चंद्रताल – लाहौल स्पीति की मनमोहक नीली झील

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चंद्रताल! हिमाचल की हमारी लम्बी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, भीड़ भरे मनाली नगर लौटने से पूर्व हमारा अंतिम गंतव्य था, यह सुन्दर नीलवर्ण चंद्रताल। ऊंचे-नीचे पहाड़ी क्षेत्रों से परिपूर्ण हिमाचल की लम्बी यात्रा के इस पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते हमारा शरीर थकान के चिन्ह अवश्य दिखाने लगा था। किन्तु चित्ताकर्षक पहाड़ी परिदृश्य अब भी हमारा मन मोह लेने को तत्पर थे तथा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे। वैसे भी इतने दिवसों से पहाड़ी क्षेत्रों में भ्रमण करते करते हम यहाँ के जन जीवन से अभ्यस्त होने लगे थे। यहाँ के ऊँचे-नीचे घुमावदार मार्गों की कठिनाइयों को समझकर उन्हें स्वीकार करना सीख चुके थे। पहाड़ी घाटियों के मध्य से होती हुई शांत सडकों पर गाडी की यात्रा का आनंद लेना अब भी थमा नहीं था। हरे-भरे एवं बंजर परिदृश्यों की आंखमिचौली के मध्य पहाड़ी नदियों का कलरव हमें आनंदविभोर कर रहा था। मार्ग में यदा-कदा मिलते अन्य पर्यटकों से अभिवादन करते एवं अपने अनुभव बाँटते हम आगे बढ़ रहे थे।

चंद्रताल की और जाते ऊंचे नीचे पथ
चंद्रताल की और जाते ऊंचे नीचे पथ

यात्रा के आरम्भ में मैंने चंद्रताल के कुछ चित्र देखे थे। उन्हें देखने के पश्चात चंद्रताल के प्रत्यक्ष दर्शन करने की तीव्र अभिलाषा मन में हिलोरे मार रही थी। हमारी इस हिमाचल यात्रा के सर्वाधिक ऊंचाई वाले स्थान पर अपना पड़ाव डालने का रोमांच भी हो रहा था। वैसे भी मुझे चन्द्रमा से विशेष लगाव है। उसी के नाम पर आधारित इस झील के दर्शन करने का मैं उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी।

चंद्रताल तक की यात्रा

चंद्रताल तक पहुँचने के लिए हम अपने पिछले पड़ाव, काजा से आगे बढ़ते हुए, कुंजुम दर्रे को पार कर इस ताल तक पहुंचे। पहाड़ों की विस्तृत ढलानें हरित तृणों से ढँकी हुई थीं जिन पर यहाँ वहाँ भेड़-बकरियां चर रही थीं। अनेक स्थानों पर सतहें पीले एवं गुलाबी पुष्पों की चादरों से ढँकी हुई थीं। यात्रा के अंतिम १२ किलोमीटर की यात्रा में हम लगभग पत्थरों पर ही गाडी चला रहे थे। अति संकरे मार्गों को देख ऐसा आभास हो रहा था मानो उनकी चौड़ाई केवल हमारी गाड़ी की चौड़ाई के अनुकूल ही बनाई गयी थी। उस पर, अनेक स्थानों पर सड़क पार करती जलधाराएं भी इतनी तीव्र गति से बह रही थीं मानों हमें बहा ले जायेंगी। दूर दूर तक कोई जनमानस दृष्टिगोचर नहीं था। केवल कुछ स्थानों पर मार्ग दर्शाते सूचना फलक थे जो हमारा मार्गदर्शन कर रहे थे।

