“इस धरा के विभिन्न क्षेत्रों में भारत खंड एकमात्र सर्वाधिक विशिष्ट क्षेत्र है। वहीं भारत खंड के सभी प्रदेशों में उत्कल सर्वाधिक प्रसिद्धि का दावा करता है। उत्कल का सम्पूर्ण क्षेत्र एक विशाल अखंड तीर्थ है। इसके आनंदमय निवासियों ने पुण्यात्माओं के विश्व में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। जो इस पावन धरती की यात्रा करते हैं व यहाँ की पवित्र नदियों में स्नान करते हैं, वे अपने पहाड़ों से भी भारी पापों से मुक्ति पा जाते हैं। इसकी पावन धरती का स्पर्श, इसकी पवित्र नदियाँ, मंदिर, विभिन्न पावन क्षेत्र, यहाँ पनपते सुगंधी पुष्प तथा अमृततुल्य फलों की मधुरता तथा इस क्षेत्र की बहुआयामी महत्ता के विषय में पूर्ण वर्णन कौन कर सकता है? यह एक ऐसा गौरवपूर्ण स्थान है जिसके दर्शन भर से देवता भी स्वयं को धन्य मानते हैं” – कपिल संहिता।
“उत्कल (ओडिशा) में भगवान कृत्तिवास (शिवजी) का क्षेत्र है। यह क्षेत्र सभी पापों से मुक्ति प्रदान करता है। ऐसे क्षेत्र अत्यंत विरले होते हैं। यहाँ करोड़ों की संख्या में शिवलिंग हैं। महत्ता में यह वाराणसी के समकक्ष है। एकाम्र क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध इस क्षेत्र में आठ प्रमुख तीर्थ हैं” – ब्रह्म पुराण।
भुवनेश्वर – भारत की धरोहर नगरी
ऐतिहासिक रूपरेखा
भिन्न भिन्न भौगोलिक सीमाओं में सीमित ओडिशा का वर्तमान क्षेत्र प्राचीनकाल व मध्ययुगीन काल में कलिंग, ओड्र अथवा उत्कल के नाम से प्रसिद्ध था। अशोक, शर-ए-कुना तथा शाहबाज गढ़ी के कांधार शिलालेखों में कलिंग के आरंभिक सन्दर्भ प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों में कलिंग युद्ध तथा उसके पश्चात उसका मौर्य साम्राज्य में विलय का उल्लेख है। यह युद्ध ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। कलिंग आक्रमण सम्राट अशोक के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि कलिंग युद्ध में हुए भीषण रक्तपात को देखने के पश्चात सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था।
कलिंग
कलिंग के नाम का उल्लेख खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेखों में भी किया गया है। इन अभिलेखों में सम्राट अशोक को कलिंगाधिपति के नाम से संबोधित किया गया है। इन अभिलेखों का समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी बताया जाता है। इसका उल्लेख प्लिनी के प्राकृतिक इतिहास (Pliny’s Natural History) में भारत के पूर्वी तट पर बसे एक स्थल के रूप में किया गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में जम्बुद्वीप (भारतवर्ष) के प्रान्तों में कलिंग एवं उत्कल के नाम भी सम्मिलित हैं। वहीं, महाभारत के सभा पर्व में कलिंग के राजा की ओर से दिया गया हस्तिदंत द्वारा निर्मित एक उपहार का भी उल्लेख है।
उसी महाभारत के द्रोण पर्व से हमें यह ज्ञात होता है कि कलिंग के राजकुमार ने महाभारत के युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। सातवीं सदी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने भी राज्य की राजधानी की यात्रा की थी जिसका उल्लेख उसने ‘की-लिंग-किया’ के रूप में किया था।
ओड्र
ओड्र का प्रारंभिक सन्दर्भ प्लिनी के प्राकृतिक इतिहास के छठे ग्रन्थ में पाया गया है। उस में ओरेटी नामक देश की परिकल्पना है जिसके राजा के पास केवल १० हाथी तथा एक विशाल सेना है। इतिहासकार ने मोनाडीस व सुआरि नामक दो जनजातियों का भी उल्लेख किया है जो मौलिअस पर्वत के निवासी थे। कन्निंग्हम के अनुसार ओरेटी ओड्र है, मौलिअस का तात्पर्य महेंद्र है तथा मोनाडीस व सुआरि नामक जनजाती कुछ अन्य नहीं, अपितु मुंडा एवं सुआर जनजाति हैं। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग की यात्रा के विषय में कन्निंग्हम ने टिप्पणी की थी कि ह्वेन त्सांग का वू चा एक ओड्र निवासी था। यद्यपि ओड्रा शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, तथापि व्यापक रूप से स्वीकृत सिद्धांतों के अनुसार यह शब्द यहाँ के स्थानिकों की जाति के नाम पर आधारित है। भारतीय सांस्कृतिक शोधकर्ता व इतिहासकार राजा राजेन्द्र लाल मित्रा ने ओडा जनजाति का उल्लेख किया है जो ओडिशा के विभिन्न क्षेत्रों के निवासी हैं तथा आदिवासियों के वंशज हैं।
उत्कल
हरिवंश पुराण के १०वें अध्याय में उत्कल की कथा कही गयी है। इस कथा के अनुसार, वैवस्वत मनु ने जब मित्र एवं वरुण देवताओं को समर्पित करते हुए हवन-यज्ञ किया था तब उस यज्ञ कुण्ड से इला नामक सुन्दरी प्रकट हुई थी। किन्तु इला मनु के संग जाने के लिए तत्पर नहीं थी। तब मित्र एवं वरुण ने इला के दो भाग किये। एक भाग सुद्दुम्न्य नामक पुरुष तथा दूसरा भाग इला नामक स्त्री में परिवर्तित हो गया। इला ने बुध गृह के स्वामी बुध से विवाह कर पुरुरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। वहीं, सुद्दुम्न्य के तीन पुत्र हुए, उत्कल, गया एवं विनता। उत्कल को उत्कल क्षेत्र राजधानी के रूप में प्राप्त हुई।
यूँ तो उत्कल से सम्बंधित अनेक सन्दर्भ विभिन्न ग्रंथों, अभिलेखों व अन्य साहित्यों में प्राप्त होते हैं। उन सभी तथ्यों को सत्यापित करने का ना तो यह स्थान है ना ही समय। हम यहाँ केवल कुछ प्रारंभिक सन्दर्भों को प्रकाशित करना चाहते हैं। अतः, उनमें से कुछ का ही यहाँ उल्लेख किया गया है। हमारा उद्देश्य केवल यह दर्शाना है कि आधुनिक ओडिशा क्षेत्र का प्राचीनतम इतिहास मौर्य काल तक जाता है। इस तथ्य को दो अशोक शिलालेखों द्वारा सत्यापित किया गया है जिन्हें इस राज्य में ही खोजा गया था।
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भुवनेश्वर की किवदंतियां
