कण्वाश्रम – सम्राट भरत की जन्मस्थली उत्तराखंड में मालिनी के तीर पर

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इंडिया, आमतौर पर इस नाम से संबोधित हमारा देश वस्तुतः भारत अथवा भारतवर्ष है। इस नाम का सम्बन्ध सम्राट भरत से है। क्या आप सम्राट भरत की जन्मस्थली के विषय में जानते हैं? उनकी जन्मस्थली कहाँ है, यह तो दूर की बात है, उनकी जन्मस्थली का नाम भी अधिकांशतः लोगों को ज्ञात नहीं है।

कुछ समय पूर्व मुझे कण्वाश्रम के दर्शन का संयोग प्राप्त हुआ था। कण्वाश्रम अर्थात् उत्तराखंड में मालिनी नदी के तीर स्थित ऋषि कण्व की धरोहर! यहाँ आकर मेरे मानसपटल में प्राचीन भारतीय साहित्यों एवं शास्त्रों में चर्चित कई कथाएं सजीव हो उठी थीं। फिर वह कथा चाहे शकुंतला की हो अथवा उनके माता-पिता विश्वामित्र एवं मेनका की या पुरुराज दुष्यंत की। ये कहानियां आपने भी कभी ना कभी अवश्य पढ़ी होंगीं। तो अब आपकी उत्सुकता भी अवश्य जागी होगी कि यह कण्वाश्रम कहाँ है!

चक्रवर्ती सम्राट भरत के जन्मस्थल की कथा

सिंह के दांत गिनते हुए सम्राट भरत
सिंह के दांत गिनते हुए सम्राट भरत

एक समय की बात है, हिमालय की तलहटी पर ऋषि विश्वामित्र का आश्रम था। एक बार ऋषि विश्वामित्र की कठोर तपस्या से स्वर्ग के राजा इंद्र अत्यंत विचलित हो गए थे। उनकी तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने स्वर्ग की अप्रतिम सुन्दरी, अप्सरा मेनका को धरती पर भेजा। मेनका विश्वामित्र की तपस्या भंग कर उन्हें अपने मोहपाश में बांधने में सफल हो गयी। विश्वामित्र एवं मेनका के प्रेम से जनम लिया उनकी पुत्री शकुंतला ने।

मेनका बालिका शकुंतला को ऋषि विश्वामित्र के आश्रम के समीप स्थित ऋषि कण्व के आश्रम में छोड़ कर स्वर्ग वापिस चली गयी। यह आश्रम पास की पहाड़ी पर जहां स्थित था, वहां आज सिद्धबलि हनुमान मंदिर है। शकुंतला जंगल के पशु-पक्षियों के सानिध्य में बड़ी हुई। एक बार, वर्तमान के मेरठ के समीप स्थित, हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत कण्वाश्रम के आसपास के वन में हिरण का शिकार कर रहे थे। वहां उनकी भेंट हुई शकुंतला से। दोनों में प्रेम उत्पन्न हुआ एवं उन्होंने गन्धर्व विवाह किया। शकुंतला को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम रखा गया भरत।

क्या आप जानते हैं कि भरत को सर्वदमन भी कहा जाता है क्योंकि कण्वाश्रम में उनका वर्चस्व था।

मालिनी नदी के किनारे स्थित कण्वाश्रम में भरत का पालन पोषण हुआ। उन्होंने जिस राज्य पर राज किया, कालान्तर में उसका नामकरण उन्ही के नाम पर भारत किया जाने वाला था। भारत पर लिखी प्रत्येक इतिहास की पुस्तक इस स्तोत्र से आरम्भ होती है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम  भारती यत्र संततिः ।।

इसका अर्थ है, वर्षं अर्थात् वह देश, जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में है, भारतवर्ष है जहां भरत के वंशज निवास करते हैं।

दुष्यंत एवं शकुंतला - कण्वाश्रम
दुष्यंत एवं शकुंतला – कण्वाश्रम

शकुंतला व दुष्यंत की कथा महाकाव्य महाभारत में कही गयी है। कवि कालीदास ने अपने संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में इस कथा को जीवंत किया।

हमारे देश का नाम जिस राजा से सम्बंधित है, उनकी जन्मस्थली राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत महत्वपूर्ण होगी, आप यदि ऐसा अनुमान लगायें तो दुर्भाग्यवश आप सही नहीं होंगे। आप इस स्थल को आसानी से खोज भी नहीं पायेंगे। भला हो उन स्थानीय निवासियों का जिन्होंने एक स्थान की पहचान कर वहां एक छोटा सा आश्रम निर्मित किया है। आश्रम के भीतर शकुंतला व भरत की कथा के सब पात्रों की प्रतिमाएं स्थापित की हैं।