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तम्बू शिविर

हिमालय की गोद में हमारा शिविर
हिमालय की गोद में हमारा शिविर

कुछ दूर से जब हमारी दृष्टी छोटे छोटे तम्बुओं पर पड़ी, हमें मानवी उपस्थिति का आभास हुआ। वे वही पैरासोल तंबू थे जहां हम ठहरने वाले थे। वहां पहुंचते पहुँचते दोपहर हो चुकी थी। ऊपर सूर्यदेव अपनी पूर्ण आभा से दमक रहे थे जिसके कारण ये तम्बू अत्यंत उष्ण हो गए थे। अपने समक्ष बर्फ से आच्छादित पहाड़ियों को देखने के पश्चात भी मुझे उस उष्णता में वातानुकूलन की आवश्यकता प्रतीत हुई। वहां हमें सादा व स्वादिष्ट भाजी-भात का भोजन प्राप्त हुआ। ऐसे जटिल क्षेत्र में ऐसा सादा एवं मूल भोजन भी मिल जाए तो उसे सम्पन्नता ही कहेंगे। वहां बंगलुरु से युवा यात्रियों का एक बड़ा समूह भी पहुंचा हुआ था। वे सभी दुपहिया वाहन चलाकर वहाँ तक पहुंचे थे। अचानक ही वह तम्बू-आवास आगंतुकों के क्रियाकलापों व गतिविधियों से चहक उठा था।

हम दोपहर के भोजन के पश्चात किंचित विश्राम करना चाहते थे किन्तु हमारे गाइड ने हमें तुरंत ही ताल के अवलोकन हेतु चलने का परामर्श दिया। उसके अनुसार संध्या के समय ठण्ड बढ़ जाने पर बाहर निकलना कष्टदायक होता है। इससे अधिक उत्तम कारण यह था कि आकाश में सूर्य की उपस्थिति में ताल के जल पर विविध रंगों की छटा अद्वितीय होती है। उन रंगों को देखना तथा उसके चित्र लेना, इस प्रलोभन ने हमें तुरंत ही हमारे पैरों पर खड़ा कर दिया। हम भागकर कार में बैठ गए। हमारे गाइड के मुख पर उपहास मिश्रित हास्य उमड़ पड़ा। उसने हमें हमारे ऊनी मोजे, कान-टोपियाँ, दस्ताने, जैकेट आदि लाने के लिए कहा। उस समय वहां इतनी उष्णता थी कि उन वस्तुओं को साथ रखना तो दूर, उनके नाम सुनना भी दूभर था। किन्तु किसी पाठशाला के शिक्षक के समान वह अड़ा रहा, मानो कह रहा हो कि उन ऊनी वस्त्रों की अनुपस्थिति में वह हमें ताल तक लेकर नहीं जाएगा। मेरी छठी इन्द्रि मुझे कहने लगी कि किसी भी स्थल की स्थानीय जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उसे स्वीकार करने में ही विवेक है।

चंद्रताल तक पदयात्रा

चंद्रताल - लाहौल स्पीति हिमाचल प्रदेश
चंद्रताल – लाहौल स्पीति हिमाचल प्रदेश

गाड़ी द्वारा एक छोटे किन्तु तीव्र चढ़ाई युक्त यात्रा के पश्चात हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंचे जहां से हमें ताल तक, लगभग एक किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी थी। अब तक मैं ताल के अप्रतिम दर्शन के लिए अत्यंत अधीर हो चुकी थी। यद्यपि पैदल यात्रा का मार्ग सरल था, तथापि ऊंचाई के कारण श्वास लेने में कठिनाई अवश्य हो रही थी। ऐसी स्थिति में दीर्घ श्वास लेते हुए धीमी गति से अनवरत चलना ही सर्वोत्तम उपाय है। यही उपाय अपनाते हुए हमने यह यात्रा बिना कष्ट के पूर्ण कर ली।

चंद्रताल के मार्ग पर स्थित घाटियाँ विविध पुष्पों से भरी हुई थीं। एक गड़रिया उनके बीच बैठकर उनकी सुन्दरता का आनंद ले रहा था। उसकी कुछ भेड़ें नीचे जल के समीप विचरण कर रही थीं तथा कुछ पहाड़ी पर घास चर रही थीं।

