जाजपुर की बिरजा देवी के विषय में मुझे जानकारी उस समय प्राप्त हुई जब मैं आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक स्तोत्र का अध्ययन कर रही थी जिसमें भारत में स्थित १८ शक्तिपीठों के विषय में जानकारी दी गई थी। उन्होंने इसे ओडयान पीठ का नाम दिया था। यह शब्द ललिता सहस्त्रनाम जैसे अनेक शाक्त साहित्यों में भी उभरकर आता है। तत्पश्चात इंडिका यात्रा सम्मेलन में पुरी यात्रा पर दिए गए प्रस्तुतीकरण के समय मुझे ओडिशा के ४ क्षेत्रों के विषय में जानकारी मिली। जाजपुर इनमें से एक है। अतः स्वाभाविक ही है कि ओडिशा यात्रा नियोजित करते समय बिरजा देवी शक्तिपीठ के दर्शन को अपनी यात्रा कार्यक्रम में सम्मिलित करना ही था। भीतरकनिका से वापिस आते समय हमने बिरजा देवी शक्तिपीठ के दर्शन किये।
जाजपुर का संक्षिप्त इतिहास
जाजपुर शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द याजपुर अथवा यज्ञपुर से हुई है। इस नगरी से संबंधित किवदंती हमें उस काल में ले जाती है जब ब्रह्माजी ने इस स्थान पर यज्ञ किया था। इस स्थान के विषय में ऐसी भी मान्यता है कि यहाँ विभिन्न अश्वमेध यज्ञ किये गए थे। इस स्थान को जाजपुर कहने का यह भी एक कारण हो सकता है।
८ वीं. सदी से १० वीं. सदी के मध्य पर्यंत जाजपुर ओडिशा क्षेत्र की राजधानी थी। इस समयावधि में इस क्षेत्र में ६ साम्राज्ञियों ने भी शासन किया था। तत्पश्चात ओडिशा की राजधानी अनेक स्थानों में स्थानांतरित हुई जिनमें भुवनेश्वर एक है।
१६ वीं. सदी के मध्य में बंगाल के कालापहाड़ ने जब ओडिशा के जगन्नाथपुरी एवं कोणार्क जैसे अनेक महत्वपूर्ण मंदिरों को ध्वस्त किया था, तब उसने जाजपुर में भी आक्रमण किया था। उसने यहाँ के भी सभी प्राचीन मंदिरों को तहस-नहस कर दिया था।
बिरजा देवी की कथा
बिरजा देवी को आद्या अर्थात मूल देवी माना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि यहाँ चंपक वन में ब्रह्मा द्वारा किये गए यज्ञ में से उनकी उत्पत्ति हुई थी। यद्यपि उन्हे इस क्षेत्र में बिरजा देवी कहा जाता है तथापि आदि शंकराचार्य तथा अन्य शास्त्र उन्हे गिरिजा पुकारते हैं जिसका अर्थ पार्वती होता है, अर्थात पर्वत से उत्पन्न। मंदिर से ली एक पुस्तक में मैंने उनके नाम का एक अन्य विवेचन पढ़ा था जो इस प्रकार है, बिरजा का अर्थ है रज के बिना अथवा जिसमें केवल सत्व गुण उपस्थित हों। चूंकि उनकी उत्पत्ति विष्णु यज्ञ द्वारा हुई थी, उन्हे वैष्णवी के रूप में भी पूजा जाता है।
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बिरजा देवी की खड़ी प्रतिमा दो हस्त धारी है। उन्होंने बाएं हाथ से महिषासुर की पूंछ पकड़ी हुई है तथा दायें हाथ से त्रिशूल द्वारा उसका वध कर रही है। ऐसी प्रतिमा विरली है क्योंकि अधिकतर प्राचीन देवी प्रतिमाओं में उन्हे दो से अधिक हस्तों वाली दर्शाया गया है। इन में अन्य शक्तिपीठ भी सम्मिलित हैं।
बिरजा देवी की प्रतिमा शास्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है उनका मुकुट। उनके मुकुट पर गणेश, नागराज वासुकि, योनि सहित शिवलिंग, चंद्र इत्यादि की सूक्ष्म प्रतिमाएं हैं। उनका मुकुट हिन्दू धर्म के चारों पंथों का समागम करता है। विषय के ज्ञानी इसका यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि अंततः सर्व पंथ हमें आद्या की ओर अग्रसर करते हैं। उस परा-शक्ति बिरजा देवी की ओर ले जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि उनका जन्म पौष अर्थात त्रिवेणी अमावस्या के दिन हुआ था। उस दिन गायत्री मंत्रों के उच्चारों द्वारा उनकी अभिषेक किया जाता है।
