कोलकाता के स्मृतिचिन्ह से मुझे पुराने चलचित्रों का स्मरण हो आया जहां नायक अथवा नायक के पिता को कई बार कोलकाता जाते दिखाया जाता था और आशा की जाती थी कि वह वहां से परिवार के हर सदस्य हेतु उपहार खरीद कर लाये। बंगाल सम्पूर्ण विश्व में कई आकर्षक भेंट वस्तुएं व स्वादिष्ट मिष्ठान हेतु प्रसिद्ध है। मैंने कई बार बंगाल की यात्रा की। जहां एक ओर मुझे बिश्नुपुर स्थित टेराकोटा मंदिर बहुत पसंद आये, वहीं दोआर अथवा डुआर के जंगल बहुत लुभावने प्रतीत हुए। वहां खाए भिन्न भिन्न मिष्टान्नों का स्मरण होते ही अभी भी मुंह में पानी आ जाता है। बंगाल की हर यात्रा में कोलकाता के विषय में नवीन जानकारी प्राप्त होती है। मेरे पास कोलकाता के कई स्मृतिचिन्ह हैं जिनमें कुछ मैंने अपनी बंगाल यात्रा के समय खरीदा था व कुछ मित्रजनों और परिवारजनों ने उपहार स्वरुप मुझे दिए हैं। मुझे कोलकाता की विशेषताओं व यहाँ उपलब्ध विशेष वस्तुओं को बारीकी से जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। इसलिए अपने अनुभव को इस संस्मरण में संकलित कर, १० सर्वोत्तम भेंट वस्तुएं अंकित कर रही हूँ।
कोलकाता के १० सर्वोत्तम भेंट वस्तुओं की खरीददारी
शंख से बनी चूड़ियाँ
इस सूची का आरम्भ शुभ वस्तु से करते हुए, कौंच अथवा शंख पर की गयी कारीगरी व उससे बनी वस्तुओं का उल्लेख करना चाहती हूँ। बिश्नुपुर की गलियों में शंख पर की गयी नक्काशी को बारीकी से देखने का अवसर हमें प्राप्त हुआ। कलाकार शंख को कोमलता से हाथ में पकड़ कर उस पर आकृतियाँ गढ़ते हैं। देवों के चित्रों की नक्काशी युक्त श्वेत शंख बहुत सुन्दर व शोभायमान प्रतीत होते हैं। घर के मंदिर की शोभा बढ़ाने हेतु यह एक सुन्दर व शुभ वस्तु सिद्ध होगी। इसी तरह शंख से बनी चूड़ियों पर भी उत्कृष्ट नक्काशी की जाती है। पारंपरिक रूप से इन चूड़ियों द्वारा बंगाल की सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपना श्रृंगार पूर्ण करती हैं। आधुनिक समाज में हर स्त्री इन चूड़ियों को अपने साजश्रृंगार का हिस्सा बनाने की इच्छा रखती है। इसलिए आप ये चूड़ियाँ स्वयं अथवा आपके परिवार की महिलाओं हेतु खरीदकर उन्हें भेंट कर सकते हैं।
शंख से बनी चूड़ियों की कुछ और विशेषताओं का उल्लेख करना चाहती हूँ। कुछ चूड़ियों पर घोड़ों की छोटी छोटी नक्काशी की जाती है। यह बांकुरा जिले के पंचमुढ़ा ग्राम में बनाए जाने वाले टेराकोटा अर्थात् लाल पकी मिट्टी के घोड़ों को समर्पित है। यह चूड़ियाँ पूर्णतः गोलाकार नहीं होती क्योंकि इन्हें प्राकृतिक शंखों को काटकर बनाया जाता है। अनियमित आकार की चूड़ियों पर की गयी उत्तम कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना है यह चूड़ियाँ।
टेराकोटा कलाकृतियाँ
टेराकोटा अर्थात् लाल पकी मिट्टी बंगाल का मूलभूत अंग है। बंगाल की धरती पर पत्थरों का अभाव है। इसलिए यहाँ के प्राचीन मंदिर भी टेराकोटा की पट्टियों से सुसज्जित हैं। परन्तु इन मंदिरों के दर्शन हेतु बंगाल के भीतरी भागों की यात्रा आवश्यक है। कोलकाता में ही उपलब्ध, टेराकोटा से बने कुछ रोचक व चित्तरंजक वस्तुएं जो आप खरीद सकते हैं वह हैं-
बांकुरा घोड़े
बांकुरा जिले में सर्वत्र उपलब्ध यह टेराकोटा से बने बांकुरा घोड़ों की विशेषता है उनके नोकदार लंबे कान। यह हर आकार में उपलब्ध हैं। अपने घर के प्रवेशद्वार के दोनों ओर रखे यह रक्षक भांति प्रतीत होते हैं। उसी तरह बैठक कक्ष में रखे गए यह घोड़े आपको बंगाल का स्मरण कराते रहेंगे। यह बंगाल की एक उत्कृष्ट स्मृतिचिन्ह है।
