बाणगंगा सरोवर संभवतः वर्तमान मुंबई शहर के सबसे प्राचीन निवासित क्षेत्रों में से एक है। सामान्य तौर पर जो स्थान काफी लंबे समय से निवासित हैं उनके प्रति मेरे मन में एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। ऐसी जगहों पर जाकर ऐसा महसूस होता है जैसे उनमें भी कहीं जान बसती हो – जैसे कि शताब्दियों से इन स्थानों के निवासी अपनी आत्मा का एक छोटा सा अंश पीछे छोड़कर चले जाते हो। ऐसी जगहों पर आप गुजरे हुए काल और समय की वे सारी निशानियाँ देख सकते हैं जिनके साक्षीदार वे स्वयं रहे हैं। विद्यमान परिस्थितियों में भी उन्होंने हमेशा समय के साथ आगे बढ़ना सीखा है। इन जगहों पर अगर आप शांति से बैठे तो आपको उस खामोशी में ये सारी चीजें अपनी कहानियाँ कहती हुई प्रतीत होती हैं।
मैं जितने भी शहरों में रही हूँ उन सभी के पुरातन भागों में मैंने यह सबकुछ स्वयं अनुभव किया है – चाहे वह दिल्ली में महरौली हो या हैदराबाद में चारमीनार का इलाका। यद्यपि मुंबई की कन्हेरी गुफाएँ या एलेफंटा गुफाएँ यहाँ का सबसे प्राचीन और निर्जन स्थान हैं, लेकिन लोकबस्तियों की दृष्टि से देखे तो बाणगंगा का क्षेत्र बहुत लंबे समय से निवासित है। यहाँ के वातावरण में आप बीते हुए कल की वह अदृश्य शक्ति महसूस कर सकते हैं।
बाणगंगा सरोवर, मुंबई
यह एक आयताकार सरोवर है, जैसे कि आम तौर पर भारत के मंदिर सरोवर होते हैं। देखा जाए तो उनकी तुलना में बाणगंगा सरोवर आकार में काफी बड़ा है और उसके चारों ओर मंदिर हैं। शायद यहाँ पर इस सरोवर को ही मंदिर की तरह पूजा जाता होगा जो कि प्रवेश द्वारों पर खड़े दीपस्तंभों से अभिव्यक्त होता है। इस सरोवर के चारों ओर सीढ़ियाँ हैं जो पानी में उतरने हेतु बनाई गयी हैं।
इस सरोवर में आप विविध प्रकार के रंगबिरंगी बतख भी देख सकते हैं। यहाँ की छोटी-बड़ी इमारतों का – जैसे कि यहाँ पर स्थित घर और उनके बीच खड़ी ऊंची-ऊंची इमारतें तथा यहाँ के मंदिर और उनकी शिखरों का पानी में पड़ता प्रतिबिंब आपके लिए एक अलग ही दृश्य प्रदान करता है। जब इन सभी संरचनाओं का प्रतिबिंब सरोवर के पानी में पड़ता है तो उसमें जैसे अनेक बातों का – जैसे बीते हुए काल, अनेक पीढ़ियाँ, विविध शैलियाँ और समाज के विभिन्न स्तरों का एक सम्मिश्रित विन्यास बन जाता है, जैसे कि वे इसी सरोवर के पानी से एक-दूसरे से बंधे हो।
पानी पर बने इस परिदृश्य पर आसमान में बिखरे हुए बादल भी अपना एक अलग ही प्रभाव छोड़ जाते हैं। बाणगंगा सरोवर की सबसे अनोखी बात यह है कि वह समुद्र के ठीक बगल में बसा हुआ होने के बावजूद भी उसका पानी एकदम स्वच्छ और मीठा है। मेरा मानना है इस क्षेत्र में प्रारंभिक लोकबस्तियों के निर्माण का प्रमुख कारण भी यही स्वच्छ और मीठा पानी ही रहा होगा।
बाणगंगा में संगीत कार्यक्रम