कण्वाश्रम का इतिहास

५० के दशक में बना ऋषि कन्व का आश्रम - मालिनी के तीर पर
५० के दशक में बना ऋषि कन्व का आश्रम – मालिनी के तीर पर

कण्वाश्रम मालिनी नदी के किनारे बनाया गया था। ऐसी नदी जो अब भी हिमालय के शिवालिक पर्वतश्रंखला के बीच से धीरे धीरे बहती हुई रावली में गंगा से मिल जाती है। कण्वाश्रम के सटीक स्थान की जानकारी हमें नहीं है। किन्तु हम इतना अवश्य जानते हैं कि यह मालिनी नदी के समीप, एक ऊंचे पठार पर स्थित था जहां कई हिरण आया करते थे।

ऐसा माना जाता है कि अन्य मुख्य नदियों के विपरीत मालिनी नदी ने अपनी दिशा नहीं बदली। यह अब भी अपने किनारे बसे गाँवों एवं खेतों का पोषण करती है। कदाचित मालिनी नदी का नाम मालू अथवा मालन नामक बेल के ऊपर रखा गया है जिस पर ग्रीष्म ऋतु में श्वेत पुष्प खिलते हैं। यह बेल मालिनी नदी के किनारे बहुतायत में पाए जाते हैं।

कुछ सन्दर्भों के अनुसार कण्वाश्रम एक काल में प्रमुख विश्वविद्यालय था जहां हज़ारों की संख्या में विद्यार्थी कण्व ऋषि एवं उनके शिष्य ऋषियों से विद्या अर्जित करने दूर दूर से आते थे।

कण्वाश्रम के पास बहती मालिनी नदी
कण्वाश्रम के पास बहती मालिनी नदी

कण्वाश्रम केदारनाथ एवं बद्रीनाथ के प्राचीन तीर्थ मार्ग पर स्थित था। प्राचीन अभिलेखों के अनुसार, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ की यात्रा पर निकले तीर्थ यात्रियों का यह अनिवार्य विश्राम स्थल था। जंगलों एवं नदियों को पार करते हुए यह तीर्थयात्रा पैदल ही पूर्ण की जाती थी। मार्ग में उपस्थित उन्नत गुरुकुल के रूप में, कण्वाश्रम एक तीर्थस्थान बन गया था।

बद्रीनाथ के लिए नवीन पक्की सड़क  के निर्माण के पश्चात यह मार्ग निरर्थक एवं वीरान बन गया। कदाचित कण्वाश्रम नवीन मार्ग पर ना होने के कारण शनैः शनैः जनमानस की स्मृतियों से लुप्त होने लगा। हालांकि मैदानी क्षेत्रों व पहाड़ों के मध्य स्थित गाँवों के बीच व्यापार मार्ग के रूप में यह स्थान २० वर्षों पूर्व तक सक्रिय था। नदी के समान्तर एक खच्चर मार्ग भी था जो अंततः बद्रीनाथ पहुंचता था।

महाभारत एवं स्कन्द पुराण में कण्वाश्रम

ऋषि कन्व की प्रतिमा
ऋषि कन्व की प्रतिमा

महाभारत एवं स्कन्द पुराण में भी कण्वाश्रम का उल्लेख है। महाभारत में इसे भरत का जन्मस्थान कहा गया है। वहीं स्कन्द पुराण में इसे ऐसा तीर्थ स्थल माना गया है जिसके दर्शन प्रत्येक श्रद्धालु के लिए अनिवार्य था। मौर्य कालीन यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने कण्वाश्रम को ईरिनेस नदी के किनारे बताया जिसकी पहचान कालान्तर में मालिनी नदी के रूप में हुई। हालांकि कण्वाश्रम की स्मृति को जीवित रखने का सर्वाधिक श्रेय कालिदास को जाता है जिन्होंने अपने संगीत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में कण्वाश्रम को अमर कर दिया।

आश्रम के समीप एक तीव्र ढलान की पहाड़ी है जिसे शान्तल्या धार कहा जाता है। कदाचित यह शकुंतला धार का अपभ्रंश शब्द हो। स्थानीय भाषा  में धार का अर्थ है ढलुआं पहाड़ी।

इस स्थान का सम्बन्ध बौध धर्म से भी रहा है। कोटद्वार के निकट मोरध्वज में बौध संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। १२वी. शताब्दी के अंत में जब मोहम्मद घोरी ने उत्तर भारत में आक्रमण किया था तब हरिद्वार के साथ कण्वाश्रम को भी ध्वस्त कर दिया था।

