चलिए मथुरा वृन्दावन में ब्रज की होली का आनंद लेने

0
3878

होली का पर्व भारत का सर्वाधिक उल्हासपूर्ण पर्व है। इसी होली के आनंददायक पर्व का यदि आप कहीं पारंपरिक रूप से अनुभव लेना चाहते हैं तो वह स्थान है, ब्रज भूमि अथवा मथुरा वृन्दावन जो। ब्रज की होली का अपना ही आनंद है।

रंगों का उत्सव – होली

मथुरा वृन्दावन में ब्रज की होली
मथुरा वृन्दावन में ब्रज की होली

रंगों का पर्व होली भारत के कई महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। यह सम्पूर्ण भारत का सर्वाधिक आनंददायी उत्सव है। लोग एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाकर उन्हें रंगों में सराबोर करते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के मिष्ठान बनाकर मित्रों एवं परिवारजनों में बाँटते हैं। यह पर्व जिस समय मनाया जाता है, उस समय भारत में फसल की कटाई होती है तथा उसकी बिक्री कर किसान के हाथों में धन आता है। मौसम भी अत्यंत सुहावना रहता है जब वह शीत ऋतु की चौखट के बाहर आ चुका होता है तथा ग्रीष्म ऋतु उसकी प्रतीक्षा में कुछ दूर खड़ी रहती है।

यद्यपि होली का उत्सव भारत के अधिकतर स्थानों में मनाया जाता है, तथापि रंगों का यह उत्सव उत्तर भारत में अधिक लोकप्रिय है।

होली के रंग

गुलाल और गेंदा
गुलाल और गेंदा

होली के रंगों में गुलाबी गुलाल सबका प्रिय रंग है। गुलाबी के साथ लोग लाल, हरे, नीले, पीले, जामुनी इत्यादि रंगों से भी होली खेलते हैं। प्राचीन काल में लोग प्राकृतिक वस्तुओं से होली के रंग प्राप्त करते थे जैसे, हल्दी, मेहंदी, केसर, सिन्दूर, रेत इत्यादि। ये आरोग्य को हानि नहीं पहुंचाते। कालान्तर में प्राकृतिक रंगों का स्थान रासायनिक रंगों ने ले लिया जिनमें कुछ हानिकारक भी हो सकते हैं। इसलिए अब यह प्रयत्न किये जा रहे हैं कि लोग अधिक से अधिक प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करें।

श्री बांके बिहारी मंदिर की एक पुरानी पिचकारी
श्री बांके बिहारी मंदिर की एक पुरानी पिचकारी

होली में सूखे एवं जल मिश्रित, दोनों रंगों का प्रयोग होता है। मेरा अनुभव कहता है कि लोग रंगीन जल की होली का अधिक आनंद उठाते हैं। बच्चे प्रातः से ही गुब्बारों में रंगीन जल भरना आरम्भ कर देते हैं। तत्पश्चात एक दूसरे पर ये गुब्बारों मारते हैं। सड़क पर आतेजाते बेसुध लोगों पर गुब्बारे मारना उन्हें अधिक भाता है। पिचकारी में भी रंगीन जल भरकर लोगों पर दूर से वार करते हैं। पिचकारी से स्मरण हुआ कि मैंने वृन्दावन के ब्रज संग्रहालय में बांके बिहारी मंदिर की एक पुरानी किन्तु सुन्दर पिचकारी देखी थी।

रंगों से खेलने के पश्चात अनेक प्रकार के स्वादिष्ट मिष्ठान खाए एवं खिलाये जाते हैं। इनमें गुझिया सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। ठंडाई भी होली का सर्वप्रिय पेय है। इसमें कहीं कहीं भांग मिलाने की भी रीत है।

होली पर्व कब मनाते हैं?