बहुत सालों पहले मैं बाणगंगा में आयोजित मुरली विशेषज्ञ पंडित हरी प्रसाद चौरसिया जी का संगीत कार्यक्रम देखने गयी थी। पंडितजी की मुरली से निकले हुए वे सुर जो उस समय यहाँ के वातावरण में गूंज रहे थे, वे आज भी मेरे दिल और दिमाग में समाये हुए हैं। यह कार्यक्रम देर रात तक चलता रहा जिसके कारण हम बाद में आस-पास कहीं भी घूमने नहीं जा सके। इसलिए इस बार जब मुझे फिर से बाणगंगा की यात्रा करने का मौका मिला तो मैंने उसका पूरा फायदा उठाया। इस यात्रा के दौरान मेरे साथ मेरे चाचाजी थे जो इस क्षेत्र को चलानेवाली संस्था के सदस्य थे। उनके मार्गदर्शन में मुझे इस क्षेत्र से संबंधित बहुत सी बातें जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
बाणगंगा सरोवर से जुडे उपाख्यान
एक प्राचीन स्थान अक्सर अपने साथ कोई न कोई कथा, मिथक या फिर कोई उपाख्यान जरूर लेकर चलता है। तो इनमें बाणगंगा बिना किसी कथा के कैसे पीछे रह सकता है? बाणगंगा के अस्तित्व से जुड़ी यह कथा बहुत ही रोचक है। इस उपाख्यान के अनुसार जब भगवान् राम और लक्ष्मण सीता जी को ढूँढने जा रहे थे, तब रास्ते में वे इसी स्थान पर गौतम ऋषि के आश्रम में ठहरे हुए थे। उस समय राम ने अपनी प्यास बुझाने के लिए वहीं जमीन पर एक बाण चलाया था जहाँ से भोगवती या पाताल गंगा प्रकट हुई थी। शायद इसी कारण से इस सरोवर को बाणगंगा कहा जाता होगा।
लक्ष्मण प्रतिदिन अपनी पूजा करने हेतु काशी जाते थे और फिर अपने भाई राम के लिए वहाँ का शिवलिंग लेकर आते थे ताकि वे बिना किसी बाधा के रोज की तरह अपनी पूजा कर सके। एक दिन किसी कारणवश लक्ष्मण समय से नहीं लौट पाये जिसके कारण राम ने यहीं पर उपलब्ध रेत से एक लिंग बनाया और उसकी पुजा की। इस प्रकार यह शिवलिंग ‘वाऴू-का-ईश्वर’ अर्थात रेत का बना हुआ ईश्वर के नाम से प्रचलित हुआ और फिर गुजरते समय के साथ विकृत होते-होते वह वालकेश्वर में परिवर्तित हुआ। यह मंदिर आज भी बाणगंगा सरोवर के पूर्वीय तट पर बसा हुआ है और बड़े गर्व से इस क्षेत्र को अपना नाम प्रदान करता है। समय के साथ यहाँ पर और भी मंदिरों का निर्माण हुआ जिसके कारण इस स्थान को तीर्थक्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा।
बाणगंगा सरोवर और आस-पास के स्थानों का इतिहास
कहा जाता है कि इस क्षेत्र में प्रारंभिक मंदिरों का निर्माण 8वी और 13वी शताब्दी के बीच में हुआ था, जो बाद में पुर्तुगालियों ने अपने शासन काल के दौरान उद्ध्वस्त कर दिये थे। बाद में 18वी शताब्दी के दौरान इन मंदिरों का पुनः निर्माण किया गया जिन्हें आज आप यहाँ देख सकते हैं। इन मंदिरों के पुनः निर्माण के लिए उन्हें समाज सेवी श्री राम कामत द्वारा बहुत बड़ी आर्थिक सहायता प्राप्त हुई थी। राम कामत गौड़ सारस्वत ब्राह्मण समुदाय से थे जो बाणगंगा परिसर के शुरुवाती निवासितों में से एक थे। यह समुदाय आज भी बाणगंगा सरोवर और उसके आस-पास के मंदिरों पर अपना प्रभुत्व बनाए हुए है और अच्छे से उनकी देखरेख भी करता है।