चंद्रताल – स्पीति घाटी की अद्वितीय नीली झील

चांदी के कटोरे सा नील सरोवर - चंद्रताल
चांदी के कटोरे सा नील सरोवर – चंद्रताल

प्रथम दर्शन में चंद्रताल ऐसा प्रतीत हुआ जैसे नीले जल से भरा एक विशाल पात्र हो, जिसमें एक किनारे से जल भर रहा हो। फिरोजी नीले रंग का जल अत्यंत शांत था। इससे पूर्व फिरोजी नीले रंग के जल को देखना तो दूर, मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। झील के समीप पहुँचते हुए हमें तट के समीप का जल अधिक पारदर्शी प्रतीत होने लगा था तथा उसमें कुछ विप्लव भी दृष्टिगोचर हो रहा था। झील तक जाना अब एक सरल कार्य प्रतीत हो रहा था। मैं मंत्रमुग्ध सी झील की ओर खिंची चली जा रही थी। आज सोचूँ तो मुझे अपने पैरो की गति की रत्ती भर भी स्मृति नहीं है। मेरा हृदय एवं मन अपने समक्ष स्थित झील के परिदृश्यों से एकाकार हो रहा था। आप हिमालय की झीलों के जितने चाहे चित्र देख लें, किन्तु ऐसे अप्रतिम झील के समीप जाना तथा उन्हें प्रत्यक्ष निहारना एक अद्वितीय अनुभव है। कोई भी यंत्र-तंत्र हमें यह जादू नहीं दिखा सकता। इसका अनुभव इसके समक्ष प्रत्यक्ष रूप से जाने पर ही हो सकता है।

हम जिस पहाड़ी पर चल रहे थे, उस पर ही किंचित चढ़ाई कर हमने वायु के प्रवाह का अनुमान लिया। एक समतल धरती पर वायु में फड़फड़ाती रंगबिरंगी पताकाएं वायु प्रवाह की दिशा बता रही थीं। अन्यथा परिदृश्य के अन्य भागों में वायु शांत एवं स्थिर थी। ताल के तट पर कुछ विदेशी पर्यटकों ने तम्बू लगाया हुआ था। वे ताल के जल में प्रवेश करने का प्रयत्न कर रहे थे। जल अत्यंत शीतल होने के कारण वे जल में अधिक भीतर तक प्रवेश नहीं कर पाए। यह देख मुझे प्रसन्नता हुई। मेरी भावना तर्कसंगत नहीं थी किन्तु मैं नहीं चाहती थी कि वे जल में प्रवेश करें। मुझे यह कृति चंद्रताल के पावन जल के अपवित्रीकरण जैसा प्रतीत हो रहा था। मैं नहीं जानती कि मेरी ये भावना मेरे धार्मिक संस्कारों के कारण उत्पन्न हुई थी अथवा ताल का निर्मल जल दूषित के होने के भय का परिणाम था।

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झील के समीप पहुंचकर हम उसके किनारे चलने लगे। झील के अर्धचन्द्राकार का अनुमान लगाने लगे। आसपास से हिमनद की अनेक जलधाराओं का जल चंद्रताल में समाहित हो रहा था। हम झील के किनारे एक शैलमंच पर बैठकर परिदृश्यों का आनंद लेने लगे। वायु शीतल हो चली थी। मेघ पहाड़ियों की एक चोटी से दूसरी चोटी पर भ्रमण कर रहे थे जिनकी छाया जल के रंगों में विविधता उत्पन्न कर रही थी। ताल का जल इतना पारदर्शी था कि हम उसके तल पर स्थित चिकने पत्थरों की प्रत्येक परत स्पष्ट देख पा रहे थे। सम्पूर्ण ताल चिकने पत्थरों की परतों ने निर्मित विशाल पात्र सा प्रतीत हो रहा था।

चंद्रताल का विस्तार

हमारे परिदर्शक अर्थात् गाइड ने हमें बताया कि ताल की परिधी लगभग ४ किलोमीटर है। अनेक भ्रमणकर्ता, विशेषतः बौद्ध भिक्षुक ताल के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। मेरे हृदय में भी चंद्रताल की परिक्रमा करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई। किन्तु मुझे अपने शारीरिक स्वास्थ्य स्तर पर पूर्ण विश्वास नहीं हो पा रहा था। इतनी ऊँचाई पर ४ किलोमीटर चलना, वह भी उतार-चढ़ाव युक्त पथ पर। क्या मैं यह कर पाऊँगी? अचानक ही मेरे भीतर चमत्कार सा हुआ। मैंने निश्चय किया कि मैं यह परिक्रमा करूंगी।