कण्वाश्रम के आस पास वन मार्ग
कण्वाश्रम के आस पास वन मार्ग

१९५५ में एक छायाचित्रकार मालिनी नदी के सम्पूर्ण किनारे की यात्रा कर रहा था। उसकी यात्रा के समय कण्वाश्रम के अस्तित्व की पुनः खोज हुई। साहित्यिक स्त्रोतों से पुष्टि होती है कि कण्वाश्रम उस स्थान पर स्थित था जहां मालिनी नदी पहाड़ों से आकर मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है। इसकी पहचान सर्वप्रथम चौकीघाट के रूप में हुई।

१९९१ एवं २०११, इन दोनों वर्षों में यहाँ भरपूर वर्षा हुई थी जिसके कारण मिट्टी बह गयी एवं कुछ प्राचीन शिल्पकारियाँ धरती से बाहर प्रकट हो गयीं। पुरातत्वविदों का मानना है कि ये शिल्पकारियाँ ९-१२वी. शताब्दी के मंदिरों के अवशेष हैं। इन मंदिरों को प्रकृति ने नष्ट किया अथवा मानवी हस्तक्षेप ने, यह कोई नहीं जानता।

वर्तमान में कण्वाश्रम

कण्वाश्रम - मालिनी नदी के उस पार से
कण्वाश्रम – मालिनी नदी के उस पार से

कण्वाश्रम, जो किसी काल में एक समृद्ध गुरुकुल था, आज एक छोटा सा आश्रम है। इस नवीन आश्रम में पांच प्रतिमाएं हैं – कण्व ऋषि, कश्यप ऋषि, शकुंतला, दुष्यंत एवं पांचवी प्रतिमा भरत की है जिन्हें शेर के दांत गिनते दिखाया गया है।

कण्वाश्रम के आसपास के क्षेत्र में कई फलदार वृक्ष हैं। चारों ओर पंछी उड़ते रहते हैं तथा यहाँ कई हिरण भी हैं। हिमालय की तलहटी में स्थित यह स्थान भरपूर भोजन व जल से परिपूर्ण होने के कारण आश्रम के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है। इसलिए यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि कण्वाश्रम यहाँ क्यों स्थापित किया गया था।

धनेश - कण्वाश्रम में आज भी पक्षी विहरण करते हैं
धनेश – कण्वाश्रम में आज भी पक्षी विहरण करते हैं

उत्तराखंड के वनों में कई औषधीय पौधे पाए जाते हैं जिनका प्रयोग अनेक प्रकार की औषधियाँ तैयार करने में होता है। यहाँ की शुद्ध जलवायु के कारण यहाँ सैर करने, प्रकृति का आनंद उठाने अथवा एकांत में बैठ कर कुछ लिखने के लिए अत्यंत उपयुक्त स्थान है। हो सकता है कालीदास भी अपनी महान कलाकृति रचने से पूर्व कभी यहाँ रहे हों।

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कण्वाश्रम के आसपास के वनों में हिरण, चीतल, बन्दर, लंगूर इत्यादि स्वच्छंद घूमते हैं। स्थानीय रहवासियों ने यहाँ कई बार तेंदुए भी देखे हैं। हाथियों के झुण्ड को नदी के समीप देखा जा सकता है। गर्मी के दिनों में भी मुझे यहाँ कई प्रकार के पंछी उड़ते दिखाई दिए। सुबह उठकर जब मैं बाहर किताब पढ़ने बैठी, ऐसा लगा मानो मैं पक्षियों के खेल के मैदान में बैठ गयी हूँ। कदाचित कण्व ऋषि ने शकुंतला का नामकरण इन्ही पक्षियों पर किया था क्योंकि वो पक्षियों का बीच जीवन बिताते हुए बड़ी हुई थी।

स्थानीय सूत्रों के अनुसार वनों के भीतर पैदल मार्गों को बंद कर दिया गया है ताकि वनों की हरियाली बढ़ सके। तभी से यहाँ वन्य प्राणियों की संख्या में वृद्धी हुई है। दूसरी ओर गांववासियों पर उनके आक्रमण की घटनाएँ भी सुनाने में आयी हैं।

बसंत पंचमी

वार्षिक बसंत पंचमी मेला - कण्वाश्रम
वार्षिक बसंत पंचमी मेला – कण्वाश्रम

हर वर्ष बसंत पंचमी के दिन यहाँ वसंतोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व फरवरी के महीने में आता है जब यहाँ एक मेला लगता है।

