बीकानेर के जूनागढ़ किले का दर्शन मेरे लिए किसी रहस्य से परदा उठने से कम नहीं था। मैं यहाँ यह स्वीकार करना चाहूंगी कि मैं इस किले की खूबियों से पूर्णतः अनभिज्ञ थी। बीकानेर की यात्रा से पूर्व मैंने इस किले के सम्बन्ध में कुछ जानकारी हासिल की थी व संबंधित साहित्य का भी अध्ययन किया था। परन्तु यह इतना भव्य किला होगा इसका जरा भी अनुमान नहीं लगा पायी थी। इसके दर्शन के उपरांत आज मैं इसे भारत का ‘सर्वोत्तम रखरखाव-युक्त व सर्वोत्तम रूप से प्रदर्शित किला ‘ मानती हूँ। आइये बीकानेर शहर के इस शानदार किले से आपका परिचय कराती हूँ। नवम्बर माह में अपनी बीकानेर यात्रा के दौरान, एक सुबह हम जूनागढ़ किले और उसकी की बारीकियों को जानने हेतु निकल पड़े। रास्ते में हम गजबजाहट भरे बाज़ार से गुजरे जहां हमने जगप्रसिद्ध बीकानेरी भुजिया खरीदी। मैं मन ही मन तैयार थी कि हर राजस्थानी किले की तरह एक और किला देखने जा रही हूँ। क्योंकि मेरी सोच यह कह रही थी कि मैंने राजस्थान में इससे कहीं अधिक प्रसिद्ध दुर्ग देखे हैं जैसे आमेर, चित्तौड़गढ़, कुम्भलगड़, जैसलमेर और बुंदी। और तो और यह किला तो किसी पहाड़ी पे भी नहीं है, जहाँ से आस पास दृश्य देखने को मिले।
खैर! हमने प्रवेशद्वार से जूनागढ़ में प्रवेश किया। इस प्रवेशद्वार के एक तरफ की दीवार पर सती के हाथों की शिल्पकारी की गयी है। राजस्थान में यह सामान्य होने के बावजूद इसने सर्वप्रथम मेरा ध्यान आकर्षित किया। मैंने नीचे लिखे शास्त्र को पढ़ने की कोशिश की परन्तु वह मेरी समझ से परे था।
किले के भीतर हम मुख्य प्रवेशद्वार पर पहुंचे जिसे करण प्रोल कहा जाता है। यहाँ हमने जाना कि इस किले का स्वामित्व महाराजा रायसिंहजी ट्रस्ट के पास है। राजसी परिवार के इस ट्रस्ट का उद्देश्य है इस किले के इतिहास की जानकारी पर्यटकों तक पहुंचाना, साथ ही शिक्षा और संस्कृति का विकास करना।
जूनागढ़ किले का इतिहास
जुनागाह दुर्ग का मौलिक नाम चिंतामणि है। जूनागढ़ का शाब्दिक अर्थ है पुराना किला। इसे यह नाम २० वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राप्त हुआ जब राज परिवार लालगढ़ स्थानांतरित हुआ था। इसका निर्माण बीकानेर के ६ठें शासक महाराजा रायसिंहजी ने १५८९ ई. में किया था। तत्पश्चात २० शासकों ने बीकानेर पर १९२० ई. तक शासन किया।
प्रत्येक शासक ने मौजूदा संरचना में अपना महल, मंदिर या कुछ अन्य निर्माण जोड़ा जो उसकी अपनी विशिष्ठता और उसका अपना चिन्हक हो। कुल मिलाकर यह विभिन्न संरचनाओं का अद्भुत सम्मिश्रण है जो बीकानेर के ३०० से अधिक वर्षों के इतिहास और शासन को आपके सम्मुख सुन्दरता से प्रदर्शित करता है।