भुवनेश्वर से सम्बंधित किवदंतियों एवं लघु कथाओं की चर्चा करें तो भुवनेश्वर के सन्दर्भ में आरंभिक शोधकर्ताओं ने अनेक कथाएं कहीं हैं। इतिहासकार व शोधकर्ता ऐंड्रू स्टर्लिंग ने सर्वप्रथम ओडिशा के इतिहास पर शोधकार्य का प्रकाशन किया था। स्टर्लिंग के अनुसार, कटक के विद्वानों का मानना है कि कलियुग के आरंभिक काल में, भारत के ऊपरी भाग के विशाल राजवंश के पतन के पश्चात हिन्दू राजवंशों की चार प्रमुख गद्दियों ने देश पर शासन किया था। वे थे, नरपति राजवंश, अश्वपति राजवंश, छत्रपति राजवंश तथा गजपति राजवंश। तेलंगाना एवं कर्णाटक के क्षेत्रों पर नरपति राजवंश का अधिपत्य था। अश्वपति राजवंश का मराठा क्षेत्रों पर शासन था। छत्रपति राजवंश जयपुर के राजपूत शासक थे तथा ओडिशा के क्षेत्रों पर गजपति राजवंश साम्राज्य था।
पुरी
ओडिशा का पुरी प्राचीन काल से ही एक हिन्दू तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। स्टर्लिंग को ज्ञात हुआ कि उत्कल-देश में चार तीर्थ स्थल हैं, जो चार विशेष पावन उद्देश्यों से सम्बंधित हैं। वे थे, हर-क्षेत्र, विष्णु अथवा पुरुषोत्तम-क्षेत्र, अर्क अथवा पद्म-क्षेत्र तथा विजयी अथवा पार्वती-क्षेत्र। हर-क्षेत्र ही वर्तमान में भुवनेश्वर है। पुरी पुरुषोत्तम-क्षेत्र है। अर्क-क्षेत्र कोणार्क है तथा पार्वती-क्षेत्र जाजपुर में है।
स्टर्लिंग
भुवनेश्वर पर स्टर्लिंग ने उल्लेख किया है, “कटक से सोलह मील की दूरी पर, नवीन मार्ग पर स्थित बलवंता में एक यात्री की दृष्टि, पड़ोसी राज्य खुर्दा की सीमा को घेरते घने वनों के मध्य से उभरते, पत्थर के एक ऊंचे विशाल स्तम्भ पर पड़ी। वनों के मध्य से उस जिज्ञासा की वस्तु की ओर जाता एक पथ था जो छह मीलों के पश्चात फूलकर लौह युक्त मिट्टी की ऊंची चट्टान में परिवर्तित हो गया।
वहां पहुँचते ही आप विस्मय से देखेंगे, एक विध्वस्त नगरी के मध्य, जो केवल वीरान ध्वस्त दुर्ग एवं महादेव की आराधना से पावन हुए मंदिरों से आच्छादित है, जिसे अनेक उपाधियाँ प्राप्त हुईं जिसे असंगत किवदंतियों तथा अनुयायियों की कल्पनाओं ने भगवान से सम्बद्ध किया है, उन सब के मध्य से लिंग राज के शिवालय का अद्वितीय रूप प्रकट हो रहा है, आकार व विशालता दोनों में तथा वास्तुशिल्प की उत्कृष्टता के अनुसार उल्लेखनीय रूप से विशिष्ट ”
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भुवनेश्वर – ओडिशा की राजधानी
ओडिशा की वर्तमान राजधानी भुवनेश्वर है। सन् १९३६ में, भारत में ब्रिटिश राज के काल में, बंगाल प्रेसीडेंसी से विभक्त होकर ओडिशा एक पृथक प्रान्त बना जिसकी राजधानी कटक थी। स्वतंत्रता के पश्चात्, सन् १९५६ में हुए राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात्, ओडिशा १४ नवनिर्मित राज्यों में से एक था। सन् १९४८ में ओडिशा की राजधानी को कटक से भुवनेश्वर स्थानांतरित किया गया।
भुवनेश्वर २००० वर्ष प्राचीन, समृद्ध व अखंडित सांस्कृतिक धरोहर पर गौरान्वित अनुभव करता है। एक ओर इसका इतिहास हमें भारत के आरंभिक आलेखित इतिहास तक पीछे ले जाता है तो दूसरी ओर वह हमें हिन्दू वर्चस्व की समृद्धि की पराकाष्ठा के अंतिम चरण तक लाता है। इस स्थान का आरंभिक आलेखित इतिहास शिशुपालगढ़ की ओर संकेत करता है जिसकी पुरातनता ३री से ४थी ई.पू. काल पीछे तक जाती है।
शिशुपालगढ़
शिशुपालगढ़ मौर्य काल तक एक समृद्ध नगर था। कलिंग पर विजय प्राप्त करने के पश्चात सम्राट अशोक ने इसे दो भागों में विभक्त कर दिया था, तोसली व समापा। अपने नव विजय प्राप्त क्षेत्र में प्रजा की आस्था एवं विश्वास संपादन करने के उद्देश्य से अशोक ने दो शिलालेखों की स्थापना की, एक धौली में तथा एक जौगड़ा में, जिसमें राज्य के अधिकारियों से अपेक्षित आचरण का विवरण प्रदर्शित किया था। धौली शिलालेख में उल्लेखित विभाजन का नाम तोसली है।
भारतीय इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा साहित्यिक विशेषज्ञ, ओडिशा के कृष्ण चन्द्र पाणिग्रही तोसली को ही शिशुपालगढ़ कहते हैं। उनके अनुसार मौर्य साम्राज्य से पूर्व धौली की पुरातनता का कोई प्रमाण नहीं है। मौर्य शासनकाल में बौद्ध धर्म का पालन प्रचलन में था। किन्तु अशोक कालीन शिलालेखों एवं राजधानी के स्तंभों व अन्य संरचनाओं के कुछ अवशेषों के अतिरिक्त उस काल से सम्बंधित अब कुछ भी अस्तित्व में नहीं हैं।
सम्राट खारवेल
कलिंग मौर्य वंश के अधिपत्य में अधिक काल तक नहीं रह पाया क्योंकि उसे चेदि राजवंश के सम्राट खारवेल ने छीन लिया था। ऐसा कहा जाता है कि प्रथम सदी ई.पू. के अंतराल में सम्राट खारवेल कलिंग के एकमात्र संप्रभु थे। सम्राट खारवेल ने राजधानी कलिंग नगर से शासन का कार्यभार चलाया था जिसे हम सुविधाजनक रूप से शिशुपालगढ़ कह सकते हैं। चेदि राजवंश के शासनकाल में जैन धर्म ने बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक विकास किया। इस नगर के आसपास, खंडगिरि एवं उदयगिरि पहाड़ियों पर, अनेक गुफा मंदिर उत्खनित किये गए हैं।
खारवेल साम्राज्य के पश्चात, ओडिशा का स्वर्णिम इतिहास अप्रसिद्धि की परतों में लुप्त हो गया क्योंकि उसके पश्चात् उसका राजनैतिक इतिहास अत्यंत कलुषित है। जब भारत के अधितम क्षेत्रों में गुप्त वंश का आधिपत्य स्थापित हुआ तब ओडिशा में भी आशा की किरण प्रकट होने लगी थी। यद्यपि यह स्पष्टतः ज्ञात नहीं है कि गुप्त काल में कलिंग का राजनैतिक महत्व कितना था, तथापि यह मत अवश्य व्यक्त किया जाता है कि गुप्त राजवंश के संरक्षण में कलिंग पर विग्रह राजवंश ने शासन किया था। एक ओर जहां गुप्त राजवंश के शासनकाल में भारत के अन्य भागों में ब्राह्मणवाद पुनर्जीवित हो रहा था, वहीं कलिंग राज्य ने बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म की मान्यताओं को छोड़कर शैव धर्म को अपना लिया था। इस धार्मिक आन्दोलन में लकुलीश पंथ का महत्वपूर्ण प्रभाव था। उस काल से भुवनेश्वर एकाम्र-कानन, एकाम्र-वन अथवा एकाम्र-क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा था।
