अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर एवं कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान

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होरनाडु, प्रकृति की गोद में स्थित एक मनमोहक व अत्यंत दर्शनीय गाँव है। यह कर्णाटक के चिकमगलुरु जिले के अंतर्गत, मुदिगेरे तालुका के अप्रतिम परिदृश्यों से युक्त पश्चिमी घाट में स्थित है। यह स्थान अपने चित्ताकर्षक निसर्ग व अनेकों आकर्षक मंदिरों के लिए जाना जाता है जिनमें अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर प्रमुख है।

होरनाडु का अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर

होरनाडू का श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर
होरनाडू का श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर

होरनाडु स्थित अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर को आद्यशक्तिनाथमका श्री अन्नपूर्णेश्वरी अम्मनवरा मंदिर भी कहते हैं। भद्रा नदी के तट पर स्थित यह मंदिर चहुँ ओर से हरियाली भरे वनों, कॉफ़ी व चाय के बागीचों एवं पश्चिमी घाटों से घिरा हुआ है। लगभग ४०० वर्षों पूर्व धर्मकार्थरु पुरोहितों के परिवारजनों ने यहाँ पूजा-अर्चना एवं अन्य अनुष्ठानों का आयोजन आरम्भ किया था। उस काल से धर्मकार्थरु परिवार के सदस्यगण ही मंदिर की सेवाकार्य में रत हैं।

अन्नपूर्णेश्वरी की कथा

किवदंतियों के अनुसार, एक समय भगवान शिव एवं देवी पार्वती चौपड़ खेल रहे थे। क्रीड़ा के समय उन दोनों  के मध्य किसी विषय पर विवाद उत्पन्न हो गया। उस विवाद के मध्य शिव ने कहा कि इस संसार में सब माया है। यहाँ तक कि भोजन भी एक माया है। पार्वतीजी शिव के विचारों से असहमत थीं। अपना मत सिद्ध करने के लिए वे अदृश्य हो गयीं। इसके फलस्वरूप, चारों ओर अकाल पड़ गया। असुरों समेत सभी को भोजन के लाले पड़ गए। सभी भोजन प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करने लगे।

श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर
श्री अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर

जब भगवान शिव ने सबकी व्यथा देखी, उन्हें अपनी भूल का आभास हुआ। उन्होंने स्वीकार किया कि भोजन माया नहीं है, अपितु वह सभी जीवों की मूलभूत आवश्यकता है। तत्पश्चात देवी पार्वती काशी में अवतरित हुईं तथा उन्होंने सभी को भोजन वितरित किया। ऐसी मान्यता है कि स्वयं भगवान शिव भी एक याचक का रूप धर कर देवी पार्वती के सम्मुख प्रकट हुए तथा देवी ने उन्हें अपनी कडछी से भोजन परोसा। इसीलिए देवी पार्वती को देवी अन्नपूर्णेश्वरी भी कहा जाता है जिसका अर्थ है भोजन प्रदान करने वाली देवी।

उसी दिन से देवी अन्नपूर्णा काशी की अधिष्ठात्री देवी हैं। देवी पार्वती के अन्नपूर्णा स्वरूप में उनके एक हाथ में पात्र एवं दूसरे हाथ में कडछी होती है। आदि शंकराचार्य ने उनकी स्तुति में एक अप्रतिम अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की है जिसका उच्चारण भोजन ग्रहण करने से पूर्व किया जाना चाहिए।

एक अन्य दंतकथा के अनुसार, किसी काल में भगवान शिव ने ब्रह्मा का शीर्ष विच्छेदन किया था। उसका शीश भगवान शिव के हाथ में चिपक गया। उन्हें श्राप मिला कि जब तक वह मुंड भोजन अथवा धान्य से भर नहीं जाता, वह शिव के हाथ से ऐसे ही चिपका रहेगा। भगवान शिव ने उसे धान्य से भरने का अथक प्रयास किया किन्तु वह मुंडपात्र रिक्त ही रहता था। शिव उस मुंड को भरने के लिए अनेक स्थानों पर गए एवं भोजन की मांग की किन्तु मुंड भरा नहीं। अंततः वे इस मंदिर में आये जहां माँ अन्नपूर्णेश्वरी ने वह मुंड धान्य से भर दिया। उन्होंने भगवान शिव को श्राप से भी मुक्त किया।

