरे का स्वयं का एक परितंत्र है जिसके माध्यम से उसे रेशमी धागों का कच्चा माल प्राप्त होता है। उन धागों को वे अप्रतिम साड़ियों एवं वस्त्रों में परिवर्तित करते हैं जो दुकानों में पहुंचकर हमें रिझाते हैं। इसमें असंख्य प्रकार के सूत, रंग, तकनीक, यंत्र, अभियांत्रिकी तथा दक्ष कारीगरों के परिश्रम का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

बेंगलुरु रेशम बुनाई का चलचित्र

जीवंत वस्त्रों का विमोर संग्रहालय (Vimor Museum of Living Textiles)

हमारी वस्त्र संबंधी पुरातन धरोहर को संग्रहालयों एवं अनुभवी संरक्षण केन्द्रों में संजो कर रखने की आवश्यकता है। मैंने तब तक केवल अहमदाबाद का कैलिको संग्रहालय एवं दिल्ली का आनंदग्राम वस्त्र संग्रहालय ही देखा था। इन दोनों संग्रहालयों में वस्त्रों की हमारी धरोहर को सर्वोत्तम रीति से प्रदर्शित किया गया है। इसी कारण, बंगलुरु के हृदय स्थल में स्थित जीवंत वस्त्रों के विमोर संग्रहालय को देख मुझे अत्यंत आनंद आया था।

विमोर संग्रहालय बेंगलुरु
विमोर संग्रहालय बेंगलुरु

श्रीमती पवित्र मुद्दैय्या जी अपनी माताजी चिमी नन्जप्पा जी से साथ इस संग्रहालय का प्रबंधन कार्य देख रही हैं जो उनके सुन्दर लाल ईंटों से निर्मित सुन्दर निवास के प्रथम तल पर स्थित है। इस संग्रहालय में उन्होंने सम्पूर्ण भारत के विभिन्न बुनकरों एवं आकृतियों का प्रदर्शन करने का सफल प्रयत्न किया है। उनमें उनके स्वयं के द्वारा रचित एवं निर्मित आकृतियाँ भी हैं।

अपनी आगामी बंगलुरु यात्रा में इस संग्रहालय का अवलोकन करना ना भूलें।

रेशम उत्पादन उद्यमियों की नवीन पीढ़ी

बंगलोर में आयें एवं ऐसी अग्रणी तकनीक का अवलोकन ना करें, यह सही नहीं है। यहाँ रेशामंडी जैसे अनेक नवीन लघु उद्यमी हैं जो रेशम उद्योग के लिए सम्पूर्ण प्रोद्योगिकी मंच का विकास करते हैं। ये मंच रेशम उद्यमियों के लिए उनकी कार्यप्रणालियों को निर्बाध रूप से पूर्ण करने में सहायक अनेक नवीन तकनीकों का अनुसन्धान करते हैं। कुशल प्रचालन तंत्र एवं आंकड़ों के विश्लेषण व अंतर्दृष्टि द्वारा उनकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने में सहायता करते हैं।

गंडभेरुंड - कर्णाटक का राज्य चिन्ह रेशमी बुनाई में
गंडभेरुंड – कर्णाटक का राज्य चिन्ह रेशमी बुनाई में

इन्हें हम कृषी प्रोद्योगिकी संबंधी उद्यमों का आरंभिक चरण कह सकते हैं जो २१वीं सदी के भारत में सिल्क उद्योग के महत्वपूर्ण ताना-बाना हैं।

जयनगर रेशम पथ

बंगलुरु नगर के व्यवसायिक जिला जयनगर में भ्रमण करते हुए मैंने अनेक पारंपरिक दुकानें, विशाल एम्पोरियम तथा अंगदी हेरिटेज जैसे विशिष्ट बहुतलीय स्टोर देखे। अंगदी हेरिटेज में किसी संग्रहालय के समान पुरातन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया है। मैंने यह अनुभव किया कि आज के उपभोक्ताओं का रुझान पारंपरिक दुकानों से दूर होते हुए इन भव्य विशाल बहुतलीय स्टोर्स की ओर अधिक झुक रहा है।

जयनगर ५वां खंड में इतनी बड़ी संख्या में रेशमी वस्त्रों की विशाल दुकानें हैं कि उसे बंगलुरु का रेशम पथ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। बंगलुरु के सिल्क रूट का अंत भी यहीं होता है। सम्पूर्ण मूल्य श्रंखला की परिणति भी यही आकर होती है जब आप एवं हम यहाँ से रेशमी साड़ियों, दुपट्टों अथवा वस्त्रों का क्रय करते हैं। जब आप एवं हम रेशमी साड़ियाँ व वस्त्र धारण कर अपने तीज-त्यौहार मनाते हैं तब उनके उद्देश्य भी पूर्ण होते हैं।

यह संस्करण भारतीय सिल्क मार्क संगठन (Silk Mark Organization of India) के सहकार्य से लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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सोना रूपा कलाबत्तू – वाराणसी की लोकप्रिय ज़री बुनाई https://inditales.com/hindi/zari-sona-rupa-kalavastra-varanasi/ https://inditales.com/hindi/zari-sona-rupa-kalavastra-varanasi/#comments Wed, 14 Dec 2022 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2890

रेशमी साड़ियाँ स्त्रियों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनकी कोमलता, सौम्य कांति तथा विविधता सदियों से स्त्रियों को आकर्षित करती रही हैं। उन पर किया गया ज़री का काम उनकी शोभा को द्विगुणीत कर देता है और इन साड़ियों को अधिक मूल्यवान बना देती  है। सुनहरी एवं रुपहली बुनकरी साड़ियों की प्राकृतिक शोभा में भव्यता का […]

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रेशमी साड़ियाँ स्त्रियों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनकी कोमलता, सौम्य कांति तथा विविधता सदियों से स्त्रियों को आकर्षित करती रही हैं। उन पर किया गया ज़री का काम उनकी शोभा को द्विगुणीत कर देता है और इन साड़ियों को अधिक मूल्यवान बना देती  है। सुनहरी एवं रुपहली बुनकरी साड़ियों की प्राकृतिक शोभा में भव्यता का एक नवीन आयाम जोड़ देती हैं।

ज़री से भरी बाँधनी साडी
ज़री से भरी बाँधनी साडी

प्राचीन काल में सुनहरी एवं रुपहली ज़री शुद्ध सोने एवं चाँदी धातु से निर्मित तंतुओं द्वारा तैयार की जाती थीं जिससे ज़री को सोने से सुनहरा तथा चाँदी से श्वेत सा रंग प्राप्त होता है। अतः काल के साथ साड़ियाँ जीर्ण होने के पश्चात भी उनमें उपस्थित सोने एवं चाँदी मौल्यवान रहते थे। कांचीपुरम जैसे नगरों में अनेक साड़ी भण्डार ऐसी पुरानी साड़ियाँ क्रय करते हैं ताकि उनमें से सोना अथवा चाँदी पुनः प्राप्त कर सकें।

काल के साथ सोने एवं चाँदी के मूल्यों में इतनी वृद्धि हो गयी है कि शुद्ध सोने अथवा चाँदी की ज़री अधिकतर ग्राहकों की पहुँच से बाहर हो गयी है। अतः साड़ियों की शोभा एवं अलंकरण से समझौता ना हो तथा साड़ियों की सुनहरी एवं रुपहली ज़री में उसी प्रकार की कान्ति प्राप्त हो, इस उद्देश्य से अन्य धातुओं पर अनेक शोध कार्य किये गए जिनके मूल्य अधिक नहीं हैं। इसमें ताम्बे के तंतुओं पर चाँदी का लेप लगाना अथवा सोने की परत चढ़ाना, सूती घागे पर चाँदी के महीन तंतु को लपेटना आदि सम्मिलित हैं। अब अनेक प्रकार के कृत्रिम ज़री का भी प्रयोग होने लगा है। उस प्रकार की साड़ियों का अपना भिन्न ग्राहक समूह है।

आईये मैं आपको असली ज़री की कार्यशाला में ले जाती हूँ जहां चाँदी द्वारा महीन केश-सदृश तंतु तैयार किये जाते हैं तथा उन्हें कोमल रेशमी वस्त्रों में बुना जाता है।

सोना-रूपा (सुनहरी एवं रुपहली ज़री)

पारंपरिक रूप से बुनकरों की भाषा में सोने की ज़री को सोना तथा चाँदी वाली को रूपा कहते हैं। वस्तुतः, भारत के अनेक क्षेत्रीय भाषा में चाँदी को रूपा ही कहा जाता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘रौप्य’ से हुई है जिसका अर्थ चाँदी होता है। इसी से हमारी भारतीय मुद्रा को रुपैय्या या रूपया नाम प्राप्त हुआ है। दूसरी ओर, ज़री शब्द की व्युत्पत्ति पारसी शब्द ज़र से हुई है जिसका अर्थ है सोना।  भारत में पारंपरिक रूप से इसे कलाबत्तू या कलाबस्त्र कहा जाता था, किन्तु इस नाम का प्रयोग अब क्वचित ही होता है।

सोना रूपा या ज़री
सोना रूपा या ज़री

सुनहरी एवं रुपहली, दोनों प्रकार की ज़री में प्राथमिक सामग्री चाँदी ही है। सोने की ज़री बनाते समय चाँदी के तंतु पर सोने के पानी चढ़ाया जाता है।

पुरातन काल में कारीगर चाँदी की ज़री को हल्दी के गर्म जल में डुबोकर रखते थे जिससे चाँदी के तंतु हल्दी के प्राकृतिक पीले रंग को सोख लेते थे। कुछ समय पश्चात वे सोने की ज़री का आभास देते थे। इस प्रकार की ‘हल्दी’ ज़री प्राकृतिक होने के पश्चात भी स्थाई नहीं होती थी। कुछ समय पश्चात पीला रंग धूमिल होने लगता था।

शनैः शनैः आधुनिक विद्युतलेपन तकनीक (electroplating techniques) ने वाराणसी जैसे पारंपरिक रेशम समूहों की गलियों में प्रवेश करना आरम्भ किया। वर्तमान में सुनहरी ज़री बनाने के लिए इस तकनीक का विपुलता से प्रयोग किया जाता है। सोने के चढ़ते भाव के कारण शुद्ध सुनहरे रंग की ज़री का प्रयोग शीघ्रता से घट रहा है। वर्तमान में सुनहरी ज़री रोगन तकनीक द्वारा निर्मित की जा रही है। इसमें सोने की ज़री का आभास देने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह सोने जैसा प्रतीत होता है किन्तु यथार्थ में सोना नहीं होता है। वर्तमान में रसायनों का प्रयोग सुनहरे रंग की चमक में भिन्नता लाने के लिए भी किया जाता है जिसके द्वारा इसे उज्वल चमकीले रंग से मंद चमकरहित रंग तक परिवर्तित किया जा सकता है।

ज़री के विभिन्न प्रकार

वर्तमान में सर्वाधिक शुद्ध ज़री केवल चाँदी में ही बनाई जाती है। उसका मूल्य भी उसके अनुसार ही होता है।

दूसरे प्रकार की ज़री में ताम्बे के तंतु पर चाँदी की परत होती है। अतः आप जो देखते हैं तथा जो आपकी त्वचा अनुभव करती है, वह चाँदी है किन्तु उसके भीतर वास्तव में ताम्बा होता है।

तीसरे प्रकार की ज़री में रेशम अथवा सूती धागे पर चाँदी का वर्क होता है जिसे बादला कहते हैं।

अंत में, कृत्रिम ज़री होती है जिसे रसायन, राल, प्लास्टिक आदि के प्रयोग से निर्मित किया जाता है।

शुद्ध ज़री एवं अन्य प्रकार की ज़री के मूल्यों में दस से बारह गुना अंतर होता है। शुद्ध ज़री का मूल्य उस समय प्रचलित चाँदी के दर पर निर्भर करता है।

और पढ़ें: भारत की रेशमी साड़ियाँ – कला एवं धरोहर का अद्भुत संगम

तकनीकी रूप से ज़री का स्थूल वर्गीकरण इस प्रकार किया जाता है:

  • शुद्ध ज़री कसब – चाँदी, ताम्बा, सोना, रेशम/सूती
  • कृत्रिम ज़री कसब – तम्बा/पीतल, चाँदी( सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ), विस्कोस/ पॉलिएस्टर/ सूती/ रेशम तथा मुलम्मा चढ़ाना( सोना /रसायन)
  • धातुई ज़री कसब – सुनहरी पीली धातुई चादर से तंतु अथवा धागे खींचे जाते हैं जिनका अन्तर्भाग पॉलिएस्टर/विस्कोस/नायलॉन/सूती होता है।
  • कढ़ाई करने के लिए असली ज़री के उत्पाद – जरदोजी जिसमें सीधे चाँदी के तंतु अथवा शुद्ध सोने का मुलम्मा चढ़े चाँदी के तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्भाग में अन्य कोई धागा नहीं होता है।
  • कढ़ाई करने के लिए कृत्रिम ज़री के उत्पाद – जरदोजी जिसमें ताम्बे पर चाँदी तथा अन्य रसायन का मुलम्मा चढ़ाया जाता है।
  • कढ़ाई करने के लिए धातुई ज़री के उत्पाद – जरदोजी अथवा सुनहरी पीली धातुई चादर से खिंचे तंतु

एक साड़ी में कितना ज़री प्रयुक्त होता है?

एक रेशमी साड़ी में कुछ ग्राम से ले कर एक किलोग्राम से भी अधिक ज़री का प्रयोग किया जा सकता है। सुनहरी अथवा रुपहली बूटियों से भरी तथा भारी जालीदार जरी वाली साड़ियों में १२०० ग्राम ज़री तक का प्रयोग होता है। इसमें कदापि आश्चर्य नहीं है कि ऐसी साड़ियों को ‘भारी साड़ियाँ’ कहते हैं।

शुद्ध ज़री का प्रयोग अधिकांशतः हथकरघे में बुनी साड़ियों में होता है। बिजली चालित करघे अधिकतर ‘फेकुआ’ तकनीक का प्रयोग करते हैं जिसमें ताने से लगे बाने के धागों का बड़ी मात्रा में अपव्यय होता है। अतः शुद्ध ज़री का प्रयोग बिजली चालित करघों में नहीं किया जाता है।

प्लास्टिक द्वारा निर्मित सस्ते कृत्रिम ज़री के विभिन्न प्रकारों के अविष्कारों के पश्चात वाराणसी जैसे ज़री निर्माताओं के समूहों में भरी कटौती हुई है। वर्तमान में कुछ गिने-चुने जरी निर्माता बच गए हैं जो काशी एवं कांचीपुरम जैसे रेशम समूहों में अब भी ज़री का उत्पादन करते हैं। वर्तमान में अधिकाँश ज़री ज्ञ्जारत के सूरत नगर से आती है।

शुद्ध एवं कृत्रिम ज़री के मूल्यों में निहित विशाल भिन्नता के कारण इन दोनों के विभिन्न ग्राहक समूह हैं। इसके कारण ज़री के दोनों प्रकारों का सह-अस्तित्व बना रहेगा। शुद्ध जरी युक्त रेशम की साड़ियों को क्रय कर पाना सभी स्तर के लोगों के लिए संभव नहीं है। कम से कम सभी साड़ियाँ शुद्ध ज़री की रखना तो अधिकाँश के लिए कदापि संभव नहीं है। साथ ही ऐसे भी पारखी ग्राहक अवश्य हैं जिन्हें शुद्ध जरी की जानकारी भी है तथा वे शुद्ध ज़री द्वारा निर्मित वस्त्र क्रय करने की अभिलाषा भी रखते हैं। अतः शुद्ध ज़री की मांग बनी रहती है। ऐसे पारखी शुद्ध ज़री के उद्योग को सदा संरक्षण देते रहेंगे।

और पढ़ें: भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार – एक परिचय

चाँदी पर विभिन्न प्रक्रियाएं

यदि ज़री उत्पादन प्रक्रिया पर दृष्टि डाली जाए तो इसका आरम्भ शुद्ध चाँदी के ठोस पिंड से होता है जिसे निर्माता धातु बाजार से क्रय करते हैं। इस ठोस पिंड को व्यापारी ‘चाँदी की बटिया’ कहते हैं। इस ठोस पिंड पर अनेक प्रक्रियाएं की जाती हैं तथा उसे ०.३ मिलीमीटर व्यास के तंतु तक बेला जाता है। यद्यपि ये प्रक्रियाएं सरल है, तथापि इन्हें अनेक चरणों में किया जाता है।

चाँदी की बटिया, पासा और तार
चाँदी की बटिया, पासा और तार

प्रथम चरण में चाँदी की बटिया को पिघला कर उसमें किंचित मात्रा में ताम्बा मिलाया जाता है, ताकि उसका लचीलापन कम हो जाए, क्योंकि चाँदी स्वभाव से अत्यंत लचीली होती है। तत्पश्चात उसे लम्बी छड़ के रूप में ढाला जाता है जिसका अनुप्रस्थ काट आयताकार होता है। चाँदी की इस लम्बी छड़ को अग्नि की भट्टियों के ऊपर से ले जाते हुए खींच कर पतला किया जाता है। यह प्रक्रिया अनेक बार दोहराते हुए अंततः उसे ३० मिलीमीटर मोटाई तक लाया जाता है। इस अवस्था में यह ‘पासा’ कहलाता है। जैसे ही इसकी मोटाई कम होती है, उसे अटेरन पर लपेटा जाता है। उस अटेरन को गुछली कहते हैं जो ठीक वैसी ही होती है जैसी कच्चे धागे अथवा ऊन की अटेरन होती है।

भिन्न भिन्न मोटाई का बारा चाँदी की महीन तार खींचने के लिए
भिन्न भिन्न मोटाई का बारा चाँदी की महीन तार खींचने के लिए

एक धातुई सांचे के गोलाकार छिद्र में पासा को पिरोया जाता है। इस सांचे को ‘बारा’ कहते हैं। इस सांचे से पासा को खींचा जाता है। शनैः शनैः कम व्यास के छिद्रों से युक्त सांचों का प्रयोग किया जाता है। कम से कम २० बार इस प्रक्रिया को दोहराते हुए इसे तब तक पतला किया जाता है जब तक आवश्यकतानुसार आकार ना प्राप्त हो जाए। इस अवस्था में चाँदी के तंतु की मोटाई एक रेशम के धागे अथवा मानवी केश की मोटाई के समान हो जाती है। अब यह रेशम के साथ बुनकर विभिन्न आकृतियाँ बनाने के लिए सज्ज हो गयी है। इस तंतु को ‘तारकशी’, यह नाम दिया गया है क्योंकि यह एक अत्यंत महीन तार के समान प्रतीत होती है।

बादला

चाँदी के इस महीन तार को चपटा किया जाता है जिसे ‘बादला’ कहते हैं। इसे मूल धागे पर लपेटा जाता है जो रेशम, सूत या पॉलिएस्टर अथवा ताम्बे का तंतु हो सकता है। इसका सीधा प्रयोग अलंकरण अथवा कढ़ाई करने के धागे के रूप में भी किया जाता है। इस चाँदी का ज़री के रूप में प्रयोग करने से पूर्व इस पर कुछ रासायनिक प्रक्रियाएं भी की जाती हैं।

बादला या चपटा चाँदी का तार
बादला या चपटा चाँदी का तार

मैंने स्वयं अपने आँखों से ३२ मिलीमीटर के चाँदी की छड़ को विभिन्न सांचों को पार करते हुए ०.३ मिलीमीटर के महीन ज़री में परिवर्तित होते देखा। इन दिनों यह लगभग पूर्ण रूप से यंत्रों द्वारा की जाती है। केवल मूलभूत मानवी निरिक्षण की आवश्यकता होती है।

वाराणसी के जरी उद्योजक

वाराणसी में मैंने विमलेश मौर्याजी की कार्यशाला का अवलोकन किया था। उन्होंने मुझे बताया कि प्राचीन काल में यह सम्पूर्ण प्रक्रियाएं हाथों द्वारा की जाती थीं। कारीगर हाथों द्वारा चाँदी को पीट पीटकर पतला करते थे तथा उसे पतली पट्टियों में काटते थे। शनैः शनैः यंत्रीकरण ने पदार्पण किया। किन्तु इन यंत्रों को हाथों द्वारा ही चलाया जाता था। अब अधिकतर यन्त्र विद्युत् संचालित हो गए हैं।

चांदी के सूक्ष्म तार
चांदी के सूक्ष्म तार

ज़री उत्पादन अब भी एक कुटीर उद्योग के ही स्तर पर है जिसका संचालन ऐसे परिवार करते हैं जो पारंपरिक रूप से इसी व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। उनकी बहुतलीय हवेली एक साथ निवासस्थान, कार्यालय तथा कार्यशाला, तीनों रूपों में प्रयोग में लाई जाती है। बुनकरों के घरों से करघों की ध्सुवनि सुनाई पड़ती रहती है। किन्तु ज़री उद्योजक पीछे ही रह जाते हैं। यह तो उनके उत्पाद हैं जो साड़ियों में गर्व से अपना महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करते हैं।

उनकी आपूर्ति श्रंखला घड़ी के समान कार्य करती है। यह व्यवसाय से व्यवसाय (B2B – business to business enterprise) प्रकार का उद्यम है। वाराणसी एक रेशम बुनाई समूह है। अतः यह प्राकृतिक रूप से ज़री निर्माताओं का केंद्र बन गया है। प्राचीन काल में उन्होंने भारत के अन्य रेशम समूहों को भी माल की आपूर्ति की थी, जैसे कांचीपुरम एवं धर्मावरम आदि। यह दर्शाता है कि उस समय व्यापार मार्ग सम्पूर्ण भारत में कितने सुव्यवस्थित रूप से स्थापित थे तथा व्यापार समुदाय कितने उत्तम रीति से एक दूसरे से सम्बद्ध थे। वस्तुतः, वर्तमान में सूरत नगरी ज़री उत्पादन का विशालतम केंद्र है।

अपनी ज़री को परखिये

अपनी ज़री को परखने का सर्वोत्तम उपाय है, इसके एक टुकड़े को अग्नि में जलाना। यदि इस ज्वलन के अवशेष श्वेत भस्म हो तो ज़री शुद्ध है, अन्यथा नहीं। कृत्रिम ज़री का भस्मावशेष काले रंग का होगा। यदि यह प्लास्टिक से निर्मित हो तो वह प्लास्टिक के समान जलेगी जिसकी ज्वाला पीछे की दिशा में जाती है।

सोना रूपा को जांचने का एक अन्य मार्ग है, जैसे एक टुकड़ा लेकर उसे पत्थर पर रगड़ना। पत्थर पर उत्पन्न चमक का रंग आपको यह जानकारी प्रदान करेगा कि यह किस धातु से निर्मित है। यदि चमक कुछ लाल रंग लिए हुए हो तो  ताम्बा धातु सन्निहित है। यदि चमक श्वेत रंग की हो तो चाँदी है। कृत्रिम ज़री पत्थर पर किसी भी रंग की छाप नहीं छोड़ती है। किन्तु जांचने के ये उपाय वास्तव में पूर्णतः विश्वसनीय नहीं हैं। नकली धातु भी इसी प्रकार के परिणाम दे सकते हैं। अतः शुद्धता को जांचने के लिए सर्वोत्तम उपाय है, प्रयोगशाला परिक्षण।

ज़री उत्पादन को अब मानकीकृत कर दिया गया है। आगे आने वाले संस्करणों में हम इस विषय पर विस्तार में चर्चा करेंगे।

और पढ़ें: बेंगलुरु का रेशम मार्ग

कलाबत्तू – हमारी धरोहर

सांस्कृतिक रूप से भारत में शुद्धता का सम्बन्ध सोना एवं चाँदी से लगाया जाता है। अतः, जब उसी सोना तथा चाँदी का प्रयोग हमारे परिधानों में किया जाता है तो वह उन परिधानों पर शुद्धता की एक परत चढ़ा देता है। विशेष रूप से जब ऐसे परिधान किसी महत्वपूर्ण संस्कार अथवा जीवन के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव पर प्रयोग में लाये जाने वाले हों। झिलमिलाते रेशम पर शुद्ध चाँदी की चमचमाती ज़री सम्पन्नता की झलक बन कर उभरती है।

यदि कलाबत्तू एवं रेशम विश्वसनीय हों तो शुद्ध रेशमी साड़ियों का क्रय करते समय उनका मूल्य चुकाते हुए झिझकिये नहीं। ऐसी साड़ियों पर धन व्यय करना पूर्णतः योग्य है।

जरी अथवा कलाबत्तू की निर्मिती एवं बुनाई भारत की जीवंत धरोहर है। आइये उसे इसी प्रकार संरक्षित करने का लक्ष्य रखते हैं।

यह संस्करण Silk Mark Organization of India के सहचर्य से लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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बनारसी साड़ी – प्रत्येक भारतीय नारी का स्वप्न! लगभग सभी भारतीय नारी की अभिलाषा होती है कि उसके पास कम से कम एक बनारसी साड़ी अवश्य हो। विशेषतः उत्तर भारत में विवाह समारोहों तथा अन्य पवित्र अवसरों के लिए बनारसी साड़ियों का परिधान एक स्वाभाविक चयन हो गया है। रेशम कीटों द्वारा निर्मित रेशम के […]

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बनारसी साड़ी – प्रत्येक भारतीय नारी का स्वप्न! लगभग सभी भारतीय नारी की अभिलाषा होती है कि उसके पास कम से कम एक बनारसी साड़ी अवश्य हो। विशेषतः उत्तर भारत में विवाह समारोहों तथा अन्य पवित्र अवसरों के लिए बनारसी साड़ियों का परिधान एक स्वाभाविक चयन हो गया है। रेशम कीटों द्वारा निर्मित रेशम के अखंड तंतुओं द्वारा बुने तथा बिना सिलाई किये गए ये वस्त्र अपनी परतों में इस माटी की संस्कृति को संजोये रहते हैं। रेशमी साड़ियाँ भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने में इस प्रकार रची बसी हैं मानो दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं व एक दूसरे पर पूर्णतः निर्भर भी हैं।

लाल रंग की पारंपरिक बनारसी साड़ी
लाल रंग की पारंपरिक बनारसी साड़ी

हम में से अधिकाँश बनारसी साड़ियों को जरी की किनारी, जरी बूटियाँ एवं चटक रंगों से युक्त शुद्ध रेशमी साड़ियों से सम्बद्ध कर के देखते हैं। किन्तु सत्य यह है कि रेशमी साड़ियाँ विभिन्न प्रकार के धागों द्वारा बुनी तथा अनेक प्रकार की किनारियों  एवं बूटियों से भरी होती हैं। आईये बनारसी साड़ियों के इसी अद्भुत विश्व में मग्न हो जाते हैं।

बनारसी साड़ियों के विभिन्न प्रकार

बनारसी साड़ियों को साधारणतः तंतुओं के भिन्न भिन्न प्रकार, बुनाई के विभिन्न तकनीक तथा उन पर बुनी गयी बूटियों एवं आकृतियों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, इन तीन आयामों के असंख्य क्रमपरिवर्तन एवं संयोजन संभव हैं। अतः, आईये, रेशमी साड़ियों के विश्व में प्रवेश करते हुए सर्वप्रथम इन तीन मूल आयामों को जानने का प्रयास करते हैं।

बनारसी साड़ियों में प्रयुक्त तंतुओं एवं वस्त्रों की विभिन्न संभावनाएं

बनारसी साड़ियाँ मूलतः कोमल मलबरी रेशम के तंतुओं द्वारा बुनी जाती हैं। रेशमी साड़ियों के लिए मलबरी तंतु सर्वाधिक रूप से प्रयुक्त तथा बनारसी साड़ी उत्पादकों का प्रथम चयन होता है। भारत में इन तंतुओं का उत्पादन बंगलुरु, तमिल नाडु व कश्मीर जैसे स्थानों में किया जाता है। चीन से भी इन रेशमी तंतुओं का निर्यात किया जाता है। मलबरी रेशम के पश्चात, बनारसी साड़ियों के बुनकरों का सर्वाधिक रुचिकर व प्रयुक्त रेशम टसर रेशम है। इनके अतिरिक्त जितने भी रेशम के प्रकार हैं, उन्हें प्रायोगिक श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है।

कटान रेशम पर बुनी ११७ बूटियां, १२ बूटे अरे २ कोनिया
कटान रेशम पर बुनी ११७ बूटियां, १२ बूटे अरे २ कोनिया

यद्यपि रेशम के विभिन्न प्रकारों की आवश्यकताओं की आपूर्ती करने के लिए बुनकर सूती एवं कृत्रिम तंतुओं का भी प्रयोग करते हैं तथापि इस संस्करण में हम बनारसी साड़ियों का विश्लेषण शुद्ध रेशमी प्रकारों के चारों ओर ही केन्द्रित रखना चाहते हैं।

कतान रेशमी साड़ियाँ

बनारस की सर्वाधिक लोकप्रिय रेशमी साड़ियों में प्रथम क्रमांक कतान रेशम का है जो अपनी कोमलता एवं कान्ति के लिये प्रसिद्ध है। शुद्ध मलबरी रेशमी तंतुओं द्वारा इन्हें बुना जाता है। करघे के ताना एवं बाना, दोनों में शुद्ध मलबरी रेशमी तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। तकनीकी रूप से दुहरे व्यावर्तित शुद्ध मलबरी तंतुओं का प्रयोग किया जाता है जिसमें २८-३२ व्यावर्तन प्रति इंच (two-ply twisted yarn of Mulberry silk with 28-32 twists per inch) होते हैं।

कटान बनारसी साड़ी पर कढुआ बूटी
कटान बनारसी साड़ी पर कढुआ बूटी

यदि १६-१८ व्यावर्तन प्रति इंच का प्रयोग किया जाए तो वह रेशम सप्पे रेशम  (two-ply twisted yarn of Mulberry silk with 16 -18 twists per inch) कहलाता है।

यदि एकल व्यावर्तित शुद्ध मलबरी तंतुओं (single-ply twisted yarn) का प्रयोग किया जाए तो उन्हें फ्लेचर रेशम कहा जाता है। इन्हें ही दुहरा किया जाए तो उसे भी कतान रेशम कहा जाता है।

कोरा रेशम

कोरा रेशम एक प्रकार से कतान रेशम जैसा ही होता है। उसमें भिन्नता केवल यह होती है कि उसमें प्रयुक्त रेशम के तंतुओं से चिपचिपे गोंद को पूर्णतः पृथक नहीं किया जाता है जिसके कारण रेशम तंतु कड़क रहते हैं। इसी कारण कोरा रेशम से बने वस्त्र कतान रेशम से अपेक्षाकृत कम कोमल रहते हैं। इसे ऐसे देखा जा सकता है कि ताने एवं बाने, दोनों में कतान रेशम के कड़क धागे चढ़े हों।

इनके अतिरिक्त, टसर, मुगा तथा एरी रेशमों का भी बनारसी साड़ियों की बुनाई में उपयोग किया जाता है।

और पढ़ें: भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार

बुनाई के आधार पर बनारसी साड़ियों में भिन्नता

तनछुई साड़ियाँ

तनछुई बनारस के बुनकर उद्योग की स्वप्निल कलाकृति है। सम्पूर्ण साड़ी पर गहन एवं जटिल आकृतियाँ इन साड़ियों की विशेषता है जिसके कारण सम्पूर्ण साड़ी पर एक अनोखी कांति छा जाती है। बुनाई की इस तकनीक में एकल अथवा दुहरे ताने के साथ बाने में पांच या छः रंगों का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि तन्चोई साड़ियों में पुष्पाकृतियाँ सर्वाधिक रूप से बुनी जाती हैं, तथापि रेशमी धागों का प्रयोग कर मोर व तोतों की आकृतियों की बुनाई भी असामान्य नहीं है। सम्पूर्ण साड़ी विभिन्न रंगों एवं आकृतियों को प्रदर्शित करती एक चित्र यवनिका ही प्रतीत होती है।

तनछुई साड़ी का अग्रिम तथा पृष्ठ भाग
तनछुई साड़ी का अग्रिम तथा पृष्ठ भाग

मेरी इस वाराणसी यात्रा में मुझे एक महत्वपूर्ण जानकारी यह भी प्राप्त हुई कि तन्चोई साड़ियों के स्वयं के अनेक प्रकार होते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

समतल बुनाई में साटन तनछुई (Satan Tanchoi in Flat Weave) – इन साड़ियों के पृष्ठभाग में आपको किसी प्रकार के धागे अथवा तंतु दृष्टिगोचर नहीं होंगें।

खुली बुनाई में साटन तनछुई (Satan Tanchoi in Float Weave) – इन साड़ियों को अंतिम रूप देते हुए अतिरिक्त धागों को काटा जाता है। इसके पृष्ठभाग में बिना बुने हुए लम्बे तंतु दृष्टिगोचार होते हैं जो चूड़ियों, गहनों इत्यादि में फंस कर खिंच सकते हैं। इनसे बचने के लिए साधारणतः इन साड़ियों के पल्लू तथा किनारियों के पीछे जाली लगाई जाती है।

दो-दमा तनछुई (Do-Dama Tanchoi) – तकनीकी रूप से इसे २ ऊपर/२ नीचे खुली बुनाई कहते है। इसी कारण इसका नाम दो-दमा पड़ा है। यह एक विशेष करघे का भी नाम है।

वास्कोट तनछुई (Vascot Tanchoi) – इस साड़ी को दोनों ओर से धारण किया जा सकता है। इसकी बुनाई अत्यंत महीन एवं सूक्ष्म होती है। यद्यपि इसमें भी खुली बुनाई का प्रयोग किया जाता है तथापि खुले तंतु अत्यंत लघु होते हैं, बहुधा आधे इंच से भी कम।

तनछुई में दमपंच बुनाई (Dampanch weave in Tanchoi ) – बुनाई के इस तकनीक में रेशमी धागों का २५% भाग आकृतियों को अवरुद्ध करने में लगता है। इसके द्वारा आकृतियों की बुनाई के पश्चात यह सुनिश्चित हो जाता है कि कालांतर में धागे खुल नहीं पायेंगे। इस तकनीक का एक लाभ यह भी है कि यह आकृतियों अथवा बूटियों को समतल बनाता है। आकृतियों में अनेक तंतुओं का प्रयोग करने के पश्चात भी बूटियाँ उभरी हुई प्रतीत नहीं होती हैं।

जामदानी साड़ियाँ

जामदानी साड़ियों में प्रत्येक बूटी को पृथक पृथक रूप से छोटे छोटे शटलों (घिर्रियों) के द्वारा कसी हुई बुनाई तकनीक में बनाया जाता है। ये ऐसे प्रतीत होते हैं मानो करघे द्वारा ही उन पर महीन कढ़ाई की गयी हो। पारंपरिक रूप से जामदानी साड़ियों में एक ही रंग की विभिन्न छटाओं का प्रयोग किया जाता है। उन साड़ियों को उनके मूल रंग से जाना जाता है, जैसे श्वेत रंग की विभिन्न छटाओं से युक्त श्वेताम्बरी, नील वर्ण की छटाओं से युक्त नीलाम्बरी, लाल रंग की छटाओं से युक्त रक्ताम्बरी तथा पीले रंग की विभिन्न छटाओं से युक्त पीताम्बरी।

रंग काट साड़ी
रंग काट साड़ी

जामदानी साड़ियों का एक विशेष प्रकार है, रंग काट साड़ी, जिसमें मूल साड़ी पर १० विभिन्न रंग होते हैं तथा उन पर सुनहरी जरी के बूटे होते हैं।

जामदानी बुनाई तकनीक का एक अन्य नाम है,कढुआ।

जामावर तन्चोई साड़ियों में बड़े बड़े बूँद के आकार के बूटे होते हैं जिनका ऊपरी भाग वक्राकार होता है। उन्हें कैरी या Big Paisley patterns कहते हैं।

बेल-बूटेदार जरी वस्त्र – ब्रोकेड

बनारसी ब्रोकेड एक अत्यंत लोकप्रिय प्रकार है। इसकी विशेषता है, सुनहरी ज़री द्वारा की गयी उभरी हुई बुनाई। इसे यदा-कदा रेशमी धागों से भी किया जाता है। दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो वस्त्र पर ज़री द्वारा नक्काशी की गयी है। इसे कदाचित सर्वाधिक अलंकृत वस्त्र कहा जा सकता है। यह धारक को एक संपन्न राजसी आभा प्रदान करता है।

बनारसी ब्रोकेड साड़ी
बनारसी ब्रोकेड साड़ी

ब्रोकेड मूल रूप से एक साटन (दो-दामा अथवा खेस) बुनाई है जिसके दो प्रकार हैं, साटीन एवं साटिन। साटीन में दुहरा बाना होता है तो साटिन में दुहरा ताना होता है। ब्रोकेड साड़ियों में समतल एवं खुले तंतु, दोनों प्रकार की बुनाई तकनीक का प्रयोग किया जाता है। खुली बुनाई की साड़ियाँ भारी होती हैं क्योंकि उनमें बूटियों के मध्य स्थित सभी खुले जरीतंतु ज्यों के त्यों रहते हैं। वहीं समतल बुनाई में इन ज़री तंतुओं का अधिकाँश भाग (बूटियों के मध्य स्थित खुले जरी तंतु) काट कर साड़ी से पृथक किया जाता है। मुझे बताया गया कि वर्तमान काल में समतल बुनाई की साड़ियाँ अधिक लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि ये भार में हल्की होती हैं।

इन बुनाई तकनीकों के विविध संयोजनों द्वारा कुछ अन्य प्रकार के ब्रोकेड भी बुने जाते हैं। जैसे, साटन व दो-दामा, साटीन व साटिन, समतल व खुली इत्यादि।

शिफॉन

शिफॉन एक प्रकार की बुनाई तकनीक है जिसमें इकहरे, अत्यंत ही घुमावदार धागे का प्रयोग किया जाता है। बाने में दाहिनी ओर घूमा हुआ तथा ताने में बाईं ओर घूमा हुआ धागा चढ़ाया जाता है। इस तकनीक के कारण वस्त्र को हल्का सलवटी रूप प्राप्त होता है। शिफॉन बुनाई शुद्ध रेशमी के साथ साथ अन्य धागों में भी किया जाता है।

जारजट साड़ी

इस प्रकार की साड़ियों में भी अत्यधिक घुमावदार धागों (40+ TPI) का प्रयोग किया जाता है। इसमें २ रेशमी तथा २ विस्कोस धागों का प्रयोग किया जाता है।

कढुआ अथवा समतल बुनाई

बनारसी साड़ियों की चर्चा होते ही कढुआ शब्द भी कानों में पड़ता है। यह बूटी की बुनाई का एक तकनीक है। इसमें बुनकर अपने हाथों से प्रत्येक बूटी को बुनता है। अतः इन बूटियों की दोनों ओर की परिष्कृति अत्यंत सुरेख होती है। कढुआ तकनीक द्वारा हाथों से छोटी छोटी तथा सूक्ष्म नक्काशी की बूटियाँ बनाने के लिए हाथों में उच्च स्तर का कौशल आवश्यक है। अतः इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं है कि इन साड़ियों का मूल्य भी अधिक होता है। इसे जामदानी बुनाई भी कहा जाता है।

कढुआ बूटी वाली बनारसी साड़ी
कढुआ बूटी वाली बनारसी साड़ी

कढुआ शब्द काढ़ना अथवा कढ़ाई से आया है। यह तकनीक साड़ियों पर हाथों से कढ़ाई करने के समान है। इसमें साड़ियों की प्रत्येक बूटी हाथों से ही बनाई जाती है। अतः ऐसी साड़ियाँ केवल हथकरघे पर ही बुनी जाती हैं।

जब यही तकनीक कतान साड़ियों पर अपनाई जाए तो उसे कतान कढुआ बूटी साड़ी कहते हैं।

लाभ – इस तकनीक में सन्निहित सूक्ष्मता एवं जटिलता के कारण कढुआ बनारसी साड़ियों में बूटियाँ अधिक निकट नहीं होती हैं।

फेकुआ बुनाई अथवा खुली बुनाई एवं कटवर्क

फेकुआ का अर्थ है, फेंकना। इस तकनीक में बूटी की आकृति बनाने के लिए धागे के शटल (घिर्री अथवा ढरकी) को एक ओर से दूसरी ओर फेंका जाता है। यद्यपि यह तकनीक अपेक्षाकृत आसान है, तथापि इस तकनीक में साड़ी के पृष्ठभाग में धागे की बड़ी मात्रा अनुपयुक्त व खुली रहती हैं। बूटी बनाने के पश्चात इन तैरते धागों को काटकर साड़ियों को अंतिम रूप दिया जाता है। कभी कभी इन खुले अथवा तैरते धागों को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इस स्थिति में उपभोक्ता को इन बूटियों एवं किनारियों के पृष्ठभाग में जाली का वस्त्र लगाना पड़ता है ताकि ये खुले धागे आभूषण इत्यादि में ना फंस जाएँ।

फेकुआ बुनाई से बनी बनारसी साड़ी का पृष्ठ भाग
फेकुआ बुनाई से बनी बनारसी साड़ी का पृष्ठ भाग

जाल जैसे बंद आकृतियों को फेकुआ तकनीक से ही बनाया जाता है। विद्युत् चालित करघा बुनाई के लिए इसी तकनीक का प्रयोग किया जाता है।

मीना बूटी

बुनाई के इस तकनीक में आभूषणों की मीनाकारी को वस्त्रों पर उतारा जाता है। इस तकनीक में बूटी के किसी एक भाग को विपरीत रंग का प्रयोग कर उभारा जाता है, जैसे मछली की आँख। संयोग से मीना अथवा मीन का संस्कृत में अर्थ मछली ही होता है। आप जब भी सुनहरी बूटी पर किसी रंग की बूँद बुनी हुई देखेंगे तो वह मीना बूटी ही है।

आपको स्मरण होगा कि वाराणसी गुलाबी मीनाकारी के लिए भी लोकप्रिय है।

मीणा बूटी
मीणा बूटी

इस तकनीक में बूटी के ऊपर एक अतिरिक्त बाने का प्रयोग किया जाता है जिसमें रंगीन धागा लपेटा हुआ होता है। विभिन्न रंगों की संख्या पर मीना बूटी का भिन्न भिन्न नामांकन किया गया है।

अल्फी – जब बूटी पर एक ही रंग के मीना का प्रयोग किया जाए।

तिल्फी – जब बूटी पर दो रंगों के मीना का प्रयोग किया जाए।

दो से अधिक रंगों के प्रयोगों के अन्य नाम हैं किन्तु वे अधिक प्रचलित नहीं हैं।

जब कतान पर मीना बुनाई की जाए तो उसे कतान मीना बूटी साड़ी कहते हैं।

सोना रूपा साड़ी

साड़ियों की सुनहरी ज़री को सोना तथा चाँदी की ज़री को रूपा कहते हैं। जब साड़ियों में सोने तथा चाँदी, दोनों की ज़री हो तो उसे सोना रूपा साड़ी कहते हैं। उसे गंगा जमुना साड़ी भी कहते हैं।

और पढ़ें: सोना रूपा कलाबत्तू – वाराणसी की असली की जरी बुनाई

बनारसी साड़ी – आकृतियों की रचना में भिन्नता

बुनकरों के प्रत्येक क्षेत्र की एक विशेष बुनाई तकनीक व विशेष रचना होती है। वाराणसी की पीली कोठी क्षेत्र के बुनकरों को मैंने अपनी बुनाई तकनीक में अनेक प्रयोग करते देखा। मैंने एक अति विशिष्ठ प्रोत्साहन से पुरस्कृत भव्य नीली रंग की साड़ी देखी जिसमें जामदानी तकनीक का प्रयोग करते हुए कश्मीरी कढ़ाई को बुनाई में सन्निहित किया गया था। वह साड़ी एक ही अभिव्यक्ति में काशी की बुनाई में कश्मीर की रचनाओं का समावेश कर रही थी।

बनारसी बुनाई में कश्मीरी रंग रूप
बनारसी बुनाई में कश्मीरी रंग रूप

कैरी अथवा पैस्ली बनारस की सर्वाधिक लोकप्रिय बूटी है। इसका अर्थ है कच्चा आम। उसे बनारसी साड़ी का संकेत भी कहा जा सकता है। कैरी नाम भारत के सभी भाषाओं में देखा जा सकता है। क्यों ना हो? आम सम्पूर्ण भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय फल जो है। अतः स्वाभाविक ही है कि इस आकृति का साड़ियों में समावेश अवश्य किया जाएगा।

कैरी की बूटियाँ साड़ी के पल्लू पे
कैरी की बूटियाँ साड़ी के पल्लू पे

बनारस के बुनकर बूटी के इस आकार को कैरी ही कहते हैं। बनारसी साड़ियों में आप इस कैरी आकृति को अनेक आकारों एवं रंगों में देख सकते हैं। संयोग से स्कॉटलैंड के एक छोटे से नगर का नाम भी पैस्ली है, जो बुनकरों का गढ़ था। वहां आम की इसी आकृति को शाल पर बुना जाता था।

बनारसी बुनकरों द्वारा रची विभिन्न लोकप्रिय आकृतियाँ

बूटी – ये छोटी पुष्पाकृतियाँ सम्पूर्ण साड़ी पर बिखरी होती हैं। एक साड़ी पर सौ से भी अधिक बूटियाँ हो सकती हैं। इन पुष्पों की आकृतियों के अतिरिक्त कमल एवं कलश की आकृतियाँ भी लोकप्रिय हैं। अत्यंत निकटता से व्यवस्थित बंद बिन्दुओं की आकृति को फर्दिबूटी कहते हैं। अत्यंत लघु बूटी को मसूरबूटी कहते हैं क्योंकि वह मसूर दाल के समान दिखती है। छोटी बूटियों को मक्खी बूटी भी कहते हैं क्योंकि वह मक्खी के आकार की होती हैं।

आडा जाल और कैरी कोनिया
आडा जाल और कैरी कोनिया

बूटा – यह बूटी का बड़ा संस्करण होता है। इसे सामान्यतः किनारियों एवं पल्लू पर बुना जाता है।

जाल – भव्य एवं भारी बनारसी साड़ियाँ पूर्ण रूप से जाल रूपी जरी आकृतियों से भरी होती हैं। इन जाल आकृतियों को सीधी अथवा तिरछी रेखाओं में रचा जाता है। कभी कभी लहरिया आकृति भी दृष्टिगोचर हो जाती है। तिरछी रेखाओं के जाल को आड़ा जाल कहते हैं तथा सीधी रेखाओं के जाल को सीधा जाल कहते हैं। कैरी की आकृतियों के जाल को कैरी जाल अथवा बूटी जाल कहा जाता है। वहीं सघन भरी हुई भारी जाल को विश्वकर्मा जाल कहते हैं। हम सब जानते हैं कि भगवान विश्वकर्मा शिल्पकारों व बुनकरों जैसे कुशल कारीगरों के देव माने जाते हैं।

बेल से बुना जाल
बेल से बुना जाल

बेल – यहाँ बेल का अर्थ आलंबन लेते हुए ऊपर चढ़ने वाली लता ही है। जब बनारसी साड़ी पर पुष्पों से लदी बेल अथवा लता को तिरछी रेखा में बुना जाता है तो उसे आड़ी बेल कहा जाता है। यदि खड़ी लता हो उसे खड़ी बेल कहते हैं। उसी प्रकार, आड़ी बेल हो तो उस आकृति को हरव्वा बेल कहते हैं।

कोनिया – साड़ी के कोनों पर कैरी अथवा पैस्ली आकृति हो तो वह कोनिया कहलाती है। कोनिया का शाब्दिक अर्थ कोना होता है। कभी कभी कैरी आकृति के साथ पत्तों की आकृतियाँ भी बुनी जाती है जो रचना को विशेष बना देती हैं।

चाश्पाहनी – साड़ियों की किनारी को उभरने के लिए किनारियों के आरम्भ में अतिरिक्त धागे का प्रयोग किया जाता है। वह धागा सुनहरी जरी का हो सकता है अथवा किसी अन्य रंग का धागा भी हो सकता है।

कढियाल साड़ी – दक्षिण भारत की अधिकतर साड़ियों में विपरीत रंग की किनारी होती है। इसके विपरीत बनारसी साड़ियों में सामान्यतः एक ही रंग का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बनारसी साड़ियों में विपरीत रंग का प्रयोग ही नहीं होता है। बनारसी साड़ियों में भी यदा-कदा विपरीत रंग की किनारी बुनी जाती है। ऐसे साड़ियों को कढियाल साड़ी कहते हैं। चलन के अनुसार ऐसी साड़ियाँ बनारस के बुनकर उद्योग में आती-जाती रहती हैं।

स्कर्ट साड़ी –  स्कर्ट साड़ी उसे कहते हैं जिसमें एक ओर संकरी किनारी होती है तथा दूसरी ओर अत्यंत चौड़ी किनारी होती है।

और पढ़ें: भारत की रेशमी साड़ियाँ – कला एवं धरोहर का अद्भुत संगम

साढे-सात गज की साड़ियाँ

बुनकर मास्टर मकबूल हसन जी ने बताया कि प्राचीनकाल में मूलतः साढ़े सात गज की लम्बाई की साड़ियाँ ही बुनी जाती थीं जो लगभग सात मीटर लम्बी होती थीं। समय के साथ इसकी लम्बाई कम होती चली गई। अब साढ़े पांच गज अथवा लगभग पांच मीटर लम्बी साड़ियाँ सामान्य हो गयी हैं। इनकी जानकारी से मुझे महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु की नववारी साड़ियों का स्मरण हो आया। महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु में अब भी नववारी साड़ियाँ प्रचलित हैं। विशेषतः नववधुएँ अब भी अपने विवाह समारोह में इन्हें धारण करती हैं।

शिकागाह साड़ी
शिकागाह साड़ी

अतः, उत्तर भारत में भी मूलतः लम्बी साड़ियाँ धारण करने का प्रचलन था जिसे भीतरी लहंगे के बिना धारण किया जाता है। उत्तर भारत में यह परंपरा अब लुप्त हो चुकी है। आशा है कि आधुनिक फैशन डिज़ाइनर, विशेषतः साड़ी बुनकर ऐसी साड़ियों की परंपरा को पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।

बनारसी रेशम में नवोन्मेष

अनवरत नवोन्मेष व नवीनीकरण किसी भी उद्योग की जीवनरेखा होती है। यद्यपि बनारसी बुनाई का सार परम्परिक साड़ियों के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है, तथापि बनारस के बुनकर सतत इस प्रयास में रहते हैं कि वे सदा नवीन बुनाई तकनीकों एवं उत्पादों के लिए नित-नवीन प्रयोग करते रहें। उन नित-नवीन प्रयोगों में से कुछ इस प्रकार हैं:

  • दुपट्टे एवं रुमालों की बुनाई
  • एक-तारी बुनाई – इस तकनीक में इतनी सूक्ष्म व महीन बुनाई होती है कि आप मूल वस्त्र को देख नहीं पाते जिस पर आकृतियाँ बुनी जाती हैं।
  • ऊन एवं रेशम के सम्मिश्रण से बुनी गयी शाल
  • शाल पर जैकार्ड बुनाई
  • वैश्विक बाजारों के लिए ब्रोकेड, विशेषतः, पाश्चात्य देशों के अनुष्ठानिक अथवा उत्सव वेशभूषा
  • रेशम, विशेषतः ब्रोकेड में बनी सहायक साज-सज्जा की वस्तुएं, जैसे बस्ते, पर्स आदि।

यद्यपि इस संस्करण में मुख्यतः शुद्ध रेशमी साड़ियों पर ही लक्ष्य केन्द्रित रखने की चेष्टा की गयी है, तथापि बनारस के बुनकर धागों या तंतुओं के अन्य प्रकारों द्वारा भी बुनाई करते हैं, जैसे सूती, सूती  मिश्रित रेशमी, उनी इत्यादि। उनका विश्व भी इतना विशाल है कि उन पर चर्चा करने के लिए एक पृथक संस्करण की आवश्यकता होगी। उन पर किसी अन्य अवसर पर चर्चा करेंगे।

यदि आप बनारसी साड़ियों के विषय में अधिक जानकारी चाहते हैं अथवा आपके मस्तिष्क में कुछ प्रश्न उमड़ रहे हों तो टिप्पणी खंड द्वारा हमें अवश्य सूचित करें।हम अपने आगामी संस्करणों में उन पर अवश्य चर्चा करेंगे।

यह संस्करण Silk Mark Organization of India के सहयोग से लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कला का दूसरा नाम है प्रेरणा। कला के विभिन्न रूप एक दूसरे से प्रेरित होते हैं तथा एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं। वे नवीन विचारों के प्रेरणास्त्रोत हैं। कला के विभिन्न रूपों का संगम सृजनशीलता को जन्म देता है जो आनंद व उमंग का स्त्रोत है। मंदिर, वस्त्र, वास्तुकला, संगीत तथा इनको जोड़ने वाले […]

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कला का दूसरा नाम है प्रेरणा। कला के विभिन्न रूप एक दूसरे से प्रेरित होते हैं तथा एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं। वे नवीन विचारों के प्रेरणास्त्रोत हैं। कला के विभिन्न रूपों का संगम सृजनशीलता को जन्म देता है जो आनंद व उमंग का स्त्रोत है। मंदिर, वस्त्र, वास्तुकला, संगीत तथा इनको जोड़ने वाले महान कलाकार भारतीय संस्कृति का अभिन्न भाग हैं। विद्वानों ने इन विद्याओं का पृथक पृथक अध्ययन तो भरपूर किया है किन्तु उनमें निहित कथाओं, आकृतियों एवं उनकी सराहना व संरक्षण करते कला प्रेमियों का अद्भुत संगम क्वचिद ही दृष्टिगोचर होता है।

भारत की रेशमी साड़ियाँ – भारतीय कलाशैली, वास्तुशिल्प एवं ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर के अग्रदूत

आईये देखते हैं, भारतीय वस्त्रों में हमारी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर तथा अप्रतिम वास्तुकला का अद्वितीय संगम।

रेशमी साड़ियों की किनार पर मंदिरों की आकृतियाँ

जिन्हें कांचीपुरम अर्थात् कांजीवरम साड़ियाँ भाती हैं, उनसे इन साड़ियों के विषय में पूछें तो वे अत्यंत उत्साह से आप से मंदिर की आकृतियों से युक्त किनारियों के विषय में निश्चित ही चर्चा करेंगे। कांचीपुरम में बुनी ये सौंदर्य से परिपूर्ण व भव्य कांजीवरम साड़ियों की किनारियों में मंदिर की आकृतियाँ बुनी जाती हैं। कांचीपुरम साड़ियों की किनारियों में मंदिर की आकृतियाँ बुनना अब सर्वविदित है। किन्तु क्या आप जानते है कि इन साड़ियों में बुनी गयी मंदिर की किनारियों में भी अनेक प्रकार होते हैं?