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एकाम्र
एकाम्र के विषय में आरंभिक पुरालेखिक सन्दर्भ गुप्त वंश के २८० वर्षों के राज्यकाल से सम्बंधित एक शिलालेख से प्राप्त होता है जो लगभग ६०० ईसवी के समतुल्य है। यह शिलालेख विग्रह राजवंश के अंतर्गत आता है। इस शिलालेख में एकम्बक का उल्लेख है जो एकाम्र की ओर संकेत करता है। धार्मिक गतिविधियों के विस्तार के कारण भुवनेश्वर ने शीघ्र ही एक लोकप्रिय पवित्र तीर्थ की प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। ९वीं-१०वीं सदी के भौमकार काल के एक शिलालेख में किये गए उल्लेख के अनुसार, संतिकरदेवा नामक एक राजा ने एकाम्र तीर्थ का भ्रमण किया था तथा भूदान द्वारा बिन्दुसागर को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। भुवनेश्वर से सम्बंधित कालांतर के अनेक अभिलेखों में भी इस क्षेत्र को एकाम्र नाम से ही संबोधित किया था जिसके अधिष्ठात्र देव कृत्तिवास थे। इस के अधिष्ठात्र देव के नाम पर इस क्षेत्र को कृत्तिवास कटक भी कहा जाता था।
सन्दर्भ
कपिल- संहिता, पुरुषोत्तम-माहात्म्य, एकाम्र-चन्द्रिका तथा तीर्थ-चिंतामणि में एकाम्र क्षेत्र से सम्बंधित सन्दर्भ हैं। इनमें कपिल-संहिता सर्वाधिक प्राचीन है। कुछ अन्य पुराणों में भी कपिल-संहिता का उल्लेख है। कपिल-संहिता को १८ उप-पुराणों में से एक माना जाता है तथा यह ११वीं ई. से सम्बंधित है। कपिल-संहिता में उत्कल-क्षेत्र, हर-क्षेत्र, अर्क-क्षेत्र, पुरुषोत्तम-क्षेत्र तथा पार्वती-क्षेत्र के तीर्थों का उल्लेख है।
एकाम्र पुराण स्वयं को एक उप-पुराण घोषित करता है। यह एक शैव साहित्य है। पुरुषोत्तम-माहात्म्य एकाम्र-पुराण से लघु है तथा स्वयं को स्कन्द पुराण का भाग मानता है जो प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि नारद पुराण इसे स्कन्द पुराण का भाग नहीं मानता है। पुरुषोत्तम-माहात्म्य जगन्नाथ की स्तुति एवं पुरी की प्रशंसा को समर्पित है। एकाम्र-चन्द्रिका एक प्रकार से तीर्थयात्रा निर्देशिका है जिसमें भुवनेश्वर के विभिन्न मंदिरों, पवित्र कुण्डों तथा जल स्त्रोतों के विषय में विस्तृत उल्लेख है। इसके अतिरिक्त, इन तीर्थस्थलों की यात्रा करने एवं यहाँ विभिन्न अनुष्ठान करने के लाभों के विषय में भी बताया गया है। इसमें धार्मिक अथवा लोक कथाएं एवं उपाख्यान अधिक नहीं हैं, अपितु यह माहात्म्य धार्मिक मंत्रों पर ही केन्द्रित है।
वाचस्पति मिश्र की तीर्थ-चिंतामणि १३वीं सदी की रचना है। इसमें भारत के उन सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दी गयी है जिनकी एक धर्मनिष्ठ हिन्दू ने अपने जीवनकाल में कम से कम एक यात्रा अवश्य करनी चाहिए।
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कपिल संहिता
कपिल संहिता की एक कथा के अनुसार, राजा शल्यजीत सभी पवित्र तीर्थस्थलों के विषय में जानना चाहते हैं। उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कपिल मुनि कहते हैं, “सभी महाद्वीपों में भारत महाद्वीप, सभी देशों में उत्कल देश सर्वाधिक महान है। सम्पूर्ण धरती में इसके जैसा उत्कृष्ट देश नहीं है। पुरातन काल में, पुष्कर के पावन जल के समीप एकत्र मुनियों को आत्मज्ञान की प्राप्ति लिए, महान मुनि भारद्वाज ने उत्कल के पवित्र स्थलों का ही सुझाव दिया था। उनके विषय में मैंने जो कुछ सुना है, मैं आपको अवश्य बताउँगा।” कपिल संहिता में उड़ीसा के चार पवित्र क्षेत्र के उद्भव के विषय में क्रमवार जानकारी दी गयी है, शंख क्षेत्र या पुरी, अर्क क्षेत्र या कोणार्क, विरजा क्षेत्र या जाजपुर तथा पद्म क्षेत्र अथवा भुवनेश्वर। कालांतर के संतों ने इसमें पाँचवाँ क्षेत्र भी जोड़ा, दर्पण में गणेश। किन्तु काल के साथ इसकी महत्ता में अधिक वृद्धि नहीं हुई।
त्रेता युग
उत्कल प्रदेश की स्थापना के विषय में कपिल संहिता में लिखा है, “ त्रेता युग में भगवान शिव पाप एवं कोलाहल भरे अति संकुलित वाराणसी से निवृत्ति चाहते थे। इस विषय में उन्होंने नारद मुनि से परामर्श लिया। नारद मुनि के सुझाव पर उन्होंने अपने आवास हेतु इस शांत, एकांत व रमणीय स्थान का चयन किया था।” इतिहासकार राजेन्द्र लाल मित्रा के अनुसार, भुवनेश्वर को मूल वाराणसी के प्रतिरूप के रूप में ढालने में सूक्ष्म से सूक्ष्म तथ्यों का भी ध्यान रखा गया था। वाराणसी के प्रत्येक मंदिर, प्रत्येक स्तम्भ, प्रत्येक नदी, प्रत्येक समारोह, प्रत्येक अनुष्ठान तथा प्रत्येक दिव्य चरित्र की प्रतिकृति भुवनेश्वर में बनाई गयी।
एकाम्र नाम की व्युत्पत्ति के विषय में कपिल संहिता में उल्लेख है कि , “पुरातन काल में इस स्थान पर आम का एक अत्यंत लाभकारी वृक्ष था। चूँकि वहां केवल एक ही वृक्ष था, उस स्थान को एक आम्र वृक्ष का वन कहा गया। एक उन्नत वृक्ष, मणि सदृश पत्तों से लदी विशालकाय शाखाएं, पुण्य, संपत्ति, इच्छित वस्तुएं एवं मोक्ष के चौगुने आशीष प्रदान करते फल। इसी कारण इस स्थान का नाम एकाम्र पड़ा।
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शिव पुराण
“भगवान शिव को कौन सा स्थान सर्वाधिक प्रिय है?” शिव पुराण की एक कथा में, माँ दुर्गा द्वारा पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने कहा, “हे पर्वतराज पुत्री, हे देवी, तुमने मुझसे अत्यधिक प्रेम किया है। इसलिए तुम्हारी संतुष्टि के लिए मैं तुम्हे अवश्य बताउँगा कि इस पृथ्वी पर मेरा सर्वाधिक प्रिय क्षेत्र कौन सा है। दक्षिणी महासागर के समीप, एक महान उत्कल क्षेत्र है जिसमें एक अप्रतिम नदी है तथा जिसका जल स्त्रोत विन्ध्य पर्वत की तलहटी से आता है। यह नदी पूर्व की ओर बहती है। इस नदी से गंधवती नामक एक आकर्षक जलधारा निकलती है जो गंगा सदृश है तथा उत्तर की ओर बहती है।
