भारत में रेशम को वैभव एवं समृद्धि के प्रमुख मापदंडों में से एक माना जाता है। पारिवारिक शुभ अवसरों एवं समारोहों में रेशमी वस्त्रों का प्रयोग आनंद को द्विगुणीत कर देता है। दमकते रेशमी वस्त्र धारणकर्ता को सुरुचिपूर्ण आभा प्रदान करता है जो अत्यंत राजसी प्रतीत होता है। हमारे विवाह समारोहों का तो क्या कहना! वर-वधु एवं परिवारजन, यहाँ तक कि अतिथिगण भी विभिन्न प्रकार एवं रंगों के रेशमी वस्त्रों को धारण कर मानो प्रदर्शनी ही लगाते हैं। अन्य समारोहों में भी रेशम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यहाँ तक कि देवालयों में भगवान के विग्रह को रेशमी वस्त्रों में सजाने व रेशमी वस्त्र अर्पण करने की प्रथा भी अनेक छोटे-बड़े मंदिरों में देखी जा सकती है। यही कारण है कि भारत रेशमी वस्त्रों का बड़ा उत्पादक भी है तथा सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है। हमारे देश में रेशमी वस्त्रों का ७५% से भी अधिक उपभोग रेशमी साड़ियों के रूप में होता है। अतः रेशम उत्पादकों ने भारतीय स्त्रियों को उनके रेशम प्रेम एवं लालसा के लिए धन्यवाद देना चाहिए।
यद्यपि आकांक्षा की दृष्टि से रेशम का उच्च स्थान है, तथापि कुल कपड़ा उत्पादन में रेशम उद्योग का योगदान लघु है। उस पर, रेशम का प्रकार उसके उत्पादन क्षेत्र से प्रगाढ़ रूप से जुड़ा होता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के रेशमी वस्त्रों की विशेषताएं भिन्न हैं। उनमें रेशम के कीट, रेशम की बुनाई, छपाई व कढ़ाई की रूपरेखा, कढ़ाई के प्रकार इत्यादि अनेक विविधताये होती हैं। रेशम को सामान्यतः उनके उत्पादन क्षेत्र से जोड़कर देखा जाता है, जैसे बनारसी, कांचीपुरम अथवा कांजीवरम, धर्मावरम, पैठणी इत्यादि। ये सब भौगोलिक संकेत हैं। भारत के अधिकतर रेशम उत्पादों को ये भौगोलिक संकेत का प्रतीक प्राप्त है। किन्तु इस विषय में चर्चा किसी अन्य संस्करण में करेंगे। यहाँ मैं आपसे भारत में उपलब्ध रेशम के विभिन्न प्रकारों के विषय में चर्चा कर रही हूँ। भारत में रेशम के कौन कौन से प्रकार हैं, उनका उत्पादन कहाँ कहाँ होता है, उनके किस प्रकार के रेशम-कीट होते हैं इत्यादि।
रेशम क्या है?
