अनुराधा गोयल: आज हम भारतीय रेल की यात्रा पर निकल रहे हैं। यह वास्तव में भारतीय रेलों की यात्रा है जिनके द्वारा मेरे जैसे असंख्य यात्रियों की अनेक यात्राएं पूर्ण हुई हैं। भारतीय रेलों की स्थापना से आज तक की यात्रा पर हमें ले चलने के लिए आज हमारे साथ हैं श्री अनंत जी, जो भारतीय रेलवे में वरिष्ठ मंडल वित्त प्रबंधक हैं। उनसे मेरा परिचय ट्विट्टर के माध्यम से हुआ था जहाँ वे भारतीय रेलों की मनमोहन चित्र साझा करते हैं। साथ ही वे भारतीय रेलों के इतिहास एवं धरोहर से सम्बंधित रोचक जानकारियाँ भी साझा करते हैं। इसी से प्रभावित होकर मैंने उन्हें डीटूर्स में आमंत्रित किया है ताकि भारतीय रेलों के विषय में उनके रोचक एवं महत्वपूर्ण ज्ञान के भण्डार का आनंद आप भी उठा सकें।
श्री आर अनंत: डीटूर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद।
प्राचीनतम भारतीय रेल मार्ग
अनुराधा: अनंत जी, डीटूर्स में आज की इस चर्चा का आरम्भ भारतीय रेलवे के इतिहास से करते हैं। आज भारतीय रेलों का संजाल अत्यंत सुदृढ़ एवं विशाल है किन्तु भारत में प्रारंभिक रेल सेवायें छोटे छोटे टुकड़ों में अस्तित्व में आयी थीं जिनका श्रेय उस काल के राजाओं एवं देशभक्तों को जाता है। मुझे भारत के प्राचीनतम रेल मार्गों के विषय में जानने की उत्सुकता है। कृपया इस विषय में हमें कुछ जानकारी दें।
अनंत: भारत में सर्वाधिक प्राचीन रेल मार्ग ‘ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे’ द्वारा निर्मित है जो भारत में रेल मार्गों का निर्माण करने वाली प्रथम संस्था थी। इसने सर्वप्रथम बोरी बन्दर (जो आज छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस कहलाता है) से ठाणे तक, लगभग ३२ किलोमीटर लम्बे रेल मार्ग का निर्माण किया था। इस रेल मार्ग पर प्रथम सेवा १६ अप्रैल, १८५३ के दिन आरम्भ हुई थी। दूसरा रेल मार्ग ईस्ट इंडिया हावड़ा तथा हुगली के मध्य बनाया गया था जिस पर १५ अगस्त, १८५४ के दिन प्रथम सेवा आरम्भ हुई थी। पूर्वी भारतीय रेलवे के द्रुतगामी प्रसार का एक प्रमुख कारण यह भी था कि भारत के ये भाग विस्तृत मैदानी क्षेत्र थे जिन पर वे आसानी से रेल पटरियां बिछाते गए। वे हर संभव नदियों के एक ओर पर ही पटरियां बिछाते थे ताकि नदियों को पार करने के लिए सेतु ना बनाना पड़े तथा पटरियां शीध्र ही बिछ जाएँ। किन्तु भारत के पश्चिमी भागों में घाटों एवं पर्वत श्रृंखलाओं को पार करना आवश्यक था। इसी कारण इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे मार्ग लगभग १८६० में पुणे पहुँच सकी।
पूर्वी भारतीय रेलवे का आरम्भ इससे पूर्व ही हो सकता था किन्तु दो घटनाएँ ऐसी घटीं जिनसे इसकी स्थापना में बाधाएं आयीं। एक घटना थी, रेलगाड़ी के इंजनों को लाने वाला जहाज पथभ्रष्ट होकर ऑस्ट्रेलिया चला गया था। दूसरी घटना यह थी कि रेलगाड़ी के डब्बों को लाने वाला एक अन्य जहाज कलकत्ता बंदरगाह के निकट स्थित सैंडहेड्स के समीप डूब गया था। इंजनों को ऑस्ट्रेलिया से वापिस भारत लाने में कई मास लग गए। वहीं रेल के डब्बों को भारत में ही बनाया गया। इसी कारण हावड़ा से रेल का आरम्भ करने में एक वर्ष का विलम्ब हो गया था।
अनुराधा: जी हाँ, यदि ये दुर्घटनाएं ना हुई होतीं तो प्रथम रेल मार्ग कदाचित कलकत्ता में होता।
