शक्ति पीठ Archives - Inditales श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 18 Jan 2023 04:53:33 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 श्री चामुंडेश्वरी मंदिर – चामुंडी पहाड़ी मैसूर के निकट https://inditales.com/hindi/chamundeshwari-mandir-chamundi-pahadi-mysore/ https://inditales.com/hindi/chamundeshwari-mandir-chamundi-pahadi-mysore/#comments Wed, 10 May 2023 02:30:45 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3054

श्री चामुंडेश्वरी मंदिर आदि शंकराचार्यजी द्वारा बताये गए १८ शक्तिपीठों में से एक है। यह चामुंडी पहाड़ी पर स्थित है जो कर्णाटक के मैसूरू नगरी के निकट है। मैसूरू को पहले मैसूर कहा जाता था। चामुंडी पहाड़ी का देवी की कथा से प्रगाढ़ सम्बन्ध है। चामुंडेश्वरी देवी की पौराणिक कथा चामुंडा या चामुंडेश्वरी का नाम […]

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श्री चामुंडेश्वरी मंदिर आदि शंकराचार्यजी द्वारा बताये गए १८ शक्तिपीठों में से एक है। यह चामुंडी पहाड़ी पर स्थित है जो कर्णाटक के मैसूरू नगरी के निकट है। मैसूरू को पहले मैसूर कहा जाता था। चामुंडी पहाड़ी का देवी की कथा से प्रगाढ़ सम्बन्ध है।

चामुंडेश्वरी देवी की पौराणिक कथा

चामुंडा या चामुंडेश्वरी का नाम देवी की उन कथाओं में प्राप्त होता है जो मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत आते देवी माहात्मय अथवा दुर्गा सप्तशती का भाग हैं। इस ग्रन्थ में माँ दुर्गा समय समय पर प्रकट होते विभिन्न असुरों का वध करने के लिए भिन्न भिन्न स्वरूप में अवतरित होती हैं। देवी का वह स्वरूप जिसमें उन्होंने चंड एवं मुंड नामक दो असुर भ्राताओं का वध किया था, चामुंडा कहलाता है।

देवी श्री चामुंडेश्वरी
देवी श्री चामुंडेश्वरी

चामुंडा देवी ने एक ऐसे असुर का भी वध किया था जो आधा मानव व आधा भैंसा था। उस असुर का नाम महिषासुर था। इसीलिए उन्हें महिषासुर मर्दिनी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी ने इसी चामुंडी पहाड़ी पर महिषासुर का वध किया था। इसीलिए इस पहाड़ी का नाम चामुंडी पहाड़ी पड़ा तथा समीप स्थित मैसूर या मैसूरू का नाम भी इसी असुर के नाम पर पड़ा है। इस प्रकार की नामकरण पद्धति असामान्य नहीं है। महाराष्ट्र में स्थित कोल्हापुर नगरी का नाम भी कोलासुर नामक असुर के कारण पड़ा है जिसका वध महालक्ष्मी ने किया था। पूर्व में कोल्हापुर नगरी को करवीरपुर कहा जाता था।

चामुंडी पहाड़ी के ऊपर विराजमान देवी चामुंडेश्वरी आस पास के विस्तृत क्षेत्र की अधिष्टात्री देवी है। इस क्षेत्र में मैसूरू नगरी भी सम्मिलित है जो कर्णाटक राज्य की सांस्कृतिक राजधानी मानी जाती है। मैसूरू एक राज नगरी होने के कारण देवी चामुंडेश्वरी मैसूरू के राजपरिवार की कुलदेवी भी हैं। वस्तुतः, देवी चामुंडेश्वरी को सम्पूर्ण कर्णाटक राज्य की देवी माना जाता है।

Chamundeshwari Temple Gopuram
Chamundeshwari Temple Gopuram

माँ चामुंडेश्वरी को कर्णाटक में नाद देवी के नाम से भी पुकारते हैं। मैसूरू नगरी का विश्वप्रसिद्ध दशहरा उत्सव देवी की अनुमति से यहीं से आरम्भ किया जाता है। इस दशहरा उत्सव को मैसूरू में नाद हब्बा कहते हैं।

नाग देवता मूर्तियाँ
नाग देवता मूर्तियाँ

यह एक शक्ति पीठ है। आदि शंकराचार्यजी ने इसे क्रौंचपट्टनम कहा जिसे क्रौंच पीठ भी कहते हैं। देवी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा, अपने पति भगवान शिव की अवमानना सहन ना कर पाने के कारण पिता दक्ष के ही यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। इससे क्रोधित होकर भगवान शिव देवी सती का मृत देह उठाकर तांडव करने लगे थे। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र द्वारा सती की देह का विच्छेद कर दिता था। जहाँ जहाँ उसके भाग गिरे, वहाँ वहाँ देवी के शक्तिपीठ की स्थापना हुई।

ऐसी मान्यता है कि चामुंडी पहाड़ी पर देवी के केश गिरे थे।

श्री चामुंडेश्वरी मंदिर

 चामुंडी पहाड़ी पर स्थित यह पुरातन मंदिर औसत समुद्र सतह से लगभग ३४०० फीट की ऊँचाई पर स्थित है। भारत में अनेक देवी मंदिर हैं जो पहाड़ी के ऊपर स्थित हैं। प्राचीन काल में भक्तगण इन पहाड़ियों पर उगे झाड़-झंखाड़ के बीच से जाते दुर्गम पगडंडियों द्वारा मंदिर तक पहुंचते थे। जैसे जैसे सभ्यता में विकास हुआ, राज्यों में प्रगति हुई, मंदिरों की वैभवता में भी वृद्धि होने लगी। साथ ही मंदिरों की ओर जाते मार्गों को भी अधिक सुगम बनाया जाने लगा।

मंदिर वास्तुशिल्प की ठेठ द्रविड़ शैली में निर्मित इस मंदिर में एक ऊँचा गोपुर अथवा गोपुरम है जो हलके पीले रंग का है। इस मंदिर का निर्माण १२वीं सदी में होयसल राजवंश ने करवाया था। समय के साथ इसमें नवीन संरचनाएं जोड़ी गयीं। जैसे इसका गोपुरम, जिसे कदाचित विजयनगर के महाराजाओं ने बनवाया था। इस पुरातन मंदिर संरचना का एक विशेष भाग है, मंदिर की ओर जाती पत्थर की सहस्त्र सीढ़ियाँ, जिन्हें १७वीं सदी में मैसूरू के महाराजा डोड्डा देवराज ने बनवाया था। मैसूरू के विभिन्न महाराजाओं द्वारा इस मंदिर के दर्शन करने एवं देवी द्वारा विभिन्न रूपों में वरदान प्राप्त करने की अनेक कथाएं प्रचलित हैं।

मंदिर स्वयं में अधिक विशाल नहीं है। भक्तगणों की अधिक भीड़ ना हो तो आप मंदिर के चारों ओर शान्ति से घूम सकते हैं। मंदिर से मैसूरू नगरी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

आप सात तल ऊंचे गोपुरम से मंदिर के भीतर प्रवेश करेंगे। गोपुरम इतना ऊँचा प्रतीत होता है कि उसके ऊपर स्थापित स्वर्ण कलश को देखने के लिए अपने शरीर को पीछे झुकाना पड़ता है।

मंदिर में प्रवेश करते ही समक्ष नवरंग मंडप एवं अंतराल मंडप हैं जिनके पश्चात गर्भगृह है। मंदिर के चारों ओर भित्तियाँ हैं जिन्हें प्राकार कहा जाता है।

गणेश, हनुमान और भैरव

मंदिर परिसर के भीतर कुछ लघु मंदिर हैं जो गणेश भगवान, हनुमाजी एवं भैरव को समर्पित हैं। मुख्य द्वार का रक्षण करतीं दोनों ओर द्वारपालिकाएं विराजमान हैं जिनके नाम हैं, नंदिनी और कमलिनी। मैसूरू के महाराजा कृष्णराज वड्यार तृतीय एवं उनकी पत्नियां रामविलासा, लक्ष्मीविलासा एवं कृष्णविलासा भी भक्त के रूप में मंदिर में विराजमान हैं। किन्तु भक्तगणों की अत्यधिक संख्या के कारण में उन्हें नहीं देख पायी।

देवी की मुख्य मूर्ति अष्टभुजा रूप में स्थापित है। आठ भुजाओं वाली इस देवी की प्रतिमा वैसी ही है जैसी मार्कंडेय पुराण में वर्णित है। ऐसी मान्यता है कि कदाचित वे मार्कंडेय ऋषि ही थे जिन्होंने इस मूर्ति का सर्वप्रथम अभिषेक किया था। देवी के ज्यामितीय स्वरूप, श्री चक्र की भी यहाँ पूजा की जाती है।

मंदिर के आसपास अनेक छोटी छोटी दुकानें हैं जो पुष्प एवं अन्य पूजा सामग्री की विक्री करते हैं। मंदिर में मुख्य प्रसाद के रूप में लड्डू का अर्पण किया जाता है जो तिरुपति में भगवान बालाजी को अर्पित लड्डू से साम्य रखता है। परिसर में स्थिर वृक्षों के नीचे मुझे अनेक नाग  प्रतिमाएं दिखीं जो दक्षिण भारत में सर्व-सामान्य है।

चामुंडेश्वरी देवी मंदिर के उत्सव

यह एक देवी मंदिर है। तो स्वाभाविक ही है कि शुक्रवार का दिवस मंदिर के लिए विशेष होगा। शुक्रवार के दिन मंदिर में अधिक संख्या में भक्तगण देवी के दर्शन करने एवं उनका प्रसाद पाने के लिए आते हैं।

इस मंदिर में नित्य प्रातःकाल एवं सांयकाल देवी का दैनिक अभिषेक किया जाता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक संध्या को देवी को तोप की सलामी दी जाती है। इस प्रथा का आरम्भ मैसूरू के वड्यार महाराजाओं ने तब किया था जब उन्होंने टीपू सुलतान को मृत्यु के पार पहुंचाकर अपना राज्य उससे वापिस प्राप्त किया था।

आषाढ़ शुक्रवार

आषाढ़ मास के शुक्रवार को मंदिर में विशेष उत्सवों का आयोजन किया जाता है। आषाढ़ मास अंग्रेजी तिथिपत्र के अनुसार जुलाई-अगस्त में आता है।

चामुंडी जयंती

चामुंडी जयंती आषाढ़ मास की कृष्ण सप्तमी के दिन मनाई जाती है। इस दिन देवी अपने उत्सव मूर्ति स्वरूप में अपनी स्वर्ण पालकी में बैठकर मंदिर से बाहर आती हैं। मंदिर परिसर में उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है।

इस पूजा में मैसूरू के राजपरिवार के सदस्य भी भाग लेते हैं तथा देवी से आशीष लेते हैं कि वे उनके मार्गदर्शन में राज्य पर निष्पक्ष रूप से शासन करें।

नवरात्रि और नाडा हब्बा या दशहरा

नवरात्रि वर्ष में दो बार आती है, चैत्र मास में तथा अश्विन मास में। देश भर के अन्य देवी मंदिरों के समान इस मंदिर में भी ये दोनों नवरात्रियाँ बड़ी धूमधाम से मनायी जाती हैं। चामुंडेश्वरी मन्दिर में नवरात्रि के नौ दिवस देवी का विभिन्न स्वरूपों में श्रृंगार किया जाता है, जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। इनमें कुछ दिन मैसूरू के राजकोष से आये आभूषणों द्वारा भी देवी का श्रृंगार किया जाता है।

चामुंडी मैसूरू में आयोजित विश्वप्रसिद्ध दशहरा उत्सव का अभिन्न अंग हैं। हम उसके विषय में किसी अन्य दिवस चर्चा करेंगे।

मंदिर के अन्य महत्वपूर्ण दिवस:

  • अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया को आयोजित शयन उत्सव
  • अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को आयोजित मुदी उत्सव
  • चैत्र प्रतिपदा या चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिवस में आयोजित वसंतोत्सव
  • कार्तिक पूर्णिमा के दिन कार्तिकोत्सव
  • अश्विन मास की पूर्णिमा को प्रातः रथोत्सव अश्वयुज
  • अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया की संध्या में आयोजित टेप्पोत्सवा
  • फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को आयोजित श्री महाबलेश्वर रथोत्सव
  • माघ मास के तृतीय रविवार को आयोजित उत्तानहल्ली ज्वालामुखी मंदिर की जत्रा

महाबलेश्वर मंदिर

चामुंडेश्वरी मंदिर से लगभग १०० मीटर की दूरी पर एक छोटा शिव मंदिर है जो शिलाओं द्वारा निर्मित है। इसके स्तम्भ ठेठ होयसल मंदिर वस्तु शैली में निर्मित हैं जो यह संकेत करने हैं कि इस मंदिर का निर्माण कदाचित होयसल राजवंश ने ही करवाया होगा। इस मंदिर परिसर में कन्नड़ भाषा में उकेरा गया एक शिलालेख है।

कन्नड़ भाषा में शिलालेख
कन्नड़ भाषा में शिलालेख

मंदिर का मंडप मूर्तियों से भरा हुआ है। गर्भगृह के एक ओर सप्तमातृकाओं को दर्शाता एक पटल मुझे अब भी स्पष्ट रूप से स्मरण है।

हम मंदिर में दर्शन के लिए प्रातः शीघ्र ही आ गए थे। जिसके फलस्वरूप हमें मंदिर की आरती में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रातःकालीन आरती के समय गिने-चुने ही भक्तगण थे जिसके कारण वातावरण में एक सम्मोहक शान्ति थी। सम्पूर्ण आरती एक अत्यंत भाव-विभोर कर देने वाला अनुभव था।

महाबलेश्वर मंदिर के स्तम्भ
महाबलेश्वर मंदिर के स्तम्भ

मुझे यहाँ का वातावरण अत्यंत भा गया। चामुंडेश्वरी मंदिर में इतनी बड़ी संख्या में भक्तगण व दर्शनार्थी उपस्थित रहते हैं कि देवी के दर्शन करना भी दूभर हो जाता है। किन्तु यह मंदिर लगभग खाली था। यहाँ शांत वातावरण में भगवान के सान्निध्य में कुछ क्षण व्यतीत करने का अद्वितीय अनुभव प्राप्त होता है।

यह मंदिर चामुंडेश्वरी मंदिर एवं अन्य समकालीन मंदिरों से पुरातन हो सकता है। यह मंदिर जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसका नाम है महाबलाद्री पहाड़ी। कालांतर में चामुंडी पहाड़ी अधिक लोकप्रिय हो गयी।

यहाँ से निकट ही एक नारायणस्वामी मंदिर भी है।

नंदी मूर्ति एवं शिव मंदिर

चामुंडी पहाड़ी के ऊपर जाती सहस्त्र सीढ़ियों को चढ़ते समय जब आप ७००वीं सीढ़ी पर पहुंचेंगे, आप शिलाओं को उकेर कर बनाई गयी नंदी की एक विशाल प्रतिमा देखेंगे। नंदी की इस प्रतिमा को एक विशाल एकल शिला को उकेर कर बनाया गया है। इसमें नंदी के विभिन्न अवयव अत्यंत यथोचित, सुडौल तथा सटीक अनुपात में निर्मित हैं। हम जानते हैं इस क्षेत्र में नंदी अत्यंत लोकप्रिय हैं। कभी कभी नंदी की प्रतिमा शिवलिंग से भी विशाल बनाई जाती है। भक्तगण चाहे जिस माध्यम से चामुंडेश्वरी मंदिर जा रहे हों, वे मार्ग में यहाँ ठहर कर नंदी के दर्शन अवश्य लेते हैं।

भव्य नंदी प्रतिमा
भव्य नंदी प्रतिमा

यह स्थान छायाचित्रीकरण के लिए भी अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, चाहे वह स्वयं का हो अथवा परिदृश्यों का। यहाँ एक ऐसा चबूतरा है जहाँ से आप नंदी की प्रतिमा के समीप ना जाते हुए भी उत्तम छाया चित्र ले सकते हैं। साथ ही आगे की सीढ़ियाँ चढ़ने से पूर्व भक्तगणों को कुछ क्षण विश्राम करने का भी अवसर मिल जाता है।

