हम प्रातः मुँहअँधेरे ही उठ गए थे। अथवा यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि चितवन राष्ट्रीय उद्यान में गूँजते कोलाहल ने हमें प्रातः शीघ्र जागने के लिए बाध्य कर दिया था। हमें चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पदभ्रमण या पैदल सफारी करने के लिए जाना था। हम जिस ‘बरही वन अतिथिगृह’ (जंगल लॉज) में ठहरे थे, उसके एक ओर से राप्ती नदी बहती है। उस राप्ती नदी के दूसरी ओर चितवन राष्ट्रीय उद्यान स्थित है। राप्ती नदी पार करने के लिए हम एक नौका में बैठ गए। नदी पर कोहरे की एक मोटी चादर बिछी थी जो शनैः शनैः ऊपर उठ रही थी। इस कोहरे से भरे वातावरण में चारों ओर का परिदृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अपनी परतों में अनेक रहस्य छुपाये हुए है। हमारी नौका धीरे धीरे दूसरे तट की ओर बढ़ रही थी। कुछ अन्य पर्यटक नौकाएं भी हमारे साथ हो लिये। अकस्मात सभी नौकाओं के नाविकों ने सावधान होकर नौकाओं की गति धीमी कर दी। हमने देखा कि वे एक गेंडे को नदी पार करने में प्राथमिकता दे रहे थे। नदी पार कर वह गेंडा वन में प्रवेश कर गया।
जिस स्थान से गेंडे ने वन में प्रवेश किया था, हमारे नाविक ने नौका को उस बिन्दु के समीप ही अँकोड़े से बांध दी। गेंडे का स्मरण कर हम नौका से उतरने के लिए भय से हिचकिचाने लगे। किन्तु हमारे सफारी परिदर्शक ने हमें धीर बंधाया, तब जाकर हमने नौका से उतरकर वन में प्रवेश किया।
चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पदभ्रमण
हम जंगल सफारी कर रहे थे किन्तु पदभ्रमण करते हुए। इससे पूर्व हमने जीप तथा नौका में बैठकर वन का सुरक्षित अवलोकन किया था। अब हम वन के भीतर पैदल भ्रमण करने जा रहे थे।
हमें अब भी स्मरण था कि वह गेंडा यहीं से वन के भीतर गया था। यह तथ्य हमें उत्सुकता के साथ भयभीत भी कर रहा था। हमारा परिदर्शक हमें अनवरत स्मरण कर रहा था कि चितवन राष्ट्रीय उद्यान में एक नहीं, अपितु ६०० से अधिक गेंडे हैं। वे हमारे चारों ओर उपस्थित हैं, चाहे हम उन्हे देख पायें अथवा नहीं। उन्होंने हमें आश्वस्त कराया कि गेंडों को मानवों में रुचि नहीं होती। वे तब तक आक्रमण नहीं करते जब तक कि उन्हे हमारी ओर से संकट का आभास ना हो। मैं विचार करने लगी कि गेंडों को यह कैसे ज्ञात होगा कि यहाँ हमें उनसे भय प्रतीत हो रहा है तथा उन्हे हमसे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, जबकि उन्हे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि मैं उसी प्रजाति का भाग हूँ जो उनका अप्राकृतिक व उनकी प्रजाति के उन्मूलन की सीमा तक वध करने के लिए जाना जाता है।
चितवन का प्राकृतिक सौन्दर्य
जैसे ही हमने पदभ्रमण आरंभ किया। हमारा भय शनैः शनैः लुप्त होने लगा। प्रकृति की सुंदरता नयनों में बसने लगी थी। प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद हृदय में भय का स्थान ग्रहण करने लगा था। वन में छाया कोहरा अब विरल होने लगा था। वन में अनेक छोटे-बड़े सरोवर दृष्टिगोचर होने लगे थे जिनके जल पर ऊँचे ऊँचे वृक्षों का प्रतिबिंब पड़ रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोहरे की परत हटाकर सरोवर शनैः शनैः स्वयं को प्रकट करने का प्रयास कर रहा है।
भूमि पर बिखरे सूखे पत्तों पर चलने के कारण सरसराहट हो रही थी। हमारे मस्तिष्क में शंका उठ रही थी, यदि आसपास स्थित गेंडों अथवा उनके अन्य वन्य प्राणी मित्रों ने यह ध्वनि सुनकर कोई अवांछित प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी तो क्या होगा!