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ऐसा माना जाता है कि जब क्रोधित भगवान शिव देवी सती की मृत देह उठाए तांडव नृत्य कर रहे थे। तब उनका क्रोध शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने चक्र द्वारा देवी की देह को छिन्न-भिन्न किया था। उस समय देवी की नाभि इस क्षेत्र में गिरी थी। इसीलिए यह एक शक्तिपीठ है तथा इसे नाभि पीठ भी कहा जाता है।
यह मंदिर उस त्रिकोण के मध्य स्थित है जिसके तीन कोण तीन शिव मंदिर हैं। वे हैं, किलटेश्वर, वरुणेश्वर तथा विल्वेश्वर। इनमें से दो अब जलमग्न हैं।
५ व अथवा ब की भूमि
जाजपुर के सप्तमत्रिका मंदिर में पुजारी भोला नाथ पंडा जी ने मुझे ५ व, जिसे ओडिशा में ब बोला जाता है, के विषय में जानकारी दी कि ये ५ व बिरजा क्षेत्र की पवित्र भूगोल की रचना करते हैं। वे हैं:
- वराह – विष्णु के इस अवतार की यहाँ आराधना की जाती है।
- विरजा देवी – इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी
- वेद – विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान
- विप्र अथवा ब्राह्मण
- वैतरणी नदी जो यहाँ बहती है।
जाजपुर के दर्शनीय स्थल
वैतरणी नदी के तीर स्थित जाजपुर एक छोटी सी नगरी है। वैतरणी ऐसी नदी है जिसे यहाँ आए सभी को एक ना एक बार पार करनी ही पड़ती है। अधिकतर तीर्थस्थलों के समान जाजपुर नगरी भी बिरजा देवी मंदिर के चारों ओर ही केंद्रित है। जिस दिन मैं जाजपुर भ्रमण के लिए आई थी, मैंने बिरजा देवी मंदिर के अतिरिक्त इस प्राचीन नगरी के अन्य कई आकर्षक स्थलों के भी दर्शन किये थे। आईए मैं आपको इस सुंदर नगरी के दर्शन पर ले चलती हूँ।
बिरजा देवी मंदिर संकुल
प्रथम दर्शन में बाहर से मंदिर चारदीवारी से घिरे एक छोटे दुर्ग के समान प्रतीत होता है। हमने संध्या के पश्चात नगर में प्रवेश किया था। अल्प प्रकाश के कारण इस मंदिर संकुल ने कम से कम मुझे तो यही आभास दिया था। दूसरे दिन प्रातः काल जब हमने मंदिर के दर्शन किये तब मंदिर अत्यंत भिन्न स्वरूप में प्रकट हुआ। दो सिंहों द्वारा रक्षित, एक रंग बिरंगे प्रवेश द्वार से जैसे ही हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया, एक अत्यंत जीवंत मंदिर हमारे समक्ष उपस्थित था।
स्वच्छ श्वेत रंग के मंदिर के शिखर एवं मंडप के ऊपर रंग बिरंगे अमलका थे। कारीगर इस पर निर्मल श्वेत रंग की परत चढ़ा रहे थे। मुख्य मंदिर के चारों ओर इसी प्रकार के कई और छोटे मंदिर थे।
बिरजा मंदिर संग्रहालय
मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बाईं ओर एक संग्रहालय है जो देवी की कथा से आपका परिचय कराता है। मेरे देखे किसी भी मंदिर में इस प्रकार के संग्रहालय का अवलोकन मुझे स्मरण नहीं। एक लघु कक्ष में चित्रावलियों के माध्यम से देवी की कथा दर्शाई गई है। ब्रह्म का यज्ञ, सुभ स्तंभ नामक शिला स्तंभ से देवी का उद्भव, उनके द्वारा महिषासुर का वध, नवदुर्गा के रूप में उनके विभिन्न स्वरूप इत्यादि का मनमोहक चित्रण किया गया है।