इतिहास

ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सदियों पूर्व महर्षी अगस्त्य ने किया था। वर्तमान में जो मंदिर हम देखते हैं, उसकी पुनःस्थापना पांचवें धर्मकार्थरु ने वस्तु शिल्प एवं ज्तोतिश शास्त्र के अनुसार सन्१९७३ में की थी। अक्षय तृतीया की पवन तिथि में इसकी पुनर्स्थापना हुई थी। श्रृंगेरी शारदापीठम के श्री जगद्गुरु शंकराचार्य ने यहाँ महाकुम्भाभिषेक संपन्न किया था।

स्थापत्य

मंदिर का गोपुरम अत्यंत भव्य एवं समृद्धता से सज्जित है जिस पर विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम मंदिर के भीतर पहुंचते हैं। मंदिर की तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू हैं जिन्हें हम सामान्यतः मलनाड क्षेत्र में देखते हैं। प्रसादम का मंडपम मंदिर के प्रवेश द्वार के बाईं ओर है। इसके समीप, मंदिर के भीतर जाने वाले भक्तजनों की भीड़ को पंक्ति में संयमित करने के लिए बाड़ लगाई हुई है।

मंदिर की आन्तरिक छत को विभिन्न प्रकार के उत्कीर्णन द्वारा सुन्दरता से अलंकृत किया गया है। सिंहों की दो विशाल प्रतिमाएं प्रवेश द्वार की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। गर्भगृह के तीन ओर स्तम्भ युक्त गलियारे हैं। गर्भगृह के भीतर देवी अन्नपूर्णेश्वरी की चतुर्भुज प्रतिमा एक पीठिका पर आसीन है। यह प्रतिमा स्वर्ण में निर्मित है तथा इसे आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रों द्वारा अलंकृत किया है। देवी ने अपने ऊपरी दो हाथों में शंख व चक्र धारण किया है, वहीं उनके निचले दो हाथ वर मुद्रा एवं अभय मुद्रा में हैं। निचले हाथों पर श्री चक्र एवं देवी गायत्री के चिन्ह हैं। विग्रह के दोनों ओर दीप प्रज्वलित किये जाते हैं। प्रदक्षिणा के पश्चात, गर्भगृह के दाहिनी ओर निकास द्वार है। निकास के समय भक्तगण खिड़की से प्रसादम प्राप्त कर सकते हैं।

अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर के पूजा एवं उत्सव

 मंदिर प्रातः ६:३० बजे से रात्रि ९ बजे तक खुला रहता है।

महामंगल आरती प्रातः ९ बजे, सायं ६ बजे तथा रात्रि ९ बजे की जाती है।

नन्हे शिशुओं के नामकरण उत्सव एवं उनके अक्षराभाष्यं अनुष्ठान भी इस मंदिर में आयोजित किये जाते हैं। मंदिर में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों की सुविधाएं उपलब्ध हैं। टिकट खिड़की के समीप इन अनुष्ठानों एवं इन सेवाओं के शुल्क की सूची है जिससे आप अपने नियोजन के अनुसार सेवाओं का चुनाव कर सकते हैं।

अक्षय तृतीया एक महत्वपूर्ण उत्सव है जिसे देवी अन्नपूर्णेश्वरी का जन्मदिवस माना जाता है। फरवरी-मार्च मास में चार से पाँच दिवसों के लिए रथोत्सव मनाया जाता है। नौ दिवसों का नवरात्रि भी एक महत्वपूर्ण उत्सव है।

यात्रा सुझाव:

