कूच बिहार – इस नगरी के विषय में मैंने सर्वप्रथम उस समय जाना जब मैं जयपुर की महारानी गायत्री देवी से संबंधित एक लेख पढ़ रही थी। महारानी गायत्री देवी के पिता कूच बिहार के राजा थे। जब मैं यह लेख पढ़ रही थी उस समय गूगल अस्तित्व में नहीं था। मैंने कूच बिहार को आज के बिहार का एक भाग समझ लिया था। किन्तु मैं लक्ष्य से अधिक पृथक भी नहीं थी। कूच बिहार पश्चिम बंगाल का एक भाग होते हुए उस स्थान पर स्थित है जहाँ पश्चिम बंगाल असम से जुड़ता है। यह जिला भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों को भारत के अन्य भागों से जोड़ता है। इसके आकार के कारण इस क्षेत्र को मुर्गी की गर्दन भी कहा जाता है। थल मार्ग द्वारा भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में पहुँचने के लिए इस जिले से ही जाना पड़ता है।
मैंने कूच बिहार के राजाओं के बारे में भी अनेक कथाएं सुन रखी थीं जैसे की उन्होंने चौपड़ के खेल में अनेक बार अपनी जमीनें दांव पर लगा दी थीं। क्या इससे आपको महाभारत की कथा का स्मरण हो आया? मेरे मस्तिष्क में तो महाभारत की कथा अवश्य कौंध गई थी।
इस वर्ष के आरंभ में मैं जब सिक्किम एवं बंगाल की यात्रा पर थी, उस समय मैंने कूच बिहार नगरी का भी भ्रमण किया था। भूटान एवं बांग्लादेश के मध्य में स्थित भारत का यह क्षेत्र उत्कृष्ट महलों के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ की स्त्रियाँ भी अत्यंत सौंदर्यशील मानी जाती हैं।
कूच बिहार का इतिहास
कूच बिहार का इतिहास हमें प्रागैतिहासिक काल में ले जाती है। रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। यह नगर प्राग्ज्योतिष साम्राज्य के कामरूप क्षेत्र का एक भाग था जो उस समय आज के गुवाहाटी तक फैला हुआ था। गुप्त साम्राज्य काल के स्तंभों पर ४ थी. शताब्दी के कामरूप का उल्लेख किया गया है। ज्ञात ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार उस समय यहाँ गुप्त राजवंश एवं पाल क्षत्रिय राजवंश का साम्राज्य था। १५ वी. शताब्दी के अंत में अल्प समय के लिए यहाँ मुसलमान शासकों का भी आधिपत्य था। उस समय इसे कामता कहा जाता था। इसके पश्चात राजबोंग्शी अथवा कोच राजवंश के राजाओं ने इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य स्थापित करना आरंभ किया था। भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात भी इस वंश के राजा विद्यमान थे।
सन् १८६३ में कूच बिहार के सिंहासन पर राजा नृपेन्द्र नारायण आरूढ़ हुए जो उस समय नन्हे शिशु थे। आज जिस कूच बिहार को हम देखते हैं, उसकी रचना उन्ही के कार्यकाल में कार्यान्वित हुई थी। उनकी सर्वप्रसिद्ध धरोहर कूच बिहार का महल है. यूरोपीय छवि लिया हुआ यह महल मेरे अनुमान से भारतीय महलों में से सर्वाधिक भव्य महल है।
महारानी गायत्री देवी राजा नृपेन्द्र नारायण की पोती थी।
भूटान द्वारा आक्रमण के पश्चात १८ वीं. सदी के मध्य में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक संधि पर समझौता किया गया था। इस संधि के पश्चात इस क्षेत्र में शांति स्थापित हुई। सन् १९४९ में कूच बिहार रियासत का भारत देश में विलय हुआ तथा सन् १९५० में यह पश्चिम बंगाल राज्य का एक जिला बना।
