गुरुवायुर मंदिर – देवों के देस केरल में भगवान कृष्ण का वास

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श्री विष्णु के अवतार, गुरुवायुरप्पन को समर्पित यह मंदिर दक्षिणी राज्य केरल के गुरुवायुर नगरी में स्थित है। इस नगरी के अत्यंत लोकप्रिय मंदिरों में से एक, इस मंदिर का नाम भी नगरी के नाम पर ही है। इस मंदिर में गुरुवायुरप्पन को बाल कृष्ण के रूप में पूजा जाता है। गुरुवायुर को बहुधा भूलोक वैकुंठ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है धरती पर विष्णु का पवित्र निवास। मंदिर का कार्यभार गुरुवायुर देवासम के ऊपर है जो मंदिर के सर्व कार्यकलापों का निर्देशन करती है। गुरुवायुर केरल के त्रिशूर जिले की एक सम्पन्न वसाहत है। यह त्रिशूर नगर से लगभग २९ किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित है।

भगवान कृष्ण के निवास गुरुवायुर मंदिर की दंत कथाएं

तीन शब्दों के संयोजन से गुरुवायुर शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। गुरु बृहस्पति के लिए गुरु, वायु देव से वायु तथा ऊर जिसका मलयालम भाषा में अर्थ होता है स्थान। ऐसा माना जाता है कि कलयुग के आरंभ में भगवान कृष्ण ने इस मूर्ति की स्थापना द्वारका में की थी। कालांतर में एक भयंकर बाढ़ में यह मूर्ति बह गई थी जिसे वायु की सहायता से बृहस्पति ने बचा लिया था। पुनः स्थापना हेतु स्थल खोजते वे केरल पहुंचे जहाँ भगवान शिव एवं माता पार्वती ने उन्हे उसी स्थान पर स्थापना की आज्ञा दी। गुरु बृहस्पति एवं वायु देव ने मूर्ति का अभिषेक कर उसका देवत्वारोपण किया। भगवान ने वरदान दिया कि गुरु बृहस्पति एवं वायु देव द्वारा स्थापना होने के कारण वह स्थान गुरुवायुर कहलाएगा।

गुरुवायुर मंदिर - केरल
गुरुवायुर मंदिर – केरल

नारद पुराण में उल्लेख किया गया है कि अर्जुन के पड़पोते जनमेजय के पिता परिक्षित को श्राप था कि उनकी मृत्यु सर्प दंश के कारण होगी। अंततः उनकी मृत्यु तक्षक नामक सर्पराज के दंश से ही हुई थी। प्रतिशोध स्वरूप जनमेजय ने विश्व के सभी सर्पों को मारने के लिए नागदाह यज्ञ करवाया जिसमें उसने मंत्रों द्वारा सैकड़ों नागों का आवाहन कर उन्हे अग्नि में समर्पित कर दिया था। किन्तु नागराज वासुकि की प्रेरणा एवं ब्राह्मण आस्तीक की तपस्या के कारण तक्षक एवं अन्य सर्प जीवित बच पाए थे। चूंकि जनमेजय ने सर्पों की हत्या की थी, वह कुष्ट रोग से ग्रसित हो गया था। गुरुवायुर मंदिर में पूजा-अनुष्ठान करने के पश्चात उसे अपने कुष्ठ रोग से मुक्ति मिली थी।

तमिल साहित्य कोकसन्देसम् में भी इस स्थान का क्षणिक उल्लेख किया गया है। उसमें इस स्थान पर श्री विष्णु के नौवें अवतार श्री कृष्ण के रूप में पूजे जाने का उल्लेख है। यहाँ श्री कृष्ण को गुरुवायुरप्पन कहा गया है जो वास्तव में कृष्ण का बाल रूप है।

गुरुवायुर मंदिर का इतिहास

श्री गुरुवायुरप्पन
श्री गुरुवायुरप्पन

सन् १७१६ में डच लोगों ने मंदिर पर आक्रमण कर इसे अग्नि में भस्म कर दिया था। सन् १७४७ में इसका पुनर्निर्माण किया गया। हैदर अली ने भी कालीकट एवं गुरुवायुर पर आक्रमण किया था किन्तु उसने मंदिर को हानि नहीं पहुंचाई थी। किन्तु उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने इस मंदिर को लूटा एवं निर्ममता से पूरे परिसर को अग्नि में झोंक दिया। किन्तु यथासमय पर आयी वर्षा ने मंदिर का बचाव किया। मंदिर की मूल प्रतिमा को भक्तों ने सही समय पर भूमि के भीतर छुपा दिया था। इस प्रकार प्रतिमा को बचा लिया गया था। कालांतर में मंदिर का पुनः निर्माण एवं नवीनीकरण किया गया। २० वीं. सदी तक मंदिर प्रशासन ने अनेक सुधार कार्य भी प्रतिपादित किए।