  • यह मंदिर बंगलुरु से लगभग ३०० किलोमीटर एवं मंगलुरु से लगभग १३० किलोमीटर दूर स्थित है।
  • परिधान संबंधी नियमों का कड़ाई और आदर से पालन किया जाता है। मंदिर परिसर के भीतर आप अंगों को ढँक लें, ऐसी अपेक्षा की जाती है।
  • मंदिर संस्थान द्वारा भक्तगणों को दिवस भर में तीन भोजन उपलब्ध कराया जाता है। इसके अतिरिक्त, अनेक जलपानगृह भी हैं जहां शाकाहारी भोजन उपलब्ध हैं।
  • होरनाडु एवं उसके आसपास अनेक होमस्टे हैं। मंदिर में भी ठहरने की व्यवस्था है।

होरनाडु एवं आसपास के अन्य पर्यटन आकर्षण

श्री आंजनेय स्वामी मंदिर

अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर के वाहन स्थल के समीप श्री हनुमान जी को समर्पित यह मंदिर स्थित है।

क्यातनमक्की पहाड़ी से परिदृश्य

यह स्थान होरनाडु से लगभग ८-१० किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ से पश्चिमी घाट का ३६० डिग्री दृश्य प्राप्त होता है। प्रकृति प्रेमियों एवं छायाचित्रकारों के लिए यह एक सर्वोत्तम स्थान है। पहाड़ी के ऊपर चारों ओर घनी दूब है जिसके मध्य से अनेक स्थानों पर पौधे झाँकते दृष्टिगोचर होते हैं।

क्यातनमक्की पहाड़ी से परिदृश्य
क्यातनमक्की पहाड़ी से परिदृश्य

घाटी में एक छोटा जलप्रपात है जिसे आप इस पहाड़ी के शीर्ष से देख सकते हैं। यहाँ तक पहुँचने के लिए होरनाडु से जीपों की सुविधाएं उपलब्ध हो जाती हैं। किन्तु वहां तक पहुँचने का मार्ग अत्यंत जर्जर एवं जोखिम भरा है। अतः मेरा सुझाव है कि आप होरनाडु से जीपों की सुविधाएं अवश्य लें। शक्तिशाली दुपहिये वाहनों द्वारा भी चालक पहाड़ी के शीर्ष तक रोमांचक यात्रा करते हैं किन्तु इसके लिए अति दक्षता एवं सुरक्षा आवश्यक है। यहाँ आने का सर्वोत्तम समय वर्षा ऋतु से दिसंबर मास तक माना जाता है क्योंकि उस समय यह पहाड़ी घनी हरियाली से आच्छादित रहती है।

कलसा का कलशेश्वर मंदिर

कलसा का कल्सेश्वर मंदिर
कलसा का कल्सेश्वर मंदिर

कलशेश्वर मंदिर अथवा श्री कलसेश्वरा स्वामी मंदिर चिकमंगलुरु जिले के कलसा नगर में स्थित है। यह होरनाडु से लगभग ८ किलोमीटर दूर स्थित एक शिव मंदिर है। भद्रा नदी के तट के समीप स्थित इस मंदिर का निर्माण महर्षी अगस्त्य द्वारा किया गया है, ऐसी मान्यता है। ऐसी भी मान्यता है कि मंदिर के भीतर स्थित शिवलिंग एक स्वयंभू लिंग है।

कलशेश्वर की लोककथा

एक लोककथा के अनुसार हिमालय में शिव एवं पार्वती के विवाह के समय धरती का संतुलन बाधित हो गया था। विवाह समारोह में उपस्थित देवी-देवताओं के भार के कारण उत्तरी टेक्टोनिक प्लेट तिरछा हो गया था। तब भगवान शिव ने महर्षी अगस्त्य को आज्ञा दी कि वे दक्षिण की ओर यात्रा करें ताकि धरती का संतुलन पुनः स्थापित हो सके। शिव की आज्ञा का पालन करते हुए महर्षी अगस्त्य ने दक्षिण की ओर यात्रा आरम्भ की। जब वे कलसा पहुंचे, धरती का संतुलन पुनः स्थापित हो गया। तब भगवान शिव ने उन्हें वहीं रुक जाने की आज्ञा दी। साथ ही उन्हें वरदान भी दिया कि वे उन के पवित्र विवाह समारोह का प्रत्यक्ष दर्शन वहां से भी कर सकेंगे। महर्षी अगस्त्य की भगवान शिव में इतनी भक्ति व आस्था थी कि उनके जल कलश से एक शिवलिंग प्रकट हुआ जो यहाँ स्थापित है। इसी कारण इस मंदिर का नाम कलशेश्वर मंदिर पड़ा।