नंदी की प्रतिमा लगभग १६ फीट ऊँची तथा लगभग २५ फीट लम्बी है। इसके सामने अपने आकार को देखते हुए नंदी एवं भगवान के समक्ष अपने अस्तित्व की सूक्ष्मता का आभास होता है। नंदी के गले में कई साखलियाँ एवं घंटियाँ हैं जिन्होंने नंदी के सम्पूर्ण पीठ को भी ढँक दिया है। इनको उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित कर बनाया गया है। यह नंदी पर्यटकों को अत्यंत प्रिय है। इसका निर्माण भी डोड्डा देवराज ने करवाया था, जिन्होंने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए सीढ़ियों का निर्माण करवाया था।

यदि नंदी हैं तो शिव भी आसपास ही होंगे। नंदी के चबूतरे के निकट एक छोटा शिव मंदिर है।

महिषासुर मूर्ति

पहाड़ी के ऊपर महिषासुर की एक विशाल प्रतिमा है जिसके हाथों में एक तलवार एवं एक नाग है। महिषासुर की प्रतिमा अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। यह इस तथ्य का भी प्रतीक है कि जब धरती पर अधर्म एक सीमा के पार बढ़ा तो देवताओं को धरती पर अवतरित होना पड़ा।

चामुंडी पहाड़ी

चामुंडी पहाड़ी चामुंडेश्वरी मंदिर के लिए तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही यह पहाड़ी प्रातः एवं संध्याकालीन पदभ्रमण करने, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के दृश्यों का आनंद उठाने व छायाचित्रीकरण करने, यहाँ के सुखमय वातावरण में सराबोर होने के लिए तथा हरियाली भरे परिदृश्यों के दर्शन करने वालों में भी अत्यंत लोकप्रिय है।

मैसूरू नगरी से केवल १३ किलोमीटर दूर होने के पश्चात भी इन पहाड़ियों की श्रंखला लगभग ११ किलोमीटर लम्बी है। इन पहाड़ियों के ऊपर स्थित वन वास्तव में सरकार द्वारा घोषित संरक्षित वन हैं जहाँ वनस्पतियों एवं वन्यप्राणियों की अनेक दुर्लभ प्रजातियाँ पायी जाती हैं। यह एक उष्ण कटिबंधीय कटीला पतझड़ी वन(tropical deciduous thorn scrub forest) है। यहाँ फूलों वाले पौधों के लगभग ४४० प्रजातियाँ पायी जाती हैं। पक्षी प्रेमियों ने यहाँ पक्षियों के लगभग १९० प्रजातियों को ढूंड निकला है जिनमें लगभग १३० प्रजातियाँ स्थानिक हैं।

यहाँ लगभग १५० प्रकार की तितलियों को भी देखा गया है। इस पहाड़ी वन में वानरों, गंधबिलावों(civet), तेंदुओं तथा नेवलों का वास है। चामुंडी पहाड़ी के वनीय प्रदेश में पदभ्रमण के लिए पगडंडियाँ हैं जहाँ भ्रमण कर आप प्रकृति का आनंद उठा सकते हैं। लेकिन यह पदभ्रमण आधिकारिक अनुमति प्राप्त करने के पश्चात किसी परिदर्शक के साथ समूह में ही करिए जो इस प्रकार के रोमांचक गतिविधियों के लिए दक्षता प्राप्त किये हुए हैं।

मैसूरू का विहंगम दृश्य

चामुंडी पहाड़ी के ऊपर से मैसूरू नगरी का अप्रतिम विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है। मैंने इस पहाड़ी के अनेक अवलोकन बिन्दुओं से मैसूरू नगरी को निहारा। वहाँ से मुझे मैसूरू नगरी एक श्वेत नगरी के समान प्रतीत हुई क्योंकि मैसूरू में अनेक प्रमुख संरचनाएं श्वेत रंग की हैं।

चामुंडी पहाड़ी से मैसूर नगर का दृश्य
चामुंडी पहाड़ी से मैसूर नगर का दृश्य

यदि आपके साथ कोई स्थानिक व्यक्ति है अथवा कोई स्थानीय परिदर्शक है तो वह आपको वहीं से मैसूरू नगरी का आकाशीय भ्रमण करा देगा। यदि आकाश स्वच्छ हो तो यहाँ से आप कृष्णराजसागर बाँध तक देख सकते हैं।

ज्वालामालिनी एवं त्रिपुरसुंदरी मंदिर

चामुंडी पहाड़ी से नीचे आते समय आप उत्तानहल्ली गाँव की ओर विमार्ग लें। यह गाँव मुख्य पहाड़ी के लगभग तलहटी पर बसा हुआ है। यहाँ दो मंदिर हैं जो जुड़वा देवियों, ज्वालामालिनी एवं त्रिपुरसुंदरी को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि ये दोनों देवियाँ देवी चामुंडा की बहनें हैं।

ज्वालामालिनी मंदिर
ज्वालामालिनी मंदिर

ये दोनों मंदिर साथ साथ हैं। इस परिसर में एक सुन्दर शिव मंदिर भी है। मुझे यहाँ भैरव की कुछ शैल प्रतिमाएं भी दिखीं जिन्हें किसी भी देवी क्षेत्र का प्रमुख भाग माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ के राजा-महाराजा युद्ध के लिए प्रस्थान करने से पूर्व इस मंदिर में आकर देवी के दर्शन करते थे तथा उनका आशीष ग्रहण करते थे।

यहाँ आसपास के क्षेत्र में आपको देवी के अनेक स्वरूपों को समर्पित कई मंदिर दिखाई देंगे। ठीक वैसे ही जैसे कोल्हापुर में महालक्ष्मी के पास कालिका एवं रेणुका देवी विराजमान हैं।

यात्रा सुझाव:

  • चामुंडेश्वरी मंदिर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। आप इस पहाड़ी पर सीढ़ियाँ चढ़कर जा सकते हैं अथवा वाहन से भी ऊपर तक जा सकते हैं। मैसूरू नगरी से पहाड़ी के ऊपर तक जाने के लिए नियमित बस सेवायें भी उपलब्ध हैं।
  • चामुंडेश्वरी मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ७:२० से दोपहर २ बजे तक, तत्पश्चात दोपहर ३:३० से संध्या ६ बजे तक तथा इसके पश्चात संध्या ७:३० से रात्रि ९ बजे तक है।
  • विशेष दर्शन का भी प्रावधान है जिसमें आप टिकट लेकर एक अन्य द्वार से मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। इस द्वार पर सामान्यतः कम भीड़ रहती है।
  • दोपहर के भोजन के समय मंदिर का महाप्रसाद निशुल्क उपलब्ध रहता है। यदि आप यहाँ कुछ दान-दक्षिणा करने में समर्थ हैं तो अवश्य करें।
  • यदि आपके पास कुछ खाने-पीने की वस्तुएं हैं तो वानरों से सावधान रहें।
  • मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है। बाहर, मंदिर परिसर में आप छायाचित्रीकरण कर सकते हैं।
  • चामुंडी पहाड़ी एक वनीय क्षेत्र है जहाँ अनेक दुर्लभ वन्य प्राणियों का वास है। अतः वनीय प्रदेश में भ्रमण करते समय सावधान रहें।
  • पहाड़ी के ऊपर वाहन खड़ा करने के लिए पर्याप्त स्थान है।
  • पहाड़ी के ऊपर जलपान एवं स्मारिकाओं की दुकानें भी उपलब्ध हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्राचीन बिरजा देवी शक्तिपीठ ओडिशा के जाजपुर नगर में https://inditales.com/hindi/biraja-devi-mandir-jajpur/ https://inditales.com/hindi/biraja-devi-mandir-jajpur/#comments Wed, 08 Jul 2020 02:30:36 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1918

जाजपुर की बिरजा देवी के विषय में मुझे जानकारी उस समय प्राप्त हुई जब मैं आदि शंकराचार्य द्वारा रचित  एक स्तोत्र का अध्ययन कर रही थी जिसमें भारत में स्थित १८ शक्तिपीठों के विषय में जानकारी दी गई थी। उन्होंने इसे ओडयान पीठ का नाम दिया था। यह शब्द ललिता सहस्त्रनाम जैसे अनेक शाक्त साहित्यों […]

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जाजपुर की बिरजा देवी के विषय में मुझे जानकारी उस समय प्राप्त हुई जब मैं आदि शंकराचार्य द्वारा रचित  एक स्तोत्र का अध्ययन कर रही थी जिसमें भारत में स्थित १८ शक्तिपीठों के विषय में जानकारी दी गई थी। उन्होंने इसे ओडयान पीठ का नाम दिया था। यह शब्द ललिता सहस्त्रनाम जैसे अनेक शाक्त साहित्यों में भी उभरकर आता है। तत्पश्चात इंडिका यात्रा सम्मेलन में पुरी यात्रा पर दिए गए प्रस्तुतीकरण के समय मुझे ओडिशा के ४ क्षेत्रों के विषय में जानकारी मिली। जाजपुर इनमें से एक है। अतः स्वाभाविक ही है कि ओडिशा यात्रा नियोजित करते समय बिरजा देवी शक्तिपीठ के दर्शन को अपनी यात्रा कार्यक्रम में सम्मिलित करना ही था। भीतरकनिका से वापिस आते समय हमने बिरजा  देवी शक्तिपीठ के दर्शन किये।

जाजपुर का संक्षिप्त इतिहास

जाजपुर शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द याजपुर अथवा यज्ञपुर से हुई है। इस नगरी से संबंधित किवदंती हमें उस काल में ले जाती है जब ब्रह्माजी ने इस स्थान पर यज्ञ किया था। इस स्थान के विषय में ऐसी भी मान्यता है कि यहाँ विभिन्न अश्वमेध यज्ञ किये गए थे। इस स्थान को जाजपुर कहने का यह भी एक कारण हो सकता है।

बिरजा देवी मंदिर संकुल
बिरजा देवी मंदिर संकुल

८ वीं. सदी से १० वीं. सदी के मध्य पर्यंत जाजपुर ओडिशा क्षेत्र की राजधानी थी। इस समयावधि में इस क्षेत्र में ६ साम्राज्ञियों ने भी शासन किया था। तत्पश्चात ओडिशा की राजधानी अनेक स्थानों में स्थानांतरित हुई जिनमें भुवनेश्वर एक है।

१६ वीं. सदी के मध्य में बंगाल के कालापहाड़ ने जब ओडिशा के जगन्नाथपुरी एवं कोणार्क जैसे अनेक महत्वपूर्ण मंदिरों को ध्वस्त किया था, तब उसने जाजपुर में भी आक्रमण किया था। उसने यहाँ के भी सभी प्राचीन मंदिरों को तहस-नहस कर दिया था।

बिरजा देवी की कथा

बिरजा देवी जाजपुर
बिरजा देवी जाजपुर

बिरजा देवी को आद्या अर्थात मूल देवी माना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि यहाँ चंपक वन में ब्रह्मा द्वारा किये गए यज्ञ में से उनकी उत्पत्ति हुई थी। यद्यपि उन्हे इस क्षेत्र में बिरजा देवी कहा जाता है तथापि आदि शंकराचार्य तथा अन्य शास्त्र उन्हे गिरिजा पुकारते हैं जिसका अर्थ पार्वती होता है, अर्थात पर्वत से उत्पन्न। मंदिर से ली एक पुस्तक में मैंने उनके नाम का एक अन्य विवेचन पढ़ा था जो इस प्रकार है, बिरजा का अर्थ है रज के बिना अथवा जिसमें केवल सत्व गुण उपस्थित हों। चूंकि उनकी उत्पत्ति विष्णु यज्ञ द्वारा हुई थी, उन्हे वैष्णवी के रूप में भी पूजा जाता है।

और पढ़ें: कोल्हापूर का महालक्ष्मी शक्तिपीठ

बिरजा देवी की खड़ी प्रतिमा दो हस्त धारी है। उन्होंने बाएं हाथ से महिषासुर की पूंछ पकड़ी हुई है तथा दायें हाथ से त्रिशूल द्वारा उसका वध कर रही है। ऐसी प्रतिमा विरली है क्योंकि अधिकतर प्राचीन देवी प्रतिमाओं में उन्हे दो से अधिक हस्तों वाली दर्शाया गया है। इन में अन्य शक्तिपीठ भी सम्मिलित हैं।

बिरजा देवी महिषासुर वध करती हुई
बिरजा देवी महिषासुर वध करती हुई

बिरजा देवी की प्रतिमा शास्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है उनका मुकुट। उनके मुकुट पर गणेश, नागराज वासुकि, योनि सहित शिवलिंग, चंद्र इत्यादि की सूक्ष्म प्रतिमाएं हैं। उनका मुकुट हिन्दू धर्म के चारों पंथों का समागम करता है। विषय के ज्ञानी इसका यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि अंततः सर्व पंथ हमें आद्या की ओर अग्रसर करते हैं। उस परा-शक्ति बिरजा देवी की ओर ले जाते हैं।

ऐसी मान्यता है कि उनका जन्म पौष अर्थात त्रिवेणी अमावस्या के दिन हुआ था। उस दिन गायत्री मंत्रों के उच्चारों द्वारा उनकी अभिषेक किया जाता है।

और पढ़ें: ५० भारतीय नगरों के नाम – देवी के नामों पर आधारित

ऐसा माना जाता है कि जब क्रोधित भगवान शिव देवी सती की मृत देह उठाए तांडव नृत्य कर रहे थे। तब उनका क्रोध शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने चक्र द्वारा देवी की देह को छिन्न-भिन्न किया था। उस समय देवी की नाभि इस क्षेत्र में गिरी थी। इसीलिए यह एक शक्तिपीठ है तथा इसे नाभि पीठ भी कहा जाता है।

यह मंदिर उस त्रिकोण के मध्य स्थित है जिसके तीन कोण तीन शिव मंदिर हैं। वे हैं, किलटेश्वर, वरुणेश्वर तथा विल्वेश्वर। इनमें से दो अब जलमग्न हैं।

५ व अथवा ब की भूमि

जाजपुर के सप्तमत्रिका मंदिर में पुजारी भोला नाथ पंडा जी ने मुझे ५ व, जिसे ओडिशा में ब बोला जाता है, के विषय में जानकारी दी कि ये ५ व बिरजा क्षेत्र की पवित्र भूगोल की रचना करते हैं। वे हैं:

  • वराह – विष्णु के इस अवतार की यहाँ आराधना की जाती है।
  • विरजा देवी – इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी
  • वेद – विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान
  • विप्र अथवा ब्राह्मण
  • वैतरणी नदी जो यहाँ बहती है।

जाजपुर के दर्शनीय स्थल

वैतरणी नदी के तीर स्थित जाजपुर एक छोटी सी नगरी है। वैतरणी ऐसी नदी है जिसे यहाँ आए सभी को एक ना एक बार पार करनी ही पड़ती है। अधिकतर तीर्थस्थलों के समान जाजपुर नगरी भी बिरजा देवी मंदिर के चारों ओर ही केंद्रित है। जिस दिन मैं जाजपुर भ्रमण के लिए आई थी, मैंने बिरजा देवी मंदिर के अतिरिक्त इस प्राचीन नगरी के अन्य कई आकर्षक स्थलों के भी दर्शन किये थे। आईए मैं आपको इस सुंदर नगरी के दर्शन पर ले चलती हूँ।

बिरजा देवी मंदिर संकुल

बिरजा देवी मंदिर का शिखर
बिरजा देवी मंदिर का शिखर

प्रथम दर्शन में बाहर से मंदिर चारदीवारी से घिरे एक छोटे दुर्ग के समान प्रतीत होता है। हमने संध्या के पश्चात नगर में प्रवेश किया था। अल्प प्रकाश के कारण इस मंदिर संकुल ने कम से कम मुझे तो यही आभास दिया था। दूसरे दिन प्रातः काल जब हमने मंदिर के दर्शन किये तब मंदिर अत्यंत भिन्न स्वरूप में प्रकट हुआ। दो सिंहों द्वारा रक्षित, एक रंग बिरंगे प्रवेश द्वार से जैसे ही हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया, एक अत्यंत जीवंत मंदिर हमारे समक्ष उपस्थित था।