इस जलधारा पर, सुनहरे कमलों के मध्य कलहंस तथा कारण्डव के झुण्ड मंडराते रहते हैं। इसका जल सभी पापों का नाश करता है तथा आगे जाकर यह दक्षिण महासागर में समा जाती है। इसके तट पर एक वन है जो मुझे अत्यंत प्रिय है। यह सभी पापों का नाशक है। यह सभी पावन स्थलों से भी सर्वाधिक पावन स्थल है। यह स्थान एकाम्र नाम से जाना जाता है। वैभव एवं ऐश्वर्य से ओतप्रोत इस स्थान पर सभी छह ऋतुएँ सदा उपस्थित रहते हैं। हे पार्वती, वह मेरा क्षेत्र है। वह स्थान कैलाश सदृश है।”
यह स्पष्ट नहीं है कि किस काल से यह नगर भुवनेश्वर के नाम से जाना जाने लगा था। लिंगराज मंदिर में स्थित १२वीं सदी के एक शिलालेख में मंदिर के अधिष्ठात्र देव का नाम त्रिभुवनेश्वर बताया गया है। निःसंदेह ही भुवनेश्वर नाम की व्युत्पत्ति त्रिभुवनेश्वर से हुई है। शीघ्र ही यह नाम कृत्तिवास नाम से अधिक लोकप्रिय हो गया।
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शक्ति तीर्थ
भुवनेश्वर ना केवल शैव तत्वों के लिए प्रसिद्ध था, अपितु यह एक पवित्र शक्ति तीर्थ भी था। इसकी प्रमुख देवी कीर्तिमती के नाम से जानी जाती थी। उनके विषय में सम्बंधित सन्दर्भ मत्स्य पुराण में पाए गए हैं। एक अन्य तंत्र ग्रन्थ, तंत्रसार ने यहाँ की प्रमुख देवी का नाम भागवाहा बताया है। शिव पुराण के उत्कल खंड में चार शक्ति पीठों का उल्लेख है, केदार एवं भावापीठ रूपी गौरी, उत्तरेश्वर एवं महाश्मशान पीठ के रूप में उत्तरेश्वरी, लिंगराज में स्व पीठ के रूप में गोपालिनी तथा वृहद पीठ के रूप में वैद्यनाथ।
आरंभिक यूरोपीय खोजकर्ता एवं भुवनेश्वर
ऐंड्रू स्टर्लिंग
ऐंड्रू स्टर्लिंग आरंभिक यूरोपीय खोजकर्ता थे जिन्होंने उड़ीसा क्षेत्र, उसका भूगोल तथा उसकी संस्कृति के विषय में शोध किया तथा अपने निष्कर्ष प्रकाशित किये थे। उन्होंने लिखा था, “ हर दशा में, युरोपीय खोजकर्ता शीघ्र ही इस परिणाम पर पहुँच जायेगा कि इसकी पौराणिक महत्ता होने के पश्चात भी, इस देश की मिट्टी साधारणतः बंजर एवं निष्फल है। इसके सभी प्राकृतिक उत्पादनों की गुणवत्ता निम्न स्तर की है। नैतिकता एवं बुद्धिमत्ता के मानदंड पर, भारत के इस भाग के अन्य निवासियों की तुलना में इस स्थान के रहवासी सर्वाधिक निचले स्तर के हैं।”
विलियम विलसन हन्टर
विलियम विलसन हन्टर दूसरे यूरोपीय थे जिन्होंने उड़ीसा के विषय में लिखा था। उन्होंने लिखा, “उड़ीसा जिनका पोषण करती है, उन नागरिकों ने मानव स्वातंत्र्य की दिशा में कोई महान युद्ध नहीं किया है। ना ही प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त उसे मानव के अधीन करने जैसे मूल कार्य में कोई सफलता प्राप्त की है। उनके लिए, सम्पूर्ण विश्व उनका ऋणी है क्योंकि उन्होंने एक भी ऐसी खोज नहीं की जिससे उनके सुख-साधनों में वृद्धि हो अथवा जीवन की आपदाओं में कमी आये। साहित्यिक दृष्टि से भी, जिसे भारतीय जाति का विचित्र यश माना जाता है, उन्होंने कोई विशिष्ट विजय प्राप्त नहीं की है। उन्होंने कोई प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना नहीं की है, दर्शन शास्त्र के किसी पृथक विद्यालय की स्थापना नहीं की है, ना ही किसी नवीन कानून व्यवस्था का विस्तार ही किया है।
इसके पश्चात भी, यदि मैंने अपने शोधकार्य के प्रति किसी भी स्तर का न्याय किया है तो, मेरे निष्कर्ष इतिहास की घटनाओं एवं उनसे फलीभूत दृश्यों को निष्पन्न करती हैं। एक ओर जहां यूरोप की प्रकृति अत्यंत शीत व रूखी है, वहीं प्रकृति यहाँ अतिप्राचीन रूप से अंधाधुंध श्रम करती है, मानो उसके समक्ष महान अपूर्ण सृष्टि कार्य हो। मानो उड़ीसा के इस एकल प्रांत में, उसने नदी के मुहाने के चारों ओर के अर्ध-घटित स्थल-जलचर क्षेत्र से लेकर प्रदेश के भीतरी पहाड़ी क्षेत्रों की प्राचीन चट्टानों की भीड़ तक, अपनी हस्तकला की सभी कलाकृतियों को, किसी विशाल संग्रहालय के रूप में एकत्र कर दिया हो।”
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राजा राजेन्द्र लाल मित्रा
राजा राजेन्द्र लाल मित्रा प्रथम भारतीय सांस्कृतिक शोधकर्ता व इतिहासकार हैं जिन्होंने भुवनेश्वर के विषय में शोधकार्य कर उसे प्रकाशित किया था। उन्होंने लिखा, “वर्तमान में भुवनेश्वर एक लघु, महत्वहीन, अनाकर्षक व अरुचिकर स्थान है, जहां ना समृद्धि है, ना कोई व्यापार है, ना ही कोई कारखाना है। भूखे पुजारियों से भरा यह स्थान हर प्रकार से उजाड़ है। फिर भी, पुरातात्विकता के आधार पर यह सर्वाधिक रुचिकर क्षेत्र है, यहाँ प्रचुर मात्रा में उत्कृष्ट पुरातात्विक अवशेष हैं तथा दुर्लभ महत्त्व के ऐतिहासिक सन्दर्भों से जुड़ा हुआ है।
यद्यपि १८वीं सदी में यह स्थान प्रसिद्ध नहीं था, औद्योगिक नहीं था, तथापि यह स्थान अपनी पुरातनता व पुरातात्विक अवशेषों के लिए शीघ्र ही अत्यंत प्रसिद्ध व लोकप्रिय हो गया।
जेम्स फर्ग्यूसन
स्थापत्य इतिहासकार जेम्स फर्ग्यूसन ने लिखा है, “इसके विपरीत, अन्य शैलियों का मिश्रण ना होने के कारण उड़ीसा की शैली शुद्ध है, इसी के परिणाम स्वरूप यह भारत के सर्वाधिक सुगठित एवं सजातीय वास्तुकला समूहों में से एक है। अतः यह सामान्य से अधिक रूचि का अधिकारी है। इसके फलस्वरूप इस प्रांत की स्थापत्यशैली का अध्ययन सर्वाधिक लाभकारी होगा।”
मंदिरों की नगरी भुवनेश्वर
भुवनेश्वर के स्थानिकों ने स्टर्लिंग को जानकारी दी कि प्राचीनकाल में भुवनेश्वर में ७००० से अधिक शिव मंदिर थे जिनमें एक करोड़ से भी अधिक शिवलिंग थे। यद्यपि इस तथ्य की पुष्टि नहीं की जा सकती है, तथापि भुवनेश्वर में इतने मंदिर हैं कि उसे “मंदिरों की नगरी” कहा जा सकता है।
वर्तमान में नगर में ५०० से अधिक मंदिर हैं। उनमें से लगभग ५० मंदिर पुरातन हैं। भुवनेश्वर नगर के धरोहर विभिन्न धर्मों एवं पंथों से सम्बंधित हैं, जैसे बौद्ध, जैन तथा हिन्दू, जो भुवनेश्वर नगर की स्थापत्य शैली के भीतर सीमित हैं। भुवनेश्वर सही मायने में ‘भारत का महानतम धरोहर नगर’ की उपाधि का अधिकारी है।
