जम्मू एवं कश्मीर Archives - Inditales https://inditales.com/hindi/category/भारत/जम्मू-एवं-कश्मीर/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Fri, 02 Aug 2024 01:45:41 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.4 लद्दाख में शाकाहारी भोजन के विकल्प https://inditales.com/hindi/ladhak-ka-shakahari-bhojan/ https://inditales.com/hindi/ladhak-ka-shakahari-bhojan/#respond Wed, 01 Jan 2025 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3741

यात्राएं एवं भ्रमण करने वालों के लिए आहार एक महत्वपूर्ण आयाम होता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ व सुरक्षित आहार तो आवश्यक है ही, अनेक यात्रियों एवं पर्यटकों को भिन्न भिन्न पर्यटन स्थलों के विशेष व्यंजनों का आनंद लेना भी अत्यंत भाता है। सामान्यतः शाकाहारी भोजन सभी करते हैं। कुछ को सामिष भोजन भी […]

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यात्राएं एवं भ्रमण करने वालों के लिए आहार एक महत्वपूर्ण आयाम होता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ व सुरक्षित आहार तो आवश्यक है ही, अनेक यात्रियों एवं पर्यटकों को भिन्न भिन्न पर्यटन स्थलों के विशेष व्यंजनों का आनंद लेना भी अत्यंत भाता है। सामान्यतः शाकाहारी भोजन सभी करते हैं। कुछ को सामिष भोजन भी प्रिय होता है। किन्तु मेरे जैसे अनेक ऐसे यात्री हैं जो केवल शाकाहारी भोजन ही खाते हैं।

लद्दाख में शाकाहारी भोजन
लद्दाख में शाकाहारी भोजन

कुछ पर्यटन गंतव्यों में हमारे जैसों के समक्ष एक प्रश्न सदैव खड़ा रहता है कि क्या खाएं। ऐसे कुछ पर्यटन गंतव्य हैं, थाईलैण्ड, मलेशिया तथा हमारा अपना लद्दाख।

क्या लद्दाख में मेरे जैसे शाकाहरियों के लिए पर्याप्त भोजन विकल्प उपलब्ध हैं? आईए देखते हैं-

शाकाहारियों के लिए लद्दाख –  यात्रा का एक मुख्य आयाम

मनभावन छायाचित्रों से अलंकृत यह संस्करण आपको भोजन की उस श्रंखला से परिचित कराएगा जिसे थामकर मैंने अपनी लद्दाख यात्रा पूर्ण की थी। यहाँ मैं केवल लद्दाख के विशेष व्यंजनों का ही उल्लेख कर रही हूँ। यह संस्करण उन शाकाहारियों के लिए है जो लद्दाख भ्रमण पर वहाँ के विशेष व्यंजनों का आस्वाद लेना चाहते हैं। अन्यथा उच्च-स्तरीय भोजनालयों में अन्य राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भोजन विकल्प उपलब्ध हैं जिनका उल्लेख यहाँ मैं नहीं कर रही हूँ।

गुड़ गुड़ चाय

यदि आपके दिवस का आरंभ किसी मठ में हो रहा है, जैसा कि एक दिवस मेरे साथ हुआ, आप वहाँ के बौद्ध भिक्षुओं को गुड़ गुड़ चाय पीते देखेंगे। वे प्रातःकाल की सम्पूर्ण अवधि में यह चाय पीते रहते हैं। यदि वे इससे अवकाश लेते हैं तो केवल दलिया का नाश्ता खाने के लिए।

ठिकसे मठ में गुड गुड चाय
ठिकसे मठ में गुड गुड चाय

बाल भिक्षुक कुछ कुछ मिनटों में उठते रहते हैं तथा अन्य भिक्षुओं के पात्र चाय एवं कुछ खाद्य से भरते रहते हैं। वे अपना यह कार्य इतनी तल्लीनता से करते रहते हैं कि यह उनकी ध्यान-साधना का ही एक अभिन्न अंग बन जाता है।

गुड गुड चाय
गुड गुड चाय

आप इस चित्र में गुड़ गुड़ चाय देख सकते हैं। इसे पोचा तथा बटर टी भी कहते हैं। इसमें चाय की पत्ती, गुड़ तथा दूध के साथ साथ नमक एवं मक्खन भी डाल जाता है। इसे नून चाय भी कहते हैं। पंजाबी में नमक को नून कहते हैं। किन्तु यह बटर टी के नाम से अधिक लोकप्रिय है। लद्दाख की शीतल जलवायु में यह शरीर को आंतरिक ऊष्मा पहुँचाती है।

और पढ़ें: भारत में चाय के भिन्न भिन्न प्रकार

सिकी रोटी

प्रातः अल्पाहार के लिए गुड़ गुड़ चाय के साथ सिकी हुई मोटी रोटी का आनंद लीजिए। यह रोटी जैसे ही भट्टी से बाहर आती है, लद्दाख के शीत वातावरण में त्वरित ठंडी हो जाती है। इसलिए इसका आनंद भाप निकलती गुड़ गुड़ चाय के साथ उठायिए।

लद्दाखी सिकी रोटी
लद्दाखी सिकी रोटी

हमें वहाँ इन रोटियों के साथ अंडे का ऑमलेट भी दिया गया था किन्तु चूंकि मैं अंडे भी नहीं खाती, मैंने इन्हे मक्खन के साथ खाया। लद्दाख की जलवायु में मक्खन भी जमा हुआ था। किन्तु लद्दाख में शीत ऋतु में जब बाहर -२३ अंश का तापमान हो तो गर्म गर्म बटर टी के साथ यही मक्खन-रोटी भी स्वर्ग का आनंद देती है।

पर्वतों के साथ भोजन
पर्वतों के साथ भोजन

हमने लद्दाख के एक सामान्य निवासस्थान में बैठकर, पर्वतों का मनमोहक दृश्य निहारते हुए रोटी एवं भाप निकलते गुड़ गुड़ चाय का अल्पाहार किया।

और पढ़ें: भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भोजन थालियाँ

छांग एवं अन्य स्थानीय पेय 

छांग – भारत के प्रत्येक क्षेत्र के अपने स्वयं के स्थानीय पेय होते हैं। इसमें लद्दाख पीछे कैसे रह सकता है? छांग एक स्थानीय पेय है जिसे बाहरी वातावरण के अनुसार शीतल अथवा गर्म परोसा जाता है।

छांग
छांग

इसे पीतल के कटोरे में अथवा लकड़ी के पात्र में परोसा जाता है जिसे कोरे भी कहते हैं। मठों में यही लकड़ी के पात्र चाय तथा दलिये  के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। यह एक खमीरी अथवा किण्वित पेय है जिसे जौ, बाजरा अथवा चावल से बनाया जाता है।

छोटे चने डले हुए घर में बना नूडल सूप – इस सूप में मुख्यतः नूडल, काले चने तथा नमक व कुछ मसाले डले होते हैं।

सूप
सूप

थुपका या नूडल सूप – यह लद्दाख का सर्वाधिक लोकप्रिय मूल भोजन है। इस सूप में विभिन्न शाक भाजियों का सम्मिश्रण होता है। इसके सामिष रूप में भिन्न भिन्न प्रकार के माँस का भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु मैंने इसके शाकाहारी रूप का अत्यधिक आनंद उठाया। लद्दाख में यह एक सम्पूर्ण भोजन माना जाता है। भाप निकलता गरमागरम थुपका सूप का एक बड़ा पात्र! उदर को शांति तो प्राप्त होती ही है, साथ ही देह को प्राप्त ऊष्मा भी सुख प्रदान करती है।

लहसुन का सूप – यह भी लद्दाख का एक लोकप्रिय मूल आहार है। जब भी लोग कम ऊंचाई से पहाड़ों के ऊपरी भागों में पहुँचते हैं तब उन्हे यह सूप दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह लहसुन का सूप उन्हे Acute Mountain Sickness अर्थात स्वास्थ्य संबंधी तीव्र पर्वतीय जटिलताओं से जूझने में सहायता करता है।

अखरोट चटनी के साथ मोमो

मेरे लद्दाख यात्रा का नायक यही मोमो था जिसे अखरोट की चटनी के साथ परोसा गया था। मोमो सम्पूर्ण विश्व में हिमालयीन व्यंजन के रूप में लोकप्रिय है।

अखरोट की चटनी के साथ मोमो
अखरोट की चटनी के साथ मोमो

हिमालयी क्षेत्रों के निवासी उन क्षेत्रों में उगते सभी उत्पादनों से चटनी, जैम आदि बना लेते हैं। जैसे आड़ू, आड़ू के बीज, सेब, अखरोट आदि। इनकी एक विशेषता है कि इनमें शक्कर का न्यूनतम प्रयोग किया जाता है। इसीलिए जब मैंने इन्हे चखा तब ये मुझे मीठे कम, खट्टे अधिक प्रतीत हुए। इससे मुझे यह आभास हुआ कि जब तक संसाधित खाद्य पदार्थ हमारे जीवन का अभिन्न अंग नहीं बने थे, हम स्वास्थ्य वर्धक खाद्य पदार्थों के अभ्यस्त थे।

आड़ू का मिष्ठान्न

आड़ू से चटनी एवं जैम के अतिरिक्त मीठा भी बनाया जाता है। यह मिष्ठान्न अत्यधिक स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य वर्धक होता है।

आडू का मीठा
आडू का मीठा

लद्दाख का वातावरण अत्यधिक शीतल होता है। इसीलिए यहाँ पनीर एवं चीज़ का चलन है। यहाँ सामान्य गाय-भैंस के दूध से निर्मित चीज़ के अतिरिक्त याक के दूध से निर्मित चीज़ भी उपलब्ध होते हैं। यहाँ के याक चीज़ का एक अन्य रूप भी बहुत लोकप्रिय है, सुखाये हुए चीज़ के टुकड़े।

यद्यपि लद्दाख में शाकाहारी व्यंजनों के पर्याप्त विकल्प उपलब्ध है, तथापि किसी विपरीत परिस्थिति में आप फलों का सेवन कर सकते हैं। यहाँ बड़ी मात्रा में विविध फल उपलब्ध होते हैं। हिमालयीन क्षेत्रों में उत्पादित फलों का सेवन अवश्य करें। ये आपको अन्यत्र उपलब्ध नहीं होंगे।

सूखे मेवे

यदि आप फल खाने में कम रुचि रखते हैं अथवा शीतल वातावरण में फल की ओर कम रुझान हो तो आप लेह के हाट से प्रसिद्ध सूखे मेवे अवश्य खाएं। सूखे मेवे हमारे शरीर को भीतर से ऊष्मा प्रदान करते हैं।

लद्दाख के सूखे मेवे
लद्दाख के सूखे मेवे

शरीर को भीतर से ऊष्मा प्रदान करने के लिए तथा शीत मरुभूमि में स्वयं को आर्द्र रखने के लिए काहवा तो है ही। काहवा एक लदाखी चाय है।

लद्दाखी चाय का पात्र
लद्दाखी चाय का पात्र

अंत में, उन पात्रों को भी ध्यान से देखें जिनमें चाय, काहवा, छांग आदि परोसा जाता है। ये सुंदर अलंकृत धातुई पात्र होते हैं। उन पात्रों पर मोहित हो जाएँ तो स्थानीय हाट से उन्हे क्रय कर सकते हैं।

अब किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! त्वरित लद्दाख यात्रा का नियोजन कर लें। आप शाकाहारी हैं? चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस संस्करण से आपको अवश्य यह आभास हो गया होगा कि लद्दाख में शाकाहारियों के लिए भी भोजन विकल्पों की कोई कमी नहीं है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लद्दाख के हेमिस मठ में नरोपा उत्सव के रंग https://inditales.com/hindi/naropa-utsava-hemis-math-ladakh/ https://inditales.com/hindi/naropa-utsava-hemis-math-ladakh/#respond Wed, 06 Dec 2023 02:30:48 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3336

मध्य एशिया में सदियों पूर्व पनपी बौद्ध संस्कृति के कुछ उत्कृष्ट अवशेष लद्दाख के हेमिस मठ की गोद में संरक्षित हैं। लद्दाख की हिमालयीन शुष्क पर्वतीय मरू भूमि की घाटियों में गर्व से खड़ा यह उत्तुंग मठ एक पावन धार्मिक आश्रम है जो नरोपा के आशीष से फलता फूलता है। नरोपा एक प्राचीन बौद्ध विद्वान […]

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मध्य एशिया में सदियों पूर्व पनपी बौद्ध संस्कृति के कुछ उत्कृष्ट अवशेष लद्दाख के हेमिस मठ की गोद में संरक्षित हैं। लद्दाख की हिमालयीन शुष्क पर्वतीय मरू भूमि की घाटियों में गर्व से खड़ा यह उत्तुंग मठ एक पावन धार्मिक आश्रम है जो नरोपा के आशीष से फलता फूलता है। नरोपा एक प्राचीन बौद्ध विद्वान थे जिन्होंने नालंदा महाविहार के कुलाधिपति के रूप में इस मठ के संचालन की अध्यक्षता की थी।

हेमिस मठ कहाँ है?

हेमिस मठ लेह नगर से लगभग ४५ किलोमीटर दूर स्थित है। इस मठ ने अपने ऊपर किये गए अनेक ऐसे आक्रमणों को सफलतापूर्वक निष्फल किया है जिन्होंने एक काल में मध्य एशिया को झकझोर कर रख दिया था। दूर से यह मठ दिखाई नहीं देता है। जब तक आप पर्वत की तलहटी तक नहीं पहुँच जाते तथा आतंरिक भागों में प्रवेश नहीं कर जाते, यह मठ पर्वतों की परतों में मानो ओझल रहता है। बाहरी विश्व के लिए यह मठ लगभग अदृश्य है।

लद्धाख का हेमिस मठ
लद्धाख का हेमिस मठ

यह मठ गांधार काल की कलाकृतियों से समृद्ध प्राचीन संस्कृति, बुद्धिमत्ता व विद्वत्ता का एक अज्ञात विश्व है। हेमिस मठ के परिसर में प्रवेश करते ही मठ की समृद्ध सांस्कृतिक संपत्ति की झलक मिलने लगती है। आप जैसे जैसे मठ की वैशिष्ट्यता की परतें खोलते जायेंगे, आपको यह अनुभव होगा कि प्रौद्योगिकी विकास द्वारा समूचे आधुनिक विश्व के स्वरूप में होते अनवरत परिवर्तन से यह मठ लगभग पूर्णतः उदासीन है। अनभिज्ञ है।

इसके पश्चात भी यह मठ स्थानिकों एवं बौद्ध धर्म के क्षेत्रीय अनुयायियों पर छाये इसके प्रभावशाली प्रभाव की सीमा में ही पनपते नहीं रहना चाहता है। वस्तुतः, इसने सम्पूर्ण विश्व के लिए अपने द्वार खोल दिए हैं। यह अब पूरे संसार के तीर्थयात्रियों, शोधकर्ताओं तथा पर्यटकों को आमंत्रित करता है ताकि धार्मिक ग्रंथों व लोक साहित्यों के रूप में संरक्षित अपनी समृद्ध धरोहर तथा संस्कृति को वह सबके साथ बाँट सकें। नरोपा उत्सव उनके इस अनोखे प्रयास का प्रमुख उदहारण है।

दृक्पा थुक्से रिन्पोचे द्वारा लद्दाख में आत्मनिर्भर चिरस्थाई पर्यटन का आरम्भ

महानुभाव दृक्पा थुक्से रिन्पोचे मठ के प्रमुख संरक्षकों में से एक हैं। उन्होंने मठ में अनेक ऐसे महत्वपूर्ण आयोजनों का आरम्भ किया है जो निश्चित रूप से इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर चिरस्थाई पर्यटन सुनिश्चित करेंगीं। वर्षों से संघर्षरत क्षेत्र में स्थित होने के पश्चात भी इन पर्वतों में छाई शान्ति को सदैव अखंडित रखने की ओर यह मठ निरंतर कार्यरत रहता है। साथ ही, यह मठ इस क्षेत्र के स्थानिकों के उत्थान के लिए भी सतत प्रयत्नशील रहता है। इन सब का स्थानीय युवाओं के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

लद्धाख का सौंदर्य लिए वहां के जन
लद्धाख का सौंदर्य लिए वहां के जन

नरोपा उत्सव विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का पालन करने वाले लोगों का एक अद्भुत एवं सफल संगम है जो इस उत्सव में भाग लेने के लिए दूर दूर के गाँवों से आते हैं, वह चाहे लद्दाख का सुदूर गाँव हो या भूटान के पर्वतीय क्षेत्र हों अथवा भारत के मैदानी क्षेत्र। इस उत्सव में भाग लेते हुए, कुछ ही दिनों में हमने अनेक पर्यावरण प्रेमियों, धार्मिक विद्वानों, विभिन्न शैलियों के कलाकारों तथा ऐसे ही अनेक महारथियों से भेंट की। वे सभी के सभी इस विश्व में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए इच्छुक एवं तत्पर थे।

सिन्धु नदी

लेह से हेमिस मठ की ओर जाते हुए आपका साक्षात्कार भव्य सिन्धु नदी से होता है। सिन्धु नदी भारतीयों का मान भी है एवं परिचय भी। सिन्धु नदी के कलकल बहते जल को निहारना सम्मोहित सा कर देता है। पर्वतों के ऊपर, सिन्धु नदी के तट पर अनेक बौद्ध मठ स्थित हैं।

और पढ़ें: लेह से लद्दाख तक सड़क यात्रा – शीत ऋतु में लद्दाख

विलो अथवा धुनकी के झाड़, चिनार के वृक्ष, झूमती इठलाती नदी तथा पहाड़ियों के ऊपर बने छोटे छोटे गाँव। ये सभी आपस में मिलकर एक ऐसा अप्रतिम दृश्य प्रस्तुत करते हैं मानो लद्दाख के बीहड़ पर्वतीय क्षेत्र में एक रमणीय स्थल प्रस्फुटित हो गया हो। हमें यह जानकार सुखद आश्चर्य हुआ कि इन बीहड़ पर्वतीय ढलानों में वृक्षारोपण के पावन उपक्रम का शुभ आरम्भ मठ के दृप्काओं ने ही किया है।

हेमिस मठ का नरोपा उत्सव

हमने हेमिस मठ का भ्रमण नरोपा उत्सव के समय ही किया था। हमें इस उत्सव में कुछ दिवस भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। सत्य कहूं तो यदि आप इस क्षेत्र की संस्कृति एवं परम्पराओं को जानना व समझना चाहते हैं तो आपको यहाँ के एक नहीं, अनेक भ्रमण करने पड़ेंगे। विश्वास कीजिये, आपका प्रत्येक भ्रमण आपको नित नवीन ज्ञान प्रदान करेगा तथा संतोषप्रद अनुभव प्रमाणित होगा।

लद्धाख का नरोपा स्तूप
लद्धाख का नरोपा स्तूप

महामार्ग से यह मठ एक तीन तल की संरचना प्रतीत होती है। पहाड़ी की तलहटी से सिन्धु नदी बहती है जिसके तट के निकट से एक सर्पिल मार्ग मठ के प्रवेश द्वार तक जाता है। मार्ग के एक ओर एक नवनिर्मित शुभ्र श्वेत नरोपा स्तूप है जिसका नाम नारो फोतांग है। उसे लकड़ी के उत्कीर्णित सजावटों से अलंकृत किया गया है। नरोपा उत्सव यहीं आयिजित किया जाता है।

इसी सर्पिल मार्ग द्वारा कुछ किलोमीटर आगे जाने पर आप एक सुन्दर मठ पर पहुंचेंगे जिसे मिट्टी की ईंटों द्वारा निर्मित किया गया है। इस मठ से पुरातनता स्पष्ट झलकती है तथा इसकी पुरातनता को बनाए रखने का पर्याप्त प्रयास भी किया गया है।

दृप्का का हेमिस मठ

दृप्का वंशावली के अंतर्गत तिब्बती बौद्ध धर्म के एक विशेष धार्मिक पंथ का पालन करने वाला यह हेमिस मठ पुरातनता के मापदंड में अनेक वर्ष प्राचीन है। वर्ष १६७२ में लद्दाखी सम्राट सेंग्गे नाम्ग्याल ने इस मठ को पुनर्जीवित कर इसे इसका प्राचीन गौरव पुनः प्रदान किया था। यह तांत्रिक बौद्ध मान्यताओं के प्रमुख स्थानों में से एक है। ऐसी मिथ्याएं हैं कि जीसस क्राइस्ट ने अपने पूर्वोत्तर भ्रमण के अंतिम कुछ दिवस इस मठ में व्यतीत किये थे।

हेमिस मठ के भीतर का दृश्य
हेमिस मठ के भीतर का दृश्य

गोम्पा के रहस्यमयी मुखौटा नृत्य, प्राचीन पांडुलिपियाँ, हस्तचित्रित भित्तिचित्र, धुपबत्ती आदि इसके रहस्यमयी भूतकाल की कथाएं कहते हैं। इसमें आश्चर्य नहीं है, इस मठ को लद्दाख क्षेत्र के सर्वाधिक संपन्न बौद्ध मठों में से एक माना जाता है। इस मठ का मुख्य संकुल एक दो-तल की संरचना है जिसे ठेठ लद्दाखी निर्माण शैली में निर्मित किया गया है, अर्थात् मिट्टी की इंटों द्वारा निर्मित भित्तियों पर काष्ठकारी द्वारा अलंकरण, भित्तियों पर पुते पीले व लाल रंग जो बौद्ध भिक्षुओं के परिधान के रंग होते हैं, आदि।

और पढ़ें: लद्दाख के स्पितुक बौद्ध मठ का रहस्यमयी चाम नृत्य

आप यहाँ दीप कक्ष का अवलोकन करना ना भूलें। इस कक्ष में विभिन्न आकारों के दीपों में याक का मक्खन डालकर दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है। उनमें से कुछ वर्ष भर प्रज्ज्वलित रहते हैं तथा कुछ दीपों को केवल एक रात्रि के लिए प्रज्ज्वलित रखा जाता था। इन दीपों को मृत बौद्ध भिक्षुओं की स्मृतियाँ अथवा पावन आत्मा माना जाता है। मठ में आये भेंटकर्ता तीनों गोम्पा के भीतर जा सकते हैं तथा बुद्ध के विभिन्न रूपों एवं उनके शिष्यों की आराधना करते भिक्षुओं के दर्शन कर सकते हैं। बुद्ध के विभिन्न रूपों की प्रतिमाओं में सर्वाधिक भव्य है, गुरु पद्मसंभव की प्रतिमा। बौद्ध धर्म के तिब्बती विद्यालयों के अनुसार गुरु पद्मसंभव को प्रसिद्ध ‘बुद्ध द्वितीय’ माना जाता है।

मठ के विस्तृत प्रांगण का प्रयोग प्रसिद्ध हेमिस त्सेचू उत्सव का आयोजन करने के लिए भी किया जाता है। यह उत्सव तिब्बती पंचांग के त्से-चू चन्द्र-मास में गुरु पद्मसंभव के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संग्रहालय

प्रांगण के दूसरे छोर पर उत्कृष्ट हेमिस संग्रहालय है। इस संग्रहालय का आकार इतना छोटा था कि मुझे इसके संग्रहों की व्यापकता पर आशंका उत्पन्न होने लगी थी। किन्तु मेरी आशंकाओं के विपरीत यह संग्रहालय अत्यंत ही समृद्ध सिद्ध हुआ। इस छोटे से संग्रहालय में असंख्य बौद्ध अवशेष, कलाकृतियाँ तथा ऐतिहासिक प्रलेखन प्रदर्शित हैं। इस संग्रहालय के अवलोकन का अनुभव ऐसा था मानो हम इस मठ के सभ्यता के अभ्युदय से लेकर वर्तमान तक के इतिहास को जीवंत अनुभव कर रहे हों।

लद्धाख की पारंपरिक भेषभूषा
लद्धाख की पारंपरिक भेषभूषा

यहाँ गांधार शैली की प्रतिमाएं हैं जो सिकंदर के कालखंड से सम्बन्ध रखती हैं, तो साथ ही त्से-चू उत्सव का श्वेत-श्याम चित्र भी है। एक ओर वयस्क हिम तेंदुए की चमड़ी लटकी हुई है, जिनका प्राचीन काल में ध्यान साधना में बैठने के लिए चटाई के रूप में प्रयोग किया जाता था। वहीं संग्रहालय की भित्तियाँ रक्षक मुखौटों से पूर्णतः सज्जित हैं।

हेमिस संग्रहालय की अधिकतर कलाकृतियों का विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयोग किया जाता है। उन कलाकृतियों को यहाँ दक्षता से सहेज कर रखा जाता है तथा प्रयोग में लाया जाता है क्योंकि ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टि से ये अनमोल हैं। संग्रहालय के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है।

नरोपा उत्सव

इस उत्सव की अपार महत्ता है। यहाँ तक कि इसे हिमालय का कुम्भ मेला कहा जाता है। किसी भी अन्य कुम्भ मेले के समान इस उत्सव में भी विश्व के कोने कोने से लोग आते हैं। ऊँचे पर्वत की ढलुआ चढ़ाई चढ़कर मठ तक पहुँचते हैं।

पवित्र अवशेष

बौद्ध शात्रज्ञ नरोपा की अस्थियाँ एवं केशों से निर्मित आभूषणों को सार्वजनिक प्रदर्शनी के लिए बाहर निकाला जाता है। ऐसी मान्यता है कि अस्थि अवशेषों से निर्मित छः आभूषण डाकिनी का वरदान हैं। वे हैं, मुकुट, गले का हार, कान के कुंडल, कंगन, सेरल्खा तथा तहबन्द। इन पावन अवशेषों को लेकर एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है जो हेमिस मठ से आरम्भ होकर नारो फोतांग नरोपा स्तूप के प्रांगन में समाप्त होती है।

