बनारसी साड़ी – प्रत्येक भारतीय नारी का स्वप्न! लगभग सभी भारतीय नारी की अभिलाषा होती है कि उसके पास कम से कम एक बनारसी साड़ी अवश्य हो। विशेषतः उत्तर भारत में विवाह समारोहों तथा अन्य पवित्र अवसरों के लिए बनारसी साड़ियों का परिधान एक स्वाभाविक चयन हो गया है। रेशम कीटों द्वारा निर्मित रेशम के अखंड तंतुओं द्वारा बुने तथा बिना सिलाई किये गए ये वस्त्र अपनी परतों में इस माटी की संस्कृति को संजोये रहते हैं। रेशमी साड़ियाँ भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने में इस प्रकार रची बसी हैं मानो दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं व एक दूसरे पर पूर्णतः निर्भर भी हैं।
हम में से अधिकाँश बनारसी साड़ियों को जरी की किनारी, जरी बूटियाँ एवं चटक रंगों से युक्त शुद्ध रेशमी साड़ियों से सम्बद्ध कर के देखते हैं। किन्तु सत्य यह है कि रेशमी साड़ियाँ विभिन्न प्रकार के धागों द्वारा बुनी तथा अनेक प्रकार की किनारियों एवं बूटियों से भरी होती हैं। आईये बनारसी साड़ियों के इसी अद्भुत विश्व में मग्न हो जाते हैं।
बनारसी साड़ियों के विभिन्न प्रकार
बनारसी साड़ियों को साधारणतः तंतुओं के भिन्न भिन्न प्रकार, बुनाई के विभिन्न तकनीक तथा उन पर बुनी गयी बूटियों एवं आकृतियों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, इन तीन आयामों के असंख्य क्रमपरिवर्तन एवं संयोजन संभव हैं। अतः, आईये, रेशमी साड़ियों के विश्व में प्रवेश करते हुए सर्वप्रथम इन तीन मूल आयामों को जानने का प्रयास करते हैं।
बनारसी साड़ियों में प्रयुक्त तंतुओं एवं वस्त्रों की विभिन्न संभावनाएं
बनारसी साड़ियाँ मूलतः कोमल मलबरी रेशम के तंतुओं द्वारा बुनी जाती हैं। रेशमी साड़ियों के लिए मलबरी तंतु सर्वाधिक रूप से प्रयुक्त तथा बनारसी साड़ी उत्पादकों का प्रथम चयन होता है। भारत में इन तंतुओं का उत्पादन बंगलुरु, तमिल नाडु व कश्मीर जैसे स्थानों में किया जाता है। चीन से भी इन रेशमी तंतुओं का निर्यात किया जाता है। मलबरी रेशम के पश्चात, बनारसी साड़ियों के बुनकरों का सर्वाधिक रुचिकर व प्रयुक्त रेशम टसर रेशम है। इनके अतिरिक्त जितने भी रेशम के प्रकार हैं, उन्हें प्रायोगिक श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है।
यद्यपि रेशम के विभिन्न प्रकारों की आवश्यकताओं की आपूर्ती करने के लिए बुनकर सूती एवं कृत्रिम तंतुओं का भी प्रयोग करते हैं तथापि इस संस्करण में हम बनारसी साड़ियों का विश्लेषण शुद्ध रेशमी प्रकारों के चारों ओर ही केन्द्रित रखना चाहते हैं।
कतान रेशमी साड़ियाँ
बनारस की सर्वाधिक लोकप्रिय रेशमी साड़ियों में प्रथम क्रमांक कतान रेशम का है जो अपनी कोमलता एवं कान्ति के लिये प्रसिद्ध है। शुद्ध मलबरी रेशमी तंतुओं द्वारा इन्हें बुना जाता है। करघे के ताना एवं बाना, दोनों में शुद्ध मलबरी रेशमी तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। तकनीकी रूप से दुहरे व्यावर्तित शुद्ध मलबरी तंतुओं का प्रयोग किया जाता है जिसमें २८-३२ व्यावर्तन प्रति इंच (two-ply twisted yarn of Mulberry silk with 28-32 twists per inch) होते हैं।
यदि १६-१८ व्यावर्तन प्रति इंच का प्रयोग किया जाए तो वह रेशम सप्पे रेशम (two-ply twisted yarn of Mulberry silk with 16 -18 twists per inch) कहलाता है।