अनंत: संभव है। प्रारंभ में इन दोनों रेल मार्गों की स्थापना के मध्य अधिक समयावधि नहीं थी। कुछ दिवसों का ही अंतर था। कदाचित दोनों सेवायें एक साथ ही आरम्भ हो सकती थीं। वास्तव में, दोनों रेल मार्गों के निर्माता भिन्न थे तथा उनके मध्य प्रतिस्पर्धा की भावना थी कि कौन सर्वप्रथम भारत में रेल मार्ग की स्थापना करेगा।
भारतीय रेल सेवा का प्रथम निर्मित स्थानक
अनुराधा: इन दोनों के पश्चात अन्य मुख्य रेल मार्ग कहाँ निर्मित किये गए थे?
अनंत: इनके पश्चात, मद्रास में सन् १८५६ में, रोयापुरम से वलाजह मार्ग के मध्य रेल मार्ग बिछाया गया था जो ७०-८० किलोमीटर की दूरी तय करता था। इस मार्ग की एक विशेषता यह थी कि रोयापुरम से रेल सेवा आरम्भ होने से पूर्व ही रेल स्थानक की सम्पूर्ण इमारत का निर्माण कर दिया गया था। अतः रोयापुरम भारतीय प्रायद्वीप का प्रथम रेल स्थानक बना। यहाँ तक कि, यह सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप में स्थित प्राचीनतम रेल स्थानकों में से एक है।
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भारत का प्रथम स्थाई रेलवे स्थानक रोयापुरम में बनाया गया था जबकि बोरीबंदर एवं हावड़ा में शेड के रूप में अस्थाई स्थानक थे। रोयापुरम के प्राचीन स्थानक की इमारत अब भी खड़ी है। संरक्षण के कुछ सफल प्रयासों के पश्चात यह इमारत अब अपेक्षाकृत उत्तम स्थिति में है। मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का निर्माण सन् १८८८ में किया गया जबकि हावड़ा स्थानक १९वीं शताब्दी के अंत में बना था। हावड़ा स्थानक छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से अपेक्षाकृत अधिक विशाल है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस का निर्माण एक प्रशासनिक कार्यालय के रूप में किया था जिसके भीतर ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे का मुख्यालय था। रेल स्थानक इस इमारत का केवल एक अतिरिक्त भाग था।
भारत में रेलवे का विस्तार
अनुराधा: कलकत्ता, मद्रास एवं मुंबई तीन ऐसे नगर थे जिन पर अंग्रेजों का विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित था। अतः, वहां रेल मार्ग तथा स्थानकों का निर्माण स्वाभाविक था। किन्तु भारत के अन्य क्षेत्रों में रेल सेवायें कैसे आरम्भ हुईं?
अनंत: इन तीन नगरों के पश्चात भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में निर्माण कार्य आरम्भ हो गया था। पूर्वी भारतीय रेलवे का विस्तार अत्यंत शीघ्रता से होने लगा। १८५० के दशक में लाहोर के आसपास पंजाब-सिंध रेलवे का आगमन हुआ। सन् १८६६ में कलकत्ता से आने वाले रेल मार्ग को दिल्ली तक लाया गया। यहाँ तीन प्राचीनतम रेलवे सेतु हैं जिनके द्वारा रेलगाड़ियां नदियों को पार करती हैं। पहली आर्रा के निकट है जो सोन नदी के ऊपर निर्मित है। अन्य दो सेतु प्रयागराज एवं दिल्ली में यमुना नदी के ऊपर स्थित हैं। कलकत्ता एवं दिल्ली के मध्य स्थित तीनों प्रमुख सेतु हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक लगभग आधा किलोमीटर लंबा है।
अनुराधा: इस जानकारी से मेरे मस्तिष्क में एक प्रश्न उभर रहा है। रेलवे के विस्तार के लिए अनेक रियासतें भी निधि का योगदान कर रही थीं। क्या आप उनके विषय में कुछ बताएँगे?