चारों ओर अनुपम परिदृश्य था। ऊँचे ऊँचे वृक्ष थे जिनके नीचे सूखी पत्तियों की भूरी चादर बिछी हुई थी। अनेक स्थानों पर ऊँचे वृक्षों की शाखाएं आपस में मिलकर मंडप बना रही थीं, मानो हमारा स्वागत कर रही हों।
वन भ्रमण में हमारा नेतृत्व करने वाला साथी, साकेत लघु वन प्राणियों की ओर हमारा लक्ष्य केंद्रित कर रहा था। मुझे किंचित क्षोभ हुआ कि ये लघु प्राणी बिना किसी संकेत के उसे इतनी सुगमता से कैसे दृष्टिगोचर हो रहे थे! मुझे तो उसके द्वारा संकेतिक दिशा में गहनता से देखने के पश्चात भी प्राणियों को ढूँढने में समय लग रहा था। किन्तु जब हमने वृक्षों की शाखाओं पर बैठे हमारे पंख वाले मित्रों को देखना आरंभ किया तब मैं भी साकेत को चुनौती देने में सक्षम हो गयी थी। हमने अनेक प्रकार के रंगबिरंगे वन्य पक्षियों को देखा।
चितवन राष्ट्रीय उद्यान में हमारे द्वारा देखे वन्य पक्षियों पर मैंने एक विस्तृत संस्करण प्रकाशित किया है। आप इसे अवश्य पढ़ें: चितवन राष्ट्रीय उद्यान के वन्य पक्षी।
वृक्षों की शाखाओं पर विराजमान पक्षी पत्तियों के पीछे छुप कर बैठे थे। हम उन्हे ढूंढ तो पा रहे थे किन्तु उनका स्पष्ट छायाचित्र ले पाना असंभव हो रहा था। मैंने छायाचित्र लेने का प्रयत्न करना ही छोड़ दिया। उसके स्थान पर मैंने पक्षियों के विविध रंगों एवं उनके हाव-भाव का आनंद उठाना आरंभ किया। पक्षियों को चहचहाते तथा एक शाखा से दूसरी शाखा पर उड़ते देखने में मैं रम गयी थी। एक क्षण ऐसा आया जब मुझे चटक लाल रंग का एक पक्षी दृष्टिगोचर हुआ। उसे देख मेरे हाथों ने सहज ही कैमरा उठा लिया। हमने कुछ क्षण लुका-छिपी का खेल खेला। अंततः मैं उसका चित्र लेने में सफल हो पायी तथा अपने दल में पुनः सम्मिलित हो गयी।
चितवन राष्ट्रीय उद्यान में वन्यजीवन के विविध चिन्ह
साकेत ने हमें भूमि पर चींटियों के घर, सांप की बाँबी आदि दिखाई। उन्होंने हमें अनेक वन्य प्राणियों के पदचिन्ह दिखाए। वे ना केवल यह जानते थे कि वो किस प्राणी के पदचिन्ह हैं, अपितु वे यह भी जानते थे कि वो प्राणी किस आयुवर्ग का हो सकता है। अद्भुत!
