आगरा शहर मुख्य रूप से विश्व में स्थित सात अजूबों में से एक ‘ ताज महल ‘ के लिए विश्वप्रसिद्ध है। किन्तु इसके अलावा एक और चीज़ जिसके नाम से इस शहर की पहचान जुड़ी हुई है, वो है यहां का मशहूर पेठा। जी हां, सही सुना आपने। यूं तो हमारे देश के कई क्षेत्रों में पेठा बनाया जाता है, पर यहां के पेठों की बात ही निराली है। जब मुझे आगरा में एक यात्रा लेखक सम्मेलन में जाने का मौका मिला, तभी मैंने मन में ठान लिया कि मुझे किसी भी हाल में पेठा बनते हुए देखना है।
बचपन से पेठा मेरी पसंदीदा मिठाई रही है। चाहें मेहमानों के अभिनन्दन की बात हो या भोजन के बाद कुछ मीठा खाने का मन हो, पेठा हर जगह उचित बैठता है। जब भी मेरे पिताजी आगरा जाते थे, तो मेरे लिए यह स्वादिष्ट मिठाई लेना बिल्कुल नहीं भूलते थे।
अंततः मुझे टूरिज्म गिल्ड ऑफ आगरा द्वारा आयोजित हेरिटेज वॉक में “इंडीटेल्स“का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब हमारे मार्गदर्शक गौरव जी हमसे आगरा की प्राचीन गलियों के बारे में ज़िक्र कर रहे थे तो पेठों का भी ज़िक्र आया। मैंने उनसे आग्रह किया कि क्या हम इस मिठाई को बनते हुए देखने के साक्षी बन सकते है। मेरे साथ- साथ और भी लोगों ने भी इसमें अपनी रुचि दिखाई।
आगरा पेठा का इतिहास
आप कैसी प्रक्रिया देंगे अगर मैं बताऊं की पेठों का इतिहास आपको मुगल काल में ले जाएगा। यह एक 350 साल पुरानी मिठाई है। मुगल काल में बड़ी ज्यादा मात्रा में सैनिक और कर्मचारी होते थे। इंसान की एक फितरत होती है, खाने के बाद कुछ मीठा खाने की। तो उनके लिए ऐसी क्या मिठाई बनाई जाए जो एक बार में में बनाने से खराब भी ना हो, ज्यादा मात्रा में बनाई जा सके और सबसे महत्वपूर्ण कि ज्यादा महंगी भी ना हो। इन सभी बातों का जवाब बना पेठा।
किवदंती है कि जब शाहजहां द्वारा निर्माणाधीन ताज महल में रोजाना 22000 कारीगर कार्य करते थे। रोज- रोज एक ही तरह का भोजन करके वे परेशान हो गए। अतः उनके भोजन में कुछ नया जोड़ने के लिए खानसामे ने यह मिठाई तैयार की और लगभग 500 रसोइयों की नियुक्ति की गई जो पेठा बनाने लगे। नूरजहां भी इसके स्वाद की दीवानी हो गई, जिसकी वजह से इसको शाही रसोई में सम्मिलित कर लिया गया।
पेठा या कद्दू भारत का एक स्वदेशी सब्जी है। इसलिए ऐसा हो सकता है कि शाहजहां द्वारा इसको मशहूर करने से पूर्व भी इसका अस्तित्व हो।
बनाने की क्रमबद्ध विधि –
पेठा बनाने के लिए जिस फल का प्रयोग किया जाता है उसे विभिन्न नामों से जाना जाता है। जैसे – कुष्मांड, भतुआ, सफेद कद्दू या लौकी और कुम्हड़ा आदि।
सबसे पहले इस फल को काटकर इसके छिलके को निकाला जाता है। फिर इसको गूंदा ( अर्थात् छोटे छोटे छिद्र करना ) जाता है। गूंदने का मुख्य मकसद शीरा को अंदर तक पहुंचने का होता है। बड़े – बड़े कारखानों में गूंदने के लिए मशीनों का प्रयोग किया जाता है। फिर इसको खाने वाले चूने के पानी में मिलाकर धोया जाता है जिससे यह साफ़ और सख़्त हो जाए। इसके उपरांत उबालने की प्रक्रिया की जाती है।
अब इसके छोटे छोटे टुकड़े ( मुख्यता वर्गाकार) किए जाते है। दूसरी तरफ शक्कर (चीनी) का घोल उबला जाता है जिसको शीरा ( चासनी) बोलते है। जब शक्कर पूरी तरह घुल जाता है तब फल के कटे हुए टुकड़ों को इसमें मिलाया जाता हैं। 10 से 15 मिनट तक उबाला जाता है जिससे टुकड़ों के अंदर शीरा पहुंच जाए। इसके उपरांत इसको ठंडा होने के लिए रख दिया जाता है। तो लीजिए, तैयार हो गया स्वादिष्ट पेठा। क्या आप इसको चखना नहीं चाहेंगे? मुझे पता है, आपका मुंह भी पानी से भर गया होगा।
विभिन्न प्रकार की किस्में –
बाजार में अलग अलग स्वाद के पेठों की बिक्री होती है जैसे अंगूरी, इलायची, चॉकलेट, गुलाब लड्डू, डोडा बर्फी, पान, केसर आदि। सभी पेठों को बनाने की अलग विधि होती है। जैसे अगर इलायची पेठा बनाना हो तो शीरे में इलायची पाउडर मिलाया जाता है, जिससे वैसा ही स्वाद खाते वक़्त प्रतीत होता है। ऊपर बताए गए विधि से सामान्य तरह के पेठे को तैयार किया जाता है। अब तो मधुमेह के रोगियों के लिए बिना शर्करा ( चीनी) निर्मित पेठा भी उपलब्ध है।
आगरा में पेठा कहां खरीदें?
