अनुराधापुरा – श्रीलंका की प्राचीन राजधानी की एक झलक

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अनुराधापुरा - श्री लंका
अनुराधापुरा – श्री लंका

मुझे मेरे नाम, अनुराधा से विशेष रूचि नहीं थी। इस नाम के कई अन्य लोगों से भेंट के पश्चात तो मुझे यह नाम और भी सामान्य प्रतीत होता था। अपने इस नाम का महत्व तब ज्ञात हुआ जब मुझे श्रीलंका स्थित विश्व के सबसे प्राचीन नगर अनुराधापुरा के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त हुई। अनुराधा नामक मंत्री के नाम पर आधारित इस पवित्र स्थल के नाम ने मुझे भी गौरान्वित होने का अवसर दिया। और तभी से मैंने इस सुन्दर नगर के दर्शन का निश्चय किया।

श्रीलंका में यूनेस्को के वैश्विक विरासती स्थलों के एकल सड़क यात्रा का आरम्भ मैंने, कोलम्बो उतरने के पश्चात, अनुराधापुरा से ही किया था। भोर होते ही ‘हाबरना सिनामन लॉज’ से निकल कर प्रातः ७.३० बजे के आसपास अनुराधापुरी पहंची। एक विशाल तालाब के पीछे स्थित पवित्र अनुराधापुरा की मेरी प्रथम झलक थी तालाब के ऊपर उड़ते अनेक पक्षियों के पीछे प्रकट होते दो विशाल स्तूप। स्वच्छ, श्वेत व उत्तम रखरखावयुक्त पहला स्तूप, व उसके पास स्थित ठेठ, प्राचीन, पकी लाल ईंटों द्वारा निर्मित, किंचित भंगित शीर्ष लिए दूसरा स्तूप! इन दोनों के समक्ष उड़ते निर्मल पक्षियों को देख मैं कुछ क्षण वहीं ठहर गयी। मंत्रमुग्ध होकर यह दृश्य निहारती रही। इस दृश्य ने मेरी अनुराधापुरा दर्शन की इच्छा को और प्रबल कर दिया था।

अनुराधापुरा की प्रथम झलक
अनुराधापुरा की प्रथम झलक

कुछ ही मिनटों में मेरी गाड़ी एक प्राचीन बौद्ध मठ के अवशेषों के बीच पहुंची। जैसे ही मैंने अनुराधापुरी की पवित्र धरती पर पहला कदम रखा, यहाँ प्रार्थना किये हुए लाखों बौद्ध भिक्षुओं की महिमा ने मेरे हृदय को भावविभोर कर दिया। यहाँ से हम ताल के पीछे स्थित उस श्वेत स्तूप के दर्शन हेतु प्राचीन पत्थर की सीड़ियों की ओर बढ़ गए।

रुवन्वेली सेया अथवा रुवन्वेली दगबा

रुवन्वेली दगबा - अनुराधापुरा, श्री लंका
रुवन्वेली दगबा – अनुराधापुरा, श्री लंका

रुवन्वेली दगबा नामक इस श्वेत स्तूप के प्रवेश द्वार पर नागराज की पत्थर में बनी रक्षक प्रतिमा स्थापित थी। मैंने इस तरह की रक्षक प्रतिमा अनुराधापुरा के कई स्थानों पर देखी। स्तूप भ्रमण के समय मैंने देखा कि पर्यटकों के रंगीन वस्त्रों के विपरीत, सभी स्थानीय दर्शनार्थियों ने श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे। मेरे परिदर्शक के अनुसार श्वेत वस्त्र धारण की यहाँ अनिवार्यता नहीं है। यह स्थानीय दर्शनार्थियों का निजी चयन है। संभवतः किसी कारणवश आरम्भ हुई इस परिपाटी का दर्शनार्थी अब भी पालन कर रहे हैं।

“श्रीलंका में स्तूप, दगबा नाम से जाना जाता है”

रुवन्वेली दगबा की गज मुख दीवार - अनुराधापुरा, श्री लंका
रुवन्वेली दगबा की गज मुख दीवार – अनुराधापुरा, श्री लंका