हमने अनेक प्रकार व आकार की मकड़ियाँ अपने जालों में लटकती देखीं। उनके जाले ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो वे शाखाओं को जोड़ने की चेष्टा कर रही हों। कई कई स्थानों पर वे वृक्षों को जोड़ने का प्रयास करती प्रतीत हुईं।
प्रातः लगभग ८ बजे हम जलपान के लिए रुके। हमारा वन मार्गदर्शक हमें एक खुले स्थान पर ले गया जहाँ एक वृक्ष आड़ा पड़ा हुआ था। उस पर बैठकर हमने साथ लिया हुआ जलपान किया। सम्पूर्ण परिस्थिति हमें गदगद कर रही थी। ऊँचे ऊँचे वृक्षों से परिपूर्ण सघन वन के मध्य एक मुक्ताकाश स्थल, बैठक के रूप में गिरा हुआ विशाल वृक्ष, वन का प्राकृतिक वातावरण तथा प्रातःकालीन शीतल वातावरण में बैठकर जलपान करना, सब कुछ अत्यंत अद्भुत था।
जलपान कर हम जैसे ही उठे, एक मादा गेंडा अपने शावक के साथ हमारे समक्ष उपस्थित हो गयी, केवल लगभग १०० मीटर दूर!
हम सब एक वृक्ष के पीछे छुप गए तथा मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि हम उसकी दृष्टि में ना आयें, ना ही उसके मार्ग में। एक ही धरातल पर, इतने समीप से इस विशाल प्राणी को देखना अत्यंत रोमांचकारी था, भले ही हम छुपकर देख रहे थे। इससे पूर्व मैंने जीप अथवा हाथी की पीठ पर बैठ कर ही गेंडों के दर्शन किये थे।
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कांचीरूवा के दर्शन
चितवन के वन में पदभ्रमण का सर्वाधिक रोमांचकारी वह क्षण था जब हमने अकस्मात ही कांचीरूवा नामक एक गेंडे का कंकाल देखा। एक कान कटा होने के कारण उसे इस नाम से बुलाया जाता था।
कंकाल के विभिन्न भाग यहाँ-वहाँ बिखरे हुए थे। जब हम उसके शीष के निकट गए तब हमें आभास हुआ कि गेंडा वास्तव में कितना विशालकाय प्राणी है। उसकी लंबी लंबी पसलियाँ शाखाओं सी प्रतीत हो रही थीं। उसके दाँत का आकार मानवी चरण का लगभग चौथाई भाग जितना था।
यदि यहाँ जन्तु विज्ञान का कोई विद्यार्थी आ जाता तो इस कंकाल का अध्ययन करते घंटों व्यतीत कर सकता था। चमड़ी व माँसपेशियाँ विहीन होने के पश्चात भी उस कंकाल का विशालकाय आकार मुझे स्तंभित कर रहा था।
वापिस आकार जब मैं उस कंकाल के छायाचित्र देख रही थी तब मुझे वन के अनकहित नियम का साक्षात्कार हुआ। जब तक वह गेंडा जीवित था, उसने कदाचित इस वन में राज किया होगा। मृत्यु के पश्चात वही गेंडा अपने साथी पशुओं का भोजन बना होगा तथा हम जैसे पर्यटकों के लिए प्रदर्शनीय वस्तु। हमें बताया गया कि वन में प्राणियों की मृत्यु होती रहती है किन्तु हमें अन्य कोई कंकाल नहीं दिखा।
ध्यान से देखें
पदभ्रमण करते हुए हम आगे बढ़े। हमने अनेक बहुरंगी तितलियाँ एवं कीट देखे। किन्तु उन्हे देखने के लिए सम्पूर्ण ध्यान की आवश्यकता होती है। गहरे हरे रंग के पत्ते पर बैठे हरे रंग के टिड्डे को देखना, सूखी पत्तियों के बीच छोटे छोटे सुंदर कीटों को देखना, पत्तों के झुरमुट में बैठी तितली को ढूँढना, सब अत्यंत मनोरंजक था। मार्ग में एक सरोवर के पास भ्रमण करते हुए हमने जल के ऊपर लटकती शाखा पर बैठे एक नीलकंठ को देखा।
