अनुराधा गोयल: इंडीटेल के अंतर्गत डीटुअर्स के इस संस्करण में हम संवाद करेंगे श्री आशीष कौल से, जो ‘दिद्दा: कश्मीर की योद्धा रानी’ नामक एक अप्रतिम पुस्तक के लेखक हैं। यह पुस्तक उनके ही द्वारा लिखित मूल अंग्रेजी पुस्तक ‘Didda- The Warrior Queen of Kashmir’ का हिन्दी रूपांतरण है। मैं कई दिनों से प्राचीन कश्मीर के विषय में पढ़ रही थी।
मैंने जाना कि दिद्दा नामक रानी ने कश्मीर में उस काल में शासन किया था जो मेरे अनुमान से भारत का सर्वोत्तम काल था। भारत का यह काल मुझे अत्यंत प्रिय है। इस काल तक भारत पर बाह्य शक्तियों के आक्रमण आरम्भ नहीं हुए थे। हमारी वास्तुकला, हमारी सैन्य शक्ति, हमारा व्यापार आदि अपनी चरम सीमा पर थे। किन्तु हम उस काल के प्राचीन कश्मीर के विषय में अधिक नहीं जानते हैं। इस पुस्तक के विषय में जानते ही श्री आशीष कौल से प्राचीन कश्मीर के विषय में जानकारी प्राप्त करने का विचार मेरे मस्तिष्क में कौंध गया। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैंने उन्हें डीटुअर्स में आमंत्रित कर उनसे प्राचीन कश्मीर के विषय में जानने का निश्चय किया। मेरे प्रिय पाठकों, आईये हम आशीष कौल जी से कश्मीर के प्राचीन काल के विषय में जानने के लिए पर्याप्त प्रश्न पूछने का प्रयास करते हैं।
आशीष कौल: डीटूर्स में मुझे आमंत्रित करने के लिए मैं आपका हृदयपूर्वक धन्यवाद करता हूँ। मैंने इस आयोजन के विषय में पूर्व में ही अनेक प्रशंसाएं सुन रखी थीं। आज आपके इस सम्माननीय आयोजन में भाग लेने का सुअवसर मुझे भी प्राप्त हुआ है। वह भी उस विषय पर जो मेरे एवं आपके लिए अत्यंत प्रिय विषय है। इसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ।
आशीष कौल से पुरातन कश्मीर पर चर्चा
अनुराधा: आशीषजी, हमारी पीढ़ी कश्मीर का सम्बन्ध वहां होते आये संघर्षों से ही लगाती आयी है क्योंकि कश्मीर के विषय में हम सभी ने अधिकतर उसी विषय में सुना है। हम में से कुछ इसका सम्बन्ध पर्यटन से भी लगाते हैं। इससे कुछ कालावधि पीछे जाएँ तो ६० एवं ७० के दशकों में निर्मित हुए बॉलीवुड के चित्रपटों ने अवश्य कश्मीर को लोकप्रियता प्रदान की थी। किन्तु हमें कश्मीर के प्राचीनकालीन इतिहास के विषय में आंशिक ज्ञान ही है। पढ़ने में मेरी रूचि है इसलिए मैं कश्मीर की परम्पराओं एवं संस्कृति के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त कर पायी हूँ। प्राचीन काल के कश्मीरी संस्कृत-विद्वान् तथा कश्मीर शैवदर्शन के बहुमुखी प्रतिभाशाली आचार्य अभिनवगुप्त एवं शारदा पीठ के विषय में भी मैंने कुछ जानकारी प्राप्त की थी। मुझे १०वीं सदी के कश्मीर में अत्यधिक रूचि है। उसी से सम्बंधित कुछ प्रश्न आपसे पूछना चाहती हूँ, जैसे उसका इतिहास, उसकी भूमि व परिदृश्य, वहां के विभिन्न साम्राज्य, इत्यादि। आशा है आप हमें प्रत्यक्ष १०वीं सदी के कश्मीर में ले जायेंगे।
