हिमाचल का नाम सुनते ही हमारे समक्ष मनमोहक प्राकृतिक परिदृश्य, बर्फ से आच्छादित पर्वत श्रंखलायें, लाल चटक सेब, लकड़ी एवं शिलाओं से निर्मित भवन उभर कर आ जाते हैं। अनेक पर्यटक स्वच्छ वायु, शीत वातावरण तथा रोमांचक क्रीड़ाओं के लिए भी हिमाचल का भ्रमण करते हैं। यही सर्वश्रेष्ठ हिमाचली स्मारिकाएं हैं। हिमाचल को देव भूमि भी कहा जाता है।
यूँ तो हिमाचल के पर्यटक तन व मन की प्रफुल्लता, स्वास्थ्य तथा सकारात्मकता का भण्डार तो साथ लाते ही हैं, साथ ही हिमाचल की अनेक ऐसी वस्तुएं भी साथ लाते हैं जो वहां की पहचान हैं, लोकप्रिय हैं तथा साथ लाने में आसान भी हैं। यहाँ मैं हिमाचल के प्रसिद्ध वस्तुओं का उल्लेख करने का प्रयास कर रही हूँ जिन्हें आप अपनी आगामी हिमाचल यात्रा से स्मारिका के रूप में ला सकते हैं।
शिमला मनाली की हिमाचली स्मारिकायें
हिमाचली टोपी
यदि आप किसी व्यक्ति को देखें जिसने अपने सर पर ऐसी टोपी पहनी हुई है जिसके सामने एक चमकीली पट्टी हो, तो वह व्यक्ति अवश्य हिमाचली होगा। हिमाचली टोपियों की विशेषता है कि उसे स्त्री तथा पुरुष, दोनों धारण कर सकते हैं।
यह हिमाचली टोपी हिमाचल यात्रा से अपने साथ लाने के लिए एक सुन्दर वस्तु है। यह आपको हिमाचल के किसी भी पर्यटन बिंदु अथवा बाजार में प्राप्त हो जायेगी। इनका मूल्य भी अधिक नहीं है। आप अपने परिजन व मित्रों के लिए कई टोपियाँ क्रय कर सकते हैं।
हिमाचल के विभिन्न क्षेत्रों की टोपियों में किंचित स्थानीय विशेषताओं के साथ भिन्नता आ जाती है। प्रत्येक क्षेत्र की टोपियों की मूल रूपरेखा समान ही होती है, किन्तु सूक्ष्म भिन्नताओं के साथ इनके नामों में भी परिवर्तन आ जाते हैं, जैसे किन्नौरी, कुल्लूवी, बुशहरी तथा लाहौली टोपियाँ।
मेरे यात्रा संस्करण, Shimla Manali Road trip से आप इन टोपियों के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
किन्नौरी टोपियाँ – इस टोपी के अग्र भाग पर चटक हरे रंग की पट्टी होती है जिसकी किनारी लाल होती है।
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बुशहरी टोपियाँ – ये टोपियाँ किन्नौरी टोपियों के सामान ही होती हैं किन्तु अग्र भाग में सुनहरे रंग की पट्टी होती है।
कुल्लुवी टोपियाँ – इन टोपियों के अग्र भाग की पट्टी पर रंगबिरंगी ज्यामितीय आकृतियाँ होती है।
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लाहौली टोपियाँ – ये टोपियाँ कुल्लुवी टोपियों के सामान होती हैं किन्तु अपेक्षाकृत कम अलंकृत होती हैं।
सादे श्वेत रंग की भी एक टोपी होती है जिसे मलाणा टोपी कहते हैं। एक अन्य प्रकार की टोपी चटक लाल रंग की होती है जो अत्यंत उजली एवं प्रफुल्लित प्रतीत होती है।
स्थानिक हिमाचली इन टोपियों को उत्सवों एवं विशेष आयोजनों में अवश्य धारण करते हैं। यह एक ऐसी हिमाचली परंपरा है जिसका आनंद आप हिमाचल के बाहर, अपने निवास स्थलों में भी ले सकते हैं।
कुल्लू शाल
हिमाचल की जलवायु अत्यंत शीत प्रकृति की है। अतः यहाँ ऊनी वस्त्रों की अधिक आवश्यकता होती है। हिमाचल में ऐसे पशु भी बहुतायत में उपलब्ध हैं जिनसे हमें ऊन प्राप्त होता है। अतः इसमें अचरज नहीं कि हिमाचल में ऊन की बुनाई का कार्य एक कलात्मक व्यवसाय के रूप में विकसित हुआ है।
यहाँ की ऊनी शाल पर सादी किन्तु अत्यंत सुरुचिपूर्ण आकृतियाँ होती हैं। स्त्री एवं पुरुष दोनों ही शाल का उपयोग करते हैं। किन्तु उन में किंचित भिन्नता होती है। पुरुषों की शाल को लोई अथवा पट्टू कहते हैं जो लम्बाई में किंचित अधिक होती है तथा उसकी रूपरेखा भी साधारण होती है।
वहीं, स्त्री की शाल पर रंगबिरंगी ज्यामितीय आकृतियाँ होती हैं। साधारणतया शाल के मूल रंग हलके होते हैं किन्तु उनकी किनारों पर की गयी रंगबिरंगी बुनाई उन्हें उजला एवं चटक बनाती हैं। कभी कभी शाल पर पुष्पाकृतियों की भी बुनाई की जाती है।