महाराजा अनूपसिंह, औरंगजेब के विरुद्ध अपने दख्खनी अभियान के पश्चात, कई मूर्तियाँ और संस्कृत पांडुलिपियाँ यहाँ ले कर आये। हालांकि सर्वोत्तम संपत्ति जो वे अपने साथ राजस्थान वापिस लाये थे, वह थी उस्ता कला, अर्थात् संगमरमर पर सोने की पत्तियों की नक्काशी, जो इस महल में जगह जगह देखी जा सकती है। बीकानेर में एक अनूप पांडुलिपि संग्रहालय है परन्तु वह जनता के दर्शनार्थ खुला नहीं है।
बीकानेर के सबसे प्रसिद्ध राजा थे गंगा सिंह जी। बीकानेर शहर में भ्रमण के दौरान इनके सम्बन्ध में कई सकारात्मक तथ्यों की जानकारी मिली। बीकानेर के लिए पहले नहर का निर्माण उन्होंने कराया, जिसके कारण बीकानेर की जल समस्या का निवारण हुआ। बीकानेर के पहले रेल संपर्क का भी निर्माण उन्होंने ही करवाया था।
जूनागढ़ किले के निर्माण में बलुआ पत्थर व संगमरमर दोनों का इस्तेमाल किया गया है। हल्के लाल रंग के बलुआ पत्थर, बीकानेर से ७०कि.मी. दूर स्थित दुलमेरा से लाये गए थे।
बीकानेर के जूनागढ़ किले का दर्शन
टिकट खिड़की से टिकट खरीदने के पश्चात जैसे ही हमने किले में प्रवेश किया, अपने दाहिने ओर भव्य सीडियां देखीं। स्थानीय लाल पत्थरों पर यूरोपीय प्रभाव चमक रहा था। ऊपरी मंजिलें जालियों व झरोखों परिपूर्ण राजस्थानी कलाकृति का अभूतपूर्व नमूना थीं।
हमारे बायीं ओर एक स्मारक शिला थी जो वीर दल्ला भगोड को समर्पित थी। नीचे लगे एक छोटे तख़्त पर उनकी बहादुरी की गाथा अंकित थीं। दुर्ग की दोनों दीवारों की शिल्पकला में एके परस्पर विरोध है जो आपको किले की मिश्रित वास्तुकला की झलक दिखाती है। यहाँ से हम एक संकरी चढ़ाई के पश्चात प्रमुख प्रांगण में पहुंचे जो नक्काशीदार लाल पत्थरों की दीवारों व नीले दरवाजों के चौखटों से घिरा हुआ था। यह विक्रम विलास महल था।
विक्रम विलास महल
मैंने इन लाल नक्काशीदार पत्थरों का ध्यान पूर्वक निरिक्षण किया। यह आगरा व ब्रजभूमि इलाके में पाए जाने वाले बलुआ पत्थरों की अपेक्षा हल्के रंग के थे। वहां लगाई गयी चित्र प्रदर्शनी पर्यटकों को बीकानेर के इतिहास से परिचित करा रही थी, जो ६०० वर्षों पूर्व राव बीका से आरम्भ हुआ था।