आशीष: आपने सही कहा है। आज हमने कश्मीर को केवल पर्यटन की सीमाओं में बांधकर रख दिया है। कश्मीर के साथ अनेक आयामों में अन्याय हुआ है। उसके पूर्व-वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास, राजनैतिक परिदृश्य तथा सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व की उपेक्षा की जाती रही है।
हमारे लिए यह समझना अति आवश्यक है कि अविभाजित भारत की चर्चा में कश्मीर की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह इतिहास की भीषण विडम्बना है कि आध्यात्म, ज्ञान, विद्वत्ता, राजनीति आदि के क्षेत्र में कश्मीर वासियों, विशेषतः कश्मीरी स्त्रियों के जिस उत्कृष्ट पांडित्य का ना केवल भारत, अपितु सम्पूर्ण विश्व में महत्वपूर्ण व अविश्वसनीय योगदान था, उसे कालांतर में आधुनिक पाश्चात्य इतिहासकारों ने इतिहास के पृष्ठों से पूर्णतः लुप्त कर दिया है।
१०वीं सदी का कश्मीर
आशीष: कश्मीर का लगभग १०,००० वर्ष प्राचीन इतिहास है। यहाँ विशेष यह है कि कश्मीर का इतिहास वह इकलौता जीवंत इतिहास है जिसे अखंड रूप से प्रलेखित किया गया है। कश्मीर के इतिहास का आरम्भ तब से हुआ था जब मिस्र के फैरो ने पिरामिड बनाने का नियोजन भी नहीं किया था। यदि आप १०वीं सदी की कालावधि का विश्लेषण करें तो आप देखेंगे कि यह कालावधि ना केवल भारत के परिप्रेक्ष्य में, अपितु अविभाजित भारत एवं एशिया, यहाँ तक कि सम्पूर्ण विश्व को पुनः परिभाषित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण कालावधि है। जब हम १०वीं सदी के कश्मीर की विवेचना करते हैं तो हम अविभाजित भारत के साथ उन सभी साम्राज्यों की चर्चा करते हैं जिनके साम्राज्य कभी इरान-इराक सीमा तक फैले हुए थे। अफगानिस्तान, पाकिस्तान के साथ अन्य सभी क्षेत्र इस राष्ट्र के भाग थे।
१०वीं सदी में मध्य-पूर्वी क्षेत्र एवं यूरोपीय देशों के मध्य युद्ध छिड़ा हुआ था। चारों ओर धर्मयुद्ध छिड़ा हुआ था। एक ओर यरूशलम का युद्ध जारी था। दूसरी ओर इस्लाम स्वयं को स्थापित कर चुका था तथा मध्य एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इसाई धर्म से झगड़ रहा था। कश्मीर एक सीमावर्ती राज्य था जो भारत में प्रवेश के लिए द्वार था।
कश्मीर पर सदा से महान व शक्तिशाली साम्राज्यों का शासन था जिनकी गणना विश्व के सर्वोत्तम शासकों में की जाती थी। भारत के एक विशाल क्षेत्र पर कर्कोट राजवंश का शासन था जिसके शासक ललितादित्य को महानतम शासकों में एक माना जाता है। ललितादित्य की मृत्यु के पश्चात, लगभग २५० -३०० वर्षों के उपरांत १०वीं सदी में संग्रामराज का शासन हुआ जिन्होंने लोहार राजवंश की स्थापना की थी।
कश्मीर राज्य के बाईं ओर लोहार राजवंश का महान एवं शक्तिशाली साम्राज्य था। आज के लोगों को लोहार साम्राज्य ज्ञात नहीं होगा क्योंकि वह अब लोहार के नाम से नहीं जाना जाता है। यह इतिहास का उपहास ही है कि एक समय जो एक महान साम्राज्य था, लोरेन जिसकी शक्तिशाली राजधानी थी, आज वही क्षेत्र भारत-पाक नियंत्रण रेखा पर एक छोटे से गौण गाँव के रूप में सिमट कर रह गया है। लोगों को उसके वैभवशाली इतिहास की तनिक भी जानकारी नहीं है।
