सभी चौसठ योगिनी मंदिर अत्यंत ही अनोखे एवं अद्भुत मंदिर हैं। बिना छत की गोलाकार संरचना व उन पर उत्कीर्णित योगिनियों की अद्भुत प्रतिमाएं इन्हे अद्वितीय व असाधारण बनाती हैं। मंदिर की इन विशेषताओं ने मंदिर-वास्तुकला के विद्यार्थियों को सदैव विस्मित किया है। जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं पाँच चौसठ योगिनी मंदिरों में से इस प्रथम मंदिर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लंबे समय से प्रतीक्षारत थी। इन ५ चौसठ योगिनी मंदिरों में से २ ओडिशा में तथा ३ मध्य प्रदेश में हैं। इनके अतिरिक्त मैंने मांडू के निकट जीरापुर में भी एक चौसठ योगिनी मंदिर खोजा था जो जीर्ण होते हुए भी जीवंत था तथा जहां अब भी पूजा अर्चना की जाती है। अतः इस प्रकार से कुल ६ चौसठ योगिनी मंदिर हैं।
मेरा सौभाग्य देखिए, २० दिनों के समयान्तर में ही मुझे यह दोनों चौसठ योगिनी मंदिरों के दर्शन प्राप्त हो गए। दोनों मंदिर एक दूसरे से अत्यंत भिन्न प्रतीत हुए। एक मंदिर एक विशाल जलकुंड के समीप स्थित है तो दूसरा भुवनेश्वर की बाहरी सीमा पर धान के खेतों के मध्य स्थित है। सूर्यास्त के समय मैंने इस मंदिर के दर्शन किए। यद्यपि मुझे ज्ञात था कि मंदिर छोटा है, तथापि मैंने यह मंदिर मेरे अनुमान से भी लघु पाया।
क्या आप जानते थे कि दिल्ली को किसी काल में योगिनीपुर कहा जाता था क्योंकी किसी समय यहाँ योगिनी मंदिर हुआ करते थे? आज केवल एक मंदिर जीवित बच पाया है – योगमाया मंदिर।
यूँ तो हीरापुर भुवनेश्वर से कुछ ही किलोमीटर दूर है किन्तु इसका भुवनेश्वर से अथवा वर्तमान काल से कोई भी संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता। धान के खेतों से घिरा यह स्थान भूतकाल का ही एक भाग प्रतीत होता है जिसने अपने ही स्थान में, अपने ही समय काल में एवं अपनी ही शैली से जीवंत रहने का निश्चय किया हो।
हीरापुर के चौसठ योगिनी मंदिर का इतिहास
मंदिर के शोधकर्ताओं ने इस मंदिर की निर्मिती लगभग ८ वीं. से १० वीं. सदी के मध्य की आँकी है। स्थानीय गांव वासी इस मंदिर में पूजा अर्चना करते रहे हैं। यद्यपि इसकी आधिकारिक खोज १९५३ में ओडिशा राज्य संग्रहालय के श्री केदारनाथ महापात्रा ने की थी। तब से यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है।
ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भौम वंश की साम्राज्ञी हीरादेवी ने करवाया था। भौम वंश में विभिन्न समय में अनेक साम्राज्ञियों ने शासन किया है। साम्राज्ञी हीरादेवी के नाम पर ही इस गाँव को हीरापुर कहा जाता है। मंदिर के मध्य स्थित देवी के नाम पर इस मंदिर को महामाया मंदिर भी कहा जाता है।
रानी स्वयं ही योगिनी पंथ की अनुयायी थीं अथवा उन्होंने योगिनी पंथ के अन्य अनुयायियों के लिए यह मंदिर निर्मित किया था, यह अनुमान लगाना कठिन है।
१६ वीं. सदी के एक धर्म परिवर्तित मुसलमान सेनाध्यक्ष कालापहाड़ ने इस मंदिर पर भी आक्रमण किया था तथा यहाँ की मूर्तियों को खंडित किया था। कालापहाड़ पुरी एवं कोणार्क के मंदिरों के विध्वंसक के रूप में कुप्रसिद्ध है।
योगिनी कौन हैं?