रेशम एवं सूती, दोनों ही प्राकृतिक वस्त्र हैं जो प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। सूती वस्त्रों के लिए सूत कपास के झाड़ से प्राप्त होता है, वहीं रेशमी वस्त्रों के लिए रेशम के धागे रेशम कीट से प्राप्त होते हैं। आईये देखते हैं रेशम कीट हमें ये चमकते रेशमी वस्त्र कैसे देते हैं।
तकनीकी रूप से देखा जाए तो रेशम के तंतु एक प्रकार के प्रोटीन से बनते हैं जिसे रेशम के कीट अपने जीवन चक्र की इल्ली अवस्था में द्रव रूप में स्त्रावित कर करते हैं। स्त्रवित होते ही यह प्रोटीन महीन, अत्यंत सुदृढ़ एवं अखंड तंतु का रूप ले लेते हैं। इसी तंतु का प्रयोग कर रेशमी वस्त्र तैयार किये जाते हैं। रेशम के विभिन्न प्रकार इस पर निर्भर करते हैं कि उन कीटों का भोजन क्या है। रेशम के कीटों का भोजन सामान्यतः विभिन्न प्रकार के पौधे एवं पत्ते हैं।
चूँकि रेशम का स्त्रोत प्राणी प्रोटीन है, रेशम एक प्राकृतिक प्रतिरोधक है जो हमें ग्रीष्म ऋतु में शीतलता प्रदान करती है तथा शीत ऋतु में उष्मा।
रेशम कीट का जीवन चक्र
रेशम कीट का ठेठ जीवन चक्र अण्डों से सूंडी अथवा इल्ली, इल्ली से प्यूपा तथा प्यूपा से पतंगाकीट होता है। अण्डों से निकलते ही इल्लियाँ द्रुत गति से पत्तियों का भक्षण कर कुछ दिनों में बड़ा आकार प्राप्त कर लेती हैं। इल्ली परिपक्व होते ही अपनी लार ग्रंथियों से एक प्रकार के द्रव का स्त्राव करती है जिसके द्वारा वह अपने चारों ओर संरक्षण प्यूपा कोष अथवा कोकून बनाती है। इस कोष के भीतर विकसित होकर अंततः वह एक वयस्क कीट में परिवर्तित होता है तथा उस कोष को खोल बाहर निकल जाता है।
एक मादा रेशम कीट बसंत ऋतु के आसपास एक समय में ३००-५०० अंडे देती है। यह एक वार्षिक गतिविधि है। अंडे सूक्ष्म, चपटे, गोलाकर तथा हलके पीले रंग के होते हैं जो एक तरल पदार्थ द्वारा पत्तियों से चिपक जाते हैं। योग्य ऊष्मा पाकर इन अण्डों में से इल्लियाँ निकलती हैं जो पत्तियों का भोजन करती हैं। लगभग एक मास तक पत्तियों की बड़ी मात्रा खाकर ये इल्लियाँ कुछ दिनों में परिपक्व हो जाती हैं।
परिपक्व इल्ली अपने चारों ओर कोष बुनना आरम्भ करती है जिसके लिए वह अपने शरीर से निकलते प्रोटीन का प्रयोग करती है तथा शीघ्रता से शरीर को घुमाती है। वास्तव में, अपने जीवन चक्र के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर रेशम कीट अपनी स्वयं की सुरक्षा के लिए कोष का निर्माण करती है। पूर्ण रूप से निर्मित कोष एक मुलायम कोमल कपास के गोले के समान दिखाई देता है। यह सम्पूर्ण गोला एक लंबे अखंड धागे द्वारा बुना हुआ होता है। इस अथक परिश्रम के पश्चात इल्ली कोष के भीतर कई दिवसों तक अविचल पड़ी रहती है। इसे प्यूपा चरण कहते हैं। कुछ दिनों पश्चात इस कोष से परिपक्व कीट बाहर आता है तथा अपनी प्रजाति का विकास करता है। किन्तु रेशम उत्पादक इस प्यूपा चरण में कोष को उबलते पानी में डालकर उसमें से रेशम के धागे निकालते हैं।
कोष के निकला तंतु उसी रूप में उपयोगी नहीं होता है। उपयोगी रूप में पहुँचने से पूर्व उस पर अनेक क्रियाएं की जाती हैं। उसे जल में उबालकर धागों को चिपचिपे गोंद से प्रथक किया जाता है। एक कोष से एक धागा निकलता है जो सैकड़ों मीटर लम्बा होता है तथा सेरिसिन नामक एक प्राकृतिक गोंद से जुड़ा हुआ होता है।
रेशम की खेती अथवा रेशम कोष उत्पादन को सेरीकल्चर अथवा रेशम कीट पालन कहते हैं। रेशम कीट पालन करने वाले रेशम उत्पादकों की सबसे बड़ी चुनौती इन रेशम कीटों को बीमारी तथा संक्रमण से मुक्त रखना होता है। अन्यथा उनकी उत्पादन क्षमता एवं गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।