चंद्रताल की परिक्रमा करते हुए
चंद्रताल की परिक्रमा करते हुए

कदाचित मुझे इस सत्य ने झकझोरा कि इस पावन चंद्रताल की परिक्रमा का उत्तम अवसर पुनः प्राप्त ना हो सकेगा। कदाचित हिमाचल के इस भाग में पुनः आने का अवसर मुझे कभी प्राप्त नहीं होगा। या मेरे भीतर के संस्कारों ने मुझे इस पवन ताल की परिक्रमा करने हेतु मुझे प्रेरित किया होगा। जो भी कारण रहा हो। यद्यपि मेरा निर्णय विवेकपूर्ण नहीं था, तथापि मैंने घोषणा की कि मैं यह परिक्रमा कर रही हूँ। मेरी सहयात्री अलका भी सहर्ष मुझसे सहमत हो गयी। हमें बताया गया कि इस परिक्रमा को पूर्ण करने में लगभग ९० से १२० मिनटों का समय लग जाता है। पहले ही संध्या के ४ बज चुके थे। फिर भी कोई शक्ति मुझे यह परिक्रमा करने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी।

चंद्रताल की परिक्रमा

हिमाच्छादित चोटियों से घिरा नील सरोवर
हिमाच्छादित चोटियों से घिरा नील सरोवर

एक संकरी पगडंडी पर दक्षिणावर्त चलते हुए हमने ताल की परिक्रमा आरम्भ की। कई स्थानों पर छोटे छोटे पत्थरों के ढेर बनाए हुए थे जिनके द्वारा बौद्ध आस्तिक अपने अनुयायियों के लिए पथ चिन्हित करते हैं। प्रत्येक परिक्रमाकर्ता अपनी ओर से उस ढेर में एक पत्थर का योगदान करता जाता है। मानो अपने अच्छे कर्मों का एक भाग प्रदान कर रहा हो। पत्थरों के इन ढेरों के समीप से जाते हुए यह आभास होता रहता है कि हम एक ज्ञात मार्ग पर चल रहे हैं। अपनी परिक्रमा के संज्ञान को चिन्हित करने के लिए एक पत्थर अपनी ओर से जोड़ना, यात्राओं के प्रलेखन की यह हिमालय पद्धति निःसंदेह अद्भुत है। मुझे बताया गया कि पत्थरों के ऐसे ढेर को ‘उवूस’ कहते हैं।

पत्थरों का संतुलन
पत्थरों का संतुलन

बलखाती पगडंडियों पर चलते हुए हमने ताल के उन भागों के भी दर्शन किये जो हमारे प्रारंभिक बिंदु से दृश्यमान नहीं थे। अनेक स्थानों पर रूक कर हमने कई चित्र भी लिए। किन्तु जो हमने प्रत्यक्ष अपने नेत्रों से देखा तथा अनुभव किया, उसकी तुलना किसी भी चित्र से नहीं की जा सकती। मैं अपने नेत्रों में सम्पूर्ण परिदृश्य को समाहित करने का प्रयत्न कर रही थी। मुझे पूर्ण आभास था कि यह दृश्य जन्म भर के लिए मेरे मन-मस्तिष्क में चिन्हित हो गया है। मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग हो गया है। जीवन में कुछ अनुभव ऐसे ही होते हैं। ताल के उस पार विस्तृत मैदानी क्षेत्र था जिसकी भूमि गत रात्रि की वर्षा के कारण नम थी।

गड़रिये एवं भेड़ों के प्रति उनका समर्पण

यहाँ पुनः मेरी भेंट उस गड़रिये से हुई। उसकी भेड़ें ताल के तट पर सावधानी से चर रही थीं। उसने हमें बताया कि अपनी भेड़ों को चराने के लिए वह कांगड़ा घाटी आया है। २०० भेड़ों को साथ लेकर हिमालय क्षेत्रों में सैकड़ों किलोमीटर चलकर यहाँ आना, वह भी केवल अपनी भेड़ों को चराने के लिए, यह आसान कार्य नहीं है। यही दिनचर्या यहाँ के साधारणतः सभी गड़रियों की होती होगी। इसके अतिरिक्त, वर्षा के महीनों में लाहौल एवं स्पीति घाटियों में भेड़ों के साथ भ्रमण करना! यह हमारी सोच से भी परे है। इसके लिए भेड़ों के प्रति उनका समर्पण ही उन्हें प्रेरित करता होगा। उस गड़रिये से चर्चा करने से पूर्व मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि ये इतनी लम्बी दूरी पार कर यहाँ आते हैं।