पवित्र अवसेषों का आगमन
पवित्र अवसेषों का आगमन

परंपरा के अनुसार इन आभूषणों को महामहिम ग्यालवांग दृप्का धारण करते हैं जो Live to Love initiative के संस्थापक भी हैं। यह संस्था वहां के रहवासियों के जीवन में धार्मिक परम्पराओं की परिसीमा से परे जाकर सकारात्मक परिवर्तन लाने का कार्य करती है।

कुंग फु भिक्षुणियों का नृत्य
कुंग फु भिक्षुणियों का नृत्य

इस उत्सव में भव्य प्रदर्शन करने के लिए लद्धाख के दूरस्थ भागों की जनजातियाँ अनेक दिवसों तक अभ्यास करती हैं। पारंपरिक लद्दाखी परिधानों तथा मस्तक के पारंपरिक मुकुटों को संदूकों से बाहर निकला जाता है। स्वयंसेवकों द्वारा इस क्षेत्र के पारम्परिक व्यंजन बनाये तथा सभी को प्रस्तुत किये जाते हैं। उनमें पर्वतीय कुकुरमुत्ते, स्थानीय पालक तथा अन्य हरी भाजियां प्रमुख हैं। किन्तु सर्वाधिक विशेष है, याक के दूध का स्वादिष्ट चक्का या चीस।

और पढ़ें: शाकाहारियों के लिए लद्दाख यात्रा

वार्षिक नरोपा उत्सव

पूर्व के रीति-रिवाजों के अनुसार यह उत्सव बारह वर्षों में एक बार आयोजित किया जाता था। किन्तु लद्दाख में प्रतिदिन बढ़ते पर्यटकों को देखते हुए वहां के अधिकारियों ने इसे वार्षिक उत्सव में परिवर्तित करने का निश्चय किया। उनकी यह पहल सराहनीय है क्योंकि इससे वहां के लोगों को बढ़ते पर्यटन का लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है। वहीं, पर्यटकों को लद्दाख की परम्पराओं एवं संस्कृति को जानने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है। लद्दाख को भी पांगोंग सरोवर तथा चादर ट्रेक के परे जाकर एक विशिष्ट पहचान प्राप्त हो रही है।

प्रार्थना में डूबी महिला
प्रार्थना में डूबी महिला

हमने दूर से पारंपरिक लद्दाखी परिधान धारण कर लकड़ी की सहायता से चलते हुए स्थानीय लोगों को देखा। अपनी माताओं की गोद से झांकते हुए गुलाबी गुलाबी गालों वाले नन्हे   हमें उत्सुकता से देख रहे थे। ना हमें लद्दाखी भाषा आती थी, ना ही हिन्दी में उनकी निपुणता थी। टूटी-फूटी हिन्दी ही हमारे मध्य के भाषा व्यवधान को मिटा रही थी।

हमने सम्पूर्ण उत्सव तथा सभी प्रदर्शनों को देखा। लद्दाखी नानी-दादियों ने हमें उनके बागीचों से तोड़े ताजे सेब खिलाये। यह स्थान अब भी अत्यधिक पर्यटन अतिक्रमण से मुक्त है। इसी कारण पर्यटकों एवं स्थानिकों के मध्य सम्बन्ध अब भी अत्यंत मधुर हैं। उनके आचरण पर पर्यटन संबंधी व्यापारिक लेनदेन की छाया भी नहीं पड़ी है। अन्य पर्यटन स्थलों के विपरीत यहाँ प्लास्टिक की पोतियाँ, कागज की वस्तुएं तथा अन्य अजैवनिघ्नीकरणीय कचरे ने निर्मल पर्वतों को अपवित्र नहीं किया है। इसके लिए हमें दृप्काओं का आभार मानना चाहिए।

नरोपा फोतांग
नरोपा फोतांग

किन्तु एक सत्य यह भी है कि उत्सव काल में, रात्रि के समय लद्दाख को बॉलीवुड प्रफुल्लित कर देता है। यूँ तो भारतीय उप-महाद्वीप पर भारतीय चित्रपट व्यवसाय का प्रभाव अभूतपूर्व है। किन्तु उसने अपनी लोकप्रियता के द्वारा अपनी सभी सीमाएं तोड़ दी हैं। मैंने ऐसे अनेक पर्यटकों के देखा जो पांगोंग सरोवर से लेह की ओर जाते समय इस उत्सव में भाग लेने के लिए यहाँ स्वैच्छिक रूप से तत्क्षण रुक गए जब कैलाश खेर, पापोंन तथा सोनू निगम जैसे जगप्रसिद्ध गायकेरस्तुत करने के लिए तत्पर हो गए.  इस उत्सव में उनके पसंदीदा गीतों को प्रस्तुत करने लगे। भारतीय सेना के काफिले भी उत्साहपूर्वक उत्सव में भाग ले रहे थे। सम्पूर्ण वातावरण अत्यंत उत्साहवर्धक तथा आनंदपूर्ण हो गया था। संगीत विभिन्न क्षेत्र के लोगों को एक सूत्र में बांधने का सफल साधन होता है। जनवरी मास में लद्दाख की शुष्क मरू क्षेत्र की जमा देने वाली ठण्ड में भी किसी के उत्साह में तनिक भर भी कमी नहीं आयी थी।

७० फीट लम्बी हस्त-चित्रित थान्ग्का चित्र

नरोपा उत्सव के दूसरे दिवस ७० फीट लम्बी एक हस्त-चित्रित थान्ग्का चित्र को प्रदर्शित किया गया था। वहां उपस्थित सभी लोग झुक कर उसे प्रणाम कर रहे थे। उस चित्र में अमिताभ बुद्ध के आठ विभिन्न रूप चित्रित थे। इस चित्र को केवल कुछ घंटों के लिए ही बाहर निकालकर फहराया जाता है। तत्पश्चात इस ऐतिहासिक वस्त्र को उतारकर सुरक्षित स्थान पर रख दिया जाता है ताकि सूर्य के प्रकाश में इसके रंगों को कोई हानि ना पहुंचे।

७० फीट लम्बी हाथ से बना तान्ग्खा चित्र
७० फीट लम्बी हाथ से बना तान्ग्खा चित्र

लद्दाखी संस्कृति एवं परंपरा का सर्वोत्कृष्ट उदहारण प्रस्तुत किया तीन सौ लद्दाखी स्त्रियों ने, जिन्होंने “शोंडोल” नामक नृत्य का प्रदर्शन किया। यह नृत्य उत्सव के समापन के दिन किया जाता है। लद्दाख के शाही नृत्य के रूप में जाने जाने वाले इस शोंडोल नृत्य ने गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में सबसे बड़े लद्दाखी नृत्य के रूप में प्रवेश करके इतिहास रच दिया है। पर्वतों के मध्य गूंजती ढोल की नाद-ध्वनी जो मैंने उस दिन सुनी, वह अब भी मेरे कानों में गूंजती है।

स्थानीय जीवन पर नरोपा उत्सव का प्रभाव

यूँ तो लद्दाख में अनेक सांस्कृतिक भव्य उत्सव आयोजित किये जाते हैं। उनमें लोसर महोत्सव एवं सिन्धु दर्शन प्रमुख हैं। लद्दाख के विभिन्न उत्सव वहां के आकर्षक चाम नृत्य के कारण अत्यंत लोकप्रिय हैं। इतने सुन्दर एवं भव्य महोत्सवों के पश्चात क्या आवश्यकता थी कि नरोपा उत्सव प्रतिवर्ष आयोजित किया जाए? यह प्रश्न आपके मन में भी आया होगा!

नरोपा उत्सव का उद्देश्य है, दृप्का वंशावली द्वारा किये गए चिरस्थाई विकास प्रयासों के विषय में जागरूकता फैलाना। पर्यावरण के प्रति जागरूक जीवनशैली से लेकर चिरकालीन यात्रा अनुभव सुनिश्चित करने तक, ‘लीव टू लव’ संस्था सतत इस ओर प्रयासरत है ताकि स्थानिकों को शिक्षित किया जा सके तथा उनमें आवश्यक सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सके। यह उत्सव उनके इन्ही प्रयासों का साक्ष्य है।

सकारात्मक बदलाव का एक उदहारण है, नरोपा फेलोशिप। नवीन शैक्षणिक अधिछात्रवृत्ति अथवा फेलोशिप का उद्देश्य है, हिमालयीन क्षेत्रों के युवाओं को सक्षम करना। यह फेलोशिप विश्वभर में रहने वाले लाद्दखी मूल के लोगों के लिए उपलब्ध है। योग्यता छात्रवृत्ति के लिए छात्रों के प्रथम समूह का चयन किया जा चुका है। इस उपक्रम का ध्येय है, इस शुष्क क्षेत्र के अतिसंवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र में रहने वाले स्थानिकों की जीविका के साधनों को सुगम व चिरस्थाई बनाना।

उत्सव काल में मठ का भ्रमण स्वयं में एक अद्वितीय अनुभव है। एक अविस्मरणीय अनुभव! सभी संवेदनशील पर्यटक जिन्हें सांस्कृतिक अनुभवों के लिए सम्मान है, इस मठ की यात्रा तथा उत्सव में भाग लेने के अनुभवों को अपनी स्मृतियों में सदा जीवित रखेंगे।


यह संस्करण मधुरिमा चक्रवर्ती ने लिखा है जिन्होंने लद्दाख के नरोपा उत्सव में इंडीटेल्स का प्रतिनिधित्व किया था।

मधुरिमा कोलकाता में जन्मी, बैंगलोर में स्थाई तथा Orangewayfarer नामक यात्रा ब्लॉग की संस्थापक हैं। उन्हें खाना, साड़ियाँ, पुस्तकें, छायाचित्रीकरण तथा पर्यावरण अनुकूल यात्राएं करना प्रिय है। उनका स्वप्न है कि वे भविष्य में अंटार्टिका की यात्रा अवश्य करेंगी।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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पांगोंग त्सो सरोवर – लद्दाख का प्रसिद्द पर्यटक स्थल https://inditales.com/hindi/pangong-tso-laddakh-paryatak-sthal/ https://inditales.com/hindi/pangong-tso-laddakh-paryatak-sthal/#respond Wed, 27 Sep 2023 02:30:00 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3179

पांगोंग सरोवर अथवा पांगोंग झील को स्थानीय भाषा में पांगोंग त्सो कहते हैं। भारत के नवनिर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी लेह से लगभग १५० किलोमीटर दूर स्थित पांगोंग सरोवर एक मनोरम हिमालयी सरोवर है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई लगभग ४५०० मीटर है। यह एक अत्यंत सुन्दर सरोवर है। इस सरोवर के जल […]

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पांगोंग सरोवर अथवा पांगोंग झील को स्थानीय भाषा में पांगोंग त्सो कहते हैं। भारत के नवनिर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी लेह से लगभग १५० किलोमीटर दूर स्थित पांगोंग सरोवर एक मनोरम हिमालयी सरोवर है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई लगभग ४५०० मीटर है। यह एक अत्यंत सुन्दर सरोवर है। इस सरोवर के जल पर पड़ती सूर्य की किरणें जब दिन भर की यात्रा करती हैं, इसका आकाशी नीलवर्ण जल इन किरणों के साथ अठखेलियाँ करता विभिन्न आभा बिखेरता रहता है।

जमी हुई पांगोंग त्सो
जमी हुई पांगोंग त्सो

पांगोंग सरोवर बॉलीवुड चित्रपटों के छायाचित्रीकरण के लिए एक अतिविशेष स्वप्निल स्थल माना जाता है। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि सन् २०१८ में निर्मित हॉलीवुड चित्रपट गेम्स ऑफ थ्रोंस के कुछ भागों  का छायाचित्रीकरण भी यहीं हुआ था। पांगोंग सरोवर एक अछूते हिमालयीन परिदृश्य का सर्वोत्तम उदहारण है।

अपनी लद्दाख यात्रा में हम कुछ दिवस लेह में ठहरे थे। नारोपा उत्सव का अवलोकन करने व लद्दाख की संस्कृति को जानने व समझने के लेने वहीं से हमने हेमिस मठ तक की यात्रा की थी। यदि आपकी रूचि केवल पर्यटन भी हो तब भी लद्दाख की यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक आप पांगोंग सरोवर ना देख लें।

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पांगोंग त्सो: लद्दाख का आकर्षक सरोवर

वर्ष के अधिकांश समय, लद्दाख के शीत ऋतु की कड़ाके की ठण्ड में खारे जल का यह विशाल सरोवर जमा हुआ ही रहता है। जब पांगोंग सरोवर जमा हुआ नहीं रहता है, आप उसमें नीले रंग की विभिन्न छटाएं देख सकते हैं। अप्रैल मास से सितम्बर के आरम्भ तक इस सरोवर की सुन्दरता अपनी चरम सीमा पर रहती है जब इस पर नीलवर्ण की विभिन्न छटाओं का मेला लगा रहता है।

पांगोंग सरोवर के रंग
पांगोंग सरोवर के रंग

इस सरोवर का दो-तिहाई भाग तिब्बत के पठार के अंतर्गत आता है जो अब चीनी अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा के भीतर स्थित है। शेष एक-तिहाई भाग भारतीय सीमा के अंतर्गत आता है। स्वाभाविक है कि अंतर्राष्ट्रीय विवादित सीमा रेखा के समीप होने के कारण आप सरोवर के आसपास कदाचित सेना के तम्बू एवं उनकी तोपें देखें। सन् १९६० में हुए भारत-चीन युद्ध के समय यह शांत एवं रम्य स्थान सेना की अनेक तोपों एवं उनके द्वारा हुए रक्तपात का साक्षी रहा है। वह सब क्यों हुआ? कौन जाने!!

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यदि आप हिमालय के इतिहास के पन्नों को पलटें तथा इस स्थान के भूगर्भ शास्त्र में डुबकी लगाएं तो आप हिन्द महासागर एवं इस सरोवर के मध्य सम्बन्ध अवश्य खोज निकालेंगे। तिब्बती शब्द पांगोंग त्सो का शाब्दिक अर्थ है, ऊँचे मैदानी क्षेत्र का सरोवर। ऐसी मान्यता है कि भूगर्भीय उथल-पुथल के पश्चात जब समुद्र की गहराई से हिमालय उभर कर आया तब आसपास का समुद्र सिमट कर केवल यह सरोवर ही शेष रहा। इसी कारण सरोवर का जल खारा है तथा इसमें मछलियाँ भी नहीं हैं।

समुद्र सतह से ४५०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित होने के कारण पांगोंग त्सो मछलियों के प्रजनन एवं जीवन के अनुकूल जलवायु नहीं प्रदान कर पाता है। इसी कारण इसके जल में मछलियों का अभाव है। इसके पश्चात भी यह सरोवर प्रवासी पक्षियों का प्रिय स्थल है। प्रत्येक वर्ष यहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं, काई अथवा मॉस खाते हैं तथा घोंसले बनाकर अंडे देते हैं।

सरोवर में रात्रि का पड़ाव डालें अथवा केवल दिवसीय यात्रा करें?

जब मानव प्रकृति से खिलवाड़ ना करे तब प्रकृति की सुन्दरता किस प्रकार आकाश को छू लेती है, यह सरोवर उसका जीवंत उदहारण है। स्वाभाविक ही है कि आप ऐसे सरोवर के तट पर कुछ रात्रि व्यतीत करते हुए माँ स्वरूप प्रकृति से अवश्य जुड़ना चाहेंगे।

पांगोंग त्सो का सूर्योदय
पांगोंग त्सो का सूर्योदय

किन्तु ध्यान रखें कि जिस अनछुई प्रकृति से आप जुड़ना चाहते हैं उसकी कान्ति को उतनी ही पवित्र बनाए रखना भी आपका ही उत्तरदायित्व है। साथ ही आपको अपने स्वास्थ्य एवं सुरक्षा का भी ध्यान रखना होगा। जैसे, रात्रि का तापमान अत्यंत शीतल हो जाता है। मौसम के अनुसार यह शुन्य तापमान से २०-३०अंश नीचे भी जा सकता है। साथ ही रहने की सुविधाएं भी मूलभूत हैं, जैसे तम्बू इत्यादि। अतः सम्पूर्ण वातावरण आपके स्वास्थ्य के लिए एक कठिन परीक्षा सिद्ध हो सकता है।

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सरोवर के तट पर रात्रि व्यतीत करने के आनंद का अर्थ है, तट पर बैठकर तारे देखते हुए गर्म गर्म मैगी खाना। यदि खगोलीय छायाचित्रीकरण में आपकी रूचि है तो इससे अधिक उपयुक्त स्थल सम्पूर्ण भारत में कहीं नहीं होगा!

अनेक पर्यटकों का मानना है कि पांगोंग त्सो में जो सूर्योदय उन्होंने देखा है, वह अविस्मरणीय एवं अतुलनीय है!

रात्रि के कड़ाके की ठण्ड एवं कठिन सड़क यात्रा से भयभीत होकर मैंने तो पांगोंग में रात्रि व्यतीत करना स्वयं के लिए उचित नहीं जाना तथा लेह से एक दिवसीय यात्रा करने का निश्चय किया।

प्रादेशिक संचार अनुज्ञा पत्र: इनर लाइन परमिट (आइ एल पी)

यह क्षेत्र संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा जांच के अंतर्गत आता है जिसके कारण हमें पांगोंग सरोवर तक जाने के लिए अनुज्ञा पत्र प्राप्त करना पड़ा। इस अनुज्ञा पत्र को प्रादेशिक संचार अनुज्ञा पत्र अथवा इनर लाइन परमिट (आइ एल पी) कहते हैं। इनर लाइन परमिट एक आधिकारिक यात्रा दस्तावेज है जिसे संबंधित राज्य सरकार जारी करती है।

पांगोंग त्सो लद्दाख
पांगोंग त्सो लद्दाख

इस तरह का परमिट भारतीय नागरिकों को देश के अंदर के किसी संरक्षित क्षेत्र में एक तय समय के लिए यात्रा की अनुमति देता है। इस परमिट के एवज में कुछ शुल्क भी लिया जाता है। हमें इसके लिए ६०० रुपये प्रतिव्यक्ति शुल्क देना पड़ा। इसे प्राप्त करने में हमारे अतिथिगृह के अधिकारी ने हमारी सहायता की थी।

यदि आप लेह से पांगोंग सरोवर तक एक दिवसीय यात्रा करना चाहते हैं तो मेरा सुझाव है कि आप प्रातः शीघ्रातिशीघ्र यात्रा आरम्भ करें। यह पांच घंटे की एक कठिन सड़क यात्रा है जो अत्यंत जोखिम भरी है। यहाँ तक कि मौसम की स्थिति बिगड़ने पर सड़क मार्ग अवरुद्ध भी हो सकता है। अवरुद्ध सड़क मार्ग के कारण यदि आप कहीं फंस जाएँ तो भयभीत ना होयें। वहां से सुरक्षित निकलने में भारतीय सेना आपकी अवश्य सहायता करेगी। इसीलिए यदि आप प्रातः शीघ्र यात्रा आरम्भ करें तो इन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में आसानी होती है।

हमने प्रातः पांच बजे यात्रा आरम्भ की तथा अनवरत ४० किलोमीटर गाड़ी चलाते हुए हेमिस मठ पहुंचे। मठ के समक्ष सिन्धु नदी के तट पर बैठकर जलपान किया तथा आगे की यात्रा के लिए निकल पड़े।

यात्रा एवं पड़ाव

यदि आप लेह से आ रहे हैं तो पांगोंग त्सो तक की यात्रा में आपको कुछ आवश्यक पड़ाव लेने पड़ते हैं।

आप जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जायेंगे, आपके समक्ष परिदृश्यों में तीव्र गति से परिवर्तन हो सकता है। कदाचित चारों ओर मानवीय उपस्थिति की किंचित मात्र भी झलक प्राप्त ना हो। चारों ओर केवल हिमाच्छादित बीहड़ पर्वत, अतिविरल हरियाली तथा स्वर्ग की ओर जाती प्रतीत होती सड़क।

आप समझ जाईये कि आप चांग ला दर्रे में प्रवेश कर रहे हैं!

चांग ला दर्रा: ऊँचा हिमालयी दर्रा

इस सड़क को विश्व का दूसरा सर्वोच्च वाहन योग्य मार्ग माना जाता है। ५३६० मीटर की ऊँचाई पर स्थित चांग ला सामान्यतः सरोवर तक की यात्रा का प्रथम पड़ाव होता है। दर्रे के शीर्ष पर चांग ला बाबा का मंदिर है। मंदिर की भित्तियों पर रंगबिरंगे ध्वज फहराए हुए हैं।

चांग ला दर्रा
चांग ला दर्रा

अत्यंत ऊँचाई पर स्थित होने के कारण चांग ला दर्रा आपके स्वास्थ्य की दृष्टी से महत्वपूर्ण है। यदि आपको तीव्र पर्वतीय अस्वस्थता (Acute mountain sickness, AMS) की आशंका है तो उसके लक्षण आपको यहाँ से दिखने आरम्भ हो जायेंगे।

परिदृश्य

चांग ला से तीव्र उतार आरम्भ हो जाता है। चांग ला से हमें आगे तीन घंटे की यात्रा करनी पड़ती है। घुमावदार सर्पिल मार्ग आपके समक्ष कुछ अद्वितीय एवं विलक्षण परिदृश्य प्रस्तुत करेंगे। दूर स्थित पर्वत सतह पर स्थानीय घुमंतू बंजारे अपने पालतू पशुओं को चराते हुए दिखने आरम्भ हो जायेंगे।

प्रकृति का आनंद लेते पर्यटक
प्रकृति का आनंद लेते पर्यटक

हिमनद से पिघलकर आती जलधाराएं धरती पर विरली हरियाली उत्पन्न करती दृष्टिगोचर होंगी जिन्हें चरने में व्यस्त याक पशु भी दिखाई देंगे। यहाँ के श्वान या कुत्ते भी भिन्न प्रतीत होते हैं। यहाँ की जलवायु के अनुकूल उनका शरीर बालों की मोती परत से ढंका होता है। ये हिमालयी कुत्ते भी आपको बर्फ की महीन सतह पर इधर-उधर विचरण करते व जल खोजते दिखाई पड़ेंगे।

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सेना के कुछ कैम्पों में २४ घंटों की चाय की दुकानें हैं। वहां प्रसाधन गृह अथवा शौचालय भी उपलब्ध होते हैं। इस क्षेत्र में जल की उपलब्धि अत्यंत विरली होती है। अतः शौचालय का प्रयोग करते समय इसका स्मरण अवश्य रखें।

यह यात्रा लम्बी अवश्य है किन्तु ये हमारे नयनों के लिए अमृततुल्य है। हमारी कार के साथ दौड़ते जंगली गधे, घाटियों के मध्य से बहती एवं हमारे संग आँख-मिचौली का खेल खेलती कई छोटी छोटी नदियाँ हमें मंत्रमुग्ध कर रहे थे। एक ओर ग्रीष्म ऋतु में ये नदियाँ सूख जाती है तो वहीं शीत ऋतु के ठंडे वातावरण में इनकी उपरी सतह जम जाती है।

हिमालय वासी मर्मोट
हिमालय वासी मर्मोट – एक बड़ी गिलहरी 

कुछ क्षणों पश्चात हिमालयी मर्मोट आपका स्वागत करने के लिए आ जायेंगी। बड़े चूहे अथवा गिलहरी के समान दिखाई देते ये जीव इस क्षेत्र के मूल जीव हैं। अपनी आँखों में जिज्ञासा एवं भोलापन लिए इन जीवों को देख आपको अंटार्टिका का प्रथम सुप्रसिद्ध मानव-पेंगुइन भिडंत का स्मरण हो आएगा। ये जीव भूमि के भीतर निवास करते हैं। सम्पूर्ण क्षेत्र की भूमि के भीतर इन जीवों ने अनेक बिलों का परस्पर जुड़ा हुआ एक जाल बनाया हुआ है। अतः यहाँ चलते हुए अत्यंत सावधानी बरतें।

पांगोंग त्सो के तीन संकेत

अत्यंत सुन्दर पांगोंग सरोवर का प्रथम विहंगम दृश्य हमारे अस्तित्व को इस प्रकार झकझोर देता है कि उसे शब्दों में ढालना संभव नहीं है। सरोवर की नीलवर्ण जल सतह पर नीले आकाश का प्रतिबिम्ब अत्यंत मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करता है। सरोवर का नीला रंग इतना गहरा है कि वह आपके नयनों को सहज ही नहीं होने देता है!

किन्तु सरोवर क्षेत्र का प्रवेश स्थल आपको धरातल पर ले आता है। चित्रपट चित्रीकरण के लिए लोकप्रिय इस स्थान पर असंख्य पर्यटकों की उपस्थिति आँखों को खटकने लगती है। आपको ज्ञात ही होगा कि थ्री इडियट्स नामक लोकप्रिय चित्रपट के कुछ भागों का चित्रीकरण भी यहीं हुआ था। चित्रपट में दिखाए गए तीन रंगबिरंगे चौकियों की विशेष बैठक की स्मृति में यहाँ पर्यटकों के लिए उसका प्रतिरूप भी रखा हुआ है। इस अनछुए स्थल पर इतनी बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने का कारण भी वही चित्रपट है। यदि आपको यह दृश्य विचलित नहीं करता है तो आप सहर्ष यहाँ कुछ समय व्यतीत कर सकते हैं।

किन्तु हमें यहाँ एक क्षण भी ठहरना स्वीकार्य नहीं था। हम यहाँ से कुछ किलोमीटर आगे जाकर रुके। वहां का दृश्य अत्यंत मनोरम था। शांत, मनमोहक एवं पर्यटकों के कोलाहल से अछूता!