यदि एकल व्यावर्तित शुद्ध मलबरी तंतुओं (single-ply twisted yarn) का प्रयोग किया जाए तो उन्हें फ्लेचर रेशम कहा जाता है। इन्हें ही दुहरा किया जाए तो उसे भी कतान रेशम कहा जाता है।
कोरा रेशम
कोरा रेशम एक प्रकार से कतान रेशम जैसा ही होता है। उसमें भिन्नता केवल यह होती है कि उसमें प्रयुक्त रेशम के तंतुओं से चिपचिपे गोंद को पूर्णतः पृथक नहीं किया जाता है जिसके कारण रेशम तंतु कड़क रहते हैं। इसी कारण कोरा रेशम से बने वस्त्र कतान रेशम से अपेक्षाकृत कम कोमल रहते हैं। इसे ऐसे देखा जा सकता है कि ताने एवं बाने, दोनों में कतान रेशम के कड़क धागे चढ़े हों।
इनके अतिरिक्त, टसर, मुगा तथा एरी रेशमों का भी बनारसी साड़ियों की बुनाई में उपयोग किया जाता है।
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बुनाई के आधार पर बनारसी साड़ियों में भिन्नता
तनछुई साड़ियाँ
तनछुई बनारस के बुनकर उद्योग की स्वप्निल कलाकृति है। सम्पूर्ण साड़ी पर गहन एवं जटिल आकृतियाँ इन साड़ियों की विशेषता है जिसके कारण सम्पूर्ण साड़ी पर एक अनोखी कांति छा जाती है। बुनाई की इस तकनीक में एकल अथवा दुहरे ताने के साथ बाने में पांच या छः रंगों का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि तन्चोई साड़ियों में पुष्पाकृतियाँ सर्वाधिक रूप से बुनी जाती हैं, तथापि रेशमी धागों का प्रयोग कर मोर व तोतों की आकृतियों की बुनाई भी असामान्य नहीं है। सम्पूर्ण साड़ी विभिन्न रंगों एवं आकृतियों को प्रदर्शित करती एक चित्र यवनिका ही प्रतीत होती है।
मेरी इस वाराणसी यात्रा में मुझे एक महत्वपूर्ण जानकारी यह भी प्राप्त हुई कि तन्चोई साड़ियों के स्वयं के अनेक प्रकार होते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
समतल बुनाई में साटन तनछुई (Satan Tanchoi in Flat Weave) – इन साड़ियों के पृष्ठभाग में आपको किसी प्रकार के धागे अथवा तंतु दृष्टिगोचर नहीं होंगें।
खुली बुनाई में साटन तनछुई (Satan Tanchoi in Float Weave) – इन साड़ियों को अंतिम रूप देते हुए अतिरिक्त धागों को काटा जाता है। इसके पृष्ठभाग में बिना बुने हुए लम्बे तंतु दृष्टिगोचार होते हैं जो चूड़ियों, गहनों इत्यादि में फंस कर खिंच सकते हैं। इनसे बचने के लिए साधारणतः इन साड़ियों के पल्लू तथा किनारियों के पीछे जाली लगाई जाती है।
दो-दमा तनछुई (Do-Dama Tanchoi) – तकनीकी रूप से इसे २ ऊपर/२ नीचे खुली बुनाई कहते है। इसी कारण इसका नाम दो-दमा पड़ा है। यह एक विशेष करघे का भी नाम है।
वास्कोट तनछुई (Vascot Tanchoi) – इस साड़ी को दोनों ओर से धारण किया जा सकता है। इसकी बुनाई अत्यंत महीन एवं सूक्ष्म होती है। यद्यपि इसमें भी खुली बुनाई का प्रयोग किया जाता है तथापि खुले तंतु अत्यंत लघु होते हैं, बहुधा आधे इंच से भी कम।
तनछुई में दमपंच बुनाई (Dampanch weave in Tanchoi ) – बुनाई के इस तकनीक में रेशमी धागों का २५% भाग आकृतियों को अवरुद्ध करने में लगता है। इसके द्वारा आकृतियों की बुनाई के पश्चात यह सुनिश्चित हो जाता है कि कालांतर में धागे खुल नहीं पायेंगे। इस तकनीक का एक लाभ यह भी है कि यह आकृतियों अथवा बूटियों को समतल बनाता है। आकृतियों में अनेक तंतुओं का प्रयोग करने के पश्चात भी बूटियाँ उभरी हुई प्रतीत नहीं होती हैं।