कूच बिहार के विस्तृत इतिहास एवं वंशावली के विषय में अधिक जानकारी NIC वेबस्थल से प्राप्त करें।
कूच बिहार के दर्शनीय स्थल
कूच बिहार का महल – राजबाड़ी
सन् १८८७ में निर्मित लाल रंग का यह अप्रतिम महल राजपरिवार का निवासस्थान है। इसे स्थानीय लोग राजबाड़ी भी कहते हैं। प्राचीन धरोहर से परिपूर्ण कूच बिहार नगरी में स्थित यह महल अत्यंत दर्शनीय है। लाल रंग के विशाल एवं विस्तीर्ण महल को घेरते व्यापक विस्तृत बगीचे अत्यंत मनभावन परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं जिन्हे देख कर मुख से अनायास ही रमणीय, सुघड़, सुडौल एवं मनोहर जैसे अनेक विशेषताएं बाहर आने लगती हैं। इसकी ४०० फीट की लंबाई तब तक ध्यान में नहीं आती जब तक आप इसके समीप ना आ जाएँ। प्रवेश द्वार से यह एक छोटा महल प्रतीत होता है। बगीचों के बीच से सैर करते हुए जब आप छोटे तालाबों के समीप से आगे बढ़ेंगे तब आपको महल के वास्तविक आकार का अनुमान लगेगा।
कूच बिहार महल को विक्टर जुबिली महल भी कहते हैं।
महल की संरचना का दाहिना भाग बाएं भाग से अधिक चौड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि समरूपता के सिद्धांत को जान-बूझकर अंगीकार नहीं किया है। संरचना के शीर्ष पर धातु का एक गुंबद शोभायमान है। यह गुंबद एक बेलनाकार संरचना के ऊपर स्थापित है जिस पर कुछ तोरण-युक्त झरोखे हैं। यह गुंबद कूच बिहार नगरी के किसी भी कोने से दृश्यमान है। कूच बिहार में आप कहीं भी खो नहीं सकते। क्षितिज में चारों ओर दृष्टि दौड़ाएं तथा इस महल का गुंबद खोजें। उस ओर जाने पर आप निश्चित ही महल में पहुँच जाएंगे। यद्यपि यह महल केवल दो तलों का है तथापि यह अपेक्षाकृत ऊंचा प्रतीत होता है। कदाचित इसका कारण इसका ऊंचा गुंबद ही है।
कूच बिहार महल की संकल्पना तथा प्रेरणा इंग्लैंड के बकिंघम महल से प्राप्त की गई है।
संग्रहालय
महल के भीतर एक संग्रहालय है। मैं यहाँ शुक्रवार के दिन आई थी। मेरा भाग्य देखिए। यह संग्रहालय प्रत्येक शुक्रवार के दिन बंद रहता है। मैं संग्रहालय के दर्शन नहीं कर पायी। किन्तु मुझे यहाँ जानकारी मिली कि संग्रहालय की अधिकांश प्रदर्शित वस्तुओं की चोरी हो गई है तथा वे अब सदा के लिए अनुपलब्ध हैं।
मैंने इस महल के कुछ छायाचित्र सोशल मीडिया पर डाले थे। उन्हे मेरे कुछ मित्रों ने देखा जिन्होंने अपने बालपन में इस महल का अवलोकन किया था। महल के नवीन एवं सुंदर अवतार को देख उन्हे अत्यंत आश्चर्य हुआ। इसका कुछ श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को भी जाता है जिन के ऊपर इस महल के रखरखाव का उत्तरदायित्व है।
मैं संग्रहालय के तो दर्शन नहीं कर पायी। किन्तु जब मैंने पीतल धातु से बनी द्वार की यह नक्काशी युक्त घुंडी देखी तो मैंने महल के भीतरी साजसज्जा एवं कलाकृतियों का सहज ही अनुमान लगा लिया।
हम महल के चारों ओर भ्रमण करने लगे। इसका पृष्ठभाग भी अग्रभाग जैसा ही आकर्षक प्रतीत हुआ।