यद्यपि भुवनेश्वर नगर अब हिन्दू सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र का प्रतिनिधि है, तथापि प्राचीन काल में विभिन्न आस्थाओं से संसर्ग होने के कारण यह नगर एक बहुआयामी चरित्र प्रस्तुत करता है जिसके कारण यहाँ सभी आस्थाओं एवं धर्मों का सम्मिश्रण है।
भुवनेश्वर की स्थापत्य वंशावली
स्थापत्य व वास्तुकला किसी भी सभ्यता का महत्वपूर्ण आयाम होता है जो नागरिक एवं धार्मिक स्तर पर उसकी प्रगति को समझने में सहायक होता है। विश्व के सभी पुरातन सभ्यताओं में से भारतीय सभ्यता का एक विशेष महत्त्व है, जिसका कारण है इसका अनवरत अस्तित्व, जो अपनी स्थापना काल से अखंडित दृष्टिकोण का निर्माण कर रहा है।
विभिन्न अनुष्ठानों एवं आराधनाओं का लिए साधन एवं उपाय उपलब्ध कराते हुए मंदिरों ने इस नगरी के धार्मिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत में अनेक प्रसिद्ध मंदिर-नगर हैं जो अपनी स्थापत्य शैली, धार्मिक महत्ता एवं स्थानीय अनुष्ठानों के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं।
यद्यपि वाराणसी, उज्जैन, द्वारका, मथुरा, पुरी, तिरुपति, रामेश्वरम आदि अत्यंत प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से कुछ हैं, तथापि आरंभिक काल से ही इनमें से अधिकतर स्थानों में जीवित पुरातात्विक अवशेषों की कमी है। खजुराहो, महाबलीपुरम, अजंता, एल्लोरा, बादामी, सांची, नालंदा आदि कुछ धार्मिक केंद्र हैं जो अपनी पुरातन कला एवं स्थापत्य शैली के लिए प्रसिद्ध हैं। किन्तु इन सभी ने ऐसे काल का सामना किया है जिसके कारण उनकी धरोहर विस्मृति में लुप्त होने लगी है तथा खँडहर में परिवर्तित होने लगी है।
कला एवं स्थापत्य का धनी नगर
जब आप भारतीय सभ्यता के अनवरत स्वरूप से ओतप्रोत मंदिर नगरी को खोजना चाहें तो उनमें भुवनेश्वर एक शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आता है। वास्तव में, यह इकलौता भारतीय नगर है जो आलेखित भारतीय इतिहास के आरंभिक काल से हिन्दू प्रभुत्व के अंतिम स्वर्णिम काल तक की कला एवं स्थापत्य पर गौरान्वित होता है। भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में भुवनेश्वर की उत्कृष्टता तीन महत्वपूर्ण आधारों पर सिद्ध होती है। सर्वप्रथम, यह दो सहस्त्राब्दियों से अनवरत कलात्मक क्रियाकलापों का प्रदर्शन करता आ रहा है। दूसरा, इसके भीतर भारत के तीन प्रमुख प्राचीन धर्मों को समर्पित स्मारक हैं, हिन्दू, जैन एवं बौद्ध। तीसरा आधार है, यह नगर अब भी एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में लोकप्रिय है तथा इसके अनेक मंदिरों में निरंतर पूजा एवं अनुष्ठान किये जा रहे हैं।
शिशुपालगढ़
भुवनेश्वर की स्थापत्य यात्रा का आरम्भ शिशुपालगढ़ से हुआ था जो ध्वस्त घेराबंद नगर है, जिसकी वसाहत ३री से ४थी सदी आँकी गयी है। ऐसी मान्यता है कि मौर्य वंश द्वारा अधिपत्य स्थापित करने से पूर्व यह एक समृद्ध नगर था तथा कदाचित यह प्राचीन कलिंग क्षेत्र की राजधानी भी थी। इस नगर के अवशेषों के नाम पर अब केवल ४थी सदी के कुछ स्तम्भ खड़े हैं। खुदाई में संरचनाओं के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, वे इस ओर संकेत करते हैं कि प्राचीन काल में यह एक समृद्ध नगर था जिसकी एक राजधानी सदृश शोभायमान व सुनियोजित अभिन्यास तथा संरचना थी।
मौर्य सम्राट अशोक
भुवनेश्वर का अगला महत्वपूर्ण युग २६८ ई.पू. से २३२ ई.पू. के मध्य, मौर्य सम्राट अशोक के शासन काल में आया। अशोक ने अपने पिता से एक विशाल साम्राज्य विरासत में प्राप्त किया था। इस साम्राज्य के अंतर्गत, कुछ दक्षिणी भागों एवं कलिंग क्षेत्र को छोड़कर भारत के अधिकाँश भाग, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान थे। अशोक ने अपने जीवन का इकलौता युद्ध कर कलिंग क्षेत्र को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया था। ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध में हुए विनाश को देखकर अशोक ने अपने पड़ोसी राज्यों से शत्रुता समाप्त कर दी थी। अशोक ने पूर्व में ही बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था। अतः बौद्ध धर्म का दूर-सुदूर तक विस्तार करने के लिए उसने अनेक मार्ग अपनाए।
भुवनेश्वर सदा से ही कलिंग का एक भाग रहा है। अशोक के शिलालेख संख्या १-१० एवं १४ तथा दो अन्य कलिंग शिलालेख धौली गिरि की चट्टानों पर गड़े हुए प्राप्त हुए थे। इन शिलालेखों के एक ओर, चट्टान पर गज का उभरा हुआ एक शिल्प है जिसमें गज का अग्र भाग चट्टान से बाहर आता प्रतीत होता है। गज का यह शिल्प मौर्य कला के कुछ ही बचे अवशेषों में से एक है। यद्यपि इस शिल्प में ठेठ मौर्य कला की चमक अनुपस्थित है, तथापि इसकी प्राणी सुलभ सूक्ष्मताएँ सराहनीय है।
राजा खारवेल
मौर्य अधिपत्य के कुछ काल पश्चात ही, प्रथम ई.पू. में राजा खारवेल ने कलिंग पर पुनः विजय प्राप्त कर ली थी। चूँकि राजा खारवेल जैन था, उस काल की कला एवं स्थापत्य शैली भी मूलतः जैन शैली की थी। उस काल में जैन मुनियों की ध्यान-साधना के लिए अनेक गुफाओं एवं शैलाश्रयों की खुदाई की गयी थी। उनमें से अधिकतर गुफाएं एक दूसरे के निकट स्थित दो पहाड़ियों पर हैं। १८ गुफाएं उदयगिरि पहाड़ी पर तथा १५ गुफाएं खंडगिरि पहाड़ी पर स्थित हैं जो नगर के समीप ही हैं। ये गुफाएं उभरे हुए शिल्प के लिए प्रसिद्ध हैं, विशेषतः, शकुंतला एवं वासवदत्त्ता की कथाएं कहते शिल्प अत्यंत लोकप्रिय हैं।
राजा खारवेल के पश्चात तथा गुप्त वंश के उदय से पूर्व, भुवनेश्वर अथवा कलिंग का इतिहास अस्पष्ट है। सातवाहन, कुषाण तथा मुरुंड वंश के कुछ सिक्कों के अतिरिक्त अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। दुर्भाग्य से, हमारे पास उस काल की कोई जीवित स्थापत्य संरचना अथवा भवन भी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे, उस समय इस क्षेत्र में अत्यधिक राजनैतिक उथल-पुथल होने के कारण अथवा अत्यधिक लघु स्थानीय शक्तियों के आधीन होने के कारण, उस काल में भवन निर्माण कार्य की दिशा में अधिक गतिविधियाँ नहीं होती थीं।
