बिठूर कानपुर से अधिक दूर नहीं है। दोनों नगर गंगा तट पर बसे हुए हैं। हमने कानपुर की अनेक विशेषताओं के विषय में सुना है, वह चाहे उच्च एवं उच्चतर शिक्षा संस्थान हों, उसका रेल स्थानक हो अथवा वहां के औद्योगिकी संस्थान। भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में भी कानपुर अत्यंत महत्वपूर्ण नगर रहा है।
बिठूर के स्थानिकों का कहना है कि बिठूर शब्द ‘बीरों का ठौर’ इस मुहावरे से आया है जिसका शाब्दिक अर्थ है, वीरों की भूमि। जब आप बिठूर के विषय में जानने का प्रयत्न करेंगे, आप भी अनुभव करेंगे कि यह नगरी वीर स्त्री-पुरुषों की कथाओं से गौरवान्वित है।
उत्पलारण्य, ब्रह्मासमतिपुरी तथा ब्रह्मव्रत बिठुर के अन्य नाम हैं।
बिठूर की दंतकथाएं
बिठूर नगर का प्राचीनतम उल्लेख सृष्टि के रचयिता, ब्रह्मा की कथाओं में प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि सम्पूर्ण मानवता के जन्मदाता मनु एवं सतरूपा की रचना करने से पूर्व, ब्रह्माजी ने गंगा के तट पर ९९ यज्ञ किये थे। इसी कारण इस स्थान को धरती का केंद्र बिंदु माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि धरती के इस केंद्र बिंदु को चिन्हित करने के लिए स्वयं ब्रह्मा जी ने अपनी खड़ाऊ की एक कील यहाँ गाड़ दी थी। उस कील को आज भी ब्रह्मव्रत घाट पर देखा जा सकता है।
बिठूर से सम्बंधित दूसरी कथा रामायण से है। बिठूर अयोध्या की सीमा से बाहर स्थित है। राम द्वारा त्यागे जाने के पश्चात सीता को लक्ष्मण ने यहीं छोड़ा था। गंगा नदी के समीप ही वाल्मीकि का आश्रम है जहां पर माता सीता ने लव एवं कुश को जन्म दिया था तथा उनका पालन-पोषण किया था। इसी स्थान पर लव एवं कुश ने श्री राम के अश्वमेधयज्ञ के अश्व को रोका था तथा हनुमान को बंदी बनाया था। इसी स्थान पर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी।
तीसरी कथा ध्रुव से सम्बंधित है जिसे हम ध्रुव तारा मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि ध्रुव के पिता उत्तानपाद उत्पलारण्य नामक स्थान के राजा थे। उत्पलारण्य बिठूर का ही प्राचीन नाम है। पिता द्वारा उपेक्षित होने के पश्चात पांच वर्ष की कोमल आयु में ध्रुव ने राजमहल का त्याग किया तथा एक पैर पर खड़े होकर भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर उसे तारामंडल में उच्चतम पद पर स्थापित होने का वरदान दिया। आज वो जहां स्थित है उसे हम ध्रुव तारा कहते हैं। यह स्थान सूर्य, चन्द्र, ग्रहों, नक्षत्रों एवं सप्तऋषियों से भी उच्च है। जिस स्थान पर खड़े होकर ध्रुव ने तपस्या की थी, उसे ध्रुव टीला कहते हैं।
बिठूर की चौथी लोककथा हमारे कालखंड के समीप है। यह वही स्थान है जहां रानी लक्ष्मीबाई ने युद्ध-कौशल का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वे एक वीर योद्धा थीं। नन्ही बालिका लक्ष्मीबाई ने चार वर्ष की कोमल आयु से सोलह वर्ष की आयु तक यहाँ प्रशिक्षण प्राप्त किया था। पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब ने बिठूर को अपनी राजधानी बनाया था। अनेक मराठी भाषी परिवार उस काल से बिठूर में निवास करते आ रहे हैं।
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बिठूर के दर्शनीय स्थल
गंगा नदी एवं उसके घाट