श्री गुरुवायुरप्पन की दैनिक पूजा-अनुष्ठान

आदि शंकर द्वारा नियोजित मंदिर के सभी दैनिक अनुष्ठानों का पूर्ण श्रद्धा से पालन किया जाता है। सभी वैदिक संस्कारों का अत्यंत शुद्धता से पालन किया जाता है तथा मंदिर की पवित्रता बनाए रखी जाती है। भक्तों के लिए मंदिर के पट प्रातः ३ बजे खुलते हैं तथा संध्या पूजन के पश्चात रात्रि १० बजे पट बंद कर दिए जाते हैं। मंदिर में तीन प्रमुख पूजा-अर्चनाएँ की जाती है जिन्हे प्रातः पूजन, दोपहर पूजन एवं संध्या पूजन कहा जाता है।

शेषशायी विष्णु - मंदिर की भित्तियों पे
शेषशायी विष्णु – मंदिर की भित्तियों पे

प्रातः पूजन(उषा पूजन)

निर्माल्यम्

प्रातः ३ बजे जब मंदिर के पट खुलते हैं, निर्माल्यम् द्वारा प्रातः पूजन का आरंभ होता है। भगवान के प्रथम दर्शन को निर्माल्य दर्शन कहते हैं। पिछली रात्रि की प्रगाड़ निद्रा के पश्चात जब भगवान को उठाया जाता है तब उनके निर्माल्य दर्शन का सौभाग्य भक्तों को भी प्राप्त होता है। उनके ऊपर पिछले दिवस के सर्व अलंकार होते हैं। इस दर्शन को सर्वाधिक पवित्र दर्शन माना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इस समय भगवान सर्वाधिक शक्तिशाली होते हैं।

वाकचारथ

निर्माल्य दर्शन के पश्चात तिल के तेल द्वारा भगवान को स्नान कराया जाता है। भगवान की प्रतिमा शिला द्वारा बनायी गई है जिसमें औषधिक गुण हैं। इसीलिए जिस तेल द्वारा भगवान को स्नान कराया जाता है, उसे प्रसाद माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह प्रसाद रूपी तेल पक्षाघात सहित अनेक असाध्य रोगों का समाधान करने में सक्षम है। मंदिर की विक्रय खिड़की में यह तेल उपलब्ध है। आप चाहें तो क्रय कर सकते हैं। स्नान के पश्चात भगवान की पूर्ति पर जड़ी-बूटियों के मिश्रण का लेप लगाया जाता है। इस मिश्रण को वाक कहा जाता है।

मालेर नैवेद्यम

लेप के पश्चात भगवान को जल स्नान कराया जाता है। इसके लिए मंदिर के जलकुंड से पुजारीजी तीर्थ जल लाते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव(रुद्र) ने परिवार सहित इस स्थान पर भगवान विष्णु की आराधना की थी। यही कारण है कि इस जलकुंड को रुद्रतीर्थम कहा जाता है। शंख द्वारा यह जल भगवान की मूर्ति पर अर्पित जाता है। अभिषेक के पश्चात मूर्ति को वस्त्रों एवं अलंकरणों से सजाते हैं। चंदन का लेप लगाते हैं तथा आभूषणों से अलंकृत करते हैं। सम्पूर्ण अलंकरण बाल कृष्ण के स्वरूप का होता है। लाल धोती धारण किए तथा हाथों में बाँसुरी एवं माखन लिए हुए बाल कृष्ण। मालेर नामक नैवेद्यम या प्रसाद भगवान को अर्पित किया जाता है जो मुरमुरे के समान दिखता है।