महल की भित्तियों के समक्ष एक चाटवाले ने अपनी रेहड़ी बड़ी ही चतुराई से लगायी हुई थी। महल के चारों ओर भ्रमण करते करते हमें भूख एवं तृष्णा का आभास होने लगता है। आपकी सेवा में तत्पर, समक्ष ही उसकी रेहड़ी तैनात थी। इससे उत्तम मूलभूत सुविधा क्या हो सकती है।
कूच बिहार के मंदिर
भारत की एक प्राचीन नगरी की मंदिर विहीन कल्पना असंभव है। भारत के प्राचीन नगरों की सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण का उत्तरदायित्व सदैव उनके मंदिरों ने ही निभाया है। कूच बिहार के इस ऐतिहासिक नगरी में भी अनेक मंदिर हैं। मैंने जिन मंदिरों के दर्शन किए उनके विषय में यहाँ जानकारी दे रही हूँ।
मदन मोहन बाड़ी
शुद्ध श्वेत रंग में रंगे मदन मोहन मंदिर की वास्तु अत्यंत विशेष है। इसके मध्य में एक गोलाकार गुंबद है। एक सीधी पंक्ति में स्थित तीन विभिन्न कक्षों के भीतर तीन भिन्न मंदिर हैं। यह सम्पूर्ण मंदिर संकुल एक विस्तृत एवं उत्तम रखरखाव वाले बाग के मध्य स्थित है। जब आप बाग के नरम मुलायम घास पर सैर करते हुए चारों ओर दृष्टि डाले तो आपको अनेक प्रकार के शिल्प दृष्टिगोचर होंगें। मंदिर के प्रवेशद्वार की संरचना किसी दुर्ग के समान प्रतीत होती है। श्वेत रंग में रंगी होने के कारण यह संरचना अत्यंत मनमोहक प्रतीत होती है।
मदन मोहन मंदिर के प्रमुख देव भगवान कृष्ण हैं। पीत वस्त्र धारण किए एवं बंसी बजाते कृष्ण की पीतल में बनी तथा पीले गेंदे के पुष्पों से सुशोभित मनमोहक मूर्ति आकर्षण का केंद्र है। पूर्व काल में कूच बिहार का राजपरिवार मंदिर के सभी अनुष्ठान आयोजित करता था। मुझे बताया गया कि राजपरिवार का कोई भी सदस्य अब यहाँ निवास नहीं करता। इसीलिए अब ये सभी अनुष्ठान जिलाध्यक्ष करते हैं।
हम यहाँ प्रातःकाल के पश्चात पहुंचे थे। हमने देखा कि भक्तगण गलियारे में बैठकर भजन एवं कीर्तन कर रहे थे।
दाहिनी ओर का मंदिर माँ काली को समर्पित है जिन्हे मैंने सदैव से बंगाल से जोड़कर देखा था। तीसरे मंदिर में भवानी देवी एवं तारा देवी की छवियाँ हैं। महिषासुरमर्दिनी को समर्पित एक अन्य लघु मंदिर भी है।
मंदिर के समक्ष एक छोटा जलकुंड है जिसके चारों ओर तोरणयुक्त मंडप है।
मदन मोहन मंदिर का निर्माण भी राजा नृपेन्द्र नारायण ने करवाया था।
कार्तिक पूर्णिमा के समय इस मंदिर में रास यात्रा का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यह उत्सव दीपावली से १५ दिवस पश्चात आता है। इसका अर्थ है कि यह उत्सव उसी समय मनाया जाता है जब सम्पूर्ण भारत में देव दीपावली अथवा त्रिपुरारी पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है।
बनेश्वर शिव मंदिर
नगर के किंचित उत्तरी भाग में एक जलाशय के समीप बनेश्वर शिव मंदिर स्थित है।
श्वेत रंग के इस सादे से मंदिर के भीतर एक प्राचीन शिवलिंग है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह शिवलिंग धरातल से लगभग १०-१२ फीट नीचे स्थित है। अतः मंदिर के भीतर प्रवेश करने के पश्चात कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरना पड़ता है। तभी शिवलिंग के दर्शन होते हैं। मेरा अनुमान है कि समय तथा आधुनिकता के साथ धरातल के अन्य भागों की सतह ऊपर उठती चली गई तथा शिवलिंग अपनी स्थापित स्थान पर अबाधित स्थित है।