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अपने तम्बू में पहुँच कर मैंने इस पर विचार किया। गड़रियों से सम्बंधित, विश्व भर में प्रसिद्ध, अनेक लोककथाएँ मेरे मस्तिष्क में उभर गयीं। अपने समक्ष चलते भेड़ का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ते भेड़ों को देखते ही मुझे ‘भेड़ चाल’ इस कहावत का स्मरण हो आया। आज मैंने इसे प्रत्यक्ष अनुभव किया। एक के पीछे एक सैकड़ों भेड़ें, अपनी बुद्धि का प्रयोग किये बिना, अपने नेता का अनुसरण करती शांत चल रही थीं। ना कोई प्रश्न ना शंका। इस भेड़ चाल को देखना मेरे लिए एक रोचक अनुभव था।

चंद्रताल तक पैदल यात्रा के लिए उर्जा

सम्पूर्ण स्पीति घाटी में भ्रमण करते समय मेरा श्वास सहज नहीं था। किन्तु चंद्रताल की परिक्रमा करते समय मुझे श्वास लेने में तनिक भी कष्ट नहीं हो रहा था। चंद्रताल के चारों ओर परिक्रमा करते समय ना जाने कहाँ से मेरे पैरों में ऊर्जा आ गई थी। मेरे पैर स्वयं ही परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ रहे थे। उनमें किंचित भी तनाव नहीं था। शरीर के भार का आभास लुप्त हो गया था। मैं वायु के झोंके के समान बह रही थी, सहज, भारहीन तथा चारों ओर के विश्व से असम्बद्ध। अंततः मुझे यह उर्जा कहाँ से प्राप्त हो रही थी? कदाचित चंद्रताल ही मेरी इस उर्जा का स्त्रोत था।

४ किलोमीटर लम्बी परिक्रमा करने के पश्चात भी मुझे रत्ती भर भी थकान प्रतीत नहीं हो रही थी। मैं अपने शरीर एवं मन में उत्पन्न उर्जा से स्वयं ही आश्चर्यचकित थी। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी दैवी शक्ति ने मुझ पर ऊर्जा की वर्षा की हो। मुझे उस समय जो अनुभव हुआ, उसे मैं शब्दों में नहीं पिरो सकती हूँ। किन्तु उस अनुभव का आभास अब भी मेरी स्मृति में स्पष्ट है। अचंभित करने वाला तथ्य यह है कि जैसे ही हम परिक्रमा पूर्ण कर अपनी गाड़ी की ओर बढे, मुझे पुनः स्वयं पर गुरुत्वाकर्षण व भार का आभास होने लगा। गाड़ी तक पहुँचने के लिए मुझे शक्ति की आवश्यकता प्रतीत होने लगी थी। मुझे लगा मैं अपनी जादू की छड़ी पीछे चंद्रताल पर ही छोड़ आयी हूँ।

चंद्रताल की ऊँचाई समुद्र तल से लगभग ४३०० फीट है। यह हिमालय के मौल्किला एवं चंद्रभागा पर्वत श्रंखलाओं से घिरा हुआ है।

मेरे दर्शन का विडियो

अपने चंद्रताल भ्रमण का एक विडियो मैं आपके लिए लेकर आयी हूँ। इसे अवश्य देखिये।

महाकाव्यों से सम्बन्ध

भारतीय प्रायद्वीप के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों का रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों से सम्बन्ध होता है। अतः हिमालय की गोद में स्थित इस अद्भुत ताल का किसी महाकाव्य से सम्बन्ध ना हो, यह कैसे हो सकता है? ऐसी मान्यता है कि यह ताल उस स्थान पर स्थित है जहाँ इन्द्रदेव अपना रथ लेकर युधिष्ठिर को लेने आये थे। यह उस काल की कथा है जब पांडव ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर ने महाभारत की समाप्ति के पश्चात अपने भ्राताओं समेत स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया था। हिमालय की अनेक पर्वत श्रंखलायें ऐसी हैं जिनके विषय में वहां के निवासियों के दावे हैं कि उन पर चढ़कर ही पांडव भ्राता स्वर्ग पहुंचे थे। उनमें से कौन से दावे सत्य हैं तथा कौन से निराधार, इसके लिए पुराणों को पढ़ना होगा क्योंकि वहां उसका उल्लेख है। यद्यपि यह स्थान किसी भी दृष्टिकोण से स्वयं ही किसी स्वर्ग से न्यून नहीं था।