कक्ष के मध्य में देवी में से उनके तीन मूल स्वरूप, महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती का अवतरण प्रदर्शित किया गया है। कक्ष के एक कोने में शिव की एक विशेष प्रतिमा है जो एक दिशा से देखने पर अर्धनारीश्वर प्रतीत होती है।
यह एक छोटा सा कथावाचक क्षेत्र है जो अनभिज्ञ दर्शकों का देवी एवं इनके मंदिर से परिचय कराता है। यहीं से मुझे नगर के अन्य दर्शनीय स्थलों की भी जानकारी प्राप्त हुई। मैं संग्रहालय के अभीक्षक श्रीकांत जी का आभार प्रकट करना चाहती हूँ जिन्होंने गहन रुचि के साथ मुझे संग्रहीत वस्तुओं के विषय में जानकारी प्रदान की।
बिरजा देवी मंदिर
आप सर्वप्रथम देवी के वाहन, सिंह से भेंट करते हैं जो एक शिला स्तंभ पर विराजमान हैं। इस मंदिर का निर्माण ओडिया मंदिर-वास्तु शैली में किया गया है। इस शैली में निर्मित मंदिरों में आप वाहन को स्तंभ के ऊपर आरूढ़ देखेंगे जबकि अन्य मंदिरों में देवी के समक्ष उनका अपना मंडप अथवा पीठिका होती है।
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मंडप के भीतर लाल रंग के चार स्तंभ हैं। इन स्तंभों के एक ओर से घूमते हुए आप गर्भगृह पहुंचते हैं। मध्य में नित्य धूनी प्रज्वलित रहती है। आप अपने समक्ष ओडिया साड़ी एवं भरपूर पुष्पों से अलंकृत देवी की प्रतिमा देखेंगे। अलंकरण के कारण आप देवी की मूल प्रतिमा नहीं देख पाते। उनकी प्रतिमा को देखने का उत्तम स्थान संग्रहालय है।
देवी को दक्षिणा अर्पित करने तथा उनके चरणामृत प्राप्त करने के लिए पंडे माध्यम का कार्य करते हैं।
बिरजा देवी मंदिर संकुल के अन्य मंदिर
बगलामुखी मंदिर – मुख्य मंदिर के पृष्ठभाग में, बाईं ओर एक छोटा एवं सुंदर बगलामुखी मंदिर है। कुछ भक्तगण देवी को भ्रमराम्बिका भी पुकारते हैं क्योंकि आंध्र प्रदेश से भी अनेक भक्त इस मंदिर में दर्शनार्थ आते है। लकड़ी द्वारा निर्मित मुख्य द्वार पर सभी १० महाविद्याएँ उत्कीर्णित हैं। मंदिर के चारों ओर महामाया, महाकाली एवं कपाल भैरव की प्रतिमाएं हैं।
एक पाद भैरवी मंदिर – दाईं ओर एक पाँव वाली भैरवी को समर्पित एक मंदिर है। इसी कारण इन्हे एक पाद भैरवी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि कलयुग के अंत में यह मूर्ति यहाँ से चली जाएंगी।
शिव मंदिर – यह मुख्य मंदिर के स्वयंभू क्षेत्रपाल हैं।
बाबा वैद्यनाथ मंदिर – यह मुख्य मंदिर के समक्ष एवं उसी शैली में निर्मित मंदिर है।
डोला मंडप – यह तोरण युक्त एक मंडप है। होली के दिन यहाँ एक झूला लटकाया जाता है तथा देवी बाहर आकर झूले पर बैठकर होली खेलती हैं।
कोटी लिंग – आप यहाँ दो बड़े कक्ष देखेंगे जो शिवलिंगों से भरे हुए हैं। इनमें से कई सहस्त्रलिंग भी हैं, अर्थात एक लिंग पर अनेक सूक्ष्म लिंग उत्कीर्णित हैं। मुझे बताया गया कि जाजपुर करोड़ लिंगों अर्थात कोटी लिंगों की भूमि है। आज भी जब भूमि की खुदाई की जाती है तब भूमि से लिंग प्राप्त होते हैं। ऐसी मान्यता है कि ये सभी लिंग अपनी अर्चना करवाने के लिए यहाँ प्रकट हुए हैं। मंदिर परिसर में स्थित लिंगों की विशाल संख्या देख आप इस प्राचीन नगरी की संस्कृति की कल्पना कर सकते हैं।
नाभि गया