रेलवे प्रकल्प हेतु निधि का योगदान करती रियासतें
अनंत: प्रथम रियासत जिसने इस प्रकल्प में रूचि दर्शाई थी, वह है वड़ोदरा के गायकवाड़। उन्होंने रेल मार्ग का निर्माण इसलिए करवाया था क्योंकि सन् १८६१ में अमेरिकी गृह युद्ध छिड़ गया था जिसके कारण अमेरिका से ब्रिटेन के लिए कपास की आपूर्ति बाधित हो रही थी। बड़ोदा क्षेत्र में कपास की भरपूर खेती होती थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए वहां के किसान बड़ोदा से इंग्लॅण्ड तक कपास का निर्यात कर धनार्जन करना चाहते थे। किन्तु बड़ोदा से सूरत बंदरगाह तक कपास पहुँचाने के लिए उनके पास त्वरित परिवहन सेवा का अभाव था। इसी कारण उन्होंने रेल सेवा आरम्भ करने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उन्होंने छोटे गेज की रेल पटरियां बिछवाईं क्योंकि चौड़े गेज की सेवा लागत अधिक थी। वैसे भी कपास भार में अत्यंत हल्का होने के कारण छोटे गेज की रेल पटरियों द्वारा आसानी से ढोया जा सकता था।
मुंबई के चर्चगेट स्टेशन में पश्चिमी रेलवे धरोहर संग्रहालय है। यहाँ एक रोचक चित्र है जिसमें बैल कपास से भरे रेल के दो डिब्बों को रेल की पटरी पर खींच रहे हैं। इस चित्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गायकवाड़ वंश इस रेल सेवा को शीघ्र से शीघ्र आरम्भ करने के लिए आतुर थे क्योंकि वे सन् १८६३ में प्रवेश कर चुके थे। इंग्लॅण्ड से मंगाया इंजिन तब तक पहुंचा नहीं था। पटरियों की चौड़ाई एवं इंजिन के मापदंडों में भिन्नता थी जिसके चलते उनके निर्माण में विलम्ब हो रहा था। रेल के डिब्बों का निर्माण गायकवाड़ों ने स्वयं ही कर लिया। उन डिब्बों को हांकने के लिये इंजन के स्थान पर उन्होंने बैलों का प्रयोग किया. वे उसे बैल रेल गाड़ी कहते थे.