स्थापत्य

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम इस मंदिर तक पहुंचते हैं। बायीं ओर एक मंडप है जहां उत्सवों के समय विभिन्न आयोजन किये जाते हैं। प्रवेशद्वार के समीप गणेशजी की दो मूर्तियाँ हैं। उन्हें आन गणपति कहा जाता है। उनमें से एक पुरुष रूप तथा दूसरा स्त्री रूप माना जाता है। कुछ और सीढ़ियाँ चढ़ने के पश्चात आप एक प्रांगण में पहुंचेंगे जहां गंगा की आराधना करते भागीरथ की प्रतिमा स्थापित है। सम्पूर्ण संरचना दो तलों की है जिसकी तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू रखे हैं। तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू इस क्षेत्र की इमारतों में सामान्य है।

दाईं ओर एक द्वार है जिसके भीतर से आप एक मुक्तांगण में पहुंचेंगे। यहाँ मुख्य मंदिर स्थित है। मुख्य मंदिर एक एककूट मंदिर है। मुख्य गर्भगृह एक अन्य लघु प्रांगण में स्थित है। चाँदी के मंच पर शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंग पर भी चाँदी का मुखौटा चढ़ा हुआ है। मुक्तांगण में आप प्रदक्षिणा कर सकते हैं। प्रांगण के दो कोनों में विश्वेश्वर मंदिर एवं सुब्रमन्य मंदिर है।

मंदिर के बाहर देवी पार्वती का मंदिर है। देवी पार्वती को सर्वांगसुन्दरी कहा जाता है। देवी की प्रतिमा काले पत्थर में बनी है। पुष्पों, आभूषणों एवं वस्त्रों से देवी का अत्यंत मनमोहक अलंकरण किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों पर अनेक शिल्प उत्कीर्णित हैं। देवी के मंदिर के समीप क्षेत्रपाल को समर्पित एक लघु मंदिर है। समीप ही कुछ कार्यालय एवं अनेक छोटी दुकानें हैं जहां पूजा सामग्री बिक्री की जाती है।

पूजा एवं उत्सव

मंदिर प्रातः ७:३० बजे से दोपहर १ बजे तक, तदनंतर दोपहर ३:३० बजे से रात्रि ८:३० बजे तक खुला रहता है। महत्वपूर्ण उत्सवों के समय यह मंदिर पूर्ण दिवस व पूर्ण रात्रि खुला रहता है। मंदिर में विभिन्न सेवायें अर्पित की जाती हैं जिसका लाभ भक्तगण ले सकते हैं। इस मंदिर में आयोजित कुछ महत्वपूर्ण उत्सव हैं:

  • गिरिजा कल्याण – कार्तिक मास में भगवान शिव व देवी पार्वती के विवाह का समारोह आयोजित किया जाता है।
  • फरवरी-मार्च में शिवरात्रि मनाई जाती है।
  • माघ मास में रथोत्सव आयोजित किया जाता है।
  • नवरात्रि
  • गोकुलाष्टमी
  • लक्ष दीपोत्सव

अन्य आकर्षण

पंच तीर्थ

कलसा को पंच तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। पंच तीर्थ अर्थात् पाँच पवित्र जल स्त्रोतों का स्थल। वे हैं, वसिष्ठ तीर्थ, नागा तीर्थ, कोटि तीर्थ, रूद्र तीर्थ एवं अम्बा तीर्थ।