ऊन के प्रकार तथा आकृतियों की सूक्ष्मता व रंगों के आधार पर विभिन्न मूल्यों की शालें उपलब्ध हैं।
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आप धोरू शाल भी अवश्य देखें। यह भी एक ऊनी शाल है जिस की किनारियों पर सघन कढ़ाई की जाती है। यह शाल लम्बी होती है जो कन्धों से एड़ियों तक पहुँचती है।
चंबा रुमाल
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, चंबा रुमालों का मूल स्थान हिमाचल का चंबा क्षेत्र है। रेशमी अथवा महीन सूती वस्त्र के टुकड़े पर हाथों से अप्रतिम कढ़ाई की जाती है। इन रुमालों पर कढ़ी आकृतियाँ सामान्यतः किसी पौराणिक कथा पर आधारित होती है। आप इन पर रामायण तथा महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्यों के दृश्य देख सकते हैं। हिमाचल में प्रचलित सूक्ष्म कारीगरी का यह उत्तम प्रतिबिम्ब है।
ऐसा माना जाता है कि कढ़ाई किया हुआ प्राचीनतम ज्ञात रुमाल गुरु नानकजी जी के लिए उनकी बहिन बेबे नानकी ने बनाया था। इसका प्रयोग प्रायः उपहार स्वरूप देने के लिए अथवा उत्सवों एवं विवाह इत्यादि समारोहों में भेंट वस्तुओं को ढंकने के लिए किया जाता है।
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चंबा रुमाल को भौगोलिक संकेत का मान प्राप्त है जो इसे दृढ़ता से इसके मूल स्थान से बांधता है।
चित्रकारी – हिमाचली स्मारिकाएं
हिमाचल अपने पहाड़ी सूक्ष्म-चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। भारत के सभी प्रमुख संग्रहालयों में आप इन उत्कृष्ट चित्रकारियों का संग्रह देख सकते हैं। कांगड़ा, चंबा, गुलेर तथा बसोली की सूक्ष्म-चित्रकारी अपनी उत्कृष्टता के लिए लोकप्रिय हैं। प्राचीन काल में सम्पूर्ण रामायण अथवा महाभारत को इस सूक्ष्म चित्रकला द्वारा चित्रफलकों पर चित्रित किया जाता रहा है।
वास्तविक चित्रकृति को ढूंढना जितना कठिन है, उसे क्रय करना उससे भी अधिक कष्टकर है। इन वास्तविक अप्रतिम चित्रों के मूल्य अत्यधिक होते हैं। अतः वर्तमान में अनेक नवोदित कलाकार इन चित्रों की पुनर्रचना कर रहे हैं। अनेक कलाकार प्राचीन शैली का प्रयोग कर नवीन विषयों पर भी ऐसी चित्रकारी कर रहे हैं। आप मनाली एवं शिमला के बाजारों में इन चित्रकारियों को देख सकते हैं।
थांका बौद्ध चित्र हैं जिनकी अपनी एक विशेष शैली होती है। आप इन्हें लद्दाख से लेकर नेपाल, सिक्किम तथा भूटान तक देख सकते हैं जहां बौद्ध धर्म का प्रमुखता से पालम किया जाता है। हिमाचल में भी लाहौल एवं स्पिति जैसे क्षेत्र हैं जो विशेष रूप से बौद्ध धर्म बहुल क्षेत्र हैं। अतः इन क्षेत्रों में भी थांका चित्रीकरण किया जाता है।
इन चित्रों में बौद्ध देवों, बुद्ध की जीवनी तथा मंडल जैसे अनेक बौद्ध चिन्हों को चित्रित किया जाता है। ये अधिकतर अनुष्ठानिक चित्र हैं जिनका प्रयोग अनेक बौद्ध उत्सवों में किया जाता है। बौद्ध मठों में विशाल थांका चित्रों को विशेष रूप से उत्सवों के समय बाहर निकालकर उनका प्रदर्शन व अर्चना की जाती है जिसके पश्चात इन्हें लपेटकर सुरक्षित रख दिया जाता है। लेह के बौद्ध मठ में आप इन विशाल चित्रों के लपेटने की विशेष प्रक्रिया भी देख सकते हैं।
आप हिमाचल के सभी लोकप्रिय पर्यटन स्थलों से इन चित्रों को क्रय कर सकते हैं।
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दोरजे
दोरजे का उपयोग मुख्यतः ध्यान प्रक्रिया में किया जाता है। यह उस संगम का प्रतीक है जो हमारे दैनन्दिनी अनुभवों एवं उस अनुभव के मध्य होता है, जो हमें प्रकृति एवं अपने चारों ओर उपस्थित सभी जड़ व चेतन से एकाकार होकर जीवन व्यतीत करने से प्राप्त होता है। यह तांत्रिक बौद्ध परम्पराओं का प्रमुख यन्त्र है।