परिवहन – व्यापार का महत्वपूर्ण अंग
अनुराधा: जुगाड़ आविष्कार का यह एक रोचक उदहारण है। गुजरात के दाभोई में मैंने रेलवे संग्रहालय देखा था जहां इस रेल सेवा पर विशेष आलेख उपलब्ध हैं।
अनंत: गुजरातियों की व्यावसायिक समझ अत्यंत गूढ़ है। गायकवाड़ों के पश्चात, १८७० के दशक में निजाम ने तथा १८८० के दशक में मैसूर के महाराजा ने भी उनकी रेल सेवायें आरम्भ कीं।
अनुराधा: मुझे स्मरण है, हैदराबाद से अजमेर तक का रेल मार्ग दीर्घ काल तक सबसे लम्बा रेल यात्रा मार्ग था।
अनंत: जी हाँ। हैदराबाद के निजाम ने मीटर गेज की रेल पटरियां बिछवाई थीं। यह रेल मार्ग हैदराबाद से आरम्भ होकर मध्यप्रदेश के खंडवा तक था। वहां से यह होलकरों के रेल मार्ग से जुड़ जाता था जो इंदौर के मऊ से होकर जाता था। वहां से उत्तर प्रदेश के महोबा होते हुए राजस्थान में अजमेर के मीटर गेज मार्ग से जुड़ जाता था।
रेलवे गेज
अनुराधा: विभिन्न समूहों ने अपने निजी आवश्यकताओं के अनुसार भिन्न भिन्न रेल सेवायें आरम्भ की थीं। उनके मापदंड भी उन्होंने स्वयं निर्धारित किये थे, जैसे छोटे गेज व मीटर गेज आदि। इन्ही विसंगतियों को दूर कर उन्हें एक मापदंड पर लाने का विशाल कार्य अब भारतीय रेलवे कर रहा है ताकि भारतीय रेलों का सम्पूर्ण संजाल एकसार हो सके।
अनंत: जी हाँ। हम जैसे जैसे प्रगति करते हैं, हमारे दूरसंचार, परिवहन, मनोरंजन, पर्यटन इत्यादि आवश्यकताओं में भी तेजी से वृद्धि होने लगती है। भिन्न भिन्न गेजों की पटरियों का संजाल जन व माल दोनों के सुगम परिवहन में बाधा उत्पन्न कर रहा था। भारतीय रेल सेवा मुख्यतः मालवाहक भाड़े पर ही निर्वाह करती है। भारतीय रेलों का लगभग ६३-६४% राजस्व मालभाड़े से तथा लगभग ३०% राजस्व जनमानस परिवहन से प्राप्त होता है। विभिन्न गेजों की एक रेलगाड़ी से दूसरी रेलगाड़ी में माल उतारने व चढ़ाने में परिवहन लागत व समय दोनों की हानि होती है।
मधुर स्मृतियाँ
अनुराधा: मैं जब विद्यार्थी थी, तब मैंने चंडीगढ़ से औरंगाबाद तक अनेक यात्राएं की थीं। उस समय इस गेज भिन्नता के कारण मुझे मनमाड़ में ट्रेन बदलनी पड़ती थी। मनमाड़ में मुझे कई घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।
अनंत: जी। मुझे भी स्मरण है, जब मेरे पिता आसाम में दीमापुर के निकट कार्यरत थे, तब दक्षिण भारत में आने के लिए हमें इसी कारणवश बुगनेगाँव में ट्रेन बदलनी पड़ती थी। उस काल में भारत में चौड़े, मीटर तथा छोटे, तीनों प्रकार के गेज चलन में थे।
दाभोई, वड़ोदरा में स्थित गायकवाड़ों के छोटे गेज संग्रहालय के समान नागपुर में भी छोटे गेज का संग्रहालय है क्योंकि नागपुर-छत्तीसगढ़ रेलवे भी १८७० के दशक में निर्मित एक छोटी गेज की रेलवे थी। १८६० तथा १८७० के दशकों में मध्य भारत में अकाल की स्थिति थी जिसके कारण जीवन व आजीविका के साधनों को भीषण क्षति पहुंची थी। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार के मध्य प्रांत ने एक रेलवे संस्था की स्थापना की ताकि अकाल पीड़ित क्षेत्रों में तत्काल अनाज पहुँचाया जा सके। कठोर वित्तीय प्रतिबंधों के चलते उन्होंने भी छोटे गेज की रेल सेवा का चुनाव किया था।
रेलवे गेज का मूल्य
अनुराधा: क्या छोटी गेज की पटरियों का मूल्य कम होता है?
