मुंबई स्थित कोलाबा के गिरजाघर – इतिहास का एक पन्ना ये भी

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कोलाबा के गिरजाघर मुझे देखने को मिले जब डेक्कन ओडिसी से वापस लौटते हुए मेरे पास मुंबई के दर्शनीय स्थलों की यात्रा के लिये एक दिन था।  मैं हमारे परिवार के मित्रों की आभारी हूँ जिन्होंने मुझे कोलाबा में आने और उन के साथ दिन बिताने के लिये आमंत्रित किया था।  इससे पहले मुझे  कभी भी दिन बिताने के लिये किसी के भी घर कोलाबा में रहने का अवसर प्राप्त नही हुआ था।  मुझे बताया गया था कि मुंबई में रहने के लिये कोलाबा से अच्छी कोई जगह नहीं है।  यह सच है ऐसा मैं कह सकती हूँ।

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कोलाबा में आप मुंबई शहर की नोक पर होते हैं।  वहाँ से आपको समुंदर के किनारे गगनचुंबी इमारतें निहार सकते हैं।  अपनी बालकॉनी से समुंद्री जहाजों को गुजरते हुए भी देख सकते हैं।  किसी भी प्रकार का प्रदुषण यहाँ से हो कर नहीं जाता है।  मुंबई नगरी यहाँ से कुछ ही दूरी पर हैं और उस दूरी को हम पैदल चल कर भी पूरी कर सकते हैं।

अफ़गान चर्च – कोलाबा के गिरजाघर

अफ़ग़ान चर्च - कोलाबा के गिरजाघर
अफ़ग़ान चर्च – कोलाबा मुंबई

जब मैं कोलाबा जा रही थी तो रास्ते मैं मुझे एक बहुत खुबसूरत चर्च दिखा जो अफ़गान चर्च के नाम से जाना जाता है। उस संकरे ऊँचे भवन की बनावट देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह उन्नीसवी सदी का है। कोलाबा के समुंदर की हवा से अपने आप को तरोताज़ा करके मैं अफ़गान चर्च के भ्रमण के लिये निकली। मुझे पूर्णतया विश्वास था कि गिरजाघर बंद होगा क्योंकी उस दिन रविवार नहीं था। मैंने पहले ही उस कमान सी ऊंची असाधारण इमारत को देख लिया था और बस अब उसके बारे में जानना शेष था। इसके बारे में जानने की मेरी इच्छा उस असाधारण इमारत को देखकर ही हुई थी।

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ये ही वो इमारत है जो नाविकों को इस ओर धरती होने का संकेत देती थी। दूसरी चीज़ जिसे मैंने देखा वो एक बहुत बड़ा आर्कनुमा दरवाज़ा था जो राजसी प्रतीत होता है हाँलाकि वह अच्छी अवस्था मैं नही है।

अफ़ग़ान गिरिजाघर का इतिहास

अफ़ग़ान चर्च का मुख्य द्वार
अफ़ग़ान चर्च का मुख्य द्वार

मैंने चारो ओर देखा और एक नोटिस बोर्ड से मालूम पड़ा कि इस गिरजाघर की नीव सन् १८४७ में पड़ी थी और १८५८ में यह पूरा हुआ, जबकि इसका शिखर १८६५ में पूरा हुआ।  १९९५ वह सन् था जब इस चर्च को एतिहासिक भवन घोषित किया गया।

वहाँ पर एक व्यक्ति बैठा हुआ था जो बड़े ध्यान से हमें देख रहा था। जब उस व्यक्ति से हमनें पूछा कि क्या हम इस चर्च को अंदर जाकर देख सकते हैं तो बिना कुछ कहे उस व्यक्ति ने चर्च का दरवाज़ा हमारे लिये खोल दिया।