जामदानी साड़ियाँ
जामदानी साड़ियों में प्रत्येक बूटी को पृथक पृथक रूप से छोटे छोटे शटलों (घिर्रियों) के द्वारा कसी हुई बुनाई तकनीक में बनाया जाता है। ये ऐसे प्रतीत होते हैं मानो करघे द्वारा ही उन पर महीन कढ़ाई की गयी हो। पारंपरिक रूप से जामदानी साड़ियों में एक ही रंग की विभिन्न छटाओं का प्रयोग किया जाता है। उन साड़ियों को उनके मूल रंग से जाना जाता है, जैसे श्वेत रंग की विभिन्न छटाओं से युक्त श्वेताम्बरी, नील वर्ण की छटाओं से युक्त नीलाम्बरी, लाल रंग की छटाओं से युक्त रक्ताम्बरी तथा पीले रंग की विभिन्न छटाओं से युक्त पीताम्बरी।
जामदानी साड़ियों का एक विशेष प्रकार है, रंग काट साड़ी, जिसमें मूल साड़ी पर १० विभिन्न रंग होते हैं तथा उन पर सुनहरी जरी के बूटे होते हैं।
जामदानी बुनाई तकनीक का एक अन्य नाम है,कढुआ।
जामावर तन्चोई साड़ियों में बड़े बड़े बूँद के आकार के बूटे होते हैं जिनका ऊपरी भाग वक्राकार होता है। उन्हें कैरी या Big Paisley patterns कहते हैं।
बेल-बूटेदार जरी वस्त्र – ब्रोकेड
बनारसी ब्रोकेड एक अत्यंत लोकप्रिय प्रकार है। इसकी विशेषता है, सुनहरी ज़री द्वारा की गयी उभरी हुई बुनाई। इसे यदा-कदा रेशमी धागों से भी किया जाता है। दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो वस्त्र पर ज़री द्वारा नक्काशी की गयी है। इसे कदाचित सर्वाधिक अलंकृत वस्त्र कहा जा सकता है। यह धारक को एक संपन्न राजसी आभा प्रदान करता है।
ब्रोकेड मूल रूप से एक साटन (दो-दामा अथवा खेस) बुनाई है जिसके दो प्रकार हैं, साटीन एवं साटिन। साटीन में दुहरा बाना होता है तो साटिन में दुहरा ताना होता है। ब्रोकेड साड़ियों में समतल एवं खुले तंतु, दोनों प्रकार की बुनाई तकनीक का प्रयोग किया जाता है। खुली बुनाई की साड़ियाँ भारी होती हैं क्योंकि उनमें बूटियों के मध्य स्थित सभी खुले जरीतंतु ज्यों के त्यों रहते हैं। वहीं समतल बुनाई में इन ज़री तंतुओं का अधिकाँश भाग (बूटियों के मध्य स्थित खुले जरी तंतु) काट कर साड़ी से पृथक किया जाता है। मुझे बताया गया कि वर्तमान काल में समतल बुनाई की साड़ियाँ अधिक लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि ये भार में हल्की होती हैं।
इन बुनाई तकनीकों के विविध संयोजनों द्वारा कुछ अन्य प्रकार के ब्रोकेड भी बुने जाते हैं। जैसे, साटन व दो-दामा, साटीन व साटिन, समतल व खुली इत्यादि।
शिफॉन
शिफॉन एक प्रकार की बुनाई तकनीक है जिसमें इकहरे, अत्यंत ही घुमावदार धागे का प्रयोग किया जाता है। बाने में दाहिनी ओर घूमा हुआ तथा ताने में बाईं ओर घूमा हुआ धागा चढ़ाया जाता है। इस तकनीक के कारण वस्त्र को हल्का सलवटी रूप प्राप्त होता है। शिफॉन बुनाई शुद्ध रेशमी के साथ साथ अन्य धागों में भी किया जाता है।
जारजट साड़ी
इस प्रकार की साड़ियों में भी अत्यधिक घुमावदार धागों (40+ TPI) का प्रयोग किया जाता है। इसमें २ रेशमी तथा २ विस्कोस धागों का प्रयोग किया जाता है।
कढुआ अथवा समतल बुनाई