उषा नैवेद्यम तथा एथिरेत्तु पूजा

मालेर नैवेद्यम के पश्चात गर्भगृह के पट उषा पूजा हेतु बंद किए जाते हैं। भगवान को माखन, नेई पायसम, केले का एक विशेष प्रकार, गुड़, एक विशेष प्रकार की शक्कर, कई मिठाइयां इत्यादि अनेक प्रकार के नैवेद्यम अर्पित किए जाते हैं। यह पूजा सूर्य उदय होने के पूर्व ही आरंभ हो जाती है। जब तक सूर्य की प्रथम किरण पूर्व-मुखी भगवान के चरणों पर ना पड़े, यह पूजा अनवरत जारी रहती है। इसी समय गणपती होम तथा अन्य भगवानों की पूजा अर्चना भी समानांतर रूप से की जाती है।

शीवेली

प्रातः पूजन के पश्चात भगवान की सोने एवं चांदी में गढी प्रतिमाओं को मंदिर के गज की पीठ पर बैठाकर मंदिर परिसर मे उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा को शीवेली कहा जाता है। यह शोभायात्रा प्रतिदिन तीन बार निकली जाती है। मंदिर के स्वामित्व में ६९-८० गज इस अनुष्ठान के लिए उपलब्ध हैं। स्थान की कमी के रहते उन्हे मंदिर से ३ किलोमीटर दूर एक विशेष आश्रय में रखा गया है। उनकी देखरेख मंदिर प्रशासन ही करता है। शीवेली के समय चयनित गज को यहाँ लाया जाता है। आप यदि उन्हे देखना चाहें तो यहाँ से औटोरिक्षा लेकर जा सकते हैं। नाममात्र शुल्क पर आप इन्हे देख सकते हैं।

सामान्यतः स्वर्ण प्रतिमा की शोभायात्रा होती है। किन्तु विशेष अवसरों पर चांदी की प्रतिमा भी निकाली जाती है। इस आयोजन का प्रमुख उद्देश्य यह है कि भगवान अपने रक्षकों, अष्टदिग्पालों, सप्तमातृकाओं, वीरभद्र एवं गणपती को अर्पित किए गए भोजन का निरीक्षण करते हैं।

पालभिषेकम् तथा नवभिषेकम्

शीवेली के पश्चात, मूर्ति को मंदिर के कुएं से लाए गए जल से पुनः स्नान कराया जाता है। इसके पश्चात अभिषेकम् किया जाता है जिसमें मूर्ति को दूध, नारियल पानी तथा गुलाब जल में डुबाया जाता है। तदनंतर मूर्ति को पीत वस्त्र धारण करवा कर किशोर वय के कृष्ण का स्वरूप दिया जाता है।

पंद्रयान्डी पूजा

यह पूजा कुछ पारंपरिक पुरोहित करते हैं। पंद्रयान्डी का अर्थ है १२ फीट। सूर्य की किरणें जब मूर्ति पर पड़ती हैं तब उसके द्वारा बनी छाया की लंबाई से इस नाम का संबंध है। इस पूजा के पश्चात मंदिर के पट दर्शन के लिए खोल दिए जाते हैं। अगले अनुष्ठान तक मंदिर के पट भक्तों के लिए खुले रहते हैं।

दोपहर का पूजन अर्थात् उच्च पूजा

गुरुवायुर मंदिर का दीपस्तंभ
गुरुवायुर मंदिर का दीपस्तंभ

उचा पूजा दोपहर ११:३० बजे के पश्चात की जाती है। इस समय मंदिर भक्तों के लिए बंद होता है। यह पूजा द्वार बंद कर की जाती है। पूजा के समय भगवान को पायसम अथवा खीर का विशेष पूजा प्रसाद अर्पित किया जाता है। मंदिर के गायक जयदेव के गीत गोविंद की पंक्तियाँ गाते हैं। इसके पश्चात १२:३० बजे मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। संध्या पूजन एवं दर्शन हेतु संध्या ४:३० बजे पुनः पट खोले जाते हैं।

संध्या पूजन

संध्या पूजा का आरंभ दीप आराधना से होता है। सूर्यास्त के पश्चात, मंत्रोच्चारण के मध्य दीपों को प्रज्ज्वलित कर मंदिर को जगमगाया जाता है। कपूर आरती के लिए गर्भगृह पुनः खुलता है।

दिन की अंतिम पूजा के लिए रात्रि ७:३० बजे मंदिर बंद होता है। भगवान को विभिन्न पक्वान्न अर्पित किए जाते हैं। नैवेद्यम् में अप्पम, अड़ा, पालपायसम, पान तथा सुपारी प्रस्तुत किए जाते हैं। पूजा के पश्चात भगवान को पुनः शीवेली अनुष्ठान के लिए गज की पीठ पर बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। रात्रि में जगमगाती यह शीवेली अत्यंत दर्शनीय होती है।