बिरजा देवी मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहाँ पिंड दान के अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं। यह इकलौता शक्तिपीठ है जहां इस प्रकार के अनुष्ठान किये जाते हैं। इस मंदिर में एक कुआं है जिसे नाभि गया कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह गयासुर का मध्य भाग है जिसका शीष बिहार के गया में तथा निचला भाग आंध्र प्रदेश के पीठपुरा में है।
इस स्थान पर कोई भी भक्त अपने पूर्वजों के श्राद्ध हेतु अनुष्ठान करवा सकता है। अब यह आधुनिक सरैमिक टाइल से ढँका कुआं है।
इस कक्ष के एक कोने में एक छोटा सा द्वार तथा नीचे जाती सीढ़ियाँ हैं जो शिवलिंग की ओर ले जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि आगे जाकर यह गंगा से जुड़ जाती हैं। ऐसी भी मान्यता है कि प्रत्येक अमावस्या, पूर्णिमा तथा संक्रांति के दिन जल सतह चढ़ता है तथा शिवलिंग को पवित्र स्नान कराता है।
वरदायिनी वृक्ष – मंदिर परिसर में एक विशाल वृक्ष पर अनेक लाल वस्त्र बंधे हुए हैं। ये सभी इच्छा फल प्राप्ति से संबंधित है।
बिरजा देवी मंदिर के उत्सव
शरद नवरात्रि के अवसर पर इस मंदिर में १६ दिवसों का उत्सव मनाया जाता है। इन दिनों सिंहध्वज नामक एक भव्य रथ पर बिरजा देवी की रथ यात्रा आयोजित की जाती है। यह भी इस शक्तिपीठ की विशेषता है।
यज्ञ कुंड से देवी के उद्भव की स्मृति में माघ मास की अमावस अर्थात त्रिवेणी अमावस के दिन भी उत्सव मनाया जाता है।
चैत्र मास में वैतरणी नदी के तट पर वारुणी मेला लगता है।
होली भी इस मंदिर का एक प्रमुख उत्सव है।
जाजपुर के अन्य मंदिर एवं दर्शनीय स्थल
ब्रह्म कुंड
मंदिर के जलकुंड के विषय में मान्यता है कि यह ब्रह्माजी का वही यज्ञ कुंड है जिसमें से देवी का उद्भव हुआ था। यह कुंड चारों ओर से वनीय क्षेत्र से घिरा हुआ था जिसे चंपक वन कहा जाता है। वर्तमान में अब यह स्थान हलचल भरी नगरी के मध्य आ गया है।
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सुभ स्तंभ
यह शिला में निर्मित एक प्राचीन स्तंभ है जो चारों ओर से बाड़ से घिरी हुई है। समीप ही एक प्राचीन वट वृक्ष भी है। वृक्ष की परिधि उसके वय का अनुमान दे देती है किन्तु शिला स्तंभ को सूक्ष्मता से ना देखें तो आप इसे बिजली का स्तंभ समझने की भूल कर सकते हैं। यह मंदिर का ही एक भाग है। कदाचित मंदिर की सीमा कभी यहाँ तक थी। इस स्तंभ के शीर्ष पर एक गरुड़ की प्रतिमा थी किन्तु अब उस गरुड़ को समर्पित स्वयं का एक मंदिर है। बिरजा देवी के सभी चित्रण में आप इस स्तंभ को अवश्य देखेंगे।
विद्वानों का मानना है कि यह सोमवंशी सम्राट ययाति-१ का विजय स्तंभ है।
कुसुमा झील
नगर के मध्य स्थित इस विशाल झील का रखरखाव अतिउत्तम है। इसके चारों ओर सैर करने के लिए सुंदर पगडंडी है। कुछ कुछ दूरी पर मूर्तियाँ स्थापित हैं जिसके चारों ओर पुष्प हैं। मैं केवल दूर से ही इसका अवलोकन कर पायी थी। यदि भारत के प्रत्येक नगर में इस प्रकार का उत्तम झील हो तो भारत एक स्वस्थ राष्ट्र होगा।
रक्षाकाली मंदिर
यह एक प्राचीन दक्षिण-काली मंदिर है जो प्राचीन प्रतीत नहीं होती। इस मंदिर का इकलौता प्राचीन भाग है मंदिर के बाहर स्थित वाराही देवी की एक विशाल मूर्ति। मैं सोच में पड़ गई, कहीं यह किसी समय वाराही मंदिर तो नहीं था?