वेंकटरमण मंदिर

यह भी एक सुन्दर मंदिर है जो श्री विष्णु को समर्पित है। इसकी संरचना भी अन्य मंदिरों के समान है जिसमें तिरछी छत पर लाल रंग के कवेलू हैं। मुख्य मंदिर एक प्रांगण में है तथा इसके चारों ओर गलियारे हैं। यह मंदिर होरनाडु जाने के मार्ग पर स्थित है। इसके अतिरिक्त भी यहाँ अनेक मंदिर एवं जैन बसदियाँ हैं।

अन्य पर्यटन स्थल

समसे

समसे जैन बसदी
समसे जैन बसदी

कलसा से लगभग १० किलोमीटर दूर स्थित यह एक छोटा गाँव है। यह कुद्रेमुख पर्वत शिखर के पर्वतारोहणपथ का प्रमुख केंद्र है। ठहरने के लिए यहाँ अनेक होमस्टे हैं। यह स्थल अत्यंत दर्शनीय है जहां आप पैदल सैर करते हुए प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले सकते हैं। गूमंखन चाय के बागीचे में कुछ जैन बसदियाँ एवं एक सुन्दर गणपति मंदिर है।

कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान

कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान एक यूनेस्को विश्व विरासत स्थल है। यह प्राकृतिक सौंदर्य, जीवों व वनस्पतियों से भरे ऊंचे पर्वत शिखर, हरी-भरी दूब से आच्छादित मनमोहक रोहणपथ इत्यादि से अलंकृत है। कुद्रेमुख का शब्दशः अर्थ है अश्व का मुख। इस राष्ट्रीय उद्यान के सर्वोच्च पर्वत शिखर को एक दिशा ने निहारने पर यह अश्व मुख सदृश प्रतीत होता है। इस शिखर की ऊंचाई १८९४ मीटर है जो कर्नाटक का दूसरा सर्वोच्च शिखर है।

कुद्रेमुख राष्रीय उद्यान
कुद्रेमुख राष्रीय उद्यान

श्रृंगेरी, करकला एवं मंगलुरु जाने का मार्ग इसी राष्ट्रीय उद्यान के मध्य से जाता है। यह मार्ग अत्यंत दर्शनीय है। मार्ग में आप अनेक झरने एवं हरियाली भरे मैदानी क्षेत्र देखेंगे। आप कुद्रेमुख की भूतिया नगरी भी देख सकते हैं। यदि आप पर्वतारोहण में रूचि रखते हैं तो राष्ट्रीय उद्यान में पर्वतारोहण करने के लिए आपको कुद्रेमुख के राष्ट्रीय उद्यान वन-विभाग से अनुमति-पत्र प्राप्त करना होगा।

करकला

करकला उडुपी जिले का एक तालुका मुख्यालय है। यह पश्चिमी घाट की तलहटी पर स्थित है। होरनाडु से लगभग ८० किलोमीटर दूर स्थित करकला बाहुबली अर्थात् गोमतेश्वर की विशाल अखंड प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है जो श्रवणबेलगोला में स्थित उनकी प्रतिमा के पश्चात दूसरी विशालतम प्रतिमा है। सन् १४३२ में स्थापित इस प्रतिमा की उंचाई ४२ फीट है। प्रत्येक १२ वर्षों के पश्चात इस प्रतिमा का महाकुम्भाभिषेक किया जाता है। पिछला अभिषेक सन् २०१५ में किया गया था। यह प्रतिमा एक पहाड़ी पर स्थित है। वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें लगभग ५०० शैल सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं।

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इनके अतिरिक्त, अनेक जैन बसदियाँ हैं जिनके आप दर्शन कर सकते हैं। उनमें प्रमुख हैं, चतुर्मुख बसदी एवं आदिनाथ बसदी। चतुर्मुख बसदी भी एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। शीर्ष तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। एक विशाल प्रांगण के मध्य स्थित इस बसदी में ग्रेनाईट के १०८ स्तम्भ हैं। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए चार दिशाओं में चार प्रवेशद्वार हैं। इसके गर्भगृह में तीन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं हैं।