गुप्त वंश
गुप्त राजवंश के शासन काल से भारतीय कला एवं हिन्दू धर्म का स्वर्णिम युग आरम्भ होता है। किन्तु गुप्त राजवंश के शासन काल में कला क्षेत्र में विशेष प्रगति नहीं हुई। गुप्त राजाओं ने इस क्षेत्र पर परोक्ष रूप से अथवा क्षेत्रीय प्रमुखों के माध्यम से राज किया था। जिस प्रकार से इस नगर में गुप्त काल का कोई भी स्मारक उपलब्ध नहीं है, यह इस ओर संकेत करता है कि इन क्षेत्रीय प्रमुखों ने अपने कार्यकाल में कोई विशेष अथवा विशाल निर्माण कार्य नहीं किया था।
शैलोद्भवा वंश
शैलोद्भवा वंश का शासनकाल, ६वीं-७वीं सदी के मध्य भुवनेश्वर के कला क्षेत्र का स्वर्णिम युग था। इस काल के मंदिरों की कुछ विशेषताएँ हैं, तीन बार ढले पभाग(आधार), देउल(विमान) व जगमोहन(मंडप) के मध्य असंगत जोड़, राहू को छोड़कर अन्य आठ ग्रहों की उपस्थिति, गर्भगृह के द्वार चौखट, तुला के आकार का गर्भगृह द्वार आदि। इनमें अंतिम विशेषता गुप्त काल के समय उनके समकालीन साम्राज्यों की विरासत है।
नगर का प्राचीनतम मंदिर, शत्रुघ्नेश्वर समूह, इस राजवंश से सम्बंधित है। इस समूह में तीन मंदिर हैं, लक्ष्मनेश्वर, भरतेश्वर तथा शत्रुघ्नेश्वर। इन मंदिरों के भग्नावशेषों पर उन्ही से प्राप्त अवशेषों का प्रयोग कर व्यापक रूप से पुनर्निर्माण का कार्य किया गया है। इन मंदिरों की संरचना साधारण है जिसमें एक देउल(विमान) होता है तथा यदा-कदा उससे जुड़ा एक जगमोहन(मंडप) होता है। इस काल के अन्य प्रमुख मंदिर स्वर्ण जलेश्वर मंदिर तथा परशुरामेश्वर मंदिर हैं।
परशुरामेश्वर मंदिर
परशुरामेश्वर मंदिर भुवनेश्वर के सर्वाधिक भव्य मंदिरों में से एक है। यह उत्कृष्ट रूप से अलंकृत तथा विविध चित्रों व शिल्पों से सज्ज है। इसके जगमोहन में सप्तमातृकाओं की उपस्थिति शक्ति पूजन का प्रभाव दर्शाती है। आरंभिक काल के इन मंदिरों एवं कालांतर के कुछ मंदिरों की एक अन्य रोचक विशेषता है, लकुलीश छवि की उपस्थिति, जो यह संकेत करती है कि इस क्षेत्र एवं आसपास के क्षेत्रों में, उस काल में एवं कालान्तर में, लकुलीश पंथ का प्रभाव था।
भौमकर वंश
शैलोद्भवा वंश के शासनकाल के पश्चात, ८वीं से १०वीं सदी के मध्य भौमकर वंश ने कलिंग पर राज किया था। यह वंश अपने स्त्री शासकों के लिए प्रख्यात था क्योंकि इस वंश के अंतिम चार शासक स्त्रियाँ थीं। यद्यपि इस काल में स्थापत्य एवं वास्तु शैली में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, तथापि कुछ नवीन तकनीकों का पदार्पण अवश्य हुआ था। प्रभाग की ढलाई तीन से चार की गयी तथा पार्श्व-देवताओं का उत्कीर्णन भित्ति खण्डों द्वारा किया जाने लगा। भित्ति खण्डों द्वारा पार्श्व-देवताओं के उत्कीर्णन के कारण उन्हें भित्ति से पृथक करना कठिन होता है। इसी कारण अधिकतर भंगित मंदिरों में इन्हें आज भी देखा जा सकता है।
शैलोद्भवा वंश के अंतिम शासनकाल एवं भौमकार वंश के आरंभिक शासनकाल (७वीं सदी) के मंदिरों में यमेश्वर संकुल का एक लघु मंदिर, भंगित पश्चिमेश्वर मंदिर, मोहिनी मंदिर, उत्तरेश्वर मंदिर, तलेश्वर मंदिर, परमगुरु मंदिर, गौरी-शंकर-गणेश मंदिर तथा नवीन भवानी शंकर मंदिर प्रमुख हैं। ये मंदिर तथा कालांतर के कुछ मंदिर बिन्दुसागर जलाशय के चारों ओर स्थित हैं।
बिन्दुसागर
इस समय तक बिन्दुसागर की शुद्धता एवं निर्मलता जगप्रसिद्ध हो गयी थी। इसके चारों ओर अनेक मंदिरों का निर्माण होने लगा था। भौमकार वंश के आरंभिक शासक बौद्ध थे। कालांतर में उन्होंने शैव धर्म अपना लिया जिसके कारण मंदिर निर्माण कार्य में तीव्रता आ गयी थी।
भौमकार वंश के कालांतर शासनकाल (८वीं सदी) में स्थापत्य शैली का विकास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। देउल(विमान) एवं जगमोहन(मंडप) के मध्य जोड़ में सुधार होने लगा था। यद्यपि इस सुधार का आरम्भ मार्कंडेश्वर मंदिर से हुआ था तथापि इस काल की स्थापत्य शैली का आदर्श उदहारण वेताल मंदिर है। परशुरामेश्वर मंदिर में शक्ति उपासना की झलक दिखाई देती है किन्तु शक्ति उपासना की पराकाष्ठा वेताल मंदिर में है जो शक्ति पंथ का सच्चा उपासना स्थान है।
वेताल मंदिर के नाम की व्युत्पत्ति पर इतिहासकार पाणिग्रही कहते हैं, इस मंदिर का नाम वेताल से लिया गया है जिसका अर्थ है, प्रेतात्मा। वे कहते हैं, कापालिक एवं तांत्रिक इस मंदिर का प्रयोग प्रेतात्माओं को जगाने के लिए करते थे।
इस मंदिर की एक अन्य विशेषता है कि यह मंदिर-संरचना की खाखरा शैली में निर्मित है(आयताकार खाखरा देउल)। इससे पूर्व के मंदिर रेखा शैली में निर्मित होते थे। इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा अत्यंत रौद्र रूप में विराजमान हैं। इसी परिसर में स्थित शिशिरेश्वर मंदिर वेताल मंदिर से किंचित प्राचीन है।
हीरापुर का महामाया मंदिर
भौमकार वंश के अंतिम काल का एक अन्य मंदिर है, योगिनी मंदिर अथवा महामाया मंदिर। भुवनेश्वर से १५ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से नगर, हीरापुर में स्थित यह मंदिर ९वीं शताब्दी का है। इस मंदिर में ६४ योगिनियाँ हैं जिनमें महामाया रूपी चामुंडा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं। इस मंदिर का निर्माण भौमकार वंश की रानी हीरामहादेवी के संरक्षण में किया गया था जो सिम्हमान की पुत्री तथा लोणभद्र अर्थात् शान्तिकरदेव की पत्नि थी।