रेशम के प्राकृतिक रंग
रेशम के तंतुओं का प्राकृतिक रंग उन पत्तियों के रंग पर निर्भर करता है जिन्हें वे इल्ली चरण में खाते हैं। जी हाँ, कोष में जाने से पूर्व कीटों की इल्लियाँ जो खाती हैं, रेशम का रंग उसी पर निर्धारित होता है। ‘आप जो खायेंगे, वही पायेंगे’, ये कीट इस कहावत का उत्तम उदहारण हैं। यद्यपि रेशम के प्राकृतिक रंग चटक एवं विविध नहीं होते हैं, तथापि उनके प्राकृतिक रंग धूमिल श्वेत से लेकर हलके भूरे रंग के मध्य होते हैं। प्राकृतिक रंगों के इन तंतुओं को धोया जाता है, स्वच्छ किया जाता है, प्रक्षालित कर फीका किया जाता है, तत्पश्चात उन्हें आवश्यकतानुसार विविध रंगों में रंगा जाता है।
प्राचीन काल में पारंपरिक रूप से प्राकृतिक वनस्पति स्त्रोतों से प्राप्त रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे पुष्प, लकड़ी, बीज, रसीले फल, तने की छाल, जड़ें आदि। नीला रंग नील के पौधों की पत्तियों से प्राप्त होता था। मंजिष्ठा के रसीले फलों से लाल रंग के विविध रूप प्राप्त होते थे। पीला रंग हल्दी, गेंदे के पुष्प, गौमूत्र इत्यादि से मिलते थे तो केसर से नारंगी के विविध रूप प्राप्त किये जाते थे। नीले एवं पीले रंगों के सम्मिश्रण से हरा रंग उत्पन्न किया जाता था। यद्यपि प्राकृतिक रंगों की विविधता सीमित होती हैं, तथापि प्राकृतिक स्त्रोतों से प्राप्त होने के कारण वे हमारे त्वचा के लिए हानिकारक नहीं होते हैं, ना ही वे पर्यावरण के लिए क्षतिकारक होते हैं। रासायनिक रंगों के आने से रंगों की विविधता में कई गुना वृद्धि हुई है किन्तु इसके विपरीत परिणाम भी होते हैं। रासायनिक रंगों के आने से रंगाई का कार्य आसान हो गया है तथा विविध रंगों की उत्पत्ति भी संभव हो गयी है क्योंकि रासायनिक रंगों का सम्मिश्रण आसान है।
रंगे हुए धागों को पारंपरिक तथा आधुनिक दोनों तकनीकों से कात कर लच्छे बनाए जाते हैं। तत्पश्चात विभिन्न बुनाई तकनीकों के प्रयोग से वस्त्र बुने जाते हैं। रेशम के धागों के जादू से विश्व प्रसिद्ध रेशमी वस्त्र तैयार किये जाते हैं।
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भारत में रेशम के विभिन्न प्रकार
रेशम के प्रकार दो कारकों पर निर्भर करते हैं, रेशम कीटों की प्रजाति एवं कोष बुनने से पूर्व उनके द्वारा खाए गए पत्तों का प्रकार। मोटे तौर पर उन्हें दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, मलबेरी रेशम तथा अन्य।
मलबरी रेशम
मलबरी रेशम एक सर्व-सामान्य रेशम का प्रकार है जो वैश्विक रेशम उत्पादन का लगभग ९०% है। भारत विश्व में मलबरी रेशम का दूसरा विशालतम उत्पादक है। यह बॉम्बिक्स मोरी नामक कीटों द्वारा निर्मित किया जाता है जो मलबरी अर्थात् शहतूत के पत्ते खाते हैं।
इस रेशम में एक प्राकृतिक चमक, चिकनापन व कोमलता होती है जो रेशमी वस्त्रों एवं साड़ियों की विशेषता होती है। इन कीटों के पालन के लिए शहतूत अथवा मलबरी की खेती की जाती है जिसमें बड़ी मात्रा में पत्तियाँ उपलब्ध होती हैं। इस तकनीक को मोरीकल्चर कहते हैं। एक इल्ली अपने जीवनकाल में ५०० ग्राम तक पत्तियाँ खा जाती है। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि ये इल्लियाँ कितनी पत्तियाँ खाती है, तो यह भी स्मरण रखें कि वे जो रेशम का उत्पादन करती हैं, वे भी सौ से अधिक वर्ष तक अक्षय रहती हैं।
मलबरी रेशम अत्यंत हल्की, कोमल एवं सशक्त होती है तथा उस पर एक प्राकृतिक चमक होती है।
वन्य रेशम – रेशम का एक वनीय प्रकार