घोड़ों के अलावा टेराकोटा द्वारा गणेश की विभिन्न संगीत वाद्य बजाते हुए मूर्तियाँ भी बहुत मनभावनी हैं। मैंने इन मूर्तियों का एक सम्पूर्ण संग्रह खरीदा था। वह अब मेरे पुस्तकालय में सुसज्जित है और संभवतः हर आपदाओं से हमारी रक्षा कर रही है।
टेराकोटा के आभूषण
बंगाल के कलाकारों ने टेराकोटा से छोटे छोटे आभूषण भी बनाने आरम्भ किये हैं। विभिन्न चटक रंगों में रंगे इन आभूषणों को देख सहसा विशवास नहीं होता कि यह टेराकोटा से बनी हैं। मैंने अपने लिए टेराकोटा से बने झुमके खरीदे। यथोचित मूल्य में उपलब्ध यह छोटे छोटे आभूषण ले जाने में आसान व हलके वजन के हैं। यह आपके परिवार की बेटियों हेतु सर्वोत्तम भेंट होंगी।
स्त्रियों की सर्वप्रिय साड़ियाँ
यूँ तो बंगाल में साड़ियों के इतने प्रकार विक्री हेतु उपलब्ध है कि किसी का भी मन डोल सकता है। परन्तु यह साड़ियाँ आपको कही भी मिल जायेंगीं। बंगाल आ कर केवल बंगाली साड़ियों पर ही ध्यान केन्द्रित करना उपयुक्त होगा। यहाँ की कुछ प्रसिद्ध बंगाली साड़ियाँ हैं-
तांत की साड़ियाँ
बंगाल में स्त्रियाँ ज्यादातर जो साड़ियाँ पहनती हैं वह बहुत महीन कपड़े पर चौड़ी किनार की तांत साड़ियाँ हैं। सूती, महीन किन्तु कड़क साड़ियाँ बंगाल के बुनकरों की कला का सजीव नमूना है। पारंपरिक तौर पर यह साड़ियाँ हलके रंग में बनाई जाती हैं जिन पर गहरे चटक रंग केवल बूटी व किनार पर उपयोग किये जाते हैं। परंपरा व आधुनिकता के मिश्रण से अब रंगों व नमूनों की कोई सीमा नहीं रही। ढाका, तांगेल और मुर्शिदाबाद तांत साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। बंगाल में सर्वत्र उपलब्ध इन साड़ियों को अच्छे दाम व गुणवत्ता के लिए स्थानीय बाजार से खरीदें।
बालुचरी अथवा स्वर्णचरी साड़ियाँ
कहा जाता है कि हर बालुचरी साडी एक कहानी कहती है। बांकुरा के बुनकर मंदिरों की दीवारों पर बनी नक्काशियों को इन कच्ची रेशम से बनी साड़ियों के पल्लू व किनारों पर हुबहू उतारते हैं। राधा कृष्ण की सुन्दर मुद्राएँ, महाभारत युद्ध के समय अर्जुन को ज्ञान देते कृष्ण, सखियों संग झूला झूलती राधा इत्यादि कई पौराणिक कथाओं पर आधारित आकृतियाँ आप इन साड़ियों पर देख सकते हैं। कच्चे रेशम के रंग में बनी बालुचरी साड़ियों में बुनाई का धागा रेशमी व स्वर्णचरी साड़ियों में बुनाई धागा सोने की जरी का होता है। आप अपने पसंद की कहानी कहती यह साड़ियाँ, अपने पसंदीदा रंगों व नमूनों में खरीद सकतें हैं।
कांथा साड़ियाँ
कांथा, गाँव की स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला कढ़ाई का एक प्रकार है। पारंपरिक रूप से कोमल धोती व साड़ियों पर की जाने वाली इस कढ़ाई में सम्पूर्ण कपड़े पर सादे टाँके की कढ़ाई की जाती है। सादे टसर रेशम पर रंगीन धागों से बनाए गए पारंपरिक नमूने इन साड़ियों को अनमोल रूप प्रदान करते हैं।
सोलापीठ (भारतीय काग) के हस्तशिल्प
शोला अथवा सोला एक पौधा है जो बंगाल के आर्द्र भूमि के दलदल में उगता है। इसके तने के भीतरी भाग को सुखाया जाय तब यह दुधिया सफ़ेद रंग का मुलायम व अत्यंत हल्का पदार्थ बनता है। इसे सोलापीठ अथवा भारतीय काग कहते है। यह देवी देवताओं की प्रतिमाओं को सजाने हेतु व वर-वधु के मुकुट इत्यादि बनाने हेतु उपयोग में लाया जाता है। आजकल कारीगर इससे कई सजावटी वस्तुएं भी बनाने लगे हैं। यह थर्मोकोल की तरह दिखने वाला, परन्तु प्राकृतिक पदार्थ है जो लचीलापन, संरचना, चमक व झिर्झिरापन में उससे कई गुना उत्तम है।