यहाँ का एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है थ्रीपक्क जिसमें गर्भगृह को एक विशेष चूर्ण के ताजे धुएं से भरते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह चूर्ण श्वास रोगों के निवारण हेतु अत्यंत उपयोगी है।

एक चौखट पर भक्तगण अनेक दीप प्रज्वलित करते हैं जिसे विलक्कुमाथम कहते हैं। मंदिर के चारों ओर प्रज्वलित असंख्य दीपों का दृश्य अभूतपूर्ण प्रतीत होता है।

ऐसे ही धार्मिक अनुष्ठान नाथद्वारा के श्रीनाथजी के लिए भी किए जाते हैं।

अन्य प्रतिमाएं

मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिर भी हैं जो शास्ता , दुर्गा, सुब्रमन्य, अनंत तथा गणपती को समर्पित हैं।

गर्भगृह के चारों ओर अनेक छोटी शिलाएं हैं जिन्हे बलिकल्लु कहा जाता है। ये अष्टदिग्पालिकाओं अर्थात् आठ दिशाओं के देवों तथा सप्तमातृकाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

गुरुवायुर मंदिर की संरचना

केरल की चित्रकला शैली
केरल की चित्रकला शैली

गुरुवायुर मंदिर केरल के मंदिरों की विशेष वास्तुशैली के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। दो गोपुरों के मध्य से आप मंदिर के भीतर प्रवेश कर सकते हैं। एक पूर्व दिशा में है तथा दूसरा पश्चिम दिशा में स्थित है। दोनों गोपुरों के दो दीप स्तंभ हैं। गोपुरम के भीतर से आप एक प्रांगण में पहुंचते हैं जिसके मधोमध मुख्य मंदिर स्थित है। मंदिर की शुंडाकार छत पर खपरैल की टाइलें बिठायी हुई हैं। प्रांगण के भीतर अन्य कई मंदिर भी हैं जो विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित हैं। अधिकतर मंदिर केवल एकल कक्ष हैं जिस के भीतर भगवान स्थापित हैं। सब के छतों पर खपरैल की टाइलें बिठायी हुई हैं।

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प्रांगण के मध्य में स्तंभों वाला विशाल कक्ष है जिसके समक्ष एक ध्वजस्तंभ है। पूर्वी गोपुरम की ओर एक दीपस्तंभ है। स्तंभों वाला यह विशाल कक्ष हमें श्रीकोविल अर्थात् मुख्य मंदिर की ओर ले जाता है। इस श्रीकोविल का सबसे भीतरी कक्ष गर्भगृह कहलाता है जहाँ भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। गर्भगृह के समक्ष मुखमंडप है। मुखमंडप के बाहर नमस्कार मंडप है।

गणेश मंदिर

मंदिर के दक्षिणी ओर गणेश भगवान का मंदिर है। श्रीकोविल को घेरता एक कक्ष है जिसमें श्री कृष्ण की जीवनी का प्रदर्शन करते अनेक शिल्प हैं। निद्रामग्न विष्णु की शेषशय्या स्वरूप में एक विशाल छवि है जिसमें भूदेवी एवं श्रीदेवी उनके दोनों ओर स्थित हैं। इसे थिरुवनंतपुरम के पद्मनाभस्वामी मंदिर के समान बताया जाता है।

उत्तर दिशा में स्थित निकास द्वार से आप एक कक्ष सदृश संरचना के भीतर पहुंचते हैं जहाँ भक्तगण प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। उत्तर-पूर्वी दिशा में देवी को समर्पित एक मंदिर है। मुख्य मंदिर के दक्षिणी ओर शास्ता या श्री एयप्पा को समर्पित एक मंदिर है। दक्षिणी ओर स्थित कक्ष के भीतर प्रसाद पकाने के लिए कई विशाल पात्र रखे हुए हैं। उत्तरी दिशा में मंदिर का जलकुंड तथा कुआं हैं। भीतरी गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर कृष्णलीला को सजीव करते अनेक भित्तिचित्र हैं।
भगवान की मूल प्रतिमा पातालँजना शिला नामक पवित्र शिला द्वारा बनाई गई है।