जहां तक हिमाचली स्मारिकाओं का प्रश्न है, आप इन्हें स्वयं के लिए ले सकते हैं तथा परिजनों को उपहार स्वरूप भी दे सकते हैं। पुरानी मनाली में खरीददारी करते समय आप इन्हें ले सकते हैं।
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हिमाचली आभूषण
भारत के प्रत्येक क्षेत्र के आभूषणों की अपनी अनूठी विशेषताएँ होती हैं। हिमाचल में आप चाँदी के बने अनेक प्रकार के आभूषण देखेंगे।
हिमाचल के कुछ विशेष आभूषण इस प्रकार हैं:
छाक – यह चाँदी का एक आभूषण है जिसे वे अपने सिर पर धारण करते हैं।
छीरी – यह माँगटीका के सामान दिखने वाला एक आभूषण होता है।
झुमका – कानों में धारण करने वाले इस विशेष प्रकार के आभूषण को आप सम्पूर्ण हिमाचल में देख सकते हैं।
चंदरहार – गले का हार, जिसमें लटकन भी होता है तथा जिसे विशेष आयोजनों में पहना जाता है।
टोके – कलाइयों में पहने जाने वाला आभूषण जिसे कभी नहीं उतारा जाता है।
पारी – यह पाँव के पायल का एक प्रकार है।
खाने में रूचि रखने वालों के लिये हिमाचली स्मारिकाएं
सेब – यदि आपको ताजे सेबों का आनंद उठाना हो तो आप अगस्त-सितम्बर के आसपास हिमाचल की यात्रा नियोजित करें। आप वृक्षों से लटकते सेबों को अपने हाथों से तोड़कर खा सकते हैं। हिमाचली सेब की गाथा पर लिखा हमारा संस्करण अवश्य पढ़ें।
सेबों के अतिरिक्त आप सेब की कैंडी, जैम, रस तथा गूदा भी क्रय कर सकते हैं।
नाशपाती – हिमाचल का यह दूसरा प्रसिद्ध फल है। यदि आप अगस्त-सितम्बर के आसपास हिमाचल की यात्रा करेंगे तब सेबों के साथ नाशपाती का भी आनंद उठा सकेंगे।
चिलगोजा – यह एक सूखा मेवा है जिसे हिमाचल के कुछ भागों में उगाया जाता है।
यह सूखा मेवा चीड़ के वृक्ष का फल है। पोषक तत्वों से भरपूर यह मेवा कुरकुरा तथा स्वाद में अखरोट के सामान होता है। चिलगोजों की ३० से अधिक विभिन्न प्रजातियाँ उपलब्ध हैं किन्तु उनमें से केवल ३ प्रकार के चिलगोजे ही मानव के लिए सुरक्षित हैं। चिलगोजा के दानों के ऊपर कड़ा छिलका होता है जिसे खोलकर ही दानों को खाया जाता है।
इन्हें क्रय करने के लिए सर्वोत्तम स्थान है, रिकांग पिओ का स्थानीय बाजार।
आलूबुखारे, खुरमा तथा काफल इत्यादि जैसे विशेष मौसमी फल भी इस क्षेत्र में उगते हैं जो अन्य स्थानों में कदापि उपलब्ध नहीं होते। अतः इनका स्वाद अवश्य चखें।
हिमाचली सिद्दू
सिद्दू एक विशेष हिमाचली व्यंजन है जो खाने की थाली को चार चाँद लगा देता है। इसे अत्यंत परिश्रम से बनाया जाता है। आटा में नमक, घी एवं यीस्ट मिलकर उसे खमीर उत्पन्न होने तक रखा जाता है। तत्पश्चात उनके गोले बनाकर भाप में पकाया जाता है। कई बार इन गोलों के भीतर भरावन भी भरी जाती है।
देसी घी डालकर इन्हें परोसा जाता है। यह एक प्रकार का भाप में पकाया हुआ डबल रोटी है। हिमाचल में आये पर्यटकों को हिमाचली खाने का स्वाद देने के लिए यह स्थानिक भोजनालयों में बहुधा उपलब्ध होता है।
काष्ठ कलाकृतियाँ – हिमाचली स्मारिकाएं
पहाड़ों का भ्रमण तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक आप वहां के कलाकारों द्वारा उत्कीर्णित काष्ठ कलाकृतियाँ ना देखें। शिमला में तो एक सम्पूर्ण बाजार है, लक्कड़ बाजार, जिसका अर्थ है, लकड़ी की वस्तुओं का बाजार।
यहाँ लकड़ी के खिलौने, चलने की छड़ी, शिमला के परिदृश्य, चाबी का गुच्छा, कलम दानी, रसोईघर की वस्तुएं, परोसने की थाली तथा अनेक अन्य प्रदर्शन की वस्तुएं उपलब्ध हैं। छड़ियाँ बनाने के लिए रौंस वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जो ऊपरी शिमला के बागी एवं खाद्रला क्षेत्र में पाया जाता है।
शिमला में हिमाचली स्मारिकाएं कहाँ से लें?