प्राचीन कश्मीर का लोहार साम्राज्य
लोहार राजवंश की राजधानी लोरेन थी। इसके अंतर्गत समूचा पश्चिमी पाकिस्तान एवं पूंछ राजौरी आते थे जो सीमा के दोनों ओर स्थित है। साथ ही इसमें आज का पंजाब एवं हरियाणा भी सम्मिलित थे। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि १०वीं सदी में यह कितना समृद्ध राज्य था। वह कश्मीर साम्राज्य से सीमा साझा करता था। उत्तर की ओर मध्य-एशिया राज्य थे जिन पर शाही राजवंश का शासन था। इसके पश्चात शाही साम्राज्य ईरान के इस्लामी गणराज्य में परिवर्तित हो गया। शाही राज्य का राजा भीमशाह अंतिम हिन्दू शासक था जिसने मध्य एशिया पर शासन किया था।
१०वीं सदी के आरम्भ में अर्थात् लोहार राजवंश से पूर्व कश्मीर पर राजा संग्रामदेव का शासन था। उनके शासनकाल में राजनैतिक टकराव के कारण कश्मीर लगभग विभाजन की स्थिति तक पहुँच गया था। सम्पूर्ण राजनैतिक परिदृश्य गृहयुद्ध में लिप्त हो गया था।
जागीरदार
इस काल में राजाओं की सेना वैसी नहीं होती थी जैसी सैन्य परिकल्पना वर्तमान में दृष्टिगोचर होती है। उन दिनों सेना के नाम पर कुछ गिने-चुने सैनिक होते थे जो केवल राजा एवं उसके दुर्ग क्षेत्र का रक्षण करते था। यदि कोई राजा किसी अन्य राज्य पर विजय प्राप्त कर उसे अपने साम्राज्य के आधीन करना चाहे तो वह अपनी सेना नए सिरे से गठन करता था। प्राचीनकाल में जब एक राज्य की सेना दूसरे राज्य पर आक्रमण कर विजय प्राप्त करती थे तब उसकी सेना उस राज्य को लूट कर संपत्ति एकत्र करती थी। उनका मेहनताना भी उसी लूट की संपत्ति से आता था। कश्मीर की सैन्य शक्ति जागीरदारों के अधीन थी जो उनके क्षेत्र की उपजाऊ भूमि एवं सेना का नियंत्रण करते थे। संग्रामदेव की शासन संबंधी कार्यों में रूचि नहीं थी। कश्मीर घाटी में बाढ़ एवं अकाल की स्थिति रहती थी। घाटी में गृहयुद्ध छिड़ गया था।
कश्मीर की गढ़-राजनीति भारत के अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक जटिल थी। १०वीं सदी के आरम्भ में संग्रामदेव के कुछ दरबारियों ने एक अन्य दरबारी पर्वगुप्त को विश्वास दिलाया कि अब कश्मीर के शासन में परिवर्तन की आवश्यकता है क्योंकि राजा एक सार्थक व न्यायप्रिय शासन प्रदान करने में असमर्थ है।
पर्वगुप्त
पर्वगुप्त दरबार का एक निष्ठावान सदस्य था। राजा संग्रामदेव द्वारा कश्मीर की निर्बल प्रजा पर ढाये आत्याचारों का वह प्रत्यक्ष साक्षी था। प्रजा के पास धन, भोजन एवं अन्य सुविधाओं का अभाव था, वहीं राजा विलास भोग में व्यस्त था। पर्वगुप्त दुविधा में था। एक ओर दरबार के प्रति उसकी निष्ठा थी तो दूसरी ओर प्रजा का कष्ट। उसके समक्ष जटिल प्रश्न था कि क्या उसके जैसा निष्ठावान दरबारी निरीह प्रजा के समर्थन में क्रूर राजा के विरुद्ध विद्रोह करे?