एक समय यह सरोवर प्रदूषण रहित माना जाता था। यह अपने स्वच्छ निर्मल जल के लिए जाना जाता था। किन्तु बड़ी संख्या में आते संवेदनहीन व दायित्वहीन पर्यटकों के कारण अब आप यहाँ-वहां प्लास्टिक कचरा देख सकते हैं।

यदि आप पर्यावरण प्रेमी हैं तथा आपको अपनी धरती माता की चिंता है तो आप यहाँ प्लास्टिक जैसा किसी भी प्रकार का अजैवनिघ्नीकरणीय कचरा ना डालें। उन्हें अपनी गाड़ी में ही एकत्र करें तथा लेह जाकर उपयुक्त स्थान में ही डालें। आपकी श्रद्धा हो तो आप यहाँ के कुछ प्लास्टिक कचरे को कम करने में भी सहायता कर सकते हैं।

पांगोंग त्सो दर्शन के लिए कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं:

  • पांगोंग सरोवर सड़क मार्ग द्वारा चांग ला दर्रा होते हुए पहुंचा जा सकता है जिसकी ऊँचाई ५३६० मीटर है। पांगोंग सरोवर भ्रमण ले लिए यहाँ तक पहुँचने का सर्वोत्तम उपाय है कि आप साझा टैक्सी करें ताकि अन्य यात्रियों के साथ व्यय भी साझा हो जाए तथा पर्यावरण पर भी अधिक दबाव ना पड़े। अनेक लेह-लद्दाख भ्रमण सेवायें उपलब्ध हैं जिनके द्वारा आप ऐसी साझा टैक्सी सेवा पूर्वनियोजित कर सकते हैं।
  • अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें। यहाँ तीव्र पर्वतीय अस्वस्थता (Acute mountain sickness, AMS) होना सामान्य है। इससे आपके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है जो तीव्र भी हो सकता है। हो सकता है दुर्गम मार्गों में आपको औषधिक सेवायें भी शीघ्र उपलब्ध ना हो पाए। यदि आपका स्वास्थ्य तीव्र गति से घटे तो मेरा सुझाव यही है कि आप वापिस लौट जाएँ। अपने साथ अपनी सभी औषधियां लेकर जाएँ।
  • आवश्यकनुसार ऊनी वस्त्र एवं परिधान ले जाएँ। जल एवं सूखे खाद्य पदार्थ साथ रखें। तीव्र पर्वतीय अस्वस्थता से बचाना है तो भ्रमण आरम्भ करने से पूर्व लेह में कम से कम दो दिवस केवल विश्राम करें तथा स्वयं को ऊँचाई की जलवायु से अभ्यस्त करें।
  • लद्दाख एक शीत मरुस्थल है। दिन के समय सूर्य की तीखी किरणें आपकी त्वचा को झुलसा सकती हैं। आप देखेंगे कि यहाँ की लद्दाखी स्त्रियों के मुखड़े लालवर्ण के हो जाते हैं। उसका कारण ये तीव्र सूर्य की किरणें ही हैं। निचले अथवा मैदानी क्षेत्रों में रहने के कारण हमारी त्वचा ऐसे तीखे वातावरण को सहन करने के लिए अभ्यस्त नहीं होती है तथा उस पर गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। अतः अपनी त्वचा की रक्षा करने के लिए आवश्यक सूर्य प्रतिरोधक प्रसाधनों का प्रयोग करें तथा स्वयं को ढँक कर रखें।
  • वापिस लौटते समय अपने भ्रमण के किसी भी प्रकार के चिन्ह वहाँ ना छोड़ें। अपना सभी प्रकार का प्लास्टिक का कचरा अपने साथ वापिस लायें। अन्यथा यहाँ की सुकोमल भौगोलिक अवस्थिति अतिसंवेदनशील होकर पारिस्थितिक असुंतलन की भेंट चढ़ जायेगी।
  • सरोवर के जल में जाने अथवा तैरने की अनुमति नहीं है।

यह संस्करण मधुरिमा चक्रवर्ती ने लिखा है जिन्होंने लद्दाख के नरोपा उत्सव में इंडीटेल्स का प्रतिनिधित्व किया था।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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१०वीं सदी का प्राचीन कश्मीर – आशीष कौल से संवाद https://inditales.com/hindi/prachin-kashmir-ek-varta-ashish-kaul/ https://inditales.com/hindi/prachin-kashmir-ek-varta-ashish-kaul/#respond Wed, 14 Jun 2023 02:30:04 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=3082

अनुराधा गोयल: इंडीटेल के अंतर्गत डीटुअर्स के इस संस्करण में हम संवाद करेंगे श्री आशीष कौल से, जो ‘दिद्दा: कश्मीर की योद्धा रानी’ नामक एक अप्रतिम पुस्तक के लेखक हैं। यह पुस्तक उनके ही द्वारा लिखित मूल अंग्रेजी पुस्तक ‘Didda- The Warrior Queen of Kashmir’ का हिन्दी रूपांतरण  है। मैं कई दिनों से प्राचीन कश्मीर […]

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अनुराधा गोयल: इंडीटेल के अंतर्गत डीटुअर्स के इस संस्करण में हम संवाद करेंगे श्री आशीष कौल से, जो ‘दिद्दा: कश्मीर की योद्धा रानी’ नामक एक अप्रतिम पुस्तक के लेखक हैं। यह पुस्तक उनके ही द्वारा लिखित मूल अंग्रेजी पुस्तक ‘Didda- The Warrior Queen of Kashmir’ का हिन्दी रूपांतरण  है। मैं कई दिनों से प्राचीन कश्मीर के विषय में पढ़ रही थी।

मैंने जाना कि दिद्दा नामक रानी ने कश्मीर में उस काल में शासन किया था जो मेरे अनुमान से भारत का सर्वोत्तम काल था। भारत का यह काल मुझे अत्यंत प्रिय है। इस काल तक भारत पर बाह्य शक्तियों के आक्रमण आरम्भ नहीं हुए थे। हमारी वास्तुकला, हमारी सैन्य शक्ति, हमारा व्यापार आदि अपनी चरम सीमा पर थे। किन्तु हम उस काल के प्राचीन कश्मीर के विषय में अधिक नहीं जानते हैं। इस पुस्तक के विषय में जानते ही श्री आशीष कौल से प्राचीन कश्मीर के विषय में जानकारी प्राप्त करने का विचार मेरे मस्तिष्क में कौंध गया। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैंने उन्हें डीटुअर्स में आमंत्रित कर उनसे प्राचीन कश्मीर के विषय में जानने का निश्चय किया। मेरे प्रिय पाठकों, आईये हम आशीष कौल जी से कश्मीर के प्राचीन काल के विषय में जानने के लिए पर्याप्त प्रश्न पूछने का प्रयास करते हैं।

आशीष कौल: डीटूर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए मैं आपका हृदयपूर्वक धन्यवाद करता हूँ। मैंने इस आयोजन के विषय में पूर्व में ही अनेक प्रशंसाएं सुन रखी थीं। आज आपके इस सम्माननीय आयोजन में भाग लेने का सुअवसर मुझे भी प्राप्त हुआ है। वह भी उस विषय पर जो मेरे एवं आपके लिए अत्यंत प्रिय विषय है। इसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ।

आशीष कौल से पुरातन कश्मीर पर चर्चा

अनुराधा: आशीषजी, हमारी पीढ़ी कश्मीर का सम्बन्ध वहां होते आये संघर्षों से ही लगाती आयी है क्योंकि कश्मीर के विषय में हम सभी ने अधिकतर उसी विषय में सुना है। हम में से कुछ इसका सम्बन्ध पर्यटन से भी लगाते हैं। इससे कुछ कालावधि पीछे जाएँ तो ६० एवं ७० के दशकों में निर्मित हुए बॉलीवुड के चित्रपटों ने अवश्य कश्मीर को लोकप्रियता प्रदान की थी। किन्तु हमें कश्मीर के प्राचीनकालीन इतिहास के विषय में आंशिक ज्ञान ही है। पढ़ने में मेरी रूचि है इसलिए मैं कश्मीर की परम्पराओं एवं संस्कृति के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त कर पायी हूँ। प्राचीन काल के कश्मीरी संस्कृत-विद्वान् तथा कश्मीर शैवदर्शन के बहुमुखी प्रतिभाशाली आचार्य अभिनवगुप्त एवं शारदा पीठ के विषय में भी मैंने कुछ जानकारी प्राप्त की थी। मुझे १०वीं सदी के कश्मीर में अत्यधिक रूचि है। उसी से सम्बंधित कुछ प्रश्न आपसे पूछना चाहती हूँ, जैसे उसका इतिहास, उसकी भूमि व परिदृश्य, वहां के विभिन्न साम्राज्य, इत्यादि। आशा है आप हमें प्रत्यक्ष १०वीं सदी के कश्मीर में ले जायेंगे।

आशीष: आपने सही कहा है। आज हमने कश्मीर को केवल पर्यटन की सीमाओं में बांधकर रख दिया है। कश्मीर के साथ अनेक आयामों में अन्याय हुआ है। उसके पूर्व-वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास, राजनैतिक परिदृश्य तथा सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व की उपेक्षा की जाती रही है।

हमारे लिए यह समझना अति आवश्यक है कि अविभाजित भारत की चर्चा में कश्मीर की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह इतिहास की भीषण विडम्बना है कि आध्यात्म, ज्ञान, विद्वत्ता, राजनीति आदि के क्षेत्र में कश्मीर वासियों, विशेषतः कश्मीरी स्त्रियों के जिस उत्कृष्ट पांडित्य का ना केवल भारत, अपितु सम्पूर्ण विश्व में महत्वपूर्ण व अविश्वसनीय योगदान था, उसे कालांतर में आधुनिक पाश्चात्य इतिहासकारों ने इतिहास के पृष्ठों से पूर्णतः लुप्त कर दिया है।

१०वीं सदी का कश्मीर

आशीष: कश्मीर का लगभग १०,००० वर्ष प्राचीन इतिहास है। यहाँ विशेष यह है कि कश्मीर का इतिहास वह इकलौता जीवंत इतिहास है जिसे अखंड रूप से प्रलेखित किया गया है। कश्मीर के इतिहास का आरम्भ तब से हुआ था जब मिस्र के फैरो ने पिरामिड बनाने का नियोजन भी नहीं किया था। यदि आप १०वीं सदी की कालावधि का विश्लेषण करें तो आप देखेंगे कि यह कालावधि ना केवल भारत के परिप्रेक्ष्य में, अपितु अविभाजित भारत एवं एशिया, यहाँ तक कि सम्पूर्ण विश्व को पुनः परिभाषित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण कालावधि है। जब हम १०वीं सदी के कश्मीर की विवेचना करते हैं तो हम अविभाजित भारत के साथ उन सभी साम्राज्यों की चर्चा करते हैं जिनके साम्राज्य कभी इरान-इराक सीमा तक फैले हुए थे। अफगानिस्तान, पाकिस्तान के साथ अन्य सभी क्षेत्र इस राष्ट्र के भाग थे।

प्राचीन कश्मीर
दल सरोवर पर सूर्यास्त

१०वीं सदी में मध्य-पूर्वी क्षेत्र एवं यूरोपीय देशों के मध्य युद्ध छिड़ा हुआ था। चारों ओर धर्मयुद्ध छिड़ा हुआ था। एक ओर यरूशलम का युद्ध जारी था। दूसरी ओर इस्लाम स्वयं को स्थापित कर चुका था तथा मध्य एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इसाई धर्म से झगड़ रहा था। कश्मीर एक सीमावर्ती राज्य था जो भारत में प्रवेश के लिए द्वार था।

कश्मीर पर सदा से महान व शक्तिशाली साम्राज्यों का शासन था जिनकी गणना विश्व के सर्वोत्तम शासकों में की जाती थी। भारत के एक विशाल क्षेत्र पर कर्कोट राजवंश का शासन था जिसके शासक ललितादित्य को महानतम शासकों में एक माना जाता है। ललितादित्य की मृत्यु के पश्चात, लगभग २५० -३०० वर्षों के उपरांत १०वीं सदी में संग्रामराज का शासन हुआ जिन्होंने लोहार राजवंश की स्थापना की थी।

कश्मीर राज्य के बाईं ओर लोहार राजवंश का महान एवं शक्तिशाली साम्राज्य था। आज के लोगों को लोहार साम्राज्य ज्ञात नहीं होगा क्योंकि वह अब लोहार के नाम से नहीं जाना जाता है। यह इतिहास का उपहास ही है कि एक समय जो एक महान साम्राज्य था, लोरेन जिसकी शक्तिशाली राजधानी थी, आज वही क्षेत्र भारत-पाक नियंत्रण रेखा पर एक छोटे से गौण गाँव के रूप में सिमट कर रह गया है। लोगों को उसके वैभवशाली इतिहास की तनिक भी जानकारी नहीं है।

प्राचीन कश्मीर का लोहार साम्राज्य

लोहार राजवंश की राजधानी लोरेन थी। इसके अंतर्गत समूचा पश्चिमी पाकिस्तान एवं पूंछ राजौरी आते थे जो सीमा के दोनों ओर स्थित है। साथ ही इसमें आज का पंजाब एवं हरियाणा भी सम्मिलित थे। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि १०वीं सदी में यह कितना समृद्ध राज्य था। वह कश्मीर साम्राज्य से सीमा साझा करता था। उत्तर की ओर मध्य-एशिया राज्य थे जिन पर शाही राजवंश का शासन था। इसके पश्चात शाही साम्राज्य ईरान के इस्लामी गणराज्य में परिवर्तित हो गया। शाही राज्य का राजा भीमशाह अंतिम हिन्दू शासक था जिसने मध्य एशिया पर शासन किया था।

१०वीं सदी के आरम्भ में अर्थात् लोहार राजवंश से पूर्व कश्मीर पर राजा संग्रामदेव का शासन था। उनके शासनकाल में राजनैतिक टकराव के कारण कश्मीर लगभग विभाजन की स्थिति तक पहुँच गया था। सम्पूर्ण राजनैतिक परिदृश्य गृहयुद्ध में लिप्त हो गया था।

जागीरदार

इस काल में राजाओं की सेना वैसी नहीं होती थी जैसी सैन्य परिकल्पना वर्तमान में दृष्टिगोचर होती है। उन दिनों सेना के नाम पर कुछ गिने-चुने सैनिक होते थे जो केवल राजा एवं उसके दुर्ग क्षेत्र का रक्षण करते था। यदि कोई राजा किसी अन्य राज्य पर विजय प्राप्त कर उसे अपने साम्राज्य के आधीन करना चाहे तो वह अपनी सेना नए सिरे से गठन करता था। प्राचीनकाल में जब एक राज्य की सेना दूसरे राज्य पर आक्रमण कर विजय प्राप्त करती थे तब उसकी सेना उस राज्य को लूट कर संपत्ति एकत्र करती थी। उनका मेहनताना भी उसी लूट की संपत्ति से आता था। कश्मीर की सैन्य शक्ति जागीरदारों के अधीन थी जो उनके क्षेत्र की उपजाऊ भूमि एवं सेना का नियंत्रण करते थे। संग्रामदेव की शासन संबंधी कार्यों में रूचि नहीं थी। कश्मीर घाटी में बाढ़ एवं अकाल की स्थिति रहती थी। घाटी में गृहयुद्ध छिड़ गया था।

कश्मीर की गढ़-राजनीति भारत के अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक जटिल थी। १०वीं सदी के आरम्भ में संग्रामदेव के कुछ दरबारियों ने एक अन्य दरबारी पर्वगुप्त को विश्वास दिलाया कि अब कश्मीर के शासन में परिवर्तन की आवश्यकता है क्योंकि राजा एक सार्थक व न्यायप्रिय शासन प्रदान करने में असमर्थ है।

पर्वगुप्त

पर्वगुप्त दरबार का एक निष्ठावान सदस्य था। राजा संग्रामदेव द्वारा कश्मीर की निर्बल प्रजा पर ढाये आत्याचारों का वह प्रत्यक्ष साक्षी था। प्रजा के पास धन, भोजन एवं अन्य सुविधाओं का अभाव था, वहीं राजा विलास भोग में व्यस्त था। पर्वगुप्त दुविधा में था। एक ओर दरबार के प्रति उसकी निष्ठा थी तो दूसरी ओर प्रजा का कष्ट। उसके समक्ष जटिल प्रश्न था कि क्या उसके जैसा निष्ठावान दरबारी निरीह प्रजा के समर्थन में क्रूर राजा के विरुद्ध विद्रोह करे?

अंततः पर्वगुप्त ने प्रजा के पक्ष में निर्णय लिया। एक रात्रि अपने सैनिकों के साथ उसने महल पर धावा बोल दिया तथा सम्पूर्ण कश्मीर गढ़ पर अधिपत्य जमा लिया। नशे में धुत संग्राम देव को इसकी भनक भी नहीं पड़ी। जब उसे सुध आयी, उसने स्वयं को वितस्ता अर्थात् झेलम नदी पर एक नौका में बंधा हुआ पाया।

जब उसने पर्वगुप्त से इसका विरोध कर उसे खरी खोटी सुनाई तब पर्वगुप्त ने उसे वितस्ता नदी की ही गोद में सुला दिया। इस प्रकार संग्रामदेव का अंत हुआ। यह प्रथम अवसर था जब कश्मीर में विद्रोह हुआ था।

कश्मीर का नवीन सम्राट

संग्रामदेव के वध के पश्चात पर्वगुप्त को कश्मीर के सम्राट के रूप में अभिषिक्त किया गया। पर्वगुप्त के साथ कश्मीर में एक नवीन राजवंश का आरम्भ हुआ। वह १०वीं सदी का कश्मीर था। अभिषेक के दिवस ही प्रातः पर्वगुप्त की पत्नी ने राज्य के उत्तराधिकारी को जन्म दिया जिसका नामकरण क्षेम गुप्त किया गया। उसी कालखंड में लोहार सम्राट सिंहराज की पत्नी ने एक पुत्री को जन्म दिया था। उसका नाम दिद्दा रखा गया। ऐसा कहा जाता है कि जन्म के उपरांत ही दिद्दा के माता-पिता उससे मुक्त होना चाहते थे। उन्होंने उसे एक टोकरी में रखकर जल में बहाने का प्रयास किया किन्तु राजा के वस्त्र टोकरी में उलझ गए थे।

वस्त्र छुड़ाने के लिए जैसे ही राजा ने पुत्री की ओर देखा, उनका हृदय पिघल गया तथा वे उसे वापिस महल ले आये। एक दाई ने उसका पालन-पोषण किया। राजा ने दिद्दा से ऐसा व्यवहार इसलिए किया क्योंकि दिद्दा जन्म से ही अपंग थी। उसके पैर विकृत थे। कदाचित वह पोलियो का शिकार हो गयी थी।

रोग

उस काल में कश्मीर में दो प्रकार के रोगों की महामारी थी। उनमें प्रमुख था पोलियो, जो कश्मीर में अनियंत्रित रूप से विद्यमान था। दूसरी महामारी हैजा थी। यहाँ तक कि कश्मीर में मृत्यु अधिकतर पोलियो अथवा हैजे के कारण ही होती थीं। भूमिगत जल के अभाव में प्राचीनकाल के कश्मीर को भीषण अकाल की स्थितियाँ भी झेलनी पड़ी थी। वहीं दूसरी ओर कश्मीर में बाढ़ की स्थिति भी असामान्य नहीं थी। यह सामान्य ज्ञान है कि बाढ़ के पश्चात अकाल की स्थिति उत्पन्न होती ही है क्योंकि बाढ़ के पश्चात भूमि अनुपजाऊ हो जाती है।

आज जिस कश्मीर का वातावरण इतना सुहावना है, आज जिस कश्मीर को भाजियों एवं फलों की टोकरी कहा जाता है तथा जिस कश्मीर को आज धरती का स्वर्ग कहा जाता है, उसी कश्मीर ने किसी काल में भीषण अकाल की स्थिति का वहन किया है, यह विचार करना भी हमारे लिए असंभव प्रतीत होता है। किन्तु यही सत्य है।

अनुराधा: मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ। मैंने नौशेरा राजौरी पूंछ क्षेत्र में अपने जीवन के कुछ अनमोल वर्ष व्यतीत किये हैं। तब मुझे इसके ऐतिहासिक महत्ता की कोई विशेष जानकारी नहीं थी। कुछ वर्षों पूर्व ही मैंने इसके विषय में अध्ययन किया है। आपने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि यह वही समय था जब आचार्य अभिनवगुप्त उस काल के साम्राज्यों के राजगुरु के रूप में उनका मार्गदर्शन करते थे। आप ने यह भी उल्लेख किया है कि कश्मीर एक विशाल अध्ययन केंद्र था। हमें आज केवल यही ज्ञात है कि कश्मीर में विद्या की देवी शारदा माँ का शारदा पीठ है। अतः हमें कश्मीर की आध्यात्मिक धरोहर के विषय में कुछ बताएं।

कश्मीर की अध्यात्मिक धरोहर

आशीष: यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इतिहासकारों द्वारा कश्मीर के सम्पूर्ण इतिहास के साथ भयानक अन्याय किया गया है, कहीं अज्ञानता में किया गया है तथा कहीं किसी अध्यादेश के अंतर्गत किया गया है। अनेक वर्षों से कश्मीर को केवल एक पर्यटन स्थल के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है जिसके कारण आज कश्मीर की यह अवस्था हो गयी है। प्राचीनकाल से कश्मीर का रूप किसी पर्यटन स्थल का कदापि नहीं था। येरुशलम के प्रति जो भावना ईसाइयों की है अथवा मक्का के प्रति जो आदर मुसलामानों के हृदय में है, वही भावना एवं आदर सनातन धर्म तथा वैदिक हिन्दू धर्म के अनुयायियों का कश्मीर के प्रति था। कश्मीर अध्ययन एवं आध्यात्म का सर्वोच्च केंद्र था।

सम्पूर्ण विश्व में कश्मीर इकलौता स्थान है जिसका विश्व भर में सर्वाधिक लम्बा अखंड जीवंत इतिहास लिखा गया है। सर्वप्रथम विश्वविद्यालय अर्थात् प्रथम महान अध्ययन केंद्र शारदा विद्या पीठ कश्मीर में ही है। शारदा विद्या पीठ का विकास दो स्तरों में हुआ है। शारदा विद्या पीठ से सम्बंधित एक आध्यात्मिक आयाम यह है कि इसकी संकल्पना किस प्रकार हुई थी? इसकी स्थापना कश्मीर में ही क्यों हुई?

आरम्भ में कश्मीर क्षेत्र में मानवी वसाहत नहीं थी। यहाँ सतीसरा नामक एक सरोवर था। सम्पूर्ण कश्मीर क्षेत्र जलमग्न था। इसे सतसर भी कहते हैं, अर्थात सात सरोवर जो पर्वतों एवं घाटियों से घिरे हुए हैं। आज उस विशाल सरोवर के स्थान पर डल झील, वुलर झील तथा अन्य सरोवर अब भी शेष हैं। सतीसर सरोवर को रिक्त कर वहां वराहमुला नामक क्षेत्र का निर्माण किया गया। कालांतर में उसे बारामुला कहा जाने लगा। पुराणों के अनुसार सतीसर सरोवर को राक्षस के चंगुल से छुडाने के लिए भगवान विष्णु से वराह का रूप धर कर अपनी दाढ़ से सरोवर में छिद्र कर दिया था जिससे उसका जल रिसकर बाहर आ गया। इसी कारण इस क्षेत्र को वराहमुला कहा जाने लगा, वराह अर्थात् सूअर तथा मूल अर्थात् दाढ़।

सरोवर से जल बह जाने पर वहां सुन्दर कश्मीर प्रकट हो गया। वहां का प्रथम राजा था, राजा नील, जो कश्यप ऋषि का पुत्र था। कश्यप ऋषि को कैस्पियन सागर का ऋषि भी कहते हैं। इतिहासकारों के अनुसार कश्मीर नाम की व्युत्पत्ति कश्यप मीरा हुई है जिसका अर्थ है, ऋषि कश्यप का सरोवर। यह नाम एक कश्मीरी अथवा संस्कृत शब्द से आया है जिसका अर्थ जल का सूखना है। अथवा यह कश्यप मेरु शब्द से भी बना हो सकता है, जिसका अर्थ है कश्यप का पावन पर्वत।

निलमठपुराण – पुरातन कश्मीर

अनुराधा: क्या इसका सम्बन्ध निलमठपुराण से है?