स्वच्छ श्वेत रंग के मंदिर के शिखर एवं मंडप के ऊपर रंग बिरंगे अमलका थे। कारीगर इस पर निर्मल श्वेत रंग की परत चढ़ा रहे थे। मुख्य मंदिर के चारों ओर इसी प्रकार के कई और छोटे मंदिर थे।

बिरजा मंदिर संग्रहालय

बिरजा मंदिर का रंग भरा द्वार
बिरजा मंदिर का रंग भरा द्वार

मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बाईं ओर एक संग्रहालय है जो देवी की कथा से आपका परिचय कराता है। मेरे देखे किसी भी मंदिर में इस प्रकार के संग्रहालय का अवलोकन मुझे स्मरण नहीं। एक लघु कक्ष में चित्रावलियों के माध्यम से देवी की कथा दर्शाई गई है। ब्रह्म का यज्ञ, सुभ स्तंभ नामक शिला स्तंभ से देवी का उद्भव, उनके द्वारा महिषासुर का वध, नवदुर्गा के रूप में उनके विभिन्न स्वरूप इत्यादि का मनमोहक चित्रण किया गया है।

कक्ष के मध्य में देवी में से उनके तीन मूल स्वरूप, महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती का अवतरण प्रदर्शित किया गया है। कक्ष के एक कोने में शिव की एक विशेष प्रतिमा है जो एक दिशा से देखने पर अर्धनारीश्वर प्रतीत होती है।

यह एक छोटा सा कथावाचक क्षेत्र है जो अनभिज्ञ दर्शकों का देवी एवं इनके मंदिर से परिचय कराता है। यहीं से मुझे नगर के अन्य दर्शनीय स्थलों की भी जानकारी प्राप्त हुई। मैं संग्रहालय के अभीक्षक श्रीकांत जी का आभार प्रकट करना चाहती हूँ जिन्होंने गहन रुचि के साथ मुझे संग्रहीत वस्तुओं के विषय में जानकारी प्रदान की।

बिरजा देवी मंदिर

सिंह स्तम्भ
सिंह स्तम्भ

आप सर्वप्रथम देवी के वाहन, सिंह से भेंट करते हैं जो एक शिला स्तंभ पर विराजमान हैं। इस मंदिर का निर्माण ओडिया मंदिर-वास्तु शैली में किया गया है। इस शैली में निर्मित मंदिरों में आप वाहन को स्तंभ के ऊपर आरूढ़ देखेंगे जबकि अन्य मंदिरों में देवी के समक्ष उनका अपना मंडप अथवा पीठिका होती है।

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मंडप के भीतर लाल रंग के चार स्तंभ हैं। इन स्तंभों के एक ओर से घूमते हुए आप गर्भगृह पहुंचते हैं। मध्य में नित्य धूनी प्रज्वलित रहती है। आप अपने समक्ष ओडिया साड़ी एवं भरपूर पुष्पों से अलंकृत देवी की प्रतिमा देखेंगे। अलंकरण के कारण आप देवी की मूल प्रतिमा नहीं देख पाते। उनकी प्रतिमा को देखने का उत्तम स्थान संग्रहालय है।

देवी को दक्षिणा अर्पित करने तथा उनके चरणामृत प्राप्त करने के लिए पंडे माध्यम का कार्य करते हैं।

बिरजा देवी मंदिर संकुल के अन्य मंदिर

बगलामुखी मंदिर
बगलामुखी मंदिर

बगलामुखी मंदिर – मुख्य मंदिर के पृष्ठभाग में, बाईं ओर एक छोटा एवं सुंदर बगलामुखी मंदिर है। कुछ भक्तगण देवी को भ्रमराम्बिका भी पुकारते हैं क्योंकि आंध्र प्रदेश से भी अनेक भक्त इस मंदिर में दर्शनार्थ आते है। लकड़ी द्वारा निर्मित मुख्य द्वार पर सभी १० महाविद्याएँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर के चारों ओर महामाया, महाकाली एवं कपाल भैरव की प्रतिमाएं हैं।

एक पाद भैरवी एवं द्विपाद काली
एक पाद भैरवी एवं द्विपाद काली

एक पाद भैरवी मंदिर – दाईं ओर एक पाँव वाली भैरवी को समर्पित एक मंदिर है। इसी कारण इन्हे एक पाद भैरवी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि कलयुग के अंत में यह मूर्ति यहाँ से चली जाएंगी।

शिव मंदिर – यह मुख्य मंदिर के स्वयंभू क्षेत्रपाल हैं।

बाबा वैद्यनाथ मंदिर – यह मुख्य मंदिर के समक्ष एवं उसी शैली में निर्मित मंदिर है।

बिरजा देवी मंदिर का डोला मंडप
बिरजा देवी मंदिर का डोला मंडप

डोला मंडप –  यह तोरण युक्त एक मंडप है। होली के दिन यहाँ एक झूला लटकाया जाता है तथा देवी बाहर आकर झूले पर बैठकर होली खेलती हैं।

कोटि लिंग का एक लिंग
कोटि लिंग का एक लिंग

कोटी लिंग – आप यहाँ दो बड़े कक्ष देखेंगे जो शिवलिंगों से भरे हुए हैं। इनमें से कई सहस्त्रलिंग भी हैं, अर्थात एक लिंग पर अनेक सूक्ष्म लिंग उत्कीर्णित हैं। मुझे बताया गया कि जाजपुर करोड़ लिंगों अर्थात कोटी लिंगों की भूमि है। आज भी जब भूमि की खुदाई की जाती है तब भूमि से लिंग प्राप्त होते हैं। ऐसी मान्यता है कि ये सभी लिंग अपनी अर्चना करवाने के लिए यहाँ प्रकट हुए हैं। मंदिर परिसर में स्थित लिंगों की विशाल संख्या देख आप इस प्राचीन नगरी की संस्कृति की कल्पना कर सकते हैं।

नाभि गया

बिरजा देवी मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहाँ पिंड दान के अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं। यह इकलौता शक्तिपीठ है जहां इस प्रकार के अनुष्ठान किये जाते हैं। इस मंदिर में एक कुआं है जिसे नाभि गया कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह गयासुर का मध्य भाग है जिसका शीष बिहार के गया में तथा निचला भाग आंध्र प्रदेश के पीठपुरा में है।

नाभि गया
नाभि गया

इस स्थान पर कोई भी भक्त अपने पूर्वजों के श्राद्ध हेतु अनुष्ठान करवा सकता है। अब यह आधुनिक सरैमिक टाइल से ढँका कुआं है।

इस कक्ष के एक कोने में एक छोटा सा द्वार तथा नीचे जाती सीढ़ियाँ हैं जो शिवलिंग की ओर ले जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि आगे जाकर यह गंगा से जुड़ जाती हैं। ऐसी भी मान्यता है कि प्रत्येक अमावस्या, पूर्णिमा तथा संक्रांति के दिन जल सतह चढ़ता है तथा शिवलिंग को पवित्र स्नान कराता है।

वरदायिनी वृक्ष – मंदिर परिसर में एक विशाल वृक्ष पर अनेक लाल वस्त्र बंधे हुए हैं। ये सभी इच्छा फल प्राप्ति से संबंधित है।

बिरजा देवी मंदिर के उत्सव

शरद नवरात्रि के अवसर पर इस मंदिर में १६ दिवसों का उत्सव मनाया जाता है। इन दिनों सिंहध्वज नामक एक भव्य रथ पर बिरजा देवी की रथ यात्रा आयोजित की जाती है। यह भी इस शक्तिपीठ की विशेषता है।

यज्ञ कुंड से देवी के उद्भव की स्मृति में माघ मास की अमावस अर्थात त्रिवेणी अमावस के दिन भी उत्सव मनाया जाता है।

चैत्र मास में वैतरणी नदी के तट पर वारुणी मेला लगता है।

होली भी इस मंदिर का एक प्रमुख उत्सव है।

जाजपुर के अन्य मंदिर एवं दर्शनीय स्थल

ब्रह्म कुंड

ब्रह्म कुंड - जाजपुर
ब्रह्म कुंड – जाजपुर

मंदिर के जलकुंड के विषय में मान्यता है कि यह ब्रह्माजी का वही यज्ञ कुंड है जिसमें से देवी का उद्भव हुआ था। यह कुंड चारों ओर से वनीय क्षेत्र से घिरा हुआ था जिसे चंपक वन कहा जाता है। वर्तमान में अब यह स्थान हलचल भरी नगरी के मध्य आ गया है।

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सुभ स्तंभ

शुभ स्तम्भ - जाजपुर
शुभ स्तम्भ – जाजपुर

यह शिला में निर्मित एक प्राचीन स्तंभ है जो चारों ओर से बाड़ से घिरी हुई है। समीप ही एक प्राचीन वट वृक्ष भी है। वृक्ष की परिधि उसके वय का अनुमान दे देती है किन्तु शिला स्तंभ को सूक्ष्मता से ना देखें तो आप इसे बिजली का स्तंभ समझने की भूल कर सकते हैं। यह मंदिर का ही एक भाग है। कदाचित मंदिर की सीमा कभी यहाँ तक थी। इस स्तंभ के शीर्ष पर एक गरुड़ की प्रतिमा थी किन्तु अब उस गरुड़ को समर्पित स्वयं का एक मंदिर है। बिरजा देवी के सभी चित्रण में आप इस स्तंभ को अवश्य देखेंगे।

विद्वानों का मानना है कि यह सोमवंशी सम्राट ययाति-१ का विजय स्तंभ है।

कुसुमा झील

कुसुम झील - जाजपुर
कुसुम झील – जाजपुर

नगर के मध्य स्थित इस विशाल झील का रखरखाव अतिउत्तम है। इसके चारों ओर सैर करने के लिए सुंदर पगडंडी है। कुछ कुछ दूरी पर मूर्तियाँ स्थापित हैं जिसके चारों ओर पुष्प हैं। मैं केवल दूर से ही इसका अवलोकन कर पायी थी। यदि भारत के प्रत्येक नगर में इस प्रकार का उत्तम झील हो तो भारत एक स्वस्थ राष्ट्र होगा।

रक्षाकाली मंदिर

प्राचीन वाराही देवी प्रतिमा - जाजपुर
प्राचीन वाराही देवी प्रतिमा – जाजपुर

यह एक प्राचीन दक्षिण-काली मंदिर है जो प्राचीन प्रतीत नहीं होती। इस मंदिर का इकलौता प्राचीन भाग है मंदिर के बाहर स्थित वाराही देवी की एक विशाल मूर्ति। मैं सोच में पड़ गई, कहीं यह किसी समय वाराही मंदिर तो नहीं था?

जगन्नाथ मंदिर

जगन्नाथ मंदिर
जगन्नाथ मंदिर

ठेठ ओडिशा वास्तुशैली में निर्मित यह एक प्राचीन जगन्नाथ मंदिर है। मंदिर का ऊपरी भाग सादा है किन्तु इसके निचले भाग की शिला पटलों पर मूर्तियाँ गढ़ी हुई हैं। जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलभद्र की अप्रतिम प्रतिमाओं की मंदिर में पूजा अर्चना की जाती है।

पाषाण पात्र
पाषाण पात्र

यहाँ मेरा ध्यान एक सुंदर शिला पात्र पर गया। चौकोर आकार के इस पात्र में चरणामृत रखा जाता है। कदाचित इससे पूर्व मेरा ध्यान नहीं गया होगा, किन्तु इसके पश्चात मैंने जिस भी मंदिर के दर्शन किये उनमें से अधिकतर मंदिरों में इस प्रकार के पात्र को देखा।

इस मंदिर के पृष्ठभाग में एक अपेक्षाकृत नवीन जलकुंड है।

बूढ़ा अथवा वृद्ध गणेश मंदिर

यह मंदिर सप्त मातृका मंदिर के समीप स्थित है। यह मंदिर किसी समय मुख्य मंदिर का ही भाग था अथवा यह पूर्व से ही एक स्वतंत्र मंदिर है यह आंकना कठिन है। मंदिर के समीप जैन तीर्थंकर की एक मूर्ति तथा कुछ प्राचीन मूर्तियाँ स्थित हैं।

सप्त मातृका मंदिर

वैतरणी तट पर सप्त मातृका मंदिर
वैतरणी तट पर सप्त मातृका मंदिर

जाजपुर में यह मंदिर मेरे लिए एक नवीन खोज थी। इस मंदिर के विषय में मैंने मेरी इस यात्रा में ही सुना था। मन-मस्तिष्क में एक छोटे से मंदिर की कल्पना मात्र थी। मंदिर तो छोटा ही था किन्तु इसकी मूर्तियाँ विशाल थीं। काली शिला द्वारा निर्मित सप्त मातृकाओं अर्थात सात माताओं की प्रतिमाएं अत्यंत महाकाय एवं शक्तिशाली प्रतीत होती हैं। इन्हे देखते क्षण ही हृदय में श्रद्धायुक्त भक्ति एवं संभावित भय की भावना उत्पन्न होती है। ६ फीट से अधिक ऊंची व ३ फीट से अधिक चौड़ी प्रत्येक मूर्ति विशालकाय है। चंडिका के अतिरिक्त सभी मातृकाओं ने हल्के पीले रंग की साड़ियाँ पहनी थीं जिन पर लाल रंग में भिन्न भिन्न छाप थे। काली अपने काले वस्त्रों में सज्ज थीं।

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वस्त्रों के कारण मूर्तियों के ढके भागों का विस्तृत विवरण मैं नहीं जान पायी। कुछ समय पश्चात मैंने पढ़ा कि प्रत्येक मातृका ने हाथों में एक शिशु को उठाया हुआ है। ये सात मातृकाएं इस क्रम में उपस्थित हैं:

  • शमशान काली
  • चामुंडा
  • वराही
  • इंद्राणी
  • वैष्णवी
  • ब्राह्मी
  • कौमारी
  • माहेश्वरी
  • नारसिंही

मुझे बताया गया कि किसी समय यहाँ एक विशाल सप्त मातृका मंदिर था जिसे आक्रमणकारियों से ध्वस्त कर दिया था। पुजारियों ने इन मूर्तियों की रक्षा करने के लिए इन्हे वैतरणी नदी में धकेल दिया था। अनेक वर्षों पश्चात प्रसिद्ध राजा ययाति केसरी ने इन प्रतिमाओं को नदी से बाहर निकाल कर उनके लिए वहीं नदी किनारे एक छोटा सा मंदिर बनाया। यह मंदिर एक लंबे कक्ष के समान है जो केवल इतना ही बड़ा है कि केवल इन मूर्तियों को समा ले। पुजारी के आनेजाने के लिए थोड़ा सा  स्थान शेष है।

इस मंदिर का प्रवेश द्वार सामने ना होकर एक बाजू में है। चार झरोखे नदी की ओर खुलते हैं जहां से आप मातृकाओं को देख सकते हैं।

वराह मंदिर संकुल

वैतरणी नदी के उस पार एक वराह मंदिर संकुल है। इस मंदिर की भीतरी छत पर अप्रतिम चित्रकारी की गई है।

जाजपुर का वराह मंदिर संकुल
जाजपुर का वराह मंदिर संकुल

यहाँ वराह की दो प्रतिमाओं के साथ जगन्नाथ एवं लक्ष्मी की भी प्रतिमाएं हैं। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ वराह की तीन प्रतिमाएं थीं।

  • यज्ञ वराह
  • श्वेत वराह
  • लक्ष्मी वराह
यज्ञ वराह, श्वेत वराह, लक्ष्मी एवं जगन्नाथ
यज्ञ वराह, श्वेत वराह, लक्ष्मी एवं जगन्नाथ

कालांतर में लक्ष्मी वराह की मूर्ति को समीप के एक गाँव में स्थानांतरित किया गया तथा उसके स्थान पर जगन्नाथ तथा लक्ष्मी की मूर्तियों को स्थापित किया गया। लक्ष्मी वराह यह नाम वर्तमान के कल्प का है जिसमें हम जी रहे हैं।

राम दरबार - वराह मंदिर में
राम दरबार – वराह मंदिर में

वराह मंदिर के चारों ओर अनेक लघु मंदिर हैं जो बिमला देवी, मुखलिङ्ग समेत शंकर, षष्ठी देवी, मुक्तेश्वर महादेव, सूर्य, चैतन्य महाप्रभु, राम दरबार, हनुमान, नरसिंह इत्यादि को समर्पित है।