यमुना किनारे होली के रंग
यमुना किनारे होली के रंग

हिन्दू पंचांग के अनुसार ब्रज में होली वसंत पंचमी से आरम्भ होकर फाल्गुन पूर्णिमा तक खेली जाती है। इस समयावधि के अंतिम चरण अर्थात् फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली सम्पूर्ण भारत में मनाई जाती है। जूलियन कैलेंडर के अनुसार यह लगभग मार्च के महीने में आती है। आप होली की सही तिथि के विषय में जानकारी किसी भी पञ्चांग अथवा इन्टरनेट से प्राप्त कर सकते हैं।

मथुरा वृन्दावन में होली का उत्सव लगभग ४० दिनों तक मनाया जाता है। आप चौंक गए ना! वास्तव में होली का पर्व फरवरी मास की बसंत पंचमी से आरम्भ होकर फाल्गुन में अपनी चरम सीमा पर पहुंचता है।

२०१९ में होली की तिथियाँ

१. लड्डू होली – १४ मार्च २०१९
२. लठमार होली – बरसाना में १५ मार्च २०१९ एवं नंदगाँव में १६ मार्च २०१९
३. श्री कृष्ण जन्मभूमि होली – मथुरा में १७ मार्च २०१९
४. बांके बिहारी मंदिर होली – वृन्दावन में १७ – २० मार्च २०१९
५. छड़ीमार होली – गोकुल में १८ मार्च २०१९
६. होलिका दहन – फालेन में २० मार्च २०१९
७. चतुर्वेदी समाज का डोला – मथुरा में २० – २१ मार्च २०१९
८. दाउजी का हुरंगा – बलदेव में २२ मार्च २०१९
९. मुखराय नृत्य – २२ मार्च २०१९

ब्रज की होली से सम्बंधित किवदंतियां

होली का पर्व ब्रजभूमि में मनाये जाने वाले दो सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं बड़े उत्सवों में से एक है। ब्रजभूमि का दूसरा बड़ा उत्सव है कृष्ण जन्माष्टमी। ८४ कोस अर्थात् लगभग ३०० किलोमीटर के क्षेत्र में फैली ब्रजभूमि की दो प्रमुख नगर हैं, मथुरा एवं वृन्दावन। आज के परिप्रेक्ष्य में, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान राज्यों के मध्य पसरा हुआ यह क्षेत्र श्रीकृष्ण की भूमि है। यहीं उन्होंने बाललीला एवं रासलीला रचाई थी। होली का पर्व उन उत्सवों में से है जो उनकी गाथाओं एवं किवदंतियों का मंगलगान करता है।

मथुरा वृन्दावन में ब्रज की होली के विभिन्न स्वरूप

जहां भारत के अन्य भागों में होली का त्यौहार रंगों एवं गीत-संगीत द्वारा मनाया जाता है, वहीं मथुरा वृन्दावन में कई भिन्न प्रकारों से होली मनाई जाती है। प्रत्येक होली की अपनी तिथी एवं अपना स्थान है। प्रत्येक वर्ष मनाई जाने वाली होली के इन भिन्न प्रकारों के विषय में कालानुक्रमिक रूप से यहाँ उल्लेख करना चाहती हूँ।

बरसाना की लड्डू होली

राधा एवं उनके पिता वृषभानु का गाँव है यह बरसाना। बरसाना में ब्रह्मगिरी पर्वत के शिखर पर राधा का एक सुन्दर मंदिर भी है।

बरसाना में होली के उत्सव का औपचारिक आरम्भ होता है जब नंदगाँव के निवासी बरसाना के निवासियों को होली का उत्सव मनाने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसे फाग आमंत्रण उत्सव कहते हैं। इसी दिन बरसाना में लड्डू होली मनाई जाती है। दूसरे दिन बरसाना में तथा तीसरे दिन नंदगाँव में लठमार होली मनाई जाती है।