अंततः पर्वगुप्त ने प्रजा के पक्ष में निर्णय लिया। एक रात्रि अपने सैनिकों के साथ उसने महल पर धावा बोल दिया तथा सम्पूर्ण कश्मीर गढ़ पर अधिपत्य जमा लिया। नशे में धुत संग्राम देव को इसकी भनक भी नहीं पड़ी। जब उसे सुध आयी, उसने स्वयं को वितस्ता अर्थात् झेलम नदी पर एक नौका में बंधा हुआ पाया।
जब उसने पर्वगुप्त से इसका विरोध कर उसे खरी खोटी सुनाई तब पर्वगुप्त ने उसे वितस्ता नदी की ही गोद में सुला दिया। इस प्रकार संग्रामदेव का अंत हुआ। यह प्रथम अवसर था जब कश्मीर में विद्रोह हुआ था।
कश्मीर का नवीन सम्राट
संग्रामदेव के वध के पश्चात पर्वगुप्त को कश्मीर के सम्राट के रूप में अभिषिक्त किया गया। पर्वगुप्त के साथ कश्मीर में एक नवीन राजवंश का आरम्भ हुआ। वह १०वीं सदी का कश्मीर था। अभिषेक के दिवस ही प्रातः पर्वगुप्त की पत्नी ने राज्य के उत्तराधिकारी को जन्म दिया जिसका नामकरण क्षेम गुप्त किया गया। उसी कालखंड में लोहार सम्राट सिंहराज की पत्नी ने एक पुत्री को जन्म दिया था। उसका नाम दिद्दा रखा गया। ऐसा कहा जाता है कि जन्म के उपरांत ही दिद्दा के माता-पिता उससे मुक्त होना चाहते थे। उन्होंने उसे एक टोकरी में रखकर जल में बहाने का प्रयास किया किन्तु राजा के वस्त्र टोकरी में उलझ गए थे।
वस्त्र छुड़ाने के लिए जैसे ही राजा ने पुत्री की ओर देखा, उनका हृदय पिघल गया तथा वे उसे वापिस महल ले आये। एक दाई ने उसका पालन-पोषण किया। राजा ने दिद्दा से ऐसा व्यवहार इसलिए किया क्योंकि दिद्दा जन्म से ही अपंग थी। उसके पैर विकृत थे। कदाचित वह पोलियो का शिकार हो गयी थी।
रोग
उस काल में कश्मीर में दो प्रकार के रोगों की महामारी थी। उनमें प्रमुख था पोलियो, जो कश्मीर में अनियंत्रित रूप से विद्यमान था। दूसरी महामारी हैजा थी। यहाँ तक कि कश्मीर में मृत्यु अधिकतर पोलियो अथवा हैजे के कारण ही होती थीं। भूमिगत जल के अभाव में प्राचीनकाल के कश्मीर को भीषण अकाल की स्थितियाँ भी झेलनी पड़ी थी। वहीं दूसरी ओर कश्मीर में बाढ़ की स्थिति भी असामान्य नहीं थी। यह सामान्य ज्ञान है कि बाढ़ के पश्चात अकाल की स्थिति उत्पन्न होती ही है क्योंकि बाढ़ के पश्चात भूमि अनुपजाऊ हो जाती है।
आज जिस कश्मीर का वातावरण इतना सुहावना है, आज जिस कश्मीर को भाजियों एवं फलों की टोकरी कहा जाता है तथा जिस कश्मीर को आज धरती का स्वर्ग कहा जाता है, उसी कश्मीर ने किसी काल में भीषण अकाल की स्थिति का वहन किया है, यह विचार करना भी हमारे लिए असंभव प्रतीत होता है। किन्तु यही सत्य है।
अनुराधा: मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ। मैंने नौशेरा राजौरी पूंछ क्षेत्र में अपने जीवन के कुछ अनमोल वर्ष व्यतीत किये हैं। तब मुझे इसके ऐतिहासिक महत्ता की कोई विशेष जानकारी नहीं थी। कुछ वर्षों पूर्व ही मैंने इसके विषय में अध्ययन किया है। आपने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि यह वही समय था जब आचार्य अभिनवगुप्त उस काल के साम्राज्यों के राजगुरु के रूप में उनका मार्गदर्शन करते थे। आप ने यह भी उल्लेख किया है कि कश्मीर एक विशाल अध्ययन केंद्र था। हमें आज केवल यही ज्ञात है कि कश्मीर में विद्या की देवी शारदा माँ का शारदा पीठ है। अतः हमें कश्मीर की आध्यात्मिक धरोहर के विषय में कुछ बताएं।
कश्मीर की अध्यात्मिक धरोहर
आशीष: यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इतिहासकारों द्वारा कश्मीर के सम्पूर्ण इतिहास के साथ भयानक अन्याय किया गया है, कहीं अज्ञानता में किया गया है तथा कहीं किसी अध्यादेश के अंतर्गत किया गया है। अनेक वर्षों से कश्मीर को केवल एक पर्यटन स्थल के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है जिसके कारण आज कश्मीर की यह अवस्था हो गयी है। प्राचीनकाल से कश्मीर का रूप किसी पर्यटन स्थल का कदापि नहीं था। येरुशलम के प्रति जो भावना ईसाइयों की है अथवा मक्का के प्रति जो आदर मुसलामानों के हृदय में है, वही भावना एवं आदर सनातन धर्म तथा वैदिक हिन्दू धर्म के अनुयायियों का कश्मीर के प्रति था। कश्मीर अध्ययन एवं आध्यात्म का सर्वोच्च केंद्र था।
सम्पूर्ण विश्व में कश्मीर इकलौता स्थान है जिसका विश्व भर में सर्वाधिक लम्बा अखंड जीवंत इतिहास लिखा गया है। सर्वप्रथम विश्वविद्यालय अर्थात् प्रथम महान अध्ययन केंद्र शारदा विद्या पीठ कश्मीर में ही है। शारदा विद्या पीठ का विकास दो स्तरों में हुआ है। शारदा विद्या पीठ से सम्बंधित एक आध्यात्मिक आयाम यह है कि इसकी संकल्पना किस प्रकार हुई थी? इसकी स्थापना कश्मीर में ही क्यों हुई?