जाजपुर यात्रा से संबंधित कुछ सुझाव

  • जाजपुर एक प्रमुख तीर्थस्थल होते हुए भी यहाँ अधिक पर्यटक अथवा तीर्थयात्री नहीं आते हैं।
  • पुरानी नगरी से कुछ ३० किलोमीटर की दूरी पर नवीन जाजपुर नगरी है जो एक औद्योगिक नगरी है तथा विकसित प्रतीत होती है। अच्छे तथा सुविधाजनक अतिथिगृह अधिकांशतः इस क्षेत्र में हैं। दो नगरों के मध्य आवाजाई के लिए मोटरगाड़ी की आवश्यकता पड़ती है।
  • मंदिर के आसपास सादे भोजन की व्यवस्था हो जाती है।
  • मंदिर दर्शन हेतु ३ घंटों के समय सहित मैंने जाजपुर दर्शन में कुल एक दिन का समय व्यतीत किया। आप आधे दिन में भी यहाँ बहुत कुछ देख सकते हैं।
  • आप छतिया बट्ट धाम कल्की मंदिर देख सकते हैं जो विष्णु के भविष्य में आने वाले कल्की अवतार को समर्पित है तथा यहाँ से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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योगमाया मंदिर – महरौली स्थित दिल्ली का शक्ति पीठ https://inditales.com/hindi/yogmaya-mandir-shaktipeeth-delhi/ https://inditales.com/hindi/yogmaya-mandir-shaktipeeth-delhi/#comments Wed, 03 Jun 2020 02:30:11 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1956

महरौली में स्थित योगमाया मंदिर संभवतः दिल्ली का प्राचीनतम जीवंत मंदिर है। यह मंदिर प्रसिद्ध कुतुब मीनार संकुल के ठीक पृष्ठभाग में स्थित है। महरौली स्वयं भी दिल्ली के प्राचीनतम आवासीय क्षेत्रों में से एक है। यह इस्लाम-पूर्व काल की प्रथम राजधानी रहा है। उस काल के सभी शासकों ने यहाँ से शासन किया था। […]

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महरौली में स्थित योगमाया मंदिर संभवतः दिल्ली का प्राचीनतम जीवंत मंदिर है। यह मंदिर प्रसिद्ध कुतुब मीनार संकुल के ठीक पृष्ठभाग में स्थित है।

देवी योगमाया मंदिर - दिल्ली
देवी योगमाया मंदिर – दिल्ली

महरौली स्वयं भी दिल्ली के प्राचीनतम आवासीय क्षेत्रों में से एक है। यह इस्लाम-पूर्व काल की प्रथम राजधानी रहा है। उस काल के सभी शासकों ने यहाँ से शासन किया था। एक काल में यह एक सशक्त हिन्दू व जैन क्षेत्र था। किन्तु इस क्षेत्र को इस्लामिक क्षेत्र में परिवर्तित करने के लिए इसकी इस छाप को अधिकांशतः नष्ट कर दिया गया। मंदिरों को नष्ट कर मस्जिदों का निर्माण किया गया। ऊंची ऊंची मीनारों का निर्माण कराया गया।

एक मंदिर जो इन विनाशकारी आक्रमणों से अप्रभावित बचा रहा, वह था योगमाया मंदिर। जब आप कुतुब संकुल से महरौली बस स्थानक की ओर जाएंगे, तब आप अपने दाहिने ओर एक पत्थर का प्रवेश द्वार देखेंगे जिसके दोनों ओर द्वार को अलंकृत करते दो सिंहों की प्रतिमाएं हैं। प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश करने के पश्चात  जब आप लगभग १५० मीटर आगे बढ़ेंगे तब आप अपनी बाईं ओर यह मंदिर देखेंगे।

जैन शास्त्रों में दिल्ली के इस महरौली क्षेत्र को योगिनीपुर कहा गया है। कदाचित इस मंदिर के नाम पर ही इस क्षेत्र का नामकरण किया गया था। दादाबाड़ी जैसे अनेक प्राचीन जैन मंदिर अब भी इस क्षेत्र में अस्तित्व में हैं। इन्हे देख इस संबंध को समझना कठिन नहीं है।

योगमाया की लोककथा

 योगमाया मंदिर या जोगमाया मंदिर एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है। यह मंदिर ५००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन माना जाता है। इसका अर्थ है यह द्वापर युग का मंदिर है जब महाभारत युद्ध हुआ था।

देवी योगमाया को आदि शक्ति महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है। यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ देवी सती का मस्तक यहाँ गिरा था जो यहाँ एक पिंडी के रूप में उपस्थित है। योगमाया देवी को सत्व गुण प्रधान देवी माना जाता है। इसीलिए इस मंदिर में किसी भी प्रकार की बलि, निरामिष आहार एवं सुरा के अर्पण पर प्रतिबंध है।

योगमाया श्री कृष्ण की भगिनी थी जो कृष्ण के पालक माता-पिता यशोदा एवं नन्द की पुत्री थी। जब देवकी एवं वासुदेव के आठवें पुत्र का वध करने की मंशा से कसं कारागृह पहुंचा तथा कृष्ण के भ्रम में उसके स्थान पर लेटी यशोदा एवं नन्द की पुत्री को उठकर भित्ति पर पटका तब वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में लुप्त गई। जाते जाते बालिका ने भविष्यवाणी की कि कसं की मृत्यु विष्णु के जिस आठवें अवतार के हाथों होगी, उसने जन्म ले लिया है। तत्पश्चात वह बालिका विंध्याचल पर्वत पर जाकर वहाँ विंध्यावासिनी के रूप में निवास करने लगी। वहाँ पर्वत के ऊपर उन्हे समर्पित एक मंदिर भी है। दुर्गा सप्तशती में भी यह उल्लेख है कि इस समय चक्र में उन्होंने यशोदा एवं नन्द की पुत्री के रूप में जन्म लिया है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि योगमाया देवी का मस्तक दिल्ली में है तथा उनके चरण विंध्याचल में हैं।

महाभारत एवं योगमाया

कुछ सूत्रों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण स्वयं श्री कृष्ण ने किया था। यह उस समय की कथा है जब श्री कृष्ण एवं अर्जुन महाभारत युद्ध के समय इस योगमाया मंदिर में आराधना करने आए थे। जब युद्ध में जयद्रथ ने अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का वध किया था तब अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि वे आगामी संध्याकाल तक जयद्रथ का वध कर देंगे अन्यथा स्वयं अग्नि में प्राण अर्पण कर देंगे। अगले दिन कौरवों ने सम्पूर्ण दिवस जयद्रथ को अर्जुन से दूर रखा। इससे जयद्रथ का वध असंभव होने लगा था।

उस समय कृष्ण एवं अर्जुन इस मंदिर में आए तथा देवी से सहायता की गुहार लगाई। देवी ने अपनी माया से अल्पकालीन सूर्य ग्रहण की स्थिति उत्पन्न कर दी। संध्या के भ्रम में जब जयद्रथ असावधान हुआ तब अर्जुन ने जयद्रथ का वध किया।

एक अन्य किवदंती में यह कहा गया है कि महाभारत युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर ने इस मंदिर का निर्माण किया था।

जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं इसी तथ्य से संतुष्ट हूँ कि यह एक प्राचीन मंदिर है तथा यहाँ योगमाया की अनवरत पूजा अर्चना की जाती है।

महरौली के योगमाया मंदिर का इतिहास

योगमाया चौहान राजाओं की कुलदेवी हैं। चौहान राजाओं ने दिल्ली के किला राय पिथौरा से राजपाट संभाला था।

आप सोचते होंगे कि यह प्राचीन मंदिर दिल्ली में हुए अनेकों आक्रमणों से कैसे सुरक्षित बच पाया? एक लंबे समय तक यह मंदिर शब्दशः आक्रमणों की आंधी के मध्य में स्थित था। सर्वप्रथम इस पर गजनी ने आक्रमण किया, तत्पश्चात इस्लामी आक्रमणकारियों ने। १६ वीं. सदी के मध्य में हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य हेमू ने इस मंदिर का नवीनीकरण किया था।

१७ वी. सदी के अंत में औरंगजेब ने सभी मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया था जिसमें यह मंदिर भी सम्मिलित था। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर को ध्वस्त करने की चेष्टा करते समय औरंगजेब की सेना को विचित्र अनुभव हुए। दिन के समय वे मंदिर का जितना भाग नष्ट करते थे, रात्रि के समय मंदिर पुनः सम्पूर्ण हो जाता था। इस प्रक्रिया में वे अपने हाथों को खोने लगे थे। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। तब औरंगजेब ने हार मान ली। इस प्रकार यह मंदिर बच गया। इस मंदिर के चारों ओर आप एक लंबा कक्ष देखेंगे। आक्रमणकारी इसे एक मस्जिद में परिवर्तित करना चाह रहे थे। स्मरण रहे कि मंदिर की संरचना सदैव चौकोर होती है तथा मस्जिद का कक्ष लंबा होता है। यह बाहरी कक्ष का अब मंदिर के भंडार गृह के रूप में उपयोग किया जाता है जहां यहाँ की निशुल्क भोजन व्यवस्था के लिए खाद्य पदार्थों का भंडारण किया जाता है।

हम ऐसा कह सकते हैं कि देवी माँ के उपासक स्थानीय निवासियों ने ही इस मंदिर को अब तक सुरक्षित एवं संरक्षित रखा है।

बहुत कम लोग यह जानते हैं कि भारत की प्रसिद्ध १८५७ की क्रांति की योजना भी इस मंदिर के प्रांगण में बनाई गई थी।

इस मंदिर को दिल्ली में महाभारत काल के पाँच जीवंत मंदिरों में से एक माना जाता है। एक अन्य प्राचीन मंदिर है भैरव मंदिर जो पुराना किला के बाहर स्थित है। यह पांडवों के इंद्रप्रस्थ नगरी की भूमि थी। अन्य प्राचीन मंदिर निगम बोध घाट के समीप तथा पुरानी दिल्ली की गलियों में स्थित हैं, जैसे खारी बाउली।

योगमाया मंदिर के दर्शन

अवस्थिति की दृष्टि से यह मंदिर लाल कोट की भित्तियों के भीतर स्थित है। लाल कोट तोमर राजाओं द्वारा ८ वीं. सदी में निर्मित दिल्ली का दुर्ग है। मंदिर के समीप एक सूर्य मंदिर भी था किन्तु अब उसका कहीं अता-पता नहीं है।

यह अपेक्षाकृत छोटा मंदिर है। यदि आपको इसके दीर्घकालीन इतिहास की जानकारी नहीं हो तो आप यह मंदिर सहज ही अनदेखा कर सकते हैं। मुझे बताया गया कि मंदिर की उत्तर दिशा में एक जलकुंड अथवा जोहड़ है जिसका नाम अनंग ताल है। किन्तु मैं इसे ढूंढ नहीं पायी।

मंदिर न्यास

योगमाया मंदिर का प्रबंधन अब एक न्यास द्वारा किया जाता है। वत्स पुरोहितों के एक परिवार ने सदियों से इस मंदिर की देखरेख की है। मैंने मंदिर के गर्भगृह के भीतर पूजा-अर्चना करती एक प्रौड़ स्त्री से चर्चा की। वह स्त्री इसी वत्स परिवार की बड़ी बहू है। उन्होंने मुझे बताया कि वत्स परिवार अब अत्यंत विशाल हो जाने के कारण वे बारी बारी से मंदिर में पूजा करते हैं। उस वर्ष मंदिर में पूजा-अर्चना का दायित्व उनके परिवार पर था।

उनके हाथों में दुर्गा सप्तशती की एक प्रति थी। उन्होंने जानकारी दी कि अभी जो मंदिर वहाँ है वह ६० वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। मंदिर का छोटा सा गर्भगृह, जिसे देवी का भवन कहा जाता है, सैकड़ों वर्ष प्राचीन है। इतने वर्षों में गर्भगृह के भीतर कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया है। हाँ, संगमरमर एवं टाइलें अवश्य कालांतर में जोड़े गए हैं।

दैनंदिनी अनुष्ठान

वस्त्रों एवं पुष्पों से ढँकी देवी की जो छवि आप देखते हैं वह देवी की मूल प्रतिमा पर ढंका एक आवरण है। जैसा कि मैंने पूर्व में भी लिखा है, मूल देवी एक कुएं के समान संरचना के भीतर पिंडी स्वरूप में विराजमान हैं।

वत्स पुरोहित परिवार की बड़ी बहू ने मुझे मंदिर के दैनिक अनुष्ठानों के विषय में विस्तृत जानकारी दी जिसमें देवी का स्नान एवं शृंगार अनुष्ठान सम्मिलित हैं जो प्रतिदिन दो बार किये जाते हैं। जल, दूध,दही एवं मध द्वारा उनका स्नान अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है जिन्हे अनुष्ठान के पश्चात चरणामृत अथवा प्रसाद के रूप में भक्तों में वितरित किया जाता है। देवी का शृंगार पुरुष करते हैं। गर्भगृह अत्यं लघु होने के कारण अधिक लोग एक साथ भीतर नहीं जा सकते हैं।

उन्होंने मुझे समझाया कि देवी शक्ति रूप में विद्यमान हैं तथा शक्ति के संग शिव सदैव विराजमान रहते हैं। समीप स्थित शिवलिंग की ओर संकेत करते हुए उन्होंने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि शिवलिंग के आधार का स्तर देवी की पीठिका के स्तर से किंचित ऊंचा है। उन्होंने मुख्य मंदिर से लगे एक लंबे कक्ष की ओर संकेत करते हुए मुझे बताया कि वह कक्ष औरंगजेब द्वारा मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित करने के प्रयास के तहत बनाया गया था।

उन्होंने मुझे मंदिर की छत को अलंकृत करते सुंदर पंखे दिखाए। छत के मध्य में लगा बड़ा पंखा भारत के राष्ट्रपति ने ‘फूल वालों की सैर’ उत्सव के उपलक्ष में मंदिर को भेंट स्वरूप प्रदान किया था। अन्य पंखे अन्य सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रदान किये गए हैं।

वत्स पुरोहित परिवार की बड़ी बहू से वार्तालाप करना इस मंदिर में मेरे भ्रमण का सर्वाधिक रोचक भाग था। जब वे मंदिर के विषय में जानकारी प्रदान कर रही थीं तब उनका वात्सल्य छुपाये नहीं छुप रहा था। उन्होंने जिन तथ्यों की जानकारी दी एवं जिस प्रकार दी, वह देवी के प्रति उनकी सम्पूर्ण भक्ति दर्शा रहा था।

उनके स्वरों में देवी के प्रति कृतज्ञता थी तथा परमानन्द की अनुभूति थी जो उनके प्रिय देवी के संग समय व्यतीत कर पाने के कारण वे अनुभव के रही थीं। आज के काल में ऐसे किसी व्यक्ति से भेंट होना सहज संभव नहीं है। मंदिर में देवी दर्शन के लिए जो भी आ रहा था वह इनके चरण स्पर्श भी कर रहा था। वे सभी को उदारता से आशीष दे रही थीं। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व भक्तिभाव एवं वात्सल्य में ओतप्रोत था मानो देवी स्वयं उनमें विद्यमान हैं। उनके साथ बैठना, उन्हे निहारना तथा उनसे वार्तालाप करना, मेरे लिए साक्षात देवी के अनुग्रह के समान था।

नवरात्रि

सभी देवी मंदिरों के समान योगमाया मंदिर का भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशाल उत्सव है नवरात्रि। दोनों प्रमुख नवरात्रियों में से शरद नवरात्रि, जो लगभग अक्टूबर मास में आती है, अधिक उत्साह से मनाया जाता है।

फूल वालों की सैर

ऐसा कहा जाता है की फूल वालों की सैर उत्सव का आरंभ बहादुर शाह जफर ने किया था। कुछ का मानना है कि अकबर ने इस उत्सव का आरंभ तब किया था जब अपने निर्वासित पुत्र के सुरक्षित वापसी की प्रार्थना लिए अकबर की पत्नी देवी के दर्शन हेतु यहाँ आई थी।