इस प्रांगण को पार कर हम एक और प्रांगण में दाखिल हुए जहां श्वेत रंग की प्रभुत्वता थी और जिसे बलुआ पत्थरों से बनी पट्टियों के लाल रंग बीच बीच में भंग करते हैं। इस प्रांगण के अंत में एक छोटे से तालाब के बीच चौकोर मंच सदृश मंडप बनाया गया था। मेरा अनुमान है कि अपने समृद्ध दिनों में यहाँ फव्वारे हुआ करतें होंगे। आमोद प्रमोद के साधन के साथ साथ यह थार के रेगिस्तान की चिलचिलाती गर्मी को दबाने में भी सहायक होती होंगी। हमारे परिदर्शक के अनुसार इसी स्थान पर होली भी खेली जाती थी। हालांकि होली खेलने का कोई संकेत यहाँ विदित नहीं था, परन्तु श्वेत दीवारें व मंडप होली खेलने हेतु उपयुक्त दिखाई पड़ रही थी।
इस श्वेत मंडप युक्त प्रांगण के चारों ओर जूनागढ़ के विभिन्न महल बने हुए थे। यह वास्तव में भिन्न भिन्न आकारों के कक्ष थे जिन्हें ‘महल ‘ की संज्ञा प्रदान की गयी थी। उनमें से कुछ महलों की व्याख्या यहाँ करना चाहूंगी।
बादल महल
यह एक संकरा कक्ष है जिसकी दीवारों व छत पर बादलों की छवि चित्रित की गयी है। हमारे परिदर्शक का कहना था कि इस कक्ष की दीवारों व छत पर फव्वारे लगाए थे जो बच्चों को रेगिस्तान में वर्षा ऋतू का आनंद देने हेतु बनवाये गए थे। मुझे उसकी इस व्याख्या पर थोड़ा संदेह है। मुझे यह राम व सीता को समर्पित एक मंदिर प्रतीत हुआ क्योंकि इस कक्ष की एक दीवार के बीचों बीच उनकी प्रतिमाएं रखीं हुईं थीं। इस कक्ष के आलों पर रामायण के दृश्य भी चित्रित हैं।
फूल महल
यह महल कदाचित किसी एक रानी का था। राजा रायसिंह जी द्वारा बनवाये गए इस महल का यह सबसे पुराना भाग है। मुझे इस फूल महल का चित्रित द्वार बेहद मनभावन प्रतीत हुआ। काले रंग के द्वार पर राधा और कृष्ण की छवि चित्रित की गयी है। चित्र अपेक्षाकृत नवीन है परन्तु यदि आप पीछे जाएँ तब एक पुराने द्वार पर यही चित्र दिखाई देता है।
सात घोड़ों पर सवार सूर्य देव की संगमरमर में बनी एक प्रतिमा भी यहाँ है। इस कक्ष के सुनहरे नक्काशीयुक्त श्वेत अलंकरण से मेल खाती यह प्रतिमा बेहद खूबसूरत है। कक्ष के छत पर लगी पट्टी पर जीवंत युद्ध भूमि, दरबार के दृश्य व पौराणिक दृश्यों की नक्काशी की गयी है।
कक्ष में स्थित एक छोटा झरोखा यहाँ का सर्वाधिक रचनात्मक कोना है। छोटे छोटे संगमरमर के टुकड़ों पर चित्रण कर सुनहरे अलंकरण के साथ दीवार में जड़ा गया है। कई आईने लगाए गए हैं जिनके चौखटों पर सुन्दर कलाकृतियों से चित्रकारी की गयी है। इन आईनों के अन्दर झांकने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारा चित्र जड़ा गया है। यहाँ की छत पर भी बादलों का चित्रण किया गया है। बेहद दिलचस्प बात यह लगी कि यहाँ चीनी महिलाओं के भी चित्र हैं। शायद सिल्क रूट अर्थात् रेशम मार्ग का प्रभाव हो!