आशीष: जी। निलमठपुराण का आरम्भ वहां से होता है जहां प्राचीन कश्मीर का जन्म हुआ था। जब जल को बहाकर भूमि प्रकट हुई थी। कश्मीर दो सभ्यताओं से निर्मित है। एक सभ्यता वह है जो कश्मीर के पर्वत शिखरों पर बसी थी जैसे तिब्बत, लद्दाख, गिलगित, बल्तिस्तान आदि जो एक काल में विहंगम जल स्त्रोत के चारों ओर स्थित थे। शीत ऋतु आते ही वे नीचे उतरकर घाटियों में आ जाते थे। कश्मीर में यह पुरातन संस्कृति अब भी जीवित है जिसमें सम्पूर्ण दरबार वातावरण के अनुसार स्थानांतरित हो जाता था। कश्मीर की शीतकालीन राजधानी जम्मू तथा ग्रीष्मकालीन राजधानी कश्मीर है।

शीतकाल में पर्वत शिखर हिमाच्छादित हो जाते थे जिसके कारण लोग नीचे उतरकर राजा नील के राज्य कश्मीर में आ जाते थे। राजा नील ने एक अध्यादेश निकला था कि पर्वत शिखर के वासी छः मास के लिए नीचे आ सकते हैं। वे छः मास के लिए उनका भरण-पोषण करेंगे। इसके अतिरिक्त वे उन्हें कष्ट ना दें। कश्मीर आज भी इसका पालन करता है।

कश्मीरी संस्कृति की अनोखी परम्पराएं

कश्मीरी संस्कृति की कुछ परम्पराएं अत्यंत अनोखी हैं। उनमें से एक है, खेत्सीमावस। मावस शब्द अमावस्या से उत्पन्न हुआ है तथा खेत्सी यक्ष से उत्पन्न एक अपभ्रंश शब्द है। अर्थात् यक्ष अमावस्या, जो शीत ऋतु के आरम्भ में आती है। कश्मीर में इस दिन से आरम्भ कर शीत ऋतु के अंत तक कुछ भोजन घर के बाहर रखने की प्रथा थी। पुराणों के अनुसार यह भोजन यक्षों के लिए रखा जाता था।

यक्ष किन्हें कहा जाता था? प्राचीन ग्रंथों के अनुसार यक्षों के बादाम के आकर के नेत्र होते थे। ठुड्डी पर थोड़े बाल लटके हुए दिखाए जाते हैं। यही विशेषताएं उन लोगों में भी देखी जा सकती हैं जो कश्मीर के आसपास पर्वत शिखरों पर निवास करते हैं, जैसे तिब्बती एवं लद्दाखी लोग। उनके शारीरिक लक्षण पुराणों में प्रदर्शित यक्षों के समान होते हैं। शीतकाल में पर्वत शिखरों में निवास करने वाले लोगों को खाद्यपदार्थ उपलब्ध नहीं हो पाते थे। अतः वे नीचे उतर कर घाटियों में आ जाते थे। घाटी के वासी उनका भरण-पोषण करते थे। इसके पृष्ठभाग में भावना यह थी कि अभावग्रस्त को भोजन खिलने से उन्हें समृद्धि प्राप्त होगी। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को ध्यान में रखते हुए इस परंपरा का पालन किया जाता था। उस काल में तथा उसके पश्चात भी कश्मीर में शारदा का अस्तित्व था। शारदा के दो आयाम हैं। उन में एक आयाम आध्यात्मिक है। यहाँ शारदा के वास्तविक महत्त्व को समझना अत्यंत आवश्यक है।

सागर मंथन

हम सब सागर मंथन की कथा जानते हैं। सागर मंथन द्वारा अमृत सहित अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई थीं। सभी देवताओं ने अमृत पान किया था। शेष अमृत कहाँ है? उस समय ब्रह्मा जी ने विष्णु जी से शेष अमृत के कलश को कश्मीर में स्थापित करने का आग्रह किया। भगवान विष्णु अमृत कलश लेकर कश्मीर पधारे तथा उस कलश को कृष्णगंगा या किशनगंगा एवं झेलम नदी के संगम पर स्थापित किया। आज मुजफ्फराबाद या पाक अधिकृत कश्मीर में उस क्षेत्र को नीलम घाटी कहते हैं। ब्रह्माजी ने संगम पर स्थापित अमृत कलश के ऊपर शारदा को प्रकट किया। काल के साथ वह क्षेत्र अध्यात्मिक अध्ययन का विशाल केंद्र बन गया।

माँ शारदा

सर्वप्रथम कश्मीरी पंडित माँ शारदा के सेवक व भक्त बने। वे इस भूभाग पर माँ शारदा का अधिपत्य मानते हैं। यहाँ तक कि १८वीं सदी में एक घटना हुई जिसमें उस क्षेत्र में माँ शारदा एक श्वेत हंस पर आरूढ़ देखी गयी थीं। जब तुर्क एवं मुस्लिम आक्रमण हुए तब एक मुस्लिम कमांडर ने बारूद का प्रयोग कर मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। मंदिर का शिखर शारदा माँ के मंदिर स्थल से लगभग ३००-४०० मीटर दूर अब भी स्थित है जिस पर मूल श्रीयन्त्र उत्कीर्णित है।

गणेश घाट – प्राचीन कश्मीर

यहाँ गणेश घाट नामक एक स्थान है। यह एक विशाल पर्वत की सीधी सपाट खड़ी सतह है जिस पर स्वयंभू गणेश की प्रतिमा उत्कीर्णित प्रतीत होती है।

शारदा मंदिर के गर्भगृह के चार प्रवेश द्वार थे। अनेक राज परिवारों  के सदस्य शारदा के शिष्य थे जो यहाँ आकर आध्यात्म का अध्ययन करते थे। उनमें रानी दिद्दा एवं कोटा रानी भी सम्मिलित हैं। गोपादित्य एवं अन्य विद्वानों के लिखित संस्मरणों के अनुसार विश्व के अनेक भागों से विद्यार्थी यहाँ आते थे तथा शारदा के शिष्य बनकर विद्याध्ययन करते थे। अनेक विद्यार्थी माँ शारदा से आध्यात्म की शिक्षा प्राप्त कर पुनः अपने स्थानों पर चले गए तथा वहां जाकर सम्बंधित पंथों का शुभारम्भ किया। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि ईसा मसीह भी इसी उद्देश्य से कश्मीर आये थे।

मध्य एशिया एवं मुख्य भारत के मध्य स्थित व्यापार मार्ग कश्मीर से होकर जाता था जिसके द्वारा कश्मीर आया जा सकता था। कश्मीर ने रेशम एवं मसलों के व्यापार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ये वस्तुएं मध्य एशिया से भारत में प्राचीन कश्मीर मार्ग से ही प्रवेश करते थे।

अनुराधा: इस चर्चा के अंत में मैं आपने अंतिम प्रश्न करना चाहती हूँ। मैं आपसे उन व्यापारों के विषय में चर्चा करना चाहती हूँ जिनमें कश्मीर ने सहायक भूमिका निभाई थी। कश्मीर मैं किन किन वस्तुओं का आयात व निर्यात होता था?

प्राचीन कश्मीर की व्यापार व्यवस्था

आशीष: कश्मीर कभी बाजार नहीं था। ना ही उसकी एक बाजार के रूप में संकल्पना की गयी थी। तुर्क एवं अफगानी आक्रमणकारियों द्वारा कश्मीर पर आक्रमण से पूर्व कश्मीर एकमात्र मोक्ष धाम था। प्राचीन कश्मीर ऐसा राज्य कदापि नहीं था जहां व्यवसायिक गतिविधियाँ हों। वह केवल आध्यात्मिक क्रियाकलापों का केंद्र था।

रानी दिद्दा के काल में तथा उससे पूर्व एवं पश्चात भी, कश्मीर बृहत्तर भारत के लिए व्यापार सुविधाएं उपलब्ध कराता था। इसी व्यापार मार्ग का परिणाम है कि आज आप कश्मीर में रेशम एवं केसर का उत्पादन देखते हैं। कश्मीर विश्व का तीसरा विशालतम केसर उत्पादक है। विश्व में केसर के प्रमुख उत्पादक स्पेन, किश्तवार के कुछ स्थान एवं कश्मीर हैं। उनमें भी कश्मीर का केसर सर्वोत्तम माना जाता है। किन्तु इन सब का आरम्भ इस व्यापार मार्ग के कारण ही हुआ था। अन्यथा कश्मीर में किसी भी प्रकार का व्यापार नहीं होता था, ना उत्पादक के रूप में, ना ही उपभोक्ता के रूप में।

कश्मीर के लोग मूलतः मंदिर के संरक्षक थे। उदहारण के लिए, कौल संहिता को विश्व भर की शक्तिओं अथवा तंत्र का ग्रन्थ माना जाता है। कौल समाज को इस ज्ञान का संरक्षक माना जाता था। एक कौल होने के कारण तंत्र की परंपरा को बनाए रखना हमारे कार्यक्षेत्र में आता था। उसी प्रकार कश्मीर के सभी मूल कश्मीरी पंडित एवं अन्य मूल निवासी कश्मीर के विभिन्न ऐतिहासिक वैदिक श्रद्धा स्थलों के सेवक माने जाते थे। उन स्थानों में कुछ नाम हैं, तुलामुला, जिसे खीर भवानी भी कहा जाता है, अमरनाथ, शारदा विद्या पीठ आदि। इन स्थानों में सर्वाधिक संख्या में कश्मीरी पंडित कार्य करते थे। उनके जीवन का अस्तित्व ही वैदिक परम्पराओं एवं वैदिक धर्म के आध्यात्मिक आयामों को जीवित रखने में माना जाता था।

शारदा विश्वविद्यालय – पुरातन कश्मीर

शारदा विश्वविद्यालय विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय था जहां विश्व भर से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे, जहां विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक संगोष्ठियाँ एवं कार्यशालाएं आयोजित की जाती थीं तथा जहां विद्यार्थियों को स्नातक/स्नातकोत्तर की उपाधियाँ एवं प्रमाणपत्र प्रदान किये जाते थे। यहाँ दूर-सुदूर यूरोप एवं विभिन्न मध्य एशिया के साम्राज्यों से अनेक विद्यार्थी आते थे। जैसे आदि शंकराचार्य एवं ह्वेन त्सांग भी कश्मीर आये थे। अशोक ने भी कश्मीर में दरबार स्थापित किया था।

बौद्ध धर्म पुरातन कश्मीर द्वारा ही प्रदत्त एक धरोहर है। बौद्ध धर्म का प्रसार भारत के बाह्य क्षेत्रों में कैसे हुआ? कश्मीर के द्वारा। बौद्ध धर्म के अनुयायी एवं कश्मीरी एक दूसरे पर अविश्वास करते थे। अतः बौद्ध धर्म के अनुयायी कश्मीर से बाहर चले गए।

कश्मीर के सृजनकर्ता

आशीष: मैं दो नामों का उल्लेख करना चाहता हूँ। सारंगदेव, जिन्होंने संगीत की रचना की तथा सुश्रुत, जिन्हें औषधियों का सृजनकर्ता माना जाता है। क्या लोग यह जानते हैं कि ये दोनों प्राचीन कश्मीर के निवासी थे।

अनुराधा: नहीं, मैं भी यह नहीं जानती थी। यह सब अत्यंत ही रोचक एवं ज्ञान वर्धक है। मुझे विश्वास है कि मेरे साथ मेरे पाठकों को अनेक नवीन जानकारी प्राप्त हुई है। हम सब के लिए भारत की धरोहरों के साथ साथ पुरातन कश्मीर की धरोहरों को जानना व समझना अत्यंत आवश्यक है, जिसे कुछ सीमा तक लोग विस्मृत कर चुके हैं तथा खोने की कगार पर हैं। अतः आशा करती हूँ कि कश्मीर की धरोहर एवं संस्कृति के सम्बन्ध में मुझे आपसे पुनः चर्चा करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।

आशीष: जी अवश्य। आज की चर्चा के अंत में मैं आपसे अभिनवगुप्त के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। आज की पीढ़ी को यह समझना होगा कि अभिनवगुप्त किसी भी अन्य से अरबों गुना अधिक शक्तिशाली थे। उन्हें अजन्मा कहा जाता था, अर्थात् जिसका कभी जन्म नहीं हुआ हो। उनका जन्म भगवती की योनि से हुआ था। वे इतने शक्तिशाली थे कि वे सृष्टि के पाँचों तत्वों को केवल हाथों व मुख की भाव-भंगिमाओं द्वारा नियंत्रित कर लेते थे। उनके मुख के भाव परिवर्तित होते ही वातावरण में परिवर्तन आ जाता था।

अनुराधा: आपसे अनुरोध है कि किसी वार्तालाप में आप हमें अभिनवगुप्त के विषय में भी अधिक जानकारी दें। आज के इस अत्यंत ही ज्ञानवर्धक एवं संतोषजनक संवादों के लिए आपका हृदय से धन्यवाद करती हूँ।

आशीष: मुझे डीटुअर्स में आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद। पुरातन कश्मीर मेरे हृदय का एक अभिन्न अंग है। उसके विषय में चर्चा करना मुझे सदा ही आनंदित करता है। मुझे यह अवसर पुनः प्रदान करने के लिए आपका अनेकानेक धन्यवाद।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत श्रव्य संवाद का अंग्रेजी में लिखित प्रतिलिपि मेघा व्यास द्वारा तैयार किया गया है।

हिन्दी अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लद्दाख की महिला बौद्ध दैवज्ञ से एक अविस्मरणीय भेंट https://inditales.com/hindi/mahila-bouddh-devagya-ladakh/ https://inditales.com/hindi/mahila-bouddh-devagya-ladakh/#respond Wed, 26 Oct 2022 02:30:26 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2841

लद्दाख ही नहीं, समूचा हिमालयीन क्षेत्र रहस्यों से परिपूर्ण प्रतीत होता है। पग पग पर हमारा सामना मायावी कथाओं एवं लोगों की विभिन्न आस्थाओं से होता है जिन्होंने इस रहस्यपूर्ण इंद्रजाल को जीवंत रखा है। चंद्रताल में मैंने एक गड़ेरिये की कथा सुनी थी जो सरोवर में स्थित एक जलपरी के प्रेम में बावला हो […]

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लद्दाख ही नहीं, समूचा हिमालयीन क्षेत्र रहस्यों से परिपूर्ण प्रतीत होता है। पग पग पर हमारा सामना मायावी कथाओं एवं लोगों की विभिन्न आस्थाओं से होता है जिन्होंने इस रहस्यपूर्ण इंद्रजाल को जीवंत रखा है। चंद्रताल में मैंने एक गड़ेरिये की कथा सुनी थी जो सरोवर में स्थित एक जलपरी के प्रेम में बावला हो गया था। वहीं गुलमर्ग में मैंने बाबा रेशी की कथा सुनी थी। उन्ही रहस्यमयी अनुभवों को जीवंत रखते हुए लद्दाख में मेरी भेंट एक बौद्ध दैवज्ञ अस्तित्व से हुई।

महिला बौद्ध दैवज्ञ से एक साक्षात्कार
महिला बौद्ध दैवज्ञ से एक साक्षात्कार

लद्दाख के थिकसे एवं चेमरे मठों तक सड़क यात्रा करने के पश्चात हम लेह से पूर्व, चोग्लाम्सर गाँव में रुके। हमारे परिदर्शक हमें वहां एक साधारण से लद्धाखी घर में ले गये। शीत ऋतु का प्रातःकाल था। घर के सभी सदस्य घर के बाहर बैठकर धूप सेक रहे थे। वे हमें घर के एक कक्ष के भीतर ले गए तथा वहां बैठने के लिए आसन दिया। हमने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। कक्ष के भीतर सम्पूर्ण स्त्री वर्ग सामने की ओर बैठा था तथा पुरुष वर्ग कक्ष के पृष्ठभाग में विराजमान था।

लद्दाख की बौद्ध दैवज्ञ पद्मा लामो

कुछ क्षण पश्चात बौद्ध दैवज्ञ पद्मा लामो ने अपने नन्हे पोते के साथ कक्ष में प्रवेश किया तथा स्मित हास्य द्वारा हमारा अभिवादन स्वीकार किया। उन्होंने एक सामान्य सा सलवार व कुर्ता धारण किया हुआ था। किसी भी अन्य दादी की भाँति वे अपने पोते का हाथ पकड़कर कक्ष में आयी थी। हमारा अभिवादन स्वीकार करने के पश्चात वे कक्ष से चली गयीं। कुछ क्षणों पश्चात वे पारंपरिक बौद्ध परिधान धारण कर आध्यात्मिक बैठक हेतु पुनः उपस्थित हो गयीं। उन्होंने पूर्व के परिधान के ऊपर एक लम्बा पारंपरिक बौद्ध चोगा धारण कर लिया था। वैसे भी जनवरी मास में लद्दाख जैसे स्थान पर वस्त्रों की कितनी भी परतें हों, आवश्यक ही प्रतीत होती हैं।

बौद्ध दैवज्ञ पद्मा लामो जी
बौद्ध दैवज्ञ पद्मा लामो जी

आज मेरी प्रसन्नता चरम सीमा पर थी क्योंकि मैं अपने समक्ष एक स्त्री दैवज्ञ के दर्शन कर रही थी। हम में से अधिकांश आगंतुकों ने अपने मानसपटल पर मानव स्वभाववश एक पुरुष बौद्ध दैवी अस्तित्व की छवि उभार ली थी। हमें पूर्व सूचना प्रदान की गयी थी कि हमें उनके व सम्पूर्ण आध्यात्मिक बैठक के छायाचित्र अथवा चलचित्र नहीं लेने हैं। उन्हें विचारने योग्य प्रश्नों की पूर्व सूची भी तैयार रखने के लिए कहा गया था। हमारे जीवन से सम्बंधित किसी भी विषय पर प्रश्न पूछने की हमें अनुमति थी।

बौद्ध अनुष्ठान

अनुष्ठान के लिए धान्य एवं दीप
अनुष्ठान के लिए धान्य एवं दीप

पद्मा लामो जी ने बौद्ध अनुष्ठानों का आरम्भ करते हुए समक्ष एक पंक्ति में रखे पीतल के अनेक पात्रों में जल भरना आरम्भ किया। कुछ पत्रों में सत्तू तथा गेहूं जैसे धान्य भी भरे। तत्पश्चात उन्होंने एक दीप प्रज्ज्वलित किया। हमें यह जानने की उत्सुकता थी कि दीपक में तेल भरा है अथवा याक का मक्खन। उन्होंने हास्य करते हुए कहा कि ‘यह अमूल मक्खन है’। मुझे अमूल कंपनी की पहुँच पर अचम्भा हुआ। पद्मा लामो जी के सधे हुए हाथों में अनेक वर्षों का अभ्यास स्पष्ट झलक रहा था।

चीख

अनुष्ठान की सभी आवश्यकताएँ पूर्ण करने के पश्चात पद्मा लामो जी ने एक बंधी हुई पोटली अपने समीप अपने आसन पर रख दी तथा वेदी पर विराजमान देवों के समक्ष नतमस्तक हो गयीं। अचानक हमारे आसपास स्थित मौन भरे वातावरण में कर्णभेदी स्वर गूँज उठा। नतमस्तक हुई पद्मा जी अचानक एक तीव्र चीख के साथ उठकर बैठ गयीं। उनकी चीख इस तथ्य का द्योतक थी कि वे एक दैवी अवस्थिति में प्रवेश कर चुकी हैं। वे प्रबलता से अपना शीष हिला रही थीं। उनके केशों से छिटकता जल कक्ष में चारों ओर पसर गया था। उनके मुंह से ऊँचे स्वर में निकलते अस्पष्ट शब्द मुझे व्याकुल व भयभीत कर रहे थे। मुंह से तीव्र अस्पष्ट स्वर निकालते हुए ही उन्होंने अपनी पोटली खोली तथा उसमें से एक मुकुट निकाल कर अपने शीष पर धारण कर लिया। उस मुकुट पर विभिन्न बोधिसत्वों के चित्र चित्रित थे। बैठक के पश्चात मुझे बताया गया था कि इस मुकुट को अपने शीष पर वही धारण कर सकता है जो दैवी स्थिति में प्रवेश कर चुका है।

पद्मा लामो जी अपना अनुष्ठान का सामान समेटते हुए
पद्मा लामो जी अपना अनुष्ठान का सामान समेटते हुए

तत्पश्चात पद्मा जी ने एक ब्रोकेड का वस्त्र ओढ़ लिया, जो वैसा ही था जैसा हमने इससे पूर्व स्पितुक मठ के गस्टर उत्सव में चाम नर्तकों को धारण करते देखा था। दीर्घ काल तक झूमने, हिलने एवं चीखने के पश्चात वे हमारे प्रश्नों के उत्तर प्रदान करने के लिए तत्पर हुईं। ऐसा माना जाता है कि उनकी इस स्थिति में कुछ दिव्य आत्माएँ उनके शरीर पर आधिपत्य जमा लेती हैं। वे उन आत्माओं एवं हमारे मध्य एक माध्यम की भूमिका निभाती हैं जिनके द्वारा हम उन आत्माओं से चर्चा कर सकते हैं। प्रश्न पूछने से पूर्व हमने उन्हें एक श्वेत दुपट्टा अर्पित किया जिसे उन्होंने उत्तर देने से पूर्व हमें वापिस दे दिया। हमारे परिदर्शक अर्थात् गाइड ताशी ने एक दुभाषिये की भूमिका निभाते हुए हमारे प्रश्नों को एक भिन्न भाषा में अनुवादित कर उन्हें सुनाया। हमने अनुमान लगाया कि वह लद्दाखी भाषा होगी। उनका उत्तर सुनने के पश्चात ताशी ने उन्हें पुनः हिन्दी/अंग्रेजी में अनुवाद कर हमें बताया।

बौद्ध दैवज्ञ के साथ प्रश्नोत्तरी

प्रत्येक प्रश्न सुनने के पश्चात पद्मा जी गेहूं के कुछ दानों को डमरू पर छिड़कती थीं। दाने कहाँ गिर रहे हैं, उसके आधार पर वे हमें उत्तर प्रदान कर रही थीं। हममें से कुछ के कोई प्रश्न नहीं थे। हमने केवल उनसे आशीष माँगा। हो सकता है कि हमारे इस व्यवहार को उन्होंने अपनी दैवी शक्ति व क्षमता पर हमारे विश्वास की कमतरता माना हो। किन्तु हम असमंजस में थे। इस प्रकार के व्यक्तिगत व अन्तरंग प्रश्नोत्तरी के लिए एकांत एवं घनिष्ठता की आवश्यकता होती है जो लोगों से भरे उस कक्ष में उपलब्ध नहीं था। हममें से कुछ लोगों ने सामान्य प्रश्न अवश्य पूछे थे, जैसे क्या भविष्य में उनके स्वास्थ्य में सुधार होगा? इन प्रश्नों के वे सामान्य व व्यापक उत्तर दे रही थीं, जैसे आपके शरीर का भार आवश्यकता से अधिक है, अतः आपको भविष्य में कष्ट हो सकता है अथवा आप वैद्य से आवश्यक सलाह लें, आदि।

हमारे वाहन चालक ने अपने स्वर व भावभंगिमाओं द्वारा पूर्ण विश्वास प्रदर्शित करते हुए उनसे लद्दाखी भाषा में प्रश्न किया। तब उन्होंने उसके कष्ट का पूर्ण रूप से संज्ञान लेते हुए अत्यंत आत्मीयता से उसे लद्दाखी भाषा में उत्तर दिया। हमारा वाहन चालक उनके उत्तर से अत्यंत संतुष्ट था। हमारे सन्दर्भ में कदाचित हमारी भाषा से लद्दाखी भाषा तथा विपरीत अनुवाद करने में हमारे प्रश्नों एवं उनके उत्तरों के सटीक भाव कहीं लुप्त हो रहे थे। इसीलिए हम उनकी इस शक्ति का अनुभव नहीं ले सके।

सभी के प्रश्न समाप्त होते ही पद्मा जी अपनी तन्मयावस्था से बाहर आयीं तथा पूर्व रूप से आचरण करने लगीं। किन्तु उनके मुख पर थकान स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। कुछ क्षण पूर्व वे जिस उग्र रूप में स्थित थीं, उससे बड़ी मात्रा में उनकी उर्जा व्यय होती होगी। सम्पूर्ण कालावधि में यदि कुछ उन्हें विचलित कर रहा था, तो वह था उनका नन्हा पोता।

पुनः सामान्य स्थिति में प्रवेश

सामान्य स्थिति में पुनः प्रवेश करते ही पद्मा जी हमसे हिन्दी भाषा में वार्तालाप करने लगीं। हम यह विचार करने के लिए विवश हो गए कि उनकी तन्मयावस्था में हमें एक अनुवादक की आवश्यकता क्यों पड़ी? हिन्दी भाषा में वार्तालाप करते हुए हम उनसे अधिक आत्मीयता से जुड़ सकते थे। किन्तु हमें बताया गया कि अपनी तन्मयावस्था में वे केवल तिब्बती भाषा में ही संवाद कर सकती हैं। उस क्षण मुझे यह आभास हुआ कि वे तिब्बती भाषा में संवाद कर रही थीं, ना कि लद्दाखी भाषा में।

पद्मा जी से वार्तालाप करते हुए हमें ज्ञात हुआ कि वे अपनी वंशावली एवं अपने पारिवारिक परम्पराओं के आधार पर बौद्ध दैवज्ञ बनी हैं। पद्मा जी से पूर्व उनके दादाजी भी बौद्ध दैवज्ञ थे तथा उन्होंने अपनी धरोहर पद्मा जी को विरासत के रूप में प्रदान की थी। दैवज्ञ पदवी प्राप्त करने के लिए पद्मा जी ने अनेक बौद्ध लामाओं से प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वे अपने दैवज्ञ प्राप्ति की प्रक्रिया के विषय में अधिक चर्चा करने में उत्सुक नहीं थीं। ना ही वे इस प्रक्रिया के विषय में सामान्य ज्ञान प्रदान करने के लिए तत्पर थीं। अतः तिब्बती बौद्ध धर्म के अंतर्गत एक दैवज्ञ आत्मा की पहचान कैसे की जाती है, इस विषय पर मैंने एक विडियो एवं संस्करण ढूंढा है। आप इसे देखकर आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

श्रद्धा व सम्मान

हम इस तथ्य से अत्यंत ही आनंदित थे कि हमें एक स्त्री बौद्ध दैवज्ञ से भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हमने प्रत्यक्ष अनुभव किया कि उनके गाँव के स्थानिक अपने बौद्ध दैवज्ञ पद्मा जी से अत्यंत श्रद्धा व सम्मान से व्यवहार करते हैं। पद्मा जी इसे अपना सौभाग्य मानती हैं कि भगवान ने उन्हें लोगों के कष्टों एवं समस्याओं के निवारण के लिए एक माध्यम  के रूप में चयनित किया है। अनेक दुखियारे उनके पास विविध समस्याएं लेकर आते हैं। वहां से वापिस जाते समय वे अपने साथ समस्याओं का निवारण ले जाते हैं। यदि संतोषजनक निवारण प्राप्त ना भी हो तो अपने साथ कम से कम एक आशा तथा आनंद अवश्य लेकर जाते हैं।

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श्रद्धा एवं विश्वास

श्रद्धा उसे ही होती है जिसके भीतर विश्वास होता है। मैंने उस कक्ष में बैठे सभी लद्दाखियों में पद्मा लोमा जी के प्रति असीम श्रद्धा एवं विश्वास देखा। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उनके बौद्ध दैवज्ञ के पास उन की सभी समस्याओं एवं कष्टों का निवारण है। मुझे आभास हुआ कि इस प्रकार की श्रद्धा एवं विश्वास कुछ क्षणों में निर्मित नहीं होती हैं। ऐसी श्रद्धा व विश्वास का निर्माण होने में एक कालावधि व्यतीत हो जाती है। अपने अनेक अनुभवों द्वारा पुष्टिकरण के पश्चात् ही हम किसी नवीन संकल्पना पर विश्वास करने के लिए तत्पर होते हैं।