आप सोच रहे होंगे कि यह लड्डू होली वास्तव में क्या है! यह होली मन्दिर में मनाई जाती है जहां लोग एक दूसरे के ऊपर पीले पीले स्वादिष्ट लड्डू फेंकते हैं। इससे मुझे अपने विद्यालय में स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस के समारोह का स्मरण होता है। उन दिनों में हम भी दिए गए लड्डुओं से इसी प्रकार खेलते थे। लड्डू होली के समय सम्पूर्ण मंदिर पीतवर्ण हो जाता है जो कृष्ण का प्रिय रंग भी है। आप को स्मरण होगा, कृष्ण को पीताम्बर भी कहते हैं, जिसका अर्थ है पीतवस्त्र धारण करने वाला।

समय – फाल्गुन मास की शुक्ल अष्टमी

बरसाना व नंदगांव की लठमार होली

लट्ठमार होली - बरसना
लट्ठमार होली – बरसना

गोकुल में बचपन बीतने के पश्चात कृष्ण के पिता नन्द, कृष्ण एवं गोप-ग्वालों को लेकर सपरिवार नंदगांव में निवास करने लगे। नवयुवक कृष्ण नंदगांव एवं बरसाना में राधा एवं अन्य गोपिकाओं के संग होली खेलते थे। यहीं विश्व प्रसिद्ध लठमार होली मनाई जाती है। गाँव की स्त्रियाँ रंग में सराबोर पुरुषों को बड़ी लाठियों से पीटती हैं तथा गालियाँ सुनाती हैं। यदि आप इस प्रकार की अनोखी होली देखना चाहते हैं तो नंदगांव एवं बरसाना अवश्य जाएँ।

आपको अचरज होता होगा कि अंततः इस प्रकार की होली की रीत कहाँ से आयी? इस होली का सम्बन्ध कृष्ण एवं राधा से है। कृष्ण नंदगांव में रहते थे एवं राधा बरसाना गाँव की थी। इन दोनों गाँव के मध्य सम्बन्ध भी राधा एवं कृष्ण के सम्बन्ध से व्युत्पन्न है। कृष्ण के नंदगांव से पुरुष राधा के बरसना गाँव की स्त्रियों से होली खेलते हैं।

नंदगाँव की लट्ठमार होली
नंदगाँव की लट्ठमार होली

बरसाना की स्त्रियाँ नंदगांव के पुरुषों को लाठियों से मारती हैं। ढाल द्वारा पुरुष स्वयं को बचाने का प्रयत्न करते हैं। दोनों दल एक दूसरे को चुन चुन कर गालियाँ भी देते हैं। चारों ओर सम्पूर्ण वातावरण अबीर गुलाल से भर जाता है।

बरसाना नंदगाँव की लट्ठमार होली
बरसाना नंदगाँव की लट्ठमार होली

यदि आप इस समय यहाँ आना चाहें तो रंगों में सराबोर होने के लिए तत्पर रहिये। आप चाहकर भी रंगों से अछूते नहीं रह सकते। उसी प्रकार कुछ गालियाँ एवं मीठी छेड़खानी के लिए भी सजग रहिये, विशेषतः यदि आप स्त्री हैं। क्योंकि सम्पूर्ण वातावरण रंगों के साथ साथ ऊर्जा से भी ओतप्रोत हो जाता है।

समय – बरसना में फाल्गुन शुक्ल नवमी एवं नंदगांव में फाल्गुन शुक्ल दशमी

गोकुल की छड़ीमार होली

आप सब जानते हैं, बचपन में कृष्ण, यमुना नदी के बाएं तट पर स्थित गाँव, गोकुल में निवास करते थे। कृष्ण के जन्म के पश्चात उन्हें कंस से बचाने के लिए, उनके पिता वसुदेव ने तूफानी रात में उफनती यमुना नदी पार की तथा उन्हें गोकुल ले आये। कृष्ण ने अपना बालपन गोकुल में ही बिताया। इसलिए गोकुल में उनके बाल स्वरूप को पूजा जाता है।

गोकुल के अधिकाँश मंदिरों में आप नन्हे बालकृष्ण को झूले में विराजमान देखेंगे। मंदिरों में दर्शनार्थ आये भक्तगण इन्हें झूला झुलाते हैं।

गोकुल में छड़ीमार होली मनाई जाती है। इसके लिए एक छोटी नाजुक छड़ी का प्रयोग होता है। ये होली बरसाना एवं नंदगांव की लठमार होली का मृदु रूप है।

मथुरा की कृष्णजन्म भूमि का होली उत्सव

मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि संकुल में एक विशाल प्रांगण है जहां होली मनाई जाती है। मुझे बताया गया कि यहाँ रंगों को फव्वारों द्वारा हवा में फेंका जाता है। प्रांगण में उपस्थित कोई भी इससे नहीं बच सकता। अंततः होली के उत्सव में कोई रंगों से क्यों बचना चाहेगा? रंगों में रंगे सब एकरूप हो जाते हैं। जात-पात, धर्म, धन एवं व्यक्तिमत्व की भिन्नता भूलकर सब प्रसन्नता से होली का उत्सव मनाते हैं।

समय – रंगभरी एकादशी अथवा फाल्गुन शुक्ल एकादशी

वृन्दावन में बाँके बिहारी के मंदिर की होली

श्री बांके बिहारी मंदिर की होली
श्री बांके बिहारी मंदिर की होली

वृन्दावन में सर्वाधिक आनंददायी स्थल है बाँके बिहारी का मंदिर। ४ दिवसों तक यहाँ होली का उत्सव जारी रहता है। यह फाल्गुन की एकादशी को आरम्भ होकर पूर्णिमा तक मनाया जाता है।

लोगों पर रंग उड़ाते पुजारियों की कई छवियाँ आपने भी देखी होंगी। उनमें से अधिकतर छवि इसी मंदिर की होंगी। यह एक प्रसिद्ध एवं भीड़भाड़ वाला मंदिर है।

समय – रंगभरी एकादशी अथवा फाल्गुन शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक

मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर की होली

मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर की होली
मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर की होली

मथुरा वृन्दावन के अन्य मंदिरों के समान, विश्राम घाट के समीप स्थित रंगीन द्वारकाधीश मंदिर के परिसर में भी होली का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।

मैंने द्वारकाधीश मंदिर के दर्शन होली से एक सप्ताह पूर्व किये थे। तब मैंने मंदिर परिसर के मंच पर स्त्रियों के समूहों को पारंपरिक गीत गाते देखा था। होली डोला एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक शोभायात्रा है जो द्वारकाधीश मंदिर से आरम्भ होती है।

और पढ़ें: द्वारका का द्वारकाधीश मंदिर

मथुरा के चतुर्वेदी समाज का डोला

मथुरा का होली डोला
मथुरा का होली डोला

होली के अवसर पर चतुर्वेदी समाज द्वारा एक विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है। यह विश्राम घाट के समीप स्थित द्वारकाधीश मंदिर से आरम्भ होती है तथा छत्ता बाजार, होली द्वार, कोतवाली द्वार, घिया मंडी तथा स्वामी द्वार होते हुए वापिस विश्राम घाट पहुंचती है।

जैसे जैसे शोभायात्रा आगे बढ़ती है, लोग एक दूसरे पर रंग, इत्र तथा पुष्प छिड़कते हैं। वादकों द्वारा बजाते संगीत के सुरों पर उत्सव गीत गाते हैं। पारंपरिक रूप से भांग का भी सेवन करते हैं।

होली डोला साधारणतः दोपहर २ बजे से आरम्भ होता है।

फगुआ

फगुआ एक ऐसी परंपरा है जहां देवर भाभी या जीजा साली से भेंट करते हैं तथा उन्हें उपहार देते हैं। अधिकांशतः उपहार के रूप में मिठाई के डिब्बे देते हैं। तथापि भेंट क्या हो, यह उपहार देने एवं लेने वालों पर निर्भर है।

स्त्रियाँ विवाह के पश्चात प्रथम होली का पर्व अपने मायके में मनाती हैं। तब उनके पतिदेव उपहार लेकर उनसे मिलने अपने ससुराल अर्थात पत्नी के मायके जाते हैं।

मेरे अनुमान से यह होली के उत्सव के औपचारिक समापन हेतु उत्तम रीत है, विशेषतः जब अज्ञानवश किसी के द्वारा किसी का अपमान हुआ हो। अतः, यदि आप एक स्त्री हैं तथा पुरुष वर्ग आपसे होली खेलने की इच्छा व्यक्त करता हो तो आप अधिकारपूर्वक उनसे फगुआ की मांग कर सकते हैं।

समय – चैत्र कृष्ण प्रथम – २० मार्च २०१९

फूलवाली होली अर्थात् पुष्पों की होली

मथुरा वृन्दावन में एक भिन्न प्रकार की मनभावन होली भी खेली जाती है। पुष्पों की होली! यह अपेक्षाकृत नवीन प्रथा प्रतीत होती है। यहाँ आयोजित अनेक समारोहों के एक भाग के रूप में यह एक अनोखा चलन बन गया है। कहीं लोग एक दूसरे पर पुष्पों की वर्षा करते हैं तो कहीं वे एक दूसरे पर पुष्पों की पंखुड़ियां फेंकते हैं।

इस प्रकार की होली के आयोजन को पारंपरिक रूप से अब तक मथुरा वृन्दावन के किसी भी मंदिर से सम्बंधित नहीं किया गया है। कौन जाने, भविष्य में होली मनाने की यह एक प्रमुख परंपरा बन जाये। क्यों ना हो, चारों ओर पुष्पों से घिरा रहना किसे नहीं भायेगा? वैसे भी, इस समय अनेक प्रकार व रंग के पुष्प इस क्षेत्र में उपलब्ध होते हैं।

मथुरा में निवास करती विधवाओं द्वारा खेली जाने वाली होली का मैं यहाँ विशेष उल्लेख करना चाहती हूँ। मेरे लिए वे भी ब्रज तथा भारत के उतने ही नागरिक हैं जितने हम। वे भी हमारे ही सामान होली का पर्व मनाते हैं।

मथुरा वृन्दावन के मंदिरों में होली उत्सव

मथुरा वृन्दावन अथवा ब्रज मंडल के लगभग प्रत्येक मंदिर में होली के मौसम में प्रत्येक दिवस होली खेली जाती है। पत्ते के एक दोने में गुलाबी रंग के गुलाल के साथ गेंदे के कुछ पुष्प भगवान् को अर्पित करते हैं। आप भगवान् के ऊपर गुलाल एवं पुष्प उछाल सकते हैं तथा स्वयं व आसपास के लोगों को गुलाल लगा भी सकते हैं।

वृन्दावन के एक मंदिर में होली के रंग
वृन्दावन के एक मंदिर में होली के रंग

मंदिर में मैंने अधिकतर परिवारों के सदस्यों को देखा जो रंगों से खेलते हुए होली के गीत गा रहे थे। उनमें एक था, ‘ आज बिरज में होली है रे रसिया’। मैंने कुछ लोगों को विश्राम घाट पर यमुना के साथ होली खेलते देखा। आप सोच रहे होंगे कि वे यमुना के संग कैसे होली खेल रहे थे? वे होली के गीत गाते हुए यमुना को सांकेतिक रूप से रंग लगाते थे। तत्पश्चात आपस में एक दूसरे को रंग लगाते थे।

होलिका दहन

होली के पर्व से राधा कृष्ण की कई गाथाएँ एवं रासलीलाएं जुड़ी हुई हैं। इसके साथ होली से एक अन्य किवदंती भी सम्बन्ध रखती है। जी हाँ! होलिका दहन की कथा।

होलिका दहन की कथा

एक समय हिरण्यकश्यप नामक एक शक्तिशाली दानव राज था जिसने सम्पूर्ण धरती पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसने अपनी प्रजा को आदेश दिया कि वे भगवान् की पूजा अर्चना त्याग कर उसकी ही आराधना करें। संयोग देखिये, स्वयं उसके पुत्र प्रहलाद ने उसकी आराधना करना अस्वीकार किया। प्रहलाद भगवान् विष्णु का परम भक्त था। यह तथ्य हिरण्यकश्यप की सहनशक्ति से परे था।

कुंठित हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र की निष्ठा परिवर्तित करने के अनेक प्रयत्न किये। उसका ह्रदय परिवर्तन करने में असमर्थ होने पर उसकी हत्या करने के भी अनेक प्रयास किये। हिरण्यकश्यप अपने प्रत्येक प्रयास में असफल हुआ। अंततः उसने अपनी भगिनी होलिका से निवेदन किया कि वह प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करे। होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सकती।

विधि का विधान देखिये, भगवान् विष्णु के नाम का जप करते प्रहलाद को साथ लेकर जब होलिका ने अग्नि में प्रवेश किया, वरदान प्राप्त होलिका अग्नि में भस्म हो गयी किन्तु भक्त प्रहलाद सुरक्षित बच गए। यह अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है।

इसी कथा के आधार पर, आज भी इस दिन, अर्थात् फाल्गुन पूर्णिमा के दिन, होलिका दहन करते हैं। लोग कंडे एवं लकड़ी का ढेर खडा कर उसे अग्नि को समर्पित करते हैं। भारत के अन्य भागों के समान मथुरा वृन्दावन में भी यह प्रथा निभाई जाती है। एक गाँव है, कोसी, जहां होलिका दहन किंचित भिन्न रीत से किया जाता है।

फलेन कोसी में जलती होली से पण्डे का निकलना

कोसी के समीप स्थित फलेन गाँव में भी, भक्त प्रहलाद की विजय के प्रतीक स्वरूप, होलिका दहन किया जाता है। एक पुजारी, जिसे यहाँ पंडा भी कहते हैं, गाँव के प्रहलाद मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। तत्पश्चात वे प्रहलाद कुण्ड में डुबकी लगाते हैं। इसके पश्चात वे सैकड़ों लोगों के समक्ष विशाल अग्नि के बीच से चलते हैं।

३० फीट दूर चलना कोई कठिन कार्य नहीं, किन्तु यदि जलती लकड़ियों के ऊपर चलना हो तो यह लगभग असंभव है। अग्नि के दूसरे छोर पर लोग गीले वस्त्र हाथों में लिए पण्डे की प्रतीक्षा करते हैं तथा उसके अंगों को शीतलता प्रदान करते हैं। इस सम्पूर्ण अग्नि यात्रा में कुछ क्षणों का ही समय लगता है जिसके अंत में पंडा सुरक्षित निकल आते हैं। तत्पश्चात वे अग्नि की परिक्रमा कर घर की ओर प्रस्थान करते हैं।

लोगों की मान्यता है कि यह प्रथा ब्रज के कृष्ण काल से चली आ रही है। ऐसा भी माना जाता है कि फलेन भक्त प्रहलाद का गाँव था। कहते हैं कि अग्नि में चलने से पूर्व, पंडा अर्थात् पुजारीजी सम्पूर्ण दिवस प्रहलाद के नाम का जप करते हैं।

यह भी ब्रज को होली का अनूठा रूप है।

समय – फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा

बलदेव के दाउजी मंदिर में दाऊ जी का हुरंगा

श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम को प्रेम से दाऊ अथवा दाउजी भी कहा जाता था। यमुना के दूसरे छोर पर, मथुरा से लगभग ३० किलोमीटर दूर, ब्रज के एक क्षेत्र बलदेव में बलराम को समर्पित एक विशाल मंदिर है। एक समय यह ब्रज के १२ वनों में से एक, खदिर वन का एक भाग था।

ब्रज की होली
ब्रज की होली

दाउजी का मंदिर ऐसा स्थान है जहां मथुरा वृन्दावन की होली अपनी चरम सीमा पर होती है। होली को यहाँ दाउजी का हुरंगा कहा जाता है। हुरंगा का अर्थ है हुड़दंग या दंगा।