शहर में हर जगह पर पेठा की दुकानें देखने को मिल जाएंगी। आंकड़ों के मुताबिक लगभग 5000 फुटकर विक्रेता हैं। लेकिन कुछ दुकानें काफ़ी प्रचलित है। इनमे से एक है पंछी पेठा। कुछ पेठा भंडारों के बारे में लघु जानकारी निम्नलिखित है l
पंछी पेठा –
यह आगरा की प्राचीनतम दुकान है। इसकी शुरुआत सन् 1926 ईस्वी में माननीय स्वर्गीय पंचम लाल गोयल (पंछी लाल जी) ने एक छोटे से दुकान ” पंछी पेठा भंडार ” के नाम से किया था। आज शहर में इनके कुल 6 दुकानें है। यह नूरी दरवाज़ा, धौलपुर हाउस, सदर, पूर्वी दरवाज़ा ताजमहल, पश्चिमी दरवाज़ा ताजमहल और चालीसा मार्ग पर स्थित हैं। 1971 में ये “पंछी पेठा स्टोर” हुआ और फिर “पंछी फूड प्राइवेट लिमिटेड” नाम से कंपनी स्थापित हुई तबसे इसका नाम “पंछी पेठा” है। इसके वर्तमान मालिक एच सी गोयल जी हैं। इनकी एक एक दुकान दिल्ली, गाजियाबाद और लखनऊ में भी है। नूरी दरवाज़ा के पास स्थित दुकान इस मिठाई की सबसे प्राचीन और पहली दुकान है।
पहले इनके पास सिर्फ 6 प्रकार के पेठे बनते थे। धीरे- धीरे इन्होंने प्रयोग किया और आज ये इकलौते ऐसे है जिनके वहां 19 प्रकार के पेठें बनते हैं। सामान्य पेठा 2 सप्ताह तक खाने की अवस्था में रहता है। पैक किए हुए पेठे भी आते है, जिनको एक महीने तक खाया जा सकता है अर्थात् एक माह तक खराब नहीं होते हैं।
नोट – आगरा में आप हर जगह पर पंछी पेठा नामक दुकानें देखेंगे, पर ध्यान रहे इनकी वास्तविक दुकानें मात्र 6 है। सही दुकान कौन सी है, इसका पता लगाने के लिए इनकी हर दुकान में “स्वर्गीय पंछी लाल जी” की तस्वीर विराजमान है। इसलिए आप भी नाम से धोखा ना खाए।
गोपालदास पेठे वाले
यह नाम भी शहर में जाना पहचाना नाम है। यह भी एक पुरानी दुकान है, जो फतेहाबाद मार्ग, ताजगंज में स्थित है। इनके पास भी कई प्रकार के पेठे उपलब्ध है। शहर का भ्रमण करते समय मैं इस दुकान से होकर गुज़रा। दुकान की सजावट बेशक शानदार थी लेकिन मैं स्वाद को लेकर असमंजस में था।
मुन्नलाल पेठे वाले
हमारे मार्गदर्शक गौरव जी के कहने पर हमने इस दुकान पर ठहराव लिया। रावतपाड़ा इलाके में स्थित इनकी ये दुकान भी काफी प्रसिद्ध है। नियमित लोगों की भीड़ लगी ही रहती है। दुकान पर खड़े मालिक से थोड़ी देर बात करने बाद हमने उनसे पेठा बनते हुए देखने की इच्छा जाहिर की। पहले तो वो थोड़ा हिचके। बोले कि काफ़ी गर्मी का माहौल होता है, साफ़ सफाई भी ज्यादा नहीं होगी। हमने उनकी सभी बातों को मान लिया। उनके दुकान के बगल से एक गली गुजरती है, जिसके समाप्त होते ही दाहिनी तरफ एक कमरा है जहां पेठे बनते है।
मेरा अनुभव –
मेरा पूरा ध्यान तो बस इसी में था कि कब मैं इसकी निर्माण की विधि देख पाऊं। जब मुन्नालाल पेठे वाले, पेठा बनने की प्रकिया दिखाने को तैयार हुए तो मैंने तहे दिल से उनका धन्यवाद अदा किया। मैं जैसे कमरे पर पहुंचा तो देखा कुछ कारीगर अपने- अपने कार्य करने में व्यस्त थे।
उनमें से एक साहब से मैंने बातचीत करने की कोशिश की और प्रकिया दिखाने के लिए आग्रह किया। उन्होंने क्रमशः विधि बताई और साथ में कार्य करते हुए लोगों को भी क्रमशः दिखाया। एक व्यक्ति फलों को छीलकर काटने में व्यस्त था, तो दूसरा उसको उबालने की प्रक्रिया को अंजाम से रहा था। अंत में एक व्यक्ति शीरा ( चासनी) में उसको मिला रहा था।
मुझे उनलोगों ने ताजा बने हुए पेठे चखने को दिए, जिसे मैंने हंसते हुए स्वीकार किया। वाकई में मैंने इतनी बार पेठा का स्वाद चखा है किन्तु यह कुछ अलग ही था, अति स्वादिष्ट जिसने मेरे पूरे मुंह को मीठा कर दिया। यह वस्तुतः इस मिठाई का जादू ही था।
वापस आकर बाकी साथियों ने अपने अपने घर ले जाने को खरीददारी की। मैंने भी एक डिब्बा आगरा पेठा लिया। कुछ इस तरह से मैंने अपनी एक उत्सुकता ( पेठा बनते हुए देखना) को समाप्त किया।
यह लेख अभिषेक सिंह ने लिखा है।