बनारसी साड़ियों की चर्चा होते ही कढुआ शब्द भी कानों में पड़ता है। यह बूटी की बुनाई का एक तकनीक है। इसमें बुनकर अपने हाथों से प्रत्येक बूटी को बुनता है। अतः इन बूटियों की दोनों ओर की परिष्कृति अत्यंत सुरेख होती है। कढुआ तकनीक द्वारा हाथों से छोटी छोटी तथा सूक्ष्म नक्काशी की बूटियाँ बनाने के लिए हाथों में उच्च स्तर का कौशल आवश्यक है। अतः इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं है कि इन साड़ियों का मूल्य भी अधिक होता है। इसे जामदानी बुनाई भी कहा जाता है।
कढुआ शब्द काढ़ना अथवा कढ़ाई से आया है। यह तकनीक साड़ियों पर हाथों से कढ़ाई करने के समान है। इसमें साड़ियों की प्रत्येक बूटी हाथों से ही बनाई जाती है। अतः ऐसी साड़ियाँ केवल हथकरघे पर ही बुनी जाती हैं।
जब यही तकनीक कतान साड़ियों पर अपनाई जाए तो उसे कतान कढुआ बूटी साड़ी कहते हैं।
लाभ – इस तकनीक में सन्निहित सूक्ष्मता एवं जटिलता के कारण कढुआ बनारसी साड़ियों में बूटियाँ अधिक निकट नहीं होती हैं।
फेकुआ बुनाई अथवा खुली बुनाई एवं कटवर्क
फेकुआ का अर्थ है, फेंकना। इस तकनीक में बूटी की आकृति बनाने के लिए धागे के शटल (घिर्री अथवा ढरकी) को एक ओर से दूसरी ओर फेंका जाता है। यद्यपि यह तकनीक अपेक्षाकृत आसान है, तथापि इस तकनीक में साड़ी के पृष्ठभाग में धागे की बड़ी मात्रा अनुपयुक्त व खुली रहती हैं। बूटी बनाने के पश्चात इन तैरते धागों को काटकर साड़ियों को अंतिम रूप दिया जाता है। कभी कभी इन खुले अथवा तैरते धागों को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इस स्थिति में उपभोक्ता को इन बूटियों एवं किनारियों के पृष्ठभाग में जाली का वस्त्र लगाना पड़ता है ताकि ये खुले धागे आभूषण इत्यादि में ना फंस जाएँ।
जाल जैसे बंद आकृतियों को फेकुआ तकनीक से ही बनाया जाता है। विद्युत् चालित करघा बुनाई के लिए इसी तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
मीना बूटी
बुनाई के इस तकनीक में आभूषणों की मीनाकारी को वस्त्रों पर उतारा जाता है। इस तकनीक में बूटी के किसी एक भाग को विपरीत रंग का प्रयोग कर उभारा जाता है, जैसे मछली की आँख। संयोग से मीना अथवा मीन का संस्कृत में अर्थ मछली ही होता है। आप जब भी सुनहरी बूटी पर किसी रंग की बूँद बुनी हुई देखेंगे तो वह मीना बूटी ही है।
आपको स्मरण होगा कि वाराणसी गुलाबी मीनाकारी के लिए भी लोकप्रिय है।
इस तकनीक में बूटी के ऊपर एक अतिरिक्त बाने का प्रयोग किया जाता है जिसमें रंगीन धागा लपेटा हुआ होता है। विभिन्न रंगों की संख्या पर मीना बूटी का भिन्न भिन्न नामांकन किया गया है।
अल्फी – जब बूटी पर एक ही रंग के मीना का प्रयोग किया जाए।
तिल्फी – जब बूटी पर दो रंगों के मीना का प्रयोग किया जाए।
दो से अधिक रंगों के प्रयोगों के अन्य नाम हैं किन्तु वे अधिक प्रचलित नहीं हैं।
जब कतान पर मीना बुनाई की जाए तो उसे कतान मीना बूटी साड़ी कहते हैं।
सोना रूपा साड़ी
साड़ियों की सुनहरी ज़री को सोना तथा चाँदी की ज़री को रूपा कहते हैं। जब साड़ियों में सोने तथा चाँदी, दोनों की ज़री हो तो उसे सोना रूपा साड़ी कहते हैं। उसे गंगा जमुना साड़ी भी कहते हैं।
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बनारसी साड़ी – आकृतियों की रचना में भिन्नता