भौमकार वंश के पश्चात, सोमवंशियों ने भुवनेश्वर एवं आसपास के क्षेत्रों की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अपने शासनकाल में उन्होंने विभिन्न स्थापत्य एवं वास्तुकला की विविध उपलब्धियों को प्राप्त किया। उनकी स्थापत्य यात्रा अत्यंत उल्लेखनीय है। इसका उदहारण मुक्तेश्वर मंदिर है जिसे अनेक इतिहासकार एवं वास्तुविद ओडिशा का अतुलनीय मणि मानते हैं।
मुक्तेश्वर मंदिर
ऐसा माना जाता है कि उड़ीसा के स्थापत्य कारीगरों द्वारा अनवरत किये गए प्रयोग, परिक्षण व परिश्रम का सफल परिणाम है यह मुक्तेश्वर मंदिर। उससे पूर्व निर्मित मंदिरों में उनके द्वारा किये गए विभिन्न प्रयोग स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। अतः, मुक्तेश्वर मंदिर को एक सफल कलात्मक युग का अंत कह सकते हैं। इस मंदिर की विशेषताओं में कुछ हैं, कम ऊँचाई की अलंकृत भित्तियाँ, प्रवेश द्वार पर तोरण, शिल्पों से गढ़ी मंडप की छत इत्यादि। यद्यपि उड़ीसा की कलाशैली में इन तत्वों का प्रथम प्रयोग था तथापि कालांतर में इन तत्वों का प्रयोग कभी किसी मंदिर में नहीं किया गया। इसके फलस्वरूप, मुक्तेश्वर मंदिर एक विशेष वर्ग का मंदिर सिद्ध होता है। नाग-नागिनी स्तम्भ भी यहाँ सर्वप्रथम समाविष्ट किये गए तथा कालांतर में भी अनेक मंदिरों में उन्हें बनाया गया।
मुक्तेश्वर मंदिर सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिरों में से एक तथा कदाचित सर्वाधिक छायाचित्रीकृत मंदिर है। भारतीय पुरातत्वविद देबल मित्रा के अनुसार, “सबसे सुन्दर, उड़ीसा मंदिर स्थापत्य कला की सर्वोत्कृष्टता का आकर्षक प्रतीक, सहस्त्र वर्षों के थपेड़े सहन करने के पश्चात फीका, रंगहीन, आनंदहीन किन्तु फिर भी अप्रतिम”।
राजारानी मंदिर
सोमवंशियों का एक अन्य अचम्भा है, ११वीं सदी का यह राजारानी मंदिर। राजारानी मंदिर से वास्तुविदों ने मंदिर की ऊँचाई पर विशेष बल देना आरम्भ किया था। इसका निष्पादन करने के लिए उन्होंने ३ से ५ फीट ऊँचे चबूतरों पर मंदिर का निर्माण आरम्भ किया। जंघा की ऊँचाई में महत्वपूर्ण रूप से बढ़ोतरी की गयी तथा इसका पुरातन रूप एवं भाव अटल रखने के लिए इसे दो तलों में विभक्त कर उनके मध्य एक पट्टी बनाई गयी है। गंडी अर्थात् शिखर पर भी अतिरिक्त तलों का निर्माण कर उसकी ऊँचाई बढ़ाई गयी है।
ब्रह्मेश्वर मंदिर
इसी क्रम में अगला मंदिर है, ब्रह्मेश्वर मंदिर। यह भी एक महत्त्वपूर्ण मंदिर है क्योंकि इसमें एक आधार शिलालेख है जो कालक्रम को उचित क्रम में रखने में सहायक है। यह पंचायतन शैली का मंदिर है तथा इस शैली का सर्वप्रथम मंदिर है। चबूतरे का प्रयोग किये बिना भी इस मंदिर की ऊँचाई ६० फीट है। मुक्तेश्वर मंदिर के समान इस मंदिर की छत पर भी उत्कीर्णन किये गए हैं जो मुक्तेश्वर मंदिर से अपेक्षाकृत कम हैं। अभिलेखों में लिखा गया है कि सोमवंशी राजा उद्द्योता केसरी की माता कोलावती ने कुछ देवदासियों को इस मंदिर को दान में दिए थे। यह कलिंग के मंदिरों में देवदासी प्रथा का प्रथम उल्लेख था।
सोमवंशी स्थापत्य कला
सोमवंशी स्थापत्य शैली की परिणति प्रसिद्ध लिंगराज मंदिर के रूप में हुई है जिसमें कलिंग स्थापत्य शैली के सभी प्रमुख तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। लिंगराज भुवनेश्वर के अधिष्ठात्र देव हैं जिन्हें अभिलेखों में कृत्तिवासा तथा त्रिभुवनेश्वर भी कहा गया है। इस मंदिर की प्रभावशाली ऊँचाई १८० फीट है तथा इसमें देउल, तत्पश्चात जगमोहन, नट-मंडप तथा भोग-मंडप हैं। इस संकुल में अनेक युग के कई लघु मंदिर भी हैं।
१२वीं सदी का आरम्भ ओडिशा को पूर्वी गंग वंश अधिराज्य के क्षेत्र में लेकर आता है जिसके आरंभिक दशकों ने भौमकर वंशियों का पतन देखा। शीघ्र ही पूर्वी गंग वंश ने इस क्षेत्र में अपना अधिपत्य जमा लिया। उनके शासनकाल में प्राचीन परम्पराओं को अटल रखते हुए कुछ नवील तत्वों का भी समावेश आरम्भ हुआ। मंदिर के बाह्य भागों की सज्जा व अलंकरण में कटौती की गयी। मंदिर की सीमाओं पर गणों के साथ नवग्रह फलक भी बनाए गए हैं। द्वार के चौखट पर द्वारपालों के साथ नदी की देवियों को भी उत्कीर्णित किया गया।
गंग परंपरा को लघु मंदिरों से आरम्भ किया गया, जैसे कोटि तीर्थेश्वर मंदिर, सुवर्ण-जलेश्वर मंदिर तथा सम्पूर्ण- जलेश्वर मंदिर। सिद्धेश्वर मंदिर से आरम्भ करते हुए इस शैली ने भी पूर्ण ऊँचाई प्राप्त की तथा कालांतर में रामेश्वर मंदिर, भास्करेश्वर मंदिर तथा मेघेश्वर मंदिर का निर्माण किया।
मौसी माँ मंदिर
रामेश्वर मंदिर को ही मौसी माँ मंदिर कहते हैं। भगवान लिंगराज अपनी रथ यात्रा के समय इस मंदिर में दर्शन करते हैं, जो यह संकेत करता है कि लिंगराज पंथ के उद्भव से पूर्व रामेश्वर मंदिर का महत्वपूर्ण स्थान था। इस पुरातन स्थल पर भास्करेश्वर मंदिर भी स्थित है जो मौर्य बौद्ध काल से सम्बंधित है। मंदिर के समीप विभिन्न बौद्ध कलाकृतियों के अवशेषों का प्राप्त होना इस ओर संकेत करता है। गर्भगृह के भीतर एक अत्यंत उंचा शिवलिंग है जिसे भीतर स्थापित करने के लिए मंदिर को विचित्र आकार दिया गया है।
वस्तुतः, यह शिवलिंग एक अशोक कालीन स्तम्भ का अवशेष है जिसे मंदिर वास्तुविदों ने शिवलिंग के रूप में प्रयोग किया था।
मेघेश्वर मंदिर
मेघेश्वर मंदिर एक महत्वपूर्ण मंदिर है क्योंकि इसमें एक आधार शिलालेख है, जो १२वीं सदी का माना जाता है। मेघेश्वर मंदिर उड़ीसा की स्थापत्य शैली एवं वास्तुकला की भव्यता की पराकाष्ठा है। यह मंदिर ओडिशा में नव-रथ स्थापत्य योजना के अंतर्गत निर्मित मंदिरों के प्रथम समूह में से एक है। चूंकि उस समय वास्तुविद सप्त-रथ स्थापत्य योजना से नव-रथ स्थापत्य योजना की ओर अग्रसर होने के लिए प्रयोग कर रहे थे, उन्हें इन प्रयोगों के सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं हुए, अपितु वे संकुचित आकार में परिणमित हो गए। इन संकुचित प्रारूपों में पगों की चौड़ाई भिन्न थी जिसके कारण मंदिरों का रूप सममित नहीं रहा। मंदिर स्थापत्य में रथ एवं पग शिखर एवं विमान की बाह्य संरचना से सम्बंधित तकनीकी शब्द हैं जिन पर शिखर एवं विमान के रूप निर्भर होते हैं, अर्थात् अनुप्रस्थ एवं लम्बवत दिशाओं में इनकी सतह पर कितने उतार-चढ़ाव होंगे।