बनेश्वर मंदिर के समीप स्थित जलाशय में बड़ी संख्या में कछुए हैं। मंदिर के समीप भी हमने कई कछुओं को स्वच्छंद विचरण करते देखा।
सागर दीघी
नगर के मध्य में सागर दीघी नामक एक ताल अथवा जलाशय है। नगर के यंत्र-तंत्र के सार का अनुभव प्राप्त करने के लिए हम इस जलाशय के चारों ओर सैर करने लगे। हमने जो कुछ देखा व अनुभव किया वह कुछ इस प्रकार है:
औपनिवेशिक काल की कुछ भवनों को अब सरकारी कार्यालयों में परिवर्तित कर दिया गया है। उनमें से अधिकतर भवन लाल रंग में रंगे हैं जो औपनिवेशिक कलकत्ता का स्मरण कराते हैं।
नियमित अंतराल पर बंगाल के प्रसिद्ध पुरुषों की प्रतिमाएं हैं। उनके नाम बंगाली भाषा में लिखे हुए थे। अतः गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर को छोड़कर मैं अन्य किसी को भी पहचान नहीं पायी।
आधुनिक कूच बिहार के शिल्पकार राजा नृपेन्द्र नारायण की भी एक प्रतिमा है जो सागर दीघी के एक ओर स्थित है।
सागर दीघी – यह शांत चौकोर जलाशय अत्यंत मृदुल एवं निर्मल है। इसमें घाटों के समान सीढ़ियाँ हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो सम्पूर्ण कूच बिहार नगरी का जीवन इसी जलाशय के चारों ओर ही गतिमान है। इस नगरी में घटते सर्व घटनाओं का यह एक मूक दर्शक है। इसके ऊपर उड़ते नभचर, जल के किनारों पर तैरते बतख तथा छाँव प्रदान करते वृक्ष हमें एक दूसरे विश्व में पहुंचा देते हैं। इन सबका दर्शन अत्यंत ही आनंददायी हैं।
पच्चीकारी अथवा सरैमिक टाइल के छोटे छोटे टुकड़ों को भित्तियों पर जड़कर सुंदर भित्तिचित्र बनाए गए हैं। एक भित्तिचित्र पर नगर के सभी तत्वों को रम्यता से प्रदर्शित किया गया है। एक अन्य भित्तिचित्र में बंगाल के बाउल गायकों को दिखाया गया है।
यात्रा सुझाव
- कूच बिहार देश के अधिकतर प्रमुख नगरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।
- मदन मोहन मंदिर में दर्शन करने के लिए प्रवेश शुल्क लिया जाता है। कैमरा के लिए भी शुल्क लिया जाता है। यहाँ के पुजारी अत्यंत असभ्य एवं शिष्टाचारविहीन प्रतीत हो सकते हैं।
- नगर में भ्रमण करने के लिए आप रिक्शा अथवा टैक्सी की सेवा ले सकते हैं। हमने जलदापारा से टैक्सी ली तथा कूच बिहार की एक-दिवसीय यात्रा कर वापिस लौट आए।
- नगर के अधिकांश प्रमुख स्थलों का अवलोकन आप एक दिन में पूर्ण कर सकते हैं।
- वापिस आते समय आप घने चिलपट वन के भीतर से गाड़ी चलाते हुए आ सकते हैं।
कूच बिहार मुझे प्रकृति, संस्कृति, धरोहर एवं आध्यात्मिकता का सर्वोत्तम सम्मिश्रण प्रतीत हुआ।
wahhh yaar very nice and beautiful articles, deep knowledge I appreciate
अनुराधा जी, कूच बिहार का बहुत ही सुंदर वर्णन…सुंदर छायाचित्र आलेख को चार चांद लगाते हैं । भव्य कूच बिहार महल वास्तव में बेजोड़ कारीगरी का सुंदर नमूना हैं ! आलेख,कूच बिहार के प्राचीन इतिहास तथा यहां के विभिन्न दर्शनीय स्थलों की रोचक जानकारी प्रदान करता है । जयपुर की महारानी गायत्री देवी का संबंध कूच बिहार से होने की नई जानकारी प्राप्त हुई ।
आलेख से, असम-मेघालय यात्रा के दौरान खायी हुई झालमुडी का चटपटा स्वाद पुन: याद आ गया ।
धन्यवाद !
धन्यवाद प्रदीप जी।