बिठूर गंगा नदी के तट पर बसा है। घाटों की लम्बी पंक्ति के एक ओर से शांत गंगा नदी बहती रहती है। यहाँ के अप्रतिम दृश्य से मेरा प्रथम साक्षात्कार गंगा के ऊपर बने सेतु से हुआ था। वहां से बिठूर नगर के जलीय अग्रभाग का दृश्य अत्यंत विहंगम दिखाई पड़ रहा था। ऊँचाई से वह दृश्य ठीक वैसा ही प्रतीत हो रहा था जैसा प्राचीन काल में दृष्टिगोचर रहा होगा, जब पृष्ठभाग में स्थित ऊँची इमारतें उसके सौंदर्य पर अपनी अवांछित परछाई नहीं डालती थीं। कुछ तीर्थ यात्रियों को गंगा की सैर कराती एक नौका भी शांत जल में विचरण कर रही थी।
नगर में प्रवेश करते ही आपको अनुभव होगा कि अधिकांश नगर का जीवन नदी के किनारे व्यतीत होता है।
यहाँ के घाटों की ढलान अत्यंत तीक्ष्ण है। वाराणसी के घाटों के समान ये जुड़े हुए भी नहीं हैं। इसलिए सभी घाटों पर पैदल सैर करने के लिए मुझे पुनः पुनः घाट चढ़ना एवं उतरना पड़ रहा था। किसी भी प्राचीन नगर के समान यहाँ के घाटों पर भी मंदिरों एवं पुरोहितों के निवास स्थानों की पंक्तियाँ थीं। सभी मंदिर छोटे थे तथा अधिकांश मंदिरों के भीतर शिवलिंग स्थापित थे। भैरव घाट पर मुझे भैरव मंदिर दिखाई दिया। मैंने तुरंत आसपास के लोगों से समीप ही देवी के मंदिर के विषय में पूछताछ आरम्भ कर दी। क्योंकि सामान्यतः जहाँ देवी का मंदिर होता है, समीप ही भैरव का भी मंदिर होता है। कुछ लोगों ने एक वृक्ष के नीचे स्थित देवी के कुछ विग्रहों की ओर संकेत किया। उन्हें देख ऐसा प्रतीत हो रहा था कि किसी काल में वे किसी ऐसे मंदिर में स्थापित रहे होंगे, जो अब समय के साथ नष्ट हो चुका है।
यहाँ के अधिकाँश मंदिर १९वीं सदी में निर्मित अथवा पुनर्निर्मित हैं। घाट के समीप स्थित कुछ संरचनाओं में जो ईंटें प्रयोग में लाई गयी हैं, उनका प्रयोग सामान्यतः दूसरी से चौथी सदी में किया जाता था। जितना संभव हो पा रहा था, मैं घाटों के किनारे ही पैदल चलने का प्रयास कर रही थी। एक स्थान पर मिट्टी का घाट था। हो सकता है कि इस ऋतु में जलस्तर नीचे जाने के कारण मिट्टी का भाग उभर कर आ गया हो।
ब्रह्मव्रत घाट
यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण घाट है। इसी घाट पर ब्रह्माजी ने ९९ यज्ञ पूर्ण किये थे। घाट की ओर जाने वाले मार्ग पर एक तोरण है जिससे भीतर जाते ही आप संकरी गलियों से होकर आगे बढ़ेंगे। गलियों के दोनों ओर रंगबिरंगी दुकानें हैं जहां भक्तों के लिए आवश्यकतानुसार सभी पूजन सामग्रियां उपलब्ध हैं। मैं महाशिवरात्रि से कुछ दिवस पूर्व ही यहाँ आयी थी। उस समय ये दुकानें काँवढ़ियों के लिए आवश्यक वस्तुओं से भरी थीं ताकि वे गंगा का जल शिव मंदिरों तक ले जा सकें।
घाट तक पहुँचने के लिए हमने एक सभामंडप को पार किया। उस मंडप की भित्तियों पर मकर वाहिनी गंगा, हंस वाहिनी सरस्वती तथा सिंह वाहिनी दुर्गा के सुन्दर चित्र थे।
घाट पर आप ब्रह्माजी द्वारा गाड़े गए कील को देख सकते हैं। इसे एक खुले मंदिर की भाँति बनाया गया है। पृष्ठभाग की भित्ति पर इस कील के विषय में जानकारी दी गयी है। वहां बैठे पुरोहित ने बताया कि पुष्कर में ब्रह्मा की मूर्ति की आराधना की जाती है तथा यहाँ उनके चरणों की पूजा की जाती है।
