एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जिसमें गाय को हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग माना जाता है।
जब जब हमारे परिवार में गौमाता का प्रसूतीकरण होता था, तब तब मैंने अपनी माता एवं दादीजी को इस परंपरा का पालन करते हुए देखा है। बछड़ा दूध पी ले, उसके पश्चात बचा हुआ दूध एकत्र कर उससे घी बनाया जाता था तथा उस घी को एक पृथक बर्नी में सुरक्षित रखा जाता था। उस बर्नी के घी को खाने की अनुमति किसी को नहीं होती थी। मैंने अपनी दादीजी से इसका कारण जानने का प्रयास किया। उन्होंने मुझे बताया कि गौमाता के प्रथम दूध से निर्मित घी को सेरोलसर सरोवर की संरक्षिका देवी बूढ़ी नागिन के लिए पृथक रखा जाता है।
बूढ़ी नागिन की कथा
बूढ़ी नागिन के नाम से प्रसिद्ध देवी को नवदुर्गा का अवतार माना जाता है। बूढ़ी नागिन हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में सेराज क्षेत्र में रहती थी। विवाह के पश्चात वे सुकेत क्षेत्र में चली गईं जो अब हिमाचल के करसोग जिले में है।
एक समय बूढ़ी नागिन उनके क्षेत्र से बहती सतलज नदी के तट पर गयी। अपने घर से चलने से पूर्व उन्होंने अपनी माता से कहा था कि उनके लौट आने से पूर्व वे उनकी संतानों को निद्रा से ना जगायें। उस समय उनकी संतानें रसोईघर में रखी एक टोकरी में भूसे के ऊपर निद्रामग्न थे। आपको यह पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा किन्तु उस काल में पालने का प्रचलन नहीं था। माता अपनी संतान को टोकरी में भूसे के ऊपर ही सुलाती थी।
जब दीर्घ काल तक भी बूढ़ी नागिन की संतानें निद्रा से जागी नहीं तो उनकी माता चिंतित हो गयी। बूढ़ी नागिन के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने उन संतानों के ऊपर से कंबल हटाया। कंबल हटाते ही वे भौंचकी रह गईं। टोकरी में ५-६ सर्प थे। सर्पों को देखते ही भयवश उन्होंने चूल्हे की राख उन पर बिखेर दी। सभी सर्प इधर-उधर भाग गये।
जब बूढ़ी नागिन वापिस आयी, उन्हे उनकी संतानें कहीं नहीं दिखीं। संतानों से बिछड़ जाने पर वो अत्यंत दुखी हो गयी और उन्होंने गाँव का त्याग कर दिया।
बूढ़ी नागिन की स्मृति में भुईरी गाँव स्थित उनके निवासगृह में उनका एक लघु शैल विग्रह रखा गया है तथा उसकी पूजा आराधना की जाती है। बूढ़ी नागिन के छोटे से गृह का ना तो पुनर्निर्माण किया जा सकता है, ना ही उसका पुनरुद्धार किया जा सकता है।
बूढ़ी नागिन अपने गृह का त्याग कर सेरोलसर सरोवर पहुँची जो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में बंजर घाटी में जालोरी दर्रे के समीप स्थित है।
नाग आराधना
ऐसी मान्यता है कि बूढ़ी नागिन नाग देवताओं की माता है। इस क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की मान्यताओं के अनुसार नाग का संबंध भगवान शिव से है। प्रत्येक नाग का स्वयं का क्षेत्र एवं गाँव है जिनका नाम उन्ही पर रखा गया है, जैसे चौवासी नाग, हुंगरू नाग तथा झाकड़ नाग।
इन गांवों में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है जिनकी वास्तुशैली हिमाचली है। इनमें काष्ठ का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। काष्ठ पर अप्रतिम उत्कीर्णन होते हैं। प्रत्येक वर्ष मंदिरों के पुरोहित तथा गाँववासी इन मंदिरों का भ्रमण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नाग देवता भी इन सभी मंदिरों में भ्रमण करते हैं। भक्तगण नागों को विविध वस्तुएं अर्पण करते हैं। स्थानीय कलाकार हिमाचली शैली में लोकनृत्य भी करते हैं जिसे नटी कहते हैं।
सेरोलसर सरोवर एक तृण आच्छादित सुंदर भूभाग के मध्य स्थित है। यहाँ से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है। आप यहाँ से चारों ओर दृष्टिगोचर पर्वत शिखरों का भी अवलोकन कर सकते हैं।
सेरोलसर सरोवर की आभी चिड़िया
स्थानीय लोककथा के अनुसार बूढ़ी नागिन अपने गाँव का त्याग कर सेरोलसर आ गयी तथा एक विशाल शिला पर बैठ गयी। यहाँ ६० योगिनियाँ थीं जिन्हे इंद्रदेव की पौरी कहते हैं। कुछ योगिनियाँ मंडी में शिकारी देवी के पास जा रही थीं तो कुछ जालोरी जोत जा रही थीं। उन्होंने बूढ़ी नागिन को वहाँ बैठे देखा। योगिनियाँ उनके पास गयीं तथा उन्हे खेल खेलने के लिए आमंत्रित किया।