फूलवालों की सैर के अर्पित पंखे
फूलवालों की सैर के अर्पित पंखे

प्रारंभ में यह उत्सव श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन आयोजित किया जाता था जो वर्ष ऋतु के मध्य में आता है। इसे संयोग ही कहेंगे कि विंध्याचल के विंध्यवासिनी मंदिर में श्रावण मास में ही कजरी गाई जाती है। वर्ष ऋतु एवं देवी के मध्य इस संबंध का भेद मैं जान नहीं पायी। आज के आधुनिक एवं धर्म-निरपेक्ष काल में यह उत्सव सितंबर-अक्टूबर मास में मनाया जाता है। इसका अर्थ है कि कभी कभी यह आयोजन पित्रपक्ष श्राद्ध काल में भी हो जाता है।

कदाचित संयोगवश, यह उत्सव उसी समय मनाया जाता था जब भाद्रपद मास की शुक्ल अष्टमी में प्राचीन इन्द्र ध्वज उत्सव का आयोजन किया जाता था। आपको स्मरण होगा, दिल्ली इन्द्र की भूमि है तथा वर्ष ऋतु में इन्द्र की आराधना एक परंपरा थी।

कुछ समय पूर्व तक शाहजहानाबाद के लोग फूल वालों की सैर उत्सव में भाग लेने पैदल चलते हुए योगमाया मंदिर पहुंचते थे। वे पुष्पों से बने हस्तपंखे बुधवार के दिन योगमाया मंदिर में अर्पित करते थे तथा गुरुवार के दिन बाबा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर चढ़ाते थे। यह एक विशाल पिकनिक के समान दृश्य होता था जब शहरी जनता बाहर आकर वन में आनंदोत्सव मानती थी।

यह उत्सव इस मंदिर का एक प्रकार से नवीन युग की धरोहर है जहां उत्सव हमारे धर्म एवं आस्था से अधिक श्रेष्ठ हो जाते हैं तथा समुदाय केंद्रित अधिक हो जाते हैं। मंदिर की पुजारिन ने यह बताया कि अधिकतर भक्तगण  दोनों धार्मिक स्थलों के दर्शन करते हैं।

मंदिर की सादगी

इसकी पुरातनता एवं किवदंतियों को एक ओर रखकर मंदिर की ओर दृष्टि डालें तो यह एक अत्यंत सादगी युक्त मंदिर है। बाहरी भित्तियों पर अनियमित रूप से कलाकारी की गई है। मंदिर के चारों ओर घरों की इतनी सघनता है कि दूर से मंदिर का शिखर दृष्टिगोचर नहीं होता। मुख्य मार्ग पर स्थित मंदिर का प्रवेश द्वार मंदिर का सर्वाधिक अलंकृत भाग है। यदि आप अद्भुत वास्तुशिल्प एवं संरचना की भव्यता ढूंढ रहे हैं तो निश्चित रूप से यह मंदिर उस खांचे में नहीं बैठता। आप इस मंदिर के दर्शन करने आईए इसकी अनेक अद्भुत किवदंतियों व कथाओं के लिए तथा निश्चित रूप से इसकी युगों युगों से जीवित रहने की दृढ़ता देखने के लिए।

योगमाया मंदिर पे विष्णु
योगमाया मंदिर पे विष्णु

मंदिर से बाहर आकर आप पैदल चलते हुए आस-पास के क्षेत्र का अवलोकन कर सकते हैं। यहाँ आप कुछ महंगी वस्त्रों की दुकानें एवं कुछ प्राचीन स्मारकों का आनंद ले सकते हैं। सैर करते हुए यहाँ की संस्कृति एवं धरोहर को आत्मसात करिए तथा दिल्ली के जीवंत इतिहास का अनुभव लीजिए।

दिल्ली के इतिहास को और जानने के लिए आप ‘महरौली धरोहर सैर’ कर सकते हैं अथवा ‘महरौली पुरातत्व उद्यान’ के दर्शन कर सकते हैं।

अन्य योगमाया मंदिर

सम्पूर्ण भारत में अनेक मंदिर हैं जो योगमाया को समर्पित हैं।

इनमें कुछ हैं:

  • वाराणसी के निकट विंध्याचल में विंध्यवासिनी
  • बाड़मेर का योगमाया मंदिर
  • जोधपुर का योगमाया मंदिर
  • वृंदावन का योगमाया मंदिर
  • मुल्तन जो वर्तमान में पाकिस्तान में है
  • केरल में अलमथुरुथी
  • त्रिपुरा में अगरतला के निकट योगमाया मंदिर

दिल्ली के अन्य देवी मंदिरों में कालकाजी मंदिर तथा झंडेवाली मंदिर सम्मिलित हैं। यदि आपको देवी के अन्य मंदिरों के विषय में जानकारी हो तो अवश्य साझा करें। हम उसे अपने संस्करण में अवश्य सम्मिलित करेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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श्री लंका के पूर्वी भाग त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल https://inditales.com/hindi/trincomaalee-sri-lanka-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/trincomaalee-sri-lanka-paryatak-sthal/#respond Wed, 11 Dec 2019 02:30:15 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1603

श्री लंका के अनेक प्राचीन किन्तु अब भी जीवंत नगरों में से एक है त्रिंकोमाली। यह स्थान पर्यटकों में इतना प्रसिद्ध नहीं है जितना अनुराधापुरा एवं पोलोन्नरूवा जैसे श्री लंका के कुछ अन्य स्थल। किन्तु मेरी मानें तो त्रिंकोमाली उनसे किसी प्रकार से न्यून भी नहीं है। आईये मैं आपको इसका प्रमाण भी देती हूँ। […]

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श्री लंका के अनेक प्राचीन किन्तु अब भी जीवंत नगरों में से एक है त्रिंकोमाली। यह स्थान पर्यटकों में इतना प्रसिद्ध नहीं है जितना अनुराधापुरा एवं पोलोन्नरूवा जैसे श्री लंका के कुछ अन्य स्थल। किन्तु मेरी मानें तो त्रिंकोमाली उनसे किसी प्रकार से न्यून भी नहीं है। आईये मैं आपको इसका प्रमाण भी देती हूँ। त्रिंकोमाली के अद्भुत दर्शनीय स्थलों के विषय में कुछ जानकारी देती हूँ ताकि आप अपनी श्री लंका यात्रा सर्वोत्तम प्रकार से नियोजित कर सकें।

त्रिंकोमाली श्री लंका श्री लंका की मेरी हाल ही की यात्रा के समय मैंने इसके उत्तरी तमिल बहुल भागों के प्राचीन स्थलों का भ्रमण किया था। मैंने यहाँ की कई अद्भुत मणियों को देखा एवं उनका आनंद उठाया, जैसे यहाँ के प्राचीन मंदिर, प्राचीन बंदरगाह, नमक के खेत, खाड़ी, उपद्वीप तथा कई सुन्दर गाँव! मुझे यहाँ के अधिकतर स्थानों में दक्षिण भारतीय व्यंजन खाने मिले। मेरा हृदय गदगद हो गया था । यूँ कहूं कि श्री लंका में मुझे लगा मानो मैं अपने ही देश में भ्रमण रही हूँ, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि किसी ने मुझसे मेरा पासपोर्ट माँगा, केवल तभी मुझे एक विदेशी पर्यटक होने का आभास हुआ।

बोलचाल की भाषा में त्रिंकोमाली नगरी को त्रिंको कहते हैं।

त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल

कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत

कन्निया गर्म जल का स्त्रोत इस क्षेत्र का एक प्राकृतिक अचम्भा है। एक दूसरे के समीप स्थित कुल ७ चौकोर कुँए हैं जिनमें विभिन्न तापमान के गर्म जल स्त्रोत हैं। इनकी गहराई अधिक नहीं है। केवल ३ से ४ फीट हो सकती है। इन कुओं के समीप खड़े होकर भीतर झांकने पर इनके तल स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इनके भीतर पर्यटकों ने अनेक सिक्के डाले हुए हैं।

कन्निया उष्ण जल स्तोत्र - त्रिंकोमाली
कन्निया उष्ण जल स्तोत्र – त्रिंकोमाली

मुझे बताया गया कि इनके भीतर, गुनगुने से लेकर अत्यंत गर्म, ऐसे ७ विभिन्न तापमानों के जल हैं। मैंने प्रत्येक कुँए के जल को स्पर्श कर के देखा। प्रत्येक कुँए का जल उष्ण था। किन्तु मुझे विभिन्न तापमानों का आभास नहीं हुआ। कदाचित दोपहर की भरी गर्मी में कोई भी जल उष्ण हो जाता है।

मैंने कई लोगों को इनमें से जल निकालकर स्वयं पर उड़ेलते देखा।

अवश्य पढ़ें: मणिकरण के उष्ण जल-स्त्रोत

किवदंतियों के अनुसार, रावण ने खुदाई करवाकर इन जल स्त्रोतों को उत्पन्न किया था ताकि वह अपनी माता की अंतिम क्रिया संपन्न कर सके। उसी समय से कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत के जल का प्रयोग अंतिम क्रिया संपन्न करने में किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि रामायण में इसका उल्लेख गोकर्ण तीर्थ के एक भाग के रूप में किया गया है। यह त्रिंकोमाली खाड़ी का एक अन्य नाम भी है।

कन्निया का बौद्ध मठ
कन्निया का बौद्ध मठ

कन्निया गर्म जल-स्त्रोत के समीप एक बौध मठ तथा एक शिव मंदिर भी है। इनके सम्मुख एक प्राचीन स्तूप का खँडहर है। ठीक वैसा ही जैसा आपने अनुराधापुरा में देखा होगा।

कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत के दर्शन करने के लिए टिकट मूल्य इस प्रकार है-

श्री लंका के निवासियों के लिए – १०/- श्रीलंकाई रूपया
विदेशियों के लिए – ५०/- श्रीलंकाई रूपया
आपके श्री लंका भ्रमण के समय त्रिंकोमाली के इस अद्भुत हीरे के दर्शन अवश्य करें।

त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक

त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक
त्रिंकोमाली युद्ध स्मारक

सुन्दर रखरखाव युक्त एक समाधिस्थल के लौह द्वार पर यह नाम अंकित है। साथ ही १९३९-१९४५, यह तिथि भी अंकित है। तिथि को देख यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्मारक द्वितीय विश्व युद्ध के युग से सम्बन्ध रखता है। जैसा कि चित्र में दिख रहा है, वास्तव में भी यह उतना ही सुन्दर दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्मारक को पर्यटकों के लिये इससे अधिक नहीं खोला जाता।

ऑर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय

ओर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय
ओर्र पहाड़ी सेना संग्रहालय

यह एक अत्यंत मौलिक एवं उत्तम प्रदर्शित संग्रहालय है। एक साधारण व्यक्ति के लिए यह संग्रहालय, सेना में प्रयुक्त अनेक प्रकार के हथियारों को जानने एवं समझने के लिए एक अनूठा संग्रह है। किस हथियार का अविष्कार कहाँ एवं कब हुआ, इन्हें श्री लंका ने कब खरीदा इत्यादि। एक कक्ष में सेना की वर्दी, उनके ओहदे, विभिन्न पलटनों के विषय में जानकारी इत्यादि प्रदर्शित की गयी हैं। एक अन्य कक्ष में सेना में प्रयुक्त संचार साधनों का प्रदर्शन किया गया है।

इस संग्रहालय की एक विशेषता है आतंकवादियों से जब्त की गयी वस्तुओं का प्रदर्शन, जिनमें आत्मघाती बम भी सम्मिलित हैं।

सेना संग्रहालय - त्रिंकोमाली श्री लंका
सेना संग्रहालय – त्रिंकोमाली श्री लंका

इस संग्रहालय के अवलोकन के लिए लगभग ३० – ६० मिनटों का समय लग सकता है। यह आपकी रूचि पर निर्भर है। समुद्र के समीप स्थित इस संग्रहालय का रखरखाव अतिउत्तम है। इस संग्रहालय में घूमते हुए विभिन्न संग्रहीत वस्तुओं का अवलोकन करना मुझे अत्यंत भाया था। सेना का एक जवान आपको इन वस्तुओं की जानकारी देते हुए आपके साथ चलता है। हाँ, उनकी भाषा समझना किसी चुनौती से कम नहीं होता।

युद्ध संग्राम का एक कृत्रिम दृश्य उत्पन्न कर आपको भी निशानेबाजी के अभ्यास का अवसर दिया जाता है। आप भी सेना के एक जवान होने का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, कुछ समय के लिए ही सही। मेरे विचार से यह एक अत्यंत ही उत्तम अवसर है जिसके द्वारा हम जैसे आम नागरिकों को देश की सेना के जवानों के जीवन के विषय में जानने का अवसर प्राप्त होता है।

टिकट :
श्री लंका के निवासियों के लिए – २०/- श्रीलंकाई रूपया
विदेशियों के लिए – २५०/- श्रीलंकाई रूपया

त्रिंकोमाली के मंदिर

त्रिंकोमाली एक प्राचीन बंदरगाह है। यह तमिल भाषी हिन्दुओं का तीर्थस्थल भी है। पंच ईश्वरम् अर्थात ५ प्रमुख शिव मंदिरों में से एक, यह मंदिर स्वामी शिलाखंड के एक ओर स्थित है। इनसे सिवाय कई अन्य मंदिर यहाँ अब भी जीवंत हैं। आईये उन में से कुछ मंदिरों के विषय में चर्चा करते हैं:

थिरुकोनेश्वरम मंदिर

थिरुकोनेश्वर मंदिर - स्वामी पठार पर
थिरुकोनेश्वर मंदिर – स्वामी पठार पर

थिरुकोनेश्वरम अथवा कोनेश्वरम मंदिर त्रिंकोमाली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह सम्पूर्ण श्रीलंका के ५ शिव मंदिरों में से एक है। यह मंदिर कम से कम रामायण के युग से अस्तित्व में है। क्योंकि हमने रावण एवं उसके इस मंदिर से सम्बन्ध की कई कथाएं सुनी हैं।

कोनेश्वर मंदिर का प्रवेश द्वार
कोनेश्वर मंदिर का प्रवेश द्वार

उन कथाओं के अनुसार एक समय पार्वती को एक सामान्य स्त्री के समान एक गृह में निवास करने की इच्छा उत्पन्न हुई। भवन निर्माण के लिए उन्होंने इसी स्थान का चुनाव किया था। नवीन गृह में प्रवेश करने से पूर्व वास्तु पूजा करने के लिए पार्वती ने रावण को आमंत्रित किया। रावण इस भव्य ईमारत को देख इतना मंत्रमुग्ध हो गया कि उसने देवी पार्वती से अनुष्ठान की दक्षिणा स्वरूप इस भवन की ही मांग कर दी। जैसे ही देवी पार्वती ने उसकी इच्छा पूर्ण की, उसे अपनी भूल का आभास हुआ। उसने घोर तपस्या कर देवी से क्षमा मांगी तथा देवी से अनुनय किया कि वे यह स्थान छोड़ कर ना जाएँ। उसका अनुग्रह स्वीकार करते हुए पार्वती शंकरी देवी के रूप में यहीं स्थिर हो गयीं। भगवान् शिव उनके संग यहाँ कोनेश्वर अर्थात् पर्वतों के देव के रूप में निवास करते हैं। कुछ लोग थिरुकोनेश्वर का अर्थ त्रिकोण + ईश्वर अर्थात् तीन पर्वतों के ईश्वर, ऐसा भी मानते हैं।

दक्षिण कैलाश

त्रिंकोमाली के मंदिर का परिचित्र
त्रिंकोमाली के मंदिर का परिचित्र

एक अन्य किवदंती के अनुसार, रावण कैलाश पर्वत का एक टुकड़ा ले आया था जिसके ऊपर त्रिंकोमाली बसा हुआ है। वास्तव में कोनेस्वर मंदिर उसी देशांतर पर स्थित है जिस पर कैलाश पर्वत स्थित है। इसीलिए इसे दक्षिण कैलाश भी कहा जाता है। स्कन्द पुराण के दक्षिण कैलाश महात्म्य में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है।