श्वेत बादलों से घिरा श्वेत दगबा ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो साक्षात् बादलों से अवतरित हुआ हो। इसकी बाहरी भित्तियों पर असंख्य गजशीषों की प्रतिमाएं थीं। इस नवीन संरचना के भीतर इसी तरह की प्राचीन भंगित भित्तियाँ अब भी स्तूप के आसपास विद्यमान हैं। मैंने इस स्तूप के चारों ओर कुछ क्षण भ्रमण किया। भक्तिभाव से ओतप्रोत वातावरण में, श्वेत वस्त्र धारण किये एवं धूप व पुष्प हाथों में लिए भक्तगणों को देखने का आनंद सर्वोपरि था। कुछ भक्तगण स्तूप के समक्ष ध्यानमग्न विराजित थे।

महाराज दत्त गामिनी द्वारा २ सदी ई.पू. में निर्मित, थेरवडा या हीनयान बौद्धधर्म के इस पवित्र स्थल के अन्य नाम हैं, महास्तूपा, स्वर्णमाली चैत्य, सुवर्णमाली महासती, रत्नमाली दगबा इत्यादि।

कार्तिकेय, विष्णु एवं अन्य प्रतिमाएं

श्री लंका के बौद्ध मंदिरों में भगवान् विष्णु एवं कार्तिकेय
श्री लंका के बौद्ध मंदिरों में भगवान् विष्णु एवं कार्तिकेय

प्रथम प्रतिमा जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह थी, महाराज की, कृतज्ञता में हाथ जोड़े, स्तूप के दर्शन करती आदमकद प्रतिमा। चार दिशाओं में चार व्रत्तखण्डों के नीचे स्थित प्रकोष्ठों के भीतर बुद्ध के चित्र अंकित थे। समीप स्थित एक छोटे मंदिर के भीतर बुद्ध का रंगीन विशाल चित्र महापरिनिर्वाण रूप में पूजा जा रहा था। एक अनोखी बात जो यहाँ एवं अन्य कई स्थानों में परिलक्षित हुई, वह थी, बुद्ध के चित्र के दोनों ओर स्थित हिन्दू देवता विष्णु एवं कार्तिकेय के चित्र। भावी बुद्ध मैत्रेय के साथ साथ, बुद्ध की कई प्राचीन पत्थर की प्रतिकृतियों को भी अत्यंत सहेज कर रखा गया था। कहा जाता है कि इस श्वेत स्तूप के शीर्ष पर प्राचीनकाल में एक बड़ा माणिक्य लगा हुआ था।

रुवन्वेली दगबा - अनुराधापुरा, श्री लंका
रुवन्वेली दगबा – अनुराधापुरा, श्री लंका

स्तूप के चारों ओर भ्रमण करते स्थानीय दर्शनार्थी पुष्प, दूध व धूपबत्तियों के अलावा कई जड़ीबूटियाँ भी रुवन्वेली दगबा में अर्पित कर रहे थे।

यहाँ मेरा ध्यान एक चित्रकथा ने खींचा जिसमें इस विशाल स्तूप के निर्माण का दृश्य दर्शाया गया था। तत्कालीन महाराज द्वारा इस स्तूपनिर्माण में दिया गया श्रमदान भी इसमें स्पष्टता से दर्शाया गया था।

श्रीमहाबोधि वृक्ष – अनुराधापुरा

श्री महाबोधि वृक्ष - अनुराधापुरा, श्री लंका
श्री महाबोधि वृक्ष – अनुराधापुरा, श्री लंका

अनुराधापुरा के विशाल पीपल के वृक्ष को देख अनायास मुख से ‘बोधिवृक्ष’ शब्द फूट पड़े। उसे सुन मेरे परिदर्शक ने अत्यंत श्रद्धा से इसे ‘श्री महाबोधि’ कह संबोधित किया। उसके ये उद्गार श्रीलंका में इस वृक्ष की महत्ता के द्योतक हैं। जैसे कि हमें ज्ञात है, सम्राट अशोक की पुत्री, बौद्ध भिक्षुणी संघमित्रा ने बोध गया, बिहार के मूल बोधि वृक्ष की एक शाखा को श्रीलंका में रोपित किया था, जो आज भी यहाँ विकसित हो रहा है। २४५ई.पू. में रोपित बोधिवृक्ष की शाखा से उत्पन्न इस वृक्ष को मूलतः ‘जय श्री महाबोधि’ कहा गया। हालांकि बिहार के बोध गया में स्थित मूल बोधिवृक्ष वर्तमान में नष्ट हो चुका है, परन्तु उसका वंशज श्रीलंका के अनुराधापुरा में आज भी जीवित है। बोध गया स्थित नवीन बोधिवृक्ष को, अनुराधापुरा के इस महाबोधिवृक्ष की शाखा द्वारा पुनर्जीवित किया गया है। इसका अर्थ है कि वृक्ष विकसित करने की यह कला उस काल में भी ज्ञात थी। मेरे परिदर्शक के अनुसार वृक्ष स्थानान्तरण में इसी कला का उपयोग किया जाता था।