अनंत: जी। उसका मूल्य बड़ी गेज की पटरियों से लगभग एक तिहाई होता है। लागत, भूमि तथा कई अन्य घटक होते हैं जिन पर यह निर्भर करता है। इसके निर्माण में समय भी कम लगता है। यदि माल-परिवहन का भार कम हो तो यह अधिक लाभकारी होता था।
नागपुर से जबलपुर तक छोटी गेज का लम्बा रेल मार्ग था जो छिंदवाड़ा तथा सिवनी होकर जाता था। आज सड़कें इतनी सुगम हो गयी हैं कि गाड़ी चलाकर चार घंटों में ही नागपुर से जबलपुर तक पहुँच जाते हैं, जबकि उन दिनों छोटी गेज की रेलगाड़ी से सम्पूर्ण रात्रि यात्रा करनी पड़ती थी।
पर्वतीय रेल सेवा का आरम्भ
अनुराधा: भारत के पर्वतीय क्षेत्रों, जैसे दार्जिलिंग, कालका-शिमला तथा नीलगिरी में अप्रतिम हिमालयीन एवं पर्वतीय रेलवे सेवायें भी हैं। वे यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर भी हैं। क्या आप उनके विषय में कुछ बताएँगे?
अनंत: पर्वतीय रेलवे सेवाओं में सर्वप्रथम रेल सेवा दार्जिलिंग में १८८० के दशक में आरम्भ की गयी थी। दार्जिलिंग के पर्वतीय क्षेत्रों में तीव्र ढलान पर चढ़ने के लिए गोलाकार मार्ग के स्थान पर अत्यंत वक्रीय मार्ग का प्रयोग किया गया है। ढलान पर चढ़ने के लिए यह एक अद्वितीय उपाय सिद्ध हुआ था।
अनुराधा: घूम गोलमार्ग भी एक प्रमुख आविष्कार है।
घूम/ बतासिया लूप का आविष्कार
अनंत: घूम गोलमार्ग अथवा बतासिया लूप/गोलमार्ग एक आविष्कार ही है क्योंकि उस स्थान पर रेल को वापिस मुड़ना था। कुछ समय पूर्व तक वहां पर बाजार भरता था। अब उसे एक सुन्दर पर्यटन स्थल में परिवर्तित कर दिया गया है।
अनुराधा: मैं कुछ ३-४ वर्षों पूर्व दार्जिलिंग गयी थी। मैंने तब भी देखा था कि रेलगाड़ी के जाने के पश्चात लोग रेल की पटरियों पर ही अपनी दुकानें सजा लेते थे तथा रेलगाड़ी के आने का समय होते ही वहां से हट जाते थे । वह दृश्य मेरे लिए अत्यंत रोचक था।
अनंत: मैं गत वर्ष ही वहां गया था। घूम गोलमार्ग पर अब एक युद्ध स्मारक स्थापित किया गया है जिसके चारों ओर सुन्दर बाग बनाये गए हैं। वहां अब पटरियों पर कोई बाजार नहीं भरता है। उनके लिए व्यवस्थित दुकानें उपलब्ध कराई गयी हैं। घूम में एक सुन्दर रेल संग्रहालय भी है। उसमें दार्जिलिंग पर्वतीय रेलवे के अवशेषों को संरक्षित कर प्रदर्शित किया गया है, जैसे संकेत कंदील तथा अन्य यंत्र, जिनका प्रयोग उनमें किया जाता था। घूम संग्रहालय केवल कक्ष के भीतर ही नहीं है, अपितु बाहर भी छोटे गेज की रेलगाड़ी के कुछ पूर्वकालीन डिब्बे हैं जो अब उपयोगी नहीं हैं। कुछ पुराने इंजन भी हैं जिन्हें कक्ष के बाहर, शेड के नीचे रखा गया है।
रेलगाड़ी की पूर्वकालीन स्मृतियाँ
अनुराधा: दार्जिलिंग हिमालयन रेल में यात्रा करते हुए मैं प्राचीन काल में पहुँच गयी थी तथा कल्पना के विश्व में खो गयी थी। मैं अनुमान लगा सकती कि प्राचीन काल में रेल सेवा कैसी रही होगी। मैं प्राचीनकाल का सम्पूर्ण दृश्य अपने नैनों के समक्ष चित्रित कर रही थी। यह सत्य मुझे आज भी अचरज में डाल देता है कि १५० वर्षों पूर्व हमारे देश में रेलों का तंत्र विकसित हो गया था।