भारत सरकार द्वारा स्वच्छ प्रतिष्ठित स्थान के अंतर्गत,२०१८ में सर्वश्रेष्ठ विरासती स्थलों की सूची जारी की गयी थी। आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि कण्वाश्रम इस सूची के प्रथम १० स्थानों के भीतर है।

कण्वाश्रम के आसपास दर्शनीय स्थल

सिद्धबलि मंदिर - गुलर झाला
सिद्धबलि मंदिर – गुलर झाला

मालिनी नदी के आसपास कुछ दर्शनीय स्थल पैदल चलकर ही पहुंचे जा सकते हैं। मैंने तो पैदल चलने का प्रयत्न नहीं किया। पर यदि आप पैदल चलने में रूचि रखते हैं तो, आपके लिए इन स्थलों की सूची एवं उनसे जुड़ी किवदंतियों को प्रस्तुत कर रही हूँ।

जगदेव मंदिर – यह मंदिर बहुत पुराना नहीं है। पत्थरों को देख प्रतीत होता है कि यह मंदिर प्राचीन मंदिर के ऊपर निर्मित किया गया है।

सहस्त्रधारा –  सहस्त्रधारा का अर्थ है हजार जलधाराएं। इस शब्द का प्रयोग अधिकतर वहां किया जाता है, जहां कई जलधाराएं मिलकर एक बड़ी धारा बनाती हैं। कण्वाश्रम से, मालिनी के प्रवाह के विपरीत दिशा में ४ कि.मी. आगे जाकर आप देख सकते है, किस प्रकार ऊंची ऊंची चट्टानों से जल की बूँदें मालिनी नदी में गिरती हैं।

शान्तल्या धार –  यह सीधी ढलान की एक पहाड़ी है। कहा जाता है कि दुष्यंत द्वारा त्यागे जाने के उपरांत शकुंतला ने ६ वर्ष यहाँ व्यतीत किये थे। यह स्थान, जल प्रवाह के विपरीत दिशा में, कण्वाश्रम से १८ की.मी. आगे स्थित है जो मालिनी नदी के उद्गम के समीप है।

चंदखल –  मालिनी नदी का उद्गम

सिद्धबलि मंदिर, गुलर झाला – इस एकाकी मंदिर तक पहुँचने के लिए आपको वन रक्षक की सहायता लेनी पड़ेगी। मैंने यह मंदिर देखा। इसके निर्मल परिवेश के कारण यह मंदिर मुझे अत्यंत भा गया। यह स्थान इतना शांत है कि आप यहाँ आकर बैठना या ध्यान लगाना पसंद करेंगे। आपके बैठने के लिए तख़्त एवं बेंचें रखी गयी हैं।

वन गुजरों के खुले घर
वन गुजरों के खुले घर

गढ़वाल के वन गुज्जरों से मिलिए –  वन में सैर करते समय हमारा ध्यान खींचा नीले रंग की बड़ी व खुली झोपड़ियों ने। ऐसा लग रहा था मानो यह जंगल से घिरा एक खुला घर है। एक झोपडी के भीतर गायों को रखा हुआ था। हमने यहाँ लोगों से बात की और जाना कि ये गुज्जर समुदाय के लोग हैं जो दूध व दूध से बनी वस्तुओं को बेच कर जीविका चलाते हैं।

सिद्धबलि मंदिर, कोटद्वार –  यह एक प्राचीन मंदिर है। कदाचित यहीं विश्वामित्र का आश्रम था। वर्तमान में यह भगवान् हनुमान का एक प्रसिद्ध मंदिर है। किन्तु यहाँ तक पहुँचने के लिए कई सीड़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं।

कण्वाश्रम यात्रा के लिए कुछ सुझाव

गढ़वाल मंडल विकास निगम का अथिति गृह
गढ़वाल मंडल विकास निगम का अथिति गृह
  • गढ़वाल पहाड़ियों का प्रवेशद्वार अर्थात् कोटद्वार से कण्वाश्रम लगभग १४ की.मी. दूर है। हरिद्वार से यह लगभग ४० की.मी. दूरी पर स्थित है।
  • सार्वजनिक परिवहन पर्याप्त नहीं है। बेहतर होगा कि आप किराए की टैक्सी लेकर कण्वाश्रम दर्शन के लिए आयें।
  • मेरा सुझाव है कि आप कण्वाश्रम में गढ़वाल मंडल विकास निगम के अतिथि गृह में ही रुकें। यह नवीन आश्रम के ठीक सामने है। सुविधाएं साधारण हैं परन्तु यहाँ से परिदृश्य अप्रतिम है।
  • जंगल में जाते समय एक स्थानीय परिदर्शक की सुविधाएं अवश्य लें।
  • कण्वाश्रम एक शांत व एकांत स्थान है। अतः यह विश्रांति लेने एवं हिमालय की तलहटी के प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाने के लिए उत्तम स्थान है। इसलिये बहुत अधिक क्रियाकलापों की अपेक्षा ना करें। हाँ, आप पक्षियों के अवलोकन का भरपूर आनंद उठा सकते हैं।