गोपुरम काठ की रेशमी साडी
गोपुरम काठ की रेशमी साडी

गोपुरम काठ – दक्षिण भारत के मंदिरों के प्रवेश द्वारों के ऊपर ऊंची अट्टालिकाएं होती हैं जिन्हें गोपुरम कहते हैं। इन पर भव्य शिल्पकारी की जाती है। वे दूर से ही मंदिर के वास्तु की घोषणा करते प्रतीत होते हैं। प्रवेश द्वार के इस बहु-तलीय संरचना की प्रतिकृति को साड़ी की किनारी एवं आँचल पर ऐसे बुना जाता है कि उनके शीर्ष साड़ी के मुख्य भाग को भेदते प्रतीत होते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे नीचे से देखने पर गोपुरम के शीर्ष स्वच्छ आकाश को भेदते प्रतीत होते हैं। गोपुरम के विभिन्न तलों को तीखे ज्यामितीय आकृतियों से दर्शाया जाता है जो ऊपर जाते जाते संकरे होते जाते हैं। सामान्यतः साड़ियों की किनारियों को मुख्य रंग से विपरीत रंग में बुना जाता है। इसके कारण  मंदिर की किनारी अत्यंत भव्य प्रतीत होती है।

लघु मंदिर की किनारी –  इस प्रकार की किनारी में गर्भगृह के शिखर की प्रतिकृति बुनी जाती है। रंगीन अथवा सुनहरी किनारी पर छोटे छोटे त्रिकोणीय संरचनाओं की पंक्तियाँ होती हैं। उन्हें तमिल भाषा में “मोग्गु” कहा जाता है, जिसका अर्थ है, कली। ये आकृतियाँ कलियाँ सदृश ही प्रतीत होती हैं।

रुद्राक्ष किनारी – रुद्राक्ष का सम्बन्ध भगवान शिव से है। ऐसा माना जाता है कि रुद्राक्ष उनके चक्षुओं से निकली आंसू की बूँद है। भगवान शिव के अलंकरण में रुद्राक्ष के आभूषण भी सम्मिलित होते हैं। अनेक शिव भक्त भी अपने शरीर पर रुद्राक्ष धारण करते हैं। इसी परंपरा का पालन करते हुए बुनकर कांचीपुरम साड़ियों की किनारियों पर गोपुरम के साथ रुद्राक्ष की आकृतियाँ भी बुनते हैं। वे यह दर्शाना चाहते हैं कि उन्होंने शिव मंदिर की आकृति को यहाँ प्रदर्शित किया है। जब आप साड़ी को खोलकर हाथों में पकड़ते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो आपने रुद्राक्ष की माला पकड़ी है।

साड़ियों पर मिथिला की कथाएं

जब भागलपुर की तसर रेशम का मिथिला की ज्यामितीय आकृतियों से एक वस्त्र के रूप में विलय होता है तब वे अनगिनत कथाएं कहती हैं। मधुबनी कला का इस क्षेत्र के पारंपरिक अनुष्ठानिक चित्रों से सम्बंध है। प्राचीनकाल से विवाह, नामकरण जैसे आयोजनों में भित्तियों पर शुभ चिन्ह चित्रित किये जाते हैं। आज के समय में भित्तियों को रंगने की अपेक्षा उन चित्रों को कागज पर चित्रित कर लटकाया जाता है। उन्ही चित्रों व आकृतियों की छपाई साड़ियों पर भी की जाती है। इससे इस कला को नवीन ऊँचाई प्राप्त हो रही है। साथ ही साड़ियों की भव्यता एवं मूल्य में भी वृद्धि होती है। कलाकार, विशेषतः स्त्रियाँ, अत्यंत सावधानी से तथा परिश्रम पूर्वक अपने हाथों से इन सूक्ष्म आकृतियों को वस्त्रों पर चित्रित करती हैं। उनकी सम्पूर्ण रचनात्मकता किसी चित्रफलक के समान उन साड़ियों पर अंकित हो जाती हैं। प्रत्येक आकृति एक कथा कहती है।

मधुबनी साडी पर राम जानकी विवाह
मधुबनी साडी पर राम जानकी विवाह

इन स्त्रियों द्वारा चित्रित की गयी सर्वाधिक लोकप्रिय कथा है, राम-जानकी विवाह। यह विवाह मिथिला में संपन्न हुआ था। यह कथा इस क्षेत्र के कण कण में समाई हुई है। इसके पश्चात, लाल रेशमी वस्त्र पर दुर्गा एवं काली के चित्र भी अत्यंत लोकप्रिय हैं जो बहुधा नवरात्रि के अवसर पर उपलब्ध कराये जाते हैं। तसर रेशम के मूल रंग, मटमैले पीले रंग पर पुष्प तथा अन्य प्राकृतिक आकृतियाँ भी अत्यंत लुभावने प्रतीत होते हैं। ये आकृतियाँ साड़ियों के साथ दुपट्टों पर भी उपलब्ध हैं। इन्हें धारण करने वालों को प्रकृति की सन्निधि का अनुभव होता है।

और पढ़ें: गंगा देवी की मिथिला चित्रकारी

रेशमी साड़ियाँ तथा टेराकोटा मंदिर

पश्चिम बंगाल के बिष्णुपुर एवं बांकुरा क्षेत्र सुन्दर बालूचरी एवं स्वर्णचरी साड़ियाँ के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनमें बालूचरी साड़ियों पर रेशमी धागे से तथा स्वर्णचरी साड़ियों पर सुनहरे धागे से कढ़ाई की जाती है।  जब आप बिष्णुपुर एवं बांकुरा क्षेत्र में भ्रमण करेंगे, तब आप यहाँ के चटक लाल रंग के टेराकोटा मंदिरों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायेंगे। उनके फलकों पर उकेरे देवी-देवताओं, राजाओं, व्यापारियों एवं सामान्य जनता  की कथाएं आपका मन मोह लेंगी। ऐसी ही कथाएं स्थानिक कारीगरों ने इन साड़ियों पर रेशमी एवं सुनहरे धागों से बुनी है। इन साड़ियों पर रामायण एवं महाभारत के दृश्यों के अतिरिक्त अनेक अन्य दृश्य भी कढ़ाई के माध्यम से उकेरे जाते हैं।

बंगाल की बालुचेरी साडी पर गीतोपदेश
बंगाल की बालुचेरी साडी पर गीतोपदेश

मेरे पास जो बालूचरी साड़ी है, उस पर गीतोपदेश का दृश्य है। यह महाभारत का दृश्य है जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। यह दृश्य सम्पूर्ण आँचल एवं किनारी पर उकेरा गया है। मेरी जानकारी के अनुसार टेराकोटा मंदिर मध्ययुगीन काल के हैं, वहीं यह रेशम की बुनाई उससे भी प्राचीन है। प्रश्न यह उठता है कि रेशम की बुनाई ने टेराकोटा मंदिर की संरचनाओं को प्रभावित किया अथवा विपरीत? यद्यपि इस प्रश्न का सरल उत्तर नहीं है, तथापि पौराणिक कथाओं की अमिट छाप किसी क्षेत्र के प्रत्येक संभव कला के माध्यम पर उकेरने की परंपरा सदियों प्राचीन है जिनका उद्देश्य हमारी संस्कृति को हमारी भावी पीढी के लिए संरक्षित करना है।

यहाँ के अधिकतर मंदिर कृष्ण भगवान को समर्पित हैं। इसलिए अधिकांशतः उनसे सम्बंधित कथाएं ही आप यहाँ निर्मित साड़ियों, शंख, डोकरा आभूषणों, टेराकोटा मंदिरों के मिट्टी के फलकों इत्यादि पर देखेंगे।

महेश्वरी साड़ियों पर बहती नर्मदा नदी

गंगा से भी प्राचीन नर्मदा नदी को प्राचीनतम नदी माना जाता है। इस नदी के तट पर बसे एवं नर्मदा नदी द्वारा पोषित स्थानिकों के लिए यह माँ के समान है। इसी नर्मदा नदी के तट पर बसी रानी अहिल्या बाई होलकर की राजधानी महेश्वर को अप्रतिम महेश्वरी साड़ियों के बुनकरों का गढ़ माना जाता है। इस नगरी में भ्रमण करते समय आप हथकरघे की लयबद्ध गति की ध्वनि सुन सकते हैं।

महेश्वरी साडी पर नर्मदा की लहरें
महेश्वरी साडी पर नर्मदा की लहरें

प्रातः सूर्योदय के समय अथवा संध्या सूर्यास्त के समय यदि आप नर्मदा के तट पर बैठें तो सूर्य की किरणों के कारण सुनहरे रंग में दमकते नदी के जल को देख आप मंत्रमुग्ध हो जायेंगे। कुछ इन्ही क्षणों को बुनकरों ने इन महेश्वरी साड़ियों पर उकेरा है। सुनहरी नर्मदा के अप्रतिम दृश्य को महेश्वरी साड़ियों की किनारी पर बुनकर उसे अमर कर दिया है। इन किनारियों पर नर्मदा नदी की लहरों को चिन्हित किया है। इनके अतिरिक्त महेश्वर के किले, महल, मंदिर आदि की नक्काशी को भी बुनकरों ने साड़ियों पर सुन्दरता से बुना है। इनमें प्रमुख आकृतियाँ हैं, ईंट, हीरा, चटाई तथा चमेली।

पुरी जगन्नाथ की गीतगोविन्द खंडुआ

१२वीं शताब्दी के कवि जयदेव की प्रसिद्ध कविता गीतगोविन्द ओडिशा की परंपरा का प्रमुख अंग है। गीतगोविन्द खंडुआ अथवा मनिआबंदी या कटकी रेशमी वस्त्र है जिस पर इस कविता के पद लिखे होते हैं। इन पदों को या तो बंधेज तकनीक से या इस क्षेत्र की लोकप्रिय इकत पद्धति से बुना जाता है। किवदंतियों के अनुसार, कवि जयदेव अपनी कविता को जगन्नाथ को समर्पित करना चाहते थे। इसके लिए सम्पूर्ण कविता को वस्त्र पर बुनने से उत्तम उपाय उन्हें नहीं सूझा क्योंकि वस्त्र ही भगवान के अलंकरण में समीपस्थ तत्व होते हैं। आरम्भ में उन्होंने इसे अपने मूल गाँव केंदुली में बनवाया था। किन्तु कालांतर में पुरी के राजाओं ने इस कला को नुआपाटणा में स्थानांतरित कर दिया था। यदि आप जगन्नाथ पुरी के मंदिर में प्रातःकाल की मंगल आरती देखें तो आप जगन्नाथ को इसी खंडुआ में सजे हुए देखेंगे। खंडुआ के बुनकर भी अनुष्ठानिक पावित्र्य का पालन करते हुए शुद्ध शाकाहारी भोजन करते हैं तथा शौच अनुष्ठान का पालन करते हैं।