किवदंतियां

चंद्रताल के दर्शन उपरान्त हम तम्बुओं में वापिस आ गए। शीतल संध्या के समय, लहसुन का गर्म शोरबा पीते हुए हम पैरासोल तम्बुओं के स्वामी, श्री बिशन ठाकुर जी से चर्चा करने लगे। उन्होंने हमें हिम तेंदुओं के विषय में बताया जो इस स्थान में पाए जाते हैं। किन्तु इन दिनों वे कदाचित ही दृष्टिगोचर होते हैं। मैंने उनसे प्रश्न किया कि चंद्रताल का महाभारत से सम्बन्ध होने के अतिरिक्त, इस स्थान की अन्य स्थानिक किवदंतियाँ कौन सी हैं? स्मित हास्य मुख पर लेकर उन्होंने हमें चंद्रताल से सम्बंधित स्थानिक कथा सुनाई।

परियों की कथा

गड़रिया अपनी भेड़ों को निहारते हुए
गड़रिया अपनी भेड़ों को निहारते हुए

उन्होंने इस प्रकार कथा का आरम्भ किया, प्राचीन काल में एक गड़रिया था जो अपनी भेड़ें चराने के लिए उन्हें लेकर यहाँ आया था। यह सुनते ही कुछ क्षण पूर्व भेंट हुई गड़रिये की छवि मेरे नैनों के समक्ष तैरने लगी। उसकी छवि को समक्ष रखकर मैंने आगे की कथा सुनना आरम्भ किया। श्री बिशन ठाकुर जी ने आगे कहा कि उस गड़रिये की छड़ी इस ताल में गिर गयी। वह ताल के जल में अपनी छड़ी ढूँढ रहा था कि अचानक उसमें से वही छड़ी हाथ में लिए एक परी प्रकट हुई। उस गड़रिये ने ऐसी सुन्दर कन्या इससे पूर्व कभी देखी नहीं थी।

गड़रिये एवं परी को एक दूसरे से प्रेम हो गया। प्रत्येक वर्ष वह गड़रिया वहां आता था तथा ताल के समीप परी के संग प्रेम के कुछ क्षण व्यतीत करता था। गड़रिये के घर पर उसकी पत्नी एवं बच्चे थे। इसके पश्चात भी वह उस परी से विवाह करने के लिए इच्छुक था। परी ने भी विवाह के लिए स्वीकृति दे दी। किन्तु इसके लिए गड़रिये के समक्ष एक शर्त रखी कि वह उसके एवं उनके प्रेम सम्बन्ध के विषय में किसी भी अन्य से उल्लेख नहीं करेगा। यदि उसने परी एवं उनके प्रेम के विषय में किसी अन्य से कहा तो वह उससे हाथ धो बैठेगा। परी के प्रेम में आसक्त उस गड़रिये ने वह नियम मान लिया तथा परी से विवाह कर लिया। कुछ वर्ष उन्होंने अत्यंत प्रेम से व्यतीत किये।

चंद्रताल की परिक्रमा करता भेड़ों का झुण्ड
चंद्रताल की परिक्रमा करता भेड़ों का झुण्ड

एक दिवस उस गड़रिये का उसके घर में उसकी पत्नी से झगड़ा हो गया। क्रोध से वशीभूत गड़रिये ने अपनी पत्नी के समक्ष परी एवं उससे प्रेम के विषय में सब उगल दिया। गड़रिये को तुरंत ही अपनी भूल का आभास हुआ किन्तु उसके मुख से शब्द निकल चुके थे। अब वे वापिस नहीं लिए जा सकते थे। इसके फलस्वरूप, जब चंद्रताल जाने का समय आया तो गड़रिया वहां पहुंचा, किन्तु तब तक परी वहां से जा चुकी थी।

चंद्रताल के समक्ष जाकर गड़रिये ने अनेक मिन्नतें की किन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुईं। उसने हार नहीं मानी तथा वह अनवरत अपनी करनी के लिए क्षमा याचना करने लगा। अंततः वह जल से बाहर आयी। उसके हाथ में एक मृत शिशु था। किन्तु अब वह परी नहीं थी, अपितु एक सामान्य स्त्री थी। उसकी सुन्दरता लुप्त हो चुकी थी तथा उसके वस्त्र जीर्ण हो गए थे। वह एक प्रेतात्मा के सामान प्रतीत हो रही थी। गड़रिये ने उसे उसकी इस स्थिति का कारण पूछा तथा शिशु के विषय में भी जिज्ञासा व्यक्त की। परी ने कहा कि गड़रिये द्वारा सौगंध का पालन ना करने के कारण उसकी यह स्थिति हुई है। वह मृत शिशु भी गड़रिये का ही पुत्र था। गड़रिया दहाड़ मार कर रोने लगा। परी शिशु को उसके हाथों में सौंप कर ताल के जल में पुनः लुप्त हो गयी। ऐसा कहा जाता है कि उसी गड़रिये के वंशज अब भी उस परी से भेंट करने की आस में प्रत्येक वर्ष यहाँ आते हैं।