“अनुराधापुरा का ‘जय श्री बोधि वृक्ष’ ऐतिहासिक दृष्टी से विश्व का प्राचीनतम प्रमाणित वृक्ष है।”

पवित्र स्थल

श्री महाबोधि वृक्ष का वो हिस्सा जो बोध गया से आया था - अनुराधापुरा
श्री महाबोधि वृक्ष का वो हिस्सा जो बोध गया से आया था

श्रीलंका का सर्वाधिक पवित्र स्थल माने जाने के कारण महाबोधि वृक्ष के रक्षण की भरपूर व्यवस्था की गयी है। इसके चारों ओर खड़ी की गयी दीवार से केवल इसका ऊपरी भाग दृष्टिगोचर है। मुझे बताया गया कि वनस्पति वैज्ञानिक दिन में दो बार इसके स्वास्थ्य की जांच पड़ताल करते हैं। भारत से लायी गयी वृक्ष की मूल शाखा को सुनहरे फलकों द्वारा सुरक्षित किया गया है। मंच, जिस पर यह बोधिवृक्ष स्थापित है, उसे सुनहरे बाड़ द्वारा घेरा गया है। बोधिवृक्ष के तले एवं अनुराधापुरा के अन्य स्थलों की धरती रेतीली होने के बावजूद वृक्ष यहाँ फलफूल रहे हैं।

महाबोधि वृक्ष के दर्शन हेतु हम उत्कीर्णित पाषाणी सीड़ियों द्वारा इसके प्रांगण के भीतर पहुंचे। सीड़ियों के दोनों ओर विस्तृत चंद्रकांत एवं नागराज रक्षक प्रतिमाएं स्थापित थीं। पुष्प विक्रेता रंगबिरंगे कमलों की विक्री कर रहे थे। कलियों की पंखुड़ियों को कलात्मकता से खोलकर उन्हें पुष्प का आकार प्रदान करते देखना मेरे लिए बहुत रोचक था।

महाबोधि वृक्ष के समीप स्थित महाविहार संग्रहालय अत्यंत औपनिवेशिक प्रतीत हो रहा था। हालांकि बंद होने के कारण हम इसके संग्रह का अवलोकन नहीं कर सके।

लोह प्रसादय अथवा लोवमहापाय

लोहा प्रासाद - अनुराधापुरा
लोहा प्रासाद – अनुराधापुरा

अनुराधापुरा में महाबोधि एवं रुवन्वेली सेया के मध्य स्थित, लोवमहापाय एक प्राचीन महल है। तांबे की छत के कारण इसे तांबे का महल या लोह प्रसादय भी कहते हैं। साहित्यों के अनुसार ९ मंजिलों एवं १६०० स्तंभों के इस भवन निर्माण में ६ वर्षों का समय व्यतीत हुआ. परन्तु १५ वर्ष उपरांत एक भीषण अग्नि में यह पूर्णतः स्वाहा हो गया। वर्तमान में मूल संरचना के केवल १६०० स्तंभों के अवशेष ही शेष हैं। महल के स्थान पर अब एक छोटी इमारत का निर्माण किया गया है।

कहा जाता है कि बोधिवृक्ष की देखरेख करने हेतु लगभग १०० भिक्षु लोवमहापाय में निवास करते थे। कदाचित स्वयं के रक्षण में सक्षम इस बोधिवृक्ष को उनकी देखरेख की आवश्यकता नहीं थी।

पुरातत्व संग्रहालय

अनुराधापुरा का पुरातत्व संग्रहालय अथवा पुराविदु भवन, श्रीलंका के कई पुरातत्व संग्रहालयों में से एक है। यह लोह प्रसादय एवं रुवन्वेली सेया के बीच, कचहरी इमारत के भीतर स्थित है। इस संग्रहालय के भीतर श्रीलंका के प्राचीन स्थलों की खुदाई के समय प्राप्त हुए प्राचीन कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है। यहाँ प्रदर्शित बुद्ध प्रतिमाएं, अभिलेख, चित्रकलाएं, कठपुतलियाँ, सिक्के, आभूषण तथा अन्य कई वस्तुएं प्राचीन अनुराधापुरा से आपका परिचय कराते हैं।