योगिनियाँ देवियाँ अथवा यक्षिणियाँ होती हैं जिन्हे तांत्रिक क्रिया के अंतर्गत पूजा जाता है। यद्यपि उनके मंदिरों में सामान्यतः ६४ योगिनियों के समूह होते हैं, तथापि कुछ मंदिरों में ४२ अथवा ८१ योगिनियों के समूहों का भी उल्लेख मिलता है। इन योगिनियों को चक्र के आकार में प्रदर्शित किया जाता है। कदाचित यही कारण है कि उनके मंदिर भी चक्र के आकार में निर्मित होते हैं। प्रत्येक योगिनी इस चक्र अर्थात पहिये के एक आरे पर स्थापित होती है।
प्रत्येक मंदिर में इन योगिनियों की सूची में भिन्नता होती है। यहाँ एक विशेष तथ्य का उल्लेख करना चाहूँगी कि प्रत्येक योगिनी का एक विशेष नाम होता है तथा किसी भी दो मंदिरों में इन नामों की सूची समान नहीं होती। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि किसी मंदिर की योगिनियों की सूची में स्थानीय प्रभाव अवश्य निर्णायक कारक रहे होंगे। इन योगिनियों में कुछ दयालु तो कुछ क्रूर प्रतीत होती हैं। प्रत्येक योगिनी की एक विशेष शक्ति होती है जिसके आधार पर ही अपनी इच्छा पूर्ति के लिए भक्तगण संबंधित योगिनी की आराधना करते हैं। ये इच्छाएं संतान प्राप्ति से लेकर शत्रु के विनाश तक कुछ भी हो सकती हैं।
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तांत्रिक क्रियाएं अत्यंत गोपनीय होती हैं। इस पंथ के अनुयायियों के समक्ष ही इन क्रियाओं को उजागर किया जाता है। किन्तु मुझे बताया गया कि इस मंदिर में मुख्यतः चंडी पाठ अथवा देवी महात्मय द्वारा देवियों की आराधना की जाती है।
योगिनियाँ ना तो सप्त मात्रिकाएं हैं, ना ही दश महाविद्याएं हैं। वे नव दुर्गा भी नहीं हैं। वे यक्षिणियों के समूह हैं जो सदैव साथ रहती हैं तथा साथ ही कार्य करती हैं।
हीरापुर के चौसठ योगिनी मंदिर का वास्तुशिल्प
जैसा कि मैंने उपरोक्त अनेक बार उल्लेख किया है, यह एक छोटा सा गोलाकार मंदिर है। इसका निर्माण स्थानीय बलुआ पत्थर द्वारा किया गया है, वहीं मूर्तियों के निर्माण में काली ग्रेनाइट शिला का प्रयोग किया गया है। योगिनी मंदिर की वास्तुकला का अन्य मंदिरों से कोई साम्य नहीं है। ये छोटे, निहित तथा पूर्णतः केंद्रित मंदिर हैं जो अपने अनुयायियों की छोटी संख्या के लिए लक्षित हैं। अतः ओडिशा में स्थित होने के बाद भी हम इन्हे कलिंग वास्तुकला नहीं कह सकते। यह स्वयं में एक विशेष वास्तुकला है।
हीरापुर के चौसठ योगिनी मंदिर का विडिओ
मंदिर के समक्ष, पूर्व की ओर एक पीठिका है जिसे सूर्य पीठ कहा जाता है। साधक अथवा भक्त इस पीठ का प्रयोग सूर्य की आराधना के लिए करते हैं। आपको स्मरण होगा, कोणार्क सूर्य मंदिर भी समीप ही स्थित है। सूर्य आराधना यहाँ की परंपरा प्रतीत होती है।
यदि आप इसे ऊपर से देखेंगे, तो इसका आकार स्त्री योनि के समान प्रतीत होता है। यह ६० आरे समेत पहिये अथवा चक्र के समान भी प्रतीत होते हैं।
मंदिर का प्रवेश द्वार संकरा तथा कम ऊंचाई का है। आपको झुककर भीतर प्रवेश करना पड़ता है। वह भी एक समय केवल एक ही व्यक्ति प्रवेश कर सकता है। प्रवेशद्वार की बाहरी भित्तियों पर द्वारपाल जय एवं विजय उत्कीर्णित हैं। मंदिर की ओर जाते अत्यंत सँकरे गलियारे की भित्तियों पर काल एवं विकाल की छवियाँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही सँकरेपन का आभास लुप्त हो जाता है। कम ऊंचाई की गोलाकार भित्तियों के मध्य से खुला आकाश झाँकने लगता है। किन्तु यहाँ आपका ध्यान आकर्षित करती हैं मंदिर के आकार में निर्मित आलों की एक सुव्यवस्थित पंक्ति तथा इन आलों के भीतर स्थापित काले ग्रेनाइट में गढ़ी योगिनियों की प्रतिमाएं।