अवश्य पढ़ें: श्रीलंका के रामायण सम्बन्धी पर्यटन स्थल

इस मंदिर को सहस्त्र स्तंभों का मंदिर भी कहा जाता है। इसके चारों ओर कई छोटे मंदिर हैं। इस क्षेत्र के कई प्रमुख मंदिरों के समान यह मंदिर भी पुर्तगाली सेना द्वारा नष्ट किया गया था। एक समय जहां मंदिर का प्रांगण स्थित था, आज वहां फ्रेडरिक का दुर्ग स्थित है। इन्हें देख अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी समय यह एक अतिविशाल मंदिर संकुल था। इतिहास कहता है कि पुर्तगालियों ने तोपों द्वारा मंदिर तो ध्वस्त किया था। जान बचाकर भागते पुजारियों ने कुछ मूर्तियों को धरती में गाड़कर छुपा दिया था। लोग इनमें से कुछ प्रतिमाओं को ढूंढ निकालने में सफल हुए जो अब मंदिर संकुल का भाग हैं।

लक्ष्मी नारायण की प्राचीन मूर्ति
लक्ष्मी नारायण की प्राचीन मूर्ति

वसंत मंडप में आप इसी प्रकार ढूंढी हुई कुछ पीतल की प्रतिमाएं देख सकते हैं। एक अन्य छोटे मंदिर में आपको काले पत्थर में बनी बड़ी लक्ष्मी एवं नारायण की प्रतिमाएं दृष्टिगोचर होंगी। मंदिर के एक आले पर एक प्राचीन नंदी स्थापित था।

वर्तमान में यह एक छोटा सा मंदिर चट्टान के दूसरी छोर पर स्थित है जहां से चारों ओर समुद्र का अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ता है। मुख्य मंदिर के भीतर एक शिवलिंग है। समीप ही देवी का छोटा सा मंदिर है जिसके भीतर देवी की खड़ी प्रतिमा स्थापित है।

कोनेश्वर मंदिर की भव्य शिव प्रतिमा
कोनेश्वर मंदिर की भव्य शिव प्रतिमा

मंदिर की भीतरी भित्तियाँ इस मंदिर की गाथाएँ कहती हैं। यहाँ आलेखित इतिहास के अनुसार इस मंदिर का मूल स्वरूप सम्पूर्ण पहाड़ी पर फैला हुआ था। मन्दिर की बाहरी भित्तियों पर मंदिर की उन कथाओं का उल्लेख है जो पुराणों में कही गयी हैं।

गाड़ी खड़ी करने के पश्चात, छोटी छोटी दुकानों से होते हुए जब हम मंदिर के समीप पहुंचते हैं, वहां स्थापित भगवान् शिव की एक विशाल प्रतिमा मन मोह लेती है।

रावण रसातल

रावण रसातल
रावण रसातल

रावण रसातल अथवा वेट्टा का अर्थ है स्वामी चट्टान के बीच का कटाव। स्वामी चट्टान वही चट्टान है जिस पर कोनेश्वर मंदिर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि रावण ने अपनी तलवार से इस चट्टान को काटा था।

हाथ जोड़े रावण अपनी वीणा के साथ
हाथ जोड़े रावण अपनी वीणा के साथ

यहाँ मैंने रावण की एक अनोखी प्रतिमा देखी। चट्टान से जुड़ा किन्तु समुद्र पर टंगा एक मंच है जिस पर हाथ जोड़े खड़े रावण की प्रतिमा है। उसकी वीणा समीप ही रखी हुई है। यह उस क्षण को प्रदर्शित करता है जब रावण ने भगवान् शिव एवं देवी पार्वती को प्रसन्न करने के लिए अपने ही एक शीश को काटकर उससे वीणा की रचना की थी।

यह विडम्बना ही है कि सुवर्ण नगरी लंका का अधिपति समुद्र पर लटकते एक मंच पर हाथ जोड़े खड़ा है। लोग उसे सिक्के अर्पित करते हैं। आप उसके चरणों के आसपास सिक्के बिखरे देखेंगे।

झूले

मंदिर के प्रांगन में बंधे झूले
मंदिर के प्रांगन में बंधे झूले

थिरुकोनेस्वर मंदिर के पीछे भित्ति पर लकड़ी के कई छोटे छोटे झूले लटकते दिखाई देंगे। मेरे अनुमान से संतान की इच्छा रखते दंपत्ति यहाँ आकर ये झूले बांधते हैं। मैंने देखा कि कुछ झूलों से कपड़े में कुछ सिक्के लपेटकर बांधे हुए थे।

हमने मंदिर की प्राचीर से सूर्योदय का अप्रतिम दृश्य देखा।

थिरुकोनेश्वर मंदिर के प्रांगन में हिरण
थिरुकोनेश्वर मंदिर के प्रांगन में हिरण

हम मंदिर परिसर में स्वच्छंदता से घूमते हिरणों को देख अचंभित रह गए थे।

शंकरी देवी शक्ति पीठ

शंकरी देवी मंदिर कोनेश्वर मंदिर के परिसर में ही स्थित है। आदिशक्ति यहाँ शंकरी के रूप में स्थित है जो शिव की अर्धांगिनी हैं। खड़ी मुद्रा में स्थित इस प्रतिमा के ४ हाथ हैं। उनके चरणों के समीप ताम्बे का दो आयामी श्री चक्र रखा हुआ है। वहीं उनकी प्रतिमा के समक्ष तीन आयामी श्री चक्र खड़ा है।

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान् शिव देवी सती की मृतदेह हाथों में उठाये तांडव कर रहे थे तथा भगवान् विष्णु ने चक्र द्वारा उसे छिन्न-भिन्न कर दिया था, तब देवी का एक पैर इस स्थान पर गिरा था।

आदि शंकराचार्यजी ने भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित १८ शक्तिपीठों का जो उल्लेख अपने स्तोत्र में किया है, उनमें सर्वप्रथम उन्होंने इसी मंदिर का उल्लेख किया है। अतः भगवान् शिव एवं विष्णु के अनुयायियों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

भद्रकाली अर्थात् पथिरकाली अम्मा मंदिर

प्राचीन भद्रकाली मंदिर - त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल
प्राचीन भद्रकाली मंदिर – त्रिंकोमाली के दर्शनीय स्थल

यह मंदिर नगर के बीचोंबीच स्थित है। दूर से यह किसी भी अन्य दक्षिण भारतीय मंदिर के समान दिखाई पड़ता है। द्रविड़ वास्तुशैली में निर्मित रंगबिरंगा गोपुरम तथा कथाएं कहती शिल्पकारियाँ!

देवी कथा कहती मूर्तियाँ
देवी कथा कहती मूर्तियाँ

किन्तु जैसे ही मैंने प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश किया, चारों ओर स्थित तीन आयामी प्रतिमाओं को देख मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं। ये प्रतिमाएं मुझे छत से, चौखटों से, भित्तियों से तथा स्तंभों से निहार रही थीं। ये प्रतिमाएं देवी के असंख्य रूपों की असंख्य कथाएं कह रही थीं। आदमकद से भी बड़ी, रंगों से परिपूर्ण ये प्रतिमाएं हमें अभिभूत कर रही थीं।

भद्रकाली की कथाएं कहती भित्तियां
भद्रकाली की कथाएं कहती भित्तियां

इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी महाकाली अथवा भद्रकाली हैं जो काली का उदार रुप है। उनके संग महालक्ष्मी एवं महासरस्वती भी वास करती हैं।

भद्रकाली अम्मा मंदिर त्रिंकोमाली
भद्रकाली अम्मा मंदिर त्रिंकोमाली

मंदिर के आलेखों से जानकारी प्राप्त होती है कि यह मंदिर चोल वंश से पूर्व का है। इसका अर्थ है कि ११वीं. सदी में यह मंदिर अस्तित्व में था। यह तथ्य इस मंदिर को १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन सिद्ध करता है।

सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल

सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल
सल्ली मुथुमरिअम्मा कोविल

उप्पुवेली समुद्रतट के समीप जिस स्थान पर एक छोटी जलधारा समुद्र से मिलती है, वहीं त्रिंकोमाली नगर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक, यह मंदिर स्थित है। इस क्षेत्र के सभी देवी मंदिरों में से यह तीसरा प्रमुख मंदिर है।

अम्मा मंदिर में कांस्य का यन्त्र
अम्मा मंदिर में कांस्य का यन्त्र

अप्रवाही जल एवं समुद्र के बीच, संकरी धरती पर स्थित यह मंदिर बीहड़ चट्टानों से घिरा हुआ है। मंदिर के चारों ओर प्राकृतिक रूप से स्थित चट्टानों की पंक्ति उसे समुद्र से बचाती हैं। जब मैं यहाँ दर्शन के लिए आयी थी, तब यह मंदिर बंद था। किन्तु मुझे इतना आभास अवश्य हुआ कि यह अत्यंत पूजनीय मंदिर है तथा यहाँ अनेक भक्तगण दर्शनार्थ आते हैं। चारों ओर मुझे पूजा आराधना के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। यहाँ से हिन्द महासागर का सुन्दर दृश्य प्राप्त हो रहा था।
मंदिर के समक्ष मुझे ताम्बे का एक विचित्र यन्त्र दिखाई पड़ा। ऊपर उसका चित्र है। यदि आप में से किसी को भी उसके विषय में जानकारी हो तो कृपया मुझसे अवश्य साझा करें।

क्या आप जानते हैं कि त्रिंकोमाली खाड़ी को गोकर्ण भी कहते हैं?

लक्ष्मी नारायण मंदिर

लक्ष्मी नारायण मंदिर - त्रिंकोमाली
लक्ष्मी नारायण मंदिर – त्रिंकोमाली

नीले एवं सुनहरे रंग में रंगा यह एक विशाल मंदिर है। यह मंदिर दूर से ही दिखाई देने लगता है। यह मंदिर भी उस समय बंद था जब मैं यहाँ पहुँची। इसके चारों ओर स्थित चौड़ी खाई के कारण मैं इसका एक अच्छा चित्र भी नहीं ले पायी। मुझे बताया गया कि त्रिंकोमाली दर्शन के लिए आये पर्यटकों में यह मंदिर अत्यंत लोकप्रिय है।

लक्ष्मी नारायण के रूप में विष्णु का यह मंदिर अपेक्षाकृत नवीन है। मंदिर के ऊपर नीले एवं सुनहरे रंग को देख मुझे भगवान् विष्णु का स्मरण हो आया। मानो नीलवर्ण विष्णु ने सुवर्ण वस्त्र धारण किये हों।

बौध विहार

त्रिंकोमाली के बौद्ध विहार
त्रिंकोमाली के बौद्ध विहार

नगर में यत्र-तत्र बौध विहार दृष्टिगोचर हो जाते हैं। इन्हें आप श्वेत स्तूपों द्वारा पहचान सकते हैं। मैंने कुछ के समीप रुककर उन्हें देखा। इन विहारों में विद्यालय जैसा वातावरण था तथा युवा छात्र यहाँ वहां घूम रहे थे।

अवश्य पढ़ें: अनुराधापुरा – श्री लंका की प्राचीन राजधानी

त्रिंकोमाली के समुद्रतट

अद्भुत समुद्रतटों के धनी गोवा राज्य की निवासी होने के कारण त्रिंकोमाली दर्शन सूची में मैंने यहाँ के समुद्र तटों को अत्यंत निम्न तल में रखा था। किन्तु संध्या के समय कुछ अन्य स्थलों के दर्शन उपलब्ध न होने के कारण समुद्र तट का भ्रमण मुझे सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ। दिवस भर पर्यटन स्थलों के दर्शन कर थकने के पश्चात यहाँ आकर अत्यधिक चैन एवं सुकून प्राप्त हुआ। दिन भर की थकावट छूमंतर हो जाती थी। मन तरोताजा हो जाता था।

उप्पुवेली समुद्रतट

उप्पुवेली समुद्रतट श्री लंका
उप्पुवेली समुद्रतट श्री लंका

मेरी सम्पूर्ण त्रिंकोमाली यात्रा में मैं इस समुद्रतट पर दो बार आयी थी। सर्वप्रथम जब मैंने मंदिर के दर्शन किये थे। समुद्र से झांकती चट्टान पर खड़ी होकर मैंने कई क्षण सूर्यास्त के दर्शन करने में व्यतीत किये। गोधूली की बेला में वृक्षों के घिरे समुद्रतट पर बैठना मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण थे जिनकी व्याख्या संभव नहीं।

दूसरी बार मैं यहाँ तब आयी जब मैं अपने अतिथिगृह द्वारा आयोजित अप्रवाही जल में नौका विहार का आनंद ले रही थी। अतिथिगृह से समुद्र तट तक एवं वापिस अतिथिगृह तक की ४० मिनटों की यह धीमी नौका यात्रा थी। खारे जल के मध्य खड़े वृक्ष, यहाँ वहां उड़ते पंछी एवं चारों ओर पसरी शान्ति मन मोह लेते हैं। इनका आनंद लेने के पश्चात अब मैं यही कहूँगी कि अपनी त्रिंकोमाली यात्रा के समय आप यहाँ अवश्य आईये।

नीलावेली समुद्रतट

उप्पुवेली समुद्रतट के उत्तरी दिशा में यह समुद्रतट है। नगर से दूर यह एक अत्यंत शांत समुद्रतट है।

पिजन द्वीप

इस द्वीप पर आप नीलावेली समुद्रतट से नौका द्वारा पहुँच सकते हैं। व्हेल मछली एवं डोल्फिन मछली के दर्शन करने तथा अन्य जलक्रीडाओं के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है।

यहाँ नील कपोत अर्थात पहाड़ी कबूतर घोंसले बनाते हैं। इसी कारण इसका नाम पिजन द्वीप अर्थात कबूतरों का द्वीप पड़ा है।

मार्बल समुद्रतट

इस समुद्रतट का जल सर्वाधिक स्वच्छ एवं स्पष्ट माना जाता है। मैं अपनी इस यात्रा में इस समुद्र तट के दर्शन नहीं कर पाई।

फ्रेडरिक दुर्ग

फ्रेडरिक दुर्ग त्रिंकोमाली
फ्रेडरिक दुर्ग त्रिंकोमाली

पुर्तगालियों ने एक मंदिर को धोखे से ध्वस्त कर उस स्थान पर उन्ही शिलाओं का प्रयोग कर इस दुर्ग को निर्मित किया था। अप्रैल १६२२ में तमिल नूतन वर्ष के उत्सव के समय यह घटना घटी थी। उस दिन मंदिर की उत्सव मूर्ति की नगर में शोभायात्रा निकाली जा रही थी। सर्व भक्तगण शोभायात्रा में सम्मिलित होकर मंदिर से दूर निकल आये थे। तब पुर्तगाली सैनिक मंदिर के पुजारियों का भेष धरकर मंदिर आये तथा उस पर तोपों से हमला किया। उन्होंने सम्पूर्ण मंदिर नष्ट कर दिया।

उनका राज्य अधिक समय तक नहीं चला। उनके द्वारा निर्मित संरचना को डच आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया तथा सन् १६६५ में उस स्थान पर नवीन दुर्ग का निर्माण कराया।

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अब केवल मंदिर की ओर जाते मार्ग पर एक तोरण द्वार है। सेना द्वारा अधिकृत होने के कारण अब यहाँ पर्यटकों को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। किन्तु आप चाहे तो यहाँ दर्शनार्थ आ सकते हैं।

त्रिंकोमाली के समीप दर्शनीय स्थल

आदि कोनेश्वर मंदिर

त्रिंकोमाली से लगभग २५ की.मी. दूर स्थित, तमपलकमम गाँव में यह साधारण किन्तु विशाल मंदिर है। इसका निर्माण सन् १६३२ में किया गया था। यहाँ कोनेश्वर मंदिर की मूल प्रतिमाएं स्थापित हैं।

आदि कोनेश्वर मंदिर
आदि कोनेश्वर मंदिर

श्री लंका के मैंने जितने भी मंदिर देखे, उन सब में से यह सर्वाधिक शांत मंदिर है। इसके विशाल गलियारे लगभग खाली रहते हैं। इसके कारण आप यहाँ शान्ति से घूम सकते हैं तथा मंदिर को निहार सकते हैं। मंदिर के पुजारी के अनुसार यहाँ की पीतल की उत्सव मूर्ति ही एकमेव प्राचीन मूर्ति है। भाषा अनजान होने के कारण मैं उनसे अधिक जानकारी प्राप्त नहीं कर पायी। किन्तु उन्होंने मुझे मूर्ति का चित्र लेने की अनुमति अवश्य दी।

श्री लंका गृह युद्ध के पश्चात अन्य मंदिरों के समान यह मंदिर भी उपेक्षित हो गया।

एलीफैंट पास स्मारक

श्री लंका के गृह युद्ध के समापन के स्मरण में इस स्मारक का निर्माण किया गया था। यहाँ की दो अर्ध-गोलाकार संरचना उत्तरी एवं दक्षिणी श्री लंका के मेल एवं लोगों का सम्पूर्ण देश में विचरण करने की संधि को दर्शाती हैं। मध्य में दो हाथों पर श्री लंका का नक्शा है। २००९ में इसका उद्घाटन महिंदा राजपक्सा द्वारा हुआ था।

एलीफैंट पास स्मारक
एलीफैंट पास स्मारक

यह एक सुन्दर कलाकृति है। इसके ऊपर स्थित ढलुआ मार्ग द्वारा आप इस पर चढ़कर घूम सकते हैं। स्मारक के चारों ओर की भित्ति पर युद्ध के तनावपूर्ण दृश्य प्रदर्शित हैं। इन्हें देखने में कुछ ही मिनटों का समय लगता है किन्तु इनके प्रतीकात्मक अर्थ की स्मृति आपके मानसपटल पर अमिट छाप छोड़ती है।

एलीफैंट पास स्मारक के ऊपर से आप एलीफैंट पास नमक निर्माण देख सकते हैं। समुद्र की लहरें यहाँ आकर जब सूखती हैं तब अपने पीछे नमक छोड़ जाती हैं। सूर्य की चमचमाती रोशनी में नमक की चमकती पंक्तियाँ आप यहाँ से देख सकते हैं।

यात्रा सुझाव

त्रिंकोमाली के परिदृश्य
त्रिंकोमाली के परिदृश्य

• त्रिंकोमाली कोलम्बो से रेल तथा बस परिवहन द्वारा पहुंचा जा सकता है।
• सिन्नामन एयर की एयर टैक्सी द्वारा भी यहाँ पहुंचा जा सकता है।
• नगर में घूमने के लिए टुक टुक सर्वोत्तम साधन है।
• यहाँ साधारण अतिथिगृह से लेकर सर्व सुख-सुविधा युक्त होटल्स तक की सुविधाएं हैं। मैं ‘अमरंथे बे’ नामक होटल में रुकी थी जो उप्पुवेली समुद्रतट के समीप स्थित है।
• मंदिरों के भीतर छायाचित्र लेने की अनुमति नहीं है। अन्य स्थानों पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
• त्रिंकोमाली के विस्तृत दर्शन के लिए २-३ दिनों का समय आवश्यक है। समय की कमी के रहते आप इसे एक दिन में भी देख सकते हैं।
• यहाँ आकर किंग नारियल का जल पीना ना भूलें, जो यहाँ सर्वत्र मिलता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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महालक्ष्मी मंदिर – कोल्हापुर या करवीरपुर स्थित शक्ति पीठ https://inditales.com/hindi/shaktipeeth-mahalakshmi-mandir-kolhapur/ https://inditales.com/hindi/shaktipeeth-mahalakshmi-mandir-kolhapur/#comments Wed, 02 Oct 2019 02:30:41 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1559

कोल्हापुर एवं महालक्ष्मी मंदिर, यह दो शब्द हम प्रायः एक ही श्वास में कह जाते हैं। किसी तीर्थयात्री की दृष्टी से देखें तो दोनों शब्दों का एक ही तात्पर्य है। कोल्हापुर की यात्रा करते अधिकांश यात्री महालक्ष्मी मंदिर के दर्शनार्थ ही यहाँ आते हैं। पंचगंगा नदी के तट पर स्थित कोल्हापुर महाराष्ट्र का एक प्राचीन […]

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कोल्हापुर एवं महालक्ष्मी मंदिर, यह दो शब्द हम प्रायः एक ही श्वास में कह जाते हैं। किसी तीर्थयात्री की दृष्टी से देखें तो दोनों शब्दों का एक ही तात्पर्य है। कोल्हापुर की यात्रा करते अधिकांश यात्री महालक्ष्मी मंदिर के दर्शनार्थ ही यहाँ आते हैं।

कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिरपंचगंगा नदी के तट पर स्थित कोल्हापुर महाराष्ट्र का एक प्राचीन नगर है। इसका उल्लेख देवी भागवत पुराण के देवी गीता एवं शक्ति से सम्बंधित कई अनेक शास्त्रों में प्राप्त होता है। कोल्हापुर को करवीरपुर क्षेत्र तथा महालक्ष्मी को करवीरपुरवासिनी भी कहा जाता है। कोल्हापुर नगर का सम्पूर्ण जीवन अम्बाबाई के चारों ओर ही कन्द्रित रहता है। करवीरपुरवासिनी के समान अम्बाबाई भी महालक्ष्मी का ही एक नाम है।

अम्बाबाई मंदिर का एक पुराना चित्र
अम्बाबाई मंदिर का एक पुराना चित्र

कोल्हापुर का नामकरण कोल्हासुर नामक एक असुर के कारण हुआ था, जिसका वध देवी ने किया था। मृत्यु से पूर्व उस असुर ने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में देवी से प्रार्थना की थी कि इस नगर का नामकरण उसके नाम पर किया जाये।

यह मंदिर एक शक्ति पीठ है जिसे भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवी मंदिरों में से एक माना जाता है। देवी के शक्ति पीठों की संख्या भले ही विभिन्न शास्त्रों के अनुसार भिन्न हों, परन्तु सभी शास्त्रों में कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर का उल्लेख शक्ति पीठ के रूप में अवश्य प्राप्त होता है। यह एक महा शक्ति पीठ है।

महालक्ष्मी अथवा अम्बाबाई मंदिर

महालक्ष्मी मंदिर कोल्हापुर के हृदयस्थली स्थित है, ठीक उसी प्रकार जैसे कांची कामाक्षी मंदिर कांचीपुरम के हृदयस्थल में स्थित है। सम्पूर्ण नगर इस पावन स्थल के चारों ओर केन्द्रित है।

कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर का प्रवेश द्वार
कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर का प्रवेश द्वार

मैंने इस मंदिर के सर्वप्रथम दर्शन अपने डेक्कन ओडिसी यात्रा के समय किये थे। वह एक त्वरित दर्शन था। उस समय मैंने यहाँ फिर आने का संकल्प लिया था। उस संकल्प को पूर्ण करने में मुझे कुछ वर्ष लग गए। इस समय हमारी कोल्हापुर तक की यात्रा कुछ इस प्रकार हुई कि हम यहाँ प्रातः ४ बजे पहुंचे। समय सर्वोपयुक्त था। हम सीधे देवी के दर्शन करने मंदिर पहुँच गए। देवी को प्रातः जगाने के अनुष्ठान एवं काकड़ आरती की तैयारियां चल रही थीं। यह एक स्वर्णिम अवसर था। कोल्हापुर में मैं इससे अधिक क्या अभिलाषा कर सकती थी!

महालक्ष्मी मंदिर का वास्तुशिल्प

महलस्क्ष्मी मंदिर का वास्तुशिल्प
महलस्क्ष्मी मंदिर का वास्तुशिल्प

देवी के दर्शनोपरांत देहभान हुआ एवं मंदिर निहारने की सुध प्राप्त हुई। मंदिर देख अनुभव हुआ कि यह एक अन्यंत भव्य मंदिर है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही गहरे धूसर रंग की शिलाओं से बने इस भव्य मंदिर का आधार दृष्टिगोचर होता है। इसे देख चालुक्य वास्तुकला की शैली का आभास होता है। दुर्भाग्य से भित्तियों पर उत्कीर्णित अधिकाँश प्रतिमाएं भंजित हैं।
यदि आप मंदिर के वास्तुशिल्प से परिचित हैं तो आप कई मदनिकाओं या सुर सुंदरियों की प्रतिमाओं को खोज सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार भित्ति के आलों पर ६४ योगिनियों की प्रतिमाएं हैं। उन्हें खोजना अथवा उनकी गणना करना कठिन था क्योंकि वे अनेक वस्तुओं द्वारा लगभग ढँकी हुई थीं।

मैंने भित्तिओं पर कुछ देवी-देवताओं की भी प्रतिमाएं देखीं। मंदिर की ओर जाती सीढ़ियों पर मैंने भूदेवी को मुँह पर धारण किये वराह की एक प्रतिमा देखी.

महालक्ष्मी मंदिर के शिखर

महालक्ष्मी मंदिर के तिकोने शिखर
महालक्ष्मी मंदिर के तिकोने शिखर

मंदिर का शिखर हल्के पीले रंग का था जिसकी किनारियाँ केसरिया थीं। शिखर शुण्डाकार की थीं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस मूल प्राचीन मंदिर में कालान्तर में जोड़ा गया है। मूल शिखर नष्ट हो गया था व नवीन शिखर का निर्माण किया गया है अथवा मूल शिखर का ही नवीनीकरण किया गया है, इसका उत्तर मैं नहीं जान पायी।

भूतल से इन शिखरों की रचना समझना आसान नहीं है। यहाँ कुल ५ शिखर हैं। मध्य शिखर कूर्म मंडप के ऊपर स्थापित है। इसके चारों ओर, चार दिशाओं में स्थित अन्य चार शिखर हैं जो क्रमशः महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती एवं गणपति मंदिरों के ऊपर स्थापित हैं। यहाँ की अधिष्ठात्री देवी, महालक्ष्मी मंदिर के ऊपर स्थापित शिखर सर्वाधिक ऊंचा है।
एक कोने में ठेठ महाराष्ट्र शैली का दीपस्तंभ है। मैंने सोचा, प्राचीन समय के समान अब भी यदि इन दीपों को प्रज्वलित किया जाये तो इन्हें निहारने का अनुभव अद्वितीय होगा। मुझे बताया गया कि उत्सव दिवसों में इन्हें प्रज्वलित किया जाता है।

हलके पीली रंग के ऊँचे लम्बे शिखर
हलके पीली रंग के ऊँचे लम्बे शिखर

मुख्य द्वार को महाद्वार कहा जाता है। इस द्वार से भीतर प्रवेश करते ही आपकी दृष्टी देवी पर पड़ती है। उत्तर एवं पूर्व दिशा में भी द्वार हैं जिन्हें क्रमशः घाटी तथा पूर्व दरवाजा कहा जाता है।

अम्बाबाई मंदिर के दीपस्तंभ
अम्बाबाई मंदिर के दीपस्तंभ

मंदिर परिसर में दो जलकुण्ड थे जिनके नाम काशी एवं मणिकर्णिका थे, किन्तु अब उनका अस्तित्व नहीं है।

भूदेवी को थामे हुए वराह
भूदेवी को थामे हुए वराह

मुख्य मंदिर कई छोटे मंदिरों से घिरा हुआ है।

महालक्ष्मी की मूर्ति

महालक्ष्मी की मुख्य प्रतिमा काले पत्थर में बनी है। यह चतुर्भुज महालक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा है जिसकी ऊँचाई लगभग ३ फीट है।

कोल्हापुर महालक्ष्मी या करवीरपुर वासिनी
कोल्हापुर महालक्ष्मी या करवीरपुर वासिनी

यदि आप देवी की प्रतिमा देखना चाहते हैं तो आपको प्रातः शीघ्र यहाँ आना पड़ेगा जब देवी की प्रथम आरती, काकड़ आरती की जाती है। प्रातः देवी को भजन गाकर किस प्रकार जगाया जाता है, इस आनंददायी दृश्य का अद्भुत अनुभव भी आप प्राप्त करेंगे। आरती के पश्चात उनके वस्त्र बदले जाते हैं तथा उनका प्रातःकालीन अलंकार किया जाता है। तत्पश्चात, अभिषेक के समय आपको उनकी प्रतिमा के दर्शन होंगे।

देवी महालक्ष्मी का पुरातन चित्र
देवी महालक्ष्मी का पुरातन चित्र

आरती के समय, कुछ स्त्रियों को गर्भगृह के भीतर आसन ग्रहण करने की अनुमति रहती है। जब घंटियों के नाद पर दीप घुमाकर देवी की आरती की जाती है, तब देवी के समीप बैठकर उन्हें निहारना एक दिव्य अनुभूति है।

अलंकृत महालक्ष्मी की मूर्ति
अलंकृत महालक्ष्मी की मूर्ति

देवी की महा अलंकार आरती दोपहर के समय की जाती है। श्री महालक्ष्मी को आकर्षक रंगों की रेशमी साड़ी पहनाकर उन्हें नाना प्रकार के अनेक आभूषणों द्वारा अलंकृत किया जाता है। इस प्रकार के आभूषण मुझे बाद में कोल्हापुर नगर की दुकानों में भी दिखाई दिए थे।

गर्भगृह के चारों ओर स्थित प्रदक्षिणा पथ मंदिर से अपेक्षाकृत साधारण प्रतीत हुई। इसका निर्माण ११वी. सदी में शिलाहारा राजवंश के राजा गंधारादित्य ने करवाया था। इसका अर्थ है मंदिर इससे भी पूर्व निर्मित है। देवी की प्रतिमा के ठीक पीछे की भित्ति पर थपथपाएं तो आपको विभिन्न शिलाखण्डों से भिन्न भिन्न स्वर सुनायी देंगे।

महाकाली एवं महासरस्वती

महालक्ष्मी की प्रतिमा के दाहिनी ओर एक छोटा सा मंदिर है जो देवी महाकाली को समर्पित है। वहीं बाईं ओर महासरस्वती को समर्पित एक और छोटा सा मंदिर है। ये तीन देवियाँ मिलकर शक्ति की उच्चतम त्रिमूर्ति की रचना करते हैं जो रजस, तमस एवं सत्व, इन तीन गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये तीनों प्रतिमाएं मुख्य मंदिर में हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार महाकाली एवं महासरस्वती की उत्पत्ति महालक्ष्मी से ही हुई है।

गर्भगृह के समक्ष एक छोटा गणेश मंदिर है।

कूर्म मंडप

गर्भगृह के समक्ष दो मंडप हैं। एक है दर्शन मंडप जहां से महालक्ष्मी के दर्शन किये जाते हैं।

दूसरा है अष्टकोणीय रंगमंडप जिसे कूर्म मंडप कहा जाता है क्योंकि मध्य शिला एक कछुए के आकार में उत्कीर्णित है। इसे शंख तीर्थ मंडप भी कहते हैं क्योंकि यहाँ खड़े होकर पुजारीजी शंख द्वारा पवित्र तीर्थ जल भक्तों पर छिड़कते हैं। मैं भी वहां तीर्थ ग्रहण करने खड़ी हो गयी। पुजारीजी महालक्ष्मी के अभिषेक में प्रयुक्त जल लेकर आये एवं शंख द्वारा भरपूर तीर्थ जल हम भक्तों पर छिड़कने लगे। भक्तगण आँखें मूँद कर एवं मुँह खोलकर तीर्थ जल ग्रहण कर रहे थे।

मंदिर की सर्व संरचना गहरी काली शिला द्वारा की गयी है।

मातुलिंग

महालक्ष्मी मंदिर के गर्भगृह के ठीक ऊपर एक गुफा सदृश मंदिर है जिसके भीतर गणेश एवं नंदी के साथ मातुलिंग नामक शिवलिंग स्थापित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए आपको कुछ सीढियां चढ़नी पड़ेंगी। यह एक गुफा मंदिर प्रतीत होता है।मातुलिंग मंदिर को प्रातःकालीन आरती के पश्चात कुछ क्षणों के लिए खोलते हैं। आप तब इसके दर्शन कर सकते हैं। मेरे अनुमान से इसके पश्चात इसे सम्पूर्ण दिवस बंद रखते हैं।

मातुलिंग तीर्थ स्थान १२वी. सदी में निर्मित है। यह मातुलिंग महालक्ष्मी के शीर्ष पर उत्कीर्णित लिंग का प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि महालक्ष्मी के शीर्ष पर उत्कीर्णित लिंग भक्तगण देख नहीं पाते।