भारत में मलबरी रेशम के अतिरिक्त जो रेशम है, उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है, टसर, मुगा तथा एरी। इन तीनों को वन्य रेशम कहा जाता है क्योंकि इसका सम्बन्ध वनों से है। यहाँ रेशम के कीट वन्य वृक्षों एवं पौधों पर जीवित रहते हैं। इसी कारण उनसे प्राप्त रेशम के रंग एवं गठन भिन्न होते हैं। इनकी बुनाई एवं गठन समरूप नहीं होते हैं जो रेशम वस्त्रों को एक भिन्न श्रेणी में ले आते हैं तथा अत्यंत असाधारण रूप प्रदान करते हैं। इसी कारण ये अत्यंत आकर्षक दिखते हैं। इस प्रकार के रेशम का उत्पादन मध्य एवं पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी जनजाति के लोग करते हैं। वे जंगली कोकूनों को वनों से एकत्र करते हैं तथा हथकरघे द्वारा उनसे रेशम का उत्पादन करते हैं।
टसर रेशम
यह रेशम मध्य भारत के टसर क्षेत्रों में उत्पादित किये जाते हैं। उनमें झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल तथा बिहार प्रमुख हैं। वन्य श्रेणी के रेशम में टसर रेशम का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। रेशम बुनकरों का यह सर्वाधिक प्रिय रेशम है। जीनस एंथेरिया नामक कीट वनों के पौधों तथा वृक्षों की पत्तियाँ खाते हैं तथा अपने कोष पर इस प्रकार के रेशम के धागे बुनते हैं।
एरी रेशम
एरी रेशम का उत्पादन सामिया रिसिनी तथा फिलोसामिया रिसिन प्रजातियों के कीटों द्वारा किया जाता है। एरी शब्द की व्युत्पत्ति एरा शब्द से हुई है। यह असमी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ अरण्डी होता है। इस रेशम का सम्बन्ध अरंडी के पौधे से है। इन प्रजातियों के कीट अरंडी के पत्ते खाते हैं तथा खुले कोष बनाते हैं। ये कीट असमान एवं अनियमित कोष बुनते हैं। इन कोकूनों को कीटों के उड़ जाने के पश्चात प्रयोग में लिया जाता है। इसीलिए इस प्रकार के रेशम को प्राकृतिक अहिंसा रेशम कहा जाता है। इसे एरंड अथवा अरण्डी रेशम भी कहा जाता है। एरी रेशम ऊबदार होता है तथा शीत ऋतु के लिए सर्वोत्तम वस्त्र होता है।
मुगा रेशम
यह रेशम अर्ध-पालतू multivoltine silkworm अर्थात् जो वर्ष में एक से अधिक बार प्रजनन करती है, द्वारा बुना जाता है जिसका नाम है, एन्थेरे आसामेंसिस (Antheraea assamensis)। ये कीट असम के सुगंधी सोम एवं सुआलू की पत्तियाँ खाते हैं। इस रेशम का रंग पीला-हरा होता है तथा चादोर एवं मेखला बुनने के लिए प्रथम चुनाव है। इस रेशम का उल्लेख रामायण जैसे अनेक प्राचीन ग्रंथो एवं महाकाव्यों में किया गया है। इस रेशम उद्योग को इस क्षेत्र के अहोम साम्राज्य से संरक्षण प्रदान किया था।
वन्य रेशम के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए केंद्रीय रेशम बोर्ड के वेबस्थल पर संपर्क करें।
अहिंसा रेशम
अहिंसा रेशम वह प्रकार है जिसमें इल्ली अथवा कीट को हानि नहीं पहुंचाई जाती है। इसमें कोष को जल में उबाला नहीं जाता है। इसके विपरीत, कोष में बंद इल्ली को परिपक्व होने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता है जिससे वह वयस्क कीट के रूप में बाहर आ जाता है। किन्तु वह कीट कोष को तोड़कर बाहर आता है जिससे एक एकल रेशम का लम्बा तंतु अनेक भागों में विभक्त हो जाता है। तदनंतर इन्हें करघे में कातकर लम्बा धागा तैयार किया जाता है। अतिरिक्त कार्य होने के कारण इस रेशम के मूल्य में भी वृद्धि हो जाती है। अंतिम उत्पाद वही होता है किन्तु इसमें कीट को परिपक्व होकर उड़ने दिया जाता है। इसीलिए इसे अहिंसा रेशम कहा जाता है।
भारत में रेशम का उत्पादन कहाँ होता है?