हिमाचल एम्पोरियम
शिमला में माल रोड पर हिमाचल एम्पोरियम स्थित है। यहाँ आप कांगड़ा रेशमी वस्त्र एवं किन्नौरी शाल के अनेक प्रकार देख सकते हैं। इस एम्पोरियम में स्थानिक रूप से निर्मित ऊनी वस्त्र, मिटटी के पात्र तथा आभूषण भी उपलब्ध हैं। इस भण्डार का संचालन हिमाचल प्रदेश की सरकार करती है। अतः यहाँ उपलब्ध कलाकृतियों की गुणवत्ता सत्यापित होती हैं। इसके अतिरिक्त इन वस्तुओं के मूल्य भी सब प्रकार के ग्राहकों के लिए वहन करने योग्य हैं।
लक्कड़ बाजार
यह एक सुन्दर बाजार है जहां अनेक प्रकार की काष्ठ कलाकृतियाँ उपलब्ध हैं। यहाँ से आप लकड़ी के खिलौने, कलम, चाबी के गुच्छे तथा अन्य स्मारिका वस्तुएं ले सकते हैं। इन दुकानों में आप भारी मोल-भाव कर सकते हैं। यह बाजार क्राइस्ट चर्च के बाईं ओर स्थित है। यह शिमला के पर्यटकों का प्रिय बाजार है।
लवी मेला में हिमाचली स्मारिकाएं
हिमाचल का प्रसिद्ध लवी मेला रामपुर में प्रत्येक वर्ष, कार्तिक मास में भरता है जो अंग्रेजी नवम्बर मास के आसपास पड़ता है। सदियों से यह मेला बुशहर रियासत एवं तिब्बत के मध्य व्यापार में सहायता करता रहा है।
मैदानी क्षेत्रों के लोग एवं व्यापारी गण इस मेले में तिब्बत से आयातित काष्ठ वस्तुएं, सूखे मेवे तथा जडी-बूटियाँ क्रय करते थे। उसकी एवज में उन्हें धान, वस्त्र तथा बर्तन इत्यादि विक्रय किये जाते थे। अतः यह एक प्राचीन मेला है जिसका सम्बन्ध वस्तुओं के क्रय-विक्रय से है। ‘नाटी नृत्य’ तथा अन्य अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम इस मेले के प्रमुख आकर्षण हैं।
महासू यात्रा
शिमला-कोटखाई मार्ग से ६ किलोमीटर दूर महासू गाँव है। इस गाँव के समीप, प्रत्येक बैशाख मास के तीसरे मंगलवार के दिन से यह दो-दिवसीय मेला लगता है। यह भी एक प्राचीन मेला है। यह मेला दुर्गा देवी मंदिर के समक्ष लगता है जहां बड़ी संख्या में लोग आते है। यहाँ भी ‘नाटी नृत्य’ तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। धनुर्विद्या सम्बंधित क्रीड़ाएं इस मेले के प्रमुख आकर्षण व मनोरंजन हैं। पूर्णतः हिमाचली स्मारिकाएं खरीदने के लिए यह एक उत्तम स्थान है।
आपकी प्रिय हिमाचली स्मारिकाएं कौन सी है? क्या आपने उन्हें हिमाचल के किसी स्थान से क्रय किया है? टिप्पणी खंड में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।
अमेजोन के सहयोगी के रूप में इस संस्करण में उल्लेखित वस्तुओं की अमेजोन द्वारा क्रय पर IndiTales को उसका अंश दिया जाता है।