आरम्भ में कश्मीर क्षेत्र में मानवी वसाहत नहीं थी। यहाँ सतीसरा नामक एक सरोवर था। सम्पूर्ण कश्मीर क्षेत्र जलमग्न था। इसे सतसर भी कहते हैं, अर्थात सात सरोवर जो पर्वतों एवं घाटियों से घिरे हुए हैं। आज उस विशाल सरोवर के स्थान पर डल झील, वुलर झील तथा अन्य सरोवर अब भी शेष हैं। सतीसर सरोवर को रिक्त कर वहां वराहमुला नामक क्षेत्र का निर्माण किया गया। कालांतर में उसे बारामुला कहा जाने लगा। पुराणों के अनुसार सतीसर सरोवर को राक्षस के चंगुल से छुडाने के लिए भगवान विष्णु से वराह का रूप धर कर अपनी दाढ़ से सरोवर में छिद्र कर दिया था जिससे उसका जल रिसकर बाहर आ गया। इसी कारण इस क्षेत्र को वराहमुला कहा जाने लगा, वराह अर्थात् सूअर तथा मूल अर्थात् दाढ़।
सरोवर से जल बह जाने पर वहां सुन्दर कश्मीर प्रकट हो गया। वहां का प्रथम राजा था, राजा नील, जो कश्यप ऋषि का पुत्र था। कश्यप ऋषि को कैस्पियन सागर का ऋषि भी कहते हैं। इतिहासकारों के अनुसार कश्मीर नाम की व्युत्पत्ति कश्यप मीरा हुई है जिसका अर्थ है, ऋषि कश्यप का सरोवर। यह नाम एक कश्मीरी अथवा संस्कृत शब्द से आया है जिसका अर्थ जल का सूखना है। अथवा यह कश्यप मेरु शब्द से भी बना हो सकता है, जिसका अर्थ है कश्यप का पावन पर्वत।
निलमठपुराण – पुरातन कश्मीर
अनुराधा: क्या इसका सम्बन्ध निलमठपुराण से है?
आशीष: जी। निलमठपुराण का आरम्भ वहां से होता है जहां प्राचीन कश्मीर का जन्म हुआ था। जब जल को बहाकर भूमि प्रकट हुई थी। कश्मीर दो सभ्यताओं से निर्मित है। एक सभ्यता वह है जो कश्मीर के पर्वत शिखरों पर बसी थी जैसे तिब्बत, लद्दाख, गिलगित, बल्तिस्तान आदि जो एक काल में विहंगम जल स्त्रोत के चारों ओर स्थित थे। शीत ऋतु आते ही वे नीचे उतरकर घाटियों में आ जाते थे। कश्मीर में यह पुरातन संस्कृति अब भी जीवित है जिसमें सम्पूर्ण दरबार वातावरण के अनुसार स्थानांतरित हो जाता था। कश्मीर की शीतकालीन राजधानी जम्मू तथा ग्रीष्मकालीन राजधानी कश्मीर है।
शीतकाल में पर्वत शिखर हिमाच्छादित हो जाते थे जिसके कारण लोग नीचे उतरकर राजा नील के राज्य कश्मीर में आ जाते थे। राजा नील ने एक अध्यादेश निकला था कि पर्वत शिखर के वासी छः मास के लिए नीचे आ सकते हैं। वे छः मास के लिए उनका भरण-पोषण करेंगे। इसके अतिरिक्त वे उन्हें कष्ट ना दें। कश्मीर आज भी इसका पालन करता है।
कश्मीरी संस्कृति की अनोखी परम्पराएं
कश्मीरी संस्कृति की कुछ परम्पराएं अत्यंत अनोखी हैं। उनमें से एक है, खेत्सीमावस। मावस शब्द अमावस्या से उत्पन्न हुआ है तथा खेत्सी यक्ष से उत्पन्न एक अपभ्रंश शब्द है। अर्थात् यक्ष अमावस्या, जो शीत ऋतु के आरम्भ में आती है। कश्मीर में इस दिन से आरम्भ कर शीत ऋतु के अंत तक कुछ भोजन घर के बाहर रखने की प्रथा थी। पुराणों के अनुसार यह भोजन यक्षों के लिए रखा जाता था।
यक्ष किन्हें कहा जाता था? प्राचीन ग्रंथों के अनुसार यक्षों के बादाम के आकर के नेत्र होते थे। ठुड्डी पर थोड़े बाल लटके हुए दिखाए जाते हैं। यही विशेषताएं उन लोगों में भी देखी जा सकती हैं जो कश्मीर के आसपास पर्वत शिखरों पर निवास करते हैं, जैसे तिब्बती एवं लद्दाखी लोग। उनके शारीरिक लक्षण पुराणों में प्रदर्शित यक्षों के समान होते हैं। शीतकाल में पर्वत शिखरों में निवास करने वाले लोगों को खाद्यपदार्थ उपलब्ध नहीं हो पाते थे। अतः वे नीचे उतर कर घाटियों में आ जाते थे। घाटी के वासी उनका भरण-पोषण करते थे। इसके पृष्ठभाग में भावना यह थी कि अभावग्रस्त को भोजन खिलने से उन्हें समृद्धि प्राप्त होगी। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को ध्यान में रखते हुए इस परंपरा का पालन किया जाता था। उस काल में तथा उसके पश्चात भी कश्मीर में शारदा का अस्तित्व था। शारदा के दो आयाम हैं। उन में एक आयाम आध्यात्मिक है। यहाँ शारदा के वास्तविक महत्त्व को समझना अत्यंत आवश्यक है।
सागर मंथन
हम सब सागर मंथन की कथा जानते हैं। सागर मंथन द्वारा अमृत सहित अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई थीं। सभी देवताओं ने अमृत पान किया था। शेष अमृत कहाँ है? उस समय ब्रह्मा जी ने विष्णु जी से शेष अमृत के कलश को कश्मीर में स्थापित करने का आग्रह किया। भगवान विष्णु अमृत कलश लेकर कश्मीर पधारे तथा उस कलश को कृष्णगंगा या किशनगंगा एवं झेलम नदी के संगम पर स्थापित किया। आज मुजफ्फराबाद या पाक अधिकृत कश्मीर में उस क्षेत्र को नीलम घाटी कहते हैं। ब्रह्माजी ने संगम पर स्थापित अमृत कलश के ऊपर शारदा को प्रकट किया। काल के साथ वह क्षेत्र अध्यात्मिक अध्ययन का विशाल केंद्र बन गया।
माँ शारदा
सर्वप्रथम कश्मीरी पंडित माँ शारदा के सेवक व भक्त बने। वे इस भूभाग पर माँ शारदा का अधिपत्य मानते हैं। यहाँ तक कि १८वीं सदी में एक घटना हुई जिसमें उस क्षेत्र में माँ शारदा एक श्वेत हंस पर आरूढ़ देखी गयी थीं। जब तुर्क एवं मुस्लिम आक्रमण हुए तब एक मुस्लिम कमांडर ने बारूद का प्रयोग कर मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। मंदिर का शिखर शारदा माँ के मंदिर स्थल से लगभग ३००-४०० मीटर दूर अब भी स्थित है जिस पर मूल श्रीयन्त्र उत्कीर्णित है।
गणेश घाट – प्राचीन कश्मीर
यहाँ गणेश घाट नामक एक स्थान है। यह एक विशाल पर्वत की सीधी सपाट खड़ी सतह है जिस पर स्वयंभू गणेश की प्रतिमा उत्कीर्णित प्रतीत होती है।
शारदा मंदिर के गर्भगृह के चार प्रवेश द्वार थे। अनेक राज परिवारों के सदस्य शारदा के शिष्य थे जो यहाँ आकर आध्यात्म का अध्ययन करते थे। उनमें रानी दिद्दा एवं कोटा रानी भी सम्मिलित हैं। गोपादित्य एवं अन्य विद्वानों के लिखित संस्मरणों के अनुसार विश्व के अनेक भागों से विद्यार्थी यहाँ आते थे तथा शारदा के शिष्य बनकर विद्याध्ययन करते थे। अनेक विद्यार्थी माँ शारदा से आध्यात्म की शिक्षा प्राप्त कर पुनः अपने स्थानों पर चले गए तथा वहां जाकर सम्बंधित पंथों का शुभारम्भ किया। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि ईसा मसीह भी इसी उद्देश्य से कश्मीर आये थे।
मध्य एशिया एवं मुख्य भारत के मध्य स्थित व्यापार मार्ग कश्मीर से होकर जाता था जिसके द्वारा कश्मीर आया जा सकता था। कश्मीर ने रेशम एवं मसलों के व्यापार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ये वस्तुएं मध्य एशिया से भारत में प्राचीन कश्मीर मार्ग से ही प्रवेश करते थे।
अनुराधा: इस चर्चा के अंत में मैं आपने अंतिम प्रश्न करना चाहती हूँ। मैं आपसे उन व्यापारों के विषय में चर्चा करना चाहती हूँ जिनमें कश्मीर ने सहायक भूमिका निभाई थी। कश्मीर मैं किन किन वस्तुओं का आयात व निर्यात होता था?
प्राचीन कश्मीर की व्यापार व्यवस्था
आशीष: कश्मीर कभी बाजार नहीं था। ना ही उसकी एक बाजार के रूप में संकल्पना की गयी थी। तुर्क एवं अफगानी आक्रमणकारियों द्वारा कश्मीर पर आक्रमण से पूर्व कश्मीर एकमात्र मोक्ष धाम था। प्राचीन कश्मीर ऐसा राज्य कदापि नहीं था जहां व्यवसायिक गतिविधियाँ हों। वह केवल आध्यात्मिक क्रियाकलापों का केंद्र था।
रानी दिद्दा के काल में तथा उससे पूर्व एवं पश्चात भी, कश्मीर बृहत्तर भारत के लिए व्यापार सुविधाएं उपलब्ध कराता था। इसी व्यापार मार्ग का परिणाम है कि आज आप कश्मीर में रेशम एवं केसर का उत्पादन देखते हैं। कश्मीर विश्व का तीसरा विशालतम केसर उत्पादक है। विश्व में केसर के प्रमुख उत्पादक स्पेन, किश्तवार के कुछ स्थान एवं कश्मीर हैं। उनमें भी कश्मीर का केसर सर्वोत्तम माना जाता है। किन्तु इन सब का आरम्भ इस व्यापार मार्ग के कारण ही हुआ था। अन्यथा कश्मीर में किसी भी प्रकार का व्यापार नहीं होता था, ना उत्पादक के रूप में, ना ही उपभोक्ता के रूप में।
कश्मीर के लोग मूलतः मंदिर के संरक्षक थे। उदहारण के लिए, कौल संहिता को विश्व भर की शक्तिओं अथवा तंत्र का ग्रन्थ माना जाता है। कौल समाज को इस ज्ञान का संरक्षक माना जाता था। एक कौल होने के कारण तंत्र की परंपरा को बनाए रखना हमारे कार्यक्षेत्र में आता था। उसी प्रकार कश्मीर के सभी मूल कश्मीरी पंडित एवं अन्य मूल निवासी कश्मीर के विभिन्न ऐतिहासिक वैदिक श्रद्धा स्थलों के सेवक माने जाते थे। उन स्थानों में कुछ नाम हैं, तुलामुला, जिसे खीर भवानी भी कहा जाता है, अमरनाथ, शारदा विद्या पीठ आदि। इन स्थानों में सर्वाधिक संख्या में कश्मीरी पंडित कार्य करते थे। उनके जीवन का अस्तित्व ही वैदिक परम्पराओं एवं वैदिक धर्म के आध्यात्मिक आयामों को जीवित रखने में माना जाता था।
शारदा विश्वविद्यालय – पुरातन कश्मीर
शारदा विश्वविद्यालय विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय था जहां विश्व भर से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे, जहां विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक संगोष्ठियाँ एवं कार्यशालाएं आयोजित की जाती थीं तथा जहां विद्यार्थियों को स्नातक/स्नातकोत्तर की उपाधियाँ एवं प्रमाणपत्र प्रदान किये जाते थे। यहाँ दूर-सुदूर यूरोप एवं विभिन्न मध्य एशिया के साम्राज्यों से अनेक विद्यार्थी आते थे। जैसे आदि शंकराचार्य एवं ह्वेन त्सांग भी कश्मीर आये थे। अशोक ने भी कश्मीर में दरबार स्थापित किया था।
बौद्ध धर्म पुरातन कश्मीर द्वारा ही प्रदत्त एक धरोहर है। बौद्ध धर्म का प्रसार भारत के बाह्य क्षेत्रों में कैसे हुआ? कश्मीर के द्वारा। बौद्ध धर्म के अनुयायी एवं कश्मीरी एक दूसरे पर अविश्वास करते थे। अतः बौद्ध धर्म के अनुयायी कश्मीर से बाहर चले गए।
कश्मीर के सृजनकर्ता
आशीष: मैं दो नामों का उल्लेख करना चाहता हूँ। सारंगदेव, जिन्होंने संगीत की रचना की तथा सुश्रुत, जिन्हें औषधियों का सृजनकर्ता माना जाता है। क्या लोग यह जानते हैं कि ये दोनों प्राचीन कश्मीर के निवासी थे।
अनुराधा: नहीं, मैं भी यह नहीं जानती थी। यह सब अत्यंत ही रोचक एवं ज्ञान वर्धक है। मुझे विश्वास है कि मेरे साथ मेरे पाठकों को अनेक नवीन जानकारी प्राप्त हुई है। हम सब के लिए भारत की धरोहरों के साथ साथ पुरातन कश्मीर की धरोहरों को जानना व समझना अत्यंत आवश्यक है, जिसे कुछ सीमा तक लोग विस्मृत कर चुके हैं तथा खोने की कगार पर हैं। अतः आशा करती हूँ कि कश्मीर की धरोहर एवं संस्कृति के सम्बन्ध में मुझे आपसे पुनः चर्चा करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
आशीष: जी अवश्य। आज की चर्चा के अंत में मैं आपसे अभिनवगुप्त के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। आज की पीढ़ी को यह समझना होगा कि अभिनवगुप्त किसी भी अन्य से अरबों गुना अधिक शक्तिशाली थे। उन्हें अजन्मा कहा जाता था, अर्थात् जिसका कभी जन्म नहीं हुआ हो। उनका जन्म भगवती की योनि से हुआ था। वे इतने शक्तिशाली थे कि वे सृष्टि के पाँचों तत्वों को केवल हाथों व मुख की भाव-भंगिमाओं द्वारा नियंत्रित कर लेते थे। उनके मुख के भाव परिवर्तित होते ही वातावरण में परिवर्तन आ जाता था।
अनुराधा: आपसे अनुरोध है कि किसी वार्तालाप में आप हमें अभिनवगुप्त के विषय में भी अधिक जानकारी दें। आज के इस अत्यंत ही ज्ञानवर्धक एवं संतोषजनक संवादों के लिए आपका हृदय से धन्यवाद करती हूँ।
आशीष: मुझे डीटुअर्स में आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद। पुरातन कश्मीर मेरे हृदय का एक अभिन्न अंग है। उसके विषय में चर्चा करना मुझे सदा ही आनंदित करता है। मुझे यह अवसर पुनः प्रदान करने के लिए आपका अनेकानेक धन्यवाद।
IndiTales Internship Program के अंतर्गत श्रव्य संवाद का अंग्रेजी में लिखित प्रतिलिपि मेघा व्यास द्वारा तैयार किया गया है।