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प्रथम दृष्टि में सभी योगिनियाँ समान प्रतीत होती हैं। कुछ क्षण ध्यानपूर्वक निहारने पर उनके मध्य का अंतर दृष्टिगोचर होने लगता है। उनके भाव, मुद्राएं तथा आसन सभी भिन्न हैं। लगभग २ फीट ऊंची प्रत्येक प्रतिमा भिन्न तत्व पर खड़ी है। कई प्रतिमाएं खंडित भी हैं।
चंडी पीठ
६० योगिनियाँ गोलाकार में स्थापित हैं। गोलाकार के मध्य एक चौकोर पीठ है जिसे चंडी पीठ कहा जाता है। चंडी पीठ की भित्तियों पर बने आलों में किसी समय बाकी की ४ योगिनियाँ थीं जिन में से अब एक प्रतिमा अनुपस्थित है। ४ आलों के भीतर ४ भैरवों की भी प्रतिमाएं हैं। देवी मंदिरों में भैरव की उपस्थिति अवश्य रहती है।
इंटरनेट सूत्रों के अनुसार मध्य में शिव की भी प्रतिमा थी किन्तु पुजारीजी ने इसके विषय में कोई टिप्पणी नहीं की। चंडी पीठ पर अब कोई नहीं जाता। सभी पूजा अर्चना महामाया के समक्ष ही की जाती है।
दक्षिणावर्त घूमते हुए ३१ क्रमांक की योगिनी महामाया है जो इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी हैं। महामाया देवी की प्रतिमा वस्त्रों, आँखों एवं आभूषणों द्वारा पूर्णतः अलंकृत है। उन्हे देख हमारा मस्तक उनका आशीष प्राप्त करने के लिए सहज ही उनके समक्ष झुक जाता है। उनके अलंकरण के कारण उनकी प्रतिमा के भाव एवं मुद्रा अलंकरण के पीछे छुप जाते हैं। मुझे बताया गया कि वे मानवी सिर के ऊपर खड़ी हैं।
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महामाया के समक्ष एक बड़ा दीपक प्रज्ज्वलित था। पुजारीजी ने मुझे बताया गया कि यह दीपक अनंत काल से प्रज्ज्वलित है। मैं सोच में पड़ गई कि यहाँ नित्य आते चक्रवात एवं वर्षा के रहते यह दीपक अब तक कैसे जीवित है! उन्होंने बताया कि वे प्रतिकूल वातावरण में इसे ठीक प्रकार से ढक देते हैं जिससे दीपक को कोई हानि नहीं पहुँचती। यह शाश्वत, अविनाशी व चिरकालीन दीपक उस समय से प्रज्ज्वलित है जब से यह मंदिर अस्तित्व में आया है, इस कल्पना मात्र ने इस दीपक को मेरे लिए अत्यंत विशेष बना दिया।
योगिनियों का सौन्दर्य
प्रत्येक योगिनी की प्रतिमा को अत्यंत सुंदरता से गढ़ा है। छरहरा तन, विस्तृत केश सज्जा, अपने नाम से संबंधित मुद्रा तथा उनसे संबंधित वाहन पर सवार इन योगिनियों का सौन्दर्य अत्यंत दर्शनीय है। कुछ योगिनियों के शीष पशु सदृश हैं, जैसे वराही तथा गणेशी, फिर भी उनकी नारीसुलभ मादकता में तनिक भी कमी नहीं है। यही मोहकता योगिनियों की पहचान है।
जिस समय मैं यहाँ दर्शनार्थ आई थी, प्रत्येक योगिनी के समक्ष एक गेंदे का पुष्प अर्पित था। इंटरनेट में देखे चित्रों में सभी योगिनियाँ सुंदर वस्त्रों से अलंकृत हैं। मेरा अनुमान है कि इन योगिनियों को नवरात्रि तथा अन्य महत्वपूर्ण उत्सवों में इस प्रकार सजाया जाता होगा।
गजमुख से सज्ज एक योगिनी, गणेशी, भगवान गणेश का स्त्री रूप है जो मुझे सर्वाधिक विशेष प्रतीत हुई।
योगिनियों के विस्तृत सूची की जानकारी के लिए मेरा उपरिक्त विडिओ देखिए अथवा इस वेबस्थल पर संपर्क करें।
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मंदिर की बाह्य भित्ति