मेरे लिए दैवी आत्मा पद्मा लामोजी से प्रत्यक्ष भेंट करना स्वयं में एक अनोखा अनुभव था। साथ ही उनकी पूर्ण तन्मयावस्था में लिप्त होने की प्रक्रिया को भी प्रत्यक्ष देखने का अवसर प्राप्त हुआ। वे जिस प्रकार से लोगों के प्रश्नों एवं समस्याओं को सुनकर उन्हें उत्तर दे रही थीं, वह भी अत्यंत दर्शनीय था। अंत में वे जिस प्रकार एक सामान्य स्थिति में पुनः आयीं तथा जिस सहजता से एक अनुरक्त दादी की भूमिका में समाहित हो गयीं, यह सब अनुभव करना हमारे लिए अद्वितीय था। स्वयं को एक भूमिका से दूसरी भूमिका में अत्यंत सहजता एवं सत्यता से आत्मसात करना, अनेक वर्षों के अनुभव से ही संभव हो सकता है।

वे हमें एक असाधारण एवं दिव्य सिद्धि से परिपूर्ण स्त्री प्रतीत हुईं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कश्मीर के हाउसबोट- सरोवर में तैरते घर का एक अनुभव https://inditales.com/hindi/kashmir-sarovar-houseboat-anubhav/ https://inditales.com/hindi/kashmir-sarovar-houseboat-anubhav/#respond Wed, 17 Aug 2022 02:30:08 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=2763

श्रीनगर के हाउसबोट अर्थात् सरोवर पर तैरते घर! क्या इनका अनुभव प्राप्त किये बिना कश्मीर अथवा श्रीनगर की यात्रा पूर्ण मानी जा सकती है? कदाचित नहीं! वस्तुतः, कश्मीर यात्रा के लिए आये पर्यटकों का सम्पूर्ण पर्यटन हाउसबोट के इस अनोखे अनुभव के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है। हमने गुलमर्ग में तीन दिवस अप्रतिम परिदृश्यों […]

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श्रीनगर के हाउसबोट अर्थात् सरोवर पर तैरते घर! क्या इनका अनुभव प्राप्त किये बिना कश्मीर अथवा श्रीनगर की यात्रा पूर्ण मानी जा सकती है? कदाचित नहीं! वस्तुतः, कश्मीर यात्रा के लिए आये पर्यटकों का सम्पूर्ण पर्यटन हाउसबोट के इस अनोखे अनुभव के चारों ओर ही केन्द्रित रहता है।

काश्मीर के नागिन सरोवर पर तैरते हाउसबोट
काश्मीर के नागिन सरोवर पर तैरते हाउसबोट

हमने गुलमर्ग में तीन दिवस अप्रतिम परिदृश्यों का आनंद उठाते व्यतीत किये जिसमें गुलमर्ग का प्रसिद्ध गोंडोला केबल कार भ्रमण भी सम्मिलित था। वहां से हम हाउसबोट में रहने का आनंद लेने श्रीनगर पहुंचे। आरम्भ में मुझे किंचित निराशा हुई क्योंकि हम प्रसिद्ध डल सरोवर पर नहीं, अपितु निगीन या नागिन सरोवर पर हाउसबोट में ठहरने जा रहे थे। मैंने कश्मीर में किसी नागिन सरोवर के विषय में कभी सुना नहीं था। श्रीनगर के नाम से सदा डल सरोवर का नाम ही जुड़ा होता है।

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श्रीनगर के आसपास, विशेषतः डल सरोवर के आसपास विचरण करने के पश्चात् मुझे प्रसन्नता हुई कि हम नागिन सरोवर पर ठहरे थे। नागिन सरोवर पर डल सरोवर जैसी भीड़भाड़ नहीं थी जिसके कारण हम अपने चारों ओर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्रकृति का मनःपूर्वक आनंद उठा सके। हाउसबोट में एक सम्पूर्ण दिवस व्यतीत करना स्वयं में एक अद्वितीय अनुभव था। उसके द्वारा हम श्रीनगर के जीवन एवं वाणिज्य को तथा इसके चारों ओर केन्द्रित कश्मीर पर्यटन की मनोवृत्ति को जानने का प्रयास कर सके।

श्रीनगर के शिकारों का अनुभव

शिकारे और हाउसबोट
शिकारे और हाउसबोट

एक रंगबिरंगा शिकारा मुझे व मेरे सामान को हाउसबोट तक लेकर गया। हाउसबोट में प्रवेश करते ही मेरा चाय के साथ स्वागत किया गया। तभी मेरी दृष्टी मेरे सभी मित्रों पर पड़ी जो हाउसबोट के भीतर एक विक्रेता को घेरकर बैठे थे। वह विक्रेता उन्हें कागज की लीद से निर्मित रंगबिरंगी कलाकृतियाँ दिखा रहा था तथा उनसे क्रय करने का प्रलोभन दे रहा था। उसने रंगबिरंगे संदूक जिन पर हाथों से चित्रकारी की गयी थी, घंटियाँ, कंगन, चौकोर थाल तथा ऐसी ही अनेक छोटी छोटी वस्तुओं की लगभग प्रदर्शनी सजा रखी थी। हम उससे सही भाव के लिए तोल-मोल कर ही रहे थे कि वहां कश्मीरी आभूषणों की विक्री करने एक अन्य विक्रेता भी पहुँच गया। उसने भी अपनी पेटी खोलकर हमें चाँदी के आभूषण दिखाना आरम्भ कर दिया। एक प्रकार से संदूकों से बाजार बाहर आ गया था।

शिकारे की सवारी

डल सरोवर के मध्य शिकारा
डल सरोवर के मध्य शिकारा

समय हो चुका था कि हम एक शिकारे पर शांति से बैठकर नौका विहार करें तथा सरोवर में सूर्यास्त का आनंद लें। हम पुनः एक रंगबिरंगे शिकारे पर बैठ गए तथा हमारा नाविक शनैः शनैः उसे जल के भीतर ले जाने लगा। शिकारा अत्यंत संकरी नौका होती है। हम में से अधिकाँश लोग सरोवर की गहराई से भयभीत थे तथा इस संकरी नौका के उलटने के भय से आशंकित थे। वहीं मुझे सरोवर के शीत जल की चिंता अधिक थी। हमारा नाविक शिकारे को खेते हुए सरोवर के किनारे खड़ी हाउसबोटों को पार कर आगे ले गया। सभी हाउसबोटों के नाम अत्यंत निराले थे। उनमें से कई हाउसबोट ऐसे थे जिन पर आधुनिक होटल श्रंखलाओं के नाम थे। कुछ हाउसबोट धरोहर-होटलों की श्रंखला का स्वामित्व दर्शा रहे थे तो कुछ पर अंकित नामों से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे कश्मीर के स्थानीय होटलों के हाउसबोट हैं। सभी हाउसबोटों में एक समानता थी कि वे सभी काष्ठ की बनी थीं तथा उन पर काष्ठ का प्राकृतिक रंग था। बाह्य गलियारे अत्यंत उत्कीर्णित काष्ठ फलकों से निर्मित थे।

हमें एक दृश्य ने अत्यंत अचंभित किया कि प्रत्येक हाउसबोट का एक छोर भूमि से भलीभांति सम्बद्ध था। किन्तु बोट संचालक सभी पर्यटकों को शिकारे द्वारा बोट तक ऐसे ले जाते हैं मानो ये हाउसबोट सरोवर के मध्य खड़े हों।

शिकारों पर व्यापारी
शिकारों पर व्यापारी

बॉलीवुड के हिन्दी चित्रपटों ने शिकारों को अमर कर दिया है। अनेक चित्रपटों में नायक व नायिका को प्रेम में सराबोर शिकारे की सवारी करते दर्शाया गया है मानो प्रेम दर्शाने के लिए शिकारे सर्वोत्तम स्थान हैं। सरोवर में इतनी बड़ी संख्या में हाउसबोट हैं तथा उससे भी बड़ी संख्या में शिकारों में पर्यटक यहाँ से वहां सैर करते रहते हैं कि मुझे नहीं लगता प्रेमी जोड़े अथवा मधुचंद्र मनाते नवीन वर-वधु इन शिकारों में बैठकर एक दूसरे के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर पाते होंगे। कुछ क्षणों के लिए आप यह अनुभव भी कर लें कि आप प्रकृति के मध्य उसकी सुन्दरता का आनंद ले रहे हैं कि अचानक एक अन्य शिकारा आपके समीप आकर रुक जाता है तथा उसमें बैठा नाविक अपनी विक्री क्षमता आप पर जांचने लगता है। सम्पूर्ण नौकाविहार में यह अनुभव अनवरत जारी रहता है। जैसे ही एक विक्रेता-शिकारा किसी पर्यटक तक पहुंचता है, अन्य विक्रेता भी अपने अपने शिकारे लेकर वहां आ जाते हैं। यह सरोवर पूर्णतः एक बाजार प्रतीत होता है। इन सब के पश्चात भी इन शिकारों में बैठकर जल में नौकाविहार करना एक स्वप्निल व भावना से ओतप्रोत करने वाला अनुभव है।

खरीददारी

आपकी स्मृतियाँ समेटते छाया चित्रकार
आपकी स्मृतियाँ समेटते छाया चित्रकार

आप इन शिकारे-विक्रेताओं से चाँदी के आभूषण, कागज की लीद से निर्मित वस्तुएं, कश्मीरी केसर, फिरन इत्यादि के साथ काहवा चाय का भी आनंद ले सकते हैं। यदि आप खरीददारी की इच्छा नहीं रखते हैं अथवा आप अपना बटुआ हाउसबोट में रख आये हैं तो कैमरे व कश्मीरी वेशभूषा लेकर छायाचित्र खींचने वाले आपको घेर लेंगे। आप अपने परिधान पर ही कश्मीरी वेशभूषा धारण कर सकते हैं तथा एक कश्मीरी के समान अपना छायाचित्र खिंचवा सकते हैं। जी हां, शीतल जल पर तैरती इस संकरी सी नौका पर ही आप सज्ज हो सकते हैं। आप ‘कश्मीर की कली’ अथवा ‘कश्मीर का पुष्प’ बनकर अपना छायाचित्र खिंचवा सकते हैं। यदि आप इतना परिश्रम ना करना चाहे तो आप जैसे हैं, वैसे ही वे आपके कैमरे से ही आपका छायाचित्र ले सकते हैं जिसके लिए वे छोटी रकम लेते हैं। यह एक उत्तम अवसर होता है क्योंकि जल के मध्य तैरते शिकारे में बैठकर आप स्वयं का छायाचित्र तो नहीं ले सकते हैं ना!

तैरता भाजी उद्यान

नागिन सरोवर में तैरते जल उद्यान
नागिन सरोवर में तैरते जल उद्यान

आपका शिकारा खिवैय्या आपको तैरते हुए भाजी उद्यान की ओर अवश्य संकेत करेगा। कश्मीरी लोग बड़ी मात्रा में कमल ककड़ी खाते हैं जो कमल के पौधे का तना होता है। वह जल में ही उगता है। इसके अतिरिक्त भी वे अनेक ऐसी भाजियां खाते हैं जो जल में ही उगते हैं। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है? क्या आपने इससे पूर्व कहीं जल में तैरते भाजी के उद्यान देखे हैं? यदि हाँ, तो टिप्पणी खंड द्वारा मुझे अवश्य बताएं।

प्रातः का परिदृश्य - हाउसबोट से
प्रातः का परिदृश्य – हाउसबोट से

आप चाहे तट पर बैठे हों, हाउसबोट पर बैठे हों अथवा किसी शिकारे की सवारी कर रहे हों, आप जल पर तैरते अन्य शिकारों पर कहीं से भी दृष्टी डालें, वे अत्यंत ही मनभावन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। वे ऐसे दृश्य होते हैं जिन्हें देखने तथा जिन्हें अपने कैमरे द्वारा अमर बनाने की इच्छा सभी पर्यटन छायाचित्रकारों में होती ही है।

श्रीनगर में हाउसबोटों का इतिहास

सदा से ऐसा माना जाता रहा है कि कश्मीर घाटी में हाउसबोटों की संकल्पना को अंग्रेज लेकर आये थे। किन्तु मुझे हमारे पर्यटन संयोजक Mascot Houseboats के आयोजक यासीन तुमन से ज्ञात हुआ कि १३वीं सदी के प्राचीन कश्मीरी साहित्यों में कश्मीर घाटियों के सरोवरों में तैरती नौकाओं का उल्लेख किया गया है। अतः कश्मीर के लिए नौकाओं का निर्माण नवीन कृति नहीं है। किन्तु उस काल में नौकाओं का प्रयोग पर्यटकों अथवा यात्रियों के लिए कम, स्थानीय लोगों की सुविधा के लिए अधिक किया जाता था।

हाउसबोट अथवा सरोवर पर तैरते घर
हाउसबोट अथवा सरोवर पर तैरते घर

यदि इन्टरनेट की मानें तो जब अंग्रेज कश्मीर घाटी में आये थे, उन्हें भूमि क्रय करने की अनुमति नहीं थी। इसके विकल्प के रूप में उन्होंने नौकाओं का निर्माण किया। उन नौकाओं को उन्होंने विस्तृत सरोवरों में उतारा तथा उनके भीतर ही निवास करने लगे। कालांतर में श्रीनगर के सरोवरों के तट पर खडीं ये भव्य नौकाएं कश्मीर पर्यटन का मुख्य आकर्षण बन गयीं।

आज यदि आप शंकराचार्य मंदिर से डल झील या सरोवर को देखें तो वह आपको नौकाओं से भरी एक नगरी के समान दिखाई देगी। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि किस प्रकार कश्मीर का वाणिज्य इन्ही नौकाओं के चारों ओर केन्द्रित रहता है तथा किस प्रकार इन्ही नौकाओं के चारों ओर अनंत स्मृतियों की रचना होती है।

हाउसबोट क्या है?

रात्रिकाल में हाउसबोट
रात्रिकाल में हाउसबोट

डल सरोवर तथा नागिन सरोवर जैसे जलस्त्रोतों के तट पर एक पंक्ति में खडीं श्रीनगर की हाउसबोटें सरोवरों के चारों ओर स्थित किसी गाँव के समान प्रतीत होती हैं। साधारणतः प्रत्येक हाउसबोट के भीतर कुछ कक्ष होते हैं जिनमें प्रत्येक कक्ष के भीतर एक प्रसाधन गृह भी होता है। साथ ही एक भोजन कक्ष होता है तथा एक आमकक्ष होता है जहां सभी अतिथि साथ बैठकर वार्तालाप कर सकते हैं। सभी कक्षों में तापमान सुखद बनाने के लिए साधन होते हैं। झरोखों से आप सरोवर के शीतल जल को देख सकते हैं। नौका के बाहरी ओर खुला गलियारा होता है जहां बैठकर आप दृश्यों का आनंद ले सकते हैं। यह गलियारा नौका का सर्वोत्तम भाग होता है।

हाउसबोट के भीतर का ऐश्वर्य
हाउसबोट के भीतर का ऐश्वर्य

मेरे मानसपटल पर अब भी उस समय की सुखदाई स्मृतियाँ स्पष्ट हैं जब प्रातः शीघ्र उठकर मैं उस गलियारे में बैठ गयी थी। मेरे एक हाथ में गर्म चाय थी तथा दूसरे हाथ में किन्डल। मेरे समक्ष नागिन सरोवर में छाई धुंद की परतें छंटने लगी थीं तथा प्रातःकालीन दृश्य शनैः शनैः स्पष्ट होने लगा था। उगते हुए सूर्य की किरणें सरोवर के जल को सहलाते हुए उसे निद्रा से जगाने लगी थीं। कुछ ही समय में जल पर सुन्दर पुष्पों से लदे शिकारे दिखने लगे जो उन की विक्री करने के लिए जल में चक्कर काटने लगे थे। बाहरी दृश्यों का आनंद लेते हुए मैं गर्म चाय पी रही थी तथा साथ ही किंडल में पढ़ भी रही थी।

हाउसबोट का शयनकक्ष
हाउसबोट का शयनकक्ष

उत्कृष्ट उत्कीर्णित काष्ठ नौकाएं

हमारे हाउसबोट पास एक अतिभव्य नौका थी जिस पर उत्कृष्ट रूप से नक्काशी की हुई थी। हम उसे देखने उसके भीतर गए। नौका के भीतर की गयी नक्काशियों द्वारा कश्मीर का जीवन तथा उसकी संस्कृति को प्रदर्शित किया गया था। श्रीनगर के हाउसबोटों की लकड़ियों पर की गयी नक्काशी में प्रमुख रूप से चिनार के वृक्ष अवश्य होते हैं। कश्मीर के लिए चिनार केवल एक वृक्ष नहीं है, अपितु वह स्वयं में कश्मीर का इतिहास समेटे हुए है। वह कश्मीर के जीवन का अभिन्न अंग है।

इस भव्य नौका के भीतर स्थित सभी प्रसाधन गृह अतिआधुनिक थे। सभी कक्षों के भीतर वातानुकूलन सुविधाएं थीं जबकि वहां केवल जुलाई मास में वातावरण किंचित उष्ण होता है। कक्षों में रखीं सभी काष्ठ साज-सज्जा की वस्तुएं, मेज, बैठक आदि कश्मीरी कारीगरों की उत्कृष्ट कला प्रदर्शित कर रही थीं। मुझे यह जानकार अत्यंत दुःख हुआ कि अब ऐसे कारीगर कश्मीर में कम ही होते हैं। कश्मीर में लकड़ी पर उत्तम उत्कीर्णन करने वाले उत्कृष्ट कारीगर अब गिने-चुने ही रह गए हैं। कदाचित अब उन्हें इस क्षेत्र में पर्याप्त कार्य एवं पारिश्रमिक उपलब्ध नहीं हो पाता है। इस भव्य नौका के भीतर प्रत्येक सजावट उत्कीर्णित लकड़ी द्वारा की गयी थी।

कश्मीर की काष्ठ कला
कश्मीर की काष्ठ कला

हमने कुछ अन्य नौकाएं भी देखीं। हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि उत्कीर्णन व सजावट की मात्रा एवं गुणवत्ता नौकाओं के स्तर पर निर्भर करती हैं। कुछ नौकाओं के भीतर लकड़ी के पटलों पर की गयी नक्काशी एक प्रकार से कश्मीर एवं उसके वनस्पति व जीवों पर की गयी विस्तृत वृत्तचित्र के समान थी।

हाउसबोट का निर्माण

मैं यात्रा संस्करण लिखने वाली एक ट्रेवल ब्लॉगर हूँ। कश्मीर के हाउसबोट में भी मैं एक ट्रेवल ब्लॉगर के रूप में ही आयी थी। इसका एक लाभ यह हुआ कि हाउसबोट के मालिक ने ना केवल हमें उसकी अन्य नौकाएं दिखाईं, अपितु उसने हमें हाउसबोट के निर्माण पर आधारित एक चलचित्र भी दिखाया। मुझे वह विडियो अत्यंत भाया। अन्यथा हम जैसे लोग, जिनका सामान्य जीवन में कभी नौकाओं से सामना नहीं होता है, नहीं समझ सकते कि कम से कम ५० से ६० वर्षों तक अखंड रूप से साथ निभाने वाली तथा असंख्य पर्यटकों को आनंदित करने वाली इन विशाल नौकाओं का निर्माण कितना कठिन कार्य है। कैसे लकड़ी के लम्बे फलकों से नौकाओं के ऐसे खोल बनाए जाते हैं जो आसानी से जल पर तैर सकें, कैसे प्रत्येक पट्टिका को हाथों से आकार दिया जाता है, कैसे उन्हें आपस में जोड़कर एक विशाल नौका बनाई जाती है तथा कैसे उन्हें अंतर्बाह्य सज्ज किया जाता है आदि।

शिकारे पे फूल की दूकान
शिकारे पे फूल की दूकान

गत कुछ वर्षों में कश्मीर में अस्थिरता व अशांति पूर्ण वातावरण के कारण वहां पर्यटकों की संख्या लगभग नगण्य हो गयी थी जिससे हाउसबोट मालिकों का व्यवसाय चौपट हो गया था। अब कश्मीर की स्थिति में कुछ सुधार आते ही सभी हाउसबोट मालिकों ने एकत्र आकर इस व्यवसाय को पुनर्जीवित करने का निश्चय किया है। उन्होंने इसमें ठहरने के लिए निर्धारित शुल्कों में भरी कमी की है तथा अब इन नौकाओं को आम पर्यटकों के लिए भी खोल दिया है। अन्यथा इससे पूर्व वे केवल संपन्न तथा धनाड्य पर्यटकों को ही हाउसबोट की सेवायें मुहैय्या कराते थे।

श्रीनगर में हम जहां भी गए, सब पिछले वर्ष आई विनाशकारी बाढ़ की ही चर्चा कर रहे थे। किन्तु उससे इन हाउसबोटों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। क्योंकि जलस्तर बढ़ने के पश्चात भी नौकाएं उन पर तैरती रहीं।

हाउसबोट के लिए व्यवहारिक सुझाव

  • जम्मू कश्मीर पर्यटन के वेबस्थल पर श्रीनगर के सभी सरोवरों पर तैरती हाउसबोटों का उनकी श्रेणियों के अनुसार सूचीबद्ध उल्लेख किया गया है। साथ ही उनके मालिकों के नाम तथा उन नौकाओं के स्थापना वर्षों का भी उल्लेख है। आप जब भी कश्मीर की यात्रा का नियोजन करें तथा हाउसबोट में ठहरना चाहें तो आप अपनी नौका के विषय में सभी आवश्यक जानकारी यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।
  • आप वहां कम से कम एक सूर्योदय एवं एक सूर्यास्त का दृश्य अवश्य देखें एवं उनका आनंद उठायें।
  • कम से कम एक बार शिकारे की सवारी अवश्य करें।
  • शिकारे पर विक्रेताओं से कुछ भी क्रय करने से पूर्व आवश्यक मोल-भाव अवश्य कर लें।

कश्मीर के हाउसबोट में ठहरना स्वयं में एक अनोखा अनुभव है जिसे आप जीवन भर विस्मृत नहीं कर सकते।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लद्दाख के स्पितुक बौद्ध मठ का रहस्यमयी चाम नृत्य https://inditales.com/hindi/cham-nritya-spituk-math-ladakh/ https://inditales.com/hindi/cham-nritya-spituk-math-ladakh/#comments Wed, 22 Jan 2020 02:30:17 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1673

बौद्ध चाम नृत्य एक आनुष्ठानिक नृत्य है। हिमालयीन क्षेत्रों, विशेषतः लद्दाख के विभिन्न बौद्ध मठों में इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक मठ अपने पञ्चांग के अनुसार भिन्न भिन्न दिवसों में इस उत्सव का आयोजन करता है तथा अपना स्वयं का गुस्तोर उत्सव मनाता है। यह लद्दाख का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। मैंने […]

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बौद्ध चाम नृत्य एक आनुष्ठानिक नृत्य है। हिमालयीन क्षेत्रों, विशेषतः लद्दाख के विभिन्न बौद्ध मठों में इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक मठ अपने पञ्चांग के अनुसार भिन्न भिन्न दिवसों में इस उत्सव का आयोजन करता है तथा अपना स्वयं का गुस्तोर उत्सव मनाता है। यह लद्दाख का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है। मैंने जनवरी के मास में लद्दाख का भ्रमण किया था। तब लेह के समीप स्थित स्पितुक मठ में इस गुस्तोर उत्सव में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ।

मुस्कुराती हुई लद्दाखी महिला
मुस्कुराती हुई लद्दाखी महिला

बुद्ध एवं बौध धर्म को मैं जितना समझती थी, चाम नृत्य उससे ठीक विपरीत प्रतीत हुआ। चाम नृत्य रंगों से परिपूर्ण अत्यंत मनभावन उत्सव है जिसे लामा कठोर अनुष्ठानों एवं नियमों के अंतर्गत प्रस्तुत करते हैं। एक ओर हम उन्हें पहाड़ों के ऊपर स्थित बौध मठों में रहते एवं प्रार्थना करते देखते हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें इस मनमोहक नृत्य में तल्लीन देखना अत्यंत विस्मयकारी है। हिमायालीन बौद्ध मठ, जो अन्यथा शांत क्षेत्र होते हैं, इस उत्सव के समय जीवंत हो उठते हैं। रंगबिरंगे चटक एवं भव्य परिधान धारण किये लामा संगीत के सुरों पर थिरकते एवं झूमते हुए नृत्य करते हैं।

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चाम नृत्य का इतिहास

नीला मुखौटा पहने चाम नृत्य करते एक बोद्ध भिक्षुक
नीला मुखौटा पहने चाम नृत्य करते एक बोद्ध भिक्षुक

यह एक प्राचीन नृत्य परंपरा है जिसकी उत्पत्ति संभवतः तिब्बत में हुई थी। किवदंतियों के अनुसार इस नृत्य परंपरा का सम्बन्ध ८ वीं. शताब्दी के गुरु पद्मसंभव से है। ऐसा माना जाता है कि तिब्बत के तत्कालीन सम्राट त्रिशोंग डेस्टन ने गुरु पद्मसंभव को आमंत्रित किया था। वे उनसे उन आत्माओं से मुक्ति प्राप्त करने में सहायता चाहते थे जो उन्हें साम्ये बौद्ध मठ निर्माण करने में अड़चन उत्पन्न कर रहे थे। दिन के समय जो भी निर्माण कार्य सम्पूर्ण किया जाता था, रात्रि में वे आत्माएं उसे समूल नष्ट कर देती थीं। गुरु पद्मसंभव ने उन आत्माओं को नष्ट करने के लिए अनुष्ठान किये थे। समय के साथ ये अनुष्ठान बढ़ते चले गए। आज ये अनुष्ठान चाम नृत्य के रूप में किया जाता है। यह अनुष्ठान विशेषतः महायान बौद्ध धर्म से सम्बंधित है।