जेतवनरम्या दगबा

विशाल जेतवनरम्या दगबा - अनुराधापुरा
विशाल जेतवनरम्या दगबा – अनुराधापुरा

३री. शताब्दी में निर्मित यह अतिविशाल स्तूप, मिश्र के पिरामिडों के पश्चात, दूसरी सर्वाधिक विशाल संरचना थी। पुरातत्व संग्रहालय में इसके पुनरुद्धार के पूर्व एवं पश्चात के चित्र प्रदर्शित हैं।

इस स्तूप के समीप, दगबा से अपेक्षाकृत छोटा, तथापि विशाल मंदिर है। इसके भीतर महापरिनिर्वाण मुद्रा में भगवान् बुद्ध का चित्र है। श्रीलंका के अन्य मंदिरों की भांति यहाँ भी बुद्ध के रंगीन चित्र में पीले व लाल रंगों की प्रधानता है। स्तूप की परिक्रमा के समय मैंने नाग की प्रतिकृतियाँ देखी जो अभी भी पूजी जाती हैं। दो विशाल पाषाणी अभिलेख इस स्तूप की कथा कह रहे थे।

मूर्ति घर के नीचे यंत्रगल - अनुराधापुरा
मूर्ति घर के नीचे यंत्रगल

इस अतिविशाल स्तूप के सानिध्य में मैं स्वयं को तुच्छ अनुभव कर रही थी। इसकी विशालता मेरे अहम् को यह आभास करा रही थी कि मैं इस विशाल ब्रम्हाण्ड का एक नगण्य अंश हूँ।

दगबा के समक्ष एक मूर्ति गृह के अवशेष थे। इसके मध्यवर्ती कक्ष के भीतर एक गोलाकार मंच के ऊपर चौकोर यंत्रगल्ल था जिस के ऊपर किसी काल में बुद्ध की प्रतिमा स्थित थी।

कुट्टम पोकुना

कुत्तम पोकुना - अनुराधापुरा के जुड़वाँ जल कुंड
कुत्तम पोकुना – अनुराधापुरा के जुड़वाँ जल कुंड

कोट्टम पोकुना अर्थात् जुड़वे कुंड, पत्थर से बने दो कुंड हैं। आस पास  स्थित ये सुन्दर कुंड, भारत के कुछ राज्यों में स्थित बावडियों की तरह, परन्तु अपेक्षाकृत छोटे हैं। इसकी एक दीवार पर नाग की सुन्दर आकृति की नक्काशी की गयी है। दो कुंडों के औचित्य के सम्बन्ध में मैं अनुमान लगाने लगी कि यह संभवतः ऊष्ण एवं शीतल जल अथवा स्त्री एवं पुरुष हेतु बनाए गए हों।

ये कुंड अनुराधापुरा के जल प्रबंधन प्रक्रिया का भाग हैं। कुंड के समीप कई जल निथारन कोष्ठ हैं जो अनुराधापुरा के जल आपूर्ति नहर से जल प्राप्त कर, उसका क्रमशः निथारन कर, इन कुंडों को भूमिगत नालियों द्वारा जल प्रदान करते थे। इन कुंडों को देख मुझे मुंबई के कान्हेरी गुफाओं में स्थित जल संग्रह एवं वितरण प्रणाली का स्मरण हो आया।

कोलम्बो के राष्ट्रीय संग्रहालय से इन कुंडों के सम्बन्ध में जानकारी हासिल करने के पश्चात मुझे इनके दर्शन करने की बहुत उत्सुकता थी। परन्तु दूषित, मटमैले जल एवं प्लास्टिक की फेंकी हुई बोतलों से भरे इन कुंडों को देख मन खिन्न हो गया।

समाधिस्थ बुद्ध

समाधी बुद्धा - अनुराधापुरा
समाधी बुद्धा – अनुराधापुरा

समाधि अर्थात् ध्यान की उच्चावस्था जहां साधक ध्येय के ध्यान में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व का भी भान नहीं रहता। बुद्ध की अधिकतर प्रतिमाओं में उन्हें इसी ध्यान मुद्रा में प्रतिबिंबित किया जाता है।

बुद्ध की इस ध्यानमग्न प्रतिमा की एक और विशेषता यह है कि तीन विभिन्न दिशाओं से देखने पर उनके तीन भिन्न भिन्न भाव परिलक्षित होते हैं। वह हैं शांति, आनंद एवं दया भाव।

अभयगिरी विहार

अभाय्गिरी स्तूप - अनुराधापुरा, श्री लंका
अभाय्गिरी स्तूप – अनुराधापुरा , श्री लंका

जेतवनरम्या की तरह ईंटों द्वारा बना यह स्तूप भी अनुराधापुरा के विशालतम स्तूपों में से एक है। मूलतः जैन विहार होते हुए भी यह ५००० भिक्षुओं के रहने लायक, बोद्ध धर्म के विशालतम मठ के रूप में जाना जाता है। यह वही विहार है जहां के भिक्षुओं ने सर्वप्रथम बुद्ध के पवित्र दन्त को श्रीलंका में स्वीकार किया था।

इस स्तूप की परिक्रमा करते समय हमें छत्र धारण किये बुद्ध की एक सुन्दर प्रतिमा के भी दर्शन हुए। भारत के कई पाषाणी मंदिरों की भान्ति यहाँ भी पत्थरों पर शतरंज के मंच की नक्काशी की गयी है।

थुपरामा एवं मिरिस्वेती स्तूप

थुपरामा दाग्बा - अनुराधापुरा
थुपरामा दाग्बा – अनुराधापुरा

श्वेत, स्वच्छ व सुन्दर रखरखाव के ये दोनों स्तूपों के चारों ओर ऊंचे पाषाणी स्तंभ खड़े हैं। इनको देख इनकी प्राचीन भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। किसी काल में छत्र के नीचे स्थित ये स्तूप अब भी बहुत आकर्षक प्रतीत होते हैं।

यूं तो अनुराधापुरा कई छोटे बड़े स्तूपों से भरा हुआ है। इनके दर्शन करते आप थक जायेंगे परन्तु स्तूपों की कतार समाप्त नहीं होगी।

अनुराधापुरा नगर का भ्रमण

चंद्रकार का प्रवेश पाषाण - श्री लंका का पुरातन चिन्ह
चंद्रकार का प्रवेश पाषाण – श्री लंका का पुरातन चिन्ह

अनुराधापुरा नगर के भ्रमण के समय आपको कई विहारों व निवासस्थानों के अवशेष दृष्टिगोचर होंगे। अधिकतर प्राचीन संरचनाएं केवल पत्थर एवं ईंटों के आधार व स्तंभों के रूप में ही शेष हैं। ये इतनी भंगित अवस्था में है कि इन्हें इनके मूल स्वरुप में कल्पना करना आसान नहीं। इन्हें देख सहसा विश्वास नहीं होता कि किसी समय यहाँ हजारों की संख्या में बोद्ध भिक्षु निवास करते थे। और वे यहाँ अध्ययन, मंत्रोच्चारण एवं प्रार्थना करते थे। तथापि इन अवशेषों द्वारा इनकी मूल विशालता का अनुमान अवश्य लगाया सकता है।

रक्षक प्रतिमा - नाग के फन लिए हुए
रक्षक प्रतिमा – नाग के फन लिए हुए

हर ओर दृष्टिगोचर चन्द्रकान्त एवं रक्षक प्रतिमाएं इस नगर को एक अदृश्य डोर से बांधती प्रतीत होती हैं।

अनुराधापुरा में स्थित कई छोटे बड़े संग्रहालय हैं। यहां खुदाई के समय प्राप्त प्रतिमाओं के अवशेष प्रदर्शित हैं। भरपूर अभिलेखों से परिपूर्ण इन संग्रहालयों को आप एक ही टिकट द्वारा देख सकते हैं।

इसुरुमुनिया पाषाणी मंदिर

इसुरुमुनिया पाषाणी मंदिर
इसुरुमुनिया पाषाणी मंदिर

अनुराधापुरा के सीमान्त पर स्थित इस मंदिर के भीतर कमलों से भरे दो सुन्दर ताल हमारा भव्य स्वागत कर रहे थे। भीतर एक सुन्दर कुंड के मध्य सपाट धरती को चीरते दो विशाल शिलाखंड थे। इस कुंड के चारों ओर आकर्षक बगीचा बनाया गया था।