एक बालक छोटे पात्रों में दूध की बिक्री कर रहा था जिसे इस कील पर चढ़ाया जाता है। पुरोहितजी ध्वनियंत्र पर दूध अर्पण करने के लाभों के विषय में बता रहे थे। वे प्रत्येक भक्त का नाम एवं उसकी अर्पित मात्रा की भी घोषणा कर रहे थे। भक्तगण दूध अर्पण कर, कुछ दक्षिणा देकर तथा प्रार्थना कर घाट की ओर जा रहे थे।
बिठूर के गंगा घाट
घाट पर कई श्रद्धालु स्नान कर रहे थे। एक ओर रंगबिरंगी नौकाएं पंक्ति में खड़ी थीं। नाविक लोगों को नदी में नौका विहार करने के लिए पुकार रहे थे।
एक घाट पर घोड़े की सवारी करती एवं आकाश में अपनी तलवार उठायी हुई, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की आदमकद मूर्ति थी। एक अन्य घाट पर भक्तगण अपने काँवड़ के घड़ों को गंगा के जल से भर रहे थे ताकि वे उसे बाराबंकी के शिव मंदिर में ले जा सकें। वे गंगा जल से भरे काँवड़ को कन्धों पर उठाये लगभग २०० किलोमीटर तक पैदल यात्रा करते हैं।
यत्र-तत्र छोटे छोटे मंदिर हैं, कुछ सम्पूर्ण, कुछ त्यक्त तथा कुछ अपूर्ण। आप कई प्राचीन पाषाणी मूर्तियाँ मंदिर के भीतर एवं बाहर देख सकते हैं। नवीन एवं प्राचीन गृह हैं जिनमें लकड़ी के नक्काशी युक्त सुन्दर द्वार हैं। आसपास अनेक वानर उछल-कूद करते रहते हैं।
कुछ घाटों का नवीनीकरण किया गया है। यहाँ से गंगा का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है। घाट के एक छोर पर एक बारादरी है जिसे लखनऊ के नवाब के दरबार के एक मंत्री, टिकैत राय ने बनवाया था। १९५० में इसका नवीनीकरण किया गया था। आसपास अनेक सुन्दर हवेलियाँ हैं जिनके मध्य में खुला प्रांगण है।
यहाँ का प्रमुख मंदिर एक शिव मंदिर है जिसके विषय में मान्यता है कि इसका निर्माण स्वयं ब्रह्मा ने करवाया था। इसे ब्रह्मेश्वर मंदिर कहते हैं। यहाँ ऐसे दो मंदिर हैं। उनमें से मूल ब्रह्मेश्वर मंदिर कौन सा है, किसी को ज्ञात नहीं है।
घाट के पीछे कई मंदिर एवं आश्रम हैं। जब मैं वहां की यात्रा कर रही थी, उनमें से अधिकतर मंदिरों एवं आश्रमों के द्वार बंद थे। एक संकरी गली में एक भित्ति पर मैंने गंगा का एक लघु मंदिर भी ढूँढा।
ध्रुव टीला
गंगा के घाट एवं सेतु के उस पार ध्रुव टीला स्थित है। वहाँ तक पहुँचने के लिए सूचना पट्टिकाओं पर आवश्यक संकेत दिए गए हैं। वहां प्राचीन इतिहास का नाममात्र चिन्ह भी अब शेष नहीं है। यहाँ रंगों से ओतप्रोत एक आश्रम है। जब मैं वहां पहुँची थी तब भीतर राम धुन गाई जा रही थी। कुछ दूर नीचे जाने पर एक प्राचीन हनुमान मंदिर है जिसके भीतर हनुमान की माता अंजनी की प्रतिमा है।
गंगा के इस तट पर घाट नहीं हैं। जंगलों से गंगा अपना मार्ग कैसे बनाती है, इसका आभास आप गंगा के इस तट पर आकर ले सकते हैं।
वाल्मीकि आश्रम
यह बिठूर का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय दर्शनीय स्थल है। गंगा नदी से किंचित दूरी पर स्थित वाल्मीकि आश्रम की भित्ति पर चित्रावली है जिसमें लव एवं कुश को हनुमान एवं अश्मेध यज्ञ के घोड़े को रस्सियों से बाँध कर बंदी बनाते दर्शाया गया है।
श्वेत रंग में एक सुन्दर मंदिर है जिसका उत्तम रूप से रखरखाव किया गया है। इसका निर्माण नाना पेशवाजी ने किया था। गर्भगृह के भीतर काली शिला में बना शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के ऊपर प्रायिक शिखर के स्थान पर गुम्बद है। उत्तम रीति से उत्कीर्णित लकड़ी का द्वार-चौखट है। स्तंभों से युक्त खुला सभामंडप है। मंदिर के सम्मुख ठेठ मराठा शैली का दीपस्तंभ है।