बुनकरों के प्रत्येक क्षेत्र की एक विशेष बुनाई तकनीक व विशेष रचना होती है। वाराणसी की पीली कोठी क्षेत्र के बुनकरों को मैंने अपनी बुनाई तकनीक में अनेक प्रयोग करते देखा। मैंने एक अति विशिष्ठ प्रोत्साहन से पुरस्कृत भव्य नीली रंग की साड़ी देखी जिसमें जामदानी तकनीक का प्रयोग करते हुए कश्मीरी कढ़ाई को बुनाई में सन्निहित किया गया था। वह साड़ी एक ही अभिव्यक्ति में काशी की बुनाई में कश्मीर की रचनाओं का समावेश कर रही थी।
कैरी अथवा पैस्ली बनारस की सर्वाधिक लोकप्रिय बूटी है। इसका अर्थ है कच्चा आम। उसे बनारसी साड़ी का संकेत भी कहा जा सकता है। कैरी नाम भारत के सभी भाषाओं में देखा जा सकता है। क्यों ना हो? आम सम्पूर्ण भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय फल जो है। अतः स्वाभाविक ही है कि इस आकृति का साड़ियों में समावेश अवश्य किया जाएगा।
बनारस के बुनकर बूटी के इस आकार को कैरी ही कहते हैं। बनारसी साड़ियों में आप इस कैरी आकृति को अनेक आकारों एवं रंगों में देख सकते हैं। संयोग से स्कॉटलैंड के एक छोटे से नगर का नाम भी पैस्ली है, जो बुनकरों का गढ़ था। वहां आम की इसी आकृति को शाल पर बुना जाता था।
बनारसी बुनकरों द्वारा रची विभिन्न लोकप्रिय आकृतियाँ
बूटी – ये छोटी पुष्पाकृतियाँ सम्पूर्ण साड़ी पर बिखरी होती हैं। एक साड़ी पर सौ से भी अधिक बूटियाँ हो सकती हैं। इन पुष्पों की आकृतियों के अतिरिक्त कमल एवं कलश की आकृतियाँ भी लोकप्रिय हैं। अत्यंत निकटता से व्यवस्थित बंद बिन्दुओं की आकृति को फर्दिबूटी कहते हैं। अत्यंत लघु बूटी को मसूरबूटी कहते हैं क्योंकि वह मसूर दाल के समान दिखती है। छोटी बूटियों को मक्खी बूटी भी कहते हैं क्योंकि वह मक्खी के आकार की होती हैं।
बूटा – यह बूटी का बड़ा संस्करण होता है। इसे सामान्यतः किनारियों एवं पल्लू पर बुना जाता है।
जाल – भव्य एवं भारी बनारसी साड़ियाँ पूर्ण रूप से जाल रूपी जरी आकृतियों से भरी होती हैं। इन जाल आकृतियों को सीधी अथवा तिरछी रेखाओं में रचा जाता है। कभी कभी लहरिया आकृति भी दृष्टिगोचर हो जाती है। तिरछी रेखाओं के जाल को आड़ा जाल कहते हैं तथा सीधी रेखाओं के जाल को सीधा जाल कहते हैं। कैरी की आकृतियों के जाल को कैरी जाल अथवा बूटी जाल कहा जाता है। वहीं सघन भरी हुई भारी जाल को विश्वकर्मा जाल कहते हैं। हम सब जानते हैं कि भगवान विश्वकर्मा शिल्पकारों व बुनकरों जैसे कुशल कारीगरों के देव माने जाते हैं।
बेल – यहाँ बेल का अर्थ आलंबन लेते हुए ऊपर चढ़ने वाली लता ही है। जब बनारसी साड़ी पर पुष्पों से लदी बेल अथवा लता को तिरछी रेखा में बुना जाता है तो उसे आड़ी बेल कहा जाता है। यदि खड़ी लता हो उसे खड़ी बेल कहते हैं। उसी प्रकार, आड़ी बेल हो तो उस आकृति को हरव्वा बेल कहते हैं।
कोनिया – साड़ी के कोनों पर कैरी अथवा पैस्ली आकृति हो तो वह कोनिया कहलाती है। कोनिया का शाब्दिक अर्थ कोना होता है। कभी कभी कैरी आकृति के साथ पत्तों की आकृतियाँ भी बुनी जाती है जो रचना को विशेष बना देती हैं।
चाश्पाहनी – साड़ियों की किनारी को उभरने के लिए किनारियों के आरम्भ में अतिरिक्त धागे का प्रयोग किया जाता है। वह धागा सुनहरी जरी का हो सकता है अथवा किसी अन्य रंग का धागा भी हो सकता है।