पीला मुखौटा पहने चाम नर्तक
पीला मुखौटा पहने चाम नर्तक

‘कोर ऑफ़ कल्चर’ द्वारा चाम नृत्य पर किये विस्तृत अनुसंधान के अनुसार यह नृत्य संभवतः गुरु पद्मसंभव के इस घटना से भी पूर्व अस्तित्व में था। समय के साथ इसमें परिवर्तन आते चले गए। यह नृत्य एक तांत्रिक नृत्य से सार्वजनिक प्रदर्शन में परिवर्तित हो गया है।

चाम, यह शब्द इस नृत्य में प्रयुक्त एक मुद्रा से उत्पन्न है। इस नृत्य शैली में इस मुद्रा का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। इस नृत्य शैली में हस्त मुद्राओं, पहनावों तथा हाथों में धारण किये चिन्हों का अत्यंत महत्व है। जैसे, हाथों में तलवार धारण करने का अर्थ है अज्ञानता का नाश करना।

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कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस परम्परा का आरम्भ शाक्यमुनि अर्थात् ऐतिहासिक बुद्ध के जीवनकाल में हुआ था। यह सिद्धांत इस परंपरा का उद्भव छठीं ईसा पूर्व बताता है।

मुखौटा नृत्य अथवा चाम नृत्य की कथा

लद्दाख में चाम नृत्य प्रदर्शन का विडियो देखें।

इस नृत्य का पूर्ण उद्देश्य है, मानवता की भलाई के लिए दुष्ट आत्माओं का अंत। यह कैसे किया जाता है, यह अत्यंत रोचक है। उत्सव से पूर्व बौद्ध भिक्षुक लम्बे समय तक ध्यान एवं प्रार्थना करते हैं। गुस्तोर उत्सव के दिन, वे बेल बूटेदार जरी से निर्मित परिधान धारण करते हैं। सर पर भयंकर मुखौटे तथा हाथों में प्रतीकात्मक वस्तुएं धारण करते हैं। इस प्रकार भयावह रूप धरकर वे दुष्ट आत्माओं को डराते हैं तथा उन्हें वहां से भगा देते हैं।

चाम नृत्य की गोपनीयता

सीढ़ियों से नीचे आते मुखौटाधारी नर्तक
सीढ़ियों से नीचे आते मुखौटाधारी नर्तक

प्रारम्भ में यह नृत्य अत्यंत गोपनीय हुआ करता था। लामा एकांत में यह नृत्य प्रदर्शन करते थे। मेरे अनुमान से तांत्रिक तत्वों से जुड़े होने के कारण इस परंपरा को गुप्त रखा गया था।

वर्तमान में यह नृत्य पूर्णतः सार्वजनिक प्रदर्शन में परिवर्तित हो गया है। गाँव निवासी मठ के चप्पे चप्पे पर स्थान ग्रहण कर बैठ जाते हैं। मध्य में केवल नर्तकों द्वारा प्रदर्शन के लिए पर्याप्त स्थान छोड़ देते हैं। चारों ओर लगे कैमरे भविष्य के लिए इस नृत्य को कैद करते रहते हैं। तकनीकी की सहायता से आज इस नृत्य को हम कहीं भी बैठकर देख सकते हैं तथा इसका आनंद ले सकते हैं।

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यह नृत्य परम्परा लामाओं में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है। इसके विषय में कहीं भी लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। हाँ, मेरे द्वारा प्रत्यक्ष लिया गया यह विडियो आने वाली पीढ़ियों के लिए अवश्य एक वैद्य प्रमाण है।

लाल मुखौटाधारी नर्तक
लाल मुखौटाधारी नर्तक

चाम एक तांत्रिक अनुष्ठान है। इसकी जड़ें हिन्दू तांत्रिक सम्प्रदाय की प्राचीन भारतीय तांत्रिक परम्पराओं में पाया गया है।

दुष्ट आत्माओं का अंत

ऐसा माना जाता है कि नृत्य करते लामा भिक्षुओं में रक्षात्मक देवी-देवता अवतरित हो जाते हैं। नृत्य करते समय वे इन देवी-देवताओं के प्रत्यक्ष स्वरूप बन जाते हैं। मेरा अनुभव जानना चाहें तो, स्पितुक मठ में मैंने जो चाम प्रदर्शन देखा, वहां मुझे ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं हुआ।

नृत्य प्रदर्शन के समय लामा जो विस्तृत मुखौटे धारण करते हैं, उन्हें मिट्टी एवं सूत के मिश्रण द्वारा निर्मित किया जाता है। प्राकृतिक रंगों द्वारा उन्हें रंग कर उन पर बहुमूल्य घातुओं द्वारा चमक दी जाती है। प्रत्येक मुखौटा किसी वेशेष देवता को दर्शाता है। जैसे, काला मुखौटा धारण किया हुआ लामा महाकाल का स्वरूप धरता है, वहीं पीला मुखौटा धन के देव वैश्रमण को दर्शाता है। कुछ मुखौटों पर हिरण तथा भैंस जैसे पशुओं के शीश की आकृति होती है। मध्य में विदूषक जैसे परिधान धारण कर भी कई लामा नृत्य करते हैं। मेरे गाइड के अनुसार ये लामा अनुयायियों को दर्शाते हैं।

मैंने केवल पुरुष लामाओं को ही यह नृत्य प्रदर्शित करते देखा है। मैंने इसके विषय में जितना भी साहित्य पढ़ा था, वहां भी केवल पुरुष बौद्ध भिक्षुओं द्वारा यह नृत्य किये जाने का उल्लेख था। नृत्य के कुछ भागों में नर्तक देवी-देवताओं के जोड़े को दर्शाते हुए नृत्य करते हैं मानो भगवान् अपनी पत्नी सहित पधार रहे हैं। यहाँ भी दोनों पात्र पुरुष ही निभाते हैं।

स्पितुक मठ के गुस्तोर उत्सव का चाम नृत्य

यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे लेह के बाहर एक छोटी पहाड़ी के ऊपर स्थित स्पितुक मठ के गुस्तोर उत्सव में भाग लेने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। हमने दिन का आरम्भ इस बौद्ध मठ के दर्शन से किया जहां तक पहुँचने के लिए ऊंची चढ़ाई करनी पड़ती है। यह चढ़ाई अत्यंत आनंददायी थी। चारों ओर लेह नगरी एवं लेह विमानतल का मनमोहक दृश्य था। मार्ग में हम कई लद्धाखियों से मिले। हमने जब उनके छायाचित्र लेने की इच्छा व्यक्त की, उन्होंने सहर्ष हमारे आग्रह को मान कर हमें कई चित्र लेने दिए।

लेह का स्पितुक बौद्ध मठ

स्पितुक मठ में, मुख्य सभागृह के पृष्ठभाग में स्थित एक कक्ष में हमने प्रवेश किया। वहां सम्पूर्ण भित्तियाँ बौद्ध कथाओं, चिन्हों तथा प्रतिमाओं से भरी हुई थीं। स्पितुक मठ का निर्माण ११वी. सदी में किया गया था, वहीं भित्तिचित्र १४वी. शताब्दी में बनाए गए हैं। महीन चूने द्वारा श्वेत चिंतामणी, षट-भुजाधारी महाकाल, वैश्रवण, वज्र भैरव, श्री देवी तथा चामुंडी सहित अनेक उपासिकाओं की प्रतिमाएं भी बनायी गयी थीं। आपको अचरज हो रहा होगा कि बौद्ध मठ के भीतर बौद्ध धर्म के चिन्हों के साथ हिन्दू देवी-देवताओं के भी चित्र हैं। इन्हें देख आप सोच में पड़ जाते हैं कि क्या इनमें कोई भेद है?

मठ के भीतर विभिन्न मंदिरों के दर्शन के उपरांत हम एक प्रांगण में पहुंचे जहां नृत्य प्रदर्शन के प्रबंध किये जा रहे थे। सम्पूर्ण प्रांगण दर्शकों से भरने लगा था। सौभाग्य से हमें एक मुंडेर के पीछे, एक ऊंचे स्थान पर बैठने के लिए कहा गया जहां से हमें प्रांगण का दृश्य भलीभांति दिखाई पड़ रहा था। कई लोग छत पर, खिड़कियों पर तथा प्रांगण के दूसरी ओर भी बैठे थे।

स्पितुक मठ का गुस्तोर उत्सव

लद्धाख का स्पितुक मठ
लद्धाख का स्पितुक मठ

उत्सव का आरम्भ भित्ति पर टंगे एक विशाल थान्ग्का के अनावरण से हुआ। शनैः शनैः जब इसका अनावरण हो रहा था, तब ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो देवी देवताओं को अनुष्ठान में भाग लेने के लिए आमंत्रित कर रहा हो। कुछ भिक्षुक संगीत वाद्य बजा रहे थे। अचानक एक ओर स्थित ऊंची सीढियाँ आकर्षण का केंद्र बिंदु बन गयी। कई भिक्षुक रंगबिरंगे परिधान तथा मुखौटे धारण कर सीढियाँ उतर रहे थे। वे जोड़ों में अथवा छोटे छोटे समूहों में आते, अपना निर्धारित नृत्य प्रदर्शन करते तथा वहां से चले जाते थे। मध्य में कुछ भिक्षुक दर्शकों से हंसी-मजाक करते, उन्हें छेड़ते तथा चले जाते थे। दोपहर के भोजन का समय होते ही सब दर्शकों ने भोजन के डब्बे खोले तथा खाने लगे। भोजन ग्रहण करने के लिए अनुष्ठान में अल्प विराम दिया गया था। इतना समय उपलब्ध था कि हमने अपने अतिथिगृह ‘होटल दी ग्रैंड ड्रैगन’ जाकर भोजन किया।

गुस्तोर उत्सव का मेला – लद्दाख
गुस्तोर उत्सव का मेला – लद्दाख

भोजन के समय तक मठ के बाहर मेला लग गया था। मठ के पृष्ठभाग से हमें तम्बोला की बोलियों के स्वर सुनायी दे रहे थे। मठ के सामने कई छोटी छोटी दुकानें लग गयी थीं जहां खाद्य पदार्थों सहित कई प्रकार की वस्तुएं बिक्री की जा रही थीं। हम भीड़ में लगभग फंस गए थे। न जाने कहाँ से अचानक इतने लोग एकत्र हो गए थे। दोपहर के भोजन के उपरांत भी हमें उत्सव के प्रदर्शनों को देखने की इच्छा थी। किन्तु खचाखच भरी भीड़ को देख हमें आभास हो गया कि मठ के भीतर जाना लगभग असंभव है। अतः हमने भीतर ना जाकर लेह में कुछ और करने का निश्चय किया।

इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि जितना आनंद मुझे नृत्य देखने में आ रहा था, उतना ही आनंद मुझे नृत्य देखते लद्दाख के लोगों को देखने में भी आ रहा था। वृद्ध लोगों ने हाथों में प्रार्थना चक्र लिया हुआ था तथा वे उसे ऐसे घुमा रहे थे मानो यह उनका स्वभाव बन गया हो। कई स्त्रियों ने फिरोजा मणी के सुन्दर हार गले में पहने हुए थे। सभी बालक बालिकाएं सुन्दर एवं गोल-मटोल थे।

समापन

लद्दाख के गुस्तोर उत्सव के बाज़ार
लद्दाख के गुस्तोर उत्सव के बाज़ार

बौद्ध मठ के इस उत्सव को देखना तथा इसमें भाग लेना, यह मेरे लिए अतुलनीय अनुभव था। मार्ग में लगे बैनरों में इस उत्सव को ‘हिमालय का कुंभ मेला’ कहा गया था। मठ से वापिस आते समय लोगों की जो भीड़ हमने देखी, उससे तो हमें भी यह कुंभ मेला ही प्रतीत हुआ। ऐसी भीड़ जिसमें परिवार एवं मित्रों से बिछड़ सकते हैं, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

लद्दाख के विभिन्न मठों में गुस्तोर उत्सव भिन्न भिन्न दिवसों में वर्ष भर मनाया जाता है। अतः अपनी यात्रा का नियोजन करते समय इन उत्सवों के दिन, स्थान एवं समय ज्ञात कर लें। अपनी यात्रा का नियोजन ऐसे करें कि कम से कम एक मठ में आपको इस उत्सव में भाग लेने का अवसर प्राप्त हो सके। 

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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गुलमर्ग के पर्यटन स्थल और विश्व के सबसे ऊँचे उड़न खटोला की सवारी https://inditales.com/hindi/gulmarg-ke-paryatan-sthal/ https://inditales.com/hindi/gulmarg-ke-paryatan-sthal/#comments Wed, 06 Nov 2019 02:30:41 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1566

गुलमर्ग – यह नाम सुनते ही मानसपटल पर बर्फीले पर्वत एवं उनकी ढलान पर स्की करते खिलाड़ियों की छवि उभर कर आ जाती है। पैर पर बंधी लम्बी डंडी से मार्ग सुगम करते हुए फिसलते खिलाड़ियों के चहरों पर रोमांच एवं खुशी, यही है गुलमर्ग का जादू। गुलमर्ग की रोमांचक कथाएं मैंने अपने पिता के […]

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गुलमर्ग – यह नाम सुनते ही मानसपटल पर बर्फीले पर्वत एवं उनकी ढलान पर स्की करते खिलाड़ियों की छवि उभर कर आ जाती है। पैर पर बंधी लम्बी डंडी से मार्ग सुगम करते हुए फिसलते खिलाड़ियों के चहरों पर रोमांच एवं खुशी, यही है गुलमर्ग का जादू। गुलमर्ग की रोमांचक कथाएं मैंने अपने पिता के मुख से अनेक बार सुनी थीं। कुछ ४० वर्षों पूर्व मेरे पिता की नियुक्ति गुलमर्ग में हुई थी।

गुलमर्ग के पर्यटन स्थल उन्होंने मेरे मष्तिष्क में गुलमर्ग एवं कश्मीर घाटी की अत्यंत मनमोहक काल्पनिक छवि निर्मित कर दी थी। मुझे भय था कि कहीं यही काल्पनिक छवि मेरे स्वयं के अनुभव के आड़े तो नहीं आयेगा? फिर भी, गुलमर्ग की अपनी अविस्मरणीय यात्रा द्वारा प्राप्त अनुभव से मैं आपको वहां के सर्वाधिक रोमांचक कार्यकलापों के विषय में बताना चाहती हूँ। मुकुट में मणी के समान, इनमें सर्वाधिक रोमांचक एवं आनंददायी है गुलमर्ग गोंडोला सवारी।

गुलमर्ग के पर्यटन स्थल

श्रीनगर से गुलमर्ग की सवारी

श्रीनगर से गुलमर्ग का मार्ग
श्रीनगर से गुलमर्ग का मार्ग

गुलमर्ग पहुँचने का एकमात्र साधन है सड़क मार्ग। अतः इस छोटे से गाँव तक आप गाड़ी द्वारा ही पहुँच सकते हैं। मैं इतना अवश्य बल देना चाहूंगी कि आप मार्ग के उत्तरार्ध में कदापि ना सोयें। जब श्रीनगर से आपकी यात्रा आरम्भ होगी, वह किसी भी सामान्य मध्यम् वर्गीय नगरी से बाहर जाने के समान होगा।

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वास्तव में मैं श्रीनगर एवं गुलमर्ग के मध्य के सम्पूर्ण मार्ग आबादी से परिपूर्ण देख अत्यंत आश्चर्यचकित थी। जब मार्ग चढ़ाई करने लगती है, तब आप स्वयं को ऊंचे ऊंचे वृक्षों से घिरा पायेंगे। इनको चीर कर जाते घुमावदार संकरे मार्ग को देख आपका मन प्रफुल्लित हो उठेगा।

सूर्य दर्शन स्थल

सूर्यकिरणों से खेलती हिमालय की चोटियाँ
सूर्यकिरणों से खेलती हिमालय की चोटियाँ

गुलमर्ग में प्रवेश करने से ठीक पूर्व एक नुकीले मोड़ पर एक दर्शन स्थल है। वहां लगे फलक द्वारा हमें इसकी सूचना पाप्त होती है। यहाँ गाड़ी से उतर कर एक ओर घाटी का तथा दूसरी ओर बर्फ से ढँके पर्वत पर चमकते सूर्य की किरणों का विहंगम दृश्य देख सकते हैं। यह और बात है कि पर्वत की यही चोटी मैं कुछ समय पश्चात अपने अतिथिगृह, खायबर हिमालयन रेसॉर्ट में अपने कक्ष से भी देखने वाली थी।

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यह अद्भुत दृश्य सर्वप्रथम गुलमर्ग में आपका स्वागत करता है तथा इस नगर की सुन्दरता से आपका पूर्व परिचय करता है। यदि आप वहां दिन के समय पहुंचें, तब आप सूर्य की सुनहरी किरणों को चंदेरी बर्फीली पर्वतों से एकसार होकर जादू उत्पन्न करते देख सकते हैं।

गुलमर्ग गोंडोला की सवारी

गुलमर्ग गोंडोला अथवा उड़न खटोला
गुलमर्ग गोंडोला अथवा उड़न खटोला

यदि आपने गुलमर्ग गोंडोला की सवारी नहीं की तो यूँ मानिए की आपने गुलमर्ग की यात्रा ही नहीं की। आप सोच रहे होंगे, ये गोंडोला क्या है। यह लोहे की मोटी तार पर लटक कर चलने वाला एक ऐसा वाहन है जिसे केबल कार कहते हैं। यह आपको कुछ ही क्षणों में पर्वत के ऊपर पहुंचा देते हैं।

गुलमर्यग गोंडोला विश्व की सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित केबल कार है। अतः कोई कारण नहीं बनता कि आप इस पर बैठने का सौभाग्य छोड़ दें। इस चढ़ाई के दो तल हैं। इन दोनों तलों को मिलाकर यह यात्रा आपको समुद्र तल से ८७०० फीट से १४००० फीट तक ले जाती है। तो विरली वायु एवं लम्बी श्वास लेने के लिए सज्ज हो जाएँ।

अपरवाट पर्वत गुलमर्ग गोंडोला

हिम शिखिर गुलमर्ग गोंडोला से
हिम शिखिर गुलमर्ग गोंडोला से

इस सवारी का प्रथम तल आपको अपरवाट पर्वत के सम्पूर्ण ऊंचाई के मध्य भाग तक ले जाता है। यहाँ कई प्रकार के पर्यटन संबंधी क्रियाकलापों का आयोजन किया जाता है। सर्वाधिक आसान एवं आनंददायी खेल है बर्फ से खेलना। खेलने के लिए चारों ओर बर्फ ही बर्फ है।

इसके साथ आप स्लेज एवं खच्चर की सवारी भी कर सकते हैं अथवा स्की करने का रोमांच भी प्राप्त कर सकते हैं। यदि इस प्रकार की किसी भी क्रिया में रूचि ना हो तो फिर पैदल ही चलें। चारों ओर बर्फीली चोटियों एवं बर्फ से झांकते वृक्षों का आनंद उठायें। बर्फ से खेलते एवं आनंद उठाते सहयात्रियों को देखना भी अत्यंत सुखद अनुभव होगा।

अपरवाट पर्वत की चोटी

हिम खण्डों से घिरा सैनिक शिविर
हिम खण्डों से घिरा सैनिक शिविर

अगली केबल कार अपरवाट पर्वत की लगभग चोटी तक पहुंचाती है। यह यात्रा तीव्र ढलान युक्त है किन्तु चारों ओर का अद्भुत दृश्य आपको इसका आभास नहीं होने देता। जैसे जैसे आप ऊपर चढ़ते जाते हैं, परिदृश्यों में परिवर्तन आता रहता है। आरम्भ में आप पर्वत को नीचे से ऊपर देखते हैं। १० मिनटों के पश्चात, आप वही परिदृश्य ऊपर से नीचे की ओर देखते हैं। एक ओर का परिदृश्य ऊपर चढ़ते समय तथा दूसरी ओर का दृश्य नीचे उतरते समय देखिये। आप अनवरत आनंद प्राप्त कर सकते हैं। समान्तर केबल द्वारा स्की करते खिलाड़ियों को ऊपर ले जाती कई खुली सवारियां आपको भी दिखाई देंगी। देखने में वे अत्यंत भयावह, साथ ही रोमांचक भी प्रतीत होती हैं।

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दूसरी गोंडोला सवारी के पश्चात आप बर्फ से घिरी चोटी पर पहुँच जाते हैं। एक किनारे पर खड़े होकर यदि आप चारों ओर के पर्वतों को निहारेंगे तो आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो आप बर्फ की किनार वाली प्याली की किनार पर खड़े हैं। पहाड़ियों पर कई सेना शिविर दिखे जो दूर से कबूतर खाने से प्रतीत हो रहे थे। बर्फीली पहाड़ियों पर इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहकर हमारी सीमाओं की रक्षा करते सैनिकों की कठिनाओं का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते।

गुलमर्ग का मनोरम दृश्य
गुलमर्ग का मनोरम दृश्य

यदि आप स्की खेल में निपुण नहीं हैं तब भी आप स्की का आनंद ले सकते हैं। यहाँ आपको गाइड सेवा उपलब्ध हो जायेगी जो आपको स्की सवारी का आनंद दे सकते हैं। जी हाँ, स्की सवारी! क्योंकि यहाँ आप स्वयं स्की नहीं करते हैं। बल्कि गाइड स्वयं स्की करता हुआ आपको अपने साथ थोड़ी दूर ले जाता है तथा आपको स्की का आनंद देता है। यहाँ मैंने कई गाइड को भारत एवं पाकिस्तान के मध्य स्थित लाइन ऑफ़ कंट्रोल अर्थात नियंत्रण रेखा दिखाने का प्रलोभन देते हुए देखा। किन्तु मुझे शंका है कि वहां पर्यटकों को जाने की अनुमति होगी!

गुलमर्ग गोंडोला का विडियो

मेरी गोंडोला सवारी का विडियो देखिये। उत्तम दर्शन के लिए HD mode में देखें।

गोंडोला अवतरण बिंदु, जो गोंडोला सवारी का अंतिम बिंदु है, इसके समक्ष हरमुख पर्वत है। स्थानीय निवासियों के अनुसार यहाँ भगवान् शिव का वास है। अतः यह एक पावन पर्वत है। किंचित बाईं ओर नंगा पर्वत है जो पकिस्तान के गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र में स्थित है। नंगा पर्वत सिन्धु नदी के कारण भी प्रसिद्ध है। सिन्धु नदी यहाँ से बहती है।

हिमाच्छादित गड़रियों की झोंपड़ियाँ
हिमाच्छादित गड़रियों की झोंपड़ियाँ

वापिस उतरते समय, गोंडोला के आरंभिक स्थल के समीप आप गड़रियों की झोपड़ियां देखेंगे जो शीत ऋतू में बर्फ से आच्छादित हो जाती हैं। प्रत्येक वर्ष ग्रीष्म ऋतू में गड़रिये जानवरों को ले कर यहाँ वापिस आते हैं जब यहाँ पशुओं के लिए घास बहुतायत में उपलब्ध रहती है।

गोंडोला अड्डे पर कई गाइड आपको टिकट दिलाने में सहायता करने का प्रलोभन देंगे। इसका कारण यह भी है कि गोंडोला सवारी की टिकट खरीदने के लिए लम्बी कतार होती है। इन दोनों से बचने के लिए मेरा सुझाव है कि आप सुबह ही अपनी टिकट खरीद लें। इससे आपको पर्वत के शिखर पर अधिक समय बिताने का भी अवसर प्राप्त होगा।

कश्मीरी व्यंजनों का आस्वाद लें

कश्मीरी वाज़वान
कश्मीरी वाज़वान

वाजवान अर्थात् विस्तृत कश्मीरी भोजन जिसे एक सामूहिक थाली में परोसा जाता है तथा कई लोग एक साथ एक ही थाली में से खाते हैं। आजकल आतिथ्य उद्योग अतिथि की व्यक्तिगत वरीयता के विषय में अवगत है। इसलिए वे वाजवान के समान ही थाली परोसते हैं किन्तु सब अपनी अपनी थाली में से ही खाते हैं। वाजवान मुख्यतः मांसाहारी भोजन होता है। मुझे इसी वाजवान के शाकाहारी संस्करण का आनंद खैबर हिमालयन रेसॉर्ट के रसोइये ने दिया। उसके विषय में कुछ लिखना चाहती हूँ।

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शाकाहारी वाजवान का आरम्भ मैंने अखरोट की चटनी से किया। इतनी स्वादिष्ट थी ये चटनी, कि इसके नाम के अनुरूप ही हमने इसे चाट चाट कर चट कर दिया। अगला व्यंजन था नदरू यख़नी, कमल डंडी से निर्मित व्यंजन जो कश्मीर में अत्यंत प्रसिद्ध है। यह भी अत्यंत स्वादिष्ट था तथा गरिष्ठ भी नहीं था। मैंने बाद में शहद की चटनी के साथ नदरू चिप्स भी खाए। यह भी अत्यंत रुचिकर थे। पनीर से निर्मित एक व्यंजन भी था जिसे मैंने न चखना उचित समझा। जी हाँ शाकाहारी के नाम से इतना पनीर परोसा जाता है की मन ऊब जाता है। मेरा वाजवान गरिष्ठ नहीं था। अतः मुझे हल्का प्रतीत हो रहा था। किन्तु मेरे साथ जिन्होंने असली वाजवान का आस्वाद लिया था, वे खाकर पस्त हो गए थे।

यदि आपका पेट अत्यंत भरा प्रतीत हो तो कश्मीरी चाय, काह्वा का आग्रह करें। इससे चैन मिलेगा।

महारानी शिव जी मंदिर

महारानी शंकर मंदिर - गुलमर्ग
महारानी शंकर मंदिर – गुलमर्ग

श्री मोहिनीश्वर शिवालय इस छोटे से शिव मंदिर का आधिकारिक नाम है। गुलमर्ग की प्याली सदृश घाटी के मध्य, एक छोटी सी पहाड़ी के ऊपर यह मंदिर स्थित है। महाराणा मोहन देव की सुपुत्री एवं कश्मीर के महाराजा हरी सिंग की पत्नी, रानी मोहिनी बाई सिसोदिया ने १०० वर्षों पूर्व, सन् १९१५ में इस मंदिर का निर्माण कराया था। पिता की ‘महाराणा’ पदवी इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि उनका सम्बन्ध मेवाड़ घराने से था। इस मंदिर को महारानी मंदिर तथा रानी जी मंदिर इत्यादि नामों से भी प्रसिद्धी प्राप्त है। मुझे सहसा तेलंगाना के रामप्पा मंदिर का स्मरण हो आया। यह मंदिर भी पीठासीन देव के बजाय इसके निर्माता के नाम से अधिक लोकप्रिय है।

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इस साधारण से दिखते मंदिर तक पहुँचने के लिए कुछ सीड़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। यूँ तो मंदिर बंद था, फिर भी इसके भीतर स्थापित शिवलिंग दिखाई पड़ रहा था। शिवलिंग के ऊपर लाल रंग की तिरछी छत थी जिस पर ॐ तथा स्वास्तिक का चिन्ह बना हुआ था। देवालय के चारो ओर का विहंगम दृश्य सम्मोहित कर देता है। मंदिर के पृष्ठभाग पर हिम आच्छादित पर्वत श्रंखलायें है । जैसे जैसे आप आगे बढ़ते हैं, गुलमर्ग की प्याली एवं उसके मध्य स्थित प्रसिद्ध गोल्फ मैदान दृष्टिगोचर होने लगता है। कई छोटी हरे रंग की इमारतें दिखती हैं जिनमें अधिकतर अतिथिगृह अथवा होटल्स हैं।

रानी द्वारा निर्मित होते हुए भी यह मंदिर सादगी से परिपूर्ण है। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय कश्मीर के लोगों का जीवन भी सादगी भरा था। या कहीं ऐसा तो नहीं कि यहाँ के प्रतिकूल वातावरण के कारण इसकी भव्यता सीमित रखी गई है?

इस मंदिर को आपने एक बॉलीवुड चलचित्र के गाने ‘जय जय शिव शंकर’ में अवश्य देखा होगा।

सेंट मेरी गिरिजाघर

सेंट मेरी गिरिजाघर - गुलमर्ग
सेंट मेरी गिरिजाघर – गुलमर्ग

महारानी मंदिर से आगे बढ़ते हुए, गोल्फ मैदान की बाहरी सीमा पार कर हम सेंट मेरी गिरिजाघर के प्रवेश द्वार पर पहुंचते हैं। यह १५० वर्ष प्राचीन गिरिजाघर है। मैदानी क्षेत्रों की तपती गर्मी से बचने के लिए जब अंग्रेजों ने इस स्थान की खोज की होगी, तब कदाचित इस गिरिजाघर का निर्माण कराया होगा। जिस दिन मैं यहाँ आयी थी, यह गिरिजाघर बंद था। इसके चारों ओर एक चक्कर लगाकर मैं वापिस आ गयी। प्रातःकाल किये गए इस पैदल सैर ने मन प्रफुल्लित कर दिया था।

रानी मंदिर के समान यह भी सादगी भरा किन्तु अपेक्षाकृत बड़ा गिरिजाघर था। यहाँ से चारों ओर दृष्टी घुमाने पर आपको कई छोटे तालाब दिखाई पड़ेंगे। ये तालाब गोल्फ मैदान के ही भाग हैं। श्वेत चमकते बर्फ के बीच एक सूखे वृक्ष की छवि ने हम सब का मन मोह लिया था।

होटल हाइलैंड गुलमर्ग
होटल हाइलैंड गुलमर्ग

सेंट मेरी गिरिजाघर की ओर जाते समय आप एक प्रसिद्ध होटल – होटल हाईलैंड्स पार्क देखेंगे जहां बॉबी चलचित्र के इस लोकप्रिय गाने ‘हम तुम इक कमरे में बंद हों’ को फिल्माया गया था।

हरी सिंह का महल

लकड़ी द्वारा निर्मित यह छोटा सा महल, कश्मीर के अंतिम महाराजा हरी सिंह का महल है। पहाड़ी के ऊपर स्थित इस महल से पूरा गुलमर्ग दृष्टिगोचर होता है। मैं नवम्बर २०१५ में जब गुलमर्ग आयी थी, तब इस महल के पुनर्निर्माण का कार्य आरम्भ था। राजा का परिवार जब इस महल को छोड़कर चला गया, तब इस महल का शनैः शनैः क्षय होने लगा। इसका कारण यहां के वातावरण के साथ साथ यहाँ की राजनैतिक परिस्थितियाँ भी हैं।

राजा हरी सिंह का महल
राजा हरी सिंह का महल

इस षटकोणीय महल के नवीनीकरण का कार्य आरम्भ है। आशा है आगामी मौसम तक यह पर्यटकों के लिए उपलब्ध हो जाएगा। मेरे पिता ने मुझे इस महल के एक अद्भुत गलीचे के विषय में बताया था। यह गलीचा महल के भीतर ही बुना गया था ताकि यह महल के प्रत्येक कोने में ठीक प्रकार से बिछाया जा सके। वहां निर्माण कार्य करते कर्मचारियों ने बताया कि महल की बचीखुची कलाकृतियों को श्रीनगर के राज्य संग्रहालय में स्थानांतरित किया गया है।

गुलमर्ग नगर में पद भ्रमण करिये

इस पहाड़ी पर्यटन स्थल का प्रमुख आकर्षण है यहाँ के पर्वत, वृक्ष, परिदृश्य, खुला आकाश तथा इन सब का अद्भुत सम्मिश्रण। इसका आनंद उठाने का सर्वोत्तम उपाय है पैदल सैर करते हुए चारों ओर निहारना। प्रत्येक दिवस, प्रत्येक क्षण यह सम्मिश्रण एक भिन्न रूप प्रस्तुत करता है, मानो इन प्राकृतिक तत्वों का प्रयोग कर कोई अनवरत चित्रकारी कर रहा हो। इस सौंदर्य में स्वयं को भी एक भाग बना कर इसके अस्तित्व में लीन हो जाएँ।

किसी भी अन्य पहाड़ी पर्यटन स्थलों के समान गुलमर्ग भी विभिन्न ऋतु में भिन्न होता है। मैंने इसे नवम्बर मास में देखा था। गुलमर्ग के चित्र बताते हैं कि ग्रीष्म ऋतु में यह अत्यंत हराभरा रहता है तथा शीत ऋतु में इससे भी श्वेत। शीत ऋतु का आरम्भ दिसंबर के मध्य से आरम्भ होता है। आप जब भी गुलमर्ग यात्रा की योजना बनाएं, वहां के मौसम का पूर्वानुमान अवश्य लगा लें। मौसम के अनुसार ही सामान साथ ले जाएँ।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा – जहां मार्ग ही लक्ष्य बन जाता है! https://inditales.com/hindi/dilli-srinagar-leh-sadak-yatra/ https://inditales.com/hindi/dilli-srinagar-leh-sadak-yatra/#comments Wed, 22 May 2019 02:30:09 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=1482

सम्पूर्ण विश्व में ऐसे पर्यटकों की संख्या बहुत अधिक है जिन्हें सड़क यात्रा द्वारा पर्यटन के रोमांच का अनुभव करना अत्यधिक प्रिय है। ऐसे यात्रियों की संख्या अब भारत में भी तेजी से बढ़ रही है। फिर चाहे वह दुपहिया वाहन द्वारा हो या चौपहिया वाहन द्वारा। उन सब यात्रियों के लिए सड़क मार्ग द्वारा […]

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सम्पूर्ण विश्व में ऐसे पर्यटकों की संख्या बहुत अधिक है जिन्हें सड़क यात्रा द्वारा पर्यटन के रोमांच का अनुभव करना अत्यधिक प्रिय है। ऐसे यात्रियों की संख्या अब भारत में भी तेजी से बढ़ रही है। फिर चाहे वह दुपहिया वाहन द्वारा हो या चौपहिया वाहन द्वारा।

दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा उन सब यात्रियों के लिए सड़क मार्ग द्वारा दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा करना किसी स्वप्न के पूर्ण होने से कम नहीं। इस क्रम में यदि लेह – मनाली मार्ग भी जुड़ जाए तो सोने पर सुहागा। इस मार्ग में दृष्ट परिदृश्य सुन्दरता की पराकाष्ठा है। इसे सुन्दरता की परिभाषा भी कहा जाय तो कदाचित अतिशयोक्ति नहीं होगी। सम्पूर्ण मार्ग में परिदृश्यों का जादुई परिवर्तन मंत्रमुग्ध कर देता है।

कहीं पंजाब के हरे-भरे खेत तो कहीं कश्मीर की नदियों से सिंचे घास के विस्तृत मैदान। और अचानक सम्पूर्ण हरियाली लद्दाख के शीत मरुस्थल में परिवर्तित हो कर विशाल सपाट पर्वतों पर विभिन्न रंगों के उतार चढ़ाव में हमें तल्लीन कर देती है।

झेलम नदी पे पुल
राहें हैं तो पुल भी होंगे

कहीं जीभ के चटोरेपन को शांत करते सड़क किनारे उपस्थित ढाबे तो कहीं मन को शान्ति प्रदान करते बौद्ध मठ अर्थात् गोम्पा। इन्ही सब का आनंद उठाने की मेरी भी अभिलाषा थी। मेरा स्वप्न पूर्ण हुआ जब लद्दाख के खरदुंगला में सर्वोच्च स्थल पर संस्मरण लेखकों के एक अधिवेशन में भाग लेने का मुझे निमंत्रण मिला।

एक ब्लॉग्गिंग पर्यटन के अंतर्गत दिल्ली से श्रीनगर एवं लेह होते हुए लद्दाख के खरदुंगला दर्रे तक सड़क मार्ग से पहुँचना था। परन्तु मार्ग में ही स्वास्थ्य बुरी तरह बिगड़ने के कारण मैं अपनी यात्रा पूर्ण नहीं कर पाई एवं लेह से ही मुझे वापिस लौटना पड़ा। अर्थात् मेरा स्वप्न केवल अर्धसत्य हुआ है। शेष स्वप्न भविष्य में पूर्ण करने की तीव्र इच्छा मन में लिए भारी मन से घर लौटना पड़ा था। तथापि दिल्ली से लेह तक की सड़क यात्रा भी मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि थी जिसका अनुभव मैं आपके साथ बांटना चाहती हूँ।

दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा

इस यात्रा का आरम्भ करने हेतु जैसे ही मैं दिल्ली पहुंची, सड़क के एक ओर खड़े कुछ काँवड़ियों पर मेरी दृष्टी जा टिकी। अचानक इस तथ्य से साक्षात्कार हुआ कि श्रावण मास आरम्भ हो चुका है। अर्थात् यह सड़क यात्रा वास्तव में मानसून सड़क यात्रा सिद्ध होने वाली है। ठीक उसी तरह, जिस तरह पिछले वर्ष मैंने कोंकण समुद्रतट की सड़क यात्रा की थी।

सड़क यात्रा का दिल्ली–जम्मू भाग

दिल्ली से हमारी टोली ज्यों ही निकली, हमारी मोटर दिल्ली के सडकों के यातायात संकुलन में फंस गयी। इसकी पूर्व कल्पना टोली के किसी भी सदस्य ने नहीं की थी। इसीलिए इससे बाहर निकलने हेतु सदस्यों में सामंजस्य भी स्थापित नहीं था। जितने लोग, उतनी सलाहें! इस यातायाय संकुल से बाहर निकलना इस दिन की सबसे बड़ी चुनौती सिद्ध हुई।

ढाबे के परांठे माखन के साथ
ढाबे के परांठे माखन के साथ

हमने अपने कान पकड़ लिए और निश्चय किया कि भविष्य में दिल्ली व इसकी तरह के अन्य महानगरों की सडकों पर समय एवं ऊर्जा की बचत करने हेतु मंडली के सदस्यों में पूर्व सामंजस्य स्थापित किया जाएगा। एक बार दिल्ली से बाहर निकल गए कि आप आवश्यकता अनुसार किसी ढाबे में अल्पविराम ले सकते हैं।

इस सड़क पर नियमित यात्रा करने वाले कई पर्यटकों की यह सलाह रहती है कि भोजन हेतु मुरथल के प्रसिद्द ढाबों में ही रुकें। किन्तु आप सड़क किनारे उन छोटे ढाबों में भी रुक सकते है जहां ट्रक चालक सदा रुकते हैं। यहाँ आपको ताजा एवं स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध होगा, साथ ही समय की भी बचत होगी। रही बात स्वच्छता की तो वह आप स्वयं जांच सकते हैं, क्योंकि छोटे ढाबे आपके समक्ष ही भोजन तैयार करते हैं।

रास्ते में पानीपत पहुंचते ही इतिहास में पढ़े उन सभी युद्धों का स्मरण हो आया। परन्तु यहाँ मुझे केवल बड़े बड़े विज्ञापन-पट दृष्टिगोचर हुए जो पचरंगा आचार एवं कई तरह की पाचक गोलियों का विज्ञापन कर रहे थे।

चाय पीने की इच्छा हुई तो निश्चय किया कि अम्बाला में रुक कर चाय पियेंगे। हमने जैसे ही सतलुज नदी को पार किया, मेरा मन अपने जन्मस्थल अंबाला के समीप पहुँचने के विचार से पुलकित हो उठा था। सोचा चाय भी पियेंगे एवं कुछ छायाचित्र भी खींचेंगे। परन्तु यह क्या हुआ? हमें कुछ समझ आये, इसके पूर्व ही एक हवाई मार्ग हमें अम्बाला में प्रवेश पूर्व ही उसके ऊपर से होते हुए दूर ले गया।

इसी तरह लुधियाना, जालंधर एवं फगवाड़ा में भी हमारी यही स्थिति रही। तत्पश्चात हमारी भूख हमारी सहनशक्ति के परे हो गयी और हम राजमार्ग के किनारे स्थित एक ढाबे में भोजन हेतु रुक गए। भोजन स्वादिष्ट तो था ही, साथ ही एक अरसे के पश्चात पंजाबी में वार्तालाप कर अत्यंत आनंद प्राप्त हुआ। हमारी टोली में भी कई पंजाबी भाषी प्रकट हो गए। पंजाब में पंजाबी बोलने के पश्चात लगा कि मैं सच में पंजाब वापिस पहुंची हूँ।

जम्मू की ओर कूच

पेट पूजा निपटाकर हम जम्मू की ओर कूच करने निकल पड़े। जैसा कि आप सब जानते हैं, पंजाब राज्य का नामकरण उसकी पांच नदियाँ- सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब एवं झेलम नदियों पर आधारित है। श्रीनगर पहुँचने तक मुझे इन पाँचों नदियों को पार करने की प्रतीक्षा थी। जम्मू पहुँचने से पूर्व, इनमें से दो नदियाँ, व्यास नदी एवं रावी नदी को हमने पार कर लिया था। अर्थात् अम्बाला से श्रीनगर तक हम पंजाब के कई भागों से गुजरने वाले थे।

राह में हमने कई देसी खाद्य पदार्थों का आस्वाद लिया। गर्म रेत पर भुने भुट्टे अथवा छल्ली, मुरुंडा अर्थात् मुरमुरे से बनी बर्फी एवं ताजे तोड़े जामुन खा कर पुराने दिनों का स्मरण हो आया।

जब तक जम्मू पहुंचते, अँधेरा छाने लगा था। अगले दिन, प्रातः सूर्योदय से पूर्व हमें जम्मू से विदा होना था।

इतने कम अवकाश में भी मैं यहाँ एक पुराने मित्र से भेंट कर सकी। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि अगली बार पर्याप्त समय के साथ जम्मू भ्रमण हेतु अवश्य आऊँगी।

जम्मू से श्रीनगर यात्रा

जम्मू से हम प्रातः शीघ्र प्रस्थान कर गए ताकि समय रहते हम सोनमर्ग पहुँच जाएँ। निरंतर बरसती वर्षा एवं कुछ दिनों पूर्व ही इस मार्ग पर अमरनाथ यात्रियों पर हुए आतंकी हमले ने हमें कुछ चिंतित कर दिया था। साथ ही जम्मू कश्मीर मार्ग पर निर्मित प्रसिद्ध सुरंगी मार्गों से जाने का उत्साह भी कुछ कम नहीं था। विशेषतः ९.२८ की.मी. लम्बाई युक्त, विश्व की सर्वाधिक लंबी एवं कुछ दिनों पूर्व ही खुली, चेनानी-नाशरी सुरंग या पटनी टॉप सुरंग को पार करने हेतु हम सब प्रतीक्षारत थे। यह सुरंगी मार्ग उधमपुर जिले के चेनानी को रामबन जिले के नाशरी से जोड़ती है।

उधमपुर पहुंचने से पूर्व हम सड़क के किनारे स्थित ढाबे में परांठे खाने रुके। तेल में तले एवं ढेर सारे शुद्ध मक्खन के साथ परोसे गए परांठों ने पहले तो हमें भयभीत किया। परन्तु जैसे ही इन्हें खाना आरम्भ किया, अभूतपूर्व स्वाद का आनंद रोके नहीं रुक रहा था। मन को समझाया कि कभी कभी इस तरह के गरिष्ठ खाने का स्वाद लेना इतना हानिकारक तो नहीं होगा।

अंततः हमारी प्रतीक्षा का अंत हुआ और हम चेनानी-नाशरी सुरंग पर पहुंचे। सम्पूर्ण सुरंग हमने हाथों में कैमरे लिए, चित्र खींचते पार की। तत्पश्चात वर्ष ऋतू में मटमैली हुई चिनाब नदी के किनारे किनारे गाडी चलाते हम रामबन पहुंचे। यहाँ हमारे उत्साह को जैसे ग्रहण लग गया। भूस्खलन के कारण आगे रास्ता बंद था। कुछ क्षण प्रतीक्षा करने के उपरांत रामबन में ही रात बिताने का निश्चय किया।

अनपेक्षित रुकावट

रामबन में चेनाब नदी
रामबन में चेनाब नदी

भूस्खलन द्वारा बंद रास्तों के कारण रामबन रेजीडेंसी होटल में रुकना तय हुआ। होटल साधारण था। तथापि होटल से चिनाब नदी का दृश्य अद्भुत था। पहाड़ों के पीछे मुड़ती चिनाब नदी मुझे आकर्षित करने लगी। मैंने नदी के किनारे कुछ समय पदभ्रमण किया। कई चित्र भी खींचे। रामबन के स्वच्छ वातावरण को आत्मसात किया।

रामबन में आये अप्रत्याशित रुकावट के कारण हमारी सम्पूर्ण योजना अस्त-व्यस्त हो सकती थी। अतः हमने प्रातः बड़ी जल्दी अपनी राह पकड़ ली। आज के गंतव्य को सोनमर्ग से परिवर्तित कर कारगिल तय किया। अर्थात् हमारा आज का दिन अत्यधिक लम्बा होने वाला था। क्यों ना हो! समय को जीतने का लक्ष्य जो था।

अनंतनाग के आस पास कश्मीर घाटी
अनंतनाग के आस पास कश्मीर घाटी

बनिहाल पार करते से ही रास्ते के दोनों ओर क्रिकेट के बल्ले बनाने के कारखाने दिखे। सम्पूर्ण परिदृश्य अत्यंत मनोहारी एवं सम्मोहक था। परन्तु समयाभाव के रहते,वहां रुक कर उसका आनंद लेना संभव नहीं था। अंततः अनंतनाग पहुँच कर ही हमने एक अल्पविराम लिया। टायटेनिक प्रेक्षण स्थल से चारों ओर फैले परिदृश्य का आनंद उठाया। यह स्थान वसंत ऋतु में दृष्ट परिदृश्यों के लिए अति प्रसिद्ध है। कदाचित उसका आनंद उठाने किसी वसंत ऋतु में मुझे पुनः अनंतनाग के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हो।

श्रीनगर की डल झील में शिकारा
श्रीनगर की डल झील में शिकारा

श्रीनगर पहुंचते ही वातावरण में एक अनदेखे तनाव का आभास हुआ। अधिकतर संस्थान बंद थे एवं बाहर लोगों की उपस्थिति भी बहुत कम थी। डल झील के किनारे थोड़ी देर रुक कर उसकी सुन्दरता को निहारते रहे। यहाँ भी कोई अन्य पर्यटक उपस्थित नहीं था। झील में तैरते इक्के दुक्के शिकारे परिदृश्य को और भी उदास एवं रहस्यमय बना रहे थे।

श्रीनगर–कारगिल भाग – दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा

सोनमर्ग के पास सिंद नदी पे पुल
सोनमर्ग के पास सिंद नदी पे पुल

श्रीनगर से हम गांदेरबल जिले की ओर बढ़े। इस जिले का मुख्य आकर्षण है, लोकप्रिय पर्वतीय पर्यटन स्थल सोनमर्ग। श्रीनगर से सोनमर्ग तक का सड़क मार्ग इस यात्रा का सर्वाधिक सुरम्य स्थल था। झेलम नदी की मुख्य सहायक नदी, सिन्धु नदी, श्रीनगर की ओर बढ़ रही थी। हम इसके ठीक विपरीत दिशा में जा रहे थे। क्षितिज पर हिमनद प्रकट होने आरंभ हो गए थे।

हिमनदों का शनैः शनैः पिघलकर नदी में मिलन, जल की निरंतर यात्रा का बखान कर रहा था। त्रिकोणीय आकार के हिमनद किस तरह बूँद बूँद जल नदियों में भरते हैं, यह अत्यंत कुतुहलपूर्ण लुभावना दृश्य था। प्रत्येक क्षण अपने आप को खो कर किसी का अस्तित्व निर्माण करना, यही गाथा है जल की!

दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा पर हिमनद
दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा पर हिमनद

हरे भरे व्यापक घास के मैदानों के समक्ष स्थित जलपानगृह में हमने भोजन किया। मैदान में कई खच्चर अपने मालिकों समेत हम जैसे पर्यटकों की प्रतीक्षा में खड़े हुए थे। उन में से कुछ ने हमें समझाने का प्रयत्न किया की कश्मीर पर्यटन के लिए अत्यंत सुरक्षित स्थान है। यहाँ बिना किसी भय के भ्रमण किया जा सकता है। हम आपको अपने रमणीय स्थलों के दर्शन करवाएंगे। उनके शब्दों में भय एवं भरोसा दोनों का मिला जुला अर्क था। आशा करती हूँ उनके शब्द शीघ्र ही सत्य सिद्ध हों।

बालताल में अमरनाथ यात्रा शिविर

सोनमर्ग की बस्तियां पार करते ही जैसे ही हमारी दृष्टी घाटी की ओर गयी, हमारी आँखे फटी की फटी रह गयी। सिन्धु नदी के मोड़ पर अमरनाथ यात्रियों के लिए अतिविशाल शिविर लगाया गया था। वह ऐसा दृश्य था कि रुक कर उसे मनभर निहारने की आवश्यकता थी।

बालताल में अमरनाथ यात्रियों के शिविर
बालताल में अमरनाथ यात्रियों के शिविर

पहाड़ पर से वह शिविर किसी शिशु के सामने रखे खिलौने से प्रतीत हो रहे थे। चारों ओर रंगबिरंगे तम्बू लगे हुए थे। हेलिकॉप्टर निरंतर यात्रियों को लेकर आवाजाही कर रहे थे। हालांकि यह सुविधा उन्ही यात्रियों हेतु उपलब्ध थी जो चढ़ने में असमर्थ थे या चढ़ना नहीं चाहते थे। इस दृश्य को आत्मसात करने हेतु मुझे कुछ क्षण लगे।

जम्मू से लेकर राजमार्ग ४४ तक एवं इससे कई अधिक बनिहाल के पश्चात मैने कई भंडारे देखे थे। परन्तु बालताल शिविर की विशालता एवं उससे कहीं अधिक यात्रियों की संख्या ने मुझे अचंभा कर दिया था। मैंने स्वप्न में भी इसकी कल्पना नहीं की थी।

खराब मौसम और निरंतर बने आतंकी हमले के खतरे के पश्चात भी इस श्रद्धालुओं की भक्ति टस से मस नहीं हुई। यह देख इन्हें शत शत नमन करने की इच्छा हुई। आज भी जब मुझ उस दृश्य का स्मरण होता है, मुझे सब अवास्तविक सा प्रतीत होता है।

बालताल का यह शिविर उन अमरनाथ यात्रियों हेतु बनाया गया था जो सोनमर्ग की ओर से अमरनाथ तक की यात्रा करना चाहते थे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ऐसा ही अतिविशाल शिविर चन्दनबाड़ी की ओर भी लगाया गया होगा।अमरनाथ यात्रा मेरे लिए सदैव सुदूरवर्ती यात्रा प्रतीत होती थी। उस समय वहां खड़े ऐसा आभास हो रहा था जैसे मैं इस यात्रा का भाग ना होते हुए भी इसका एक भाग थी।

मेरा मन मुझे उसी क्षण इस यात्रा के लिए प्रेरित करने लगा एवं उस शिवलिंग के दर्शन हेतु आतुर होने लगा जो हिन्दू पंचांग के केवल श्रावण माह में ही प्रकट होते हैं। किन्तु मेरे मष्तिष्क ने मुझे आभास कराया कि इस क्षण मैं किसी और यात्रा का भाग हूँ। इस यात्रा की ओर मेरा कुछ उत्तरदायित्व है। भारी ह्रदय से अपने आप को संभालते हुए मन ही मन शिवजी की आराधना की एवं अन्य सदस्यों के साथ सोनमर्ग से आगे बढ़ गए। हमारा अगला लक्ष्य था जोजिला दर्रा।