मंदिर की बाह्य भित्ति अपेक्षाकृत साधारण है। समान दूरी पर ९ आलें हैं जिनके भीतर देवी की ९ मूर्तियाँ हैं। इन्हे नव-कात्यायनी अथवा नव-दुर्गा कहा जाता है। पुजारी जी ने उन्हे नवरात्रि में पूजे जाने वाली देवी के ९ स्वरूपों से संबंधित बताया। उन प्रतिमाओं को देख शक्ति के ९ रूपों से उनका संबंध मुझे दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। संभव है इन स्वरूपों का अन्यत्र संबंध हो जिसकी जानकारी मुझे नहीं है।
बाहरी प्रतिमाओं का आकार भीतरी प्रतिमाओं से अपेक्षाकृत किंचित विशाल है। कुछ मूर्तियाँ मृत देह पर खड़ी हैं तथा कुछ उन पशुओं पर खड़ी हैं जो साधारणतः मृत देह के समीप पाए जाते हैं, जैसे श्वान, सियार इत्यादि। आपको स्मरण होगा, कुछ तांत्रिक क्रियाओं में मृत देह का प्रयोग किया जाता है। सभी प्रतिमाओं ने हाथों में विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हैं।
एक छोटी प्रतिमा ने शीष पर छत्र धारण किया है।
शिव मंदिर
योगिनी मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार के समीप श्वेत रंग में रंगा भगवान शिव का एक मंदिर है जिसे संकटेश्वर मंदिर कहा जाता है। इसके समक्ष नंदी की एक छोटी व मनमोहक मूर्ति है जो रंगबिरंगे वस्त्र से अलंकृत है।
परिसर के भीतर, एक वृक्ष के नीचे खुले में, श्रीकृष्णजी के गोपीनाथ रूप की अत्यंत मनभावन श्यामल प्रतिमा खड़ी है। इसे देख मुझे लगा कि यह मूर्ति समीप ही कहीं प्राप्त हुई होगी। तत्पश्चात इसे इस परिसर में स्थापित किया गया होगा।
मंदिर के बाहर एक सुंदर पुष्करणी अर्थात मंदिर का जलकुंड है जिस के मध्य एक छोटा मंदिर भी है जो साधारणतया सम्पूर्ण ओडिशा के जलकुंडों में सहसा दृष्टिगोचर होता है। कुछ समय पश्चात मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि इसे दीप दांडी कहा जाता है। यह नाम यह जताता है कि इसका प्रयोग मंदिर को प्रकाशमान करने के लिए किया जाता था। किन्तु दीपों से प्रज्ज्वलित इनमें से मैंने एक भी नहीं देखा।
चौसठ योगिनी उत्सव
प्रत्येक वर्ष, २३ से २५ दिसंबर तक चौसठ योगिनी महोत्सव का आयोजन किया जाता है जिसमें मंदिर के ठीक बाहर स्थित मंच पर ओडिशा नृत्य तथा संगीत का प्रदर्शन होता है। कुछ दिनों के हेर-फेर से यह उत्सव मुझसे चूक गया। आशा है आने वाले कुछ वर्षों में मैं इस उत्सव में अवश्य भाग लूँगी।
माघ सप्तमी के दिन एक विशाल यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है।
नवरात्रि के प्रत्येक दिवस चंडी पाठ किया जाता है।
हीरापुर चौसठ योगिनी मंदिर के दर्शन के लिए यात्रा सुझाव
- हीरापुर भुवनेश्वर से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी पर है।
- मंदिर संरचना का रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है वहीं मंदिर में पूजा अर्चना का उत्तरदायित्व स्थानीय पुजारी के ऊपर है।
- मंदिर प्रातः ६ बजे से संध्या ७ बजे तक खुला रहता है। मंदिर बंद करने के ठीक पूर्व संध्या आरती की जाती है।
- मंदिर में दर्शन करने के लिए प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है। दोपहर के समय यहाँ अत्यंत गर्मी का वातावरण रहता है। संभव हो तो वर्षा का समय भी टालें।
- मंदिर में प्रवेश शुल्क नहीं है। दान-दक्षिणा का भी बंधन नहीं है। आप देवी को कुछ अर्पण करना चाहें अथवा नहीं, यह आपका व्यक्तिगत चुनाव है।