आजकल – दिल्ली पे लिखी एक कविता

0
4995

स्वामी श्रध्हानंद मूर्ति - पुरानी दिल्ली

आजकल तुम पाओगे मुझे

दिल्ली की गलिओं में खाक छानते हुए
इधर उधर कूचों में झाँकते हुए
सदियों पुराने चबूतरों पे बैठे हुए

इस दरगाह से उस मज़ार जाते हुए
यहाँ वहाँ बिखरे मक़बरों को ताकते हुए
देखते, कल और कल को एक साथ गुज़रते हुए
और कुछ नये इतिहासों को बनते हुए

कभी किसी कोने में बैठे देखा
बच्चों को बेफ़िक्र खेलते हुए
सुबह सवेरे बाज़ारों को जागते हुए
क़िलो पे सूरज को चढ़ते और ढलते हुए

फूलवलों को खुश्बू हार में पिरोते हुए
हलवाई को केसरी जलेबी तल्ते हुए
और फिर फिरनी से मक्खी उड़ाते हुए
फ़ुर्सत में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए

देखा पुजारी को कैमरे की तरफ मुस्काते हुए
एक डॉक्टर को अनगिनत पक्षियों को पालते हुए
क़व्वाल की नज़र को अगली ज़ेब तलाशते हुए
आम आदमी को जीवन से मृत्यु की और जाते हुए

देखा कुछ लोगों को रुक रुक कर भागते हुए
तो कुछ को भागते भागते थककर रुकते हुए
कभी एक दूसरे से टकराते हुए
कभी एक दूरसे को संभालते हुए

गिरते लुढ़कते दुनिया को चलते हुए
बोझ ढोते फिर भी हंसते हुए
थॅंक कर बैठते और फिर उठते हुए
शोर गुल के बीच खुद से बतियाते हुए

मैने खुद को देखा इतिहास पढ़ते हुए
खंडरों में धरोहर ढूँढते हुए
कल की कड़ी से आज का छोर जोड़ते हुए
इस शहर को समझने की कोशिश करते हुए

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here