उन्हे लगा कि नागिन बूढ़ी है इसलिए उन्हे आसानी से परास्त किया जा सकता है। खेल से पूर्व कुछ नियम निर्धारित किये गये। यदि खेल में बूढ़ी नागिन विजयी होती हैं तो वे इस स्थान को अपने पावन स्थल के रूप में स्वीकार करेंगी। यदि योगिनियाँ विजयी होती हैं तो बूढ़ी नागिन यह स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाएंगी।
क्रीडा के मध्य एक योगिनी ने छल किया। यह देख बूढ़ी नागिन क्रोधित हो उठी। उन्होंने उसे श्राप दिया कि वो सदा के लिए एक छोटा पक्षी बन जाए। बूढ़ी नागिन ने उस पक्षी को सेरोलसर की स्वच्छता करते रहने का कार्य सौंप दिया। उस पक्षी को आभी चिड़िया कहते हैं।
बूढ़ी नागिन उस खेल में विजयी हुई तथा सदा के लिए यहीं बस गयी। बूढ़ी नागिन ने जब अपने निवास एवं गाँव का त्याग किया था, वे अपने साथ एक कलश ले कर चली थीं। सेरोलसर में भ्रमण करते समय उनके हाथ से वह कलश छूट गया तथा उससे निकले जल से यहाँ एक सरोवर की उत्पत्ति हुई। वही सेरोलसर सरोवर बना।
जिस शिला पर बूढ़ी नागिन बैठे हुई थी, उस शिला को काला पत्थर कहते हैं।
पांडव कथा
पांडव अपने वनवास काल में जालोरी दर्रे पर पहुँचने के पश्चात सेरोलसर सरोवर आये थे। उन्होंने सरोवर के निकट धान की खेती आरंभ की। ऐसा कहा जाता है कि बूढ़ी नागिन ने सरोवर से प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिए तथा पुनः सरोवर में अन्तर्धान हो गयी।
पांडवों ने सरोवर से बूढ़ी नागिन का विग्रह निकालकर उसे सरोवर के निकट स्थापित किया। सरोवर के तट पर उनके लिए एक मंदिर का निर्माण किया। कालांतर में इस मंदिर के नवीनीकरण के चार आवर्तन हुए। मंदिर की वर्तमान संरचना चौथे नवीनीकरण का परिणाम है।
बूढ़ी नागिन मंदिर में शुद्ध घी का अर्पण
मंडी एवं कुल्लू क्षेत्रों के सभी नाग देवताओं की माता, बूढ़ी नागिन को गायों से अत्यंत प्रेम था। इसलिए भक्तगण जब भी बूढ़ी नागिन के दर्शन के लिए उनके मंदिर जाते हैं तब अपने संग उनके लिए गाय के दूध का घी भी ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि आप इस मंदिर में घी का अर्पण करें तो वह घी सीधे सरोवर के मध्य पहुँच जाता है जहाँ बूढ़ी नागिन निवास करती हैं।
भक्तगण मंदिर में कई किलोग्राम घी का अर्पण करते हैं। प्रत्येक वर्ष, विशेष अवसरों पर इस क्षेत्र के सभी नाग बूढ़ी नागिन से भेंट करने यहाँ अवश्य आते हैं। इन विशेष अवसरों की घोषणा यहाँ के स्थानीय पुरोहित करते हैं।
शीत ऋतु में भीषण हिमपात के कारण यह मंदिर बंद रहता है।
और पढ़ें: महान हिमालय पर १० सर्वोत्तम पुस्तकें
सेरोलसर सरोवर के गूढ़ रहस्य
सेरोलसर सरोवर की गहराई किसी को ज्ञात नहीं है।
सेरोलसर सरोवर से संबंधित एक अन्य रहस्यमयी कथा भी है। एक समय एक ब्राह्मण अपने परिवार के संग सरोवर के आसपास पदभ्रमण कर रहा था। अकस्मात ही वह फिसल कर सरोवर में गिर गया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे बचाने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे असफल रहे। उन्हे ब्राह्मण के बिना ही लौटना पड़ा। महद आश्चर्य कि तीन वर्षों पश्चात वह ब्राह्मण सरोवर से पुनः अपने निवास लौट आया। बूढ़ी नागिन ने उसे शपथबद्ध किया था कि वह उनके विषय में किसी से नहीं कहेगा।
ब्राह्मण के परिवारजन उनसे अनवरत प्रश्न करते रहे, ‘तुम कहाँ गये थे?’, ‘तुम बचे कैसे?’, ‘तुम्हें किसने बचाया?’ आदि। अंत में ब्राह्मण के धैर्य का बांध टूट गया तथा उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त का बखान कर दिया। उसने बताया कि जैसे ही वह सरोवर में गिरा, वह सीधे सरोवर के तल में जा पहुँचा। वहाँ बूढ़ी नागिन ने उसकी रक्षा की। उसने यह भी जानकारी दी कि सरोवर के तल पर बूढ़ी नागिन अपने स्वर्ण महल में निवास करती है। यह भी बताया कि उसने वहाँ दूध के अनेक पात्र देखे। बूढ़ी नागिन वहाँ दही भी बिलोती है।