आदिनाथ बसदी अनेकेरे सरोवर के मध्य स्थित है। इस बसदी को मुख्य मार्ग से जोड़ने के लिए एक जोड़ मार्ग है। बसदी के समीप एक छोटा बगीचा भी है। अनेकेरे सरोवर का निर्माण राजा पंड्यादेवा ने सन् १२६२ में करवाया था। नगर को जल की आपूर्ति कराना इस सरोवर का उद्देश्य था। इनके अतिरिक्त अन्य प्रमुख स्थल हैं, अत्तुर गिरिजाघर, रामसमुद्र सरोवर, वेंकटरमण मंदिर, अनंतशयन मंदिर तथा वेंनुर।

वरंगा जैन बसदी

करकला के निकट स्थित यह छोटा सा गाँव जैन बसदियों के लिए प्रसिद्ध है। प्रमुख बसदियाँ हैं, केरे बसदी एवं नेमिनाथ बसदी। केरे बसदी एक सरोवर के मध्य स्थित है। यह तीन ओर धान के हरे-भरे खेतों एवं नारियल के वृक्षों से घिरा हुआ है, वहीं इसकी चौथी ओर एक पहाड़ी है। इसे पार्श्वनाथ बसदी भी कहा जाता है क्योंकि यह पार्श्वनाथ को समर्पित है। इस बसदी की चार स्तरीय सममित संरचना है। यह बसदी ८५० वर्ष प्राचीन है। बसदी के भीतर देवी पद्मावती की प्रतिमा भी स्थापित है। सरोवर के मध्य स्थित केरे बसदी तक नौका द्वारा पहुंचा जा सकता है। बसदी प्रशासन नाममात्र शुल्क पर नौका सेवायें उपलब्ध करता है।

वारंगा जैन बसदी
वारंगा जैन बसदी

नेमिनाथ की बसदी १२०० वर्ष प्राचीन बसदी है। इसे हीरे बसदी भी कहा जाता है। इसके दो प्रवेशद्वार हैं। ग्रेनाईट में निर्मित मुख्य मंदिर एक प्रांगण के मध्य स्थित है। प्रवेशद्वार के समीप एक विशाल दीपस्तंभ है। इस बसदी में अनेक धार्मिक अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं।

मूदबिदरी

करकला से १८ किलोमीटर दूर स्थित मूदबिदरी को जैन काशी भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में जैन बसदियाँ हैं। उनमें से प्रमुख हैं, सहस्त्र स्तम्भ मंदिर, गुरु बसदी तथा अम्मनवरा बसदी।

श्रृंगेरी

करकला से ६० किलोमीटर दूर स्थित श्रृंगेरी श्री आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा पीठ के लिए प्रसिद्ध है।

धर्मस्थल

करकला से लगभग ६० किलोमीटर दूर स्थित धर्मस्थल एक प्राचीन शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ भगवान शिव “श्री मंजुनाथ” के रूप में विराजमान हैं। नवम्बर-दिसंबर मास में आयोजित लक्षदीप इस मंदिर का एक महत्वपूर्ण उत्सव है।

यात्रियों के लिए महत्वपूर्ण सूचनाएं:

  • सभी धार्मिक स्थलों पर परिधान सम्बन्धी नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता है। अतः उनका पालन करें।
  • कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान के भीतर कुछ निर्दिष्ट स्थानों के अतिरिक्त कहीं भी वाहन खड़ी करने की अनुमति नहीं है। उद्यान के भीतर कूड़ा डालना दंडनीय कृत्य है।

यह संस्करण अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है।


श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के सम्पन्न विरासतों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से अत्यंत लगाव है। उन्हे पाककला में भी विशेष रुचि है। उनकी तीव्र इच्छा है कि वे विरासत के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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