आपने दुर्गापूजा के समय कालीबाड़ी की दुर्गा प्रतिमा का चेहरा, मुकुट व अन्य सजावट एक श्वेत पदार्थ द्वारा बने देखे होंगे। यही सोलापीठ है। माला गूंथने वाले मालाकारी ही सोलापीठ पर नक्काशी करते हैं। सोलापीठ पर नक्काशी कर अन्य सजावटी वस्तुएं भी बनायी जाती हैं।
मैंने यहाँ से एक नक्काशीदार, सोला से बना हाथी खरीदा था। दूर से देखने पर यह हाथी दांत से बना प्रतीत होता है।
मेरी आशा है आप सोलाशिल्प की खरीददारी अवश्य करेंगे। यह इस कला को जीवित रखने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
बंगाली मिठाइयाँ
कुछ बंगाली मिठाइयां यूँ तो देश के लगभग हर मिठाई की दुकानों में उपलब्ध हैं। रसगुल्ला, या रोशोगुल्ला जैसे की मेरे बंगाली मित्र कहते हैं, चमचम, सन्देश इत्यादि इनमें मुख्य हैं। पर इन मिठाइयों जो स्वाद बंगाल में होता है वह अद्भुत है। केवल सन्देश के ही इतने प्रकार देख आप दंग रह जायेंगे। ज्यादातर बंगाली मिठाइयां तली हुई नहीं होती, इसलिए इन्हें बिना शंका खाया जा सकता है। पाती शाप्ता भी एक मिष्टान्न है जिसे बनाना मैंने एक बंगाली परिजन से सीखा। ताड़ शर्करा से बना नोलेन गुड़ इन मिठाइयों की मूल सामग्री है।
मिष्टी दोई के बारे में आप सब जानते होंगे। भारत के कोने कोने में इसे स्वाद लेकर खाया जाता है। दही का इतना स्वादिष्ट व मीठा रूप किसी बंगाली के ही मष्तिष्क की उपज हो सकती है।
इन मिठाइयों का भरपूर स्वाद आप अपनी बंगाल यात्रा में ले सकते हैं। परन्तु केवल सन्देश ही अपने साथ वापिस ले आने की सलाह देना चाहूंगी क्योंकि यह अपेक्षाकृत सूखा व ले जाने में आसान है। यह जल्दी बासी भी नहीं होगा।
डोकरा शिल्प
डोकरा शिल्प एक ऐसी कला है जिसे बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में सामान तरीके से बनाया जाता है। इन प्रदेशों के नाम पढ़ कर आप को ज्ञात हो चुका होगा कि यह उन्ही स्थानों पर प्रचलित है जहां आदिवासी जनसँख्या का प्रमाण ज्यादा है। मूल शिल्प सामान होते हुए भी इनमें प्रदेश के अनुसार बदलाव देखा जाता है। हर प्रदेश अपनी विशेषता इस शिल्प कला को प्रदान करता है। प्रचलित वस्तुएं जिन पर यह शिल्पकारी की जाती है वह है सुन्दर गुडियां, रोजमर्रा की वस्तुएं जैसे कलम रखने हेतु पात्र, आदिवासी जनजीवन का उल्लेख करतीं पट्टिका इत्यादि।
बंगाल यात्रा में मैंने आपने लिए डोकरा पद्धति से बने छोटे आभूषण इत्यादि खरीदे। उनमें मेरी पसंदीदा वस्तुएं हैं गणेश झुमके व गले के हार का लटकन। झुमके का नमूना पारंपरिक होते हुए भी, लटकन का नमूना आधुनिक है।
इन छोटी छोटी कांसे की वस्तुओं से आप अपने घर की सम्पूर्ण सजावट कर सकते हैं। यह आपको विश्व की सबसे प्राचीन धातु शिल्पकारी पद्धति का स्मरण कराते रहेंगे।
दार्जिलिंग चाय
जब आप दार्जिलिंग के पहाड़ों से गुजरें, आपको अपने चारों ओर अद्भुत दृश्य दिखाई देगा। चाय के बागानों से भरी पहाड़ियों की ढलानें मन मोह लेती हैं। कहते हैं कि जैसे जैसे ऊंचाई बढ़ती है, चाय की पत्तियों के स्वाद में वृधि होती है। शायद ये पत्तियाँ इन पहाड़ों की हवा से ताजगी सोख कर हमारे चाय की प्याली तक लाती हैं।