गोथिक  शैली

अफ़ग़ान चर्च कोलाबा मुंबई
अफ़ग़ान चर्च कोलाबा मुंबई

गोथिक शैली से बना यह गिरजाघर अंदर से बहुत खुबसूरत है। ऊँची मेहराबयुक्त छतें और दीवारों पर  रंगीन कांच की खिड़कियाँ गिरिजाघर के समय को दर्शा रही थी। क्यूंकि वहाँ पर केवल हम दो ही लोग थे इसलिए यह एक सपने जैसा लग रहा था और मुझे पूरा समय मिला अपने ढंग से इस गिरजाघर को देखने और उसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मालूम करने के लिये| दीवार पर संगमरमर  के पत्थर पर उस चर्च के बारे मैं कुछ जानकारियां अंकित थीं। जानकारियों के आधार से  पता चलता है कि इस चर्च का निर्माण असंख्य सैनिकों की याद में किया गया था जो १८३८ में सिंध और अफ़गान युद्ध में अपने जीवन को खो चुके थे। इसलिए यह गिरिजाघर लोकप्रिय रूप से अफ़गान चर्च के नाम से जाना जाता है हांलाकि अधिकारिक नाम संत जॉन दा एवंगेलिस्ट है।

ध्यान देने योग्य बात

 अफ़ग़ान गिरजाघर के भीतर
अफ़ग़ान गिरजाघर के भीतर

इस समय तक आते आते जिस व्यक्ति ने हमारे लिये इस कोलाबा के गिरजाघर का दरवाज़ा खोला था उसके चेहरे के हावभाव अच्छे नही लग रहे थे।  मैने उससे इसका कारण पूछा तो वह बोला कि चर्च के अंदर आप जूते लेकर क्यूँ आये हो।  मैंने कहा कि मैंने कभी सोचा ही नहीं की आप लोग चर्च में जूते चप्पल लेकर नहीँ जाते और यहाँ कहीं लिखा भी नहीं है कि अंदर जूते और चप्पल लेकर जाना वर्जित है। अगर ऐसा है तो आपको पहले बताना चाहिए था।  वह बोला इससे कोई मतलब नही है कि अंदर जूते चप्पल  लेकर जाने की अनुमति है या नही प्रश्न यह उठता है की क्या आप अपने मंदिर में भी जूते चप्पल लेकर जाते हैं जिस पर मेरा उत्तर न में था।  वह फिर बोला अगर आप अपने भगवन के घर जूते चप्पल लेकर नही जाते तो क्या आपको दूसरों के भगवन के घर जूते चप्पल लेकर जाना चाहिए?

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उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।  क्या आप भगवान् के घर को उनके धर्म के हिसाब से मानते हैं या आप भगवान् को एक भगवान के रूप में मानते हैं।  मैंने कुछ तस्वीरें खींची।  मैं इस बात से खुश थी कि मुंबई में मैंने एक और एतिहासिक भवन को देखा।  ख़ुशी ख़ुशी मैं चर्च से बहार निकली एक और चर्च को देखने की अभिलाषा लिये जो कोलाबा मैं ही स्थित है| अब भी बहार आते हुए मैं उस खुबसूरत  मीनार को बार बार पीछे मूड़़ कर देख रही थी।

कैथेड्रल ऑफ़ होली नेम – कोलाबा के गिरजाघर

कैथेड्रल ऑफ़ होली नेम - कोलाबा मुंबई
कैथेड्रल ऑफ़ होली नेम – कोलाबा मुंबई

कोलाबा में एक शताब्दी पुराना यह रोमन कैथोलिक बड़ा गिरजाघर है जो अफ़ग़ान चर्च से बहुत ज़्यादा दूर नही है। बाहर की तरफ से यह पास बनी हुई अन्य भवनों की तरह ही दिखता है जो ब्रिटिश द्वारा विशिष्ट गोथिक वास्तुकला का अद्भुत वरदान है। सकरी सड़क और वहाँ लगे कुछ वृक्ष हमें उस गिरजाघर को देखने की अनुमति प्रदान नही करते। लेकिन अगर आप अपनी गर्दन को थोड़ा भी घुमाएगें तो आप उस इमारत को जो सलेटी पत्थर और सफ़ेद रंग से सीमांकित है, देख सकते हैं और साथ ही आप उसके शिखर को भी पूर्ण रूप से देख सकते हैं।