हमने मोटी बेलें देखी जिन पर बड़े बड़े त्रिकोणाकार कांटे थे। उनका आकार लगभग हमारे हाथों जितना था। कदाचित प्रकृति ने ही उन्हे इन काँटों के द्वारा सक्षम बनाया है कि वे स्वयं का संरक्षण कर सकें।
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यहाँ-वहाँ पड़े मृत वृक्ष के तनों पर भिन्न भिन्न प्रकार के कुकुरमुत्ते उगे हुए थे। क्या वे सभी प्रजातियाँ मानवी उपभोग के लिए सुरक्षित हैं? क्या गेंडे जैसे वन के शाकाहारी प्राणी भी उन्हे खाते होंगे? ऐसे अनेक विचार मस्तिष्क में उभरने लगे। अपने चारों ओर के वनीय प्रदेश के जटिल पारिस्थितिकी तंत्र को जानने व समझने के प्रयास में मस्तिष्क में उभरते प्रश्न श्रंखला में से ये भी कुछ प्रश्न थे।
सेमल के लाल पुष्प
भूमि पर गिरे सेमल के लाल पुष्प बेरंग बालुई भूमि पर रंग भर रहे थे। किन्तु आज का सर्वोत्तम शोध था, छोटे छोटे नारंगी रंग के गोले। उन्हे स्पर्श करते ही हमारे हाथ नारंगी हो रहे थे। गोले हाथों में नारंगी रंग का चूर्ण छोड़ रहे थे। हमें यह स्पष्ट आभास हो रहा था कि ये साधारण गोले नहीं हैं। इसका कुछ ना कुछ महत्वपूर्ण उपयोग अवश्य ही होगा। किन्तु क्या? तभी हमारे वन परिदर्शक ने हमें जानकारी दी कि स्थानीय भाषा में इसे सिंधुरे कहा जाता है। हमारे मस्तिष्क में बिजली कौंधी। इसे नेपाली, हिन्दी एवं संस्कृत भाषा में भी तो यही कहा जाता है!
वन में पर्याप्त पदभ्रमण करने के पश्चात हम अपने बरही जंगल लॉज में पहुँचे। हमने उनके पुस्तकालय में इस नारंगी रंग के फल के विषय में जानकारी ढूँढी। हमें एक रोचक जानकारी प्राप्त हुई कि प्राचीन काल में इस फल से प्राप्त प्राकृतिक रंग से रेशम को रंगा जाता था।
चितवन वन में लगभग ४-५ घंटे पदभ्रमण कर तथा वन के विविध रंगों व गंधों में सराबोर होने के पश्चात हम वापिस राप्ती नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ वृक्ष के एकल तने से निर्मित एक संकरी नौका हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। नौका पर चढ़ने से पूर्व मैंने पीछे मुड़कर इस वन को पुनः निहारा। तत्पश्चात नदी के तट को देखा। मैंने देखा कि नदी के भीतर भी उसका एक स्वयं का वन है। इसके जल के ऊपर तथा भीतर अनेक प्रकार के जलीय पौधे तैर रहे थे मानो एक भिन्न वन बना रहे हों।
मुझे चितवन वन के भीतर किया इस पदभ्रमण का दीर्घ काल तक स्मरण रहेगा। एक ओर शांत व शीतल प्राकृतिक वातावरण था, तो दूसरी ओर अधीरता थी। मन में अनेक प्रकार के भाव उठ रहे थे। कभी विस्मय तो कभी शांति, कभी आनंद तो कभी भय। साथ ही भरपूर्ण शारीरिक व्यायाम।
नेपाल की यात्रा नियोजित करने से पूर्ण मेरे इन यात्रा संस्करणों को अवश्य पढ़ें जो आपको नेपाल, विशेषतः काठमांडू के आसपास के रोचक व अछूते दर्शनीय स्थलों के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करेगा।
अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे
Very Nice written , I was convinced that I was also enjoying the forest. Thanks