दार्जिलिंग चाय विश्व भर में प्रसिद्ध है। आप यहाँ से मनपसंद चाय खरीद सकते हैं, जैसे पहली खेप, दूसरी खेप, काली, हरी, अथवा विशेष स्वाद में घुली हुई चाय इत्यादि।
दार्जिलिंग की यात्रा के समय मैंने यहाँ से पुदीने के स्वाद सहित चाय खरीदी थी। ऐसे संस्मरण लिखते समय मेरी नींद भगाने हेतु अतिउपयुक्त साबित होती है यह चाय।
कोलकाता व दर्जिलिंग में कई उच्चस्तरीय दुकानें हैं जो आकर्षक डिब्बों में चाय उपलब्ध कराते हैं। यह डिब्बे भेंट स्वरुप ले जाने व देने में सुविधाजनक व अनोखे सिद्ध होते हैं।
कालीघाट की चित्रकारी
कोलकाता के काली मंदिर के आसपास के इलाके में कालीघाट चित्रकारी ने जन्म लिया। इसलिए इसका नाम भी कालीघाट चित्रकारी पड़ गया। इस कला का मुख्य उद्देश्य था कालीघाट मन्दिर के दर्शनार्थियों को यहाँ की स्मृतिचिन्ह उपलब्ध कराना। इसलिए कालीघाट चित्रकारी मुख्यतः देवी काली और अन्य हिन्दू देवी देवता व रामायण और महाभारत महाकाव्य के दृश्यों पर आधारित होती है। कालान्तर में इन कलाकारों ने आधुनिक विषयों पर भी चित्रकारी करना आरम्भ कर दिया।
“राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय” के परोक्ष गलियारे से आप कुछ उत्कृष्ट कालीघाट चित्रकारियों की जानकारी प्राप्त कर सकते है।
कालीघाट चित्रकारी पद्धति की और जानकारी आप “उत्सवपीडिया” से प्राप्त कर सकते हैं।
इन्टरनेट पर भी इन चित्रकारियों के क्रय हेतु कई सुविधायें उपलब्ध हैं। वे ज्यादातर मूल प्रतियों के पुनर्मुद्रण होते हैं। इसलिए मेरी सलाह होगी कि आप चित्रों की मूल प्रति कोलकाता से ही खरीदें। मौलिक स्थल से इस स्मृतिचिन्ह को पाने की संतुष्टि और आनंद अद्वितीय है।
जूट से बनी वस्तुएं
बंगाल जूट की उद्योगनगरी है। जूट से बनी कई वस्तुएं, जैसे रस्सी और जूट के बोरे इत्यादि, यहीं बनाए जाते हैं। दिल छोटा ना कीजिये, यह वस्तुएं किसी भी दृष्टिकोण से स्मृतिचिन्ह नहीं हो सकते। कुछ कलाकार जूट का इस्तेमाल कर खूबसूरत और रोजमर्रा हेतु उपयोगी वस्तुएं भी बनाने लगे हैं। सामान लाने योग्य जूट की सुन्दर थैलियाँ, बटुए, पानी की बोतल व खाने के डिब्बे हेतु जूट की थैलियाँ, मेजपोश इत्यादि कई वस्तुएं कोलकाता व बंगाल के अन्य स्थानों से खरीद सकते हैं।
जूट की छोटी छोटी थैलियाँ भेंट वस्तु रखने योग्य उपयुक्त होती हैं। इन्हें पुनः पुनः उपयोग में लाया जा सकता है।
पुतुल गुड़िया
संस्कृत शब्द पुत्तालिका अर्थात् पुतली का अपभ्रंश शब्द है पुतुल। बंगाल के कलाकार मिट्टी की छोटी छोटी गुड़िया बना कर उसे चटक रंगों से रंगते हैं। सर्वप्रथम मैंने इन्हें बिशनुपुर के एक कलाकार के निवासस्थान में देखा था। यह गुड़ियाएं दबाकर ढलाने की पद्धति से बनाए जाते हैं। कई बार गुडिया के विभिन्न भागों को अलग अलग ढाल कर, तत्पश्चात उन्हें जोड़ा जाता है।
मेरा अनुमान है कि यह गुड़ियाएं, पुतली प्रदर्शन के मनोरंजन हेतु उपयोग में लाये जाते थे। यह छोटे व ले जाने में सुविधाजनक होने के कारण बंगाल की मिट्टी से बनी उत्तम स्मृतिचिन्ह होगी।
भारत को अनेकता में एकता का देश कहा जाता है। क्या किसी और देश में आपको इतनी विभिन्नता, रंग व कला का ऐसा अद्भुत संगम दिखाई देगा?
तो आपकी मनपसंद स्मृतिचिन्ह कौन कौन से हैं।
Very nicely written and highly informative article, good coverage. Keep it up.
धन्यवाद तेजस – आप पढ़ते रहिये, हम लिखते रहेंगे.