१३वीं सदी में नगर में अनंत वासुदेव नामक प्रथम वैष्णव मंदिर का निर्माण किया गया। इसका निर्माण गंग राजा अनंग-भीम तृतीय की पुत्री चन्द्रिका ने करवाया था। लिंगराज मंदिर के समान, अनंत वासुदेव मंदिर भी एक कलिंग मंदिर के सभी अवयवों को प्रदर्शित करता है, एक देउल, एक जगमोहन, एक नाट्य मंडप तथा एक भोग-मंडप। इस मंदिर के अधिष्ठात्र देव अनंत, वासुदेव तथा सुभद्रा हैं।
यमेश्वर मंदिर
यमेश्वर मंदिर उस सदी का एक अन्य अद्भुत मंदिर है। यह ऐसे स्थान पर निर्मित है जहाँ पुरातन काल के अनेक मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मंदिर परिसर के भीतर ७वीं सदी का एक अन्य लघु मंदिर भी है। प्रत्येक वार्षिक जत्रा में भगवान लिंगराज यमेश्वर मंदिर में दर्शन के लिए पधारते हैं, यह परंपरा इस स्थान की पुरातनता की ओर संकेत करती है। इस मंदिर में एक ऊँचे चबूतरे पर एक देउल एवं एक जगमोहन हैं।
उस काल की अद्भुत संरचनाओं में सरि एवं सुका का जुडवाँ मंदिर है। यमेश्वर मंदिर संकुल के समान इस संकुल में भी ७वीं सदी के तीन पूर्वकालीन मंदिर हैं। सरि मंदिर अपने उत्कृष्ट उत्कीर्णन के लिए प्रसिद्ध है। किन्तु नर्म बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित होने के कारण बड़े प्रमाण में इसका क्षय हुआ है। यद्यपि ये मंदिर लिंगराज मंदिर एवं अनंत-वासुदेव मंदिर के पश्चात निर्मित हैं तथापि ये मंदिर नट-मंडप एवं भोग मंडप विहीन हैं।
मंगलेश्वर मंदिर
१४वीं शताब्दी में निर्मित प्रमुख मंदिरों की संख्या अधिक नहीं है। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर मंगलेश्वर मंदिर है जो एक शिव मंदिर है। इस मंदिर में उल्लेखनीय विशेष तत्व कुछ अधिक नहीं है। यह एक साधारण संरचना है जिसमें एक देउल एवं एक जगमोहन है। इसका बाह्य भाग भी सादा है। प्रायिक स्थानों पर प्रतिमाओं के प्रावधान हैं किन्तु सभी प्रतिमाएं अब अनुपस्थित हैं। इस काल का एक अन्य मंदिर है, चिंतामणिश्वर मंदिर। इस मंदिर पर विस्तृत नवीनीकरण हुआ है जिसके कारण इसके पुरातन तत्व अब लुप्त हो चुके हैं।
१५वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में पूर्वी गंग वंश का पतन आरंभ हुआ। शीघ्र ही गजपति राजवंश ने उन्हें प्रतिस्थापित कर दिया। उनके लोकप्रिय राजा कपिलेन्द्र देव सन् १४३४ में सिंहासन पर विराजमान हुए। इस काल में निर्मित कलिपेश्वर मंदिर स्थापत्य व वास्तुकला का एक अद्भुत उदहारण है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार यह स्थान कपिलमुनि का जन्मस्थल है। इस मंदिर में एक देउल, एक जगमोहन एक नट-मंडप तथा एक भोग-मंडप है। इस मंदिर की विशेषता इसके समीप स्थित इसका जलकुंड है।
कपिलेश्वर मंदिर के समीप व चारों ओर अनेक अन्य मंदिर हैं जिसके कारण इस क्षेत्र को कपिलेश्वर मंदिर परिसर कहा जाता है। उनमें से कुछ मंदिर मुख्य कपिलेश्वर मंदिर से प्राचीन हैं। प्रति वर्ष शिवरात्रि के पश्चात आते प्रथम शनिवार के दिन, भगवान लिंगराज इस संकुल का भ्रमण करते हैं तथा शनिश्वर मंदिर तथा कपिलेश्वर मंदिर में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
ब्रह्मा मंदिर
गजपति वंश के शासनकाल का एक अन्य विशेष मंदिर ब्रह्मा मंदिर है जो बिन्दुसागर के पूर्वी तट पर स्थित है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, भगवान लिंगराज के राज्याभिषेक के लिए जब ब्रह्मा भुवनेश्वर आये थे तब भगवान ने उन्हें सदा के लिए वहीं स्थाई होने का निवेदन किया था। तब ब्रह्मा से अपनी असमर्थता दर्शाते हुए कहा था कि वे स्थाई रूप से वहां नहीं रह सकते। किन्तु उन्होंने भगवान को वचन दिया कि वे प्रति वर्ष चैत्र मास में भुवनेश्वर की यात्रा पर अवश्य आयेंगे। यह मंदिर उसी किवदंती के सम्मान में निर्मित है।
कपिलेन्द्र देव के देहावसान के पश्चात उनका राजवंश पारिवारिक मतभेदों की चपेट में आ गया जिससे वे कभी उबर नहीं पाए। उनके हाथों से दक्षिणी एवं पश्चिमी प्रदेश छूटने लगे। इसके अतिरिक्त, बंगाल सल्तनत से आतंक अनवरत जारी था। सन् १५४१ में हुए विद्रोह के पश्चात गोविन्द विद्यासागर ने भोई वंश आरम्भ किया जो दो दशक भी पार नहीं कर पाया। मुकुंद देव द्वारा किये एक विद्रोह के पश्चात सन् १५५९ में भोई राजवंश का भी अंत हो गया।
भुवनेश्वर नगर पर अंतिम आघात किया बंगाल के सुल्तान सुलेमान खान कर्रानी के पुत्र बायजीद खान कर्रानी ने, जब उसकी सेना ने सेनानायक कालापहाड़ की नेतृत्व में नगर पर धावा बोल दिया था। अंततः, सन् १५९० में, अकबर के शासनकाल में ओडिशा को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिया गया।
१५वीं शताब्दी के पश्चात मंदिर निर्माण कार्य लगभग पूर्ण रूप से बंद हो गया था। इसका प्रमुख कारण इस क्षेत्र की राजनैतिक अस्थिरता माना जाता है। बंगाल सुल्तान, तदनंतर मुगल शासन काल में यही स्थिति अनवरत बनी रही।
भुवनेश्वर की धरोहर – दर्शनीय मंदिरों की सूची
- उदयगिरि गुफाएं
- रानी-गुम्फा अथवा रानी की गुफा में शकुंतला दृश्य
- रानी की गुफा में वासवदत्ता दृश्य
- शत्रुघनेश्वर मंदिर समूह
- स्वर्ण-जलेश्वर
- परशुरामेश्वर
- पश्चिमेश्वर
- मोहिनी
- उत्तरेश्वर
- तलेश्वर
- गौरी-शंकर-गणेश
- नवीन भवानी शंकर
- मर्कंडेश्वर
- शिशिरेश्वर
- वेताल
- महामाया
- मुक्तेश्वर
- राजारानी
- ब्रह्मेश्वर
- कोटि-तीर्थेश्वर
- सम्पूर्ण जलेश्वर
- सिद्धेश्वर
- रामेश्वर
- भास्करेश्वर
- मेघेश्वर
- अनंत-वासुदेव
- यमेश्वर
- सरि
- सुका
- चित्रकरणी
यह इंडीटेल के लिए संकलित एक अतिथि संस्करण है जिसे Puratattva portal के सौरभ सक्सेना ने प्रेषित किया है।
nice article about the history of Bhubaneshwar