कढियाल साड़ी – दक्षिण भारत की अधिकतर साड़ियों में विपरीत रंग की किनारी होती है। इसके विपरीत बनारसी साड़ियों में सामान्यतः एक ही रंग का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बनारसी साड़ियों में विपरीत रंग का प्रयोग ही नहीं होता है। बनारसी साड़ियों में भी यदा-कदा विपरीत रंग की किनारी बुनी जाती है। ऐसे साड़ियों को कढियाल साड़ी कहते हैं। चलन के अनुसार ऐसी साड़ियाँ बनारस के बुनकर उद्योग में आती-जाती रहती हैं।
स्कर्ट साड़ी – स्कर्ट साड़ी उसे कहते हैं जिसमें एक ओर संकरी किनारी होती है तथा दूसरी ओर अत्यंत चौड़ी किनारी होती है।
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साढे-सात गज की साड़ियाँ
बुनकर मास्टर मकबूल हसन जी ने बताया कि प्राचीनकाल में मूलतः साढ़े सात गज की लम्बाई की साड़ियाँ ही बुनी जाती थीं जो लगभग सात मीटर लम्बी होती थीं। समय के साथ इसकी लम्बाई कम होती चली गई। अब साढ़े पांच गज अथवा लगभग पांच मीटर लम्बी साड़ियाँ सामान्य हो गयी हैं। इनकी जानकारी से मुझे महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु की नववारी साड़ियों का स्मरण हो आया। महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु में अब भी नववारी साड़ियाँ प्रचलित हैं। विशेषतः नववधुएँ अब भी अपने विवाह समारोह में इन्हें धारण करती हैं।
अतः, उत्तर भारत में भी मूलतः लम्बी साड़ियाँ धारण करने का प्रचलन था जिसे भीतरी लहंगे के बिना धारण किया जाता है। उत्तर भारत में यह परंपरा अब लुप्त हो चुकी है। आशा है कि आधुनिक फैशन डिज़ाइनर, विशेषतः साड़ी बुनकर ऐसी साड़ियों की परंपरा को पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।
बनारसी रेशम में नवोन्मेष
अनवरत नवोन्मेष व नवीनीकरण किसी भी उद्योग की जीवनरेखा होती है। यद्यपि बनारसी बुनाई का सार परम्परिक साड़ियों के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है, तथापि बनारस के बुनकर सतत इस प्रयास में रहते हैं कि वे सदा नवीन बुनाई तकनीकों एवं उत्पादों के लिए नित-नवीन प्रयोग करते रहें। उन नित-नवीन प्रयोगों में से कुछ इस प्रकार हैं:
- दुपट्टे एवं रुमालों की बुनाई
- एक-तारी बुनाई – इस तकनीक में इतनी सूक्ष्म व महीन बुनाई होती है कि आप मूल वस्त्र को देख नहीं पाते जिस पर आकृतियाँ बुनी जाती हैं।
- ऊन एवं रेशम के सम्मिश्रण से बुनी गयी शाल
- शाल पर जैकार्ड बुनाई
- वैश्विक बाजारों के लिए ब्रोकेड, विशेषतः, पाश्चात्य देशों के अनुष्ठानिक अथवा उत्सव वेशभूषा
- रेशम, विशेषतः ब्रोकेड में बनी सहायक साज-सज्जा की वस्तुएं, जैसे बस्ते, पर्स आदि।
यद्यपि इस संस्करण में मुख्यतः शुद्ध रेशमी साड़ियों पर ही लक्ष्य केन्द्रित रखने की चेष्टा की गयी है, तथापि बनारस के बुनकर धागों या तंतुओं के अन्य प्रकारों द्वारा भी बुनाई करते हैं, जैसे सूती, सूती मिश्रित रेशमी, उनी इत्यादि। उनका विश्व भी इतना विशाल है कि उन पर चर्चा करने के लिए एक पृथक संस्करण की आवश्यकता होगी। उन पर किसी अन्य अवसर पर चर्चा करेंगे।
यदि आप बनारसी साड़ियों के विषय में अधिक जानकारी चाहते हैं अथवा आपके मस्तिष्क में कुछ प्रश्न उमड़ रहे हों तो टिप्पणी खंड द्वारा हमें अवश्य सूचित करें।हम अपने आगामी संस्करणों में उन पर अवश्य चर्चा करेंगे।
यह संस्करण Silk Mark Organization of India के सहयोग से लिखा गया है।