इस क्षेत्र में काशी मठ, कैवल्य मठ और कवले मठ जैसे अनेक मठ स्थित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ पर भगवान परशुराम का भी एक मंदिर है, जो यहाँ के अन्य अकर्षणों में से एक है। यद्यपि यहाँ के सभी मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से साधारण हैं, लेकिन यह मंदिर एक सच्चे कलाप्रेमी को अपनी ओर जरूर आकर्षित करता है। इस मंदिर की सीधी खड़ी पत्थर की सीढ़ियों पर बिखरी सुंदर मूर्तियाँ यहाँ का प्रमुख आकर्षण है।
बाणगंगा सरोवर के आस-पास की सैर
मैं वालकेश्वर की सड़क से होते हुए बाणगंगा गयी थी, जो कि दक्षिण मुंबई में बसे मलाबार पहाड़ी क्षेत्र के किनारे के समानांतर दौड़ती है। यह रास्ता आगे जाकर किसी स्थान पर सीढ़ियों में परिवर्तित होता है जहाँ से आपको अपनी गाड़ी से उतरकर पैदल ही आगे बढ़ना पड़ता है। इन सीढ़ियों के दोनों तरफ खड़ी इमारतें अनेक पीढ़ियों से जुडी कहानियाँ कहती हैं, जो कभी इस इलाके में रही होंगी। यहाँ पर कुछ छोटे-छोटे ढाबे भी हैं, जो पाव-भाजी, भेल-पूरी और कभी-कभी इडली जैसे स्वादिष्ट व्यंजन बेचते हैं। यहाँ की असमान सीढ़ियाँ उस बीते हुए कल की तरह है जिसका जीता-जागता गवाह यह जगह है।
नीचे पहुँचते ही आप सामने स्थित सरोवर को चाह कर भी अनदेखा नहीं कर सकते। इस सरोवर के आस-पास घूमिए, तो आपको यहाँ-वहाँ छोटी-छोटी कलाकृतियाँ नज़र आएँगी, जो कभी किसी पेड़ के नीचे, सरोवर की सीढ़ियों पर और कभी सड़क के किनारे पड़ी हुई होती हैं। इससे भी अधिक प्रशंसनीय यहाँ के दीपस्तंभ हैं जिन्हें बहुत अच्छी तरह से अनुरक्षित किया गया है। कल्पना कीजिये कि यह सरोवर रात के समय दीपों से प्रज्वलित इन स्तंभों और सरोवर की परिधि पर चारों ओर जलते दियों की रोशनी में कितना सुंदर दिखता होगा। यहाँ पर घूमते हुए जो भी मंदिर आपकी आँखों को भाए उसके दर्शन जरूर कीजिये। जैसा कि मैं पहले भी बता चुकी हूँ, वास्तुकला की दृष्टि से ये सभी मंदिर बहुत साधारण हैं, यद्यपि इन में से अधिकतर मंदिरों की शिखर विशेष रूप से नागर या उत्तर भारतीय शैली में बनी हुई है।
बाणगंगा का परिसर
बाणगंगा सरोवर के परिसर की सैर करते हुए आपको वहाँ पर नए-पुराने और अमीर-गरीब में एक प्रकार का सान्निध्य नज़र आता है। यह क्षेत्र अपने आप में जैसे मुंबई शहर का सूक्ष्म प्रतिरूप है। यहाँ पर मुझे खिड़कियों के कुछ चित्ताकर्षक प्रकार भी दिखे।
बाणगंगा परिसर की सैर करने के लिए आपको लगभग 1 घंटे का समय चाहिए जिसके दौरान आप वहाँ पर स्थित एक-दो मंदिरों के दर्शन भी कर सकते हैं। मौसम के अनुसार आप चाहें तो सुबह या फिर शाम को भी बाणगंगा की सैर के लिए जा सकते हैं। महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम द्वरा फरवरी के महीने में यहाँ पर बाणगंगा संगीत उत्सव का आयोजन किया जाता है और शायद बाणगंगा की यात्रा करने का यह सबसे उत्तम समय हो सकता है।
बाणगंगा सरोवर के पास ही मणि भवन भी है।
Thanks for your more information about tourist destination.
it is nice to read Indi tales in Hindi.i am a regular reader of your blog.
धन्यवाद सरिता जी, पढ़ते रहिये और हमें ऐसे जी प्रोत्साहित करते रहिये।