गीतगोबिंद खंडुआ ओडिशा से
गीतगोबिंद खंडुआ ओडिशा से

इनके अतिरिक्त, बारालागी पाटा भी एक प्रकार का रेशमी वस्त्र है जिसे जगन्नाथ मंदिर के देव धारण करते हैं। सप्ताह के सात दिवस उन्हें सात भिन्न रंग के वस्त्र पहनाये जाते हैं। जैसे, रविवार के दिन लाल, सोमवार के दिन श्वेत-श्याम, मंगलवार के दिन बहुरंगी, बुधवार के दिन हरा, ब्रहस्पतिवार को पीला, शुक्रवार के दिन श्वेत तथा शनिवार को श्याम रंग का वस्त्र पहनाया जाता है।

मंदिर की यह परंपरा यह सुनिश्चित करती है कि इसके अनुयायी इस क्षेत्र की बुनकर परंपरा को संरक्षित एवं समृद्ध करें।

बनारसी रेशमी साड़ियाँ

बनारसी जरी वस्त्र एवं जामावार प्रत्येक रेशमी वस्त्र के प्रेमी का स्वप्न होता है। काशी के बुनकर कब से रेशम पर इस जादुई कला की बुनाई कर रहे हैं, कोई नहीं जानता। साहित्यों एवं अभिलेखों से यह स्पष्ट है कि वे भगवान बुद्ध के काल में भी थे। इसका अर्थ है कि कम से कम २६०० वर्षों से रेशम पर यह अप्रतिम बुनाई अनवरत की जा रही है। प्रसिद्ध संत-कवि कबीर ने अपनी अनेक रचनाओं में स्वयं को काशी के बुनकर द्वारा संबोधित किया है। उन्होंने बुनाई की कला के द्वारा जीनव के गहन दर्शन को समझाया है। वे जीवन को ताना-बाना ही कहते थे। विरले ही सही, किन्तु कुछ बनारसी रेशमी वस्त्रों में बुनाई द्वारा कबीर के दोहे भी उकेरे गए हैं।

पारंपरिक बनारसी साडी
पारंपरिक बनारसी साडी

बनारसी साड़ियाँ अपने भव्य किनारी एवं पल्लू के लिए प्रसिद्ध हैं। रेशमी साड़ियों पर जरी की किनारी तथा मध्य में जरी की बूटियाँ होती हैं। ये बूटियाँ प्राकृतिक तत्वों से प्रेरित होती हैं, जैसे आम, पान के पत्ते, पुष्प, बेलें इत्यादि। किसी समय इन पर शुद्ध स्वर्ण के तारों से बूटियाँ बनाई जाती थीं। उनका स्थान अब नकली चमकदार तारों ने ले लिया है। बनारसी साड़ियों में बुनी जाती कुछ परम्परागत आकृतियाँ हैं, बूटी, बूटा, कोनिया, बेल, जाल, जंगला एवं झालर। अनेक बुनकर अपनी रचनात्मकता दर्शाते हुए उन पर गंगा के घाटों के दृश्य भी बुनने लगे हैं। बनारस की जगप्रसिद्ध रेशमी साड़ियों पर वहां के जगप्रसिद्ध घाटों के दृश्य स्वयं में अद्वितीय संगम है। बनारस की प्रसिद्ध स्मारिका के रूप में इस साड़ी को अपने पास रखने का अर्थ है, विश्व के प्राचीनतम जीवंत नगर की धरोहर को संजो कर रखना। इन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है मानो काशी की धरोहर को अक्षरशः साड़ी पर उकेर दिया हो।

बुनाई द्वारा वर्षा को आमंत्रण

राजस्थान के थार मरुभूमि में, जयपुर एवं उदयपुर के बाजारों की गलियों में लहरिया एवं बांधनी, ये दो प्रकार के वस्त्र अत्यंत लोकप्रिय हैं। लहरिया साड़ियों में दो या अधिक चटक रंगों में लहरों की आकृतियाँ होती हैं। इन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है जैसे मरुस्थल की लहरिया सतह को हूबहू वस्त्रों पर चित्रित किया हो।

जयपुर की लहरिया साडी
जयपुर की लहरिया साडी

एक अन्य मान्यता के अनुसार ये लहरिया आकृतियाँ जल की लहरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक प्रकार से ये आकृतियाँ वर्षा को आमंत्रण दे रही हैं। हम सब जानते हैं कि थार मरुस्थल विश्व का सर्वाधिक जनसँख्या का मरुस्थल है। इसका श्रेय यहाँ की उत्तम जल प्रबंधन प्रणाली को जाता है। इस साड़ियों एवं वस्त्रों पर लहरिया आकृतियाँ जल की प्रचुरता की ओर संकेत करती प्रतीत होती हैं। कदाचित आकर्षण का नियम लागू करते हुए वे वर्षा को आमंत्रित करते हों।

राजस्थान से बांधनी का काम
राजस्थान से बांधनी का काम

ऐसा माना जाता है कि बांधनी शब्द संस्कृत शब्द पुलकबंद से आया है। अत्यधिक आनंद एवं उल्हास की स्थिति में हमारे रोमकूप पुलकित हो जाते हैं। बांधनी में उन्ही रोमकूपों को आधार बनाया गया है। यहाँ तक कि पोल्का शब्द का मूल भी यही है। इस तकनीक में, आकृतियों के अनुसार, वस्त्रों पर मोमयुक्त धागों से अनेक प्रकार की गांठें कसकर बांधी जाती हैं। तत्पश्चात उन्हें रंगों में डुबाया जाता है। रंगने एवं सूखने के पश्चात इन धागों को खोला जाता है। बंधे भागों पर मूल रंग रह जाता है तथा अन्य भागों पर नवीन रंग चढ़ जाता है जिससे आकृतियाँ उभर कर आती हैं। ये तकनीक राजस्थान एवं गुजरात में प्रमुखता से अपनाई जाती है। अजंता की गुफाओं में चित्रित वस्त्रों में भी यह शैली देखी गयी है।

अजंता के चित्रों में इक्कत

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में स्थित अजंता की प्राचीन गुफाओं में चित्रित जातक कथाएं २-५वीं सदी की हैं। उनमें चित्रित चरित्रों को जो वस्त्र धारण किये दर्शाया गया है, उनमें आड़ी-तिरछी रेखाओं की इक्कत बुनाई है। इसका अर्थ है कि यह कला लगभग दो सहस्त्राब्दियों से एक जीवंत कला है।

अजंता के भित्तिचित्रों में इक्कत की बुनाई
अजंता के भित्तिचित्रों में इक्कत की बुनाई

इक्कत बुनाई अब अनेक क्षेत्रों में प्रचलन में है, जैसे गुजरात के पाटन से तेलंगाना की पोचमपल्ली तथा ओडिशा के संबलपुर तक। यह शैली आप रेशम तथा सूती, दोनों प्रकार की साड़ियों में देख सकते हैं। बुनाई की इस शैली को आप पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पुजारी की शाल पर भी देखेंगे। इस शैली के दुपट्टे भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। इक्कत दो रूपों में उपलब्ध हैं, इकहरी इक्कत एवं दुहरी इक्कत। इक्कत, विशेषतः दुहरी इक्कत एक अत्यंत जटिल बुनाई शैली है जिसके लिए उच्च-स्तरीय कौशल की आवश्यकता होती है। गुजरात के पाटन की पटोला साड़ियाँ इसी प्रकार की कोमल एवं जटिल दुहरी इक्कत बुनाई के लिए प्रसिद्ध है।

प्राचीन चित्रों में इक्कत के अतिरिक्त बनारसी जरी वस्त्र एवं जरदोजी भी दृष्टिगोचर होते हैं।

रेशमी साड़ियों पर पावन चिन्ह

रेशमी साड़ियाँ और उन पर कढ़े मंगल चिन्ह
रेशमी साड़ियाँ और उन पर कढ़े मंगल चिन्ह

भारतीय परम्पराओं में स्त्रियों द्वारा साड़ी धारण करना साक्षात लक्ष्मी का रूप धरने के समान माना जाता है जो समृद्धि एवं शुभता की देवी हैं। इसी कारण इन साड़ियों में बहुधा पावन चिन्हों की आकृतियाँ बुनी जाती हैं, जैसे कुम्भ, स्वस्तिक, गज, पक्षी, मोर, रुद्राक्ष इत्यादि। बुनकर अपनी रचनात्मकता प्रदर्शित  करते हुए इन आकृतियों को कुशलता से किनारी, पल्लू अथवा मुख्य भाग में बुनते हैं।

यह हमारे दृश्य कला रूपों के मध्य अप्रतिम जुगलबंदी नहीं है तो क्या है?

सन्दर्भ – ओडिशा पत्रिका

यह संस्करण Silk Mark Organisation of India, Central Silk Board के सहयोग से लिखा गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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