और अधिक जानकारी के लिए ले. कमान्डर वीरेंद्र रावत के इस संकेतस्थल पर देखिये। उन्होंने कण्वाश्रम पर एक पुस्तक भी लिखी है। उन्होंने मुझे उनके कण्वाश्रम के कुछ छायाचित्र मेरे संस्मरण में प्रयोग करने की अनुमति भी दी। इस के लिए मैं उनकी आभारी हूँ।

 

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

9 COMMENTS

  1. कण्वाश्रम सम्राट भरत की जन्मस्थली बहुत उम्दा व ज्ञानवर्धक जानकारी दी हैं, जो वाकई इतिहास के गर्भ में समाहित है कि भारत नाम किस के नाम पर पड़ा। यह तो सर्वविदित है कि वे चक्रवर्ती सम्राट थे लेकिन एक और भी धारणा भी है कि वे जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव के पुत्र थे जो गूगल पर है।
    आपने जन्मस्थली का लेख के द्वारा एक विस्मृत ऐतिहासिक जगह का भृमण करवाया। धन्यवाद????????

    • संजय जी, विडम्बना है की हम अपने ही इतिहास के बारे में इतना कम जानते हैं, मुझे तो यह सब घुमते फिरते मिल जाता है, साँझा कर देती हूँ। इस ज्ञान को सुचारू रूप से अगली पीढ़ी तक पहुँचाने की आवश्यकता है।

  2. Maharishi Kanv ke bare mein itni jankari kahi aur kam hi dekhne ko mili jo apne di. thankyou, Mera gotra Rishi kanv hi hai , isliye bhi meri dilchaspi Maharishi Kanv mein hai,

  3. Kanv Rishi ashram Kotdwar, Uttarakhand me stith hai, Main kotdwar se lagbhag10- 15 km ki doori me. Bahut hi sundar, shant vatavarn hai, yha ka. Malini nadi ke kinaare basi ye etihasik bhoomi dekhne layak hai. Ye raja dushyant v shakuntala k putra Bharat ki janm sthali hai, jha aaj bhi praman mojud hai.

  4. Maharshi kanvmuni ashram Jalgaon jihad kanalada gave me he.yaha unki ghupha he.
    Yaha ek prachin mahadev mandir aur girna yani girija nadi he

    • कण्वाश्रम मालिनी नदी के तट पर वर्णित है, पर कई आश्रम भारत भर में मिलते हैं, सो हो सकता है एक आश्रम जलगाँव में भी हो

  5. अनुराधाजी एक महर्षी कण्व का आश्रम महाराष्ट्र राज्य के जळगांव/जलगाँव इस जिले के (डिस्ट्रिक्ट) शहर से तेरह किलोमीटर की दुरीपर स्थित कानलदा गाँव में भी है. शाकुंतल समीक्षा पंडित कांतनाथ शास्त्री तेलंग इनके समीक्षा ग्रंथ से मालूम होता है की महर्षी कण्व कुलपती थे. जो दस हजार विद्यार्थीयोंको अपने आश्रम में रखकर पढाते थे व उनके भोजन, वस्त्र, रहने का प्रबंध करते थे. ये नैष्टिक ब्रह्मचारी थे.
    इस कानलदा गाँव में गिरणा नदी के किनारे यह आश्रम स्थित है. साथ में शंभू महादेव का पुरातन मंदिर है. यहाँ गुफा भी है. जिसे स्थानीय बोलिमे भुयार कहते हैं.
    इस आश्रम का जिर्णोद्धर (उध्दार) स्वामी चंद्रकिरणजी सरस्वतीजीने किया. वे राणा प्रताप के आखरी वंशज थे. वह भी ब्रह्मचारी थे. आज उनके शिष्य अद्वैतानंद ब्रह्मचारी आश्रम में स्थित है. रामायण काल में दंडकारण्य ऋषी.. मुनी लोगोंका तप व यज्ञ याग, होमहवन करने का क्षेत्र था ऐसा विदित है. इस क्षेत्र में भी पर्वत या पहाडी तथा शिखर थे. इस आश्रम की गुफा के बारेमे कई दंतकथा मुख प्रसिध्दी से प्रचलित हैं. इस का शोध होना जरुरी हैं.

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