जैसे ही ब्राह्मण के मुख से इस घटना का सत्य प्रकट हुआ, उसकी मृत्यु हो गयी। इसके पश्चात सरोवर पर गाँववासियों का ताँता लग गया। सभी गाँववासियों को कुछ ना कुछ रहस्यमयी एवं भीतिदायक अनुभव हुए। इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला गया कि कदाचित बूढ़ी नागिन इस सरोवर को मानवी क्रियाकलापों से अछूता रखना चाहती हैं। कदाचित वे इस सरोवर को अनवरत स्वच्छ रखना चाहती हैं। मैंने देखा कि वास्तव में यह सरोवर अत्यंत स्वच्छ है। मैंने एक पत्ता भी सरोवर के जल में नहीं देखा।
और पढ़ें: भारत के १२ सर्वाधिक सुंदर सरोवर
जालोरी दर्रा
करसोग का सुकेत क्षेत्र कुल्लू जिले में बंजर घाटी के जालोरी दर्रे से लगा हुआ है। कुल्लू एवं शिमला जिलों को जोड़ते अनेक दर्रों में से जालोरी भी एक मुख्य दर्रा है। इस दर्रे की रचना शिमला से कुल्लू जाने के लिए अंग्रेजों ने की थी। यह दर्रा कुल्लू जिले में स्थित है।
जलोरी दर्रा समुद्र तल से लगभग २००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। भीषण हिमपात के कारण शीत ऋतु में यह दर्रा बंद रहता है। कुल्लू जिले में स्थित बंजर घाटी एक सुंदर पर्यटन स्थल भी है जो अपारंपरिक पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है।
कुल्लू जिला तीन प्रमुख घाटियों में विभाजित है, तीर्थन, बंजर एवं सैंज घाटी। जालोरी दर्रा एक सुंदर मार्ग है जो एक ओर जीभी गाँव की ओर जाता है तो दूसरी ओर अन्नी गाँव जाता है। यह देवदार के सघन मनमोहक वन से घिरा हुआ है।
जालोरी दर्रे के दूसरी ओर स्थित कुल्लू का अन्नी क्षेत्र भी लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह सेब के उद्यानों के लिए प्रसिद्ध है। सेबों की फसल आने पर यह क्षेत्र अत्यंत मनमोहक व आकर्षक हो जाता है। आप यहाँ सेबों को सीधे वृक्षों से तोड़कर खाने का भी आनंद ले सकते हैं।
सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा
क्या आप अपने दैनंदिनी नगरी दिनचर्या से उकता गये हैं? आपके लिए सर्वोत्तम आनंद होगा, प्रकृति से जुड़ना। इसीलिए मेरा आग्रह है कि आप हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में पदभ्रमण करें तथा स्वच्छ पर्यावरण का आनंद उठायें। जालोरी दर्रे में स्थित सेरोलसर सरोवर तक ५ किलोमीटर की पदयात्रा एक नितांत रोमांचक तथा आनंददायी अनुभव है।
यह एक सरल पदयात्रा है। देवदार तथा वटवृक्षों से आच्छादित वनों के मध्य से प्रगत यह एक सीधा मार्ग है जिस पर चलकर आप सरोवर तक पहुँचते हैं। चारों ओर स्थित सुंदर पर्वत एवं उनके मध्य होते सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्य आपको आनंदविभोर कर देंगे।
प्रत्येक ऋतु में यह मार्ग भिन्न भिन्न आनंद प्रदान करता है। विशेषतः ग्रीष्म ऋतु में यह मार्ग विविध रंगों से परिपूर्ण होता है। वृक्षों के तने चटक रंगों के सेवार से ढँक जाते हैं। आप यहाँ दुर्लभ प्रजातियों के पुष्प, वनस्पतियाँ, औषधियों के पौधे व वृक्ष आदि देख सकते हैं। ऊँचे ऊँचे देवदार के वृक्ष मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
यात्रा सुझाव
- जालोरी दर्रे के निकट आश्रय के लिए अनेक होमस्टे अथवा घर हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होते हैं। जलोरी दर्रे के मैदानी क्षेत्रों में तंबू-निवासों की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।
- जालोरी दर्रा शिमला से कुल्लू जाते मार्ग पर स्थित है। यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँचा जा सकता है।
- सेरोलसर सरोवर की यात्रा करने के लिए वसंत ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम हैं।
- सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा कुल ५ किलोमीटर की है।
- पदयात्रा का स्तर ‘सरल’ श्रेणी के अंतर्गत है।
- शिमला से जलोरी दर्रे की दूरी लगभग १५८ किलोमीटर है जिसके लिए सड़क मार्ग द्वारा चौपहिया वाहन से सामान्यतः ५ घंटे लगते हैं।
- जालोरी दर्रे से निकटतम गाँव जीभी है जो १२ किलोमीटर दूर स्थित है।
IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह यात्रा संस्करण पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।
अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे