जब आप पत्थरों पे कवि की कविता लिखी देखते हैं तो कभी कभी उस कविता का कथन इतना प्रभावशाली होता है की आप के अन्दर भी एक कविता फूट पड़ती है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ जब मैंने कर्णाटक स्थित बादामी, ऐहोले और पत्तदकल के मंदिरों के शिल्प को देखा. कितना समझा यह तो कहना मुश्किल है, पर दिल को कितना छुआ इसका अनुमान आप यह कविता पढ़ कर लगा सकते हैं।
यह कविट्स यूँ समझिये की वो पत्थर कह रहे हैं या फिर उनको तराशने वाले वो महान शिल्पकार – जिनका उत्कृष्ट काम आज के शिल्पकारों के लिए एक चुनौती के सामान है। जीवन का कौन सा रस है जो इन पत्थरों में घड़ा नहीं मिलता है।
इस भ्रमांड के इतिहास में
कुछ पन्ने मेरे भी हैं
सदियों पहले, मैंने जन्म लिया
इस धरती पर अपनी छाप छोड़ी
आने वाली पीड़ियों के लिए
पथ्हरों को चीर कर लिखी
मेरे युग की कहानियां
सैंकडों शिल्पकारों को सिखाया
शिल्पी बन कहानियां लिखने का गुर
फिर उनके हाथों के जादू ने
पिरोया इतिहास कुछ यूँ की
पत्थर बोल उठे, नाच उठे
कभी कहानी सुनते तो कभी
पूछते तुमसे पहेलियाँ, कभी
एक निर्मल छवि बस देते हुए
देखोगे तो पाओगे छोडी हैं मैंने
न केवल शिल्प्कारियों की कला
पर उन पलों का लेखा जोखा
जिनको था मैंने देखा और जिया
वो उन्माद और वो उल्हास
जो देता आया है आनंद और जीवन
वो देवी देवता, जिनसे ले पाठ
आज भी तुम देते लेते हो दिशा
वो नौ रस और कलाएं वो जीव जंतु और क्रीडाएं
जो मिली धरोहर में और
जिनको संभाला, पाला तुम्हारे लिए
छोडे हैं अपने समय के निशान
झीलों के किनारे, पहाडों के ऊपर
स्तंभों पे, दीवारों पे, छत पे
सीडियों पे, कलाकृतियों में
यह धरोहर है मेरे जीवनकाल की
छोड़ आई जिसे तुम्हारे लिए
इसे संभल रखना उनके लिए जो
अभी आये नहीं मुझसे मिलने