जगन्नाथ मंदिर
ठेठ ओडिशा वास्तुशैली में निर्मित यह एक प्राचीन जगन्नाथ मंदिर है। मंदिर का ऊपरी भाग सादा है किन्तु इसके निचले भाग की शिला पटलों पर मूर्तियाँ गढ़ी हुई हैं। जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलभद्र की अप्रतिम प्रतिमाओं की मंदिर में पूजा अर्चना की जाती है।
यहाँ मेरा ध्यान एक सुंदर शिला पात्र पर गया। चौकोर आकार के इस पात्र में चरणामृत रखा जाता है। कदाचित इससे पूर्व मेरा ध्यान नहीं गया होगा, किन्तु इसके पश्चात मैंने जिस भी मंदिर के दर्शन किये उनमें से अधिकतर मंदिरों में इस प्रकार के पात्र को देखा।
इस मंदिर के पृष्ठभाग में एक अपेक्षाकृत नवीन जलकुंड है।
बूढ़ा अथवा वृद्ध गणेश मंदिर
यह मंदिर सप्त मातृका मंदिर के समीप स्थित है। यह मंदिर किसी समय मुख्य मंदिर का ही भाग था अथवा यह पूर्व से ही एक स्वतंत्र मंदिर है यह आंकना कठिन है। मंदिर के समीप जैन तीर्थंकर की एक मूर्ति तथा कुछ प्राचीन मूर्तियाँ स्थित हैं।
सप्त मातृका मंदिर
जाजपुर में यह मंदिर मेरे लिए एक नवीन खोज थी। इस मंदिर के विषय में मैंने मेरी इस यात्रा में ही सुना था। मन-मस्तिष्क में एक छोटे से मंदिर की कल्पना मात्र थी। मंदिर तो छोटा ही था किन्तु इसकी मूर्तियाँ विशाल थीं। काली शिला द्वारा निर्मित सप्त मातृकाओं अर्थात सात माताओं की प्रतिमाएं अत्यंत महाकाय एवं शक्तिशाली प्रतीत होती हैं। इन्हे देखते क्षण ही हृदय में श्रद्धायुक्त भक्ति एवं संभावित भय की भावना उत्पन्न होती है। ६ फीट से अधिक ऊंची व ३ फीट से अधिक चौड़ी प्रत्येक मूर्ति विशालकाय है। चंडिका के अतिरिक्त सभी मातृकाओं ने हल्के पीले रंग की साड़ियाँ पहनी थीं जिन पर लाल रंग में भिन्न भिन्न छाप थे। काली अपने काले वस्त्रों में सज्ज थीं।
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वस्त्रों के कारण मूर्तियों के ढके भागों का विस्तृत विवरण मैं नहीं जान पायी। कुछ समय पश्चात मैंने पढ़ा कि प्रत्येक मातृका ने हाथों में एक शिशु को उठाया हुआ है। ये सात मातृकाएं इस क्रम में उपस्थित हैं:
- शमशान काली
- चामुंडा
- वराही
- इंद्राणी
- वैष्णवी
- ब्राह्मी
- कौमारी
- माहेश्वरी
- नारसिंही
मुझे बताया गया कि किसी समय यहाँ एक विशाल सप्त मातृका मंदिर था जिसे आक्रमणकारियों से ध्वस्त कर दिया था। पुजारियों ने इन मूर्तियों की रक्षा करने के लिए इन्हे वैतरणी नदी में धकेल दिया था। अनेक वर्षों पश्चात प्रसिद्ध राजा ययाति केसरी ने इन प्रतिमाओं को नदी से बाहर निकाल कर उनके लिए वहीं नदी किनारे एक छोटा सा मंदिर बनाया। यह मंदिर एक लंबे कक्ष के समान है जो केवल इतना ही बड़ा है कि केवल इन मूर्तियों को समा ले। पुजारी के आनेजाने के लिए थोड़ा सा स्थान शेष है।
इस मंदिर का प्रवेश द्वार सामने ना होकर एक बाजू में है। चार झरोखे नदी की ओर खुलते हैं जहां से आप मातृकाओं को देख सकते हैं।
वराह मंदिर संकुल
वैतरणी नदी के उस पार एक वराह मंदिर संकुल है। इस मंदिर की भीतरी छत पर अप्रतिम चित्रकारी की गई है।
यहाँ वराह की दो प्रतिमाओं के साथ जगन्नाथ एवं लक्ष्मी की भी प्रतिमाएं हैं। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ वराह की तीन प्रतिमाएं थीं।
- यज्ञ वराह
- श्वेत वराह
- लक्ष्मी वराह
कालांतर में लक्ष्मी वराह की मूर्ति को समीप के एक गाँव में स्थानांतरित किया गया तथा उसके स्थान पर जगन्नाथ तथा लक्ष्मी की मूर्तियों को स्थापित किया गया। लक्ष्मी वराह यह नाम वर्तमान के कल्प का है जिसमें हम जी रहे हैं।
वराह मंदिर के चारों ओर अनेक लघु मंदिर हैं जो बिमला देवी, मुखलिङ्ग समेत शंकर, षष्ठी देवी, मुक्तेश्वर महादेव, सूर्य, चैतन्य महाप्रभु, राम दरबार, हनुमान, नरसिंह इत्यादि को समर्पित है।
जाजपुर यात्रा से संबंधित कुछ सुझाव
- जाजपुर एक प्रमुख तीर्थस्थल होते हुए भी यहाँ अधिक पर्यटक अथवा तीर्थयात्री नहीं आते हैं।
- पुरानी नगरी से कुछ ३० किलोमीटर की दूरी पर नवीन जाजपुर नगरी है जो एक औद्योगिक नगरी है तथा विकसित प्रतीत होती है। अच्छे तथा सुविधाजनक अतिथिगृह अधिकांशतः इस क्षेत्र में हैं। दो नगरों के मध्य आवाजाई के लिए मोटरगाड़ी की आवश्यकता पड़ती है।
- मंदिर के आसपास सादे भोजन की व्यवस्था हो जाती है।
- मंदिर दर्शन हेतु ३ घंटों के समय सहित मैंने जाजपुर दर्शन में कुल एक दिन का समय व्यतीत किया। आप आधे दिन में भी यहाँ बहुत कुछ देख सकते हैं।
- आप छतिया बट्ट धाम कल्की मंदिर देख सकते हैं जो विष्णु के भविष्य में आने वाले कल्की अवतार को समर्पित है तथा यहाँ से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर है।
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धन्यवाद मोहंती जी
अनुराधा जी,
ओडिशा के जाजपुर नगर मे स्थित प्राचीन बिरजा देवी शक्तिपीठ के बारे में बहुत ही सुंदर जानकारी युक्त आलेख ! प्रस्तुत आलेख से ज्ञात हुआ कि सदियों पुराना जाजपुर नगर, प्राचीन बिरजा देवी शक्तिपीठ के अलावा अनेको प्राचीन मंदिरों के संकुल को समेटे हुए है । यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इस शक्तिपीठ पर पिंड दान के अनुष्ठान भी किये जाते है !
एक प्राचीन एवम् प्रमुख तीर्थ क्षेत्र होते हुए भी अधिक
पर्यटकों का यहां न आना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है । शायद,क्षेत्र को पर्याप्त प्रसिद्धि न मिलना भी इसका एक कारण हो सकता है ।
सुंदर प्रस्तुति हेतू साधुवाद !
जी प्रदीप जी. मुझे भी बहुत आश्चर्य हुआ की यह एक शक्तिपीत होते हुए भी पूर्वी भारत के बाहर अज्ञात सा क्यूँ है!