श्री यन्त्र

एक भित्ति के आले पर एक श्री यन्त्र उत्कीर्णित है। मुख्य देवी को अर्पित हल्दी, कुमकुम एवं पुष्प के समान इस श्री यन्त्र पर भी हल्दी, कुमकुम एवं पुष्प अर्पित किया गया था।

श्री यन्त्र को कांच से ढँका हुआ था जिसके कारण इसे ठीक से देख पाना संभव नहीं हो पाया।

महालक्ष्मी मंदिर परिसर के अन्य मंदिर

महालक्ष्मी मंदिर परिसर में नवग्रह मंदिर
महालक्ष्मी मंदिर परिसर में नवग्रह मंदिर

नवग्रह – यह मंदिर नौ ग्रहों को समर्पित है।
शेषशायी विष्णु – यह अष्टकोणीय संरचना पूर्वी द्वार के निकट है जिसके फलकों पर ६० जैन तीर्थंकर उत्कीर्णित हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह नेमिनाथ को समर्पित है। तथापि, इस समय इसके भीतर विष्णु विराजमान हैं।
विट्ठल रुक्मिणी
दत्त मंदिर
राधाकृष्ण, कालभैरव, सिद्धिविनायक, सिंहवाहिनी, तुलजाभवानी, लक्ष्मी-नारायण, अन्नपूर्ण, इन्द्रसभा, रामेश्वर, नारायणस्वामी महाराज, ज्योतिबा तथा टेम्लाई बाई मंदिर।

विट्ठल रुक्मई मंदिर का पुराना चित्र
विट्ठल रुक्मई मंदिर का पुराना चित्र

कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर के उत्सव

प्रत्येक शुक्रवार के दिन, रात्रि लगभग साढे नौ बजे, मंदिर के चारों ओर महालक्ष्मीजी की पालकी के साथ एक शोभा यात्रा निकाली जाती है। कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर की मेरी इस यात्रा में मैं इस शोभायात्रा के दर्शन नहीं कर पायी। आशा है मुझे कोल्हापुर जाने का अगला अवसर शीघ्र प्राप्त होगा जब मैं यह शोभा यात्रा भी देख सकूँगी। इस साप्ताहिक अनुष्ठान के अलावा इस मंदिर में अन्य भी कई वार्षिक उत्सव मनाये जाते हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

महालक्ष्मी मंदिर की नवरात्रि

यह एक देवी मंदिर होने के कारण नवरात्रि यहाँ का सर्वाधिक लोकप्रिय उत्सव है। शरद नवरात्रि अर्थात् आश्विन मास के नौ दिवस उत्सवों से परिपूर्ण होते हैं। देवी की दैनिक अलंकार सज्जा अत्यंत भव्य होती है। नवरात्रि की प्रत्येक संध्या को उनकी पालकी निकली जाती है।

नवरात्रि के समय सजा हुआ कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर
नवरात्रि के समय सजा हुआ कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर

नवरात्रि के पांचवें दिन, अर्थात् ललिता पंचमी के दिवस, देवी यहाँ से ५ की.मी. दूर स्थित त्र्यम्बुली बाई मंदिर में भेंट करती है। भगिनी से भेंट करने का यह उनका वार्षिक नियम है। मार्ग में वे शाहू मिल में अल्प विश्राम करती है जहां उनकी पूजा की जाती है। छत्रपति , कोल्हापुर के स्थानीय राजा, देवी के लिए बलि चढ़ाते हैं। यहां वे देवी के रूप में एक कन्या के समक्ष तलवार से एक कद्दू को काटकर प्रतीकात्मक बलि चढ़ाते हैं।

नवरात्रि के आठवें दिवस अर्थात् अष्टमी के दिन देवी को एक तोप की सलामी दी जाती है। इस प्रथा का आरम्भ छत्रपति शिवाजी की पुत्रवधू रानी ताराबाई ने किया था। सलामी के पश्चात देवी पालकी में बैठकर नगर का भ्रमण करती है। भक्तगण उन्हें पान-सुपारी, साड़ी, पुष्प एवं अन्य पूजा सामग्री अर्पण करते हैं।

किरणोत्सव

कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर की संरचना कुछ इस प्रकार की गयी है कि वर्ष में दो बार सूर्य की किरणें देवी की प्रतिमा के भिन्न भागों पर गिरती हैं।

३१ जनवरी एवं ९ नवम्बर – सूर्य की किरणें महालक्ष्मी के चरणों पर पड़ती हैं।
१ फरवरी एवं १० नवम्बर – सूर्य की किरणें प्रतिमा के मध्य भाग पर पड़ती हैं।
२ फरवरी एवं ११ नवम्बर – सूर्य की किरणें महालक्ष्मी के सम्पूर्ण तन पर पड़ती हैं।
यह एक वास्तुकला का अचंभा ही है।

श्रृंगेरी के विद्याशंकर मंदिर में भी सूर्य की किरणें, हिन्दू पञ्चांग के १२ राशियों के अनुसार, मंदिर में उस राशि से सम्बंधित स्तंभ पर गिरती हैं।

रथोत्सव

अप्रैल मास में महालक्ष्मी की उत्सव मूर्ति रथ पर बैठकर भ्रमण करती है। उनकी स्वर्ण पालकी भी अत्यंत दर्शनीय है।

आसपास के बाजार

मंदिर के बाहर कुछ दुकानें हैं जहाँ रंगबिरंगी साड़ियाँ, चूड़ियाँ, आभूषण, नारियल तथा कमल पुष्प के गुच्छे बिकते हैं। दर्शनार्थी इच्छित वस्तुएं खरीदकर देवी को अर्पण करते हैं।

संध्या के समय आसपास की गलियाँ खाने-पीने की गुमटियों एवं खोमचेवालों से भर जाती हैं जो विभिन्न प्रकार के कोल्हापुरी व्यंजन बिक्री करते हैं।

कोल्हापुरी साज

महालक्ष्मी के असली आभूषण आप अधिकारिक वेबस्थल पर देख सकते हैं। आप चाहें तो उन आभूषणों के स्वर्ण एवं चांदी में निर्मित प्रतिरूप आसपास की गालियों में स्थित दुकानों से खरीद सकते हैं।

कोल्हापुर का प्रसिद्द साज
कोल्हापुर का प्रसिद्द साज

मैंने एक सम्पूर्ण संध्या इन गलियों में भिन्न भिन्न आभूषणों को निहारते बिताई थी। कई आभूषण महालक्ष्मी की छवि से मुद्रित सिक्कों से बने हुए थे। कुछ आभूषणों में मूंगे की मोतियाँ जड़ी हुई थीं जो स्वर्ण को एक रंगीन आभा से सजा रही थीं। कुछ आभूषणों में मोतियों के स्थान पर स्वर्ण के ही छोटे छोटे गोले थे। वहां हार के कई आकर्षक लटकन थे जिन पर महालक्ष्मी की छवि थी।

मैंने यहाँ कई स्त्रियों को मंगलसूत्र खरीदते देखा। कई स्त्रियाँ महालक्ष्मी की छवि से मुद्रित आभूषण भी खरीद रही थीं। क्यों न खरीदें? महालक्ष्मी समृद्धि दात्री है। अंततः आभूषण शुभ समृद्धि का परम प्रतीक ही तो है।

कोल्हापुर के अन्य देवी मंदिर

कोल्हापुर देवी के मंदिरों का नगर है। यहाँ देवी के अनेक मंदिर हैं। आईये एक एक कर इनके दर्शन करते हैं।

जिस प्रकार महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती, तीनों देवियाँ महालक्ष्मी मंदिर संकुल में विराजमान हैं, उसी प्रकार, ये तीनों देवियाँ नगर में भी विराजमान हैं।

महाकाली मंदिर

यदि आप महालक्ष्मी मंदिर से रंकाला तालाब की ओर चलना आरम्भ करें, लगभग एक किलोमीटर आगे जाकर आपके बाईं ओर एक तोरण से सज्ज द्वार दृष्टिगोचर होगा। इसके भीतर प्रवेश कर एक संकरे पथ पर आगे जाएँ। बाईं ओर एक छोटा प्राचीन मंदिर है। मैंने इस मंदिर को अचानक ही खोज लिया था जब मैं नगर का पैदल भ्रमण कर रही थी।

कोल्हापुर का प्राचीन महाकाली मंदिर
कोल्हापुर का प्राचीन महाकाली मंदिर

हमने यहाँ महाकाली की एक प्राचीन मूर्ति देखी। हम भाग्यशाली थे क्योंकि उस समय देवी का अभिषेक आरम्भ था। हमें अभिषेक के साथ साथ देवी की मूल प्रतिमा देखने का स्वर्णिम अवसर एक बार फिर प्राप्त हुआ।

और पढ़ें  – कलकत्ता के कलि मंदिर 

इसके समीप इससे भी छोटा एक मंदिर है जिसके भीतर रसई देवी विराजमान हैं। मुझे उनके विषय में अधिक कुछ ज्ञात नहीं हो पाया।

रेणुका देवी मंदिर

कोल्हापुर की श्री रेणुका देवी की मूर्ति
कोल्हापुर की श्री रेणुका देवी की मूर्ति

रेणुका देवी महासरस्वती का ही एक स्वरूप है। यह मंदिर महाकाली मंदिर के दूसरी ओर स्थित है। यह एक छोटा किन्तु अत्यंत अनूठा मंदिर है। यहीं एक अन्य छोटा मंदिर परशुराम को भी समर्पित है जो रेणुका एवं ऋषि जमदग्नि के पुत्र हैं।

मातंगी देवी का मंदिर भी समीप ही स्थित है।

रेणुका देवी को यहाँ येल्लम्मा देवी का स्वरूप माना जाता है।

रेणुका जमदग्नि विवाह का आमंत्रण
रेणुका जमदग्नि विवाह का आमंत्रण

मुझे यहाँ की एक अनूठी रस्म के विषय में जानकारी मिली। यहाँ रेणुका एवं जमदग्नि का विवाह रचाया जाता है। बाहर एक फलक पर इस विषय में सूचना भी प्रदर्शित थी जहां आगामी कुछ दिनों पश्चात आयोजित होने वाले इस विवाह में सम्मिलित होने के लिए खुला निमंत्रण दिया गया था। ऐसा ही निमंत्रण मैंने द्वारका में रुक्मिणी विवाह का भी देखा था।

भवानी मंडप में तुलजा भवानी मंदिर

कोल्हापुर भवानी मंडप में तुलजा भवानी का मंदिर
भवानी मंडप में तुलजा भवानी का मंदिर

भवानी मंडप वास्तव में एक प्राचीन महल है। तुलजा भवानी इस क्षेत्र के राजपरिवार की कुलदेवी है। उनका मंदिर अब भी पुराने महल के परिसर में है जबकि कालान्तर में महल कोल्हापुर के नवीन क्षेत्र में स्थानांतरित हो गया था।

मैंने तुलजा भवानी की प्रतिमा कशी की पञ्च क्रोशी यात्रा पर भी देखी थी।

यहाँ के खुले प्रांगण में मुझे मेरी पिछली यात्रा के समय दंड पट्टा देखने का अवसर मिला था। दंड पट्टा मराठा स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला युद्ध कौशल नृत्य है। आईये मैं आपको इसका विडियो दिखाती हूँ:

त्रिअम्बुली अर्थात् टेम्लाई देवी मंदिर

यह नगर से कुछ किलोमीटर दूर स्थित यह एक छोटा मंदिर है। नवरात्रि के पांचवे दिवस अर्थात् ललिता पंचमी के दिन देवी महालक्ष्मी इस मंदिर में अपनी बहन त्रिअम्बुली से भेंट करने आती हैं।

त्रिअम्बुली देवी मंदिर - कोल्हापुर
त्रिअम्बुली देवी मंदिर – कोल्हापुर

इससे सम्बंधित एक कथा के अनुसार जब महालक्ष्मी असुर कोल्हासुर से युद्ध कर रही थी, उस समय इस क्षेत्र के राजा की पुत्री उनकी सहायता कर रही थी। किन्तु युद्ध समाप्ति के पश्चात देवी उस कन्या के विषय में भूल गयी। इससे कन्या का मन दुखी हो गया। इसकी अनुभूति होते ही देवी ने कन्या से भेंट की तथा उसे वरदान दिया कि कोल्हापुर में उसकी भी आराधना की जायेगी। वर्ष में एक बार वे उससे भेंट करने उसके मंदिर अवश्य आयेंगी, ऐसा उन्होंने कन्या को वचन भी दिया। इस परंपरा का आज भी पालन किया जाता है।

त्रिअम्बुली देवी की प्रतिमा
त्रिअम्बुली देवी की प्रतिमा

त्रिअम्बुली देवी को प्रेम से टेम्लाई भी पुकारते हैं। इन्हें महालक्ष्मी देवी की छोटी बहन माना जाता है।

समीप ही मंगई देवी को समर्पित एक मंदिर है।

कपिलेश्वर अथवा कपिल तीर्थ मंदिर

प्राचीन कपिलेश्वर मंदिर या श्री कपिल तीर्थ
प्राचीन कपिलेश्वर मंदिर या श्री कपिल तीर्थ

कुछ ही दूरी पर एक सब्जी मंडी है। कौतुहलवश हमने मंडी में प्रवेश किया। कदाचित कोई दैवीय शक्ति हमें वहां खींच कर ले गयी थी। वहां हमने छोटा किन्तु प्राचीन कपिलेश्वरी मंदिर खोज निकाला। ठेठ चालुक्य शैली के स्तंभों पर खड़ा यह एक प्राचीन शिव मंदिर है।

बाद में हमने टाउन हॉल संग्रहालय देखा। वहां हमने कई ऐसी कलाकृतियाँ देखीं जो इस परिसर में हुई खुदाई के समय प्राप्त हुई थीं। हमें यह भी बताया गया कि बाजार उस स्थान पर है जहां एक समय मंदिर का जलकुण्ड था। सुनकर अत्यंत दुःख हुआ।

लिंग के स्थान पर श्री यन्त्र
लिंग के स्थान पर श्री यन्त्र

यहाँ तक कि नगर के सभी मंदिरों के जलकुण्ड अब अस्तित्वहीन हैं।

कोल्हापुर में मेरी सर्वाधिक अद्भुत खोज थी एक श्री यन्त्र जिसे एक योनी पर शिवलिंग के समान उत्कीर्णित किया गया है। यह एक अद्वितीय नक्काशी है जिसे मैंने इससे पूर्व कभी नहीं देखा था।

संग्रहालय में मैंने अनुभव किया कि किसी काल में नगर का विशाल तीर्थ क्षेत्र अथवा शक्ति क्षेत्र कितना कला व संस्कृति संपन्न रहा होगा।

कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर के लिए यात्रा सुझाव

कोल्हापुर पुणे एवं मुंबई जैसे महानगरों से सड़क एवं रेल मार्ग से सुव्यवस्थित ढंग से जुड़ा हुआ है।

कोल्हापुर में ठहरने के लिए हर श्रेणी के अनेक अतिथिगृह हैं। आलीशान होटलों में मुझे केवल सयाजी के विषय में ज्ञात है। हम मराठा रेजीडेंसी में ठहरे थे। मुनासिब मूल्य में उपलब्ध यह अतिथिगृह मूल सुखसुविधा संपन्न था।

महालक्ष्मी मंदिर भक्तों के लिए प्रातः ४:३० बजे खुलता है तथा रात्रि ९:३० तक खुला रहता है।

मंदिर के भीतर छायाचित्रिकरण की अनुमति नहीं है। कुछ दूरी से इसके चित्र ले सकते हैं।

मंदिर परिसर के बाहर एवं भीतर दुकानें हैं जहां से आप पूजा सामग्री ले सकते हैं। यह एक भीड़भाड़ भरा मंदिर है। विशेषतः मंगलवार एवं उत्सवों के दिवसों में यहाँ भक्तों का तांता लगा रहता है।

कोल्हापुर के अन्य मंदिर प्रातः से संध्या तक खुले रहते हैं। इन मंदिरों में नाममात्र की भीड़ रहती है। जब मैंने इन मंदिरों के दर्शन किये, तब वहां गिनती के ही दर्शनार्थी उपस्थित थे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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