सीता समाधि
दीपस्तंभ के निकट एक चौकोर गड्ढा है जिस पर पक्की मेंढ़ बनाई हुई है। ऐसी मान्यता है कि सीता माता इसी स्थान पर धरती में समाई थीं। समाधि के एक ओर कुछ लघु मंदिर हैं जो वन देवी, रामायण लिखते वाल्मीकि एवं रत्नाकर को समर्पित हैं। वहां कुछ सन्यासी बैठकर ध्यान कर रहे थे।
समाधि के दूसरी ओर एक लघु संरचना के भीतर एक खंडित घंटा लटका था। उस संरचना के भीतर कुछ प्राचीन शैल विग्रह भी थे। ऐसा कहा जाता है कि नाना पेशवा इस घंटे का प्रयोग तात्या टोपे को पुकारने के लिए करते थे। इसे सीता रसोई भी कहते हैं। वहां कुछ पात्र भी रखे हुए थे। मुझे बताया गया था कि समीप ही एक जलाशय है जिसे सीता कुण्ड कहते हैं किन्तु मुझे वह दिखाई नहीं दिया।
इस स्थान में मुझे अत्यंत शान्ति की अनुभूति हुई। मैं वहां एक प्राचीन वटवृक्ष के नीचे बैठ गयी। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैं वहां कुछ समय शान्ति से व्यतीत करूँ। वहां के वातावरण में आध्यात्म की भावना थी। ऐसा वातावरण एवं शान्ति किसी की रचनात्मक क्षमताओं को उभरने का सर्वोत्तम साधन है।
आश्रम के चारों ओर सीता माता एवं उनके पुत्रों के कई मंदिर हैं। कुछ मंदिर यह घोषणा कर रहे थे कि लव एवं कुश का जन्म उसी स्थान पर हुआ था। हनुमान तो इस नगर के प्रिय भगवान हैं ही। समीप ही एक वैदिक गुरुकुल भी है।
नाना राव पेशवा स्मारक उद्यान – बिठूर
नाना साहेब का महल १८५७ के युद्ध में नष्ट हो गया था। आज आप कुछ दूरी से उस महल की भंगित भित्तियाँ देख सकते हैं। अब इस स्थान पर एक सुन्दर स्मारक का निर्माण किया गया है।
यहाँ एक लघु संग्रहालय है जहाँ अनेक सुन्दर वस्तुएं प्रदर्शित की गयी हैं। मुझे विशेषतः रानी लक्ष्मीबाई का मूल चित्र अब भी स्मरण है। एक अन्य शिल्प में उन्हें अपने अश्व पर आरूढ़ प्रदर्शित किया है। संग्रहालय के दूसरे छोर पर नाना साहेब की भी एक विशाल प्रतिमा है।
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यह सम्पूर्ण उद्यान भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में इस स्थान का एवं विशेषतः नाना साहेब के योगदान का स्मरण करता है। यहाँ आने से पूर्व मुझे यह ज्ञात नहीं था कि इसी स्थान पर रानी लक्ष्मीबाई ने एक योद्धा का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वास्तव में, गंगा द्वारा पोषित यह स्थान वीरों की पावन भूमि है।
यात्रा सुझाव
- बिठूर का भ्रमण लखनऊ अथवा कानपुर से एक दिवसीय यात्रा के रूप में आसानी से किया जा सकता है।
- यहाँ भोजन व्यवस्था सीमित है। सड़कों पर कुछ मिठाई तथा फलों की दुकानें अवश्य हैं।
- आप निर्देशित भ्रमण के अंतर्गत बिठूर का भ्रमण करें को अधिक सुविधाजनक होगा। मैंने लखनऊ के Tornos Indiaकी सेवायें ली थीं।
- पैरों में ऐसे सुविधाजनक जूते अथवा चप्पल पहनें जिससे आपको चलने में कष्ट ना हो तथा जिसे तुरंत पहने या निकाले जा सकें।
यदि आपको इस नगर के कुछ ऐसे आयामों की जानकारी है जो इस संस्करण में सम्मिलित नहीं है तथा आप उसे सम्मिलित करना चाहें तो आप उसे हमसे अवश्य साझा करें। आप अपनी जानकारी टिप्पणी खंड में दे सकते हैं।
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