अधिकतर ब्रजवासी होली के उत्सव का समापन दाउजी के हुरंगे से करते हैं।

समय – चैत्र कृष्ण द्वितीया

मुखराई का मुखराई चरकुला नृत्य

मुखराई राधा की नानी का गाँव है। इस गाँव को उनकी नानी का ही नाम दिया गया है। कहा जाता है कि जब राधा रानी का जन्म हुआ था तब उनकी नानी मुखरा ने बैलगाड़ी के पहिये पर दीपक जलाकर नृत्य किया था।

तभी से यह नृत्य चरकुला के नाम से ख्याति प्राप्त कर परंपरा का रूप ले चुका है। ऐसा माना जाता है कि चरकुला शब्द चक्र से व्युत्पन्न है। चक्र अर्थात् पहिया अथवा गोलाकार आकार। इस दिन मुखराई गाँव में यह नृत्य गाँव की स्त्रियों द्वारा किया जाता है।

गोलाकार चरकुला लगभग ४० से ५० किलो वजन का होता है। इसमें १०८ दीपक होते हैं जिन्हें ४ से ५ तलों में रखा जाता है। स्त्रियाँ इन्हें सिर पर रखकर नृत्य करती हैं। अचरज होता है, राधा व कृष्ण जिन गाँवों से सम्बन्ध रखते थे उन सब गाँवों में अब भी वे वहाँ की परम्पराओं, किवदंतियों अथवा गाथाओं में जीवित है।

समय – चैत्र कृष्ण द्वितीया

होली के गीत

होली हर्षोल्हास का पर्व है। ऐसा पर्व संगीत के बिना अधूरा है। यद्यपि मथुरा वृन्दावन के सभी मंदिरों में प्रत्येक संध्या के समय पारंपरिक गीत गाये जाते हैं, तथापि विभिन्न युगों के अधिकतर भक्ति कवियों तथा वैष्णव कवियों ने फागुन उत्सव तथा होली पर अनेक गीत लिखे हैं। बोलचाल की भाषा में ये होरी के नाम से प्रचलित हैं।

बरसाना के राधा रानी मंदिर में समाज गायन
बरसाना के राधा रानी मंदिर में समाज गायन

मंदिर में गायक-वादकों के समूह भगवान् के समक्ष बैठते हैं तथा गीत प्रस्तुत करते हैं। गाँवों के मध्य गायन की स्पर्धाएं भी होती हैं, विशेषतः बरसना तथा नंदगाँव के मध्य। बरसना के मंदिर में ऐसे ही गायन के अभ्यास सत्र का आनंद लेने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। वह अत्यंत ही आनंदमय अनुभव था।

यदि आप भी इन गीतों को गाना चाहते हैं तो इन गीतों की एक पुस्तक, श्रृंगार रस सागर, मथुरा वृन्दावन में पुस्तक की दुकानों में उपलब्ध है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत के कुछ दिग्गज संगीतज्ञों द्वारा गाई गयी रचनाएँ आप यहाँ सुन सकते हैं।

होरी ठुमरी – रंगों में सराबोर करते होली के चंचल गीत

मैंने यहाँ होरी गीतों को मंदिरों में, यमुना किनारे, सडकों पर या कहूं मथुरा वृन्दावन में सर्वत्र सुना।

क्या ब्रज के होली उत्सव में भाग लेना सुरक्षा की दृष्टी से उपयुक्त है?