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मैं कल्पना करने लगी कि कुछ क्षण पूर्व जिस गड़रिये से भेंट हुई थी, वह भी कदाचित परी से मिलने की आस में वहां आया होगा।

रात्रि में तारामंडल के दर्शन

चंद्रताल का निर्मल जल
चंद्रताल का निर्मल जल

जो तम्बू दोपहर के समय जलती भट्टियों के समान उष्ण थे, वे ही तम्बू अब संध्या के पश्चात बर्फ से भरे संदूक के समान शीतल हो गए थे। हमने दाल, चावल एवं भाजी का सादा भोजन किया तथा अपने अपने तम्बुओं में दुबक गए। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उन तम्बुओं से बाहर निकलने की हमारी कोई मंशा शेष नहीं थी। किन्तु नैसर्गिक आवश्यकताओं पर कोई बंधन नहीं होता है। आज मैं भगवान का धन्यवाद करती हूँ कि उन आवश्यकताओं के चलते मुझे रात्रि में अपने तम्बू से बाहर निकलना पड़ा। उसी के कारण मुझे अपने जीवन का एक अभूतपूर्व अनुभव प्राप्त हुआ। मेरे समक्ष एक अप्रतिम दृश्य उपस्थित था। सम्पूर्ण आकाश एक चमचमाते शामियाने के समान प्रकाशमान था। दमकते तारे आकाश से नीचे तक लटकते हुए प्रतीत हो रहे थे। हमारे चारों ओर केवल वही दृश्य था। सभी तारे इतने चमचमाते हुए टिमटिमा रहे थे कि चंद्रमा की अनुपस्थिति का तनिक भी आभास नहीं था। नीचे धरती ठण्ड से जम रही थी किन्तु आकाश में सभी तारे उत्सव मना रहे थे तथा हमें भी उसमें सम्मिलित होने का न्योता दे रहे थे।

शहरों एवं मैदानी क्षेत्रों में ‘तारों की शोभायात्रा’ का यह विहंगम एवं अप्रतिम दृश्य असंभव है। तारों का वह उत्सव इतने समीप प्रतीत हो रहा था मानो उछलकर हम उन्हें छू लें। सम्पूर्ण आकाश में इतनी अधिक संख्या में, इतने समीप एवं इतने सघन तारे देखना तो दूर, कल्पना से भी परे था, मानो अन्य आकाशगंगा से भी तारों का समूह यहाँ आ गया हो। मेरी इस यात्रा का वह भी एक दृश्य है जिसने मेरे मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ दी है। मैं उस अद्भुत दृश्य में खो गयी। मैंने उसके चित्र लेना सही नहीं जाना। वह दृश्य इतना विशेष था कि उसे चित्र में समेटने की चेष्टा करना भी मुझे स्वीकार नहीं था। ऐसे दृश्यों को कोई भी चित्रों द्वारा न्याय नहीं कर सकता है।

विदाई

अगले दिन प्रातः अल्पाहार करने के पश्चात हमारी विदाई का समय हो गया। अब इस मंत्रमुग्ध करते स्थल को तथा स्पीति की अप्रतिम घाटियों को अंतिम अभिवादन करने का समय आ गया था। अब हमें रोहतांग दर्रे की ओर से वापिस मनाली के लिए प्रस्थान करना था। चंद्रताल की यात्रा ने मेरे जीवन में ऐसे अप्रतिम क्षणों का योगदान किया है जिन्हें मैं आजन्म भूल नहीं सकती। रात्रि के आकाश में तारों की हुड़दंग मेरे लिए एक अविस्मरणीय स्वप्न के समान हैं। वे क्षण किसी जादुई अनुभूति से कम नहीं हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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