एक शिलाखंड के ऊपर मंदिर स्थित था। हम दूसरी शिलाखंड पर सीड़ियों व एक पुलिया के सहारे चढ़े। यहाँ से श्रीलंका का विहंगम दृश्य दिखाई पड़ रहा था। पहाड़ियों की पृष्ठ भूमि में हरेभरे लहलहाते खेत बहुत आकर्षक दिखाई पड़ रहे थे। ऊपर से समीप स्थित कमलकुंड व बगीचा भी अप्रतिम प्रतीत हो रहा था।

गज अंकित पाशान - इसुरुमुनिया
गज अंकित पाशान – इसुरुमुनिया

इसुरुमुनिया की सबसे प्रसिद्ध प्रतिमाएं हैं एक युगल जोड़े की एवं ताल के समीप स्थित शिलाखंड के ऊपर बनायी गयी गज की प्रतिमा।

अनायास ही मेरी दृष्टी समीप ही कुछ कन्याओं पर पड़ी। वे लकड़ी के खपचियों से दोनों शिलाखंडों को जोड़ने का प्रयास कर रही थीं। काल्पनिक ही सही, किन्तु अपने प्रयास पर हुई उनकी ख़ुशी उनके चेहरे पर स्पष्ट विदित थी। उन्हें देख मुझे अपना बचपन स्मरण हो आया।

मिहिन्ताले –श्रीलंका में बौद्ध धर्म का आरंभिक स्थल

मिहिंताले की चोटी पे ले जाती सीढियां
मिहिंताले की चोटी पे ले जाती सीढियां

अपनी यात्रा के अगले पड़ाव के तहत मैं अनुराधापुरा से ११कि.मी. दूर स्थित एक पहाड़ी के पास पहुंची। ऐतिहासिक दृष्टी से महत्वपूर्ण यह पहाड़ी है, मिहिन्ताले। संघमित्रा एवं भ्राता महिंद्रा ने यहीं सर्वप्रथम श्रीलंका के तत्कालीन राजा से भेंट की थी। २४७ ई.पू. में हुई यह भेंट, श्रीलंका में बौद्ध धर्म के आरम्भ हेतु मील का पत्थर सिद्ध हुई।

निहित स्थल तक पहुँचने हेतु पहाड़ी चढ़ने की आवश्यकता थी। पहाड़ी काटकर बनायी गयी सीडियां यूँ तो बहुत आसान थीं। परन्तु भरी दुपहरी में किये गए मेरे इस प्रयास ने मुझे बहुत थका दिया था।

अनुराधापुरा की मेरी यह यात्रा मेरे लिए विशेष है। जिस दिन मैंने अनुराधापुरा में प्रवेश किया था, वह था जून के पूर्णिमा का दिन। कई सदियों पूर्व इसी पूर्णिमा के दिन महेंद्र ने भी अनुराधापुरा की धरती पर कदम रखा था। मुझे इश्वर का संकेत मिला। और मैं पहाड़ी चढ़ गयी। यहाँ से अनुराधापुरा का विहंगम दृश्य बहुत सुन्दर था। सूर्योदय एवं सूर्यास्त दर्शन हेतु यह उपयुक्त स्थल है। तथापि, अधिक श्रद्धा ना हो तो इस स्थल के दर्शन को टाला जा सकता है।

अनुराधापुरा का संक्षिप्त इतिहास

अनुराधापुरा के मंदिरों में बौद्ध प्रतिमाएं
अनुराधापुरा के मंदिरों में बौद्ध प्रतिमाएं

श्रीलंका के प्राचीनतम साहित्य महावंश के अनुसार, अनुराधापुरा को ५वी. सदी ई.पू. में श्रीलंका की पहली राजधानी घोषित किया गया था। तथापि पुरातात्विक साहित्यों ने अनुराधापुरा को १०वी. सदी ई.पू. का नगर प्रमाणित किया है। इसकी संकल्पना एवं संरचना राजा पांडुकाभया ने की थी। ३री. सदी ई.पू. में राजा देवंपिया तिस्सा के शासनकाल में इसकी समृद्धि में दिन दुगुनी रात चौगुनी वृद्धि हुई। इसी समय श्रीलंका में बौद्ध धर्म ने पदार्पण किया था।

राजा तिस्सा ने बहुत बारीकी से इस नगर की संकल्पना की थी। उन्होंने कृषि हेतु कई नहरों व तालाबों का तंत्र बनाया था। इनमें से कुछ अब भी उपयोग में लाये जा रहे हैं।