विश्व में रेशम की ९५% से भी अधिक मात्रा का उत्पादन एशिया में होता है। उसका अधिकतम भाग चीन एवं भारत में बनाया जाता है। वर्ष २०२०-२१ में भारत ने ३३७७१ मीट्रिक टन रेशम के धागों का उत्पादन किया था। इसमें दक्षिण एवं उत्तर-पूर्वी भारत का सर्वाधिक योगदान था। भारत में कर्णाटक, आन्ध्र प्रदेश, झारखंड तथा आसाम इस दौड़ में सबसे आगे हैं।
विभिन्न प्रकार के रेशम उत्पादन के लिए भारत को कुल पांच रेशम विभागों में बाँटा जा सकता है जिनमें निम्न राज्य सम्मिलित हैं:
- कर्णाटक, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडू, महाराष्ट्र, तेलंगाना, केरल – ६०%
- उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात
- झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार – १०%
- जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा
- आसाम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, अरुणांचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम – २२%
रेशम के प्रमुख प्रकार एक क्षेत्र में केन्द्रित होते हैं जिनकी अपनी बुनाई तकनीक, रंग एवं आकृतियाँ होती हैं। जैसे, बनारस के तन्छोई एवं जम्दानी, दक्खन का पैठणी, बंगाल का बालुचरी इत्यादि।
रेशम की खेती
रेशम की खेती एवं उत्पादन भारत का प्रमुख लघु उद्योग एवं कुटीर उद्योग है जिसमें २५ राज्यों के ५९,००० गाँवों के ७० लाख से भी अधिक कारीगर कार्यरत हैं। उनमें से ६०% से अधिक कारीगर स्त्रियाँ हैं। औद्योगीकरण एवं आधुनिकरण की लहर के मध्य भी यह उद्योग अनवरत व अखंडित है। भारत जिस आत्मनिर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की ओर अग्रसर है, यह उद्योग उसका अग्रदूत सिद्ध होगा। साथ ही, रेशम की सांस्कृतिक एवं पारंपरिक महत्ता उपभोक्ताओं द्वारा इसकी नियमित माँग को भी सुनिश्चित करती रहेगी। हमारे रेशम के किसान, बुनकर तथा फैशन डिज़ाइनर यह सुनिश्चित करते हैं कि वे अपने हाथों से रचे व बुने रेशमी उत्पादों से उपभोक्ताओं की माँगों को पूर्ण करने में कोई कमी नहीं रहने देंगे।
वर्तमान में हमारी खपत हमारी उत्पादन क्षमता से कहीं अधिक है। इस कारण हमें रेशम का आयात करना पड़ता है। इसका यह अर्थ है कि भारत में नव-युगीन उद्यमियों के लिए असीमित संभावनाएं उपलब्ध हैं कि वे रेशम के कच्चे माल का उत्पादन बढ़ाएं, रेशम के नवीन उपयोगों की खोज करें तथा उन्हें विकसित करें, हमारी पुरातन संस्कृति एवं परम्पराओं को भविष्य की जीवन शैली से जोड़ने के विभिन्न साधन ढूंढें।
रेशम उत्पादन एवं उसके प्रकार पर प्रकाशित यह संस्करण भारत के सिल्क मार्क ऑर्गेनाइजेशन के सहयोग से लिखा गया है।