अनंत: सत्य कहा आपने। घूम रेलवे संग्रहालय में मार्क ट्वेन का एक रोचक आलेख है, “A journey of Darjeeling” जिनमें दार्जिलिंग हिमालयन रेल के सन्दर्भ में उनके द्वारा व्यक्त किये विचार हैं।
दार्जिलिंग हिमालयन रेल के पश्चात शिमला एवं ऊटी में क्रमशः सन् १९०३ तथा १९०८ में रेलवे सेवा आरम्भ हुई। शिमला को रेलवे सेवा द्वारा मुख्य धारा से जोड़ने का प्रमुख कारण था, प्रशासनिक तंत्र को शिमला तक सुगमता से पहुँचाना। इस ट्रेन का नाम रखा, कालका मेल। उस समय कलकत्ता देश की राजधानी थी। यह रेल सेवा हावड़ा को कालका से जोड़ती थी। यह पूर्वी भारतीय रेलवे के अंतर्गत प्राचीनतम रेल सेवाओं में से एक थी। वाईसराय अपने विशेष डिब्बे में बैठकर इस ट्रेन के द्वारा हावड़ा से कालका पहुँचते थे। वहां से अपने विशेष कक्ष में बैठकर शिमला तक जाते थे।
रैक एवं पिनियन का आविष्कार
रैक एवं पिनियन का प्रयोग वृत्तीय गति को रैखिक गति में या रैखिक गति को वृत्तीय गति में बदलने के लिए किया जाता है। ऊटी में रैक एवं पिनियन का आविष्कार अत्यंत कारगर सिद्ध हुआ। इस तकनीक से पर्वतीय क्षेत्र में चढ़ते समय, ट्रेन को उल्टी ढलान पर पीछे की ओर सरकने के रोकने में महत्वपूर्ण सफलता मिली थी। इसके प्रयोग से मेट्टूपलायम से निलगिरी तक की मनोरम यात्रा अत्यंत सुगम हो पायी। चौथी पर्वतीय रेल सेवा मुंबई के निकट माथेरान में स्थापित की गयी। सन् १९०७ में स्थापित यह छोटी दूरी की रेल सेवा लगभग १६-१८ किलोमीटर लम्बी थी जो नेरल एवं माथेरान के मध्य आरम्भ की गयी थी। यह एक पारसी व्यापारी द्वारा आरम्भ की गयी एक निजी रेल सेवा थी। अब यह ट्रेन अमन लॉज से माथेरान के मध्य चलती है।
इस सूची की अंतिम पर्वतीय रेल सेवा स्वतंत्रता के पश्चात अस्तित्व में आयी, जो है कांगड़ा घाटी रेलवे। इसकी आधार शिला लाल बहादुर शास्त्रीजी तथा उस समय के रेल मंत्री ने रखी थी। १९५० के दशक में यह सेवा आरम्भ हुई। यह पठानकोट से पालमपुर होते हुए जोगिंदरनगर जाती है। यह सर्वाधिक मनोरम दृश्यों से युक्त रेलवे में से एक है क्योंकि यह कांगड़ा घाटी से होकर जाती है।
इस प्रकार आरंभिक काल में भारत में स्थापित रेलवे सेवा को हम इन खण्डों में बाँट सकते हैं, निजी कंपनियों द्वारा स्थापित रेल सेवा, सरकारी तंत्रों द्वारा संचालित रेल सेवा, रियासतों द्वारा हयोंकियुक्त रेलवे में से एक है स्थापित रेल सेवा तथा पर्वतीय रेल सेवा। प्रत्येक खण्डों के अंतर्गत आती रेल सेवाओं की अपनी विशेषताएं थीं। ये सभी रेल सेवायें भारत की धरोहर हैं।
भारत की अखंडता का प्रतीक, भारतीय रेल