अनुराधापुरा पर कालान्तर में कई आक्रमण हुए। फिर भी ११ई. तक यह नगर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता रहा। तत्पश्चात पोलोनरुवा को श्रीलंका की राजधानी बनाया गया। पोलोनरुवा की कहानी मैं शीघ्र ही आपके समक्ष प्रस्तुत करुँगी।

अनुराधापुरा कई सदियों तक अदृष्ट पड़ा रहा। परन्तु सिंहलियों के मानसपटल में इसकी स्मृति धुंधली नहीं हुई। सन १९वी. शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा की गयी खुदाई के समय लुप्त अनुराधापुरा सिंहलियों एवं सम्पूर्ण विश्व को पुनः प्राप्त हुई।

अनुराधापुरा यात्रा हेतु कुछ सुझाव

जेत्वराम्या स्तूप - अनुराधापुरा
जेत्वराम्या स्तूप – अनुराधापुरा

• पवित्र नगर अनुराधापुरा, यूनेस्को द्वारा, घोषित वैश्विक विरासती स्थल है। श्रीलंका निवासियों हेतु दर्शन शुल्क नहीं है। अन्य दर्शनार्थियों हेतु प्रवेश शुल्क २५ डॉलर है।
• संग्रहालय दर्शन हेतु समय सीमित है। अन्य सभी स्थलों के दर्शन किसी भी समय किये जा सके हैं।
• प्राचीन अनुराधापुरा में रहने योग्य कोई स्थल उपलब्ध नहीं है। तथापि नवीन अनुराधापुरा में रहने हेतु अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। मैंने अपने रहने की व्यवस्था अनुराधापुरा से लगभग १ घंटे की दूरी पर स्थित हाबरना में की थी।
• यहाँ भोजन की विशेष व्यवस्था ना होते हुए, केवल कुछ जलपान, चाय एवं नारियल पानी उपलब्ध है।
• स्मारिका विक्री हेतु कई दुकानें हैं परन्तु मुझे इस स्थल से सम्बंधित कोई विशेष वस्तु प्राप्त नहीं हुई। अधिकतर दुकानों में वही वस्तुएं उपलब्ध थीं जो देश के किसी भी पर्यटन स्थल पर बेची जाती हैं।
• अनुराधापुरा भ्रमण हेतु साईकल सर्वोत्तम साधन है।
• संग्रहालय को छोड़, अन्य सभी स्थलों पर चित्रीकरण की अनुमति है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

10 COMMENTS

  1. अनुराधाजी, बहुत ही सुंदर आलेख एवम् छायाचित्र ! यह जानकर आश्चर्य हुआ कि संघमित्रा द्वारा मूल बोधि वृक्ष की शाखा से रोपित वृक्ष आज भी अनुराधापुरा मे महाबोधिवृक्ष के रूप में विकसित है और इसी की शाखा से बोधगया मे मूल बोधिवृक्ष को पुनर्जिवित किया गया है ! महाबोधिवृक्ष की देखरेख प्रतिदिन वनस्पति वैज्ञानिको द्वारा की जाना भी एक सुखद आश्चर्य है !
    मधुमिताजी द्वारा प्रभावी रूप में अनुवादित सुंदर जानकारी हेतू धन्यवाद !

    • प्रदीप जी, मुझे भी इस कोमल से बोद्धि वृक्ष को देख कर आश्चर्य हुआ और यह जान कर भी की अनुराधापुरा विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक है. पढने के लिए धन्यवाद.

  2. Inditales मे आप द्वारा लीखे लेख की भाषा बहुत प्रभाव शाली है ।हर प्रकार से समझा कर लिखा गया है । लगता मैं साक्षात दर्शन कर रहा हूँ ।

  3. अनुराधापुर और पोलोनरुवा विषयक समुचित जानकारी हेतु अनन्त आभार ! मुझे भी महाकवि कालिदास विषयक शोध हेतु माटरा ( महाथोटा ) जाना है। इस विषय से संबंधित यदि कोई सूचना हो तो कृपया अनुगृहीत करें ।

    • सर, कालिदास का श्रीलंका से सम्बन्ध है, यह मुझे ज्ञात नहीं था। अगर कुछ पता चलेगा तो अवश्य साँझा करुँगी।

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