बीकानेर की पैतृक संपत्ति
बीकानेर के संस्थापक राव बीका ने जब यहाँ अपना राज्य स्थापित किया था तब अपने पिता के घर से कुछ पैतृक संपत्ति ले कर आये थे। इनमें से कुछ विरासती धरोहरें फूल महल के साथ वाले कक्ष में प्रदर्शन हेतु रखीं गयीं हैं। इनमें कीर्ति प्राप्त प्रसिद्ध तलवारों का भी समावेश है। कुछ विरासती धरोहर किले के संग्रहालय में भी रखी हुईं हैं। १२वीं शताब्दी का चन्दन की लकड़ी का पलंग इस संग्रहालय की बेशकीमती धरोहर है।
अनूप महल
यह बीकानेर किले का सर्वाधिक अलंकृत व सुशोभित भाग है। यह कक्ष निजी सभा व बैठक हेतु नियत किया गया था। चारों ओर सुनहरे व लाल रंग की कलाकृतियों से सजा यह महल सर्वाधिक अलंकृत महल है। बीकानेर किले के सिंहासनों में से एक यहाँ आज भी है।
अनूप महल की दीवारों पर की गयी कलाकृतियों से सम्बंधित जानकारी दर्शाता एक फलक यहाँ लगाया गया है। इसके अनुसार, १७ वीं शताब्दी के शासक महाराजा कारण सिंह वर्तमान हैदराबाद के समीप गोलकोंडा में सैन्य अभियान पर गए थे। तब वहां के एक स्थानीय कलाकार ने उन्हें सोने में बनी कलाकृतियाँ भेंट में दीं थीं। उन में से एक था स्तम्भ के ऊपर लगाया गया सोने का नक्काशीयुक्त पतरा जो सम्पूर्ण सोने से बने स्तम्भ का आभास देता था। महाराजा के रुझान व जिज्ञासा को देख कलाकार ने उन्हें बताया कि वह जैसलमेर का मूल निवासी था परन्तु कार्य हेतु उसका परिवार दक्खन में स्थानांतरित हो गया था। महाराजा कारण सिंह ने उसे बीकानेर आमंत्रित किया व शाही संरक्षण प्रदान किया। इसी कला शैली को उस्ता कला कहा जाने लगा। इस कला शैली को बीकानेर किले में जगह जगह देखा जा सकता है। इस कला का छोटा सा नमूना आप बाज़ार से खरीद सकते हैं।
इस महल में एक लकड़ी का द्वार है जिस पर सूक्ष्म चित्रकारी की गयी है। राजस्थान में स्थित होने के कारण इन कलाकृतियों में कांच का भी भरपूर समावेश है।
इस महल के समक्ष खड़ी मैं सोच में डूब गयी कि चारों ओर के इस अलंकरण युक्त परिवेश में कार्य करना कठिन होगा। उसी क्षण यह अनुभव हुआ कि बाहर से गुजरते लोगों के लिए यह अलंकरण एक आकर्षण हो सकता है परन्तु कक्ष के भीतर से बहार का दृश्य अधिकतर सादा व श्वेत रंग का है।
गज मंदिर महल
पुख्ता रूप से सुरक्षित, उच्च रखरखाव युक्त, त्रुटिहीन नक्काशी व मुठिया युक्त दरवाजे से हम पाहिले मंजिल पर पहुंचे। यहाँ भी कुछ संग्रहित वस्तुओं की प्रदर्शनी थी। इनमें मुख्य था यूरोप की नीली चीनी मिट्टी के चौकोर टुकड़ों से बना झरोखा। यह पूर्णतः स्थानीय वास्तुकला व परदेशी सामग्री का अनोखा सम्मिश्रण था। कह नहीं सकती कि यह मुझे पसंद आया परन्तु यह बार एक देखने लायक कलाकृति अवश्य है।
यहाँ एक सर्वप्रसिद्ध भितिचित्र है जिस पर यातायात के तीनों साधनों को चित्रित किया गया है, जैसे हाथी द्वारा खींची गयी गाड़ी, एक नाव और एक रेलगाड़ी। गाड़ी व रेल सुविधाएं सर्वविदित हैं परन्तु नाव शायद गंगासिंहजी द्वारा निर्मित नहर की ओर इशारा करती है। संयोग से नाव का अग्रभाग हाथी के शीष की तरह बनाया गया है।
पाहिले मंजिल से नीचे मुख्य प्रांगण को देखा जा सकता है। यह ऊपर से भी बेहद खूबसूरत दिखाई देता है। यहाँ से चारों ओर के शहर को भी देखा सकता है। चूंकि महल व शहर की ऊंचाईयों में ज्यादा अंतर नहीं है, इसलिए यहाँ से ज्यादातर महल की दीवारें व कुछ बगीचे ही ठीक से नजर आतें हैं।
इनमें से एक कक्ष में पलंग के ऊपर अन्कुड़े लगे हुए हैं जिन पर पलंग लटकाकर झूला बनाया जा सकता है। अद्भुत!
दरबार कक्ष
यह एक विशाल कक्ष है जिसकी दीवारें नक्काशीदार लकड़ी के फलकों से ढंकी हुई हैं। चन्दन की लकड़ी का एक पैतृक पलंग कक्ष के एक छोर पर रखा है। यह एक दीवान-ए-आम हुआ करता था जहां राजा जनता की समस्याएं सुनते थे व उनकी समस्याएं सुलझाते थे।
जूनागढ़ किला संग्रहालय में दर्शनार्थ अनिवार्य वस्तुएं
गोपियों से नृत्य करवाता झूला
इस झूले की यंत्रावली कुछ इस तरह है कि जब इसे झुलाया जाता है तब इसके चौखट पर तराशी गईं गोपियाँ नृत्य करने लगतीं हैं। ऐसा हमें बताया गया। इसकी प्रमाणता जांचने हेतु झूले को हाथ लगाने व झुलाने की अनुमति नहीं है। फिर भी कलाकार की कलाकारी हमें दांतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर कर देती है।
पहले विश्व युद्ध का विमान
महाराजा गंगासिंह जी ने पहले विश्व युद्ध में भाग लिया था। इस उपलक्ष में उन्हें विजयचिन्ह के रूप में डी.एच.-९डी.ई. हविलैंड विमान उपहार स्वरुप प्रदान किया गया था। यह उन विमानों में से एक है जिसे इस युद्ध में मार गिराया गया था। इसे १९२० में जहाज द्वारा बीकानेर लाया गया था। इस विमान का रखरखाव उच्चतम त्रुटिहीन तरीके से किया गया है। संग्रहालय का एक सम्पूर्ण कक्ष इस विमान के प्रदर्शन हेतु समर्पित किया गया है। अनोखी बात यह है कि इस विमान के पुर्जों को अलग अलग कर यहाँ लाया गया था व इन पुर्जों को १९८५ में फिर जोड़ कर प्रदर्शन हेतु रखा गया है।
इस विमान के चारों ओर यातायात के अन्य परम्परागत साधनों को रखा गया है, जैसे तराशी गयी लकड़ी की पालकी।
सिद्धि
जसनाथी समुदाय उन सिद्ध महापुरुषों का समूह है जो कीलों व तलवारों पर चलकर अपनी अपार धार्मिक श्रद्धा व शारीरिक शक्ति का परिचय देते हैं। उनके कुछ उपकरण यहाँ प्रदर्शन हेतु रखे गए हैं।
राजसी तस्वीरें
संग्रहालय के कुछ कक्षों में चित्र दीर्घाएं व दालान हैं जहां राजसी तस्वीरों व चित्रों का भरपूर संग्रह है। इनमें कई तस्वीरों में राज परिवार की राजकुमारियों व रानियों का भी समावेश है।
कई स्थानों पर बीकानेर राजकुल की वंशावली भी प्रदर्शित की गयी है।
यहाँ प्राचीन संग्रहालय में चाँदी का आवरण युक्त एक अनोखी पुस्तक है।
एक राजपुतानी द्वारा अकबर को मारने का दृश्य दर्शाता चित्र भी बेहद अनोखा है। कहानियों के अनुसार अकबर को वह राजपुतानी भा गयी थी। इसलिए उसने उस राजपुतानी के पति को सैनिक अभियान पर परदेश भेज दिया और उस उस राजपुतानी को प्राप्त करने हेतु चला गया। स्वयं की रक्षा हेतु राजपुतानी ने कटार निकाली और अकबर को मारने हेतु उस पर चढ़ गयी। तब अकबर ने अपने हाथ जोड़ कर अपनी जान की भीख मांगी। इस कहानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजस्थान में उस काल के सामाजिक संरचना में स्त्रियों का भरपूर योगदान था। प्रबलता थी तभी तो एक स्त्री जरूरत पड़ने पर राजा को मारने से भी नहीं कतराती थी। इस चित्र के नीचे दिए विवरण के अनुसार उस स्त्री का नाम किरण लिखा गया है। स्वाभाविक है कि यह घटना काल्पनिक नहीं होगी।
बीकानेर के जूनागढ़ किले के दर्शन हेतु कुछ सुझाव
• वयस्क भारतीय नागरिकों के लिए महल दर्शन शुल्क ३०० रुपये हैं। यहाँ के सब निजी संपत्ति के अंतर्गत आने वाले महलों व किलों के दर्शन शुल्क यकीनन ज्यादा हैं। यही प्रचलन वड़ोदरा के लक्ष्मी निवास महल में भी देखा था।
• विदेशी नागरिकों के लिए अलग टिकट खिड़की है। मेरा अनुमान है कि उनका शुल्क भी अलग होगा।
• किले के भीतर प्राचीना नामक उपहारगृह है। परन्तु उसका उपयोग ना करने के कारण उसके बारे में कोई टिपण्णी नहीं कर सकती। अपने साथ पानी अवश्य रखें।
• इस किले के दर्शन हेतु कम से कम २ घंटे का समय लगता है। हालांकि यहाँ लिखी सब बारीकियों को ध्यानपूर्वक देखने हेतु आधे दिन का समय लग सकता है।
• प्राचीना संग्रहालय किले के परिसर के भीतर परन्तु मुख्य किले के बाहर स्थित है। इस छोटे संग्रहालय के दर्शन हेतु १५–३० मिनट का समय पर्याप्त है।
• टिकट खिड़की के पास परिदर्शक सुविधाएं उपलब्ध हैं।
• कुछ स्थानों पर मुफ्त श्रव्य परिदर्शन भी उपलब्ध हैं।
Excellent description
Felt as if I am watching the Junagadh Fort
धन्यवाद रुपाली, हमसे जुड़े रहिये और अपने विचार साँझा करते रहिये.
बहुत ही सुंदर एवम् तथ्य परख रोचक जानकारी . जुनागढ दुर्ग वास्तव में भारत का सबसे सुंदर रखरखाव युक्त दुर्ग होगा.स्थानीय वास्तुकला के साथ झरोखो में विदेशी सामग्री का संमिश्रण आश्चर्यजनक है . संपूर्ण जानकारी पढते समय दुर्ग मे विचरण करने का अहसास हुआ .हमेशा कि तरह हिंदी अनुवाद बहुत ही सुंदर .
धन्यवाद .
धन्यवाद प्रदीप जी. भारत के कुछ स्थल इतने सुन्दर हैं की लिखने वाले को कुछ विशेष करना नहीं पड़ता. हिंदी के पूरा श्रेय मधुमिता जी को जाता हैं. ये हमारा सौभाग्य है की हिंदी अनुवाद वो कर रही हैं.
I am glad to see article on Junagad fort. If not mistaken, this may be 1st article which is very illustrative and well described. During my posting in Jodhpur, in 1992 I visited this fort but it was not maintained so well. Only few sections were opened. There are many chariots / sofas / Clocks and old utensils ( glass & metal). Looks like special efforts are taken to clean it. It’s good that this great monument is preserved well and most important that you have introduced it to people in very simple way. Thanks.
धन्यवाद तेजस जी आपके प्रोत्साहन के लिए.
वाकई में बहुत ही खूबसरत महल है इस किले के अंदर और उनका रखरखाव भी राजस्थान के अन्य किलो से बढ़िया है , अभी घूम कर आया हूं बीकानेर से और इस पोस्ट को पढ़ कर गया था काफी मदद मिली । Keep it up
अंकित जी – जान कर अच्छा लगा ही हम आपकी यात्रा में सहायक बन सके, यही हमारा उदेश्य है की भारत में पर्यटन सार्थक कर पायें।