अनुराधा: सम्पूर्ण भारत में भिन्न भिन्न अंकुरों के समान स्फुरित विभिन्न रेल सेवाएँ अब सम्पूर्ण देश को एक व अखंड बनाती एकल, विशाल व सशक्त रेल सेवा में परिवर्तित हो गयी हैं। इसे देख आनंद मिश्रित अचरज होता है।
अनंत: सही कहा। इस महत्वपूर्ण धरोहर का आरम्भ मूलतः सैन्य प्रयोजनों में प्रयुक्त वस्त्रों के परिवहन तथा विदेशों में निर्यात होते कच्चे माल को बंदरगाह तक पहुँचाने के लिए किया गया था।
अनुराधा: अंततः व्यापार ही इस सेवा के आरम्भ का मूल संचालक था।
अनंत: सत्य तो यह है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा इसका आरम्भ मूलतः भारत की संपत्ति को ब्रिटेन ले जाने के लिए किया गया था। डॉक्टर शशी थरूर ने भी अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख किया है। यह एक भिन्न सत्य है कि इसका लाभ भारतीयों को भी प्राप्त हुआ है।
अनुराधा: जी हाँ। यह एक ऐसा विवाद है जो जारी रहेगा। किन्तु आज यह सत्य है कि भारतीय रेल हम भारतीयों के जीवन का एक अभिन्न अंग है। यह हम भारतीयों की जीवन रेखा है। ८०-९० के दशकों में पले -बढ़े हम भारतीयों के लिए यह किसी स्वप्निल यात्रा से कम नहीं है। लम्बी दूरी की यात्रा की कुछ अप्रतिम स्मृतियाँ हम सब के पास होंगी। भारतीय रेलवे के बिना भारत एवं हम भारतीयों के जीवन की कल्पना असंभव है।
रेल पर्यटन एवं रेलवे संजाल की स्थापना
अनंत: सत्य है। रेल की पटरियां कैसे बिछाई जाती हैं, उनका संजाल कैसे रेखांकित किया जाता है, उन्हें कैसे संचालित किया जाता है, ये सब भी एक अत्यंत रोचक है। इसके अतिरिक्त भारतीय रेलवे का इतिहास दर्शाते अनेक रेलवे संग्रहालय हैं जिनकी अपनी अपनी विशेषताएं हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, भारत में पर्यटन के अंतर्गत रेलवे पर्यटन का विशेष अस्तित्व एवं महत्त्व। एक स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में रेलवे पर्यटन को कैसे विकसित किया जा सकता है, यह भी एक आवश्यक व महत्वपूर्ण विषय है।
अनुराधा: मेरे पास भी इनसे सम्बंधित अनेक प्रश्न अब भी शेष है। मुझे अनुमति दीजिये कि उन प्रश्नों को आपके समक्ष रखने के लिए मैं आपको पुनः आमंत्रित कर सकूं ताकि आप हमें पुनः भारतीय रेलवे के इतिहास एवं धरोहरों के अद्भुत विश्व का भ्रमण कराएँ। भारतीय रेलवे एवं इसकी धरोहर के विषय में अवगत कराते हुए इतिहास की इतनी अप्रतिम यात्रा के लिए आपका हृदयपूर्वक आभार तथा धन्यवाद।
श्री अनंत जी से सफल संवाद के पश्चात मैं अपने पाठकों से कहना चाहती हूँ कि यदि वे अनंत जी से कुछ जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं अथवा प्रश्न करना चाहते हैं या रेलवे से सम्बंधित कुछ सुझाव देना चाहते हैं तो टिप्पणी खंड के द्वारा हमें सूचित करें। वे रेलवे प्रशासन में ऐसे पद पर कार्यरत है जो सम्बंधित व्यक्तियों के समक्ष आपकी आवश्यकताएं रख सकते हैं।
लिखित प्रतिलिपि: IndiTales Internship Program के अंतर्गत निकिता चंदोला ने तैयार की है।