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गिरजाघर के भित्तिचित्र
गिरजाघर के भित्तिचित्र

यह गिरजाघर भी अपने आप में एक इतिहास रखता है। किसी और गिरजाघर के बदले में इस गिरजाघर का निर्माण करवाया गया था जो कहीं और स्थित था।  जबकि यह एक पुराने पुर्तगाली चर्च के बदले में जो इसके बिल्कुल पास था बनवाया गया था।  औपचारिक रूप से इस चर्च का निर्माण बीसवी सदी के आरंभिक वर्षों में शरू हुआ और सन् १९०५ में इसका निर्माण पूरा हुआ। १९६४ में इस चर्च को बड़े गिरजाघर की उपाधि मिली। सन् १९९८ में इस चर्च को एतिहासिक घोषित कर दिया गया। मुंबई में यह चर्च प्रधान पादरी का स्थान है।

कोलाबा के गिरजाघर की विशेषताएं

कोलाबा के गिरजाघर
कोलाबा के गिरजाघर में कांच का काम 

इस कोलाबा के गिरजाघर की सबसे सुंदर विशेषता उसकी छतों और दीवारों पर बनी आकर्षण चित्रकारी है| वास्तुकला के आधार पर इस चर्च का मुख्य हॉल लम्बा और संकरा है और उसकी छातें गुम्बद्कर हैं।  एक बहुत प्रभावशाली वेदी, रंगीन कांच से बनी तीन खिड़कियाँ हैं और अग्रभाग पर एक बहुत बड़ा झूमर टंगा हुआ है। छतें गाढ़े पीले की हैं जिस पर क्राइस्ट के जीवन से जुडी झलकियाँ प्रस्तुत की गयी है। सफ़ेद रेखाएं पूरी छत पर एक रूपरेखा प्रदान करती है और सुंदर नमूना बनाते हुए उनका अनुभाग करती है। नीचे मेहराबों में एक हरे रंग की प्रष्ठभूमि पर फ्रेस्कोस है जबकि रिक्त स्थान पीले रंग में और गुलाबी रंग में ज्यामितिक डिजाईन है। उज्वल लेकिन सुखद रंगों का पूरा प्रयोग इस जगह को जीवंत और आकर्षक बनाता है। दीवारों पर लगी मूर्तियाँ इस गिरजाघर की सुन्दरता को और भी आकर्षित बनाती है।

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पॉप द्वारा दिया गया उपहार

कैथेड्रल ऑफ़ होली नेम - कोलाबा
प्रार्थना स्थल

एक सफ़ेद स्टोल जिस पर सुनहेरी कढ़ाई की हुई है इस चर्च को पॉप जॉन २२ द्वारा भेट स्वरुप मिला है उसको यहाँ बड़े ही अच्छे ढंग से दर्शया गया है। जब मै इस चर्च को देख रही थी तो कुछ महिलाएं चर्च के अंदर बैठकर बातें कर रही थी जबकि कुछ लोग शांत भाव से पूजा मे विलीन थे।  इन भवनों का भ्रमण करना एक प्रकार से इतिहास की सैर है क्योकि इतना समय बीत जाने पर भी यह अभी तक जीवित हैं।  और यह वह स्थान है जहाँ आज भी प्रतिदिन प्रार्थनाएं होती हैं, बावजूद इसके की उनको कौन कहता है और किसके लिये।

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अगर आप मुंबई घुमने जाये तो कोलाबा के गिरजाघर इत्यादि दर्शनीय स्थ्लों के साथ देखना न भूलें।

अनुवाद – शालिनी गुप्ता

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