जोजिला दर्रा

जोजिला दर्रा - दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा
जोजिला दर्रा

जोजिला दर्रा विश्व के सर्वोच्च दर्रों में से एक है। किन्तु आज भी मुझे इसका स्मरण हलके धूसर रंग के दलदली मार्ग के रूप में होता है, जो चारों ओर स्थित धूसर पर्वतों में विलीन होता प्रतीत हो रहा था। हम हिमनद की दीवारों के बीच से होते हुए आगे बढे थे किन्तु उस पर धुल मिट्टी जमी होने के कारण उसका रंग भी शेष परिदृश्य से मेल खा रहा था।

हिमनद की दीवारें
हिमनद की दीवारें

इस परिदृश्य को शांति से निहारने हेतु हमने एक स्थान पर गाड़ी रोकी। वहीं समीप कुछ परिचालक पर्यटकों को बर्फ की गाडी पर बिठाकर फिसलने का आनंद दिला रहे थे। चारों ओर से बर्फीली हवाओं का तेज झोंका आ कर हमें अन्दर तक कंपा रहा था। अचानक मुझे अतिशीत वातावरण की अनुभूति होने लगी। ठिठुरन से बचने हेतु हमने गर्म गर्म चाय का आस्वाद लिया। समुद्रतल से अत्यंत ऊंचाई पर आ जाने के कारण वायु अत्यंत हलकी एवं विरल हो चुकी थी। और यहीं से आरम्भ हुआ मेरी दिल्ली-श्रीनगर-लेह सड़क यात्रा का अंत।

महत्त्वपूर्ण जानकारी – विशाल जोजिला दर्रा चढ़ने से पूर्व सोनमर्ग में एक रात्री विश्राम कर तन को अत्यधिक ऊंचाई से अभ्यस्त होने का पर्याप्त समय दें।

जोजिला दर्रे से उतर कर हम कारगिल की ओर बढ़े जहां हमारा रात्रि विश्राम निश्चित था। राह में ‘टाइगर’ पर्वत से समीप द्रास युद्ध स्मारक के दर्शनार्थ एक लघु विश्राम लिया।

द्रास युद्ध स्मारक पर मेरा सविस्तार संस्मरण पढ़ें।

द्रास नदी किनारे स्थित कारगिल

द्रास नदी के किनारे बसा कारगिल शहर
द्रास नदी के किनारे बसा कारगिल शहर

द्रास नदी के किनारे स्थित कारगिल मेरी पूर्वकल्पना से कहीं अधिक विशाल नगर था। विश्रामगृह में एक फलक पर दर्शाए, कारगिल में करने लायक ४० गतिविधियों की सूची पर मेरी दृष्टी पड़ी। परन्तु इनका आनंद लेने हेतु ना तो हमारे पास समय था ना ही वह हमारी योजना का हिस्सा था। अन्यथा मैंने इन्हें इस संस्मरण का भाग अवश्य बनाया होता।

कारगिल में यात्रियों के पद चिन्ह
कारगिल में यात्रियों के पद चिन्ह

दुपहिया वाहन द्वारा सड़क यात्रा करने वाले पर्यटकों का दिल्ली-श्रीनगर-लेह मार्ग प्रिय सड़क यात्रा है। अतः विश्रामगृह में अनेक फलकों पर विभिन्न दुपहिया वाहन पर्यटकों के समूहों की चिप्पियाँ लगी हुई थीं। लेह को छोड़कर, केवल कारगिल में ही पर्यटन का सक्रियता से प्रचार हो रहा था। मैंने निश्चय किया कि मैं पर्याप्त समय लेकर कारगिल का भ्रमण करने अवश्य आऊँगी।

कारगिल से लेह

लद्दाख का ठंडा मरुस्थल
लद्दाख का ठंडा मरुस्थल

कारगिल में रात्री विश्राम के पश्चात, दूसरे दिवस हमने लेह की ओर कूच किया। अच्छी धूप खिली हुई थी। चारों ओर प्रसन्नचित्त वातावरण था। इधर उधर बलखाती सड़क पर हमारी गाड़ी दौड़ रही थी। रास्ते के प्रत्येक वक्र के पश्चात एक नवीन परिदृश्य हमारे सम्मुख प्रस्तुत हो जाता था।

कभी चारों ओर हरियाली दृष्टिगोचर होती थी तो अचानक एक मोड़ के पश्चात उजाले रंग के सपाट पत्थर के पर्वत से सामना हो जाता था। कहीं कहीं पत्थरों के पीछे से झांकती हरियाली हमारा ध्यान खींचने का प्रयत्न कर रही थी। इस परिवेश में ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हम स्वर्ग के विभिन्न आयामों के दर्शन कर रहे थे।

मुलबेख गोम्पा

मुल्बेक मठ में मैत्रयी बुद्ध की प्रतिमा
मुल्बेक मठ में मैत्रयी बुद्ध की प्रतिमा

हमारी यात्रा का यह पहला ऐसा पड़ाव था जो विशेषतः छायाचित्रिकरण हेतु लिया गया था। एक सीधी चट्टान के ऊपर निर्मित यह एक सुन्दर किन्तु छोटा सा गोम्पा था। वहां की विशेषता थी आगामी बुद्ध अर्थात् मैत्रेयी बुद्ध की प्रतिमा जो चट्टान को उत्कीर्णित कर बनायी गयी थी। इसके चारों ओर बना मंदिर अपेक्षाकृत नवीन था। गोम्पा की दीवारों पर प्राचीनकाल के अभिलेख छपे थे जो इस मार्ग को प्राचीनता की सुषमा प्रदान कर रहे थे। यह प्रमाणित कर रहे थे कि प्राचीनकाल से यात्री इस मार्ग से प्रवास करते आ रहे हैं।

मुल्बेक मठ की दीवार
मुल्बेक मठ की दीवार

अन्य मठों की तरह यह गोम्पा भी रंगबिरंगी पताकाओं एवं दीवारों से सुसज्जित था। बाहरी दीवारों पर इस गोम्पा के दानकर्ताओं के नाम खुदे हुए थे। लद्दाख के नीरस परिप्रेक्ष्य को अनगिनत प्रार्थना पताकाएं, रंगों से सजा रही थीं।

नामिका ला एवं फोतू ला दर्रा

इन दो पहाड़ी दर्रों पर भी छायाचित्रिकरण हेतु अवकाश लेना तय था। परन्तु अब तक मेरा स्वास्थ्य अधिक बिगड़ चुका था। अतः मैंने गाड़ी में ही बैठे रहना उचित समझा। इन दोनों दर्रों के विषय में मेरी स्मृति में केवल तेज पवन के झोंके अंकित हैं जिसमें वहां उपस्थित प्रत्येक वस्तु फड़फड़ा रही थी।

नामिका ला दर्रा - लद्धाख
नामिका ला दर्रा – लद्धाख

इसके पश्चात हम लामायुरु होते हुए जांस्कर नदी एवं सिन्धु नदी के संगम पर पहुंचे। चूंकि मेरी शीत ऋतू में की गयी लद्दाख यात्रा के समय मैं इस भाग का भ्रमण कर चुकी थी, इस यात्रा के इस भाग को मैंने अधिकतर गाड़ी में विश्राम करते व्यतीत किया। शीत ऋतू की यात्रा के समय मेरी स्मृति पटल पर अंकित जांस्कर नदी के स्वच्छ चटक नीले रंगों को वर्षा ऋतू की इस मटमैली नदी में परिवर्तित नहीं करना चाहती थी।

और पढ़ें – लेह लद्धाख – कडकडाती सर्दियों में  

फाटू ला दर्रा - लद्धाख
फाटू ला दर्रा – लद्धाख

लेह, जिसने जनवरी के शीत मास में मुझे शान्ति एवं सुरम्य वातावरण प्रदान किया था, अब जून के महीने में मछली बाजार सदृश प्रतीत हो रहा था। रास्ते गाड़ियों से अटे पड़े थे। चारों ओर इतनी संख्या में पर्यटक थे, एक क्षण मझे प्रतीत हुआ कि मैं वापिस दिल्ली पहुँच गयी हूँ।

लामयुरु मठ - लद्धाख
लामयुरु मठ – लद्धाख

हमारी दिल्ली श्रीनगर लेह सड़क यात्रा में लेह हमारा मध्यभागी पड़ाव निश्चित था। इसके पश्चात हमें खरदुन्गला दर्रा, नुब्रा घाटी, लद्दाख की नदियाँ, तत्पश्चात मनाली होते हुए दिल्ली वापिस लौटना था। किन्तु बिगड़े स्वास्थ्य के कारण मुझे यात्रा बीच में त्यागकर, लेह से ही वापिस लौटना पड़ा। ह्रुदय से आशा करती हूँ कि लद्दाख के इन भागों के दर्शन हेतु मुझे यहाँ पुनः आने का अवसर मिले।

मुझे इस यात्रा के जितने भी भागों का आनंद प्राप्त हुआ, मैं पूर्णतया तृप्त हूँ। अतः मैं अपनी इस यात्रा को एक सफल यात्रा मानती हूँ। समयाभाव हो तो आप भी केवल कारगिल तक की यात्रा का आनंद ले सकते हैं। केवल यह निश्चित कर लें कि यहाँ की राजनैतिक एवं सुरक्षा की स्थिति अनुकूल है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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द्रास युद्ध स्मारक – कारगिल – जहां भावनाएं हिलोरें मारती हैं https://inditales.com/hindi/kargil-drass-war-memorial-ladakh/ https://inditales.com/hindi/kargil-drass-war-memorial-ladakh/#comments Wed, 24 Jan 2018 02:30:40 +0000 https://inditales.com/hindi/?p=615

कारगिल के समीप स्थित द्रास युद्ध स्मारक से हम सब अवगत हैं। हम उस युग से सम्बन्ध रखते हैं जो १९९९ में हुए कारगिल युद्ध का साक्षी है। इस युद्ध के हुतात्मा सैनिक हमारे आसपास ही उपस्थित वीर योद्धा थे। उस समय दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कारगिल युद्ध के छायाचित्रों के हम सब ने […]

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द्रास युद्ध स्मारक - कारगिल
द्रास युद्ध स्मारक – कारगिल

कारगिल के समीप स्थित द्रास युद्ध स्मारक से हम सब अवगत हैं। हम उस युग से सम्बन्ध रखते हैं जो १९९९ में हुए कारगिल युद्ध का साक्षी है। इस युद्ध के हुतात्मा सैनिक हमारे आसपास ही उपस्थित वीर योद्धा थे। उस समय दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कारगिल युद्ध के छायाचित्रों के हम सब ने दर्शन किये थे। उन्ही वीर सैनिकों की स्मृति में निर्मित इस युद्ध स्मारक के भी हमने दूरदर्शन पर अनेक बार दर्शन किये हैं। तथापि वहां प्रत्यक्ष उपस्थित होने पर जो भावनाएं मन में हिलोरें मारती हैं, वह कल्पना से परे है। उसका अनुभव कारगिल पहुँच कर ही प्राप्त होता है।

राष्ट्रीय राजमार्ग १ द्वारा जम्मू से लेह की यात्रा के समय जैसे ही हमने जोजिला दर्रा पार किया, हमने इस युद्ध स्मारक के दर्शन का निश्चय किया। सैनिक परिवार से सम्बंधित होने के कारण मेरा बाल्यकाल सैनिक छावनियों में बीता है। अतः कोई भी युद्ध स्मारक एवं सम्बंधित संग्रहालय मेरे हेतु नवीन आकर्षण नहीं थे। तथापि उस सांझबेला में द्रास हुतात्मा स्मारक पर बिताए कुछ क्षणों में जो भावुकता की चरम अनुभूति मुझे हुई, मैं उस अनुभूति के लिए तैयार नहीं थी।

गुलाबी दीवारों से घिरे इस स्मारक के प्रवेशद्वार से हम स्मारक के भीतर पहुंचे। इस स्मारक की एक भित्त पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था-
“Forever in operation.
All save some, some save all, gone but never forgotten.”
अर्थात्,
“सदैव कार्यरत।
सब कुछ को बचाते हैं, कुछ सभी को बचाते हैं। विलीन पर अमर हो जाते हैं।”

द्रास युद्ध स्मारक

द्रास युद्ध स्मारक - विजयपथ
द्रास युद्ध स्मारक – विजयपथ

प्रवेश द्वार पर अपना नाम पंजीकृत करवाकर हम स्मारक प्रांगण के भीतर पहुंचे। पथ के दोनों ओर भारत के तिरंगे झंडों की पंक्ति लगी हुई थी। इस पगडंडी के अंत में एक ऊंचे स्तम्भ पर विशाल तिरंगा फहरा रहा था। इसे देख हमारी जात-पात, लिंग, समृधि, सफलता इत्यादि मानो कहीं लुप्त हो गए थे। शेष थी तो केवल हमारी भारतीयता। तिरंगे को इस भान्ति पवन में फड़फड़ाते देख अपनी भारतीयता का उत्सव मनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। हुतात्माओं की अमर जीवनी को दर्शाते इस स्मारक का स्पर्श होते ही गर्व का अनुभव होने लगा। हमने उस भव्य तिरंगे के सानिध्य में कई छायाचित्र खींचे।

इस द्रास युद्ध स्मारक को घेरे वे सर्व पर्वत शिखर उपस्थित हैं जिन्हें युद्ध पूर्व, शत्रुओं ने हथियाने का असफल प्रयास किया था। स्मारक की ओर जाते इस पथ को विजयपथ भी कहा जाता है। विजयपथ के मध्य एक विश्राम लेकर मैंने अपनी दृष्टी चारों ओर दौड़ाई। अपने चारों ओर गोलियां दागते बंदूकों के दृश्य को आँखों के समक्ष सजीव करने का प्रयास करने लगी। उस दृश्य को आँखों के समक्ष सजीव करने में सफल हो भी जाऊं, परन्तु शत्रुओं पर गोलियां बरसाते, स्वयं पर गोलियां झेलते वीर सैनिकों की मनःस्थिति मैं चाह कर भी अनुभव नहीं कर सकती थी। कल्पना एवं यथार्थ के बीच का यही अंतर मुझे सदा स्मरण कराता रहेगा कि हम अपने घरों में सुरक्षित जीवन व्यतीत करते हैं जबकि हमारी सुरक्षा में वीर सैनिक यहाँ निरंतर शत्रुओं का सामना करते रहते हैं। उन शहीद वीर सैनिकों को शत् शत् नमन करने की एवं उनके अंतिम क्षणों को इसी स्थल पर सजीव कल्पना करने की इच्छा मुझे इस स्मारक तक खींच लायी थी।

“कारगिल विजय दिवस हर वर्ष २६ जुलाई को मनाया जाता है।”

द्रास युद्ध स्मारक - प्रवेश द्वार
द्रास युद्ध स्मारक – प्रवेश द्वार

विजय पथ पर चलते हुए हम अमर ज्योति की ओर आगे बढ़े। यह अमर ज्योति उन वीर सैनिकों को समर्पित है जिन्होंने कारगिल युद्ध में देश की रक्षा करते अपने प्राणों की आहूति दे दी। समीप ही एक सैनिक कारगिल युद्ध के परिप्रेक्ष्य की जानकारी प्रदान कर रहा था। अमर वीर सैनिकों की गाथा सुनाते उसके स्वरों से उमड़ता गर्व छुपाये नहीं छुप रहा था। वह यह भलीभांति जानता था कि अगला शहीद वह स्वयं भी हो सकता है। उसने हमारा ध्यान बाएं स्थित वीरभूमि में रखे स्मृति शिलाओं की ओर खींचा, जो अमर वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि स्वरुप स्थापित किये गए थे। उसने हमें दायें स्थित मनोज पांडे संग्रहालय भी देखने को कहा जहां युद्ध के अवशेष संग्रह कर रखे गए हैं।

वीरभूमि स्थित स्मृति शिलाएं

द्रास युद्ध स्मारक - वीर भूमि
द्रास युद्ध स्मारक – वीर भूमि

शौर्यसंगीत की ध्वनी के मध्य हम वीर भूमि को ओर बढ़े। वहां प्रत्येक शहीद सैनिक को समर्पित एक शिलाखंड स्थापित किया गया था। प्रत्येक शिलाखंड पर शहीद का नाम एवं सेना में उसके पद के साथ साथ, संक्षिप्त में उसकी शौर्य गाथा अंकित थी। उन्होंने किस तरह देश की रक्षा में अपने प्राण न्योछावर किये यह पढ़ते ही गला भर आया। मैंने पूरी श्रद्धा से सर्व शिलाखंडों पर अंकित नाम पढ़ते हुए, उन्हें नमन कर, मन ही मन श्रद्धांजलि अर्पित करना आरम्भ किया। परन्तु कुछ क्षण उपरांत, अश्रुपूरित चक्षुओं के कारण नामों को पढ़ने में असमर्थ हो गयी और वहां से आगे बढ़ गयी।

द्रास युद्ध स्मारक - कारगिल समारक
द्रास युद्ध स्मारक – कारगिल समारक

वहां मेरी दृष्टी सुन्दर प्रतिमा पर पड़ी जहां हाथ में तिरंगा लिए, जीत का उत्सव मनाते वीर सैनिकों को प्रदर्शित किया गया था।

अमर वीर सैनिक ज्योति

द्रास युद्ध स्मारक - अमर ज्योति
द्रास युद्ध स्मारक – अमर ज्योति

भारी हृदय से मैं अमर ज्योति पर वापिस आ गयी। इसके आधार पर पं. माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा वीर रस में रचित कविता “पुष्प की अभिलाषा” अंकित थी। प्राथमिक शाला में पढ़ी इस कविता का गूढ़ अर्थ मैं आज समझ पायी हूँ जब एक पुष्प अपनी अभिलाषा व्यक्त करता है कि वह ना तो किसी देवी देवता को अर्पण होना चाहता है, ना ही किसी कन्या अथवा प्रेमिका को रिझाना चाहता है। वह केवल देश की रक्षा में प्राणों की आहूति देने को तत्पर वीर सैनिकों के चरणों को स्पर्श करना चाहता है। अतः वह प्रार्थना करता है कि उसे देशभक्त वीर सैनिकों के पथ पर बिखेर दिया जाय।

अमर ज्योति के पृष्ठभूमि पर एक सुनहरी भित्त है जिस पर शहीद वीर सैनिकों के नाम अंकित हैं। आत्मविभोर हो हम सब वहां चुप्पी साधे खड़े थे। ये वे वीर सैनिक थे जिन्होंने हमारी रक्षा करते अपने प्राण गवाँए थे जबकि हम उस समय शान्तिपूर्वक निद्रा में लीन थे अथवा क्षुद्र समस्याओं में उलझे हुए थे।

मनोज पांडे दीर्घा

स्मृति कुटिया - मनोज पण्डे दीर्घा - द्रास युद्ध स्मारक
स्मृति कुटिया – मनोज पण्डे दीर्घा – द्रास युद्ध स्मारक

अमर वीर सैनिक ज्योति पर कुछ और समय बिताकर हम मनोज पाण्डे दीर्घा की ओर बढ़े। इसे ‘हट ऑफ़ रेमेंबरेंस’ अर्थात स्मृतियों की कुटिया भी कहा जाता है।

अस्थि कलश - मनोज पण्डे दीर्घा
अस्थि कलश – मनोज पण्डे दीर्घा

प्रवेश द्वार पर ही एक वीर सैनिक की आवक्ष मूर्ति थी जिसके चारों ओर अस्थिकलश रखे हुए थे। इसे देखते ही मेरे आत्मसंयम का बाँध टूट गया और मैं फूट फूट कर रो पड़ी। कुछ क्षण पश्चात अपने आप को संभालकर जब चारों ओर देखा तो पाया कि वहां उपस्थित हर व्यक्ति की आँखें नम थीं। यहाँ आकर आत्मविभोर ना होना असंभव है।

अग्निपथ - हरिवंश राय बच्चन
अग्निपथ – हरिवंश राय बच्चन

एक फलक पर हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित कविता ‘अग्निपथ’ अंकित थी। कविता के साथ साथ कवी बच्चन के सुपुत्र अमिताभ बच्चन का प्रेरणादायक सन्देश लिखा था। एक वीर सैनिक द्वारा अपने पुत्र को लिखा एक पत्र भी वहां प्रदर्शित था। इसे पढ़कर हृदय में उठती हूक एवं भावनाएं शब्दों द्वारा व्यक्त करना मेरे लिए संभव नहीं है।

महावीर योद्धा

वीर विजयी सैनिक - द्रास युद्ध स्मारक
वीर विजयी सैनिक – द्रास युद्ध स्मारक

दीर्घा के भीतर युद्ध एवं युद्ध में शहीद सैनिकों के छायाचित्र प्रदर्शित किये गए थे। उनके दर्शन एक भावनात्मक यात्रा के समान था। दीर्घा के अंत में अधिग्रहण किया गया पाकिस्तानी ध्वज का भी छायाचित्र था। उसे देख हृदय में विजयी भावनाएं उभरीं। प्रतीकात्मक चिन्हों में भी इतनी शक्ति होती है जिसके लिए हम जी या मर सकते हैं।

वीर सैनिक - मनोज पण्डे दीर्घा
वीर सैनिक – मनोज पण्डे दीर्घा

परिसर के अन्य भागों में युवा सैनिक अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे। कुछ बागवानी कर रहे थे, कुछ घास की सफाई कर रहे थे एवं कुछ पौधों को पानी दे रहे थे। उन युवक सैनिकों को गले लगाकर उन्हें आशीर्वाद देने की इच्छा उत्पन्न हुई। अतः उनके समीप जाकर मैंने कुछ सैनिकों से चर्चा की व उन्हें धन्यवाद दिया। उन्होंने भी सदा की तरह विनम्रता से मेरे धन्यवाद का उत्तर धन्यवाद से ही दिया। आयु में इतने छोटे होने के बाद भी उनमें परिपक्वता कूट कूट कर भरी हुई थी। उनमें से एक ने मुझे कहा कि जिस तरह हम अपना उत्तरदायित्व निभाते हैं, उसी तरह वे भी उनका उत्तरदायित्व ही पूर्ण करते हैं। काश उनकी इस परिपक्वता का एक अंश भी शहरी युवाओं में होता, जिन्हें केवल अपना अधिकार मांगना आता है। उत्तरदायित्व कई शहरी युवाओं के लिए एक अर्थहीन शब्द है।

स्मारक परिसर में जलपान गृह एवं स्मारिका विक्रय केंद्र भी है। सैनिक संस्कृति एवं अनुशासन से परिपूर्ण ये केंद्र पर्यटकों की आवश्यकता पूर्ण करने में सक्षम हैं।

इस परिसर में प्रसिद्ध बोफोर्स तोपों सहित कई तोपें, बंदूकें एवं हेलीकाप्टर इत्यादि का भी प्रदर्शन किया गया था। परन्तु मैंने उन्हें देखने में समय नहीं गंवाया। इन वस्तुओं के बिना मानवता अधिक प्रगति कर सकती है।

देशवासियों हेतु वीर सैनिकों का संदेश

सैनिकों का देश को सन्देश - द्रास युद्ध स्मारक
सैनिकों का देश को सन्देश – द्रास युद्ध स्मारक

द्रास युद्ध स्मारक परिसर से बाहर निकलते समय आपकी दृष्टी इन शब्दों पर पड़ती है जो वीर सैनिकों की ओर से देशवासियों के लिए सन्देश है। यह सन्देश हमसे कहता है कि जब हम वापिस घर लौटें तब अपने परिजनों एवं मित्रों से कहें कि हमारे कल को सुरक्षित बनाने हेतु उन्होंने अपना आज न्योछावर कर दिया है।

मैंने शिंडलर संग्रहालय समेत इस तरह के कई स्मारकों के दर्शन किये हैं। परन्तु ऐसी यात्रा मैंने इससे पहले कभी नहीं की। गर्व, विनम्रता, कृतज्ञता, भावुकता इन सभी भावनाओं का मिश्रित सा अनुभव हो रहा था। कारगिल नगर की ओर जाते मन में बार बार एक ही विचार उमड़ रहा था। सैन्य सेवा देश के प्रत्येक नागरिक हेतु आवश्यक होना चाहिए। कदाचित यही हमें सही मायनों में भारतीयता का बोध करा सकती है। तुच्छ अहंकारों से ऊपर उठ कर कदाचित यही सही अर्थ में देशप्रेम जगा सकती है। मेरे पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं है। परन्तु द्रास शहीद स्मारक के दर्शनोपरांत ऐसे विचार आपके मानसपटल पर अवश्य उभर कर आयेंगे।

कारगिल के द्रास युद्ध स्मारक के दर्शन हेतु सुझाव

स्मृति चिन्ह - द्रास युद्ध स्मारक - लद्दाख
स्मृति चिन्ह – द्रास युद्ध स्मारक – लद्दाख

• श्रीनगर से लेह जाते राष्ट्रीय राजमार्ग १द पर जोजिला दर्रा एवं कारगिल नगर के मध्य द्रास युद्ध स्मारक स्थित है।
• मुख्य मार्ग पर स्थित स्मारक की गुलाबी दीवारें आपको दूर से ही देख जायेंगी।
• स्मारक के दर्शन हेतु प्रवेशशुल्क नहीं है। तथापि अपना पहचान पत्र दिखा कर रजिस्टर में नाम का पंजीकरण आवश्यक है।
• स्मारिका केंद्र से आप कपडे, चीनी मिटटी के प्याले एवं अन्य कई वस्तुएं ले सकते हैं।
• परिसर में जलपान गृह सुविधा उपलब्ध है। तथापि कदाचित शहीद स्मारक के दर्शनोपरांत उसमें जलपान करने की आपकी मनःस्थिति न रहे।
• सामान्य जन हेतु इस स्मारक के दर्शन जून से अक्टूबर मास तक उपलब्ध होते हैं जब राजमार्ग यातायात हेतु खुला रहता है।
• आप से आशा रहेगी कि इस स्मारक के भीतर आपका आचरण परिपक्वता एवं सम्मान से परिपूर्ण हो।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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