ब्रज की होली के रंग

  • मथुरा वृन्दावन के उत्सवों के सम्बन्ध में बहुधा यह प्रश्न किया जाता रहा है। इस विषय में मैं अपने विचार आपके समक्ष रखना चाहती हूँ।
  • यदि आपको भीड़ से भय है तो आप कुछ दूरी पर अपना स्थान चुन सकते हैं।
  • आप ऐसे कल्पना भी ना करें कि आप पिचकारियों से आती रंगों अथवा जल की धार से बच पायेंगे! यहाँ तक कि होली पर्व से पहले ही मुझ पर जल के गुब्बारे गिरे थे जब मैं रिक्शे में बैठ कर जा रही थी। यूँ तो मंदिरों में लोग अनुमति प्राप्त करने के पश्चात ही रंग लगाते हैं। किन्तु हो सकता है ऐसी औपचारिकता होली के दिन अथवा सड़कों पर उतनी श्रद्धा से ना निभाई जाये।
  • होली एक ऐसा उत्सव है जहां किंचित स्वच्छंदता की अनुमति रहती है। स्त्री पुरुष जो अन्यथा एक दूसरे से भले ही ना बतियाएं, पर होली के दिन आप उन्हें एक दूसरे पर रंग लगाते देख सकते हैं। यदि आप होली खेलने के स्थान पर उपस्थित हैं, तो आप की उपस्थिति ही आपकी अनुमति मानी जाती है।
  • यदि भीड़ में आपको कोई पहचानता नहीं अथवा आपका मुखड़ा रंग के पीछे छुप गया हो तो कुछ उपद्रवी तत्व इसका लाभ उठा सकते हैं। अतः भीड़ का सूक्ष्म अवलोकन करें तथा सहज हों तभी भीड़ में सम्मिलित होयें। यदि कोई अप्रिय स्थिति उत्पन्न होने की आशंका हो तो उत्तर प्रदेश पर्यटन पुलिस अधिकारियों को खोजें। वे आसपास ही होंगे तथा आपकी सहायता करेंगे।
  • यदि आप इस ब्रज की होली का मृदु रूप देखना चाहते हैं तो आप उत्सव की चरम बिंदु से कुछ दिवस पूर्व मथुरा वृन्दावन की यात्रा पर आयें। आपको होली के उत्सव की झलक मिल जायेगी। आप शान्ति से बैठकर संगीत एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद उठायें जो इस समय आयोजित किये जाते हैं। हाँ, इस सौदे में आप रंग भरे वातावरण की रंगीन छायाचित्र लेने से चूक जायेंगे। कहते हैं ना, कुछ सुविधाएं प्राप्त करने के लिए कुछ समझौते करने पड़ते हैं! मैंने भी होली से कुछ दिवस पूर्व यात्रा करना सुविधाजनक जाना।

यात्रा के सुझाव

मथुरा के लिए निकटतम विमानतल दिल्ली है। तत्पश्चात, दिल्ली से मथुरा तक सड़क मार्ग द्वारा जाना अत्यंत सुविधाजनक तथा सर्वोत्तम विकल्प है। सड़क मार्ग द्वारा दिल्ली से मथुरा पहुँचने में मात्र २ घंटों का समय लगता है। आप रेल द्वारा भी मथुरा आसानी से पहुंच सकते हैं।

मथुरा मे मैंने ठहरने के लिए ‘ब्रजवासी लैंड्स इन’ नामक अतिथिगृह का चुनाव किया था। मुझे यह मथुरा नगरी के मध्य स्थित एक सुविधाजनक अतिथिगृह प्रतीत हुआ। मथुरा में इसी प्रबंधन के दो अन्य अतिथिगृह भी हैं। यद्यपि वृन्दावन एवं गोवर्धन की सीमावर्ती क्षेत्रों में अनेक रिसॉर्ट्स भी उपलब्ध हैं, तथापि सही मायने में होली उत्सव का आनंद उठाने के लिए नगर के भीतर ठहरना उचित होगा।

नगर के भीतर घूमने के लिए जन-परिवहन के साधन आसानी से उपलब्ध हैं। संकरी गलियों में जाने के लिए ई-रिक्शा सर्वोत्तम साधन है।

आपको सावधान कर दूं, वृन्दावन में वानरों का आतंक है। आप अपने मोबाइल फोन, कैमरे तथा अन्य मूल्यवान वस्तुओं का ध्यान रखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here