परिधान-संहिता

मंदिर के भीतर परिधान संहिता का कठोरता से पालन किया जाता है। पुरुषों को कुर्ता अथवा शर्ट के बिना, केवल धोती पहननी पड़ती है। स्त्रियाँ केवल साड़ी, कुर्ते के साथ लंबा केरल लहंगा अथवा सलवार-कुर्ता पहन सकती हैं।

गुरुवायुर मंदिर के उत्सव

उल्सवम् – यह उत्सव फरवरी-मार्च में मनाया जाता है। दस दिवसों का यह उत्सव ध्वजस्तंभ पर ध्वज फहराकर आरंभ किया जाता है।

विषु –मलयाली नव-वर्ष का यह उत्सव इस मंदिर का प्रमुख आयोजन होता है।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी – यूँ तो श्री कृष्ण जन्माष्टमी अर्थात् श्री कृष्ण के जन्म का उत्सव अगस्त-सितंबर मास में सम्पूर्ण भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। यह उत्सव यहाँ भी अत्यंत लोकप्रिय है।

माम्मियुर श्री महादेव मंदिर

माम्मियुर श्री महादेव मंदिर
माम्मियुर श्री महादेव मंदिर

समीप ही एक लोकप्रिय महादेव मंदिर स्थित है। प्रमुख अधिष्ठात्र देव भगवान शिव हैं। इसका निर्माण शिवालय शैली में किया गया है। परिसर में स्थित अन्य छोटे मंदिर गणपती, विष्णु, सुब्रमन्य, अयप्पा तथा काली को समर्पित हैं। यहाँ के दो प्रमुख उत्सव शिवरात्रि तथा अष्टमी रोहिणी हैं। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन के उपरांत ही इस नगरी की यात्रा सम्पूर्ण होती है।

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यात्रा सुझाव

• मंदिर के समीप अनेक अतिथिगृह हैं। पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों के रहने के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं।
• कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम की बसें राज्य के अनेक भागों से तथा अनेक अंतर-राज्यीय बसें भी यहाँ तक पहुँचती हैं।
• दोपहर १२:३० बजे से संध्या ४:३० बजे तक मंदिर के पट बंद रहते हैं।
• मंदिर के भीतर परिधान-संहिता का कड़ाई से पालन किया जाता है। अतः उपयुक्त परिधान धारण करें।
• मंदिर के भीतर मोबाईल यंत्र ले जाना पूर्णतः निषिद्ध है। अमानती सामानघर की सुविधाएँ उपलब्ध हैं जहाँ आप जूते, मोबाईल तथा अन्य व्यक्तिगत सामान रख सकते हैं।
• यहाँ की दुकान से आप प्रसादम् तथा अभिषेक का तेल क्रय कर सकते हैं।
• यहाँ अनेक दुकानें हैं जहाँ केरल दीप जैसी वस्तुएं तथा पूजा से संबंधित अन्य सामग्रियों की विक्री की जाती है। इन वस्तुओं का मूल्य बहुधा अधिक बताया जाता है। अतः आप अपनी समझ के अनुसार मोल-भाव करके ही इन्हे क्रय करें। केरल के स्मृति चिन्ह के रूप में आप क्या क्रय कर सकते हैं, उनके अनेक पर्याय इन संस्करण में देखें।
• यहाँ का रेल स्थानक मंगलुरु-मद्रास रेलमार्ग से त्रिशूर में जुड़ता है।
• कोची एवं कोजिकोड (कालीकट), दो निकटतम विमानतल हैं।

यह यात्रा संस्करण श्रुति मिश्रा द्वारा Inditales Internship Program के अंतर्गत साझा किया गया है।


श्रुति मिश्रा एक व्यावसायिक बँककर्मी हैं। उन्हे भिन्न भिन्न स्थानों की यात्रा कर वहाँ की समृद्ध धरोहरों को जानने व समझने तथा वहाँ के स्थानीय व्यंजनों का आस्वाद लेने में अत्यंत रुचि है। उन्हे किताबें पढ़ने तथा अपने परिवार के लिए भोजन बनाने में भी अत्यंत आनंद आता है। वे बंगलुरु की निवासी हैं। इनकी अभिलाषा है कि वे सम्पूर्ण भारत की समृद्ध धरोहरों के दर्शन करें तथा उन पर एक पुस्तक प्रकाशित करें।


अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

4 COMMENTS

  1. आपके हिंदीमे अनुवादित लेख द्वारा गुरुवायुर मंदिर और उसके भगवान गुरुवायुरप्पन के बारेमें महत्वपुर्ण जानकारी मिली.गुरुवायुर शब्द का संधिविच्छेद (गुरु)बृहस्पति याने ज्ञान और वायु मतलब शक्ति ये दोनो जहां होंगे वहां वैकुंठ तो होगाही.रामदास स्वामीने लिखा है “शक्ति युक्ति जये ठाई श्रीमंत तेथे धावती.”
    मंदिर से जुडी दंतकथा और उसके इतिहास का वर्णन भी विस्तृत रुप से किया गया है. मंदिर के फोटो से स्पष्ट होता है कि मंदिर बहुतही विशाल है,उसके स्तंभ,दरवाजे बहुतही नक्क्षीकाम वाले और भित्तीचित्र सुंदर.श्री गुरुवायुरप्पन की मुर्ति भी मनमोहक है.मंदिर रात्री को ३ बजे खुलता है भगवान के इस निर्माल्य दर्शन को सबसे अधिक पवित्र माना जाता है.गीता में लिखा गया है
    “या निशा सर्व भुतानां तस्यां जाग्रति संयमी”.जिस तेल से भगवान को स्नान कराया जाता है,उसको प्रसाद स्वरुप माना जाता है.क्यो न हो श्रध्दा सेही तो संकल्प बनता है.इस संकल्प सेही ” पंगुम् लंघयते गिरीम्” सिध्द होता है.आपने गुरुवायुरप्पनकी दिनमे तीन बार होनेवाली पुजाओं तथा शीवेली याने भगवान की गजराज पर की शोभायात्रा का वर्णन भी सुंदर है. ‌‌ ‌ ‌‌‌‌
    मंदिर के दीपस्तंभ भव्य है तथा उसकी संरचना का वर्णन बहुत रोचक तरीके से किया गया है.सच कहूं तो गुरुवायुर मंदिर और उसके आस -पास स्थित मंदिरों का वर्णन इतना आकर्षक और वास्तविक किया गया है, कि वाचक को मंत्रमुग्ध कर साक्षात दर्शन का आभास कराता है.इसके-लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद.

  2. श्रुति जी ,
    भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित,गुरूवायुर मंदिर का बहुत ही सुंदर शब्द चित्रण । सदीयों पूर्व निर्मित इस प्रसिद्ध मंदिर के बारे में प्रचलित किंवदंतीयों से ज्ञात होता हैं कि प्राचीन काल से ही यह मंदिर भगवान गुरूवायुरप्पन मे लोगों की आस्था का एक सशक्त केन्द्र बिन्दु रहा हैं जो आज भी हैं । आलेख में मंदिर में सम्पन्न होने वाली दैनिक पूजा तथा अनुष्ठानों का सविस्तर एवम् सुंदरता
    से वर्णन किया गया है । भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित प्रमुख मंदिरों में सामान्यत: इसी प्रकार से दैनिक पूजा अर्चना की जाती है फिर चाहे वो गुजरात में स्थित श्री डाकोरजी और श्री द्वारकाधीशजी के मंदिर हो अथवा नाथद्वारा के श्रीनाथजी या भारत तथा विभिन्न देशों में स्थित इस्कॅान मंदिर हो ।
    यह जानकर अचरज होता है कि भगवान की शोभायात्रा “शीवेली” में कुछ विशेष अवसरों पर ही चांदी की प्रतिमा निकाली जाती हैं अन्यथा सामान्यतः स्वर्ण प्रतिमा की शोभायात्रा निकाली जाती है ।
    आलेख से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत के अन्य मंदिरों की भांति ही इस मंदिर की वास्तु शिल्प भी अद्भुत हैं ।
    सुंदर, पठनीय एवम् ज्ञानवर्धक आलेख हेतू साधुवाद !

  3. गुरुवायुर मंदिर का बहुत ही सुंदर व कलात्मक वर्णन आपने किया है तथा दक्षिण की मनभावक वास्तुशैली से वहाँ के मंदिर की भव्यता व सुंदरता देखते ही बनती है और आपके द्वारा भी जो इतना सुंदर चित्रण किया जाता है वह ऐसा लगता है कि साक्षात देख रहे है। साधुवाद।????????

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